गहरी पैठ

सरकार अब वही कर रही है जो आमतौर पर अकाल या बाढ़ का शिकार किसान करता है या नौकरी छूट जाने पर उस की पत्नी करती है. जमीन और जेवर बेच कर काम चलाना. सरकारी खर्च तो आज भी बेतहाशा बढ़ रहे हैं क्योंकि इस सरकार को किफायत करने की आदत है ही नहीं. चूंकि देश की माली हालत नोटबंदी के बाद से खराब होती जा रही है जिस को जीएसटी और कोरोना ने और खराब कर दिया, खर्च के हिसाब से सरकार की आमदनी नहीं हो रही.

पैट्रोल और डीजल के दाम अगर बढ़ रहे हैं तो इसीलिए कि सरकार के पास इन को महंगा कर के वसूली करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. कहने को तो सरकार ने उज्ज्वला गैस प्रोग्राम में 9 करोड़ घरों को गैस कनैक्शन दिए पर जब गैस सिलैंडर 850 रुपए से 1,100 रुपए तक का हो यह उज्ज्वला योजना केवल दिखावा है. लोग तो फिर बटोर कर लकड़ी जलाएंगे या उपलों पर ही खाना बनाएंगे.

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सरकार अब 6,000,000,000,000 रुपए (6,000 अरब रुपए) जमा करने को लग गई है : सरकारी कारखाने, जमीनें,  कंपनियां बेच कर. मजेदार बात यह है कि बिक्री उसी धूमधाम से की जा रही है जिस धूमधाम से हमारे यहां घर के कमाऊ सदस्य के मरने के बाद 13 या 17 दिन बाद पंडेपुजारियों और समाज को खाना खिलाया जाता है. मरने वालोंका अफसोस किसी को होता हो, बाकियों की तो बन ही आती है.

इस ब्रिकी से जनता का हक बहुत सी सेवाओं में से छीन लिया जाएगा. सस्ती रेलें, खुलेआम बाग, ऐतिहासिक धरोहरें, सड़कें, बसें, अस्पताल, सरकारी कारखाने बिक जाएंगे. जो खरीदेगा वह सब से पहले छंटनी करेगा. इन सरकारी सेवाओं और कंपनियों में बहुत से तो नेताओं के ही सगे चाचाभतीजे, साले लगे थे जो काम कुछ नहीं करते थे और उन के बेकार हो जाने का अफसोस नहीं है, पर उसी चक्कर में वे भी नप जाएंगे जिन्होंने मेहनत से नौकरी पाई और जिन्होंने नौकरी में 15-20 या ज्यादा साल गुजार दिए हैं और अब किसी नई जगह नौकरी करने लायक नहीं बचे.

देश में सरकारी और गैर सरकारी नियमित वेतन वाली नौकरियां भी बस 8 करोड़ हैं. इन 8 करोड़ में से भी कितनों का सफाया हो जाएगा, पता नहीं. बहुत सी निजी नौकरियां सरकारी मशीनरी पर ही टिकी हैं और जब वह सरकारी मशीनरी दूसरे हाथ में जाएगी तो उन के सप्लायर तो बदले ही जाएंगे. इन सप्लायरों के यहां काम करने वालोंकी नौकरियां भी समझ लें कि गईं.

नए मालिकों को तो मुनाफा कमाना है. उन के लिए जनता को सेवा देते रहना या काम चालू रखना कोई शर्त सरकार नहीं रख रही. जो लोग अच्छे दिनों के ढोल बजाबजा कर स्वागत कर रहे थे उन्हें अब एक और झटका अपनी ही सरकार का दिया लगेगा.

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पर इस से फर्क नहीं पड़ता इस देश की जनता को. वह तो सदियों से इस तरह राजाओं की मनमानी सहती रही है. उसे आदत है कि हर आफत के लिए वह पिछले जन्म के कर्मों को दोष दे, सरकार को नहीं जिस की गलत नीतियों से नुकसान हुआ.

समस्या का हल पूजापाठ और मंदिरमठ नहीं है!

नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को ही बेरोजगार दिवस जोरशोर से मना कर भारतीय जनता पार्टी के सामने खड़ी पार्टियों ने यह जता दिया है कि केवल नारों और वादों से देश की मुसीबतों का हल नहीं किया जा सकता. भारतीय जनता पार्टी जिस हिंदूहिंदू और मंदिरमठ के नाम पर राज कर रही है उस की पोल खुल रही है क्योंकि देश की क्या किसी भी आम जने की समस्या का हल पूजापाठ और मंदिर नहीं हैं, समस्या का हल तो नए कारखाने, नए व्यापार और उन को बल देने वाली उच्च तकनीकी शिक्षा है.

कोविड के कहर से दुनियाभर की सरकारों को अपने काम समेटने पड़े हैं और जनता की जान बचाने के लिए लौकडाउन करने पड़े थे पर उन देशों ने इस मौके का इस्तेमाल अपने नेता के गुणगान में नहीं किया. हमारे यहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार कोविड की मार से कराह रहे देश को नए कानूनों, नए टैक्सों और जन्मदिनों की दवा दे रही है, कोई सहायता नहीं. यह नई बात नहीं है.

हमारे किसी भी पौराणिक ग्रंथ को पढ़ लें. उस में वही सोच मिलती है जो आज भाजपा सरकार की है. शिव पुराण की पहली पंक्तियों में ही एक ऋ षि का दूसरे से मिलने पर अपने जन्म को तर जाना कहता है. भाजपा भी जनता से यही कह रही है कि हम पूजने के लिए आप को मिल रहे हैं, यह काफी नहीं है क्या. प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर 3 सप्ताह तक अखंड जागरण सा माहौल करना जताता है कि पार्टी और उस की सरकार के पास न कोईर् ठोस सोच है, न रास्ता. वह खोदखोद कर पूजापाठी स्टंटों को ढूंढ़ रही है और यह जनता की मूर्खता है कि इस भुलावे में है कि इस से उस का कल्याण हो जाएगा.

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इस देश की माटी में बहुत दम है. यहां की बारिश और गरमी भी सही जा सकती है और सर्दी भी. यहां आराम से उत्पादन भी हो रहा है और खेती भी. और इसीलिए सदियों से यहां के राजाओं और मंदिरों की शानबान की चर्र्चा दूसरे देशों में होती रही और पहाड़ों या पानी के रास्ते विदेशी इस देश में आते रहे, कुछ बसने के लिए, कुछ राज करने के लिए तो कुछ लूटने के लिए. आज बाहरी लूट से तो हम आजाद हैं पर सरकारी नीतियों और सत्ता ने जनता को अपना गुलाम बना कर लूटना शुरू कर रखा है.

नरेंद्र मोदी ने ऋ षि का रूप धारण कर के यह बताना चाहा है कि वे तो मोहमाया के झंझटों से दूर हैं, फकीर हैं और झोले वाले हैं. तो फिर उन को अपने जन्मदिन को गाजेबाजे से मनवाने की क्या जरूरत थी कि विपक्ष को उसे बेरोजगार दिवस कहने का मौका मिल गया.

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इस देश की दिक्कत यही रही है कि यहां की आम जनता मेहनती और कम में संतोष करने वाली रही है वहीं पर अपने हकों को दूसरों के हवाले करने वाली भी रही है. गांव का पुजारी हो, ठाकुर हो, इलाके का हाकिम हो या देश का राजा, उसे सिर्फपूजना आता है. जो राजा बनता है वह पुजवाने का आदी हो जाता है. नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपनी जो छवि सीधे, शरीफ व्यक्ति की बनाई थी उस पर सूटबूट तो जड़ ही गए, अब 21 दिनों के जन्मदिनों के धागे भी बंधने लगे हैं.

यह व्यक्ति पूजा ही की आदत है जो जनता को महंगी पड़ती है. पूजापाठी जनता को सिखाया ही यही जाता है. या तो उस का उद्धार कोई ऊपर वाला करेगा या राजा.

