Short Story : मीनू – एक सच्ची कहानी

Short Story : बात उन दिनों की है, जब मैं मिलिटरी ट्रेनिंग के लिए 3 एमटीआर मडगांव, गोवा गया हुआ था. कुछ दिनों के लिए मिलिटरी अस्पताल, पणजी में मैं अपने पैरदर्द के इलाज के लिए रुका हुआ था.

एक दिन यों ही मैं अपने एक दोस्त साजन के साथ कंडोलिम बीच की तरफ घूमने निकला था. पहले हम मिलिटरी अस्पताल से बस ले कर फैरी टर्मिनल पहुंचे. फिर हम ने पंजिम का मांडोवी दरिया फैरी से पार किया. फिर वहां से हम दोनों कंडोलिम बीच के लिए बस में बैठ गए.

आप को बता दूं कि कंडोलिम बीच पंजिम से 13 किलोमीटर दूर है. साथ ही, यह भी बता दूं कि पणजी को ही आम बोलचाल में पंजिम कहा जाता है.

खैर, हम बस में सवार हो चुके थे. हम 3 सवारी वाली सीट पर बैठ गए थे. तीसरी सवारी कोई और थी. वह मर्द था.

मेरा दोस्त साजन शीशे की तरफ वाली सीट पर बैठ गया था. मैं बीच वाली सीट पर बैठ गया.

अचानक मेरी नजर हम से अगली सीट पर बैठी लड़की पर गई. उस पर सिर्फ एक ही सवारी बैठी थी. वह 18-19 साल की लड़की थी. उस का रंग सांवला था. उस के हाथ में गोवा मैडिकल कालेज और अस्पताल का कार्ड था. कार्ड पर उस का नाम मीनू लिखा हुआ था.

मैं ने अचानक ही पूछ लिया, ‘‘आप जीएमसी से आ रही हैं?’’

उस ने कहा, ‘‘हां.’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं भी इलाज के लिए जीएमसी में जाता रहता हूं.’’

मैं ने एकदम पूछ लिया, ‘‘आप को क्या हुआ है?’’

वह बोली, ‘‘छाती में दर्द है.’’

मैं ने अफसोस में कहा, ‘‘ओह.’’

फिर उस ने पूछा, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘हम भारतीय सेना में हैं. मैं अपने दोस्त साजन को कंडोलिम बीच दिखाने ले जा रहा हूं.’’

वह लड़की मेरे साथ बात करने में खुशी महसूस कर रही थी, इसलिए मैं बातें जारी रखना चाहता था. फिर मैं ने पूछा, ‘‘क्या आप भी कंडोलिम बीच पर जा रही हैं?’’

उस ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं, रास्ते में मेरा गांव है. मैं वहां जा रही हूं.’’

अब मीनू मुझे अपनी सी लगने लग गई थी. मैं भी उस के सपने देखने लगा था. उस की भावनाएं भी शायद कुछ ऐसी ही होंगी. उस उम्र में हर लड़कालड़की के मन में अपने एक जीवनसाथी की तलाश रहती है.

मीनू बोली, ‘‘आगे आ जाइए.’’

उस के साथ वाली सीट खाली थी. वह फिर बोली, ‘‘आप को बात करने में दिक्कत आ रही है, आगे आ जाइए.’’

मेरा दोस्त साजन बोला, ‘‘जाओ, आगे चले जाओ.’’

मैं आगे जा कर मीनू के साथ वाली सीट पर बैठ गया.

वह बोली, ‘‘तुम्हारा दोस्त अकेला रह गया. उसे भी बुला लो.’’

मैं ने साजन से आगे आने के लिए कहा. पर उस ने कहा कि कोई बात नहीं, आप अपनी बातें करो.

मैं ने मीनू को अपनेपन से कहा, ‘‘आप भी हमारे साथ बीच पर चलो. हमें भी बीच घुमा लाओ.’’

उस ने कहा, ‘‘जी नहीं, मैं नहीं जा सकती. मेरा घर जाना जरूरी है.’’

इतने में कंडक्टर आ गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘2 टिकट कंडोलिम बीच के और एक टिकट…’’

उस के गांव का नाम मेरे मुंह में ही रह गया. उस ने बात मेरे मुंह से छीनते हुए कहा, ‘‘3 टिकट कंडोलिम बीच…’’

फिर वह मेरी तरफ मुंह घुमा कर बोली, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारे साथ ही चलती हूं. जल्दी वापस आ जाएंगे.’’

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

हम जल्दी ही कंडोलिम बीच पहुंच गए. हम वहां पर घूमे, खाना खाया और इधरउधर की बातें कीं.

मैं ने मीनू से पूछा, ‘‘आप के पिताजी क्या काम करते हैं?’’

उस ने जवाब दिया, ‘‘मेरे डैडी मजदूरी करते हैं. मेरी मम्मी घरों में बरतन धोने का काम करती हैं. मैं एक गारमैंट्स स्टोर पर काम करती हूं और साथ में बरतन धोने का काम भी करती हूं.’’

मीनू ने यह भी बताया कि एक उस की बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है और पणजी में अपने पति के साथ रहती है. उस के मम्मीडैडी कोल्हापुर से यहां आ कर बसे हुए हैं. बिना संकोच किए उस ने सबकुछ साफसाफ बता दिया था.

उस समय मेरी उम्र 23 साल थी और उस की उम्र 19 साल थी. उम्र का अंतर ठीक था.

मैं ने पूछा, ‘‘आप कितना पढ़ीलिखी होंगी?’’

उस ने बताया कि वह एसएससी पास है.

वैसे, मेरी पढ़ाई उस से काफी ज्यादा थी, पर चूंकि हमारे दिल मिल चुके थे, इसलिए सबकुछ ठीक लग रहा था. फिर हम एक होटल में कुछ देर के लिए रुके. हम एक हो गए थे.

अब हमें लौटना था. मैं चाहता था कि मेरे बाकी आर्मी के दोस्त भी अपनी भाभी को देख लें. मैं बहुत जोश में था. अब मैं अकेला नहीं था. मैं ने उस से कहा कि मेरे साथ मिलिटरी अस्पताल चले. वह बोली, ‘‘ठीक है.’’

मीनू मेरे साथ मिलिटरी अस्पताल आई. मैं ने अपने दोस्तों को उन की भाभी दिखाई. उस ने खुद हमारे कर्नल साहब से बात की. उस के बाद वह वापस चली गई.

एक दिन बाद ही मुझे मडगांव सैंटर जाना था. मैं ने मीनू को वहां का पता लिख कर दे दिया था.

मैं मडगांव सैंटर चला गया था. मीनू की बहुत याद आ रही थी. उस का खत आ गया. वह भी उदास थी. वह मुझ से मिलना चाहती थी. उस ने लिखा कि मैं उस को जीएमसी, पणजी में 10 तारीख को 12 बजे मिलूं.

मैं ने उसे जवाब दिया कि मैं भी बहुत उदास हूं. मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आ रही है. मैं जीएमसी, पणजी आ रहा हूं. वहां मेरे पैर का आपरेशन है. आप से भी मिल लूंगा.

उस के आने के एक दिन पहले मेरे पैर का आपरेशन हो गया था. मैं वार्ड में भरती था. जब उस ने मेरा नाम ले कर इनक्वायरी पर पता किया, तो स्टाफ ने मुझ से मिला दिया. मिलने के लिए उसे कम समय दिया गया था.

मैं ने उसे बताया कि मैं परमानैंट डिसएबल्ड हो गया हूं. अब मुझे नौकरी छोड़नी होगी और मजबूरन अपने घर पंजाब जाना होगा.

मुझे नौकरी छूट जाने का गम था. मन में बहुत सी बातें घूम रही थीं कि बिना नौकरी के मेरा कैसे गुजारा होगा, मीनू को कहां रखूंगा. क्या करूं? वापस अपने घर पंजाब चला जाऊं या यहीं रह कर कुछ कामधंधा करूं?

वह मुझ से मिल कर जल्दी चली गई. मैं और उदास हो गया था. उस के अगले दिन मैं अपने मडगांव सैंटर चला गया.

एक हफ्ते बाद टांके कटवाने के लिए जीएमसी आया था और टांके कटवा कर वापस मडगांव सैंटर चला गया था. नौकरी से डिस्चार्ज के कागज तैयार हो गए थे. पैंशन नहीं लगी थी, क्योंकि मैडिकल बोर्ड ने डिसएबल्टी की वजह ट्रेनिंग नहीं लिखी थी.

मैं अपने घर पंजाब नहीं जाना चाहता था. जिस के साथ मैं नई जिंदगी बसाने के सपने देख रहा था, उसे कैसे छोड़ कर जाता. नौकरी छोड़ कर गरीब मातापिता को कैसे मुंह दिखाता. पैसे से हाथ खाली थे. कोई छोटामोटा कमरा या घर भी तो किराए पर नहीं ले सकता था. सेहत भी ठीक नहीं थी, जिस वजह से कोई काम भी नहीं कर सकता था.

मैं ने सोचा कि कोई न कोई काम करने की कोशिश करनी चाहिए. कर्नल साहब की सिफारिश पर मुझे एक पैट्रोल पंप पर नौकरी मिल गई. पहले ही दिन काम कर के देखा था. शरीर साथ नहीं दे रहा था. मन भी उदास था.

शाम को बस में बैठ कर मैं मीनू के गांव की तरफ चल पड़ा. उस के गांव उतर कर मैं वहीं बैठ गया. वहां से उस के गांव जाने के लिए थोड़ा पैदल रास्ता था. कदम आगे जाने से रुक गए थे. मन कोई फैसला नहीं ले पा रहा था कि क्या करूं.

इतने में वापसी की बस आ कर रुकी. मैं बिना कुछ सोचे ही उस बस में बैठ गया. वहां से पणजी, पणजी से मडगांव सैंटर पहुंच गया. अगले दिन रेलवे का टिकट वारंट लिया और वापस अपने घर पंजाब के लिए चल पड़ा उदास मन ले कर.

आज मेरी उम्र 50 साल से ऊपर हो गई है. उस को मैं एक पल के लिए भी नहीं भूल पाया हूं. मीनू के साथ बिताया एकएक पल मुझे ऐसे याद रहता है, जैसे कल की ही बात हो.

(यह कहानी एक सच्ची घटना पर लिखी गई है. पात्रों के नाम व जगह बदल दी गई है)  

Family Story : ऐसा कोई सगा नहीं

Family Story : बबलूराम खुद चल कर शादी का प्रस्ताव लाए हैं. इतने बड़े घर में संबंध होने की बात से संतोषीलाल का परिवार फूला नहीं समा रहा था.

चूंकि 2 साल पहले ही बबलूराम की पत्नी की मौत हो चुकी थी, इसलिए घर में सासननद नाम का कोई  झं झट नहीं था. यह दूसरी बड़ी बात थी. यह भी तय ही था कि शादी के बाद उन की लड़की गोपी ही घर की सर्वेसर्वा रहेगी. ऐसे प्रस्ताव को नकारना बेवकूफी ही होगी.

बबलूराम पर कई हत्याओं के आरोप थे और विरोधी भी उन के करैक्टर पर उंगलियां उठाते रहते थे, पर संतोषीलाल ने अपने घर वालों का मुंह यह कह कर बंद कर दिया था, ‘‘देखो, राजनीति में विरोधियों का काम ही आरोप लगाना है. ऐसा कोई नेता नहीं, जिस पर आरोप न लगे हों. अभी कोर्ट में भी कुछ साबित नहीं हुआ है.

‘‘हो सकता है कि बबलूराम ने आगे बढ़ने के लिए कुछ गलत किया हो, पर हम शादी तो उन के एकलौते लड़के दीपक से कर रहे हैं, जिस का राजनीति से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं है. वह अपनी फैक्टरी चलाता है और उस का राजनीति में आने का अभी कोई इरादा भी नहीं है.

‘‘फैक्टरी से अच्छीखासी आमदनी हो जाती है. अगर कल को बबलूराम को सजा हो भी जाती है तो भी गोपी महफूज रहेगी.’’

