खुल गई आंखें : रवि के सामने आई कैसी हकीकत – भाग 2

मनीष सेना में कैप्टन था. जब रिया मां के पेट में थी उन्हीं दिनों बौर्डर पर सिक्योरिटी का जायजा लेते समय आतंकियों के एक हमले में उस की जान चली गई थी. इस के बाद सुधा टूट कर रह गई थी. पर मनीष की निशानी की खातिर वह जिंदा रही. अब उस ने लोगों की सेवा को ही अपने जीने का मकसद बना लिया था.

थोड़ी देर तक शांत रहने के बाद रवि कुछ बुदबुदाया. शायद उसे प्यास लग रही थी. सुधा उस के बुदबुदाने का मतलब समझ गई थी. उस ने 8-10 चम्मच पानी उस को पिला दिया. पानी पिला कर उस ने रूमाल से रवि के होंठों को पोंछ दिया था. फिर वह पास ही रखे स्टूल पर बैठ कर आहिस्ताआहिस्ता उस का सिर सहलाने लगी थी. यह देख कर रवि की आंखें नम हो गई थीं.

सुधा को रवि के बारे में मालूम था. डाक्टर अशोक लाल ने उसे रवि के बारे में पहले से ही सबकुछ बता दिया था. नर्सिंगहोम में रवि के दफ्तर से आनेजाने वालों का जिस तरह से तांता लगा रहता, उसे देख कर उस के रुतबे का अंदाजा लग जाता था.

कुछ दिनों के इलाज के बाद बेशक अभी भी रवि कुछ बोल पाने में नाकाम था, पर उस के हाथपैर हिलनेडुलने लगे थे. अब वह किसी चिट पर लिख कर अपनी कोई बात सुधा या डाक्टर के सामने आसानी से रख पा रहा था. कभी जब सुधा की रात की ड्यूटी होती तब भी वह पूरी मुस्तैदी से उस की सेवा में लगी रहती.

एक दिन सुबह जब सुधा अपनी ड्यूटी पर आई तो रवि बहुत खुश नजर आ रहा था. सुधा के आते ही रवि ने उसे एक चिट दी, जिस पर लिखा था, ‘आप बहुत अच्छी हैं, थैंक्स.’

चिट के जवाब में सुधा ने जब उस के सिर पर हाथ फेरते हुए मुसकरा कर ‘वैलकम’ कहा तो उस की आंखें भर आई थीं. उस दिन रवि के धीरे से ‘आई लव यू’ कहने पर सुधा शरमा कर रह गई थी.

सुधा का साथ पा कर रवि के मन में जिंदगी को एक नए सिरे से जीने की इच्छा बलवती हो उठी थी. जब तक सुधा उस के पास रहती, उस के दिल को बड़ा ही सुकून मिलता था.

एक दिन सुधा की गैरहाजिरी में जब रवि ने वार्ड बौय से उस के बारे में कुछ जानना चाहा था तो वार्ड बौय ने सुधा की जिंदगी की एकएक परतें उस के सामने खोल कर रख दी थीं.

सुधा की कहानी सुन कर रवि भावुक हो गया था. उस ने उसी पल सुधा को अपनाने और एक नई जिंदगी देने का मन बना लिया था. उस ने तय कर लिया था कि वह कैसे भी हो, सुधा को अपनी पत्नी बना कर ही दम लेगा. पर सवाल यह उठता था कि एक पत्नी के होते हुए वह दूसरी शादी कैसे करता?

उस दिन अस्पताल से छुट्टी मिलते ही रवि दफ्तर के कुछ काम निबटा कर सीधा अपने गांव चला गया था. जब वह सुबह अपने गांव पहुंचा तब घर वाले हैरान रह गए थे. बूढे़ मांबाप की आंखों में तो आंसू आतेआते रह गए थे.

पूरे घर में अजीब सा भावुक माहौल बन गया था. आसपास के लोग रवि के घर के दरवाजे पर इकट्ठा हो कर घर के अंदर का नजारा देखे जा रहे थे.

रवि बहुत कम दिनों के लिए गांव आया था. वह जल्दी से जल्दी गुंजा को तलाक के लिए तैयार कर शहर लौट जाना चाहता था. पर घर का माहौल एकदम से बदल जाने के चलते वह असमंजस में पड़ गया था. उस दिन पूरे समय गुंजा उस की खातिरदारी में लगी रही. वह उसे कभी कोई पकवान बना कर खिलाती तो कभी कोई. पर रवि पर उस की इस मेहमाननवाजी का कोई असर नहीं हो रहा था.

दिनभर की भीड़भाड़ से जूझतेजूझते और सफर की रातभर की थकान के चलते उस रात रवि को जल्दी ही नींद आ गई थी. गुंजा ने अपना व उस का बिस्तर एकसाथ ही लगा रखा था, पर इस की परवाह किए बगैर वह दालान में पड़े तख्त पर ही सो गया था. पर थोड़ी ही देर में उस की नींद खुल गई थी. उसे नींद आती भी तो कहां से. एक तो मच्छरमक्खियों ने उसे परेशान कर रखा था, उस पर से भविष्य की योजनाओं ने थकान के बावजूद उसे जगा दिया था.

रवि देर रात तक सुधा और अपनी जिंदगी के तानेबाने बुनने में ही लगा रहा. रात के डेढ़ बजे उस पर दोबारा नींद

की खुमारी चढ़ी कि उसे अपने पैरों के पास कुछ सरसराहट सी महसूस हुई. उसे ऐसा लगा मानो किसी ने उस के पैरों को गरम पानी में डुबो कर रख दिया हो.

रवि हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा, गुंजा उस के पैरों पर अपना सिर रखे सुबक रही थी. पास में ही मच्छर भगाने वाली बत्ती चारों ओर धुआं छोड़ रही थी. उस के उठते ही गुंजा उस से लिपट गई और फिर बिलखबिलख कर रोने लगी.

गुंजा रोते हुए बोले जा रही थी, ‘‘इस बार मुझे भी शहर ले चलो. मैं अब अकेली गांव में नहीं रह सकती. भले ही मुझे अपनी दासी बना कर रखना, पर अब अकेली छोड़ कर मत जाना, नहीं तो मैं कुएं में कूद कर मर जाऊंगी.’’

सम्मान की जीत- भाग 1

‘‘तुम्हें मुझ से शादी कर के पछतावा होता होगा न रूबी…’’ करन ने इमोशनल होते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, पर आज आप ऐसी बातें क्यों ले कर बैठ गए हैं,’’ रूबी ने कहा.

‘‘क्योंकि… मैं एक नाकाम मर्द हूं… मैं घर में निठल्ला बैठा रहता हूं … तुम से शादी करने के 6 साल बाद भी तुम्हें वे सारी खुशियां नहीं दे पाया, जिन का मैं ने तुम से कभी वादा किया था,’’ करन ने रूबी की आंखों में देखते हुए कहा.

‘‘नहीं… ऐसी कोई बात नहीं है. आप ने मुझे सबकुछ दिया है… 2 इतने अच्छे बच्चे… यह छोटा सा खूबसूरत घर… यह सब आप ही बदौलत ही तो है,’’ रूबी ने करन के चेहरे पर प्यार का एक चुंबन देते हुए कहा. करन ने भी रूबी को अपनी बांहों में कस लिया.

गोपालगंज नामक गांव में ही रूबी और करन के घर थे. दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना होता था और घर के बाहर दोनों का प्यार धीरेधीरे परवान चढ़ रहा था. दोनों ने शादी की योजना भी बना ली थी, साथ ही दोनों यह भी जानते थे कि यह शादी दोनों के घर वालों को मंजूर नहीं होगी, क्योंकि दोनों की जातियां इस मामले में सब से बड़ा रोड़ा थीं.

करन ब्राह्मण परिवार का लड़का था और उस का छोटा भाई पारस राजनीति में घुस चुका था और गांव का प्रधान बन गया था. रूबी एक गड़रिया की बेटी थी.

इस इश्क के चलते रूबी शादी से पहले ही पेट से हो गई थी और अब इन दोनों पर शादी करने की मजबूरी और भी बढ़ गई थी. फिर क्या था, दोनों ने अपनेअपने घर पर विवाह प्रस्ताव रखा,  पर दोनों ही परिवारों ने शादी के लिए मना कर दिया. इस के बाद इन दोनों ने अपने घर वालों की मरजी के खिलाफ एक मंदिर में शादी कर ली.

पर दोनों के ही घर वाले उन्हें अपनाने और घर में पनाह देने के खिलाफ थे, इसलिए रूबी और करन को उसी गांव में अलग रहना पड़ा.

दोनों ने गांव के एक कोने में एक झोंपड़ी बना ली थी, दोनों का जीवन प्रेमपूर्वक गुजरने लगा. करन के पास तो कोई कामधाम नहीं था, इसलिए रूबी को ही घर के मुखिया की तरह घर चलाने की जिम्मेदारी लेनी पड़ी.

गोपालगंज से 15 किलोमीटर दूर एक कसबे के एक पोस्ट औफिस में रूबी को कच्चे तौर पर लिखापढ़ी का काम मिल गया था. उसे रोज सुबह 12 बजे से शाम 5 बजे तक की ड्यूटी देनी पड़ती थी, पर वह मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटी.

धीरेधीरे रूबी की मेहनत रंग लाई. घर में चार पैसे आने लगे, तो समय को मानो पंख लग गए और इसी दौरान रूबी 2 बेटियों की मां भी बन गई थी.

रूबी ने उन के पालनपोषण और अपने काम में बहुत अच्छा तालमेल बिठा लिया था. बच्चों की दिक्कत कभी उस के काम के आड़े नहीं आई, जिस का श्रेय करन को भी जाता है, क्योंकि जब भी रूबी बाहर जाती है, करन पर घर रह कर बच्चों का ध्यान रखता है.

रूबी ने कसबे के स्कूल जा कर इंटरमीडिएट तक पढ़ाई कर ली थी और उस के बाद प्राइवेट फार्म भर कर ग्रेजुएशन भी कर ली थी.

बचपन से ही रूबी को समाजसेवा करने का बहुत शौक था. उस के मन में गरीबों के लिए खूब दया का भाव था, इसलिए वह अब पोस्ट औफिस में डाक को छांटने और लिखापढ़ी के काम के साथसाथ शहर की एक समाजसेवी संस्था के साथ जुड़ गई थी, जो महिलाओं पर हो रहे जोरजुल्म के खिलाफ काम करती थी.

इस संस्था से जुड़ कर रूबी को मशहूरी मिलनी भी शुरू हो गई थी. शुरुआत में तो वह महिलाओं में जनजागरण करने के लिए पैदल ही गांवगांव घूमती थी, इस काम में उस की सहायक महिलाएं भी उस के साथ होती थीं, पर जब काम का दायरा बढ़ा तो

उस ने अपने लिए एक ईरिकशा भी खरीद लिया.

फिर क्या था, वह खुद आगे ड्राइविंग सीट पर बैठ जाती और पीछे अपनी सहायक महिला दोस्तों को

वह खुद बिठा लेती और गांवों में महिलाओं को सचेत करती और उन्हें आत्मनिर्भर होने का संदेश देती.

…धीरेधीरे रूबी पूरे इलाके में रिकशे वाली भाभी के नाम से जानी जाने लगी.

समाजसेवा का काम बढ़ जाने के चलते रूबी ने पोस्ट औफिस वाला काम भी छोड़ दिया था और अपने को पूरी तरह से समाजसेवा में लगा दिया.

गैरजाति में शादी कर लेने के चलते रूबी और करन पहले से ही गांव के सवर्ण लोगों की आंख में बालू की तरह खटक रहे थे, ऊपर से रूबी के इस समाजसेवा वाले काम ने घमंडी मर्दों के लिए एक और परेशानी खड़ी कर दी थी.

