Mother’s Day Special: ममता का तराजू

‘‘मां, मैं किस के साथ खेलूं? मुझे भी आप अस्पताल से छोटा सा बच्चा ला दीजिए न. आप तो अपने काम में लगी रहती हैं और मैं अकेलेअकेले खेलता हूं. कृपया ला दीजिए न. मुझे अकेले खेलना अच्छा नहीं लगता है.’’

अपने 4 वर्षीय पुत्र अंचल की यह फरमाइश सुन कर मैं धीरे से मुसकरा दी थी और अपने हाथ की पत्रिका को एक किनारे रखते हुए उस के गाल पर एक पप्पी ले ली थी. थोड़ी देर बाद मैं ने उसे गोद में बैठा लिया और बोली, ‘‘अच्छा, मेरे राजा बेटे को बच्चा चाहिए अपने साथ खेलने के लिए. हम तुम्हें 7 महीने बाद छोटा सा बच्चा ला कर देंगे, अब तो खुश हो?’’

अंचल ने खुश हो कर मेरे दोनों गालों के तड़ातड़ कई चुंबन ले डाले व संतुष्ट हो कर गोद से उतर कर पुन: अपनी कार से खेलने लगा था. शीघ्र ही उस ने एक नया प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘मां, जो बच्चा आप अस्पताल से लाएंगी वह मेरी तरह लड़का होगा या आप की तरह लड़की?’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेटे, यह तो मैं नहीं जानती. जो डाक्टर देंगे, हम ले लेंगे. परंतु तुम से एक बात अवश्य कहनी है कि वह लड़का हो या लड़की, तुम उसे खूब प्यार करोगे. उसे मारोगे तो नहीं न?’’

‘‘नहीं, मां. मैं उसे बहुत प्यार करूंगा,’’ अंचल पूर्ण रूप से संतुष्ट हो कर खेल में जुट गया, पर मेरे मन में विचारों का बवंडर उठने लगा था. वैसे भी उन दिनों दिमाग हर वक्त कुछ न कुछ सोचता ही रहता था. ऊपर से तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी.

अंचल आपरेशन से हुआ था, अत: डाक्टर और भी सावधानी बरतने को कह रहे थे. मां को मैं ने पत्र लिख दिया था क्योंकि इंगलैंड में भला मेरी देखभाल करने वाला कौन था? पति के सभी मित्रों की पत्नियां नौकरी और व्यापार में व्यस्त थीं. घबरा कर मैं ने मां को अपनी स्थिति से अवगत करा दिया था. मां का पत्र आया था कि वह 2 माह बाद आ जाएंगी, तब कहीं जा कर मैं संतुष्ट हुई थी.

उस दिन शाम को जब मेरे पति ऐश्वर्य घर आए तो अंचल दौड़ कर उन की गोद में चढ़ गया और बोला, ‘‘पिताजी, पिताजी, मां मेरे लिए एक छोटा सा बच्चा लाएंगी, मजा आएगा न?’’

ऐश्वर्य ने हंसते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम उस से खूब खेलना. पर देखो, लड़ाई मत करना.’’

अंचल सिर हिलाते हुए नीचे उतर गया था.

मैं ने चाय मेज पर लगा दी थी. ऐश्वर्य ने पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है, सर्वदा?’’

मैं ने कहा, ‘‘सारा दिन सुस्ती छाई रहती है. कुछ खा भी नहीं पाती हूं ठीक से. उलटी हो जाती है. ऐसा लगता है कि किसी तरह 7 माह बीत जाएं तो मुझे नया जन्म मिले.’’

ऐश्वर्य बोले, ‘‘देखो सर्वदा, तुम 7 माह की चिंता न कर के बस, डाक्टर के बताए निर्देशों का पालन करती जाओ. डाक्टर ने कहा है कि तीसरा माह खत्म होतेहोते उलटियां कम होने लगेंगी, पर कोई दवा वगैरह मत खाना.’’

2 माह के पश्चात भारत से मेरी मां आ गई थीं. उस समय मुझे 5वां माह लगा ही था. मां को देख कर लगा था जैसे मुझे सभी शारीरिक व मानसिक तकलीफों से छुटकारा मिलने जा रहा हो. अंचल ने दौड़ कर नानीजी की उंगली पकड़ ली थी व ऐश्वर्य ने उन के सामान की ट्राली. मैं खूब खुश रहती थी. मां से खूब बतियाती. मेरी उलटियां भी बंद हो चली थीं. मेरे मन की सारी उलझनें मां के  आ जाने मात्र से ही मिट गई थीं.

मैं हर माह जांच हेतु क्लीनिक भी जाती थी. इस प्रकार देखतेदेखते समय व्यतीत होता चला गया. मैं ने इंगलैंड के कुशल डाक्टरों के निर्देशन व सहयोग से एक बच्ची को जन्म दिया और सब से खुशी की बात तो यह थी कि इस बार आपरेशन की आवश्यकता नहीं पड़ी थी. बच्ची का नाम मां ने अभिलाषा रखा. वह बहुत खुश दिखाई दे रही थीं क्योंकि उन की कोई नातिन अभी तक न थी. मेरी बहन के 2 पुत्र थे, अत: मां का उल्लास देखने योग्य था. छोटी सी गुडि़या को नर्स ने सफेद गाउन, मोजे, टोपा व दस्ताने पहना दिए थे.

तभी अंचल ने कहा, ‘‘मां, मैं बच्ची को गोद में ले लूं.’’

मैं ने अंचल को पलंग पर बैठा दिया व बच्ची को उस की गोद में लिटा दिया. अंचल के चेहरे के भाव देखने लायक थे. उसे तो मानो जमानेभर की खुशियां मिल गई थीं. खुशी उस के चेहरे से छलकी जा रही थी. यही हाल ऐश्वर्य का भी था. तभी नर्स ने आ कर बतलाया कि मिलने का समय समाप्त हो चुका है.

उसी नर्स ने अंचल से पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारा बच्चा ले सकती हूं?’’

अंचल ने हड़बड़ा कर ‘न’ में सिर हिला दिया. हम सब हंसने लगे.