गोपी 19 साल की एक खूबसूरत लड़की थी जो कालेज के आखिरी साल का इम्तिहान दे रही थी.

एक शादी समारोह में अच्छी तरह से सजीसंवरी गोपी बेहद ही आकर्षक लग रही थी, वहीं पर बबलूराम ने गोपी को देखा और अपने बेटे दीपक के लिए चुन लिया था.

दीपक की उम्र भी 24 साल है. बबलूराम ने अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा के बल पर उस के लिए एक फैक्टरी डलवा दी है जो अच्छीखासी चलती है. उस शादी में दीपक भी था और उसे भी गोपी बहुत अच्छी लगी थी.

बबलूराम ने दीपक की शादी को तड़कभड़क से दूर रखा था. परिवार के अलावा कुछ चुनिंदा लोगों को ही शादी में बुलाया गया था.

शादी होने के साथ ही आए हुए रिश्तेदार भी अपनेअपने घर को चले गए थे. अब घर में वे तीनों ही रह गए थे और कुछ घरेलू नौकर थे, जो समयसमय पर आते थे.

शुरूशुरू में तो गोपी को सब अच्छा लगा, पर जल्दी ही घर पर अकेलापन उसे खलने लगा.

एक दिन गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मैं घर में अकेले बोर हो जाती हूं. क्यों न मैं भी तुम्हारे साथ फैक्टरी चलूं?’’

‘‘अरे नहीं, कारखाने में कई मजदूर हैं और मजदूरों की सोच तो तुम्हें मालूम ही है. मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे बारे में कोई अनापशनाप बोले…’’

दीपक उसे सम झाने लगा, ‘‘और वैसे भी पिताजी के आनेजाने का समय तय नहीं है, इसलिए तुम घर पर ही रहो तो बेहतर रहेगा.’’

शादी के 2 साल पूरे होतेहोते गोपी ने एक बेटे को जन्म दे दिया, जिस का नाम राजन रखा गया.

अब गोपी का ज्यादातर समय राजन के साथ ही बीत जाता और उस के बोर होने की शिकायत दूर हो गई.

राजन अब 4 साल का हो गया था और प्रीनर्सरी स्कूल में जाने लगा था.

अब गोपी की पुरानी समस्या फिर से सिर उठाने लगी थी. एक दिन नाश्ते की टेबल पर जब तीनों बैठे थे, तभी गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मु झे भी फैक्टरी ले जाया करो. मैं यहां अकेली घर पर बोर हो जाती हूं.’’

‘‘देखो गोपी, यह मुमकिन नहीं है. मैं तरहतरह के लोगों से मिलता हूं. सभी लोगों से बात करने का लहजा भी अलग होता है. ऐसे में तुम्हारे वहां बैठने से

मु झे भी परेशानी होगी और तुम भी सहज नहीं रह पाओगी,’’ दीपक गोपी को सम झाते हुए बोला.

‘‘तब तो पापाजी आप ही मु झे राजनीति में शामिल करवा लीजिए. इस बहाने कुछ समाजसेवा भी हो जाएगी और मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा…’’ गोपी बबलूराम से अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी आप सीएम के बाद दूसरे नंबर की पोजीशन पर हैं, इसीलिए आप के लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं है.’’

‘‘वह तो ठीक है गोपी, पर राजनीति कई तरह के बलिदान मांगती है. हो सकता है, राजनीति में आने के बाद तुम अपने परिवार… मेरा मतलब है कि दीपक व राजन को पूरा समय न दे पाओ. कभी सुबह जल्दी जाना तो रात में देर से घर आना पड़ सकता है. कई उलटेसीधे काम भी करने पड़ सकते हैं,’’ बबलूराम हंसते हुए बोले.

‘‘अरे पापाजी, घरपरिवार का तो आप को मालूम ही है. दीपक तो महीने में 15 दिन तो टूर पर रहते हैं और मैं घर पर अकेली.

‘‘राजन डे बोर्डिंग में जाता है तो शाम को ही घर आ पाता है. आप खुद भी ज्यादातर बाहर ही रहते हैं, इसलिए मेरे अकेले रहने को तो परिवार नहीं कह सकते न,’’ गोपी बोली.

‘‘पापा ठीक कह रहे हैं गोपी. राजनीति बहुत ज्यादा समर्पण मांगती है,’’ दीपक बोला.

‘‘आप तो रहने ही दो. न फैक्टरी जाने देते हो और न समाजसेवा के लिए राजनीति में. जब तक पापाजी मेरे साथ हैं, मु झे कोई डर नहीं,’’ गोपी बनावटी गुस्से से बोली.

‘‘ठीक है, अगले साल नगरनिगम के चुनाव हैं. हम कोशिश करेंगे कि इस में अच्छा पद पाने की, पर इस के लिए अभी से मेहनत करनी पड़ेगी,’’ बबलूराम बोले.

नाश्ता कर के सभी अपनेअपने कामों में लग गए.

उस शाम बबलूराम जल्दी घर आ गए. तकरीबन 15 मिनट बाद गोपी जब चाय देने के लिए कमरे में गई तो यह देख कर हैरान रह गई कि बबलूराम के कमरे में एक गुप्त अलमारी लगी हुई थी जिस में कई तरह की विदेशी शराब रखी हुई थी.

उसे कमरे में देख कर बबलूराम बोले, ‘‘यह राजनीति का पहला सबक है. एक नेता को अपने चेहरे पर कई चेहरे लगाने पड़ते हैं, इसलिए राजनीति में जो जैसा दिखता है, जैसा बोलता है, वैसा होता नहीं. सम झी?’’

‘‘जी, पापाजी,’’ गोपी कुछ घबरा कर बोली.

‘‘अच्छा, ऐसा करो, इस हरे रंग की बोतल में से एक पैग बना कर मुझे दे दो. उस के बाद फ्रिज में से निकाल कर एक क्यूब बर्फ भी डाल दो और चली जाओ. जब दीपक आ जाए तो मु झे भी खाने पर बुला लेना. और हां, राजन आ गया क्या?’’ बबलूराम ने पूछा.

‘‘जी, आ गया वह,’’ कह कर गोपी ने पैग बना कर बबलूराम को दे दिया.

तकरीबन डेढ़ घंटे बाद दीपक फैक्टरी से आ गया और सभी खाने की टेबल पर इकट्ठा हो गए.

बबलूराम दीपक से बोले, ‘‘आज से गोपी की राजनीतिक तालीम शुरू हो गई है. आज मैं ने उसे सम झाया है कि राजनीति में हर आदमी के एक से ज्यादा चेहरे होते हैं.’’

यह सुन कर सभी हंस दिए. खाना खाते समय दीपक ने बताया कि उसे परसों पूना निकलना पड़ेगा. फैक्टरी का कुछ काम है, इसलिए एक हफ्ते तक वहीं रुकना पड़ेगा.

तय कार्यक्रम के अनुसार दीपक सुबह जल्दी पूना के लिए निकल गया.

नाश्ता करते समय बबलूराम ने गोपी से कहा, ‘‘आज दोपहर 12 बजे तुम पार्टी दफ्तर आ जाना. मैं तुम्हें यहां का नगर अध्यक्ष बनवा दूंगा, ताकि चुनाव लड़ने में कोई दिक्कत नहीं आए.’’

गोपी समय पर पार्टी दफ्तर पहुंच गई, जहां पर बबलूराम ने उसे पार्टी की महिला मोरचे की अध्यक्ष अपने गुरगों के जरीए बनवा दिया. दिनभर जुलूस व रैली का कार्यक्रम चलता रहा. शाम को गोपी घर आ गई, पर बबलूराम पार्टी दफ्तर में ही रुक गए.

रात तकरीबन 9 बजे तक इंतजार करने के बाद गोपी ने खाना खा लिया. बबलूराम तकरीबन 11 बजे घर लौटे और गोपी की तरफ देख कर बोले, ‘‘अब तो तुम खुश हो न?’’

‘‘जी पापाजी, मैं बहुत खुश हूं. आप के लिए खाना लगा दूं क्या?’’ गोपी ने बडे़ ही अपनेपन से पूछा.

‘‘नहीं, मु झे भूख नहीं है. लेकिन मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है. तुम थोड़ी मालिश कर दोगी क्या?’’ बबलूराम ने गोपी से पूछा.

‘‘जी हां, क्यों नहीं,’’ गोपी बोली. ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं,’’ गोपी ने गाउन पहन रखा था.

‘‘अरे, नहींनहीं, इस की क्या जरूरत है. 10 मिनट में तो मेरी मालिश हो ही जाएगी. फिर तुम क्यों परेशान होती हो. आ जाओ ऐसे ही,’’ बबलूराम ने कहा.

गोपी सकुचाते हुए बबलूराम के कमरे में चली गई.

बबलूराम अपने बैड पर लेट गए और गोपी हलके हाथ से उन की मालिश करने लगी.

धीरेधीरे बबलूराम का सिर गोपी की गोद में आ गया. गोपी सम झी कि शायद बबलूराम को नींद लग गई है और ऐसा हो गया है, पर ऐसा नहीं था. यह सबकुछ जानबू झ कर हो रहा था.

धीरेधीरे बबलूराम ने गोपी को अपनी तरफ खींच लिया. गोपी कुछ सम झ पाती, उस के पहले ही वह सब हो गया, जो नहीं होना चाहिए था.

सुबह राजन अपने स्कूल चला गया. गोपी अभी अपने कमरे में ही पड़ी हुई थी, तभी बबलूराम उस के कमरे में आए और बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें सम झाया था कि राजनीति में तुम्हें काफी बलिदान करना पड़ेगा और यह तुम्हारा बलिदान ही है.

‘‘यह भी याद रख लो, इस घटना का जिक्र दीपक या किसी और से किया तो उस आदमी का इस धरती पर वह आखिरी दिन होगा.

‘‘दीपक की मां को भी हम ने ही स्वर्ग में स्थान दिलवाया है, क्योंकि उसे सब पता चल चुका था.

‘‘इस के अलावा जो लोग हमारे विरोध में बोलते थे, उन को भी हम ने ही मुक्ति दिलवाई है. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम कैसी जिंदगी चाहती हो. सुख से भरी हुई या एक मैली साड़ी वाली घरवाली की.’’

‘‘पर, यह गलत है. और गलत बात एक न एक दिन सामने आ ही जाती है,’’ गोपी रोते हुए बोली.

‘‘पता तो तब चलेगा न, जब हम दोनों में से कोई बताएगा.

‘‘रही बात गलत होने की, तो प्यार, जंग और राजनीति में सबकुछ जायज है. यही तो रहस्य नीति मतलब राजनीति है.

‘‘अगर तुम आगे बढ़ना चाहती हो तो दोपहर 12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच जाना. अपने सपनों को पूरा करने का सुनहरा मौका तुम्हारे सामने है,’’ बबलूराम सम झाने के अंदाज में धमका कर चले गए.

काफी देर तक रोनेधोने और काफी सोचनेसमझने के बाद गोपी दोपहर12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच गई.

अगले साल होने वाले नगरनिगम के चुनाव में गोपी को अध्यक्ष पद का टिकट दे दिया गया और बबलूराम ने अपने गुरगों के प्रभाव से उसे अच्छे वोटों से जितवा भी दिया.

बबलूराम की सलाह पर दीपक ने कारखाने में एक मैनेजर रख दिया और वह खुद को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने के लिए दुबई चला गया.

अब दीपक 3-4 महीनों के बाद ही घर आ पाता है. राजन को भी दूर के पहाड़ी स्कूल में अच्छी तालीम के लिए भेज दिया गया है.

अब गोपी विधानसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है. उस का प्रमोशन जारी है. अब वह अकसर प्रदेश अध्यक्ष की गाड़ी से देर रात में उतरती है तो बबलूराम उसे एक पैग बना कर पिला देते हैं, ताकि थकान दूर हो जाए.

Family Story : हस्ताक्षर – आखिर कैसे मंजू बनी मंजूबाई?

