साथी साथ निभाना

साथी साथ निभाना – भाग 3 : संजीव ने ऐसा क्या किया कि नेहा की सोच बदल गई

‘‘मेरे मुंह से तो वहां एक शब्द भी नहीं निकलेगा. उस स्थिति की कल्पना कर के ही मेरी जान निकली जा रही है,’’ नेहा की आवाज में कंपन था.

‘‘तुम बस मेरे साथ रहना. वहां बोलना कुछ नहीं पड़ेगा तुम्हें.’’

‘‘मुझे सचमुच लड़नाझगड़ना नहीं आता है.’’

‘‘वह सब तुम मुझ पर छोड़ दो. किसी औरत से उलझने के समय पुरुष के साथ एक औरत का होना सही रहता है.’’

‘‘ठीक है, मैं आ जाऊंगी,’’ नेहा का यह जवाब सुन कर संजीव खुश हुआ और पहली बार उस ने अपनी पत्नी से कुछ देर अच्छे मूड में बातें कीं.

बाद में जब नेहा ने अपने मातापिता को सारी बात बताई, तो उन्होंने फौरन उस के इस झंझट में पड़ने का विरोध किया.

‘‘सविता जैसी गिरे चरित्र वाली औरतों से उलझना ठीक नहीं बेटी,’’ नीरजा ने उसे घबराए अंदाज में समझाया, ‘‘उन के संगीसाथी भले लोग नहीं होते. संजीव या तुम पर उस ने कोई झूठा आरोप लगा कर पुलिस बुला ली, तो क्या होगा?’’

‘‘नेहा, तुम्हें संजीव के भैयाभाभी की समस्या में फंसने की जरूरत ही क्या है?

तुम्हारे संस्कार अलग तरह के हैं. देखो, कैसे ठंडे पड़ गए हैं तुम्हारे हाथ… चेहरे का रंग उड़ गया है. तुम कल नहीं जाओगी,’’ राजेंद्रजी ने सख्ती से अपना फैसला नेहा को सुना दिया.

‘‘पापा, संजीव को मेरा न जाना बुरा लगेगा,’’ नेहा रोंआसी हो गई.

‘‘उस से मैं कल सुबह बात कर लूंगा. लेकिन अपनी तबीयत खराब कर के तुम किसी का भला करने की मूर्खता नहीं करोगी.’’

नेहा रात भर तनाव की वजह से सो नहीं पाई. सुबह उसे 2 बार उलटियां भी हो गईं. ब्लडप्रैशर गिर जाने की वजह से चक्कर भी आने लगे. वह इस कदर निढाल हो गई कि 4 कदम चलना उस के लिए मुश्किल हो गया. वह तब चाह कर भी संजीव के साथ सविता से मिलने नहीं जा सकती थी.’’

राजेंद्रजी ने सुबह फोन कर के नेहा की बिगड़ी तबीयत की जानकारी संजीव को दे दी.

संजीव को उन के कहे पर विश्वास नहीं हुआ. उस ने रूखे लहजे में उन से इतना ही कहा, ‘‘जरा सी समस्या का सामना करने पर जिस लड़की के हाथपैर फूल जाएं और जो मुकाबला करने के बजाय भाग खड़ा होना बेहतर समझे, मेरे खयाल से उस की शादी ही उस के मातापिता को नहीं करनी चाहिए.’’

राजेंद्रजी कुछ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूर चाहते थे, पर उन्हें शब्द नहीं मिले. वे कुछ और कह पाते, उस से पहले ही संजीव ने फोन काट दिया.

उस दिन के बाद से संजीव और नेहा के संबंधों में दरार पड़ गई. फोन पर भी दोनों अजनबियों की तरह ही बातें करते.

संजीव ने फिर कई दिनों तक जब नेहा से लौट आने का जिक्र ही नहीं छेड़ा, तो वह और उस के मातापिता बेचैन हो गए. हार कर नेहा ने ही इस विषय पर एक रात फोन पर चर्चा छेड़ी.

‘‘नेहा, अभी भैयाभाभी की समस्या हल नहीं हुई है. तुम्हारे लौटने के अनुरूप माहौल अभी यहां तैयार नहीं है,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर संजीव ने फोन काट दिया.

विवाहित बेटी का घर में बैठना किसी भी मातापिता के लिए चिंता का विषय बन ही जाता है. बीतते वक्त के साथ नीरजा और राजेंद्रजी की परेशानियां बढ़ने लगीं. उन्हें इस बात की जानकारी देने वाला भी कोई नहीं था कि वास्तव में नेहा की ससुराल में माहौल किस तरह का चल रहा है.

समय के साथ परिस्थितियां बदलती ही हैं. सपना और राजीव की समस्या का भी अंत हो ही गया. इस में संजीव ने सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

अपने एक दोस्त और उस की पत्नी के साथ जा कर वह सविता से मिला, फिर उस के पति से टैलीफोन पर बात कर के उसे भी सविता के प्रति भड़का दिया.

संजीव की धमकियों व पति के आक्रोश से डर कर सविता ने नौकरी ही छोड़ दी. प्रेम का भूत उस के सिर से ऐसा उतरा कि उसे राजीव की शक्ल देखना भी गवारा न रहा.

कुछ दिनों तक राजीव घर में मुंह फुलाए रहा, पर बाद में उस के स्वभाव में परिवर्तन आ ही गया. अपनी पत्नी के साथ रह कर ही उसे सुखशांति मिलेगी, यह बात उसे समझ में अंतत: आ ही गई.

सपना ने अपने देवर को दिल से धन्यवाद कहा. नेहा से चल रही अनबन की उसे जानकारी थी. उन दोनों को वापस जोड़ने की जिम्मेदारी उस ने अपने कंधों पर ले ली.

सपना के जोर देने पर राजीव शादी की सालगिरह मनाने के लिए राजी हो गया.

सपना अपने पति के साथ जा कर नेहा व उस के मातापिता को भी पार्टी में आने का निमंत्रण दे आई.

