पहाड़ की ढलान पर उतरते वक्त पद्मा ने समीर का हाथ पकड़ना चाहा, पर वे न जाने किस धुन में आगे निकल गए थे. मां को रुकता देख नीटू ने उन के हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘‘आओ मां, मेरा हाथ पकड़ कर धीरेधीरे उतर जाओ.’’ पद्मा 8 साल की उस मासूम लड़की की आंखों में कुछ पल देखती रही. अभी 2 कदम ही आगे बढ़ सकी थी कि चप्पल जो फिसली, तो पद्मा नीचे लुढ़कती चली गई.
नीटू की चीख सुनाई दी और साथ ही अपनी आंखों को डर और पीड़ा से पद्मा ने बंद होता हुआ भी महसूस किया. तभी 2 बांहों ने पद्मा को एकदम से पकड़ कर नीचे खाई में गिरने से बचा लिया था. बड़ी कोशिश से आंखों को खोला तो एक गोरी पहाड़ी लड़की को अपने पर झुका देखा. धीरेधीरे पद्मा बेहोश होती गई. आंखें खुलीं तो पद्मा ने खुद को एक पहाड़ी घर में देखा. नीटू उस के सिरहाने बैठी उस का सिर सहला रही थी. जिस लड़की ने बचाया था, वह वहीं प्याले में कुछ घोल रही थी. तभी एक पुरानी और बहुत जानीपहचानी आवाज कानों में गूंजी,
‘‘अब कैसी तबीयत है छोटी बहू?’’ सालों बाद भी उस आवाज में जो अपनापन व प्यार छिपा हुआ था, उस से पद्मा की नजर ऊपर उठ गई. इतने दिनों बाद भी पद्मा उस चेहरे को पहचान गई. बायां गाल झुर्रियों से भरा हुआ था. जलने का निशान सालों बाद भी जिस्म के एक नाजुक हिस्से से चिपका हुआ बीते दिनों की एक नफरत भरी कहानी कह रहा था. ‘‘तुम माया…?’’ पद्मा ने उठना चाहा, पर उस लड़की ने उठने नहीं दिया, ‘‘आप लेटी रहें, आप के पैरों में चोट लगी है.’’
अब पद्मा ने अपने पैरों की ओर देखा, जहां पट्टी बंधी थी. दर्द की एक तीखी लहर पूरे बदन में फैल गई. ‘‘तेरे पिताजी कहां हैं नीटू?’’ पद्मा ने बेटी से पूछा. ‘‘आप के लिए डाक्टर बुलाने गए हैं. यहां टावर नहीं है, इसलिए मोबाइल नहीं चलता. हम ने तो बहुत कहा कि डाक्टर की जरूरत अब नहीं है. इतने सालों से पहाड़ पर रहते हुए पहाड़ों के दिए दर्द का इलाज भी हम ने ढूंढ़ लिया है,’’ माया धीरे से बोली. दिन ढलने तक माया और उस की बेटी बराबर पद्मा की सेवा में लगी रहीं. न जाने कब मेरी आंखें लग गईं. किसी आवाज पर पद्मा की आंखें खुलीं, वरना न जाने कब तक सोती रहती. समीर गाड़ी ले आए थे. वे बोले, ‘‘डाक्टर तो आए नहीं, तुम्हें ही चलना होगा.
पहाड़ घूमने में तो काफी अच्छा लगता है, पर परेशानी होने पर सारी खुशियां हवा होने लगती हैं. एक डाक्टर के लिए इतनी दूर जाना पड़ा, फिर भी वे नहीं आए. मुश्किल से एक गाड़ी का इंतजाम कर के लाया हूं. अब कल लौट चलो… बहुत घूम लिया,’’ एक सांस में जो वे शुरू हुए तो बोलते ही गए. पद्मा आंखें बंद किए चुप पड़ी रही. जानती थी कि उन की थकान की चिड़चिड़ाहट अभी थोड़ी देर में बड़बड़ाने से उतर जाएगी. थोड़ी देर में जब वे शांत हुए, तो पूछा, ‘‘अब तुम्हारा दर्द कैसा है?’’ पद्मा हलके से मुसकरा दी. अब ध्यान आया इन्हें उस का. मतलब समझ कर वे भी झेंपते हुए उसे देखने लगे. ‘‘तुम्हें पता है, मुझे किस ने बचाया था?’’