जब सब लोग घर चले गए तो मैं बिस्तर में सोई नन्ही, प्यारी सी अभिलाषा को देखने लगी, जो मेरे व मेरे  परिवार वालों की अभिलाषा को पूर्ण करती हुई इस दुनिया में आ गई थी. परंतु अब देखना यह था कि मेरे साढ़े 4 वर्षीय पुत्र व इस बच्ची में कैसा तालमेल होता है.

5 दिन बाद जब मैं घर आई तो अंचल बड़ा खुश हुआ कि उस की छोटी सी बहन अब सदा के लिए उस के पास आ गई है.

बच्ची 2 माह की हुई तो मां भारत वापस चली गईं. उन के जाने से घर बिलकुल सूना हो गया. इन देशों में बिना नौकरों के इतने काम करने पड़ते हैं कि मैं बच्ची व घर के कार्यों में मशीन की भांति जुटी रहती थी.

देखतेदेखते अभिलाषा 8 माह की हो गई. अब तक तो अंचल उस पर अपना प्यार लुटाता रहा था, पर असली समस्या तब उत्पन्न हुई जब अभिलाषा ने घुटनों के बल रेंगना आरंभ किया. अब वह अंचल के खिलौनों तक आराम से पहुंच जाती थी. अपने रंगीन व आकर्षक खिलौनों व झुनझुनों को छोड़ कर उस ने भैया की एक कार को हाथ से पकड़ा ही था कि अंचल ने झपट कर उस से कार छीन ली, जिस से अभिलाषा के हाथ में खरोंचें आ गईं.

उस समय मैं वहीं बैठी बुनाई कर रही थी. मुझे क्रोध तो बहुत आया पर स्वयं पर किसी तरह नियंत्रण किया. बालमनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मैं ने अंचल को प्यार से समझाने की चेष्टा की, ‘‘बेटे, अपनी छोटी बहन से इस तरह कोई चीज नहीं छीना करते. देखो, इस के हाथ में चोट लग गई. तुम इस के बड़े भाई हो. यह तुम्हारी चीजों से क्यों नहीं खेल सकती? तुम इसे प्यार करोगे तो यह भी तुम्हें प्यार करेगी.’’

मेरे समझाने का प्रत्यक्ष असर थोड़ा ही दिखाई दिया और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे सवा 5 वर्षीय यह बालक स्वयं के अधिकार क्षेत्र में किसी और के प्रवेश की बात को हृदय से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. मैं चुपचाप रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद जब मैं रसोई से बाहर आई तो देखा कि अंचल अभिलाषा को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

शाम को ऐश्वर्य घर आए तो अंचल उन की ओर रोज की भांति दौड़ा. वह उसे उठाना ही चाहते थे कि तभी घुटनों के बल रेंगती अभिलाषा ने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए. ऐश्वर्य चाहते हुए भी स्वयं को रोक न सके और अंचल के सिर पर हाथ फेरते हुए अभिलाषा को उन्होंने गोद में उठा लिया.

मैं यह सब देख रही थी, अत: झट अंचल को गोद में उठा कर पप्पी लेते हुए बोली, ‘‘राजा बेटा, मेरी गोद में आ जाएगा, है न बेटे?’’ तब मैं ने अंचल की नजरों में निरीहता की भावना को मिटते हुए अनुभव किया.

तभी भारत से मां व भैया का पत्र आया, जिस में हम दोनों पतिपत्नी को यह विशेष हिदायत दी गई थी कि छोटी बच्ची को प्यार करते समय अंचल की उपेक्षा न होने पाए, वरना बचपन से ही उस के मन में अभिलाषा के प्रति द्वेषभाव पनप सकता है. इस बात को तो मैं पहले ही ध्यान में रखती थी और इस पत्र के पश्चात और भी चौकन्नी हो गई थी.

मेरे सामने तो अंचल का व्यवहार सामान्य रहता था, पर जब मैं किसी काम में लगी होती थी और छिप कर उस के व्यवहार का अवलोकन करती थी. ऐसा करते हुए मैं ने पाया कि हमारे समक्ष तो वह स्वयं को नियंत्रित रखता था, परंतु हमारी अनुपस्थिति में वह अभिलाषा को छेड़ता रहता था और कभीकभी उसे धक्का भी दे देता था.

मैं समयसमय पर अंचल का मार्ग- दर्शन करती रहती थी, परंतु उस का प्रभाव उस के नन्हे से मस्तिष्क पर थोड़ी ही देर के लिए पड़ता था.

बाल मनोविज्ञान की यह धारणा कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण न केवल युवावस्था में अपितु बचपन में भी होता है. अर्थात पुत्री पिता को अधिक प्यार करती है व पुत्र माता से अधिक जुड़ा होता है, मेरे घर में वास्तव में सही सिद्ध हो रही थी.

एक दिन कार्यालय से लौटते समय ऐश्वर्य एक सुंदर सी गुडि़या लेते आए. अभिलाषा 10 माह की हो चुकी थी. गुडि़या देख कर वह ऐश्वर्य की ओर लपकी.

मैं ने फुसफुसाते हुए ऐश्वर्य से पूछा, ‘‘अंचल के लिए कुछ नहीं लाए?’’

उन के ‘न’ कहने पर मैं तो चुप हो गई, पर मैं ने अंचल की आंखों में उपजे द्वेषभाव व पिता के प्रति क्रोध की चिनगारी स्पष्ट अनुभव कर ली थी. मैं ने धीरे से उस का हाथ पकड़ा, रसोई की ओर ले जाते हुए उसे बताया, ‘‘बेटे, मैं ने आज तुम्हारे मनपसंद बेसन के लड्डू बनाए हैं, खाओगे न?’’

अंचल बोला, ‘‘नहीं मां, मेरा जरा भी मन नहीं है. पहले एक बात बताइए, आप जब भी हमें बाजार ले जाती हैं तो मेरे व अभिलाषा दोनों के लिए खिलौने खरीदती हैं, पर पिताजी तो आज मेरे लिए कुछ भी नहीं लाए? ऐसा क्यों किया उन्होंने? क्या वह मुझे प्यार नहीं करते?’’

