यह कैसी विडंबना- भाग 2: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

‘‘कोई भी बाई इन के घर में काम नहीं करती. आंटी उसी पर शक करने लगती हैं. कुछ तो हद होनी चाहिए. शर्मा अंकल बेचारे भरी दोपहरी में बाहर पार्क में बैठे रहते हैं. घर में 4-4 ए.सी. लगे हैं मगर ठंडी हवा का सुख उन्हें घर के बाहर ही मिलता है. महल्ले में कोई भी इन से बात नहीं करता. क्या पता किस का नाम कब किस के साथ जोड़ दें.’’

‘‘आंटी पागल हो गई हैं क्या? हर शौक की एक उम्र होती है. इस उम्र में पति पर शक करना यह तो बहुत खराब बात है न.’’

‘‘इसीलिए तो हर सुनने वाला पहले सुनता है फिर दुखी होता है क्योंकि इतनी समृद्ध जोड़ी की जीवनयात्रा का अंतिम पड़ाव इतना दुखदाई नहीं होना चाहिए था.’’

5-6 दिन बीत गए. सामने वाले घर से कोई आवाज नहीं आई तो मुझे लगा शायद मैं ने जो सुना वह गलत होगा. बहुत नखरा होता था शर्मा आंटी का, आम इनसान से तो वे बात भी करना पसंद नहीं करती थीं. जो इनसान आम जीवन न जीता हो उसी का स्तर जब आम से नीचे उतर जाए तो सहज ही विश्वास नहीं न होता.

एक सुबह दरवाजे की घंटी बजी तो सामने शर्मा आंटी को खड़े पाया. सफेद सूट में बड़ी गरिमामयी लग रही थीं. शरीर पर ढेर सारे सफेद मोती और कानों में दमकते हीरे. उंगलियां महंगी अंगूठियों से सजी थीं.

‘‘अरे, आंटी आप, आइएआइए.’’

‘‘मुझे पता चला कि तुम वापस आ गई हो इस घर में. सोचा, मिल आऊं.’’

मेरी मां की उम्र की हैं आंटी. उन्हें आंटी न कहती तो क्या कहती.

‘‘अरे, मिसेज शर्मा कहो. आंटी क्यों कह रही हो. हमउम्र ही तो हैं हम.’’

पहला धक्का लगा था मुझे. जवाब कुछ होता तो देती न.

‘‘हां हां, क्यों नहीं…आइए, भीतर आइए.’’

‘‘नहीं ममता, मैं यह पूछने आई थी कि तुम्हारी बाई आएगी तो पूछना मेरे घर में काम करेगी?’’

‘‘अरे, आइए भी न. थोड़ी देर तो बैठिए. बहुत सुंदर लग रही हैं आप. आज भी वैसी ही हैं जैसी 15 साल पहले थीं.’’

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‘‘अच्छा, क्या तुम्हें आज भी वैसी ही लग रही हूं. शर्माजी तो मुझ से बात ही नहीं करते. तुम्हें पता है इन्होंने एक लड़की रखी हुई है. अभी कुछ महीने पहले ही लड़की पैदा की है इन्होंने. कहते हैं आदमी हूं नामर्द थोड़े हूं. 4 बहनें रहती हैं पीछे कालोनी में, वहीं जाते हैं. चारों के साथ इन का चक्कर है. इस उम्र में मेरी मिट्टी खराब कर दी इस आदमी ने. महल्ले में कोई मुझ से बात नहीं करता.’’

रोने लगीं शर्मा आंटी. तब तरस आने लगा मुझे. सच क्या है या क्या हो सकता है, जरा सा कुरेदूं तो सही. हाथ पकड़ कर बिठा लिया मैं ने. पानी पिलाया, चाय के लिए पूछा तो वे आंखें पोंछने लगीं.

‘‘छोडि़ए शर्माजी की बातें. आप अपने बच्चों का बताइए. अब तो पोतेपोतियां भी जवान हो गए होंगे न. क्या करते हैं?’’

‘‘पोती की शादी मैं ने अभी 2 महीने पहले ही की है. पूरे 5 लाख का हीरे का सेट दिया है विदाई में. मुझे तो सोसाइटी मेें इज्जत रखनी है न. इन्हें तो पता नहीं क्या हो गया है. जवानी में रंगीले थे तब की बात और थी. मैं अपनी सहेलियों के साथ मसूरी निकल जाया करती थी और ये अपने दोस्तों के साथ नेपाल या श्रीनगर. वहां की लड़कियां बहुत सुंदर होती हैं. 15-20 दिन खूब मौज कर के लौटते थे. चलो, हो गया स्वाद, चस्का पूरा. तब जवानी थी, पैसा भी था और शौक भी था. मैं मना नहीं करती थी. मुझे ताश का शौक था, अच्छाखासा कमा लेती थी मैं भी. एकदूसरे का शौक कभी नहीं काटा हम ने.’’

मैं तो आसमान से नीचे गिरने लगी आंटी की बातें सुन कर. मेरी मां की उम्र की औरत अपनी जवानी के कच्चे चिट्ठे आम बातें समझ कर मेरे सामने खोल रही थी. सरला ने भी बताया था कि शहर के अमीर लोगों के साथ ही हमेशा इन का उठनाबैठना रहा है.

‘‘पक्की जुआरिन थीं शर्मा आंटी. आज भी ताश की बाजी लगवा लो. बड़ेबड़ों के कान कतरती हैं. पैसा दांतों से पकड़ती हैं…बातें लाखों की करेंगी और काम वाली बाई और माली से पैसेपैसे का हिसाब करेंगी.’’

सरला की बातें याद आने लगीं तो आंटी की बातों से मुझे घिन आने लगी. कितनी सहजता से अपने पति की जवानी की करतूतों का बखान कर रही हैं. पति हर साल नईनई लड़कियों का स्वाद चखने चला जाता था और मैं मसूरी निकल जाती थी.

‘‘बच्चे कहां रहते थे?’’ मैं ने धीरे से पूछा था.

‘‘मेरी बड़ी बहनें मेरे तीनों लड़कों को रख लेती थीं. आज भी सब मेरी खूबसूरती के चर्चे करते हैं. मैं इतनी सुंदर थी फिर भी इस आदमी ने मेरी जरा भी कद्र नहीं की. मैं क्या से क्या हो गई हूं. देखो, मेरे हाथपैर…इस आदमी के ताने सुनसुन कर मेरा जीना हराम हो गया है.’’

‘‘आप अपनी पुरानी मित्रमंडली में अपना दिल क्यों नहीं लगातीं? आखिर आप की दोस्ती, रिश्तेदारी इसी शहर में ही तो है. कहीं न कहीं चली जाया करें. आप के भाईबहन, आप की भाभी और भतीजीभतीजे…’’

‘‘शर्म आती है मुझे उन के घर जाने पर क्योंकि इन की वजह से मैं हर जगह बदनाम होती रहती हूं.’’

