पापा के लिए- भाग 2: सौतेली बेटी का त्याग

पूरे 16 साल हो गए इस घर में आए, बचपन की दहलीज को पार कर जवानी भी आ गई, लेकिन नहीं आई तो वह घड़ी, जिस को आंखों में सजाए मैं इतनी बड़ी हो गई. इस बीच अमन और श्रेया तो मुझे थोड़ाबहुत अपना समझने लगे थे लेकिन पापा… हर वक्त उन के बारे में सोचते रहने के कारण मुझ में उन का प्यार पाने की चाह बजाय कम होने के बढ़ती ही जा रही थी. मैं हर वक्त पापा के लिए, अपने छोटे भाईबहन के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती.

बचपन में कितनी ही बार अमन और श्रेया का होमवर्क पूरा करवाने के चक्कर में मेरा खुद का होमवर्क, पढ़ाई छूट जाते थे. मुझे स्कूल में टीचर की डांट खानी पड़ती और घर में मम्मी की. वे मुझ पर इस बात को ले कर गुस्सा होती थीं कि मैं उन लोगों के लिए क्यों अपना नुकसान कर रही हूं, जिन्हें मेरी कोई परवाह ही नहीं. जिन्होंने अब तक मुझे थोड़ी सी भी जगह नहीं दी अपने दिल में.

जब 12 साल की थी तो मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन श्रेया की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. मम्मीपापा कंपनी के किसी काम से बाहर गए थे, दादी के साथ हम तीनों बच्चे ही थे. दादी को तो वैसे ही घुटनों के दर्द की प्रौब्लम रहती थी, इसलिए वे तो ज्यादा चलतीफिरती ही नहीं थी. पापामम्मी ने अमन को कभी कुछ करने की आदत डाली ही नहीं थी, उस का हर काम लाड़प्यार में वे खुद ही जो कर देते थे. मुझे ही सब लोगों के तिरस्कार और वक्त ने समय से पहले ही बहुत सयानी बना दिया था. तब मैं ने डाक्टर को फोन कर के बुलाया, फिर उन के कहे अनुसार सारी रात जाग कर उसे दवा देती रही, उस के माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रही.

अगले दिन जब मम्मीपापा आए श्रेया काफी ठीक हो गई थी. उस ने पापा के सामने जब मेरी तारीफ की कि कैसे मैं ने रात भर जाग कर उस की देखभाल की है, तो उन कुछ

पलों में लगा कि पापा की नजरें मेरे लिए प्यार भरी थीं, जिन के बारे में मैं हमेशा सपने देखा करती थी.

उस के बाद एक दिन वे मेरे लिए एक सुंदर सी फ्राक भी लाए. शायद अब तक का पहला और आखिरी तोहफा. मुझे लगा कि अब मुझे भी मेरे पापा मिल गए. अब मैं भी श्रेया की तरह उन से जिद कर सकूंगी, उन से रूठ सकूंगी, उन के संग घूमनेफिरने जा सकूंगी, लेकिन वह केवल मेरा भ्रम था.

2-4 दिन ही रही स्नेह की वह तपिश, पापा फिर मेरे लिए अजनबी बन गए. उन का वह तोहफा, जिसे देख कर मैं फूली नहीं समा रही थी, उन की लाडली बेटी की देखभाल का एक इनाम भर था. लेकिन अब मेरा सूना मन उन के स्नेह के स्पर्श से भीग चुका था. मैं पापा को खुश करने के लिए अब हर वह काम करने की फिराक में रहती थी, जिस से उन का ध्यान मेरी तरफ जाए. अब बरसों बाद मुझे उन के लिए कुछ करने का मौका मिला है, तो मैं पीछे क्यों हटूं? मम्मी की बात क्यों सुनूं? वह क्यों नहीं समझतीं कि पापा का प्यार पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.

पापा की तबीयत इधर कई महीनों से खराब चल रही थी. बुखार बना रहता था हरदम. तमाम दवाएं खा चुके लेकिन कोई फायदा ही नहीं. अभी पिछले हफ्ते ही पापा बाथरूम में चक्कर खा कर गिर पड़े. उन्हें तुरंत अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा. सारे चैकअप होने के बाद डाक्टर ने साफ कह दिया कि पापा की दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं. अगर हम उन्हें बचाना चाहते हैं तो तुरंत ही एक किडनी का इंतजाम करना होगा. घर का कोई भी स्वस्थ सदस्य अपनी एक किडनी दे सकता है. एक किडनी से भी बिना किसी परेशानी के पूरा जीवन जिया जा सकता है, कुछ लोग हौस्पिटल में मजबूरीवश अपनी किडनी बेच देते हैं, लेकिन फिलहाल तो हौस्पिटल में ऐसा कोई आया नहीं. पापा को तो जल्दी से जल्दी किडनी प्रत्यारोपण की जरूरत थी. उन की हालत बिगड़ती ही जा रही थी. पापा की हालत देखदेख मेरा मन रोता रहता था. समझ ही नहीं आता था कि क्या करूं अपने पापा के लिए?

हफ्ते भर से पापा अस्पताल में ही ऐडमिट हैं. अभी तक किडनी का इंतजाम नहीं हो पाया है. दादी, श्रेया, मैं, अमन, मम्मी सभी अस्पताल में थे इस वक्त. दादी की किडनी के लिए तो डाक्टर ने ही मना कर दिया था कि इस उम्र में पता नहीं उन की बौडी यह औपरेशन झेल पाएगी या नहीं. दादी के चेहरे पर साफ राहत के भाव दिखे मुझे.

पापा की अनुपस्थिति में मम्मी पर ही पूरी कंपनी की जिम्मेदारी थी, इसलिए वे आगे बढ़ने से हिचक रही थीं, वैसे ही तबीयत खराब होने की वजह से पापा बहुत दिनों से कंपनी की तरफ ध्यान नहीं दे पा रहे थे. कंपनी के बिगड़ते रिजल्ट इस के गवाह थे. मम्मी भी क्याक्या करतीं. श्रेया तो थी ही अभी बहुत छोटी, उसे तो अस्पताल, इंजैक्शन, डाक्टर सभी से डर लगता था. और अमन, उसे तो दोस्तों के साथ घूमनेफिरने और आवारागर्दी से ही फुरसत नहीं है. पापामम्मी के ज्यादा लाड़प्यार और देखभाल ने उसे निरंकुश बना दिया था. मेरे साथ उस ने भी इस साल ग्रैजुएशन किया है, लेकिन जिम्मेदारी की, समझदारी की कोई बात नहीं. पता नहीं, सब से आंख बचा कर कब वह बाहर निकल गया, हमें पता ही नहीं चला. तब मम्मी ही आगे बढ़ कर बोलीं, ‘‘डाक्टर, अब देर मत करिए, मेरी एक किडनी मेरे पति को लगा दीजिए.’’

Father’s Day Special- मुट्ठीभर स्वाभिमान: भाग 2

‘तो मैं क्या करूं? मुझे भी तो घूमने के कभीकभी ही अवसर मिलते हैं,’ शांता का रोषपूर्ण स्वर था.

और अधिक सुनने का साहस न था दीनानाथजी में. सो, कमरे का दरवाजा बंद कर हाथ की किताब रख दी और बत्ती बुझा कर सोने की चेष्टा करने लगे. किंतु कहां थी नींद आंखों में? बंद भीगी पलकों में वे सुनहरे छायाचित्र तैर रहे थे, जो पत्नी के साथ बिताए 40 वर्षों की देन थे.

अपना एकाकीपन आज उन्हें बुरी तरह झकझोर गया. फिर भी स्वाभिमान के धनी थे. इसलिए सुबह होते ही सुकांत से अपने वापस जाने की इच्छा प्रकट की. किंतु सुकांत अटल था अपने निश्चय पर कि बाबूजी यहीं रहेंगे. सो, वे वहीं रहे. सुकांत अकेला ही जरमनी गया. सुकांत के बिना वह पूरा 1 महीना दीनानाथजी ने लगभग मौनव्रत रख कर ही काटा.

और फिर एक दिन उन के दांत में बेहद दर्र्द होने लगा. सारा दिन दर्द से तड़पते रहे. अपने देश में तो दंतचिकित्सक था, जो एक फोन करते ही उन्हें आ कर देख जाता था. दवा तक खरीदने जाना नहीं पड़ता था. वही खरीद कर भिजवा देता था. किंतु यहां? यहां तो वे असहाय से मफलर से मुंह लपेटे दफ्तर से सुकांत के घर लौटने का इंतजार करते रहे. यहां न तो वे गाड़ी चला सकते थे और न ही उन्हें किसी डाक्टर का पता मालूम था.

शाम को सुकांत लौटा तो बाबूजी का सूजा हुआ गाल देख कर सब समझ गया. पिता को गाड़ी में बिठा कर तुरंत दंतचिकित्सक के पास ले गया. 80 डौलर ले कर डाक्टर ने उन्हें देखा और फिर आगे के स्थायी इलाज के लिए लगभग 3,000 डौलर का खर्चा सुना दिया. दवा आदि ले कर जब सुकांत बाबूजी के साथ घर लौटा तो उस का चेहरा खिलाखिला सा था कि बाबूजी को अब आराम आ जाएगा.

किंतु रात को खाने की मेज पर बैठे दलिया खा रहे दीनानाथजी से शांता कह ही उठी, ‘बाबूजी, आप को भारत से स्वास्थ्य संबंधी बीमा पौलिसी ले कर ही आना चाहिए था. अब देखिए न, अभी तो डाक्टर ने 80 डौलर सिर्फजांच करने के ही ले लिए, इलाज में कितना खर्च होगा, कुछ पता नहीं.’

‘बस करो शांता,’ सुकांत कड़े स्वर में बोला, ‘यह मत भूलो कि बाबूजी अपना टिकट खुद खरीद कर आए हैं, तुम से नहीं मांगा है…’

‘तुम भी यह मत भूलो सुकांत कि जो पैसा बाबूजी पर खर्च हो रहा है, वह आखिरकार हमारा है,’ तलवार की धार जैसे इस एक ही वाक्य से दीनानाथजी का सीना चीर कर बहू उठ खड़ी हुई और अपने कमरे में जा कर झटके से दरवाजा बंद कर लिया.

सुकांत स्तब्ध रह गया. शांता के इस लज्जाजनक व्यवहार की तो उस ने कभी कल्पना भी न की थी. दीनानाथजी खामोश, मुंह झुकाए अपमानित से बैठे रहे. बात का रुख यह मोड़ लेगा, उन्हें उम्मीद न थी.

दूसरे दिन सुकांत को अकेला पा कर दीनानाथजी ने उस से अपने वापस लौटने की इच्छा जाहिर की. न चाहते हुए भी सुकांत को उन के निश्चय के आगे झुकना पड़ा. सो, भारत जा रहे अपने एक मित्र के साथ उन के वापस लौटने का प्रबंध कर दिया.

70 वर्ष की आयु में दीनानाथजी ने अपने इस एकाकी जीवन का एक नया अध्याय शुरू किया. घर में सबकुछ यथास्थान था. पत्नी घर को सदा ही सुव्यवस्थित रखती थी. बैंक में पैसा था और पैंशन भी आती थी. फिर किसी बात की दिक्कत क्यों होगी भला?

यही सब सोचते हुए उन्होंने यारदोस्तों से एक छोटे नौकर के लिए भी कह छोड़ा. किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था.

6 महीने भी न निकल पाए, वे अकेले टूट से गए थे. बहुत सालता था यह एकाकी जीवन. पढ़नेलिखने के शौकीन थे, सो, किताबें पढ़ कर कुछ समय कट जाता था. किंतु आखिर कोई बोलने वाला भी तो होना चाहिए घर में. आखिरकार उन्होंने डायरी लिखनी शुरू की और डायरी के पहले पन्ने पर लिखा, ‘सुकांत व शांता के नाम.’