जिस प्रश्न का मुझे डर था, वही मेरे सामने था, मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे, पिताजी तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. उन के कार्यालय से आते समय बीच रास्ते में एक ऐसी दुकान पड़ती है जहां केवल गुडि़या ही बिकती हैं. इसीलिए उन्होंने एक गुडि़या खरीद ली. अब तुम्हारे लिए तो गुडि़या खरीदना बेकार था क्योंकि तुम तो कारों से खेलना पसंद करते हो. पिछले सप्ताह उन्होंने तुम्हें एक ‘रोबोट’ भी तो ला कर दिया था. तब अभिलाषा तो नहीं रोई थी. जाओ, पिताजी के पास जा कर उन्हें एक पप्पी दे दो. वह खुश हो जाएंगे.’’

अंचल दौड़ कर अपने पिताजी के पास चला गया. मैं ने उस के मन में उठते हुए ईर्ष्या के अंकुर को कुछ हद तक दबा दिया था. वह अपनी ड्राइंग की कापी में कोई चित्र बनाने में व्यस्त हो गया था.

कुछ दिन पहले ही उस ने नर्सरी स्कूल जाना आरंभ किया था और यह उस के लिए अच्छा ही था. ऐश्वर्य को बाद में मैं ने यह बात बतलाई तो उन्होंने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली. इन 2 छोटेछोटे बच्चों की छोटीछोटी लड़ाइयों को सुलझातेसुलझाते कभीकभी मैं स्वयं बड़ी अशांत हो जाती थी क्योंकि हम उन दोनों को प्यार करते समय सदा ही एक संतुलन बनाए रखने की चेष्टा करते थे.

अब तो एक वर्षीय अभिलाषा भी द्वेष भावना से अप्रभावित न रह सकी थी. अंचल को जरा भी प्यार करो कि वह चीखचीख कर रोने लगती थी. अपनी गुडि़या को तो वह अंचल को हाथ भी न लगाने देती थी और इसी प्रकार वह अपने सभी खिलौने पहचानती थी. उसे समझाना अभी संभव भी न था. अत: मैं अंचल को ही प्यार से समझा दिया करती थी.

मैं मारने का अस्त्र प्रयोग में नहीं लाना चाहती थी क्योंकि मेरे विचार से इस अस्त्र का प्रयोग अधिक समय तक के लिए प्रभावी नहीं होता, जबकि प्यार से समझाने का प्रभाव अधिक समय तक रहता है. हम दोनों ही अपने प्यार व ममता की इस तुला को संतुलन की स्थिति में रखते थे.

एक दिन अंचल की आंख में कुछ चुभ गया. वह उसे मसल रहा था और आंख लाल हो चुकी थी. तभी वह मेरे पास आया. उस की दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे.

मैं ने एक साफ रूमाल से अंचल की आंख को साफ करते हुए कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारी एक आंख में कुछ चुभ रहा था, पर तुम्हारी दूसरी आंख से आंसू क्यों बह रहे हैं?’’

वह मासूमियत से बोला, ‘‘मां, है न अजीब बात. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है?’’

मैं ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटे, जिस तरह तुम्हारी एक आंख को कोई तकलीफ होती है तो दूसरी आंख भी रोने लगती है, ठीक उसी प्रकार तुम और अभिलाषा मेरी व पिताजी की दोनों आंखों की तरह हो. यदि तुम दोनों में से एक को तकलीफ होती हो तो दूसरे को तकलीफ होनी चाहिए. इस का मतलब यह हुआ कि यदि तुम्हारी बहन को कोई तकलीफ हो तो तुम्हें भी उसे अनुभव करना चाहिए. उस की तकलीफ को समझना चाहिए और यदि तुम दोनों को कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो मुझे और तुम्हारे पिताजी को भी तकलीफ होगी. इसलिए तुम दोनों मिलजुल कर खेलो, आपस में लड़ो नहीं और अच्छे भाईबहन बनो. जब तुम्हारी बहन बड़ी होगी तो हम उसे भी यही बात समझा देंगे.’’

अंचल ने बात के मर्म व गहराई को समझते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया.

तभी से मैं ने अंचल के व्यवहार में कुछ परिवर्तन अनुभव किया. पिता का प्यार अब दोनों को बराबर मात्रा में मिल रहा था और मैं तो पहले से ही संतुलन की स्थिति बनाए रखती थी.

तभी रक्षाबंधन का त्योहार आ गया. मैं एक भारतीय दुकान से राखी खरीद लाई. अभिलाषा ने अंचल को पहली बार राखी बांधनी थी. राखी से एक दिन पूर्व अंचल ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, अभिलाषा मुझे राखी क्यों बांधेगी?’’

मैं ने उसे समझाया, ‘‘बेटे, वह तुम्हारी कलाई पर राखी बांध कर यह कहना चाहती है कि तुम उस के अत्यंत प्यारे बड़े भाई हो व सदा उस का ध्यान रखोगे, उस की रक्षा करोगे. यदि उसे कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो तुम उसे उस तकलीफ से बचाओगे और हमेशा उस की सहायता करोगे.’’

अंचल आश्चर्य से मेरी बातें सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, यदि राखी का यह मतलब है तो मैं आज से वादा करता हूं कि मैं अभिलाषा को कभी नहीं मारूंगा, न ही उसे कभी धक्का दूंगा, अपने खिलौनों से उसे खेलने भी दूंगा. जब वह बड़ी हो कर स्कूल जाएगी और वहां पर उसे कोई बच्चा मारेगा तो मैं उसे बचाऊंगा,’’ यह कह कर वह अपनी एक वर्षीय छोटी बहन को गोद में उठाने की चेष्टा करने लगा.

अंचल की बातें सुन कर मैं कुछ हलका अनुभव कर रही थी. साथ ही यह भी सोच रही थी कि छोटे बच्चों के पालनपोषण में मातापिता को कितने धैर्य व समझदारी से काम लेना पड़ता है.

आज इन बातों को 20 वर्ष हो चुके हैं. अंचल ब्रिटिश रेलवे में वैज्ञानिक है व अभिलाषा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में पढ़ रही है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाईबहनों की भांति उन में नोकझोंक या बहस नहीं होती, परंतु इस के साथ ही दोनों आपस में समझदार मित्रों की भांति व्यवहार करते हैं. दोनों के मध्य सामंजस्य, सद्भाव, स्नेह व सहयोग की भावनाओं को देख कर उन के बचपन की छोटीछोटी लड़ाइयां याद आती हैं तो मेरे होंठों पर स्वत: मुसकान आ जाती है.