गांव के लोगों को लगने लगा कि अगर रूबी इसी तरह से लोगों को अपने होने वाले जोरजुल्म के खिलाफ जागरूक करती रही, तो एक दिन मर्दों का दबदबा ही खत्म हो जाएगा.

एक दिन जब रूबी अपने ईरिकशा से काम के बाद वापस आ रही थी, तो करन के छोटे भाई पारस, जो गांव का प्रधान भी था, ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘क्या भाभी… कहां चक्कर में पड़ी हो… इस झमेले वाले काम के चक्कर में जरा अपनी कोमल काया को तो देखो… कैसी काली पड़ गई हो,’’ पारस ने रूबी के सीने पर नजरें गड़ाते हुए कहा. दिनरात मेहनत करने से तुम्हारा मांस तो गल ही गया है… सूख कर कांटा होती जा रही हो और इन कोमल हाथों में ईरिकशा चला कर छाले पड़ गए हैं…

‘‘क्या इसी दिन के लिए तुम ने भैया से शादी की थी कि तुम्हें गलियों की धूल खानी पड़े…’’ पारस की नजरें अब भी रूबी के शरीर का मुआयना कर रही थीं.

‘‘क्या… भैया… आज बड़ी चिंता हो रही है मेरी…’’ रूबी ने ऊंची आवाज

में कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी चिंता… अब आप भले ही नीची जाति की हों… पर अब तो मेरी भाभी बन गई हो न… तो हम लोग अपनी भाभी की चिंता नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?

‘‘वैसे, सच कहते हैं भाभी… तुम्हें देखने से यह नहीं लगता है कि तुम

2 बच्चों को पैदा कर चुकी हो… बड़ा फिगर मेंटेन किया है आप ने.’’

‘‘ये आप किस तरह की बातें कर रहे हो? आखिर चाहते क्या हो…?’’ रूबी की आवाज तेज थी.

‘‘कुछ नहीं भाभी… बस इतना चाहते हैं कि आप एक रात के लिए हमारे साथ सो जाओ. बस… कसम से… खुश कर देंगे आप को…’’

पारस अपनी बात को अभी खत्म भी नहीं कर पाया था कि तभी रूबी के एक तेज हाथ का जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर पड़ा

पारस गाल पकड़ कर रह गया. कुछ दूरी पर खड़े लोगों ने भी यह मंजर देख लिया था.

अचानक पड़े थप्पड़ के चलते और मौके की नजाकत को देखते हुए पारस वहां से तुरंत हट गया. मन में रूबी से बदला लेने की बात ठान ली.

उस दिन की घटना का जिक्र रूबी ने किसी से नहीं किया और सामान्य हो कर काम करती रही.

जिस समाजसेवी संस्था के लिए रूबी काम करती थी, वह संस्था उस

के द्वारा की जा रही कोशिशों से काफी

खुश थी और रूबी अपने काम को

और भी बढ़ाने में लगी हुई थी.

दिनभर जनसंपर्क के बाद जब रूबी शाम को घर लौटती, तो पति और बच्चे घर के दरवाजे पर इंतजार करते मिलते. उन्हें देख कर उस की सारी थकान मिट जाती और वह अपनी बच्चियों को अपने बांहों में भर लेती और अपनी स्नेहभरी आंखों से अपने पति को भी धन्यवाद देती कि उस ने बेटियों का ध्यान रखा.

आज जब काम के बाद रूबी घर लौट रही थी, तो उस की दोनों बेटियां गांव की टौफी और चिप्स की दुकान पर चिप्स खरीदती दिखीं, उन्हें इस तरह बाहर का सामान खरीदने के लिए रूबी ने पैसे तो दिए नहीं थे, फिर इन के पास पैसे कहां से आए…?

‘‘अरे, तुम यहां चिप्स खरीद रही हो… पर यह तो बताओ कि तुम्हारे पास चिप्स के लिए पैसे कहां से आए…?’’ रूबी ने उन्हें बहला कर पूछा.

‘‘मां… हमें पापा ने पैसे दिए थे और यह भी कह रहे थे कि बाहर जा कर खेलना… तभी हम लोग बाहर घूम रहे हैं,’’ बड़ी बेटी ने जवाब दिया.

न जाने क्यों, पर रूबी को यह बात कुछ अजीब सी लगी, पर फिर भी उस ने सोचा कि बच्चे अकेले करन को परेशान कर रहे होंगे, तभी उस ने पैसे दे कर बाहर भेज दिया होगा. इसी सोच के साथ वह बच्चों को ले कर घर आ गई.

घर में करन बिस्तर पर पड़ा हुआ आराम कर रहा था. रूबी के घर पहुंचने पर भी वह लेटा रहा और सिरदर्द होने की बात भी बताई. रूबी ने हाथपैर धो कर चाय बनाई और दोनों साथ बैठ कर पीने लगे.

चाय पीने के बाद जब रूबी रसोईघर में काम करने गई, तो वहां उस को एक पायल मिली. पायल देख कर उसे लगा कि क्या उस के पीछे किसी से करन का मामला तो नहीं चल रहा है?

रूबी ने वह पायल अपने पास रख ली और करन से इस बात का जिक्र तक नहीं किया.

एक दिन की बात है. रूबी काम से थकीहारी आ रही थी. उस ने देखा कि उस की दोनों बेटियां उसी दुकान पर फिर से कुछ खाने का सामान खरीद रही थीं. आज वह चौंक उठी थी, क्योंकि इस तरह से बच्चियों को पैसे ले कर दुकान पर आना उसे ठीक नहीं लग रहा था.

‘‘अरे आज फिर पापा ने पैसे दिए क्या?’’ रूबी ने पूछा.

‘‘नहीं मां… आज हमारे घर में गांव की एक आंटी आईं और उन्होंने ही हमें पैसे दिए.’’

बच्चों की बात पर सीधा भरोसा करने के बजाय रूबी ने घर जा कर देखना ही उचित समझा.

घर का दरवाजा अंदर से बंद था. अंदर क्या हो रहा है, यह जानने के लिए रूबी ने दरवाजे के र्झिरी से आंख लगा दी तो अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई. कमरे में करन किसी औरत पर झुका हुआ था और अपने होंठों से उस औरत के पूरे शरीर पर चुंबन ले रहा था, वह  औरत भी करन का पूरा साथ दे रही थी.

यह सब देख कर रूबी वहीं धम्म से दरवाजे पर बैठ गई. आंसुओं की धारा उस की आंखों से बहे जा रही थी.

कुछ देर बाद ‘खटाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला और एक औरत अपनी साड़ी के पल्लू को सही करते हुए बाहर निकली. रूबी ने उसे पहचान लिया था. यह गांव की ही एक औरत थी, जिस का पति बाहर शहर में ही रहता है और तीजत्योहार पर ही आता है. गांव में यह औरत अपने ससुर के साथ रहती है.

रूबी उस औरत से एक भी शब्द न कह पाई, अलबत्ता वह औरत पूरी बेशर्मी से रूबी को देख कर मुसकराते हुए चली गई.

रूबी बड़ी मुश्किल से अंदर गई. करन ने रूबी से हाथ जोड़ लिए. ‘‘मैं बेकुसूर हूं रूबी… यह औरत गांव में बिना मर्द के रहती है… आज जबरन कमरे में घुस आई… और बच्चों को बाहर भेज दिया. फिर मुझ से कहने लगी कि अगर मैं ने उस की प्यास नहीं

बुझाई, तो वह मुझ पर बलात्कार का आरोप लगा देगी… अब तुम्हीं बताओ… मैं क्या करता… मैं मजबूर था,’’ रोने लगा था करन.

रूबी कुछ नहीं बोल सकी. शायद अभी उस में सहीगलत का फैसला करने की हिम्मत नहीं रह गई थी.

पीछा करता डर : पीठ में छुरा भाग – 1

नंदन माथुर और भानु प्रकाश दोनों बड़े बिजनेसमैन थे. साथ खानेपीने और ऐश करने वाले. भानु विदेश गया तो एक जैसे 2 मोबाइल ले आया. एक अपने लिए दूसरा दोस्त के लिए. लेकिन नंदन ने उस का तोहफा नहीं लिया. फिर भानु ने उसी मोबाइल को हथियार बना कर नंदन को ऐसा नाच नचाया कि…

उस रात सर्दी कुछ ज्यादा ही थी. लेकिन आम लोगों के लिए, अमीरों के लिए नहीं. अमीरों की वह ऐशगाह भी शीतलहर से महरूम थी, जिस का रूम नंबर 207 शराब और शबाब की मिलीजुली गंध से महक रहा था.

इस कमरे में नंदन माथुर ठहरे थे. पेशे से एक्सपोर्टर. लाखों में खेलने वाले इज्जतदार इंसान.

रात के पौने 9 बजे थे. कैनवास शूज से गैलरी के मखमली कालीन को रौंदता हुआ एक व्यक्ति रूम नंबर 207 के सामने पहुंचा. आत्मविश्वास से भरपूर वह व्यक्ति कीमती सूट पहने था. उस ने पहले ब्रासप्लेट पर लिखे नंबर पर नजर डाली और फिर विचित्र सा मुंह बनाते हुए डोरबेल का बटन दबा दिया.

दरवाजा खुलने में 5 मिनट लगे. कमरे के अंदर लैंप शेड की हलकी सी रोशनी थी, जिस में दरवाजे से अंदर का पूरा दृश्य देख पाना संभव नहीं था1 अलबत्ता कमरे के बाहर गैलरी में पर्याप्त प्रकाश था.

नंदन माथुर सर्दी के बावजूद मात्र बनियान व लुंगी पहने थे. उन के बाल भीगे थे और ऐसा लगता था, जैसे बाथरूम से निकल कर आ रहे हों. दरवाजे पर खड़े व्यक्ति को देख नंदन का समूचा बदन कंपकंपा कर रह गया. उन्होंने घबराए स्वर में कहा, ‘‘भानु तुम! इस वक्त…’’

‘‘ऐसे आश्चर्य से क्या देख रहे हो? मैं भूत थोड़े ही हूं,’’ सूटवाला कमरे में प्रवेश कते हुए बोला, ‘‘मैं भी इसी होटल में ठहरा हूं. कमरा नंबर 211 में. अकेला बोर हो रहा था, सो चला आया.’’

‘‘वो तो ठीक है, लेकिन…’’ नंदन माथुर दरवाजा खुला छोड़ कर भानु के पीछेपीछे चलते हुए बोले.

‘‘लेकिन वेकिन बाद में करना, पहले दरवाजा बंद कर के कपड़े पहन लो. सर्दी बहुत तेज है. सर्दी में पैसे और बदन की गरमी भी काम नहीं करती दोस्त,’’ भानु कुर्सी पर बैठते हुए व्यंग्य से बोला, ‘‘इतनी ठंड में नहा रहे थे. लगता है, पैसे की गरमी कुछ ज्यादा ही है तुम्हे.’’

नंदन की टांगे थरथरा रही थीं. कुर्सी पर पड़ा तौलिया उठा कर गीले बाल पोंछते हुए उन्होंने सशंकित स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहां ठहरा हूं.’’

‘‘चाहने वाले कयामत की नजर रखते है दोस्त,’’ भानु ने उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ते हुए व्यंग्य किया, ‘‘आया हूं, तो थोड़ी देर बैठूंगा भी. तुम कपड़े पहन लो. फिर आराम से सवाल करना.’’

भानु ने दरवाजा बंद किया, तो नंदन माथुर का दिल धकधक करने लगा. नंदन चाहते थे कि भानु किसी भी तरह चला जाए, जबकि भानु जाने के मूड में कतई नहीं था. मजबूरी में नंदन ने गर्म शाल लपेटा और भानु के सामने आ बैठे. उन के चेहरे पर अभी भी हवाइयां उड़ रही थीं. बैठते ही उन्होंने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘‘तुम्हें पता कैसे चला, मैं यहां ठहरा हूं?’’

