सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 2

जैसा कि यहां प्रचलन है, हर गर्भवती स्त्री से यह अवश्य पूछा जाता है कि वह लड़का चाहती है या लड़की, मैं ने भी पूछ लिया तो उस ने बताया, ‘मैं तो लड़की ही चाहती हूं. मेरे पति व बेटी भी यही चाहते हैं, क्योंकि लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक स्नेही व भावुक होती हैं. मैं तो इन्हें ही लड़कों की तरह पालूंगी. इस का भविष्य बनाना ही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है.’

उस दिन इतनी ही बात हुई और हम अपनेअपने घर चले आए. पर उस स्त्री की आंखों में पता नहीं क्या आकर्षण था कि उस की सूरत मेरे दिमाग पर छाई रही. यही सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

प्रात: 7 बजे नींद खुली. यहां तो डाक सुबह 7 और 9 बजे के बीच बंट जाती है. देखा, मेरे भैया का पत्र आया है. सब को नाश्ता कराया और सब काम निबटा कर फुरसत के क्षणों में सोचने लगी कि तपस्या से फिर मुलाकात होगी तो उसे अपनी सहेली बनाऊंगी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं कि उन्हें देखते ही ऐसा एहसास होता है कि न जाने कब से इन्हें जानते हैं.

शुक्रवार का दिन आया और मैं अपने पुत्र के साथ उस के स्कूल पहुंची. देखा, वह भी वहां पर उपस्थित है. थोड़ी देर बाद ही स्कूल की अध्यापिका रोजी ने मुझ से कौफी के बारे में पूछा तो ठंड से कंपकंपाते हुए अनायास ही मुंह से हां निकल गया. कुछ देर बाद तपस्या भी अपनी कौफी ले कर मेरे ही पास आ गई.

‘‘प्रेरणाजी, कुछ देर आप के पास बैठ सकती हूं मैं?’’

मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी. हम दोनों के बच्चे अपनेअपने खेलों में व्यस्त थे. बातों का सिलसिला फिर आरंभ हो गया. मैं ने पूछा, ‘‘तपस्याजी, आप ने दूसरे धर्म वाले व्यक्ति से विवाह किया. आप को क्या लगता है कि आप ने सही कदम उठाया? क्या आप के अभिभावक इस विवाह के लिए सहमत थे? मैं तो सोचती हूं कि विवाह एक जुआ है. खेलने से पहले पता नहीं होता कि जीत होगी या हार और खेलने के बाद अर्थात विवाह के पश्चात ही पता चलता है कि हम जीते हैं या हारे. और वह भी एक लंबे अंतराल के पश्चात ही पता चलता है, क्योंकि विवाह के 1-2 वर्ष तो एकदूसरे को पहचानने में ही व्यतीत हो जाते हैं.’’

इस पर उस ने कहा, ‘‘प्रेरणाजी, आप क्या करेंगी यह सब जान कर? बड़ी लंबी कहानी है, बहुत समय लगेगा.’’

‘‘मैं आप के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करती हूं. फिर भी मैं समय अवश्य निकालूंगी.’’

निश्चय हुआ कि स्कूल से निकलने के बाद वह मेरे साथ मेरे घर चलेगी और एक कप चाय पी कर मेरे घर के पास स्थित एक स्टोर से कुछ खरीदारी भी कर लेगी. हम दोनों के पति अपनेअपने काम पर गए हुए थे. स्कूल की छुट्टी होने पर हम अपनेअपने बच्चों के साथ बाहर निकले. रास्ता लंबा था, अत: बातों का क्रम आरंभ हो गया.

तपस्या ने मुझ से पहला प्रश्न किया, ‘‘क्या आप की निगाह में दूसरे धर्म या जाति के व्यक्ति से विवाह करना अपराध है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल नहीं. मैं तो बहुत खुले विचारों की हूं. और हर इनसान को केवल इनसानियत की कसौटी पर कस कर देखती हूं. न कि उस की जाति व धर्म के आधार पर. अगर आप अपने पति के साथ दुखी हैं तो ऐसी भावना हृदय से निकाल फेंकिए, क्योंकि बहुत से युवकयुवतियां एक ही जाति व धर्म के होते हुए भी विवाह के पश्चात आपस में तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं. तपस्याजी, इनसान यदि एक अच्छा इनसान ही हो तो इस एक विशेषता के कारण अन्य सभी बातें नगण्य हो जाती हैं.’’

बातें करतेकरते कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. हम दोनों के बच्चे एकदूसरे से हिलमिल गए थे. घर में घुसते ही उस ने घर की बड़ी प्रशंसा की. हम लोगों ने अपने कोट, दस्ताने, मफलर इत्यादि उतारे. मां ने पूछा, ‘‘चाय का पानी चढ़ा दूं?’’

मैं ने मां का परिचय तपस्या से कराया और कहा, ‘‘नहीं, मां, आप इन के साथ बैठिए. मैं चढ़ाती हूं चाय का पानी.’’

बच्चों को 1-1 कस्टर्ड केक दे दिया. चाय ले कर मैं बैठक में आ गई. मां भी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गईं और मैं अपनी मात्र एक दिन की जान- पहचान वाली इस नई सखी के समीप बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर बड़े ही भावुक अंदाज में मुझे बताया, ‘‘नर्सरी स्कूल में आप को देखते ही मुझे अनुमान हो गया था कि आप अवश्य ही एक संभ्रांत घराने से संबंध रखती हैं. इस देश में भी आप के भारतीय पहनावे साड़ी, माथे पर बिंदी व चेहरे की सौम्यता ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया है.’’

फिर तपस्या ने अपनी कहानी आरंभ की. वह मात्र 3 वर्ष पूर्व इस देश में आई है. इस से पूर्व वह फिजी में एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करती थी. उस के मामा अपने परिवार के साथ लंदन में रहते हैं. मात्र घूमनेफिरने के विचार से वह 3 माह का टूरिस्ट वीजा ले कर उन के पास आ गई. वहीं पर घूमतेफिरते एक दिन उसे जमील (उस के पति) मिल गए. एशियाई होने के कारण उन दोनों ने एकदूसरे की ओर मित्रवत भाव से देखा. जमील ने पूछा, ‘‘आप यहां घूमने आई हैं?’’