इस के साथ ही याद आती है अपने प्यार व ममता की वह तुला, जिस के दोनों पलड़ों में संतुलन रखने का प्रयास हम पतिपत्नी अपने आपसी मतभेद व वैचारिक विभिन्नताओं को एक ओर रख कर किया करते थे. दरवाजे की घंटी बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूं. सामने अंचल हाथ में एक खूबसूरत राखी लिए खड़ा है. मुसकराते हुए वह कहता है, ‘‘मां, कल रक्षाबंधन है, अभिलाषा आज शाम तक आ जाएगी न?’’

‘‘हां बेटा, भला आज तक अभिलाषा कभी रक्षाबंधन का दिन भूली है,’’ मैं हंसते हुए कहती हूं.

‘‘मैं ने सोचा, पता नहीं बेचारी को लंदन में राखी के लिए कहांकहां भटकना पड़ेगा. इसलिए मैं राखी लेता आया हूं. आप ने मिठाई वगैरा बना ली है न?’’ अंचल ने कहा.

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया और मुसकराते हुए पति की ओर देखा, जो स्वयं भी मुसकरा रहे थे.

लेखिका- कल्पना गुप्ता 

अक्ल वाली दाढ़ : कयामत बन कर कैसे आई दाढ़

हमबचपन से सुनतेसुनते तंग आ चुके थे कि तुम्हें तो बिलकुल भी अक्ल नहीं है. एक दिन जब हम इस बात से चिढ़ कर रोंआसे से हो गए तो हमारी बूआजी ने हमें बड़े प्यार से समझाया, ‘‘बिटिया, अभी तुम छोटी हो पर जब तुम बड़ी हो जाओगी तब तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आएगी और तब तुम से कोई यह न कहेगा कि तुम में अक्ल नहीं है.’’ बूआ की बातें सुन कर हमारे चेहरे पर मुसकान आ गई और हम रोना भूल कर खेलने चले गए. अब हम पूरी तरह आश्वस्त थे कि एक न एक दिन हमें भी अक्ल आ ही जाएगी और देखते ही देखते हम बड़े हो गए और इंतजार करने लगे कि अब तो जल्द ही हमें अक्ल वाली दाढ़ आ जाएगी. इस बीच हमारी शादी भी हो गई.

अब ससुराल में भी वही ताने सुनने को मिलते कि तुम्हें तो जरा भी अक्ल नहीं. मां ने कुछ सिखाया नहीं. यही सब सुनतेसुनते वक्त बीतता चला गया पर अक्ल वाली दाढ़ को न आना था न वह आई. अब जब 40वां साल भी पार कर लिया तो हम ने उम्मीद ही छोड़ दी पर एक दिन हमारी चबाने वाली दाढ़ में बहुत तेज दर्द उठा. यह दर्द इतना बेदर्द था कि इस की वजह से हमारे गाल, कान यहां तक कि सिर भी दुखने लगा. हम दर्द से बेहाल गाल पर हाथ धरे आह उह करते फिर रहे थे. जिस ने भी हमारे दांत के दर्द के बारे में सुना उस ने यही कहा, ‘‘अरे, तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आ रही होगी. तभी इतना दर्द हो रहा है.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो देर से ही सही पर अब हमें भी अक्ल आ ही जाएगी. पर जब हमारा दर्द के मारे बुरा हाल हुआ तो हम ने सोचा इस से हम बिना अक्ल के ही ठीक थे. डैंटिस्ट के पास गए तो उन्होंने बताया आप की अंतिम वाली दाढ़ कैविटी की वजह से सड़ चुकी है. उसे निकालना होगा. तब हम ने जिज्ञासावश पूछ लिया, ‘‘क्या यह हमारी अक्ल वाली दाढ़ थी?’’

हमारे इस सवाल पर डैंटिस्ट महोदय मुसकराते हुए बोले, ‘‘जी मैम, यह आप की अक्ल वाली दाढ़ ही थी.’’ अब बताइए देर से आई और कब आई यह हमें पता ही नहीं चला और सड़ भी गई. दर्द बरदाश्त करने से तो अच्छा यही था कि हम उसे निकलवा ही दें. डैंटिस्ट ने तीसरे दिन बुलाया था सो हम तीसरे दिन दाढ़ निकलवाने वहां पहुंच गए. वहां दांत के दर्द से पीडि़त और लोग भी बैठे थे, जिन में एक छोटी सी 5 साल की बच्ची भी थी. उस के सामने वाले दूध के दांत में कैविटी थी. वह भी उस दांत को निकलवाने आई थी. हम ने उस से उस का नाम पूछा तो वह कुछ नहीं बोली. बस अपना मुंह थामे बैठी रही.

उस की मम्मी ने बताया कि 3 दिन से दर्द से बेहाल है. पहले तो दांत निकलवाने को तैयार नहीं थी पर जब दर्द ज्यादा होने लगा तो बोली चलो दांत निकलवाने. हमारा नंबर उस बच्ची के पीछे ही था. पहले उसे बुलाया गया और सुन्न करने वाला इंजैक्शन लगाया गया, जिस से उस के पूरे मुंह में सूजन आ गई. अब हमारी बारी थी. वैसे आप को बता दें हम देखने में हट्टेकट्टे जरूर हैं पर हमारा दिल एकदम चूहे जैसा है. खैर, हमें भी इंजैक्शन लगा और 10 मिनट बाद आने को कहा गया. हम मुंह पकड़े वहीं सोफे पर ढेर हो गए.