‘‘उस दिन काम बहुत होगा. मुझे तैयार करने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी होगी, नेहा. तुम जितनी जल्दी घर आ जाओगी, उतना ही अच्छा रहेगा,’’ भावुक लहजे में अपनी बात कह कर सपना ने नेहा को गले लगा लिया.

नेहा ने अपनी जेठानी को आश्वासन दिया कि वह जल्दी ही ससुराल पहुंच जाएगी. उसी शाम उस ने फोन कर के संजीव को वापस लौटने की अपनी इच्छा जताई.

‘‘मैं नहीं आऊंगा तुम्हें लेने. जो तुम्हें ले कर गए थे, उन्हीं के साथ वापस आ जाओ,’’ संजीव का यह रूखा सा जवाब सुन कर नेहा के आंसू बहने लगे.

राजेंद्रजी, नीरजा व नेहा के साथ पार्टी के दिन संजीव के यहां पहुंचे. उन के बुरे व्यवहार के कारण संजीव व उस के मातापिता ने उन का स्वागत बड़े रूखे से अंदाज में किया.

ससुराल के जानेपहचाने घर में नेहा ने खुद को दूर के मेहमान जैसा अनुभव किया. मुख्य मेजबानों में से एक होने के बजाय उस ने अपनेआप को सब से कटाकटा सा महसूस किया.

सपना ने नेहा को गले लगा कर जब कुछ समय जल्दी न आने की शिकायत की, तो नेहा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मुझे माफ कर दो, भाभी,’’ सपना के गले लग कर नेहा ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी मजबूरी को आप के अलावा कोई दूसरा शायद नहीं समझे. मातापिता की शह पर अपने पति के परिवार से मुसीबत के समय दूर भाग जाना मेरी बड़ी भूल थी. मुझ कायर के लिए आज किसी की नजरों में इज्जत और प्यार नहीं है. अपने मातापिता पर मुझे गुस्सा है और अपने डरपोक व बचकाने व्यवहार के लिए बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है.’’

‘‘तुम रोना बंद करो, नेहा,’’ सपना ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘देखो, पहले के संयुक्त परिवार में पली लड़कियों का जीवन की विभिन्न समस्याओं से अकसर परिचय हो जाता था. आजकल के मातापिता वैसी कठिन समस्याओं से अपने बच्चों को बचा कर रखते हैं. तुम अपनी अनुभवहीनता व डर के लिए न अपने मातापिता को दोष दो, न खुद को. मैं तुम्हें सब का प्यार व इज्जत दिलाऊंगी, यह मेरा वादा है. अब मुसकरा दो, प्लीज.’’

सपना के अपनेपन को महसूस कर रोती हुई नेहा राहत भरे भाव से मुसकरा उठी. तब सपना ने इशारा कर संजीव को अपने पास बुलाया.

उस ने नेहा का हाथ संजीव को पकड़ा कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘देवरजी, मेरी देवरानी नेहा अपने मातापिता से मिले सुरक्षाकवच को तोड़ कर आज सच्चे अर्थों में अपने पति के घरपरिवार से जुड़ने को तैयार है. आज के दिन अपनी भाभी को उपहार के रूप में यह पक्का वादा नहीं दे सकते कि तुम दोनों आजीवन हर हाल में एकदूसरे का साथ निभाओगे?’’

नेहा की आंखों से बह रहे आंसुओं को देख संजीव का सारा गुस्सा छूमंतर हो गया.

‘‘मैं पक्का वादा करता हूं, भाभी,’’ उस ने झुक कर जब नेहा का हाथ चूमा तो वह पहले नई दुलहन की तरह शरमाई और फिर उस का चेहरा गुलाब के फूल सा खिल उठा.

करमवती- भाग 1 : राजपाल प्लंबर कहा गिरा था

15साल पहले… उस समय मैं ने उसे एक शाम एक गंदी नाली में औंधे मुंह पड़े देखा था. उस ने इतनी दारू पी ली थी कि उसे कुछ होश न था. शराबी से आदमी वैसे ही घबराता है, इसलिए कोई उसे गंदी नाली में से भी खींचने को तैयार न था. तब मैं ने उस पर तरस खा कर और इनसानियत का फर्ज निभाते हुए नाली में से खींच कर सड़क पर डाल दिया था. किसी ने पैर से उसे सीधा किया. उस का चेहरा कीचड़ से सना हुआ था, फिर भी भीड़ में से हर कोई उसे पहचानने की कोशिश करने लगा. ‘‘अरे, यह तो राजपाल प्लंबर है. गली नंबर 8 वाला,’’ भीड़ में से एक ने चौंकते हुए कहा.

तब किसी ने जा कर राजपाल के घर सूचना दी. राजपाल की पत्नी अपने बच्चे को गोद में लिए दौड़ी चली आई थी. महल्ले वालों ने उस के कहने पर राजपाल को एक रिकशा में डाल कर उस के घर पहुंचाया था. उस दिन भीड़ में कोई ऐसा न था, जिस ने राजपाल को उस की इस हालत पर कोसा न हो और उस की पत्नी पर तरस न खाया हो. 15 साल पहले घटी इस घटना को मैं तकरीबन भूल चुका था, लेकिन जब प्लंबरी का सामान बेचने वाले लालाजी से मैं ने किसी प्लंबर का नंबर देने को कहा,

तो उन्होंने खुद फोन पर बात कर के कहा, ‘‘आप के महल्ले का ही राजपाल प्लंबर है. रामदीन हलवाई की दुकान के सामने वह मिल जाएगा. मैं ने बोल दिया है और यह उस का नंबर है.’’ ‘राजपाल’ कुछ सुनासुना सा नाम लग रहा था. फिर यह सोच कर कि राजपाल नाम के न जाने कितने लोग हैं, मैं मोटरसाइकिल उठा कर चल दिया. रामदीन हलवाई की दुकान के सामने जैसे ही मैं ने मोटरसाइकिल रोकी, तो एक आदमी मुसकराता हुआ मेरी ओर आया. मैं ने अंदाजा लगाया कि यही राजपाल होगा. ‘‘तुम्हारा चेहरा कुछ जानापहचाना सा लग रहा है,’’ मैं ने उस के पास आने पर कहा.

