मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे – भाग 1

हर औरत की तरह मेरी बीवी हूरा बेगम को भी जेवरात का बड़ा शौक है. मैं ने शादी पर जो जेवरात चढ़ाए थे, 20 साल गुजरने के बावजूद उन्हें यों सीने से लगाए रखती है जैसे बंदरिया अपने बच्चे को. मैं उस से कहता भी हूं, ‘हूरा बेगम इन्हें बेच कर नए फैशन के जेवरात खरीद लाओ. तुम्हारा दिल इन से अभी तक भरा नहीं?’

तो वो एकदम जज्बाती सी हो कर कहती है ‘मंसूर इंसान का उन चीजों से कभी दिल नहीं भरता जो उस के दिलोदिमाग में खुशगवार यादों की बस्ती आबाद कर देती हों. जब मैं आज की बोझिल जिम्मेदारियों से थक कर इन जेवरात की पिटारी खोलती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं वही नई ब्याहता दुल्हन हूं और तुम अपने जज्बात से लरजते हाथों से मुझे ये जेवर पहना रहे हो.

तुम्हें याद है न, तुम ने चुपके से अपनी बहन सलमा से कहलवाया था कि हूरा से कह देना जब मैं आऊं तो वो फूलों का गहना पहने मिले, धातु के जेवरात उतार देना. मैं ने तुम्हारा हुक्म फौरन मान लिया था. मगर पता नहीं क्यों मुझे यह बदशगुनी सी लगी थी कि शादी की पहली रात ही दूल्हे को अपने रूप का जलवा दिखाए बगैर दुलहन जेवर उतार दे.

मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. तुम ने मेरे दुखी दिल को महसूस कर के पूछा था ‘हूरा क्या बात है तुम खुश नहीं लग रहीं. क्या मुझ से शादी तुम्हारी मरजी के बगैर हुई है?’ मैं ने तड़प कर तुम्हारे मुंह पर हाथ रख दिया था, याद है न. फिर तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने अपने दिल की बात बता दी थी.

तुम बहुत देर तक गुमसुम से बैठे रहे थे. फिर उठ कर मेरे पास आ गए थे और जेवरात का डिब्बा खोल कर सारे जेवर मुझे अपने हाथों से पहनाते हुए कहा था. लो बस अपना दिल मैला न करो.

आज की रात एकदूसरे के लिए हमारे दिल में मोहब्बत के सिवा और कोई जज्बा पैदा नहीं होना चाहिए. तुम्हें याद है न? और तुम ने मुंह दिखाई में मुझे यह सैट दिया था?’

मेरी बीवी यह वाकया कई बार मुझे सुना चुकी है. हर बार वह एक मजे के साथ इस वाकिए का एकएक लफ्ज सौसौ रंगों में डुबो कर सुनाती है. मगर बेवकूफ यह नहीं जानती कि यह वाकया सुनते हुए मेरा ब्लडप्रेशर हाई होने लगता है. उसे नहीं मालूम कि उस के शौहर को इन जेवरात से क्या एलर्जी होती है. उस ने शादी की पहली रात यह क्यों कहा था कि वो फूलों का गहना पहन ले. हर आदमी की जिंदगी में कुछ बातें ऐसी जरूर होती हैं जिन का राजदार वो खुद ही होता है.

सालोंसाल बल्कि सारी उम्र साथ रहने वाली बीवी भी नहीं जानती कि उस के शौहर के दिल के चंद खाने उस से छिपे हुए हैं. वह खुश कर देने वाले चंद जुमलों से अपने दिल को आबाद करती रहती है. खुद को धोखा देती रहती है कि उस की जिंदगी में दाखिल होने वाली मैं वो अकेली औरत हूं जो उस के दिलोदिमाग पर पूरी तरह कब्जा किए हुए है.

इस आत्ममुग्धता के सहारे वो खुशीखुशी अपने जिस्मोजान की कुर्बानी देती चली जाती है. अच्छा ही है कि वह इस आत्ममुग्धता में डूबी रहती है. अगर वह हर सच्चाई की तह में उतरने वाली अकल ले कर पैदा होती तो शिकारी फितरत वाला मर्द सारी उम्र शिकार से महरूम (वंचित) रह जाता.

हां, दूसरे मर्दों की तरह मैं भी शिकारी फितरत वाला मर्द था. जवानी के दौर में कई सारी लड़कियां मेरी मोहब्बत के जाल में फंस कर मुझ पर अपना तनमन और धन न्यौछावर करती रहीं. कुलसुम, जैनब, हमीदा, गुलफ्शां, साजिदा. कोई एक नाम हो तो याद भी करूं, बहुत से चेहरे तो वक्त ने धुंधला भी दिए हैं.

सिर्फ एक चेहरा ऐसा है जिसे मैं कोशिश के बावजूद अपनी नजरों से जुदा नहीं कर सका हूं. और वो है शाहीना का चेहरा. उस का बाप एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उन दिनों मैं ने इंटर का इम्तिहान दिया था. वक्त ही वक्त था.

मेरे एक दोस्त ने मशविरा दिया कि जब तक रिजल्ट न आ जाए हम कहीं नौकरी कर लेते हैं. अगर कामयाब हो गए तो पढ़ाई जारी रखेंगे. कभी नौकरी पढ़ाई में रुकावट बनी तो उसे छोड़ देंगे. वह गुजराती लड़का था. हमेशा फायदे की बात सोचा करता था.

हम दोनों की गाढ़ी छनती थी. हम दोनों ने नौकरी की तलाश बड़ी लगन से शुरू कर दी. दोनों एक साथ कई औफिसों की धूल छानते फिरा करते थे. इस फाकामस्ती (दरिद्रता) की हालत में भी मोहब्बत का कारोबार जारी रहता था.

यहांवहां घूमतेभटकते शाहीना के अब्बा से मुलाकात हो गई. वो अकाउंटेंट थे. उन्होंने हमारी दरखास्तें बड़े गौर से पढ़ीं और दोनों को बुलवा लिया. कहने लगे हमारे यहां एक जगह खाली है. और वो भी टैंपरेरी है. संभव है कुछ महीनों बाद हम वो पद खत्म कर दें या स्थाई कर दें. यह बात अगले 3 महीने बाद मीटिंग में ही तय होगी, तुम में से एक को यह नौकरी दी जा सकती है. आपस में फैसला कर लो कि तुम दोनों में से ज्यादा जरूरत किस को है?

मेरा गुजराती दोस्त फौरन पीछे हट गया. कहने लगा, ‘जनाब मेरे इस दोस्त को रख लीजिए. मेरे अब्बा की दुकान है, मैं तो वैसे भी व्यस्त रहता हूं. यह बिलकुल बेकार फिरता रहता है. इसे बैठने का ठिकाना मिल जाएगा.’

इस तरह मुझे नौकरी मिल गई. इस पद के रहने न रहने का अधिकार वहीद साहब के हाथ में था. इसलिए मैं ज्यादातर उन्हीं के आसपास मंडराता रहता था. उन्होंने मुझे अपने निजी कामों के लिए घर भेजना शुरू कर दिया. घर में शाहीना से मुलाकात हो गई. गोरी रंगत वाली यह लड़की मेरी नजरों में आ गई.

उन दिनों मेरा चक्कर जैनब से चल रहा था, जो मेरे लगातार झूठ बोलने से तंग आ गई थी. वह चुपकेचुपके अपने रिश्ते के भाई को शीशे में उतार कर शादी की तैयारियां कर रही थी. मुझे उस की बहन ने सब कुछ बता दिया था.

इस से पहले कि वो मुझे दुत्कारती मैं खुद उसे छोड़ना चाहता था. मगर जब तक इस ध्ांधे के लिए कोई दूसरी लड़की नहीं मिलती, यह जरा मुश्किल काम लगता था. शाहीना पर नजर पड़ी तो दिल ने चुटकी ली कि लो मियां तुम्हारा बंदोबस्त हो गया. लड़की कम बोलती है, सूरतशक्ल अच्छी है. थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ेगी. यह कौन सा मुश्किल है, ज्यादा से ज्यादा एकदो हफ्ते लगातार अदाकारी करनी पड़ेगी.

सब से पहले मैं ने उस का बैकग्राउंड मालूम किया. पता चला कि शाहीना वहीद साहब की सगी औलाद नहीं है. वह उस की मां के पहले शौहर से है. मां का तलाक हो गया था. बच्ची उसी के पास रही. उस ने वहीद साहिब से शादी कर ली. उन की बीवी एक बच्चे को जन्म दे कर मर चुकी थी. बच्चा जिंदा था.

उस की परवरिश के लिए वह दूसरी शादी के इच्छुक थे. शाहीना की उम्र उस समय ढाई साल थी. किसी दोस्त के जरिए से यह रिश्ता तय हो गया था. शादी के बाद दोनों मियांबीवी ने अपने बच्चों की हिफाजत के लिए एक फैसला किया.