अभी हमें चकराते हुए 10 मिनट ही बीते थे कि हमें फिर अंदर बुलाया गया और निकाल दी गई हमारी अक्ल वाली दाढ़. जब दाढ़ निकाली तो हमें दर्द का एहसास नहीं हुआ पर डैंटिस्ट ने एक रुई का फाहा हमारी निकली हुई दाढ़ वाली खाली जगह लगा दिया. उस पर लगी दवा का स्वाद इतना गंदा था कि हम ने वहीं उलटी कर दी. इस पर हमें नर्स ने खा जाने वाली नजरों से देखा तो हम गाल पकड़े बाहर आ गए. हमारा छोटा बेटा जो हमारे साथ ही था ने बताया कि डैंटिस्ट अंकल ने कहा है कि 1 घंटे तक रुई नहीं निकालनी है. बड़ी मुश्किल से यह वक्त बीता और फिर हमें आइस्क्रीम खाने को मिली. एक तरफ से सूजे हुए मुंह से आइस्क्रीम खाते हुए हम बड़े फनी से लग रहे थे. बच्चे हमारी मुद्राएं देखदेख कर हंसे जा रहे थे. अब हम ने जो दर्द सहा सो सहा पर यह तो हमारे साथ बड़ी नाइंसाफी हुई न कि जिस अक्ल दाढ़ का सालों इंतजार किया वह आई भी तो कैसी. जो भी हो हम तो आखिर रह गए न वही कमअक्ल के कमअक्ल.

महापुरुष: कौनसा था एहसान

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महापुरुष- भाग 3: कौनसा था एहसान

रामकुमार खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ उमा का फोटो ले कर आ गए. उमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में कुछ मिठाई गौतम के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से गौतम को देख रहे थे.

अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने न्यूयार्क के उस विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. दिल्ली जाने से पहले वह एक बार और उमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने गौतम और उमा को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.

गौतम जब दिल्ली से वापस आया तो रामकुमार ने उसे विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. गौतम ने उन्हें बताया कि मातापिता दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.

गौतम के मातापिता की रजामंदी के बाद तो गौतम का उमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन उमा से सिनेमा चलने के लिए कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों न्यूयार्क से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. रामकुमार ने अपने दोस्त को न्यूयार्क पत्र लिखा और गौतम की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.

3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र न्यूयार्क से आया, जिस की गौतम कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी. में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह रामकुमार का आभारी था. उन की सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.

गौतम की छोटी बहन का रिश्ता बनारस में हो गया था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. गौतम ने उमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.

कुछ ही महीने में गौतम न्यूयार्क आ गया. यहां उसे वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे न्यूयार्क में ही दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.

उमा के 2-3 पत्र आए थे, पर गौतम व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो उमा का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि रामकुमार दिल्ली किसी काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी बेटी की शादी बनारस में तय हुई थी.

उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.

गौतम ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं उमा से शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप रामकुमार को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.

गौतम के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.

उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. गौतम के पास उमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र रामकुमार का भी आया. उन पत्रों को बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.

पीएच.डी. करने के बाद गौतम शादी करवाने भारत गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी रामकुमार और उमा के बारे में सोचा हो. उमा का तो शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.

उस दिन रवि ने गौतम की पुरानी स्मृतियों को झकझोर दिया था. प्रोफेसर गौतम सारी रात उमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी ने उन का क्या बिगाड़ा था. रामकुमार के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.

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ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9 बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को रवि के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.

कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें रवि का फोन नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने रवि को फोन मिलाया. सवेरेसवेरे प्रोफेसर का फोन पा कर रवि चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’

रवि को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर गौतम ने फोन बंद कर दिया.

रवि कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.

आदरणीय माताजी,

आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.

लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर गौतम एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का पूरापूरा विश्वास दिलाया है.

प्रोफेसर गौतम बरसों पहले कानपुर में नानाजी के विभाग में ही काम करते थे. उन दिनों कभी शायद आप की भी उन से मुलाकात हुई होगी…

आपका,

रवि

नौकर बीवी- भाग 3: शादी के बाद शीला के साथ क्या हुआ?

एक दिन रमेश की मां ने शांता को किसी बात पर मारने की कोशिश की थी, तो बहादुरी कर उसी पर चढ़ बैठी. शांता ने रमेश से शिकायत की, तो रमेश ने भी उसे मारना चाहा. शांता ने डंडा उठा कर उसे ही पीट डाला.

शांता ने गुस्से में आ कर कपड़ों पर मिट्टी का तेल छिड़क कर कमरे में आग लगा दी. मामला पुलिस में गया. उस दिन दारोगा गांव में आए. उन्हें घटना का पता चला, तो उन्होंने शांता को बुला कर सब बातें पूछ लीं.

शांता ने कई झूठी बातें गढ़ दीं. यह भी कह दिया कि रमेश और उस की मां उस से धंधा कराते हैं. उस की बातें सुन कर उन्होंने रमेश और उस की मां पर मुकदमा चलाने की धमकी दी, पर कुछ लेदे कर मामला शांत हो गया.

उस दिन से शांता को किसी ने मारापीटा तो नहीं, पर उस के साथ अपनेपन का बरताव भी किसी ने नहीं किया. उस का मन घर की जेल से ऊबने लगा.

कुछ दिनों के बाद उस ने पड़ोस के एक लड़के, जो रमेश की मां के मायके का था, को रात में एक बहाने से कमरे में बुलाया और फिर जबरन उसे कपड़े उतार कर सोने को कहा.

शांता ने कहा कि वह सैक्स नहीं करेगा, तो उस पर रेप का चार्ज लगा देगी. शांता की उस से पट गई और वह राजी हो गया कि वह उसे इस घर से अपने साथ ले चलेगा.

4-5 रात के बाद शांता ने रमेश के घर का सारा कपड़ागहना एक गठरी में बांधा और वह उस लड़के के साथ उस की बाइक पर चली गई. वे लोग गांव से बाहर निकल कर थोड़ी दूर ही जा पाए थे कि सामने से कोई आता हुआ दिखाई दिया. वे दोनों एक पुरानी कोठरी में छिप गए, जो एक बाबा की मढ़ई थी. बाबा के कोविड से मरने के चलते वह बेकार पड़ी थी.

थोड़ी देर में दिन निकल आया और लोगों के आनेजाने की आहट आने लगी. शांता और उस के साथी ने कोठरी के किवाड़ बंद कर लिए और दिनभर वहीं रह कर रात को वहां से चलने का निश्चय किया.

इधर शांता के भाग जाने की बात सारे गांव में फैल गई. लोगों ने आसपास बहुत ढूंढ़ा, पर उस का कहीं कोई पता नहीं चला. लोगों की सलाह पर रमेश और उस के पिता ने शांता के भाग जाने और चोरी की रिपोर्ट थाने में लिखा दी.

