साथी साथ निभाना – भाग 2 : संजीव ने ऐसा क्या किया कि नेहा की सोच बदल गई

‘‘पापा, नेहा को मेरे घर के सभी लोग बहुत प्यार करते हैं. उसे डरनेघबराने की कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव ने दबे स्वर में अपनी बात कही.

‘‘यह कैसा प्यार है तुम्हारी भाभी का, जो कल को तुम्हारे व मेरी बेटी के हाथों में हथकडि़यां पहनवा देगा?’’

‘‘पापा, गुस्से में इंसान बहुत कुछ कह जाता है. सपना भाभी को भी नेहा बहुत पसंद है. वे इस का बुरा कभी नहीं चाहेंगी.’’

‘‘देखो संजीव, जो इंसान आत्महत्या करने की नासमझी कर सकता है, उस से संतुलित व्यवहार की हम कैसे उम्मीद करें?’’

‘‘पापा, हम सब मिल कर भैयाभाभी को प्यार से समझाएंगे. हमारे प्रयासों से समस्या जल्दी हल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी की खुशियां तुम्हारे भैयाभाभी के कभी समझदार बनने की उम्मीद पर आश्रित रहें.’’

‘‘फिर आप ही बताएं कि आप सब क्या चाहते हैं?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘इस समस्या का समाधान यही है कि तुम और नेहा अलग रहने लगो. भावी मुसीबतों से बचने का और कोई रास्ता नहीं है,’’ राजेंद्रजी ने गंभीर लहजे में अपनी राय दी.

‘‘मुझे पता था कि देरसवेर आप यह रास्ता मुझे जरूर सुझाएंगे. लेकिन मेरी एक बात आप सब ध्यान से सुन लें, मैं संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूं और रहूंगा. नेहा को उसी घर में  लौटना होगा,’’ संजीव का चेहरा कठोर हो गया.

‘‘मुझे सचमुच वहां बहुत डर लगता है,’’ नेहा ने सहमे हुए अपने मन की बात कही, ‘‘न ठीक से नींद आती है, न कुछ खाया जाता है? मैं वहां लौटना नहीं चाहती हूं.’’

‘‘नेहा, तुम्हें जीवन भर मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए. अपने मातापिता की बातों में आने के बजाय मेरी इच्छाओं और भावनाओं को ध्यान में रख कर काम करो. मुझे ही नहीं, पूरे घर को तुम्हारी इस वक्त बहुत जरूरत है. प्लीज मेरे साथ चलो,’’ संजीव भावुक हो उठा.

अपनी आदत के अनुरूप नेहा कुछ कहनेसुनने के बजाय रोने लगी. नीरजा उसे चुप कराने लगीं. राजेंद्रजी सिर झुका कर खामोश बैठ गए. संजीव को वहां अपना हमदर्द या शुभचिंतक कोई नहीं लगा.

कुछ देर बाद नेहा अपनी मां के साथ अंदर वाले कमरे में चली गई. संजीव के साथ राजेंद्रजी की ज्यादा बातें नहीं हो सकीं.

‘‘तुम मेरे प्रस्ताव पर ठंडे दिमाग से सोचविचार करना, संजीव. अभी नेहा की

बिगड़ी हालत तुम से छिपी नहीं है. उसे यहां कुछ दिन और रहने दो,’’ राजेंद्रजी की इस पेशकश को सुन संजीव अपने घर अकेला ही लौट गया.

नेहा को वापस न लाने के कारण संजीव को अपने मातापिता से भी जलीकटी बातें सुनने को मिलीं.

गुस्से से भरे संजीव के पिता ने अपने समधी से फोन पर बात की. वे उन्हें खरीखोटी सुनाने से नहीं चूके.

‘‘भाईसाहब, हम पर गुस्सा होने के बजाय अपने घर का माहौल सुधारिए,’’ राजेंद्रजी ने तीखे स्वर में प्रतिक्रिया व्यक्त की, ‘‘नेहा को आदत नहीं है गलत माहौल में रहने की. हम ने कभी सोचा भी न था कि वह ससुराल में इतनी ज्यादा डरीसहमी और दुखी रहेगी.’’

‘‘राजेंद्रजी, समस्याएं हर घर में आतीजाती रहती हैं. मेरी समझ से आप नेहा को हमारे इस कठिनाई के समय में अपने घर पर रख कर भारी भूल कर रहे हैं.’’

‘‘इस वक्त उसे यहां रखना हमारी मजबूरी है, भाईसाहब. जब आप के घर की समस्या सुलझ जाएगी, तो मैं खुद उसे छोड़ जाऊंगा.’’

‘‘देखिए, लड़की के मातापिता उस के ससुराल के मसलों में अपनी टांग अड़ाएं, मैं इसे गलत मानता हूं.’’

‘‘भाईसाहब, बेटी के सुखदुख को नजरअंदाज करना भी उस के मातापिता के लिए संभव नहीं होता.’’

इस बात पर संजीव के पिता ने झटके से फोन काट दिया. उन्हें अपने समधी का व्यवहार मूर्खतापूर्ण और गलत लगा. अपना गुस्सा कम करने को वे कुछ देर के लिए बाहर घूमने चले गए.

सपना ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की है, यह बात किसी तरह उस के मायके वालों को भी मालूम पड़ गई.

उस के दोनों बड़े भाई राजीव से झगड़ने का मूड बना कर मिलने आए. उन के दबाव के साथसाथ राजीव पर अपने घर वालों का दबाव अलग से पड़ ही रहा था. सभी उस पर सविता से संबंध समाप्त कर लेने के लिए जोर डाल रहे थे.

सविता उस के साथ काम करने वाली शादीशुदा महिला थी. उस का पति सऊदी अरब में नौकरी करता था. अपने पति की अनुपस्थिति में उस ने राजीव को अपने प्रेमजाल में उलझा रखा था.

सब लोगों के दबाव से बचने के लिए राजीव ने झूठ का सहारा लिया. उस ने सविता को अपनी प्रेमिका नहीं, बल्कि सिर्फ अच्छी दोस्त बताया.

‘‘सपना का दिमाग खराब हो गया है. सविता को ले कर इस का शक बेबुनियाद है. मैं किसी भी औरत से हंसबोल लूं तो यह किलस जाती है. इस ने तो आत्महत्या करने का नाटक भर किया है, लेकिन मैं किसी दिन तंग आ कर जरूर रेलगाड़ी के नीचे कट मरूंगा.’’

उन सब के बीच कहासुनी बहुत हुई, मगर समस्या का कोई पुख्ता हल नहीं निकल सका.

संजीव की नाराजगी के चलते नेहा ही उसे रोज फोन करती. बातें करते हुए उसे अपने पति की आवाज में खिंचाव और तनाव साफ महसूस होता.

वह इस कारण वापस ससुराल लौट भी जाती, पर राजेंद्र और नीरजा ने उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी.

‘‘वहां के संयुक्त परिवार में तुम कभी पनप नहीं पाओगी, नेहा,’’ राजेंद्रजी ने उसे समझाया, ‘‘अपने भैयाभाभी के झगड़ों व तुम्हारे यहां रहने से परेशान हो कर संजीव जरूर अलग रहने का फैसला कर लेगा. तेरे पास पैसा अपनी गृहस्थी अलग बसा लेने के बाद ही जुड़ सकेगा, बेटी.’’

नीरजा ने भी अपनी आपबीती सुना कर नेहा को समझाया कि इस वक्त उस का ससुराल में न लौटना ही उस के भावी हित में है.

एक रात फोन पर बातें करते हुए संजीव ने कुछ उत्तेजित लहजे में नेहा से कहा, ‘‘कल सुबह 11 बजे तुम मुझे नेहरू पार्क के पास मिलो. हम दोनों सविता से मिलने चलेंगे.’’

‘‘हम उस औरत से मिलने जाएंगे, पर क्यों?’’ नेहा चौंकी.

‘‘देखो, राजीव भैया पर उस से अलग होने की बात का मुझे कोई खास असर नहीं दिख रहा है. मेरी समझ से कल रविवार को तुम और मैं सविता की खबर ले कर आते हैं. उसे डराधमका कर, समाज में बेइज्जती का डर दिखा कर, उस के पति को उस की चरित्रहीनता की जानकारी देने का भय दिखा कर हम जरूर उसे भैया से दूर करने में सफल रहेंगे,’’ संजीव की बातों से नेहा का दिल जोर से धड़कने लगा.