अंत्येष्टि के सारे कामों से फुरसत पाने के बाद सुकांत को ध्यान आया कि बैंक व घर के कागजों को भी संभालना है. सभी चीजें बड़ी वाली अलमारी में बंद होंगी, वह जानता था. सारे कागज संभालना मां की जिम्मेदारी थी और बाबूजी उन के द्वारा रखी चीजों की जगह को कभी नहीं बदलते थे, यह भी वह जानता था. अलमारी की चाबी उसे पहले की ही तरह एक कागज के लिफाफे में लिपटी मिली. ‘कुछ भी तो नहीं बदला यहां,’ सुकांत सोचता रहा कि सबकुछ वैसा ही है. उस की मां नहीं बदली, बाबूजी नहीं बदले. बदल गया तो केवल वह खुद. और अब पहली बार सुकांत अकेले में फूटफूट कर रोया. घर की सूनी दीवारों ने मानो उसे अपने सीने में समेट लिया.

दूसरे दिन सुबह शांता का फोन आ गया, ‘‘कैसे हो? सब ठीक तो है न? फोन भी नहीं किया तुम ने?’’

‘‘सब ठीक है,’’ सुकांत का दोटूक जवाब था.

‘‘अरे, बोल कैसे रहे हो?’’ आदत के मुताबिक झल्ला उठी शांता, ‘‘हुआ क्या है तुम्हें?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ सुकांत अपनेआप पर नियंत्रण रखे था.

‘‘तो फिर,’’ शांता के स्वर में बेचैनी थी, ‘‘जल्दी ही सब काम निबटा कर वापस आने की कोशिश करो. बैंक के खाते और मकान के कागज तुम्हारे नाम हुए कि नहीं? बाबूजी की वसीयत तो होगी?’’

सुकांत ने बिना उत्तर दिए फोन रखदिया. विरक्ति से भर उठा वह. उस का हृदय मानो हाहाकार कर रहा था कि कैसी है यह स्त्री, जिसे पैसे के सिवा कुछ और दिखाई ही नहीं देता और क्यों वह स्वयं इतना कमजोर बन गया कि उस ने कभी शांता के इन विचारों पर अंकुश नहीं लगाया. इस भयावह स्थिति का जिम्मेदार वह खुद को मान रहा था.

सुकांत का सिर दर्द से फट रहा था. रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए थे, बल्कि सच तो यह था कि सुकांत ने ही हाथ जोड़ कर उन से विनती की थी कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए. कुछ को बुरा भी लगा, किंतु विरोध नहीं किया किसी ने भी. विदेश में बसे लोगों की मानसिकता कुछ भिन्न हो जाती है और यदि साफ शब्दों में कहें तो कुछ ऐसा कि उन का खून सफेद हो जाता है, यही मान कर चुपचाप चले गए सब.

जातेजाते चाची ने खाने के लिए भी पूछा, किंतु सुकांत ने मना कर दिया. पर अब एक प्याला चाय या कौफी चाहिए थी उसे, सो रसोई में चला गया. कौफी तो थी ही नहीं, क्योंकि मांबाबूजी चाय ही पीते थे. चीनी व चाय की पत्ती 2 डब्बों में मिल गई. दूध नहीं था. सो, बिना दूध की चाय ही बना ली. फिर रसोई में पड़े स्टूल पर बैठ गया.

उसे अच्छी तरह याद था कि मां रसोई में काम करती रहती थीं और बाबूजी इसी स्टूल पर बैठे उन से बातें करते हुए उन का हाथ बंटाने की कोशिश करते रहते. एक हूक सी उठी सुकांत के हृदय में… कितने अच्छे थे वे दिन…अपनेआप में परिपूर्ण और जीवंत. उसे लगा कि अब वह एक बनावटी जिंदगी जी रहा है.

चाय पी कर सुकांत का मन कुछ हलका हुआ तो उस ने यह सोच कर अलमारी खोली कि आखिर कागजों का काम तो निबटाना ही होगा. बड़ीबड़ी 2 फाइलों में बाबूजी ने सारे कागज सिलसिलेवार लगा रखे थे. उन्हीं कागजों में उन की वसीयत भी थी. वैसे वसीयत की कोई खास आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सुकांत अपने मातापिता की अकेली संतान था. किंतु दीनानाथजी की आदत हर काम को पक्के तौर पर करने की थी. आगेपीछे बहुत रिश्तेदार थे और सुकांत उतनी दूर विदेश में…किसी का क्या भरोसा?

Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 2

राबिया बेगम की इंगलैंड जाने की पेशकश सुन कर उन के दिमाग में 2 दिनों पहले बहू का बेहूदा डायलौग, ‘और लोगों की नजरों पर मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा,’ और उस के बाद उस की बेहया हंसी की याद उन्हें करंट का सा झटका दे गई. वे समझ गए कि बात राबिया बेगम तक पहुंच गई है, और उन्हें गहरे चुभ गई है. सोच कर वे बेहद मायूस हो गए. मगर बोले, ‘‘बेगम, अपने पासपोर्ट पता नहीं कब से रिन्यू नहीं हुए, शायद नए ही बनवाने पड़ें. अब इस उम्र में यह सब झंझट कहां होगा.’’

‘‘अरे, ऐसे कौन से बूढ़े हो गए हैं आप. और ये पासपोर्ट सिर्फ एक टर्म ही तो रिन्यू नहीं हुए हैं. ब्रिटिश एंबैसी के कल्चरल सैंटर में मेरी एक शार्गिद है, शायद वह कुछ मदद कर सके. कोशिश कर के देखते हैं, कह कर राबिया बेगम ने दोनों पासपोर्ट उन के आगे रख दिए और एक गहरी सांस ले कर बेबस निगाहों से डा. जाकिर की तरफ देखा तो वे फैसला करने को मजबूर हो गए.’’

जाकिर साहब की जानपहचान और व्यवहारकुशलता से एक महीने में दोनों के पासपोर्ट बन गए. अभी तक घर में उन्होंने इस बारे में खुल कर किसी से बात नहीं की थी. अब जब उन्होंने अपने दोनों के लंदन जाने की बात कही तो अजीब सी प्रतिक्रिया मिली. राबिया बेगम के लंदन जाने पर किसी को एतराज नहीं था. पर लड़के और बहुएं जाकिर साहब को जाने नहीं देना चाहते थे. राबिया बेगम से सिर्फ उन के पोते आमिर और समद ने नहीं जाने की मनुहार की थी. बहरहाल, कुछ समझाइश के बाद दोनों लंदन रवाना हो गए.

3 महीने बीत गए. एक दिन शाहिद ने उन को फोन किया और बोला, ‘‘अब्बू, आमों के बाग को ठेके पर देने का मौसम आ गया है,आप हिंदुस्तान कब आ रहे हैं, बहुत दिन हो गए, आ जाइए न.’’

फोन सुन कर उन्होंने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘साहबजादे, अगर आमों के बाग का ठेका देने के लिए ही मुझे आना है तो बेहतर है कि तुम अभी से इन सभी कामों को और दुनियादारी को समझ लो. भई, आगे भी तुम्हें ही सबकुछ देखना है.’’

‘‘अरे नहीं, अब्बू. बात यह है कि हम सब आप को बहुत याद कर रहे हैं,’’ अब की बहू की आवाज थी, ‘‘अब्बू, आमिर और समद भी आप को बहुत याद करते हैं.’’

‘‘वे सिर्फ  मुझे ही याद कर रहे हैं या…’’

‘‘अरे नहीं अब्बू, याद तो अम्मी को भी करते हैं, मगरवह क्या है कि वे तो अपनी संगीत की महफिलों वगैरा में व्यस्त रहती होंगी. इसलिए… इसलिए,’’ कहते हुए बहू अपनी बात जारी रखने के लिए शब्द नहीं मिलने से हकलाने लगी तो, ‘‘देखता हूं, 1-2 हफ्ते  बाद आने की कोशिश करूंगा,’’ कह कर जाकिर साहब ने फोन काट दिया.

कुछ दिनों बाद वे लौट आए तो देखा कि राबिया बेगम के सब से प्यारे सितार को कागज के कफन में लपेट कर कमरे के ताख पर रख दिया गया था. उन की गैर मौजूदगी में दोनों के कमरों का इस्तेमाल किया गया था. मगर उन की किताबों और राबिया बेगम के साजों की देखभाल कतई नहीं की गई थी. यह मंजर देख कर उन का मन खिन्न हो गया.

उस दिन रात को डाइनिंग टेबल पर उन्होंने शाहिद से कहा कि वह कल उन के साथ गांव चल कर आम के बाग को ठेके पर देने के संबंध में सारी बातें समझ ले. 3-4 रोज में वे लंदन वापस लौट जाएंगे तो शाहिद बोला, ‘‘अब्बू, आप वहां जा कर क्या करेंगे. अम्मी तो अपनी महफिलों में व्यस्त रहती होंगी, आप अकेले के अकेले…’’ बात अधूरी छोड़ कर वह पता नहीं क्यों रुक गया.

शाहिद की बात सुन कर आज पहली दफा उन को लगा कि उन के बेटे जवान और समझदार ही नहीं, दुनियादार भी हो गए हैं. अब उन की नजरों में राबिया बेगम का दरजा उन की मां का नहीं, बल्कि शायद अपने बाप की दूसरी बीवी का हो गया है. मगर उन की रगों में नवाबी खानदान का खून तथा तबीयत में अदब बसा हुआ था. इसलिए गुस्से को पी कर बोले, ‘‘शाहिद, अदब से बात करो, वे तुम्हारी मां हैं. उन्होंने तुम लोगों की परवरिश के लिए अपने कैरियर को ही कुरबान नहीं किया, एक इतनी बड़ी कुरबानी दी है जिसे तुम लोग जानते भी नहीं हो और न ही उस की अहमियत को समझते हो. जानना चाहोगे?’’ उन्होंने शाहिद को घूर कर देखते हुए कहा.

‘‘चलिए, उस कुरबानी को भी आज बता ही दीजिए,’’ शाहिद की आवाज में अब भी तल्खी थी.

‘‘शाहिद, हर औरत में मां बनने की अहम ख्वाहिश होती है. उस की जिंदगी का यह एक अहम मकसद होता है. मगर राबिया बेगम ने हम से निकाह के वक्त वादा किया था कि वह तुम दोनों को ही अपनी औलाद मान कर पालेगी. अपना वचन निभाने के लिए उस ने बिना कोई अपनी औलाद पैदा किए स्टर्लाइजेशन करा लिया, जिस से उस की अपनी औलाद पैदा होने की सूरत ही न बने. यह कोई मामूली बात नहीं है और तुम, तुम…’’ कहतेकहते दबाए गुस्से के कारण उन की आवाज कांप गई.

‘‘अब्बू, मैं आप की बहुत इज्जत करता हूं. मगर कुछ बातों पर मोहूम सा परदा ही रहे तो बेहतर है. वैसे, खुदकुशी को कुरबानी का दरजा दिया जाना भी सही नहीं है,’’ शाहिद की जबान में अब भी तल्खी कायम थी.

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, साफसाफ बोलो,’’ वे बोले तो उन की आवाज में अब की बार सख्ती थी.