बीवी अपने फैसले पर कायम रही, उस ने वहीद साहब के बेटे को अपनी औलाद से बढ़ कर प्यार दिया. मगर वहीद साहब अपनी सौतेली बच्ची से दिमागी तौर पर समझौता न कर सके. उन्होंने कभी उसे गोद तक में नहीं लिया. उस की जरूरतों का खयाल न रखा. ऊपर से 4 बच्चे और आ गए शाहीना बिलकुल बैकग्राउंड (नेपथ्य) में चली गई.

जैसेजैसे वह बड़ी होती गई उस पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया. मां को इतना समय नहीं मिलता था कि उस की परेशानियों को समझ सकती. वो अंदर ही अंदर अपने सारे बहनभाइयों से जलती थी, जिन्होंने मिल कर उस की मां को उस से छीन लिया था.

पढ़ाई में कमजोर थी या शायद उस ने अपना सारा दिमाग बहनभाइयों को जलाते रहने की तरकीबों पर लगा दिया था. बाप उस से नफरत करता था. हर गलती उसी के सिर पर थोप कर उस से पूछताछ करता था.

देखने में तो कम बोलने वाली और दूसरों की खिदमत करते रहने वाली लड़की नजर आती थी, मगर जैसेजैसे उस के भेद खुलते गए मुझे अंदाजा हो गया कि वह बहनभाइयों को आपस में लड़वा कर बड़ी खुश होती है.

19-20 बरस की लड़की, नन्ही बच्ची की तरह भागतीदौड़ती फिरा करती थी. कभी आंगन वाले पेड़ पर चढ़ जाती तो कभी दीवार पर जा बैठती. जुबान नहीं खोलती थी. मैं ने कुछ दिन उस की मनोस्थिति समझने में लगाए फिर बिल्ली की तरह पुचकार कर उसे अपने करीब कर लिया.

उस की गुर्राहटें आहिस्ताआहिस्ता कम होने लगीं. लहजे में नरमी आ गई. जज्बात की हल्की सी तपिश से उस के दिल की सख्त चट्टान मोम में बदल गई और इस से पहले कि जैनब मुझे अपनी शादी का कार्ड थमाती, मैं ने शाहीना से मोहब्बत का इकरार करवा लिया.

जैनब की छुट्टी कर के मैं जोरशोर से शाहीना पर मरने लगा. मुझे उस जमाने में हर लड़की फ्लर्ट लगती थी. शायद इसलिए कि मेरी पहले की सारी महबूबाओं में एक भी वफा वाली नहीं थी. वहीद साहब के हुक्म पर जब भी मैं उन के घर जाता था, मोहल्ले के किसी बच्चे के हाथ पहले ही शाहीना को इत्तला भिजवा दिया करता था.

वह किसी न किसी बहाने बैठक (उस जमाने में ड्राइंगरूम को बैठक कहते थे) में आ जाती. मुझ से मिलने के बाद उस के चेहरे पर काफी सुकून छा जाता. अकसर कहती थी मंसूर आप ने हमारे दिल में जीने की उमंग पैदा कर दी है. वरना हम सोचा करते थे किसी रोज अफीम खाकर मर जाएं. हम से यहां कोई प्यार नहीं करता. अब्बू कहते हैं कि हमारी रगों में उन का खून नहीं है, इसलिए हम बदतमीज हैं, चालाक हैं, बेहूदा हैं.

उन्हें हमारे अंदर दुनिया भर की कमियां नजर आती हैं. अम्मी उन्हें और उन की औलाद को खुश करने के लिए हमें उन सब के सामने जलील करती रहती हैं. वो हम से इतना काम लेती हैं कि अगर हम कहीं नौकरी कर लें तो इस जगह से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जिंदगी गुजार सकते हैं.

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 2

‘‘मां, विनय, तनय, विभा और आभा की कल्पना की हर बात पूछी थी उस ने. पर एक और बात भी पूछी थी जो उन चारों तो क्या आप की कल्पना से भी परे है और वह बात बता कर मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता.’’

‘‘ऐसा क्या कहा था उस ने? अब बता ही डाल. नहीं तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो न मां, क्या करोगी सुन कर? इस बात को यहीं समाप्त करो. इसे आगे बढ़ाने  का कोई लाभ नहीं है. कहते हैं न कि जिस गांव में जाना नहीं उस का पता क्या पूछना.’’

‘‘प्रश्न बात आगे बढ़ाने का नहीं है. पर सबकुछ पता हो तो निर्णय लेना सरल हो जाता है.’’

‘‘तो सुनो मां. स्वाति पूछ रही थी कि विवाह के बाद हम कहां रहेंगे?’’

‘‘कहां रहेंगे का क्या मतलब है? हमारी इतनी बड़ी कोठी है. कहीं और रहने का प्रश्न ही कहां उठता है,’’ विमलाजी का स्वर अचरज से भरा था.

‘‘वह कह रही थी कि सास, ननद और देवरों के चक्कर में पड़ कर मैं अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. उसे तो स्वतंत्रता चाहिए, पूर्ण स्वतंत्रता,’’ कनक ने अंतत: बता ही दिया था.

‘‘हैं, जो लड़की विवाह से पहले ही ऐसी बातें कर रही है वह विवाह के बाद तो जीना दूभर कर देगी. अच्छा किया जो तुम उठ कर चले आए. ऐसे संस्कारों वाली लड़की से तो दूर रहना ही अच्छा है.’’

‘‘मां, इस बात को यहीं समाप्त कर दो. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है आप को. विभा व आभा के भी कुछ प्रस्ताव हैं, उन के बारे में सोचिए न,’’ कनक ने उठने का उपक्रम किया था.

विमलाजी शून्य में ताकती अकेली बैठी रह गई थीं. उन्होंने सुना अवश्य था कि आधुनिक लड़कियां न झिझकती हैं न शरमाती हैं. जो उन्हें मन भाए उसे छीन लेती हैं. नहीं तो पहली ही भेंट में स्वाति की कनक से इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? शायद उस के मातापिता उस की इच्छा के खिलाफ उस का विवाह करना चाह रहे हैं और उस ने ऐसे अनचाहे संबंध से पीछा छुड़ाने का यह नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला हो.

‘‘क्या हुआ, मां? किस सोच में डूबी हो,’’ विमलाजी को सोच में डूबे देख विभा ने पूछा था.

‘‘कुछ नहीं रे. ऐसे ही थोड़ी थक गई हूं.’’

‘‘आराम कर लो कुछ देर. खाना मैं बना देती हूं,’’ विभा उन का माथा सहलाते हुए बोली थी.

‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी कल परीक्षा न होती तो मैं स्वयं तुम से कह देती. मैं कुछ हलकाफुलका बना लेती हूं, तुम जा कर पढ़ाई करो,’’ विमलाजी स्निग्ध स्वर में बोली थीं.

वे धीरे से उठ कर रसोईघर में जा घुसी थीं. उन्होंने अपने थकने की बात विभा से कही थी पर सच तो यह था कि आज की घटना ने उन का दिल दहला दिया था. अपने पति डा. उमेश को असमय ही खो देने के बाद उन्होंने स्वयं को शीघ्र ही संभाल लिया था. अपने बच्चों के भविष्य के लिए वे चट्टान की भांति खड़ी हो गई थीं. वे स्वयं पढ़ीलिखी थीं, चाहतीं तो नौकरी कर लेतीं पर अपने हितैषियों की सलाह मान कर उन्होंने घर पर ही रहने का निर्णय लिया था.

उमेश की बहन डा. नीलिमा ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था पर पिछले 5 वर्ष से वे अपने परिवार के साथ लंदन में बस गई थीं. पहले उन्होंने सोचा था कि उन से बात कर के ही मन हलका कर लें. पर शीघ्र ही उस विचार को झटक कर अपने कार्य में व्यस्त हो गईं. यह सोच कर कि इतनी दूर बैठी नीलिमा दीदी भला उन्हें क्या सलाह दे सकेंगी. वैसे भी जब कनक खुद इस विवाह के लिए तैयार नहीं है तो इस बात को आगे बढ़ाने का अर्थ ही क्या है?

दूसरे दिन रमोलाजी का फोन आ गया.

‘‘विमलाजी, कल आप अचानक ही उठ कर चली आईं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, राव दंपती तो हक्केबक्के रह गए.’’

‘‘बात यह है रमोलाजी कि यह संबंध हमें जंचा नहीं. इसीलिए हम चले आए.’’

‘‘क्यों नहीं जंचा, विमलाजी, आप आज्ञा दें तो मैं स्वयं आ जाऊं. राव दंपती तो स्वयं आना चाह रहे थे पर मैं ने ही उन्हें मना कर दिया और समझाया कि पहले मैं जा कर वस्तुस्थिति का पता लगाती हूं. आप लोग बाद में आइएगा. आप कहें तो अभी आ जाऊं.’’