‘‘बाबूजी, मैं राजपाल प्लंबर. आप मुझे पहचानें या न पहचानें, मैं आप को अच्छी तरह पहचानता हूं. आप ने तो मुझे एक ही बार देखा है, लेकिन मैं ने आप को कई बार देखा है.’’ उस को ऐसे बातें करते देख कर मैं मुसकरा पड़ा, फिर मैं ने उस से कहा, ‘‘कुछ याद तो दिलाओ?’’ ‘‘बाबूजी याद करो कि तकरीबन 15 साल पहले आप ने किसी शराबी को गंदी नाली में से बाहर निकाला था.’’ ‘‘हांहां, मुझे याद आ रहा है.’’ ‘‘बाबूजी, मैं नशे में चूर था. बाद में लोगों ने मुझे बताया था कि कोई मुझे नाली में से भी खींचने को तैयार न था. तब आप ने यह काम किया था.’’ मुझे याद आया कि हां, कभी किसी शराबी को मैं ने नाली से बाहर जरूर खींचा था, लेकिन मेरे लिए यह इतनी खास बात नहीं थी कि मैं यह याद रखता कि कब और कितने साल पहले मैं ने यह काम किया था. मैं ने तो उस शराबी की हालत देख कर यही सोचा था कि यह पियक्कड़ या तो किसी दिन ज्यादा शराब पी कर मर जाएगा या फिर किसी दिन नशे की हालत में किसी हादसे का शिकार हो जाएगा.

मेरी नजर में उस की जिंदगी के गिनेचुने दिन बचे थे. लेकिन उस महाशराबी को आज अपने सामने हट्टाकट्टा देख कर मुझे हैरानी जरूर हुई कि कोई टैंकर (महाशराबी) इतना सेहतमंद कैसे हो सकता है. खैर, उसे ले कर मैं अपने घर आ गया. राजपाल घर आते ही अपने काम में जुट गया. 2 घंटे बाद मैं ने उस से पूछा, ‘‘राजपाल चाय पीओगे?’’ ‘‘नहीं बाबूजी, मैं चाय नहीं पीता.’’ ‘‘हां भाई, तुम गरम चाय कहां पीओगे, तुम तो नमकीन के साथ ठंडी चाय पीने वालों में से हो,’’ मैं ने मजाक के लहजे में कहा. ‘‘नहीं बाबूजी, ऐसी बात नहीं है. ‘ठंडी चाय’ तो मैं ने कब की पीनी छोड़ दी.’’ मैं हैरानी से उसे देखने लगा कि एक टैंकर भी शराब पीनी छोड़ सकता है.

‘‘ऐसा कैसे हुआ राजपाल? दारू की लत वाले लोगों का तो दारू छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है?’’ राजपाल ने काम करतेकरते अपनी कहानी शुरू की. मैं भी कुरसी डाल कर उसी के पास बैठ गया. ‘‘बाबूजी, उस रात मेरी घरवाली सोई नहीं. वह रातभर जागती रही और मुझे होश में लाने की कोशिश करती रही. उस दिन साथियों के साथ कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली थी. भोर के समय जा कर कहीं मेरा नशा टूटा था. ‘‘तभी मकान मालिक आ धमका था. उस ने शाम तक कमरा खाली करने का फरमान सुना दिया. भला बाबूजी, मेरे जैसे शराबी को कौन अपने घर में किराए पर रखता.

सहचारिणी – भाग 1: क्या सुरुचि उस परदे को हटाने में कामयाब हो पाई

आज का दिन मेरी जिंदगी का सब से खास दिन है. मेरा एक लंबा इंतजार समाप्त हुआ. तुम मेरी जिंदगी में आए. या यों कहूं कि तुम्हारी जिंदगी में मैं आ गई. तुम्हारी नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी, मेरा मन पुलकित हो उठा. लेकिन मुझे डर लगा कि कहीं तुम मेरा तिरस्कार न कर दो, क्योंकि पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है. लोग आते, मुझे देखते, नाकभौं सिकोड़ते और बिना कुछ कहे चले जाते. मैं लोगों से तिरस्कृत हो कर अपमानित महसूस करती. जीवन के सीलन भरे अंधेरों में भटकतेभटकते कभी यहां टकराती कभी वहां. कभी यहां चोट लगती तो कभी वहां. चोट खातेखाते हृदय क्षतविक्षत हो गया था. दम घुटने लगा था मेरा. जीने की चाह ही नहीं रह गई थी. मैं ऐसी जिंदगी से छुटकारा पाना चाहती थी. धीरेधीरे मेरा आत्मविश्वास खोता जा रहा था.

वैसे मुझ में आत्मविश्वास था ही कहां? वह तो मेरी मां के जाने पर उन के साथ चला गया था. वे बहुत प्यार करती थीं मुझे. उन की मीठी आवाज में लोरी सुने बिना मुझे नींद नहीं आती थी. मैं परी थी, राजकुमारी थी उन के लिए. पता नहीं वे मुझ जैसी साधारण रूपरंग वाली सामान्य सी लड़की में कहां से खूबियां ढूंढ़ लेती थीं.

मगर मेरे पास यह सुख बहुत कम समय रहा. मैं जब 5 वर्ष की थी, मेरी मां मुझे छोड़ कर इस दुनिया से चली गईं. फिर अगले बरस ही घर में मेरी छोटी मां आ गईं. उन्हें पा कर मैं बहुत खुश हो गई थी कि चलो मुझे फिर से मां मिल गईं.

वे बहुत सुंदर थीं. शायद इसी सुंदरता के वश में आ गए थे मेरे बाबूजी. मगर सुंदरता में बसा था विकराल स्वभाव. अपनी शादी के दौरान पूरे समय छोटी मां मुझे अपने साथ चिपकाए रहीं तो मैं बहुत खुश हो गई थी कि छोटी मां भी मुझे मेरी अपनी मां की तरह प्यार करेंगी. लेकिन धीरेधीरे असलियत सामने आई. बरस की छोटी सी उम्र में ही मेरे दिल ने मुझे चेता दिया कि खबरदार खतरा. मगर यह खतरा क्या था, यह मेरी समझ में नहीं आया.