पद्मा ने पति की ओर देखा. ‘‘हां, कोई बच्ची थी. छोटी सी…’’ वे लापरवाही से बोले. ‘‘वह माया की बेटी है.’’ ‘‘माया…?’’ ‘‘हां, वही माया, जिस की 3 पीढि़यां हमारे यहां काम करती रही हैं.’’ ‘‘समीर भैया कैसे हो?’’ माया ने ही आ कर उन से सीधा सवाल कर दिया. समीर के अब न पहचानने का सवाल ही नहीं था. ‘‘मैं तो ठीक हूं माया, पर तुम्हारे आने के बाद मां बहुत दुखी थीं. पिछले साल वे भी नहीं रहीं…’’ ‘‘हम बहुत दुखी हुए बबुआ, जब उन की स्नेह छाया हमारे सिर से छिन गई. अब तो पिछला कुछ याद करने को भी जी नहीं करता.’’ होटल वापस आ कर भी पद्मा का दिल भटकता ही रहा. रात में डाक्टर आए और कुछ दर्द कम करने की दवा दे गए. सच में तो माया के जड़ीबूटी वाले लेप से ही उसे काफी आराम मिल गया था. पहाड़ों पर चांद और सूरज का दिखना भी बड़ी बात है. सुबह उठी,
तब तक बादलों के बीच ही सूरज छिपा होता है. रात में कभी मौसम साफ रहा तो चांद दिख गया, नहीं तो बादलों के आंचल में छिपना उसे भी रास आता है. दिनभर की भागमभाग से थके समीर तो सो गए, पर पद्मा सो न सकी. माया के सुंदर चेहरे को पद्मा ने अपनी आंखों से सफेद चकत्तों में बदलते देखा था. पर क्या वह सच था, जिस जुर्म की सजा उस के पति ने दूध का पतीला उस पर उलट कर दी थी? उस ने वह जुर्म किया था, पद्मा का मन कतई यह मानने को तैयार न था. पद्मा बीते सालों की यादों में खो गई. जब वह समीर की दुलहन बन कर उस के आंगन में उतरी थी, कई आवाजों के बीच एक नाम बारबार उसे सुनाई दिया था, ‘माया… माया…’ पद्मा सोचने लगी कि यह माया कौन है? पद्मा ने याद किया था कि उस की ननद का नाम तो रुचि है. गोदभराई में आई, हंसीठिठोली करती लड़कियों के भी नाम याद करने की कोशिश की.
पर, उन में माया नाम ही नजर न आया. लेकिन रात को भेद खुल गया. पद्मा दुलहन बनी सिकुड़ीसिमटी सोफे पर बैठी थी. सामने पलंग पर बस चादर पर थोड़े फूल डाल दिए गए थे. मन में हूक सी उठी. किताबों में पढ़े और फिल्मों में देखे सुहागरात के कई नजारे उस की आंखों के सामने घूम गए, जहां कमरा फूलों की लडि़यों से सजा होता था. ‘‘छोटी बहू…’’ एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. सामने देखा, गोरे रंग की एक पहाड़ी औरत खड़ी थी. नाकनक्श बेहद तीखे और होंठों पर मुसकान. ‘‘यह दूध है… समीर बाबू आते ही होंगे.’’ ‘‘आप…?’’ पद्मा खड़ी हो गई. ‘‘मैं माया हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘मेरी 3 पीढि़यां इस घर की सेवा करती रही हैं. मैं भी यहीं पलीबढ़ी हूं.’’ ‘‘माया…’’ ‘‘हां, छोटी बहू…’’ वह जाने को पलटी, पर फिर रुक गई. हिचकते हुए वह बोली, ‘‘छोटी बहू, एक बात कहनी है… पर आप कोई और मतलब मत निकाल लेना.