‘‘बात यह है अब्बू, सभी चीजें उतनी खुशगवार और बेहतर नहीं थीं जितनी आप समझते रहे हैं. आप से निकाह करते वक्त मोहतरमा राबिया बेगम की नजरों में इस महानगर में एक बड़ी जमीन में बने हमारे इस आलीशान मकान और हमारी खानदानी जमीनजायदाद का खयाल बिलकुल नहीं था, यह बात कहना बिलकुल लफ्फाजी होगी. आप से निकाह के वक्त वे तलाकशुदा थीं तो उन्हें भी एक महफूज पनाह की जरूरत थी. रही बात स्टर्लाइजेशन कराने की, तो इस की वजह कोई पेचीदा जनाना मर्ज और यह खयाल भी हो सकता है कि इस निकाह का अंजाम भी अगर तलाक हुआ तो उस हाल में उन की अपनी औलाद उन की परेशानी की वजह बन सकती है. रही हमारी परवरिश की बात, वह तो आप अगर एक आया भी रख लेते तो यह काम तो वह भी करती ही. मगर उस हालत में आप की जिंदगी तनहा कटती.’’

शाहिद का संवाद और उस के मुंह से राबिया बेगम का नाम सुन कर जाकिर अली सन्न रह गए. यह वही शाहिद है जो डाइनिंग टेबल पर आने से पहले यह पूछता था कि अम्मी ने आज क्या पकाया है. 8वें दरजे में आने तक वह रात को अकसर अपने कमरे में से निकल आता और अपनी इसी अम्मी के पास सोने की जिद करता तो राबिया उसे अपने साथ सुला लेती थीं तो उसे मेहमानखाने में रात बितानी पड़ती थी.

उस समय शाहिद अपनी इन्हीं अम्मी के ही बेहद करीब था. आईआईटी में ऐडमिशन हो जाने पर वह अपनी इन्हीं अम्मी के गले में बांहें डाल कर लिपट कर रोया था-‘अम्मी आप साथ चलो, प्लीज अम्मी, कुछ दिनों के लिए चलो. आप नहीं चलोगी तो मैं भी नहीं जाऊंगा.’ और वह तभी गया था जब राबिया बेगम उस के साथ गई थीं और उस के पास से कुछ दिनों बाद नहीं, पूरे 3 महीने बाद अपना 4 किलो वजन खो कर लौटी थीं.

शाहिद की जिद सुन कर इन्हीं अम्मी के मां की मुहब्बत से लबरेज दिल और अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया कि वह आईआईटी में नए लड़कों की रैगिंग की बातें सुन कर बेहद घबराया हुआ है और अगर वे साथ नहीं गईं तो कुछ अप्रिय हो सकता है. वे एक बड़ी यूनिवर्सिटी से छात्र और अध्यापक दोनों रूप से लंबे अरसे तक जुड़ी रही थीं. सो वे यह बात जानती थीं कि यह रैगिंग जैसा परपीड़न का घिनौना आपराधिक काम करने वाले चंद वे स्टूडैंट होते हैं जो मांबाप की प्यारभरी तवज्जुह न मिलने से उपजे आक्रोश के साथ किसी न किसी तरह के अन्य मानसिक तनाव का शिकार होते हैं.

बहुत सोचसमझ कर राबिया बेगम ने एक योजना बनाई. जिस के तहत आईआईटी में पहुंच कर वे वहां के कोऔडिनेटर से मिलीं. उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और आने का मकसद बताया तो वे अपने स्तर पर उन्हें हर संभव सहयोग देने के लिए तैयार हो गए.

राबिया बेगम ने सब से पहले उन से उन संभावित लड़कों की जानकारी प्राप्त की जो उस साल के नवागंतुकों की रैगिंग करना अपना अधिकार समझते थे. फिर उन्होंने उन लड़कों से अलगअलग मुलाकात की. उन लड़कों से राबिया बेगम की ममताभरी लंबी बातचीत में यह बात निकल कर आई कि उन्हें कभी भी मांबाप की निकटता, उन की प्यारभरी देखभाल, स्नेहभरी डांटफटकार मिली ही नहीं थी. ज्यादातर लड़कों को तो यह भी याद नहीं था कि उन्हें मां ने कभी अपने हाथ से परोस कर खाना खिलाया था. वे तो मां के उस स्वरूप से परिचित ही नहीं थे जो गुस्सा होने पर बच्चे को मार तो देती है, मगर बाद में उस के रोने पर उस के साथ खुद भी रो लेती है.

पिता के बारे में उन का परिचय सिर्फ जरूरत पर पैसे मांगने पर पैसे देते हुए यह घुड़की, ‘अभी उस दिन तो इतने पैसे दिए थे. तुम्हारे खर्चे दिनपरदिन बढ़ते जा रहे हैं,’ देने वाले व्यक्ति के रूप में था. बच्चे इस बात से भी आक्रोशित थे कि उन के मांबाप उन पर जो खर्चा करते हैं उस का ढिंढोरा भी खूब पीटते हैं. इस के साथ, ये लड़के रैगिंग की पीड़ा झेलने के दमित आक्रोश का भी शिकार थे.

जब राबिया ने पहली बार उन15-12 लड़कों को अपने घर पर खाने को कहा तो वे भौचक्के रह गए. मगर राबिया बेगम का ममताभरा अनुरोध टाल भी नहीं सके. उन के आ जाने पर राबिया बेगम ने अपने हाथ से बना खाना परोस कर मां की तरह मनुहार कर के खिलाया तो खाना खत्म होने पर एक लड़का गुनगुनाने लगा, ‘तू प्यार का सागर है…’ लड़के की आवाज में सोज था मगर उसे आरोह और अवरोह का सही ज्ञान नहीं था. यह समझते हुए राबिया ने उसे गाने को प्रोत्साहित किया और बड़ी सावधानी से थोड़ी सी समझाइश के साथ उस से पूरा गाना गवाया.

लड़के समझ गए कि उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी है और वे बच्चों की तरह उन से गाना सुनाने की जिद करने लगे तो उन्होंने, ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी…’ गजल सुनाई. राबिया बेगम की सुरीली आवाज में पेश की गई गजल जब खत्म हुई तो संगीत की जानकारी रखने वाले ही नहीं, सभी लड़के बेहद भावुक हो गए और एक तो उन से ‘हाय अम्मी, आप इतना अच्छा गा भी सकती हो,’ कह कर उन से बच्चे की तरह लिपट गया.

इस के बाद तो राबिया बेगम ने अपना प्रोग्राम तय कर लिया था. वे रोज उन लड़कों को घर पर बुला लेती थीं, बल्कि कुछ दिन बीतते तो ज्यादातर लड़के उन्हें शरारती बच्चों की तरह घेरे रहने लगे थे. अब इन्हीं दमित आक्रोश के शिकार लड़कों ने घर की सफाई वगैरा से ले कर खाना बनाने और बरतन साफ करने तक में सामूहिक सहयोग करना शुरू कर दिया था. सब मिल कर खाना बनाते, फिर सहभोज होता था.

राबिया बेगम की ममता और व्यवहारमाधुर्य ने उन्हें रिश्तों की अहमियत सिखा दी थी. शुरू में जब लड़कों ने उन्हें मैडम कहा तो वे बोली थीं, ‘भई, मैं तुम्हारी टीचर थोड़े ही हूं.’ तब कुछ लड़कों ने उन्हें ‘आंटी’ कहा तो वे बोलीं, ‘यह आंटी कौन सा रिश्ता होता है. हमारी समझ में नहीं आया और अपन तो पूरी तरह देसी लोग हैं न. तो भई, हम किसी की आंटी तो नहीं बनेंगे.’ फिर लड़कों की दुविधा भांपते हुए उन्होंने कहा था, ‘देखो भई, मेरी उम्र तुम्हारी मां के बराबर है. मगर मां तो मां ही होती है.’ परिवार में मां के बाद काकी, ताई, मौसी का भी मां जैसा ही रिश्ता होता है, इसलिए मेरी उम्र के लिहाज से तुम मुझे काकी, ताई, मौसी वगैरा में से जो भी अच्छा लगे, कह सकते हो. वरना मेरा नाम राबिया है, इस नाम से भी बुला सकते हो, मगर आंटी मत कहना. पता नहीं क्यों यह आंटी मुझे अजीब लिजलिजी सी लगती है, जिस में न जाने कौनकौन छिपी बैठी हैं.’ उन की बात सुन कर लड़के एक बार तो हंस पड़े, फिर कुछ लड़कों ने उन्हें जिद कर के अम्मी, मम्मी कहना शुरू कर दिया और बाकी काकी, मौसी वगैरा कहने लगे थे तो उन्हें अम्मी कहने वाले लड़कों से शाहिद के मुंह से बेअख्तियार निकल गया, ‘जनाब, आप हमारी अम्मी के प्यार में हमारे रकीब बन रहे हैं.’ यह सारा वाकेआ पहली छुट्टियों में घर आने पर इसी शाहिद ने खुद अपने मुंह से सुनाया था.

राबिया बेगम के व्यवहार से लड़कों की संख्या में रोज इजाफा हो जाता था. अब ज्यादातर नवागंतुक भी सीनियर्स का सामीप्य राबिया बेगम की देखभाल में पाने के लिए आने लगे थे. राबिया बेगम तो सभी को अपने बच्चों के बड़े कुटुंब में शामिल कर लेती थीं, मगर 2 महीने लगातार इतने सारे लड़कों के बनाए परिवार के लिए खाने की व्यवस्था कराने, सब को एकजुट बनाए रख कर शाहिद की सुरक्षा के लिए रैगिंग विरोधी अभियान चलाए रखने की कोशिश में रातदिन मेहनत करने से राबिया बेगम का स्वास्थ्य काफी गिर गया. फिर भी उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि इस अवधि में उन्होंने शाहिद के लिए जो दोस्ताना माहौल बना दिया है उस से शाहिद अब इस संस्थान से डिगरी लेने तक रैगिंग वगैरा से महफूज रहेगा.

इस तरह 8-10 सप्ताह बीत गए. वह दिन आ गया जब नए छात्रों को पुरानों के साथ सामंजस्य बिठाने वाला फ्रैशर्स डे मनाया जाता है. पुराने यानी सीनियर्स और जूनियर्स का सहभोज होता है और रैगिंग पर घोषित विराम लग जाता है. अब की बार फ्रैशर्स डे राबिया बेगम ने इस तरह आयोजित किया कि वह मात्र मस्तीभरा सहभोज न रह कर एक विराट सांस्कृतिक कार्यक्रम बन गया. फ्रैशर्स डे के इस जबरदस्त कारनामे का पता संस्थान के प्रिंसिपल के पत्र से हुआ, जिस में उन्हें बधाई और धन्यवाद देते हुए लिखा था कि यह साल उन के संस्थान के पिछले कई दशकों के इतिहास में यादगार बन गया है क्योंकि इस साल इस संस्थान में रैगिंग की कोई घटना नहीं हुई और फ्रैशर्स डे के अभूतपूर्व सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए राबियाजी को आगे भी आना होगा.

उन दिनों के शाहिद और आज के शाहिद की तुलना करते हुए जाकिर साहब डाइनिंग टेबल पर खामोश बैठे थे, सभी इंतजार में थे कि वे खाना शुरू करें तो खाना खाएं. मगर जाकिर साहब यह कह कर उठ गए, ‘‘शुक्रिया साहबजादे, आज आप ने हमें खुदकुशी और कुरबानी में फर्क का इल्म करा दिया.’’ और उन्होंने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. काफी सोचविचार कर उन्होंने एक फैसला कर लिया.

घर के लोगों ने सुबह उठ कर देखा कि जाकिर साहब और राबिया बेगम के कमरों के दरवाजों पर ताला लगा हुआ है और जाकिर साहब घर में नहीं हैं. ऐसा तो कभी नहीं हुआ. जाकिर साहब और राबिया बेगम घर के बाहर भी जाते थे तब भी कमरों के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. एक दफा जाकिर साहब ने बेगम से कहा था, ‘बेगम, कम से कम दरवाजा बंद कर के कुंडी तो लगा दिया करो’ तो राबिया बेगम ने जवाब दिया था, ‘हमारे कमरों में ऐसा क्या रखा है जिसे अपने ही बच्चों की नजरों से परदा कराया जाए.’

