सुगंध – भाग 2 : क्या राजीव को पता चली रिश्तों की अहमियत

हमारी दोस्ती की नींव मजबूत थी इसलिए दिलों का प्यार तो बना रहा पर मिलनाजुलना काफी कम हो गया. उस का जिन लोगों के साथ उठनाबैठना था, वे सब खानेपीने वाले लोग थे. उस तरह की सोहबत को मैं ठीक नहीं मानता था और इसीलिए हम कम मिलते.

हम दोनों की शादी साथसाथ हुई और इत्तफाक से पहले बेटी और फिर बेटा भी हम दोनों के घर कुछ ही आगेपीछे जन्मे.

चोपड़ा ने 3 साल पहले अपनी बेटी की शादी एक बड़े उद्योगपति खानदान में अपनी दौलत के बल पर की. मेरी बेटी ने अपने सहयोगी डाक्टर के साथ प्रेम विवाह किया. उस की शादी में मैं ने चोपड़ा की बेटी की शादी में आए खर्चे का शायद 10वां हिस्सा ही लगाया होगा.

रुपए को अपना भगवान मानने वाले चोपड़ा का बेटा नवीन कालिज में आने तक एक बिगड़ा हुआ नौजवान बन गया था. उस की मेरे बेटे विवेक से अच्छी दोस्ती थी क्योंकि उस की मां सविता मेरी पत्नी मीनाक्षी की सब से अच्छी सहेली थी. इन दोनों नौजवानों की दोस्ती की मजबूत नींव भी बचपन में ही पड़ गई थी.

‘नवीन गलत राह पर चल रहा है,’ मेरी ऐसी सलाह पर चोपड़ा ने कभी ध्यान नहीं दिया था.

‘बाप की दौलत पर बेटा क्यों न ऐश करे? तू भी विवेक के साथ दिनरात की टोकाटाकी वाला व्यवहार मत किया कर, डाक्टर. अगर वह पढ़ाई में पिछड़ भी गया तो कोई फिक्र नहीं. उसे कोई अच्छा बिजनेस मैं शुरू करा दूंगा,’’ अपनी ऐसी दलीलों से वह मुझे खीज कर चुप हो जाने को मजबूर कर देता.

आज इस करोड़पति इनसान का इकलौता बेटा 2 कमरों के एक साधारण से किराए वाले फ्लैट में अपनी पत्नी शिखा के साथ रह रहा था. नर्सिंग होम से सीधे घर न जा कर मैं उसी के फ्लैट पर पहुंचा.

नवीन और शिखा दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे. इन दोनों ने प्रेम विवाह किया था. साधारण से घर की बेटी को चोपड़ा ने अपनी बहू बनाने से साफ मना कर दिया, तो इन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली थी.

चोपड़ा की नाराजगी को नजरअंदाज करते हुए मैं ने इन दोनों का साथ दिया था. इसी कारण ये दोनों मुझे भरपूर सम्मान देते थे.

चोपड़ा को दिल का दौरा पड़ने की चर्चा शुरू हुई, तो नवीन उत्तेजित लहजे में बोला, ‘‘चाचाजी, यह तो होना ही था.’’ रोजरोज की शराब और दौलत कमाने के जनून के चलते उन्हें दिल का दौरा कैसे न पड़ता?

‘‘और इस बीमार हालत में भी उन का घमंडी व्यवहार जरा भी नहीं बदला है. शिखा उन से मिलने पहुंची तो उसे डांट कर कमरे से बाहर निकाल दिया. उन के जैसा खुंदकी और अकड़ू इनसान शायद ही दूसरा हो.’’

‘‘बेटे, बड़ों की बातों का बुरा नहीं मानते और ऐसे कठिन समय में तो उन्हें अकेलापन मत महसूस होने दो. वह दिल का बुरा नहीं है,’’ मैं उन्हें देर तक ऐसी बातें समझाने के बाद जब वहां से उठा तो मन बड़ा भारी सा हो रहा था.

चोपड़ा ने यों तो नवीन को पूरी स्वतंत्रता से ऐश करने की छूट हमेशा दी, पर जब दोनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई तो बाप ने बेटे को दबा कर अपनी चलानी चाही थी.

जिस घटना ने नवीन के जीवन की दिशा को बदला, वह लगभग 3 साल पहले घटी थी.

उस दिन मेरे बेटे विवेक का जन्मदिन था. नवीन उसे नए मोबाइल फोन का उपहार देने के लिए अपने साथ बाजार ले गया.

वहां दौलत की अकड़ से बिगडे़ नवीन की 1 फोन पर नीयत खराब हो गई. विवेक के लिए फोन खरीदने के बाद जब दोनों बाहर निकलने के लिए आए तो शोरूम के सुरक्षा अधिकारी ने उसे रंगेहाथों पकड़ जेब से चोरी का मोबाइल बरामद कर लिया.

‘गलती से फोन जेब में रह गया है. मैं ऐसे 10 फोन खरीद सकता हूं. मुझे चोर कहने की तुम सब हिम्मत कैसे कर रहे हो,’ गुस्से से भरे नवीन ने ऐसा आक्रामक रुख अपनाया, पर वे लोग डरे नहीं.

मामला तब ज्यादा गंभीर हो गया जब नवीन ने सुरक्षा अधिकारी पर तैश में आ कर हाथ छोड़ दिया.

उन लोगों ने पहले जम कर नवीन की पिटाई की और फिर पुलिस बुला ली. बीचबचाव करने का प्रयास कर रहे विवेक की कमीज भी इस हाथापाई में फट गई थी.

पुलिस दोनों को थाने ले आई. वहीं पर चोपड़ा और मैं भी पहुंचे. मैं सारा मामला रफादफा करना चाहता था क्योंकि विवेक ने सारी सचाई मुझ से अकेले में बता दी थी, लेकिन चोपड़ा गुस्से से पागल हो रहा था. उस के मुंह से निकल रही गालियों व धमकियों के चलते मामला बिगड़ता जा रहा था.

उस शोरूम का मालिक भी रुतबेदार आदमी था. वह चोपड़ा की अमीरी से प्रभावित हुए बिना पुलिस केस बनाने पर तुल गया.

एक अच्छी बात यह थी कि थाने का इंचार्ज मुझे जानता था. उस के परिवार के लोग मेरे दवाखाने पर छोटीबड़ी बीमारियों का इलाज कराने आते थे.

उस की आंखों में मेरे लिए शर्मलिहाज के भाव न होते तो उस दिन बात बिगड़ती ही चली जाती. वह चोपड़ा जैसे घमंडी और बदतमीज इनसान को सही सबक सिखाने के लिए शोरूम के मालिक का साथ जरूर देता, पर मेरे कारण उस ने दोनों पक्षों को समझौता करने के लिए मजबूर कर दिया.

हां, इतना उस ने जरूर किया कि उस के इशारे पर 2 सिपाहियों ने अकेले में नवीन की पिटाई जरूर की.

‘बाप की दौलत का तुझे ऐसा घमंड है कि पुलिस का खौफ भी तेरे मन से उठ गया है. आज चोरी की है, कल रेप और मर्डर करेगा. कम से कम इतना तो पुलिस की आवभगत का स्वाद इस बार चख जा कि कल को ज्यादा बड़ा अपराध करने से पहले तू दो बार जरूर सोचे.’

मेरे बेटे की मौजूदगी में उन 2 पुलिस वालों ने नवीन के मन में पुलिस का डर पैदा करने के लिए उस की अच्छीखासी धुनाई की थी.