‘‘इत्तफाक ही समझो,’’ भानु ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘वरना तुम ने किलेबंदी तो बड़ी मजबूत की थी, अशरफ खान साहब उर्फ नंदन माथुर’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब कुछ नहीं यार! मैं ने पार्किंग में तुम्हारी गाड़ी खड़ी देखी तो समझा, तुम ठहरे होगे. रिसेप्शन से पता किया तो रजिस्टर में तुम्हारा नाम नहीं था. मैं ने सोचा 2 बजे तक तो तुम औफिस में थे. उस के बाद ही आए होगे. यहां 4-5 बजे पहुंचे होगे.

मैं ने रिसेप्शनिस्ट से 4 बजे के बाद आने वाले कस्टमर्स के बारे में पता किया तो पता चला, केवल एक मुस्लिम दंपत्ति आए हैं, जो कमरा नंबर 207 में ठहरे हैं. मैं सोच कर तो यही आया था कि इस कमरे में अशरफ खान और नाजिया खान मिलेंगे, लेकिन दरवाजा खुला तो नजर आए तुम… तुमने और भाभी ने धर्म परिवर्तन कब किया नंदन?’’

नंदन माथुर का चेहरा सफेद पड़ गया. जवाब देते नहीं बना. उन्हें चुप देख भानु इधरउधर ताकझांक करते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन भाभी हैं कहां? कहीं बाथरूम में तो नहीं हैं? बाथरूम में हों तो बाहर बुला लो. ठंड बहुत है, कुल्फी बन जाएंगी.’’

‘‘फिलहाल तुम जाओ भानु. प्लीज डोंट डिस्टर्ब मी. हम सुबह बात करेंगे.’’ नंदन माथुर ने कहा तो भानु पैर पर पैर रख कर कुरसी पर आराम से बैठते हुए बोला, ‘‘मैं जानता हूं नंदन. बाथरूम में भाभी नहीं, बल्कि वो है, जिस के लिए तुम ने अपनी पहचान तक बदल डाली. फिर भी इतने रूखेपन से मुझे जाने को कह रहे हो. यह जानते हुए भी कि मैं बाहर गया तो तुम्हारा राज भी बाहर चला जाएगा.’’

‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ नंदन ने आवाज थोड़ी तीखी करने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा.

भानु मुस्कराते हुए बोला, ‘‘इस राज को शराब के गिलास में डुबो कर गले से नीचे उतार लेना चाहता हूं… तुम्हारी इज्जत की खातिर. तुम्हारे परिवार की खातिर. बस इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहता मैं.’’

‘‘यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं तुम्हें धक्के दे कर भी बाहर निकाल सकता हूं.’’ नंदन ने गुस्से में खड़े होते हुए कहा, तो भानु उसे बैठने का इशारा करते हुए धीरे से बोला, ‘‘धीर गंभीर व्यक्ति को गुस्सा नहीं करना चाहिए. जरा सोचो, तुम ने मुझे धक्के दे कर निकाला तो मैं चीखूंगा.

‘‘चीखूंगा तो वेटर आएंगे. मैंनेजर आएगा. कस्टमर आएंगे. जब उन्हें पता चलेगा कि मैं तुम्हारे कमरे में जबरन घुसा था तो वे पुलिस को बुलाएंगे.

‘‘पुलिस मुझ से पूछताछ करेगी. जाहिर है, मैं अपने बचाव के लिए नंदन माथुर उर्फ अशरफ खान की पूरी कहानी बता दूंगा. पुलिस से बात पत्रकारों तक पहुंचेगी और फिर अखबारों के जरीए यह खबर सुबह तुम से पहले तुम्हारे घर पहुंच जाएगी. खबर होगी एक्सपोर्टर नंदन माथुर होटल में अय्याशी करते मिला. मेरा ख्याल है, तुम ऐसा कतई नहीं चाहोगे.’’

पलभर में ही नंदन की सारी अकड़ ढीली पड़ गई. उन्होंने बैठते हुए थकी सी आवाज में पूछा, ‘‘क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की पीनी है, तुम्हारे और उस के साथ.’’

‘‘ह्विस्की नहीं है मेरे पास.’’ नंदन ने रूखे स्वर में कहा, तो भानु इधरउधर तांकझांक करते हुए बोला, ‘‘क्यों झूठ बोलते हो यार. पूरा कमरा तो महक रहा है.’’

तेजतर्रार तिजोरी : रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा – भाग 1

बचपन में उस गेहुंए रंग की देहाती बाला का नाम तिजोरी रख दिया गया था. समय के साथसाथ वह निखरती चली गई और अब वह 16 सावन देखते हुए इंटर पास करने के बाद अपने पिता रघुवीर यादव का कामकाज देखती है. उस का तिजोरी नाम इसलिए रख दिया गया था कि उस के खेतिहर किसान पिता रघुवीर यादव ने चोरीडकैती के डर से उस के जन्म होने वाले दिन ही लोहे की मजबूत तिजोरी खरीद कर अपने घर के बीच वाले कमरे की मोटी दीवार में इतनी सफाई से चिनवाई थी कि दीवार देख कर कोई समझ नहीं सकता था कि उस दीवार में तिजोरी भी हो सकती है.

अनाज उपजाने के साथसाथ रघुवीर यादव की मंडी में आढ़त भी थी और छोटे  किसानों की फसलों को कम दामों में खरीद कर ऊंचे दामों पर बेचने का हुनर उन्हें मालूम था. उन का बेटा महेश, तिजोरी से 3 साल छोटा था. पढ़ाई से ज्यादा महेश का मन गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में लगता था. पेड़ों पर चढ़ कर आम तोड़ने में भी उसे मजा आता था. इस के उलट तिजोरी को तीसरी जमात में ही 20 तक के सारे पहाड़े याद हो गए थे. 12वीं जमात तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उस ने गणित में 100 में से 99 नंबर न पाए हों और सभी विद्यार्थियों को पछाड़ कर वह फर्स्ट डिवीजन न आई हो.

यही वजह थी कि दिनभर की सारी कमाई का हिसाब रघुवीर यादव ने 10वीं पास करते ही तिजोरी को सौंप दिया था. तिजोरी को उस लोहे की तिजोरी के

तीनों खानों की खबर थी कि कहां क्या रखा है.

रकम बढ़ी, तो रघुवीर यादव ने जेवरों को गिरवी रखने का काम भी शुरू कर दिया था और इस का लेखाजोखा भी तिजोरी के पास था.

12वीं जमात के बाद उस गांव में डिगरी कालेज खुलने की बात तो कई बार उठी, पर अभी तक खुल नहीं पाया था और इस के चलते तिजोरी की आगे की पढ़ाई न हो सकी.

घर के काम में मां का हाथ बंटाने के साथ खेतखलिहान और हाट बाजार का जिम्मा भी तिजोरी के पास था. पहले तो वह अकेली ही पूरे गांव में अपने काम से घूमती रहती थी, फिर जब महेश  बड़ा हुआ तो उस को साथ ले कर  अपने खेतों में गुल्लीडंडा खेलने या महेश के संगीसाथियों के साथ खेलने निकल जाती.

तिजोरी की हरकतें देख कर कोई अनजान आदमी सोच भी नहीं सकता था कि वह 5 फुट, 2 इंच की लड़की 12वीं जमात पास कर चुकी है.

उन्हीं दिनों गांव में नए पावर हाउस बनाने और ऊंचे खंभे गाड़ कर उन पर बिजली के तार कसने का काम करने के लिए कौंट्रैक्टर सुनील के साथ शहर से कुछ अनुभवी व हलकेफुलके तकनीकी काम जानने वाले मजदूरों ने उस गांव में डेरा डाला.

वे सभी हाईस्कूल या इंटर तो पास थे ही और बिजली महकमे द्वारा ट्रेंड भी थे, पर नौकरी पक्की नहीं थी. एक दिन तिजोरी महेश के साथ गेहूं की कट चुकी फसल को बोरियों में भरवा कर खेत के पास ही बने अपने पक्के गोदाम में रखवाने घर से निकल कर जा रही थी, तो रास्ते में पड़ने वाले आम के पेड़ के पास रुक गई.

2 मोटीमोटी चोटियां और लंबी सी 2 जेब वाली फ्रौक पहने तिजोरी ने पहले तो 3-4 बार उछल कर सड़क की तरफ वाली पेड़ की झुकी डालियों से आम तोड़ने की कोशिश की और जब उसे लगा कि उस की पहुंच आमों तक नहीं हो पा रही है, तो उस ने महेश को पेड़ पर चढ़ा दिया.

ऊपर से जब महेश ने आम तोड़तोड़ कर नीचे फेंकने शुरू किए तो हर फेंके हुए आम को तिजोरी ने ऐसे कैच किया मानो कोई क्रिकेट का मैच चल रहा हो और उस से कहीं कोई कैच न छूट जाए.

बिजली के खंभों और तारों को एक ट्रैक्टरट्रौली में लदवा कर उस पेड़ के पास से गुजरते हुए असिस्टैंट श्रीकांत और दूसरे मजदूरों के साथसाथ जब कौंट्रैक्टर सुनील की नजर तिजोरी पर पड़ी, तो उस ने ट्रैक्टर को वहीं रुकवा दिया और गौर से उस के गंवारू पहनावे को देख कर बोला, ‘‘ऐ छोकरी, आज जितने आम तोड़ने हैं तोड़ ले, कल तो यहां पर इस पेड़ को काट कर खंभा गाड़ दिया जाएगा.’’

महेश को पेड़ से उतरने का इशारा करते हुए तिजोरी एकदम से सुनील की तरफ घूमी और बोली, ‘‘मेरा नाम छोकरी नहीं तिजोरी है, तिजोरी समझे. और बिजली के खंभे गाड़ने आए हो, तो सड़क के किनारे गाड़ोगे या किसी के खेत में घुस जाओगे.’’

‘‘अब यह पेड़ बीच में आ रहा है, तो इसे तो रास्ते से हटाना होगा न,’’ सुनील ने समझाना चाहा, तो तिजोरी बोली, ‘‘तुम गौर से देखो, तो पेड़ सड़क से 5 मीटर दूर है… हां, आमों से लदी 5-7 डालियां जरूर सड़क के पास तक आ रही हैं तो तुम पूरा पेड़ कैसे काट दोगे. मैं तो ऐसा नहीं होने दूंगी.’’

इतना कहते हुए तिजोरी ने आखिरी कैच करे कच्चे आम को भी अपने फ्रौक की जेब में ठूंसा और महेश के साथ अपने खेत की तरफ दौड़ पड़ी.

तिजोरी के जाते ही श्रीकांत बोला, ‘‘सुनील सर, वह छोकरी कह तो सही रही थी और मैं समझता हूं कि इस आम के पेड़ का मोटा तना 5 मीटर दूर ही होगा और हमारे खंभे गाड़ने में आड़े नहीं आएगा.’’

सुनील तिजोरी को दूर तक जाते हुए देखता रहा, फिर वह दोबारा ट्रैक्टर पर चढ़ कर उसी दिशा में बढ़ गया, जिधर तिजोरी गई थी और जहां बिजली महकमे ने अपना स्टोर बना रखा था.

एक बड़े गोदाम की ऊंची दीवार से सटी खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कांटे वाले तारों से एक खुली जगह को चौकोर घेर कर खुले में टैंपरेरी स्टोर बना लिया गया था.

बिजली के खंभे, गोलाई में लिपटे मोटे एलुमिनियम तार के बड़े गुच्छे, लोहे के एंगल व चीनी मिट्टी के बने कटावदार हैंगर वगैरह सामान का वहां स्टौक किया जा रहा था. पास में ही इस गांव से दूसरे गांव को जाने वाली मेन सड़क थी.

