एक तीर से कई निशाने : भाग 2

चूंकि मंदिर का दानपात्र मंदिर के बड़े दरवाजे पर रखा था, इसलिए ठाकुर साहब को पंडितजी की नीयत पर भी शक था. हालांकि दानपात्र की चाभी उन के ही पास थी, पर फिर भी वे अकसर सोचते कि कितना अच्छा होता अगर यह मंदिर उन की हवेली के ठीक पास ही बना होता, तब ये पंडितजी चाह कर भी घपला नहीं कर पाते. ठाकुर साहब की एक 24 साल की बेटी थी, जिस का नाम मिताली था. वह दिखने में बहुत खूबसूरत थी. ठाकुरठकुराइन भी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मिताली की शादी की उम्र हो चली है और ठाकुर विक्रम सिंह मिताली के लिए जोरशोर से एक अच्छा वर भी ढूंढ़ रहे थे.

पर मिताली अभी शादी करने से इनकार कर रही थी, क्योंकि उस ने शहर के कालेज में राजनीति शास्त्र में एमए किया था और अब वह आगे पीएचडी करना चाहती थी, लेकिन ठाकुर साहब ने जिद कर के उसे वापस गांव में बुला लिया था, ताकि अब वे उस की शादी कर सकें. पिछले 3 महीने से मिताली अपने पिता की इसी हवेली में थी, पर उस का मन यहां नहीं लगता था. वह शहर जा कर अपने यारदोस्तों के साथ घूमनाफिरना चाहती थी. आज मिताली अपने पिता से पूछ कर गांव में घूमने निकल पड़ी थी. वह जी भर कर गांव का मजा ले रही थी. उस ने पहले पेड़ों से कच्चे आम तोड़े, फिर खेत से खीरे तोड़ कर गांव के नजदीक से निकलती हुई नदी किनारे बैठ कर खाने लगी. नदी का ठंडा पानी मिताली के गोरे पैरों को भिगोने लगा. वह अपने पैरों को पानी में मारती, तो पानी में ‘छपाक’ की आवाज आती.

यह सब करना मिताली को बहुत अच्छा लग रहा था और यह खेल करतेकरते नदी किनारे की गीली मिट्टी कब नहर के बहाव के साथ दरक गई, यह उसे पता ही नहीं चला और वह नदी के पानी के साथ ही बहने लगी. मिताली पानी में डूबनेउतराने लगी और उसे लगा कि आज उस की जिंदगी खत्म ही हो जाएगी. तभी किसी ने आ कर उसे थाम लिया. वह एक नौजवान था, जो मिताली को अपने कंधे का सहारा दे कर तेजी से किनारे की तरफ ले जाने लगा. किनारे जा कर उस नौजवान ने मिताली को जमीन पर लिटा दिया. मिताली धन्यवाद देने लगी, तो वह सांवला नौजवान मुसकरा उठा और बोला, ‘‘मैं ने आप को डूबने से तो बचा लिया, पर आप को अब गंगाजल से नहाना होगा, क्योंकि अब आप मैली हो गई हैं मितालीजी.’’

उस नौजवान के मुंह से अपना नाम सुन कर मिताली चौंक गई, ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो? और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली ने एकसाथ 2 सवाल दाग दिए थे. मिताली के इन सवालों के बदले में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह ठाकुर विक्रम सिंह की बेटी है और बड़े लोगों के परिवार के लोगों को इस छोटे से गांव में जानना कोई बड़ी बात नहीं होती. ‘‘और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली को अपनी जान बचाने वाले से बातें करना अच्छा लगने लगा था. मिताली के इस सवाल के जवाब में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह एक दलित है और बड़ी जाति के किसी इनसान को छूना उस के लिए वर्जित है. आज उस ने एक ठाकुर की लड़की को छू कर उसे मैला कर दिया है. ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ मिताली ने यों पूछा जैसे उसे उस नौजवान की जाति से कोई लेनादेना ही नहीं था.

उस नौजवान ने अपना नाम दिनेश बताया, तो मिताली ने उसे नाम से पुकारते हुए कहा, ‘‘दिनेश, किसी की जान बचाना तो नेक काम है… और कोई जाति नीच नहीं होती, बल्कि लोगों की नासमझी के चलते नीच समझी जाती है.’’ मिताली ने यह बात कुछ इस अंदाज में कही थी कि दिनेश भी मिताली के चेहरे को पढ़े बिना नहीं रह सका और जब दिनेश ने अपनी नजरें मिताली के चेहरे पर गड़ाईं, उसी समय हवा का एक झोंका आया और मिताली के गीले बालों की एक आवारा लट को उस के गालों पर उड़ाने लगा. दिनेश ने महसूस किया कि इस आवारा लट ने मिताली की खूबसूरती को और बढ़ा दिया था. कुछ देर और बैठने के बाद जब मिताली का भीगा शरीर सूख गया, तब वह अपने घर वापस जाने लगी.

उसे जाता देख कर दिनेश ने मिताली से हिम्मत कर के कहा, ‘‘अगली बार नदी के किनारे बैठिएगा तो जरा संभल कर… गहराई मत नापने लगिएगा,’’ उस की यह बात सुन कर मिताली बिना मुसकराए नहीं रह सकी. हवेली पहुंच कर मिताली को एहसास हुआ कि उसे वापस आने में देर हो गई है. उस की मां उसे कुछ टोकने ही वाली थी कि वह तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. अगले 3 दिन तक गांव में तेज बारिश हुई, इसलिए मिताली बाहर निकल नहीं सकी, पर उसे अब हवेली में रहना सुहा नहीं रहा था. बारिश रुकी तो मिताली हवेली की छत पर मौसम का हाल देखने पहुंच गई. आसमान से अब भी हलकी फुहार पड़ रही थी. वह छत के कोने में जा कर खड़ी हो गई. तभी उस की नजर हवेली के दालान में गई, जहां उस के पिता किसी नौजवान से बात कर रहे थे. मिताली ने ध्यान से देखा तो वह दिनेश था, जो ठाकुर साहब को एक चार्ट पेपर पर कुछ समझाता सा नजर आ रहा था.

इस बीच दिनेश की नजर भी छत पर खड़ी मिताली से टकराई, तो दोनों एकदूसरे को देख कर बिना मुसकराए न रह सके. जब दिनेश चला गया तो मिताली ने अपने पिता से बातोंबातों में उन की एक अजनबी से हुई बातचीत के बारे में पूछा, तो ठाकुर विक्रम सिंह ने उसे बताया कि दिनेश नाम का यह नौजवान गांव में एक बायोगैस प्लांट लगाना चाहता है. वह सारे मवेशियों का गोबर एक बड़े से लोहे के टैंक में डलवा कर उस से गैस बनाएगा, जो पाइपलाइन द्वारा गांव के घरघर में जाएगी और लोग उस से चूल्हा जला सकेंगे. ‘‘पर पिताजी, सरकार ने तो पहले से ही सुजला नामक योजना के तहत फ्री में गैस सिलैंडर बांटे हैं,’’ मिताली ने कहा. ‘‘अरे, बांट तो देती है सरकार, पर आएदिन रसोई गैस के दाम भी तो बढ़ा रही है.

किसी के लिए भी गैस सिलैंडर लेना भारी है. हमारे गांव में 20 गैस कनैक्शन होंगे, पर गांव के तकरीबन हर आदमी के यहां मिट्टी का चूल्हा ही जल रहा है…’’ ठाकुर साहब ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘और फिर ये जो दिनेशवा है न… यह भी छोटी जात का है. भले ही ये लोग कितना भी पढ़लिख जाएं, पर काम तो गोबर की साफसफाई का ही करेंगे न,’’ ठाकुर साहब के चेहरे पर हिकारत के भाव उभर आए थे.

एक तीर से कई निशाने : भाग 1

अरे, चुप कर. तुझे पता नहीं है कि हम नीच जात हैं, मंदिर के अंदर नहीं जा सकते… अंदर सब छूत हो जाएगा.’’ ‘‘अरे, अंदर जाने से छूत हो जाएगा और हम उठा कर बैलगाड़ी में रखेंगे तो क्या दानपात्र शुद्ध रहेगा?’’

नौजवान मजदूर थोड़ा उग्र हो रहा था. हालांकि, उस का सवाल तो जायज था, पर गांव के अंदर यह सवाल बदतमीजी कहलाता है. ‘‘क्या फुसफुसा रहा है यह?’’ पंडितजी के गोरे चेहरे पर गुस्सा छलक आया. ‘‘कुछ नहीं पंडितजी, नया लड़का है… शहर में मजदूरी करता था… गांव के कायदेकानून भी नहीं जानता है,’’ इतना कहने के बाद बड़ी उम्र वाले मजदूर ने उस नौजवान मजदूर को कुहनी मारी और दोनों रस्सी पकड़ कर दानपात्र को मंदिर से बाहर लाने की कोशिश करने लगे. कुछ देर की मशक्कत के बाद दानपात्र मंदिर की दहलीज के बाहर आ गया. फिर उन्होंने दानपात्र पर एक कपड़ा डाल कर उसे उठा कर ट्रौली में लाद दिया और पंडितजी भी अपनी मोटरसाइकिल पर किक मार कर उस ट्रौली के आगेआगे चल दिए. पंडितजी और बैलगाड़ी दोनों की मंजिल ठाकुर साहब की हवेली थी. कुछ देर बाद दानपात्र और पंडितजी दोनों ठाकुर विक्रम सिंह की हवेली के विशाल आंगन में पहुंच गए थे.

