पछतावा: थर्ड डिगरी का दर्द- भाग 2

‘बंद करो अपनी बकवास. मयंक तुम्हारे जैसा अपराधी नहीं, बल्कि वह एक सच्चा इनसान है. इस की मैं तहेदिल से कद्र करती हूं. तुम यहां से जाते हो कि पुलिस को बुलाऊं…’

‘ओह, मैं तेरे लिए इतना बेगाना हो गया हूं नैना कि पुलिस को बुलाने की धमकी दे रही हो? खैर, जाता हूं मैं. अगर मेरे प्रति थोड़ी सी भी ममता और प्यार हो, तो कल ओम सिनेमा घर के पास दोपहर के शो के दौरान मिलना…’ इतना बोल कर रतन वहां से चला गया.

‘‘अरे रतन, किन खयालों में डूबे हो?’’ अचानक नेता सुरेश राय लौकअप में बंद रतन को देखते ही बोल पड़े.

मंत्री सुरेश राय को देखते ही रतन अपने खयालों की दुनिया से वापस लौटा और अपने ऊपर होने वाले जोरजुल्म से बचने के लिए गुजारिश करते हुए बोला, ‘‘सर, मुझे किसी तरह इंस्पैक्टर से बचा लीजिए, नहीं तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा…’’

‘‘अरे रतन, तू बेकुसूर है. मेरे पास तेरी बेगुनाही के पुख्ता सुबूत हैं. एसपी ने इंस्पैक्टर छेत्री को फोन कर तुम्हें छोड़ने के लिए आदेश दे दिया है.’’

ठीक उसी समय इंस्पैक्टर राजन छेत्री आया और लौकअप पर तैनात सिपाही से रतन को छोड़ देने के लिए कहा.

बाहर निकलने के बाद मंत्री ने रतन को अपनी गाड़ी में बिठाया. तब रतन मंत्री के एहसानों के दबाव में बोला, ‘‘सर, मैं आप का यह उपकार जिंदगीभर नहीं भूल पाऊंगा.’’

‘‘अरे, कैसा उपकार? मैं तेरे काम आ गया तो बदले में तू भी तो मेरा काम कर देता है. तेरे जैसे जोशीले नौजवान मुझे बहुत पसंद हैं…’’ गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे हुए मंत्री सुरेश राय ने रतन की पीठ को धीरे से थपथपाया और फिर कहा, ‘‘तुम्हारी मदद से ही तो मैं अपने दुश्मनों के दांत खट्टे करता हूं.’’

उन की गाड़ी बीरपाड़ा शहर से काफी दूर निकल गई थी. अचानक ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, दरवाजा खोल कर रतन बाहर निकल गया था. जहां सड़क पर एक बेबस लड़की ‘बचाओ… बचाओ…’ की आवाज लगाते हुए दौड़ रही थी और उस के पीछे 4-5 गुंडे लगे हुए थे.

यह देख कर मंत्रीजी के हाथपैर फूल गए. उन्होंने घबराते हुए रतन को आवाज लगाई, ‘‘अरे रतन, उन के पीछे क्यों भागे जा रहे हो. मेरी जान आफत में डालोगे क्या? ड्राइवर तुम्हें भी कई बार कह चुका हूं कि रात में गाड़ी अनजान जगह पर मत रोको…’

‘‘सौरी सर,’’ ड्राइवर ने माफी मांगी, लेकिन रतन पर मंत्री की बातों का कोई असर नहीं पड़ा.

रतन ने दौड़ रहे एक गुंडे को पकड़ा और उस के पेट में अपनी लात से 2-4 किक जमाई. वह तिलमिला उठा. वार करने की जगह अपनी जान बचा कर चाय बागान में वह भाग गया. रतन दूसरे अपराधियों की ओर बढ़ा, लेकिन वे सब अपने को फंसते देख कर नौ दो ग्यारह हो गए.

सड़क पर दौड़ रही लड़की हांफती हुई धम्म से गिर गई. रतन ने उसे अपने कंधे पर उठाया और गाड़ी की पिछली सीट पर डाल दिया.

‘‘अरे रतन, यह क्या चक्कर है. तुम्हें लड़की की जरूरत थी तो मुझ से बोला होता,’’ मंत्री सुरेश राय ने उस से अपना गुस्सा इजहार किया.

‘‘सर, गलत काम जरूर करता हूं, लेकिन शराब और शबाब से दूर रहता हूं. अनजान जगह पर किसी बेबस लड़की की जान बचाना कोई अपराध तो नहीं है. इनसानियत के नाते मैं ने अपना कर्तव्य निभाया है.’’

‘‘देखो, फालतू बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है. हक और धर्म की बातें हम अपने भाषणों में करते हैं, अपनी जिंदगी में नहीं. अब इस लड़की को कहां छोड़ोगे?’’

‘‘इसे सिलीगुड़ी के किसी अस्पताल में ले जाएंगे सर,’’ विधान मार्ग पर बने सुभाषचंद्र नर्सिंग होम में उस अनजान लड़की को इलाज के लिए भरती करा दिया गया. साथ ही, इस की सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी गई.

जब लड़की पर रतन की नजर गई, उस का कलेजा धकधक करने लगा. वह तो नैना थापा है, उसे देखने के बाद वह पत्थर की तरह वहीं खड़ा रह गया. कभी खून से लथपथ उस के सलवारसूट को देख रहा था तो कभी उस के मुरझाए चेहरे को. उसे सामूहिक हवस का शिकार बनाया था. दूसरे ही पल रतन के मन ने कहा, ‘यह लड़की तो मुझ से नफरत करती है. कहीं होश में आने के बाद कोई नई मुसीबत न खड़ी कर दे. अब यहां से निकलने में ही भलाई है.’