‘‘अभी तो मैं जरा व्यस्त हूं. बच्चों के कालेज जाने का समय है. आप 2 घंटे के बाद आ जाइए. तब तक मैं अपना काम समाप्त कर लूंगी,’’ विमलाजी बोली थीं.

‘‘किस का फोन था, मां?’’ फोन पर मां का वार्त्तालाप सुन कर कनक के कान खड़े हो गए थे.

‘‘रमोलाजी थीं. घर आ कर मिलना चाहती हैं.’’

‘‘टाल देना था मां. आप तो रमोलाजी को अच्छी तरह से जानती हैं. जोडि़यां मिलाना उन का धंधा है. वे आप को ऐसी पट्टी पढ़ाएंगी कि आप मना नहीं कर सकेंगी.’’

‘‘वे तो इसे समाज की सेवा कहती हैं. तुम ने सुना नहीं था कि कल कैसे अपनी प्रशंसा के पुल बांध रही थीं. उन के ही शब्दों में उन्होंने जितनी जोडि़यां मिलाई हैं सब बहुत सुखी हैं.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, मां, आप बातों में उन से जीत नहीं सकतीं. आप अभी फोन कर के कोई बहाना बना दीजिए,’’ कनक ने सुझाव दिया था.

‘‘मैं रमोलाजी को व्यर्थ नाराज नहीं करना चाहती. उन की अच्छेअच्छे परिवारों में पैठ है. चुटकी बजाते ही रिश्ते पक्के करवाने में उन का कोई सानी नहीं है. फिर विभा और आभा का विवाह भी करवाना है. तुम कहां टक्कर मारते घूमोेगे?’’

‘‘ठीक है. खूब स्वागतसत्कार कीजिए रमोलाजी का पर सावधान रहिए और दृढ़ता से काम लीजिए. विभा की बात भी उन के कान में डाल दीजिए. अच्छा तो मैं चलता हूं.’’

रमोलाजी आई तो विमलाजी पूरी तरह से चाकचौबंद थीं. रमोलाजी की लच्छेदार बातों से वे भलीभांति परिचित थीं अत: मानसिक रूप से भी तैयार थीं.

‘‘क्या हुआ विमला भाभी? कल आप दोनों बिना कुछ कहेसुने राव साहब के यहां से उठ कर चले आए. जरा सोचिए, उन्हें कितना बुरा लगा होगा. मुझ से तो कुछ कहते ही नहीं बना,’’ रमोलाजी ने आते ही शिकायत की थी.

‘‘कनक से स्वाति की बातचीत हुई थी. उसे लगा कि उन दोनों के विचारों में बहुत अंतर है. इसलिए वह उठ कर चला आया तो उस के साथ मैं भी चली आई. विवाह तो उसी को करना है.’’

‘‘कैसी बात करती हो, भाभी. इतने अच्छे रिश्ते को क्या आप यों ही ठुकरा दोगी. मैं तो आप के भले के लिए ही कह रही थी. यों समझो कि लक्ष्मी स्वयं चल कर आप के घर आ रही है और आप उसे ठुकरा रही हैं?’’

‘‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता, दीदी. और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है.’’

‘‘तो बताओ न, बात क्या है? क्यों कनक वहां से उठ कर चला आया?’’

‘‘क्या कहूं, जो कुछ कनक ने बताया वह सुन कर मैं तो अब तक सकते में हूं,’’ विमलजी रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘ऐसा क्या कह दिया स्वाति ने? मैं तो उस को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मेरी बेटी की वह बहुत अच्छी सहेली है. जिजीविषा तो उस में कूटकूट कर भरी है. यह मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं उस का रिश्ता कनक के लिए लाई हूं. तुम उसे अपनी बहू न बनाओ तब भी मैं उस के बारे में यही कहूंगी.’’

‘‘आप तो स्वाति की प्रशंसा के पुल बांध रही हैं पर कनक तो उस से मिल कर बहुत निराश हुआ है.’’

‘‘क्यों? उस की निराशा का कारण क्या है?’’

‘‘बहुत सी बातें हैं. स्वाति उस से पूछ रही थी कि वह सगाई की अंगूठी कहां से और कितने की बनवाएगा, विवाह की पोशाक किस डिजाइनर से बनवाई जाएगी. ऐसी ही और भी बातें.’’

‘‘बस, इतनी सी बात? उस ने अंगूठी और पोशाक के बारे में पूछ लिया और कनक आहत हो गया? हर युवती का अपने विवाह के संबंध में कुछ सपना होता है. उस ने प्रश्न कर लिया तो क्या हो गया? भाभी, आजकल हमारा और तुम्हारा जमाना नहीं रहा, आजकल की युवतियां बहुत मुखर हो गई हैं. वे अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं करतीं उसे पूरा भी करना चाहती हैं.’’

 

डाक्टर बेटी : शमीम कुर्सी पर बैठे हुए क्या ख्वाब देख रही थी- भाग 1

सांझ हो गई थी. शमीम अपने मकान की बैठक में आरामकुरसी पर बैठी हुई थी. उस के सामने दीवार पर एक फोटो टंगा हुआ था. यह फोटो उस की बेटी नीलोफर का था, जिसे वह प्यार से ‘नीलो’ कहती थी. कई साल बाद उस की बेटी अपनी पढ़ाई पूरी कर के उस दिन घर लौट रही थी. शमीम के पति वसीम उसे लाने के लिए रेलवे स्टेशन गए हुए थे. नीलोफर कोटा में रह कर नीट की तैयार कर रही थी और उस के साथ ही 1-2 और परीक्षाओं की कोचिंग उस ने ले रखी थी.

वसीम ने कहा तो शमीम से भी था कि वह भी उस के साथ चले, पर वह घर पर रह कर अपनी बेटी की आवभगत की तैयारी करना चाहती थी. फिर उसे अपनी बेटी की मनपसंद ढेर सी चीजें भी तो बनानी थीं. शमीम ने सारा सामान तैयार कर लिया था और अपने पति व बेटी की राह देख रही थी. नीलो का फोटो देखतेदेखते अचानक कुछ कड़वी यादें उभर आईं. नीलो के जन्म के समय उस की जिंदगी में कितना भयंकर तूफान आतेआते रह गया था… उस दिन वह अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी. वार्ड के बाहर वसीम अपनी अम्मी अमीना बेगम के साथ बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे. वार्ड का दरवाजा खुलते ही वसीम ने लपक कर डाक्टर मालिनी से पूछा था,

‘‘डाक्टर… शमीम कैसी है?’’ ‘‘हालात तो काफी नाजुक थे, पर बहुत कोशिश के बाद तुम्हारी बीवी और बेटी की जान बच गई, लेकिन…?’’ ‘‘लेकिन, क्या डाक्टर…?’’ ‘‘अब शमीम कभी मां न बन सकेगी…’’ एक पल के लिए वसीम सन्नाटे में आ गया था, लेकिन तुरंत ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया और मुसकरा कर बोला, ‘‘सच… हमारे घर बेटी आई है…’’ फिर वसीम ने जैसे ही वार्ड में जाना चाहा, अमीना बेगम चीख पड़ीं, ‘‘ठहरो वसीम…’’ वसीम ने पलट कर अपनी अम्मी की ओर देखा, ‘‘अम्मी, क्या बात है?’’ ‘‘तुम शमीम से नहीं मिलोगे…’’ ‘‘लेकिन, क्यों अम्मी…?’’ वसीम ने अचरज भरी नजर से अपनी अम्मी की ओर देखा. ‘‘इसलिए कि शमीम तुम्हारे लिए मुसीबत बन कर आई है.

इस बार भी उस ने बेटी को जन्म दिया है. वह तो अच्छा हुआ कि इस से पहले पैदा हुई दोनों बेटियां मर गईं… और ऊपर से जुल्म यह कि अब वह कभी मां न बन सकेगी. जरा सोचो, बेटे के बिना तुम्हारे खानदान का नाम कैसे चलेगा?’’ ‘‘यह आप की गलतफहमी है अम्मी. इस जमाने में बेटी किसी भी तरह से बेटे से कम नहीं है. दोष हमारी सोच का है. हम बेटे को तरजीह देते हैं, बेटी को नहीं. एक दिन मेरी बेटी भी मेरा और मेरे खानदान का नाम रोशन करेगी. हमारी फुलवारी का यह इकलौता फूल अपनी खुशबू से पूरे समाज को महका देगा, अम्मी.’’ ‘‘वसीम… तुम मुझ से जबान लड़ा रहे हो,

मानसून स्पेशल : सोने की चिड़िया

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे – भाग 3

उन्होंने खुशी से इजाजत दे दी. अम्मी की तबीयत पहले ही खराब रहती थी, वह कहने लगीं, ‘तुम इतनी दूर चले जाओगे अगर पीछे मुझे कुछ हो गया, तो जनाजे में भी शिरकत न कर सकोगे.’