ठाकुर साहब ने अपनी जेब से बड़ी सी चाभी निकाल कर दानपात्र को खोल दिया और उन की लालच से भरी नजरें दानपात्र के अंदर रखे हुए हरेलाल नोटों पर गड़ गई थीं. ठाकुर साहब मुसकराते हुए एक कोने में पड़ी हुई आरामकुरसी में धंस गए और वहीं पर रखा हुआ हुक्का गुड़गुड़ाने लगे. दानपात्र में आए हुए ढेर सारे नोटों को गिनने का काम आसान नहीं था, पर पंडितजी बड़ी लगन के साथ यह काम एक सहायक के साथ मिल कर करने लगे और कुछ घंटों की मशक्कत के बाद नोट गिनने का काम पूरा हो गया. ‘‘पूरे 70,000 रुपए का दान आया है इस बार ठाकुर साहब,’’ पंडितजी ने एक गर्वीली मुसकान के साथ कहा. ‘‘क्या…

एक लाख भी पूरा नहीं हो पाया? इस बार तो बहुत कम दान आया है… लगता है कि आप अपना काम सही से नहीं कर रहे हैं पंडितजी,’’ ठाकुर विक्रम सिंह की आवाज में कठोरता थी. ‘‘नहीं ठाकुर साहब… ऐसा तो नहीं है. हम तो बराबर गांव वालों को दान और चढ़ावा देने के लिए कहते रहते हैं,’’ पंडितजी की यह बात ठाकुर साहब को रास नहीं आई और उन्होंने पंडितजी को लताड़ते हुए कहा कि वे गांव वालों को ईश्वरीय प्रकोप से डरा कर रखें… और मुमकिन हो तो हाथ की सफाई और मूर्तियों को दूध पिलाने वाले चमत्कार भी लोगों के सामने दिखाएं, जिस से गांव वाले दानपात्र में जी खोल कर दान दें. ठाकुर साहब ने बातोंबातों में पंडितजी को यह भी चेता दिया कि खुद उन की तनख्वाह भी इसी चढ़ावे के पैसों पर निर्भर करती है और अगर दान और चढ़ावे में इजाफा नहीं हुआ तो पंडितजी की तनख्वाह मिलना बंद हो जाएगी. ठाकुर साहब की ये धमकी भरी बातें सुन कर पंडितजी को अपनी तनख्वाह बंद हो जाने का डर सताने लगा और वे मन ही मन में एक योजना पर विचार करने लगे.

ठाकुर साहब की कुलदेवी का मंदिर गांव के शुरुआती छोर पर बना हुआ था. 55 साल के ठाकुर विक्रम सिंह को कुलदेवी का यह मंदिर विरासत में मिला था और उन्होंने इस की पूजापाठ की सारी जिम्मेदारी पंडित रमेश चंद को दे दी थी. मंदिर में गांव वालों द्वारा जो भी रुपयापैसा दानपात्र में आता था, वह ठाकुर साहब के पास जाता था, जबकि चढ़ावे के रूप में प्रसाद, फलमिठाई वगैरह आता था, वह पंडितजी खुद रख लेते थे.

 

चांद पर धब्बे – भाग 1 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

पहाड़ की ढलान पर उतरते वक्त पद्मा ने समीर का हाथ पकड़ना चाहा, पर वे न जाने किस धुन में आगे निकल गए थे. मां को रुकता देख नीटू ने उन के हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘‘आओ मां, मेरा हाथ पकड़ कर धीरेधीरे उतर जाओ.’’ पद्मा 8 साल की उस मासूम लड़की की आंखों में कुछ पल देखती रही. अभी 2 कदम ही आगे बढ़ सकी थी कि चप्पल जो फिसली, तो पद्मा नीचे लुढ़कती चली गई.

नीटू की चीख सुनाई दी और साथ ही अपनी आंखों को डर और पीड़ा से पद्मा ने बंद होता हुआ भी महसूस किया. तभी 2 बांहों ने पद्मा को एकदम से पकड़ कर नीचे खाई में गिरने से बचा लिया था. बड़ी कोशिश से आंखों को खोला तो एक गोरी पहाड़ी लड़की को अपने पर झुका देखा. धीरेधीरे पद्मा बेहोश होती गई. आंखें खुलीं तो पद्मा ने खुद को एक पहाड़ी घर में देखा. नीटू उस के सिरहाने बैठी उस का सिर सहला रही थी. जिस लड़की ने बचाया था, वह वहीं प्याले में कुछ घोल रही थी. तभी एक पुरानी और बहुत जानीपहचानी आवाज कानों में गूंजी,

‘‘अब कैसी तबीयत है छोटी बहू?’’ सालों बाद भी उस आवाज में जो अपनापन व प्यार छिपा हुआ था, उस से पद्मा की नजर ऊपर उठ गई. इतने दिनों बाद भी पद्मा उस चेहरे को पहचान गई. बायां गाल झुर्रियों से भरा हुआ था. जलने का निशान सालों बाद भी जिस्म के एक नाजुक हिस्से से चिपका हुआ बीते दिनों की एक नफरत भरी कहानी कह रहा था. ‘‘तुम माया…?’’ पद्मा ने उठना चाहा, पर उस लड़की ने उठने नहीं दिया, ‘‘आप लेटी रहें, आप के पैरों में चोट लगी है.’’

अब पद्मा ने अपने पैरों की ओर देखा, जहां पट्टी बंधी थी. दर्द की एक तीखी लहर पूरे बदन में फैल गई. ‘‘तेरे पिताजी कहां हैं नीटू?’’ पद्मा ने बेटी से पूछा. ‘‘आप के लिए डाक्टर बुलाने गए हैं. यहां टावर नहीं है, इसलिए मोबाइल नहीं चलता. हम ने तो बहुत कहा कि डाक्टर की जरूरत अब नहीं है. इतने सालों से पहाड़ पर रहते हुए पहाड़ों के दिए दर्द का इलाज भी हम ने ढूंढ़ लिया है,’’ माया धीरे से बोली. दिन ढलने तक माया और उस की बेटी बराबर पद्मा की सेवा में लगी रहीं. न जाने कब मेरी आंखें लग गईं. किसी आवाज पर पद्मा की आंखें खुलीं, वरना न जाने कब तक सोती रहती. समीर गाड़ी ले आए थे. वे बोले, ‘‘डाक्टर तो आए नहीं, तुम्हें ही चलना होगा.

पहाड़ घूमने में तो काफी अच्छा लगता है, पर परेशानी होने पर सारी खुशियां हवा होने लगती हैं. एक डाक्टर के लिए इतनी दूर जाना पड़ा, फिर भी वे नहीं आए. मुश्किल से एक गाड़ी का इंतजाम कर के लाया हूं. अब कल लौट चलो… बहुत घूम लिया,’’ एक सांस में जो वे शुरू हुए तो बोलते ही गए. पद्मा आंखें बंद किए चुप पड़ी रही. जानती थी कि उन की थकान की चिड़चिड़ाहट अभी थोड़ी देर में बड़बड़ाने से उतर जाएगी. थोड़ी देर में जब वे शांत हुए, तो पूछा, ‘‘अब तुम्हारा दर्द कैसा है?’’ पद्मा हलके से मुसकरा दी. अब ध्यान आया इन्हें उस का. मतलब समझ कर वे भी झेंपते हुए उसे देखने लगे. ‘‘तुम्हें पता है, मुझे किस ने बचाया था?’’

पद्मा ने पति की ओर देखा. ‘‘हां, कोई बच्ची थी. छोटी सी…’’ वे लापरवाही से बोले. ‘‘वह माया की बेटी है.’’ ‘‘माया…?’’ ‘‘हां, वही माया, जिस की 3 पीढि़यां हमारे यहां काम करती रही हैं.’’ ‘‘समीर भैया कैसे हो?’’ माया ने ही आ कर उन से सीधा सवाल कर दिया. समीर के अब न पहचानने का सवाल ही नहीं था. ‘‘मैं तो ठीक हूं माया, पर तुम्हारे आने के बाद मां बहुत दुखी थीं. पिछले साल वे भी नहीं रहीं…’’ ‘‘हम बहुत दुखी हुए बबुआ, जब उन की स्नेह छाया हमारे सिर से छिन गई. अब तो पिछला कुछ याद करने को भी जी नहीं करता.’’ होटल वापस आ कर भी पद्मा का दिल भटकता ही रहा. रात में डाक्टर आए और कुछ दर्द कम करने की दवा दे गए. सच में तो माया के जड़ीबूटी वाले लेप से ही उसे काफी आराम मिल गया था. पहाड़ों पर चांद और सूरज का दिखना भी बड़ी बात है. सुबह उठी,

तब तक बादलों के बीच ही सूरज छिपा होता है. रात में कभी मौसम साफ रहा तो चांद दिख गया, नहीं तो बादलों के आंचल में छिपना उसे भी रास आता है. दिनभर की भागमभाग से थके समीर तो सो गए, पर पद्मा सो न सकी. माया के सुंदर चेहरे को पद्मा ने अपनी आंखों से सफेद चकत्तों में बदलते देखा था. पर क्या वह सच था, जिस जुर्म की सजा उस के पति ने दूध का पतीला उस पर उलट कर दी थी? उस ने वह जुर्म किया था, पद्मा का मन कतई यह मानने को तैयार न था. पद्मा बीते सालों की यादों में खो गई. जब वह समीर की दुलहन बन कर उस के आंगन में उतरी थी, कई आवाजों के बीच एक नाम बारबार उसे सुनाई दिया था, ‘माया… माया…’ पद्मा सोचने लगी कि यह माया कौन है? पद्मा ने याद किया था कि उस की ननद का नाम तो रुचि है. गोदभराई में आई, हंसीठिठोली करती लड़कियों के भी नाम याद करने की कोशिश की.

पर, उन में माया नाम ही नजर न आया. लेकिन रात को भेद खुल गया. पद्मा दुलहन बनी सिकुड़ीसिमटी सोफे पर बैठी थी. सामने पलंग पर बस चादर पर थोड़े फूल डाल दिए गए थे. मन में हूक सी उठी. किताबों में पढ़े और फिल्मों में देखे सुहागरात के कई नजारे उस की आंखों के सामने घूम गए, जहां कमरा फूलों की लडि़यों से सजा होता था. ‘‘छोटी बहू…’’ एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. सामने देखा, गोरे रंग की एक पहाड़ी औरत खड़ी थी. नाकनक्श बेहद तीखे और होंठों पर मुसकान. ‘‘यह दूध है… समीर बाबू आते ही होंगे.’’ ‘‘आप…?’’ पद्मा खड़ी हो गई. ‘‘मैं माया हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘मेरी 3 पीढि़यां इस घर की सेवा करती रही हैं. मैं भी यहीं पलीबढ़ी हूं.’’ ‘‘माया…’’ ‘‘हां, छोटी बहू…’’ वह जाने को पलटी, पर फिर रुक गई. हिचकते हुए वह बोली, ‘‘छोटी बहू, एक बात कहनी है… पर आप कोई और मतलब मत निकाल लेना.