‘‘रतन, इस लड़की के पीछे तो तू ने अपना सारा काम चौपट कर दिया. पहले इसे उन बदमाशों से बचाया, उस के बाद अस्पताल में भरती कराया और अब इस के चेहरे पर टकटकी लगाए खड़ा है. आखिर क्या बात है?’’ नर्सिंग होम में देर होने पर नेता सुरेश राय ने रतन को टोका. ‘‘नहीं, नहीं सर,’’ वह हड़बड़ा कर बोल उठा और उन के साथ बाहर निकल गया. साथ ही जातेजाते रतन सोचने लगा, ‘इस लड़की का क्या भरोसा, कब क्या आरोप लगा दे, इस से दूर रहने में ही भलाई है.’

जब नैना को होश आया तो एक बार रतन का चेहरा उस के दिमाग में नाच उठा. टाइगर हिल में दी गई उस की चेतावनी उस के मन को झकझोरने लगी. उसे अपनेआप पर पछतावा होने लगा, क्यों उस ने आंख मूंद कर मयंक पर भरोसा किया. जिस ने उस की इज्जत लूट ली. उस के साथियों ने उस का सबकुछ छीन लिया.

नैना की आंखें भर आईं. उस को अंदर ही अंदर घुटन महसूस होने लगी. वह सोचने लगी कि उस से शैतान और इनसान को पहचाने में कैसे भूल हो गई?

अचानक नैना के सामने रतन और मयंक की तसवीरें उभर आईं. दोनों ही अपराधी थे. मयंक कई मासूम लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद उन की हत्या कर देता था, तो रतन कई बार बम धमाके कर चुका था. एक हैवान था, तो दूसरा शैतान. दोनों जनता के दुश्मन थे.

अस्पताल से घर आने के बाद भी नैना को चैन नहीं मिला. लोकलाज के डर से उस ने कालेज जाना बंद कर दिया था. दिनरात उस के घर में जमघट लगाने वाली सहेलियां, अब उस से बात करने में भी कतराती थीं. हमदर्दी जताने के बजाय तरहतरह के ताने देती थीं.

एक दिन नैना के घर रतन पहुंच गया. उस समय नैना की आंखों में आंसू थे. नैना की हालत देख कर रतन भी रोना आ गया.

रतन ने अपनी डबडबाई आंखों को रूमाल से पोंछा और फिर उस से बोला, ‘‘नैना प्लीज… मत रोओ, चाहे मयंक को सजा हो भी गई तो मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा…’’

लिली: उस लड़की पर अमित क्यो प्रभावित था ?-भाग 2

अमित ने इस बार कोई सवाल नहीं किया, क्योंकि वह जान चुका था कि लिली इसे अपना पर्सनल मामला कह कर चुप करा देगी.

अमित सोचने लगा यह कैसा संबंध है कि मेरी हर चीज पर लिली का हक है. बदले में कुछ पूछता हूं तो यह कह कर मुंह बंद करा देती है कि मैं तुम्हारी बीवी नहीं?

एकबारगी अमित का मन हुआ कि वह लिली से साफ साफ  कह दे कि या तो वह उस से शादी कर ले, नहीं तो अपना बोरियाबिस्तर समेट कर चली जाए.

ऐसा करने की वह सोच ही रहा था कि अगली शाम लिली ने उसे एक शर्ट खरीद कर तोहफे में दी.

‘‘यह क्या…?’’ अमित ने सवाल किया.

‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ लिली बोली, तो अमित जज्बाती हो गया.  उस ने लिली को बांहों में भर लिया. अमित का सवाल सवाल ही रह गया.

अगले दिन रविवार था. लिली अपनी मां के पास जाने लगी.

‘‘क्या मैं तुम्हारी मां से नहीं मिल सकता?’’ अमित बोला, तो लिली सकपका गई.

‘‘अभी समय नहीं आया है,’’ कह कर लिली चली गई. एक ही छुट्टी मिलती थी, वह भी लिली अपनी मां के पास गुजार देती थी. अमित दिनभर बोर होता. आज उस ने अकेले ही घूमने का मन बनाया. मरीन ड्राइव पर बैठा वह समुद्र की लहरों को निहार रहा था कि लिली का फोन आया.

‘अमित मु झे एक लाख रुपए की सख्त जरूरत है. अभी और इसी वक्त मेरे खाते में डाल दो. सारी बातें आने पर बताऊंगी,’ कह कर लिली ने फोन काट दिया. लिली ने अपने एकाउंट की डिटेल भेजी थी.

अमित ने बिना देर किए उतने रुपए ट्रांसफर कर दिए.

लिली जब लौटी, तो बदहवास थी मानो किसी बहुत बड़ी मुसीबत से छूट कर आई हो.

‘‘तबीयत तो ठीक है न…?’’ अमित ने पूछा.

‘‘नहीं, आज मैं औफिस नहीं जाऊंगी,’’ कह कर लिली सो गई.

अमित अकेले ही काम पर चला गया. शाम को वह लौटा, तो लिली के लिए पिज्जा लेता आया. पिज्जा देख कर लिली खुश हो गई.

दोनों पिज्जा खाने लगे. बीच में अमित ने रुपयों की बात छेड़ी.