मैं ने उन्हें तसल्ली दी, ‘आप फिक्र न करें. वहां सब से पहले आप को बुलाऊंगा. एकडेढ़ महीने की बात है फिर आप भी मेरे पास होंगी.’

जिस रोज मुझे घर छोड़ना था. उन की तबियत कुछ ज्यादा बिगड़ गई. डाक्टर को बुलवाया. उस ने आराम का मशविरा दिया कहने लगा कि इन के खून बनने की रफ्तार कुछ सुस्त हो गई है. पूरा चैकअप करवाएं और फिक्रमंद न होने दें.

मैं दिमागी तौर पर 2 हिस्सों में बंट गया. शाहीना से वक्त तय हो चुका था, गाड़ी जाने में अभी कुछ घंटे बाकी थे. अम्मी की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें छोड़ कर चल देता. सोचा अब्बू से मशविरा ले लूं. उन से पूछा तो वह कहने लगे, मियां इंटरव्यू दे आओ. यहां मैं इन्हें संभालने के लिए हूं, तुम अपना रास्ता खोटा मत करो.

मैं ने बहुत ही बेदिली से अपना सामान समेटा. एकदो जोड़ी कपड़ों और शेव के सामान के अलावा साथ ले जाने के लिए और क्या था. डाक्टर ने अम्मी को नींद की गोली दे दी थी. वह गहरी नींद सो रही थीं. उन्हें इत्मीनान और सुकून की हालत में देख कर मेरे इरादे ने फिर मजबूती पकड़ी.

अब्बू से दुआसलाम कर के घर से निकला. रिक्शा पकड़ कर सीधा स्टेशन पहुंचा. पहले ही देर हो चुकी थी. टिकट बड़ी मुश्किल से मिले. शाहीना अभी तक नहीं आई थी. मैं सीढि़यों के पास ही खड़ा हो गया. मुझे मालूम था कि वह नीला बुरका पहन कर आएगी. हाथ में उसी रंग का पर्स होगा. नकाब नहीं उलटेगी. तय था कि जब तक वह खुद इशारा न करे, मैं उस के करीब न जाऊं.

गाड़ी जाने में 10 मिनट रह गए थे, जब वह आती दिखाई दी. नीले जौर्जेट के नकाब में उस की आंखें मुझे तलाश रही थीं. जैसे ही मैं उसे दिखाई दिया. वह तेजी से मेरी तरफ आई. यह बात हमारे प्रोग्राम में शामिल नहीं थी. इसलिए थोड़ा सा घबरा गया.

वह मेरे करीब आ कर बोली, ‘‘यह बैग अपने पास रखिएगा. बेहतर होगा कि आप इसे अपनी अटैची में रख लें. टिकट सैकंड क्लास का ही लिया है न.’’

हम लेडीज डिब्बे में जा कर बैठ रहे हैं. अगले स्टेशन पर आप हमें टिकट दे दें और इस के बाद आप हर स्टेशन पर मत उतरिएगा. सुबहसवेरे जो स्टेशन आए आप मुंह जरूर धो आइए. हम दूर से देख लेंगे और हां, बंबई स्टेशन पर आप हमें जरूर उतार लें वरना हम खो जाएंगे.

ये नसीहतें मेरे कान में उड़ेल कर उस ने अपना बैग मुझे थमाया और तेजतेज कदमों से लेडीज डिब्बे की तरफ लपकी. वक्त बहुत कम था. मैं चाहता था कि वह बैठ जाए तो मैं उस का डिब्बा देख लूं ताकि उस से संपर्क रखने में आसानी हो. फिर भाग कर किसी करीबी डिब्बे में सवार हो जाऊंगा. मेरे एक हाथ में अटैची थी. दूसरे में उस ने बैग थमा दिया था.

जब वह डिब्बे में सवार हो गई तो मैं भाग कर एक करीबी डिब्बे की तरफ लपका. मगर पीछे से मेरे छोटे भाई अमजद की आवाज आई, ‘‘भाईजान, भाईजान.’’

आवाज पास से ही आई थी. मैं ने गरदन घुमा कर देखा. अमजद का सांस फूला हुआ था. लगता था यह भागता हुआ आया है. कहने लगा, ‘‘भाईजान, अम्मी की हालत नाजुक है. अब्बू ने मुझे भेजा है कि आप को रोक लूं. आप का नाम ले ले कर बुला रही हैं. प्लीज भाईजान, जल्दी चलें. अब्बू उन्हें अस्पताल में एडमिट कर रहे हैं.’

गाड़ी ने सीटी दे दी थी. अमजद मेरा दामन घसीट रहा था और पता नहीं वो वेवकूफ  सी लड़की मुझे देख भी रही थी या बैठने के लिए जगह बना रही थी. उसे मुझ पर पूरा भरोसा होगा कि मैं उस के साथ चल रहा हूं. मगर मैं अपने ऊपर से विश्वास खो चुका था. कभी गाड़ी की तरफ भागता और कभी अमजद की तरफ. 12 साल का अमजद परेशान हो कर जोरजोर से रोने लगा था. वह समझ रहा था कि मैं उस के साथ जाने में आनाकानी कर रहा हूं.

सब्र का दामन मेरे हाथ से छूट गया. मैं ने अमजद को खींच कर सीने से लगा लिया. उसे तसल्ली दी कि अच्छे बच्चे रोते नहीं, मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं. मेरा एक दोस्त गाड़ी में है उसे बता दूं कि मैं उस के साथ नहीं चल रहा हूं.

इतने में गाड़ी चल दी. मैं गाड़ी की तरफ  दौड़ा. डिब्बा कौन सा था, यह कैसे याद रखता. यह नहीं, वो… हां यही, नहीं यह कोई और है. गाड़ी की रफ्तार ने जोर पकड़ लिया. मैं उसे कैसे रोकता वह पलभर में स्टेशन छोड़ कर सीटी मारती नजरों से ओझल हो गई. मैं प्लेटफार्म पर पागलों की तरह इधरउधर भागता रह गया.

अमजद मेरे साथ था. जब गाड़ी चली गई तो बोला, ‘‘बस करें भाई जान, आप का दोस्त गाड़ी में से आप को देख चुका होगा. समझ गया होगा कि आप उस के साथ नहीं जा रहे हैं. अब जल्दी चलें.’’

मैं उस के साथ चल दिया. वह बोला, ‘‘भाईजान, यह बैग किस का है. क्या आप ने खरीदा था?’’

मुझे करंट सा छू गया. उफ वह बेबस लड़की उस का बैग, टिकट सब कुछ मेरे पास रह गया. हो सकता है उस के छोटे पर्स में चंद सिक्कों के अलावा और कुछ न हो. वह कहां जाएगी, क्या करेगी?

उस वक्त मैं ने अमजद से झूठ बोला कि हां, यह बैग मैं ने कल ही खरीदा था. हम दोनों परेशानी की हालत में घर पहुंचे. अब्बू अम्मी को अस्पताल ले गए थे. घर में बहनभाई रो पीट रहे थे. ऐसी हालत में शाहीना का खयाल अपने आप दिमाग से फिसल गया. उन्हें संभालने और अस्पताल से संपर्क करने में पूरा दिन लग गया. अम्मी को लगातार देखभाल और तीमारदारी की आवश्यकता थी.

अब्बू के बाद मुझे उन के पास बैठना पड़ा. सारी रात चिंता में गुजर गई. अगली सुबह उन की हालत थोड़ी सी सुधरी. घर में किसी को खानेपीने का होश नहीं था. मेरी छोटी बहन सलमा से घर संभाला नहीं जा रहा था. वह बातबात पर रो पड़ती थी. अब्बू दूसरी बहनों को इत्तला देना नहीं चाहते थे. अजीब परेशानी ने आ घेरा था. इस सारे मामले में 6 दिन लग गए. अम्मी ने आंखें खोलीं और मुझे सामने देख कर रो पड़ीं. मैं भी रोने लगा.

वह अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं. घर पर उन्हें मिलनेजुलने वालों ने आ घेरा. 20-30 दिन गुजर गए. घर की हालत बिगड़ गई थी, बड़ी बहन फरीदा ने घर को ठीक करने की जिम्मेदारी संभाल ली. फरीदा आगरा में रहती थी. अब्बू ने दूर के लोगों को अम्मी की बीमारी की खबर नहीं पहुंचाई थी. बाद में जिस को भी खबर मिलती गई एकएक कर के आता गया.

फरीदा बाजी सब से आखिर में आईं और 2 महीना रह कर गईं. उन्होंने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी. जब अम्मी की तबीयत ठीक हुई तो उन्होंने झाड़ू संभाल कर घर का कोनाकोना चमका दिया. मेरे कमरे की भी बारी आ गई. अलमारी से मेरा बैग निकाला तो वह मेरे सामने ले कर आ गईं. बोलीं, ‘मंसूर यह किस का बैग है. बाहर से लौक भी है, तुम ने कब खरीदा है?’