मैं सोचने लगी, बदनाम तो आंटी खुद कर रही हैं अपने पति को. पहली ही मुलाकात में उन्हें नंगा करने का क्या एक भी पल हाथ से जाने दिया है इन्होंने. मुझे भला आंटी कितना जानती हैं, जो लगी हैं रोना रोने.’’

उस दिन के बाद शर्मा आंटी अकसर आने लगीं. उन की छत पर ही धूप आती थी पर उन से चढ़ा नहीं जाता था. इसलिए वे मेरे आंगन में धूप सेंकने आ जाती थीं. अपनी जवानी के हजार किस्से सुनातीं. कभी शर्मा अंकल भी आ जाते तो नमस्ते, रामराम हो जाती. एक दिन दोनों बनठन कर कहीं गए. साथसाथ थे, खुश थे. मुझे अच्छा लगा.

दूसरे दिन दोनों साथसाथ ही धूप सेंकने आ गए. मैं ने चायपानी के लिए पूछा. वृद्ध हैं दोनों. मैं जवान न सही फिर भी उन से 25-30 साल पीछे तो चल ही रही हूं. उस दिन मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था. सोचा पूछ लूं.

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‘‘सच्ची में, मुझे तो सदियां हो गईं खाए.’’

‘‘आप खाएंगी तो ले आऊं?’’

‘‘हां, हां,’’ खुशी से भर उठीं आंटी.

दोनों ने उस दिन मेरे साथ ही दोपहर का खाना खाया. काफी देर गपशप भी करते रहे. शाम को मेरे पति आए तो हम दोनों उन के घर उन से मिलने भी चले गए. अच्छे पड़ोसी बन गए वे हमारे.

सरला हैरान थी.

‘‘बड़ी शांति है, जब से तुम आई हो वरना अब तक दस बार तमाशा हो चुका होता.’’

‘‘मेरी तो शर्मा आंटी से अच्छी दोस्ती हो गई है. अकसर कोई तीसरा आ जाए बीच में तो लड़ाई खत्म भी हो जाती है.’’

‘‘और कई बार तीसरा बुरी तरह पिस भी जाता है. अपना ध्यान रखना. इन्होंने तो अपनी उतार ही रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें,’’ सरला ने समझाया था मुझे, ‘‘बड़ी लेखिका बनी फिरती हो न. शर्मा आंटी जो कहानियां गढ़ लेती हैं उस से अच्छी तो तुम भी नहीं लिख सकतीं.’’

दीवाली के आसपास 3-4 दिन के लिए हम अपनी बेटी के पास जम्मू चले गए.

अब और नहीं- भाग 1: आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

Writer- ममता रैना

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

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‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

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अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

बैलेंसशीट औफ लाइफ- भाग 2: अनन्या की जिंदगी में कैसे मच गई हलचल

सुमित और राहुल के आने तक अनन्या ने प्रत्यक्षतया तो स्वयं को सामान्य कर लिया था, पर अंदर ही अंदर बहुत दुखी व उदास थी. अगले दिन औफिस जाते हुए वह एक मशहूर बुकशौप पर गई. ‘न्यू कौर्नर’ में उसे ‘बैलेंसशीट औफ लाइफ’ दिख गई. उसे खरीद कर उस ने छुट्टी के लिए औफिस फोन किया और फिर घर वापस आ गई.

सुमित और राहुल तो जा चुके थे, बैड पर लेट कर उसने बुक पढ़नी शुरू की. राघव के जीवन के आरंभिक काल में उस की कोई रुचि नहीं थी. उस ने वहां से पन्ने पलटने शुरू किए जहां से उसे अंदाजा था कि उस का जिक्र होगा. उस का अंदाजा सही था. कालेज के दिनों में उस ने स्वयं को अनन्या नाम की क्लासमेट का हीरो बताया था. जैसेजैसे उस ने पढ़ना शुरू किया, क्रोध से उस का चेहरा लाल होता चला गया. लिखा था, ‘मेरा पूरा ध्यान बड़ा आदमी बनने में था. मैं आगे, बहुत आगे बढ़ना चाहता था, पर अनन्या का साथ मेरे पैरों की बेड़ी बन रहा था. मैं उस समय किसी भी लड़की को गंभीरतापूर्वक नहीं सोचना चाहता था पर मैं भी एक लड़का था, युवा था, कोई खूबसूरत लड़की मुझे पूर्ण समर्पण का निमंत्रण दे रही थी तो मैं कैसे नकार देता?

‘कुछ पलों के लिए ही सही, उस के सामीप्य में मेरे कदम डगमगाते तो जरूर पर उस के प्यार और साथ को मैं मंजिल नहीं समझ सकता था. पर हर युवा की तरह मैं भी ऐसी बातों में अपना कुछ समय तो नष्ट कर ही रहा था. एक अनन्या ही नहीं, उस समय एक ही समय पर मेरे 3-4 लड़कियों से शारीरिक संबंध बने, मेरे लिए ये लड़कियां बस सैक्स का उद्देश्य ही पूरा कर रही थीं.’ अनन्या ने इस के आगे कुछ पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझी, उन पलों के पीछे इतना कटु सत्य था. उस ने स्वयं को अपमानित सा महसूस किया. आंखों से आंसू बह निकले. प्रेम के जिस कोमल एहसास में भीग कर एक लड़की एक लड़के को अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है, उस लड़के के लिए वह कुछ महत्त्व नहीं रखता? किसी पुरुष के लिए लड़कियों की भावनाओं से खेलना इतना आसान क्यों हो जाता है? अनन्या अजीब सी मनोस्थिति में आंखें बंद किए बहुत देर तक यों ही पड़ी रही.

फिर उस ने मेघा को फोन मिलाया, ‘‘मेघा, मैं राघव को सबक सिखा कर रहूंगी. छोड़ूगी नहीं उसे.’’

‘‘क्या करेगी, अनन्या? इस में खुद ही तुम्हें तकलीफ न उठानी पड़े… वह अब एक मशहूर आदमी है.’’ ‘‘होगा बड़ा आदमी. मेरे बारे में लिख कर किसी लड़की की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की सजा तो उसे जरूर दूंगी मैं. उस का नंबर चाहिए मुझे, प्लीज, मेघा इस में हैल्प कर.’’

‘‘अनन्या, दिल्ली में अगले ही हफ्ते हमारे कालेज के एक प्रोग्राम में वह मुख्य अतिथि बन कर आ रहा है, मैं ने यह सुना है.’’ ‘‘ठीक है, थैंक्स, मैं आ रही हूं.’’

‘‘सुन तो.’’ ‘‘नहीं, बस अब वहीं आ कर बात करूंगी.’’

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अनन्या ने मन ही मन बहुत देर सोच लिया था कि सुमित से कहेगी कि अपने मम्मीपापा से मिलने का मन कर रहा है. वह दिल्ली जा रही है. राघव को सब के सामने ऐसे लताड़ेगी कि याद रखेगा. मौकापरस्त, लालची? शाम को सुमित और राहुल कुछ जल्दी ही आए. सुमित ने बहुत ही चिंतित स्वर में आते ही कहा, ‘‘उफ अनु, तुम कहां हो? तुम ने आज फोन ही नहीं उठाया. मुझे लगा किसी मीटिंग में होगी और यह चेहरा इतना क्यों उतरा है?’’