बीड़ी वाले का लड़का : भाग 1

दोस्ती क्या है? दोस्ती किसी कहानी के उन खयालों की तरह है, जिस के एकएक पैराग्राफ एकदूसरे से जुड़े रहते हैं. एक भी पैराग्राफ छूटा, तो आगे की कहानी समझना बहुत मुश्किल है. उस दोस्ती में से कुछ दोस्त पैराग्राफ के उन मुश्किल पर्यायवाची शब्दों की तरह होते हैं, जिन्हें याद रखने की कोशिश करतेकरते हम भूलते चले जाते हैं. जिंदगी हमें इतना परेशान करती है कि उन की यादें धुंधली हो जाती हैं. फिर कभी कहीं किसी रोज उन का जिक्र आ जाने से या किसी के द्वारा उन की बात छेड़ देने से उन की यादें उन पर्यायवाची शब्दों की तरह ताजा हो जाती हैं.

ऐसा ही एक दोस्त था. कहां से शुरू करूं उस के बारे में… धुंधलीधुंधली सी यादें हैं उस की… एक साधारण सा दुबलापतला हाफ पैंट में लड़का, जिस के लंबे घने बाल, जिन में सरसों का तेल लगा रहता था और पूरे चिपकू के जैसे अपने बालों को चिपका कर रखता था. उस के घर वाले कहते थे कि पढ़ने में बहुत ही होशियार है, इसलिए गांव से शहर ले आए हैं. यहां अच्छी पढ़ाई मिलेगी, तो शायद कुछ कर ले. एकदम गुमसुम और खामोश… शायद कुछ छूट गया हो या खो गया हो.

गांव से शहर आने की वजह से उसे बगैर किसी काम के घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी, पर धीरेधीरे उस का बाहर निकलना शुरू हुआ. कभी मसजिद में नमाज पढ़ने जाने, तो कभी कुछ राशन लाने या फिर दुकान पर बीड़ी पहुंचाने के बहाने से. कुछ दिनों के बाद वह हाफ पैंट छोड़ लुंगी पहनने लगा, जिसे देख कर महल्ले के सारे हमउम्र लड़के उस का मजाक उड़ाने लगे. इतनी कम उम्र में लुंगी पहनने की वजह से पूरे महल्ले के लोग उसे पहचानने लगे थे.

उस की उम्र का कोई भी लड़का लुंगी नहीं पहनता था. इस लुंगी की वजह से मसजिद में उस के हमउम्र बच्चे उसे परेशान भी करने लगे थे. सब उसे ‘देहाती’ कह कर चिढ़ाते थे. मसजिदों में बच्चों की शफ में नमाज कम शैतानियां ज्यादा होती हैं और इसी वजह से एक दिन मामला मारपीट तक आ पहुंचा, तब से वह नमाज के लिए बड़ों की शफ में खड़ा होने लगा. इन्हीं सब वजहों से महल्ले में उस की न किसी से कोई बातचीत होती थी और न ही किसी से दोस्ती हो पाई थी सिवा मेरे. मैं उसे अपना दोस्त मानता तो था, पर शायद वह नहीं. वजह आज तक मेरी समझ से परे है.

 

सुगंध – भाग 3 : क्या राजीव को पता चली रिश्तों की अहमियत

उस घटना के बाद नवीन एकाएक उदास और सुस्त सा हो गया था. हम सब उसे खूब समझाते, पर वह अपने पुराने रूप में नहीं लौट पाया था.

फिर एक दिन उस ने घोषणा की, ‘मैं एम.बी.ए. करने जा रहा हूं. मुझे प्रापर्टी डीलर नहीं बनना है.’

यह सुन कर चोपड़ा आगबबूला हो उठा और बोला, ‘क्या करेगा एम.बी.ए. कर के? 10-20 हजार की नौकरी?’

‘इज्जत से कमाए गए इतने रुपए भी जिंदगी चलाने को बहुत होते हैं.’

‘क्या मतलब है तेरा? क्या मैं डाका डालता हूं? धोखाधड़ी कर के दौलत कमा रहा हूं?’

‘मुझे आप के साथ काम नहीं करना है,’ यों जिद पकड़ कर नवीन ने अपने पिता की कोई दलील नहीं सुनी थी.

बाद में मुझ से अकेले में उस ने अपने दिल के भावों को बताया था, ‘चाचाजी, उस दिन थाने में पुलिस वालों के हाथों बेइज्जत होने से मुझे मेरे पिताजी की दौलत नहीं बचा पाई थी. एक प्रापर्टी डीलर का बेटा होने के कारण उलटे वे मुझे बदमाश ही मान बैठे थे और मुझ पर हाथ उठाने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं हो रही थी.

‘दूसरी तरफ आप के बेटे विवेक के साथ उन्होंने न गालीगलौज की, न मारपीट. क्यों उस के साथ भिन्न व्यवहार किया गया? सिर्फ आप के अच्छे नाम और इज्जत ने उस की रक्षा की थी.

‘मैं जब भी उस दिन अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को याद करता हूं, तो मन शर्म व आत्मग्लानि से भर जाता है. मैं आगे इज्जत से जीना चाहता हूं…बिलकुल आप की तरह, चाचाजी.’

अब मैं उस से क्या कहता? उस के मन को बदलने की मैं ने कोशिश नहीं की. चोपड़ा ने उसे काफी डराया- धमकाया, पर नवीन ने एम.बी.ए. में प्रवेश ले ही लिया.

इन बापबेटे के बीच टकराव की स्थिति आगे भी बनी रही. नवीन बिलकुल बदल गया था. अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने में उसे बिलकुल रुचि नहीं रही थी. किसी भी तरह से बस, दौलत कमाना उस के जीवन का लक्ष्य नहीं रहा था.

फिर उसे अपने साथ पढ़ने वाली शिखा से प्यार हो गया. वह शिखा से शादी करना चाहता है, यह बात सुन कर चोपड़ा बेहद नाराज हुआ था.

‘अगर इस लड़के ने मेरी इच्छा के खिलाफ जा कर शादी की तो मैं इस से कोई संबंध नहीं रखूंगा. फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी इसे मेरी दौलत की,’ ऐसी धमकियां सुन कर मैं काफी चिंतित हो उठा था.

दूसरी तरफ नवीन शिखा का ही जीवनसाथी बनना चाहता था. उस ने प्रेमविवाह करने का फैसला किया और पिता की दौलत को ठुकरा दिया.

नवीन और शिखा ने कोर्ट मैरिज की तो मेरी पत्नी और मैं उन की शादी के गवाह बने थे. इस बात से चोपड़ा हम दोनों से नाराज हो गया पर मैं क्या करता? जिस नवीन को मैं ने गोद में खिलाया था, उसे कठिन समय में बिलकुल अकेला छोड़ देने को मेरा दिल राजी नहीं हुआ था.

नवीन और शिखा दोनों नौकरी कर रहे थे. शिखा एक सुघड़ गृहिणी निकली. अपनी गृहस्थी वह बड़े सुचारु ढंग से चलाने लगी. चोपड़ा ने अपनी नाराजगी छोड़ कर उसे अपना लिया होता तो यह लड़की उस की कोठी में हंसीखुशी की बहार निश्चित ले आती.

चोपड़ा ने मेरे घर आना बंद कर दिया. कभी किसी समारोह में हमारा आमनासामना हो जाता तो वह बड़ा खिंचाखिंचा सा हो जाता. मैं संबंधों को सामान्य व सहज बनाने का प्रयास शुरू करता, तो वह कोई भी बहाना बना कर मेरे पास से हट जाता.

अब उसे दिल का दौरा पड़ गया था. शराब, सिगरेट, मानसिक तनाव व बेटेबहू के साथ मनमुटाव के चलते ऐसा हो जाना आश्चर्य की बात नहीं थी.

उसे अपने व्यवहार व मानसिकता को बदलना चाहिए, कुछ ऐसा ही समझाने के लिए मैं अगले दिन दोपहर के वक्त उस से मिलने पहुंचा था.