मैं औरत हूं. इस कारण तुम्हें कुछ बता देना जरूरी समझती हूं.’’ ‘‘मैं समझी नहीं?’’ ‘‘छोटी बहू, समीर भैया को जरा प्यार की मजबूत डोर से बांधना… हलकीफुलकी डोर तो झटके से तोड़ ही डालेंगे.’’ ‘‘यह तुम क्या कह रही हो?’’ पद्मा चौंक उठी थी. ‘‘हां छोटी बहू… बड़े भैया के अफसर की लड़की है कामिनी. बड़ी ही चंचल… आती है तो ऐसे इतराते हुए मानो इस घर की मालकिन वही हो.’’ ‘‘तो क्या समीर भी…?’’ ‘‘अब सारे समय कोई फूल खुद ही भंवरे पर झुका रहेगा तो खुशबू तो भंवरा लेगा ही न.’’ ‘‘तो इन्होंने उसी से शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘आप भी गजब करती हैं छोटी बहू. इतना बड़ा अफसर अपनी बेटी की शादी इन से करेगा. मौजमस्ती मारना और बात है, शादी करना और. फिर इतनी नकचढ़ी बिगड़ी लड़की इस घर में कहां खपने वाली है. मांजी तो इसे देख कर ही चिढ़ती हैं.’’ तभी किसी के कदमों की आवाज सुनाई दी और माया ‘भैया आ गए’ कहते हुए तेजी से बाहर चली गई.

समीर के साथ पद्मा की पहली मुलाकात जिन प्रेम भरे पलों में होनी चाहिए थी, वैसी न हो सकी. उन के हाथों ने जब उसे छुआ तो उसे बासीपन का एहसास होने लगा. माया की बातें नाग बन कर पद्मा के चारों तरफ लिपट गई थीं. सोचने लगी कि यह कैसे घर में आ फंसी वह. अपने पति को उस कामिनी नाम की लड़की की बांहों में देख क्या वह अपना धीरज न खो बैठेगी? दूसरे दिन जब वह अभी नहा कर उठी ही थी कि बाहर से एक चहकती हुई आवाज सुनाई दी, ‘‘नई भाभी कहां हैं भई… उन के तो दर्शन ही नहीं हुए.’’ ‘‘कहां चली गई थी बेबी कल…?’’ यह शायद भाभी की आवाज थी. पद्मा ने अंदाजा लगाया. ‘‘ओह, यह न पूछो भाभी. उस कमबख्त डेविड के चक्कर में कल शिमला से लौट ही न पाई. कालका तक आते गाड़ी ही खराब हो गई. ओ हो… तो ये हैं हमारी नई भाभी…’’ कमरे में मेरे बिलकुल पास आ कर कामिनी ने कहा,

तो पद्मा की नजरें ऊपर उठ गईं. उस का चेहरा मासूम लगा. सोचा, ‘नहीं, यह चेहरा किसी को धोखा नहीं दे सकता. पर आवाज की चंचलता तो किसी को भी अपनी तरफ खींच सकती है.’ ‘‘समीर कहां है? दिख नहीं रहा.’’ ‘‘जी, वे नहा रहे हैं.’’ ‘‘ओह…’’ कामिनी वहीं पलंग पर आराम से लेट गई. पद्मा कमरे को ठीक करने लगी. गुसलखाने का दरवाजा खुला, तो कामिनी उठ बैठी, ‘‘हैलो समीर…’’ पद्मा ने यों ही एक नजर समीर पर डाली. उस के सीने के बाल भीग कर बदन से चिपक गए थे. इस जिस्म पर वह मोहित हो उठी. पर कामिनी को बैठे देख कर सारा जोश ठंडा पड़ गया. ‘‘कब आई?’’ बदन पर गाउन डालते हुए समीर ने कामिनी से पूछा. ‘‘थोड़ी देर हुई… शाम को पार्टी में चल रहे हो न?’’ वह कुछ जवाब देते, तभी भाभी आ गईं,

‘‘अरे बेबी, नीचे चलो. तुम्हारे भाई साहब नाश्ते पर इंतजार कर रहे हैं.’’ पद्मा को चोट सी लगी कि नई बहू को नीचे बुलाने के बजाय कामिनी को नीचे बुलाया जा रहा है. ‘‘चलती हूं समीर, आना जरूर… और भाभी को भी साथ लाना,’’ मुसकराते हुए कामिनी चली गई. मैं इन बातों से अलग हटी और पद्मा कमरा ठीक करती रही. ‘‘जरा अलमारी से मेरे कपड़े निकाल दो,’’ पद्मा ने मुड़ कर देखा, समीर शीशे के सामने खड़े बाल संवार रहे थे. ‘‘कौन से निकालूं?’’ ‘‘जो तुम्हें पसंद हों. आज हम घूमने चल रहे हैं.

वफादारी का सुबूत : दीपक कहां का सफर तय कर रहा था

तकरीबन 3 महीने बाद दीपक आज अपने घर लौट रहा था, तो उस के सपनों में मुक्ता का खूबसूरत बदन तैर रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह पलक झपकते ही अपने घर पहुंच जाए और मुक्ता को अपनी बांहों में भर कर उस पर प्यार की बारिश कर दे.

पर अभी भी दीपक को काफी सफर तय करना था. सुबह होने से पहले तो वह हरगिज घर नहीं पहुंच सकता था. और फिर रात होने तक मुक्ता से उस का मिलन होना मुमकिन नहीं था.

‘‘उस्ताद, पेट में चूहे कूद रहे हैं. ‘बाबा का ढाबा’ पर ट्रक रोकना जरा. पहले पेटपूजा हो जाए. किस बात की जल्दी है. अब तो घर चल ही रहे हैं…’’ ट्रक के क्लीनर सुनील ने कहा, फिर मुसकरा कर जुमला कसा, ‘‘भाभी की बहुत याद आ रही है क्या? मैं ने तुम से बहुत बार कहा कि बाहर रह कर कहां तक मन मारोेगे. बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहां जा कर तनमन की भड़ास निकाली जा सकती है. पर तुम तो वाकई भाभी के दीवाने हो.’’

दीपक को पता था कि सुनील हर शहर में ऐसी जगह ढूंढ़ लेता है, जहां देह धंधेवालियां रहती हैं. वहां जा कर उसे अपने तन की भूख मिटाने की आदत सी पड़ गई है. अकसर वह सड़कछाप सैक्स के माहिरों की तलाश में भी रहता है. शायद ऐसी औरतों ने उसे कोई बीमारी दे दी है.

दीपक ने सुनील की बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह मुक्ता के बारे में सोच रहा था. उस की एक साल पहले ही मुक्ता से शादी हुई थी. वह पढ़ीलिखी और सलीकेदार औरत थी. उस का कसा बदन बेहद खूबसूरत था. उस ने आते ही दीपक को अपने प्यार से इतना भर दिया कि वह उस का दीवाना हो कर रह गया.

दीपक एमए पास था. वह सालों नौकरी की तलाश में इधरउधर घूमता रहा, पर उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली. दीपक सभी तरह की गाडि़यां चलाने में माहिर था. उस के एक दोस्त ने उसे अपने एक रिश्तेदार की ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी दिलवा दी, तो उस ने मना नहीं किया.

वैसे, ट्रक ड्राइवरी में दीपक को अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. तनख्वाह मिलने के साथ ही वह रास्ते में मुसाफिर ढो कर भी पैसा बना लेता था. ये रुपए वह सुनील के साथ बांट लेता था.

सुनील तो ये रुपए देह धंधेवालियों और खानेपीने पर उड़ा देता था, पर घर लौटते समय दीपक की जेब भरी होती थी और घर वालों के लिए बहुत सा सामान भी होता था, जिस से सब उस से खुश रहते थे.

दीपक के घर में उस की पत्नी मुक्ता के अलावा मातापिता और 2 छोटे भाईबहन थे. दीपक जब भी ट्रक ले कर घर से बाहर निकलता था, तो कभी 15 दिन तो कभी एक महीने बाद ही वापस आ पाता था. पर इस बार तो हद ही हो गई थी. वह पूरे 3 महीने बाद घर लौट रहा था. उस ने पूरे 10 दिनों की छुट्टियां ली थीं.

‘‘उस्ताद, ‘बाबा का ढाबा’ आने वाला है,’’ सुनील की आवाज सुन कर दीपक ने ट्रक की रफ्तार कम की, तभी सड़क के दाईं तरफ ‘बाबा का ढाबा’ बोर्ड नजर आने लगा. उस ने ट्रक किनारे कर के लगाया. वहां और भी 10-12 ट्रक खड़े थे.

यह ढाबा ट्रक ड्राइवरों और उन के क्लीनरों से ही गुलजार रहता था. इस समय भी वहां कई लोग थे. कुछ लोग आराम कर रहे थे, तो कुछ चारपाई पर पटरा डाले खाना खाने में जुटे थे. वहां के माहौल में दाल फ्राई और देशी शराब की मिलीजुली महक पसरी थी. ट्रक से उतर कर सुनील सीधे ढाबे के काउंटर पर गया, तो वहां बैठे ढाबे के मालिक सरदारजी ने उस का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘आओ बादशाहो, बहुत दिनों बाद नजर आए?’’

सुनील ने कहा, ‘‘हां पाजी, इस बार तो मालिकों ने हमारी जान ही निकाल ली. न जाने कितने चक्कर असम के लगवा दिए.’’ ‘‘ओहो… तभी तो मैं कहूं कि अपना सुनील भाई बहुत दिनों से नजर नहीं आया. ये मालिक लोग भी खून चूस कर ही छोड़ते हैं जी,’’ सरदारजी ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

‘‘पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, फटाफट 2 दाल फ्राई करवाओ पाजी. मटरपनीर भी भिजवाओ,’’ सुनील ने कहा.