‘‘रुपए तुम को वापस मिल जाएंगे,’’ लिली के इस कथन से अमित संतुष्ट नहीं था. लिली ने भांप लिया. उस ने उस के मुंह में पिज्जा डालते हुए कहा, ‘‘डार्लिंग, क्यों परेशान होते हो? क्या अपनी लिली के लिए इतना भी नहीं कर सकते?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. मैं सोच रहा था कि ऐसे कब तक चलेगा?’’

‘‘मैं सम झी नहीं?’’ लिली बोली.

‘‘मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘फिर वही शादी का रोना. अमित तुम सम झने की कोशिश करो. जब तक हम दोनों एकदूसरे को सम झ नहीं लेते, शादी का कोई मतलब नहीं है.’’

तभी लिली के मोबाइल की घंटी बजी. वह पिज्जा बीच में खाना छोड़ कर बरामदे में आई. अमित सोफे पर बैठा लिली का इंतजार करने लगा. तकरीबन 15 मिनट बाद वह आई.

‘‘किस का फोन था?’’ अमित से रहा न गया.

‘‘मेरे एक्स बौयफ्रैंड का फोन था.’’

‘‘क्या तुम्हारा किसी और से भी संबंध था?’’

‘‘हां, यह तो आम बात है. मैं उस के साथ एक साल तक रिलेशन में थी.’’

अमित को यह जान कर धक्का  सा लगा.

दोनों को एकसाथ रहते हुए सालभर से ऊपर हो चुका था. न लिली अमित को अपने मांबाप से मिलवाती, न ही शादी के लिए उस के मन में कोई  खयाल आता.

आजिज आ कर एक दिन अमित ने साफसाफ लफ्जों में शादी करने के  लिए कहा.

‘‘ठीक है, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं, मगर हम रहेंगे कहां? क्या हमारे पास कोई अपना फ्लैट है?’’

‘‘शादी से फ्लैट का क्या ताल्लुक?’’ अमित के सवाल पर लिली तुनक उठी, ‘‘जब तक अपना फ्लैट नहीं होगा, मैं शादी नहीं करूंगी.’’

अमित की लिली के बगैर जिंदगी की कल्पना भी बेमानी थी. वह उस के दिलोदिमाग पर छा चुकी थी. उस ने काफी दिमाग दौड़ाया. बनारस में पुश्तैनी मकान था. क्यों न उसे बेच कर मुंबई में फ्लैट खरीद लिया जाए? विचार बुरा नहीं था. लिली को अमित का आइडिया पसंद आया.

अमित अगले दिन औफिस से छुट्टी ले कर बनारस आया.

‘‘तुम ने कैसे सोच लिया कि हम पुश्तैनी मकान बेच कर मुंबई में रहने लगेंगे? रही शादी की बात, तो यहीं कोई लड़की देख कर शादी कर लो. मु झे वह लड़की बिलकुल पसंद नहीं है,’’ अमित के पापा ने साफ शब्दों में कहा.

‘‘पापा, हम कई महीनों से लिव  इन रिलेशनशिप में हैं,’’ सुनते ही पापा भड़क गए.

‘‘शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए. कैसी बेशर्म लड़की है, जो बिना शादी किए तुम्हारे साथ रहती है? और कैसे मांबाप हैं उस के, जो लड़की को बिना शादी किए किसी गैर लड़के के साथ रहने की इजाजत दे दी?’’

अमित अपनी मां की तरफ देख कर लाचार भरे लहजे में बोला, ‘‘मम्मी, तुम्हीं पापा को सम झाओ. आजकल ऐसे ही चलता है. पहले हम साथ रह कर एकदूसरे को सम झते हैं, फिर ठीक लगता है तो शादी करते हैं, वरना एकदूसरे से अलग हो जाते हैं.’’

एक घड़ी औरत : प्रिया की जिंदगी की कहानी- भाग 1

आतंकित और हड़बड़ाई प्रिया ने तकिए के नीचे से टौर्च निकाल कर सामने की दीवार पर रोशनी फेंकी. दीवार की इलैक्ट्रौनिक घड़ी में रेडियम नहीं था, इसलिए आंख खुलने पर पता नहीं चलता था कि कितने बज गए हैं. अलार्म घड़ी खराब हो गई थी, इसलिए उसे दीवार घड़ी का ही सहारा लेना पड़ता था. ‘फुरसत मिलते ही वह सब से पहले अलार्म घड़ी की मरम्मत करवाएगी. उस के बिना उस का काम नहीं चलने का,’ उस ने मन ही मन सोचा. एक क्षण को उसे लगा कि वह औरत नहीं रह गई है, घड़ी बन गई है. हर वक्त घड़ी की सूई की तरह टिकटिक चलने वाली औरत. उस ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि जिंदगी ऐसे जीनी पड़ेगी. पर मजबूरी थी. वह जी रही थी. न जिए तो क्या करे? कहां जाए? किस से शिकायत करे? इस जीवन का चुनाव भी तो खुद उसी ने किया था.

उस ने अपने आप से कहा कि 6 बज चुके हैं, अब उठ जाना चाहिए. शरीर में थकान वैसी ही थी, सिर में अभी भी वैसा ही तनाव और हलका दर्द मौजूद था, जैसा सोते समय था. वह टौर्च ज्यादा देर नहीं जलाती थी. पति के जाग जाने का डर रहता था. पलंग से उठती और उतरती भी बहुत सावधानी से थी ताकि नरेश की नींद में खलल न पड़े. बच्चे बगल के कमरे में सोए हुए होते थे.