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 2

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

Father’s Day Special- रिटर्न गिफ्ट: भाग 2

उन के साथ गपशप करने का मुझे इंतजार रहने लगा था. वह मेरा बहुत ध्यान रखते थे. हर बार मेरी मनपसंद खाने की कोई न कोई चीज वह मुझे जरूर खिलाते. उन के साथ हंसतेबोलते घंटे भर का समय निकल जाने का पता ही नहीं लगता था.

फिर उन्होंने मुझे घर तक छोड़ आने की जिम्मेदारी ले ली तो हम आधा घंटा और साथ रहने लगे. इस आधे घंटे के समय में उन्होंने मेरी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ जान लिया था.

जब पापा की सड़क दुर्घटना में 6 साल पहले मौत हुई थी तब मैं 14 साल की थी. मम्मी तो बुरी तरह से टूट गई थीं. उन्हें रातदिन रोते देख कर मैं कभीकभी इतनी ज्यादा दुखी और उदास हो जाती कि मन में आत्महत्या करने का विचार पैदा हो जाता. उस वक्त के बाद से मैं ने भगवान को मानना ही छोड़ दिया है.

मैं खुद को राकेशजी के इतना ज्यादा करीब महसूस करने लगी कि उन से मन की वे बातें कह जाती जो अब तक किसी को नहीं बताई थीं.

शिखा से मुझे उन के बारे में काफी जानकारी हासिल हुई :

‘वैसे तो मेरे पापा बहुत खुश रहते हैं पर कभीकभी अकेलापन उन्हें बहुत उदास कर जाता है. मैं उन से अकसर कहती हूं कि अकेलेपन को दूर करने के लिए कोई जीवनसाथी ढूंढ़ लो पर वह हंस कर मेरी बात टाल जाते हैं. मेरी शादी हो जाने के बाद तो पापा बहुत अकेले रह जाएंगे.’

शिखा को अपने पापा के लिए यों परेशान देख कर मुझे काफी हैरानी हुई थी.

‘मुझे तो शादी उसी युवक से करनी है जो मम्मी को अपने साथ रखने को राजी होगा. पापा की जगह मैं सारी जिंदगी उन की देखभाल करूंगी,’ मैं ने अपना फैसला शिखा को बताया तो वह चौंक पड़ी थी.

‘शादीशुदा बेटी का अपने मातापिता को साथ रखना हमारे समाज में संभव नहीं है अंकिता, और न ही मातापिता विवाहित बेटी के घर रहना चाहते हैं,’ शिखा की इस दलील को सुन कर मुझे गुस्सा आ गया था.

‘अगर ऐसा कोई चुनाव करना पड़ा तो मैं शादी करने से इनकार कर दूंगी पर मम्मी को अकेले छोड़ने का सवाल ही नहीं उठता,’ मैं इस विषय पर शिखा से बहस करने को तैयार हो गई थी.

‘अच्छा यह बता कि तुझे अपने पापा की कितनी बातें याद हैं?’

‘वह गे्रट इनसान थे, शिखा. तभी तो हमारी जिंदगी में उन की जगह आज तक कोई दूसरा आदमी नहीं ले पाया है और न ले पाएगा,’ मेरी आंखों में अचानक आंसू छलक आए तो शिखा ने विषय बदल दिया था.

शिखा के पापा के साथ मेरे संबंध इतने करीबी हो गए थे कि उन से रोज मिले या फोन पर लंबी बात किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता था.

उन्होंने जब पार्क के सामने कार रोकी तो मैं झटके से पुरानी यादों की दुनिया से निकल आई थी.

‘‘आओ,’’ उन्होंने बड़े अधिकार से मेरा हाथ पकड़ा और पार्क के गेट की तरफ बढ़ चले.

उन के हाथ का स्पर्श मैं बड़ी प्रबलता से महसूस कर रही थी. इस का कारण यह था कि उन को ले कर मेरे मन के भावों में पिछले दिनों बदलाव आया था.

करीब सप्ताह भर पहले मुझे घर छोड़ने के लिए जाते हुए उन्होंने इसी अंदाज में मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, ‘‘अंकिता, तुम मुझे हमेशा अपना अच्छा दोस्त और शुभचिंतक मानना. हमारे बीच जो संबंध बना है, मैं उसे और ज्यादा गहराई और मजबूती देना चाहता हूं. क्या तुम मुझे ऐसा करने का मौका दोगी?’’

‘‘हम अच्छे दोस्त तो हैं ही,’’ उन की आंखों में अजीब सी बेचैनी के भाव को पहचान कर मैं ने जमीन की तरफ देखते हुए जवाब दिया था.

‘‘मैं तुम्हें दुनिया भर की खुशियां देना चाहता हूं.’’

‘‘थैंक यू, सर,’’ उस समय के बाद से मैं ने उन के लिए ‘अंकल’ का संबोधन त्याग दिया था.

उस दिन उन्होंने अपनी बात को आगे नहीं बढ़ाया था. रात भर करवटें बदलने के बाद मुझे ऐसा लगा कि हमारा रिश्ता उस क्षेत्र में प्रवेश कर रहा था जिसे समाज गलत मानता है.

कम उम्र की लड़की के बड़ी उम्र के आदमी से प्यार हो जाने के किस्से मैं ने भी सुने थे, पर ऐसा कुछ मेरी जिंदगी में भी घट सकता है, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था.

मेरा मन कह रहा था कि आज राकेशजी मुझ से प्रेम करने की बात अपनी जबान पर लाने वाले हैं. मैं उन्हें बहुत पसंद करती थी लेकिन उन के साथ गलत तरह का रिश्ता रखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी मां और शिखा की नजरों में कैसे गिर सकती थी?

ये अगर कोई उलटीसीधी बात मुंह से न निकालें तो कितना अच्छा हो. तब मैं इन से अपने संबंध सदा के लिए तोड़ने की पीड़ा से बच जाऊंगी. मुझे अपनी प्रेमिका बनाने की इच्छा को जबान पर मत लाना, प्लीज. मन ही मन ऐसी प्रार्थना करते हुए मैं राकेशजी के साथ पार्क में प्रवेश कर गई थी.

मेरा हाथ पकड़ कर कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘अपने जन्मदिन पर क्या तुम मुझे एक रिटर्न गिफ्ट दोगी?’’

‘‘मेरे बस में होगा तो जरूर दूंगी,’’ आगे पैदा होने वाली स्थिति का सामना करने के लिए मैं गंभीर हो गई.

कुछ पलों की खामोशी के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अंकिता, जिंदगी में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब हमें पुरानी मान्यताओं और अडि़यल रुख को त्याग कर नए फैसले करने पड़ते हैं. नई परिस्थितियों को स्वीकार करना पड़ता है. क्या तुम्हें थोड़ाबहुत अंदाजा है कि मैं तुम से रिटर्न गिफ्ट में क्या चाहता हूं?’’

‘‘आप के मन की बात मैं कैसे बता सकती हूं,’’ मैं ने उन्हें आगे कुछ कहने से रोकने के लिए रूखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘इस का जवाब मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुना कर देता हूं. किसी राज्य की राजकुमारी रोज सुबह भिखारियों को धन और कपड़े दोनों दिया करती थी. एक दिन महल के सामने एक फकीर आया और गरीबों की लाइन से हट कर चुपचाप एक तरफ खड़ा हो गया.

‘‘राजकुमारी के सेवकों ने उस से कई बार कहा कि वह लाइन में न भी लगे पर अपने मुंह से राजकुमारी से जो भी चाहिए उसे मांग तो ले. फकीर ने तब सहज भाव से उन लोगों को जवाब दिया था, ‘क्या तुम्हारी राजकुमारी को मेरा भूख से पिचका हुआ पेट, फटे कपड़े और खस्ता हालत नजर नहीं आ रही है? मुझे उस के सामने फिर भी हाथ फैलाने पड़ें या गिड़गिड़ाना पड़े तो बात का मजा क्या. और फिर मुझे ऐसी नासमझ राजकुमारी से कुछ नहीं चाहिए.’

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 3

‘‘अरे, नहीं, 2 रोज में ऊब जाएगी,’’ केशव हंसे.

‘‘नहीं, पापाजी. ऊबी तो अकेले छत पर टहलते हुए हूं.’’

‘‘तुम छत पर अकेली क्यों टहलती हो?’’ मालिनी ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

जवाब केशव ने दिया कि प्रणव परीक्षा की तैयारी के लिए रात को देर तक पढ़ता है और तब तक समय गुजारने को यह टहलती रहती है. टीवी कब तक देखे और उपन्यास पढ़ने का इसे शौक नहीं है.

‘‘मगर प्रणव रात को क्यों पढ़ता है?’’

‘‘सुबह जल्दी उठ कर पढ़ने की उसे आदत नहीं है और दिन में आफिस जाता है,’’ केशव ने बताया.

‘‘आफिस में 5 बजे के बाद आप सब मुवक्किल से मिल कर उन की समस्याएं सुनते हो न?’’ मालिनीजी ने पूछा, ‘‘अगर चंद महीने प्रणव वह समस्याएं न सुने तो कुछ फर्क पड़ेगा क्या? काम तो उसे वही करना है जो आप बताओगे. सो कल से उसे 5 बजे से पढ़ने की छुट्टी दे दो ताकि रात को मियांबीवी समय से सो सकें.’’

‘‘यह तो है…’’

‘‘तो फिर कल से ही प्रणव को स्टडी लीव दो ताकि किसी का भी रुटीन खराब न हो,’’ मालिनीजी का स्वर आदेशात्मक था, होता भी क्यों न, प्राचार्य थीं.

प्रिया ने सिटपिटाए से केशव को देख कर मुश्किल से हंसी रोकी.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा. लाइबे्ररी तो आफिस में ही है. वहीं से किताबें ला कर घर पर पढ़ता है, कल कह दूंगा कि दिन भर लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहे, कुछ जरूरी काम होगा तो बुला लूंगा,’’ केशव बोले.

लौटते हुए केशव ने प्रिया से कहा कि वह प्रणव को न बताए कि मालिनीजी ने उस की स्टडी लीव की सिफारिश की है, नहीं तो चिढ़ जाएगा.

‘‘टीचर से सभी बच्चे चिढ़ते हैं और स्कूल छोड़ने के बाद तो उन की हर बात हस्तक्षेप लगती है.’’

‘‘यह बात तो है, पापाजी. वैसे यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि हम मालिनीजी से मिले थे,’’ प्रिया ने केशव को आश्वस्त किया.

अगले रोज से प्रणव ने रात को पढ़ना छोड़ दिया. प्रिया ने मन ही मन मालिनीजी को धन्यवाद दिया. जिस रोज प्रणव की परीक्षा खत्म हुई, रात के खाने के बाद केशव ने उस से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है, कहीं घूमने जाओगे?’’

‘‘जाना तो है पापा, लेकिन रिजल्ट निकलने के बाद.’’

‘‘तो फिर कल मुझ से पूरा काम समझ लो, वैसे तो तुम सब संभाल ही लोगे फिर भी कुछ समस्या हो तो इन दोनों से पूछ लेना,’’ केशव ने अभिनव और प्रभव की ओर देखा, ‘‘तुम लोगों के पास वैसे तो अपना बहुत काम है लेकिन इसे कुछ परेशानी हो तो वक्त निकाल कर देख लेना, कुछ ही दिनों की बात है. मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

‘‘आप कहीं जा रहे हैं, पापा?’’ सभी ने एकसाथ चौंक कर पूछा.