 

सहचारिणी – भाग 3 : क्या सुरुचि अपने मकसद को पाने में कामयाब हो पाई

लेकिन जैसा हर कलाकार होता है, तुम भी बड़े संवेदनशील हो. अपनी छोटी सी असफलता भी तुम से बरदाश्त नहीं होती. तुम्हारी आंखों की उदासी मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जी जान से तुम्हें खुश करने की कोशिश करती और तुम सचमुच छोटे बच्चे की तरह मेरे आगोश में आ कर अपना हर गम भूल जाते. फिर नए उत्साह और जोश के साथ नए सिरे से उस काम को करते और सफलता प्राप्त कर के ही दम लेते. तब मुझे बड़ी खुशी होती और गर्व होता अपनेआप पर. धीरेधीरे मेरा यह गर्व घमंड में बदलने लगा. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं एक अभिमानी और सिरफिरी नारी बनती गई.

मुझे लगने लगा था कि ये सारी औरतें, जो धनदौलत, रूपयौवन आदि सब कुछ रखती हैं. वे सब मेरे सामने तुच्छ हैं. उन्हें अपने पतियों का प्यार पाना या उन्हें अपने वश में रखना आता ही नहीं है. मेरा यह घमंड मेरे हावभाव और बातचीत में भी छलकने लगा था. जो लोग मुझ से बड़े प्यार और अपनेपन से मिलते थे, वे अब औपचारिकता निभाने लगे थे. उन की बातचीत में शुष्कता और बनावटीपन साफ दिखता था. मुझे गुस्सा आता. मुझे लगता कि ये औरतें जलती हैं मुझ से. खुद तो नाकाम हैं पति का प्यार पाने में और मेरी सफलता इन्हें चुभती है. इन के धनदौलत और रूपयौवन का क्या फायदा?

उसी समय हमारी जिंदगी में अनुराग आ गया, हमारे प्यार की निशानी. तब जिंदगी में जैसे एक संपूर्णता आ गई. मैं बहुत खुश तो थी पर दिल के किसी एक कोने में एक बात चुभ रही थी. कहीं प्रसव के बाद मेरा शरीर बेडौल हो गया तो? मैं सुंदरी तो नहीं थी पर मुझ में जो थोड़ाबहुत आकर्षण है, वह भी खो गया तो? पता नहीं कहां से एक असुरक्षा की भावना मेरे मन में कुलबुलाने लगी. एक बार शक या डर का बीज मन में पड़ जाता है तो वह महावृक्ष बन कर मानता है. मेरे मन में बारबार यह विचार आता कि तुम्हारा वास्ता तो सुंदरसुंदर लड़कियों से पड़ता है. तुम रोज नएनए लोगों से मिलते हो. कहीं तुम मुझ से ऊब कर दूर न हो जाओ. मैं तुम्हारे बिना अपने बारे में कुछ सोच भी नहीं सकती थी.

अब मैं तुम्हारी हर हरकत पर नजर रखने लगी. तुम कहांकहां जाते हो, किसकिस से मिलते हो, क्याक्या करते हो… यानी तुम्हारी छोटी से छोटी बात मुझे पता होती थी. इस के लिए मुझे कई पापड़ बेलने पड़े, क्योंकि यह काम इतना आसान नहीं था.

अब मैं दिनरात अपनेआप में कुढ़ती रहती. जब भी सुंदर और कामयाब स्त्रियां तुम्हारे आसपास होतीं, तो मैं ईर्ष्या की आग में जलती. तब कोई न कोई कड़वी बात मेरे मुंह से निकलती, जो सारे माहौल को खराब कर देती.

यहां तक कि घर में भी छिटपुट वादविवाद और चिड़चिड़ापन वातावरण को गरमा देता. मेरे अंदर जलती आग की आंच तुम तक पहुंच तो गई पर तुम नहीं समझ पाए कि इस का असली कारण क्या था. तुम्हारी भलमानसी को मैं क्या कहूं कि तुम अपनी तरफ से घर में शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश करते रहे. तुम समझते रहे कि घर में छोटे बच्चे का आना ही मेरे चिड़चिड़ेपन का कारण है. उसे मैं संभाल नहीं पा रही हूं. उस की देखभाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी के कारण मैं थक जाती हूं, इसीलिए मेरा व्यवहार इतना रूखा और चिड़चिड़ा हो गया है. तुम्हें अपने पर ग्लानि होने लगी कि तुम मुझे और बच्चे को इतना समय नहीं दे पा रहे हो, जितना देना चाहिए.

आज तुम्हारे सामने एक बात स्वीकारने में मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होगी. भले ही मेरी नादानी पर तुम जी खोल कर हंस लो या नाराज हो जाओ. अगर तुम नाराज भी हो गए तो मैं तुम से क्षमा मांग कर तुम्हें मना लूंगी. मैं जानती हूं कि तुम मुझ से ज्यादा देर तक नाराज नहीं रह सकते. सच कहूं? मेरी आंखें खोलने का सारा श्रेय मेरी सहेली सुरुचि को जाता है. जानते हो कल क्या हुआ था? मुझे अचानक तेज सिरदर्द हो गया था. लेकिन वास्तव में मुझे कोई सिरदर्द विरदर्द नहीं था. मैं अंदर ही अंदर जलन की ज्वाला में जल रही थी. यह बीमारी तो मुझे कई दिनों से हो गई थी जिस का तुम्हें आभास तक नहीं है. हो भी कैसे? तुम्हें उलटासीधा सोचना जो आता नहीं है. मगर सुरुचि को बहुत पहले ही अंदाजा हो गया था.

कल शाम मुझे अकेली माथे पर बल डाले बैठी देख वह मेरे पास आ कर बैठते हुए बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम यहां अकेली बैठ कर क्या कर रही हो. मैं कई दिनों से तुम से कहना चाह रही थी मगर मैं जानती हूं कि तुम बहुत संवेदनशील हो और दूसरी बात मुझे आशा थी कि तुम समझदार हो और अपने परिवार का बुराभला देरसवेर स्वयं समझ जाओगी. मगर अब मुझ से तुम्हारी हालत देखी नहीं जाती. तुम जो कुछ भी कर रही हो न वह बिलकुल गलत है. अपने मन को वश में रखना सीखो. लोगों को सही पहचानना सीखो. तुम्हारा सारा ध्यान अपने पति के इर्दगिर्द घूमती चकाचौंध कर देने वाली लड़कियों पर है. उन की भड़कीली चमक के कारण तुम्हें अपने पति का असली रूप भी नजर नहीं आ रहा है. अरे एक बार स्वच्छ मन से उन की आंखों में झांक कर देखो, वहां तुम्हारे लिए हिलोरें लेता प्यार नजर आएगा.

‘‘तुम पुरु भाईसाहब को तो जानती ही हो. वे इतने रंगीन मिजाज हैं कि रंगरेलियों का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. वही क्यों? इस ग्लैमर की दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं. ऐसे माहौल में तुम्हारे पति ऐसे लोगों से बिलकुल अलग हैं. पुरु भाई साहब की बीवी, बेचारी मीना कितनी दुखी होगी अपने पति के इस रंगीन मिजाज को ले कर. सब के बीच कितनी अपमानित महसूस करती होगी. किस से कहे वह अपना दुख? तुम जानती नहीं हो कि कितने लोग तुम्हारी जिंदगी से जलते हैं.

‘‘पुरु भाईसाहब जैसे लोग जब उन्हें गलत कामों के लिए उकसाते हैं. तब जानती हो वे क्या कहते हैं? देखो, घर के स्वादिष्ठ भोजन को छोड़ कर मैं सड़क की जूठी पत्तलों पर मुंह मारना पसंद नहीं करता. मेरी पत्नी मेरी सर्वस्व है. वह अपना सब कुछ छोड़छाड़ कर मेरे साथ आई है और अपना सर्वस्व मुझ पर निछावर करती है. उस की खुशी मेरी खुशी में है. वह मेरे दुख से दुखी हो कर आंसू बहाती है. ऐसी पत्नी को मैं धोखा नहीं दे सकता. वह मेरी प्रेरणा है. मेरी और मेरे परिवार की खुशहाली उसी के हाथों में है.’’

