गहरी पैठ

सरकार अब वही कर रही है जो आमतौर पर अकाल या बाढ़ का शिकार किसान करता है या नौकरी छूट जाने पर उस की पत्नी करती है. जमीन और जेवर बेच कर काम चलाना. सरकारी खर्च तो आज भी बेतहाशा बढ़ रहे हैं क्योंकि इस सरकार को किफायत करने की आदत है ही नहीं. चूंकि देश की माली हालत नोटबंदी के बाद से खराब होती जा रही है जिस को जीएसटी और कोरोना ने और खराब कर दिया, खर्च के हिसाब से सरकार की आमदनी नहीं हो रही.

पैट्रोल और डीजल के दाम अगर बढ़ रहे हैं तो इसीलिए कि सरकार के पास इन को महंगा कर के वसूली करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. कहने को तो सरकार ने उज्ज्वला गैस प्रोग्राम में 9 करोड़ घरों को गैस कनैक्शन दिए पर जब गैस सिलैंडर 850 रुपए से 1,100 रुपए तक का हो यह उज्ज्वला योजना केवल दिखावा है. लोग तो फिर बटोर कर लकड़ी जलाएंगे या उपलों पर ही खाना बनाएंगे.

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सरकार अब 6,000,000,000,000 रुपए (6,000 अरब रुपए) जमा करने को लग गई है : सरकारी कारखाने, जमीनें,  कंपनियां बेच कर. मजेदार बात यह है कि बिक्री उसी धूमधाम से की जा रही है जिस धूमधाम से हमारे यहां घर के कमाऊ सदस्य के मरने के बाद 13 या 17 दिन बाद पंडेपुजारियों और समाज को खाना खिलाया जाता है. मरने वालोंका अफसोस किसी को होता हो, बाकियों की तो बन ही आती है.

इस ब्रिकी से जनता का हक बहुत सी सेवाओं में से छीन लिया जाएगा. सस्ती रेलें, खुलेआम बाग, ऐतिहासिक धरोहरें, सड़कें, बसें, अस्पताल, सरकारी कारखाने बिक जाएंगे. जो खरीदेगा वह सब से पहले छंटनी करेगा. इन सरकारी सेवाओं और कंपनियों में बहुत से तो नेताओं के ही सगे चाचाभतीजे, साले लगे थे जो काम कुछ नहीं करते थे और उन के बेकार हो जाने का अफसोस नहीं है, पर उसी चक्कर में वे भी नप जाएंगे जिन्होंने मेहनत से नौकरी पाई और जिन्होंने नौकरी में 15-20 या ज्यादा साल गुजार दिए हैं और अब किसी नई जगह नौकरी करने लायक नहीं बचे.

देश में सरकारी और गैर सरकारी नियमित वेतन वाली नौकरियां भी बस 8 करोड़ हैं. इन 8 करोड़ में से भी कितनों का सफाया हो जाएगा, पता नहीं. बहुत सी निजी नौकरियां सरकारी मशीनरी पर ही टिकी हैं और जब वह सरकारी मशीनरी दूसरे हाथ में जाएगी तो उन के सप्लायर तो बदले ही जाएंगे. इन सप्लायरों के यहां काम करने वालोंकी नौकरियां भी समझ लें कि गईं.

नए मालिकों को तो मुनाफा कमाना है. उन के लिए जनता को सेवा देते रहना या काम चालू रखना कोई शर्त सरकार नहीं रख रही. जो लोग अच्छे दिनों के ढोल बजाबजा कर स्वागत कर रहे थे उन्हें अब एक और झटका अपनी ही सरकार का दिया लगेगा.

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पर इस से फर्क नहीं पड़ता इस देश की जनता को. वह तो सदियों से इस तरह राजाओं की मनमानी सहती रही है. उसे आदत है कि हर आफत के लिए वह पिछले जन्म के कर्मों को दोष दे, सरकार को नहीं जिस की गलत नीतियों से नुकसान हुआ.

समस्या का हल पूजापाठ और मंदिरमठ नहीं है!

नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को ही बेरोजगार दिवस जोरशोर से मना कर भारतीय जनता पार्टी के सामने खड़ी पार्टियों ने यह जता दिया है कि केवल नारों और वादों से देश की मुसीबतों का हल नहीं किया जा सकता. भारतीय जनता पार्टी जिस हिंदूहिंदू और मंदिरमठ के नाम पर राज कर रही है उस की पोल खुल रही है क्योंकि देश की क्या किसी भी आम जने की समस्या का हल पूजापाठ और मंदिर नहीं हैं, समस्या का हल तो नए कारखाने, नए व्यापार और उन को बल देने वाली उच्च तकनीकी शिक्षा है.

कोविड के कहर से दुनियाभर की सरकारों को अपने काम समेटने पड़े हैं और जनता की जान बचाने के लिए लौकडाउन करने पड़े थे पर उन देशों ने इस मौके का इस्तेमाल अपने नेता के गुणगान में नहीं किया. हमारे यहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार कोविड की मार से कराह रहे देश को नए कानूनों, नए टैक्सों और जन्मदिनों की दवा दे रही है, कोई सहायता नहीं. यह नई बात नहीं है.