सुमित के प्यार भरे स्वर से अनन्या की आंखें झरझर बहने लगीं. राहुल उस से लिपट गया, ‘‘क्या हुआ, मम्मा?’’

‘‘कुछ नहीं, बेटा,’’ कहते हुए अनन्या ने उसे प्यार किया. ‘‘अनन्या, तुम घर कब आईं?’’

‘‘आज औफिस गई ही नहीं?’’ ‘‘अरे, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? लंच तो किया था न?’’

‘‘नहीं, भूख नहीं थी. सौरी, सुमित, मेरा फोन साइलैंट था आज.’’ इतने में ही सुमित की नजर बैड पर जैसे फेंकी गई स्थिति में उस बुक पर पड़ी जिस ने अनन्या को बहुत परेशान कर दिया था. सुमित ने बुक उठाई. एक नजर डाली, फिर वापस रख दी कहा, ‘‘मैं अभी आया. तुम आराम करो?’’ सुमित ने खुद फ्रैश हो कर राहुल के हाथमुंह धुला कर कपड़े बदलवाए. इतने में अनन्या 2 कप चाय और राहुल के लिए दूध और नाश्ता ले आई. तीनों ने कुछ चुपचाप ही खायापीया.

राहुल को टीवी पर कार्टून देखने के लिए कह कर सुमित बैड पर अनन्या के पास ही आ कर बैठ गया. अनन्या का मन कर रहा था अपने मन की पूरी बात सुमित से शेयर कर ले पर उस ने कुछ सोच कर स्वयं को रोक लिया. सुमित ने अनन्या का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. फिर कहा, ‘‘अनन्या, राघव की बुक से इतनी टैंशन में आने की जरूरत नहीं है.’’

अनन्या को हैरत का एक तेज झटका लगा. बोली, ‘‘यह सब पता है तुम्हें?’’ ‘‘हां, इस बुक को मार्केट में आए 1 महीना हो चुका है. पैसे से तो बड़ा आदमी बन गया वह, पर मानवीय मूल्यों को समझ ही नहीं पाया. ऐसे लोगों को मैं मानसिक रूप से गरीब ही समझता हूं.’’ अब अनन्या स्वयं को रोक नहीं पाई. सुमित के गले में बांहें डाल कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘अरे अनु, तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है. मैं अतीत की बात वर्तमान में करने में विश्वास ही नहीं रखता. वह उस उम्र की बात थी. उस का आज हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है.’’ सुमित के गले लगी अनन्या देर तक अपना मन हलका करती रही. सुमित उस की पीठ पर हाथ फेरता हुआ उसे शांत करता रहा. सुबकियों के बीच भी सुमित जैसा पति पा कर अनन्या स्वयं को धन्य समझती रही थी.

थोड़ी देर बाद अनन्या ने पूछा, ‘‘इस बुक के बारे में तुम्हें कैसे पता चला?’’ ‘‘दिल्ली में मेरा दोस्त, जो किताबी कीड़ा है,’’ मुसकराते हुए कहा सुमित ने, ‘‘अनुज ने इसे पढ़ा था, उस ने मुझ से फोन पर मजाक

बिन सजनी घर- भाग 1: मौली के जाने के बाद क्या हुआ

टिंगटौंग, टिंगटौंग…लगातार बजती दरवाजे की घंटी से समीर हड़बड़ा कर उठ बैठा. रात पत्नी मौली को मुंबई के लिए रवाना कर एयरपोर्ट से लौटा तो घोड़े बेच कर सोया था. आज दूसरा शनिवार था, औफिस की छुट्टी जो थी, देर तक सोने का प्लान किस कमबख्त ने भंग कर दिया. वह अनमनाया सा स्लीपर के लिए नीचे झुका, तो रात में उतार फेंके बेतरतीब पड़े जूतेमोजे ही नजर आए. घंटी बजे जा रही थी, साथ ही मेड की आवाज-

‘‘अब जा रही हूं मैं, साहब, 2 बार पहले भी लौट चुकी हूं.’’

समीर ने घड़ी देखी, उफ, 10 बज गए, मर गया, ‘‘अरे रुको, रुको, आता हूं.’’ वह नंगेपांव ही भागा. मोजे के नीचे बोतल का ढक्कन, जो कल पानी पी कर बेफिक्री से फेंक दिया था, पांव के नीचे आया और वह घिसटता हुआ सीधा दरवाजे से जा टकराया. माथा सहलाते हुए दरवाजा खोला, तो मेड ने गमले के पास पड़ी दूध की थैली और अखबार उसे थमा दिए.

‘‘क्या साहब, चोट लगी क्या?’’ खिसियाया सा ‘कोई नहीं’ के अंदाज में उस ने सिर हिलाया था.

‘‘मैं तो अब वापस घर को जाने वाली थी,’’ कह कर रामकली ने दांत निपोरे, ‘‘घर पर बच्चे खाने के लिए बैठे होंगे.’’

‘‘अरे मुझे क्यों थमा रही है, बाकी काम बाद में करना, पहले मुझे चाय बना दे और यह दूध भी उबाल दे. बाकी मैं कर लूंगा,’’ समीर माथा सहलाते स्लीपर ढूंढ़ता बाथरूम की ओर बढ़ गया.

चाय तैयार थी. उस ने टीवी औन किया, न्यूज चैनल लगा, चाय की चुस्कियों के साथ पेपर पढ़ने लगा.

साहब, ‘‘मोटर सुबह नहीं चलाया क्या आप ने, पानी बहुत कम कम आ रहा, ऐसे तो काम करते घंटों लग जाएंगे, साहब.’’

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समीर की जबान दांतों के बीच आ गई. शाम को मौली ने मेरे कपड़े धोए थे, बोला भी था कि सुबह मोटर याद से चला लेना वरना पानी नहीं मिलेगा?

‘‘मैं भूल गया, खाली किचेनकिचेन कर लो और जाओ. वैसे भी घर कोई गंदा नहीं रहता. मौली फुजूल में करवाती रहती है सफाई, कुछ ज्यादा ही शौक है उसे.’’

काम खत्म कर मेड जाने को हुई, ‘‘बाहर बालकनी से कपड़े याद से उतार लेना, साहब, अभी सूखे नहीं. बारिश वाला मौसम हो रहा है. दरवाजा बंद कर लो, साहब.’’ वह चली गई.

‘‘ठीक है, ठीक है, जाओ.’’

चलो बला टली. अब आराम से जैसे चाहे रहूंगा. वह सोफे पर कुशन पर कुशन लगा टांगें फैला कर लेट गया. कितना आराम है. वाह, 2 बजे मैच शुरू होने वाला है, अब मजे से देखूंगा. वरना मौली सोफे पर कहां लेटने देती. उस के दिमाग में अचानक आया कि रोहित, जतिन, सैम को भी साथ मैच देखने के लिए बुला लेता हूं, कुछ दिन तो पहले सी आजादी एंजौय करूं.