जब से अलार्म घड़ी बिगड़ी थी, वह रोज रात को आतंकित ही सोती थी. उसे यह डर सहज नहीं होने देता था कि कहीं सुबह आंख देर से न खुले, बच्चों को स्कूल के लिए देर न हो जाए. स्कूल की बस सड़क के मोड़ पर सुबह 7 बजे आ जाती थी. उस से पहले उसे बच्चों को तैयार कर वहां पहुंचाना पड़ता था. फिर आ कर वह जल्दीजल्दी पानी भरती थी.

अगर पानी 5 मिनट भी ज्यादा देर से आता था तो वह जल्दी से नहा लेती ताकि बरतनों का पानी उसे अपने ऊपर न खर्च करना पड़े. सुबह वह दैनिक क्रियाओं से भी निश्ंिचत हो कर नहीं निबट पाती. बच्चों को जल्दीजल्दी टिफिन तैयार कर के देने पड़ते. कभी वे आलू के भरवां परांठों की मांग करते तो कभी पूरियों के साथ तली हुई आलू की सब्जी की. कभी उसे ब्रैड के मसालाभरे रोल बना कर देने पड़ते तो कभी समय कम होने पर टमाटर व दूसरी चीजें भर कर सैंडविच. हाथ बिलकुल मशीन की तरह काम करते. उसे अपनी सुधबुध तक नहीं रहती थी.

एक दिन में शायद प्रिया रोज दसियों बार झल्ला कर अपनेआप से कहती कि इस शहर में सबकुछ मिल सकता है पर एक ढंग की नौकरानी नहीं मिल सकती. हर दूसरे दिन रानीजी छुट्टी पर चली जाती हैं. कुछ कहो तो काम छोड़ देने की धमकी कि किसी और से करा लीजिए बहूजी अपने काम.

उस की तनख्वाह में से एक पैसा काट नहीं सकते, काटा नहीं कि दूसरे दिन से काम पर न आना तय. सो, कौन कहता है देश में गरीबी है? शोषण है? शोषण तो ये लोग हम मजबूर लोगों का करते हैं. गरीब और विवश तो हम हैं. ये सब तो मस्त लोग हैं.

‘कल भी नहीं आई थी वह. आज भी अभी तक नहीं आई है. पता नहीं अब आएगी भी या मुझे खुद ही झाड़ूपोंछा करना पड़ेगा. इन रानी साहिबाओं पर रुपए लुटाओ, खानेपीने की चीजें देते रहो, जो मांगें वह बिना बहस के उन्हें दे दो. ऊपर से हर दूसरे दिन नागा, क्या मुसीबत है मेरी जान को…’ प्रिया झल्ला कर सोचती जा रही थी और जल्दीजल्दी काम निबटाने में लगी हुई थी.

‘अब महाशय को जगा देना चाहिए,’ सोच कर प्रिया रसोई से कमरे में आई और फिर सोए पति को जगाया, ‘‘उठिए, औफिस को देर करेंगे आप. 9 बजे की बस न मिली तो पूरे 45 मिनट देर हो जाएगी आप को.’’

‘‘अखबार आ गया?’’

‘महाशय उठेंगे बाद में, पहले अखबार चाहिए,’ बड़बड़ाती प्रिया बालकनी की तरफ चल दी जहां रबरबैंड में बंधा अखबार पड़ा होता है क्योंकि अखबार वाले के पास भी इतना समय नहीं होता कि वह सीढि़यां चढ़, दरवाजे के नीचे पेपर खिसकाए.

ट्रे में 2 कप चाय लिए प्रिया पति के पास आ कर बैठ गई. फिर उस ने एक कप उन की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘अखबार में ऐसा क्या होता है जो आप…’’

‘‘दुनिया…’’ नरेश मुसकराए, ‘‘अखबार से हर रोज एक नई दुनिया हमारे सामने खुल जाती है…’’

चाय समाप्त कर प्रिया जल्दीजल्दी बिस्तर ठीक करने लगी. फिर मैले कपड़े ढूंढ़ कर एकत्र कर उन्हें दरवाजे के पीछे टंगे झोले में यह सोच कर डाला कि समय मिलने पर इन्हें धोएगी, पर समय, वह ही तो नहीं है उस के पास.

हफ्तेभर कपड़े धोना टलता रहता कि शायद इतवार को वक्त मिले और पानी कुछ ज्यादा देर तक आए तो वह उन्हें धो डालेगी पर इतवार तो रोज से भी ज्यादा व्यस्त दिन…बच्चे टीवी से चिपके रहेंगे, पति महाशय आराम से लेटेलेटे टैलीविजन पर रंगोली देखते रहेंगे.

‘‘इस मरी रंगोली में आप को क्या मजा आता है?’’ प्रिया झल्ला कर कभीकभी पूछ लेती.

‘‘बंदरिया क्या जाने अदरक का स्वाद? जो गीतसंगीत पुरानी फिल्मों के गानों में सुनने को मिलता है, वह भला आजकल के ड्रिल और पीटी करते कमर, गरदन व टांगे तोड़ने वाले गानों में कहां जनाब.’’

प्रिया का मन किया कि कहे, बंदरिया तो अदरक का स्वाद खूब जान ले अगर उस के पास आप की तरह फुरसत हो. सब को आटेदाल का भाव पता चल जाए अगर वह घड़ी की सूई की तरह एक पांव पर नाचती हुई काम न करे. 2 महीने पहले वह बरसात में भीग गई थी. वायरल बुखार आ गया था तो घरभर जैसे मुसीबत में फंस गया था. पति महाशय ही नहीं झल्लाने लगे थे बल्कि बच्चे भी परेशान हो उठे थे कि आप कब ठीक होंगी, मां. हमारा बहुत नुकसान हो रहा है आप के बीमार होने से.