‘‘हां, कोच्चि,’’ केशव मुसकराए, ‘‘शादी करने और फिर हनीमून…’’

‘‘शादी और आप… और वह भी अब?’’ अभिनव ने बात काटी, ‘‘जब करने की उम्र थी तब तो करी नहीं.’’

‘‘क्योंकि तब तुम सब को संभालना था. अब तुम्हें संभालने वालियां आ गई हैं तो मैं भी खुद को संभालने वाली ला सकता हूं. कोच्चि के नाम पर समझ ही गए होंगे कि मैं मालिनी की बात कर रहा हूं,’’ कह कर केशव रोज की तरह घूमने चले गए.

‘‘अगर पापा कोच्चि का नाम न लेते तो भी मैं समझ जाता कि किस की बात कर रहे हैं,’’ प्रभव ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘वह औरत हमेशा से ही हमारी मां बनने की कोशिश में थी. मैं ने आप को बताया भी था भैया और आप ने कहा था कि आप इस घर में उस की घुसपैठ कभी नहीं होने देंगे.’’

‘‘तो होने दी क्या?’’ अभिनव ने चिढ़े स्वर में पूछा, ‘‘वह हमारे घर न आए इसलिए कभी अपनी या तुम्हारे जन्मदिन की दावत नहीं होने दी. हालांकि त्योहार के दिन किसी रिश्तेदार के घर जाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन उस औरत से बचने के लिए मैं बारबार बूआ या मौसी के घर जाने की जलालत भी झेल लेता था. अगर पता होता कि हमारी शादी के बाद वह हमारी मां की जगह ले लेगी तो मैं न अपनी शादी करता न तुम्हें करने देता.’’

‘‘लेकिन अब तो हम सब की शादी हो गई है और पापा अपनी करने जा रहे हैं,’’ प्रणव बोला.

‘‘हम जाने देंगे तब न? हम अपनी मां की जगह उस औरत को कभी नहीं लेने देंगे,’’ प्रभव बोला.

‘‘सवाल ही नहीं उठता,’’ अभिनव ने जोड़ा.

‘‘मगर करोगे क्या? अपनी शादियां खारिज?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा,’’ जूही बोली, ‘‘क्योंकि पापाजी की जिम्मेदारी आप लोगों को सुव्यवस्थित करने तक थी, जो उन्होंने बखूबी पूरी कर दी. अब अगर आप उस में कुछ फेरबदल करना चाहते हो तो वह आप की अपनी समस्या है. उस से पापाजी को कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘उस सुव्यवस्था में फेरबदल हम नहीं पापा कर रहे हैं और वह हम करने नहीं देंगे,’’ अभिनव ने कहा.

‘‘मगर कैसे?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कैसे भी, सवाल मत कर यार, सोचने दे,’’ प्रभव झुंझला कर बोला. फिर सोचने और सुझावों की प्रक्रिया बहस में बदल गई और बहस झगड़े में बदलती तब तक केशव आ गए, वह बहुत खुश लग रहे थे.

‘‘अच्छा हुआ तुम सब यहीं मिल गए. मैं और मालिनी परसों कोच्चि जा रहे हैं, शादी तो बहुत सादगी से करेंगे मगर यहां रिसेप्शन में तो तुम लोग सादगी चलने नहीं दोगे,’’ केशव हंसे, ‘‘खैर, मैं तुम लोगों को अपनी मां के स्वागत की तैयारी के लिए काफी समय दे दूंगा.’’

‘‘मगर पापा…’’

‘‘अभी मगरवगर कुछ नहीं, अभिनव. मैं अब सोने या यह कहो सपने देखने जा रहा हूं,’’ यह कहते हुए केशव अपने कमरे में चले गए.

‘‘पापाजी बहुत खुश हैं,’’ जूही ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता वह आप के कहने से अपना इरादा बदलेंगे.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं सो बदलने को कह कर हमें उन की खुशी में खलल नहीं डालना चाहिए,’’ सपना बोली.

‘‘और चुपचाप उन्हें अपनी मां की जगह उस औरत को देते हुए देखते रहना चाहिए?’’ अभिनव ने तिक्त स्वर में पूछा.

‘‘उन मां की जगह जिन की शक्ल भी आप को या तो धुंधली सी याद होगी या जिन्हें आप तसवीर के सहारे पहचानते हैं? उन की खातिर आप उन पापाजी की खुशी छीन रहे हैं जो अपनी भावनाओं और खुशियों का गला घोंट कर हर पल आप की आंखों के सामने रहे ताकि आप को आप की मां की कमी महसूस न हो?’’ अब तक चुप बैठी प्रिया ने पूछा, ‘‘महज इसलिए न कि मालिनीजी आप की टीचर थीं और उन्हें या उन के अनुशासन को ले कर आप सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?’’

कोई कुछ नहीं बोला.

‘‘जूही दीदी, सपना भाभी, सास के आने से सब से ज्यादा समस्या हमें ही आएगी न?’’ प्रिया ने पूछा, ‘‘क्या पापाजी की खुशी की खातिर हम वह बरदाश्त नहीं कर सकतीं?’’

‘‘पापाजी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है और हम उन के लिए कुछ भी सह सकती हैं,’’ सपना बोली.

‘‘सहना तब जब कोई समस्या आएगी,’’ जूही ने उठते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो चल कर इन सब का मूड ठीक करो ताकि कल से यह भी पापाजी की खुशी में शामिल हो सकें.’’

तीनों भाइयों ने मुसकरा कर एकदूसरे को देखा, कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था.

पापा के लिए- भाग 1: सौतेली बेटी का त्याग

जिस स्नेह और अपनेपन से मेरी मम्मी ने पापा के पूरे परिवार को अपना लिया था, उस का एक अंश भी अगर पापा उन की बेटी को यानी मुझे दे देते तो… लेकिन नहीं, पापा मुझे कभी अपनी बेटी मान ही नहीं सके. उन के लिए जो कुछ थे, उन की पहली पत्नी के दोनों बच्चे थे अमन और श्रेया. अमन तो तब मेरे ही बराबर था, 7 साल का, जब उस के पापा ने मेरी मम्मी से शादी की थी और श्रेया मात्र 3 बरस की थी.

दादी के बारबार जोर देने पर और छोटे बच्चों का खयाल कर के पापा ने मम्मी से, जो उन्हीं की कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर थीं, शादी तो कर ली. लेकिन मन से वे उन्हें नहीं अपना पाए. मम्मी भी कहां मेरे असली पापा को भुला सकी थीं.

अचानक रोड ऐक्सीडैंट में उन की डैथ हुई थी. उस के बाद अकेले छोटी सी बच्ची यानी मुझे पालना उन के लिए पुरुषों की इस दुनिया में बहुत मुश्किल था. पापा के जाने के बाद 2 साल में ही इस दुनिया ने उन्हें एहसास करा दिया था कि एक अकेली औरत, जिस के सिर पर किसी पुरुष का हाथ नहीं, 21वीं सदी में भी बहुत बेबस और मजबूर है. उस का यों अकेले जीना बहुत मुश्किल है.

ननिहाल और ससुराल में कहीं भी ऐसा कोई नहीं था जिस के सहारे वे अपना जीवन काट सकतीं. इसलिए एक दिन जब औफिस में पापा ने उन्हें प्रपोज किया तो वे मना नहीं कर सकीं. सोचा, कि ज्यादा कुछ नहीं तो इज्जत की एक छत और मुझे पापा का नाम तो मिल जाएगा न. और वैसा हुआ भी.

पापा ने मुझे अपना नाम भी दिया और इतना बड़ा आलीशान घर भी. उन की कंपनी अच्छी चलती थी और समाज में उन का नाम, रुतबा सब कुछ था. नहीं मिली तो मुझे अपने लिए उन के दिल में थोड़ी सी भी जगह.

मेरे अपने पापा कैसे थे, यह तो विस्मृत हो गया था मेरी नन्ही यादों से, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह बखूबी समझ आ रहा था कि ये वाले पापा वाकई दुनिया के बैस्ट पापा थे, जो अपने दोनों बच्चों पर जान छिड़कते थे. मम्मी के सब कुछ करने के बावजूद भी उन्हें खुद स्कूल के लिए तैयार करते, उन्हें गाड़ी से स्कूल छोड़ने जाते, शाम को उन्हें घुमाने ले जाते, उन के लिए बढि़याबढि़या चीजें लाते, खिलौने लाते, तरहतरह की डै्रसेज लाते और भी न जाने क्याक्या. मेरे अकेले के लिए अगर मम्मी कभी कुछ ले आतीं, तो बस बहुत जल्दी सौतेलीमां की उपाधि से उन्हें सजा दिया जाता.

उन बच्चों को तो मेरी मम्मी पूरी तरह से मिल गई थीं. वे उन के संग हर जगह जातीं, संग खेलतीं, संग खातीं, मगर शायद उन की हरीभरी दुनिया में मेरे लिए कोई जगह नहीं थी. यहां तक कि अगर मम्मी मेरा कुछ काम कर रही होतीं और इस बीच यदि श्रेया और अमन, यहां तक कि पापा और दादी का भी कोई काम निकल आता, तो मम्मी मुझे छोड़ कर पहले उन का काम करतीं. इस डर से कि कहीं पापा गुस्सा न हो जाएं, कहीं दादी फिर से सौतेलीमां का पुराण न शुरू कर दें.

हमारे समाज में हमेशा सौतेली मां को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है कि वह चाहे अपना कलेजा चीर कर दिखा दे, लेकिन कोई उस की अमूल्य कुरबानी और प्यार को नहीं देखेगा, बस उस पर हमेशा लांछन ही लगाए जाएंगे.

अच्छी मम्मी बनने के चक्कर में मम्मी मेरी तरफ से लापरवाह हो जातीं. सब को सब मिल गया था, मगर मेरा तो जो अपना था वह भी मुझ से छिनने लगा था. मम्मी को मुझे प्यार भी छिप कर करना पड़ता और मेरा काम भी. मैं उन की मजबूरी महसूस करने लगी थी,

मगर मैं भी क्या करती. उन के सिवा मेरा और था ही कौन? उन के बिना तो मैं पूरे घर में अपने को बहुत अकेला महसूस करती थी. चारों लोग कहीं तैयार हो कर जा रहे होते और अगर मैं गलती से भी उन के संग जाने का जिक्र भर छेड़ देती तो मम्मी मारे डर के मुझे चुप करा देतीं.

मेरा बालमन तब पापा की तरफ इस उम्मीद से देखता कि शायद वे मुझे खुद ही साथ चलने को कहें, मगर वहां तो स्नेह क्या, गुस्सा क्या, कोई एहसास तक नहीं था मेरे लिए. जैसे मेरा अस्तित्व, मेरा वजूद उन के लिए हो कर भी नहीं था. वे सब लोग गाड़ी में बैठ कर चले जाते और मैं वहीं दरवाजे पर बैठी रोतेबिसूरते उन के लौटने का इंतजार करती रहती. इतने बड़े घर में अकेले मुझे बहुत डर लगता था. तब सोचती, क्या मम्मी ने इन नए वाले पापा से शादी कर के ठीक किया? पता नहीं उन्होंने क्या पाया, लेकिन जातेजाते बारबार आंसू भरी आंखों से पीछे मुड़मुड़ कर उन का मुझे निहारना मुझ से उन के रीते हाथों की व्यथा कह जाता.