खेतों के बीच से होती हुई पीछे के गांव से आने वाले हाई टैंशन 440 वोल्ट की बिजली को पहले तो गांव में सप्लाई के लायक बनाने के लिए वहीं पास में बड़ा ट्रांसफार्मर लगा कर पावर हाउस बनाना था और उस पावर हाउस से बिजली के खंभे की मदद से उस गांव के बचे हुए बहुत सारे घरों तक बिजली पहुंचानी थी.

रघुवीर यादव के खेतों की सीमा भी स्टोर के पास आ कर मिलती थी. तिजोरी महेश के साथ जब मेन रास्ता छोड़ कर मेंड़ों पर चलती हुई अपने खेतों में पहुंची, तो मजदूर गेहूं की फसल काट कर गट्ठर बनाबना कर वहां पहुंचा रहे थे, जहां बालियों से दाने अलग और भूसा अलग किया जा रहा था.

तिजोरी को देख कर कुछ अधेड़ मजदूर चिल्लाए, ‘वह देखो मालकिन आ गईं.’

महेश के साथ कच्चे आमों की खटास का मजा लेती हुई तिजोरी एक मजदूर के पास आ कर रुक गई. वह बोली. ‘‘काका, यह तुम्हारे साथ मुस्टंडा सा लड़का कौन है? इसे मैं आज पहली बार देख रही हूं.’’

‘‘बिटिया, आज से मेरी जगह यही काम करेगा. यह मेरे ही गांव का है शंभू. मेरा भतीजा लगता है. जवान है और तेजी से काम कर लेगा. मुझे एक हफ्ते के लिए अपनी पत्नी को ले कर ससुराल जाना है. फसल काटने का समय है. ऐसे में एकएक दिन की अहमियत मैं समझता हूं.’’

शंभू लगातार उसे अजीब सी निगाहों से घूरे जा रहा था. तिजोरी को उस का यों घूरना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा. वह बोली, ‘‘ठीक है काका, तुम जाओ, लेकिन अपने भतीजे को भी साथ ले जाओ. मुझे जरूरत पड़ेगी तो दूसरा इंतजाम कर लूंगी.’’

इतना कह कर दूसरे मजदूरों को तेज हाथ चलाने का निर्देश देते हुए तिजोरी आगे बढ़ गई. अगले खेत के गेहूं गट्ठर, बाली से दाना व भूसा निकलने वाली मशीन तक पहुंच चुके थे. काका उसी समय शंभू को ले कर चले गए. वे जानते थे कि तिजोरी बिटिया की इच्छा के बिना यहां कोई मजदूरी नहीं कर सकता.

शंभू काका के साथ वापस जाते हुए पीछे मुड़मुड़ कर दूर जाती तिजोरी को देखता रहा, पर वह अपनी ही धुन में कच्चे आमों का स्वाद लेती हुई अगले खेतों की तरफ बढ़ती जा रही थी.

तिजोरी ने चारों खेतों और एक खेत के कोने में चलती मशीन को देख कर समझ लिया कि काम ठीक से चल रहा है, लेकिन अभी खेतों को बिलकुल साफ होने और गेहूं व भूसे की बोरियों को ढंग से गोदाम पहुंचा कर रखने में कम से कम 2 से 3 दिन और लगेंगे.

निश्चिंत हो कर तिजोरी महेश से बोली, ‘‘तू यहीं रुक. मैं गोदाम से पानी पी कर आती हूं और लौटते में गुल्लीडंडा भी लेती आऊंगी. तू तब तक उस

खाली खेत में छोटा गड्ढा खोद कर गुच्ची बना कर रख, मैं अभी आई,’’ कहते हुए तिजोरी अपने खेतों के बीच होते हुए उस कोने में पहुंच गई, जहां एक पक्का गोदाम बना था. सवेरे साढ़े 10 बज चुके थे.

अपनी फ्रौक की जेब से चाभी का गुच्छा निकाल कर तिजोरी ने गोदाम के शटर के दोनों ओर लगे ताले खोल कर शटर उठाना शुरू ही किया था कि उस की नजर गोदाम की दीवार से सटा कर कांटेदार तारों से घेर कर बनाए हुए बिजली महकमे के उस स्टोर पर पड़ी, जहां श्रीकांत स्टौक चैक कर रहा था और कौंट्रैक्टर सुनील अपने जरूरी रजिस्टर के पन्ने पलट रहा था.

आधा शटर ऊपर उठा कर तिजोरी रुक गई, फिर गोदाम की शटर वाली दीवार के कोने पर जा कर उस ने उस खुले स्टोर में झांका.

श्रीकांत की नजर जब तिजोरी पर पड़ी,तो उस ने अपने बौस को इशारा किया. चूंकि सुनील की पीठ तिजोरी की तरफ थी, इसलिए इशारा पा कर वह पलटा और उसे देख कर दंग रह गया.

अपने रजिस्टर वहीं रख कर और श्रीकांत को स्टौक चैक करते रहने की कह कर सुनील तिजोरी के करीब आया और एक अजीब सी उमंग में भर कर बोला, ‘‘तुम यहां…?’’

‘‘हां, यह जिस दीवार से सटा कर तुम ने अपना स्टोर बनाया है, यह गोदाम मेरे पिताजी का है और इस के आसपास के चारों खेत भी हमारे ही हैं.’’

‘‘पर, तुम यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मैं तो गोदाम से अपना गुल्लीडंडा निकालने आई थी, फिर प्यास भी लग रही थी तो सोचा कि पानी भी पी आऊं.’’

‘‘तो तुम्हारे गोदाम में प्यास बुझाने का भी इंतजाम है?’’ कहने के साथसाथ सुनील उस की देह को घूरने लगा.

तिजोरी बोली, ‘‘लगता है, शादी नहीं हुई अभी तक. जिस प्यास को तुम बुझाना चाह रहे हो उस के लिए तुम्हें कोई दूसरा दरवाजा खटखटाना पड़ेगा.’’

सुनील तिजोरी के शब्द सुन कर चौंक गया. गांव की यह गंवार सी दिखने वाली लड़की को एक पल भी नहीं लगा उस का इरादा समझने में.

सुनील ने तो सुन रखा था कि गांव की भोलीभाली लड़कियों को तो अपने प्रेमजाल में फंसा लेना बहुत आसान  होता है.

खुल गई आंखें : रवि के सामने आई कैसी हकीकत- भाग 1

दफ्तर से अपने बड़े सरकारी बंगले पर जाते हुए उस दिन अचानक एक ट्रक ने रवि की कार को जोरदार टक्कर मार दी थी. कार का अगला हिस्सा बुरी तरह से टूटफूट गया था.

खून से लथपथ रवि कार के अंदर ही फंसा रह गया था. वह काफी समय तक बेहोशी की हालत में कार के अंदर ही रहा, पर उस की जान बचाने वाला कोई भी नहीं था.

हां, उस के आसपास तमाशबीनों की भीड़ जरूर लग गई थी. सभी एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे, पर किसी में उसे अस्पताल ले जाने या पुलिस को बुलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

भला हो रवि के दफ्तर के चपरासी रामदीन का, जो भीड़ को देख कर उसे चीरता हुआ रवि के पास तक पहुंच गया था. बाद में उसी ने पास के एसटीडी बूथ से 100 नंबर पर फोन कर पुलिस को बुला लिया था.

जब तक पुलिस रवि को ले कर पास के नर्सिंगहोम में पहुंची तब तक उस के शरीर से काफी खून बह चुका था. रामदीन काफी समय तक अस्पताल में ही रहा था. उस ने फोन कर के दफ्तर से सुपरिंटैंडैंट राकेश को भी बुला लिया था जो वहीं पास में रहते थे.

रवि के एक रिश्तेदार भी सूचना पा कर अस्पताल पहुंच गए थे. गांव दूर होने व बूढ़े मांबाप की हालत को ध्यान में रखते हुए किसी ने उस के घर सूचना भेजना उचित नहीं समझा था. वैसे भी उस के गांव में संचार का कोई खास साधन नहीं था. इमर्जैंसी में तार भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं होता था.

रवि की पत्नी गुंजा अपने सासससुर व देवर रघु के साथ गांव में ही रहती थी. वह 2 साल पहले ही गौना करा कर अपनी ससुराल आई थी. रवि के साथ उस की शादी बचपन में तभी हो गई थी, जब वे दोनों 10 साल की उम्र भी पार नहीं कर पाए थे.

गांव में रहने के चलते गुंजा की पढ़ाई 8वीं जमात के बाद ही छूट गई थी पर रवि 5वीं जमात पास कर के अपने चाचा के पास शहर में ही पढ़ने आ गया था. उस ने अच्छीखासी पढ़ाई कर ली थी. शहर में पढ़ाई करने के चलते उस का मन चंचल हो गया था. वैसे भी वह गुंजा से हर मामले में बेहतर था.

शादी के समय तो रवि को कोई समझ नहीं थी, पर जब गौने के बाद विदा हो कर गुंजा उस के घर आई थी और पहली बार जवान और भरपूर नजरों से उस ने उसे देखा था तभी से उस का मन उस से उचट गया था.

गुंजा कामकाज में भी उतनी माहिर नहीं थी जितनी रवि ने अपनी पत्नी से उम्मीद की थी. यहां तक कि सुहागरात के दिन भी वह गुंजा से दूर ही रहा था.

गुंजा गांव की पलीबढ़ी लड़की थी. शक्लसूरत और पढ़ाईलिखाई में कम होने के बावजूद मांबाप से उसे अच्छे संस्कार मिले थे. उस ने रवि की अनदेखी के बावजूद उस के बूढ़े मांबाप और रवि के छोटे भाई रघु का साथ कभी नहीं छोड़ा.

मांबाप के लाख कहने के बावजूद रवि जब उसे अपने साथ शहर ले जाने को राजी नहीं हुआ तब भी उस ने उस से कोई खास जिद नहीं की, न ही अकेले शहर जाने का उस ने कोई विरोध किया.

शहर में आ कर रवि अपने दफ्तर और रोजमर्रा के कामों में ऐसा बिजी हुआ कि गांव जाना ही भूल गया. उसे अपने मांबाप से भी कुछ खास लगाव नहीं रह गया था क्योंकि वह अपनी बेढंगी शादी के लिए काफी हद तक उन्हीं को कुसूरवार मानता था.

तनख्वाह मिलने पर घर पर पैसा भेजने के अलावा रवि कभीकभार चिट्ठी लिख कर मांबाप व भाई का हालचाल जरूर पूछ लेता था, पर इस से ज्यादा वह अपने घर वालों के लिए कुछ भी नहीं कर पाता था.

3-4 दिन आईसीयू में रहने के बाद अब रवि को प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया था. दफ्तर के अनेक साथी तन, मन और धन से उस की सेवा में लगे हुए थे. बड़े साहब भी लगातार उस की सेहत पर नजर रखे हुए थे.

नर्सिंगहोम में जहां सीनियर सर्जन डाक्टर अशोक लाल उस के इलाज पर ध्यान दे रहे थे, वहीं वह वहां की सब से काबिल नर्स सुधा चौहान की चौबीसों घंटे की निगरानी में था.

सुधा चौहान जितना नर्सिंगहोम के कामों में माहिर थी, उतना ही सरल उस का स्वभाव भी था. शक्लसूरत से भी वह किसी फिल्मी नर्स से कम नहीं थी. उस की रातदिन की सेवा और बेहतर इलाज के चलते रवि को जल्दी ही होश आ गया था.

उस समय सुधा ही उस के पास थी. उसे बेचैन देख कर सुधा ने सहारा दिया और उस के सिरहाने तकिया रख दिया. अगले ही पल नर्स सुधा ने शीशी से एक चम्मच दवा निकाल कर आहिस्ता से उस के मुंह में डाल दी

रवि कुछ कहने के लिए मुंह खोलना चाहता था, पर पूरे चेहरे पर पट्टी बंधी होने के चलते वह कुछ भी कह पाने में नाकाम था. सुधा ने हलकी मुसकान के साथ उसे इशारेइशारे में चुप रहने को कहा.