Family Story : मंजू आईने में अपने गठीले बदन को निहार रही थी और सोच रही थी कि बिना कलह के दो रोटी भी खाओ, तो सेहत अच्छी हो ही जाती है. वह अपने चेहरे के सामने आए बालों को हाथों से सुलझा कर, अपनी बड़ीबड़ी आंखें में तैरते हुए सपनों को देखने की कोशिश कर रही थी. अभी भी उस के चेहरे पर चमक बाक़ी थी. फिर वह याद करने लगी थी…  कैसे वह मंजू से मंजूबाई बन गई थी. जब शादी कर के इस घर में आई थी, तब उस की सास कितनी खुश हुई थीं.  वे उस की सुंदर काया देख कर घरघर कहती फिरतीं थीं, ‘मेरी बहू बहुत ही खूबसूरत है. वह लाखों में एक है.’

और फिर एक दिन सासुमां ने उसे समझाया था, ‘अब बहू, तुम्हें ही मेरे लल्ला को सुधारना है. थोड़ाबहुत उसे पीने की आदत है.’

‘सुनिए जी, आप शराब पीना बंद कर दीजिए. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ मैं ने पति की बांहों में सिमट कर मनाने की कोशिश की थी.

कुछ दिनों तक उस का पीना कुछ कम हुआ, लेकिन जल्द ही वह पुरानी आदत के कारण पीने लगा था. फिर तो वह मेरी सुनता ही नहीं था. जब मना करती, वह भड़क जाता. उस दिन, पहली बार अपने पति से पीटी गई थी. मैं खूब रोई थी.

मैं अपने समय को कोस रही थी. गरीब मांबाप की बेटी, अपने समय को ही दोष दे कर रह जाती है. शराब की लत ने उसे बीमार कर दिया था. मैं रोज उस से लड़ती. यह लड़ाईझगड़ा मेरी पिटाई पर खत्म होता. आसपास वाले लोग तमाशा देखते. उन लोगों के लिए  यह सब मनोरंजन का साधन था. जबकि, मैं रोज मर और जी रही थी.

मैं उसे सुधार न सकी. देखतेदेखते मैं 2 बेटियों की मां बन गई थी. अब तो सुंदर त्वचा हडि्डयों से चिपक कर, बदसूरत और काली बन चुकी थी.

सासुमां  घर के सारा सामान व जेवरात बेच कर बीमार बेटे को बचाने में लग गई थीं. लेकिन गुरदे की बीमारी ने उस की जान ले ली. सासुमां अपने लल्ला के वियोग में ज्यादा दिन टिक नहीं पाईं.

कुछ जलने की बू आने लगी. तभी उसे याद आया, गैस पर दाल उबल रही थी. वह किचेन की तरह दौड़ पड़ी. जल्दीजल्दी कलछी से दाल को चला कर  चूल्हे से नीचे रख दी. पूरी तरह से नहीं जली थी.

काम से निबट कर  कमरे में खाट पर लेट गई और सोचने लगी, 2 बेटियों की अकेली मां…  बच्चों को पालने के लिए घरघर झाड़ूपोंछा करने लगी थी. बाद में प्राइवेट स्कूल में साफसफाई और झाड़ू लगाने का काम मिल गया . बेटियां उसी स्कूल में पढ़ने लगी थीं.

इन दिनों स्कूल में गरमी की छुट्टी चल रही थी. रिंकी और पिंकी नाश्ता करने के बाद इत्मीनान से सो रही थीं. मैं दोपहर का भोजन तैयार कर रही थी क्योंकि राघव आने वाला था. वह उसी स्कूल में बस का ड्राइवर है. जरूरत पड़ने पर वह मेरी मदद कर देता था. मेरी बेटी बीमार हो जाती थी, तो वह कई बार अस्पताल ले गया था. इतना ही नहीं, उन दिनों जब मैं काफी हताश और निराश थी तो उस ने आगे बढ़ कर सहारा दिया था. फिर कैसे हम दोनों एकदूसरे के दुखसुख के साथी बन गए, पता ही नहीं चला.

अब वह छुट्टियों में मेरे  घर कभीकभी आने लगा था. बच्चों के लिए टॉफियां और मिठाइयां ले कर आता. वह बच्चों के साथ घुलमिल गया था. बच्चे भी उसे अंकल अंकल करने लगे थे.

जब पेट की भूख शांत हुई तो तन की भूख मुझे सताने लगी. पति के साथ झगड़े के कारण असंतुष्ट ही रही. उस का भरपूर प्यार मिला नहीं. आखिर कब तक अकेली रहती. ऐसे में राघव का साथ मिला. वह भी अपनी पत्नी से दूर रहता है. वह इतना भी नहीं कमा पाता है कि हजार किलोमीटर दूर अपनी पत्नी के पास जल्दीजल्दी जा सके. शायद हम दोनों की तनहाइयां एकदूसरे को पास ले आई थीं.

जब कल शाम को बाजार से लौट रही थी तो पड़ोस की कांताबाई मिल गई थी. वह मेरी विपत्तियों  में अंतरंग सहेली बन चुकी थी. उसी ने मुझे शुरू में झाड़ूपोंछा का काम दिलाया था. मेरा हालचाल जानने के बाद  वह पूछने लगी थी, ‘राघव इन दिनों तुम्हारे घर ज्यादा ही आ रहा है?’

‘कांता, तुम तो जानती हो, वह बच्चों के पास आ जाता है, इसीलिए मैं मना नहीं कर पाती हूं.’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की थी.

‘मंजू, मैं तुम को बहुत पहले से जानती हूं. महल्ले वाले तुम दोनों के बारे में तरहतरह के किस्सेकहानियां गढ़ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि अगर तुम्हारे मन में उस के प्रति कुछ है,  तो तुम जल्दी से  कोई निर्णय ले लो. तुम अकेले कब तक रहोगी.’ उस ने मुझे समझाने की कोशिश की थी.

‘अरे कांता,  तुम भी मुझे नहीं समझ पाईं. मैं अब 2 बेटियों की मां हूं. तुम जो सोच रही हो ऐसा कुछ भी नहीं है. और ये महल्ले वालों का क्या है. उन्हें तो, बस, मनोरंजन होना चाहिए. उन को किसी के दुखसुख से क्या मतलब. वह मेरे साथ स्कूल में काम करता है. बच्चों से ज्यादा हिलमिल गया. बच्चों के बीमार होने पर उस ने कई बार मेरी मदद की है. बस, उस से अपनत्व हो गया है. लेकिन लोगों का क्या है, वे तो गलत निगाह से  देखेंगे ही न. उस के भी अपने बच्चे हैं.  इस बार लौकडाउन होने के कारण वह अपने घर नहीं जा सका है. वह अकेला रहता है, इसीलिए कभीकभी खाने के लिए उसे बुला लेती हूं,’ वह जरा बनावटी गुस्से में बोली थी.

‘मैं जानती थी कि तू कभी ऐसा नहीं करेगी,’ कांता संतुष्ट होते हुए बोली.

‘कांता, मैं विवाहबंधन को अच्छी तरह से झेल चुकी हूं. विवाह के बाद कितना सुख मिला है, वह भी तुझे मालूम है. सो, इस जन्म में तो विवाह करने से रही.’

यह सब कहते हुए मंजू की आंखों में आंसू तैरने लगे थे. कुछ रुक कर उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘रही बात महल्ले वालों की, जिस दिन मैं अपने पति से पीटी जाती थी, उस दिन भी ये लोग मजा लेते थे. लेकिन कभी भी मेरे दुखती रग पर मरहम लगाने नहीं आते थे. हां, वे नमक छिड़कने जरूर आते थे. मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देती. मुझे जो मरजी है, वही करूंगी. मैं लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देती.’ इस बार मंजू गुस्से से उबलने लगी थी.

कांता ने गहरी सांस ली और उसे समझाने लगी,  ‘मंजू, मैं जानती हूं. लेकिन समाज में रहना है तो लोगों पर ध्यान देना ही पड़ता है. लोग क्या सोच रहे हैं, हम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन हमारे बच्चों पर तो पड़ सकता है न.’

आज मैं सोच रही थी. जैसे ही राघव  मेरे पास आएगा, मैं उसे मना करूंगी कि अब तुम रोजरोज मत आया करो. महल्ले वाले किस्सेकहानियां गढ़ने लगे हैं. अब बच्चे भी बड़े होने लगे हैं. उन पर बुरा असर पड़ेगा. मैं यह भी सोच रही थी कि कैसे राघव को मना करूंगी. मुझे भी लग रहा है कि लोगों से बचने के लिए उसे आने से मना करना ही उचित होगा. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि  किसी की आने की आहट मिली.

सामने राघव खड़ा मुसकरा रहा था. आते ही मुझे बांहों में भर लिया था उस ने. न चाहते हुए भी मैं खुद को रोक नहीं पाई. उस के आलिंगन में खिंचती चली गई. उस ने मेरे होंठों पर चुबंन जड़ दिए. और मैं कुछ क्षणों के लिए सुख के सागर डुबती चली गई.

Short Story : महंगाई आज का “भगवान”!

Short Story : कहते हैं- हरि अनंत, हरि कथा अनंता. अगर आपके पास कुबुद्धि नहीं, सुबुद्धि है तो महंगाई के संदर्भ में शोध ग्रंथ तैयार करोगे तो आपका हृदय आनंद से विभोर हो उठेगा. जैसा कबीर दास ने बताया है अनहृदकारी. रोहरानंद से किसी खास मित्र ने कहा- ‘भैय्या ! महंगाई जी के संदर्भ में सारगर्भित बात, अगर अल्प शब्दों में कहना हो तो आप क्या कहेंगे.’

रोहरा नंद ने मंद मुस्कुराते हुए कहा, “भाई! महंगाई  तो मेरा परम सखा है, मैं तो स्वपन में भी उसको भजता रहता हूं. सच कहूं तो वह अगर कृष्ण है तो मैं गरीब सुदामा हूं .”

उसने व्यंग्य से कहा-“द्वापर में हुए थे भगवान कृष्ण, तुम महंगाई की समानता श्री कृष्ण से कर रहे हो. तुम बुरी तरह फंस सकते हो….”

रोहरानंद मुस्कुराया, – “भाई ! कृष्ण को आज आप श्री कृष्ण के विशेषण के साथ आचार – व्यवहार में ला रहे हो, आज उन्हें भगवान कह रहे हो…  द्वापर में उन्हें कौन जानता था कि वे ईश्वर है…”

” लगता है आपका ज्ञान अधूरा है…”  उन्होंने कहा

“ तो कृपया मुझे ज्ञान दीजिए.” रोहरनंद ने विनम्रता पूर्वक कहा.

” विदुर, भीष्म पितामह आदि महाभारत काल के महारथी उन्हें ईश्वर के रूप में ही समकालीन समय में सम्मान देते थे. बॉलीवुड की कोई भी सिनेमा अथवा दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक में  हमने यही देखा है.”

“इतिहास से, धर्मग्रंथों से छेड़छाड़ हमारे यहां साधारण बात है. तत्कालीन समय में चंद लोगों को श्री कृष्ण के अवतार की बात जानकारी में थी. वैसे ही आज महंगाई के संदर्भ में बहुत कम लोगों को ज्ञात है.” रोहरानंद ने बात का साधारणीकरण किया. मित्र गंभीर हो गए .उसे लगा कहीं मैं गलत तो नहीं. ऐसा तो नहीं कि मैं गलत राह पर होऊं.

“आखिर आज महंगाई का चहूं और बोल बाला है तो उसमें कुछ तो खास बात, देवत्व होगा. या हो सकता है, मैं बुराई बोलकर क्यों नरक का भागी बनूं.”रोहरानंद ने  पुनः हथौड़ी चलाई-” याद करो भाई ! महाभारत में अगर कर्ण श्री कृष्ण का सम्मान करता था तो दुर्योधन भला बुरा कहता था. भीष्म पितामह श्री कृष्ण को आसन देते थे तो उसके मामा कंस ने उन्हें कितना कष्ट पहुंचाने और हत्या का षड्यंत्र रचा था. कुछ ऐसी ही हमारी महंगाई जी के साथ आज हो रहा है बहुत चुनिंदा लोग ही महंगाई के महात्म्य को जान पाए हैं.”