हमारे किसी भी पौराणिक ग्रंथ को पढ़ लें. उस में वही सोच मिलती है जो आज भाजपा सरकार की है. शिव पुराण की पहली पंक्तियों में ही एक ऋ षि का दूसरे से मिलने पर अपने जन्म को तर जाना कहता है. भाजपा भी जनता से यही कह रही है कि हम पूजने के लिए आप को मिल रहे हैं, यह काफी नहीं है क्या. प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर 3 सप्ताह तक अखंड जागरण सा माहौल करना जताता है कि पार्टी और उस की सरकार के पास न कोईर् ठोस सोच है, न रास्ता. वह खोदखोद कर पूजापाठी स्टंटों को ढूंढ़ रही है और यह जनता की मूर्खता है कि इस भुलावे में है कि इस से उस का कल्याण हो जाएगा.

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इस देश की माटी में बहुत दम है. यहां की बारिश और गरमी भी सही जा सकती है और सर्दी भी. यहां आराम से उत्पादन भी हो रहा है और खेती भी. और इसीलिए सदियों से यहां के राजाओं और मंदिरों की शानबान की चर्र्चा दूसरे देशों में होती रही और पहाड़ों या पानी के रास्ते विदेशी इस देश में आते रहे, कुछ बसने के लिए, कुछ राज करने के लिए तो कुछ लूटने के लिए. आज बाहरी लूट से तो हम आजाद हैं पर सरकारी नीतियों और सत्ता ने जनता को अपना गुलाम बना कर लूटना शुरू कर रखा है.

नरेंद्र मोदी ने ऋ षि का रूप धारण कर के यह बताना चाहा है कि वे तो मोहमाया के झंझटों से दूर हैं, फकीर हैं और झोले वाले हैं. तो फिर उन को अपने जन्मदिन को गाजेबाजे से मनवाने की क्या जरूरत थी कि विपक्ष को उसे बेरोजगार दिवस कहने का मौका मिल गया.

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इस देश की दिक्कत यही रही है कि यहां की आम जनता मेहनती और कम में संतोष करने वाली रही है वहीं पर अपने हकों को दूसरों के हवाले करने वाली भी रही है. गांव का पुजारी हो, ठाकुर हो, इलाके का हाकिम हो या देश का राजा, उसे सिर्फपूजना आता है. जो राजा बनता है वह पुजवाने का आदी हो जाता है. नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपनी जो छवि सीधे, शरीफ व्यक्ति की बनाई थी उस पर सूटबूट तो जड़ ही गए, अब 21 दिनों के जन्मदिनों के धागे भी बंधने लगे हैं.

यह व्यक्ति पूजा ही की आदत है जो जनता को महंगी पड़ती है. पूजापाठी जनता को सिखाया ही यही जाता है. या तो उस का उद्धार कोई ऊपर वाला करेगा या राजा.

गहरी पैठ

लगभग आजादी के बाद से भारत सरकारों का गरीबों की मुसीबतों से ध्यान बंटाने में कश्मीर बड़े काम का रहा है. जब भी महंगाई, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, पानी की कमी, फसल के दामों, मजदूर कानून, मकानों की बात होती है, सरकारें कश्मीर के सवाल को खड़ा कर देती हैं कि पहले इसे सुलटा लें, फिर इन छोटे मामलों को देखेंगे. 1947 से ही कश्मीर की आग में लगातार तेल डाला जाता रहा है ताकि यह जलती रहे और देश की जनता को मूर्ख बनाया जाता रहे.

भारतीय जनता पार्टी के लिए तो यह मामला बहुत दिल के करीब है क्योंकि मुगल और अफगान शासनों के बाद डोगरा राज जब कश्मीर में आया तो ढेरों पंडितों को वहां अच्छे ओहदे मिले पर 1985 के बाद जब कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा तो उन्हें कश्मीर छोड़ कर जम्मू या अन्य राज्यों में जाना पड़ा. इन पंडितों की बुरी हालत का बखान भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा रहा है, गरीबों, किसानों, मजदूरों की मुसीबतें नहीं.

अब कश्मीर के मसले में पाकिस्तान की जगह अफगानिस्तान के तालिबानी भी आ कूद पड़े हैं. अफगानों ने कश्मीर पर 1752 से 1819 तक राज किया था और एक लाख से ज्यादा पश्तून वहां रहते हैं. तालिबानी शासकों ने साफसाफ कह दिया है कि उन्हें कश्मीर के मामले में बोलने का हक है. और चूंकि अफगानिस्तान पर पूरे कब्जे के बाद तालिबानियों के हौसले अब बुलंद हैं और चीन, रूस भी उन से उल?ाने को तैयार नहीं और पाकिस्तान तो उन का साथी है ही, कश्मीर का विवाद अब तेज होगा ही.