उस दिन चोपड़ा मुझे थकाटूटा सा नजर आया, ‘‘यार अशोक, मुझे अपनी जिंदगी बेकार सी लगने लगी है. आज किसी चीज की कमी नहीं है मेरे पास, फिर भी जीने का उत्साह क्यों नहीं महसूस करता हूं मैं अपने अंदर?’’

उस का बोलने का अंदाज ऐसा था मानो मुझ से सहानुभूति प्राप्त करने का इच्छुक हो.

‘‘इस का कारण जानना चाहता है तो मेरी बात ध्यान से सुन, दोस्त. तेरी दौलत सुखसुविधाएं तो पैदा कर सकती है, पर उस से अकेलापन दूर नहीं हो सकता.

‘‘अपनों के साथ प्रेमपूर्वक रहने से अकेलापन दूर होता है, यार. अपने बहूबेटे के साथ प्रेमपूर्ण संबंध कायम कर लेगा तो जीने का उत्साह जरूर लौट आएगा. यही तेरी उदासी और अकेलेपन का टौनिक है,’’ मैं ने भावुक हो कर उसे समझाया.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने उदास लहजे में जवाब दिया, ‘‘दिलों पर लगे कुछ जख्म आसानी से नहीं भरते हैं, डाक्टर. शिखा के साथ मेरे संबंध शुरू से ही बिगड़ गए. अपने बेटे की आंखों में झांकता हूं तो वहां अपने लिए आदर या प्यार नजर नहीं आता. अपने किए की माफी मांगने को मेरा मन तैयार नहीं. हम बापबेटे में से कोई झुकने को तैयार नहीं तो संबंध सुधरेंगे कैसे?’’

उस रात उस के इस सवाल का जवाब मुझे सूझ गया था. वह समाधान मेरी पत्नी को भी पसंद आया था.

सप्ताह भर बाद चोपड़ा को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली तो मैं उसे अपने घर ले आया. सविता भाभी भी साथ में थीं.

‘‘तेरे भतीजे विवेक की शादी हफ्ते भर बाद है. मेरे साथ रह कर हमारा मार्गदर्शन कर, यार,’’ ऐसी इच्छा जाहिर कर मैं उसे अपने घर लाया था.

‘‘अरे, अपने बेटे की शादी का मेरे पास कोई अनुभव होता तो मार्गदर्शन करने वाली बात समझ में आती. अपने घर में दम घुटेगा, यह सोच कर शादीब्याह वाले घर में चल रहा हूं,’’ उस का निराश, उदास सा स्वर मेरे दिल को चीरता चला गया था.

नवीन और शिखा रोज ही हमारे घर आते. मेरी सलाह पर शिखा अपने ससुर के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करने लगी. वह उन्हें खाना खिलाती. उन के कमरे की साफसफाई कर देती. दवा देने की जिम्मेदारी भी उसी को दे दी गई थी

चोपड़ा मुंह से तो कुछ नहीं कहता, पर अपनी बहू की ऐसी देखभाल से वह खुश था लेकिन नवीन और उस के बीच खिंचाव बरकरार रहा. दोनों औपचारिक बातों के अलावा कोई अन्य बात कर ही नहीं पाते थे.

शादी के दिन तक चोपड़ा का स्वास्थ्य काफी सुधर गया था. चेहरे पर चिंता, नाराजगी व बीमारी के बजाय खुशी और मुसकराहट के भाव झलकते.

वह बरात में भी शामिल हुआ. मेरे समधी ने उस के आराम के लिए अलग से एक कमरे में इंतजाम कर दिया था. फेरों के वक्त वह पंडाल में फिर आ गया था.

हम दोनों की नजरें जब भी मिलतीं, तो एक उदास सी मुसकान चोपड़ा के चेहरे पर उभर आती. मैं उस के मनोभावों को समझ रहा था. अपने बेटे की शादी को इन सब रीतिरिवाजों के साथ न कर पाने का अफसोस उस का दिल इस वक्त जरूर महसूस कर रहा होगा.

बहू को विदा करा कर जब हम चले, तब चोपड़ा और मैं साथसाथ अगली कार में बैठे हुए थे. सविता भाभी, मेरी पत्नी, शिखा और नवीन पहले ही चले गए थे नई बहू का स्वागत करने के लिए.

हमारी कार जब चोपड़ा की कोठी के सामने रुकी तो वह बहुत जोर से चौंका था.

सारी कोठी रंगबिरंगे बल्बों की रोशनी में जगमगा रही थी. जब चोपड़ा मेरी तरफ घूमा तो उस की आंखों में एक सवाल साफ चमक रहा था, ‘यह सब क्या है, डाक्टर?’

मैं ने उस का हाथ थाम कर उस के अनबुझे सवाल का जवाब मुसकराते हुए दिया, ‘‘तेरी कोठी में भी एक नई बहू का स्वागत होना चाहिए. अब उतर कर अपनी बहू का स्वागत कर और आशीर्वाद दे. रोनेधोने का काम हम दोनों यार बाद में अकेले में कर लेंगे.’’

चोपड़ा की आंखों में सचमुच आंसू झलक रहे थे. वह भरे गले से इतना ही कह सका, ‘‘डाक्टर, बहू को यहां ला कर तू ने मुझे हमेशा के लिए अपना कर्जदार बना लिया… थैंक यू… थैंक यू वेरी मच, मेरे भाई.’’

चोपड़ा में अचानक नई जान पड़ गई थी. उसे अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने का मौका जो मिल गया था. बडे़ उत्साह से उस ने सारी काररवाई में हिस्सा लिया.

विवेक और नई दुलहन को आशीर्वाद देने के बाद अचानक ही चोपड़ा ने नवीन और शिखा को भी एक साथ अपनी छाती से लगाया और फिर किसी छोटे बच्चे की तरह बिलख कर रो पड़ा था.

ऐसे भावुक अवसर पर हर किसी की आंखों से आंसू बह निकले और इन के साथ हर तरह की शिकायतें, नाराजगी, दुख, तनाव और मनमुटाव का कूड़ा बह गया.

‘‘तू ने सच कहा था डाक्टर कि रिश्तों के रंगबिरंगे फूल ही जिंदगी में हंसीखुशी और सुखशांति की सुगंध पैदा करते हैं, न कि रंगीन हीरों की जगमगाहट. आज मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मुझे एकसाथ 2 बहुओं का ससुर बनने का सुअवसर मिला है. थैंक यू, भाई,’’ चोपड़ा ने हाथ फैलाए तो मैं आगे बढ़ कर उस के गले लग गया.

मेरे दोस्त के इस हृदय परिवर्तन का वहां उपस्थित हर व्यक्ति ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

बीड़ी वाले का लड़का : भाग 2

शायद उस का स्वभाव ही ऐसा था कि वह जल्दी किसी से घुलतामिलता नहीं था. मुझ से दोस्ती होना या तो इत्तिफाक था या सिर्फ मेरी जरूरत. इत्तिफाक इसलिए कि उस का दाखिला मेरे ही स्कूल में करवा दिया गया था और मुझे जिम्मेदारी दी गई उसे साथ में स्कूल ले जाने और लाने की. शहर में नया होने की वजह से खो जाने का डर था और जरूरत इसलिए कि मेरा उस के घर आनाजाना था. उस के भैया से मैं गणित के सवाल हल करवाने जाता था. उस के भैया और मेरे भैया दोस्त थे और साथ में ही पढ़ते थे. उसी स्कूल में, जिस में हम दोनों पढ़ रहे थे.

