मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 2

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट

अपराधबोध: परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

बड़ी मुश्किल से जज्ब किया था उन्होंने अपने मन के भावों को. अस्पताल में उन की पत्नी वर्षा जिंदगी और मौत से जूझ रही थी और घर में वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलस रहे थे.

और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बेटे को फोन मिलाया, ‘‘रवि, मैं अभी अस्पताल आ रहा हूं. मुझे एक बात बतानी है बेटे, सुन, मैं ने ही…’’

‘‘पापा, आप को मेरी कसम. आप अस्पताल नहीं आएंगे. घर में आराम करेंगे. मैं यहां सब संभाल लूंगा. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं पापा… ’’

फोन कट गया. सुबह से तीसरी बार बेटे ने कसम दे कर उन्हें अस्पताल आने से रोक दिया था. मानसिक तनाव था या फिर बुखार की हरारत, सहसा खड़ेखड़े चक्कर आ गया. वह आह भर कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े. पुराने लमहे, दर्द की छाया बन कर, आंखों के आगे छाने लगे.

वर्षा, उन की पत्नी…22 सालों का साथ…जाने कैसे उसी के प्राणों के दुश्मन बन बैठे  जिसे जिंदगी से बढ़ कर चाहा था. लंबी, गोरी, आकर्षक , आत्मनिर्भर वर्षा से कालिज में हुई पहली मुलाकात उम्र भर का साथ बन गई थी. दीवानगी की हद तक चाहा उसे. शादी की, जिंदगी के एक नए और खूबसूरत पहलू को शिद्दत से जीया. उस के दामन में खुशियां लुटाईं. वर्ष दर वर्ष आगे खिसकते रहे. समय के साथ दोनों अपनेअपने कामों में मशगूल हो गए.

वर्षा जहां नौकरी करती थी उसी कंपनी में नायक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव था. इधर कुछ समय से नायक, वर्षा में खासी दिलचस्पी लेने लगा था. दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और यही बात मधुकर को खटकने लगी. वह जितना भी चाहते कि उन के रिश्ते के प्रति उदार बनें, इस दोस्ती को स्वीकार कर लें पर हर बार उन की इस चाहत के बीच अहम और शक की दीवार खड़ी हो जाती.

कभीकभी मधुकरजी सोचते थे, काश, वर्षा इतनी खूबसूरत न होती. 42 साल की होने के बावजूद वह एक कमसिन, नाजुक काया की स्वामिनी थी. एक्टिव इतनी कि कालिज की कमसिन लड़कियां भी उस के सामने पानी भरें जबकि वह अब प्रौढ़ नजर आने लगे थे.

जाने कब और कैसे मन में उठे गतिरोध और ईर्ष्या के इन्हीं भावों ने उन के दिल में असुरक्षा और शक का बीज बो दिया. नतीजा सामने था. अपनी बीवी को खत्म करने की साजिश रची उन्होंने. एक बार फिर अपराधबोध ने उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया.

डा. कर्ण की आवाज उन के कानों में गूंज रही थी, ‘आप को शुगर की शिकायत तो नहीं, मधुकर?’

‘नहीं, मुझे ऐसी कोई तकलीफ नहीं. मगर डाक्टर साहब, आप ने ऐसा क्यों पूछा? कोई खास वजह?’ मधुकर ने जिज्ञासावश प्रश्न किया था.

‘दरअसल, इस दवा को देने से पहले मुझे मरीज से यह सवाल करना ही पड़ता है. शुगर के रोगी के लिए ये गोलियां जहर का काम करेंगी. इस की एक खुराक भी उस की मौत का सबब बन सकती है. हमें इस मामले में खास चौकसी बरतनी पड़ती है. वैसे आप निश्ंिचत हो कर इसे खाइए. आप को तुरंत राहत मिलेगी.’

2 दिन पहले बुखार व दूसरी तकलीफों के दौरान दी गई डा. कर्ण की इसी दवा को उन्होंने वर्षा की हत्या का शगल बनाया. वह जानते हैं कि वर्षा को बहुत अधिक शुगर रहता है और वह इस के लिए नियमित रूप से दवा भी लेती है. बस, इसी आधार पर उन के दिमाग ने एक खौफनाक योजना बना डाली.

कल रात भी नायक के मसले को ले कर उन के बीच तीखी बहस हुई थी. देर तक दोनों झगड़ते रहे, अंत हमेशा की तरह, वर्षा के आंसुओं और मधुकर के मौन धारण से हुआ. वर्षा दूसरे कमरे में सोने चली गई. जाते समय उस ने रामू को आवाज दी और चाय बनाने को कहा. फिर खुद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई. रामू चाय रख कर गया तो मधुकरजी चुपके से उस के कमरे में घुसे और चाय में दवा की 3-4 गोलियां मिला दीं.

अब नहीं बचेगी. आजाद हो जाऊंगा मैं. यह सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गए और बिस्तर पर लेट गए. इनसान जिसे हद से ज्यादा चाहता है, कभीकभी उसी से बेपनाह नफरत भी करने लगता है. यही हुआ था शायद मधुकरजी के साथ भी. वह सोच रहे थे…

…कितना कड़वा स्वभाव हो गया है, वर्षा का. जब देखो, झगड़ने को तैयार.

मैं कुछ नहीं, अब नायक ही सबकुछ हो गया है, उस के लिए. कहती है कि किस मनहूस घड़ी में मुझ से शादी कर ली. मेरा मुंह नहीं देखना चाहती. मुझे शक्की और झक्की कह कर पुकारती है. अब देखूंगा, कितनी जीभ चलती है इस की.