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नरेंद्र मोदी की सरकार अब इस मामले को चुनावों में कैसे भुनाती है, यह देखना है. 1947 के बाद अफगानिस्तान कश्मीर के मामले में आमतौर पर चुप रहा है और पाकिस्तान ही कश्मीर की पैरवी करता रहा है. पाकिस्तान का नाम ले कर अपने यहां हिंदू खतरे में है का नारा लगा कर चुनाव जीतना काफी आसान है. लोगों को चाहे फर्क नहीं पड़ता हो, पर हवा जो बांधी जाती है उस में हाय पाकिस्तान, हाय पाकिस्तान इतना होता है कि चुनाव में लगता है कि विपक्षी दल तो हैं ही नहीं और चुनाव में पाकिस्तान और देश में से एक को चुनना है. रोटी, कपड़ा, मकान बाद में देखेंगे, पहले कश्मीर और पाकिस्तान को सुलटा लें.

तालिबानी लड़ाकुओं से निबटना भारत के लिए आसान नहीं होगा. काबुल और इसलामाबाद की दोस्ती की वजह से तालिबानी लड़ाकू आसानी से भारतीय सीमा पर डटे सैनिकों से भिड़ने आ सकते हैं. चूंकि तालिबानी मरने से डरते नहीं हैं और उन के पास जो अमेरिकी हथियारों का भंडार है उसे कश्मीर में ही इस्तेमाल किया जा सकता है, हमारे लिए चिंता की बात है. हमें कश्मीर को तो बचाना है पर यह जो बहाना बनेगा सरकार के निकम्मेपन को छिपाने का, यह दोहरी मार होगी.

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अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं को भी भगा देने से अफगानों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है और वे तालिबानी पंजे कहांकहां फैलाएंगे, पता नहीं. भारत उन के चंगुल में फंसेगा या बचेगा अभी नहीं कहा जा सकता. कट्टर हिंदू भाजपा सरकार और कट्टर इसलामी तालिबानी सरकारों की आपस में बनेगी, इस की गुंजाइश कम है. गरीबों की रोजीरोटी और मकान के मसले चुनावी जंग में फिर पीछे कहीं चले जाएंगे.

गहरी पैठ

किसानों की मांगों को न मान कर भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी भूल कर रही है जिस के लिए उसे लंबे समय तक पछताना पड़ेगा. यह सोच कर भारतीय जनता तो हिंदूमुसलिम, राम मंदिर, यज्ञशालाओं, पाखंडी पूजापाठों से बहकाई जा सकती है, एक छलावा है. किसानों को दिख गया है कि भारतीय जनता पार्टी के कृषि कानूनों से उन को कोई फायदा नहीं होगा और इसीलिए धीरेधीरे ही सही, यह आंदोलन हर जगह पनप रहा है.

भाजपा को अगर खुशी है कि सारे देश में एकदम सारे किसान उठ खड़े नहीं हुए तो यह बेमतलब की बात है. किसानों के लिए किसी आंदोलन में भाग लेना आसान नहीं क्योंकि उन के लिए खेती जरूरी है और 10-20 दिन धरने पर बैठ कर या जेल में बंद रह कर फसल की देखभाल नहीं की जा सकती, इसलिए हर गांव के कुछ लोग ही आंदोलन में हिस्सा लेते हैं और वे भी हर रोज नहीं, केवल तभी जब उन के आसपास हो रहा है.

वैसे सरकार ने इस कानून को ठंडे बस्ते में डाल रखा है और न मंडियां तोड़ी गई हैं और न न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी बंद हुई है. मंच पर चढ़ कर तो नेता यही कह रहे हैं कि उन्होंने रिकौर्ड खरीद की है. अगर रिकौर्ड खरीद की होती और किसानों के हाथों में पैसा होता तो 90 करोड़ लोगों को 4 माह तक मुफ्त 5 किलो अनाज देने की जरूरत ही नहीं पड़ती.

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अगर गांवों में बरकत हो रही होती तो अमेरिका की तरह यहां मजदूरों का अकाल पड़ रहा होता. यहां तो बेरोजगारी बढ़ रही है जिन में अगर शहरी पढ़ेलिखे युवा हैं तो गांव के अधपढ़े भी करोड़ों में क्यों हैं? किसानों को दिख रहा है कि किस तरह मोटे पैसे से आज टैक कंपनियों ने कितने ही क्षेत्रों में मोनोपौली खड़ी कर ली है. आज छोटी कंपनियों का सामान बिक ही नहीं रहा. एमेजन और फ्लिपकार्ड ने किराने की दुकानों के सामने संकट खड़ा कर दिया है. ओला ने छोटे टैक्सी स्टैंडों की टैक्सियों का सफाया कर डाला है.

अडानीअंबानी चाहे न आएं और हजारों दूसरे व्यापारी भी आएं, किसान कानून छोटे किसानों, छोटे आढ़तियों, छोटे व्यापारियों को लील ले जाएंगे, यह दिख रहा है. इन के पास केवल पीठ पर सामान लाद कर घरघर पहुंचाना रह जाएगा और पैसा भी नहीं दिखेगा.

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किसानी बीघाओं में हजारों एकड़ों में होगी जैसी चाय की होती है, जहां पहले से बहुत बड़ी कंपनियों ने अंगरेजों से पहाड़ खरीदे थे.