फिर सुरुचि ने मुझे डांटते हुए कहा ‘‘तुम्हें तो ऐसे पति को पा कर निहाल हो जाना चाहिए और अपनेआप को धन्य समझना चाहिए.’’

उस की इन बातों से मुझे अपनेआप पर ग्लानि हुई. उस के गले लग कर मैं इतनी रोई कि मेरे मन का सारा मैल धुल गया और मुझे असीम शांति मिली. मुझे ऐसा लगा जैसे धूप में भटकते राही को ठंडी छांव मिल गई. मैं तुम से माफी मांगना चाहती हूं और तुम्हारे सामने समर्पण करना चाहती हूं. अब ये तुम्हारे हाथ में है कि तुम अपनी इस भटकी हुई पुजारिन को अपनाते हो या ठुकरा देते हो.

मुंहबोली बहनें

मुंहबोली बहनें- भाग 2 : रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

‘‘हां, जैसे मुझे समझ में नहीं आता कि आप क्यों उन का काम करते हैं. उन पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए भला इस से अच्छा मौका और कहां मिलेगा आप को.’’ ‘‘अब तुम ही बताओ मम्मा, इस चुहिया की कुछ सहेलियां मेरे पास आ कर कहती हैं, प्लीज रोहन भैया, हमारा फलां काम करवा दीजिए तो मैं भला कैसे मना कर सकता हूं उन्हें? जब उन्होंने मुझे भैया कह दिया तो मेरी मुंहबोली बहनें हो गईं न और बहनों के प्रति भाई की कुछ जिम्मेदारी बनती है कि नहीं? और कुछ कहती हैं, ‘रोहनजी, प्लीज हमारा फलां काम… रोहनजी प्लीज’ कहने वालों के प्रति तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि न जाने भविष्य में इन में से किस के साथ मेरा रिश्ता जुड़ जाए, इसलिए उन के काम तो मैं अपनी तथाकथित बहनों के काम से भी ज्यादा रुचि और मन से करता हूं.’’

‘‘रोहन, तू सचमुच बिगड़ रहा है, जरूरत से ज्यादा नटखटपन अच्छी बात नहीं है, सोनाली तेरी बहन है तो इस की सहेलियां भी तेरी छोटी बहन ही हुईं. तुझे हरएक के साथ तमीज से पेश आना चाहिए,’’ ताईजी उन्हें समझाते हुए बोलीं. ‘‘मम्मा, अब आप भी सोनाली की भाषा न बोलिए. जिस ने मुझे भैया कह दिया वह तो मेरे लिए सोनाली के ही समान हो जाती है पर जो खुद ही मुझे भैया न कहना चाहे, ‘रोहनजी प्लीज…’ कहे तो वहां मैं नटखट कैसे हो गया? नटखट तो वह हुई न?’’

मुझे पता था कि रोहन भैया से बहस में जीतना असंभव है. उन की वाक्पटुता ने ही तो उन के व्यक्तित्व में चार चांद लगा कर उन्हें हमारे कालेज का हीरो बना कर मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर दी थी. कालेज में उन के चाहने वालों की एक लंबी कतार है.

इसीलिए बहुत सी युवतियां मुझे पुल बना कर उन तक पहुंचने की कोशिश में किसी न किसी बहाने मेरे आगेपीछे लग कर मेरा जीना मुश्किल करती रहती हैं. फिर जिन को रोहन भैया थोड़ा भी भाव दे देते हैं, वे तो तारीफों के पुल बांध कर उन्हें आकाश पर बैठा देतीं और जिन पर उन की नजरें इनायत नहीं होतीं वे उन में दस दोष निकाल देती हैं, मेरे लिए दोनों ही तरह की बातें सुनना बरदाश्त के बाहर हो जाता है और कई बार अनायास ही मैं लड़कियों से बहस कर बैठती हूं. ‘‘रोहन भैया, कालेज तक तो ठीक था पर अब तो आप ने मेरी सहेलियों के घर के चक्कर काटना और उन के घर जाना भी शुरू कर दिया है. आखिर क्या चाहते हैं आप?’’ सोनाली ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘ऐ छिपकली, तेरी कौन सी सहेली हूर की परी है जिस के घर के चक्कर मैं काटने लगा. जरा मैं भी तो सुनूं,’’ रोहन भैया अपनी हेकड़ी जमाते हुए बोले. ‘‘कल अनाइका के घर नहीं गए थे आप?’’ मैं ने खा जाने वाली नजरों से उन्हें घूरा.

‘‘अच्छा जिस के घर कल मैं गया था, उस का नाम अनाइका है? तब तो निश्चय ही वह हूर की परी होगी. अच्छा किया तुम ने मुझे बता दिया. अब कल उसे कालेज में गौर से देखूंगा,’’ कह कर रोहन भैया जोरजोर से हंसने लगे. ‘‘हद हो गई रोहन भैया, आप की बेशर्मी की,’’ मैं ने भी चिढ़ कर अपनी मर्यादा की सीमा लांघते हुए कहा.

‘‘देख सोनाली, मैं तेरी बात को हंस कर टाल रहा हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि तू जो मन में आए बोलती जाए और एक बात साफसाफ सुन ले, मैं नहीं गया था किसी अनाइका के घर का चक्कर काटने. मैं अपने दोस्त संवेग के घर गया था. तेरी उस हूर की परी का घर भी वहीं था, उस ने मुझे देख कर अपने घर आने को कहा तो मैं चला गया. इस में मेरी क्या गलती है?’’ ‘‘आप की गलती यही है कि आप उस के घर गए. उस ने आप को बुलाया या आप वहां गए, मैं नहीं जानती पर आप का अनाइका के घर जाना ही आज कालेज में दिन भर चर्चा का विषय बना रहा था.

सब बोल रहे थे कि अनाइका और रोहन के बीच कुछ चल रहा है. आप सोच भी नहीं सकते कि यह सब सुन कर मेरा दिमाग कितना खराब होता है. रोज किसी न किसी के साथ आप का नाम जोड़ा जाता है. मुझे लग रहा था अब आप सुधर रहे हैं कि तभी अनाइका का नाम लिस्ट में जुड़ गया.’’

 

मुंहबोली बहनें- भाग 1 : रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

आज अनाइका के मुंह से यह सुन कर कि कल रोहन भैया उस के घर गए थे, मेरा दिमाग खराब हो गया. मैं ने मन ही मन तय किया कि आज कालेज से सीधा ताईजी के घर जाऊंगी और रोहन भैया की अच्छी खबर लूंगी. नाक में दम कर रखा है भैया ने अपनी हरकतों से. लाख बार समझा चुकी हूं उन्हें, पर उन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती.

अपनी इज्जत का तो फालूदा बना ही रहे हैं साथ ही मेरी भी छीछालेदर करवा रहे हैं. कालेज में सारा दिन मैं तमतमाई सी ही रही और कालेज छूटते ही मैं ने अपनी स्कूटी ताईजी के घर की ओर मोड़ ली. ताईजी मुझे देख कर बहुत खुश हुईं, ‘‘अरे सोनाली, तू इस समय? लगता है सीधा कालेज से ही आ रही है, तब तो तुझे भी जोर की भूख लगी होगी. चल, फटाफट हाथमुंह धो कर आ जा, मैं रोहन का खाना ही लगाने जा रही थी, वह भी बस अभीअभी कालेज से आया है.’’

‘‘ताईजी, खाना तो आप रोहन भैया को ही खिलाइए, मैं तो आज उन का खून पी कर ही अपना पेट भरूंगी,’’ कह कर मैं धड़धड़ाती हुई रोहन भैया के कमरे में घुस गई. ‘‘अरे मम्मा, आप ने इस भूखी शेरनी को मेरे कमरे में क्यों भेज दिया? यह तो लगता है मुझे कच्चा ही चबाने आई है,’’ मेरे तेवर और हावभाव देख कर रोहन भैया पलंग और कुरसी लांघते हुए भाग कर किचन में ताईजी की बगल में आ खड़े हुए.