सब के सामने तो छोटी मां दिखाती थीं कि वे मुझे बहुत प्यार करती हैं. मुझे अच्छे कपड़े और वे सारी चीजें मिलती थीं, जो हर छोटे बच्चे को मिलती हैं. पर केवल लोगों को दिखाने के लिए. यह कोई नहीं समझ पा रहा था कि मैं प्यार के लिए तरस रही हूं और छोटी मां के दोगले व्यवहार से सहमी हुई हूं.

सुंदर दिखने वाली छोटी मां जब दिल दहलाने वाली बातें कहतीं तो मैं कांप जाती. वे दूसरों के सामने तो शहद में घुली बातें करतीं पर अकेले में उतनी ही कड़वाहट होती थी उन की बातों में. उन की हर बात में यही बात दोहराई जाती थी कि मैं इतनी बदनसीब हूं कि बचपन में ही मां को खा गई. और मैं इतनी बदसूरत हूं कि किसी को भी अच्छी नहीं लग सकती.

उस समय उन की बात और कुटिल मुसकान का मुझे अर्थ समझ में नहीं आता था. मगर जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई वैसेवैसे मुझे समझ में आने लगा. मगर मेरा दुख बांटने वाला कोई न था. मैं किस से कहूं और क्या कहूं? मेरे पिता भी अब मेरे नहीं रह गए थे. वे पहले भी मुझ से बहुत जुड़े हुए नहीं थे पर अब तो उन से जैसे नाता ही टूट गया था.

मैं जब युवा हुई तो मैं ने देखा कि दुनिया बड़ी रंगीन है. चारों तरफ सुंदरता है, खुशियां हैं, आजादी है और मौजमस्ती है. पर मेरे लिए कुछ भी नहीं था. मैं लड़कों से दूर रहती. अड़ोसपड़ोस के लोग घर में आते तो मुझ से नौकरानी सा व्यवहार करते. मेरी हंसी उड़ाते. अब आगे मैं कुछ न कहूंगी. कहने के लिए है ही क्या? मैं पूरी तरह अंतर्मुखी, डरपोक और कायर बन चुकी थी.

लेकिन कहते हैं न हर अंधेरी रात की एक सुनहरी सुबह होती है. सुनहरी सुबह मेरी जिंदगी में भी तब आई जब तुम बहार बन कर मेरी वीरान जिंदगी में आए.

तुम्हारी वह नजर… मैं कैसे भूल जाऊं उसे. मुझे देखते ही तुम्हारी आंखों में जो चमक आ गई थी वह जैसे मुझे एक नई जिंदगी दे गई. याद है मुझे वह दिन जब तुम किसी काम से मेरे घर आए थे. काम तुरंत पूरा न होने के कारण तुम्हें अगले दिन भी हमारे घर रुक जाना पड़ा था.

उन 2 दिनों में जब कभी हमारी नजरें टकरा जातीं या पानी या चाय देते समय जरा भी उंगलियां छू जातीं तो मेरा तनमन रोमांचित हो उठता. मेरी जिंदगी में उत्साह की नई लहर दौड़ गई थी.

फिर सब कुछ बहुत जल्दीजल्दी घट गया और तुम हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गए. एक लंबी तपस्या जैसे सफल हो गई. छोटी मां ने अनजाने में ही मुझ पर बहुत बड़ा उपकार कर दिया. उन्हें लगा होगा बिना दहेज के इतना अच्छा रिश्ता मिल रहा है और यह अनचाही बला जितनी जल्दी घर से निकल जाए उतना अच्छा.

 

 

पराकाष्ठा- भाग 2: एक विज्ञापन ने कैसे बदली साक्षी की जिंदगी

पति को बस में करने के नएनए तरीके आजमाने की जब उस ने कोशिश की तो सुदीप का माथा ठनका. इस तरह शर्तों पर तो जिंदगी नहीं जी जा सकती. आपस में विश्वास, समझ, प्रेम व सामंजस्य की भावना ही न हो तो संबंधों में प्रगाढ़ता कहां से आएगी? रिश्तों की मधुरता के लिए दोनों को प्रयास करने पड़ते हैं और साक्षी केवल उस पर हावी होने, अपनी जिद मनवाने तथा स्वयं को सही ठहराने के ही प्रयास कर रही है. यह सब कब तक चल पाएगा. इन्हीं विचारों के झंझावात में वह कुछ दिन उलझा रहा.

एक दिन अचानक खुशी की लहर उस के शरीर को रोमांचित कर गई जब साक्षी ने उसे बताया कि वह मां बनने वाली है. पल भर के लिए उस के प्रति सभी गिलेशिकवे वह भूल गया. साक्षी के प्रति अथाह प्रेम उस के मन में उमड़ पड़ा. उस के माथे पर प्रेम की मोहर अंकित करते हुए वह बोला, ‘थैंक्यू, साक्षी, मैं तुम्हारा आभारी हूं, तुम ने मुझे पिता बनने का गौरव दिलाया है. मैं आज बहुत खुश हूं. चलो, बाहर चलते हैं. लेट अस सेलीब्रेट.’

मां को जब यह खुशखबरी सुदीप ने सुनाई तो वह दौड़ी चली आईं. अपने अनुभवों की पोटली भी वह खोलती जा रही थीं, ‘साक्षी, वजन मत उठाना, भागदौड़ मत करना, ज्यादा मिर्चमसाले, गरम चीजें मत लेना…’ कह कर मां चली गईं.

एकांत के क्षणों में सुदीप सोचता, बच्चा होने के बाद साक्षी में सुधार आ जाएगा. बच्चे की सारसंभाल में वह व्यस्त हो जाएगी, सहेलियों के जमघट से भी छुटकारा मिल जाएगा.

प्रसवकाल नजदीक आने पर मां ने आग्रह किया कि साक्षी उन के पास रहे मगर साक्षी ने दोटूक जवाब दिया, ‘मुझे यहां नहीं रहना, मां के पास जाना है. मेरी मम्मी, मेरी व बच्चे की ज्यादा अच्छी देखभाल कर सकती हैं.’

हार कर उसे मां के घर भेजना ही पड़ा था सुदीप को.