मेरे भैया पढ़ाई की वजह से इस शहर से दूसरे शहर चले गए और उस के भैया तो गांव से शहर आए थे, फिर वे और कौन से शहर जाते, इसलिए वे इसी शहर में पढ़ाई के साथसाथ अपनी दुकान भी संभालने लगे थे. मेरे भैया के दूसरे शहर चले जाने के बाद मेरे अब्बू ने मुझे सख्त हिदायत दी थी उस के यहां न जाने की, पर गणित की वजह से मुझे वहां जाने का बहाना मिल ही जाया करता था. मैं उस से बातें करना चाहता था. मैं ने कभी गांव नहीं देखा था, इसलिए मैं उस की नजरों से गांव घूमना चाहता था, गांव के दोस्तों के बारे में जानना चाहता था, पर वह कभी मुझ से खुल कर बात ही नहीं करता था. मेरे अब्बू को उस के घर का माहौल बिलकुल पसंद नहीं था. उस के यहां तकरीबन 20 लोग हमेशा ऐसे रहते थे, जैसे कारखानों में रहते हैं. उसी तरह खानाबदोश जिंदगी.

10-15 लोग तो बीड़ी के कारीगर हुआ करते थे, जो उस की दुकान के लिए बीड़ी बनाया करते थे. वहां दिनभर गानाबजाना चलता था, उलटीसीधी बातें होती रहती थीं, कोई बीड़ी पी रहा होता था, तो कोई खैनी खा रहा होता था. इन्हीं सब वजहों से मेरे अब्बू खफा होते थे. उन्हें लगता था कि मेरी आदत भी खराब हो जाएगी. हालांकि मेरे अब्बू खुद सिगरेट पीते थे, जो कि उसी की दुकान से आती थी. महल्ले में सिर्फ उस के घर में ही चापाकल था. अगर कभी किसी दिन नगरनिगम की सप्लाई वाला पानी नहीं आता था, तो लोग उस के ही घर से पानी लाते थे. वह मुझे अब भी इसलिए याद है, क्योंकि हम दोनों की जिंदगी एकजैसी थी. मेरे अब्बू मुझे महल्ले वाले बच्चों से अलग रखना चाहते थे, क्योंकि उन की नजर में महल्ले में कोई भी हम लोगों के लायक नहीं था. सब अनपढ़, जाहिल या कम पढ़ेलिखे थे और उस की जिंदगी ऐसी हो गई थी कि महल्ले के बच्चे उस से दोस्ती नहीं करना चाहते थे, क्योंकि वह बीड़ी वाले का लड़का और देहाती था. जब भी हम स्कूल के लिए निकलते,

तो उस के साथ स्कूल बैग के अलावा दुकान पर देने के लिए बीड़ी या राशन लाने के लिए थैला जरूर रहता था, क्योंकि रास्ते में ही उस की दुकान पड़ती थी. हम लोग बीड़ी देते हुए स्कूल चले जाते थे. इसी बहाने उस के साथसाथ मुझे भी कुछ चौकलेट मिल जाती थीं. रास्तेभर वह कोई न कोई कविता गुनगुनाता रहता था. उस के इतने काम करने और कविता गुनगुनाने की वजह से मैं ने उस का नाम ‘कामधारी सिंह दिनकर’ रख दिया था. समय के साथ हमारी 10वीं जमात हो गई और फिर वहां से आगे का सफर. जैसे वह गांव से पढ़ने शहर आया था, वैसे ही मुझे आगे की अच्छी पढ़ाई करने के लिए इस शहर से किसी बड़े शहर या तो मेरे भैया के पास या फिर कहीं और, पर जाना तो तय था. 10वीं जमात के आखिरी इम्तिहान के बाद वह बहुत खुश था. जिस गांव से वह खुशीखुशी शहर आया था, इम्तिहान के बाद वह उसी शहर से अपने गांव रौकेट की रफ्तार से लौट जाना चाहता था.

जब तक इम्तिहान के नतीजे नहीं आ जाते, तब तक वह वहीं रहेगा या किसी बहाने से आएगा ही नहीं. मैं ने पूछा भी था, ‘‘क्यों…?’’ उस ने हमेशा की तरह छोटा सा जवाब दिया था, ‘‘ऐसे ही?’’ उस के 2 लफ्ज ‘ऐसे ही’ बोलने के अंदाज में लाखों राज छिपे थे. नतीजे आ गए, पर वह नहीं आया और मुझे मेरे भैया के पास भेजने की तैयारी जोरों पर थी. जाने से पहले मैं उस से एक बार मिलना चाहता था, जो बिलकुल भी मुमकिन नहीं था. यह उस जमाने की बात है, जब मोबाइल फोन या इंटरनैट नहीं हुआ करते थे. तब लोगों से जुड़ाव कायम करने का एक ही जरीया था खत. मैं ने उस के भैया से पूछा था, ‘‘कब आएगा वह?’’ जवाब में उन्होंने न जाने कितनी लानतें भेजी थीं उस पर… ‘बेवकूफ’, ‘बदकिस्मत’ और न जाने क्याक्या कहा था उसे. वे अपनी मिसाल देने लगे थे कि वे तो आगे पढ़ना चाहते थे, पर अब्बा की ख्वाहिश की वजह से दुकान को संभालना पड़ा और एक वह है, जिसे सब यहां शहर में पढ़ाना चाहते हैं, पर उसे गांव में ही रह कर पढ़ना है. उस के भैया के जवाब के बाद मैं ‘बदकिस्मत’ की परिभाषा ढूंढ़ने लगा कि आखिर ‘बदकिस्मत’ कहते किस को हैं? मेरा मानना था कि अगर किसी की कोई दिली तमन्ना, ख्वाहिश पूरी न हो, तो वह ‘बदकिस्मत’ हुआ,

पर उस की दिली ख्वाहिश जो कि यह थी कि वह वापस शहर नहीं आएगा, पूरी हो गई थी. मेरी नजर में तो वह ‘खुशकिस्मत’ था. इस की एक वजह यह भी थी कि उस ने 10वीं जमात में ही खुद से एक फैसला लिया था और चाहे वजहें जो भी हों, सब ने वह फैसला मान भी लिया. फिर मैं खुद की किस्मत को कोसने लगा… शायद ‘बदकिस्मत’ तो मैं था. मैं भी दूसरे शहर जा कर पढ़ाई नहीं करना चाहता था, पर यह बात मैं अपने घर में फुसफुसाहट में भी नहीं कह सकता था, क्योंकि अब्बू तक यह खबर पहुंच गई, तो वे मेरा कीमा बना देते. यहीं पर मुझे लगा कि हम दोनों की जिंदगी एक सी नहीं है, क्योंकि मैं खुद से फैसला नहीं ले सकता था. वह शहर क्यों नहीं आना चाहता था? यह सिर्फ मैं जानता था. वह भी उस ने इम्तिहान के आखिरी दिन एक शर्त पर बताया था कि मैं किसी को नहीं बताऊं. उस दिन उस ने दिल खोल कर मुझ से बातें की थीं. घर वालों के फैसले पर जब वह शहर पढ़ने आया था, तो उस की खुद की एक खामोश वजह थी और वह वजह थी बिजली और टैलीविजन.