मैं औरत हूं. इस कारण तुम्हें कुछ बता देना जरूरी समझती हूं.’’ ‘‘मैं समझी नहीं?’’ ‘‘छोटी बहू, समीर भैया को जरा प्यार की मजबूत डोर से बांधना… हलकीफुलकी डोर तो झटके से तोड़ ही डालेंगे.’’ ‘‘यह तुम क्या कह रही हो?’’ पद्मा चौंक उठी थी. ‘‘हां छोटी बहू… बड़े भैया के अफसर की लड़की है कामिनी. बड़ी ही चंचल… आती है तो ऐसे इतराते हुए मानो इस घर की मालकिन वही हो.’’ ‘‘तो क्या समीर भी…?’’ ‘‘अब सारे समय कोई फूल खुद ही भंवरे पर झुका रहेगा तो खुशबू तो भंवरा लेगा ही न.’’ ‘‘तो इन्होंने उसी से शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘आप भी गजब करती हैं छोटी बहू. इतना बड़ा अफसर अपनी बेटी की शादी इन से करेगा. मौजमस्ती मारना और बात है, शादी करना और. फिर इतनी नकचढ़ी बिगड़ी लड़की इस घर में कहां खपने वाली है. मांजी तो इसे देख कर ही चिढ़ती हैं.’’ तभी किसी के कदमों की आवाज सुनाई दी और माया ‘भैया आ गए’ कहते हुए तेजी से बाहर चली गई.
समीर के साथ पद्मा की पहली मुलाकात जिन प्रेम भरे पलों में होनी चाहिए थी, वैसी न हो सकी. उन के हाथों ने जब उसे छुआ तो उसे बासीपन का एहसास होने लगा. माया की बातें नाग बन कर पद्मा के चारों तरफ लिपट गई थीं. सोचने लगी कि यह कैसे घर में आ फंसी वह. अपने पति को उस कामिनी नाम की लड़की की बांहों में देख क्या वह अपना धीरज न खो बैठेगी? दूसरे दिन जब वह अभी नहा कर उठी ही थी कि बाहर से एक चहकती हुई आवाज सुनाई दी, ‘‘नई भाभी कहां हैं भई… उन के तो दर्शन ही नहीं हुए.’’ ‘‘कहां चली गई थी बेबी कल…?’’ यह शायद भाभी की आवाज थी. पद्मा ने अंदाजा लगाया. ‘‘ओह, यह न पूछो भाभी. उस कमबख्त डेविड के चक्कर में कल शिमला से लौट ही न पाई. कालका तक आते गाड़ी ही खराब हो गई. ओ हो… तो ये हैं हमारी नई भाभी…’’ कमरे में मेरे बिलकुल पास आ कर कामिनी ने कहा,
तो पद्मा की नजरें ऊपर उठ गईं. उस का चेहरा मासूम लगा. सोचा, ‘नहीं, यह चेहरा किसी को धोखा नहीं दे सकता. पर आवाज की चंचलता तो किसी को भी अपनी तरफ खींच सकती है.’ ‘‘समीर कहां है? दिख नहीं रहा.’’ ‘‘जी, वे नहा रहे हैं.’’ ‘‘ओह…’’ कामिनी वहीं पलंग पर आराम से लेट गई. पद्मा कमरे को ठीक करने लगी. गुसलखाने का दरवाजा खुला, तो कामिनी उठ बैठी, ‘‘हैलो समीर…’’ पद्मा ने यों ही एक नजर समीर पर डाली. उस के सीने के बाल भीग कर बदन से चिपक गए थे. इस जिस्म पर वह मोहित हो उठी. पर कामिनी को बैठे देख कर सारा जोश ठंडा पड़ गया. ‘‘कब आई?’’ बदन पर गाउन डालते हुए समीर ने कामिनी से पूछा. ‘‘थोड़ी देर हुई… शाम को पार्टी में चल रहे हो न?’’ वह कुछ जवाब देते, तभी भाभी आ गईं,
‘‘अरे बेबी, नीचे चलो. तुम्हारे भाई साहब नाश्ते पर इंतजार कर रहे हैं.’’ पद्मा को चोट सी लगी कि नई बहू को नीचे बुलाने के बजाय कामिनी को नीचे बुलाया जा रहा है. ‘‘चलती हूं समीर, आना जरूर… और भाभी को भी साथ लाना,’’ मुसकराते हुए कामिनी चली गई. मैं इन बातों से अलग हटी और पद्मा कमरा ठीक करती रही. ‘‘जरा अलमारी से मेरे कपड़े निकाल दो,’’ पद्मा ने मुड़ कर देखा, समीर शीशे के सामने खड़े बाल संवार रहे थे. ‘‘कौन से निकालूं?’’ ‘‘जो तुम्हें पसंद हों. आज हम घूमने चल रहे हैं.