उस ने कौल किया तो एक के साथ दोदो और आ गए.

‘‘अरे वाह, यार रितेश, विवेक, मोहित तुम भी. अरे वाह, कमाल हो गया, यार, कितने दिनों बाद हम मिले.’’

‘‘तेरी तो शादी क्या हुई, दोस्तों को पराया ही कर दिया, और आज बुलाया है वह भी जब भाभी घर पर नहीं.’’

‘‘तभी तो हिम्मत पड़ी बेचारे की,’’ सभी हंसने लगे.

‘‘यार, कहां भेज दिया भाभी को?’’

‘‘और कहां, मुंबई यार, हफ्तेदस दिनों के लिए. मायका भी है और उस की सहेली की शादी भी.’’

‘‘तब तो आजादी, बेटा समीर, 10 दिन मजे कर.’’

‘‘अच्छा, बोल, चाय या कौफी पीनी है तुम सब को? हां, तो किचेन उधर है और फ्रिज इधर. बना लो मेरे लिए भी.’’ समीर हंसा था.

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फिर तो जिस का मन जो आया, जब आया, बनाया, खायापिया. खाना समीर ने बाजार से मंगवा लिया. डायनिंग टेबल तक कोई न गया, वहीं सोफे के पास सैंटर टेबल घसीट कर सब ने खापी लिया. मैच खत्म हुआ तो जीत का जश्न मनाने के लिए पिज्जापेस्ट्री की पार्टी हुई. सारे घर में हर प्रकार के जूठे बरतनों की नुमाइश सी लग गई. खानेपीने के सामान भी मनमरजी से बिखरे पड़े थे जैसे. उन के जाने के बाद समीर का ध्यान घर के बिगड़े नक्शे की ओर गया, शुक्र मनाया कि मौली घर पर नहीं है, वरना इतना एंजौय न कर पाता. वह अभी ही बिखरा हुआ सब सही करवाती. कोई नहीं, कल छुट्टी है. कौन सा औफिस जाना है, मिनटों में सब अस्तव्यस्त ठीक कर लूंगा कल. तभी बिजली कड़की और घर की लाइट गुल हो गई. घुप अंधेरा. कोई सामान तो ठिकाने पर था नहीं. पौकेट में हाथ डाला तो मोबाइल भी नहीं था, जो टौर्च यूज कर लेता. शायद किचेन में रखी थी. वह तेजी से किचेन की ओर लपका तो टेबल से टकराया और नीचे गिर गया. उस ने उठने के लिए टेबल का सहारा लिया तो फैले रायते में हाथ सन गया. कटोरे का रायता टेबल से नीचे गिर कर कपड़ेजूते पर से होता कारपेट पर फैल गया था. ‘क्या मुसीबत है…चल कोई नहीं, 10 मिनट तो लगेंगे, हो जाएगा सब साफ,’ सोचते हुए सोफा कवर से हाथ साफ कर डाले. फिर ध्यान आया, अरे यार, एक और काम बढ़ा लिया. कोई नहीं, मेड को ऐक्स्ट्रा पैसे दे दूंगा, ऐसी क्या आफत है?

आखिरकार माचिसमोमबत्ती टटोलते हुए सही जगह पहुंच गया.

सूना आसमान- भाग 2: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

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मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

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बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.  

प्यार न माने सरहद- भाग 1: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

Writer- Kahkashan Siddiqui

समीर को सीएटल आए 3 महीने हो गए थे. वह बहुत खुश था. डाक्टर मातापिता का छोटा बेटा. बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि था. आईआईटी दिल्ली का टौपर था. मास्टर्स करते ही माइक्रोसौफ्ट में जौब मिल गई. स्कूल के दिनों से ही वह अमेरिकन सीरियल और फिल्में देखता, मशहूर सीरियल फ्रैंड्स उसे रट गया था. भारत से अधिक वह अमेरिका के विषय में जानता था. वह अपने सपनों के देश पहुंच गया.

सीएटल की सुंदरता देख कर वह मुग्ध हो गया. चारों ओर हरियाली ही हरियाली, नीला साफ आसमान, बड़ीबड़ी झीलें और समुद्र, सब कुछ इतना मनोरम कि बस देखते रहो. मन भरता ही नहीं.

समीर सप्ताह भर काम करता और वीकैंड में घूमने निकल जाता. कभी ग्रीन लेक पार्क, कभी लेक वाशिंगटन, कभी लेक, कभी माउंट बेकर, कभी कसकेडीएन रेंज, तो कभी स्नोक्वाल्मी फाल्स.

खाना खाने के ढेरों स्थान, दुनिया के सभी स्थानों का खाना यहां मिलता. वह नईनई जगह खाना खाने जाता. अब तक वह चीज फैक्ट्री, औलिव गार्डन, कबाब पैलेस, सिजलर्स एन स्पाइस कनिष्क, शालीमार ग्लोरी का खाना चख चुका था.

औफिस उस का रैडमंड में था सीएटल के पास. माइक्रोसौफ्ट में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी यहां रहते हैं. मिक्स आबादी है- गोरे, अफ्रीकन, अमेरिकन और एशियाई देशों के लोग यहां रहते हैं. यहां भारतीय और पाकिस्तानी भी अच्छी संख्या में हैं. देशी खाने के कई रेस्तरां हैं. इसीलिए समीर ने यहां एक बैडरूम का अपार्टमैंट लिया.

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औफिस में बहुत से भारतीय थे. अधिकतर दक्षिण भारत से थे. कुछ उत्तर भारतीय भी थे. सभी इंग्लिश में ही बात करते. हायहैलो हो जाती. देख कर सभी मुसकराते. यह यहां अच्छा था, जानपहचान हो न हो मुसकरा कर अभिवादन करा जाता.

समीर की ट्रेनिंग पूरी हो गई तो उसे प्रोजैक्ट मिला. 5 लोगों की टीम बनी. एक दक्षिण भारतीय, 2 गोरे और 1 लड़की एमन. समीर एमन से बहुत प्रभावित हुआ. बहुत सुंदर, लंबी, पतली, गोरी, भूरे बाल, नीली आंखें. पहनावा भी बहुत अच्छा फौर्मल औफिस ड्रैस. बातचीत में शालीन. अमेरिकन ऐक्सैंट में बातें करती और देखने में भी अमेरिकन लगती थी. मूलतया एमन कहां की थी, इस विषय में कभी बात नहीं हुई. उसे सब एमी कहते थे.

एमी काम में बहुत होशियार थी. सब के साथ फ्रैंडली. समीर भी बुद्घिमान, काम में बहुत अच्छा था. देखने में भी हैंडसम और मदद करने वाला. अत: टीम में सब की अच्छी दोस्ती हो गई.