‘‘सुनिए, आज इतवार है और मुझे सिलाई के कारीगरों के पास जाना है. तैयार हो कर जल्दी से स्कूटर निकालिए, जल्दी काम निबट जाएगा, बच्चे घर पर ही रहेंगे.’’

‘‘फिर शाम को कहोगी, हमें आर्ट गैलरी पहुंचाइए, शीलाजी से बात करनी है.’’

सुन कर सचमुच प्रिया चौंकी, ‘‘बाप रे, अच्छी याद दिलाई. मैं तो भूल ही गई थी यह.’’

नरेश से प्रिया की मुलाकात अचानक ही हुई थी. नगर के प्रसिद्ध फैशन डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट से प्रिया को डिगरी मिलते ही एक कंपनी में नौकरी मिल गई. दिल लगा कर काम करने के कारण वह विदेश जाने वाले सिलेसिलाए कपड़ों की मुख्य डिजाइनर बन गई.

नरेश अपनी किसी एक्सपोर्टइंपोर्ट की कंपनी का प्रतिनिधि बन कर उस कंपनी में एक बड़ा और्डर देने आए तो मैनेजर ने उन्हें प्रिया के पास भेज दिया. नरेश से प्रिया की वह पहली मुलाकात थी. देर तक दोनों उपयुक्त नमूनों आदि पर बातचीत करते रहे. अंत में सौदा तय हो गया तो वह नरेश को ले कर मैनेजर के कक्ष में गई.

फिर जब वह नरेश को बाहर तक छोड़ने आईर् तो नरेश बोले, ‘आप बहुत होशियार हैं, एक प्रकार से यह पूरी कंपनी आप ही चला रही हैं.’

‘धन्यवाद जनाब,’ प्रिया ने जवाब दिया. प्रशंसा से भला कौन खुश नहीं होता.

शायद : पैसों के बदले मिला अपमान- भाग 1

पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर सुवीरा की तेजहीन आंखों में चमक लौट आती थी. दूर तक भटकती निगाहें किसी को देखतीं और फिर पलकें बंद हो जातीं.

सिरहाने बैठे गिरीशजी से उन की बहू सीमा ने एक बार फिर जिद करते हुए कहा था, ‘‘पापा, आप समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे? जब तक नानीजी और सोहन मामा यहां नहीं आएंगे, मां के प्राण यों ही अधर में लटके रहेंगे. इन की यह पीड़ा अब मुझ से देखी नहीं जाती,’’ कहतेकहते सीमा सिसक उठी थी.

बरसों पहले का वह दृश्य गिरीशजी की आंखों के सामने सजीव हो उठा जब मां और भाई के प्रति आत्मीयता दर्शाती पत्नी को हर बार बदले में अपमान और तिरस्कार के दंश सहते उन्होंने ऐसी कसम दिलवा दी थी जिस की सुवीरा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘आज के बाद अगर इन लोगों से कोई रिश्ता रखोगी तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगी.’’

बरसों पुराना बीता हुआ वह लम्हा धुलपुंछ कर उन के सामने आ गया था. अतीत के गर्भ में बसी उन यादों को भुला पाना इतना सहज नहीं था. वैसे भी उन रिश्तों को कैसे झुठलाया जा सकता था जो उन के जीवन से गहरे जुड़े थे.

आंखें बंद कीं तो मन न जाने कब आमेर क्लार्क होटल की लौबी में जा पहुंचा और सामने आ कर खड़ी हो गई सुंदर, सुशील सुवीरा. एकदम अनजान जगह में किसी आत्मीय जन का होना मरुस्थल में झील के समान लगा था उन्हें. मंदमंद हास्य से युक्त, उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को बहुत देर तक निहारते रहे थे. फिर धीरे से बोले, ‘आप का प्रस्तुतिकरण सर्वश्रेष्ठ था.’

‘धन्यवाद,’ प्रत्युत्तर में सुवीरा बोली तो गिरीश अपलक उसे देखते ही रह गए थे. इस पहली भेंट में ही सुवीरा उन के हृदय की साम्राज्ञी बन गई थी. फिर तो उसी के दायरे में बंधे, उस के इर्दगिर्द घूमते हुए हर पल उस की छोटीछोटी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए इतना तो वह समझ ही गए थे कि उन का यह आकर्षण एकतरफा नहीं था. सुवीरा भी उन्हें दिल की अतल गहराइयों से चाहने लगी थी, पर कह नहीं पा रही थी. अपने चारों तरफ सुवीरा ने कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी सीमा बांध रखी थी जिसे तोड़ना तो दूर लांघना भी उस के लिए मुश्किल था.

लगभग 1 माह बाद दफ्तर के काम से गिरीश दिल्ली पहुंचे तो सीधे सुवीरा से मिलने उस के घर चले गए थे. बातोंबातों में उन्होंने अपने प्रेम प्रसंग की चर्चा सुवीरा की मां से की तो अलाव सी सुलग उठी थीं वह.

‘बड़ी सतीसावित्री बनी फिरती थी. यही गुल खिलाने थे?’ मां के शब्दों से सहमीसकुची सुवीरा कभी उन का चेहरा देखती तो कभी गिरीश के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास करती पर अम्मां शांत नहीं हुई थीं.

अगले दिन कोर्टमैरिज के बाद सुवीरा हठ कर के अम्मांबाबूजी के पास आशीर्वाद लेने पहुंची तो अपनी कुटिल दृष्टि बिखेरती अम्मां ने ऐसा गर्जन किया कि रोनेरोने को हो उठी थी सुवीरा.