वह करवट बदल कर लेट गए थे. लेटेलेटे ही सोचा कि अब तक वह चाय पी चुकी होगी. खत्म हो जाएगी सारी चिकचिक. जीना हराम कर रखा था इस ने, जब भी नायक के साथ देखता हूं, मेरे सारे बदन में आग लग जाती है. यह बात वह अच्छी तरह समझती है, मगर अपनी हठ नहीं छोड़ेगी. काफी देर तक मन ही मन वर्षा को कोसते रहे वह, फिर मन के पंछी ने करवट ली. दिल में हूक सी उठी.

एकाएक कुछ खो जाने के एहसास से मन भीग गया.

क्या मैं ने ठीक किया? उसे इतनी बड़ी सजा दे डाली. क्या वह इस की हकदार थी? क्या अब मैं बिलकुल तनहा नहीं रह जाऊंगा? अब मेरा क्या होगा?

दिल में हलचल मच गई. अब पछतावे का तम उन के दिमाग को कुंद करने लगा. उस पर तेज बुखार की वजह से भी बेहोशी सी छा गई.

अचानक आधी रात के समय शोरशराबा सुन कर वह जग पड़े. बाहर निकले तो देखा, बेटा रवि, वर्षा को लाद कर कार में बिठा रहा है.

रामू ने बताया, ‘‘साहब, मालकिन की तबीयत बहुत बिगड़ गई है.’’

उन का दिल धक् से रह गया. वह चौकस हो उठे, ‘‘मैं भी चलूंगा.’’

उन्होंने बेटे को रोकना चाहा पर बेटे ने यह कहते हुए कार स्टार्ट कर दी, ‘‘नहीं, पापा. आप का शरीर तप रहा है. आप आराम करें. मैं हूं ना.’’

मधुकर पत्थर के बेजान बुत से खड़े रह गए. जैसे किसी ने उन के शरीर से प्राण निकाल लिए हों. क्या अब यही अकेलापन, यही तनहाई जीवन भर टीस बन कर उन के दिल को बेधती रहेगी?

‘‘बाबूजी, चाय ले आऊं क्या?’’ रामू ने आवाज दी तो मधुकर जैसे तंद्रा से जागे.

‘‘नहीं रे, दिल नहीं है. एक काम कर रामू, बिस्तर पर सहारा ले कर बैठते हुए वह बोले, जरा मेरे लिए एक आटोरिकशा ले आ. मुझे अस्पताल जाना ही होगा.’’

‘‘यह पाप मैं नहीं करूंगा मालिक. छोटे मालिक भी बोल कर गए हैं. 4 दिन से आप की तबीयत कितनी खराब चल रही है. वह सब संभाल लेंगे. आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं.’’

मधुकरजी को गुस्सा आया रामू पर. सोचा, खुद ही चला जाऊं. मगर डगमगाते कदमों से ज्यादा आगे नहीं जा सके. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. फिर क्या हुआ, उन्हें याद नहीं. होश आया तो खुद को बिस्तर पर पाया. सामने डाक्टर खड़ा था और रामू उन से कह रहा था :

‘‘मालिक पिछले 2 घंटे से बेहोशी में जाने क्याक्या बड़बड़ा रहे थे. कभी कहते थे, मैं हत्यारा हूं, तो कभी मालकिन का नाम ले कर कहते थे, वापस लौट आ, तुझे मेरी कसम…’’

मधुकरजी को महसूस हुआ जैसे उन का सिर दर्द से फटा जा रहा है. उन्होंने चुपचाप आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों के आगे वर्षा का चेहरा घूम गया. जैसे वह कह रही हो कि क्या सोचते हो, मुझे मार कर तुम चैन से जी सकोगे? नहीं मधुकर, यह तुम्हारा भ्रम है. मैं भटकूंगी तो तुम्हें भी चैन नहीं लेने दूंगी. पलपल तड़पाऊंगी…यह कहतेकहते वर्षा का चेहरा विकराल हो गया. वह चीख उठे, ‘‘नहीं…’’

सामने रामू खड़ा था, बोला, ‘‘क्या हुआ, मालिक?’’

‘‘कुछ नहीं, वर्षा नहीं बचेगी, रामू. मैं ने उसे मार दिया…’’ वह होंठों से बुदबुदाए.

‘‘मालिक, मैं अभी ठंडे पानी की पट्टी लाता हूं. आप की तबीयत ठीक नहीं.’’

रामू दौड़ कर ठंडा पानी ले आया और माथे पर ठंडी पट्टी रखने लगा.

मधुकरजी सोचने लगे कि ये मैं ने क्या किया? वर्षा ही तो मेरी दोस्त, बीवी, हमसफर, सलाहकार…सबकुछ थी. मेरा दर्द समझती थी. पिछले साल मैं बीमार पड़ा था तो कैसे रातदिन जाग कर सेवा की थी. परसों भी, जरा सी तबीयत बिगड़ी तो एकदम से घबरा गई थी वह, जबरदस्ती मुझे डाक्टर के पास ले गई.