‘‘ताईजी, आप रोहन भैया को समझा दीजिए, मेरा दिमाग और खराब न करें वरना मैं या तो इन्हें जान से मार डालूंगी या खुद आत्महत्या कर लूंगी, पक गई हूं मैं इन की हरकतों से.’’ ‘‘बहन, तू मुझे मारने का आइडिया दिमाग से निकाल दे, उस में काफी प्लानिंग की जरूरत पड़ेगी, ऐसा कर तू ही आत्महत्या कर ले, वही तेरे लिए सरल और परिवार के लिए कम दुखद होगा. मेरे पीछे क्यों पड़ी है तू? और हां, तुझे रस्सी, चूहा मारने की दवा या रेल समयसारिणी जो भी चाहिए बता देना, मैं सब उपलब्ध करा दूंगा. मेरे होते हुए तू भागदौड़ न करना,’’ रोहन भैया ने ऐसा कह कर मेरे गुस्से की आग में 4 चम्मच घी और उड़ेल दिए.

‘‘देखा ताईजी, कैसा जी जलाते हैं, भैया. आप भी इन्हें कुछ नहीं कहतीं इसीलिए तो बिगड़ते जा रहे हैं.’’ ‘‘हुआ क्या है, पहले तू मुझे कुछ बताए, तब तो मैं समझूं. तू तो जब से आई है बस, खूनखराबे की ही बातें किए जा रही है. मैं कुछ समझूं तब तो कुछ बोलूं,’’ ताईजी हंसते हुए बोलीं.

‘‘ताईजी, आप इन्हें समझा दीजिए कि मेरी सहेलियों का पीछा करना छोड़ दें,’’ सोनाली गुस्से से बोली. ‘‘ओए कद्दू, कौन करता है तेरी सहेलियों का पीछा? वही मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. कोई कहती है, ‘रोहनजी, प्लीज मेरा लाइब्रेरी कार्ड बनवा दीजिए, रोहन भैया काउंटर पर बड़ी लंबी कतार लगी है, आप प्लीज मेरी फीस जमा करा दीजिए,’ अब कोई इतने प्यार से विनती करे तो मैं कोई पत्थर दिल तो हूं नहीं, जो पिघलूं न? छोटेमोटे काम कर देता हूं. क्या करूं मेरा दिल ही कुछ ऐसा है, किसी को मना कर ही नहीं पाता हूं,’’ अपनी विवशता बताते हुए रोहन बोला.

 

बंधन टूट गए : भाग 2

पर कालिंदी उस की बात ही नहीं मान रही थी, मानो वह अपने बाड़े से निकलना ही नहीं चाह रही हो. सुहानी देवी कुछ देर तक यह सब देखती रही, पर जब उस से नहीं रहा गया तो खुद उस नौजवान के पास गई और बोली, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है और इसे क्यों घसीट रहे हो?’’ ‘‘मालकिन, मेरा नाम बातुल है. मालिक ने मुझे जानवरों की साफसफाई के लिए रखा है.’’ ‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ उस नौजवान ने बड़े अदब से जवाब दिया, ‘‘दरअसल, कालिंदी ने इस रस्सी को अपने गले में उलझा लिया है. हम इसे बाहर ला कर इस के बंधन को सुलझाना चाहते हैं, पर यह है कि अपने फंदे में ही फंसी रहना चाह रही है. यह खुद भी परेशान है, पर फिर भी निकलना नहीं चाहती.’’ बातुल की बातें सुहानी देवी के कानों से टकराईं और सीधा उस के मन में उतरती चली गईं. ‘‘ठीक है, ठीक है… पर यह नाम बड़ा अजीब सा है, बातुल…’’ बोलते हुए हंस पड़ी थी सुहानी. बातुल ने बताया कि उसे बचपन से ही बहुत बोलने की आदत है,

इसलिए गांव में सब उसे ‘बातुल’ कह कर ही बुलाते हैं. बातोंबातों में बातुल ने यह भी बताया कि गांव वापस आने से पहले वह शहर में भी काम कर चुका है. बातुल के मुंह से शहर का नाम सुन कर सुहानी देवी के मन में जैसे कुछ जाग उठा था. बातुल के रूप में ठकुराइन को बात करने वाला कोई मिल गया था. ठाकुर भवानी सिंह के जाने के बाद सुहानी देवी अपनी सास से कुछ बहाना कर के हवेली की छत पर चली जाती और बातुल को काम करते देखती रहती और फिर खुद ही बातुल से कुछ न कुछ काम बताती. आज ठाकुर साहब सुबहसुबह ही शहर चले गए और बातुल को शाम के लिए मछली लाने को बोल गए. दोपहर में बातुल अपने कंधे पर मछली पकड़ने वाला जाल ले कर आता दिखा. उस में कई सारी मछलियां फंसी हुई थीं और तड़प रही थीं. बातुल ने जाल जमीन पर पटक दिया और सभी मछलियों को निकाल कर पास ही बने एक कच्चे गड्ढे में डाल दिया और उस में ऊपर तक पानी भर दिया, ताकि वे सब शाम तक जिंदा रहें और ठाकुर साहब के आने पर उन्हें पकाया जा सके.

सुहानी देवी ने देखा कि जो मछलियां अब तक पानी के बिना तड़प रही थीं, वे पानी पाते ही कितनी तेज तैर रही थीं मानो उन्होंने जिंदगी ही पा ली हो. सुहानी देवी अभी मछलियों को देख ही रही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. सुहानी देवी ने आवाज लगा कर बातुल को हवेली के अंदर आने को कहा और खुद बारिश का मजा लेने लगी. बारिश मूसलाधार हो रही थी. चारों तरफ पानी भर गया था और उस मछली वाले गड्ढे और बाहर आंगन में पानी का लैवल बराबर हो जाने के चलते गड्ढे की मछलियां जलधारा के साथ बाहर बह चली थी. यह सीन देख कर सुहानी देवी भूल गई थी कि वह एक ठकुराइन है. वह खुश हो कर ताली बजाने लगी और बातुल के कंधे पर हाथ रख दिया. एक ठकुराइन के छुए जाने के चलते एकसाथ कई सवाल बातुल की आंखों में तैर गए थे और उस की नसों में दौड़ते खून की तेजी में उतारचढ़ाव आने लगा था. बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

सुहानी देवी का मन किया कि वह बाहर आंगन में जा कर भीगे, अपने सारे गहने उतार कर नहाए, पर ठकुराइन की मर्यादा ने उसे रोके रखा था. ठाकुर शहर से वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि बारिश तेज है और बातुल को भी इसी वजह से आज हवेली में ही रुकना होगा. सास सो गई थीं. बातुल खाना खा कर हवेली के नीचे वाले हिस्से में सोने चला गया था. सुहानी देवी ने सोने से पहले अपने कमरे का दरवाजा जानबूझ कर क्यों खुला छोड़ दिया था, इस का जवाब खुद उस के पास भी नहीं था. उसी दरवाजे से दबे पैर कोई आया और सीधा सुहानी देवी से लिपट गया. वह भी किसी लता की तरह लिपट गई और फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘हां, जैसे तुम जानती नहीं…’’ उस की यह बात सुन कर सुहानी देवी ने बातुल का सिर अपने सीने के बीचोंबीच भींच लिया और दोनों सैक्स का मजा लेने लगे. एक बार, 2 बार… 3 बार… न जाने कितनी बार हवेली के उस कमरे में ज्वालामुखी का उबाल आया था. आज वहां ऊंचनीच और जातिधर्म की दीवार गिर गई थी. सुहानी देवी को बातुल से प्यार हो गया था. उस दिन के बाद से तो न जाने कितनी बार बातुल और सुहानी देवी ने अपने इस प्यार को भोगा था. अगले दिन सुहानी देवी फिर से भारी गहनों और कपड़ों में लदी हुई थी. बातुल आया, तो उस के एक हाथ में सांप की केंचुली थी.