दारोगाजी ने उन्हें खूब आड़े हाथों लिया, ‘‘खुद ही औरतों को खरीद कर लाते हैं, सताते हैं और भाग जाने पर रिपोर्ट लिखाने आते हैं. औरतों को घर से भगाओ तुम और उन्हें ढूंढ़ने का काम पुलिस करे.’’

रमेश और उस के पिता चुपचाप सब सुनते रहे. फिर हाथ जोड़ कर उन्होंने दारोगाजी से कहा, ‘‘अगर आप शांताको पकड़वा दें, तो हम आप को 10,000 रुपए भेंट देंगे.’’

सब को विश्वास हो गया था कि शांता अकेली नहीं गई है. वह उसी लड़के के साथ भागी है, जो रमेश की मां के मायके से आया था.

शांता और उस का साथी दिनभर कोठरी में मौज करते रहे. लड़का एक दिन खाना लाने गया, तो एक आदमी

ने उसे कोठरी में घुसते हुए देख लिया. वह सम?ा गया कि वह कौन हो सकता है. उस ने यह बात रमेश के घर जा कर कह दी.

रमेश के पिता ने बहुत से आदमियों को ले कर कोठरी घेर ली. भीतर से सांकल बंद थी. अंदर से शांता ने कहा, ‘‘हम इस तरह किवाड़ नहीं खोलेंगे. जब तक पुलिस नहीं आ जाती, तब तक किवाड़ नहीं खुलेंगे. शिकायत तो मैं बनाऊंगी कि तुम ने इस लड़के को मेरे साथ पैसे ले कर भेजा. तुम लोग मुझ से धंधा करवा रहे हो. सुबूत के तौर पर मेरे पास कंडोमों के पैकेट पड़े हैं. मैं तो अपना मैडिकल कराऊंगी.’’

मजबूर हो कर सब लोग सवेरे तक वहां बैठे रहे. पुलिस को खबर हो गई, तो दारोगाजी आ गए. तब शांता ने किवाड़ खोल कर कहा कि वह सब को जेल भेजेगी और उस घर में नहीं जाएगी.

दारोगा ने एक लाख रुपए ले कर मामला सुलटाया और रमेश को कहा कि इस लड़की को घर में ही रख और अपने मातापिता से अलग रह. अगर इसे सताया जाएगा, तो यह भाग जाएगी या केस कर देगी.

दारोगाजी ने रमेश के पिता से कहा, इसलिए शांता को सम?ाबु?ा कर घर भेज दिया गया.

अब रमेश अपने मातापिता से अलग शांता के साथ रहता है. अब वह ध्यान रखता है कि शांता को कोई परेशान न हो. अब वह ‘पैर काटने वाली जूती बदलने’ की बात भूल गया है. शायद अब वह पैर की जूती की कीमत सम?ा गया है. पहले वाली जूती उसे मुफ्त मिल गई थी, इसलिए उस ने उतार फेंकी थी. यह जूती बहुत कीमती है. यह चाहे जितना काटे, पैर से उतारी नहीं जा सकती.

शांता अब रमेश के होने या न होने पर चाहे जिसे बिस्तर पर सोने के लिए बुला लेती है. रमेश कुछ कहता है, तो वह कहती है, ‘‘मुझे तो मर्दों का स्वाद है. सतीसावित्री को तो तुम ने बिना तलाक दिए घर से निकाल रखा है. मैं ने तो यहां बीवी की नौकरी की है. तुम चाहे जो करो, मैं यहीं रहूंगी. यहीं खाऊंगी. यहीं मर्दों को लाऊंगी. हां,

तुम ने मुझे रखा है, तो तुम्हारा खयाल रखूंगी. बोलो, आज रात को खीर खाओगे या हलवा?’’

कर्ण : खराब परवरिश के अंधेरे रास्तों से गुजरती रम्या

न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का.

रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए. ‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए.

जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा. बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं. एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद रहते थे. रम्या के डैडी और मौम उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे.

उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी. पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे. रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई. अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी.

अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई. ‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’ ‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा. ‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा. ‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी. ‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा. ‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया. दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी.

रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था. ‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का. कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’ ‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी. अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे.

उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया. उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी. रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं. रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था. इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं.

मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए. लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे.

लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया. ‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा. जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है.

अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए. …तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा. जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा.

उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया. ‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा. रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत. ‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा. ‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा. बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा. ‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं. बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा.

मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’ ‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया. ‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं.

यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया. बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं. ‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा. रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं. ‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है?

आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी. ‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा. ‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’ ‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’ खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.

तेरी मेरी जिंदगी: क्या था रामस्वरूप और रूपा का संबंध?

रामस्वरूप तल्लीन हो कर किचन में चाय बनाते हुए सोच रहे हैं कि अब जीवन के 75 साल पूरे होने को आए. कितना कुछ जाना, देखा और जिया इतने सालों में, सबकुछ आनंददायी रहा. अच्छेबुरे का क्या है, जीवन में दोनों का होना जरूरी है. इस से आनंद की अनुभूति और गहरी होती है. लेकिन सब से गहरा तो है रूपा का प्यार. यह खयाल आते ही रामस्वरूप के शांत चेहरे पर प्यारी सी मुसकान बिखर गई. उन्होंने बहुत सफाई से ट्रे में चाय के साथ थोड़े बिस्कुट और नमकीन टोस्ट भी रख लिए. हाथ में ट्रे ले कर अपने कमरे की तरफ जाते हुए रेडियो पर बजते गाने के साथसाथ वे गुनगुना भी रहे हैं ‘…हो चांदनी जब तक रात, देता है हर कोई साथ…तुम मगर अंधेरे में न छोड़ना मेरा हाथ …’

कमरे में पहुंचते ही बोले, ‘‘लीजिए, रूपा, आप की चाय तैयार है और याद है न, आज डाक्टर आने वाला है आप की खिदमत में.’

दोनों की उम्र में 5 साल का फर्क है यानी रामस्वरूप से रूपा 5 साल छोटी हैं पर फिर भी पूरी जिंदगी उन्होंने कभी तू कह कर बात नहीं की हमेशा आप कह कर ही बुलाया.