‘‘तुम बैठो चल कर. बस, अभी हुआ जाता है,’’ सरदारजी ने कहा और नौकर को आवाज लगाने लगे.

2 गिलास, एक कोल्ड ड्रिंक और एक नीबू ले कर जब तक सुनील खाने का और्डर दे कर दूसरे ड्राइवरों और क्लीनरों से दुआसलाम करता हुआ दीपक के पास पहुंचा, तब तक वह एक खाली पड़ी चारपाई पर पसर गया था. उसे हलका बुखार था.

‘‘क्या हुआ उस्ताद? सो गए क्या?’’ सुनील ने उसे हिलाया.

‘‘यार, अंगअंग दर्द कर रहा है,’’ दीपक ने आंखें मूंदे जवाब दिया.

‘‘लो उस्ताद, दो घूंट पी लो आज. सारी थकान उतर जाएगी,’’ सुनील ने अपनी जेब से दारू का पाउच निकाला और गिलास में डाल कर उस में कोल्ड ड्रिंक और नीबू मिलाने लगा. तब तक ढाबे का छोकरा उस के सामने आमलेट और सलाद रख गया था.

‘‘नहीं, तू पी,’’ दीपक ने कहा.

‘‘इस धंधे में ऐसा कैसे चलेगा उस्ताद?’’ सुनील बोला.

‘‘तुझे मालूम है कि मैं नहीं पीता. खराब चीज को एक बार मुंह से लगा लो, तो वह जिंदगीभर पीछा नहीं छोड़ती. मेरे लिए तो तू एक चाय बोल दे,’’ दीपक बोला.

सुनील ने वहीं से आवाज दे कर एक कड़क चाय लाने को बोला. दीपक ने जेब से सिरदर्द की एक गोली निकाली और उसे पानी के साथ निगल कर धीरेधीरे चाय पीने लगा. बीचबीच में वह आमलेट भी खा लेता. जब तक उस की चाय निबटी.

होटल के छोकरे ने आ कर खाना लगा दिया. गरमागरम खाना देख कर उस की भी भूख जाग गई. दोनों खाने में जुट गए. खाना खा कर दोनों कुछ देर तक वहीं चारपाई पर लेटे आराम करते रहे. अब दीपक को भी कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि दिन निकलने से पहले अब वह किसी भी हालत में घर नहीं पहुंच सकता था. एक घंटे बाद जब वह चलने के लिए तैयार हुआ, तो थोड़ी राहत महसूस कर रहा था.

कानपुर पहुंच कर दीपक ने ट्रक ट्रांसपोर्ट पर खड़ा किया और मालिक से रुपए और छुट्टी ले कर घर पहुंचा. सब लोग बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही खुश हो गए. मां उस के चेहरे को ध्यान से देखे जा रही थी, ‘‘इस बार तो तू बहुत कमजोर लग रहा है. चेहरा देखो कैसा निकल आया है. क्या बुखार है तुझे?’’

‘‘हां मां, मैं परसों भीग गया था. इस बार पूरे 10 दिन की छुट्टी ले कर आया हूं. जम कर आराम करूंगा, तो फिर से हट्टाकट्टा हो जाऊंगा,’’ कह कर वह अपनी लाई हुई सौगात उन लोगों में बांटने लगा. सब लोग अपनीअपनी मनपसंद चीजें पा कर खुश हो गए.

मुक्ता रसोई में खाना बनाते हुए सब की बातें सुन रही थी. उस के लिए दीपक इस बार सोने की खूबसूरत अंगूठी और कीमती साड़ी लाया था.

थोड़ी देर बाद एकांत मिलते ही मुक्ता उस के पास आई और बोली, ‘‘आप को बुखार है. आप ने दवा ली?’’

‘‘हां, ली थी.’’

‘‘एक गोली से क्या होता है? आप को किसी अच्छे डाक्टर को दिखा कर दवा लेनी चाहिए.’’

‘‘अरे, डाक्टर को क्या दिखाना? बताया न कि परसों भीग गया था, इसीलिए बुखार आ गया है.’’

‘‘फिर भी लापरवाही करने से क्या फायदा? आजकल वैसे भी डेंगू बहुत फैला हुआ है. मैं डाक्टर मदन को घर पर ही बुला लाती हूं.’’

दीपक नानुकर करने लगा, पर मुक्ता नहीं मानी. वह डाक्टर मदन को बुला लाई. वे उन के फैमिली डाक्टर थे और उन का क्लिनिक पास में ही था. वे फौरन चले आए. उन्होंने दीपक की अच्छी तरह जांच की और जांच के लिए ब्लड का सैंपल भी ले लिया. उन्होंने कुछ दवाएं लिखते हुए कहा, ‘‘ये दवाएं अभी मंगवा लीजिए, बाकी खून की रिपोर्ट आ जाने के बाद देखेंगे.’’

रात में दीपक ने मुक्ता को अपनी बांहों में लेना चाहा, तो उस ने उसे प्यार से मना कर दिया. ‘‘पहले आप ठीक हो जाइए. बीमारी में यह सबकुछ ठीक नहीं है,’’ मुक्ता ने बड़े ही प्यार से समझाया. दीपक ने बहुत जिद की, लेकिन वह नहीं मानी. बेचारा दीपक मन मसोस कर रह गया. उस को मुक्ता का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन मुक्ता डाक्टर मदन से दीपक की रिपोर्ट लेने गई, तो उन्होंने बताया कि बुखार मामूली है. दीपक को न तो डेंगू है और न ही एड्स या कोई सैक्स से जुड़ी बीमारी. बस 2 दिन में दीपक बिलकुल ठीक हो जाएगा. दीपक मुक्ता के साथ ही था. उसे डाक्टर मदन की बातें सुन कर हैरानी हुई. उस ने पूछा, ‘‘लेकिन डाक्टर साहब, आप को ये सब जांचें करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?’’

‘‘ये सब जांचें कराने के लिए आप की पत्नी ने कहा था. आप 3 महीने से घर से बाहर जो रहे थे. आप की पत्नी वाकई बहुत समझदार हैं,’’ डाक्टर मदन ने मुक्ता की तारीफ करते हुए कहा.

दीपक को बहुत अजीब सा लगा, पर वह कुछ न बोला. दीपक दिनभर अनमना सा रहा. उसे मुक्ता पर बेहद गुस्सा आ रहा. रात में मुक्ता ने कहा, ‘‘आप को हरगिज मेरी यह हरकत पसंद नहीं आई होगी, पर मैं भी क्या करती, मीना रोज मेरे पास आ कर अपना दुखड़ा रोती रहती है. उसे न जाने कैसी गंदी बीमारी हो गई है.

‘‘यह बीमारी उसे अपने पति से मिली है. बेचारी बड़ी तकलीफ में है. उस के पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं.’’ दीपक को अब सारी बात समझ में आ गई. मीना उस के क्लीनर सुनील की पत्नी थी. सुनील को यह गंदी बीमारी देह धंधेवालियों से लगी थी. वह खुद भी तो हमेशा किसी अच्छे सैक्स माहिर डाक्टर की तलाश में रहता था.

सारी बात जान कर दीपक का मन मुक्ता की तरफ से शीशे की तरह साफ हो गया. वह यह भी समझ गया था कि अब वक्त आ गया है, जब मर्द को भी अपनी वफादारी का सुबूत देना होगा.

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 3

लखनऊ शहर की इस गंदी बस्ती में आज जश्न था, क्योंकि आज उन के महल्ले के एक लड़के की शादी एक अमीर और सवर्ण लड़की से जो हो गई थी. अगले दिन से ही अंजलि घर पर मेहंदी रचा कर नहीं बैठी, बल्कि चुनाव प्रचार में बिजी हो गई. पूरे शहर में अंजलि ने अपनेआप को ‘दलित समाज की बहू’ कह कर चुनाव प्रचार करवाया और अजीत कुमार के साथ दलित बस्तियों का दौरा भी किया और दोपहर का खाना भी लखनऊ शहर के ही राजाजीपुरम इलाके में रह रहे एक दलित परिवार के यहां खाया.

लोकल न्यूज चैनल पर इस खबर का खूब प्रचारप्रसार भी करवाया. चुनाव नतीजा तो आया, पर अंजलि की सोच के मुताबिक नहीं. वह अपने विरोधी से बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी. पूरे 2 दिन तक वह घर से बाहर रही. अजीत कुमार ने उस का मोबाइल भी मिलाया, पर मोबाइल ‘नौट रीचेबल’ ही बताता रहा. फिर एक दिन अंजलि अचानक नाटकीय रूप से प्रकट हो गई. उस ने घर के किसी शख्स से बात तक नहीं की और न ही किसी की तरफ देखा भी. वह सीधा अपने कमरे में चली गई. अजीत कुमार उस के पीछेपीछे गया, तो अंजलि उस से कहने लगी, ‘‘देखो अजीत, मैं ने तुम से इसलिए शादी की थी, क्योंकि सोशल मीडिया पर तुम्हारे दलित फैंस को देख कर मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं तुम से शादी कर के दलितों के वोट अपनी ओर कर लूंगी,

तो इलैक्शन जीत जाऊंगी, पर अफसोस, यह नहीं हो सका और मैं चुनाव हार गई…’’ सांस लेने के लिए अंजलि रुकी और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘पर, अब मेरा इस गंदी बस्ती और तुम्हारे साथ दम घुट रहा है, इसलिए मैं यहां से जा रही हूं और अपने आदमियों से तलाक के कागज भी भिजवा दूंगी… साइन कर देना.’’ अजीत कुमार अवाक रह गया. अपनी जिंदगी में इतना बड़ा धोखा उस ने कभी नहीं खाया था. अंजलि जा चुकी थी और कुछ घंटे बाद ही उस के आदमी तलाक के कागज ले कर आए और अजीत कुमार से दस्तखत लेने लगे.