‘अपनी बिरादरी में लड़कों की कोई कमी थी जो दूसरी जाति के लड़के से ब्याह कर के आ गई?’

‘फोन तो किया था तुम्हें, अम्मां… अभी भी तुम्हारा आशीर्वाद ही तो लेने आए हैं हम.’

सुवीरा के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई अम्मां ने हुंकार लगाई, ‘तू क्या समझती है, तू चली जाएगी तो हम जी नहीं पाएंगे…भूखे मरेंगे? डंके की चोट पर जिएंगे…लेकिन याद रखना, जिस तरह तू ने इस कुल का अपमान किया है, हम आशीर्वाद तो क्या कोई रिश्ता भी नहीं रखना चाहते तुझ से.’

व्यावहारिकता के धरातल पर खड़े गिरीश, सास के इस अनर्गल प्रलाप का अर्थ भली प्रकार समझ गए थे. नौकरीपेशा लड़की देहरी लांघ गई तो रोटीपानी भी नसीब नहीं होगा इन्हें. झूठे दंभ की आड़ में जातीयता का रोना तो बेवजह अम्मां रोए जा रही थीं.

बिना कुछ कहेसुने, कांपते कदमों से सुवीरा सीधे बाबूजी के कमरे में चली गई थी. वह बरसों से पक्षाघात से पीड़ित थे. ब्याहता बेटी देख कर उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी थी.

सुवीरा भी उन के सीने से लग कर बड़ी देर तक सिसकती रही थी. रुंधे स्वर से वह इतना ही कह पाई थी, ‘बाबूजी, अम्मां चाहे मुझ से कोई रिश्ता रखें या न रखें, पर मैं जब तक जिंदा रहूंगी, मायके के हर सुखदुख में सहभागिता ही दिखाऊंगी, ये मेरा वादा है आप से.’

बेटी की संवेदनाओं का मतलब समझ रहे थे दीनदयालजी. आशीर्वादस्वरूप सिर पर हाथ फेरा तो अम्मां बिफर उठी थीं, ‘हम किसी का एहसान नहीं लेंगे. जरूरत पड़ी तो किसी आश्रम में चाहे रह लें लेकिन तेरे आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’

अम्मां चाहे कितना चीखतीचिल्लाती रहीं, सुवीरा महीने की हर पहली तारीख को नोटों से भरा लिफाफा अम्मां के पास जरूर पहुंचा आती थी और बदले में बटोर लाती थी अपमान, तिरस्कार के कठोर, कड़वे अपदंश. गिरीश ने कभी अम्मां के व्यवहार का विश्लेषण करना भी चाहा तो बड़ी सहजता से टाल जाती सुवीरा, पर मन ही मन दुखी बहुत होती थी.

‘जो कुछ कहना था, मुझे कहतीं. दामाद के सामने अनापशनाप कहने की क्या जरूरत थी?’ ऐसे में अपंग पिता का प्यार और पति का सौहार्द ठंडे फाहे सा काम करता.

दौड़भाग करते कब सुबह होती, कब शाम, पता ही नहीं चलता था. गिरीश ने कई बार रोकना चाहा तो सुवीरा हंस कर कहती, ‘समझने की कोशिश करो, गिरीश. मेरे ऊपर अम्मां, बीमार पिता और सोहन का दायित्व है. जब तक सोहन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, मुझे नौकरी करनी ही पड़ेगी.’

‘सुवीरा, मैं ने अपने मातापिता को कभी नहीं देखा. अनाथालय में पलाबढ़ा लेकिन इतना जानता हूं कि सात फेरे लेने के बाद पतिपत्नी का हर सुखदुख साझा होता है. उसी अधिकार से पूछ रहा हूं, क्या तुम्हारे कुछ दायित्व मैं नहीं बांट सकता?’

गिरीश के प्रेम से सराबोर कोमल शब्द जब सुवीरा के ऊपर भीनी फुहार बन कर बरसते तो उस का मन करता कि पति के मादक प्रणयालिंगन से निकल कर, भाग कर सारे खिड़कीझरोखे खोल दे और कहे, देखो, गिरीश मुझे कितना प्यार करते हैं.

2 बरस बाद सुवीरा ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया. गिरीश खुद ससुराल सूचना देने गए पर कोई नहीं आया था. बाबूजी तो वैसे ही बिस्तर पर थे पर मां और सोहन… इतने समय बाद संतान के सुख से तृप्त बेटी के सुखद संसार को देखने इस बार भी नहीं आए थे. मन ही मन कलपती रही थी सुवीरा.

गिरीश ने जरा सी आत्मीयता दर्शायी तो पानी से भरे पात्र की तरह छलक उठी थी सुवीरा, ‘क्या कुसूर किया था मैं ने? उस घर को सजाया, संवारा अपने स्नेह से सींचा, पर मेरे अस्तित्व को ही नकार दिया. कम से कम इतना तो देखते कि बेटी कहां है, किस हाल में है. मात्र यही कुसूर है न मेरा कि मैं ने प्रेम विवाह किया है.’

इतना सुनते ही गिरीश के चेहरे पर दर्द का दरिया लरज उठा था. बोले, ‘इस समय तुम्हारा ज्यादा बोलना ठीक नहीं है. आराम करो.’