3 माह के बेटे को ले कर साक्षी जब घर लौटी तो सब से पहले उस ने आया का इंतजाम किया. चूंकि उस का वजन भी काफी बढ़ गया था इसलिए हेल्थ सेंटर जाना भी शुरू कर दिया. उसे बच्चे को संभालने में खासी मशक्कत करनी पड़ती. दिन भर तो आया ही उस की जिम्मेदारी उठाती थी. कई दफा मुन्ना रोता रहता और वह बेफिक्र सोई रहती. एक दिन बातों ही बातों में सुदीप ने जब इस बारे में शिकायत कर दी तो साक्षी भड़क उठी, ‘हां, मुझ से नहीं संभलता बच्चा. शादी से पहले मैं कितनी आजाद थी, अपनी मर्जी से जीती थी. अब तो अपना होश ही नहीं है. कभी घर, कभी बच्चा, बंध गई  हूं मैं…’

सुदीप के पैरों तले जमीन खिसक गई, ‘साक्षी, यह क्या कह रही हो तुम? अरे, बच्चे के बिना तो नारी जीवन ही अधूरा है. यह तो तुम्हारे लिए बड़ी खुशी की बात है कि तुम्हें मां का गौरवशाली, ममता से भरा रूप प्राप्त हुआ है. हम खुशकिस्मत हैं वरना कई लोग तो औलाद के लिए सारी उम्र तरसते रह जाते हैं,’ सुदीप ने समझाने की गरज से कहा.

‘तुम आज भी उन्हीं दकियानूसी विचारों से भरे हो. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है. अभी भी तुम कुएं के मेढक बने हुए हो. घर, परिवार, बच्चे, बस इस के आगे कुछ नहीं.’

साक्षी के कटाक्ष से सुदीप भीतर तक आहत हो उठा, ‘साक्षी, जबान को लगाम दो. तुम हद से बढ़ती जा रही हो.’

‘मुझे भी तुम्हारी रोजरोज की झिकझिक में कोई दिलचस्पी नहीं. मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना, तलाक चाहिए मुझे…’

साक्षी के इतना कहते ही सुदीप की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, ‘क्या कहा तुम ने, तलाक चाहिए? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?’

‘बिलकुल ठीक है. मैं अपने मम्मीपापा के पास रहूंगी. वे मुझे किसी काम के लिए नहीं टोकते. मुझे अपने ढंग से जीने देते हैं. मेरी खुशी में ही वे खुश रहते हैं…’

उन के संबंधों में दरार आ चुकी थी. मुन्ने के माध्यम से यह दरार कभी कम अवश्य हो जाती लेकिन पहले की तरह प्रेम, ऊष्मा, आकर्षण नहीं रहा.

तनावों के बीच साल भर का समय बीत गया. इस बीच साक्षी 2-3 बार तलाक की धमकी दे चुकी थी. सुदीप तनमन से थकने लगा था. आफिस में काम करते वक्त भी वह तनावग्रस्त रहने लगा.

मुन्ना रोए जा रहा था और साक्षी फोन पर गपशप में लगी थी. सुदीप से रहा नहीं गया. उस का आक्रोश फट पड़ा, ‘तुम से एक बच्चा भी नहीं संभलता? सारा दिन घर रहती हो, काम के लिए नौकर लगे हैं. आखिर तुम चाहती क्या हो?’

‘तुम से छुटकारा…’ साक्षी चीखी तो सुदीप भी आवेश में हो कर बोला, ‘ठीक है, जाओ, शौक से रह लो अपने मांबाप के घर.’

साक्षी ने फौरन अटैची में अपने और मुन्ने के कपड़े डाले.

मुंहबोली बहनें- भाग 3 : रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

‘‘मेरे और अनाइका के बीच कुछ चल रहा है, यह बात अनाइका ने मुझे क्यों नहीं बताई? इतनी बड़ी बात मुझ से छिपा कर रखी? मुझे भी बता देती तो मैं थोड़ा अपने पर इतरा लेता,’’ रोहन भैया ने चिंतित मुद्रा में मुंह बना कर कहा, ‘‘सोनाली, कमी मुझ में नहीं उन लड़कियों की सोच में है. किसी से दो बातें कर लो तो सीधा ‘चक्कर चलना’ ही मान बैठती हैं.’’ रोहन भैया मेरी किसी बात को गंभीरता से लेने को तैयार ही नहीं थे. मैं झक मार कर वहां से उठ ही गई, ‘‘ठीक है रोहन भैया, आप के लिए तो हर बात बस, मजाक ही होती है, पर कालेज में होने वाली बातों का मुझ पर असर पड़ता है. कोई मेरे भाई के बारे में अनापशनाप कहे तो मैं बरदाश्त नहीं कर पाती हूं. अगले साल मैं अपना कालेज ही बदल लूंगी. न आप के कालेज में रहूंगी, न आप के बारे में कुछ सुनूंगी और न ही मेरा दिमाग खराब होगा,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर वहां से निकल पड़ी.

‘‘ओए मधुमक्खी, कालेज बदलना तो अकेली ही जाना, अपनी सहेलियों को मत ले जाना वरना मेरे कालेज में तो पतझड़ आ जाएगा,’’ कह कर रोहन भैया फिर होहो कर के हंसने लगे. मुझे पता था कि रोहन भैया चिकने घड़े हैं. मेरी किसी बात का उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. फिर भी हर 10-15 दिन में मैं उन से इस बात को ले कर बहस कर ही बैठती थी.

12वीं के बाद बीकौम में जब मुझे दीनदयाल डिग्री कालेज में ऐडमिशन मिला था तो मैं फूली नहीं समाई थी. नामीगिरामी कालेज में ऐडमिशन पाने की खुशी के साथसाथ एक सुकून का एहसास यह सोचसोच कर भी हो रहा था कि रोहन भैया के होते हुए मुझे किसी काम के लिए भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी. मेरा सारा काम बैठेबिठाए हो जाएगा. रोहन भैया उसी कालेज से एमकौम कर रहे थे और कालेज में उन के रोब के किस्से उन के मुंह से सालों से सुनती चली आ रही थी.