तपस्या ने उत्तर दिया, ‘‘हां, मैं अपने मामाजी के पास आई हूं.’’ बातोंबातों में पता चला कि उस युवक के दादादादी भी कभी फिजी में ही रहते थे और मातापिता बाद में पाकिस्तान में बस गए. उसे बचपन में ही लंदन में बसे चाचाचाची के पास शिक्षा के लिए भेज दिया गया और शिक्षा समाप्त करने के पश्चात उसे यहीं नौकरी भी मिल गई. उस का एक भाई व एक बहन आस्ट्रेलिया में हैं. तपस्या ने बताया कि उस का भी एक भाई आस्ट्रेलिया में इंजीनियर है. इस प्रकार बातें करतेकरते दोनों एकसाथ घूमते रहे. घर जाते जमील ने तपस्या से पूछा, ‘‘आप से फिर मिल सकता हूं?’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यह संभव नहीं है. मेरी माताजी इसे पसंद नहीं करेंगी,’’ इस के बाद दोनों विपरीत दिशाओं में चले गए. पर उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवन भर एक ही दिशा में, एक ही मंजिल के लिए, साथसाथ चलना होगा. कुछ समय पश्चात मामाजी के क्लब में क्रिसमस पार्टी का आयोजन था. वहां तपस्या भी उन लोगों के साथ गई. वहां जमील भी था. जमील और तपस्या एकदूसरे को देख कर हतप्रभ रह गए. भीड़भाड़ व अनजाने वातावरण ने दोनों को पुन: बातचीत करने पर विवश कर दिया.

मामाजी अपने मित्रों व मामीजी अपनी सहेलियों में व्यस्त थीं, अत: इन दोनों ने अपनी बातचीत का क्रम, जोकि उस दिन अधूरा छूट गया था, आगे बढ़ाया. तपस्या की शिक्षा, नौकरी, अन्य बातों से जमील बड़ा प्रभावित हुआ. उस ने अपने लिए बीयर व तपस्या के लिए कोक का आर्डर दिया. दोनों ही परत दर परत खुलते जा रहे थे. जमील ने तपस्या के सामने नृत्य करने का प्रस्ताव रखा. तपस्या ने यह कह कर कि मुझे नहीं आता, इनकार कर दिया.

तब जमील ने कहा, ‘‘इस गहमा- गहमी में किसे फुरसत है, जो हमारी ओर देखेगा? जैसेजैसे मैं कदम रखूंगा वैसे ही आप भी रख दीजिएगा.’’

इस तरह उन दोनों ने एकसाथ नृत्य किया, खाना खाया. कहने की बात नहीं कि दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे. तभी जमील ने न जाने क्या सोच कर तपस्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जिसे सुन कर वह हतप्रभ रह गई.

उस ने पूछा, ‘‘2 दिन की मुलाकात में ही ऐसा प्रस्ताव रख दिया आप ने?’’

जमील ने कहा, ‘‘आप के सांवले सौंदर्य व आंखों के मासूम भावों ने मुझे ऐसा प्रभावित किया है कि मैं स्वयं को रोक नहीं सका, वरना मेरे मातापिता तो पाकिस्तान से ठेठ देहाती लड़की को मेरे लिए भेजने की तैयारी कर रहे हैं. वैसी लड़की से विवाह करने से तो बेहतर है कि जिंदगी भर कुंआरा ही रह जाऊं.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘मैं जाति, धर्म में विश्वास तो नहीं करती, पर चूंकि यहां पर मेरे अभिभावक मामामामी हैं, अत: उन की राय लेनी होगी. मैं अभी कुछ नहीं कह सकती.’’

जमील ने अपना फोन नंबर दे दिया और कहा, ‘‘मैं आप की स्वीकृति की बेसब्री से प्रतीक्षा करूंगा.’’

घर जा कर अगली सुबह ही तपस्या ने अपने मामा और मामी को जमील से संबंधित सभी बातें बता कर उन की राय मांगी. उन लोगों ने भी धर्म की दीवार खड़ी करनी चाही और कहा, ‘‘तुम एक हिंदू लड़की हो और वह एक पाकिस्तानी. यह विवाह संभव नहीं है.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यदि आप की दृष्टि में उस में यही एक खोट है, तो मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है. लड़के को आप लोगों ने क्लब में देखा ही है मेरे साथ. मैं उसे फोन करने जा रही हूं.’’

उन के रोकतेरोकते भी उस ने फोन पर जमील को स्वीकृति दे दी. जमील ने अपनी खुशी में डूबी आवाज में उसे उसी शाम ही पास के एक रेस्तरां में मिलने की दावत दे डाली और शाम को जब तपस्या अपनी सब से सुंदर साड़ी में वहां पहुंची तो देखा, जमील उस की प्रतीक्षा कर रहा है. दोनों ने एकदूसरे को आंखों ही आंखों में मौन बधाई दे डाली और अगले सप्ताह शादी का कार्यक्रम निश्चित कर लिया. निश्चित दिन कोर्ट में दोनों की शादी हो गई. मामामामी को बुझे मन से सम्मिलित होना पड़ा. शादी हो गई और तपस्या अब तपस्या मुदालियर न हो कर तपस्या अली हो गई.

 

ठंडक का एहसास : चाचा को वकील लड़के क्यों नहीं पसंद थे

हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी. जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य.

‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा.

‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’

‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’

‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा समझदार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही समझ में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मुझे अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’

चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सचझूठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं. सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी.

‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’

‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’

फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने.

‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’

उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस में बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले?

सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मुझे उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में. क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है.

‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’

‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’

‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’

‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’

 

आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा. क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती.

रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगों की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’

उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’

अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं.

‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’

‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था.

‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…समझ में नहीं आता कि राजू को कैसे समझाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’

एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मुझे शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सूझता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है.

कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें समझ में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें.

गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मुझे. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए.

मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…समझ ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए?

आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है. आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और समझदारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष?

इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को समझाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे.

एक शाम मुझे जम्मू से फोन आया :

‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था.

‘‘नहीं तो, मुझे तो नहीं पता.’’

‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’ बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’

मैं ने झट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी.

एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने झट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों  के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी. के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या?

अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या?

‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’

‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’

‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया. जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है.

रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मुझे. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया?

थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई. क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही.

‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’

फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मुझे पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

चक्रव्यूह: सायरा को मुल्क अलग होने का क्यों हुआ फर्क

सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

श्रीमती साहनी मोबाइल बंद कर के सायरा की ओर मुड़ीं, ‘‘रंजीत सरवर को बता देगा कि वह मेरे मोबाइल पर तुम से बात करे. वीडियो कानफें्रस कर तुम दोनों बहनभाइयों की मुलाकात करवा देंगे.’’

‘‘शुक्रिया, आंटीजी…’’

‘‘यह तो हमारा फर्ज है बेटाजी,’’ श्रीमती साहनी उठ खड़ी हुईं.

उन के जाने के बाद सायरा ने राहत की सांस ली. हालांकि सरवर के जरिए अम्मी को उस की खैरखबर भिजवाने की जिम्मेदारी और सरवर के साथ वीडियो कानफें्रसिंग करवाने की बात कर के आंटी ने उसे बहुत राहत दी थी मगर उन का यह कहना ‘हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे’ या ‘यह तो हमारा फर्ज है’ उसे खुद और अपने मुल्क पर कटाक्ष लगा. वह कहना चाहती थी कि आप लोगों की अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने और एहसान चढ़ाने की आदत से चिढ़ कर ही तो लोग आप को मजा चखाने की सोचते हैं.