मेरा चेहरा फक हो गया. मैं ने उन से बैग ले लिया. बोला, ‘बाजी, यह मेरे एक दोस्त की अमानत है. इसे वहीं रहने दें, जब वो आएगा उसे पहुंचा दूंगा.

अब आप को पता लग गया होगा कि जेवरात से मुझे क्यों एलर्जी है. इस बैग में यही जेवरात तो थे जो मैं ने अपनी बीवी को शादी की पहली रात उतारने के लिए कहा था. मैं ने शाहीना की खबर मालूम करने की कोशिश की थी. जब अम्मी अस्पताल में थीं, मैं वहीद साहब के घर गया था. उन के घर पर ताला पड़ा हुआ था. मोहल्ले के एक आदमी ने बताया कि वो लोग यहां से चले गए हैं. उन्होंने किसी को कुछ बताए बगैर घर छोड़ दिया था.

वो दिन और आज का दिन मुझे शाहीना या उस के घर वालों की कोई इत्तला नहीं मिली. वहीद साहब ने फर्म से 2 महीने की छुट्टी ले ली थी. बाद में उन का इस्तीफा आ गया. वह दुबई रवाना हो गए. अब्बू को डाक्टरों ने मशविरा दिया कि आप अपनी बीवी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाएं. शायद उन्हें कैंसर है.

अब्बू उन्हें ले कर मुंबई चले गए. वहां टाटा अस्पताल में उन के टैस्ट वगैरह हुए. लेकिन सब सही निकले. 2 महीने बाद अब्बू वापस आए. उन्हें मुंबई इतना पसंद आया कि उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर लिया. उन्होंने वहीं एक प्राइवेट फर्म में नौकरी ढूंढ ली और वहीं जा कर बस गए. हम सब भी उन के साथ मुंबई आ गए. इस उम्मीद से मेरे पास था कि शाहीना मिलेगी तो उसे लौटा दूंगा. ऐसे ही 6 साल बीत गए.

मुझे नौकरी मिल गई. तरक्की हो गई. पढ़ाई भी पूरी हो गई. तब शादी का जिक्र छिड़ा. उस वक्त तक अब्बू पर छोटे भाई और बहन की जिम्मेदारी थी. अम्मी की बीमारी पर अच्छाखासा कर्जा हो गया था. मुझे सब कुछ खुद की करना था. यहां मैं ने दूसरी कमीनगी की और वो बैग खोल लिया.

बैग में सोने के 3 कीमती सैट और 30 हजार की रकम रखी हुई थी. उन्हीं पैसों और जेवरात से मेरी शादी का इंतजाम हुआ.

मैं ने एक सैट बरी पर चढ़ाया. दूसरा शादी की दूसरी रात बीवी के हवाले कर दिया. तीसरा पहले बेटे की पैदाइश पर उसे तोहफे में दे दिया. बताइए मैं इन जेवर का और क्या करता? और अब जब उन्हें बीवी के गले और हाथों में देखता हूं तो जान निकलने लगती है.

उस से कई बार कहा कि बीवी इसे बदलवा कर कोई नया जेवर खरीद लो. मगर वह आंखों में नशा भर कर शादी के शुरुआती दिनों को याद करने लगती है और मैं सिकुड़ने लगता हूं. उसे कैसे बताऊं कि जब भी तुम्हें इन जेवरात में लिपटा देखता हूं, शाहीना की आवाजें सुनाई देती हैं, ‘हमें बंबई स्टेशन पर जरूर उतार लेना, वरना हम खो जाएंगे.’

मेरे बदन पर कंपकंपी छा जाती है. खुद खो जाता हूं और मेरी भोली बीवी यह समझती है कि मैं शादी के सुहाने दिनों की यादों में गुम हो गया हूं.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई- भाग 2

मैं ने आगे रास्ते पर बढ़ते हुए हाथ हिला दिया था. उस ने भी जवाब में हाथ हिला दिया था, ‘‘सुबह फिर मिलेंगे.’’ दूसरी सुबह मुलाकात होनी थी उस से. सो, मैं ने अपना सब से कीमती सूट पहना था. मेल खाती टाई लगाई थी. इतना ही नहीं, अपने कपड़ों पर एक बेहतरीन इत्र भी लगाया था. फिर गुनगुनाते हुए कमरे के दरवाजे पर ताला लगा कर बड़ी तेजी से सड़क पर आ गया था. मैं ने देखा था कि वह उसी सुंदर मकान के आगे खड़ी मुड़मुड़ कर मेरी राह देख रही थी. हम दोनों एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए और बड़े खुश हुए थे. न जाने क्या सोच कर वह चहकते हुए बोली थी,

‘‘क्या बात है? आज तो तुम महकते हुए खूब फब रहे हो. एकदम सिनेमा के ‘हीरो’ जैसे…’’ इतना कहतेकहते वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘लेकिन, सचमुच आप से कम…’’ मैं ने कहा था, ‘‘मुझे जो फिल्मी हीरोइन पसंद है, अगर इस समय आप के सामने आ जाए तो वह भी पानी भरे.’’ इसी तरह कुछ देर तक घुलमिल कर बातें होती रहीं. फिर उस ने अपना नाम ‘ऊषा’ बताते हुए पूछा, ‘‘क्या आप किसी फैक्टरी में इंजीनियर हैं?’’ उस के इस सवाल से मैं सकपका गया था. फिर खुद को संभालते हुए मुसकरा भर दिया था. ‘‘ठीक?है,’’ उस ने कहा था. वह सचमुच बेहद खुश हो गई थी,

‘‘मैं भी यही समझती थी कि आप किसी बड़ी और शानदार जगह पर हैं.’’ मैं ने पूछा, ‘‘और आप क्या हैं दवा वाली उस फैक्टरी में?’’ ‘‘मैं वहां क्या हूं?… बस यही समझ लीजिए कि किसी तरह सिर्फ समय गुजारती रहती हूं,’’ उस ने कनखियों से मुझे देखते हुए कहा था, ‘‘यों तो मुझे नौकरी करने की कोई खास जरूरत ही न थी. पिताजी ‘बैंक औफ इंडिया’ में मैनेजर हैं. भाई ‘किर्लोस्कर’ के एजेंट और भाभी स्कूल में पढ़ाती हैं. घर में अकेली मैं क्या करूं? मां हैं नहीं, न दूसरा कोई भाईबहन, सो दवाओं की ‘सल्फरी’ गंध के बीच टाइप का काम करती हूं.’’ जवाब देते समय आखिरी बात कहतेकहते वह झेंप भी गई, जो मुझे कुछ ज्यादा लुभा गया. अपनी झेंप पर काबू पाते हुए वह बोली, ‘‘बुरा न मानें तो क्या मैं आप का नाम जान सकती हूं?’’ ‘‘एक ही शर्त पर.’’ ‘‘कौन सी?’’ वह बोली. ‘‘इस बनावटी ‘आपवाप’ के चक्कर से बरी रखना मुझे,’’ मैं ने शरारती अंदाज में कहा था. ‘‘चलो, ऐसा ही सही,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘तो सुन लो और गुन लो जरा गौर से, मांबाप से ज्यादा मेरे चाचा ने रखा था इसे अरमान से…’’ ‘‘अरे बाबा, शायरी से बाहर आओ, मुझ को अपना नाम बताओ,’’

उस ने टोका था मुझे. ‘‘शायरी तो अब तुम भी करने लगी हो ऊषा. वैसे, मेरा नाम है प्रत्यूष. कहो कैसा लगा?’’ ‘‘अरे वाह, बहुत अच्छा. बड़ा प्यारा नाम है, ऊषा से भी कितना मिलताजुलता है. हां, कुछ मुश्किल भी तो है. लेकिन क्या मतलब होता?है इस का… क्या नाम बोला था, ऊष… यूष…’’ ‘‘अजी, ‘ऊष यूष’ नहीं, प्रत्यूष, प्रत्यूष. मतलब, सुबह की लाली से पहले का सूरज… समझीं?’’ ‘‘तब भी एकदम से मिलताजुलता नाम है. ‘प्रत्यूष’ मतलब सवेरे का सूरज और ‘ऊषा’ यानी सुबह, सब को जागने का संदेश देने वाली. है न ठीक?’’ ‘‘बिलकुल ठीक.’’ वह अपनी फैक्टरी की ओर जा चुकी थी और मैं पूरे दिन उस से हुई बातों की याद में डुबकियां लगाता रह गया था. उस के बाद हम दोनों ने अपने नंबर एकदूसरे को दिए. मैं ने नाम में ‘भूचल’ बस लिखा. सड़क का एक दोराहा सा बनता था

, जहां से हम अलगअलग रास्तों की ओर बंट जाते थे. कुछ शायद इस डर से भी कि हम पर फब्तियों और बोलियों की बौछार न हो. एक बात और थी कि मैं अपनेआप को उस से कुछ दिनों तक छुपाएबचाए रखना चाहता था. ये ‘कुछ दिन’ असल में ‘कुछ बरस’ भी हो सकते थे और शायद यह जिंदगी भी. पर देखो तो जिंदगी की मीआद सचमुच कितनी छोटी होती?है. सच तो यह है कि मैं तब दिनरात अच्छी ऊषा और ऊषा के लिए ही अच्छी जिंदगी के ख्वाब में खोया रहने लगा था. मैं अकसर सोचता था कि अगर हर महीने कुछ बचत करूं, तो थोड़ाथोड़ा करते काफीकुछ जमा हो जाएगा. फिर मैं एक मशीन लगवा लूंगा और एक अच्छीखासी फैक्टरी का मालिक बन जाऊंगा. तब ऊषा और मेरा जीवन सुख से बीतेगा. तब तक तो शायद बच्चे भी हो जाएं. उन्हें हम फूलों की तरह रखेंगे. दुनिया के बड़ेबड़े लोगों व धनीमानी लोगों की जिंदगी तक में भी शायद ऐसे ही हरेभरे सपने हुआ करते हैं.