मैं ने बेवजह उस पर शक किया. दफ्तर में चार लोग मिल कर काम करेंगे तो उन में दोस्ती तो होगी ही. इस में गलत क्या है? इस के लिए रोजरोज मैं उसे टीज करता था. तभी तो वह झल्ला उठती थी. हमारे बीच झगड़े की वजह मेरा गलत नजरिया ही था. काश, गया वक्त वापस लौट आता तो मैं उसे खुद से जुदा न करता. अब शायद कभी जीवन में सुकून न पा सकूं. यह सब सोच कर मधुकरजी और भी परेशान हो उठे.

‘‘रामू, फोन दे इधर…’’ और रामू के हाथ से झट फोन ले कर उन्होंने सीधे अस्पताल का नंबर मिलाया. वह इंगेज था. फिर डाक्टर के मोबाइल पर बात करनी चाही मगर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था.

क्या करूं? मैं जब तक किसी को हकीकत न बता दूं, मुझे शांति नहीं मिलेगी. डाक्टर को जानकारी मिल जाए कि उसे वह दवा दी गई है तो शायद वह बेहतर इलाज कर सकेंगे. यह सोच कर उन्होंने फिर से बेटे को फोन लगाया.

‘‘पापा, ममा को ले कर टेंशन न करें. यहां मैं हूं. आप अपनी तबीयत का खयाल रखें…’’

‘‘होश आया उसे?’’

‘‘हां, बस आधेएक घंटे में…हैलो डाक्टर, एक मिनट प्लीज…’’

‘‘हैलो….हैलो बेटे, मैं एक बात बताना चाहता हूं…जरा डाक्टर साहब को फोन दो…’’

‘‘…डाक्टर साहब, जरा देखिए, यह तीसरे नंबर की दवा…’’

रवि उन से बात करतेकरते अचानक डाक्टर से बातें करने में मशगूल हो गया और फोन कट गया.

वह सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘दवा खा लीजिए, मालिक,’’ रामू दवा ले कर आया.

‘‘जहन्नुम में जाए ये दवा…’’ गोली फेंकते हुए मधुकरजी उठे और वर्षा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

अंदर खड़े हो कर देखने लगे. वर्षा का बिस्तर…मेज पर रखी तसवीर… अलमारी…कपड़े…सबकुछ छू कर वह वर्षा को महसूस करना चाहते थे. अचानक ईयररिंग हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा. वह उठाने के लिए झुके तो चक्कर सा आ गया. वह वहीं आंख बंद कर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद मुश्किल से आंखें खोलीं. यह क्या? चाय का वही नया वाला ग्लास नीचे रखा था जिस में वह चुपके से आ कर गोली डाल गए थे. ग्लास में चाय अब भी ज्यों की त्यों भरी पड़ी थी.

तब तक रामू आ गया, ‘‘…ये चाय…’’ वह असमंजस से रामू की तरफ देख रहे थे.

‘‘ये चाय, हां…वह दूध में मक्खी पड़ गई थी. इसीलिए मालकिन ने पी नहीं. जब तक मैं दूसरा ग्लास चाय बना कर लाया, वह सो चुकी थीं.’’

मधुकरजी चुपचाप रामू को देखते रहे. अचानक ही दिमाग में चल रही सारी उथलपुथल को विराम लग गया. एक मक्खी ने उन के सीने का सारा बोझ उतार दिया था…यानी, मैं दोषी नहीं. यह सोच कर वह खुश हो उठे.

तभी मोबाइल बज उठा, ‘‘पापा, मैं ममा को ले कर आधे घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘‘वर्षा ठीक हो गई?’’

‘‘हां, पापा, अब बेहतर हैं. हार्ट अटैक का झटका था, पर हलका सा. डाक्टर ने काबू कर लिया है. बस, दवा नियम से खानी होगी.’’

ओह, मेरी वर्षा…कितना खुश हूं मैं…तुम्हारा लौट कर आना, आज कितना भला लग रहा है.

मधुकर मुसकराते हुए शांति से सोफे पर बैठ कर पत्नी और बेटे का इंतजार करने लगे. अब उन्हें किसी को कुछ बताने की चिंता नहीं थी.

साथ साथ: कौन-सी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ – भाग 3

रज्जाक के साथ गांव से भाग कर रुखसाना अपने मामूजान के घर आ गई. मामीजान ने रज्जाक के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘यह मेरे शौहर हैं.’

मामीजान को हैरत में छोड़ कर रुखसाना रज्जाक को साथ ले सीधा मामूजान के कमरे की तरफ चल दी. क्योंकि एकएक पल उस के लिए बेहद कीमती था.

मामूजान एक कीमती कश्मीरी शाल पर नक्काशी कर रहे थे. दुआसलाम कर के वह चुपचाप मामूजान के पास बैठ गई और रज्जाक को भी बैठने का इशारा किया.

बचपन से रुखसाना की आदत थी कि जब भी कोई मुसीबत आती तो वह मामूजान के पास जा कर चुपचाप बैठ जाती. मामूजान खुद ही समझ जाते कि बच्ची परेशान है और उस की परेशानी का कोेई न कोई रास्ता निकाल देते.

कनखियों से रज्जाक को देख मामूजान बोल पड़े, ‘इस बार कौन सी मुसीबत उठा लाई है, बच्ची?’

‘मामूजान, इस बार की मुसीबत वाकई जानलेवा है. किसी को भनक भी लग गई तो सब मारे जाएंगे. दरअसल, मामूजान इन को मजबूरी में जेहादियों का साथ देना पड़ा था पर अब ये इस अंधी गली से निकलना चाहते हैं. हम साथसाथ घर बसाना चाहते हैं. अब तो आप ही का सहारा है मामू, वरना आप की बच्ची मर जाएगी,’ इतना कह कर रुखसाना मामूजान के कदमों में गिर कर रोने लगी.