यहां शहर की रात की बिजली की चकाचौंध उसे बहुत भाती थी और किसी न किसी के घर में टैलीविजन देखने को तो मिल ही जाता था, जहां वह फिल्में और ‘शक्तिमान’ देख पाता था. गांव की लालटेन की धीमी रोशनी कुछ हद तक ही रोशन कर पाती थी. उस हद के बाद आसपास अंधेरा ही रहता था और अंधेरे उसे बहुत डराते थे. रात में उसे बाथरूम भी जाना होता था, तो वह अपनी अम्मी को साथ ले कर जाता था. गांव में वह अपनी अम्मी के साथ रात के 2 बजे ही जग जाया करता था, पर सूरज की रोशनी होने तक बिस्तर में ही दुबका रहता था. मैं ने पूछा था, ‘‘2 बजे ही क्यों?’’ वह बताना नहीं चाहता था, पर मेरे जोर देने पर उस ने बड़े फख्र से बताया था,

 

बीड़ी वाले का लड़का : भाग 3

‘‘मेरी अम्मी 2 बजे उठ कर लालटेन को रोशनी में चश्मा लगा कर बीड़ी बनाने के लिए पत्ते काटती हैं और पत्ते काटतेकाटते फज्र की नमाज का समय हो जाता है. फिर वह पत्ते काट कर उसे जमने के लिए सुतली वाले बोरे में बांध कर नमाज पढ़ने चली जाती है.’’ मैं ने फिर पूछा था, ‘‘यह जमना क्या होता है?’’ ‘‘जमना मतलब मुलायम होना, ताकि पत्तों को बीड़ी के जैसे लपेटने में आसानी हो,’’ उस ने बताया था. मैं उस की बात नहीं समझ पाया था, यह उस ने मेरे चेहरे से जान लिया तो फिर उस ने मुझे ठीक वैसे ही समझाया जैसे उस के भैया मुझे गणित समझाते थे. ‘‘इसे ऐसे समझो कि पत्ते काटने के बाद उसे और भी मुलायम होने के लिए मतलब एक बीड़ी वाले की जबान में इसे पत्ते का जमना कहते हैं. सुतली वाले बोरे को एक खास तरीके से बस्ता बना कर उसे पानी से हलका भिगो कर बांधा जाता है. पानी भी एक जरूरत के हिसाब से ही देना होता है.

कम पानी देने से पत्ते रूखे रह जाते हैं और ज्यादा पानी देने से पत्ते में चित्ती लग जाती है मतलब फफूंद लग जाती है.’’ उस के इस तरह बताने से पता चल रहा था कि बीड़ी का कारोबार उस के खून में है. मैं ने फिर पूछा था, ‘‘इतनी सवेरे जाग कर तुम क्या करते थे?’’ ‘‘मैं वहीं पर लेट कर कहानियों की किताबें पढ़ कर अपनी अम्मी को सुनाया करता था,’’ यह कहतेकहते वह उदास हो गया था, मानो जैसे अब रो ही देगा. ‘‘तुम तो वापस उसी अंधेरे वाली दुनिया में जा रहे हो और अब आओगे भी नहीं,’’ मैं आज बस उसे ही सुनना चाहता था. ‘‘हां दोस्त…’’ पहली बार उस ने मुझे दोस्त कह कर बुलाया था. फिर एक गहरी सांस ले कर वह कहने लगा था, ‘‘जिस वजह से मैं यहां आया था, वह तकरीबन पूरी तो हो गई है, पर…’’ ‘‘पर क्या…?’’ उस ने फिर बात अधूरी छोड़ दी तो मैं ने पूछा था.

‘‘पर, अम्मी छूट गई यार, मेरी कहानियां सुनने वाला यहां कोई नहीं है,’’ वह अपने आंसू छिपाने की कोशिश करते हुए बोला था, ‘‘पता है, मेरी नींद अब भी 2 बजे खुल जाती है, पर कमरे के बाहर नहीं निकलता, क्योंकि इस चकाचौंध रोशनी के रहते हुए भी मुझे डर लगता है. तब मुझे समझ में आया कि डर तो मेरे अंदर अब भी है, पर यहां मैं बाथरूम जाने के लिए किसी को गहरी नींद से जगा नहीं सकता, साथ नहीं ले जा सकता. ‘‘भला कोई मेरे लिए अपनी नींद क्यों खराब करेगा और किसी को साथ चलने के लिए जगाने में मुझे खुद भी शर्म आती है, क्योंकि उन की नजर में मैं बहुत बड़ा हो गया हूं, पर अपनी अम्मी की नजर में…’’ कहतेकहते वह खामोश हो गया था. ‘‘पर, यहां टैलीविजन देखने को तो मिलता है न…?’’ मैं चाहता था कि किसी बहाने से वह गांव से वापस आ जाए. ‘‘वह तो तुम्हारे यहां ही देखता हूं…’’ इस से ज्यादा उस ने कुछ नहीं कहा था, क्योंकि बाकी बातें मैं खुद समझ गया था. मेरे अब्बू को उस का मेरे यहां आना बिलकुल भी पसंद नहीं था. ‘‘तुम्हें पता है कि मुझे यहां हर चीज पूछ कर करनी पड़ती है. तुम्हारे यहां टैलीविजन देखने जाने के लिए भी कितनी डांट सुननी पड़ती है, तब जा कर इजाजत मिलती है और फिर तुम्हें वहां मेरे लिए दरवाजा खोलने की वजह से डांट सुननी पड़ती है.’’ उस की इस बात से मैं चौंक पड़ा था कि इसे तो सबकुछ पता है.

‘‘ऐसा नहीं है कि मेरे गांव में टैलीविजन नहीं है. वहां भी है, पर वहां इतनी बंदिशें नहीं हैं. अगर किसी ने अपना दरवाजा बंद भी कर लिया तो हम सब बस दीवार फांद कर उस के घर में घुस जाते हैं, कोई कुछ नहीं कहता है, सब को देखने दिया जाता है. ‘‘हमारे यहां बिजली नहीं है, तो हम लोग बैटरी पर देखते हैं… या तो खुद की बैटरी को पास के बाजार से चार्ज करा कर या भाड़े पर ला कर.’’ उस की बातों को सुन कर मैं अंदर से शर्मिंदा हो रहा था. कुछ चीजें ऐसी थीं, जो मेरे बस में नहीं थीं. उन में से एक थी, उसे देख कर मेरे अब्बू का दरवाजा बंद कर लेना. थोड़ी देर सन्नाटा पसरा रहा, फिर उस ने आगे कहना शुरू किया था, ‘‘वहां तो हंसनेरोने के लिए भी कभी सोचना नहीं पड़ता है. झूठमूठ रो कर अपनी जिद मनवा लेता हूं और फिर जिद पूरी होने पर हंस देता हूं. यहां तो हर चीज के लिए वजह ढूंढ़नी पड़ती है. तुम्हें पता है, तुम्हारे साथ जा कर मैं जितनी बार भी दवाएं लाया था, वे मैं ने कभी खाई ही नहीं थीं.’’ मैं फिर हैरान था और झट से पूछ लिया था, ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्योंकि मुझे कभी पेट या सिरदर्द हुआ ही नहीं. घर या अम्मी की याद आ जाती थी और रो पड़ता था. आंसू की वजह बताने के लिए यही 2 दर्द ऐसे थे, जिन के लिए किसी सुबूत की जरूरत नहीं पड़ती है. गांव में तो अम्मी बुखार भी छू कर जान जाती थी, यहां तो बस थर्मामीटर…’’ मैं खामोश था. शायद मैं भी अब रो पड़ता. एक 10वीं के लड़के के अंदर कितना कुछ भरा था. ऐसा लगा कि उस के अंदर का बच्चा यहां आ कर मर रहा था. ‘‘मैं ने तो अब सोच लिया है कि बीड़ी की दुनिया से मुझे बाहर निकलना है खासकर अम्मी को तो बिलकुल भी नहीं बनाने दूंगा,’’ उस ने कहा था. ‘‘क्यों?’’ ‘‘बहुत सी बातें हैं, तुम्हें कैसे बताऊं…’’ ‘‘बता भी दो, आज पहली बार तुम ने मुझे दोस्त कहा है.’’ ‘‘इतनी मेहनत है इस काम में, पर उस के एवज में मिलता कुछ भी नहीं है.