जो आगे चल कर सचाई में बदल जाया करते हैं. आखिर वह कौन सी जादुई छड़ी हुआ करती है उन के पास? कहीं से वह मुझे भी मिल जाए, अगर तो… मैं खूब मजे लेले कर पूरी मेहनत के साथ अपना काम करने लगा था उन दिनों, ताकि बड़ा आदमी बनने का मेरा सपना भी जल्दी पूरा हो जाए. मैं खूब ओवरटाइम भी करने लगा था. इस वजह से मुझे थोड़ी ज्यादा आमदनी हो जाती थी. मेरे मांबाप गांव के थे, जिन की गुजरबसर खेती से हो जाती थी. 7 दिनों में सिर्फ एक दिन हमारी मुलाकात होती थी. हम, यानी मैं और ऊषा चौड़ा बाजार के ‘विवेक रैस्टोरैंट’ में कौफी पीया करते थे. उन दिनों अकसर ऊषा मुझ से पूछ लिया करती थी, ‘‘हर पल क्या सोचते रहते हैं आप?’’ मैं उस के सवाल सुन कर चौंक उठता और कहता, ‘‘मैं… मैं… यही कि मेरी भी कभी एक फैक्टरी होगी… क्यों, तुम्हारा क्या खयाल है?’’ ‘‘सोचती हूं वह दिन जल्दी आए और…’’ ‘‘और क्या?’’ वह शरमा कर कुछ देर चुप रहने के बाद ज्यादा से ज्यादा यही कहती, ‘‘बताऊंगी.’’ छुट्टी के बाद मैं अपने काले पड़ चुके हाथों को लकड़ी के बुरादे और साबुन से रगड़रगड़ कर धोया करता था. साथी कारीगर कृष्णमोहन, जिसे मेरा नाम ‘

प्रत्यूष’ तक ठीक से कहना नहीं आता था या जो शायद लोगों के नाम बिगाड़ने में ही ज्यादा दिलचस्पी लेता था, अकसर कह पड़ता मुझ से, ‘‘परती भाई, कितना ही रगड़ कर हाथ साफ करो, कल फिर यह रंग चढ़ ही जाएगा. फिर क्या फायदा चमड़ी छीलने से? अरे, यह तो रोजीरोटी का रंग है. काला हुआ तो क्या, है तो जीवनभर का रंग भाई.’’ इधर कुछ दिनों से मेरे पड़ोस में रहमान खान की बेटी सलमा मुझ से कुछ ज्यादा मिलने लगी थी. हो सकता?है, प्यार में कोई खुशबू होती होगी कि और तितलियां मंडराने लगती हैं. अभी उस दिन वह रात 8 बजे आई और मेरे दरवाजा खोलते ही अंदर घुस कर तुरंत दरवाजा बंद कर दिया.’’ ‘‘यह क्या कर रही हो सलमा? लोग क्या कहेंगे.’’ ‘‘जानू, लोग क्या कहेंगे यह छोड़ो. यह सुनो मेरा दिल क्या कह रहा है,’’ कह कर उस ने जबरन मेरा सिर अपनी छातियों में छिपा लिया. मैं ने मुश्किल से पकड़ ढीली की. वह बेहद मजबूत थी. रंग थोड़ा सांवला था,

पर एक सैक्सी लुक लिए. ‘‘जानू, तुम्हारे लिए रातदिन तड़प रही हूं,’’ मैं ने उसे चुप करते हुए कहा, ‘‘सलमा, जमाना खराब है. मुसलिम लड़की एक हिंदू के घर दिखी तो बेकार में हंगामा हो जाएगा.’’ वह बोली, ‘‘अरे, जमाने से डरते हो तो क्या करोगे, मैं तो नहीं डरती.’’ ‘‘वह घंटों मेरे पास बैठ कर बकबक करती रही. ऊषा उस के मुकाबले में सुंदर तो थी, पर न हाथ लगाती, न हाथ लगाने देती. लेकिन सलमा बिंदास थी. ऊषा दूरदूर रहने वाली. काले बुरके में तो उस का रंग और निखर उठता, पर मैं तो ऊषा का दीवाना था. रोज दूसरे मजदूर कैसे भी हाथमुंह धोधा कर निकल जाते, किंतु मैं बहुत आराम से शानदार सफारी सूट आदि झाड़, कंघीशंघी कर के अफसर बन कर निकलता. तब तक तो तमाम लोग निकल चुके होते थे. ऊषा अपनी फैक्टरी से आगे निकल कर दोराहे के पास वहीं खड़ी मिलती. मिलते ही मेरी ओर लपकने के साथ शिकायत भरे लहजे में कहती, ‘‘क्यों बड़ी देर लगा देते हो तुम?’’ मैं उस के कंधों को थपथपा कर यों ही झूठमूठ कह देता, ‘‘तुम तो जानती ही हो ऊषा, कितनी जिम्मेदारी का काम है. छुट्टी के बाद सारा काम समेट कर आना पड़ता है.’’ लगभग ढाई साल बीत चुके हैं उस अनचाही शाम को. पर लगता है, जैसे कल ही की बात है. गरमियों की उस शाम ऊषा ने अचानक मुझ से कहा था, ‘‘कितनी सुंदर शाम है और बड़ी प्यारी भी. चलो ऊष, आज किसी पार्क में चल कर बैठते हैं.’’ वह प्यार में मुझे ‘प्रत्यूष’ की जगह ‘ऊष’ बोला करती थी. मैं ने तभी एक आटोरिकशा रोका था,

‘‘चलो भाई, रोज गार्डन.’’ हम पार्क में काफी देर तक बैठे थे. उस शाम आंधीवांधी नहीं चल रही थी. पार्क में हर ओर बच्चे और उन की किलकारियां, हंसी और चीखें गूंज रही थीं. हम एक तरफ हरी घास पर बैठ गए थे. बहुत देर तक एकदूसरे को खोएखोए से देखते रहे. मैं ने ही तब मौन तोड़ा था, ‘‘आज कोई खास बात है क्या? आज मुझे इस तरह अजीब नजरों से देखा जा रहा है. खैरियत तो है?’’ ‘‘खैरियत जरूर मनाओ, खास बात तो है ही…’’ उस ने कहा था, ‘‘तुम्हें देख कर पिताजी बहुत खुश होंगे. वह भी क्या याद करेंगे कि ऊषा की पसंद का भी कोई कमाल देखा था उन्होंने. कितनी अच्छी पसंद है उन की बेटी की.’’ ‘‘तुम ने कह दिया है अपने पिताजी से मेरे बारे में?’’ ‘‘और नहीं तो क्या? वही तो कहने वाली थी तुम से कि कल शाम पिताजी ने बुलाया है तुम्हें. सो, तुम्हें चलना होगा.’’ 21वीं सदी का एक सुंदर तोहफा मेरे सामने था. मैं ने खुशी से उसे अपनी बांहों में भर लिया था. मैं ने पूछा था, ‘‘क्या सचमुच?’’ वह मेरी बांहों में से निकल छूटने की कोशिशों में कसमसाती हुई सी बोली थी,

‘‘हां, सच मेरे प्राण.’’ अगले दिन छुट्टी हो जाने के बाद मैं ग्रीस और कालिख लगा अपना चेहरा खूब रगड़रगड़ कर धो रहा था. मेरे बदन पर तेल और ग्रीस के दागधब्बों से नहाई चीकट सी पैंटशर्ट भी पड़ी थी. मेरे साथ के मिस्त्री और कारीगर जाने कब के चले भी गए थे. हफ्तों के तेल सने और कालिख पुते कपड़ों के बीच अपने हाथों और चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो, मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया.

साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद, उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई- भाग 3

मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम… जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की

‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो. मेरी दोनों कनपटियां बज रही थीं. चारों ओर जैसे एक ही आवाज गूंज रही थी, ‘चले जाओ धोखेबाज… आग लगा दो अपनी टाइयों को. मैं तुम से नफरत करती हूं… नफरत.’ फिर उस के बाद ऊषा मुझे नहीं मिली. शायद, उस ने वह काम छोड़ दिया था या शहर ही. कभीकभार मेरी नजरें उसे अब भी खोजती हैं ऐसे दिलकश मौसम में, यही मेरी उदासी का राज है. हां, उस के बाद मैं ने सलमा से शादी कर ली. शुरूशुरू में कुछ हल्ला हुआ, पर बाद में सब चुप हो गए, क्योंकि हम दोनों के घरों का रहनसहन एक सा था.

मेरे दिल में कसक तो रही कि ऊषा नहीं मिली, पर सलमा की वजह से आज मेरा छोटा सा अपना कारखाना है, जिस में 20-25 लोग काम करते हैं. मेरे कारखाने के सारे मजदूर जब बाहर निकलते हैं, तो वे पूरे बाबू लगते हैं. सलमा के साथ शादी करने पर समझ आया कि जो खाई है वह हिंदूमुसलिम की कम, पैसे की और जाति की ज्यादा है. सलमा समझ नहीं पाती कि आखिर उस पेड़ से मेरा क्या संबंध है. उसे समझा कर करूंगा भी क्या.

मानसून स्पेशल : सोने की चिड़िया- भाग-2

‘‘समय हमेशा एक सा तो नहीं रहता न भाभी. पीयूष भैया का सदमा पापा सह नहीं सके. पक्षाघात का शिकार हो गए. जो कुछ भविष्य निधि मिली उन के इलाज और अमला दीदी के विवाह में खर्च हो गई. पेंशन से फ्लैट की कि स्त दें या घर का खर्च चलाएं. उस पर रोहित भैया की डाक्टरी की पढ़ाई. रोहित भैया पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने जा रहे थे. मैं ने ही कहा कि मैं तो प्राइवेट पढ़ाई भी कर सकती हूं. रोहित भैया ने पढ़ाई पूरी कर ली तो पूरे परिवार का सहारा बन जाएंगे. इसीलिए नौकरी कर ली. 7 हजार भी बड़ी रकम लगती है आजकल,’’ पूरी कहानी बताते हुए रो पड़ी थी मानसी.

‘‘इतना सब हो गया और तुम लोगों ने मुझे सूचित तक नहीं किया. एकदम से पराया कर दिया अपनी भाभी को?’’ सुहासिनी के नेत्र डबडबा आए थे.

‘‘पराया तो आप ने कर दिया, भाभी. भैया क्या गए आप भी हमें भूल गईं और जैसे ही आप घर छोड़ कर गईं मां तो बिलकुल बुझ सी गई हैं. सदा एक ही बात कहती हैं, ‘मैं ने सुहासिनी को अपनी बहू नहीं बेटी समझा था पर उस ने तो पीयूष के बाद पलट कर भी नहीं देखा.’ टीना को देखने को तड़पती रहती हैं. उस के जन्मदिन पर बधाई देना चाहती थीं पर पापा ने मना कर दिया. कहने लगे, आप सोचेंगी कि पैसे के चक्कर में बच्ची को बहका रहे हैं ससुराल वाले,’’ मानसी किसी प्रकार अपने आंसू रोकने का प्रयत्न करने लगी थी.

सुहासिनी ने खाने के लिए जो हलकाफुलका, मंगाया था वैसे ही पड़ा रहा. चाय भी ठंडी हो गई पर दोनों में से किसी ने छुआ तक नहीं.

‘‘मुझे घर छोड़ दो, भाभी. मां सदा यही सोचती रहती हैं कि कहीं कुछ अशुभ न घट गया हो,’’ मानसी उठ खड़ी हुई थी.

सुहासिनी मानसी को बाहर से ही छोड़ कर चली आई थी. घर के अंदर जा कर किसी का सामना करने का साहस उस में नहीं था. वैसे भी कहीं एकांत में बैठ कर फूटफूट कर रोने का मन हो रहा था उस का. अनजाने में ही कैसा अन्याय हो गया था उस से.

पीयूष की पत्नी होने के नाते ही उसे मुआवजा मिला था. उसी के स्थान पर नौकरी मिली थी और वह सारे बंधन तोड़ कर मुंह फेर कर चली आई थी.

‘‘लो, आ गईं महारानी,’’ सुहासिनी को देखते ही मां ने ताना कसा था.

‘‘क्यों, क्या हुआ? आप इतने क्रोध में क्यों हैं,’’ सुहासिनी ने पूछ ही लिया था.

 

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे – भाग 2

अपनी बातों के दरम्यान वह आमतौर पर हम का ही इस्तेमाल करती थी. अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार थी. कभी मूड में होती थी तो मजे की बातें करती थी, वरना आमतौर पर मेरे सामने आ कर बैठ जाती थी और बड़ीबड़ी आंखों से एकटक देखा करती थी. मेरे अलावा उस घर में कभीकभार एक लड़का दिखाई दिया करता था. उस का नाम नासिर था.

मुझे यह नहीं मालूम था कि उस का घर से क्या रिश्ता है मगर वह बड़ी बेतकल्लुफी से शाहीना से बात किया करता था. शाहीना ने बस सिर्फ इतना बताया था कि वो उन का रिश्तेदार है. कई बार मन होता कि उस से सवाल करूं कि रिश्ता क्या है? मगर यह सोच कर छोड़ दिया कि मुझे पेड़ गिनने से क्या मतलब?

शाहीना मुझ पर मरती थी. जेब कभी खाली नहीं रहती थी. तनख्वाह 2 सौ रुपए थी. 100 रुपए अब्बू ऐंठ लिया करते थे, 50 अम्माजी की भेंट चढ़ जाते थे. मेरे हिस्से में केवल 50 रुपए रह जाते थे. खुद सोच लें कि एक आवारागर्द लड़के को कितने दिन मजे से रख सकते थे.

महीने के शुरू के दिनों में ही जेब खाली हो जाती थी. शाहीन को मैं ने अपनी आर्थिक स्थिति शुरू में ही बता दी थी कि मैं फोरेस्ट डिपार्टमैंट में काम करने वाले एक मामूली से नौकर की छठी औलाद हूं.

बाप अपनी 3 बहनों और 2 बेटियों की शादी करने के बाद बिलकुल कंगाल हो चुका है. इसलिए मेरी तालीम के खर्चे बड़ी मुश्किल से पूरे हो पाते हैं. अम्मी अकसर बीमार रहती हैं. उन का अच्छी तरह इलाज नहीं हो सका है. रिजल्ट के बाद प्राइवेट तौर पर इम्तिहान की तैयारी करूंगा. अच्छी नौकरी मेरी जिंदगी का मकसद है.

मौजूदा नौकरी टैंपरेरी है किसी भी समय जवाब मिल सकता है. जब तक तुम्हारे अब्बू मेहरबान हैं, हमारा गुजारा हो रहा है. जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि उन की बेटी से इश्क फरमाने लगा हूं, वो मुझे नौकरी से निकाल बाहर करेंगे. इस से पहले कि यह स्थिति आ जाए मैं खुद यह नौकरी छोड़ना चाहता हूं.

शाहीना मेरी दर्द भरी कहानी सुन कर मेरी मोहब्बत पर और जोर से ईमान ले आई. वो चुपकेचुपके मेरी जेब में सौपचास के नोट डाल दिया करती  थी. कभी सूट का कपड़ा खरीद लाती तो कभी पतलून, टाई तोहफे में दे देती.

3 महीने बाद मेरा रिजल्ट आ गया. मैं थर्ड डिविजन में पास हो गया था. औफिस में मिठाई बांटी. वहीद साहब ने बुलवा लिया. मुबारकबाद दी. कहने लगे, ‘‘मियां, माशा अल्लाह होनहार हो. इम्तिहान में निकल गए यहां मीटिंग होने वाली है, देखते हैं तुम्हारा मुकद्दर यहां भी चमकता है या नहीं. अगर तुक्का चल गया तो तनख्वाह भी बढ़ जाएगी और नौकरी भी पक्की हो जाएगी.’’

मुझ से मीठी बातें करने के बाद उन्होंने तोते की तरह आंखें फेर लीं. हुआ यह कि उन के रिश्तेदार ने भी इंटर पास किया था. वह सिफारिश के लिए उन के पास आ गया. वहीद साहब ने चुपकेचुपके उसे अपने पास रखने का फैसला कर लिया. मुझे पता ही नहीं चलने दिया. मेरी वह रिपोर्ट जो कुछ दिनों बाद मीटिंग में पेश करनी थी, रातोंरात बदल दी.