अपने प्रति रुखसाना की यह बेपनाह मुहब्बत देख कर रज्जाक मियां का दिल भर आया. चेहरे पर दृढ़ता चमकने लगी. मामूजान ने एक नजर रज्जाक की तरफ देखा और अनुभवी आंखें प्रेम की गहराई को ताड़ गईं. बोले, ‘सच्ची मुहब्बत करने वालों का साथ देना हर नेक बंदे का धर्म है. तुम लोग चिंता मत करो. मैं तुम्हें एक ऐसे शहर का पता देता हूं जो यहां से बहुत दूर है और साथ ही इतना विशाल है कि अपने आगोश में तुम दोनों को आसानी से छिपा सकता है. देखो, तुम दोनों कोलकाता चले जाओ. वहां मेरा अच्छाखासा कारोबार है. जहां मैं ठहरता हूं वह मकान मालिक गोविंदरामजी भी बड़े अच्छे इनसान हैं. वहां पहुंचने के बाद कोई चिंता नहीं…उन के नाम मैं एक खत लिखे देता हूं.’

मामूजान ने खत लिख कर रज्जाक को पकड़ा दिया था जिस पर गोविंदरामजी का पूरा पता लिखा था. फिर वह घर के अंदर गए और अपने बेटे की जीन्स की पैंट और कमीज ले आए और बोले, ‘इन्हें पहन लो रज्जाक मियां, शक के दायरे में नहीं आओगे. और यहां से तुम दोनों सीधे जम्मू जा कर कोलकाता जाने वाली गाड़ी पर बैठ जाना.’

जिस मुहब्बत की मंजिल सिर्फ बरबादी नजर आ रही थी उसे रुखसाना ने अपनी इच्छाशक्ति से आबाद कर दिया था. एक युवक को जेहादियों की अंधी गली से निकाल कर जीवन की मुख्यधारा में शामिल कर के एक खुशहाल गृहस्थी का मालिक बनाना कोई आसान काम नहीं था. पर न जाने रुखसाना पर कौन सा जनून सवार था कि वह अपने महबूब और मुहब्बत को उस मुसीबत से निकाल लाई थी.

पता ही नहीं चला कब साल पर साल बीत गए और वे कोलकाता शहर के भीड़़ का एक हिस्सा बन गए. रज्जाक बड़ा मेहनती और ईमानदार था. शायद इसीलिए गोविंदराम ने उसे अपनी ही दुकान में अच्छेखासे वेतन पर रख लिया था और जब रफीक गोद में आया तो उन की गृहस्थी झूम उठी.

शुरुआत में पहचान लिए जाने के डर से रज्जाक और रुखसाना घर से कम ही निकलते थे पर जैसेजैसे रफीक बड़ा होने लगा उसे घुमाने के बहाने वे दोनों भी खूब घूमने लगे थे. लेकिन कहते हैं न कि काले अतीत को हम बेशक छोड़ना चाहें पर अतीत का काला साया हमें आसानी से नहीं छोड़ता.

रोज की तरह उस दिन भी रज्जाक काम पर जा रहा था और रुखसाना डेढ़ साल के रफीक को गोद में लिए चौखट पर खड़ी थी. तभी न जाने 2 नकाबपोश कहां से हाजिर हुए और धांयधांय की आवाज से सुबह का शांत वातावरण गूंज उठा.

उस खौफनाक दृश्य की याद आते ही रुखसाना जोर से चीख पड़ी तो आसपास के लोग उस की तरफ भागे. रुखसाना बिलखबिलख कर रो रही थी. इतने में गोविंदराम की जानीपहचानी आवाज ने उस को अतीत से वर्तमान में ला खड़ा किया, वह कह रहे थे, ‘‘रुखसाना बहन, अब घबराने की कोई जरूरत नहीं. आपरेशन ठीकठाक हो गया है. रज्जाक मियां अब ठीक हैं. कुछ ही घंटों में उन्हें होश आ जाएगा.’’

रुखसाना के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उसे कहां चोट लगी थी यह किसी की समझ से परे था.

इतने में किसी ने रफीक को उस की गोद में डाल दिया. रुखसाना ने चेहरा उठा कर देखा तो शीला बहन बड़े प्यार से उस की तरफ देख रही थीं. बोलीं, ‘‘चलो, रुखसाना, घर चलो. नहाधो कर कुछ खा लो. अब तो रज्जाक भाई भी ठीक हैं और फिर तुम्हारे गोविंदभाई तो यहीं रहेंगे. रफीक तुम्हारी गोद को तरस गया था इसलिए मैं इसे यहां ले आई.’’

रुखसाना भौचक्क हो कर कभी शीला को तो कभी गोविंदराम को देख रही थी. और सोच रही थी कि अब तक तो इन्हें उस की और रज्जाक की असलियत का पता चल गया होगा. तो पुलिस के झमेले भी इन्होंने झेले होंगे. फिर भी कितने प्यार से उसे लेने आए हैं.

रुखसाना आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं बहन, अब हम आप पर और बोझ नहीं बनेंगे. पहले ही आप के हम पर बड़े एहसान हैं. हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. कुछ लोग दुनिया में सिर्फ गम झेलने और मरने को आते हैं. हम अपने गुनाह की सजा आप को नहीं भोगने देंगे. आप समझती होंगी कि वे लोग हमें छोड़ देंगे? कभी नहीं.’’