सायरा को लंदन स्कूल औफ इकनोमिक्स के वे दिन याद आ गए जब पढ़ाई के दबाव के बावजूद वह और मंसूर एकदूसरे के साथ वहां के धुंधले सर्द दिनों में इश्क की गरमाहट में रंगीन सपने देखते थे. सुनने वालों को तो यकीन नहीं होता था लेकिन पहली नजर में ही एकदूसरे पर मर मिटने वाले मंसूर और सायरा को एकदूसरे के बारे में सिवा नाम के और कुछ मालूम नहीं था.

अंतिम वर्ष में एक रोज जिक्र छिड़ने पर कि नौकरी की तलाश के लिए कौन क्या कर रहा है, सायरा ने मुंह बिचका कर कहा था, ‘नौकरी की तलाश और वह भी यहां? यहां रह कर पढ़ाई कर ली वही बहुत है.’

‘तुम ने तो मेरे खयालात को जबान दे दी, सायरा,’ मंसूर फड़क कर बोला, ‘मैं भी डिगरी मिलते ही अपने वतन लौट जाऊंगा.’

‘वहां जा कर करोगे क्या?’

‘सब से पहले तो सायरा से शादी, फिर हनीमून और उस के बाद रोजीरोटी का जुगाड़,’ मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘क्यों सायरा, ठीक है न?’

‘ठीक कैसे हो सकता है यार?’ हरभजन ने बात काटी, ‘वतन लौट कर सायरा से शादी कैसे करेगा?’

‘क्यों नहीं कर सकता? मेरे घर वाले शियासुन्नी मजहब में यकीन नहीं करते और वैसे भी हम दोनों पठान यानी खान हैं.’

‘लेकिन हो तो हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी. दोनों मुल्कों के बाशिंदों को नागरिकता या लंबा वीसा आसानी से नहीं मिलता,’ हरभजन ने कहा.

सायरा और मंसूर ने चौंक कर एकदूसरे को देखा.

‘क्या कह रहा है हरभजन? सायरा भी पंजाब से है…’

‘बंटवारे के बाद पंजाब के 2 हिस्से हो गए जिन में से एक में तुम रहते हो और एक में सायरा यानी अलगअलग मुल्कों में.’

‘क्या यह ठीक कह रहा है सायरा?’ मंसूर की आवाज कांप गई.

‘हां, मैं पंजाब यानी लाहौर से हूं.’

‘और मैं लुधियाना से,’ मंसूर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘माना कि हम से गलती हुई है, हम ने एकदूसरे को अपने शहर या मुल्क के बारे में नहीं बताया लेकिन अगर बता भी देते तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिदा तो हम एकदूसरे पर नाम जानने से पहले ही हो चुके थे.’

‘जो हो गया सो हो गया लेकिन अब क्या करोगे?’ दिव्या ने पूछा.

‘मरेंगे और क्या?’ मंसूर बोला.

‘मरना तो हर हाल ही में है क्योंकि अलग हो कर तो जी नहीं सकते सो बेहतर है इकट्ठे मर जाएं,’ सायरा बोली.

‘बुजदिली और जज्बातों की बातें करने के बजाय अक्ल से काम लो,’ अब तक चुप बैठा राजीव बोला, ‘तुम यहां रहते हुए आसानी से शादी कर सकते हो.’

‘शादी के बाद मैं इसे लुधियाना ले कर जा सकता हूं?’ मंसूर ने उतावली से पूछा.

‘शायद.’

‘तब तो बात नहीं बनी. मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता.’

‘मैं भी नहीं,’ सायरा बोली.

‘न मुल्क छोड़ सकते हो न एकदूसरे को और मरना भी एकसाथ चाहते हो तो वह तो यहीं मुमकिन होगा इसलिए जब यहीं मरना है तो क्यों नहीं शादी कर के एकसाथ जीने के बाद मरते,’ हरभजन ने सलाह दी.

‘हालात को देखते हुए यह सही सुझाव है,’ राजीव बोला.

‘घर वालों को बता देते हैं कि परीक्षा के बाद यहां आ कर हमारी शादी करवा दें,’ मंसूर ने कहा.

‘मेरी अम्मी तो आजकल यहीं हैं, अब्बू भी अगले महीने आ जाएंगे,’ सायरा बोली, ‘तब मैं उन से बात करूंगी. तुम्हें अगर अपने घर वालों को बुलाना है तो अभी बात करनी होगी.’

‘ठीक है, आज ही तफसील से सब लिख कर ईमेल कर देता हूं.’

‘तुम भी सायरा आज ही अपनी अम्मी से बात करो, उन लोगों की रजामंदी मिलनी इतनी आसान नहीं है,’ राजीव ने कहा.

राजीव का कहना ठीक था. दोनों के घर वालों ने सुनते ही कहा कि यह शादी नहीं सियासी खुदकुशी है. खतरा रिश्तेदारों से नहीं मुल्क के आम लोगों से था, दोनों मुल्कों में तनातनी तो चलती रहती थी और दोनों मुल्कों के अवाम खुनस में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे.

सायरा की अम्मी ने तो साफ कहा कि शादी के बाद हरेक लड़की को दूसरे घर का रहनसहन और तौरतरीके अपनाने पड़ते हैं लेकिन सायरा को तो दूसरे मुल्क और पूरी कौम की तहजीब अपनानी पड़ेगी.

‘तुम्हारी इस हरकत से हमारी शहर में जो इज्जत और साख है वह मिट्टी में मिल जाएगी. लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगेंगे और इस का असर कारोबार पर भी पड़ेगा,’ मंसूर के अब्बा बशीर खान का कहना था.

घर वालों ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था लेकिन एकदूसरे से अलग होना भी मंजूर नहीं था इसलिए दोनों ने घर वालों को यह कह कर मना लिया कि वे शादी के बाद लंदन में ही रहेंगे और उन लोगों को सिवा उन के नाम के किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है. उन की जिद के आगे घर वाले भी बेदिली से मान गए. वैसे दोनों ही पंजाबी बोलते थे और तौरतरीके भी एक से थे. शादी हंसीखुशी से हो गई.

कुछ रोज मजे में गुजरे लेकिन दोनों को ही लंदन पसंद नहीं था. दोस्तों का कहना था कि दुबई या सिंगापुर चले जाओ लेकिन मंसूर लुधियाना में अपने पुश्तैनी कारोबार को बढ़ाना चाहता था. भारतीय उच्चायोग से संपर्क करने पर पता चला कि उस की ब्याहता की हैसियत से सायरा अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उस के साथ भारत जा सकती थी. सायरा को भी एतराज नहीं था, वह खुश थी कि समझौता एक्सप्रेस से लाहौर जा सकती थी, अपने घर वालों को भी बुला सकती थी लेकिन बशीर खान को एतराज था. उन का कहना था कि सायरा की असलियत छिपाना आसान नहीं था और पंजाब में उस की जान को खतरा हो सकता था.