कुछ लोग अंजलि के कमरे का सामान ले जाने लगे, जिस में उस कमरे में लगा हुआ एसीकूलर वगैरह भी शामिल था. अजीत कुमार काफी बेइज्जती महसूस कर रहा था, पर करता भी क्या? एक दलित की जिंदगी कितनी कड़वी हो सकती है, यह सब उस की झांकी भर ही था. कुछ दिन तो अजीत कुमार भी सदमे में रहा. उसे लगा कि उसे मर जाना चाहिए, क्योंकि वह एक सवर्ण महिला द्वारा बेइज्जत किया जा चुका है. लोग सही कहते हैं… हम दलित लोगों की ‘ब्रेन वाशिंग’ इस तरह से कर दी गई है कि लगता है कि हमारे सोचनेसमझने की ताकत ही चली गई है.

तभी तो शायद हम समाज में सब से आखिरी पायदान पर हैं… तो क्या मर जाना ही इस का समाधान है, बिलकुल, जब जिंदगी ही नहीं रहेगी, तो कैसा दुख और कैसा दर्द. अपने मोबाइल को अजीत कुमार ने आखिरी बार निहारा. उस ने पाया कि उस के फेसबुक मैसेंजर पर बहुत से दलित भाइयों और जरूरतमंद लोगों के संदेश भरे हुए थे, जो उस से मदद मांग रहे थे… ‘तो फिर इन का क्या होगा? क्या मेरे मर जाने से इन की उम्मीदभरी नजरों को ठोकर नहीं लगेगी?’ एक बार ऐसा खयाल अजीत कुमार के जेहन में आया, तो उस ने मरने का विचार छोड़ दिया. ठंडे पानी का एक गिलास हलक के नीचे उतारा और अपने कमरे में वापस आया…

एक लंबे सफर की तैयारी जो करनी थी उसे. उस दिन के बाद से अजीत कुमार ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और उस ने ‘फेसबुक लाइव’ के द्वारा लोगों को संबोधित किया और दलितों को जगाने और उन की सदियों से चली आ रही ‘ब्रेन वाशिंग’ को ही खत्म करने के कोशिश की. खुद के साथ हुए धोखे के बारे में लोगों को बताया कि लोग किस तरह से उन के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. भोलेभाले लोग यह जानते ही नहीं कि सालों से उन्हें कमतर होने का एहसास कराया जाता रहा है, जिस से वे अपनेआप को नीचा समझने लगे हैं. दलित गरीब होता है,

इसलिए उन के उत्थान में सब से पहले पैसे की जरूरत थी. अजीत कुमार ने अपने महल्ले के बीचोंबीच एक डब्बा रखवाया और उस पर लिखवा दिया कि इस डब्बे में वे लोग हर रोज महज एकएक रुपया डाला करेंगे और इस से जो पैसे इकट्ठे होंगे, वे गरीब दलितों के काम आएंगे, मसलन बच्चों की पढ़ाईलिखाई और लड़कियों की शादी में. अजीत कुमार ने ऊंची नौकरी कर रहे कुछ दलित लोगों से भी बात की और उन से भी सहयोग करने को कहा. लोग सामने आए और अजीत कुमार के कंधे से कंधा भी मिलाया. अजीत कुमार ने अपनी पूरी जिंदगी ही दलित समाज के जागरण को समर्पित कर दी थी. यह सब इतना आसान नहीं था,

पर दृढ़ संकल्प से कुछ भी मुमकिन था. तकरीबन 15 साल की समाजसेवा के बाद अजीत कुमार एक जानामाना नाम बन गया था, जिस का एहसास उस चालाक राजपूतानी अंजलि को भी हो चुका था, तभी वह एक दिन अजीत कुमार के पास आई और अपने द्वारा दिए गए धोखे पर माफी मांगते हुए उस से दोबारा शादी करने की इजाजत मांगी, पर अजीत कुमार इतना भी बेवकूफ नहीं था कि अंजलि से दोबारा शादी करता. दलित उत्थान में अजीत कुमार अकेला चला तो था, पर उसे इस राह में कई लोग मिलते गए, जिन्होंने हर तरीके से उस की मदद की.

अजीत कुमार ने अपनी जिंदगी के कड़वे अनुभवों को ले कर आत्मकथा भी लिखी, जिस का नाम रखा गया ‘कांटों भरी राह पर नंगे पैर’. अजीत कुमार की आत्मकथा को पहले तो कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था, क्योंकि एक दलित की आत्मकथा को प्रकाशित करना उन्हें फायदे का सौदा नहीं लग रहा था, इसलिए अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा को ‘अमेजन किंडल’ पर प्रकाशित करने का फैसला लिया और यह आत्मकथा एक बैस्ट सैलर साबित हुई. अजीत कुमार के पास बधाइयों का तांता लग गया था. आज अपना 50वां जन्मदिन मनाने के लिए समाजसेवी अजीत कुमार एक दलित बस्ती में आया था. उसे चारों तरफ से लोगों ने घेर रखा था. अजीत कुमार के चेहरे पर एक मधुर मुसकराहट थी कि तभी भीड़ को चीरते हुए एक 25-26 साल की लड़की अजीत कुमार के पास आई और बोली, ‘‘मैं सुबोही…

आप की बहुत बड़ी फैन हूं. आप के बारे में सबकुछ आत्मकथा से जान चुकी हूं और आप के काम से प्रभावित हूं… आप से शादी करना चाहती हूं… और हां… मैं जाति से ठकुराइन हूं.’’ अजीत कुमार उस लड़की को बड़ी देर तक देखता रहा, फिर बोला, ‘‘पर, हमारी उम्र के बीच जो फासला है…?’’ ‘‘प्रेम कोई फासला नहीं जानता,’’ सुबोही ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, तुम्हें विधायकी का चुनाव तो नहीं लड़ना है न?’’ अजीत ने चुटकी ली और दोनों एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा उठे. ‘‘बस करिए, अपनी आत्मकथा को कब तक निहारते रहेंगे…’’ सुबोही ने पूछा. ‘‘यह तो एक बहाना है… तुम से हुई पहली मुलाकात को याद करने का…’’ अजीत कुमार ने सुबोही से कहा.

बलात्कार : बहुत हुआ अब और नहीं

जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं. ‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.

एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’

अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं.

अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.

अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.

अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदरबाहर होते रहते थे.

रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया.

आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.

अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.

बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है. मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.

मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.

‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.

‘‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.

‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’

चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.

‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’

अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझे आज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.

‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थे. और गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.

‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’

अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.

‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.

इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया.

मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.

अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं.

कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.

कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.

उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.

लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे.

लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकने लगा.

पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’

सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.

‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.

‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.

‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’

सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं.

कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.

कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’

‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’

अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’

मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.

‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.

‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.

‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ाथोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.

‘‘बहुतकुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’

‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.

‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’

कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.

झिलमिल सितारों का आंगन होगा

नीलमस्ती में गुनगुना रहा था, ‘‘मेरे रंग में रंगने वाली, परी हो या हो परियों की रानी,’’ तभी पीछे से उस की छोटी बहन अनु ने आ कर कहा, ‘‘भैया प्यार हो गया है क्या किसी से शादी के बाद?’’

नील बोला, ‘‘नहीं तो पर गाना तो गा ही सकता हूं.’’

अनु मुसकराते हुए अंदर चाय बनाने चली गई. तभी घर के बाहर कार के रुकने की आवाज आई. अनु ने खिड़की से देखा, राजीव भैया और मधु भाभी आ रहे थे.

अनु जब चाय ले कर कमरे में पहुंची तो राजीव भैया बोले, ‘‘अनु मेघा भाभी नहीं आई अब तक?’’

इस से पहले कि अनु कुछ बोल पाती, मम्मी बोलीं, ‘‘अरे मेघा के तो बैंक में बहुत काम चल रहा है देर रात घर में पहुंचती है. बेचारी का काम के बो झ के कारण चेहरा उतर जाता है.’’

नील बरबस बोल उठा, ‘‘अरे मम्मी बहू ही तुम्हारी काले मेघ जैसी है, तुम बेकार में ही काम को दोष दे रही हो.’’

मेघा ने तभी घर में कदम रखा था. नील की बात पर वह सकपका गई.

नील खुद ही अपने चुटकुले पर हंसने लगे. नील की मम्मी का माथा ठनका और बोलीं, ‘‘नील हंसीमजाक करने का भी एक स्तर होता है.’’

नील बोला, ‘‘मम्मी मेघा मेरी जीवनसाथी है. मेरे साथसाथ मेरे मजाक को भी सम झती है.’’

मगर मेघा को देख कर ऐसा नहीं लग रहा था. कुछ देर बाद मेघा तैयार हो कर बाहर आ गई. महरून सूट में बेहद सलोनी लग रही थी. परंतु नील बारबार मधु की तरफ देख रहा था.

राजीव नील का करीबी दोस्त था. अभी पिछले हफ्ते ही उन का विवाह हुआ था. मधु बेहद खूबसूरत थी, परंतु मेघा के तीखे नैननक्श भी कुछ कम नहीं थे.

डाइनिंगटेबल पर तरहतरह के पकवान सजे हुए थे. अनु बोली, ‘‘मधु भाभी यह फ्रूट कस्टर्ड और शाही पनीर हमारी मेघा भाभी की पसंद हैं.’’

राजीव बोल उठा, ‘‘अरे अनु, मधु कुछ भी फ्राइड या औयली नहीं लेती हैं. चेहरे पर दाने आ जाते हैं.’’

एकाएक नील प्रशंसात्मक स्वर में बोल उठा, ‘‘फिर गोरे रंग पर अलग से दिखते भी हैं. गहरे रंग में तो सब घुलमिल जाता है.’’

मेघा बोली, ‘‘हां सिवा प्यार के,’’ उस के बाद मेघा वहां रुकी नहीं और दनदनाती हुई अंदर चली गई. उस के बाद महफिल न जम सकी.

जब वे लोग जा रहे थे तो मेघा उन्हें छोड़ने बाहर भी नहीं आईर्. कमरे में घुसते ही नील बोला, ‘‘मेघा तुम बाहर क्यों नहीं आईं?’’