बीड़ी, जिसे तुम देशी सिगरेट भी कह सकते हो, उस को बनाने से पहले उस के बहुत से पड़ाव हैं. आसान नहीं है बीड़ी बनाना और उसे आम लोगों तक पहुंचाना. हस्तकला की हर कदम पर जरूरत पड़ती है मानो हम जैसे कोई दुलहन सजा रहे हों. ‘‘इतनी मेहनत करने के बाद अगर पूरे दिन में एक हजार बीड़ी बन गईं, वह भी अगर आप की बनाने की स्पीड ज्यादा है तो मुश्किल से 40 से 50 रुपए मजदूरी मिलेगी. लेडीज हाथ की बीड़ी के लिए तो और भी कम मजदूरी है,’’ उस ने बीड़ी बनाने के तरीके को पूरी तफसील में समझाया था मानो उस ने बीड़ी बनाने की कला में पीएचडी कर रखी हो. ‘‘लेडीज हाथ की बीड़ी की मजदूरी कम क्यों?’’ मैं ने फिर पूछा था और बस मेरे इसी एक सवाल का जवाब उस के पास नहीं था और इस का जवाब शायद आज भी किसी के पास नहीं है, पर इस भेदभाव की वजह से उस के अंदर गुस्सा बहुत था. ‘‘पता नहीं यार, और सब से ताज्जुब वाली बात तो यह है कि दुकानदार यानी मेरे अब्बा दोनों बीड़ी को एक ही दाम पर बेचते हैं. ग्राहक से लेडीज हाथ की बीड़ी बता कर कम पैसे नहीं लिए जाते हैं. पता नहीं यह भेदभाव क्यों है? ‘‘मेरी अम्मी या कोई औरत अलग या किसी आसान तरीके से बीड़ी थोड़े न बनाती हैं. मेहनत तो दोनों की बराबर ही लगती है. ‘‘घर को संभालना औरतों के हाथ में है, बच्चे पैदा कर उन की अच्छी परवरिश करना भी उन्हीं के हाथों में है, उन के हाथ का खाना अच्छा होता है, पर यहां… बस यहां उन के हाथ का कोई मोल नहीं, तभी तो लेडीज के हाथ की बीड़ी बोल कर उन्हें कम मजदूरी दी जाती है…’’ कितनी सचाई थी उस की बातों में. कुछ देर के लिए तो मुझे ऐसा लगा कि हमारे स्कूल के गुप्ता सर महिला सशक्तीकरण पर भाषण दे रहे हैं. ‘‘अब हमें घर चलना चाहिए,’’ मैं ने कहा. हालांकि मैं चाहता तो था कि हमारी बातें यों ही चलती रहें, पर…

‘‘हां, वरना तुम्हें अब्बू से फिर डांट पड़ेगी.’’ वह बचपन की दोस्ती की आखिरी शाम मेरी जिंदगी की सब से हसीन शाम थी, पर मैं ने यह नहीं सोचा था कि इस के बाद मैं उस से कभी मिल नहीं पाऊंगा. समय के साथ उस का चेहरा मेरे जेहन में धुंधला तो हो गया, पर उस की बातें हमेशा रोशन रहीं. उस की वे आखिरी एक दिन की बातें मुझे अपनी जिंदगी में हर दिन दिखाई देती थीं. उस ने कहा था, ‘‘अपना घर छोड़ते ही आप की पहचान में फर्क आ जाता है. अपनी पहचान खो जाती है. अच्छाखासा नाम रहते हुए भी तुम्हें उस नाम से कोई नहीं बुलाएगा.’’ कितनी हकीकत थी उस की इस बात में और यह तब समझ में आया, जब मैं ने घर छोड़ा. घर छोड़ने के बाद मेरी पहचान ‘बंटी का भाई’, ‘जूनियर’, ‘सीनियर’, ‘फ्रैशर’, ‘ऐक्सपीरियंस्ड’, ‘दैट इंडियन गाय’… कुछ ऐसा ही होता चला गया, ठीक उसी तरह जिस तरह उस का भी एक नाम था, पर यहां इस शहर में उस का एक ही नाम था ‘बीड़ी वाले का लड़का’.

खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता -भाग 2

‘‘अच्छा… मोबाइल स्विच औफ है? मैं ने देखा नहीं… शायद चार्ज करना भूल गई,’’ विनीता साफ झूठ बोल गई.

‘‘सुनो, मुझे दोपहर बाद टूअर पर निकलना है. ड्राइवर को भेज रहा हूं, मेरा बैग पैक कर के दे देना. घर नहीं आ पाऊंगा, जरूरी मीटिंग है,’’ जतिन ने जल्दबाजी में कहा.

जतिन के टूअर अकसर ऐसे ही बनते. मगर हर बार की तरह इस बार विनीता परेशान नहीं हुई, बल्कि उस ने राहत की सांस ली, क्योंकि वह इस समय सचमुच एकांत चाहती थी ताकि शालिनी से आने से बनी इस परिस्थिति पर कुछ सोचविचार कर सके.

‘क्या होगा अगर उस ने घर आने और मेरे पति से मिलने की जिद की तो? क्या कहूंगी मैं शालू से? क्या जतिन से शादी कर के मैं ने कोई अपराध किया है?’ इन्हीं सवालों के जवाब वह एकांत में अपनेआप से पाना चाहती थी. पूरा दिन वह मंथन करती रही. उस की आशंका के अनुरूप अगले ही दिन दोपहर में शालिनी का फोन आ गया. अब तक विनीता अपनेआप को इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी.

‘‘यार विन्नी, तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकली… मेरी ही थाली पर हाथ साफ कर लिया… मेरे आशिक को अपना पति बना लिया… मैं ने कल ही जतिन की फेसबुक आईडी देखी तो पता चला… क्या तुम्हारी पहले से ही प्लानिंग थी?’’ शालू का व्यंग्य सुन कर विन्नी गुस्से और अपमान से तिलमिला उठी.

‘‘नहीं शालू… थाली पर हाथ साफ नहीं किया, बल्कि जिस पौध को तुम कुचल कर खत्म होने के लिए फेंक गई थी मैं ने उसे सहेज कर फिर से गमले में लगा दिया… अब उस के फूल या फल, जो भी हों, वे मेरी ही झोली में आएंगे न… चल छोड़ ये बातें… तू बता क्या चल रहा है तेरी लाइफ में? कितने दिन के लिए इंडिया आई हो? अकेली आई हो या नितेश भी साथ है?’’ विन्नी ने संयत स्वर में पूछा.

‘‘अकेली आई हूं, हमेशा के लिए… हमारा तलाक हो गया.’’

‘‘क्यों? कैसे? वह तो तुम्हारे हिसाब से बिलकुल परफैक्ट मैच था न?’’

‘‘अरे यार, दूर के ढोल सुहावने होते हैं… नितेश भी बाहर से तो इतना मौडर्न… और भीतर से वही… टिपिकल इंडियन हस्बैंड… यहां मत जाओ… इस से मत मिलो… उस से दूर रहो… परेशान हो गई थी मैं उस से… खुद तो चाहे जिस से लिपट कर डांस करे… और कोई मेरी कमर में हाथ डाल दे तो जनाब को आग लग जाती थी… रोज हमारा झगड़ा होने लगा… बस, फिर हम आपसी सहमति से अलग हो गए. अब मैं हमेशा के लिए इंडिया आ गई हूं,’’ शालू ने बड़ी ही सहजता से अपनी कहानी बता दी जैसे यह कोई खास बात नहीं थी, मगर विनीता के मन में एक अनजाने डर ने कुंडली मार ली.

‘‘अगर यह हमेशा के लिए इंडिया आ गई है, तो जतिन से मिलने की कोशिश भी जरूर करेगी… कहीं इन दोनों का पुराना प्यार फिर से जाग उठा तो? कहते हैं कि व्यक्ति अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलता… फिर? उस का क्या होगा?’’ विनीता ने डर के मारे फोन काट दिया.