कालेज पहुंची तो सचमुच रोहन भैया की कालेज में पहचान देख कर मैं दंग रह गई. छात्रसंघ के सक्रिय सदस्य होने के कारण सारे प्रोफैसर और विद्यार्थी न केवल उन्हें अच्छी तरह जानते थे बल्कि वाक्पटुता और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण उन्हें पसंद भी बहुत करते थे. युवतियों के तो वे खासकर सर्वप्रिय नेता माने जाते थे. उन में वे किशन कन्हैया के नाम से मशहूर थे. लड़कियां उन के इर्दगिर्द मंडराने के अवसर तलाशती रहती थीं.

कालेज में उन के जलवे देख कर मैं भी अपना सिक्का जमाने के लिए सभी के सामने रोब जमाते हुए यह कहने लगी कि रोहन मेरे भैया हैं और मुझे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन उस के बाद से ही मेरी मुसीबतों का सिलसिला शुरू हो गया. रोज कोई न कोई युवती अपना कोई न कोई काम ले कर मेरे पास

सिया के आंसू : भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा  

22 साल की एक पढ़ीलिखी लड़की थी, जो बीटैक कर रही थी. वह एक कामयाब यूट्यूबर थी, जो अपनी कार खुद चलाना पसंद करती थी और देश के ज्वलंत मुद्दों पर भी अपनी राय बड़ी बेबाकी से सब के सामने रखती थी, पर किसी इनसान में इतनी अच्छाइयों का होना यह नहीं साबित करता है कि वह अंधविश्वासी नहीं होगा.

 

सिया के मन पर भी उस के बचपन से ही बताए गए रीतिरिवाजों और धर्मांधता का पूरा असर था. हां, पर जो उस का इन अंधविश्वासों में साथ नहीं देता था, वह था सिया के बचपन का दोस्त वीरेन. वीरेन से सिया की सगाई भी हो चुकी थी और शादी की तारीख भी दिसंबर महीने की थी, पर उस से पहले वीरेन और सिया अपने दोस्तों नताशा और तान्या के साथ एक धार्मिक जगह सिद्धनाथ के दर्शन करने जाना चाहते थे.

बाकी के दिन तो सफर की तैयारियों में कब निकल गए, सिया को पता ही नहीं चला और फिर वह दिन भी आ गया, जब वे चारों सफर पर निकल पड़े और रास्ते की सारी दिक्कतों को झेलते हुए वे सिद्धनाथ पहुंच गए. अभी उन लोगों की गाड़ी पूरी तरह से रुक भी नहीं पाई थी कि उन की गाड़ी के चारों तरफ अनजान लड़कों और आदमियों की भीड़ जमा हो गई.

‘‘हां जी मैडम… रुकने के लिए कमरा चाहिए… बहुत सस्ते में दिला देंगे… एसी वाला रूम… कम कीमत में…’’ उन में से कुछ लड़के साधुसंतों जैसे लग रहे थे. ‘‘बहनजी… हमारी धर्मशाला में कमरा ले लो… एकदम मुफ्त मिलेगा… और वह भी सारी सुविधाओं के साथ…’’ उन में से एक बोला.

‘‘मुफ्त… तुम लोग मुफ्त में कमरा क्यों दे रहे हो भाई?’’ वीरेन ने पूछा. ‘‘अरे भाई… यह सब तो धर्म को बढ़ावा देने के लिए है… हम आप को कमरा देते हैं और बदले में आप हमारे दानपात्र में कुछ पैसे डाल देना… मंदिर जाने के लिए प्रसाद हमारे यहां से ही लेना…’’ दूसरा लड़का बोला.

पता नहीं क्यों जहां पर भी धर्म और दानपात्र दोनों एकसाथ आते हैं, वहां पर वीरेन को एक अलग ही गंध आने लगती है, पर साधुसंतों द्वारा चलाई जा रही धर्मशाला में कमरा ले कर रहने में धर्म की सेवा होगी, ऐसा सोच कर सिया मचलने लगी, ‘‘वीरेन, सही तो कह रहे हैं ये लोग… आखिर धर्मशाला में कमरा ले कर रहने में बुराई ही क्या है?’’

‘‘हां, ठीक है, पर अगर कमरे हमारे रहने लायक नहीं होंगे, तो हम फिर किसी और होटल में चलेंगे,’’ वीरेन ने फैसला सुनाया और सिर हिला कर नताशा और तान्या ने उस पर अपनी मुहर लगा दी. आगेआगे वे लड़के चल रहे थे और पीछेपीछे ये चारों. कुछ देर पैदल चलने के बाद ही वे उस धर्मशाला के सामने खड़े थे, जिस में उन्हें रहना था. बाहर से तो एक एकदम साधारण सी बिल्डिंग लग रही थी, पर अंदर कदम रखते ही उन चारों की समझ में आ गया कि यह धर्मशाला किसी होटल से कम नहीं है.

उस धर्मशाला के एक तरफ जगमग करता हुआ मंदिर बना था और दूसरी तरफ कमरे बने हुए थे. मतलब साफ था कि वे लोग धर्मशाला का टैग लगा कर एक होटल चला रहे थे. चारों तरफ एक अलग सी सुगंध फैली हुई थी. सिया ने अपने लिए गए फैसले पर इठलाते हुए उन तीनों की तरफ देखा मानो यह कहना चाह रही हो कि देखा मेरा फैसला कितना सही था.

वीरेन अकेला एक कमरे में ठहर गया, जबकि बाकी तीनों लड़कियां दूसरे कमरे में. आज रातभर उन को आराम कर के कल सुबह ही उन लोगों को सिद्धनाथ बाबा के मंदिर के लिए निकलना था. अगली सुबह वे सभी जल्दी ही जाग गए और मंदिर दर्शन की तैयारी करने लगे. नताशा बाथरूम में नहाने गई थी, पर कुछ देर बाद ही वह बाथरूम से हड़बड़ाती हुई निकली और बाहर की ओर भागी. उसे इस तरह भागता देख कर कोई कुछ भी समझ नहीं पाया.