‘‘यह क्या है?’’ सुहानी ने पूछा. ‘‘केंचुली है ठकुराइन… जब यह पुरानी हो जाती है, तो सांप इस में एक बंधन महसूस करता है और ठीक समय पर वह पुरानी केंचुली को उतार फेंक छुटकारे का अहसास करता है.’’ सुहानी देवी बातुल की बातों को सुन रही थी. उस के दिमाग में बंधन, मुक्ति जैसे शब्द लगातार गूंज रहे थे. 2 दिन बाद ठाकुर भवानी सिंह शहर से लौटे थे. वे सुहानी देवी के लिए सच्चे मोतियों का एक हार लाए थे. उन्होंने वह हार सुहानी देवी के गले में डाल दिया, पर उस के चेहरे को देखा तक नहीं. ठाकुर भवानी सिंह अपने चमचों के बीच बैठ कर रैडलाइट एरिया की बातें करते रहते. इस बार उन के मुंह से कुछ औरतों के नाम भी निकल रहे थे. एक अनजाने सौतिया डाह में जल उठी थी सुहानी देवी. ‘‘अगर गंदे एरिया में जा कर रासरंग ही करना था ठाकुर को तो फिर मुझ से ब्याह ही क्यों रचाया? मैं परंपरा निभाने और दिखावे के लिए मात्र एक गुडि़या की तरह हूं,’’ गुस्से की ज्वाला धधक उठी थी सुहानी देवी के मन में.

ठाकुर भवानी सिंह का शहर जा कर रैडलाइट एरिया में मजे करना बदस्तूर जारी रहा, पर अब सुहानी देवी को भी इस बात की कोई चिंता नहीं थी. उसे तो बातुल के रूप में एक प्यार करने वाला मिल गया था, जिस से वह अपने मन का हर दर्द कह सकती थी और उस की बांहों में अपने अंदर की औरत को महसूस कर सकती थी. पर, आज पूरे 3 दिन बीत गए थे, बातुल हवेली की दहलीज पर सलाम बजाने भी नहीं आया था. ‘कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया बातुल के साथ?’ सुहानी देवी का बेचैन मन बारबार हवेली के दरवाजे की तरफ देख रहा था. रात हो चली थी.

ठाकुर को तो आज आना नहीं था. बातुल से बात करने का मन कर रहा था, उस की खैरियत की भी चिंता हो रही थी. लिहाजा, सास के सो जाने के बाद सुहानी देवी पिछले दरवाजे से बाहर निकली और सीधा बातुल के घर के बाहर जा पहुंची. दरवाजा अंदर से बंद था, पर भीतर से बातुल की आवाज बाहर तक आ रही थी. सुहानी देवी ने दरवाजे की झिर्री से आंख सटा दी. अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई थी. बातुल किसी दूसरी औरत से मजे ले रहा था. ‘‘ठकुराइन ने मुझे बहुत मजा दिया, बहुत मस्त थी उस की जवानी… ठाकुर की रैडलाइट एरिया में मुंह मारने की आदत का मैं ने खूब फायदा उठाया…’’ ‘‘इस का मतलब… तुम नमकहराम हो. जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया,’’ बातुल की बांहों में लेटी औरत ने कहा. ‘‘नहीं, मैं एक व्यापारी हूं… जिसे जो चाहिए था, मैं ने उसे वह दिया और फिर ठाकुर भी तो शहर में जा कर मुंह मारता है, तो मैं नमकहराम कैसे?’’

 

ई. एम. आई. – भाग 3 : क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

बाबूजी और सोम में बोलचाल बंद हो गई थी. वह उन के सामने भी नहीं पड़ता था. धीरेधीरे लगभग 1 साल बीत गया. एक बार अम्मां की ममता जाग उठी. बोलीं, ‘‘लल्ला, तुम उस छोरी से चुपचाप कचहरी में लिखापढ़ी से ब्याह कर लो. तुम्हारे बाबूजी गांव भर में पंडिताई करते हैं, इसलिए अपनी बदनामी से डरते हैं. तुम बाद में बहू को ले कर आ जाना. हम सब संभाल लेंगे.’’

दिल्ली लौट कर सोम ने कोर्ट में शादी के लिए अर्जी दे दी और नियत तिथि को उदास मन से शादी कर ली. शादी में कोई धूमधाम न होने से दोनों के मन में बड़ा मलाल था.

समिधा ने सोम की उदासी परखते हुए कुछ दिन बाद उस के गांव चलने का प्रस्ताव रखा. सोम अम्मांबाबूजी के स्वभाव से परिचित था. उस ने उसे समझाया, ‘‘तुम उन के क्रोध को नहीं जानती हो. वे न जाने कैसी प्रतिक्रिया करेंगे.’’

वैसे वह भी समिधा को सब से मिलवाना चाहता था. नए जीवन की शुरुआत पर अम्मां बाबूजी का आशीर्वाद लेना चाहता था. उस ने अम्मां को फोन किया, ‘‘अम्मां, आप के कहे अनुसार हम ने कचहरी में शादी कर ली है, अब हम दोनों आप लोगों का आशीर्वाद चाहते हैं.’’

अम्मां जैसे इंतजार ही कर रही थीं. तुरंत बोलीं, ‘‘आ जाओ, हम भी तो तुम्हारी परकटी परी को अपनी आंखों से देखें, जिस ने हमारे लल्ला को फंसा लिया है.’’

समिधा के बाल कटे हुए थे. आज्ञा पाते ही सोम खुशी से उछल पड़ा. वह बाजार जा कर बाबूजी के लिए सिल्क का कुरता, धोती और ऊनी दोशाला लाया. अम्मां के लिए सुंदर सी साड़ी और शाल लाया. सरिताजी ने भी अपनी ओर से उन के लिए उपहार दिए.

सोम के मन में रास्ते भर उमड़घुमड़ मची रही. वह घर रात के अंधेरे में पहुंचा. संयोगवश दरवाजा बाबूजी ने ही खोला. सोम को देखते ही वे मुंह फेर ही रहे थे कि समिधा उन के पैरों पर गिर पड़ी. बाबूजी थोड़ा सकपकाए, परंतु तुरंत ही सब समझ गए. फिर अप्रत्याशित रूप से आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘‘सदा प्रसन्न रहो.’’

सोम का दिल बल्लियों उछल रहा था, परंतु यह क्या? बाबूजी ने अम्मां को आवाज दी, ‘‘उठो, तुम्हारा लाड़ला बहू ले कर आया है. न ढोल न नगाड़ा बस बेटे का ब्याह हो गया.’’ अम्मां ने आ कर दोनों को गले से लगा लिया. आंसुओं की धारा में सारा कलुष बह गया. बाबूजी भी चुपचाप अपने आंसू पोंछते रहे.

अगली सुबह ही अम्मां ने आदमी भेज कर अपनी बेटी सुनंदा को बुला लिया. वह सपरिवार आ गई. घर में खूब रौनक हो गई. बाबूजी ने कोई कसर न छोड़ी. गांव वालों को दावत दी. अम्मां ने समिधा को अपना हार पहना दिया.

सोम बहुत खुश था. उस ने स्वप्न में भी बाबूजी द्वारा ऐसे स्वागत के बारे में नहीं सोचा था. दोनों की गृहस्थी की गाड़ी रफ्तार से चल निकली थी. एक की पूरी तनख्वाह ई.एम.आई.  चुकाने में चली जाती थी, एक की तनख्वाह से घर चलता था. सोम अम्मांबाबूजी को हर महीने कुछ पैसा भेजता था, साथ ही सुनंदाजी की भी कुछ न कुछ मदद करता रहता था, इसलिए उस का हाथ हमेशा तंग रहता था.

‘‘सोम, कहां खो गए हो?’’

समिधा की आवाज से उस की विचार तंद्रा भंग हो गई. ट्रेन के आने की घोषणा हो गई थी. वह वर्तमान में लौट आया था. वह तेजी से अम्मांबाबूजी के डब्बे की ओर चल पड़ा.

‘‘प्लीज, अम्मां का ध्यान रखना,’’ सोम कहना नहीं भूला. उस ने लोन पर गाड़ी भी खरीद ली थी. उन लोगों को वह अपनी गाड़ी में दिल्ली घुमाने ले जाएगा, यह उस की चाहत थी.