मेघा ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं थक गई थी और तुम तो थे न वहां मधु का ध्यान रखने के लिए.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘इतनी असुरक्षित क्यों रहती हो? अगर कोई सुंदर है तो क्या उसे सुंदर कहने से मैं बेवफा हो जाऊंगा.’’

मेघा बोली, ‘‘नील मैं तुम्हारी तरह अपने पापा के साथ काम नहीं करती हूं कि जब मरजी हो तब जाओ और जब मरजी हो तब मत जाओ.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘बहुत घमंड है तुम्हें अपनी नौकरी का. जो भी करती हो अपने लिए करती हो. मेरे लिए तो तुम ने कभी कुछ नहीं किया है.’’

सुबह मेघा के दफ्तर जाने के बाद मम्मी नील से बोलीं, ‘‘नील, कुछ तो बिजनैस पर ध्यान दे. शादी को 7 महीने हो गए हैं. कल को तुम्हारे खर्चे भी बढ़ेंगे.’’

नील हमेशा की तरह मम्मी की बात को टाल कर चला गया. रात को खाने पर पापा गुस्से में नील से बोले, ‘‘तुम्हारा ध्यान कहां है? आज पूरा दिन तुम दफ्तर में नहीं थे. ऐसा ही रहा तो मैं तुम्हें खर्च देना बंद कर दूंगा.’’

नील बेशर्मी से बोला, ‘‘पापा, आप कमाते हो और मम्मी घर पर रहती हैं पर मेरे केस में मेरी बीवी कमाती है और मैं बाहर के काम देख लेता हूं.’’

मेघा हक्कीबक्की रह गई. अंदर कमरे में घुसते ही मेघा ने नील को आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या तुम ने मु झ से शादी मेरी तनख्वाह के कारण की है? मैं ने तो सोचा था कि तुम घर की जिम्मेदारियां उठाओगे और मैं पैसे बचा कर एक घर खरीद लूंगी. कब तक मम्मीपापा पर बोझ बने रहेंगे.’’

नील भी गुस्से में बोला, ‘‘मैं ने भी सोचा था कि गोरीचिट्टी बीवी लाऊंगा, जो मु झे सम झेगी और मेरी मदद करेगी. पर तुम्हें तो अपनी नौकरी की बहुत अकड़ है.’’

हालांकि नील ने यह बात दिल से नहीं कही थी पर यह मेघा के दिल में फांस की तरह चुभ गई.

आज पूरा दिन बैंक में मेघा को नील का रहरह कर मधु को देखना याद आ रहा था. बारबार वह यही सोच रही थी कि क्या वह बस नील की जिंदगी में नौकरी के कारण है.

एकाएक उसे अपनी दादी की बात याद आ गई. दादी कितना कहती थीं कि बिट्टू यह गोरेपन की क्रीम लगा ले. आजकल काले को भी गोरी दुलहन चाहिए.

मेघा का जब गौरवर्ण नील से विवाह हो रहा था तो उस ने दादी से कहा था, ‘‘दादी, देखो तुम्हारी बिट्टू को गोरा दूल्हा मिल गया है और वह भी बिना फेयर ऐंड लवली के.’’

मगर आज मेघा को लगा था कि नील ने तो उस की नौकरी के कारण उस के काले रंग से सम झौता किया था.

मेघा की जिंदगी में वैसे तो सबकुछ नौर्मल था, पर एक अनकहा तनाव था, जो उस के और नील के बीच पसर गया था. नील को लगने लगा था कि मेघा को अपनी नौकरी का घमंड है तो मेघा को लगता था कि नील उस की दबी हुई रंगत के कारण अपने दोस्तों की बीवियों से हेय सम झता है. इसलिए नील उसे कभी भी अपने किसी दोस्त के घर ले कर नहीं जाता था.

उधर नील अपनी नाकामयाबियों के जाल में इतना फंस गया था कि उस ने अपना सामाजिक दायरा बहुत छोटा कर लिया था.

नील कुछ करना चाहता था. वह प्रयास भी करता पर विफल हो जाता था. पिता के व्यापार में उस का मन नहीं लगता था. वह अपने हिसाब से, अपनी तरह से काम करना चाहता था. आज उसे एक बहुत अच्छा प्रोपोजल आया था. काम ऐसा था, जिस में नील अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को भी इस्तेमाल कर सकता था. परंतु अपने काम के लिए उसे पूंजी की जरूरत थी. नील को पता था कि  उस के पिता अपने पुराने अनुभवों के कारण उस की मदद नहीं करेंगे.

नील को लगा मेघा उस की जीवनसाथी है शायद वह उस की बात सम झ जाए. जब नील ने मेघा से कहा तो मेघा तुनक कर बोली, ‘‘अलग बिजनैस का इतना ही शौक है, तो अपनी कमाई से कर लो. मु झे तो लगता है कि तुम ने मु झ से शादी ही इस कारण से की है कि बीवी की कमाई से अपने सपने पूरे करोगे. फ्रीसैक्स मु झ से मिल ही रहा है. जेबखर्च 30 की उम्र में भी अपने पापा से लेते हो और बाहर घुमाने के लिए ये पतली, सुंदर और गोरी लड़कियां तो तुम्हारे पास होंगी ही न.’’

रात में खाने की मेज पर तनाव छाया रहा. अनु ने चुपके से पापा को सारी बात बता दी थी.

पापा ने मेघा से कहा, ‘‘बेटा एक बार नील की बात पर ठंडे दिमाग से सोचो. जब बच्चे हो जाएंगे तो वैसे ही तुम लोगों का हाथ तंग हो जाएगा.’’

मेघा भाभी फुफकार उठीं, ‘‘अच्छा बहाना ढूंढ़ा है पूरे परिवार ने पैसा उघाई का. जानती हूं एक काली लड़की का उद्धार क्यों किया है इस परिवार ने. अब कीमत तो चुकानी ही होगी न? इतना ही अच्छा बिजनैस प्रोपोजल है तो आप क्यों नहीं लगाते हो पैसा.’’

नील अपनाआपा खो बैठा और चिल्ला कर बोला, ‘‘काला तुम्हारी त्वचा का रंग नहीं पर दिल का रंग है मेघा, तुम से शादी मैं ने अपने दिल से की थी पर लगता है कुछ गलती कर दी है.’’

नील बेहद रोष में खाना अधूरा छोड़ कर चला गया था. यह जरूर था कि वह मेघा को चिढ़ाने के लिए कुछ भी बोल देता था पर उस के दिल में ऐसा कुछ नहीं था. आज मेघा वास्तव में विद्रूप लग रही थी. न जाने क्या सोच कर नील ने कार राजीव के घर की तरफ मोड़ दी थी.

3 बार घंटी बजाने के पश्चात नील मुड़ ही रहा था कि मधु ने दरवाजा खोला. एक रंग उड़ेगा उन में और छितरे हुए बालों में वह बेहद फूहड़ लग रही थी. लग ही नहीं रहा था कि उस के विवाह को एक माह ही हुआ है. अंदर का हाल देख कर तो नील चकरा ही गया. चारों तरफ कपड़ों का अंबार और धूल जमी हुई थी.

राजीव  झेंपते हुए बोला, ‘‘अरे, मधु को धूल से ऐलर्जी है. 2 दिन से कामवाली भी नहीं आ रही है.’’

मधु ट्रे में 2 कप चाय ले आई. अचानक नील को लगा कि वह कितना खुशहाल है मेघा कितनी सुघड़ है. नौकरी के साथसाथ घर भी कितनी अच्छी तरह संभालती है और एक वह है नकारा. अगर मेघा कुछ कहती भी है तो उस के भले के लिए ही कहती है. कब तक वह अपने परिवार पर बो झ बना रहेगा?

चाय पीने के बाद नील ने झिझकते हुए कहा, ‘‘राजीव यार, कुछ पैसे मिल सकते हैं क्या? मैं बिजनैस शुरू करना चाहता हूं.’’

राजीव बोला, ‘‘नील पूरी सेविंग शादी में खर्च हो गई है और मधु के नखरे देख कर लगता है अब सेविंग हो नहीं पाएगी.’’

रात में जब नील घर पहुंचा तो देखा मेघा जगी हुई थी. नील को देख कर बोली, ‘‘फोन क्यों स्विच औफ कर रखा है? नील क्या हम शांति से बात नहीं कर सकते हैं?’’

नील ने मेघा से कहा, ‘‘मेघा मैं कोशिश कर रहा हूं पर मु झे तुम्हारे साथ की जरूरत है.’’

मेघा भी भर्राए स्वर में बोली, ‘‘नील मैं जानती हूं पर जब तुम मेरे रंग पर  कटाक्ष करते हो, तु झे बहुत छोटा महसूस होता है.’’

नील बोला, ‘‘तुम पर नहीं मेघा, अपनी नाकामयाबी पर हताश हो कर कटाक्ष कर देता हूं. आज तक किसी से नहीं कहा पर मेघा बहुत कोशिश कर के भी अपनी नाकामयाबी की परछाईं से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं. तुम अच्छी नौकरी में हो तुम नहीं सम झ सकती कि कितना मुश्किल है नाकामयाबी का बो झ ढोना.’’

मेघा सुबकते हुए बोली, ‘‘जानती हूं नील, कैसा लगता है जब लोग आप को रिजैक्ट कर देते हैं. तुम से पहले 10 लड़के मेरे रंग के कारण मु झे नकार चुके थे. तुम से विवाह के बाद ऐसा लगा जैसे सबकुछ ठीक हो गया है पर रहरह कर तुम्हारे मजाक मेरे दिल में कड़वाहट भर देते हैं.’’

नील बोला,’’ पगली ऐसा कुछ नहीं हैं, मैं ज्यादा बोलता हूं न तो कुछ भी बोल जाता हूं. तुम से ज्यादा सम झदार और प्यारी पत्नी मु झे नहीं मिल सकती है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं. हां तुम्हारा मु झे हेयदृष्टि से देखना पागल कर देता था और इस कारण मैं कभीकभी जानबू झ कर तुम्हें नीचा दिखाने के लिए कभीकभी कटाक्ष कर देता था.’’