किसान कानून मुनाफे वाली सारी उपज अमीरों के हाथों में पहुंचा सकते हैं और सस्ती उपजों को गरीब किसान और गरीब व्यापारी तक ही बांध सकते हैं. इस कानून का समर्थन सिर्फ पूजापाठी लोग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मोदी सरकार हर हालत में बचानी है जो मंदिर के धंधे को और जाति की ऊंचनीच को बनाए रखे. भाजपा अपने आज के मतलब के लिए समाज को इस तरह बांट रही है कि जब लूट हो तो कोई एकदूसरे की तरफदारी करने न आए.

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पंजाब से चला यह आंदोलन आज सिख किसानों के बाद उत्तर प्रदेश के किसानों में बुरी तरह फैल गया है. अब तो भाजपा को रैलियों में लोग मिलने बंद हो गए हैं क्योंकि पहले किसानों को बस की सवारी और 4 बार हलवापूरी के नाम पर हांक कर ले आया जा सकता था. अब वे 100 रुपए लिटर के डीजल को खर्च कर के टेढे़मेढे़ रास्तों से टै्रक्टरों पर इधर से उधर आंदोलन के लिए जा रहे हैं तो इस में दम है, बहुत दम है.

आखिर क्यों लड़कियों को ही माना जाता हैं रेप के लिए दोषी?

गरीब कमजोर लड़कियों को, खासतौर पर अगर वे निचले वर्गों से आती हों तो, रेप करने का हक हर ऊंची जाति का मर्द पैदायशी और धर्म की मोहर वाला मानता है. निचले लोग तो होते ही सेवा के लिए हैं और भोग की चीज बनाने में कोई हर्ज नहीं है, यह सोच देश के गांवगांव में भरी है. 2014 में बरेली के पास के एक गांव में दोपहर में 3 मर्दों ने तमंचे के बल पर एक शादीशुदा लड़की का रेप किया. उस की हिम्मत थी कि उस ने पुलिस, मजिस्टे्रट और डाक्टर को पूरी बात बताई और फास्टटै्रक अदालत में मामला गया.

चूंकि फास्टटै्रक कोर्ट भी ऐसे मामले को हलके में ही लेती है, गवाही तक काफी समय बीत गया और जब लड़की से अदालत ने बयान लिया तो वह मुकर गई. जाहिर है इतने दिन काफी थे एक गरीब लड़की के घर वालों को धमकाने में. ये गरीब लड़कियां न सिर्फ कमजोर हैं, उन के घर वालों ने दिमाग में भरा है कि इस तरह के जुल्म सहना तो उन के भाग में लिखा है जो पिछले जन्मों के कर्मों का फल है.

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ऐसा बहुत मामलों में होता है. मुंबई में 2015 में एक साढ़े 3 साल की बच्ची को रेप करने के मामले में एक लड़के को  6 साल जेल में तो रखा गया पर जब गवाही का समय आया तो मातापिता खिलाफ बोलने से मुकर गए. लड़की से पूछताछ वे कराना नहीं चाहते थे क्योंकि वह हादसा भूल सी चुकी थी.

भुवनेश्वर में 2003 में एससीएसटी जाति की एक मजदूरनी को रेप करने के आरोप में एक शख्स पकड़ा गया पर वह 2004 में जमानत पा गया. ट्रायल कोर्ट ने 2012 में उसे अपराधी माना पर गवाही में औरत ने कहा था कि उसे याद नहीं कि इन में से कौन लोग थे जो रात को इस अनाथ लड़की के घर में घुसे थे. उड़ीसा हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया.

18 साल की एक लड़की ने अपने ममेरे भाई के खिलाफ नोएडा में शिकायत दर्ज कराई थी कि उस का कई बार बलात्कार किया गया और धमकी दी गई कि किसी को बताए न. जब उस ने शिकायत की तो उस लड़के को पकड़ा गया और कुछ महीनों में उसे जमानत मिल गई. गवाही में लड़की अपनी शिकायत से मुकर गई और एक गवाह जो उस का दादा ही था, वह भी मुकर गया और अपराधी बच निकला.

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रेप के मामले होते ही इसलिए हैं कि लड़कियों के मन में कूटकूट कर भर दिया गया है कि रेप की दोषी वे खुद हैं और गांवों, कसबों से ले कर शहरों तक यह खेल चलता है. हर लड़की को समझा दिया जाता है कि अगर जेल हो भी गई तो लड़की को तो गंदा मान लिया ही जाएगा, इसलिए पहले शिकायत करने के बाद भी लड़कियों को कहा जाता है कि वे मुकर जाएं कि उन के साथ रेप किया गया था ताकि इज्जत बची रहे.