 

‘‘क्या हुआ नताशा…? तू इतनी परेशान क्यों है?’’ पीछे से आते हुए तान्या ने पूछा.‘‘पता है, जब मैं बाथरूम में नहा रही थी, तभी खिड़की से कोई मोबाइल के कैमरे से मेरी वीडियो शूट कर रहा था. मैं ने उसे देख कर जल्दी से कपड़े पहने  और पकड़ने के लिए बाहर लपकी, पर वहां पर कोई नहीं था. मैं इस बात की शिकायत यहां के मैनेजर से करने जा रही हूं,’’ कहने के साथ ही नताशा सीधे मैनेजर के पास पहुंची, जहां पर एक गंजा साधु बैठा हुआ था.

‘‘देखिए, यह एक तीर्थस्थल है… यहां आ कर तो सभी के मन का मैल अपनेआप धुल जाता है और फिर हमारे यहां ऐसा काम कौन करेगा भला… देखो बेटी, तुम से कोई भूल हुई है, फिर भी आप लोगों को कोई असुविधा हुई है, तो मैं आप लोगों का कमरा बदलवा देता हूं,’’ उस साधु ने कहा.

 

वह साधु मैनेजर ये बातें कहते हुए बारबार मंदिर की ओर देख कर हाथ जोड़ता और एक छोटी सी माला को हाथ में घुमा रहा था.

 

मुंहबोली बहनें- भाग 4 : रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

भाभी सुंदर और समझदार थीं. शादी के बाद रोहन भैया के स्वभाव में भी बहुत परिवर्तन आ गया. अब वे काफी शांत और गंभीर रहने लगे थे. कालेज के समय वाली उच्छृंखलता अब कहीं उन के स्वभाव में नहीं दिखती थी. साल भर तक तो उन का दांपत्य जीवन बहुत अच्छी तरह चला पर अचानक न जाने क्या हुआ कि भैयाभाभी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. उन के बीच अकसर बहस होने लगी. ताईजी के लाख पूछने पर भी दोनों में से कोई भी कुछ बताने को तैयार नहीं होता. उसी दौरान मैं मायके गई थी तो ताईजी के यहां भी सब से मिलने चली गई. ताईजी ने उन लोगों के बिगड़ते रिश्ते के बारे में बताते हुए मुझे भाभी से बात कर के कारण जानने को कहा. पहले तो भाभी ने बात को टालना चाहा किंतु मेरे हठ पकड़ लेने पर उन्होंने जो कहा उस पर यकीन करना मुश्किल था.

भाभी ने कहा, ‘‘रोहन का शक्की स्वभाव उन के वैवाहिक जीवन पर ग्रहण लगा रहा है. मेरे एक मुंहबोले भाई को ले कर इन के मन में शक का कीड़ा कुलबुला रहा है. मैं उन्हें हर तरह से समझा चुकी हूं कि उस के साथ मेरा भाईबहन के अलावा और किसी तरह का कोई संबंध नहीं है पर इन्हें मेरी किसी बात पर यकीन ही नहीं है. मेरी हर बात के जवाब में बस यही कहते हैं, ‘ये मुंहबोले भाईबहन का रिश्ता क्या होता है मुझे न समझाओ. किसी अमर्यादित रिश्ते पर परदा डालने के लिए मुंहबोला भाई और मुंहबोली बहन का जन्म होता है.’ इन का कहना है कि या तो अपने मुंहबोले भाई से ही रिश्ता रख लो या मुझ से. अब तुम ही बताओ इतने सालों का रिश्ता क्या कह कर खत्म करूं? कितने अपमान की बात है मेरे लिए इतना बड़ा आरोप सहना.’’

मैं ने भाभी को आश्वस्त करते हुए कहा कि आप चिंता न करें मैं भैया से बात करती हूं. मैं जब रोहन भैया से इस बारे में बात करने गई तो बात शुरू करने से पहले ही उन्होंने मेरा मुंह यह कह कर बंद कर दिया, ‘‘सोनाली, अगर तुम मुझे कुछ समझाने आई हो तो बेहतर होगा कि वापस चली जाओ.’’ रोहन भैया के रूखे व्यवहार के आगे तो मेरी बात शुरू करने की हिम्मत ही नहीं हुई. बातबात पर उन से झगड़ने और बहस कर बैठने वाली मुझ सोनाली की बोलती ही बंद हो गई. पर बात चूंकि उन के वैवाहिक रिश्ते को बचाने की थी इसलिए हिम्मत कर के मैं उन के पास बैठ गई.

‘‘रोहन भैया, बात इतनी बड़ी नहीं है कि आप ने अपना और भाभी का रिश्ता दावं पर लगा दिया है. भाभी कह रही हैं कि उन का मुंहबोला भाई है तो उन की बात का आप यकीन क्यों नहीं करते? आखिर कालेज में आप की भी तो कई मुंहबोली बहनें थीं फिर…’’ मैं आगे कुछ और बोलूं उस से पहले ही रोहन भैया वहां से उठ खड़े हुए, ‘‘हां, सोनाली, मेरी कई मुंहबोली बहनें थीं और मैं कइयों का मुंहबोला भाई था इसीलिए इस रिश्ते की हकीकत मुझ से ज्यादा कोई नहीं जानता. कह दो अपनी भाभी से या तो मैं या वह मुंहबोला भाई, जिसे चुनना है चुन ले.’’ मैं अवाक सी भैया का मुंह देखती रह गई. कालेज वाले भैया तो वे थे ही नहीं जिन से मैं कुछ बहस कर सकती. ‘रोहन भैया, रोहन भैया’ कहने वाली कालेज की बहनों का उन्हें देख कर आहें भरना मैं भी कहां भूल पाई थी कि किसी तरह का तर्क दे कर उन की सोच को झुठलाने की कोशिश करने की हिम्मत जुटा पाती.