 

चांद पर धब्बे – भाग 3 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

शराब और दूसरे नशों की वजह से वह नामर्द हो गया था. मेरे सारे जेवर उस ने जुए में हार दिए थे, मैं फिर भी चुप रही. एक दिन कहने लगा, ‘तू बड़े भैया के साथ सो जा. हमारे घरों में तू जानती है कि यह सब आम है. अगर बच्चा हो गया तो कोई मुझे नामर्द नहीं कहेगा.’ ‘‘बस, मेरा खून खौल उठा. भैया को तो मैं ने कभी मुंह नहीं लगाया था. वे जब आते मुझे मुसकरा कर देखते. पर मेरे आदमी को कभी इस पर एतराज न हुआ. वह मेरे जिस्म की प्यास खुद बुझा नहीं पाया.

मैं खामोशी से यह दर्द भी पी रही थी. पर उस ने मुझे वेश्या बना दिया, यह सब मुझ से सहन न हुआ. ‘‘2-4 बार के बाद बड़े भैया बारबार मुझे बुलाने लगे, तो मैं तिलमिला उठी. मेरे मना करने पर मेरे पति ने उसी गुस्से में मुझे जान से मारना चाहा. मुझ पर झूठा इलजाम लगा दिया कि मैं कुलटा हूं. तब भी मैं चुप रही, इस कारण कि उस की कमजोरी के बारे में दूसरा कोई न जाने. आखिर वह मेरा मर्द था. ‘‘यह बेटी बड़े भैया की देन है, पर न तो बेटी जानती है और न भैया. उन्होंने न जाने कितनों से खेला है. कितनों से बच्चे किए हैं. बड़ी भाभी जानती हैं, पर चुप रहती हैं. मैं ने एक दिन बड़े भैया को मना किया, तो उन्होंने उबलता दूध मुझ पर डाल दिया.

‘‘उस के बाद मेरे मर्द ने खुदकुशी कर ली. मैं घर छोड़ कर निकल आई और यहां सब से यही कहा कि सोमी मेरे मर्द की बेटी है.’’ ‘‘ओह माया,’’ पद्मा के मुंह से सिर्फ एक गहरी सांस निकल गई. इस औरत की कुरबानी ने तो उसे हिला कर रख दिया था. माया आगे बोली, ‘‘मैं ने सोमी के साथ जीने का रास्ता तलाश लिया है. फिर छोटी बहू, उस के साथ उस पुरानी राह पर लौटना मुझे मंजूर न था. सोमी पढ़ रही है. पढ़ कर कोई ट्रेनिंग करा दूंगी तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी. वह कुछ बन जाए तो समझूंगी कि मेरी कुरबानी बेकार नहीं गई.’’ ‘‘चाय बन गई है मां. यहीं ले आऊं?’’

सोमी ने पुकारा, तो माया और पद्मा दोनों चौंक गईं. पद्मा ने सोमी की तरफ देखा. उस का मुसकराता चमकता चेहरा सूरज की पहली लाली जैसा लुभावना लग रहा था. बादलों से सूरज भी बाहर निकल आया था. घर लौटते समय माया और उस की बेटी भी नाव तक छोड़ने आईं. कई बार इच्छा हुई कि पर्स खोल कर उस की लड़की के हाथ पर कुछ रखने की, पर बारबार मांबेटी के चेहरे पर छाई खुशी पद्मा को रोक देती. पद्मा उन की राह का रोड़ा नहीं बनना चाहती थी. उस के पास एक दौलत थी,

अपनी इज्जत और हौसले की. और उस के साथ थी उस की बेटी, पद्मा की जेठ की बेटी. झील में काफी दूर आने पर भी सोमी का हिलता हाथ और माया के दुपट्टे का उड़ता हिस्सा पद्मा को देर तक नजर आता रहा. उस के बाद पद्मा न जाने कितनी ही बार माया के गांव गई और न जाने क्या लगता था कि सोमी को उस ने अपनी बेटी की तरह पालना शुरू कर दिया. पद्मा ने यह बात उसे नहीं बताई, क्योंकि कोई फायदा नहीं था.

तांती – भाग 1 : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

चलतेचलते रामदीन के पैर ठिठक गए. उस का ध्यान कानफोड़ू म्यूजिक के साथ तेज आवाज में बजते डीजे की तरफ चला गया. फिल्मी धुनों से सजे ये भजन उस के मन में किसी भी तरह से श्रद्धा का भाव नहीं जगा पा रहे थे. बस्ती के चौक में लगे भव्य पंडाल में नौजवानों और बच्चों का जोश देखते ही बनता था. रामदीन ने सुना कि लोक गायक बहुत ही लुभावने अंदाज में नौलखा बाबा की महिमा गाता हुआ उन के चमत्कारों का बखान कर रहा था.

रामदीन खीज उठा और सोचने लगा, ‘बस्ती के बच्चों को तो बस जरा सा मौका मिलना चाहिए आवारागर्दी करने का… पढ़ाईलिखाई छोड़ कर बाबा की महिमा गा रहे हैं… मानो इम्तिहान में यही उन की नैया पार लगाएंगे…’ तभी पीछे से रामदीन के दोस्त सुखिया ने आ कर उस की पीठ पर हाथ रखा, ‘‘भजन सुन रहे हो रामदीन. बाबा की लीला ही कुछ ऐसी है कि जो भी सुनता है बस खो जाता है. अरे, जिस के सिर पर बाबा ने हाथ रख दिया समझो उस का बेड़ा पार है.’’

रामदीन मजाकिया लहजे में मुसकरा दिया, ‘‘तुम्हारे बाबा की कृपा तुम्हें ही मुबारक हो. मुझे तो अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा है. बस, ये सलामत रहें,’’ रामदीन ने अपने मजबूत हाथों को मुट्ठी बना कर हवा में लहराया. सुखिया को रामदीन का यों नौलखा बाबा की अहमियत को मानने से इनकार करना बुरा तो बहुत लगा मगर आज कुछ कड़वा सा बोल कर वह अपना मूड खराब नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और दोनों बस्ती की तरफ चल दिए.

विनोबा बस्ती में चहलपहल होनी शुरू हो गई थी. नौलखा बाबा का सालाना मेला जो आने वाला है. शहर से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर देहाती अंचल में बनी बाबा की टेकरी पर हर साल यह मेला लगता है. 10 दिन तक चलने वाले इस मेले की रौनक देखते ही बनती है. रामदीन को यह सब बिलकुल भी नहीं सुहाता था. पता नहीं क्यों मगर उस का मन यह बात मानने को कतई तैयार नहीं होता कि किसी तथाकथित बाबा के चमत्कारों से लोगों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं. अरे, जिंदगी में अगर कुछ पाना है तो अपने काम का सहारा लो न. यह चमत्कारवमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता…

रामदीन बस्ती में सभी को समझाने की कोशिश किया करता था मगर लोगों की आंखों पर नौलखा बाबा के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि उस की सारी दलीलें वे हवा में उड़ा देते थे. बाबा के सालाना मेले के दिनों में तो रामदीन से लोग दूरदूर ही रहते थे. कौन जाने, कहीं उस की रोकाटोकी से कोई अपशकुन ही न हो जाए…

विनोबा बस्ती से हर साल बाल्मीकि मित्र मंडल अपने 25-30 सदस्यों का दल ले कर इस मेले में जाता है. सुखिया की अगुआई में रवानगी से पहली रात बस्ती में बाबा के नाम का भव्य जागरण होता है जिस में संघ को अपने सफर पर खर्च करने के लिए भारी मात्रा में चढ़ावे के रूप में चंदा मिल जाता है. अलसुबह नाचतेगाते भक्त अपने सफर पर निकल पड़ते हैं. इस साल सुखिया ने रामदीन को अपनी दोस्ती का वास्ता दे कर मेले में चलने के लिए राजी कर ही लिया… वह भी इस शर्त पर कि अगर रामदीन की मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर सुखिया कभी भी उसे अपने साथ मेले में चलने की जिद नहीं करेगा…

अपने दोस्त का दिल रखने और उस की आंखों पर पड़ी अंधश्रद्धा की पट्टी हटाने की खातिर रामदीन ने सुखिया के साथ चलने का तय कर ही लिया, मगर शायद वक्त को कुछ और ही मंजूर था. इन्हीं दिनों ही छुटकी को डैंगू हो गया और रामदीन के लिए मेले में जाने से ज्यादा जरूरी था छुटकी का बेहतर इलाज कराना… सुखिया ने उसे बहुत टोका कि क्यों डाक्टर के चक्कर में पड़ता है, बाबा के दरबार में माथा टेकने से ही छुटकी ठीक हो जाएगी मगर रामदीन ने उस की एक न सुनी और छुट्की का इलाज सरकारी डाक्टर से ही कराया.

रामदीन की इस हरकत पर तो सुखिया ने उसे खुल्लमखुल्ला अभागा ऐलान करते हुए कह ही दिया, ‘‘बाबा का हुक्म होगा तो ही दर्शन होंगे उन के… यह हर किसी के भाग्य में नहीं होता… बाबा खुद ही ऐसे नास्तिकों को अपने दरबार में बुलाना नहीं चाहते जो उन पर भरोसा नहीं करते…’’ रामदीन ने दोस्त की बात को बचपना समझते हुए टाल दिया.

सुखिया और रामदीन दोनों ही नगरनिगम में सफाई मुलाजिम हैं. रामदीन ज्यादा तो नहीं मगर 10वीं जमात तक स्कूल में पढ़ा है. उसे पढ़ने का बहुत शौक था मगर पिता की हुई अचानक मौत के बाद उसे स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा और वह परिवार चलाने के लिए नगरनिगम में नौकरी करने लगा. रामदीन ने केवल स्कूल छोड़ा था, पढ़ाई नहीं… उसे जब भी वक्त मिलता था, वह कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता था. खुद का स्कूल छूटा तो क्या, वह अपने बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता था.