विनीता के दिल में शक के बादलों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. उस का शक विश्वास में बदलने लगा जब एक दिन उस ने फेसबुक पर नोटिफिकेशन देखा, ‘‘जतिन बिकम्स फ्रैंड विद शालिनी.’’

‘‘जतिन ने मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा? हो सकता है शालिनी इन से मिली भी हो…’’ विनीता के दिल में शक के नाग ने फुफकार भरी. विनीता अपने दिल की बात किसी से भी शेयर नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे उस की मनोस्थिति उस पर हावी होने लगी. नतीजतन उस के व्यवहार में एक अजीब सा रूखापन आ गया. जतिन जब भी उसे हंसाने की कोशिश करता वह बिफर उठती.

‘‘तुम्हें पता है शालिनी वापस लौट आई है?’’ एक दिन औफिस से आते ही जतिन ने विस्फोट किया.

‘‘हां, उस ने एक दिन मुझे फोन किया था. मगर तुम्हें किस ने बताया?’’ विनीता ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा. जतिन की आंखों में उसे जरा भी चोरी नजर नहीं आई, बल्कि उन में तो विश्वास भरी चमक थी.

‘‘अरे, उसी ने आज मुझे भी फोन किया था. उसे टाइम पास करने के लिए कोई जौब चाहिए. मुझ से मदद मांग रही थी.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘1-2 लोगों से कहा है… देखो, कहां बात बनती है.’’

‘‘मगर तुम्हें क्या जरूरत है किसी पचड़े में पड़ने की?’’

‘‘अरे यार, इंसानियत नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं… चलो छोड़ो, तुम बढि़या सी चाय पिलाओ,’’ कहते हुए जतिन ने बात खत्म कर दी.

मगर यह बात इतनी आसानी से कहां खत्म होने वाली थी. विनीता के कानों में रहरह कर शालिनी की चैलेंज देती आवाज गूंज रही थी. अब उस के पास शालिनी के फोन आने बंद हो गए थे. इस बात ने भी विनीता की रातों की नींद उड़ा दी थी.

‘‘अब तो सीधे जतिन को ही कौल करती होगी… मैं तो शायद कबाब में हड्डी हो चुकी हूं,’’ विनीता अपनेआप से ही बातें करती परेशान होती रहती. इन सब के फलस्वरूप वह कुछ बीमार भी रहने लगी थी.

‘‘मेरे कहने पर एक होटल में शालिनी को एचआर की जौब मिल गई. इस खुशी में वह आज मुझे इसी होटल में ट्रीट देना चाहती है… तुम चलोगी?’’ एक शाम जतिन ने घर आते ही कहा.

‘‘पूछ रहे हो या चलने को कह रहे हो?’’ विनीता भीतर ही भीतर सुलग रही थी.

‘‘आजकल तुम्हें बाहर का खाना सूट नहीं करता न, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ जतिन ने सहजता से कहा.

विनीता कुछ नहीं बोली. चुपचाप हारे हुए खिलाड़ी की तरह जतिन को अपने से दूर जाते देखती रही.

धीरेधीरे उस ने चुप्पी ही साथ ली. उस ने जतिन से दूरी बढ़ानी शुरू करदी. उन के रिश्ते में ठंडापन आने लगा. वह मन ही मन अपनेआप को जतिन से तलाक के लिए तैयार करने लगी. वहीं जतिन इसे उस की बीमारी के लक्षण समझ कर बहुत ही सामान्य रूप से ले रहा था. हमेशा की तरह वह उसे घर आते ही औफिस से जुड़ी मजेदार बातें बताता था. इन दिनों उस की बातों में शालिनी का जिक्र भी होने लगा था. हालांकि शालू कभी उन के घर नहीं आई, मगर जतिन के अनुसार वह कभीकभार उस से मिलने औफिस आ जाती. वह भी 1-2 बार उस के बुलावे पर होटल गया था.

 

उलझन : शीला जीजी क्यों ताना मार रही थी-भाग 2

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

 

जिओ जमाई राजा : अभय प्रताप के घर चोर कैसे घूस गया था

निकला. साल भर होने को आया लेकिन अब भी जब पुरवा हवा चलती है तो चरनदास की नाक की हड्डी में दर्द होने लगता है.

इंस्पेक्टर इसरार खान अपनी खिजाब लगी दाढ़ी खुजलाते हुए लखनवी अंदाज व अदब के साथ अम्मांजी की मातमपुर्सी कर रहे थे, ‘‘खुदा जन्नत बख्शे मरहूम को. क्या नायाब मोहतरमा थीं जनाब, अल्ला को भी न जाने क्या सूझी कि ऐसी पाकीजा और शीरीं जबान खातून को हम से छीन लिया.’’

पिछले 5 सालों से आमों की फसल पर मलीहाबादी दशहरी आमों की पेटियों का नजराना पेश करने की जिम्मेदारी खान साहब पर ही थी. अम्मांजी एकएक पेटी गिन कर अंदर रखवातीं. 2 साल पहले जब कीड़े के प्रकोप से मलीहाबादी आमों की पूरी फसल ही चौपट हो गई थी तब बेचारे खान साहब कहां से आम लाते. फिर भी बाजार से ऊंचे दामों में 2 पेटियां खरीद कर अम्मांजी की खिदमत में पेश कीं.

‘‘पूरे सीजन में सिर्फ 2 पेटियां?’’ यह कहते हुए अम्मांजी आगबबूला हो उठीं और फिर तो अपनी निमकौड़ी जैसी जबान से ऐसीऐसी परंपरागत तामसिक गालियों की बौछार की कि बेचारे खान साहब की रूह फना हो गई. लोग खामखाह पुलिस मकहमे को गालियों की टकसाल कहा करते हैं.

धीरेधीरे एक हफ्ता बीत गया. जख्म भरने लगा और ठाकुर अभयप्रताप भी आफिस जाने लगे. इस बीच उन्हें यह खबर लग चुकी थी कि उन के चोरी हुए सामान समेत चोर पकड़ा जा चुका है. सामान की शिनाख्त भी उन के मातहत कर्मचारियों ने कर ली थी. तकरीबन सारा सामान उन्हीं मातहतों के खूनपसीने की कमाई का ही तो था जिन्हें उन्होंने तोहफों की शक्ल में अम्मांजी को भेंट किया था. चोर के साथ पुलिस वाले बेहद सख्ती से पेश आए थे.

ठाकुर अभयप्रताप के सामने भी चोर की पेशी हुई. आखिर वह पुलिस के आला अफसर थे, वह भी देखना चाह रहे थे कि किस बंदे में इतनी हिम्मत थी जिस ने उन के घर में सेंध लगाई. बेडि़यों में जकड़ कर चोर को हाजिर किया गया. साहब की ओर देखते ही चोर चौंका. इन्हें तो पहले भी कहीं देखा है. कहां देखा है? वह याद कर ही रहा था कि सिपाही रामभरोसे ने एक जोरदार डंडा यह कहते हुए उस की पीठ पर जमा दिया, ‘‘ऐसे भकुआ बना क्या देख रहा है बे. यही वह साहब हैं जिन के घर घुसने की तू ने हिम्मत की थी. अब देख, साहब ही तेरी खाल में भूसा भरेंगे.’’

बेचारा चोर मार खाए कुत्ते जैसा कुंकुआने लगा. तभी उस के दिमाग में एक बिजली कौंधी. वह ठाकुर अभयप्रताप के सामने बैठ कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘मुझे बचा लीजिए माई बाप, मैं तो मामूली उठाईगीर हूं. मैं ने चोरी जरूर की है माई बाप, पर आप का सब सामान तो मिल गया है हुजूर. थोड़ी सजा दे कर मुझे छोड़ दीजिए साहब.’’