एक दोपहर समीर ने एमी से साथ में लंच करने को कहा. वह मान गई. दोनों ने लंच साथ किया. समीर ने बर्गर और एमी ने सलाद लिया. वह हलका लंच करती थी.

समीर ने पूछा, ‘‘यहां अच्छा खाना कहां मिलता है?’’

‘‘आई लाइक कबाब पैलेस,’’ एमी ने जवाब दिया.

समीर को आश्चर्य हुआ कि अमेरिकन हो कर भी यह भारतीय देशी खाना पसंद करती है.

समीर ने जब एमी से पूछा कि क्या तुम्हें इंडियन खाना पसंद है, तो उस ने बताया कि हां इंडियन और पाकिस्तानी एकजैसा ही होता है. फिर जब समीर ने पूछा कि क्या तुम अमेरिकन हो तो एमी ने बताया कि हां वह अमेरिकन है, मगर दादा पाकिस्तान से 1960 में अमेरिका आ गए थे.

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समीर सोचता रहा कि एमी को देख कर उस के पहनावे से, बोलचाल से कोई नहीं कह सकता कि वह पाकिस्तानी मूल की है. दोनों एकदूसरे में काफी रुचि लेने लगे. अब तो वीकैंड भी साथ गुजरता. एमी ने समीर को सीएटल और आसपास की जगहें दिखाने का जिम्मा ले लिया था. पहाड़ों पर ट्रैकिंग करने जाते, माउंट रेनियर गए. सीएटल की स्पेस नीडल 184 मीटर ऊंचाई पर घूमते हुए स्काई सिटी रेस्तरां में खाना खाया. यहां से शहर देखना एक सपने जैसा लगा.

सीएटली ग्रेट व्हील में वह डरतेडरते बैठा. 53 मीटर की ऊंचाई, परंतु एमी को डर नहीं लगा. भारत में वह मेले में जब भी बैठता था तो बहुत डरता था. यहां आरपार दिखने वाले कैबिन में बैठ कर मध्यम गति से चलने वाला झूला आनंद देता है डराता नहीं.

फेरी से समुद्र से व्हिदबी टापू पर जाना, वहां का इतालियन खाना खाना उसे बहुत रोमांचित करता था. भारत में भी समुद्रतट पर पर जाता था पर पानी एवं वातावरण इतना साफ नहीं होता था. पहाड़ी रास्ते 4 लेन चौड़े, 5 हजार फुट की ऊंचाई पर जाना पता भी नहीं चलता. अपने यहां तो पहाड़ी रास्ते इतने संकरे कि 2 गाडि़यों का एकसाथ निकलना मुश्किल.

साथसाथ घूमतेफिरते दोनों एक दूसरे के बारे में काफी जान गए थे. जैसे एमी के दादा का परिवार 1947 में लखनऊ, भारत से कराची चला गया था. दादी भी लखनऊ से विवाह कर के आई थीं. उन के रिश्तेदार अभी भी लखनऊ में हैं. 1960 में अमेरिका में न्यूयौर्क आए थे. उस के पिता और ताया दोनों छोटेछोटे थे, जब वे अमेरिका आए.

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दादादादी ने अपनी संस्कृति के अनुसार बच्चों को पाला था. यहां का खुला माहौल उन्हें बिगाड़ न दे, इस का पूरा खयाल रखा था. ताया पर अधिक सख्ती की गई. वे मुल्ला बन गए. अभी भी न्यूयौर्क में ही रहते हैं और उन का एक बेटा है, जो एबीसीडी है अर्थात अमेरिकन बोर्न कन्फ्यूज्ड देशी.

सोच का विस्तार- भाग 2: जब रिया ने सुनाई अपनी आपबीती

Writer- वीना त्रेहन

एक बार पापा को आए हार्ट अटैक को वह देख चुकी थी. तभी ध्यान आया कि शादी के बाद विदाई के समय मां ने एक तह किया कागज देते कहा था कि तुम्हारी मौसी का बेटा विनय यूएसए में रहता है. उसे फोन कर लेना. खुश होगा यह जान कर कि अब तुम भी वहां हो.

नंबर मिलाया तो आंसरिंग मशीन में भरा मैसेज सुना कि विनय हेयर प्लीज लीव ए मैसेज. काम पर होंगे भैया. अब क्या कहे. अगले दिन शाम को अमन के आने से पहले ही फोन पर बात हो गई. विनय ने बताया कि उस की बहन निधि रिसर्च प्रोग्राम पर आई थी और बाद में यहीं शादी कर ली थी. अब प्रैगनैंट है. महीने बाद मम्मी आ रही हैं 3 महीने के लिए उस की मदद करने. निधि से रिया कभी नहीं मिली थी पर मौसी अंबाला से पापा को अस्पताल देखने आई थीं जब वे हार्ट अटैक आने पर 2 हफ्ते अस्पताल रहे थे.

बहुत सोचने के बाद रिया ने तय किया कि वह सारी बात निधि को बता सलाह मांगेगी. मौका जल्दी मिला जब अमन और अमीलिया कहीं जाने वाले थे. निधि ने समझाया कि उसे अमन से सख्ती से बात कर जल्दी तय कर लेना चाहिए कि वह अमीलिया को छोड़ेगा या नहीं. अकसर ऐसी लड़कियां इतनी आसानी से टलती नहीं.

निधि की सलाह थी कि वह फौरन उस के पास आ जाए. वह उसे टिकट व पैसे भेज रही है.

रिया की समझ में भी आ गया कि वह जिस जंजाल में फंस गई है अकेली ही छटपटाएगी और अमीलिया उस का फायदा उठाएगी. अमन लौटा तो उस की डरावनी सी शक्ल देख रिया सहम गई. फिर भी उस ने अपना प्रश्न सख्ती से पूछा तो अमन ने सारा सच उगल दिया.

एक रात अमीलिया बहुत देर से नशे की हालत में एक आदमी के साथ घर लौटी.

वह प्रैगनैंट थी. औंधे मुंह बिस्तर पर जा गिरी. सुबह उठी तो उस के माथे पर घाव था. अमन ने न कुछ पूछा न कहा.

उसी दोपहर पुलिस अमन को घरेलू हिंसा के आरोप में गिरफ्तार कर ले गई. अमीलिया ने फोन कर पुलिस स्टेशन झूठी रिपोर्ट लिखवाई थी कि अमन ने उसे धक्का दिया… वह प्रैगनैंट है. अमन को 2 दिन जेल में काटने पड़े. जब लौटा तो पता नहीं किस डाक्टर का परचा पकड़ाते हुए कहा कि उस के धक्का देने से अब उस का गर्भपात हो गया है.

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झूठा आरोप… सब बताते अमन के चेहरे पर आए हावभाव देख रिया ने कहा कि अमन मेरी बात मानों सब छोड़छाड़ इंडिया चलते हैं हमेशा के लिए. अपनों के बीच रहेंगे तो सब ठीक होगा. पर अमन का सिर न में हिलते देख रिया को बहुत गुस्सा आया. शांत रहते रिया ने कुछ पैसे देने को कहा तो झट जेब से 500 डालर निकाल पकड़ाते हुए कहा कि अमीलिया को न बताना.