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 1

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 1

वे अपनी बैंच पर बैठे रहते हैं और वह लड़की उस पार्क के कोने में. देखा जाए तो दोनों में न कोई समानता है, न संबंध, फिर भी पता नहीं क्यों, पार्क के उस कोने में बैठी लड़की उन्हें बहुत अच्छी लगती है. उस लड़की को भी उन का उस बैंच पर बैठे रहना अखरता नहीं बल्कि आश्वस्त करता है, एक प्रकार की सुरक्षा प्रदान करता है. बस, एक यही सूत्र है शायद, जो इन दोनों को इस पार्क से जोड़े हुए है. कैसी अजीब बात है, वे इस लड़की को देखदेख कर उस के बारे में बहुतकुछ बातें जान गए हैं, पर उस का नाम वे अब तक नहीं जान पाए. वह रोज इस पार्क में 5 बजे शाम को आ बैठती है. कल वह बसंती सूट पहन कर आई थी, परसों हलका हरा. कल वह जामुनी सूट पहन कर आएगी और परसों सफेद जमीन पर खिले नीले फूलों वाला.

जिस दिन वह बसंती सूट पहनती है उस दिन चुन्नी हलकी हरी होती है. हलके हरे सूट पर बसंती चुन्नी. जामुनी सूट पर सफेद चुन्नी और नीले फूलों पर वह नारंगी रंग की चुन्नी डाल कर आती है. वे माथे पर बिंदी नहीं लगाती. अगर लगाए तो उन का मन मचल जाए और वह मन ही मन गाने लगें, ‘चांद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा…’

ऐसा कटावदार चेहरा हो, और इतना गोरा रंग, ऐसा चौड़ा चमकता हुआ माथा हो और ऐसी कमान सी तनी हुई पतली, काली भौंहें और उन के बीच बिंदी न हो, जानें क्यों, उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगती. उन का कई बार मन हुआ, कभी इस लड़की से कहें, ‘बिंदी लगाया करो न, बहुत अच्छी लगोगी.’ पर कह नहीं सके. उम्र का बहुत फासला है. यह फासला उन्हें ऐसा कहने से रोकता है. कहां 55-56 साल की ढलान पर खड़े पकी उम्र के, उम्रदराज खेलेखाए व्यक्ति और कहां यह 20-22 साल की खिलती धूप सी बिखरबिखर पड़ते यौवन वाली नवयौवना.

लड़की हंसती है तो दाएं गाल पर गड्ढा बनता है. बायां गाल उन्हें दिखाई नहीं देता, इसलिए वे उस के बारे में निश्चित नहीं हैं. उस के दांत सुघड़ और चमकीले सफेद हैं. वह लिपस्टिक नहीं लगाती, पर अधर बिलकुल ताजे खिले कमलदल से नरम और कोमल हैं. बाल बहुत घने और काले हैं.

बालों की हठीली लट उस के माथे पर हवा के साथ बारबार आ जाती है, जिसे वह किताब पढ़ते समय अदा से सिर झटक कर हटाया करती है, पर अकसर वह हटती नहीं है. वह नाक में कील या लौंग नहीं पहनती, पर नाक छिदी हुई है. कानों में वह गोल, छोटी बालियां पहनती है, जो हमेशा हिलती रहने के कारण बहुत लुभावनी लगती हैं. लंबी गरदन में अगर वह काले मनकों की माला पहनने लगे तो अच्छा रहेगा.

यह लड़की किसी प्रतियोगिता में बैठने की तैयारी कर रही है. इस के पास वे जिन किताबों को देखते हैं वैसी किताबें उन के लड़के के पास रही हैं. उन का लड़का अब नौकरी में है. एमबीए करने के बाद एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सहायक मैनेजर. 15 हजार रुपए से तनख्वाह शुरू हुई है. बाप रे, आजकल की कंपनियां इन नएनए छोकरों को कितना रुपया दे देती हैं, जबकि वे 10 हजार रुपए पर पहुंचतेपहुंचते रिटायर हो जाएंगे.

इस लड़की को अंगरेजी में खास दिक्कत होती है. पार्क में आ कर अकसर वह अंगरेजी के वाक्यांश, मुहावरे और शब्दार्थ रटा करती है. यह लड़की चूडि़यां नहीं पहनती, कड़े पहनती है. अगर चूडि़यां पहने तो इसे लाल रंग की पहननी चाहिए, बहुत अच्छी लगेंगी इस की गोरी कलाइयों पर, वे कई बार ऐसा सोच चुके हैं. इस की लंबी, नाजुक, पतली उंगलियों में अंगूठी सचमुच बहुत अच्छी लगे, पर यह नहीं पहनती. लंबे नाखूनों पर नेलपौलिश नहीं लगाती, पर उन का कुदरती गुलाबी रंग उन्हें हमेशा अच्छा लगता है…अच्छा यानी…?

यों आजकल ढीलेढाले कुरतों का रिवाज है पर इस लड़की का कुरता ऊपर कसा हुआ और नीचे काफी ढीला होता है. पुराने जमाने में जिस प्रकार की फ्रौकें बना करती थीं, उस तरह का होता है. कसे हुए कुरते में उस के उभार बेहद आकर्षक और दिलकश प्रतीत होते हैं, तिस पर कुरते का नीचा कटा गला. जब कभी हवा से उस की चुन्नी उभारों पर से उड़ जाती है, गले के नीचे उस के पुष्ट उभार नजर आने लगते हैं, खासकर तब, जब वह पार्क की घास पर बेलौस हो, लेटी हुई पढ़ती रहती है.

पार्क में आते ही वह सैंडल उतार कर उन्हें पौधों के नजदीक रख देती है. सैंडल बहुत कीमती नहीं होतीं. कभीकभार वे मरम्मत भी मांगती रहती हैं, पर शायद उसे वक्त नहीं मिलता कि ठीक करवा लाए या फिर घर में कोई ऐसा नहीं जिसे वह मोची के पास तक भेज कर…वैसे अगर सुनहरी बैल्टों वाली सैंडल वह पहने तो एकदम परी लगे. मन हुआ, वे उस से कहें किसी दिन, पर कह नहीं सके.