मित्र गंभीर हो गया.उसे लगा,वह कहीं गलत तो नहीं. कहीं चूक तो नहीं हो रही .अगर भूल से वह महंगाई के दुष्प्रचार में लगा रहा तो इतिहास में वह खलनायक न बन जाए. और फिर महान आत्माओं की खिलाफत का दंड कई जन्म तक भुगतना पड़ता है .अश्वत्थामा की कहानी उसे स्मरण हो आई एक चुक और आज भी अश्वत्थामा दर्द भरी जिंदगी जी रहा है . वह मन ही मन भयभीत हो उठा.

उसके आगे महंगाई का देवत्व! विराट आकार में आकर खड़ा हो गया. उसे प्रतीत हुआ, जिस तरह अर्जुन महाभारत में युद्ध के दरम्यान किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए थे और गुरुजन, भाइयों, मित्रों को देखकर हथियार डाल दिए थे. महंगाई के त्रासदी के सामने संपूर्ण भारत वासियों ने हथियार डाल दिए हैं. त्राहि-त्राहि मची हुई है .जिस तरह महाभारत में दुर्योधन ने भरी सभा में द्रोपदी के चीर हरण का काम किया था. हमारी संसद में भी महंगाई की चीर- हरण का दुष्प्रयास विपक्ष ने करना चाहा. मगर जिसके साथ दैवीय शक्ति होती है, भला उसका आज तक कोई बिगाड़ हुआ है ? आखिर संसद में महंगाई का सम्मान बढ़ा कि नहीं .सरकार गंभीर खतरे में फंस गई थी. सत्ता का सिंहासन डोलायमान था.डोल रहा था. सारा देश शंकित था.

सरकार अब गयी कि तब गयी. मत विभाजन पर सरकार का जाना तय माना जाने लगा था. सभी चिंतित थे. मगर अचानक महंगाई का पक्ष किस तरह बनने लगा… विपक्ष का,  विपक्ष का सारा षड्यंत्र धरा का धरा रह गया . सरकार का बाल भी बांका नहीं हुआ. जय हो महंगाई की… प्रभु मेरी रक्षा करना… अपनी शरण धरौ प्रभु…. वह बुड़बुडा कर स्मरण करने लगा .

रोहरानंद मित्र के चेहरे के हाव-भाव देखता खड़ा था. वह समझ रहा था… उसकी बातों का गहरा असर हुआ है… अन्यथा यह मानुष इतनी जल्दी हार मानने वालों में नहीं…

मित्र सोच रहा है – सचमुच मैं पतित पापी हूं…मैंने महंगाई के संदर्भ में धृष्टता पूर्वक सोचा ही क्यों .मेरा पूर्व जन्म इसका कारक होगा. अच्छा है मुझे भाई रोहरानंद मिल गए. मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिये.’ वह शून्य में ताकता रहा, सोचता रहा- ‘जिस तरह भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ‘कर्मन्यावाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना’ के शब्दघोष के साथ  उन मित्रों, गुरु, भाइयों के संहार का ज्ञान दिया था. मेरे समक्ष भी महंगाई विराट रूप धारण करके खड़ी है. महंगाई कह रही है- ‘वत्स ! मेरी शरण में आओ, देखो मुझे, मुझमें समाहित हो जाओगे एक दिन. तुम मुझमें ही से तो अव तारित हुए हो… एक दिन मुझ में ही तिरोहित हो जाओगे. यह दुनिया, दुनिया का कण कण जो बिकता है मुझसे ही नि:सृत हुआ है और मुझमे ही समा जाएगा. मैं श्री महंगाई हूं . मैं कलयुग का अवतार हूं. मुझसे क्षुद्र कुछ नहीं,मुझसे विराट कुछ नहीं. जो मेरी छाया से जाता है, नष्ट हो जाता है, जो छाया में प्रविष्ट होता है, जीवन का सुख, संपदा प्राप्त करता है.”

वह अर्जुन की भांति घुटनों के बल बैठ गया. उसकी आंखों के आगे ईश्वरीय रूप में महंगाई खड़ी है .रोहरानंद अचंभित है .मित्र को क्या हो रहा है… कहीं उसने ज्यादा डोज तो नहीं दे दिया, जिसके कारण हेलुसीनेशन सन्निपात (मतिभ्रम )में चला गया हो…. रोहरानंद घबरा गया . कहीं मित्र को कुछ हो गया तो? उसने तत्काल मित्र को झकझोरा- मित्र ने उसकी ओर देखा और कहा- “भाई, तुमने मेरा जीवन धन्य कर दिया. देखों ! मेरे समक्ष महंगाई ईश्वरीय रूप में ज्ञान प्रसारित कर रही है.”

रोहरनंद आंखें फाड़कर देखने का प्रयत्न करने लगा. ऊपर नीचे, दाये बांये कहीं कुछ भी नहीं है. उसे लगा कहीं मुन्ना भाई लगे रहो के संजय दत्त की भांति इसे भी तो उस बीमारी ने नहीं जकड़ लिया .  इसे  गांधी की तरह महंगाई ईश्वरीय रूप में दृष्टिगोचर हो रही है. रोहरानंद ने आंखें फाड़ कर सखा की ओर देखा, ‘मित्र तुम ठीक कह रहे हो .’ उसे स्वीकार करना पड़ा . अन्यथा उसका अज्ञानी मित्र उस पर हंसता. मित्र ने महंगाई का श्री महंगाई के रूप में दर्शन प्राप्त कर ज्ञान प्राप्त कर लिया और वह महरूम रह जाए. यह उसे स्वीकार नहीं था. दोनों गले में बाहें डाले- हंसते, गाते, रोते चलते जाते .सभी समवेत गा रहे हैं -तंत्रीनाद कवित्त रस सरस-राग,रति रंग अनबूडे तिरे जे बूडे सब संग .

थोड़ी दूर पर एक माॅल पर महंगाई बैठा आनंद उठा रहा है. अपना भक्ति गीत मित्र  रोहरानंद  व अन्य लोगों के मुख से सुन उसे प्रसन्नता हुई. वह भाव- विभोर हो उठा. महंगाई माॅल से उतर कर उनके पास आया, उसकी आंखें भीग गई थी. गला भर आया था . खुशी के मारे कंठ से आवाज नहीं निकल रही .रोहरानंद ने मित्र को पहचान लिया. गायक दल थम गया . रोहरानंद ने कहा- “मित्र! अन्यथा न लेना, तुम्हारी स्तुति और भक्ति में बड़ा आनंद है .हम सब मानों दुनिया की सारी खुशियों से ओत – प्रोत हैं. तुम्हारी भक्ति हमारे जीवन का आधार बन गई है .हमें मना मत करना. हम पर दया बनाए रखना. अन्यथा हम इस संसार मैं जीव की भांति भटकते रहेंगे. हमें न जुगती मिलेगी न मुक्ति .” महंगाई श्री कृष्ण की भांति मुस्कुराया, – “ तथास्तु ” कह कर अंतर्ध्यान हो गया.

Social Story : खौफ के साए – सरकारी दफ्तरों में फैलती गुंडागर्दी

Social Story : मैं अपने चैंबर में जैसे ही दाखिल हुआ, तो वहां 2 अजनबी लोगों को इंतजार करते पाया. उन में से एक खद्दर के कपड़े और दूसरा पैंटशर्ट पहने हुए था. मैं ने अर्दली से आंखों ही आंखों में सवाल किया कि ये कौन हैं?

‘‘सर, ये आप से मिलने आए हैं. इन्हें आप से कुछ जरूरी काम है,’’ अर्दली ने बताया.

‘‘मगर, मेरा तो आज इस समय किसी से मिलने का कोई कार्यक्रम तय नहीं था,’’ मैं ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘साहब, हमें मुलाकात करने के लिए किसी से समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती. आप जल्दी से हमारी बात सुन लें और हमारा काम कर दें,’’ खद्दर के कपड़े वाले आदमी ने रोब से कहा.

‘‘मगर, अभी मेरे पास समय नहीं है. अच्छा हो कि आप कल दोपहर 12 बजे का समय मेरे सैक्रेटरी से ले लें.’’

‘‘पर, हमारे लिए तो आप को समय निकालना ही होगा,’’ दूसरा आदमी जोर से बोला.

‘‘आप कौन हैं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘मैं अपनी पार्टी का मंत्री हूं. जनता की सेवा करना मेरा फर्ज है,’’ खद्दर वाले आदमी ने कहा.

‘‘और मैं इन का साथी हूं. समाज सेवा मेरा भी शौक है,’’ दूसरा बोला.

मैं ने उन्हें गौर से देखा और सोचने लगा, ‘अजीब लोग हैं… मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तरह बिना इजाजत लिए दफ्तर में घुस आए और अब मुझ पर रोब झाड़ रहे हैं. इन के तेवर काफी खतरनाक लग रहे हैं. ये आसानी से टलने वाले नहीं लग रहे हैं. क्या मुझे इन की बात सुन लेनी चाहिए?’

मुझे चुप देख कर पैंटशर्ट वाले आदमी ने कहा, ‘‘साहबजी, परेशान न हों. हमें आप से एक सर्टिफिकेट चाहिए. मेरी बहन को इस की सख्त जरूरत है. एक खाली जगह के लिए अर्जी देनी है. इस सर्टिफिकेट से उस की नौकरी पक्की हो जाएगी.’’

‘‘यह तो मुमकिन नहीं है. जब उस ने हमारे यहां काम ही नहीं किया है, तो मैं उसे सर्टिफिकेट कैसे दे सकता हूं? यह गलत काम मुझ से नहीं हो सकेगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘सर, आजकल कोई काम न तो गलत है और न सही. समाज में रह कर एकदूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है. कीमत ले कर सब मुमकिन हो जाता है. आप को जो चाहिए, वह हम हाजिर कर देंगे.

‘‘यह देखिए, टाइप किया हुआ सर्टिफिकेट हमारे पास है. बस, इस पर आप के दस्तखत और मुहर चाहिए,’’ नेता टाइप आदमी ने कहा.

‘‘मैं ने कभी किसी को इस तरह का झूठा सर्टिफिकेट नहीं दिया है. आप किसी और से ले लो,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मगर, हमें तो आप से ही यह सर्टिफिकेट लेना है और अभी लेना है. बुलाइए अपने सैक्रेटरी को.’’

‘‘यह कैसी जोरजबरदस्ती है. आप लोग मेरे दफ्तर में आ कर मुझे ही धमका रहे हैं. आप को यहां आने के लिए किस ने कहा.

‘‘बेहतर होगा, अगर आप यहां से चले जाएं और मुझे मेरा काम करने दें. अभी यहां एक जरूरी मीटिंग होने वाली है,’’ यह बोलते हुए मैं कांप रहा था.

‘‘सोच लो साहब, एक लड़की के कैरियर का सवाल है. हम भी कभी तुम्हारे काम आ सकते हैं. आजकल हर बड़े आदमी को सियासी लोगों के सहारे की जरूरत पड़ती है.

‘‘अगर तुम ने हमारी बात न मानी, तो फिर हम तुम्हें चैन से बैठने नहीं देंगे. हमें तुम्हारे घर से आनेजाने का समय मालूम है और बच्चों के स्कूल जाने के समय से भी हम अच्छी तरह वाकिफ हैं,’’ उन की ये धमकी भरी बातें मेरे कानों पर हथौड़े मार रही थीं. मेरा सिर बोझिल हो गया. बदतमीजी की हद हो गई. ये तो अब आप से तुम पर आ गए. क्या किया जाए? क्या पुलिस को खबर कर दूं, पर उस के आने में तो देर लगेगी. फिर कुछ देर बाद हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘तुम लोग मुझे धमका कर गैरकानूनी काम कराना चाहते हो. मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा,’’ मैं ने घंटी बजा कर सैक्रेटरी को बुलाना चाहा. इस पर उन में से एक गरजा, ‘‘शौक से कराओ रिपोर्ट, लेकिन तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. थानेचौकी में तो हमारी रोज ही हाजिरी होती है.’’

इन लोगों की ऊंची आवाजों से दफ्तर में भी खलबली मच गई थी.