‘‘रुखसाना कि वे आतंकवादी गली से बाहर निकल भी न पाए थे कि महल्ले वाले उन पर झपट पड़े. फिर क्या था, जिस के हाथों में जो भी था उसी से मारमार कर उन्हें अधमरा कर दिया, तब जा कर पुलिस के हवाले किया. दरअसल, इनसान न तो धर्म से बड़ा होता है और न ही जन्म से. वह तो अपने कर्म से बड़ा होता है. तुम ने जिस भटके हुए युवक को सही रास्ता दिखाया वह वाकई काबिलेतारीफ है. आज तुम अकेली नहीं, सारा महल्ला तुम्हारे साथ है .’’

शीला की इन हौसला भरी बातों ने रुखसाना की आंखों के आगे से काला परदा हटा दिया. रुखसाना ने देखा शाम ढल चुकी थी और एक नई सुबह उस का इंतजार कर रही थी. महल्ले के सभी बड़ेबुजुर्ग और जवान हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए खड़े थे. वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगी, ‘हम साथसाथ हैं.’

मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 2

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

 

गलीचा: रमेश की तीखी आलोचना करने वाली नगीना को क्या मिला जवाब

संगीता और नगीना का परिचय एक यात्रा के दौरान हुआ था. उस से पहले वे कभी नहीं मिली थीं. एक ही दफ्तर में काम करने के कारण उन दोनों के पति ही एकदूसरे के घर आतेजाते थे. इसीलिए वे दोनों एकदूसरे की पत्नियों से भी परिचित हो गए थे, लेकिन दोनों की पत्नियों का मिलन पहली बार इस यात्रा में ही हुआ था.

हुआ यों कि संगीता के पति दीपक ने दफ्तर से 15 दिन की छुट्टी ली. दीपक के साथ काम करने वालों ने सहज ही पूछलिया, ‘‘क्या बात है, दीपक, इतनी लंबी छुट्टी ले कर कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’’

दीपक ने सचाई बता दी, ‘‘हां, हमारा विचार राजस्थान के कुछ ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा करने का है. पत्नी कई दिनों से घूमनेके लिए चलने का आग्रह कर रही थी, इसीलिए मैं ने इस बार 15 दिन की यात्रा का कार्यक्रम बना डाला.’’

सभी ने दीपक के इस निश्चय की सराहना करते हुए कहा, ‘‘हो आओ. घूमनेफिरने से ताजगी आती है. आदमी को साल दो साल में घर से निकलना ही चाहिए. इस से मन की उदासी दूर हो जाती है.’’

तभी नगीना के पति रमेश ने दीपक से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे साथ और कोई भी जा रहा है?’’

‘‘नहीं, बस, श्रीमतीजी और मैं ही जा रहे हैं. बच्चे भी साथ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि इस से उन की पढ़ाई में हर्ज होगा. वे अपने दादादादी के पास रहेंगे.’’

‘‘यह तो तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया.’’

‘‘हां, मगर उन के बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के साथ रहने से मन लगा रहता है.’’

‘‘भई, मेरी पत्नी भी कहीं चलने के लिए जोर डाल रही है, पर सोचता हूं…’’

‘‘इस में सोचने की क्या बात है? अगर राजस्थान में घूमने की इच्छा हो तो हमारे साथ चलो.’’

‘‘तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’

‘‘हमें क्या असुविधा होगी, भई, हनीमून मनाने थोड़े ही जा रहे हैं.’’

दफ्तर के सभी लोग ठठा कर हंस पड़े. सभी ने रमेश से आग्रह किया, ‘‘जाओ,भई, ऐसा मौका मत छोड़ो. सफर में एक से दो भले. पर्यटन में अपनों का साथ होना बहुत अच्छा रहता है.’’

रमेश को यह सलाह जंच गई. उस ने उसी समय छुट्टी की अरजी दे डाली. बड़े बाबू ने अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए उस की छुट्टी की भी स्वीकृति दे दी. इसीलिए दोनों दंपतियों का साथ हो गया.

रेलवे स्टेशन पर दोनों जोड़ों का जब मिलन हुआ तो संगीता ने नगीना से कहा, ‘‘देखिए, एक ही शहर में रहते हुए भी हम अभी तक नहीं मिल पाईं?’’

नगीना ने मोहक मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘अब हम लोग खूब मिला करेंगी, पिछली सारी कसर पूरी कर लेंगी.’’

इस यात्रा में संगीता औैर नगीना का बराबर साथ रहा. रेल और मोटर में तो उन का साथ रहता ही था. वे लोग जहां ठहरते थे, वहां भी कमरे पासपास ही होते थे. एक बार तो एक ही कमरे में दोनों जोड़ों को रात बितानी पड़ी. लिहाजा, इस सफर में नगीना और संगीता को एकदूसरे को देखनेसमझने के खूब मौके मिले.

इस अवधि में संगीता ने यह जाना कि रमेश पत्नी का खूब खयाल रखता है. वह दिनरात उस की सुखसुविधा के लिए चिंतित रहता है. वह नगीना की पसंद की चीजें नजर आते ही ले आता है. आग्रह करकर के खिलातापिलाता. पत्नी को जरा सा उदास देखते ही वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता, ‘‘क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द तो नहीं हो रहा है? क्या हाथपैर ही दर्द कर रहे हैं?’’