सोम की अम्मां 65 वर्ष की बुजुर्ग महिला थीं. उन का पूरा जीवन गांव में गरीबी में बीता था. पहली बार वे दिल्ली आई थीं. प्लेटफार्म की भीड़ देख कर वे हैरान थीं. सड़कों पर लोगों की आवाजाही और गाडि़यों की कतार उन के लिए नई चीज थी. ऊंचीऊंची अट्टालिकाओं की भव्यता से वे हतप्रभ थीं. रोशनी की जगमग देख वे बोल उठीं, ‘‘का हो लल्ला, कोई मेला है क्या?’’

‘‘नहीं अम्मां, लोग काम से आतेजाते रहते हैं. यह देश की राजधानी दिल्ली है.’’

लिफ्ट से ऊपरी मंजिल पर चढ़ना भी उन के लिए अनोखा अनुभव था. सोम का फ्लैट छठी मंजिल पर था. सोम के ड्राइंगरूम में सोफासैट आदि सामान देख कर उन की आंखें फटी की फटी रह गईं.

‘‘सोम, इतने सामान में तो बहुत रुपया लगा होगा?’’

‘‘नहीं अम्मां, हम लोगों ने एकएक कर के पुरानी चीजें खरीद ली हैं.’’

साथी साथ निभाना

ई. एम. आई. – भाग 4 : क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

सोम के 70 वर्षीय पिता दमा के मरीज थे. वे अकसर खांसते रहते थे. उस की दिली इच्छा थी कि वह बाबूजी का अच्छी तरह से इलाज कराए. वह उन्हें एक बड़े अस्पताल में दिखाने के लिए ले गया. उन की दवा और खानेपीने का पूरा खयाल रखा. बाबूजी उस से बहुत खुश थे. परंतु सोम का बजट थोड़ा गड़बड़ाने लगा था. फिर भी बाबूजी की सेवा कर के वह बहुत खुश था.

दवा के बड़े लिफाफे को देख कर अम्मां एक दिन बोलीं, ‘‘बुढ़ऊ की तो सारी उमर खांसत बीत गई, अब काहे को इन के लिए डाक्टरों की जेब में रुपया भर रहे हो. बहुत ज्यादा है तो बहन सुनंदा को कुछ भेज दो, उसे सहारा हो जाएगा.’’

उसे अच्छा नहीं लगा. ‘‘अम्मां, आप तो बस कुछ भी बोलती रहती हैं,’’ उस ने कहा, फिर बात बढ़ न जाए, यह सोच वह उठ कर अपने कमरे में चला गया. जब से अम्मां ने सोम का घर और रहनसहन देखा है, तब से उन्हें सुनंदा की याद बारबार आ रही थी.

समिधा समय से अम्मांबाबूजी को चायनाश्ता देती थी, खाना बना कर ही औफिस जाती थी, फिर भी अम्मां उसे पसंद नहीं करती थीं. हालांकि वह ज्यादा कुछ नहीं बोलती थीं, लेकिन उन के चेहरे के हावभाव व आंखें बहुत कुछ कह देती थीं.

एक दिन बोलीं, ‘‘बहू, अब औफिस जाना बंद करो. ऐसी हालत में घर से निकलना ठीक नहीं है. अगर कुछ उलटासीधा हो गया तो सब हाथ मलते रह जाएंगे.’’

उस ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां, बाद में भी छुट्टी लेनी है, इसलिए ज्यादा छुट्टी ले लेंगे तो तनख्वाह कट जाएगी.’’

एकदम बिगड़ कर वे बोलीं, ‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे मेरा सोम ढफली बजाता है, तुम्हीं रोटी चलाती हो.’’

इसी तरह कुछ न कुछ रोज होता रहता. समिधा तनाव से ग्रस्त हो जाती, परंतु उस ने मर्यादा का सदा ध्यान रखा. सोम व समिधा बच्चे को ले कर नित्य नई कल्पनाएं करते. समिधा ने पहले से ही छोटे बच्चे के लिए कपड़े, स्वैटर, मोजे आदि बना रखे थे. अम्मां भी दादी बनने की कल्पना से अत्यंत खुश थीं. वह मन से कोमल थीं, केवल जबान की तीखी थीं.

इंतजार की घडि़यां पूरी हुईं. समिधा ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया. अम्मांबाबूजी तो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. पूरे वार्ड में घूमघूम कर उन्होंने लड्डू बांटे. प्यार से समिधा के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया. अम्मां बच्चे के ऊपर रुपए निछावर कर के आया को दे आईं. समिधा और सोम भी प्यारे से गोलू को पा कर निहाल हो उठे थे.

वह घर आ गई थी. अम्मां अपने साथ गांव से घी लाई थीं. उन्होंने प्यार से उस के लिए हलवा, सोंठ के लड्डू और गोंद की बरफी बनाई. बचपन से मां के अभाव में पलीबढ़ी वह सास के लाड़प्यार से अभिभूत हो उठी थी. उन की प्यार भरी देखभाल से उस की सेहत और रूप निखर उठा था. इतना सब करने के बाद भी अम्मां की दिखावे की आदत ने घर में कलुषता घोल दी.

एक दिन वे बोलीं, ‘‘सोम, तुम्हारे बेटा हुआ है, बहन सुनंदा को क्या दोगे?’’

‘‘अम्मां अभी तो अस्पताल वगैरह में बहुत रुपए खर्च हो गए हैं, इसलिए बाद में आप जो कहिएगा वह दे देंगे.’’

अम्मां सुनते ही बिफर पड़ीं, ‘‘तुम दोनों का तो हिसाब ही नहीं समझ आता है. दोनों सुबह के गए रात में घर घुसते हो. दोनों हाथ से कमा रहे हो, फिर भी बहन को देने के नाम पर कुछ है ही नहीं.’’

अम्मां का पारा गरम हो गया था. उन की आदत थी कि जब उन के मन का काम नहीं होता था, वे मुंह फुला कर बैठ जाती थीं. उन की चुप्पी उन के गुस्से की द्योतक थी. चेहरे के हावभाव बिगड़ेबिगड़े थे. समिधा समझ रही थी कि स्थिति नाजुक है. उस ने समझदारी से गोलू को उन की गोद में दे दिया. गोलू को देख कर वे थोड़ी सामान्य हुईं.

एक दिन अम्मां कोने में खड़ी हो कर सुनंदा जीजी से फोन पर धीरेधीरे बातें कर रही थीं. समिधा वहां से गुजरी तो उसे सुनाई पड़ा कि सुनंदा तुम छोटी हो, तुम्हें भाईभाभी को कुछ भी देने की जरूरत नहीं है. वे तुम से बड़े हैं. तुम अपने पैसे मत खर्च करना. बस जब आना तो गोलू के लिए एक जोड़ी कपड़े ले आना. सोम के पास तो तुम्हें देने के लिए कुछ है ही नहीं. समिधा चुप्पी है, लेकिन है पूरी घाघ. वही सोम को भरती रहती है.

इन बातों को सुन कर समिधा का दिल टूट गया. वह अम्मां को कैसे समझाए कि वह किस तरह से ई.एम.आई. के शिकंजे में फंसी हुई है. अम्मां को तो इस घर की ऊपरी चमकदमक दिख रही है, परंतु इस के अंदर की कहानी का उन्हें क्या पता?

गोलू 3 महीने का होने वाला था. समिधा की छुट्टियां समाप्त होने वाली थीं. अभी तक तो वह घर में रह कर सब कुछ अच्छी तरह संभाल रही थी. कल से उसे औफिस जाना है. उस ने सुबह जल्दी उठ कर जल्दीजल्दी नाश्ता और खाना बना दिया, फिर अपना और सोम का टिफिन भी तैयार कर लिया, लेकिन गोलू को छोड़ कर जाते समय उस की आंखें भर आईं. सोम से बोली, ‘‘मुझ से गोलू को छोड़ कर नौकरी नहीं हो पाएगी.’’

वह नाराज हो उठा, ‘‘मैं समझता हूं कि तुम्हें परेशानी हो रही है, लेकिन क्या करूं. तुम्हारी नौकरी मेरी मजबूरी है. इसीलिए मैं अभी बच्चे के लिए मना कर रहा था.’’