मुझे इस काम के लिए अयोग्य और गैरजिम्मेदार करार दे कर फौरी तौर पर नौकरी से अलग करने की सिफारिश के साथ दूसरी रिपोर्ट मीटिंग में पेश कर दी. औफिस में दूसरे लोग पहले से ही मुझ से जलते थे कि हर समय साहब के घर के चक्कर काटता रहता है. औफिस का काम करता ही कहां था.

वहीद साहब ने मुझे अपना पीए बना डाला और इस का बदला भी कुछ नहीं मिला. आखिरी समय तक उन्होंने मुझे धोखे में रखा. यही कहते रहे कि फिक्र न करो मियां तुम्हारी नौकरी पक्की करवा देंगे.

मीटिंग हुई. मुझे पूरी उम्मीद थी कि नौकरी भी पक्की होगी और पैसे भी बढ़ेंगे. अपने तौर पर सारी काररवाई बड़े ही खुफिया तरीके से हो रही थी. जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, मैं वहीद साहब से मिलने के लिए बेचैन हो गया. वो नहीं मिले, सीधे घर चले गए. मैं घर पहुंचा. पता चला कि किसी काम से बाहर गए हुए हैं.

औफिस आया तो नक्शा ही बदला हुआ था. हर जुबान पर मेरी नौकरी खत्म होने का जिक्र था. जूनियर एकाउंटेट ने बुला कर मुझे सारी सच्चाई बता दी कि वहीद साहब ने तुम्हारे साथ ज्यादती की है.

मेरे तनबदन में आग लग गई. उन्होंने ए टू जैड तक मीटिंग की सारी काररवाई सुना दी. कहने लगे, ‘वह बड़े काइयां हैं. देखना, वो तुम से मिलना भी गवारा नहीं करेंगे. उन्होंने मीटिंग के बाद उस लड़के का अपौइंटमेंट लैटर भी टाइप करवा लिया है, जिसे वह तुम्हारी जगह रखना चाहते हैं. यह लड़का नासिर उन का रिश्तेदार है.’

मेरे कानों की लौएं गरम हो गईं. नासिर को मैं ने उन के घर भी देखा था. इस का मतलब यह हुआ कि दोनों बापबेटी मुझे उल्लू बना रहे थे. वहीद साहब ने उसे नौकरी दिलवाई है. बेटी उसे बहुत लिफ्ट देती है. अब मेरी जगह नासिर वहां जाया करेगा.

अगर इस समय शाहीना इस खेल में शरीक न थी तो क्या हुआ. चंद दिनों बाद वो भी जैनब की तरह पटरी बदल कर नए रास्ते पर चल निकलेगी. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. मुझे वहीद साहब को ऐसा मजा चखाना होगा कि वह भी याद रखें.

अगले दिन सूरज डूबने के वक्त वहीद साहब के घर पहुंचा, मुझे मालूम था कि इस वक्त बच्चों सहित वह सैर के लिए किसी छोटे पार्क में जाते हैं और घर पर शाहीना अकेली होती है.

मेरा पैगाम पहुंचते ही वह बेकरारी से बाहर निकल आई. कहने लगी, ‘कमाल के आदमी हैं आप, सुना है कल आए थे. बाहर से ही अब्बू को पूछा और चल दिए, हम इंतजार करते ही रह गए. हमें आप से बहुत जरूरी बात करनी थी.’

वह मुझे अंदर ले आई. घर में उस के सिवा और कोई न था. कहने लगी, ‘वो लोग अभी सैर के बाद लौट आएंगे. हम फिर शायद इतनी आजादी के साथ आप से न मिल सकें. अब्बू हमारी शादी नासिर से करना चाहते हैं. वह अब्बू का भांजा है. हमें इस रिश्ते पर कोई ऐतराज न होता अगर आप से पहले वादा न किया होता. हम वादा निभाने वालों में से हैं. बताइए, आप हम से शादी करेंगे या यों ही दिल्लगी कर रहे थे.’

लड़की की इस साफगोई से पसीने छूट गए. मगर यह हिम्मत दिखाने का मौका था. मैं ने कहा, ‘मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का साथी बनाना चाहता था, मगर तुम्हारे अब्बू साहब ने सब कुछ चौपट कर दिया. उन्होंने मुझे नौकरी से निकलवा दिया है और नासिर को मेरी जगह रख लिया है.’

वह बोली, ‘यह तो और भी अच्छा हुआ. अब्बू साहब हमारी यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं करेंगे. वह नासिर से भी कहते रहते हैं कि यह लड़की तुम्हारा सुकून बरबाद कर देगी. हम सचमुच उन का सुकून बरबाद कर के छोड़ेंगे, आप हमारे साथ चलने को तैयार हो जाइए.

‘हम दोनों यह शहर छोड़ कर मुंबई चले जाएंगे. आप वहां नौकरी तलाश कर के हमारे लिए छोटा सा घर बना दें, हम सारी उम्र आप के कदमों में बसर करेंगे. इस घर से अब हमें नफरत होने लगी है.’

ओह, तो साहबजादी मेरे साथ भागने के मंसूबे बना रही थीं. यानी कुदरत ने बदला लेने का मौका खुद ही हमारी झोली में डाल दिया था. वहीद साहब ने अपने भांजे को खुशियां देने के लिए मेरी नौकरी और अपनी बेटी के जज्बात की भेंट चढ़ाई थी. उन्हें सबक देना जरुरी हो गया था.

मैं ने फौरन शाहीना के मंसूबे पर हामी भर दी. वह कहने लगी, ‘आप खर्चे की फिक्र न करें. सारा इंतजाम हम करेंगे. आप पर आंच नहीं आने देंगे. जब तक आप की नौकरी नहीं लगेगी, घर का खर्च हम उठाएंगे.

इस हसीन पेशकश पर दिल झूम उठा. सोचा सब मुफ्त में हाथ आए तो बुरा क्या है. मेरे घर वाले खुद मेरी आवारागर्दी से तंग आए हुए हैं. उन से कह दूंगा कि मुंबई जा कर नौकरी ढूंढूंगा. अब्बू के बारे में मुझे पता था कि बहुत खुश होंगे.

वह बारबार कहते थे कि मंसूर मियां कोई दूसरी नौकरी ढूंढो. यह सौपचास वाली नौकरी दिल को कुछ जंचती नहीं. उन की यह हसरत भी पूरी हो जाएगी कि मैं दूसरे शहर जा कर भी नौकरी तलाशने की कोशिश करुंगा. अभी मैं ने उन्हें नौकरी छूटने के बारे में कुछ नहीं बताया था.

घर लौटा तो पूरी योजना मेरे दिमाग में तैयार हो चुकी थी. वहीद साहब से बदला ले कर अपने भविष्य तक के लिए ढेरों सपने देख डाले थे मैं ने. शाहीना एक अच्छी बीवी साबित हो सकती थी. इस से पहले जिन आधा दरजन लड़कियों से मेरा चक्कर चला था, जो खुद भी मेरे जैसी ही थीं. इसलिए मुझे शाहीना की मोहब्बत पर भी शक होने लगा था कि वह भी यूं ही वक्त गुजारी के तौर पर यह शगल अपनाए हुए है.

मगर जब उस ने मेरे साथ जिंदगी गुजारने का पूरा प्रोग्राम संजीदगी से सुना दिया, तब मुझे वो अच्छी लगी कि शादी कहीं न कहीं तो करनी ही होगी. यह लड़की इतनी कुरबानियां दे रही है, सारी उम्र वफादार रहेगी. वहीद साहब तिलमिला कर रह जाएंगे और उन का वो भांजा हाथ मलता रह जाएगा. उन्हें कभी दुश्मन का नाम तक मालूम हो नहीं सकेगा.

प्रोग्राम यह तय हुआ था कि वो अपनी खाला के घर जाने के बहाने घर से निकलेगी. और खुद स्टेशन पहुंच जाएगी. वहां मैं उस का इंतजार करूंगा और पहले से ही 2 टिकट खरीद लूंगा, वह ऐन वक्त पर आएगी. दोनों अलगअलग डिब्बों में सफर करेंगे.

अपनाअपना टिकट पास रखेंगे. ताकि किसी को शुबहा न हो. अगर खुदा न खास्ता पुलिस ने हम में से किसी एक को पकड़ लिया तो वह हरगिज दूसरे का नाम न लेगा और ऐसी सूरत में उस से पूरी तरह से अजनबी बन जाएगा. वैसे इस बात की संभावना बहुत कम थी, फिर भी इस तेज दिमाग की लड़की को मुझे बचाए रखने का पूरा ध्यान था.

तय प्रोग्राम के मुताबिक मैं ने अब्बू को बता दिया कि मैं एक इंटरव्यू के लिए मुंबई जा रहा हूं. अगर नौकरी मिल गई तो अपना सामान लेने वापस आ जाऊंगा. न मिल सकी तो कुछ दिन ठहर कर एकदो जगह और कोशिश करूंगा.

मानसून स्पेशल: एकांत कमजोर पल

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