मौका तलाश फोन कर रिया ने निधि का पता लिया. निधि ने अपने पति जारेद का फोटो भी भेज दिया ताकि वह उसे एअरपोर्ट लेने आए तो वह उसे पहचान ले. अमेरिकन से शादी की थी निधि ने. 1/2 घंटे बाद ही निधि ने ई टिकट भेजते लिखा था कि जल्दी आ जाओ.

बड़ी उलझन में थी रिया कि क्या करे. क्या इंडिया में मां को सब बता दे. नहीं, पापा ये सब जान बहुत घबरा जाएंगे. कहीं उन्हें फिर हार्ट अटैक न आ जाए. अंदरबाहर परेशानी में घूमती रिया ने दोनों कमरों की तलाशी ली.

अमीलिया का बिस्तर उठा कर देखा. डै्रसर के खाने पता नहीं किस तरह की दवाइयों से भरे थे. नीचे रखे एक डब्बे पर निगाह पड़ी तो खींच कर बाहर निकाला. ड्रग्स के छोटेछोटे पैकेट निकले. जल्दी से उन्हें वैसे ही रख दूसरे कमरे में जा जल्दी से अपना पासपोर्ट, शादी की तसवीरें, कुछ कपड़े, पैसे रखे और निधि को फोन कर दिया.

धड़कते दिल से टैक्सी पकड़ एअरपोर्ट जा पहुंची. जब तक प्लेन उड़ा

नहीं वह डरीसहमी सी रही. फीनिक्स पहुंचने का ढाई घंटे का सफर रिया का सोच में ही कटा कि रहे अमीलिया के साथ, गड्डे में गिरे या कुएं में मुझे क्या लेनादेना. कभी स्वयं को कोसती तो कभी अमन को.

जल्दी में अमन के लिए बड़े अक्षरों में लिखा नोट छोड़ आई कि ऐंजौय योर लाइफ. आई एम लीविंग फौरऐवर. सोचता होगा कि मैं इंडिया वापस चली गई. निधि का तो उसे पता ही नहीं था.

फीनिक्स एअरपोर्ट उतर इधरउधर देख रही थी. तभी एक स्मार्ट आदमी ने सीधा सामने आ कर रिया पुकारा. थोड़े से लोगों के बीच इंडियन लड़की को ढूंढ़ना मुश्किल न था. रास्ते में जारेद बस इधरउधर की बातें करता रहा पर घर के पास पहुंच सीधा कहा कि अच्छा किया उसे छोड़ आई वरना तुम्हारी जिंदगी नर्क हो जाती. यहां सब मिल कर कुछ अच्छा सोचेंगे तुम्हारे लिए.

रिया से मिल निधि खुश हुई. अगली सुबह जारेद के औफिस जाते ही दोनों बहनें बातों में व्यस्त हो गईं. पहले रिया से सब पता किया फिर निधि ने अपने व जारेद के बारे में बताया. फिर तसल्ली दी कि जारेद सब खोजबीन कर कुछ अच्छा हल ढूंढ़ेगा. रिया ने विनय भैया के बारे में जानना चाहा, तो निधि ने जो कुछ बताया उसे सुन रिया हैरान हुई.

वे यहां 4 साल की पढ़ाई कर अभी नौकरी पर लगे ही थे कि उन के साथ पढ़ने वाली लड़की रूबी अचानक उन के साथ रहने आ गई और फिर उन से शादी करने पर जोर देने लगी. उस के दबाव में आ विनय ने अपने मम्मीपापा की जानकारी के बिना शादी कर ली. बाद में जो सच सामने आया वह यह कि रूबी किसी लड़के से रिलेशनशिप में रहते हुए 2 महीनों से प्रैगनैंट थी. जब वह लड़का मुकर गया तो रूबी ने भैया को फंसा लिया.

रूबी की तबीयत खराब हुई तो उसे डाक्टर के पास ले जाने पर वास्तविकता सामने आई. घबराए विनय ने यह बात दोस्त को बताई, जिस की सलाह थी कि रूबी को डीएनए टैस्ट करवाने पर जोर दो. यह जान वह एक दिन घर से गायब हो गई. पुलिस में रिपोर्ट लिखाई और फिर उसे एक अस्पताल में ढूंढ़ लिया गया जहां वह अपने ऐक्स बौयफ्रैंड के साथ पाई गई.

दोनों की सहमति से बच्चे को जन्म के बाद अडौप्शन के लिए रजिस्टर करवाया गया. रूबी ने भैया से माफी मांगते हुए तलाक लेने की बात स्वयं की. विनय भैया को इस सब से उबरने में काफी समय लगा. यह तो अच्छा हुआ कि निधि रिसर्च प्रोग्राम में यहां आ गई तो सब जान दुखी तो हुई पर विनय को सहारा हुआ.

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रिया ये सब जान बहुत परेशान हुई पर तभी उसे अपनी परेशानी का भी ध्यान आया.

आज मौसी निधि के पास पहुंचने वाली थीं. रिया बहुत परेशान थी कि मौसी उस के बारे में जाने क्या कहेंगी. मम्मीपापा को कौन और कैसे बताएगा? क्या उसे अमन के पास लौट जाना चाहिए? उसे क्या पता था कि निधि और जारेद उस की परेशानी सुलझाने में पहले से ही लगे हैं.

योजनानुसार शाम की चाय पी सब बैठे बातों में लगे थे. मौसी सब के बारे में जानकारी दे रही थी. तभी जारेद एक लिफाफा लिए आया और निधि को देते कहा कि उसे इस विषय में रिया को अभी बता देना चाहिए.रिया यह सुन घबराई. वास्तव में जारेद ने अमन व अमीलिया की खोजबीन कर जाना कि वे दोनों इललिगल ड्रग बेचते पकड़े गए और अब जेल में हैं. वह पुलिस रिपोर्ट भी ले आया और साथ ही रिया से उस के तलाक के पेपर भी.

रिया ये सब जान कर घबरा उठी. मौसी ने प्यार से कंधा थपथपाते हुए अपने पास बैठाया. अब जब बात खुल ही गई तो निधि ने हर बात की जानकारी दे दी.

सूना आसमान- भाग 3: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

‘प्यार के परिणाम के बारे में सोच कर प्यार नहीं किया जाता. तुम मुझे अच्छे लगते हो, तुम्हारे बारे में सोचते हुए मेरा दिल धड़कने लगता है, तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत घोलती है, तुम से मिलने के लिए मेरा मन बेचैन रहता है. बस, मैं समझती हूं, यही प्यार है,’’ उस ने अपना दायां हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बाएं हाथ से मेरा सीना सहलाने लगी.

मैं सिकुड़ता हुआ बोला, ‘‘हां, प्यार तो यही है, लेकिन मैं अभी इस मामले में गंभीर नहीं हूं.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, जब रोजरोज मुझ से मिलोगे तो एक दिन तुम को भी मुझ से प्यार हो जाएगा. मैं जानती हूं, तुम मुझे नापसंद नहीं करते,’’ वह मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.