नगीना के मुंह से अगर कभी यह निकल जाता कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है तो रमेश भागदौड़ मचा देता. पत्नी के सिर पर कभी बाम मलता तो कभी हाथपैर ही दबाने लगता. जरूरत होती तो डाक्टर को भी बुला लाता.

नगीना मना करती रह जाती, ‘‘घबराने की कोईर् बात नहीं. साधारण बुखार है.’’

मगर रमेश घबरा जाता. नगीना जब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती थी, तब तक वह बेहद परेशान रहता. जब नगीना हंसहंस कर बातें करने लगती तब कहीं उस की जान में जान आती.

पत्नी को यों खिलीखिली सी रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता.सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस अवधि में वह अपनी पत्नी पर न तो कभी झल्लाता, न ही नाराज होता. कई बार नगीना ने उस की इच्छा के खिलाफ भी काम किया. फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा.

रमेश के इस व्यवहार से संगीता बड़ी प्रभावित हुई. उसे नगीना से ईर्ष्या होने लगी. वह मन ही मन अपने पति दीपक और रमेश में तुलना करने लगती.

जिन बातों की ओर संगीता का पहले कभी ध्यान नहीं जाता था उस ओर भी उस का ध्यान जाने लगा था. एक टीस सी उस के मन में उठने लगी थी, ‘एक मेरा पति है और एक नगीना का. दोनों में कितना अंतरहै. दीपक तो मेरा कभी खयाल ही नहीं रखता. 15 वर्ष से अधिक अवधि बीत गई हमारे विवाह को, फिर भी कोई जानकारी ही नहीं है.

‘दीपक तो बस अपनेआप में ही डूबा रहता है. हां, कुछ कह दूं तो भले ही ध्यान दे दे. मगर मेरे मन की बात जानने की उसे स्वयं कभी इच्छा ही नहीं होती. मन की बात छिपाना ही उसे नहीं आता. जो मन में आता है, वह फौरन जीभ पर ले आता है. उस का चेहरा ही बहुत कुछ कह देता है. कठोर से कठोर बात भी उस के मुंह से निकल जाती है. ऐसे क्षणों में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहताकि किसी को बुरा लगेगा या भला? वह तो बस अपने मन की बात कह के हलके हो जाते हैं. कोई मरे या जिए उस की बला से.

‘दीपक की सेवा करकर के भले ही कोई मर जाए, फिर भी प्रशंसा के दो बोल उस के मुंह से शायद ही निकलते हैं. बीमारी तक में उसे खयाल नहीं रहता कि मेरी कुछ मदद कर दे. जाने किस दुनिया में रहता है वह. उस के जीवन से कोई और भी जुड़ा हुआ है, इस का उसे ध्यान ही नहीं रहता. पत्नी का उसके लिए जैसे कोई महत्त्व ही नहीं है. न जाने किस मिट्टी का बना है वह. अच्छा बनेगा तो इतना अच्छा कि उस से अच्छा कोई और हो ही न शायद. बुरा बनेगा तो इतना बुरा कि वैरी से भी बढ़ कर. सचमुच बहुत ही विचित्र प्राणी है दीपक.’

संगीता के मन के ये उद्गार एक दिन नगीना के सामने प्रकट हो गए. उस दिन दोनों के पति यात्रा से वापस लौटने के लिए आरक्षण कराने गए थे. वे दोनों बैठी इधर- उधर की बातें कर रही थीं. तभी नगीना ने अपने पति की आलोचना शुरू कर दी. बच्चों के लिए खरीदे गए कपड़ों को ले कर पतिपत्नी में शायद खटक चुकी थी.

संगीता कुछ देर तक तो सुनती रही, किंतु जब नगीना रमेश के व्यवहार की तीखी आलोचना करने लगी तो वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं, तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं लगते. इन 12-13 दिनों में मैं ने जो कुछ देखा है, उस के आधार पर तो मैं यही कह सकती हूं कि तुम्हें अच्छा पति मिला है. वह तुम्हारा बड़ा खयाल रखते हैं. तुम्हारी सुखसुविधा के लिए वह हमेशा चिंतित रहते हैं. आश्चर्य है कि तुम ऐसे आदर्श पति की बुराई कर रही हो.’’

नगीना ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, ‘‘काश, वह आदर्श पति होते?’’

संगीता ने साश्चर्य पूछा, ‘‘फिर आदर्श पति कैसा होता है?’’

नगीना ने बड़े दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘संगीता, तुम मेरे पति को सतही तौर पर ही जान पाई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो. हकीकत में वह ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर कैसे हैं?’’

‘‘जैसे दिखते हैं वैसे नहीं हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

नगीना ने फर्श पर बिछे गलीचे की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘वह इस गलीचे की तरह हैं.’’

संगीता का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाई?’’

फर्श पर बिछे हुए गलीचे के एक कोने को थोड़ा सा उठाती हुई नगीना बोली, ‘‘संगीता, गलीचे के नीचे छिपी हुई यह धूल, यह गंदगी, किसी को नजर नहीं आती. लोगों को तो बस यह खूबसूरत गलीचा ही नजर आता है. इसे ही अगर सचाई मानना हो तो मान लो. मगर मैं तो उस नंगे फर्श को अच्छा समझती हूं जहां ऐसा कोई धोखा नहीं है. संगीता, मुझे तुम से ईर्ष्या होती है. तुम्हें कितने अच्छे पति मिले हैं. अंदरबाहर से एक से.’’