‘‘अबे, तेरी तो ऐसी की तैसी,’’ और सिपाही रामभरोसे ने दूसरा डंडा ठोंका, ‘‘सवाल तेरी चोरी का नहीं है ससुरे, सवाल है तू ने हमारे साहब के घर घुसने की हिम्मत कैसे की?’’

बेचारा चोर फिर कुंकुआने लगा और तेजी से ठाकुर का पैर पकड़ कर बोला, ‘‘साहब, उस रात जब मैं आप के घर घुसा था तब आप ही थे न जो रात में जीने के ऊपर केले के छिलके बिछा रहे थे?’’

‘‘अयं, यह क्या आंयबांय बक रहा है बे. एक ही हफ्ते की मार से दिमाग फेल हो गया है क्या तेरा,’’ सिपाही रामभरोसे ने जूता उस के सिर पर जोर से ठोंका.

लेकिन अभयप्रताप सिंह का सिंहासन तो डोल गया था. फौरन सिपाही रामभरोसे को यह कहते हुए बाहर भेज दिया कि मुझे इस चोर से अकेले में कुछ बात करनी है.

फिर तो चोर ने पूरा खुलासा किया, ‘‘साहब, उस रात जीने पर जब साहब आप 3 जगह झुक कर केले के छिलके रख रहे थे तो यह खुशकिस्मत इनसान वहीं परदे के पीछे छिपा था. बाद में हवालात में ही मुझे पता चला कि साहब की सास की मौत केले के छिलके पर फिसल कर हुई थी.’’

अब क्या था. पासा पलट चुका था. साहब ने आननफानन में आदेश दे दिया कि चोरी का सामान तो मिल ही चुका है, फिर बेचारे गरीब चोर को क्यों सजा हो. पूरा का पूरा महकमा इस अजीब फैसले से सकते में आ गया. लेकिन जब साहब ने खुद ही उस का गुनाह माफ कर दिया तो फिर केस ही नहीं बनता न.

वह दिन और आज का दिन. महीने की पहली तारीख को वह चोर अपनी मूंछ पर ताव देता हुआ  ठाकुर अभयप्रताप के घर के दरवाजे के सामने खड़ा उन का इंतजार करता है. उस के हाथ में 2-4 केले रहते हैं. इंतजार करतेकरते वह पट्ठा सामने की पुलिया पर बैठ कर केले खाता जाता है और उस के छिलके पास में जमा करता जाता है. जैसे ही साहब बाहर निकलते हैं वह एक हाथ में केले का छिलका हिलाते हुए दूसरे हाथ से उन्हें सलाम ठोंकता है.

ठाकुर अभयप्रताप इधरउधर नजर दौड़ा कर धीरे से उस के पास जाते हैं और जेब से कुछ रुपए निकाल उस के हाथ पर रख कर झट से गाड़ी में बैठ जाते हैं. गेट पर खड़ा गार्ड और ड्राइवर सब उस चोर की हिमाकत और ठाकुर साहब की दरियादिली देख कर सिर खुजलाते रह जाते हैं.

बिगड़ी लड़की : अजय से ड्राइविंग के बारे में कौन पूछ रहा था

एक दामाद और : पांच बेटी होने के बाद भी उसे कोई दिक्कत नहीं थी क्यों -भाग 2

‘‘क्यों?’’ नरेश ने चौंक कर कहा.

दूसरी तरफ से कई लोगों के खिल- खिलाने की आवाजें आईं, ‘‘जीजाजी… जीजाजी.’’

नरेश ने माथा पीट लिया. उर्मिला फोन करने पास की एक दुकान पर जाती थी. वह प्रति फोन 1 रुपया लेता था. सड़क पर आवाजें काफी आती थीं, इसलिए जोरजोर से बोलना पड़ता था. नरेश ने कह रखा था कि जब तक एकदम आवश्यक न हो यहां से फोन न करे. सब लोग दूरदूर तक सुनते हैं और मुसकराते हैं. उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था और उस समय तो वहां पूरी बरात ही खड़ी थी. वह सोचने लगा, दुनिया भर को मालूम हो जाएगा कि वह पलटन के साथ फिल्म देखने जा रहा है. और तो और, ये सालियां क्या हैं एक से एक बढ़ कर पटाखा हैं, इन्हें फुलझडि़यां कहना तो इन का अपमान होगा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर उस ने फोन पटक दिया. आगे बात करने का अवसर ही नहीं दिया. रूमाल निकाल कर माथे का पसीना पोंछने लगा. उसे याद था कि कैसे बड़ी कठिनाई से उस ने उर्मिला को टरकाया था, जब वह सब सालियों समेत दफ्तर आने की धमकी दे रही थी.

2 जने जाते तो 14 रुपए के टिकट आते. अब पूरे 42 रुपए के टिकट आएंगे. सालियां आइसक्रीम और पापकार्न खाए बिना नहीं मानेंगी. वैसे तो वह स्कूटर पर ही जाता, पर अब पूरी टैक्सी करनी पड़ेगी. उस का भी ड्योढ़ा किराया लगेगा. उस ने मन ही मन ससुर को गाली दी. घर में अच्छीखासी मोटर है. यह नहीं कि अपनी रेजगारी को आ कर ले जाएं. उसे स्वयं ही टैक्सी कर के घर छोड़ने भी जाना होगा. अभी तो महीना खत्म होने में पूरे 3 सप्ताह बाकी थे.

सालियां तो सालियां ठहरीं, पूरी फिल्म में एकदूसरी को कुहनी मारते हुए खिलखिला कर हंसती रहीं. आसपास वालों ने कई बार टोका. नरेश शर्म के मारे और कभी क्रोध से मुंह सी कर बैठा रहा. उस का एक क्षण भी जी न लगा. जैसेतैसे फिल्म समाप्त हुई तो वह बाहर आ कर टैक्सी ढूंढ़ने लगा.

‘‘सुनो,’’ उर्मिला ने कहा.

‘‘अब क्या हुआ?’’

‘‘देर हो गई है. इन्हें खाना खिला कर भेजूंगी. घर में तो 2 ही जनों का खाना है. होटल से कुछ खरीद कर घर ले चलें.’’

बड़ी साली ने इठला कर कहा, ‘‘जीजाजी, आप ने कभी होटल में खाना नहीं खिलाया. आज तो हम लोग होटल में ही खाएंगे. दीदी घर में कहां खाना बनाती फिरेंगी?’’

बाकी की सालियों ने राग पकड़ लिया, ‘‘होटल में खाएंगे. जीजाजी, आज होटल में खाना खिलाएंगे.’’

नरेश सुन्न सा खड़ा रहा

उर्मिला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, शोर क्यों मचाती हो?’’ और फिर नरेश की ओर मुंह कर के बोली, ‘‘सुनो, आज इन का मन रख लो.’’

नरेश ने जेब की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘रुपए हैं पास में? मेरे पास तो कुछ नहीं है.’’

उर्मिला ने पर्स थपथपाते हुए कहा, ‘‘काम चल जाएगा. यहीं ‘चाचे दा होटल’ में चले चलेंगे.’’

जब तक खाना खाते रहे पूरी फिल्म के संवाद दोहरादोहरा कर सब हंसी के मारे लोटपोट होते रहे. और जो लोग वहां खाना खा रहे थे वे खाना छोड़ कर इन्हें ही विचित्र नजरों से देख रहे थे. नरेश अंदर ही अंदर झुंझला रहा था.

टैक्सी में बिठा कर जब वह उन्हें घर छोड़ कर वापस आया तो उस ने उर्मिला से पूरा युद्ध करने की ठान ली थी. परंतु उस के खिलखिलाते संतुष्ट चेहरे को देख कर उस ने फिलहाल युद्ध को स्थगित रखने का ही निश्चय किया.

 

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