सुधा की निजी जिंदगी भी बहुत खुशहाल नहीं थी. उस का पति मनीष इस दुनिया में नहीं था. उस की रिया नाम की 5 साल की एक बेटी थी जो उस के साथ ही रहती थी.

तेजतर्रार तिजोरी : रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा – भाग 5

‘‘डाक्टर साहब, क्या मैं सुनील से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां, ड्रैसिंग कंप्लीट कर के नर्स बाहर आ जाए तो तुम अकेली जा सकती हो. मरीज के पास अभी ज्यादा लोगों का होना ठीक नहीं है,’’ डाक्टर ने कहा.

नर्स के बाहर आते ही तिजोरी लपक कर अंदर पहुंची. सुनील की चोट वाली आंख की ड्रैसिंग के बाद पट्टी से ढक दिया गया था, दूसरी आंख खुली थी.

तिजोरी सुनील के पास पहुंची. उस ने अपनी दोनों हथेलियों में बहुत हौले से सुनील का चेहरा लिया और बोली, ‘‘बहुत तकलीफ हो रही है न. सारा कुसूर मेरा है. न मैं तुम्हें गुल्लीडंडा खिलाने ले जाती और न तुम्हें चोट लगती.’’

तिजोरी को उदास देख कर सुनील अपने गालों पर रखे उस के हाथ पर अपनी हथेलियां रखता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है तिजोरी, मैं ही उस समय असावधान था. तुम्हारे बारे में सोचने लगा था… इतने अच्छे स्वभाव की लड़की मैं ने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी,’’ कहतेकहते सुनील चुप हो गया.

तिजोरी समझ गई और बोली, ‘‘चुप क्यों हो गए… मन में आई हुई बात कह देनी चाहिए… बोलो न?’’

‘‘लेकिन, न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है. मेरी बात सुन कर कहीं तुम नाराज न हो जाओ.’’

‘‘नहीं, मैं नाराज नहीं होती. मुझे कोई बात बुरी लगती है, तो तुरंत कह देती हूं. तुम बताओ कि क्या कहना चाह रहे हो.’’

‘‘दरअसल, मैं ही तुम को चाहने लगा हूं और चाहता हूं कि तुम से ही शादी करूं.’’

तिजोरी ने सुनील के गालों से अपने हाथ हटा लिए और उठ कर खड़े होते हुए बोली, ‘‘मुझ से शादी करने के लिए अभी तुम्हें 2 साल और इंतजार करना होगा. ठीक होने के बाद तुम्हें मेरे पिताजी से मिलना होगा.’’

इतना कह कर तिजोरी बाहर चली आई. श्रीकांत और महेश तो वहां इंतजार कर ही रहे थे, लेकिन अपने पिता को उन के पास देख कर वह चौंक पड़ी. उन के पास पहुंच कर वह सीने से लिपट पड़ी, ‘‘आप को कैसे पता चला?’’

‘‘मेरे खेतों में कोई घटना घटे, और मुझे पता न चले, ऐसा कभी हुआ है? मैं तो बस उस लड़के को देखने चला आया और अंदर भी आ रहा था, पर तुम दोनों की बातें सुन कर रुक गया. अब तू यह बता कि तू क्या चाहती है?’’

‘‘मैं ने तो उस से कह दिया है कि…’’ तिजोरी अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी कि रघुवीर यादव ने बात पूरी की…  ‘‘2 साल और इंतजार करना होगा.’’

अपने पिता के मुंह से अपने ही कहे शब्द सुन कर तिजोरी के चेहरे पर शर्म के भाव उमड़ आए और उस ने अपने पिता की चौड़ी छाती में अपना चेहरा छिपा लिया.

रघुवीर यादव अपनी बेटी की पीठ थपथपाने के बाद उस के बालों पर हाथ फेरने लगे. उन्होंने अपनी जेब से 10,000 रुपए निकाल कर श्रीकांत को दिए और बोले, ‘‘बेटा, यह सुनील के इलाज के लिए रख लो. कम पड़ें तो खेत में काम कर रहे किसी मजदूर से कह देना. खबर मिलते ही मैं और रुपए पहुंचा दूंगा,’’ इतना कह कर वे तिजोरी और महेश को ले कर घर की तरफ बढ़ गए.

अगले दिन तिजोरी अपने भाई महेश के साथ रोज की तरह खेत पर गई. आज उस का मन खेत पर नहीं लग रहा था. पानी पीने के लिए वह गोदाम की तरफ गई, तो उस ने किनारे जा कर बिजली महकमे के स्टोर की तरफ झांका.

तभी सामने वाली सड़क पर एक मोटरसाइकिल रुकी. उस पर बैठा लड़का सिर पर गमछा लपेटे और आंखों में चश्मा लगाए था. तिजोरी को देखते ही उस ने मोटरसाइकिल पर बैठेबैठे ही हाथ हिलाया, पर तिजोरी ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उसे पहचानने की कोशिश करने लगी, पर दूरी होने के चलते पहचान न सकी.

तभी जब स्टोर में काम करते श्रीकांत की नजर तिजोरी पर पड़ी, तो श्रीकांत उसे वहां खड़ा देख उस के करीब चल कर जैसे ही आया, वह बाइक सवार अपनी बाइक स्टार्ट कर के चला गया.

तिजोरी के करीब आ कर श्रीकांत बोला, ‘‘हैलो तिजोरी, कैसी हो?’’

उस बाइक सवार को ले कर तिजोरी अपने दिमाग पर जोर देते हुए उसे पहचानने की कोशिश रही थी, लेकिन श्रीकांत की आवाज सुन कर वहां से ध्यान हटाती हुई बोली, ‘‘मैं ठीक हूं. यहां से खाली हो कर तुम्हारे बौस को देखने अस्पताल जाऊंगी. वैसे, कैसी तबीयत है उन की?’’

‘‘आज शाम तक उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी. डाक्टर का कहना है कि चूंकि आंख के बाहर का घाव है, इसलिए वे एक आंख पर पट्टी बांधे काम कर सकते हैं. मैं शाम को उन्हें ले कर सरकारी गैस्ट हाउस में आ जाऊंगा.’’

‘‘लेकिन, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे पूरी तरह से ठीक हो जाएं, तब काम करना शुरू करें?’’

‘‘चोट गंभीर होती तो वैसे भी वे काम नहीं कर पाते, पर जब डाक्टर कह रहा है कि चिंता की कोई बात नहीं, तो दौड़भाग का काम मैं देख लूंगा और इस स्टोर को वे संभाल लेंगे. फिर हमें समय से ही काम पूरा कर के देना है, तभी अगला कौंट्रैक्ट मिलेगा.’’

‘‘ठीक है, मुझे कल भी खेत पर आना ही है. यहीं पर कल उस से मिल लूंगी. तुम्हें अगर प्यास लग रही हो, तो मैं फ्रिज से पानी की बोतलें निकाल कर देती जाऊं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कल मिलूंगी,’’ कह कर तिजोरी उस खेत की तरफ चली गई, जहां बालियों से गेहूं और भूसा अलग कर के बोरियों में भरा जा रहा था.

अगले दिन पिताजी के हिसाबकिताब का बराबर मिलान करने के चलते तिजोरी को देर होने लगी. जैसे ही हिसाब मिला, तो वह उसे फेयर कर के लिखने का काम महेश को सौंप कर अकेले ही खेत की तरफ आ गई.

चूंकि तिजोरी तेज चलती हुई आई थी और उसे प्यास भी लग रही थी, इसलिए उस ने सोचा कि पहले गोदाम में जा कर घड़े से पानी पी ले और फिर सुनील का हालचाल लेने चली जाएगी.

तिजोरी ने गोदाम के शटर के दोनों ताले खोले और अंदर घुस कर घड़े की तरफ बढ़ ही रही थी कि अचानक शटर गिरने की आवाज सुन कर वह पलटी. कल जो बाइक पर सवार लड़का था, उसे वह पहचान गई, फिर उस के बढ़ते कदमों के साथ इरादे भांपते हुए वह बोली, ‘‘ओह तो तुम शंभू हो… मुझे लग रहा है कि उस दिन मैं ने तुम्हारी नीयत को सही पहचान लिया था… लगता है, उसी दिन से तुम मेरी फिराक में हो.’’

‘‘ऐसा है तिजोरी, शंभू जिसे चाहता है, उसे अपना बना कर ही रहता है. उस दिन तो मैं तुम्हें देखते ही पागल हो गया था. आज मौका मिल ही गया. अब तुम्हारे सामने 2 ही रास्ते हैं… या तो सीधी तरह मेरी बांहों में आ जाओ, नहीं तो…’’ कह कर वे उसे पकड़ने के लिए लपका.

तिजोरी ने गोदाम के ऊपर बने रोशनदानों की ओर देखा और ऊपर मुंह कर के पूरी ताकत से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

तिजोरी को चिल्लाता देख शंभू तकरीबन छलांग लगाता उस तक पहुंच गया. तिजोरी की एक बांह उस की हथेली में आई, लेकिन तिजोरी सावधान थी, इसलिए पकड़ मजबूत होने से पहले उस ने अपने को छुड़ा कर शटर की तरफ ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाते हुए दौड़ लगानी चाही, पर इस बार शंभू ने उसे तकरीबन जकड़ लिया.

तभी शटर के तेजी से उठने की आवाज आई. जैसे ही शंभू का ध्यान शटर खुलने पर एक आंख में पट्टी बांधे इनसान की तरफ गया, तिजोरी ने उस की नाक पर एक झन्नाटेदार घूंसा जड़ दिया. और जब तक शंभू संभलता, सुनील ने उसे फिर संभाल लिया.

Father’s Day Special:अपनाअपना क्षितिज- भाग 2: एक बच्चे के लिए तड़पते सत्यव्रत

सत्यव्रत उसे देखदेख कर निहाल होते रहते थे. पड़ोसियों में बखान करते और दोस्तों से तारीफ करते न अघाते. सुशांत से तुलना कर के वह प्रशांत को नीचा दिखाते रहते. सुशांत प्रशांत से सिर्फ 1 साल ही छोटा था. पर दोनों एक ही कक्षा में थे. दोनों ने एकसाथ ही मेडिकल में दाखिले के लिए तैयारियां की थीं और साथ ही परीक्षाएं दी थीं. नतीजा निकला तो प्रशांत असफल था और सुशांत सफल. सुशांत आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर रवाना हो गया. प्रशांत अपनी असफलता के साथसाथ पिता के व्यंग्य बाणों से घायल अपने कमरे में बंद हो गया.

प्रभावती चीख कर बोली थीं, ‘इसीलिए तो कहा था, इसे जो राह पसंद है उसी पर चलने दो. जिस पढ़ाईर् में इस की रुचि नहीं है उस में धक्के दे कर मत चलाओ.’

‘इस की अपनी कोई राह नहीं है. मेहनत से जी चुराने की सजा इस ने पाईर् है. पूरे समाज में इस ने मेरी नाक कटवा दी है. तुम्हें कुछ पता है कि क्या करेगा यह आगे? कलम घिसेगा कलम, बस.’

‘कौन जानता है, कलम घिसते- घिसते यह कहां से कहां पहुंच जाए. सुशांत ने अगर तुम्हारी डाक्टरी की लाइन पकड़ ही ली है तो क्या हुआ. प्रशांत भी मनचाहे क्षेत्र में कहीं ज्यादा सफल हो. तुम साहित्यकारों, कवियों के महत्त्व को नकारते क्यों हो?’