क्या पता, शायद एक दिन मुझे भी निधि से प्यार हो जाए. निधि को अपने ऊपर विश्वास था, लेकिन मुझे अपने ऊपर नहीं… फिर भी समय बलवान होता है. एकदो साल में क्या होगा, कौन क्या कह सकता है?

इसी तरह एक साल बीत गया. निधि से हर सप्ताह मुलाकात होती. उस के प्यार की शिद्दत से मैं भी पिघलने लगा था और दोनों चुंबक की तरह एकदूसरे को अपनी तरफ खींच रहे थे. इस में कोई शक नहीं कि निधि के प्यार में तड़प और कसमसाहट थी. मेरे मन में चोर था और मैं दुविधा में था कि मैं इस संबंध को लंबे अरसे तक खींच पाऊंगा या नहीं, क्योंकि भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था.

एक साल बाद हमारे डिग्री कोर्स समाप्त हो गए. परीक्षा के बाद फिर से गरमी की छुट्टियां. मैं अपने शहर आ गया. छुट्टियों में निधि से रोज मिलना होता, लेकिन इस बार अपने घर आ कर मैं कुछ बेचैन सा रहने लगा था. पता नहीं, वह क्या चीज थी, मैं समझ ही नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था, जैसे मेरे जीवन में किसी चीज का अभाव था. वह क्या चीज थी, लाख सोचने के बावजूद मैं समझ नहीं पा रहा था. निधि से मिलता तो कुछ पल के लिए मेरी बेचैनी दूर हो जाती, लेकिन घर आते ही लगता मैं किसी भयानक वीराने में आ फंसा हूं और वहां से निकलने का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा.

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अचानक एक दिन मुझे अपनी बेचैनी का कारण समझ में आ गया. उस दिन मैं जल्दी घर लौटा था. मां आंगन में अमिता की मां के साथ बैठी बातें कर रही थीं. अमिता की मां को देखते ही मेरा दिल अनायास ही धड़क उठा, जैसे मैं ने बरसों पूर्व बिछड़े अपने किसी आत्मीय को देख लिया हो. मुझे तुरंत अमिता की याद आई, उस का भोला मुखड़ा याद आया. उस के चेहरे की स्निग्धता, मधुर सौंदर्य, बड़ीबड़ी मुसकराती आंखें और होंठों को दबा कर मुसकराना सभी कुछ याद आया. मेरा दिल और तेजी से धड़क उठा. मेरे पैर जैसे वहीं जकड़ कर रह गए. मैं ने कातर भाव से अमिता की मां को देखा और उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘चाची, आजकल आप दिखाई नहीं पड़ती हैं?’’ वास्तव में मैं पूछना चाहता था कि आजकल अमिता दिखाई नहीं पड़ती.

मुझे अपनी बेचैनी का कारण पता चल गया था, लेकिन मैं उस का निवारण नहीं कर सकता था. अमिता की मां ने कहा, ‘‘अरे, बेटा, मैं तो लगभग रोज ही आती हूं. तुम ही घर पर नहीं रहते.’’

मैं शर्मिंदा हो गया और झेंप कर दूसरी तरफ देखने लगा. मेरी मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘लगता है, यह तुम्हारे बहाने अमिता के बारे में पूछ रहा है. उस से इस बार मिला कहां है?’’ मां मेरे दिल की बात समझ गई थीं.

अमिता की मां भी हंस पड़ीं, ‘‘तो सीधा बोलो न बेटा, मैं तो उस से रोज कहती हूं, लेकिन पता नहीं उसे क्या हो गया है कि कहीं जाने का नाम ही नहीं लेती. पिछले एक साल से बस पढ़ाई, सोना और कालेज… कहती है, अंतिम वर्ष है, ठीक से पढ़ाई करेगी तभी तो अच्छे नंबरों से पास होगी.’’

‘‘लेकिन अब तो परीक्षा समाप्त हो गई है,’’ मेरी मां कह रही थीं. मैं धीरेधीरे अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा था, लेकिन उन की बातें मुझे पीछे की तरफ खींच रही थीं. दिल चाहता था कि रुक कर उन की बातें सुनूं और अमिता के बारे में जानूं, पर संकोच और लाजवश मैं आगे बढ़ता जा रहा था. कोई क्या कहेगा कि मैं अमिता के प्रति दीवाना था…

‘‘हां, परंतु अब भी वह किताबों में ही खोई रहती है,’’ अमिता की मां बता रही थीं.

आगे की बातें मैं नहीं सुन सका. मेरे मन में तड़ाक से कुछ टूट गया. मैं जानता था कि अमिता मेरे घर क्यों नहीं आ रही थी. उस दिन की मेरी बात, जब वह मेरे कमरे में मिठाई देने के बहाने आई थी, उस के दिल में उतर गई थी और आज तक उसे गांठ बांध कर रखा था. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी और स्वाभिमानी लड़की है. बचपन में तो वह ऐसी नहीं थी.

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अब मैं फोन पर निधि से बात करता तो खयालों में अमिता रहती, उस का मासूम और सुंदर चेहरा मेरे आगे नाचता रहता और मुझे लगता मैं निधि से नहीं अमिता से बातें कर रहा हूं. मुझे उस का इंतजार रहने लगा, लेकिन मैं जानता था कि अब अमिता मेरे घर कभी नहीं आएगी. एक साल हो गया था, आज तक वह नहीं आई तो अब क्या आएगी? उसे क्या पता कि मैं अब उस का इंतजार करने लगा था. मेरी बेबसी और बेचैनी का उसे कभी पता नहीं चल सकता था. मुझे ही कुछ  करना पड़ेगा वरना एक अनवरत जलने वाली आग में मैं जल कर मिट जाऊंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.  

अपने अपने रास्ते- भाग 1: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

‘‘एक बार अपने फैसले पर दोबारा विचार कर लें. पतिपत्नी में झगड़ा होता ही रहता है. तलाक ही समस्या का समाधान नहीं होता. आप की एक बच्ची भी है. उस के भविष्य का भी सवाल है,’’ जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने चैंबर में सामने बैठे सोमदत्त और उन की पत्नी सविता को समझाने की गरज से औपचारिक तौर पर कहा. यह औपचारिकता हर जज तलाक की डिगरी देने से पहले पूरी करता है.

सोमदत्त ने आशापूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखा. मगर सविता ने दृढ़तापूर्वक इनकार करते हुए कहा, ‘‘जी नहीं, मेलमिलाप की कोई गुंजाइश नहीं बची है.’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी.’’

अदालत से बाहर आ पतिपत्नी अपनेअपने रास्ते पर चल दिए. उस की पत्नी इतनी निष्ठुर हो जाएगी, सोमदत्त ने सोचा भी नहीं था. मामूली खटपट तो आरंभ से थी. मगर विवाद तब बढ़ा जब सविता ने आयातनिर्यात की कंपनी बनाई. वह एक फैशन डिजाइनर थी. कई फर्मों में नौकरी करती आई थी. बाद में 3 साल पहले उस ने जमापूंजी का इंतजाम कर अपनी फर्म बनाई थी.