‘‘सर, क्या सौ नंबर डायल कर के पुलिस को बुलवा लूं?’’ सैक्रेटरी ने आ कर धीमे से पूछा.

‘‘नहीं, अभी इस की जरूरत नहीं है. तुम मीटिंग की तैयारी करो. मैं इन्हें अभी टालता हूं.’’

मैं फिर पानी पी कर और अपनी सांस को काबू में कर के उन की तरफ मुड़ा. अब मुझ पर भी एक अनजाना खौफ हावी था कि क्या होगा? कमरे के बाहर मेरा अर्दली सारी बातें सुन कर मुसकरा रहा था. उस के मुंह से निकला, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. सिट्टीपिट्टी गुम हो गई साहब की. 2 गुंडों ने सारा रोब हवा कर दिया.’ फिर वे दोनों उठ कर खड़े हो गए और जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘अगर हमारा काम नहीं किया, तो पछताओगे. यहां से घर जाना मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए. निशान तक नहीं मिलेगा, समझे.’

‘‘तुम लोग जो चाहे कर लेना, मगर मैं गलत काम नहीं करूंगा,’’ मैं ने भी आखिरी बार हिम्मत कर के यह वाक्य कह ही दिया.

‘अच्छा तो ठीक है. अब हम तुम्हारे घर शाम के 6 बजे आएंगे. सर्टिफिकेट टाइप करा कर लेते आना और मुहर भी साथ में लेते आना, वरना अंजाम के तुम खुद जिम्मेदार होगे,’ वे जाते हुए जोर से बोले.

मेरे मुंह से मुश्किल से निकला, ‘‘देखा जाएगा.’’ वे कमरे से बाहर चले गए थे, मगर मैं अपनी कुरसी पर बैठा खौफ से कांप रहा था कि अब क्या होगा? बाहर मेरा स्टाफ हंसीमजाक में मस्त था.

‘‘कल साहब दफ्तर नहीं आएंगे. घर पर रह कर उन गुंडों से बचने की तरकीबें सोचेंगे और हम मौजमस्ती करेंगे,’’ एक क्लर्क ने कहा.

तभी अर्दली ने अंदर आ कर पानी का गिलास रखते हुए पूछा, ‘‘चाय लाऊं, साहब?’’

‘‘नहीं… अभी नहीं.’’

मैं ने घड़ी देखी, तो दोपहर का डेढ़ बजने वाला था यानी लंच का समय हो गया था. मैं ने सैक्रेटरी को बुला कर मीटिंग टलवा दी और अपनी हिफाजत की तरकीबें सोचने लगा, ‘जब तक बड़े साहब से बात न कर लूं, पुलिस में रिपोर्ट कैसे कराऊं. वे दौरे पर बाहर गए हैं, 2 दिन बाद आएंगे, तभी कोई कार्यवाही की जा सकती है.

‘अब सरकारी दफ्तरों में भी गुंडागर्दी फैलनी शुरू हो गई है. डराधमका कर गलत काम कराने, अफसरों को फंसाने और ब्लैकमेल करने की साजिशें हो रही हैं. हम जैसे उसूलपसंद लोगों के लिए तो अब काम करना मुश्किल हो गया है,’ सोचते हुए मेरी उंगलियां घर के फोन का नंबर डायल करने लगीं.

मैं ने बीवी से कहा, ‘‘सतर्क रहना और बच्चों को घर से बाहर न जाने देना. हो सकता है कि शाम को मेरे घर पहुंचने से पहले कोई घर पर आए. कह देना, साहब घर पर नहीं हैं.’’

‘‘पर, बात क्या है, बताइए तो सही?’’ बीवी ने मेरी आवाज में घबराहट महसूस कर के पूछा.

‘‘कुछ नहीं, तुम परेशान न हो. मैं समय पर घर आ जाऊंगा. गेट अंदर से बंद रखना.’’ फिर मैं ने अपने दोस्त धीर को फोन कर के सारी घटना उसे बता दी और उसे घर पर पूरी तैयारी से आने को कहा. ठीक साढ़े 5 बजे मैं दफ्तर से घर के लिए अपनी गाड़ी से चल दिया. मेरे साथ अर्दली और क्लर्क भी थे. वे लोग जिद कर के साथ हो लिए थे कि मुझे घर तक छोड़ कर आएंगे. उन की इच्छा को मैं टाल भी न सका. सच तो यह है कि उन की मौजूदगी ने ही मेरी हिम्मत बढ़ा दी. रास्ते भर मेरी नजरें इधरउधर उन बदमाशों को ही तलाशती रहीं कि कहीं किसी तरफ से वे निकल न आएं और मेरी गाड़ी रोक कर मेरे ऊपर हमला न कर दें.

मैं ठीक 6 बजे घर पहुंच गया. वहां सन्नाटा छाया था. मैं ने दरवाजे की घंटी बजाई.

अंदर से सहमी सी आवाज आई, ‘‘कौन है?’’

‘‘दरवाजा खोलो. मैं हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ देर बाद मेरी आवाज पहचान कर बीवी ने दरवाजा खोला.

‘‘तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आप के फोन ने मुझे चिंता में डाल दिया था. फिर 2 फोन और आए. कोई आप को पूछ रहा था कि क्या साहब दफ्तर से आ गए? आखिर माजरा क्या है?’’ बीवी ने पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं.’’

‘‘अगर कुछ नहीं है, तो आप के चेहरे पर खौफ क्यों नजर आ रहा है और आवाज क्यों बैठी हुई है?’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और बैग मेज पर रख कर अंदर सोफे पर लेट गया. कुछ ही देर में धीर भी आ गया. उस ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यार, घबराओ नहीं. मैं ने सब बंदोबस्त कर दिया है. अब वे तुम्हारे पास कभी नहीं आएंगे. हमारे होते हुए किस की हिम्मत है कि तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ सके.

‘‘रात में यहां 2 लोगों की ड्यूटी निगरानी के लिए लगा दी है. वे यहां का थोड़ीथोड़ी देर बाद जायजा लेते रहेंगे.’’

‘‘जरा तफसील से बताओ कि तुम ने क्या इंतजाम किया है?’’ मैं ने धीर से कान में फुसफुसा कर पूछा.

धीर ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं उस खद्दरधारी बाबूलाल के ठिकाने पर हो कर आ रहा हूं. उसी के इलाके का एक दादा रमेश भी मेरे साथ था.

‘‘रमेश ने बाबूलाल को देखते ही कहा, ‘हम तो साहब के घर पर तुम्हारा इंतजार कर रहे थे और तुम यहां मौजूद हो.’

‘‘बाबूलाल रमेश को देख कर ढेर हो गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. फिर माफी मांगते हुए वह बोला, ‘साहबजी, मुझ से गलती हो गई, जो मैं आप के दोस्त के दफ्तर चला गया और उन को धमका आया. उमेश ने मुझ पर ऐसा काम करने का दबाव डाला था. मैं उस की बातों में आ गया था. अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी.’

‘‘आज के जमाने में सेर पर सवा सेर न हो, तो कोई दबता ही नहीं है. जब उसे मेरी ताकत का अंदाजा हो गया, तो वह खुद डर गया, इसलिए वह अब कभी तुम्हारे पास नहीं आएगा.

‘‘तुम बेफिक्र रहो और कल से ही रोज की तरह दफ्तर जा कर अपना काम करो. कोई बात हो, तो मुझे फोन कर देना.’’ धीर की तसल्ली भरी बातों ने मेरा सारा खौफ मिटा दिया. अब मैं अपनेआप को पहले जैसा रोबदार अफसर महसूस कर रहा था.

मेरी बीवी और बच्चों के चेहरे भी खिल उठे थे. दूसरे दिन जब मैं घर से दफ्तर के लिए निकला, तो हर चीज हमेशा की तरह ही थी. डर की कोई परछाईं भी नजर नहीं आ रही थी. आज अपने चैंबर में बैठा हुआ मैं महसूस कर रहा था कि खौफ तो आदमी के अंदर ही पनपता है, बाहर तो केवल उस की परछाइयां ही फैलती हुई लगती हैं.

Short Story : कर्मकांडों के नाम पर दावतें

Short Story : शोकाकुल मीना, आंसुओं में डूबी, सिर घुटनों में लगाए बैठी थी. उस के आसपास रिश्तेदारों व पड़ोसियों की भीड़ थी. पर मीना की ओर किसी का ध्यान नहीं था. सब पंडितजी की कथा में मग्न थे. पंडितजी पूरे उत्साह से अपनी वाणी प्रसारित कर रहे थे- ‘‘आजकल इतनी महंगाई बढ़ गई है कि लोगों ने दानपुण्य करना बहुत ही कम कर दिया है. बिना दान के भला इंसान की मुक्ति कैसे होगी, यह सोचने की बात है. शास्त्रोंपुराणों में वर्णित है कि स्वयं खाओ न खाओ पर दान में कंजूसी कभी न करो. कलियुग की यही तो महिमा है कि केवल दानदक्षिणा द्वारा मुक्ति का मार्ग खुद ही खुल जाता है. 4 दिनों का जीवन है, सब यहीं रह जाता है तो…’’ पंडितजी का प्रवचन जारी था.

गैस्ट हाउस के दूसरे कक्ष में भोज का प्रबंध किया गया था. लड्डू, कचौड़ी, पूड़ी, सब्जी, रायता आदि से भरे डोंगे टेबल पर रखे थे. कथा चलतेचलते दोपहर को 3 बज रहे थे. अब लोगों की अकुलाहट स्पष्ट देखी जा सकती थी. वे बारबार अपनी घड़ी देखते तो कभी उचक कर भोज वाले कक्ष की ओर दृष्टि उठाते.

पंडितजी तो अपनी पेटपूजा, घर के हवन के समाप्त होते ही वहीं कर आए थे. मनोहर की आत्मा की शांति के लिए सुबह घर में हवन और 13 पंडितों का भोजन हो चुका था. लोगों यानी रिश्तेदारों आदि ने चाय व प्रसाद का सेवन कर लिया था पर मीना के हलक के नीचे तो चाय का घूंट भी नहीं उतरा था. माना कि दुख संताप से लिपटी मीना सुन्न सी हो रही थी पर उस के चेहरे पर थकान, व्याकुलता पसरी हुई थी. ऐसे में कोई तो उसे चाय पीने को बाध्य कर सकता था, उसे सांत्वना दे कर उस की पीड़ा को कुछ कम कर सकता था. पर, ये रीतिपरंपराएं सोच व विवेक को छूमंतर कर देती हैं, शायद.

इधर, पंडितजी ने मृतक की तसवीर पर, श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प अर्पित करने के लिए उपस्थित लोगों को इशारा किया. पुष्पांजलि के बाद लोग जल्दीजल्दी भोजकक्ष की ओर बढ़ चले थे. देखते ही देखते हलचल, शोर, हंसी आदि का शोर बढ़ता गया. लग रहा था कि कोई उत्सव मनाया जा रहा है. ‘‘अरे भई, लड्डू तो लाना, यह कद्दू की सब्जी तो कमाल की बनी है. तुम भी खा कर देखो,’’ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘कचौड़ी तो एकदम मथुरा शहर में मिलने वाली कचौडि़यों जैसी बनी है वरना यहां ऐसा स्वाद कहां मिलता है.’’

ये सब रिश्तेदार और परिचितजन थे जो कुछ ही समयपूर्व मृतक की पत्नी से अपनी संवेदना प्रकट कर, अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे.

मैं विचारों के भंवर में फंसी, उस रविवार को याद करने लगी जब मीना अपने पति मनोहर व बच्चों के साथ मौल में शौपिंग करती मिली थी. हर समय चहकती मीना का चेहरा मुसकान से भरा रहता. एक हंसताखेलता परिवार जिस में पतिपत्नी के प्रेमविश्वास की छाया में बच्चों की जिंदगी पल्लवित हो रही थी. अचानक वह घातक सुबह आई जो दफ्तर जाते मनोहर को ऐक्सिडैंट का जामा पहना कर इस परिवार से बहुत दूर हमेशा के लिए ले गई.