ऐसी बहसों से सत्यव्रत प्रभावती की ओर से बेटे को मिलने वाली तरफदारी समझते. वह कहते, ‘मैं उसे राह दिखाता हूं तो तुम्हें बुरा लगता है. क्या मेरा बेटा नहीं है वह? किसी भी पौधे के विकास के लिए उस की काटछांट जरूरी है. वही काम मैं भी कर रहा हूं.’

प्रभावती को कहना ही पड़ता, ‘पर काटछांट इतनी अधिक न करें कि पौधे का विकास ही न होने पाए.’

पर अपनी जिद पर अडे़ सत्यव्रत ने प्रशांत से फिर डाक्टरी में प्रवेश की तैयारी कराई, पर नतीजा फिर वही निकला. तीसरी बार प्रशांत ने जबरदस्ती तैयारी नहीं की. मन में पिता के प्रति एक विद्रोह, एक क्रोध लिए प्रशांत उन दिनों  भटकने लगा था. न वह ढंग  से खातापीता था न सोता था और न घर में रहता था. देर रात तक वह घर से बाहर रहता. यहां तक कि घर के सदस्यों से उस की बातचीत भी बंद हो जाती. पिता की तो वह सूरत भी नहीं देखना चाहता था.

जब सत्यव्रत ने प्रशांत का यह रूप देखा तो धीरेधीरे उस के प्रति उन का रुख बदलता गया. अब वह केवल सुशांत की देखरेख में खोए रहने लगे. प्रशांत की ओर से उन का मन खट्टा हो गया. अपने बेटे के रूप में मात्र कलम घिस्सू की कल्पना न उन से होती थी और न ही किसी के पूछने पर उन से यह परिचय ही दिया जाता था.

कई बार तो वह मित्रों में बस, सुशांत की चर्चा करते. प्रशांत की बात गोल कर जाते. कोई बहुत जोर दे कर प्रशांत से मिलने की चर्चा करता तो उस की मुलाकात सुशांत से करवा कर झट से बहाना बना देते, ‘प्रशांत घर पर नहीं है.’

प्रभावती का मन चूरचूर हो जाता और प्रशांत पंख कटे पंछी सा छटपटाता  रह जाता. सत्यव्रत अब जैसे सुशांत के लिए ही जी रहे थे. जब तक सुशांत  घर में रहता, वह उस के लिए एकएक चीज का ध्यान रखते.

प्रशांत यह सब देखदेख कर कटता रहता, फिर भी वह पिता की किसी बात का विरोध न करता. भले ही सत्यव्रत उस की रुचि को जिद का नाम दे कर अपने और पुत्र के मध्य निरर्थक विवादों को जन्म दे बैठते.

यह केवल प्रभावती ही समझ सकती थीं कि प्रशांत की रुचि किस चीज में है. ऐसे में वह सदा ही अपने पति को दबा कर रखतीं और प्रशांत के लिए वह सब करतीं जो सत्यव्रत सुशांत के लिए किया करते और चाहतीं कि प्रशांत यही जाने कि पिता ने उस के लिए वह सब किया है.

ऊंची आकांक्षाआें के बीच तनाव की कंटीली दूरियां तय करतेकरते दिन भागते गए. प्रशांत साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुका था और सुशांत डाक्टर बन चुका था. अब दोनों घर पर ही मौजूद रहते. इस का नतीजा यह हुआ कि दोनों भाइयों में मतभेद पैदा होने लगे. गांव और महल्ले वाले भी सत्यव्रत की देखादेखी प्रशांत और सुशांत की तुलना कर उन में नीचे और ऊपर की सीमा खींचने लगे थे.

असल में खींचातानी तो तब शुरू हुई जब सुशांत अपनी डाक्टर पत्नी लाया और प्रशांत अपने ही साहित्य की प्रशंसिका ब्याह लाया. घर में प्रशांत का कम मानसम्मान और सुशांत की अधिक इज्जत प्रशांत की पत्नी को हिलाने लगी थी. स्वयं सुशांत और उस की पत्नी पूनम को भी प्रशांत का यह कह कर परिचय देना कि साहित्यकार है, अच्छा न लगता.

रोजरोज के इस मानअपमान ने प्रशांत को इतना परेशान कर दिया कि एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. तब रजनी की गोद में 9 महीने का प्रकाश था. प्रभावती के चरण छू कर उस ने कहा था, ‘मां, जब भी तुम्हें मेरी जरूरत हो, मुझे बुला लेना.’

प्रशांत के जाने के 1 वर्ष बाद ही  सत्यव्रत सेवानिवृत्त हो गए थे. कुछ सालों तक घर आसानी से चलता रहा था. सुशांत और पूनम के हंसीठहाके, सत्यव्रत की परम संतोषी मुद्रा, इन सब के बीच अपने एक पुत्र के विछोह के क्लेश को मौन रूप से झेलती प्रभावती बस, जीती थीं, एक पत्थर की तरह. कभीकभार पत्रपत्रिकाओं में अपने पुत्र की प्रशंसा देखपढ़ कर पलभर के लिए उन्हें सुकून मिल जाता था.

धीरेधीरे समय ने करवट बदली. सुशांत को अपने विषय में शोध के लिए 3 वर्ष अमेरिका जाने का अवसर मिला. वह मांबाप को आश्वासन देता हुआ पूनम के साथ चला गया.

अब घर में केवल सत्यव्रत और प्रभावती के साथ अकेलापन रह गया.

सत्यव्रत किताबें पढ़ कर वक्त काटने लगे थे. घर में जितनी किताबें थीं, सब प्रशांत की सहेजीसंजोई हुई थीं. प्रशांत द्वारा अलगअलग पन्नों पर खींची गई लकीरों को देख और कुछ अपनी ओर से लिखी गई टिप्पणियों को पढ़ कर सत्यव्रत मुसकराते. प्रभावती मन ही मन डरतीं कि ऐसा न हो कि वह पुन: इन पुस्तकों को पढ़ कर प्रशांत का मजाक उड़ाने लगें. पर ऐसा नहीं हुआ. किताबों के साथ वक्त काटने के चक्कर में वह किताबों के दोस्त होते गए. दिन ही नहीं रात में भी कईकई घंटे वह आंखों पर चश्मा चढ़ाए किताबें पढ़ते रहते. कई बार वह चकित हो कर कह उठते, ‘अरे, इन किताबों में तो बहुत कुछ है. मत पूछो क्या मिल रहा है इन में मुझे. मैं तो सोचा करता था कि लोगों का वक्त बेकार करने के लिए इन पुस्तकों में केवल ऊलजलूल बातें भरी रहती हैं.’

प्रभावती चकित हो कर उन्हें सुनतीं, फिर रो पड़तीं. अब कभीकभी वह उस से पूछने भी लगे थे, ‘प्रशांत की कोई रचना अब देखने को नहीं मिलती. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस ने लिखना बंद कर दिया हो. उस से कहो, वह कुछ लिखे. ऐसी ही कोई शानदार चीज जैसी मैं पढ़ रहा हूं.’

कभीकभी तो सत्यव्रत आधी रात को पत्नी को उठा कर कहते, ‘परसों प्रशांत की एक कहानी पढ़ी थी. एक प्रशंसापत्र उसे अवश्य डाल देना अपनी ओर से. इस से हौसला बढ़ता है.’

कभी सत्यव्रत पुरानी बातें ले कर बैठ जाते, ‘मुझ से प्रशांत जरूर नाराज रहता होगा. प्रभावती, मैं ने उसे बहुत बुराभला कहा था इस लिखनेपढ़ने के कारण.’

अब वह खोजखोज कर प्रशांत की रचनाएं पढ़ते.

औनर किलिंग- भाग 4: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

लेकिन अमृता को तो यह बात पहले से ही पता थी. छोटी भाभी को ऐसा ही तो होता था जब रुद्र पैदा होने वाला था. तब उन्हें भी तो कुछ खाने का मन नहीं होता था. तबीयत खराब रहती थी, उलटी होने का सा एहसास रहता था. अब ठीक अमृता को भी वैसा ही लग रहा है. इस का मतलब वह पेट से थी. अपने भीतर वह एक हलचल सी महसूस करने लगी थी.

अपने अजन्मे बच्चे के बारे में जान कर अतुल्य तो खुशी से बावला हो गया और कहने लगा कि वह जल्द ही वहां आ रहा है और हाथ जोड़ कर वह उस के भाइयों से उस का हाथ मांगेगा, जिसे उन्हें देना ही पड़ेगा.

अमृता अपने आने वाले बच्चे के बारे में सोच कर ही खुश हुए जा रही थी, लेकिन उस ने कितने बड़े तूफान को न्योता दिया था, उसे नहीं पता था.

रुक्मिणी के पूछने पर अमृता ने सब सचसच बता दिया और कहने लगी, ‘‘मैं और अतुल्य एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं.’’

यह सुन कर रुक्मिणी ने अपना माथा पीट लिया और बोली, ‘‘यह क्या अनर्थ कर डाला. पता भी है, अगर घर में किसी को यह बात पता चल गई तो क्या होगा? काट डालेंगे तुम दोनों को. अच्छा, वह लड़का… मेरा मतलब है, अतुल्य यहां कब आ रहा है?’’

‘‘वह आज रात आने वाला है और मैं उस से मिलने उसी पुरानी फैक्टरी में जाने वाली हूं. इस काम में आप को मेरी मदद करनी पड़ेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर मैं तुम्हारे भैया को क्या कहूंगी? देखो अमृता, मु झे बहुत डर लग रहा है. लग रहा है, जैसे कोई बहुत बड़ा तूफान आने वाला है.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. भैया को अभी कुछ बताने की जरूरत ही क्या है?’’

‘‘पर, कभी तो बताना ही पड़ेगा न,’’ रुक्मिणी बोली. लेकिन उन दोनों को नहीं पता था कि बाहर खड़ा रघुवीर उन की सारी बातें सुन चुका था. उस का खून ऐसे खौल रहा था, जैसे सब जला कर राख कर देगा.

रघुवीर को अचानक अपने सामने खड़ा देख कर रुक्मिणी और अमृता का तो जैसे खून ही सूख गया. अमृता अभी कुछ बोलती ही कि वह उस के बालों को पकड़ कर घसीटता हुआ बाहर आंगन में ले गया. तब तक घर के बाकी लोग भी वहां पहुंच चुके थे. सच जानने के बाद सब की आंखें गुस्से से लाल हो गई थीं.

‘‘गलती हो गई, जो इसे शहर पढ़ने भेजा. कहा था मैं ने इस की शादी करवा देते हैं, पर नहीं. कलक्टर जो बनाना था बेटी को. लेकिन सिर्फ इस लड़की की वजह से मेरे परिवार की नाक कटे, यह मैं सहन नहीं कर सकता पिताजी, इसलिए जितनी जल्दी हो इस की शादी करवानी होगी,’’ गरजते हुए रघुवीर ने जोर से दरवाजे पर अपना हाथ पीटा था.

रुक्मिणी दौड़ कर रघुवीर के पास गई, तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया. भाई का यह रूप देख कर अमृता कुछ पल के लिए अंदर तक कांप उठी थी.

मगर अमृता में भी वही गरम खून था. वह कहने लगी, ‘‘मैं हरगिज किसी और से ब्याह नहीं करूंगी. शादी तो मैं अपने अतुल्य से ही करूंगी.’’

अमृता का यह कहना ही था कि घर के दूसरे लोगों ने उस पर लातघूंसों की ऐसी बारिश कर दी कि वह बेदम हो कर जमीन में लोट गई. वह तो रुक्मिणी बीच में आ गई, नहीं तो आज उस की जान ले ली जाती.

अमृता के दोनों भाई आज इस किस्से को खत्म कर देना चाहते थे. दोनों भाइयों को धारदार चाकू ले कर भागते देख अमृता उन के पीछे भागी, मगर घर के लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया. और तो और गांव की दाई को बुलवा कर उस का बच्चा भी गिरवा दिया.