सुखिया और रामदीन में इस नौलखा बाबा के मसले को छोड़ दिया जाए तो खूब छनती है. दोनों की पत्नियां भी आपस में सहेलियां हैं और आसपास के फ्लैटों में साफसफाई का काम कर के परिवार चलाने में अपना सहयोग देती हैं. एक दिन रामदीन की पत्नी लक्ष्मी को अपने माथे पर बिंदी लगाने वाली जगह पर एक सफेद दाग सा दिखाई दिया. उस ने इसे हलके में लिया और बिंदी थोड़ी बड़ी साइज की लगाने लगी.

 

तांती – भाग 3 : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

मंदिर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो चली थी. पुजारीजी अपने कमरे में एयरकंडीशनर चला कर आराम फरमा रहे थे. उन्हें अपने आराम में खलल अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने रामदीन को पहचाना ही नहीं, फिर लक्ष्मी को देख कर खिल उठे.

अपने बिलकुल पास बिठा कर तांती को छूने के बहाने उस का हाथ पकड़ते हुए बोले, ‘‘अरे तुम… क्या, तुम्हारा दाग तो बढ़ रहा है.’’ ‘‘वही तो मैं भी जानना चाहता हूं. आप ने तो कितने भरोसे के साथ कहा था कि यह ठीक हो जाएगा,’’ रामदीन जरा तेज आवाज में बोला.

‘‘लगता है कि तुम ने तांती के नियमों की पालना नहीं की,’’ पुजारीजी ने अब भी लक्ष्मी का हाथ थाम रखा था. ‘‘अब इस में भी नियमकायदे होते हैं क्या?’’ इस बार लक्ष्मी अपना हाथ छुड़ाते हुए धीरे से बोली. ‘‘और नहीं तो क्या. क्या जो दक्षिणा तुम ने बाबा के चरणों में चढ़ाई थी वह दान का पैसा नहीं था?’’ पुजारी ने पूछा.

‘‘दान का पैसा… क्या मतलब?’’ रामदीन ने पूछा. ‘‘मतलब यह कि तांती दान के पैसे से ही बांधी जाती है, वरना उस का असर नहीं होता. तुम एक काम करो, अपने पासपड़ोसियों और रिश्तेदारों से कुछ दान मांगो और वह रकम दक्षिणा के रूप में यहां भेंट करो… तब तांती सफल होगी,’’ पुजारीजी ने समझाया.

‘‘यानी हाथ पर बंधी यह तांती बेकार हो गई,’’ कहते हुए लक्ष्मी परेशान हो गई. ‘‘हां, अब इस का कोई मोल नहीं रहा. अब तुम जाओ और जब दक्षिणा लायक दान जमा हो जाए तब आ जाना… नई तांती बांधेंगे. और हां, नास्तिक लोगों को जरा इस से दूर ही रखना,’’ पुजारी ने कहा तो रामदीन उस का मतलब समझ गया कि उस का इशारा किस की तरफ है.

दोनों अपना सा मुंह ले कर लौट आए. सुखिया को जब पता चला तो वह बोला, ‘‘ठीक ही तो कह रहे हैं पुजारीजी… तांती भी कोई जेब के पैसों से बांधता है क्या, तुम्हें इतना भी नहीं पता?’’

तांती के लिए दान जमा करतेकरते फिर से बाबा के सालाना मेले के दिन आ गए. इस बार सुखिया के रामदीन से कह दिया कि चाहे नगरनिगम से लोन लेना पड़े मगर उसे और भाभी को पैदल संघ के साथ चलना ही होगा. रामदीन जाना तो नहीं चाहता था, उस ने एक बार फिर से लक्ष्मी को समझाने की कोशिश की कि चल कर डाक्टर को दिखा आए मगर लक्ष्मी को तांती की ताकत पर पूरा भरोसा था. वह इस बार पूरे विधिविधान के साथ इसे बांधना चाहती थी ताकि नाकाम होने की कोई गुंजाइश ही न रहे.

रामदीन को एक बार फिर अपनों के आगे हारना पड़ा. हमेशा की तरह रातभर के जागरण के बाद तड़के ही नाचतेगाते संघ रवाना हो गया. बस्ती पार करते ही मेन सड़क पर आस्था का सैलाब देख कर लक्ष्मी की आंखें हैरानी से फैल गईं. उस ने रामदीन की तरफ कुछ इस तरह से देखा मानो उसे अहसास दिला रही हो कि इतने सालों से वह क्या खोता आ रहा है. दूर निगाहों की सीमा तक भक्त ही भक्त… भक्ति की ऐसी हद उस ने पहली बार ही देखी थी.

अगले ही चौराहे पर सेवा शिविर लगा था. संघ को देखते ही सेवादार उन की ओर लपके और चायकौफी की मनुहार करने लगे. सब ने चाय पी और आगे चले. कुछ ही दूरी पर फ्रूट जूस और चाट की सेवा लगी थी. सब ने जीभर कर खाया और कुछ ने महंगे फल अपने साथ लाए झोले के हवाले किए. पानी का टैंकर तो पूरे रास्ते चक्कर ही लगा रहा था. दिनभर तरहतरह की सेवा का मजा लेते हुए शाम ढलने पर संघ ने वहीं सड़क के किनारे अपना तंबू लगाया और सभी आराम करने लगे.

तभी अचानक कुछ सेवादार आ कर उन के पैर दबाने लगे. लक्ष्मी के लिए यह सब अद्भुत था. उसे वीआईपी होने जैसा गुमान हो रहा था. उधर रामदीन सोच रहा था, ‘लक्ष्मी की मनोकामना पूरी होगी या नहीं पता नहीं मगर बच्चों की कई अधूरी कामनाएं जरूर पूरी हो जाएंगी. ऐसेऐसे फल, मिठाइयां, शरबत और मेवे खाने को मिल रहे हैं जिन के उन्होंने केवल नाम ही सुने थे.’ 10 दिन मौजमस्ती करते, सेवा करवाते आखिर पहुंच ही गए बाबा के धाम… 3 किलोमीटर लंबी कतार देख कर रामदीन के होश उड़ गए. दर्शन होंगे या नहीं… वह अभी सोच ही रहा था कि सुखिया ने कहा, ‘‘वह देख. ऊपर बाबा के मंदिर की सफेद ध्वजा के दर्शन कर ले… और अपनी यात्रा को सफल मान.’’

‘‘मगर दर्शन?’’ ‘‘मेले में ऐसे ही दर्शन होते हैं… चल पुजारीजी के पास भाभी को ले कर चलते हैं,’’ सुखिया ने समझाया.

पुजारीजी बड़े बिजी थे मगर लक्ष्मी को देखते ही खिल उठे. वे बोले, ‘‘अरे तुम. आओआओ… इस बार विधिवत तरीके से तुम्हें तांती बांधी जाएगी…’’ फिर अपने सहायक को इशारा कर के लक्ष्मी को भीतर आने को कहा. रामदीन और सुखिया को बाहर ही इंतजार करने को कहा गया. काफी देर हो गई मगर लक्ष्मी अभी तक बाहर नहीं आई थी. सुखिया शांति और बच्चों को मेला घुमाने ले गया.

रामदीन परेशान सा वहीं बाबा के कमरे में चहलकदमी कर रहा था. एकदो बार उस ने भीतर कोठरी में झांकने की कोशिश भी की मगर बाबा के सहायकों ने उसे कामयाब नहीं होने दिया. अब तो उस का सब्र जवाब देने लगा था. मन अनजाने डर से घबरा रहा था. रामदीन हिम्मत कर के कोठरी के दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाए. सहायकों ने उसे रोकने की कोशिश की मगर रामदीन उन्हें धक्का देते हुए कोठरी में घुस गया.

कोठरी के भीतर नीम अंधेरा था. एक बार तो उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया. धीरेधीरे नजर साफ होने पर उसे जो सीन दिखाई दिया वह उस के होश उड़ाने के लिए काफी था. लक्ष्मी अचेत सी एक तख्त पर लेटी थी. वहीं बाबा अंधनगा सा उस के ऊपर तकरीबन झुका हुआ था. रामदीन ने बाबा को जोर से धक्का दिया. बाबा को इस हमले की उम्मीद नहीं थी, वह धक्के के साथ ही एक तरफ लुढ़क गया.

रामदीन के शोर मचाने पर बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और गुस्साए लोगों ने बाबा और उस के चेलों की जम कर धुनाई कर दी. खबर लगते ही मेले का इंतजाम देख रही पुलिस आ गई और रामदीन की लिखित शिकायत पर बाबा को गिरफ्तार कर के ले गई.

तब तक लक्ष्मी को भी होश आ चुका था. घबराई हुई लक्ष्मी को जब पूरी घटना का पता चला तो वह शर्म और बेबसी से फूटफूट कर रो पड़ी. रामदीन ने उसे समझाया, ‘‘तू क्यों रोती है पगली. रोना तो अब उस पाखंडी को है जो धर्म और आस्था की आड़ ले कर भोलीभाली औरतों की अस्मत से खेलता आया है.’’

सुखिया को जब पता चला तो वह दौड़ादौड़ा पुजारी के कमरे की तरफ आया. वह भी इस सारे मामले के लिए अपने आप को कुसूरवार ठहरा रहा था क्योंकि उसी की जिद के चलते रामदीन न चाहते हुए भी यहां आया था और लक्ष्मी इस वारदात का शिकार हुई थी. सुखिया ने रामदीन से माफी मांगी तो रामदीन ने उसे गले से लगा कर कहा, ‘‘तुम क्यों उदास होते हो? अगर आज हम यहां न आते तो यह हवस का पुजारी पुलिस के हत्थे कैसे चढ़ता? इसलिए खुश रहो… जो हुआ अच्छा हुआ…’’

‘‘हम घर जाते ही किसी अच्छे डाक्टर को यह सफेद दाग दिखाएंगे,’’ लक्ष्मी ने अपने हाथ पर बंधी तांती तोड़ कर फेंकते हुए कहा और सब घर जाने के लिए बसस्टैंड की तरफ बढ़ गए. शांति अपने बेटे हरिया की शक्ल के पीछे झांकती पुजारी की परछाईं को पहचानने की कोशिश कर रही थी.

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