दोस्त कई बार मजाक बनाते कि पत्नी को आप कहने वाला तो यह अलग ही प्राणी है, ज्यादा सिर मत चढ़ाओ वरना बाद में पछताना पड़ेगा. लेकिन रामस्वरूप को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे पढ़ेलिखे समझदार इंसान थे और सरकारी नौकरी भी अच्छी पोस्ट वाली थी. रिटायर होने के बाद दोनों पतिपत्नी अपने जीवन का आनंद ले रहे थे.

अचानक एक दिन सुबह बाथरूम में रूपा का पैर फिसल गया और उन के पैर की हड्डी टूट गई. इस उम्र में हड्डी टूटने पर रिकवरी होना मुश्किल हो जाता है. 4 महीनों से रामस्वरूप अपनी रूपा का पूरी तरह खयाल रख रहे हैं.

रूपा ने रामस्वरूप से कहा, ‘‘मुझे बहुत बुरा लगता है आप को मेरी इतनी सेवा करनी पड़ रही है, यों आप रोज सुबह मेरे लिए चायनाश्ता लाते हैं और बैठेबैठे पीने में मुझे शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप? इतने सालों तक आप ने मुझे हमेशा बैड टी पिलाई है और मेरा हर काम बड़ी कुशलता और प्यार के साथ किया है. मुझे तो कभी बुरा नहीं लगा कि आप मेरा काम कर रही हैं. फिर मेरा और आप का ओहदा बराबरी का है. मैं पति हूं तो आप पत्नी हैं. हम दोनों का काम हमारा काम है, आप का या मेरा नहीं. चलिए, अब फालतू बातें सोचना बंद कीजिए और चाय पीजिए,’’ रामस्वरूप ने प्यार से उन्हें समझाया.

4 महीनों में इन दोनों की दुनिया एकदूसरे तक सिमट कर रह गई है. रामस्वरूप ने दोस्तों के पास आनाजाना छोड़ दिया और रूपा का आसपड़ोस की सखीसहेलियों के पास बैठनाउठना बंद सा हो गया. अब कोई आ कर मिल जाता है तो ठीक है नहीं तो दोनों अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं.

रामस्वरूप का काम सिर्फ रूपा का खयाल रखना है और रूपा भी यही चाहती हैं कि रामस्वरूप उन के पास बैठे रहें.

कामवाली कमला घर की साफसफाई और खाना बना जाती है जिस से घर का काम सही तरीके से हो जाता है. बस, कमला की ज्यादा बोलने की आदत है. हमेशा आसपड़ोस की बातें करने बैठ जाती है रूपा के पास. कभी पड़ोस वाले गुप्ताजी की बुराई तो कभी सामने वाले शुक्लाजी की कंजूसी की बातें और खूब मजाक बनाती है.

रामस्वरूप यदि आसपास ही होते तो कमला को टोक देते थे, ‘‘ये क्या तुम बेसिरपैर की बातें करती रहती हो. अच्छी बातें किया करो. थोड़ा रूपा के पास बैठ कर संगीत वगैरह सुना करो. पूरा जीवन क्या यों ही लोगों के घर के काम करते ही बीतेगा?’’ इस पर कमला जवाब देती, ‘‘अरे साबजी, अब हम को क्या करना है, यही तो हमारी रोजीरोटी है और आप जैसे लोगों के घर में काम करने से ही मुझे तो सुकून मिल जाता है.

‘‘आप दोनों की सेवा कर के मुझे सुख मिल गया है. अब आप बताएं और क्या चाहिए इस जीवन में?’’

रामस्वरूप बोले, ‘‘कमला, बातें बनाने में तो तुम माहिर हो, बातों में कोई नहीं जीत सकता तुम से. जाओ, अब खाना बना लो, काफी बातें हो गई हैं. कहीं आगे के काम करने में तुम्हें देर न हो जाए.’’

पूरा जीवन भागदौड़ में गुजार देने के बाद अब भी दोनों एकदूसरे के लिए जी रहे हैं और हरदम यही सोचते हैं कि कुदरत ने प्यार, पैसा, संपन्नता सब दिया है पर फिर भी बेऔलाद क्यों रखा?

काफी सालों तक इस बात का अफसोस था दोनों को लेकिन 2-4 साल पहले जब पड़ोस के वर्माजी का दर्द देखा तो यह तकलीफ भी कम हो गई क्योंकि अपने इकलौते बेटे को बड़े अरमानों के साथ विदेश पढ़ने भेजा था वर्माजी ने. सोचा था जो सपने उन की जवानी में घर की जिम्मेदारियों की बीच दफन हो गए थे, अपने बेटे की आंखों से देख कर पूरे करेंगे. पर बेटा तो वहीं का हो कर रह गया. वहीं शादी भी कर ली और अपने बूढ़े मांबाप की कोई खबर भी नहीं ली. तब दोनों ने सोचा, ‘इस से तो हम बेऔलाद ही अच्छे, कम से कम यह दुख तो नहीं है कि बेटा हमें छोड़ कर चला गया है.’

आज सुबह की चाय के साथ दोनों अपने जीवन के पुराने दौर में चले गए. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही परंपरागत तरीके से लड़कालड़की देखना और फिर सगाई व शादी कर के किस तरह से दोनों के जीवन की डोर बंधी.

जीवन की शुरुआत में घरपरिवार के प्रति सब की जिम्मेदारी होने के बावजूद रिश्तेनाते, रीतिरिवाज घरपरिवार से दूर हमारी दिलों की अलग दुनिया थी, जिसे हम अपने तरीके से जीते थे और हमारी बातें सिर्फ हमारे लिए होती थीं. अनगिनत खुशनुमा लमहे जो हम ने अपने लिए जीए वे आज भी हमारी जिंदगी की यादगार सौगात हैं और आज भी हम सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं.

तभी रामस्वरूप बोले, ‘‘वैसे रूपा, अगर मैं बीमार होता तो आप को मेरी सेवा करने में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि आप औरत हो और हर काम करने की आप की आदत और क्षमता है लेकिन मुझे भी कोई तकलीफ नहीं है आप की सेवा करने में, बल्कि यही तो वक्त है उन वचनों को पूरा करने का जो अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लेते समय लिए थे.