उन्होंने मंसूर को सलाह दी कि वह पंजाब के बजाय पहले किसी और शहर में नौकरी कर के तजरबा हासिल करे और फिर वहीं अपना व्यापार जमा ले. बशीर खान ने एक दोस्त के रसूक से मंसूर को पुणे में एक अच्छी नौकरी दिलवा दी. काम और जगह दोनों ही मंसूर को पसंद थे, दोस्त भी बन गए थे लेकिन उसे हमेशा अपने घर का सुख और बचपन के दोस्त याद आते थे और वह बड़ी हसरत से सोचता था कि कब दोनों मुल्कों के बीच हालात सुधरेंगे और वह सायरा को ले कर अपनों के बीच जा सकेगा.

सब की सलाह पर सायरा ने नौकरी नहीं की थी. हालांकि पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन घर बैठ कर तालीम को जाया करना उसे अच्छा नहीं लगता था और वैसे भी घर में उस का दम घुटता था. अच्छी सहेलियां जरूर बनी थीं पर कब तक आप किसी से फोन पर बात कर सकती थीं या उन के घर जा सकती थीं.

मंसूर के प्यार में कोई कमी नहीं थी, फिर भी पुणे आने के बाद सायरा को एक अजीब से अजनबीपन का एहसास होने लगा था लेकिन उसे इस बात का कतई गिला नहीं था कि उस ने क्यों मंसूर से प्यार किया या क्यों सब को छोड़ कर उस के साथ चली आई.

पुरवई : मनोहर की कौन सी बात लोगों को चुभ गई

‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसीक्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है.

संगीता माथुर

धोखा : अनुभव के साथ क्या करना चाहती थी अनुभा

‘‘हैलो मिस्टर अनुभव, क्या मैं आप के 2 मिनट ले सकती हूं?’’ मेरे केबिन में अभीअभी दाखिल हुई मोहतरमा के मधुर स्वर ने मुझे एक सुखद अहसास से भर दिया था. फाइलों से आंखें हटा कर चश्मा संभालते हुए मैं ने सामने देखा तो देखता ही रह गया.

लग रहा था जैसे हर तरफ कचनार के फूल बिखर गए हों और सारा आलम मदहोश हो रहा हो. फ्लौवर प्रिंट वाली स्टाइलिश पिंक मिडी और घुंघराले लहराते बालों को स्टाइल से पीछे करती बाला के गुलाबी होंठों पर गजब  की आमंत्रणपूर्ण मुसकान थी.

हाल ही में वायरल हुए प्रिया के वीडियो की तरह उस ने नजाकत से अपनी भौंहों को नचाते हुए कुछ कहा, जिसे मैं समझ नहीं पाया, फिर भी बल्लियों उछलते अपने दिल को काबू में करते हुए मैं ने विनम्रता से उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘मिस्टर अनुभव, मैं अनुभा. आप का ज्यादा वक्त न लेते हुए अपनी बात कहती हूं. पहले यह बताइए कि आप की उम्र क्या है?’’

ऊपर से नीचे तक मुझ पर निगाहें घुमाते हुए उस ने बड़ी अदा से कहा, ‘‘वैसे आप की कसी हुई बौडी देख कर तो लगता है कि आप 40 से ऊपर नहीं हैं. मगर किसी ने मुझे आप के पास यह कह कर भेजा है कि आप 50 प्लस हैं और आप हमारी पौलिसी का फायदा उठा सकते हैं.’’

वैसे तो मैं इसी साल 55 का हो चुका हूं, मगर अनुभा के शब्दों ने मुझे यह अहसास कराया था कि मैं अब भी कितना युवा और तंदुरुस्त दिखता हूं. भले ही थोड़ी सी तोंद निकल आई हो, चश्मा लग गया हो और सिर के सामने के बाल गायब हो रहे हों, मगर फिर भी मेरी पर्सनैलिटी देख कर अच्छेखासे जवान लड़के जलने लगते हैं.

मैं उस की तरफ देख कर मुसकराता हुआ बोला, ‘‘अजी बस शरीर फिट रखने का शौक है. उम्र 50 की हो गई है. फिर भी रोज जिम जाता हूं. तभी यह बौडीशौडी बनी है.’’

वह भरपूर अंदाज से मुसकराई, ‘‘मानना पड़ेगा मिस्टर अनुभव, गजब की प्लीजैंट पर्सनैलिटी है आप की. मेरे जैसी लड़कियां भी तुरंत फ्लैट हो जाएं आप पर.’’

कहते हुए एक राज के साथ उस ने मेरी तरफ देखा और फिर कहने लगी, ‘‘एक्चुअली हमारी कंपनी 50 प्लस लोगों के लिए एक खास पौलिसी ले कर आई है. जरा गौर फरमाएं यह है कंपनी और पौलिसी की डिटेल्स.’’

उस ने कुछ कागजात मेरी तरफ आगे बढ़ाए और खुद मुझ पर निगाहों के तीर फेंकती हुई मुसकराती रही. मैं ने कागजों पर एक नजर डाली और सहजता से बोला, ‘‘जरूर मैं लेना चाहूंगा.’’

‘‘ओके देन. फिर मैं कल आती हूं आप के पास. तब तक आप ये कागज तैयार रखिएगा.’’

कुरसी से उठते हुए उस ने फिर मेरी तरफ एक भरपूर नजर डाली और पूछा, ‘‘वैसे किस जिम में जाते हैं आप?’’

मैं सकपका गया क्योंकि जिम की बात तो उस पर इंप्रैशन जमाने के लिए कही थी. फिर कुछ याद करते हुए बोला, ‘‘ड्रीम पैलेस जिम, कैलाशपुरी में है ना, वही.’’

‘‘ओह, वाट ए कोइंसीडैंस! मैं भी तो वहीं जाती हूं. किस समय जाते हैं आप?’’

‘‘मैं 8 बजे,’’ मैं ने कहा.

‘‘अच्छा कभी हम मिले नहीं. एक्चुअली मैं 6 बजे जाती हूं ना!’’ इठलाती हुई वह दरवाजे से निकलते हुए उसी मधुर स्वर में बोली, ‘‘ओके देन बाय. सी यू.’’

वह बाहर चली गई और मैं अपने खयालों के गुलशन को आबाद करने लगा. सामने लगे शीशे में गौर से अपने आप को हर एंगल से निहारने लगा. सचमुच मेरी पर्सनैलिटी प्लीजैंट है, इस बात का अहसास गहरा हो गया था. यानी इस उम्र में भी मुझे देख कर बहुतों के दिल में कुछकुछ होता है.