मेरे पास भाभी को समझाने के अलावा और कोई रास्ता शेष नहीं बचा था. रोहन भैया का शक उन के अपने अनुभव पर आधारित था. न जाने मुंहबोले भाईबहन के रिश्तों को उन्होंने किस तरह जिया था. दुनिया को तो वे अपने ही अनुभव के आधार पर देखेंगे. ‘‘रिश्ता बचाना है तो आप के सामने रोहन भैया की शर्त मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है भाभी, क्योंकि उन का शक उन के अनुभव पर आधारित है और अपने ही अनुभव को भला वे कैसे नकार सकते हैं. रिश्ता बचाने के लिए त्याग आप को ही करना पड़ेगा,’’ भारी मन से भाभी से यह सब कह कर मैं चुपचाप अपने घर की ओर चल दी.

 

कामिनी आंटी: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

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सिया के आंसू : भाग 2

नताशा के पास और कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि वह साधु मैनेजर यह मानने को तैयार ही नहीं था कि ऐसी कोई घटना उस की धर्मशाला में हो भी सकती है. उस की बातों से नताशा को लगा कि हो सकता है, उसे कोई गलतफहमी हो गई हो, क्योंकि आजकल ट्रायल रूम में कैमरा छिपे होने और कपड़े बदलती लड़कियों के वीडियो बना कर उन्हें बेचने और इंटरनैट पर अपलोड कर लड़कियों को ब्लैकमेल करने संबंधी जैसे कई केस सामने आ चुके थे.

 

वीरेन काफी गुस्से में था और पुलिस में रिपोर्ट करना चाह रहा था, पर यहां भी सिया ने उसे ऐसा करने से रोक लिया और बोली, ‘‘देखो, अब कुछ देर में ही हमें यहां से मंदिर के लिए निकलना है… प्लीज, कोई बखेड़ा मत खड़ा करो.’’वीरेन खून के कड़वे घूंट पी कर रह गया था, पर उस ने तत्काल ही वहां से निकलने की बात सोची और आननफानन में सारा सामान पैक कर वे लोग उस धर्मशाला से निकल कर एक अच्छे से होटल में आ गए थे.

होटल में अपना सामान रख कर वे सिद्धनाथ मंदिर की ओर चल पड़े. एक बैग में कुछ कपड़े और पैसे वगैरह उन के साथ में था. यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर का सफर उन्हें पैदल ही तय करना था.

रास्ते में कई रैस्ट हाउस थे, जिन के बाहर एजेंट लोग ग्राहक लाने के लिए रखे गए थे और कई ऐसी भी दुकानें थीं, जो उन के यहां से प्रसाद खरीदने पर उन के जूतेचप्पलों की मुफ्त में ही रखवाली करते रहेंगे.

सिया का बस चलता तो इन सब दुकानों से कुछ न कुछ जरूर खरीदती, पर वीरेन का उखड़ा हुआ मूड देख कर वह भी सीधी चलती रही. रास्ते में उन्हें कई भिखारी मिल रहे थे, जो किसी भी तरह से पैसे मांग रहे थे.

सिद्धनाथ बाबा का मंदिर आ चुका था. सिया, नताशा और तान्या के चेहरे पर एक तरह का संतोष चमक उठा था और उन लोगों ने वहां के नजारों को अपने कैमरे में कैद करना शुरू कर दिया था.

तभी तान्या की नजर एक तरफ बैठे नागा साधुओं पर गई, जो चिलम पी रहे थे.‘‘पहना दे छल्ला, लेले लल्ला,’’ एक नागा साधु ने सिया की तरफ देखते हुए कहा और फिर से चीखा, ‘‘पहना दे छल्ला, लेले लल्ला…’’ और अपने अंग की तरफ इशारा किया.

इस भद्दे इशारे पर सिया को बहुत बुरा लगा. उस ने सोचा कि वह जा कर उस नागा का मुंह ही नोच ले, पर वह जानती थी कि यहां पर नागा लोगों की पूरी जमात है और इन्हें छेड़ना किसी भी सूरत में सही नहीं होगा, इसलिए उस ने उस नागा की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

‘‘मंदिर में प्रवेश से पहले अपने हाथमुंहपैर धो लें आप लोग,’’ एक लड़का उन लोगों के पास आ कर बोला.‘‘हांहां… पर यहां कहीं तो कोई पानी की टंकी या नलका दिखाई नहीं पड़ता,’’ वीरेन ने कहा.

‘‘श्रीमानजी, यहां सब है… वह जो सामने एक कमरा सा दिख रहा है, उस में कोई भी जा कर उसे इस्तेमाल में ले सकता है… बस, उस की कीमत देनी होगी,’’ उस लड़के ने कहा.‘कीमत… पर, ये तो आम सुविधाएं हैं, सरकार और मंदिर प्रशासन की तरफ से मुफ्त मिलती हैं,’’ वीरेन ने चौंकते हुए कहा.

‘‘जी मिलती होंगी, पर यहां पर आप को कीमत चुकानी होगी. एक आदमी मात्र 100 रुपए दे कर इस बाथरूम की सुविधा ले सकता है… आप 4 लोग हैं, इसलिए 400 रुपए दे दीजिए.’’‘‘बड़ी अजीब सी बात है…’’ वीरेन बुदबुदाया.

उस का माथा गरम होता देख कर सिया ने कहा, ‘‘हाथपैर धोना तो जरूरी ही होता है, इसलिए यह लो भाई 400 रुपए…’’ कह कर सिया ने उस लड़के को पैसे दिए और सभी लोग फ्रैश हो कर सिद्ध बाबा के दर्शन की तरफ बढ़ लिए.

आगे कुछ दुकानें लगी हुई थीं, जिन पर प्रसाद बिक रहा था और प्रसाद की थाली के उचित रेट के बदले में 20 गुना दाम वसूले जा रहे थे. कोई थाली 1,100 रुपए की थी, तो कोई 2,100 रुपए की.पर मरता क्या न करता… इन चारों ने भी 1,100-1,100 रुपए की 4 थालियां ले लीं.

दर्शन के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी. ये लोग भी लाइन में जा कर लग गए. थोड़ी देर बाद तान्या को अपने सीने पर किसी की कुहनी लगने का अंदेशा हुआ और यह अंदेशा गलत नहीं था, बल्कि मंदिर की दीवार की सफाई का बहाना करता एक जवान पंडा तान्या के सीने पर बारबार अपनी कुहनी से दबाव बना रहा था.

 

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