औरतों और खासतौर पर गरीब और निचली, पिछड़ी जातियों का रेप करना आसान रहता है क्योंकि उन को समझा दिया जाता है कि ऊंचे लोगों को तो खुश करना ही उन का काम है. हमारे देश के चकले और देहव्यापार के केंद्र इन्हीं लड़कियों से भरे हैं. रेप हमेशा होते रहे हैं और होते रहेंगे पर चोरीडकैती भी हमेशा होती रही है और होती रहेगी. पर चोर और डाकू का शिकार अपने को अपराधी नहीं मानता जबकि लड़की रेप के बाद खुद को ही गलत मानती है और यही बड़ी वजह है कि धड़ल्ले से रेप होते हैं. जब तक रेप के आरोपी छूटते रहेंगे तब तक हिम्मत बनी रहेगी, यह पक्का है और अगर शिकार के मुकरने से छूट जाओ तो समझो गंगा नहा कर पाप धो आए. पाप करो, फिर गंगा नहाओ बस.

देश में धर्म के नाम पर दंगे हो रहे हैं!

भारतीय जनता पार्टी के भक्त आजकल नाखुश हैं कि उन का रिजर्वेशन हटाने का सपना दूर होना तो दूर रिजर्वेशन किसे मिलेगा यह छूट उन की राज्य सरकारों को मिल गई है. लोकसभा और राज्यसभा ने एक संविधान बदलाव से सुप्रीम कोर्ट की बंदिश को हटाने की कोशिश की है. सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि कौन रिजर्वेशन पा सकता?है इस की सूची केंद्र सरकार ही बनाएगी. इस में बहुत दिक्कतें थीं क्योंकि कुछ जातियां एक राज्य में ऊंची थीं और दूसरे में नीची.

अभी तो सारे सांसद 50 फीसदी की लिमिट को हटाने की मांग कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी की हिम्मत नहीं हो रही है कि वह इस का खुल्लमखुल्ला विरोध कर सके.

देश में जो भी धर्म के नाम पर दंगे हो रहे हैं उन के पीछे हिंदुओं में जाति है. जाति के नाम पर बंटे हिंदुओं को भगवे लोगों को एक डंडे के नीचे लाने के लिए वे भगवा झंडा फहरा कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते हैं. इस से लोग अपने पर जाति के कारण हो रहे जुल्म भूल जाते हैं और अपना दुश्मन ऊंची जातियों के कट्टरों को न मान कर मुसलमानों को मानना शुरू कर देते हैं.

यह तरकीब सदियों से काम में आ रही है. गीता का पाठ जिस में कर्म और जन्म का उपदेश दिया गया है, दो भाइयों को लड़वा कर दिया गया था न. भाइयों की लड़ाई में जाति और जन्म का सवाल कहीं नहीं था क्योंकि दोनों कुरु वंश के थे पर कृष्ण ने उसी लड़ाई के मैदान को जाति को जन्म से जोड़ डाला और आज सैकड़ों सालों तक वह हुक्म जिंदा है. जैसे भाइयों को बांट कर इसे थोपा गया था वैसे ही आज जाति के नाम पर समाज को बांट कर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करे जा रहे हैं.

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भारतीय जनता पार्टी को जिताया गया था कि वह कृष्ण के गीता के पाठ और मनुस्मृति को और जोर से लागू करे पर वोटर की ताकत के कारण आधापौना लौलीपौप बांटना पड़ रहा है.

50 फीसदी की सीमा की कोई वजह नहीं है. यह सुप्रीम कोर्ट ने मरजी से थोप दी. पिछड़े इसे हटवाना चाहते हैं. हालांकि कुछ लाख सरकारी नौकरियों और कुछ लाख को पढ़ने के मौकों से कुछ बननेबिगड़ने वाला नहीं है. पर इस बहाने कुछ सत्ता में भागीदारी हो जाती है. वैसे हमारी पौराणिक कथाएं भरी हैं कि जब भी काले दस्युओं को राज मिला बेईमानी कर के उन से राज छीन लिया गया. यही आज गलीगली में हो रहा है.

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भाजपा को मीडिया में जो सपोर्ट मिली है वह इन लोगों से मिली है जो नहीं चाहते कि पिछड़े और निचलों को जरा भी रिजर्वेशन मिले. वे मोदी को अपना देवता इसलिए मान रहे थे कि वह ओरिजिनल हिंदू पौराणिक धर्म पिछड़ों और दलितों पर थोपेगा. उन्हें कांग्रेस और लालू यादवों जैसों से चिढ़ इसीलिए है कि वे बराबरी का हक मांग रहे हैं. हाल का बदलाव राज्य सरकारों को हक देता है पर किसी दिन 50 फीसदी की सीमा भी हटेगी और तब पूरी तरह ऊंची जमातों की भाजपा से तलाक की नौबत आएगी.

कोविड डस सकता है पर डरा नहीं सकता

यह इस देश के आम लोगों की हिम्मत ही कही जाएगी कि हर तरह के कोविड के खतरे के बावजूद जैसे ही लौकडाउन खुलता है लोग सड़कों, बाजारों, चौराहों पर जमा होने लगते हैं मानो कुछ नहीं हो रहा है या हो सकता है. कोविड 19 के खूनी पंजों से जो बच गया वह अपने को बिलकुल पहलवान समझ लेता है और बिना मास्क लगाए सटसट कर चलने का हक इस्तेमाल करने लगता है. हर शहर, राज्य में पुलिस के लिए कोविड के सिस्टम को लागू करे रखना मुश्किल हो रहा है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने न तो चारधाम यात्रा होने दी, न कांवड़ यात्रा.