मोटी रकम ले कर दाई भी यह वादा कर के चली गई कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगी. वे लोग नहीं चाहते थे कि गांव के लोगों को इस बात की भनक भी लगे. अगर ऐसा हुआ, तो पूरे गांव में उन की थूथू हो जाएगी…

‘‘मैं अपना कुछ भी नहीं बचा पाई इंस्पैक्टर साहब… न अपने प्यार को और न उस की निशानी को ही…’’ बोल कर अमृता अपना पेट पकड़ते हुए बिलख पड़ी.

अमृता की दर्दनाक कहानी सुन कर इंस्पैक्टर माधव के साथ वहां खड़े बाकी लोगों की रूह भी कांप उठी थी कि कोई इनसान इतना जालिम कैसे हो सकता है कि अपनी ही बहनबेटी की खुशियां नोच डाले… मगर यह सब सच था.

‘‘लेकिन, तुम यहां तक कैसे पहुंची? तुम्हें तो कमरे में बंद कर पहरा बिठा दिया गया था?’’ इंस्पैक्टर माधव के पूछने पर अमृता बताने लगी कि जब उसे पता चला कि दोनों भाइयों ने अतुल्य को खत्म कर दिया, तो वह चीख उठी थी. लगा जैसे अब सबकुछ खत्म हो गया, तो उस के जीने का मतलब क्या रह गया? वह मर जाना चाहती थी. वह पंखे से  झूलने ही जा रही थी कि रुक्मिणी वहां पहुंच गई.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम… मरने जा रही हो?’’ उस के हाथों से दुपट्टा छीनते हुए रुक्मिणी चीखी थी.

‘‘तो और क्या करूं मैं भाभी… किस के लिए जीऊं? कौन है अब मेरा? नहीं, मु झे मर जाने दो,’’ भाभी के हाथ से दुपट्टा छीनते हुए अमृता बोली.

‘‘मर जा, ले अभी मर जा. चल, मैं तेरी मदद करती हूं मरने में. और आजाद घूमने दे इन हत्यारों को, ताकि ये फिर किसी मासूम की बलि चढ़ा सकें. क्या तू नहीं चाहती कि इन हत्यारों को सजा मिले? क्या अतुल्य और अपने अजन्मे बच्चे को इंसाफ नहीं दिलाएगी तू?

‘‘तू सोच रही होगी कि मैं अपने ही पति के बारे में कैसी बातें कर रही हूं, लेकिन रघुवीर जैसा इनसान न तो किसी का पति बनने के लायक है और न ही भाई…’’

भाभी का ऐसा रूप देख कर एक पल के लिए तो अमृता सिहर उठी, लेकिन फिर रुक्मिणी कहने लगी, ‘‘जब किसी का प्यार छिन जाता है, तो उसे कितना दर्द होता है, यह मैं भुगत चुकी हूं.

‘‘मैं भी किसी से प्यार करती थी. हम दोनों शादी करने वाले थे. परिवार भी राजी था. मगर ऐयाश रघुवीर की नजर जाने कब और कैसे मु झ पर पड़ गई. वह हर हाल में मु झे अपना बना लेना चाहता था. उस ने मेरे मांबाप को धमकी दी कि अगर उस की शादी रुक्मिणी से नहीं हुई, तो वह किसी को नहीं छोड़ेगा.

‘‘अपनी जान की सलामती के डर से मेरे मातापिता ने मेरी शादी रघुवीर से करवा तो दी, लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला कि रघुवीर नामर्द है, तो उन्होंने अपना माथा पीट लिया था कि उन की बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई.’’

अपने भाई की सचाई सुन कर अमृता के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी.

‘‘तुम तो मर कर आजाद हो जाओगी. मगर सोचो उन बेचारे बूढ़े मांबाप के बारे में, जिन का एकलौता बेटा चला गया. अमृता, मैं तुम्हारा साथ दूंगी इस में…’’

अमृता के घर वालों को जब पता चला कि वह उन की कैद से भाग गई है, तो पुलिस के डर से वे लोग भी घर छोड़ कर भाग गए. लेकिन कहां यह रुक्मिणी को भी नहीं पता था, क्योंकि अब वह अपने पिता के घर चली गई थी.

इंस्पैक्टर माधव को पता था कि अब उस के भाई अमृता को छोड़ेंगे नहीं, इसलिए उन्होंने उसे महिला संरक्षणगृह में रखवा दिया और गुनाहगारों की खोज में लग गए.

पर कोई कामयाबी नहीं मिली, तो अमृता ने बताया कि अगर एक पकड़ा जाए, तो अपनेआप सब मिल जाएंगे. और वह जानती है कि उस का भाई रघुवीर कहां हो सकता है. पास के एक गांव में ही एक औरत रहती है लालबाई, उस के घर भाई का डेरा होता है.

और ऐसा ही हुआ. रघुवीर के पकड़ में आते ही बाकी सब लोग भी धीरेधीरे पुलिस की गिरफ्त में आ गए.

जब कोर्ट में उन से पूछा गया कि क्यों उन्होंने अतुल्य की हत्या की? उस पर रघुवीर ने आंखें लाल कर के कहा, ‘‘एक गांव में लड़कालड़की बहनभाई होते हैं, जिन में शादी नहीं हो सकती. और वैसे भी वह निचली जाति का लड़का था. कहीं से भी उन की बराबरी का नहीं था. ऐसे लोगों की हत्या कर देना बिलकुल ठीक है.’’

कोर्ट में अमृता ने उन सब के खिलाफ गवाही दी और कहा कि इन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. क्योंकि इन्होंने सिर्फ उन के प्यार की हत्या नहीं की, बल्कि उस के बच्चे के खून से भी अपने हाथ रंगे हैं.

उस दाई ने भी कोर्ट में आ कर उन के खिलाफ गवाही दी. नतीजतन, अमृता के दोनों भाइयों को उम्रभर कैद की सजा सुनाई गई. और बाकी सभी लोगों को भी सजा हुई.

अमृता के पास जीने का कोई मकसद नहीं रह गया था. वह एक पुल से नदी में छलांग लगाने ही वाली थी कि पीछे से इंस्पैक्टर माधव ने उस का हाथ खींच लिया और कहने लगे, ‘‘क्या तुम नहीं चाहती कि औनर किलिंग के नाम पर दुनिया में जो अपराध हो रहे हैं, उन्हें रोका जाना चाहिए?’’

‘‘पर, मैं जब खुद के प्यार को नहीं बचा पाई, तो और लोगों की क्या मदद कर पाऊंगी? और कौन देगा मेरा साथ इंस्पैक्टर साहब?’’

‘‘मैं दूंगा,’’ कह कर इंस्पैक्टर माधव ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो अमृता ने उन का हाथ थाम लिया.

‘‘और तुम मु झे सिर्फ माधव बुला सकती हो, क्योंकि आज से हम दोनों दोस्त बन गए हैं.’’

अमृता माधव के कंधे पर सिर रख कर जी भर कर रोई और माधव ने भी उसे रोने दिया, ताकि उस के मन का सारा दुख आंसुओं के रास्ते बह जाए. उन दोनों ने एकसाथ प्रण लिया कि वे इस सामाजिक बुराई के खिलाफ मिल कर लड़ेंगे.

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 3- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

अगले दिन मामी की योजना के तहत रूपल बाबा के खास कमरे में थी. दूसरी सेवादारिनों ने उसे देवी की तरह कपड़े व गहने वगैरह पहना कर दुलहन की तरह सजा दिया था.

पलपल कांपती रूपल को आज अपनी इज्जत लुट जाने का डर था. लेकिन वह किसी भी तरह से हार नहीं मानना चाहती थी. अभी भी वह अपने बचाव की सारी उम्मीदों पर सोच रही थी कि गुरु कमलाप्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया. आमजन का भगवान एक शैतान की तरह अट्टहास लगाता रूपल की तरफ बढ़ चला.

‘‘बाबा, मैं पैर पड़ती हूं आप के, मुझ पर दया करो. मुझे जाने दो,’’ उस ने दौड़ कर बाबा के चरण पकड़ लिए.

‘‘देख लड़की, सुहाग सेज पर मुझे किसी तरह का दखल पसंद नहीं. क्या तुझे समर्पण का भाव नहीं समझाया गया?’’

बाबा की आंखों में वासना का ज्वार अपनी हद पर था. उस के मुंह से निकला शराब का भभका रूपल की सांसों में पिघलते सीसे जैसा समाने लगा.

‘‘बाबा, छोड़ दीजिए मुझे, हाथ जोड़ती हूं आप के आगे…’’ रूपल ने अपने शरीर पर रेंग रहे उन हाथों को हटाने की पूरी कोशिश की.

‘‘वैसे तो मैं किसी से जबरदस्ती नहीं करता, पर तेरे रूप ने मुझे सम्मोहित कर दिया है. पहले ही मैं बहुत इंतजार कर चुका हूं, अब और नहीं… चिल्लाने की सारी कोशिशें बेकार हैं. तेरी आवाज यहां से बाहर नहीं जा सकती,’’ कह कर बाबा ने रूपल के मुंह पर हाथ रख उसे बिस्तर पर पटक दिया और एक वहशी दरिंदे की तरह उस पर टूट पड़ा.

तभी अचानक ‘धाड़’ की आवाज से कमरे का दरवाजा खुला. अगले ही पल पुलिस कमरे के अंदर थी. बाबा की पकड़ तनिक ढीली पड़ते ही घबराई रूपल झटक कर अलग खड़ी हो गई.

पुलिस के पीछे ही ‘रूपल…’ जोर से आवाज लगाती उस की मां ने कमरे में प्रवेश किया और डर से कांप रही रूपल को अपनी छाती से चिपटा लिया.

इस तरह अचानक रंगे हाथों पकड़े जाने से हवस के पुजारी गुरु कमलाप्रसाद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. फिर भी वह पुलिस वालों को अपने रोब का हवाला दे कर धमकाने लगा.

तभी उस की एक पुरानी सेवादारिन ने आगे बढ़ कर उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद किया. पहले वह भी इसी वहशी की हवस का शिकार हुई थी. वह बाबा के खिलाफ पुलिस की गवाह बनने को तैयार हो गई.

बाबा का मुखौटा लगाए उस ढोंगी का परदाफाश हो चुका था. आखिरकार एक नाबालिग लड़की पर रेप और जबरदस्ती करने के जुर्म में बाबा को

तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उस के सभी चेलेचपाटे कानून के शिकंजे में पहले ही कसे जा चुके थे.

मां की छाती से लगी रूपल को अभी भी अपने सुरक्षित बच जाने का यकीन नहीं हो रहा था, ‘‘मां… मामी ने मुझे जबरदस्ती यहां…’’

‘‘मैं सब जान चुकी हूं मेरी बच्ची…’’ मां ने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा. ‘‘तू चिंता मत कर, भाभी को भी सजा मिल कर रहेगी. पुलिस उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है.

‘‘मैं अपनी बच्ची की इस बदहाली के लिए उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तू मेरे ही पास रहेगी मेरी बच्ची. तेरी मां गरीब जरूर है, पर लाचार नहीं. मैं तुझ पर कभी कोई आंच नहीं आने दूंगी.

‘‘मेरी मति मारी गई थी कि मैं भाभी की बातों में आ गई और सुनहरे भविष्य के लालच में तुझे अपने से दूर कर दिया.

‘‘भला हो तुम्हारे उस पड़ोसी का, जिस ने तुम्हारे दिए नंबर पर फोन कर के मुझे इस बात की जानकारी दे दी वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ शर्मिंदगी में मां अपनेआप को कोसे जा रही थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मैं रमा की असलियत से अनजान था. गलती तो मुझ से भी हुई है. मैं ने सबकुछ उस के भरोसे छोड़ दिया, यह कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रूपल किस तरह से कैसे हालात में रह रही है,’’ सामने से आ रहे मामा ने अपनी बहन के पैर पकड़ लिए.