मैं सोचने लगा कि सामने वाले आकाशचंद्र की साली को मैं अकसर उसी वक्त बालकनी में खड़ी देखता हूं जब मैं गाड़ी निकाल कर औफिस के लिए निकल रहा होता हूं. यानी वह इत्तफाक नहीं प्रयास है.

हो न हो मुझे देखने का बहाना तलाशती होगी और फिर पिंकी की दीदी भी तो मुझे देख कितनी खुश हो जाती है. आज जो हुआ वह तो बस दिल को ठंडक ही दे गया था. सीधेसीधे लाइन मार रही थी. बला की अदाएं थीं उस की.

मैं अपनी बढ़ी धड़कनों के साथ कुरसी पर बैठ गया. कुछ देर तक उसी के खयालों में खोया रहा. कल फिर आएगी. ठीक से तैयार हो कर आऊंगा. मैं सोच ही रहा था कि पत्नी का फोन आ गया. मैं ने जानबूझ कर फोन नहीं उठाया. कहीं मेरी आवाज के कंपन से वह अंदाजा न लगा ले और फिर औरतों को तो वैसे भी पति की हरकतों का तुरंत अंदाजा हो जाता है.

अचानक मेरी सोच की दिशा बदली कि मैं यह क्या कर रहा हूं. 55 साल का जिम्मेदार अफसर हूं. घर में बीवी, बच्चे सब हैं और मैं औफिस में किसी फुलझड़ी के खयालों में डूबा हुआ हूं. न…न…अचानक मेरे अंदर की नैतिकता जागी, पराई स्त्री के बारे में सोचना भी गलत है. मैं सचमुच काम में लग गया. बीवी के फोन ने मेरे दिमाग के शरारती तंतुओं को फिर से सुस्त कर दिया. शाम को जब घर पहुंचा तो बीवी कुछ नाराज दिखी.

‘‘मेरा फोन क्यों नहीं उठाया? कुछ सामान मंगाना था तुम से.’’

‘‘बस मंगाने के लिए फोन करती हो मुझे? कभी दिल लगाने को भी फोन कर लिया करो.’’ मेरी बात पर वह ऐसे शरमा कर मुसकराई जैसे वह कोई नई दुलहन हो. फिर वह तुरंत चाय बनाने चली गई और मैं कपड़े बदल कर रोज की तरह न्यूज देखने बैठ गया. पर आज समाचारों में मन ही नहीं लग रहा था? बारबार उस हसीना का चेहरा निगाहों के आगे आ जाता.

अगले दिन वह मोहतरमा नियत समय पर उसी अंदाज में अंदर आई. मेरे दिल पर छुरियां चलाती हुई वह सामने बैठ गई. कागजी काररवाई के दौरान लगातार उस की निगाहें मुझ पर टिकी रहीं. मैं सब महसूस कर रहा था पर पहल कैसे करता? 2 दिन बाद फिर से आने की बात कह कर वह जाने लगी. जातेजाते फिर से मेरे दिल के तार छेड़ती हुए बोली, ‘‘कल मैं 8 बजे पहुंची थी जिम, पर आप नजर नहीं आए.’’

मैं किसी चोर की तरह सकपका गया.

‘‘ओह, कल एक्चुअली बीवी के मायके जाना पड़ गया, सो जिम नहीं जा सका.’’

‘‘…मिस्टर अनुभव, आई डोंट नो, पर ऐसा क्या है आप में जो मुझे आप की तरफ खींच रहा है. अजीब सा आकर्षण है. जैसा मैं महसूस कर रही हूं क्या आप भी…?’’

उस के इस सवाल पर मुझे लगा जैसे कि मेरी सांसें ही थम गई हों. अजीब सी हालत हो गई थी मेरी. कुछ भी बोल नहीं सका.

‘ओके सी यू मैं इंतजार करूंगी.’’ कह कर वह मुसकराती हुई चली गई.

मैं आश्चर्य भरी खुशी में डूबा रहा. वह जिम में मेरा इंतजार करेगी. तो क्या सचमुच वह मुझ से प्यार करने लगी है. यह सवाल दिल में बारबार उठ रहा था.

फिर तो औफिस के कामों में मेरा मन ही नहीं लगा. हाफ डे लीव ले कर सीधा पहुंच गया ड्रीम प्लेस जिम. थोड़ी प्रैक्टिस की और अगले दिन से रोजाना 8 बजे आने की बात तय कर घर आ गया.

बीवी मुझे जल्दी आया देख चौंक गई. मैं बीमारी का बहाना कर के कमरे में जा कर चुपचाप लेट गया. एक्चुअली किसी से बात करने की कोई इच्छा ही नहीं हो रही थी. मैं तो बस डूब जाना चाहता था अनुभा के खयालों में.

अगले दिन से रोजाना 8 बजे अनुभा मुझे जिम में मिलने आने लगी. कभीकभी हम चाय कौफी पीने या टहलने भी निकल जाते. मेरी बीवी अकसर मेरे बरताव और रूटीन में आए बदलाव को ले कर सवाल करती पर मैं बड़ी चालाकी से बहाने बना देता.

जिंदगी इन दिनों बड़ी खुशगवार गुजर रही थी. अजीब सा नशा होता था उस के संग बिताए लम्हों में. पूरा दिन उसी के खयालों की खुशबू में विचरते हुए गुजर जाता.

मैं तरहतरह के महंगे गिफ्ट्स ले कर उस के पास पहुंचता, वह खुश हो जाती. कभीकभी वह करीब आती, अनजाने ही मुझे छू कर चली जाती. उस स्पर्श में गजब का आकर्षण होता. मुझे लगता जैसे मैं किसी और ही दुनिया में पहुंच गया हूं.

धीरेधीरे मेरी इस मदहोशी ने औफिस में मेरे परफौर्मेंस पर असर डालना शुरू कर दिया. मेरा बौस मुझ से नाखुश रहने लगा. पारिवारिक जीवन पर भी असर पड़ रहा था. एक दिन मेरे किसी परिचित ने मुझे अनुभा के साथ देख लिया और जा कर बीवी को बता दिया.

बीवी चौकन्नी हो गई और मुझ से कटीकटी सी रहने लगी. वह मेरे फोन और आनेजाने के समय पर नजर रखने लगी थी. मुझे इस बात का अहसास था पर मैं क्या करता? अब अनुभा के बगैर रहने की सोच भी नहीं सकता था.

एक दिन अनुभा मेरे बिलकुल करीब आ कर बोली, ‘‘अब आगे?’’

‘‘आगे क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आगे बताइए मिस्टर, मैं आप की बीवी तो बन नहीं सकती. आप के उस घर में रह नहीं सकती. इस तरह कब तक चलेगा?’’

‘तुम कहो तो तुम्हारे लिए एक दूसरा घर खरीद दूं.’’