गहरी पैठ

लगभग आजादी के बाद से भारत सरकारों का गरीबों की मुसीबतों से ध्यान बंटाने में कश्मीर बड़े काम का रहा है. जब भी महंगाई, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, पानी की कमी, फसल के दामों, मजदूर कानून, मकानों की बात होती है, सरकारें कश्मीर के सवाल को खड़ा कर देती हैं कि पहले इसे सुलटा लें, फिर इन छोटे मामलों को देखेंगे. 1947 से ही कश्मीर की आग में लगातार तेल डाला जाता रहा है ताकि यह जलती रहे और देश की जनता को मूर्ख बनाया जाता रहे.

भारतीय जनता पार्टी के लिए तो यह मामला बहुत दिल के करीब है क्योंकि मुगल और अफगान शासनों के बाद डोगरा राज जब कश्मीर में आया तो ढेरों पंडितों को वहां अच्छे ओहदे मिले पर 1985 के बाद जब कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा तो उन्हें कश्मीर छोड़ कर जम्मू या अन्य राज्यों में जाना पड़ा. इन पंडितों की बुरी हालत का बखान भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा रहा है, गरीबों, किसानों, मजदूरों की मुसीबतें नहीं.

अब कश्मीर के मसले में पाकिस्तान की जगह अफगानिस्तान के तालिबानी भी आ कूद पड़े हैं. अफगानों ने कश्मीर पर 1752 से 1819 तक राज किया था और एक लाख से ज्यादा पश्तून वहां रहते हैं. तालिबानी शासकों ने साफसाफ कह दिया है कि उन्हें कश्मीर के मामले में बोलने का हक है. और चूंकि अफगानिस्तान पर पूरे कब्जे के बाद तालिबानियों के हौसले अब बुलंद हैं और चीन, रूस भी उन से उल?ाने को तैयार नहीं और पाकिस्तान तो उन का साथी है ही, कश्मीर का विवाद अब तेज होगा ही.

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नरेंद्र मोदी की सरकार अब इस मामले को चुनावों में कैसे भुनाती है, यह देखना है. 1947 के बाद अफगानिस्तान कश्मीर के मामले में आमतौर पर चुप रहा है और पाकिस्तान ही कश्मीर की पैरवी करता रहा है. पाकिस्तान का नाम ले कर अपने यहां हिंदू खतरे में है का नारा लगा कर चुनाव जीतना काफी आसान है. लोगों को चाहे फर्क नहीं पड़ता हो, पर हवा जो बांधी जाती है उस में हाय पाकिस्तान, हाय पाकिस्तान इतना होता है कि चुनाव में लगता है कि विपक्षी दल तो हैं ही नहीं और चुनाव में पाकिस्तान और देश में से एक को चुनना है. रोटी, कपड़ा, मकान बाद में देखेंगे, पहले कश्मीर और पाकिस्तान को सुलटा लें.

तालिबानी लड़ाकुओं से निबटना भारत के लिए आसान नहीं होगा. काबुल और इसलामाबाद की दोस्ती की वजह से तालिबानी लड़ाकू आसानी से भारतीय सीमा पर डटे सैनिकों से भिड़ने आ सकते हैं. चूंकि तालिबानी मरने से डरते नहीं हैं और उन के पास जो अमेरिकी हथियारों का भंडार है उसे कश्मीर में ही इस्तेमाल किया जा सकता है, हमारे लिए चिंता की बात है. हमें कश्मीर को तो बचाना है पर यह जो बहाना बनेगा सरकार के निकम्मेपन को छिपाने का, यह दोहरी मार होगी.

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अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं को भी भगा देने से अफगानों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है और वे तालिबानी पंजे कहांकहां फैलाएंगे, पता नहीं. भारत उन के चंगुल में फंसेगा या बचेगा अभी नहीं कहा जा सकता. कट्टर हिंदू भाजपा सरकार और कट्टर इसलामी तालिबानी सरकारों की आपस में बनेगी, इस की गुंजाइश कम है. गरीबों की रोजीरोटी और मकान के मसले चुनावी जंग में फिर पीछे कहीं चले जाएंगे.

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