औफिस में उस का बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था. अम्मां के लिए भी दिन भर गोलू को रखना भारी पड़ रहा था. अत: अम्मां की परेशानी को समझ कर उन की सहायता के लिए आया सुशीला को रख दिया. 2-4 दिन तो अम्मां सुशीला के साथ खुश रहीं, फिर शुरू हो गईं उन की शिकायतें. वह औफिस से आती तो गोलू और सुशीला दोनों की शिकायतों का लंबा पुलिंदा अम्मां की जबान पर तैयार रहता.

सुशीला के लिए अम्मां का कहना था कि सारे काम तो वे खुद करती हैं, यह तो बैठे रहने का पैसा लेती है. समिधा ने उन्हें कई बार समझाया कि आप इस को लगाए रखें, नहीं तो आप परेशान हो जाएंगी.

सुशीला 15-16 वर्ष की लड़की थी. उस में बचपना था. वह फटाफट काम कर के टीवी देखने लग जाती, जो अम्मां को नागवार गुजरता था. समिधा ने अम्मां को खुश करने के लिहाज से कई बार सुशीला को जोरदार डांट पिलाई, परंतु अम्मां जिस से चिढ़ जाएं उन्हें उस की शक्ल से भी नफरत हो जाती थी.

आखिर एक दिन उन्होंने उसे भगा दिया. वह औफिस से आई तो उस से बोलीं, ‘‘समिधा तुम नौकरी छोड़ दो, तुम्हारी नौकरी के कारण मैं भी यहां परेशान रहती हूं और यह नन्हा गोलू भी. तुम घर में रहोगी तभी मैं यहां रह पाऊंगी, नहीं तो मैं गांव चली जाऊंगी.’’

समिधा सन्न रह गई. उस की सारी छुट्टियां समाप्त हो चुकी थीं. वह तो स्वयं गोलू के बिना औफिस में कैसे समय बिताती है वही जानती है, परंतु वह क्या करे? नौकरी तो उस की मजबूरी है. वह गोलू को अपने से चिपटा कर सिसक उठी. वह बारबार गोलू को चूमती जा रही थी. तभी सोम आ गया.

‘‘समिधा क्या बात है?’’

वह आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘अम्मां मुझ से नौकरी छोड़ने को कह रही हैं, नहीं तो वे गांव चली जाएंगी.’’

वह घबरा कर बोला, ‘‘मैं ने तुम से पहले ही कहा था, अभी बच्चे के चक्कर में मत पड़ो, लेकिन तुम ने माना नहीं. अब क्या होगा? मैं तो जानता था वे यहां नहीं टिक सकतीं.’’

अम्मां जल्दीजल्दी बड़बड़ाती हुए सामान समेटने में लगी थीं. ‘बच्चा रोए तो रोए, सुबहसुबह सजधज कर घर से निकल जाना. नौकरी तो बहाना है. हम सब समझते हैं. सोम सीधा है, इसलिए जो जी में आता है वह करती है. उसे तो उंगली पर नचाती है. क्या हमारा सोम कमाता नहीं है?’ अनापशनाप बोलती जा रही थीं वे.

इन अनर्गल बातों को सुन कर सोम अपना आपा खो बैठा, ‘‘अम्मां सुनो, आप को जाना है तो जाइए, लेकिन जाने से पहले मेरी बात सुन लीजिए. आप को मेरे कमरे का सोफासैट, टीवी, फ्रिज दिखाई पड़ रहा है और मेरी गाड़ी भी दिख रही है. ये सब हम लोगों ने लोन से खरीदा है. इन चीजों के लिए हम लोग दिनरात मेहनत करते हैं. ओवरटाइम कर के आधीआधी रात में घर लौटते हैं ताकि ई.एम.आई. चुका सकें. जैसे आप लोग गांव में साहूकार से कर्ज ले कर अपना काम चलाते हैं, वैसे ही हम लोग यहां बैंक से कर्ज लेते हैं, उस का ब्याज और किस्त हमारी तनख्वाह से कटता रहता है. ब्याज चुकाने के बाद जो रुपए बचते हैं, हमें उन्हीं से गुजरबसर करना पड़ता है.

‘‘समिधा की तनख्वाह तो मुझ से ज्यादा है. यदि नौकरी छोड़नी है तो मैं छोड़ूं, क्योंकि मेरी कमाई कम है. पहले तो आप उस से कहती रहीं, तुम मां बन जाओ, हम लोग तुम्हारे पास रह कर बच्चे की देखभाल करेंगे. अब आप हमें मझधार में छोड़ कर गांव जाने को तैयार हैं. सब गड़बड़ समिधा की जिद के कारण हुआ है. हर समय आप सुनंदा को ले कर रोती रहती हैं, लेकिन सुनंदा की परेशानी का कारण आप हैं. जल्दबाजी में छोटी उम्र में उस का विवाह अनपढ़ लड़के से कर दिया. कच्ची उम्र और नासमझी में आज वह 4 बच्चों की मां है. जीजाजी को शराब की लत लग गई है. आमदनी अठन्नी है और खर्चा रुपया. हम से जितना बनता है हर महीने उन की मदद

कर देते हैं. आप क्या समझती हैं? समिधा नौकरी छोड़ देगी तो समझ लीजिए खाने के लाले पड़ जाएंगे.’’

‘‘बस करिए सोम,’’ समिधा बीच में आ गई और उसे पकड़ कर अपने कमरे में ले गई. घर में सन्नाटा छा गया था.

वह मन ही मन सोचने लगी, क्या जिंदगी है, हर क्षण संघर्ष, पलपल नई लड़ाई. किस तरह सोम से छल कर के इस प्यारे गोलू को मैं पाने में कामयाब हो पाई हूं, तो अब उस को पालने का संकट. क्या हम मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की यही कहानी है.

आसू पोंछती हुई वह हिम्मत कर के अम्मां के पास आई और बोली, ‘‘अम्मां, मैं तो बचपन से ही अनाथ थी. बूआ ने पालपोस कर बड़ा किया, फिर वह भी इस दुनिया से चली गईं. मेरी झोली दोबारा खुशियों से भर गई, जो आप जैसे अम्मांबाबूजी मिल गए. पहले आप की एक बेटी थी, अब आप की 2 बेटियां हैं. नौकरी तो मेरी मजबूरी है. आप मेरे दर्द और मजबूरी को समझिए. मुझे भी गोलू को छोड़ कर जाने में तकलीफ होती है, लेकिन क्या करूं?’’ वह फूटफूट कर रो पड़ी.

अम्मां का दिल पिघल उठा. वे समिधा को गले से लगा कर बोलीं, ‘‘मत रो बेटी, मैं गांव की अनपढ़ यह सब क्या जानूं. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. सच, मुझे तो बहुत खुश होना चाहिए, जो मुझे तुम जैसी समझदार बेटी मिली. सुशीला को फोन कर दो, कहना अम्मां कह रही हैं चुपचाप कल से आ जाए और तुम निश्चिंत हो कर अपना कर्जा अमाई, क्या कहते हैं.

साथी साथ निभाना – भाग 3 : संजीव ने ऐसा क्या किया कि नेहा की सोच बदल गई

‘‘मेरे मुंह से तो वहां एक शब्द भी नहीं निकलेगा. उस स्थिति की कल्पना कर के ही मेरी जान निकली जा रही है,’’ नेहा की आवाज में कंपन था.

‘‘तुम बस मेरे साथ रहना. वहां बोलना कुछ नहीं पड़ेगा तुम्हें.’’

‘‘मुझे सचमुच लड़नाझगड़ना नहीं आता है.’’

‘‘वह सब तुम मुझ पर छोड़ दो. किसी औरत से उलझने के समय पुरुष के साथ एक औरत का होना सही रहता है.’’

‘‘ठीक है, मैं आ जाऊंगी,’’ नेहा का यह जवाब सुन कर संजीव खुश हुआ और पहली बार उस ने अपनी पत्नी से कुछ देर अच्छे मूड में बातें कीं.

बाद में जब नेहा ने अपने मातापिता को सारी बात बताई, तो उन्होंने फौरन उस के इस झंझट में पड़ने का विरोध किया.

‘‘सविता जैसी गिरे चरित्र वाली औरतों से उलझना ठीक नहीं बेटी,’’ नीरजा ने उसे घबराए अंदाज में समझाया, ‘‘उन के संगीसाथी भले लोग नहीं होते. संजीव या तुम पर उस ने कोई झूठा आरोप लगा कर पुलिस बुला ली, तो क्या होगा?’’