वह मुसकुराती हुई बोली, ‘‘अच्छे काम में देर कैसी? मैं भी यही कहना चाहती थी कि हम दोनों का एक खूबसूरत घर होना चाहिए. जहां तुम बेरोकटोक मुझ से मिलने आ सको. किसी को पता भी नहीं चलेगा. फिर तो तुम वह सब भी पा सकोगे जो तुम्हारी नजरें कहती हैं. मेरे नाम पर एक घर खरीद दोगे तो मुझे भी ऐतबार हो जाएगा कि तुम मुझे वाकई चाहते हो. फिर हमारे बीच कोई दूरी नहीं रह जाएगी.’’

मेरा दिल एक अजीब से अहसास से खिल उठा. अनुभा पूरी तरह से मेरी हो जाएगी. इस में और देर नहीं होनी चाहिए. मैं ने मन में सोचा. तभी वह मेरे गले में बांहें डालती हुई बोली, ‘‘अच्छा सुनो, तुम मुझे कैश रुपए दे देना. मेरे अंकल प्रौपर्टी डीलर हैं. उन की मदद से मैं ने एक घर देखा है. 40 लाख का घर है. ऐसा करो आधे रुपए मैं लगाती हूं आधे तुम लगा दो.’’

‘‘ठीक है मैं रुपयों का इंतजाम कर दूंगा.’’ मैं ने कहा तो वह मेरे सीने से लग गई.

अगले 2-3 दिनों में मैं ने रुपयों का इंतजाम कर लिया. चैक तैयार कर उसे सरप्राइज देने के खयाल से मैं उस के घर के एडै्रस पर जा पहुंचा. बहुत पहले उस ने यह एडै्रस दिया था पर कभी भी मुझे वहां बुलाया नहीं था.

आज मौका था. बडे़ अरमानों के साथ बिना बताए उस के घर पहुंच गया. दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था. अंदर से 2 लड़कों की बातचीत के स्वर सुनाई पड़े तो मैं ठिठक गया. दोनों किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे.

एक हंसता हुआ कह रहा था, ‘‘यार अनुज, अनुभा बन कर तूने उस अनुभव को अच्छे झांसे में लिया. लाखों के गिफ्ट्स लुटा चुका है तुझ पर. अब 20-25 लाख का चेक ले कर आ रहा होगा. यार कई सालों से तू लड़की बन कर लोगों को लूटता आ रहा है पर यह दांव आज तक का सब से तगड़ा दांव रहा…’’

‘‘बस यह चेक मिल जाए मुझे फिर बेचारा ढूंढता रहेगा कहां गई अनुभा?’’ लड़कियों वाली आवाज निकालता हुआ बगल में खड़ा लड़का हंसने लगा. बाल ठीक करता हुआ वह पलटा तो मैं देखता रह गया. यह अनुभा था यानी लड़का जो लड़की बन कर मेरे जज्बातों से खेल रहा था. सामने बिस्तर पर लड़की के गेटअप के कपड़े, ज्वैलरी और लंबे बालों वाला विग पड़ा था. वह जल्दी जल्दी होंठों पर लिपस्टिक लगाता हुआ कहने लगा, ‘‘यार उस तोंदू, बुड्ढे को हैंडसम कहतेकहते थक चुका हूं.’’

उस का दोस्त ठहाके लगाता हुआ बोला, ‘‘लेले मजे यार, लड़कियों की आवाज निकालने का तेरा हुनर अब हमें मालामाल कर देगा.’’

मुझे लगा जैसे मेरा कलेजा मुंह को आ जाएगा. उलटे पैर तेजी से वापस लौट पड़ा. लग रहा था जैसे वह लपक कर मुझे पकड़ लेगा. हाईस्पीड में गाड़ी चला कर घर पहुंचा.

मेरा पूरा चेहरा पसीने से भीग रहा था. सामने उदास हैरान सी बीवी खड़ी थी. आज वह मुझे बेहद निरीह और मासूम लग रही थी. मैं ने बढ़ कर उसे सीने से लगा लिया. वह चिंतातुर नजरों से मेरी तरफ देख रही थी. मैं नजरें चुरा कर अपने कमरे में चला आया.

शुक्र था मेरी इस बेवफाई और मूर्खतापूर्ण कार्य का खुलासा बीवी के आगे नहीं हुआ था. वरना मैं धोबी का वह कुत्ता बन जाता जो न घर का होता है और न घाट का.

आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

उसके हिस्से की जूठन: क्यों निखिल से नफरत करने लगी कुमुद

इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

कबूतरों का घर : चांद बादल एक- दूसरे के साथ क्या कर रहे थे

पर ऊपर नीला आकाश देख कर और पैरों के नीचे जमीन का एहसास कर उन्हें लगा था कि वह बाढ़ के प्रकोप से बच गए. बाढ़ में कौन बह कर कहां गया, कौन बचा, किसी को कुछ पता नहीं था.

इन बचने वालों में कुछ ऐसे भी थे जिन के अपने देखते ही देखते उन के सामने जल में समाधि ले चुके थे और बचे लोग अब विवश थे हर दुख झेलने के लिए.

‘‘जाने और कितना बरसेगा बादल?’’ किसी ने दुख से कहा था.

‘‘यह कहो कि जाने कब पानी उतरेगा और हम वापस घर लौटेंगे,’’ यह दूसरी आवाज सब को सांत्वना दे रही थी.

‘‘घर भी बचा होगा कि नहीं, कौन जाने.’’ तीसरे ने कहा था.

इस समय उस टापू पर जितने भी लोग थे वे सभी अपने बच जाने को किसी चमत्कार से कम नहीं मान रहे थे और सभी आपस में एकदूसरे के साथ नई पहचान बनाने की चेष्टा कर रहे थे. अपना भय और दुख दूर करने के लिए यह उन सभी के लिए जरूरी भी था.

चांद बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था जिस से वहां गहन अंधकार छा जाता था.

तानी ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी लकडि़यां और पत्तियां शाम को ही जमा कर ली थीं. उस ने सोचा आग जल जाए तो रोशनी हो जाएगी और ठंड भी कम लगेगी. अत: उस ने अपने साथ बैठे हुए एक बुजुर्ग से माचिस के लिए पूछा तो वह जेब टटोलता हुआ बोला, ‘‘है तो, पर गीली हो गई है.’’

तानी ने अफसोस जाहिर करने के लिए लंबी सांस भर ली और कुछ सोचता हुआ इधरउधर देखने लगा. उस वृद्ध ने माचिस निकाल कर उस की ओर विवशता से देखा और बोला, ‘‘कच्चा घर था न हमारा. घुटनों तक पानी भर गया तो भागे और बेटे को कहा, जल्दी चल, पर वह….’’

तानी एक पत्थर उठा कर उस बुजुर्ग के पास आ गया था. वृद्ध ने एक आह भर कर कहना शुरू किया, ‘‘मुझे बेटे ने कहा कि आप चलो, मैं भी आता हूं. सामान उठाने लगा था, जाने कहां होगा, होगा भी कि बह गया होगा.’’