दादी का तो होना न होना बराबर ही था. वे भी मुझ से तब ही बात करती थीं जब उन्हें कोई काम होता था, वरना वे तो शाम को

जल्दी ही खापी कर अपने कमरे में चली जाती थीं. फिर पीछे दुनिया में कुछ भी होता रहे, उन की बला से. मैं आंखों में बस एक ही अरमान ले कर बड़ी होती रही कि एक दिन तो जरूर ही पापा कहेंगे – तू मेरी बेटी है, मेरी सब से प्यारी बेटी…

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 1

प्रणव तो प्रिया को पसंद था ही लेकिन उस से भी ज्यादा उसे अपनी ससुराल पसंद आई थी. हालांकि संयुक्त परिवार था पर परिवार के नाम पर एक विधुर ससुर और 2 हमउम्र जेठानियां थीं. बड़ी जेठानी जूही तो उस की ममेरी बहन थी और उसी की शादी में प्रणव के साथ उस की नोकझोक हुई थी. प्रणव ने चलते हुए कहा था, ‘‘2-3 साल सब्र से इंतजार करना.’’

‘‘किस का? आप का?’’

‘‘जी नहीं, जूही भाभी का. घर की बड़ी तो वही हैं, सो वही शादी का प्रस्ताव ले कर आएंगी,’’ प्रणव मुसकराया, ‘‘अगर उन्होंने ठीक समझा तो.’’

‘‘यह बात तो है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘जूही दीदी, मुझे बहुत प्यार करती हैं और मेरे लिए तो सबकुछ ही ठीक चाहेंगी.’’

प्रणव ने कहना तो चाहा कि प्यार तो वह अब हम से भी बहुत करेंगी और हमारे लिए किसे ठीक समझती हैं यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन चुप रहा. क्या मालूम बचपन से बगैर औरत के घर में रहने की आदत है, भाभी के साथ तालमेल बैठेगा भी या नहीं.

अभिनव के लिए लड़की देखने से पहले ही केशव ने कहा था, ‘‘इतने बरस तक यह मकान एक रैन बसेरा था लेकिन अभिनव की शादी के बाद यह घर बनेगा और इस में हम सब को सलीके से रहना होगा, ढंग के कपड़े पहन कर. मैं भी लुंगीबनियान में नहीं घूमूंगा और अभिनव, प्रभव, प्रणव, तुम सब भी चड्डी के बजाय स्लीपिंग सूट या कुरतेपाजामे खरीदो.’’

‘‘जी, पापा,’’ सब ने कह तो दिया था लेकिन मन ही मन डर भी रहे थे कि पापा का एक भरेपूरे घर का सपना वह पूरा कर सकेंगे कि नहीं.

केशव मात्र 30 वर्ष के थे जब उन की पत्नी क्रमश: 6 से 2 वर्ष की आयु के 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. सब के बहुत कहने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी के लिए दृढ़ता से मना कर दिया था.

वह चार्टर्ड अकाउंटेंट थे. उन्होंने घर में ही आफिस खोल लिया ताकि हरदम बच्चों के साथ रहें और नौकरों पर नजर रख सकें. बच्चों को कभी उन्होंने अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. आवश्यक काम वह उन के सोने के बाद देर रात को निबटाया करते थे. उन की मेहनत और तपस्या रंग लाई. बच्चे भी बड़े सुशील और मेधावी निकले और उन की प्रैक्टिस भी बढ़ती रही. सब से अच्छा यह हुआ कि तीनों बच्चों ने पापा की तरह सीए बनने का फैसला किया. अभिनव के फाइनल परीक्षा पास करते ही केशव ने ‘केशव नारायण एंड संस’ के नाम से शहर के व्यावसायिक क्षेत्र में आफिस खोल लिया. अभिनव के लिए रिश्ते आने लगे थे. केशव की एक ही शर्त थी कि उन्हें नौकरीपेशा नहीं पढ़ीलिखी मगर घर संभालने वाली बहू चाहिए और वह भी संयुक्त परिवार की लड़की, जिसे देवरों और ससुर से घबराहट न हो.

जूही के आते ही मानो घर में बहार आ गई. सभी बहुत खुश और संतुष्ट नजर आते थे लेकिन केशव अब प्रभव की शादी के लिए बहुत जल्दी मचा रहे थे. प्रभव ने कहा भी कि उसे इत्मीनान से परीक्षा दे लेने दें और वैसे भी जल्दी क्या है, घर में भाभी तो आ ही गई हैं.

‘‘तभी तो जल्दी है, जूही सारा दिन घर में अकेली रहती है. लड़की हमें तलाश करनी है और तैयारी भी हमें ही करनी है. तुम इत्मीनान से अपनी परीक्षा की तैयारी करते रहो. शादी परीक्षा के बाद करेंगे. पास तो तुम हो ही जाओगे.’’

अपने पास होने में तो प्रभव को कोई शक था ही नहीं सो वह बगैर हीलहुज्जत किए सपना से शादी के लिए तैयार हो गया. लेकिन हनीमून से लौटते ही यह सुन कर वह सकते में आ गया कि पापा प्रणव की शादी की बात कर रहे हैं.

‘‘अभी इसे फाइनल की पढ़ाई इत्मीनान से करने दीजिए, पापा. शादीब्याह की चर्चा से इस का ध्यान मत बटाइए,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘भाभी की कंपनी के लिए सपना आ ही गई है तो इस की शादी की क्या जल्दी है?’’

‘‘यही तो जल्दी है कि अब इस की कोई कंपनी नहीं रही घर में,’’ केशव ने कहा.

‘‘क्या बात कर रहे हैं पापा?’’ प्रभव हंसा, ‘‘जब देखिए तब मैरी के लिटिल लैंब की तरह भाभी से चिपका रहता है और अब तो सपना भी आ गई है बैंड वैगन में शामिल होने को.’’

सपना हंसने लगी.

‘‘लेकिन देवरजी, भाभी के पीछे क्यों लगे रहते हैं यह तो पूछिए उन से.’’

‘‘जूही मुझे बता चुकी है सपना, प्रणव को इस की ममेरी बहन प्रिया पसंद है, सो मैं ने इस से कह दिया है कि अपने ननिहाल जा कर बात करे,’’ कह कर केशव चले गए.

‘‘जब बापबेटा राजी तो तुम क्या करोगे प्रभव पाजी?’’ अभिनव हंसा, ‘‘काम तो इस ने पापा के साथ ही करना है. पहली बार में पास न भी हुआ तो चलेगा लेकिन जूही, तुम्हारे मामाजी तैयार हो जाएंगे अधकचरी पढ़ाई वाले लड़के को लड़की देने को?’’

‘‘आप ने स्वयं तो कहा है कि देवरजी को काम तो पापा के साथ ही करना है सो यही बात मामाजी को समझा देंगे. प्रिया का दिल पढ़ाई में तो लगता नहीं है सो करनी तो उस की शादी ही है इसलिए जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है मामाजी के लिए.’’

जल्दी ही प्रिया और प्रणव की शादी भी हो गई. कुछ लोगों ने कहा कि केशव जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और कुछ लोगों की यह शंका जाहिर करने पर कि बच्चों के तो अपनेअपने घरसंसार बस गए, केशव के लिए अब किस के पास समय होगा और वह अकेले पड़ जाएंगे, अभिनव बोला, ‘‘ऐसा हम कभी होने नहीं देंगे और होने का सवाल भी नहीं उठता क्योंकि रोज सुबह नाश्ता कर के सब इकट्ठे ही आफिस के लिए निकलते हैं और रात को इकट्ठे आ कर खाना खाते हैं, उस के बाद पापा तो टहलने जाते हैं और हम लोग टीवी देखते हैं, कभीकभी पापा भी हमारे साथ बैठ जाते हैं. रविवार को सब देर से सो कर उठते हैं, इकट्ठे नाश्ता करते हैं…’’

Father’s Day Special: रिटर्न गिफ्ट- भाग 1

मैंकालिज से 4 बजे के करीब बाहर आई तो शिखा और उस के पापा राकेशजी को अपने इंतजार में गेट के पास खड़ा पाया.

‘‘हैप्पी बर्थ डे, अंकिता,’’ शिखा यह कहती हुई भाग कर मेरे पास आई और गले से लग गई.

‘‘थैंक यू. मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हें याद नहीं रहा मेरा जन्मदिन,’’ उस के हाथ से फूलों का गुलदस्ता लेते हुए मैं बहुत खुश हो गई.

‘‘मैं तो सचमुच भूल गई थी, पर पापा को तेरा जन्मदिन याद रहा.’’

‘‘पगली,’’ मैं ने नाराज होने का अभिनय किया और फिर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

राकेशजी से मुझे जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ मेरी मनपसंद चौकलेट का डब्बा भी मिला तो मैं किसी छोटी बच्ची की तरह तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘थैंक यू, सर. आप को कैसे पता लगा कि चौकलेट मेरी सब से बड़ी कमजोरी है? क्या मम्मी ने बताया?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ उन्होंने मेरे बैठने के लिए कार का पिछला दरवाजा खोल दिया.

‘‘फिर किस ने बताया?’’

‘‘अरे, मेरे पास ढंग से काम करने वाले 2 कान हैं और पिछले 1 महीने में तुम्हारे मुंह से ‘आई लव चौकलेट्स’ मैं कम से कम 10 बार तो जरूर ही सुन चुका हूंगा.’’

‘‘क्या मैं डब्बा खोल लूं?’’ कार में बैठते ही मैं डब्बे की पैकिंग चैक करने लगी.

‘‘अभी रहने दो, अंकिता. इसे सब के सामने ही खोलना.’’

शिखा का यह जवाब सुन कर मैं चौंक पड़ी.

‘‘किन सब के सामने?’’ मैं ने यह सवाल उन दोनों से कई बार पूछा पर उन की मुसकराहटों के अलावा कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘शिखा की बच्ची, मुझे तंग करने में तुझे बड़ा मजा आ रहा है न?’’ मैं ने रूठने का अभिनय किया तो वे दोनों जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अच्छा, इतना तो बता दो कि हम जा कहां रहे हैं?’’ अपने मन की उत्सुकता शांत करने को मैं फिर से उन के पीछे पड़ गई.

‘‘मैं तो घर जा रही हूं,’’ शिखा के होंठों पर रहस्यमयी मुसकान उभर आई.

‘‘क्या हम सब वहीं नहीं जा रहे हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम ही क्यों जा रही हो?’’

‘‘वह सीक्रेट तुम्हें नहीं बताया जा सकता है.’’

‘‘और आप कहां जा रहे हैं, सर?’’

‘‘मार्किट.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘यह सीक्रेट कुछ देर बाद ही तुम्हें पता लगेगा,’’ राकेशजी ने गोलमोल सा जवाब दिया और इस के बाद जब बापबेटी मेरे द्वारा पूछे गए हर सवाल पर ठहाका मार कर हंसने लगे तो मैं ने उन से कुछ भी उगलवाने की कोशिश छोड़ दी थी.

शिखा को घर के बाहर उतारने के बाद हम दोनों पास की मार्किट में पहुंच गए. राकेशजी ने कार एक रेडीमेड कपड़ों के बड़े से शोरूम के सामने रोक दी.

‘‘चलो, तुम्हें गिफ्ट दिला दिया जाए, बर्थ डे गर्ल,’’ कार लौक कर के उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और उस शोरूम की सीढि़यां चढ़ने लगे.

कुछ दिन पहले मैं शिखा के साथ इस मार्किट में घूमने आई थी. यहां की एक डमी, जो लाल रंग की टीशर्ट के साथ काली कैपरी पहने हुई थी, पहली नजर में ही मेरी नजरों को भा गई थी.

शिखा ने मेरी पसंद अपने पापा को जरूर बताई होगी क्योंकि 20 मिनट में ही उस डे्रस को राकेशजी ने मुझे खरीदवा दिया था.

‘‘वेरी ब्यूटीफुल,’’ मैं डे्रस पहन कर ट्रायल रूम से बाहर आई तो उन की आंखों में मैं ने तारीफ के भाव साफ पढ़े थे.

उन्होंने मुझे डे्रस बदलने नहीं दी और मुझे पहले पहने हुए कपड़े पैक कराने पड़े.