मीना अपने घर पति व बच्चों की सुखी व्यवस्था तक ही सीमित थी. कहीं भी जाना होता, पति के साथ ही जाती. बाहरी दुनिया से उसे कुछ लेनादेना नहीं था. पर अब बैंक आदि का कार्य…और भी बहुतकुछ…

मेरी विचारशृंखला टूटी और वर्तमान पर आ गई. अब कैसे, क्या करेगी मीना? खैर, यह तो उसे करना ही होगा. सब सीखेगी धीरेधीरे. समय की धारा सब सिखा देगी.

तभी दाहिनी ओर से शब्द आए, ‘‘यह प्रबंध अच्छा किया है. किस ने किया है?’’

‘‘यह सब मीना के भाई ने किया है. उस की आर्थिक स्थिति सामान्य सी है. पर देखो, उस ने पूरी परंपरा निभाई है. यही तो है भाई का कर्तव्य,’’ प्रत्युत्तर था.

3 दिनों पूर्व की बातें मुझे फिर याद हो आई थीं. भोजन प्रबंध का जिम्मा मैं ने व मेरे पति ने लेना चाहा था. तब घर के बड़ों ने टेढ़ी दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाला था, ‘तुम क्या लगती हो मीना की? 2 वर्षों पुरानी पहचान वाली ही न. यह रीतिपरंपरा का मामला है, कोई मजाक नहीं. क्या हम नहीं कर सकते भोज का प्रबंध? पर यह कार्य मीना के मायके वाले ही करेंगे. अभी तो शय्यादान, तेरहवीं का भोज, पंडितों को दानदक्षिणा, पगड़ी रस्म आदि कार्य होंगे. कृपया आप इन सब में अपनी सलाह दे कर टांग न अड़ाएं.’

‘और क्या, ये आजकल की पढ़ीलिखी महिलाओं की सोच है जो पुराणों की मान्यताओं पर भी उंगली उठाती हैं,’ उपस्थित एक बुजुर्ग महिला का तीखा स्वर उभरा. इस स्वर के साथ और कई स्वर सम्मिलित हो गए थे.

मेरे कारण मीना को कोई मानसिक क्लेश न पहुंचे, इसीलिए मैं निशब्द हो, चुप्पी साध गई थी. पर आज एक ही शब्द मेरे मन में गूंज रहा था, यहां इस तरह गम नहीं, गमोत्सव मनाया जा रहा है. मीना व उस के बच्चों के लिए किस के मन में दर्द है, कौन सोच रहा है उस के लिए? चारों तरफ की बातें, हंसीभरे वाक्य- एक उत्सव ही तो लग रहे थे.

Social Story : लक्ष्मी ने कैसे लिया इज्जत का बदला

Social Story : ‘‘अरे ओ लक्ष्मी…’’ अखबार पढ़ते हुए जब लक्ष्मी ने ध्यान हटा कर अपने पिता मोड़ीराम की तरफ देखा, तब वह बोली, ‘‘क्या है बापू, क्यों चिल्ला रहे हो?’’ ‘‘अखबार की खबरें पढ़ कर सुना न,’’ पास आ कर मोड़ीराम बोले.

‘‘मैं तुम्हें नहीं सुनाऊंगी बापू?’’ चिढ़ाते हुए लक्ष्मी अपने बापू से बोली. ‘‘क्यों नहीं सुनाएगी तू? अरे, मैं अंगूठाछाप हूं न, इसीलिए ज्यादा भाव खा रही है.’’

‘‘जाओ बापू, मैं तुम से नहीं बोलती.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, तू तो नाराज हो गई…’’ मनाते हुए मोड़ीराम बोले, ‘‘तुझे हम ने पढ़ाया, मगर मेरे मांबाप ने मुझे नहीं पढ़ाया और बचपन से ही खेतीबारी में लगा दिया, इसलिए तुझ से कहना पड़ रहा है.’’

‘‘कह दिया न बापू, मैं नहीं सुनाऊंगी.’’ ‘‘ऐ लक्ष्मी, सुना दे न… देख, दिनेश की खबर आई होगी.’’

‘‘वही खबर तो पढ़ रही थी. तुम ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.’’ ‘‘अच्छा लक्ष्मी, पुलिस ने उस के ऊपर क्या कार्यवाही की?’’

‘‘अरे बापू, पुलिस भी तो बिकी हुई है. अखबार में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. सब लीपापोती है.’’ ‘‘पैसे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता है बेटी,’’ कह कर मोड़ीराम ने अफसोस जताया, फिर पलभर रुक कर बोला, ‘‘अरे, मरना तो अपने जैसे गरीब का होता है.’’

‘‘हां बापू, तुम ठीक कहते हो. मगर यह क्यों भूल रहे हो, रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का भी अंत हुआ, फिर दिनेश जैसा आदमी किस खेत की मूली है,’’ बड़े जोश से लक्ष्मी बोली. मगर मोड़ीराम ने कहा, ‘‘वह जमाना गया लक्ष्मी. अब तो जगहजगह रावण और कंस आ गए हैं.’’

‘‘अरे बापू, निराश मत होना. दिनेश जैसे कंस को मारने के लिए भी किसी न किसी ने जन्म ले लिया है.’’ ‘‘यह तू नहीं, तेरी पढ़ाई बोल रही है. तू पढ़ीलिखी है न, इसलिए ऐसी बातें कर रही है. मगर यह इतना आसान नहीं है. जो तू सोच रही है. आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है.’’

‘‘देखते जाओ बापू, आगेआगे क्या होता है,’’ कह कर लक्ष्मी ने अपनी बात कह दी, मगर मोड़ीराम की समझ में कुछ नहीं आया, इसलिए बोला, ‘‘ठीक है लक्ष्मी, तू पढ़ीलिखी है, इसलिए तू सोचती भी ऊंचा है. मैं खेत पर जा रहा हूं. तू थोड़ी देर बाद रोटी ले कर वहीं आ जाना.’’ ‘‘ठीक है बापू, जाओ. मैं आ जाऊंगी,’’ लक्ष्मी ने बेमन से कह कर बात को खत्म कर दिया.

मोड़ीराम खेत पर चला गया. लक्ष्मी फिर से अखबार पढ़ने लगी. मगर उस का ध्यान अब पढ़ने में नहीं लगा. उस का सारा ध्यान दिनेश पर चला गया. दिनेश आज का रावण है. इसे कैसे मारा जाए? इस बात पर उस का सारा ध्यान चलने लगा. उस ने खूब घोड़े दौड़ाए, मगर कहीं से हल मिलता नहीं दिखा. काफी सोचने के बाद आखिरकार लक्ष्मी ने हल निकाल लिया. तब उस के चेहरे पर कुटिल मुसकान फैल गई.

दिनेश और कोई नहीं, इस गांव का अमीर किसान है. उस के पास ढेर सारी खेतीबारी है. गांव में उस की बहुत बड़ी हवेली है. उस के यहां नौकरचाकर हैं. खेत नौकरों के भरोसे ही चलता है. रकम ले कर ब्याज पर पैसे देना उस का मुख्य पेशा है. गांव के जितने गरीब किसान हैं, उन को अपना गुलाम बना रखा है. गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना उस का काम है. पूरे गांव में उस की इतनी धाक है कि कोई भी उस के खिलाफ नहीं बोलता है.

इस तरह इस गांव में दिनेश नाम के रावण का राज चल रहा था. उस के कहर से हर कोई दुखी था. ‘‘लक्ष्मी, रोटियां बन गई हैं, बापू को खेत पर दे आ,’’ मां कौशल्या ने जब आवाज लगाई, तब वह अखबार एक तरफ रख कर मां के पास रसोईघर में चली गई.

लक्ष्मी बापू की रोटियां ले कर खेत पर जा रही थी, मगर विचार उस के सारे दिनेश पर टिके थे. आज के अखबार में यहीं खबर खास थी कि उस ने अपने फार्म पर गांव के मांगीलाल की लड़की चमेली की इज्जत लूटी थी. गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई थी, मगर ऊपरी जबान से कोई कुछ नहीं कह रहा था कि चमेली की इज्जत दिनेश ने ही लूटी है. जब लक्ष्मी खेत पर पहुंची, तब बापू खेत में बने एक कमरे की छत पर खड़े हो कर पक्षी भगा रहे थे, वह भी ऊपर चढ़ गई. देखा कि वहां से उस की पूरी फसल दिख रही थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बापू, रोटी खाओ. लाओ, गुलेल मुझे दो, मैं पक्षी भगाती हूं.’’ ‘‘ले बेटी संभाल गुलेल, मगर किसी पक्षी को मार मत देना,’’ कह कर मोड़ीराम ने गुलेल लक्ष्मी के हाथों में थमा दी और खुद वहीं पर बैठ कर रोटी खाने लगा.

लक्ष्मी थोड़ी देर तक पक्षियों को भगाती रही, फिर बोली, ‘‘बापू, आप ने यह कमरा बहुत अच्छा बनाया है. अब मैं यहां पढ़ाई करूंगी.’’ ‘‘क्या कह रही है लक्ष्मी? यहां तू पढ़ाई करेगी? क्या यह पढ़ाई करने की जगह है?’’

‘‘हां बापू, जंगल की ताजा हवा जब मिलती है, उस हवा में दिमाग अच्छा चलेगा. अरे बापू, मना मत करना.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, मैं ने आज तक मना किया है, जो अब करूंगा. अच्छा पढ़ लेना यहां. तेरी जो इच्छा है वह कर,’’ हार मानते हुए मोड़ीराम बोला.

लक्ष्मी खुश हो गई. उस का कमरा इतना बड़ा है कि वहां वह अपनी योजना को अंजाम दे सकती है. इस मकान के चारों ओर मिट्टी की दीवारें हैं और दरवाजा भी है. एक खाट भीतर है. रस्सी और बिजली का इंतजाम भी है. फसलें जब भरपूर होती हैं, तब बापू कभीकभी यहां पर सोते हैं. मतलब वह सबकुछ है, जो वह चाहती है. इस तरह दिन गुजरने लगे. लक्ष्मी दिन में आ कर अपने खेत वाले कमरे में पढ़ाई करने लगी, क्योंकि इस समय फसल में अंकुर फूट रहे थे, इसलिए बापू भी खेत पर बहुत कम आते थे. पढ़ाई का तो बहाना था, वह रोजाना अपने काम को अंजाम देने के लिए काम करती थी.

अब लक्ष्मी सारी तैयारियां कर चुकी थी, फिर मौके का इंतजार करने लगी. इसी दौरान बापू का उस ने पूरा भरोसा जीत लिया था. इसी बीच एक घटना हो गई.

बापू के गहरे दोस्त, जो उज्जैन में रहते थे, उन की अचानक मौत हो गई. तब बापू 13 दिन के लिए उज्जैन चले गए. तब लक्ष्मी का मिशन और आसान हो गया. लक्ष्मी का खेत ऐसी जगह पर था, जहां कोई भी बाहरी शख्स आसानी से नहीं देख सकता था. अब वह आजाद हो गई, इसलिए इंतजार करने लगी दिनेश का. बापू के न होने के चलते लक्ष्मी अपना ज्यादा समय खेत में बने कमरे पर बिताने लगी. सुबह कालेज जाती थी, दोपहर को वापस गांव में आ जाती थी. और फिर खेत में फसल की हिफाजत के बहाने पक्षियों को भगाती और खुद अपने शिकार का इंतजार करती.

अचानक लक्ष्मी का शिकार खुद ही उस के बुने जाल में आ गया. वह कमरे की छत पर बैठ कर गुलेल से पक्षियों को भगा रही थी, तभी गुलेल का पत्थर उधर से गुजर रहे दिनेश को जा लगा. दिनेश तिलमिलाता हुआ पास आ कर बोला, ‘‘अरे लड़की, तू ने पत्थर क्यों मारा?’’ ‘‘अरे बाबू, मैं ने तुम पर जानबूझ कर पत्थर नहीं मारा. खेत में बैठे पक्षियों को भगा रही थी, अब आप को लग गया, तो इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘चल, नीचे उतर. अभी बताता हूं कि तेरी क्या गलती है?’’ ‘‘मैं कोई डरने वाली नहीं हूं आप से. आती हूं, आती हूं नीचे,’’ पलभर में लक्ष्मी कमरे की छत से नीचे उतर गई, फिर बोली, ‘‘हां बाबू, बोलो. कहां चोट लगी है तुम्हें? मैं उस जगह को सहला दूंगी.’’ ‘‘मेरे दिल पर,’’ दिनेश उस का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हाथ छोड़ बाबू, किसी पराई लड़की का हाथ पकड़ना अच्छा नहीं होता है,’’ लक्ष्मी ने हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश की. ‘‘हम जिस का एक बार हाथ पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं,’’ दिनेश ने उस का हाथ और मजबूती से पकड़ लिया.