यह पक्का था कि अगर ये होतीं तो प्रसाद में सारे देश में कोविड खुलेआम बंटता और लाखों फिर मरते. यह जानते हुए भी कि एकदूसरे को छूने और एकदूसरे की सांस के पास आने से कोरोना वायरस एक से दूसरे पर जा सकता है, लोग अपनी हिम्मत का खुला दरसन कराते हैं और कहते हैं कि कोविड उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

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वैसे भी इस देश की 80 फीसदी जनता हर कोविड जैसे खतरों में काम करती है. खेतों में सांपबिच्छू का डर रहता है. किसानों को हर समय बाढ़ व सूखे का डर रहता है. खेती के औजार खराब होने से मौतों का डर रहता है. पहाड़ों पर चढ़ते हुए फिसलने का डर रहता है. कुएं को खोदते हुए मिट्टी बहने का डर रहता है. मकान बनाते हुए दीवार गिरने या छत गिरने का डर रहता है.

गरीबों की रसोई भी बीमारियों से घिरी रहती है. खुले में खाना बनता है, खुले में रहता है. धूलमिट्टी तो होती है, पानी भी जो वे इस्तेमाल करते हैं, जहरीला हो सकता है. कपड़ों में बदबू रहती है. पैरों में चप्पल नाम की होती है. दस्ताने पहन कर काम करने का रिवाज हमारे यहां है ही नहीं. जहां पलपल मौत का सामना करने की आदत हो वहां आप चाहे जितने कागजी हंटर चला लें, कोई सुनेगा नहीं. तभी तो 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन अनाउंस होते ही लाखों मजदूर पैदल ही 1000-2000 किलोमीटर चलने लगे कि अपने गांव पहुंच जाएं. वे जानते थे कि कौन रास्ते में मर जाएगा क्या पता.

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ऐसे लोगों को हाथ धोना, मास्क पहनना, दूरी बनाए रखना, भीड़ जमा न करना सिखाया ही नहीं जा सकता. जो जान को हर समय हथेली पर रख कर चलते हैं उन्हें कोविड डस सकता है पर डरा नहीं सकता.

गहरी पैठ

अगर देश में महामारी, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी के बावजूद लोग चुप हैं तो इसलिए कि सरकार का खुफिया तंत्र हर ऐसे जने पर नजर रख रहा है जो सच को सामने ला सकता है. इजरायल की एक कंपनी एनएसओ ने एक सौफ्टवेयर बनाया है जो सिर्फ एक ब्लैंक काल कर के किसी के टैलीफोन में डाला जा सकता है और फिर उस का कैमरा भी चालू हो जाएगा और मैसेज भी सौफ्टवेयर के जरीए उस इजरायली कंपनी के हाथों में होंगे.

भारत सरकार चाहे इनकार कर रही है पर विदेशी खोजी पत्रकारों ने पता लगाया है कि अजरबैजान, बहरीन, मैक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब, हंगरी, बंगलादेश, भारत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों ने इस सौफ्टवेयर को खरीदा है और भारत में 400 लोगों का फोन अब टैप हो रहा है. इस का आभास इन सब लोगों को है पर कोई सुबूत अब तक नहीं था और इसी एहसास की वजह से ये सरकार की पोलपट्टी खोल नहीं रहे थे कि अपने जैसे लोगों को कैसे ढूंढ़ें और कैसे जनता के दर्द की बात को जगजाहिर करें.

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सरकार इस सौफ्टवेयर से राहुल गांधी, उन के साथियों, बहुत से पत्रकारों, अपने ही मंत्रियों की हरकतों पर नजर रख रही है और वे कुछ तैयारी करें उस से पहले गिरफ्तारी न करें तो भी कुछ न कुछ दबाव डाल देगी. जनता के दर्द की आवाज बंद हो कर रह जाती. टीवी और समाचारपत्रों में काम करने वालों को एहसास रहता है और वे इसलिए कोविड से पहले और उस के दौरान जनता के दर्द को छिपा गए.

यह जरूर है कि बहुत से लोग चुप इसलिए हैं कि वे जातिगत भेदभाव बनाए रखने वाली सैकड़ों सालों में बनी सरकार को टिकाए रखना चाहते हैं जो धर्म के धंधे को भी बढ़ावा देती है और जन्म से जिन्हें ऊंचा माना गया है, उन्हें ऊंचा रखने के नियमकानून बनाए जा रही है. वे पेगासस जैसे सौफ्टवेयर को तो पौराणिक दिव्य ज्ञान का सा मानते हैं और उस की तारीफ करते हैं.

लोकतंत्र में सरकार के खिलाफ मिलबैठ कर योजना बनाने का हक हरेक को है. इस तरह की भारत सरकार से किसी तरह की स्वीकारोक्ति की आशा तो नहीं है कि वह अपने ही नागरिकों को शक की निगाह से देखती है और उन पर विदेशी दुश्मनों की तरह की सी नजर रखती है पर यह काम विपक्ष का है कि वह इस बात को चुनावी मुद्दा बनाए. सरकार के पास हिंदूमुसलिम कार्ड का तुरुप का पत्ता है जो वह हर मौके पर इस्तेमाल करती है. पर यह कला विपक्ष को सीखनी होगी कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सरकार से रक्षा करने की जिम्मेदारी उसी की है.