‘‘वैसे रूपा, जिंदगी की धूप से दूर अपने प्यारे छोटे से आशियाने में हर छोटीबड़ी खुशी को जीते हुए इतने साल कब निकल गए, पता ही नहीं चला. ऐसा नहीं है कि जीवन में कभी कोई दुख आया ही नहीं. अगर लोगों की नजरों से सोचें तो बेऔलाद होना सब से बड़ा दुख है पर हम संतुष्ट हैं उन लोगों को देख कर जो औलाद होते हुए भी ओल्डएज होम या वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं या दुखी हो कर पलपल अपने बच्चों के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो उन्हें छोड़ कर कहीं और बस गए हैं.

‘‘उम्र के इस मोड़ पर आज भी हम एकदूसरे के साथ हैं, यह क्या कम खुशी की बात है. लीजिए, आज मैं ने आप के लिए एक खत लिखा है. 4 दिन बाद हमारी शादी की सालगिरह है पर तब तक मैं इंतजार नहीं कर सका :

हजारों पल खुशियों के दिए,

लाखों पल मुसकराहट के,

दिल की गहराइयों में छिपे

वे लमहे प्यार के,

जिस पल हर छोटीबड़ी

ख्वाहिश पूरी हुई,

हर पल मेरे दिल को

शीशे सी हिफाजत मिली

पर इन सब से बड़ा एक पल,

एक वह लमहा…

जहां मैं और आप नहीं,

हम बन जाते हैं.’’

रूपा उस खत को ले कर अपनी आंखों से लगाती है, तभी डाक्टर आते हैं. आज उन का प्लास्टर खुलने वाला है. दोनों को मन ही मन यह चिंता है कि पता नहीं अब डाक्टर चलनेफिरने की अनुमति देगा या नहीं.

डाक्टर कहता है, ‘‘माताजी, अब आप घर में थोड़ाथोड़ा चलना शुरू कर सकती हैं. मैं आप को कैल्शियम की दवा लिख देता हूं जिस से इस उम्र में हड्डियों में थोड़ी मजबूती बनी रहेगी.

‘‘बहुत अच्छी और आश्चर्य की बात यह है कि इस उम्र में आप ने काफी अच्छी रिकवरी कर ली है. मैं जानता हूं यह रामस्वरूपजी के सकारात्मक विचार और प्यार का कमाल है. आप लोगों का प्यार और साथ हमेशा बना रहे, भावी पीढ़ी को त्याग, पे्रम और समर्पण की सीख देता रहे. अब मैं चलता हूं, कभीकभी मिलने आता रहूंगा.’’

आज दोनों ने जीवन की एक बड़ी परीक्षा पास कर ली थी, अपने अमर प्रेम के बूते पर और सहनशीलता के साथ.

अंशु हर्ष

तलाश: ज्योतिषी ने कैसे किया अंकित को अनु से दूर?

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महापुरुष- भाग 2: कौनसा था एहसान

प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर रवि को दे दिया और बीयर खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.

रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर गौतम रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में रवि ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. रवि उन से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, रवि उन को लिखता जा रहा था.

रवि की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर रवि ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि रवि ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.

प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो गया था. रवि ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि रवि घर में आया हुआ है. वह अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था. अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.

प्रोफेसर ने एक निगाह से रवि को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर गौतम ने न्यूयार्क से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने एम.एससी. (कानपुर से) की थी.

‘‘साहब, आप ने एम.एससी. कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ रवि ने पूछा.

प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.

‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’

‘‘रामकुमार,’’ रवि ने कहा.

‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. 1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’

‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा होगा,’’ रवि ने पूछा.

‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि नहीं.’’

रवि कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1 महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.

रवि के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे रवि के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें दिल्ली में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे. उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.

उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण गौतम को अस्थायी रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था. विभागाध्यक्ष रामकुमार भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी कोशिश कर रहे थे.

एक दिन रामकुमार ने गौतम को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.

रवि की मां उमा से गौतम की मुलाकात उसी दिन शाम को हुई थी. उमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. रामकुमार उमा की शादी की चिंता में थे. उमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए गौतम अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप थी, पर अपनी ओर से ही गौतम प्रश्न किए जा रहा था.

कुछ समय पश्चात उमा और उस की मां उठ कर चली गईं. रामकुमार ने तब गौतम से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे उमा का हाथ गौतम के हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर गौतम चाहे तो वे उस के मातापिता से बात करने के लिए दिल्ली जाने को तैयार थे.

सुन कर गौतम ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’

‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त न्यूयार्क में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ रामकुमार ने कहा.

‘आप मुझे उमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी न नहीं करेंगे,’ गौतम ने कहा.

आगे पढ़ें- अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने…

महापुरुष- भाग 1: कौनसा था एहसान

रवि प्रोफेसर गौतम के साथ व्यवसाय प्रबंधन कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.

मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से रवि यहां अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.

रवि ने प्रोफेसर गौतम से पीएच.डी. के लिए प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. रवि के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रवि प्रोफेसर गौतम से जब भी उन के विभाग में मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. रवि को उन को बारबार परेशान करना अच्छा भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.

एक बार रवि ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए. फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’ उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो, मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान होते हैं,’’ रवि को प्रोफेसर गौतम से यह आशा नहीं थी कि वे उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए प्रोफेसर गौतम ने उस से कह दिया था.

प्रोफेसर गौतम का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.

सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर गौतम की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.

18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में अपनी पत्नी के साथ.

सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.

पत्नी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर गौतम उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे, पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.

प्रोफेसर गौतम ने रवि के आने के उपलक्ष्य में सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.

शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि रवि के आने पर ही बनाएंगे.

रवि ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर गौतम को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि रवि समय का कितना पाबंद है. रवि थोड़ा हिचकिचा रहा था.

प्रोफेसर गौतम ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’

रवि अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.

‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, मेरी पत्नी का कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.

रवि रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर गौतम ने पूछा, ‘‘जब तक चावल तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या लोगे?’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’

आगे पढ़ें- रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने…

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