बहन ने कोई जवाब न देते हुए भाई पर एक तीखी नजर डाली और बेटी का हाथ पकड़ कर अपने घर की राह पकड़ी. रूपल मन ही मन उस पड़ोसी का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसे सेवइयों के लिए दूध लाते वक्त उस ने मां का फोन नंबर दिया था और उस ने ही समय रहते मां को मामी की कारगुजारी के बारे में बताया था जिस के चलते ही आज वह अंधविश्वास की बलिवेदी पर भेंट चढ़ने से बच गई थी.

मां का हाथ थामे गांव लौटती रूपल अब खुली हवा में एक बार फिर सुकून की सांसें ले रही थी.

अम्मा- भाग 3: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

‘तड़ाक,’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा नीरा के गाल पर, ‘यह क्या हो गया?’ अम्मां क्षुब्ध मन से सोचने लगीं, ‘मेरे दिए हुए संस्कार, शिक्षा, सभी पर पानी फेर दिया अजय ने?’

अश्रुपूरित दृष्टि से अपर्णा की ओर अम्मां ने देखा था. जैसे पूछ रही हों कि यह सब क्यों हो रहा है इस घर में. कुछ देर तक नेत्रों की भाषा पढ़ने की कोशिश की पर एकदूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वासों के अलावा कोई वार्तालाप नहीं हो सका था.

अचानक अपर्णा का स्वर उभरा, ‘सारी लड़ाईर् पैसे को ले कर है. बाबूजी थे तो इन पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब खर्च करना पड़ रहा है तो परेशानी हो रही है.’

अम्मां ने दीर्घनिश्वास भरा, ‘मैं ने तो नीरा से कहा है कि कोई नौकरी तलाश ले. कुछ पेंशन के पैसे अजय को मैं दे दूंगी.’

जीवन में ऐसे ढेरों क्षण आते हैं जो चुपचाप गुजर जाते हैं पर उन में से कुछ यादों की दहलीज पर अंगद की तरह पैर जमा कर खड़े हो जाते हैं. मां के साथ बिताए कितने क्षण, जिस में वह सिर्फ याचक है, उस की स्मृति पटल पर कतार बांधे खडे़ हैं.

बच्चे दादी को प्यार करते, अड़ोसीपड़ोसी अम्मां से सलाहमशविरा करते, अपर्णा और अजय मां को सम्मान देते तो नीरा चिढ़ती. पता नहीं क्यों? चाहे अम्मां यही प्यार, सम्मान अपनी तरफ से एक तश्तरी में सजा कर, दोगुना कर के बहू की थाली में परोस भी देतीं फिर भी न जाने क्यों नीरा का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया.

अम्मां के हर काम में मीनमेख, छोटीछोटी बातों पर रूठना, हर किसी की बात काटना, घरपरिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता, उस के व्यवहार के हिस्से बनते चले गए.

एक बरस बाद बाबूजी का श्राद्ध था. अपर्णा को तो आना ही था. बेटी के बिना ब्राह्मण भोज कैसा? उस दिन पहली बार, स्थिर दृष्टि से अपर्णा ने अम्मां को देखा. कदाचित जिम्मेदारियों के बोझ से अम्मां बुढ़ा गई थीं. हर समय तनाव की स्थिति में रहने की वजह से घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था.

ब्राह्मण भोज समाप्त हुआ तो अम्मां धूप में खटोला डाल कर बैठ गईं. अजय, अपर्णा और नीरा को भी अपने पास आ कर बैठने को कहा. तेल की तश्तरी में से तेल निकाल कर अपने टखनों पर धीरेधीरे मलती हुई अम्मां बोलीं, ‘याद है, अजय, मैं ने एक बार कहा था कि घर में कोई भी नया सामान तभी जगह पा सकता है जब पुराने सामान को अपनी जगह से हटाया जाए. इसी तरह जब परिवार के लोग पुराने सामान को कूड़ा समझ कर फेंकने पर ही उतारू हो जाएं तो भलाई इसी में है कि उस सामान को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए. शायद वह सामान तब भी किसी के काम आ सके? जो इनसान समझौता करते हैं वे ही सार्थक जीवन जीते हैं पर जो समझौता करतेकरते टूट जाते हैं वे कायर कहलाते हैं. और मैं कायर नहीं हूं.’

अम्मां के बच्चे उन का मंतव्य समझे या नहीं पर अगले दिन वह कमरे में नहीं थीं. तकिये के नीचे एक नीला लिफाफा ही मिला था.

विचारों में डूबताउतराता अजय आश्रम के जंग खाए, विशालकाय गेट के सामने आ खड़ा हुआ. सड़क पतली, वीरान और खामोश थी. न जाने उसे यहां आ कर ऐसा क्यों लग रहा था कि अम्मां पूर्ण रूप से यहां सुरक्षित हैं. उस की सारी चिंताएं, तनाव न जाने कहां खो गए. गेट खोल कर अजय अंदर आया तो अम्मां अपने कमरे में बैठी एक बच्ची को वर्णमाला का पाठ पढ़ा रही थीं. अजय को देखते ही उन की आंखें भर आईं.

‘‘तू कब आया?’’ आंसू भरी आंखों को छिपाने के लिए इधरउधर देखने लगीं. दोबारा पूछा, ‘‘अकेले ही आया? मेरी बहू नीरा कहां है? लवकुश कैसे हैं? होमवर्क करते हैं कि नहीं?’’

अजय ने अम्मां का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और बोला, ‘‘मां, सबकुछ एक ही पल में पूछ लोगी?’’

अम्मां को धैर्य कहां था, अजय को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तू बहू को काम पर जाने से मत रोकना. जानता है, जब बच्चे सैटिल हो जाते हैं तो औरत को खालीपन का एहसास होने लगता है. ऐसा लगता है जैसे वह एक निरर्थक सी जिंदगी जी रही है, एक ऐसी जिंदगी, जिस का इस्तेमाल कर के बच्चे और पति अपनेअपने क्षेत्र में सफल हो गए और वह उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी है.’’

अपने भीतर के दर्द को ढांपने के लिए अम्मां ने हलकी मुसकान के साथ अपनी नजरें अजय पर टिका दी थीं. अजय बारबार अम्मां को शांत करता, उन का ध्यान दूसरी बातों में लगाने का प्रयास करता पर जहां यादों का खजाना और पीड़ा का मलबा हो वहां अपने लिए छोटा सा कोना भी पा सकना मुश्किल है.

‘‘अजय, क्या खाएगा तू? मठरी, पेठा, लड्डू?’’ और अम्मां दीवार की तरफ हो कर अलमारी में से डब्बे निकालने लगीं.

‘‘अम्मां, अब भी अपनी अलमारी में आप यह सब रखती हो? कौन ला कर देता है ये सारा सामान तुम्हें?’’ अजय ने छोटे से बच्चे की तरह मचल कर पूछा.

‘‘चौकीदार को 5 रुपए दे कर मंगा लेती हूं. यहां भी लवकुश की तरह कई नन्हेनन्हे बालगोपाल हैं. कमरे में आते ही कुछ भी मांगने लगते हैं. सच में अजय, ऐसा लगता है, खाते वह हैं, तन मेरे लगता है.’’

अजय सोच रहा था, भावनाओं और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. जिन का आंचल प्यार, दया और ममता से भरा होता है वह कहीं भी इन भावनाओं को बांट लेते हैं. अम्मां अलमारी में रखे डब्बे में से सामान निकाल रही थीं कि अचानक नीरा का स्वर उभरा, ‘‘अम्मां, मुझे कुछ नहीं चाहिए. सिर्फ अपनी गोदी में सिर रख कर हमें लेटने दीजिए.’’

‘‘तू कब आई?’’ अम्मां आत्म- विभोर हो उठी थीं.

‘‘अजय के साथ ही आई, अम्मां. जानती हैं, आप के जाने के बाद कितने अकेले हो गए थे हम. कितना सहारा मिलता था आप से? निश्ंिचत हो कर स्कूल जाती. लौटती तो सबकुछ बना- बनाया, पकापकाया मिलता था. घर का दरवाजा तो खुला ही रहता था. अहंकार और अहं की अग्नि में राख हुई मैं यह भी नहीं जान पाई कि बच्चों को जो सुख, आनंद, नानीदादी के मुख से सुनी कहानियों में मिलता है वह वीडियो कैसेट में कहां?

‘‘बच्चों के स्कूल बैग टटोलती तो छोटेछोटे चोरी से लाए सामान मिलते. अजय घंटों आप के फोटो के पास बैठे रोते. फिर मन का संताप दूर करने के लिए नशे का सहारा लेते तो मन तिरोहित हो उठता कि क्यों जाने दिया मैं ने आप को?

‘‘मैं ने अजय से अनुनय की कि मुझे एक बार मां से मिलना है पर वह नहीं माने. कैसे मानते? मेरे दुर्व्यवहार की परिणति से ही तो आप को घर से बेघर होना पड़ा था. मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या स्नेह की आंच से मां के मन में ठोस हुई कोमल भावनाओं को पिघलाया नहीं जा सकता. मां का आंचल तो सुरक्षा प्रदान करता है. एक ऐसे प्यार की भावना देता है जिस के उजास से तनमन भीग जाता है.’’

अम्मां चुप्पी साधे रहीं. शुरू से ही चिंतन, मनन, आत्मविश्लेषण करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचती थीं.

‘‘इतना बड़ा ब्रह्मांड है, अम्मां. आकाश, तारे, नक्षत्र, सूर्य सब अपनीअपनी जगह पर अपना दायित्व निभाते रहते हैं. कमाल का समायोजन है. लेकिन हम मानव ही इतने असंतुलित क्यों हैं?’’

अम्मां समझ रही थीं, अजय बेचैन है. अंदर ही अंदर खौल रहा था. अम्मां ने उस की जिज्ञासा शांत की, ‘‘क्योंकि इनसान ही एक ऐसा प्राणी है जो राग, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा जैसी भावनाओं से घिरा रहता है.’’

‘‘सच अम्मां, मेरा विरोधात्मक तरीका आज मुझे उस मुकाम पर ले आया जहां आत्मसम्मान के नाम पर रुपया, पैसा, आरामदायक जिंदगी होते हुए भी घर खाली है. साथ है तो केवल अकेलापन. यह सब मैं अब समझ पाई हूं.’’

अपने मन के सामने अपराधिनी बनी नीरा अम्मां के कथन की सचाई को सहन कर, हृदय की पीड़ा के चक्र से अपनेआप को मुक्त करती बोली तो अम्मां की आंखों से भी आंसुओं की अविरल धारा बह निकली.

‘‘अम्मां, हम तो बातोें में ही उलझ गए. आप को लिवाने आए हैं. कहां चोट लगी आप को?’’ अजय नन्हे बालक की तरह मचल उठा.

‘‘अरे, कुछ नहीं हुआ. तुम से मिलने को जी चाहा तो बहाना बना दिया. महंतजी से फोन करवा दिया. जानती थी, मैं तुम्हें याद करती हूं तो तुम लोग भी जरूर याद करते होगे. दिल से दिल के तार मिले होते हैं न.’’

‘‘तो फिर अम्मां, चलोगी न हमारे साथ?’’ अजय ने पूछा, तो अम्मां हंस दीं, ‘‘मैं ने कब मना किया.’’

अजय ने नीरा की ओर देखा. अपने ही खयालों में खोई नीरा भी शायद यही सोच रही थी, ‘घरपरिवार की दौलत छोटीछोटी खुशियां होती हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान करने से प्राप्त होती हैं.’ आज सही मानों में दोनों को खुशी प्राप्त हुई थी.

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