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देश का पैसा देश के नागरिकों की गुप्तचरी पर नहीं लगाया जा सकता. भारत सरकार, चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवादियों का अपनी गुप्तचरी से पिछले 50-60 साल में बिगाड़ नहीं पाई. असली देशद्रोह तो यह निकम्मापन है. जिन के हाथ में देश की कमान है वे अगर अपने नागरिकों को दुश्मन समझने लगें और असली दुश्मनों से लेनदेन करने लगें तो इसे देशभक्ति नहीं कहा जा सकता.

यह न भूलें कि पेगासस का सौफ्टवेयर यदि इतना कामयाब है कि वह किसी के भी मोबाइल में घुस सकता है तो और दुनिया के कितने ही प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों पर नजर रख रहा है तो भारत के नेता बचे होंगे, यह गलतफहमी न पालें. ऐसी कंपनी को पैसा देने वाला अपने खिलाफ भी गुप्तचरी को बढ़ावा दे रहा है, यह पक्का है.

हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा!

हमारे देश के शहरों के बाजारों में अगर बेहद भीड़ दिखती है तो वह ज्यादा ग्राहकों की वजह से तो है ही, असली वजह ज्यादा दुकानदार हैं. लगभग हर शहर और यहां तक कि बड़े गांवों में भी दुकानें तो अपना सामान दुकान के बाहर रखती हैं, उस के बाद पटरी दुकानदार अपनी रेहड़ी या कपड़ा या तख्त लगा कर सामान बेचने लगते हैं. बाजार में भीड़ ग्राहकों के साथ इन दुकानदारों और उन की पब्लिक की घेरी जगह होती है.

कोविड को फैलाने में जहां कुंभ जैसे धार्मिक और पश्चिम बंगाल व बिहार जैसे चुनाव जिम्मेदार हैं, ये बाजार भी जिम्मेदार हैं. इन बाजारों में यदि पटरी दुकानदार न हों और हर दुकानदार अपना सामान दुकान में अंदर रखे तो किसी भी बाजार में भीड़ नजर आएगी ही नहीं.

पटरी दुकानदारों को असल में लगता है कि पब्लिक की जमीन तो गरीब की जोरू है जो सब की साझी है. उन्हें और कुछ नहीं आता, कोई हुनर नहीं है, खेती की जगह बची नहीं हैं, कारखाने लग नहीं रहे, आटोमेशन बढ़ रहा है तो एक ही चीज को एक ही बाजार में बेचने वाले 10 पैदा हो जाते हैं जो पटरी पर दुकान जमा कर बैठ जाते हैं और ग्राहकों के लिए फुट भर की जगह नहीं छोड़ते.

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यह सीधासादा हिसाब भारत में लोगों को समझ नहीं आता क्योंकि यहां लोगों में हुनर की कमी है और भेड़चाल ज्यादा है. एक ने देखा कि किसी के जामुन बिक रहे हैं तो 4 दिन में 20-25 दुकानदार उसी जामुन को बेचने लगेंगे. उन्हें कुछ और आता ही नहीं. 20-25 बेचने वालों का पेट ग्राहक पालते हैं, 20-25 दुकानदारों ने जो रिश्वत पुलिस या कमेटी वालों को दी, वह ग्राहक देता है और जो माल 20-25 जगह सड़ा या बिखरा वह ग्राहक से वसूला जाता है.

हमारे दुकानदार न केवल बेवकूफ हैं अब कोरोना के शाही घुड़सवार बन रहे हैं. उन की वजह से चौड़े बाजारों में ग्राहकों के लिए संकरी सी जगह चलने के लिए बच रही है. दिल्ली में कई मार्केटें बंद कर दी गईं क्योंकि लौकडाउन हटते ही पटरी दुकानदार आ गए और ग्राहकों को सटसट कर चलने को मजबूर करने लगे.

अब बेचारगी के नाम पर ढील नहीं दी जा सकती. गरीब दुकानदारों को कोई और हुनर ही सीखना होगा. भाजपा ने धर्म की दुकानें खोल रखी हैं, वहीं जाओ पर कोरोना तो वहां से भी फैलेगा.

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इन पटरी दुकानदारों को चाहे कितना बेचारा और गरीब कह लो पर अब इन की मौजूदगी पूरी जनता के लिए खतरनाक है. ग्राहकों को अब पूरा स्पेस चाहिए ताकि डिस्टैंस बना रहे. ग्राहक और दुकानदार दोनों के लिए यह जरूरी है. इस तरह के बाजार हमेशा से दुनियाभर में बनते हैं और चलते हैं पर अब समय आ गया है जब दुकानें पक्की ही हों, बड़ी हों और उन में ग्राहकों को चलने की अच्छी जगह मिले.