संगीता मुंहबाए नगीना को देखती रह गई. उस से कुछ कहते ही नहीं बना. ंिकंतु दीपक के प्रति उसे जैसे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी. अपने सारे दोषों के बावजूद वह उसे बहुत अच्छा लगने लगा. संगीता के मन में उस के प्रति जैसे प्यार का ज्वार उमड़ पड़ा.

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 1

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

 

बाढ़: क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी.

मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 3

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी. द्य

शी ऐंड ही: शिल्पा के तलाक के पीछे क्या थी असलियत

पहले ‘शी’ और ‘ही’ से आप का परिचय करा दूं. ‘शी’ उर्फ शिल्पा- तीखे नैननक्श वाली भद्र महिला हैं. वे सक्सैसफुल होममेकर एवं फैशन डिजाइनर हैं. काफी बिजी रहती हैं. उन का अपने होम से और प्रोफैशन से पूरा जुड़ाव और समर्पण है. उन की अपनी दिनचर्या है. हर वक्त के लिए उन के पास काम है और हर काम के लिए वक्त. उन की अपनी ही दुनिया है.

‘ही’ उर्फ हिमांशु एमएनसी में ऊंचे ओहदे पर हैं. मुंबई कोलकाता फ्लाइट लेने से पहले एअरपोर्ट पर शिल्पा हिमांशु की मुलाकात हुई. हिमांशु को स्मार्ट शिल्पा अच्छी लगी. शिल्पा ने भी इस लंबे छरहरे युवक को पसंद किया. लंबी डेटिंग के बाद परिवार वालों की अनुमति ले कर दोनों जीवनसाथी बन गए.

कोलकाता के एक बड़े रैजिडैंशियल कौंप्लैक्स में इन की मजे की गृहस्थी चल रही है. उम्र ने हिमांशु को कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया. वजन पर कंट्रोल नहीं रख पाए, हेयर लौस नहीं रोक पाए. कुछ आनुवंशिक प्रभाव भी रहा.

‘‘शीलू हिमांशु के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है…’’ मोना ने दिव्या को ब्रेकिंग न्यूज दी.

मोना को फिल्मी सितारों की पर्सनल लाइफ में काफी दिलचस्पी थी. सैलिब्रिटीज  और सिनेस्टार कपल्स के आपसी रिश्तों की खटास की पूरी जानकारी थी. ताकझांक मोना का पसंदीदा शौक था.

‘‘कैसे पता चला? पक्की न्यूज है?’’ दिव्या ने पूरी जानकारी चाही.

‘‘मेरी मेड गौरी ने बताया. शिल्पा की मेड अपने गांव गई है. गौरी आजकल वहां भी काम कर रही है. बता रही थी कि मियांबीवी अलगअलग सोते हैं… उस ने इंगलिश में डिवोर्स की चर्चा भी सुनी है,’’ मोना ने बताया.

‘‘मैडम फैशन सैलिब्रिटी बन गई हैं… बेचारा हिमांशु… शिल्पा की उस ने कितनी सपोर्ट की थी,’’ दिव्या ने हिमांशु का पक्ष लिया.

‘‘शिल्पा ने खुद को काफी मैंटेन किया है… टिपटौप रहती है… अब जोड़ी जमती

भी नहीं है,’’ मोना ने शिल्पा की फिगर की तारीफ की.

‘‘हसबैंड का स्टेटस और पैकेज तो अच्छा है?’’ दिव्या ने तर्क दिया.

‘‘कोई और भा गया होगा… फैशन की दुनिया ही निराली है… तिकोने दिल पर किस का जोर चलता है… ‘चरणदास को पीने की आदत न होती तो आज मियां अंदर बीवी बाहर न सोती…’ मोना पुराना फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मुसकराई.

मोना, दिव्या, मंजरी, शालिनी, रागिनी, अल्पना, नेहा और प्रतिभा किट्टी से जुड़ी थीं. शिल्पा भी कभी उन के साथ थी. मगर व्यस्तता के कारण उस ने किनारा कर लिया था. लेकिन मोना ऐंड कंपनी की शिल्पा में रुचि यथावत बनी रही.

देर रात अल्पना के रैजिडैंस पर पार्टी थी. अल्पना के हसबैंड दौरे पर थे. बच्चे छोटे थे.

वे सो चुके थे. ताश के पत्ते और पनीर पकौड़ों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा था. शिल्पाहिमांशु के बे्रकअप की हौट न्यूज पर चर्चा चल रही थी.

‘‘गौरी ने और क्या न्यूज दी?’’ मंजरी की कुछ और जानने की जिज्ञासा हुई.

‘‘डिवोर्स इतना आसान नहीं होता… बिटिया राजस्थान के नामी स्कूल में पढ़ रही है,’’ मोना के पास कोई खास अपडेट नहीं था.

‘‘पेरैंट्स में तनाव होता है… फैमिली बिखर जाती है. बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है?’’ शालिनी ने चिंता जताई.

‘‘हसबैंड वाइफ की तरक्की पचा नहीं पाते,’’ प्रतिभा ने पत्ते बांटते हुए अपना मंतव्य दिया.

‘‘शिल्पा ने सोचसमझ कर ही स्टैप लिया होगा,’’ नेहा ने अपना विचार व्यक्त किया.

‘‘शिल्पा से मिलूंगी… हमारी दोस्त रही है… मौरल सपोर्ट जिम्मेदारी बनती है,’’ रागिनी ने अपना निश्चय बताया.