लक्ष्मी ने देखा कि उस ने खूब शराब पी रखी है. उस के मुंह से शराब का भभका आ रहा था. लक्ष्मी बोली, ‘‘यह फिल्मी डायलौग मत बोल बाबू, सीधेसीधे मेरा हाथ छोड़ दे.’’ ‘‘यह हाथ तो अब हवेली जा कर ही छूटेगा… चल हवेली.’’

‘‘अरे, हवेली में क्या रखा है? आज इस गरीब की कुटिया में चल,’’ लक्ष्मी ने जब यह कहा, तो दिनेश खुद ही कमरे के भीतर चला आया. उस ने खुद दरवाजा बंद किया और पलंग पर बैठ गया. ज्यादा नशा होने के चलते उस की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे. लक्ष्मी बोली, ‘‘जल्दी मत कर. मेरी झोंपड़ी भी तेरे महल से कम नहीं है. देख, अब तक तो तू ने हवेली की शराब पी, आज तू झोंपड़ी की शराब पी कर देख. इतना मजा आएगा कि तू आज मस्त हो जाएगा.’’

इस के बाद लक्ष्मी ने पूरा गिलास उस के मुंह में उड़ेल दिया. हलक में शराब जाने के बाद वह बोला, ‘‘तू सही कहती है. क्या नाम है तेरा?’’ ‘‘लक्ष्मी. ले, एक गिलास और पी,’’ लक्ष्मी ने उसे एक गिलास और शराब पिला दी. इस बार शराब के साथ नशीली दवा थी. वह चाहती थी कि दिनेश शराब पी कर बेहोश हो जाए, फिर उस ने 2-3 गिलास शराब और पिला दी. थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया. जब लक्ष्मी ने अच्छी तरह देख लिया कि अब पूरी तरह से दिनेश बेहोश है, इस को होश में आने में कई घंटे लगेंगे, तब उस ने रस्सी उठाई, उस का फंदा बनाया और दिनेश के गले में बांध कर खींच दिया. थोड़ी देर बाद ही वह मौत के आगोश में सो गया.

लक्ष्मी ने पलंग के नीचे पहले से एक गड्ढा खोद रखा था. उस ने पलंग को उठाया और लाश को गड्ढे में फेंक दिया. लक्ष्मी ने गड्ढे में रस्सी और शराब की खाली बोतलें भी हवाले कर दीं. फिर फावड़ा ले कर वह मिट्टी डालने लगी.

मिट्टी डालते समय लक्ष्मी के हाथ कांप रहे थे. कहीं दिनेश की लाश जिंदा हो कर उस पर हमला न कर दे. जब गड्ढा मिट्टी से पूरा भर गया, तब उस ने उस जगह पर पलंग को बिछा दिया. फिर कमरे पर ताला लगा कर वह जीत की मुसकान लिए बाहर निकल गई.

Short Story 2025 : आखिर क्यूं लगाया उसने मौत को गले

Short Story 2025 : सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता. उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था. समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी. बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं.

वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’ जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी… ‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक

60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है? ‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं. ‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे.

इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी. कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई. मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’ लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी. खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारा तुम्हारा रिश्ता था.’ मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

Love Story 2025 : मजुरिया का सपना

Love Story 2025 : ‘‘बहनजी, इन का भी दाखिला कर लो. सुना है कि यहां रोज खाना मिलता है और वजीफा भी,’’ 3 बच्चों के हाथ पकड़े, एक बच्चा गोद में लिए एक औरत गांव के प्राइमरी स्कूल में बच्चों का दाखिला कराने आई थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तुम परेशान मत हो,’’ मैडम बोली. ‘‘बहनजी, फीस तो नहीं लगती?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘नहीं. फीस नहीं लगती. अच्छा, नाम बताओ और उम्र बताओ बच्चों की. कौन सी जमात में दाखिला कराओगी?’’ ‘‘अब बहनजी, लिख लो जिस में ठीक समझो.

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‘‘बड़ी बेटी का नाम मजुरिया है. इस की उम्र 10 साल है. ये दोनों दिबुआ और शिबुआ हैं. छोटे हैं मजुरिया से,’’ बच्चों की मां ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘नाम मंजरी. उम्र 8 साल. देव. उम्र 7 साल और शिव. उम्र 6 साल. मजुरिया जमात 2 में और देव व शिव का जमात एक में दाखिला कर लिया है. अब मैं तुम्हें मजुरिया नहीं मंजरी कह कर बुलाऊंगी,’’ मैडम ने कहा.

मजुरिया तो मानो खुशी से कूद पड़ी, ‘‘मंजरी… कितना प्यारा नाम है. अम्मां, अब मुझे मंजरी कहना.’’ ‘‘अरे बहनजी, मजुरिया को मंजरी बना देने से वह कोई रानी न बन जाएगी. रहेगी तो मजदूर की बेटी ही,’’ मजुरिया की अम्मां ने दुखी हो कर कहा.

‘‘नहीं अम्मां, मैं अब स्कूल आ गई हूं, अब मैं भी मैडम की तरह बनूंगी. फिर तू खेत में मजदूरी नहीं करेगी,’’ मंजरी बनते ही मजुरिया अपने सपनों को बुनने लगी थी. मजुरिया बड़े ध्यान से पढ़ती और अम्मां के काम में भी हाथ बंटाती.

मजुरिया पास होती गई. उस के भाई धक्का लगालगा कर थोड़ाबहुत पढ़े, पर मजुरिया को रोकना अब मुश्किल था. वह किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देती थी और अपनी मैडम की चहेती बन गई थी. ‘‘मंजरी, यह लो चाबी. स्कूटी की डिक्की में से मेरा लंच बौक्स निकाल कर लाना तो. पानी की बोतल भी है,’’ एक दिन मैडम ने उस से कहा.

मजुरिया ने आड़ीतिरछी कर के डिक्की खोल ही ली. उस ने बोतल और लंच बौक्स निकाला. वह सोचने लगी, ‘जब मैं पढ़लिख कर मैडम बनूंगी, तो मैं भी ऐसा ही डब्बा लूंगी. उस में रोज पूरी रख कर लाया करूंगी. ‘मैं अम्मां के लिए साड़ी लाऊंगी और बापू के लिए धोतीकुरता.’

मजुरिया मैडम की बोतल और डब्बा हाथ में लिए सोच ही रही थी कि मैडम ने आवाज लगाई, ‘‘मंजरी, क्या हुआ? इतनी देर कैसे लगा दी?’’ ‘‘आई मैडम,’’ कह कर मजुरिया ने मैडम को डब्बा और बोतल दी और किताब खोल कर पढ़ने बैठ गई.

अब मजुरिया 8वीं जमात में आ गई थी. वह पढ़ने में होशियार थी. उस के मन में लगन थी. वह पढ़लिख कर अपने घर की गरीबी दूर करना चाहती थी. उस की मां मजुरिया को जब नए कपड़े नहीं दिला पाती, तो वह हंस कर कहती, ‘‘तू चिंता मत कर अम्मां. एक बार मैं नौकरी पर लग जाऊं, फिर सब लोग नएनए कपड़े पहनेंगे.’’

‘‘अरे, खुली आंख से सपना न देख. अब तक तो तेरी फीस नहीं जाती है. कौपीकिताबें मिल जाती हैं. सो, तू पढ़ रही है. इस से आगे फीस देनी पड़ेगी.’’ अम्मां मजुरिया की आंखों में पल रहे सपनों को तोड़ना नहीं चाहती थी, पर उस के मजबूत इरादों को थोड़ा कम जरूर करना चाहती थी. वह जानती थी कि अगर सपने कमजोर होंगे, तो टूटने पर ज्यादा दर्द नहीं देंगे.

और यही हुआ. मजुरिया की 9वीं जमात की फीस उस की मैडम ने अपने ही स्कूल के सामने चल रहे सरकारी स्कूल में भर दी. मजुरिया तो खुश हो गई, लेकिन कोई भी मजुरिया आज तक इस स्कूल

में पढ़ने नहीं आई थी. एक दिन जब मजुरिया स्कूल पढ़ने गई और वहां के टीचरों ने उस की पढ़ाई की तारीफ की, तो वहां के ठाकुर बौखला गए. ‘‘ऐ मजुरिया की अम्मां, उधार बहुत बढ़ गया है. कैसे चुकाएगी?’’

‘‘मालिक, हम दिनरात आप के खेत पर काम कर के चुका देंगे.’’ ‘‘वह तो ठीक है, पर अकेले तू कितना पैसा जमा कर लेगी? मजुरिया को क्यों पढ़ने भेज रही है? वह तुम्हारे काम में हाथ क्यों नहीं बंटाती है?’’ इतना कह कर ठाकुर चले गए.

मजुरिया की अम्मां समझ गई कि निशाना कहां था. लेकिन इन सब से बेखबर मजुरिया अपनी पढ़ाई में खुश थी. पर कोई और भी था, जो उस के इस ख्वाब से खुश था. पल्लव, बड़े ठाकुर का बेटा, जो मजुरिया से एक जमात आगे गांव से बाहर के पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. वह मजुरिया को उस के स्कूल तक छोड़ कर आगे अपने स्कूल जाता था.

‘‘तू रोज इस रास्ते से क्यों स्कूल जाता है? तुझे तो यह रास्ता लंबा पड़ता होगा न?’’ मजुरिया ने पूछा. ‘‘हां, सो तो है, पर उस रास्ते पर तू नहीं होती न. तू उस रास्ते से आने लगे, तो मैं भी उसी से आऊंगा,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘न बाबा न, वहां तो सारे ठाकुर रहते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें, बाहर निकली हुई आंखें,’’ मजुरिया ने हंस कर कहा. ‘‘अच्छा, तो तू ठाकुरों से डरती है?’’ पल्लव ने पूछा.

‘‘हां, पर मुझे ठकुराइन अच्छी लगती हैं.’’

‘‘तू ठकुराइन बनेगी?’’ ‘‘मैं कैसे बनूंगी?’’

‘‘मुझ से शादी कर के,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘तू पागल है. जा, अपने स्कूल. मेरा स्कूल आ गया है,’’ मजुरिया ने पल्लव को धकेलते हुए कहा और हंस कर स्कूल भाग गई.

उस दिन मजुरिया के घर आने पर उस की अम्मां ने कह दिया, ‘‘आज से स्कूल जाने की जरूरत नहीं है. ठाकुर का कर्ज बढ़ता जा रहा है. अब तो तुझे स्कूल में खाना भी नहीं मिलता है. कल से मेरे साथ काम करने खेत पर चलना.’’ मजुरिया टूटे दिल से अम्मां के साथ खेत पर जाने लगी.

वह 2 दिन से स्कूल नहीं गई, तो पल्लव ने खेत पर आ कर पूछा, ‘‘मंजरी, तू स्कूल क्यों नहीं जा रही है? क्या मुझ से नाराज है?’’ ‘‘नहीं रे, ठाकुर का कर्ज बढ़ गया है. अम्मां ने कहा है कि दिनरात काम करना पड़ेगा,’’ कहते हुए मजुरिया की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘तू परेशान मत हो. मैं तुझे घर आ कर पढ़ा दिया करूंगा,’’ पल्लव ने कहा, तो मजुरिया खुश हो उठी. अम्मां जानती थी कि ठाकुर का बेटा उन के घर आ कर पढ़ाएगा, तो हंगामा होगा. पर वह छोटे ठाकुर की यह बात काट नहीं सकी.