इतनी देर में तानी ने आग जलाने का काम कर दिया था और अब लकडि़यों से धुआं निकलने लगा था.

‘‘लकडि़यां गीली हैं, देर से जलेंगी,’’ तानी ने कहा.

कृष्णा थोड़ी दूर पर बैठा निर्विकार भाव से यह सब देख रहा था. अंधेरे में उसे बस परछाइयां दिख रही थीं और किसी भी आहट को महसूस किया जा सकता था. लेकिन उस के उदास मन में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी.

अपनी आंखों के सामने उस ने मातापिता और बहन को जलमग्न होते देखा था पर जाने कैसे वह अकेला बच कर इस किनारे आ लगा था. पर अपने बचने की उसे कोई खुशी नहीं थी क्योंकि बारबार उसे यह बात सता रही थी कि अब इस भरे संसार में वह अकेला है और अकेला वह कैसे रहेगा.

लकडि़यों के ढेर से उठते धुएं के बीच आग की लपट उठती दिखाई दी. कृष्णा ने उधर देखा, एक युवती वहां बैठी अपने आंचल से उस अलाव को हवा दे रही थी. हर बार जब आग की लपट उठती तो उस युवती का चेहरा उसे दिखाई दे जाता था क्योंकि युवती के नाक की लौंग चमक उठती थी.

कृष्णास्वामी ने एक बार जो उस युवती को देखा तो न चाहते हुए भी उधर देखने से खुद को रोक नहीं पाया था. अनायास ही उस के मन में आया कि शायद किसी अच्छे घर की बेटी है. पता नहीं इस का कौनकौन बचा होगा. उस युवती के अथक प्रयास से अचानक धुएं को भेद कर अब आग की मोटीमोटी लपटें खूब ऊंची उठने लगीं और उन लपटों से निकली रोशनी किसी हद तक अंधेरे को भेदने में सक्षम हो गई थी. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई.

कृष्णा के पास बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘‘मौत के पास आने के अनेक बहाने होते हैं. लेकिन उसे रोकने का एक भी बहाना इनसान के पास नहीं होता. जवान बेटेबहू थे हमारे, देखते ही देखते तेज धार में दोनों ही बह गए,’’ कृष्णा उस अधेड़ व्यक्ति की आपबीती सुन कर द्रवित हो उठा था. आंच और तेज हो गई थी.

‘‘थोड़े आलू होते तो इसी अलाव में भुन जाते. बच्चों के पेट में कुछ पड़ जाता,’’ एक कमजोर सी महिला ने कहा, उन्हें भी भूख की ललक उठी थी. इस उम्र में भूखा रहा भी तो नहीं जाता है.

आग जब अच्छी तरह से जलने लगी तो वह युवती उस जगह से उठ कर कुछ दूरी पर जा बैठी थी. कृष्णा भी थोड़ी दूरी बना कर वहीं जा कर बैठ गया. कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, ‘‘आप ने बहुत अच्छी तरह अलाव जला दिया है वरना अंधेरे में सब घबरा रहे थे.’’

‘‘जी,’’ युवती ने धीरे से जवाब में कहा.

‘‘मैं कृष्णास्वामी, डाक्टरी पढ़ रहा हूं. मेरा पूरा परिवार बाढ़ में बह गया और मैं जाने क्यों अकेला बच गया,’’ कुछ देर खामोश रहने के बाद कृष्णा ने फिर युवती से पूछा, ‘‘आप के साथ में कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सब समाप्त हो गए,’’ और इतना कहने के साथ वह हुलस कर रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, सब का दुख यहां एक जैसा ही है,’’ और उस के साथ वह अपने आप को भी सांत्वना दे रहा था.

अलाव की रोशनी अब धीमी पड़ गई थी. अपनों से बिछड़े सैकड़ों लोग अब वहां एक नया परिवार बना रहे थे. एक अनोखा भाईचारा, सौहार्द और त्याग की मिसाल स्थापित कर रहे थे.

अगले दिन दोपहर तक एक हेलीकाप्टर ऊपर मंडराने लगा तो सब खड़े हो कर हाथ हिलाने लगे. बहुत जल्दी खाने के पैकेट उस टीले पर हेलीकाप्टर से गिरना शुरू हो गए. जिस के हाथ जो लग रहा था वह उठा रहा था. उस समय सब एकदूसरे को भूल गए थे पर हेलीकाप्टर के जाते ही सब एकदूसरे को देखने लगे.

अफरातफरी में कुछ लोग पैकेट पाने से चूक गए थे तो कुछ के हाथ में एक की जगह 2 पैकेट थे. जब सब ने अपना खाना खोला तो जिन्हें पैकेट नहीं मिला था उन्हें भी जा कर दिया.

कृष्णा उस युवती के नजदीक जा कर बैठ गया. अपना पैकेट खोलते हुए बोला, ‘‘आप को पैकेट मिला या नहीं?’’

‘‘मिला है,’’ वह धीरे से बोली.

कृष्णा ने आलूपूरी का कौर बनाते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है कि आप का मन खाने को नहीं होगा पर यहां कब तक रहना पड़े कौन जाने?’’ और इसी के साथ उस ने पहला निवाला उस युवती की ओर बढ़ा दिया.

युवती की आंखें छलछला आईं. धीरे से बोली, ‘‘उस दिन मेरी बरात आने वाली थी. सब शादी में शरीक होने के लिए आए हुए थे. फिर देखते ही देखते घर पानी से भर गया…’’

युवती की बातें सुन कर कृष्णा का हाथ रुक गया. अपना पैकेट समेटते हुए बोला, ‘‘कुछ पता चला कि वे लोग कैसे हैं?’’

युवती ने कठिनाई से अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘कोई नहीं बचा है. बचे भी होंगे तो जाने कौन तरफ हों. पता नहीं मैं कैसे पानी के बहाव के साथ बहती हुई इस टीले के पास पहुंच गई.’’

कृष्णा ने गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘मेरे साथ भी तो यही हुआ है. जाने कैसे अब अकेला रहूंगा इतनी बड़ी दुनिया में. एकदम अकेला… ’’ इतना कह कर वह भी रोंआसा हो उठा.

दोनों के दर्द की गली में कुछ देर खामोशी पसरी रही. अचानक युवती ने कहा, ‘‘आप खा लीजिए.’’

युवती ने अपना पैकट भी खोला और पहला निवाला बनाते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम जूही सरकार है.’’

कृष्णा आंसू पोंछ कर हंस दिया. दोनों भोजन करने लगे. सैकड़ों की भीड़ अपना धर्म, जाति भूल कर एक दूसरे को पूछते जा रहे थे और साथसाथ खा भी रहे थे.

खातेखाते जूही बोली, ‘‘कृष्णा, जिस तरह मुसीबत में हम एक हो जाते हैं वैसे ही बाकी समय क्यों नहीं एक हो कर रह पाते हैं?’’