‘‘अब हम कहां जा रहे हैं, यह मुझे बताया जाएगा या यह बात अभी भी टौप सीक्रेट है?’’ कार में बैठते ही मैं ने उन्हें छेड़ा तो वह हौले से मुसकरा उठे थे.

‘‘क्या कुछ देर पास के पार्क में घूम लें?’’ वह अचानक गंभीर नजर आने लगे तो मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

‘‘मम्मी आफिस से घर पहुंच गई होंगी. मुझे घर जाना चाहिए,’’ मैं ने पार्क में जाने को टालना चाहा.

‘‘तुम्हारी मम्मी से भी तुम्हें मिलवा देंगे पर पहले पार्क में घूमेंगे. मैं तुम से कुछ खास बात करना चाहता हूं,’’ मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उन्होंने कार आगे बढ़ा दी थी.

अब मेरे मन में जबरदस्त उथलपुथल मच गई. जो खास बात वह मुझ से करना चाहते थे उसे मैं सुनना भी चाहती थी और सुनने से मन डर भी रहा था.

मैं खामोश बैठ कर पिछले 1 महीने के बारे में सोचने लगी. शिखा और राकेशजी से मेरी जानपहचान इतनी ही पुरानी थी.

मम्मी के एक सहयोगी के बेटे की बरात में हम शामिल हुए तो पहले मेरी मुलाकात शिखा से हुई थी. मेरी तरह उसे भी नाचने का शौक था. हम दोनों दूल्हे के बाकी रिश्तेदारों को नहीं जानते थे, इसलिए हमारे बीच जल्दी ही अच्छी दोस्ती हो गई थी.

खाना खाते हुए शिखा ने अपने पापा राकेशजी से मेरा परिचय कराया था. उस पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने हंसमुख स्वभाव के कारण मुझे बहुत प्रभावित किया था. जब शिखा और मेरे साथ उन्होंने बढि़या डांस किया तो हमारे बीच उम्र का अंतर और भी कम हो गया, ऐसा मुझे लगा था.

शिखा से मेरी मुलाकात रोज ही होने लगी क्योंकि हमारे घर पासपास थे. अकसर वह मुझे अपने घर बुला लेती. जब तक मेरे लौटने का समय होता तब तक उस के पापा को आफिस से आए घंटा भर हो चुका होता था.

Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 1

डा. जाकिर अली लखनऊ से दिल्ली की फ्लाइट में उड़ान भर रहे थे. इस शहर से जुड़ी उन की पुरानी यादें हवाई जहाज की रफ्तार से भी तेजी से उन के दिमाग में घूम रही थीं.

वे 8-10 दिनों बाद गांव से दिल्ली लौटे तो खुद के कमरे की खिड़कियों की पत्थर की नक्काशीदार जालियों पर लोहे के फ्रेम में बारीक तारों की एक और जाली लगी देख कर असमंजस में पड़ गए. उन्हें कुछ समझ में नहीं आया.

उन्होंने बड़े बेटे शाहिद से जानना चाहा, तो वह बोला, ‘‘जी अब्बू, खिड़की की पुरानी जाली के बड़ेबड़े सूराखों से धूल, मच्छर, कीड़े वगैरा आते थे, इसलिए इस कमरे के अंदर की तरफ से यह जाली लगवा दी. कुल 3 हजार रुपए लगे और अब्बू, खिड़की की जाली के पत्थर पर पुराना शानदार नक्काशी का काम तो बाहर से आने वालों को पहले की तरह ही नजर आता है. और…और…इस के बाद कुछ तो नवाबी खानदान की घुट्टी में मिली तहजीब से पिता के प्रति सम्मान और कुछ कोई ठोस वजह वाले शब्द नहीं मिलने से वह हकलाते हुए चुप हो गया.

तभी उस के कमरे से उस की बीबी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘और  लोगों की नजरों पर एक मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा.’’ इस के बाद उस की बेशरम हंसी की आवाज आई तो डा. जाकिर अली बौखला गए. उन की मौजूदगी में उन की पुत्रवधू का इस तरह गुफ्तगू करना और ठहाका लगा कर हंसना उन के खानदानी आचरण में नहीं था. उन्होंने सवालिया नजरों से शाहिद को देखा तो वह शर्मिंदगी से नजर झुकाए पीछे मुड़ा और अपने कमरे में चला गया.

मोहूम से परदे का जुमला डा. जाकिर के दिल में नश्तर की तरह चुभ गया था. सो, शाहिद के चले जाने के बाद वे काफी देर गुमसुम खड़े रहे. फिर बोझिल कदमों से धीरेधीरे चल कर अपने कमरे में जा कर आरामकुरसी पर गिर से पडे़. डा. जाकिर अली की आंखों के सामने यह जुमला सिनेमा की रील की तरह चालू हो गया…

डा. जाकिर अली नवाबी खानदान से संबंध रखते थे. महानगर से 50 किलोमीटर दूर गांव में उन की 5 मंजिली पुश्तैनी हवेली, आम के कई बाग और काफी सारी खेती की जमीन थी. उर्दू उन के खून में थी. सो, गांव के मदरसे से शुरू हुई शिक्षा राज्य की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उर्दू और फारसी में एमए, पीएचडी कर के पूरी हुई. फिर उसी यूनिवर्सिटी में वे उर्दू के लेक्चरर बने और हैड औफ द डिपार्टमैंट के पद से रिटायर हुए.

यह कोई 30-35 साल पहले की बात है जब डा. जाकिर ने यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया. जब भी किसी शायर का कलाम पढ़ाते तो क्लास का माहौल ऐसा उर्दूमय और शायराना बना देते थे कि दूसरी क्लासों के लड़के उन की क्लास में आ कर बैठ जाया करते थे. ऐसे ही एक दिन वे किसी सूफी शायर की कोई कविता पढ़ा रहे थे और उस की तुलना भारतीय विशिष्ट अद्वैत से करने के लिए वे एक संस्कृत का श्लोक उद्धृत करना चाह रहे थे लेकिन नफीस उर्दू जबान पर संस्कृत का श्लोक बारबार फिसल जाता था. तभी उधर से संस्कृत विभाग की लेक्चरर डा. मंजरी निकलीं. डा. मंजरी ने उन्हें नमस्कार किया और बतलाया कि संस्कृत के कठिन शब्दों को 2 टुकड़ों में बांट कर बोलें तो वे बिलकुल सरल हो जाएंगे. डा. जाकिर अली की मुश्किल हल हो गई.

डा. मंजरी डा. जाकिर की हमउम्र थीं. उस दिन से संस्कृत के कठिन शब्दों की गांठ खोलने का जो सिलसिला शुरू हुआ उस के चलते वे न जाने कब एकदूसरे के सामने अपने मन की गांठें खोलने लगे और धीरेधीरे एकदूसरे के मन में इतने गहरे उतर गए कि अब अगर एक दिन भी आपस में नहीं मिलते थे तो दोनों ही बेचैन हो जाते. दूसरे दिन मिलने पर दोनों की आंखें गवाही देती थीं कि रातभर नींद का इंतजार करते दुख गई हैं.

ऐसे ही एक रतजगे के बाद दोनों मिले तो डा. जाकिर ने डा. मंजरी का हाथ अपने हाथ में थाम कर बेताबी से कहा, देखो, मंजरीजी, अब इस तरह गुजारा नहीं होगा. मैं क्या कहना चाह रहा हूं आप समझ रही हैं न.’ मंजरी ने जवाब दिया था, ‘जाकिर साहब, पिताजी तो खुले विचारों के हैं, इसलिए उन्हें तो करीबकरीब मना लिया है मगर मां को मनाने में थोड़ा वक्त लगेगा, थोड़ा इंतजार करिए, सब्र का फल मीठा होता है.’

तब वह जमाना था जब देश की गंगाजमुनी संस्कृति में राजनीति विष सी  बन कर नहीं घुली थी. वोटों की खातिर सत्ता के दलालों ने 2 संस्कृतियों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का सांप्रदायिक लिबास नहीं पहनाया था. लवजिहाद या घरवापसी के नारे नहीं गूंजे थे. संस्कृत विभाग के प्रोफैसर

डा. रामकिंकर खुद डा. जाकिर के बड़े बन कर उन की तरफ से पैगाम ले कर मंजरी के घर गए थे और पहली बार उन की मां की गालियां खा कर चुपचाप लौट आए. मगर दूसरे दिन ही फिर पहुंच गए. फिर लगातार समझाइश के बाद आखिर उन्होंने खुद डा. जाकिर का बड़ा भाई बन कर  जिम्मेदारी ली कि विवाह के बाद न  तो मंजरी का नाम बदला जाएगा, न धर्म. फिर 2-4 पढ़ेलिखे और समाज के प्रतिष्ठित व प्रगतिवादी लोगों की मध्यस्थता से उन्होंने अपनी मुंहबोली भांजी डा. मंजरी का विवाह डा. जाकिर से करा दिया था.

डा. मंजरी विवाह के बाद भी मंजरी ही रहीं. शादी के 3 सालों बाद जब पहली संतान हुई तो मंजरी ने ही जाकिर अली से कहा, ‘जाकिर साहब, औलाद की पहचान बाप के नाम से होती है, आप बच्चे का नाम अपने खानदानी रिवायत के मुताबिक ही रखें.’ और बच्चे का नाम शाहिद तय हुआ था. इस के 3 सालों बाद जब दूसरा पुत्र हुआ तो उस का नाम साजिद रखा गया.

डा. जाकिर अली की शादी को 10 साल बीत गए थे. सबकुछ बेहद खुशगवार था. तभी उस साल चेचक महामारी बन कर फैली और पता नहीं कैसे डा. मंजरी उस की चपेट में आ गईं. बहुत दवा, कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका.

डा. जाकिर अली की तो दुनिया ही उजड़ गई. वे एकदम टूट गए थे. अब न तो उन्हें पढ़ाने में वह दिलचस्पी रही थी न क्लास लेने में. घरगृहस्थी की परेशानी थी, सो अलग. पता नहीं मंजरी ने पिछले 10 सालों में उन्हें और उन के घर को कैसे संभाला था कि आज उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि उन्हें बनियान कितने नंबर की आती है.

रिश्तेदारी और परिवार में कोई ऐसी महिला थी नहीं, जिसे वे घर ला कर बच्चों की परवरिश व घर की जिम्मेदारी दे कर निश्ंिचत हो जाते. घर जैसेतैसे पुराने बावर्ची और माली की मदद से चलता रहा. एक साल बीत गया तो उन्होंने शाहिद और साजिद को होस्टल में भेजने का निर्णय किया. यह पता चलने पर बूढ़े बावर्ची ने रोते हुए साजिद को कलेजे से लगा कर फरियाद की, ‘नवाब साहब, नमक खाया है इस घर का और आप के पिता ने हमें चाकर नहीं समझा. आज उन्हीं की याद दिला कर आप से कहता हूं कि बच्चों को हमारी नजरों से दूर नहीं करें.’

हार कर उन्होंने एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दे दिया. इंटरव्यू के लिए राबिया बानो उन के घर आईं तो डा. जाकिर को लगा कि शायद वे यों ही आई होंगी. राबिया यूनिवर्सिटी में म्यूजिक डिपार्टमैंट में ट्यूटर थीं और गजलों के संगीत की धुन बनाने के लिए उर्दू गजलों में अरबी या फारसी के कुछ कठिन शब्दों का सीधीसादी भाषा में अर्थ समझने के लिए अकसर उन से मिलती रहती थीं. उन के बारे में बताया गया था कि उन के शौहर मेकैनिकल इंजीनियर थे. कंपनी के कौंट्रेक्ट पर दुबई गए थे. वहां किसी विदेशी महिला की मुहब्बत के जाल में फंस गए और उस से निकाह कर के टैलीफोन पर 3 बार तलाक बोल कर राबिया बानो को तलाक दे दिया.