पब्लिक की सड़कों और बाजारों को अब बेचारे गरीब दुकानदारों के नाम पर कुरबान नहीं किया जा सकता, यह खतरनाक है. वैसे भी पटरी दुकानदार सस्ते पड़ते हैं, यह गलतफहमी है. वे बेकार में अपना समय खर्च करते हैं और इस समय की कीमत उस ग्राहक से वसूलते हैं जो उस सामान को खरीदना चाहता है. यदि एक चीज को खरीदने के लिए दिन में 100 ग्राहक बाजार आते हैं और 1-2 दुकानदारों से खरीदते हैं तो उन्हें काफी मुनाफा होगा और वे दाम कम रख सकेंगे. जब वही चीज 30-40 दुकानदार बेचेंगे तो दाम घटेंगे नहीं बढ़ेंगे क्योंकि हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा.

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देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा!

नरेंद्र मोदी का नया बड़ा मंत्रिमंडल कोई नया भरोसा दिलाने वाला नहीं है. असल में भारतीय जनता पार्टी के पास काम करने वालों में सिर्फ भक्त बचे हैं. जो योग्य हैं, कुछ नया करना जानते हैं, कुछ देश या समाज के लिए करना चाहते हैं, वे आज दुबकेसिमटे पड़े हैं क्योंकि भीड़ तो उन की है जो जयजय की ललकार कर सकते हैं, यात्राओं में जा सकते हैं, मूर्तियों के आगे पसर सकते हैं, कीमती समय धागों को बांधने में या दीए जलाने में लगा सकते हैं.

आज योग्य वही है जो एक ही बात को दिन में हजार बार दोहरा सके, सिर्फ और सिर्फ एक किताब पढ़े, प्रवचन सुने और सवाल खड़े न करे. नरेंद्र मोदी ने जितनों को नया मंत्री बनाया है या जिन को तरक्की दी है उन की खासीयत यही है कि वे सब लकीर के फकीर हैं.

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आज देश के सामने सेहत का सवाल सब से बड़ा है पर नए स्वास्थ्य मंत्री अभी भी आयुर्वेद की बात करते हैं जिस में जड़ीबूटियों को बिना छाने, छांटे, कितनी खानी है आदि की सलाह दी गई है. अब जैसे वीर्य बढ़ाने के लिए बताया गया है शरशूल, गन्ने की जड़, कांटेड की जड़, सतावरी, क्षीर विदारी, कटेरी, जीवंती, जीवक आदि को छान लें और शहद आदि मिला कर खाएं. अब वीर्य की कमी है, यह कैसे पता चलेगा? यह तो आज स्पर्म काउंट से एलोपैथी से पता चलता है. फिर आयुर्वेद का गुणगान किस काम का जो नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया करते फिरते हैं?

नरेंद्र मोदी सरकार के सारे मंत्रियों के पास हिंदूमुसलिम तनाव, पाकिस्तान, राम मंदिर, टीका, तिलक, कलेवा और अब लंबी दाढ़ी देश को ढंग से चलाने का उपाय?है. इन नए और पहले के बचे पुराने मंत्रियों से कुछ नया होगा यह भूल जाइए.

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हां, इतना जरूर है कि देश का शासक चाहे जैसा हो, देश तो चलेगा. लोग अपनी जगह काम करेंगे, किसान खेती करेंगे, बसें चलेंगी, दुकानें खुलेंगी, कारखानों में काम होगा ही. सरकार खराब हो या अच्छी फर्क नहीं पड़ता. पेट शायद सब का भर जाए और भुखमरी की नौबत आएगी ऐसा लगता नहीं है. देश की जनता इस मंत्रिमंडल से ज्यादा मेहनती और अपनी फिक्र करने वाली है.

नरेंद्र मोदी के ‘दीदी ओ दीदी’ और ‘2 मई दीदी गई’ जैसे लटके बेकार गए, ताली, थाली और दीया काम के नहीं रहे, किसान कानून किसानों के आंदोलन के कारण पस्त हो रहे हैं, बालाकोट के बावजूद पाकिस्तान वहीं का वहीं और न राफेल से डरा सकता है और न राजपथ पर योगासनों से– या नए बन रहे सरकारी आलीशान भवनों से. उलटे पाकिस्तान का अब फिर चीन के साथ अफगानिस्तान में दखल बढ़ गया है और इसी अफगानिस्तान में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भारत का विमान अपहरण कर के ले जाया गया था. भारत अमेरिका के साथ?है पर अमेरिकी जनता, जिस ने जो बाइडेन को चुना है, भारत सरकार को नहीं चाहती और भारतीय मूल की कमला हैरिस भूल कर भी भारत की बात नहीं करतीं. विदेश मंत्री जिन्हें हटना चाहिए था, वहीं हैं, रक्षा मंत्री वहीं हैं. छोटे मंत्री हटा दिए गए जो महामहिम की चमचमाती मूर्ति पर सही पौलिश नहीं लगवा पा रहे थे.

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यह मंत्रिमंडल का हेरफेर भाजपा की मजबूरी हो सकती है पर जनता के लिए किसी तरह से राहत की सांस नहीं है.

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