कृष्णा ने गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यही तो इनसान की विडंबना है.’’

सेना के जवान 2 दिन बाद आ कर जब उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले कर चले तो कृष्णा ने जूही की ओर बहुत ही अपनत्व भरी नजरों से देखा. वह भी कृष्णा से मिलने उस के पास आ गई और फिर जाते हुए बोली, ‘‘शायद हम फिर मिलें.’’

रात होने से पहले सब उस स्थान पर पहुंच गए जहां हजारों लोग छोटेछोटे तंबुओं में पहले से ही पहुंचे हुए थे. उस खुले मैदान में जहांजहां भी नजर जाती थी बस, रोतेबिलखते लोग अपनों से बिछुड़ने के दुख में डूबे दिखाई देते थे. धीरेधीरे भीड़ एक के बाद एक कर उन तंबुओं में गई. पानी ने बहा कर कृष्णा और जूही  को एक टापू पर फेंका था लेकिन सरकारी व्यवस्था ने दोनों को 2 अलगअलग तंबुओं में फेंक दिया.

मीलों दायरे में बसे उस तंबुओं के शहर में किसी को पता नहीं कि कौन कहां से आया है. सब एकदूसरे को अजनबी की तरह देखते लेकिन सभी की तकलीफ को बांटने के लिए सब तैयार रहते.

सरकारी सहायता के नाम पर वहां जो कुछ हो रहा था और मिल रहा था वह उतनी बड़ी भीड़ के लिए पर्याप्त नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद करने के काम में जुटी थीं.

वहां रहने वाले पीडि़तों के जीवन में अभाव केवल खानेकपड़े का ही नहीं बल्कि अपनों के साथ का अभाव भी था. उन्हें देख कर लगता था, सब सांसें ले रहे हैं, बस.

उस शरणार्थी कैंप में महामारी से बचाव के लिए दवाइयों के बांटे जाने का काम शुरू हो गया था. कृष्णा ने आग्रह कर के इस काम में सहायता करने का प्रस्ताव रखा तो सब ने मान लिया क्योंकि वह मेडिकल का छात्र था और दवाइयों के बारे में कुछकुछ जानता था. दवाइयां ले कर वह कैंपकैंप घूमने लगा. दूसरे दिन कृष्णा जिस हिस्से में दवा देने पहुंचा वहां जूही को देख कर प्रसन्नता से खिल उठा. जूही कुछ बच्चों को मैदान में बैठा कर पढ़ा रही थी. गीली जमीन को उस ने ब्लैकबोर्ड बना लिया था. पहले शब्द लिखती थी फिर बच्चों को उस के बारे में समझाती थी. कृष्णा को देखा तो वह भी खुश हो कर खड़ी हो गई.

‘‘इधर कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे इनसान हूं तो दूसरों की सेवा करना भी तो हमारा धर्म है. ऐसे समय में मेहमान बन कर क्यों बैठे रहें,’’ यह कहते हुए कृष्णा ने जूही को अपना बैग दिखाया, ‘‘यह देखो, सेवा करने का अवसर हाथ लगा तो घूम रहा हूं,’’ फिर जूही की ओर देख कर बोला, ‘‘आप ने भी अच्छा काम खोज लिया है.’’

कृष्णा की बातें सुन कर जूही हंस दी. फिर कहने लगी, ‘‘ये बच्चे स्कूल जाते थे. मुसीबत की मार से बचे हैं. सोचा कि घर वापस जाने तक बहुत कुछ भूल जाएंगे. मेरा भी मन नहीं लगता था तो इन्हें ले कर पढ़नेपढ़ाने बैठ गई. किताबकापी के लिए संस्था वालों से कहा है.’’

दोनों ने एकदूसरे की इस भावना का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आखिर हम कुछ कर पाने में समर्थ हैं तो क्यों हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें?’’

अब धीरेधीरे दोनों रोज मिलने लगे. जैसेजैसे समय बीत रहा था बहुत सारे लोग बीमार हो रहे थे. दोनों मिल कर उन की देखभाल करने लगे और उन का आशीर्वाद लेने लगे.

कृष्णा भावुक हो कर बोला, ‘‘जूही, इन की सेवा कर के लगता है कि हम ने अपने मातापिता पा लिए हैं.’’

एकसाथ रह कर दूसरों की सेवा करते करते दोनों इतने करीब आ गए कि उन्हें लगा कि अब एकदूसरे का साथ उन के लिए बेहद जरूरी है और वह हर पल साथ रहना चाहते हैं. जिन बुजुर्गों की वे सेवा करते थे उन की जुबान पर भी यह आशीर्वाद आने लगा था, ‘‘जुगजुग जिओ बच्चों, तुम दोनों की जोड़ी हमेशा बनी रहे.’’

एक दिन कृष्णा ने साहस कर के जूही से पूछ ही लिया, ‘‘जूही, अगर बिना बराती के मैं अकेला दूल्हा बन कर आऊं तो तुम मुझे अपना लोगी?’’

जूही का दिल धड़क उठा. वह भी तो इस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘अकेले क्यों आओगे, यहां कितने अपने हैं जो बराती बन जाएंगे.’’

कृष्णा की आंखें खुशी से चमक उठी. अपने विवाह का कार्यक्रम तय करते हुए उस ने अगले दिन कहा, ‘‘पता नहीं जूही, अपने घरों में हमारा कब जाना हो पाए. तबतक इसी तंबू में हमें घर बसाना पडे़गा.’’

जूही ने प्यार से कृष्णा को देखा और बोली, ‘‘तुम ने कभी कबूतरों को अपने लिए घोसला बनाते देखा है?’’

कृष्णा ने उस के इस सवाल पर अपनी अज्ञानता जाहिर की तो वह हंस कर बताने लगी, ‘‘कृष्णा, कबूतर केवल अंडा देने के लिए घोसला बनाते हैं, वरना तो खुद किसी दरवाजे, खिड़की या झरोखे की पतली सी मुंडेर पर रात को बसेरा लेते हैं. हमारे पास तो एक पूरा तंबू है.’’

कृष्णा ने मुसकरा कर उस के गाल पर पहली बार हल्की सी चिकोटी भरी. उन दोनों के घूमने से पहले ही कुछ आवाजों ने उन्हें घेर लिया था.

‘‘कबूतरों के इन घरों में बरातियों की कमी नहीं है. तुम तो बस दावत

की तैयारी कर लो, बराती हाजिर

हो जाएंगे.’’

उन दोनों को एक अलग सुख की अनुभूति होने लगी. लगा, मातापिता, भाईबहन, सब की प्रसन्नता के फूल जैसे इन लोगों के लिए आशीर्वाद में झड़ रहे हैं.

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी

आईना : सुरुचि सुकेश से क्यों नाराज थी

मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो

 

?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है.

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