‘‘मैं भी साथ चलूंगी,’’ मोना को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ.

संडे को शिल्पा घर पर ही थी. हिमांशु जयपुर निकल चुके थे. बिटिया को अगली क्लास में दाखिला दिलाना था. शिल्पा को भी हिमांशु के साथ जाना था. लेकिन हिमांशु को जयपुर से मुंबई निकलना था. शिल्पा ने बिटिया को हिमांशु के प्रोग्राम की जानकारी दी और उस के बर्थडे पर पापा के साथ आने की बात कही.

शिल्पा की रागिनी और मोना से लंबे अंतराल पर मुलाकात हुई थी. शिल्पा को अच्छा लगा. एक सुखद एहसास हुआ.

‘‘मेरी व्यस्तता काफी बढ़ गई है… मिलने की इच्छा तो होती है पर संभव नहीं हो पाता,’’ शिल्पा ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘गौरी का काम पसंद आया,’’ मोना ने पूछा.

‘‘ठीकठाक है… वैसे मीरा संभवतया अगले हफ्ते लौट आएगी,’’ शिल्पा को गौरी के काम से कोई शिकायत नहीं थी. मीरा शिल्पा की मेड थी.

‘‘और बताओ, गृहस्थी की गाड़ी कैसी चल रही है? बिटिया को कच्ची उम्र में इतनी दूर भेज दिया?’’ रागिनी को शिल्पा से सब कुछ उगलवाने की जल्दी थी.

‘‘हमें भी संस्कृति को होस्टल भेज कर अच्छा नहीं लगा. याद आती है तो हम दोनों साझा रो लेते हैं. यहां प्रोग्रैस कुछ ठीक नहीं थी. उस के भविष्य के लिए यही सही था. हम ने सोचसमझ कर बिटिया को दूर भेजने का फैसला किया,’’ शिल्पा की आंखें भर आईं.

‘‘बिटिया पर ही फुलस्टौप करना है? संस्कृति राखी किस की कलाई पर बांधेगी?’’ रागिनी ने सीधा सवाल किया.

‘‘पहले मिठाई, नमकीन और कौफी हो जाए, फिर तुम्हारे सवाल पर आऊंगी,’’ शिल्पा ने इजाजत ली और नाश्ते की तैयारी के लिए किचन का रुख किया.

नाश्ते के बाद शिल्पा ने रागिनी के सवाल का जवाब दिया, ‘‘हम दोनों अपना पूरा प्यार संस्कृति पर लुटाना चाहते हैं. उस की अच्छी शिक्षा, सुयोग्य वर ही हमारा लक्ष्य है. दूसरी संतान के लिए काफी देर हो चुकी है. हम ने दूसरी संतान के बजाय अपने कैरियर को प्राथमिकता दी और अब तो हम ने स्लीप डिवोर्स ले रखा है,’’ शिल्पा ने बताया.

‘‘डिवोर्स ले रखा है? क्या हिमांशु से नहीं बनती? शारीरिक मानसिक यंत्रणा देते हैं? तुम ने कभी बताया नहीं,’’ रागिनी ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हमारे आपसी संबंध काफी अच्छे हैं. हिमांशु मेरी केयर करते हैं, मुझे प्यार करते हैं, मेरी जरूरतों को पूरा करते हैं, सपोर्ट करते हैं. कभी शिकायत का मौका नहीं देते,’’ शिल्पा ने हिमांशु की तारीफ की.

‘‘आप दोनों साथसाथ रहते हैं… यह कैसा आधाअधूरा डिवोर्स है?’’ शिल्पा का किस्सा मोना के पल्ले नहीं पड़ा.

‘‘हमारा केवल स्लीप डिवोर्स है… हम एक ही बैड शेयर नहीं करते. यह मात्र नाइट डिवोर्स है… हम दोनों काफी व्यस्त रहते हैं. हिमांशु को देर रात तक लैपटौप पर काम करना पड़ता है. मैं थक कर लौटती हूं. अच्छी नींद स्वस्थ एवं फिट रहने के लिए बेहद जरूरी है. हिमांशु गहरी नींद में खर्राटे भी लेते हैं. कभी मुझे सुबह देर तक सोने की इच्छा होती है. हिमांशु को मेरी फिक्र रहती है. स्लीप डिवोर्स हिमांशु ने प्रपोज किया और इस के लिए मुझे तैयार किया,’’ शिल्पा ने मोना और रागिनी को पूरी बात बताई.

‘‘तुम्हारे बीच कोई इशू नहीं है?’’ मोना अचंभे में थी.

‘‘बिलकुल नहीं. आपसी सहमति से दंपती के अलग कमरे में सोने में, स्लीप डिवोर्स में कोई बुराई नहीं है. दंपती का एक ही बैड शेयर करना पुराना विचार, पुरानी परंपरा है. स्लीप डिवोर्स से आपसी संबंध में मजबूती आती है. कार्यरत और बिजी दंपतियों को विशेषरूप से इस की जरूरत महसूस होती है. मनोचिकित्सक इस की सलाह देते हैं. हम ने भी इस की जरूरत समझी और अपनाया. इस में कोर्ट और वकील की कोई जरूरत नहीं पड़ती,’’ शिल्पा ने पूरी जानकारी दी.

रागिनी और मोना निराश हो कर लौट गईं. उन्हें फ्लैश करने के लिए कोई ब्रेकिंग न्यूज जो नहीं मिली थी.

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