‘‘नेहा, तुम्हें संजीव के भैयाभाभी की समस्या में फंसने की जरूरत ही क्या है?

तुम्हारे संस्कार अलग तरह के हैं. देखो, कैसे ठंडे पड़ गए हैं तुम्हारे हाथ… चेहरे का रंग उड़ गया है. तुम कल नहीं जाओगी,’’ राजेंद्रजी ने सख्ती से अपना फैसला नेहा को सुना दिया.

‘‘पापा, संजीव को मेरा न जाना बुरा लगेगा,’’ नेहा रोंआसी हो गई.

‘‘उस से मैं कल सुबह बात कर लूंगा. लेकिन अपनी तबीयत खराब कर के तुम किसी का भला करने की मूर्खता नहीं करोगी.’’

नेहा रात भर तनाव की वजह से सो नहीं पाई. सुबह उसे 2 बार उलटियां भी हो गईं. ब्लडप्रैशर गिर जाने की वजह से चक्कर भी आने लगे. वह इस कदर निढाल हो गई कि 4 कदम चलना उस के लिए मुश्किल हो गया. वह तब चाह कर भी संजीव के साथ सविता से मिलने नहीं जा सकती थी.’’

राजेंद्रजी ने सुबह फोन कर के नेहा की बिगड़ी तबीयत की जानकारी संजीव को दे दी.

संजीव को उन के कहे पर विश्वास नहीं हुआ. उस ने रूखे लहजे में उन से इतना ही कहा, ‘‘जरा सी समस्या का सामना करने पर जिस लड़की के हाथपैर फूल जाएं और जो मुकाबला करने के बजाय भाग खड़ा होना बेहतर समझे, मेरे खयाल से उस की शादी ही उस के मातापिता को नहीं करनी चाहिए.’’

राजेंद्रजी कुछ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूर चाहते थे, पर उन्हें शब्द नहीं मिले. वे कुछ और कह पाते, उस से पहले ही संजीव ने फोन काट दिया.

उस दिन के बाद से संजीव और नेहा के संबंधों में दरार पड़ गई. फोन पर भी दोनों अजनबियों की तरह ही बातें करते.

संजीव ने फिर कई दिनों तक जब नेहा से लौट आने का जिक्र ही नहीं छेड़ा, तो वह और उस के मातापिता बेचैन हो गए. हार कर नेहा ने ही इस विषय पर एक रात फोन पर चर्चा छेड़ी.

‘‘नेहा, अभी भैयाभाभी की समस्या हल नहीं हुई है. तुम्हारे लौटने के अनुरूप माहौल अभी यहां तैयार नहीं है,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर संजीव ने फोन काट दिया.

विवाहित बेटी का घर में बैठना किसी भी मातापिता के लिए चिंता का विषय बन ही जाता है. बीतते वक्त के साथ नीरजा और राजेंद्रजी की परेशानियां बढ़ने लगीं. उन्हें इस बात की जानकारी देने वाला भी कोई नहीं था कि वास्तव में नेहा की ससुराल में माहौल किस तरह का चल रहा है.

समय के साथ परिस्थितियां बदलती ही हैं. सपना और राजीव की समस्या का भी अंत हो ही गया. इस में संजीव ने सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

अपने एक दोस्त और उस की पत्नी के साथ जा कर वह सविता से मिला, फिर उस के पति से टैलीफोन पर बात कर के उसे भी सविता के प्रति भड़का दिया.

संजीव की धमकियों व पति के आक्रोश से डर कर सविता ने नौकरी ही छोड़ दी. प्रेम का भूत उस के सिर से ऐसा उतरा कि उसे राजीव की शक्ल देखना भी गवारा न रहा.

कुछ दिनों तक राजीव घर में मुंह फुलाए रहा, पर बाद में उस के स्वभाव में परिवर्तन आ ही गया. अपनी पत्नी के साथ रह कर ही उसे सुखशांति मिलेगी, यह बात उसे समझ में अंतत: आ ही गई.

सपना ने अपने देवर को दिल से धन्यवाद कहा. नेहा से चल रही अनबन की उसे जानकारी थी. उन दोनों को वापस जोड़ने की जिम्मेदारी उस ने अपने कंधों पर ले ली.

सपना के जोर देने पर राजीव शादी की सालगिरह मनाने के लिए राजी हो गया.

सपना अपने पति के साथ जा कर नेहा व उस के मातापिता को भी पार्टी में आने का निमंत्रण दे आई.

‘‘उस दिन काम बहुत होगा. मुझे तैयार करने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी होगी, नेहा. तुम जितनी जल्दी घर आ जाओगी, उतना ही अच्छा रहेगा,’’ भावुक लहजे में अपनी बात कह कर सपना ने नेहा को गले लगा लिया.

नेहा ने अपनी जेठानी को आश्वासन दिया कि वह जल्दी ही ससुराल पहुंच जाएगी. उसी शाम उस ने फोन कर के संजीव को वापस लौटने की अपनी इच्छा जताई.

‘‘मैं नहीं आऊंगा तुम्हें लेने. जो तुम्हें ले कर गए थे, उन्हीं के साथ वापस आ जाओ,’’ संजीव का यह रूखा सा जवाब सुन कर नेहा के आंसू बहने लगे.

राजेंद्रजी, नीरजा व नेहा के साथ पार्टी के दिन संजीव के यहां पहुंचे. उन के बुरे व्यवहार के कारण संजीव व उस के मातापिता ने उन का स्वागत बड़े रूखे से अंदाज में किया.

ससुराल के जानेपहचाने घर में नेहा ने खुद को दूर के मेहमान जैसा अनुभव किया. मुख्य मेजबानों में से एक होने के बजाय उस ने अपनेआप को सब से कटाकटा सा महसूस किया.

सपना ने नेहा को गले लगा कर जब कुछ समय जल्दी न आने की शिकायत की, तो नेहा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मुझे माफ कर दो, भाभी,’’ सपना के गले लग कर नेहा ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी मजबूरी को आप के अलावा कोई दूसरा शायद नहीं समझे. मातापिता की शह पर अपने पति के परिवार से मुसीबत के समय दूर भाग जाना मेरी बड़ी भूल थी. मुझ कायर के लिए आज किसी की नजरों में इज्जत और प्यार नहीं है. अपने मातापिता पर मुझे गुस्सा है और अपने डरपोक व बचकाने व्यवहार के लिए बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है.’’

‘‘तुम रोना बंद करो, नेहा,’’ सपना ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘देखो, पहले के संयुक्त परिवार में पली लड़कियों का जीवन की विभिन्न समस्याओं से अकसर परिचय हो जाता था. आजकल के मातापिता वैसी कठिन समस्याओं से अपने बच्चों को बचा कर रखते हैं. तुम अपनी अनुभवहीनता व डर के लिए न अपने मातापिता को दोष दो, न खुद को. मैं तुम्हें सब का प्यार व इज्जत दिलाऊंगी, यह मेरा वादा है. अब मुसकरा दो, प्लीज.’’

सपना के अपनेपन को महसूस कर रोती हुई नेहा राहत भरे भाव से मुसकरा उठी. तब सपना ने इशारा कर संजीव को अपने पास बुलाया.

उस ने नेहा का हाथ संजीव को पकड़ा कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘देवरजी, मेरी देवरानी नेहा अपने मातापिता से मिले सुरक्षाकवच को तोड़ कर आज सच्चे अर्थों में अपने पति के घरपरिवार से जुड़ने को तैयार है. आज के दिन अपनी भाभी को उपहार के रूप में यह पक्का वादा नहीं दे सकते कि तुम दोनों आजीवन हर हाल में एकदूसरे का साथ निभाओगे?’’

नेहा की आंखों से बह रहे आंसुओं को देख संजीव का सारा गुस्सा छूमंतर हो गया.

‘‘मैं पक्का वादा करता हूं, भाभी,’’ उस ने झुक कर जब नेहा का हाथ चूमा तो वह पहले नई दुलहन की तरह शरमाई और फिर उस का चेहरा गुलाब के फूल सा खिल उठा.

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