सोमदत्त सरकारी नौकरी में था. अच्छे पद पर था सो वेतन काफी ऊंचा था. शुरू में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उस ने पत्नी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया था. धीरेधीरे हालात सुधरते गए. सरकारी मुलाजिमों का वेतन काफी बढ़ गया था.

सविता काफी सुंदर और अच्छे व्यक्तित्व की स्त्री थी. उस की तुलना में सोमदत्त सामान्य व्यक्तित्व और थोड़ा सांवले रंगरूप का था. सरकारी नौकरी का आकर्षण ही था जो सविता के मातापिता ने सोमदत्त से बेटी का रिश्ता किया था. सविता को अपना पति पसंद नहीं था तो नापसंद भी नहीं था. जैसेतैसे जिंदगी गुजारने की मानसिकता से दोनों निबाह रहे थे.

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सविता के अपने अरमान थे, उमंगें थीं, महत्त्वाकांक्षाएं थीं. फैशन डिजाइनर की नौकरी से उस को अपनी कुछ उमंगें पूरी करने का मौका तो मिला था मगर फिर भी उस का मन हमेशा खालीखाली सा रहता था.

सोमदत्त अपनी पत्नी के सुंदर व्यक्तित्व से दबता था. इसलिए वह उस को उत्पीडि़त करने में आनंद पाता था. कई बार सविता घर देर से लौटती थी. उस का चालचलन, चरित्र सब बेबाक था. इसलिए उस को अपने पति द्वारा कटाक्ष करना, शक करना अखरता था.

बाद में जब सविता ने अपनी आयातनिर्यात की फर्म बना ली और अच्छी आमदनी होने लगी तो सोमदत्त खुद को काफी हीन समझने लगा. उस की खीज बढ़ गई. रोजरोज क्लेश और झगड़े की परिणति तलाक में हुई. दोनों की एक बच्ची थी, जो 12-13 साल की थी और कान्वैंट में पढ़ रही थी. बच्ची की सरपरस्ती भी सविता को हासिल हुई थी.

तलाक का फैसला होने के बाद सविता अपने आफिस पहुंची तो उस की स्टेनो रेणु ने उस का अभिवादन किया. लगभग 22-23 साल की रेणु पूरी चमकदमक के साथ अपनी सीट पर मौजूद थी.

स्टेनो से लगभग 20 साल बड़ी उस की मैडम यानी मालकिन सविता भी अपने व्यवसाय और चलन के हिसाब से ही बनीठनी रहती थी. वह अपनी फिगर का ध्यान रखती थी. उस का पहनावा भी अवसर के अनुरूप होता था.

सविता को स्टेनो रेणु ने मोबाइल से आफिस में बैठे विजिटर के बारे में बता दिया था. उस ने स्वागतकक्ष में बैठे आगंतुकों की तरफ देखा. कई चेहरे परिचित थे तो कुछ नए भी. सभी का मुसकरा कर मूक अभिवादन करती वह अपने कक्ष में चली गई.

मिलने वालों में कुछ वस्त्र निर्माता थे तो कुछ अन्य सामान के सप्लायर. एकएक कर सभी निबट गए. अंत में एक सुंदर लंबे कद के नौजवान ने अंदर कदम रखा.

उस का विजिटिंग कार्ड ले कर सविता ने उस को बैठने का इशारा किया. विवेक बतरा, एम.बी.ए., आयातनिर्यात प्रतिनिधि. साथ में उस का पता और मोबाइल नंबर दर्ज था.

‘‘मिस्टर बतरा, आप एक्सपोर्ट एजेंट हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कितने समय से आप इस लाइन में हैं?’’

‘‘2 साल से.’’

‘‘आप के काम का एरिया कौन सा है?’’

‘‘सिंगापुर और अमेरिका.’’

‘‘क्या आप के पास कोई एक्सपोर्ट आर्डर है?’’

‘‘बहुत से हैं,’’ कहने के साथ विवेक बतरा ने अपना ब्रीफकेस खोला और सिलेसिलाए वस्त्रों के नमूने निकाल कर मेज पर फैला दिए. साथ ही उन की डिटेल्स भी समझाने लगा. कुछ परिधान जनाना, कुछ मरदाना और कुछ बच्चों के थे.

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‘‘इन सब की प्रोसैसिंग में तो समय लगेगा,’’ सविता ने सभी आर्डरों के वितरण समझने के बाद कहा.

‘‘कोई बात नहीं है. हमारे ग्राहक इंतजार कर सकते हैं.’’

‘‘क्या कमीशन लेते हैं आप?’’

‘‘5 प्रतिशत.’’

‘‘बहुत ज्यादा है. हम तो 3 प्रतिशत तक ही देते हैं.’’

‘‘मैडम, मेरा काम स्थायी और कम समय में लगातार आर्डर लाने का है. दूसरे एजेंटों के मुकाबले में मेरा काम बहुत तेज है,’’ विवेक बतरा के स्वर में आत्मविश्वास था जिस से सविता बहुत प्रभावित हुई.

‘‘ठीक है मिस्टर बतरा, फिलहाल हम प्रोसैसिंग के बेस पर आप के साथ एक्सपोर्ट आर्डर ले लेते हैं, काम का भुगतान होने के बाद आप को 5 प्रतिशत कमीशन दे देंगे.’’

‘‘ठीक है, मैडम.’’

‘‘क्या आप रसीद या लिखित मेें कोई करार करना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे आप पर विश्वास है,’’ कहता हुआ विवेक बतरा उठ खड़ा हुआ. अपना ब्रीफकेस बंद किया और ‘बैस्ट औफ लक’ कहता चला गया.

सविता उस के व्यक्तित्व और बेबाक स्वभाव से प्रभावित हुई. थोड़े दिनों में विवेक बतरा के निर्यात आदेशों में अधिकांश सिरे चढ़ गए. सविता की कंपनी को पहली बार ढेर सारा काम मिला था. विवेक ने भी भारी कमीशन कमाया.

फिर कामयाबी का सिलसिला चल पड़ा. विवेक बतरा नियमित आर्डर लाने लगा. बाहर जाने, विदेशी ग्राहकों से मिलने, बात करने, डील फाइनल करने आदि कामों के सिलसिले में सविता, विवेक के साथ जाने लगी. नियमित मिलनेजुलने से दोनों करीब आने लगे. विवेक बतरा इस बात से काफी प्रभावित था कि सविता एक किशोरवय की बेटी की मां होने के बाद भी काफी जवान नजर आती थी.

यह कैसी विडंबना- भाग 4: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.

‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.

‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.

‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’

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बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.

‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’

‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’

‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’

‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’

‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’

‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’

‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’

‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.

‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’

हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.

उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’

मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’

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कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.

वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.

आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.

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