थोड़ी देर इधरउधर की बातें होती रहीं. मगर जब दूसरी महिला उम्मीदवार आने लगी तो राबिया खुद उन से बोलीं, ‘डाक्टर साहब, आप ने 2 बच्चों की परवरिश करने लायक एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दिया है न?’

‘जी हां, क्या आप की नजरों में कोई है, या आप किसी की सिफारिश कर रही हैं,’ डा. जाकिर ने अधीरता से पूछा तो राबिया ने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया, ‘न तो मेरी नजर में कोई है, न मैं किसी की सिफारिश कर रही हूं. डाक्टर साहब, मैं खुद हाजिर हुई हूं.’

जवाब सुन कर वे ऐसे चौंके थे जैसे कोई करंट का जोरदार झटका लगा हो. मगर बोले, ‘आप यह क्या कह रही हैं राबियाजी, आप, आप.’ आगे कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिलने के कारण वे खुद को बेहद असहज महसूस करते हुए चुप हो गए.

उन की स्थिति को समझते हुए राबिया ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया, ‘डाक्टर साहब, मैं पूरे होशोहवास में आप के सामने यह प्रस्ताव रख रही हूं. पिछले 4 सालों से मैं अकेली इस समाज के भेड़ की खाल ओढ़े भेडि़यों से अपने को महफूज रखने की जंग लड़तेजूझते पस्त हो गई हूं. तलाकशुदा अकेली औरत को हर कोई मिठाई का टुकड़ा समझ कर निगल जाना चाहता है. पहले वर्किंग वुमेन होस्टल में रहती थी. वहां की वार्डन महोदया देखने में तो हमजैसी अकेली औरतों की बड़ी हमदर्द थीं, मगर वास्तव में वे भड़वागीरी करती थीं.

वहां से निकल कर यूनिवर्सिटी के गर्ल्स होस्टल में रहने लगी तो कुछ दिनों बाद ही वहां के वार्डन महोदय को उर्दू सीखने का शौक चर्राया और वे इस बहाने देर रात गए मेरे कमरे में जमने लगे. फिर उर्दू की सस्ती किताबों में बाजारू लेखकों के द्विअर्थी इशारों को समझने के बहाने घटिया हरकतें करने लगे. तो एक दिन मैं ने उन्हें सख्ती से डांट दिया. बस, 2 सप्ताह में ही उन्होंने मुझे वहां से यह कह कर हटवा दिया कि मेरे रहने पर गर्ल्स स्टूडैंट्स को एतराज है. अब जिस सोसाइटी के फ्लैट में रह रही हूं वहां के सैके्रटरी साहब, वैसे तो छोटी बहन कहते हैं, मगर बातबात में गले लगाने और देररात को, खासतौर पर उन की नर्स पत्नी की नाइट ड्यूटी होने पर, मेरी खैरियत के बहाने मेरे घर का दरवाजा थपथपाने के पीछे छिपे उन के मकसद, उन की नीयत को मैं समझ रही हूं.

‘आप भले ही इसे मेरी बेहयाई कहें या फिलहाल मुझे किसी लालच से प्रेरित समझें, मगर मैं आप के पास यह ख्वाहिश ले कर आई हूं कि मुझे आया नहीं, इन बच्चों की मां बन कर इन की परवरिश करने का मौका दें. मैं वादा करती हूं कि आप की दौलत और जमीनजायदाद से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा. सिर्फ आप की और इन बच्चों की खिदमत में जिंदगी गुजार दूंगी. बस, आप से सिर्फ यह गुजारिश करूंगी कि अगर मुझ से कभी कोई खता हो जाए तो इसी घर के किसी कोने में नौकरानी बन कर पड़े रहने की इजाजत दे दीजिएगा. उस सूरत में मुझे तलाक की सजा मत दीजिएगा’, कहतेकहते राबिया की आवाज रुंध गई और आंखों से आंसू टपकने लगे.

उन की बात सुन कर डा. जाकिर बेहद उलझन में पड़ गए थे. वे राबिया को पिछले 4 सालों से जानते थे. उन के बारे में कभी कोई इधरउधर की बात नहीं सुनी थी. मगर ऐसा कैसे मुमकिन होगा, सोचते हुए बेहद असमंजस में वे इधरउधर टहलने लगे. तो बूढ़े बावर्ची चाय ले कर पेश हुए और बोले, ‘नवाब साहब, छोटे मुंह बड़ी बात कहने की गुस्ताखी कर रहा हूं. मेरी आप से अपील है कि इन की बातों पर गौर फरमाएं. हमें इन की बातों में सचाई नजर आती है, मालिक.’

बूढ़े बावर्ची की समझाइश में कुछ ऐसा असर था कि एक सप्ताह बाद ही एक साधारण से समारोह में राबिया बानो, बेगम जाकिर अली बन गईं.

इस के 2 सप्ताह बाद ही जब राबिया ने यूनिवर्सिटी की सेवा से अपना त्यागपत्र देने की घोषणा की तो डा. जाकिर ने ही कहा था, ‘राबिया, अभी तुम ट्यूटर हो, जल्द ही तुम्हारा प्रमोशन होने वाला है. और जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हें संगीत से लगाव महज प्रोफैशनल नहीं है, वरना किसी गजल को बिलकुल अक्षरश: सही समझ कर उस की धुन तैयार हो, यह जनून प्रोफैशनल में नहीं, डिवोशनल में ही हो सकता है जो संगीत को एक इबादत का दरजा देता हो. तुम्हें यूनिवर्सिटी की नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए.’

उन की लंबी तकरीर सुन कर राबिया बेगम ने सिर्फ इतना कहा था, ‘जनाब, बच्चों की सही परवरिश और घरगृहस्थी की देखभाल भी एक इबादत है. संगीत की इबादत के लिए यूनिवर्सिटी की नौकरी की नहीं, रियाज की जरूरत होती है. मैं वक्त निकाल कर रियाज करती रहूंगी’ और उन्होंने इस्तीफा भेज दिया था.

बीते दिन फिर से लौटने लगे. राबिया की प्यारभरी देखभाल से बच्चे बेहद खुश रहते. डा. जाकिर बारबार राबिया बेगम से संगीत का रियाज जारी रखने की अपील करते. राबिया बेगम को इतने बड़े घर की देखभाल और बच्चों की परवरिश से बहुत कम समय मिलता था. फिर भी जब भी समय मिलता, वे रियाज करतीं. उन की आवाज में वह कशिश थी कि जब वे कोई गजल गाती थीं तो किसी खास भावुक पंक्ति की रवानगी पर वे इस कद्र भावुक हो जाती थीं कि शब्द आंसू बन कर उन की आंखों से बहने लगते थे और जाकिर साहब खुद की शायराना भावुकता से उन के आंसुओं को गजल के खयाल मान कर अपने होंठों से चूम लेते थे.

ऐसे ही 20-22 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. जाकिर साहब रिटायर हो गए. बच्चे अच्छे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई पूरी कर के अच्छी नौकरियों में लग गए. जाकिर साहब अब पूरी तरह किताबों में डूबे रहते. शाम को वे राबिया बेगम से कोई गजल सुनाने के बहाने रियाज के लिए प्रेरित करते थे. उस दिन राबिया बेगम फैज साहब की गजल के अशआर लय में गा रही थीं.

‘गरचे मिल बैठे जो हम तुम, वो मुलाकात के बाद,अपना एहसासे जियां जानिए कितना होगा. हम सुखन होंगे जो हम तुम तो हर इक बात के बीच, अनकही बात का मोहूम सा परदा होगा.’ अशआर के आखिरी मिसरे को गाते हुए राबिया इतनी भावुक हो गईं कि शब्द उन की आंखों से बहने लगे तो हमेशा की तरह जाकिर अली अपनी कुरसी से उठे और उन्होंने राबिया बेगम का चेहरा अपने हाथों में थाम कर उन के आसुओं को होंठों में समा लिया.

संयोग से उसी समय शाहिद की बेगम खरीदारी कर के लौटी थी. कई सारे बैग्स के बोझ को हाथों में बदलने के लिए वह उन के कमरे की इस आदमकद खिड़की के बाहर रुकी थी. तभी उस ने इस भावनात्मक दृश्य को देखा और अपने पति से शिकायत लगाई, ‘इस उम्र में यह आशनाई-तौबातौबा. अगर कोई बाहर का आदमी देख लेता तो, आप इन आदमकद खिड़कियों पर परदा लगवाने के लिए तो कहिए.’

दरअसल बात यह थी कि इस हवेलीनुमा मकान के आखिरी कोने पर बने इस आदमकद खिड़कियों वाले कमरे पर शाहिद की बीवी की मुद्दत से नजर थी. कमरे के बाहर फलदार पेड़ों की कतार, और फूलों की क्यारियां थीं. शरद की मादक चांदनी रातों में और वसंत के मौसम में कमरे से बाहर निकले बिना इस खिड़की के सामने बैठ कर ही फूलों व आमों के बौर की खुशबू के साथ उस शायराना माहौल को महसूस किया जा सकता था. शाहिद की बीवी की तालीम बीए तक थी. शायरी और उर्दू की तहजीब तो उसे नहीं थी, हां, उस का मिजाज आशिकाना जरूर था. वह पहले भी कई मौकों पर यह इच्छा जाहिर कर चुकी थी कि अब्बू और अम्मी अगर गांव में जा कर रहें तो बेहतर होगा. वरना आधी से ज्यादा हवेली में अम्मी ने जो लड़कियों के लिए स्कूल खुलवा दिया है, स्कूल वाले धीरेधीरे पूरी हवेली पर ही काबिज जो जाएंगे. जमीनजायदाद की फसल वगैरा भी अभी कारिंदों की ईमानदारी पर ही मिल रही है. तब जमीनजायदाद की भी बेहतर देखभाल हो सकेगी.

इस के अलावा, वह, एक बार डा. जाकिर द्वारा आम के बागों का ठेका उस के एक रिश्तेदार को देने से इनकार कर देने की वजह राबिया बेगम को मानती थी, इसलिए उन से मन ही मन बेहद नाराज थी. सो, वह किसी भी तरह उन्हें इस घर से अलग कर देना चाहती थी.

इस वाकए के 2 दिनों बाद जाकिर अली अपने कमरे में बैठे किसी पत्रिका के लिए एक शायर के बारे में लेख लिख रहे थे कि राबिया बेगम उन के पास आ कर बोलीं, ‘‘आप को जनाब रामकिंकर साहब याद हैं न? अरे वही रामकिंकर साहब, जो संस्कृत के प्रोफैसर थे और बाद में किसी फैलोशिप के तहत लंदन चले गए थे. फिर वहीं बस गए.’’

‘‘अरे, आप ऐसे कैसे कह रही हैं, हम ऐसे एहसानफरामोश तो नहीं कि रामकिंकर साहब को भूल जाएं. हां, बताइए क्या हुआ रामकिंकर साहब को?’’ जाकिर अली ने कलम रोक कर उत्सुकता से पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कुछ नहीं हुआ, कुछ दिनों पहले उन का फोन आया था. हमें लंदन आने का न्योता दिया है. कह रहे थे कि उन की ही एक संस्था भारतीय शास्त्रीय संगीत का कोई बड़ा कार्यक्रम करवा रही है, सो शास्त्रीय संगीत संबंधित कुछ साजों की संगत देने वालों की उन्हें काफी जरूरत है. वे तो कह रहे थे कि अब भी मेरे इल्म और हमारे फन की वहां बेहतर कदर हो सकेगी. क्या कहते हैं आप?’’ राबिया बेगम ने उन से मानो कुछ आश्वासन पाने की मुद्रा में प्रश्न किया.

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