पल्लव मजुरिया को पढ़ाने घर आने लगा. लेकिन उन के बीच बढ़ती नजदीकियों से अम्मां घबरा गई. अम्मां ने अगले दिन पल्लव से घर आ कर पढ़ाने से मना कर दिया. मजुरिया कभीकभी समय मिलने पर स्कूल जाती थी. पल्लव रास्ते में उसे मिलता और ढेर सारी बातें करता. कब

2 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला. आज मजुरिया का 10वीं जमात का रिजल्ट आएगा. उसे डर लग रहा था.

पल्लव तेजी से साइकिल चलाता हुआ गांव में घुसा, ‘‘मजुरिया… मजुरिया… तू फर्स्ट आई है.’’ मजुरिया हाथ में खुरपी लिए दौड़ी, उस का दुपट्टा उस के कंधे से उड़ कर दूर जा गिरा. उस ने पल्लव के हाथ से अखबार पकड़ा और भागते हुए अम्मां के पास आई, ‘‘अम्मां, मैं फर्स्ट आई हूं.’’

अम्मां ने उस के हाथ से अखबार छीना और हाथ पकड़ कर घर ले गई. पर उस की आवाज बड़े ठाकुर के कानों तक पहुंच ही गई. ‘‘मजुरिया की मां, तेरी लड़की जवान हो गई है. अब इस से खेत पर काम मत करवा. मेरे घर भेज दिया कर…’’ ठाकुर की बात पूरी नहीं हो पाई थी, उस से पहले ही अम्मां ने उसे घूर कर देखा, ‘‘मालिक, हम खेतिहर मजदूर हैं. किसी के घर नहीं जाते,’’ इतना कह कर अम्मां घर चली गई.

घर पर अम्मां मजुरिया को कमरे में बंद कर प्रधान के घर गई. उन की पत्नी अच्छी औरत थीं और उसे अकसर बिना सूद के पैसा देती रहती थीं. ‘‘मालकिन, मजुरिया के लायक कोई लड़का है, तो बताओ. हम उस के हाथ पीले करना चाहते हैं.’’

प्रधानजी की पत्नी हालात भांप गईं. ‘‘हां मजुरिया की अम्मां, मेरे मायके में रामदास नौकर है. पुरखों से हमारे यहां काम कर रहे हैं. उस का लड़का है. एक टांग में थोड़ी लचक है, उस से शादी करवा देते हैं. छठी जमात पास है.

‘‘अगर तू कहे, तो आज ही फोन कर देती हूं. मेरे पास 2-3 कोरी धोती रखी हैं. तू परेशान मत हो, बाकी का इंतजाम भी मैं कर दूंगी.’’ मजुरिया की अम्मां हां कह कर घर आ गई.

7वें दिन बैलगाड़ी में दूल्हे समेत 3 लोग मजुरिया को ब्याहने आ गए. बिना बाजे और शहनाई के मजुरिया

को साड़ी पहना कर बैलगाड़ी में बैठा दिया गया. मजुरिया कुछ समझ पाती, तब तक बैलगाड़ी गांव से बाहर आ गई. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई और बैलगाड़ी से कूद कर गांव के थाने में पहुंच गई.

‘‘कुछ लोग मुझे पकड़ कर ले जा रहे हैं,’’ मजुरिया ने थानेदार को बताया. पुलिस ने मौके पर आ कर उन्हें बंद कर दिया. मजुरिया गांव वापस आ गई. जब सब को पता चला, तो उसे बुराभला कहने लगे. मां ने उसे पीट कर घर में बंद कर दिया.

मजुरिया के घर पर 2 दिन से न तो चूल्हा जला और न ही वे लोग घर से बाहर निकले. पल्लव छिप कर उस के लिए खाना लाया. उस ने समझाया, ‘‘देखो मंजरी, तुम्हें ख्वाब पूरे करने के लिए थोड़ी हिम्मत दिखानी पड़ेगी. बुजदिल हो कर, रो कर तुम अपने सपने पूरे नहीं कर सकोगी…’’

पल्लव के इन शब्दों ने मजुरिया को ताकत दी. वह अगले दिन अपनी मैडम के घर गई. उन्होंने उसे 12वीं जमात का फार्म भरवाया. इस के बाद पल्लव मंजरी को रास्ता दिखाता रहा और उस ने बीए कर लिया. पल्लव की नौकरी लग गई.

‘‘मंजरी, मैं अहमदाबाद जा रहा हूं. क्या तुम मुझ से शादी कर के मेरी ठकुराइन बनोगी?’’ पल्लव ने मंजरी का हाथ पकड़ कर कहा. ‘‘अगर मैं ने दिल की आवाज सुनी और तुम्हारे साथ चल दी, तो फिर कभी कोई मजुरिया दोबारा मंजरी बनने का ख्वाब नहीं देख पाएगी. फिर कभी कोई टीचर किसी मजुरिया को मंजरी बनाने की कोशिश नहीं करेगी.

‘‘एक मंजरी का दिल टूटने से अगर हजार मजुरियों के सपने पूरे होते हैं, तो मुझे यह मंजूर है,’’ मजुरिया ने कड़े मन से अपनी बात कही. पल्लव समझ गया और उसे जिंदगी में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे कर वहां से चला गया.

Funny Story 2025 : एक राजनीतिज्ञ बंदर से मुलाकात

Funny Story 2025 : मेरा एक प्रेरणास्रोत है. आप कहेंगे- सभी के अपने-अपने प्रेरणास्रोत होते हैं, इसमें नयी बात क्या है? आपकी बात सही है, मगर सुनिए तो, मेरा प्रेरणास्रोत एक ईमानदार बंदर है …मर्कट है.

पड़ गए न आश्चर्य में ? दोस्तों !  अब मनुष्य, मानव , महामानव कहां रहे, कहिए क्या मैं गलत कहता हूं.अब तो प्रेरणा लेने का समय उल्लू, मच्छर, चूहे, श्वान इत्यादि से लेने का आ गया है.

जी हां! मेरी बात बड़ी गंभीर है. मैं ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि पशु- पक्षी हमारे बेहतरीन प्रेरणास्रोत हो सकते हैं. और इसमे ईमानदारी का पुट हो जाए तो फिर बात ही क्या ?

तो, आइये आपको अपने प्रेरणास्रोत ईमानदार बंदर जी से मुलाकात करवाऊं…। आइये, मेरे साथ हमारे शहर के अशोक वाटिका में, जहां बंदर जी एक वृक्ष पर बैठे हुए हैं .

दोस्तों..!यह आम का वृक्ष है. देखिए ! ऊपर एक डाल पर, दूर कहीं, एक बंदर बैठा है. मगर बंदर तो बहुतेरे बैठे हैं. पेड़ पर चंहु और बंदर ही बंदर बैठे हैं. देखो ! निराश न हो…। देखो दूर एक मोटा तगड़ा नाटे कद का बंदर बैठा है न ! मैं अभी उसे बुलाता हूं . -“नेताजी…! नेताजी !!”मैंने जोर की आवाज दी .

वृक्ष की ऊंची डाल पर आम्रकुंज में पके आम खाता और नीचे फेंकता एक बंदर मुस्कुराता नीचे उतर आया- “अरे आप हैं, बहुत दिनों बाद दिखे, कहां थे . उसने मुझे आत्मीयता से गले लगाते हुए कहा.

‘ नेताजी .’ मैंने उदिग्नता से कहा- ‘मैं आप से बड़ा प्रेरणास्रोत ढूंढ रहा था .मगर नहीं मिला. अंततः एक दिन आपके बारे में मित्रों को बताया, तो सभी आपसे मिलने को उत्सुक हुए, देखिए इन्हें भी ले आया हूं .’

बंदर के चेहरे पर मुस्कुराहट घनी हो उठी-” मैं नाचीज क्या हूं. यह तो आप की महानता है जो मुझसे इंप्रेस बारंबार होते हो, मैं तो अपने स्वभाव के अनुरूप इस डाल से उस डाल, इस पेड़ से उस पेड़, उछलता गीत गाता रहता हूं भई..!हमारी इतनी प्रशंसा कर जाते हो कि मैं शर्म से पानी-पानी हो जाता हूं .’ बंदर ने सहज भाव से अपना पक्ष रखा .

-“यही तो गुण हैं जो हमें प्रेरित करता है .सच, ईमान से कहता हूं मैं आज जिस मुकाम पर हूं, वह नेता जी आपकी कृपा दृष्टि अर्थात प्रेरणा का प्रताप है .”

बंदर जी मुस्कुराए- “आप मुझे नेताजी ! क्यों कहते हैं.”

‘ देखिए ! यह सम्मानसूचक संबोधन है.हम आप में नेतृत्व का गुण धर्म देखते हैं और इसके पीछे कोई गलत भावना नहीं है.’ मैंने दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा-

‘ अच्छा आपके तो बहुतेरे संगी साथी हो गए हैं .नए नए चेहरे, पुराने नहीं दिख रहे हैं’

‘ मैं आपकी तरह मुड़कर नहीं देखता.’ मैंने हंस कर कहा

‘अच्छा इनका परिचय.’ बंदर जी बोले

‘ ओह माफ करिए नेताजी! ये हैं हमारे पूज्यनीय, महाराज राजेंद्र भैय्या अभी हमारी पार्टी के अध्यक्ष हैं और यह हैं भैय्या लखनानंद शहर के पूर्व मेयर. और और पीछे खड़ी है हमारी बहन उमा देवी .आप पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष है, बाकी कार्यकर्ता हैं जिनका परिचय मैंने चिरपरिचित शैली में हंसते-हंसते कहा.

‘ मगर आपने यह तो बताया नहीं अभी किस पार्टी में है ।’ बंदर जी ने सकुचाते आंखों को गोल घुमाते हुए पूछा ।

‘ अरे मैं यह तो बताना भूल ही गया । क्षमा… नेताजी… क्षमा! मैं इन दिनों भगवाधारी पार्टी का वरिष्ठ नेता हूं .’

‘अरे वाह ! क्या गजब ढातें हो… क्या सचमुच  में ।’

‘ जी हां नेताजी, आपसे क्या छुपाना . ‘

-‘क्या बात है… अभी प्रदेश में भगवा पार्टी ही सत्तासीन है न ? बंदर जी ने कहा ।

‘ ‘हां नेताजी, उन्हीं की सरकार है . ‘ मैंने सकुचाकर कहा

‘ वाह ! तुम सचमुच मुझसे इंप्रेस हो यह मैं आज मान गया । समय की नजाकत को ताड़ना और निर्णय लेना कोई छोटी मोटी बात नहीं. मनुष्य का भविष्य इसी पर निर्भर करता है. छोटी सी भूल और जीवन अंधकारमय.’ बंदर जी ने उत्साहित भाव से ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘ नेताजी ! आपने पीठ ठोंकी है तो मैं आश्वस्त हुआ कि मैंने सही निर्णय लिया है ।’ मैंने साहस कर कहा.

‘ मगर सतर्क भी रहना, ऐसा नहीं की इसी में रम गये ।’

‘अजी नहीं. मैं स्थिति को सूंघने की क्षमता भी रखता हूं. जैसे ही मुझे अहसास होगा पार्टी का समय अंधकारमय है मैं कुद कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लूंगा .’

‘ ठीक मेरी तरह .’बंदर जी ने हंसकर कहा और उछलकर वृक्ष की एक मजबूत फलदार डाल पर बैठ गया और मीठा आम तोड़ खाने लगा.

‘ लेकिन नेताजी ! मैं कब तक पार्टियां बदलता रहूंगा. कभी आयाराम कभी गयाराम कभी …. आखिर कब तक…।’

बंदर ने पेड़ से मीठे फल तोड़कर मेरी और उछाले मैंने कैच कर दोस्तों को बांटे और स्वयं भी रस लेकर खाने लगा मेरे प्रेरणा पुरुष बंदर जी… ओह नेता जी के श्रीमुख से स्वर गूंजा- ‘जब तक कुर्सी न मिले तब तक.’ मैं मित्रों सहित बंदर को नमन कर लौट पड़ा.

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