ढीले कुरते के कारण कमर का अंदाजा नहीं लग पाता, पर जरूर उस की नाप…वह कौन सा आदर्श नाप होती है विश्व सुंदरियों की, 36-24-36 या ऐसा ही कुछ. वे अगर दरजी होते तो जरूर इस लड़की का कोई सूट तैयार करने के लिए मचल उठते.

इस लड़की को देखदेख कर ही वे यह भी जान गए हैं कि इस की माली हालत बहुत अच्छी नहीं है. बहुत खराब भी नहीं होगी, वरना उस के पास इतने रंग के सूट कहां से आते? पर इस ने शादी के बजाय पढ़ाई को तरजीह दी है. इस का मतलब है, इस के मांबाप इस की शादी के लिए पर्याप्त पैसा नहीं जोड़ पाए हैं और लड़की को अच्छा वर मिल जाए, इसलिए किसी अच्छी नौकरी में लगवाने के लिए इस का कैरियर बनाने का प्रयास कर रहे हैं. जरूर इस के मांबाप समझदार लोग हैं वरना इसे यहां अकेली पार्क में पढ़ने क्यों आने देते? वे इस पर शक भी तो कर सकते थे. नजर रखने के लिए यहां किसी न किसी बहाने दसियों बार आ भी तो सकते थे.

वे सोचने लगे, प्रतियोगिता के लिए इस के पास ज्यादा किताबें नहीं हैं. इस की तुलना में उन के लड़के के पास ढेरों किताबें थीं, एक से एक अच्छे लेखकों की देशीविदेशी किताबें. अकसर यह उन्हीं किताबों को ले कर यहां आती है और उन्हें रटती रहती है. घर में या तो कमरे कम हैं या फिर आसपास का माहौल अच्छा नहीं है वरना यह यहां आ कर क्यों पढ़ा करती? हो सकता है पासपड़ोस के लोग ऊंची आवाज में टीवी वगैरा चलाते हों. आजकल के पड़ोसी भी तो अजीब होते हैं, उन्हें दूसरों की तकलीफों से कुछ लेनादेना नहीं होता.

इस पार्क का सब से ज्यादा हराभरा वही कोना है, जहां हर शाम आ कर यह लड़की अपना अड्डा जमा लेती है. इस लड़की के सामने वाली बैंच पर वे भी कब्जा कर लेते हैं. अब हर शाम का यही काम हो गया है, बल्कि जब से पत्नी लड़के के पास चली गई है. वे दफ्तर से आने के बाद एकदम अकेले हो जाते हैं. घर में पड़ेपड़े जी घबराने लगता है. अखबार वे सुबह ही पढ़ डालते हैं. फिर शाम को उसे उठाने का मन नहीं होता.

टेलीविजन के सीरियल उन्हें पसंद नहीं आते. ज्यादातर पारिवारिक तनाव, लड़ाईझगड़े और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा वाले, मनमुटाव भरे, शत्रुता और बिखराव वाले सीरियल होते हैं.

फिल्में भी उन्हें पसंद नहीं आतीं. आजकल की हीरोइनें, बाप रे! एक गाने में 50 बार तो पोशाकें बदल जाती हैं और सिवा लटकेझटके, कूल्हे मटकाने व उछलकूद करने के उन्हें आता क्या है?

इन सब से अच्छा तो इस पार्क में आ कर बैठना है. ढलते सूरज का मजा लेना, खुली हवा, खिले हुए फूल, हरी, मखमली घास, पार्क के कोने में चहकते, गेंद खेलते बच्चे. उधर बैठी बतियाती महिलाएं. उस तरफ बैठे ताश खेलते लड़के. यहां आ कर उन्हें लगता है, जीवन  अभी खत्म नहीं हुआ है. अभी बहुतकुछ बचा है जिंदगी में जिसे नए सिरे से संजोया जा सकता है, जिसे नए सिरे से जीया जा सकता है.

ऐसा भी होता है- भाग 1

नई से नई फिल्में घरबैठे देख लेते थे. इस से पहले कि नई फिल्म लगे, हम देखने के लिए उतावले हो जाते थे. यह शौक मुझे मां से विरासत में मिला था. मुझे याद है कि एक बार मौसी व मौसाजी पूरे परिवार के साथ हमारे यहां आए थे. खूब रौनक रही और खूब मजा आया. परंतु कोई भी सत्कार बिना फिल्म दिखाए अधूरा रहता है. इसलिए उन्हें फिल्म दिखाना बहुत जरूरी था. उन के भी अपने कई कार्यक्रम थे. समय मिल ही नहीं पा रहा था. अंत में एक दिन सब ने रात वाले आखिरी शो में जाने का फैसला किया.

हमारी कार छोटी थी. सब उस में आ नहीं रहे थे. आखिर में मेरे दोनों छोटे भाइयों को पीछे डिकी में बिठा दिया गया. वे ढक्कन ऊपर उठाए बैठे रहे. रास्ते भर न केवल हम बल्कि देखने वाले भी हमारी दीवानगी पर हंस रहे थे. अब भी जब कभी मिलना होता है, उस घटना की याद ताजा हो जाती है.

स्पष्ट है कि फिल्में मेरे दिल व दिमाग पर सदा छाई रहती थीं. यहां तक कि मैं अकसर फिल्मी नायकों को देख कर सपनों में डूब जाती. मेरा पति भी ऐसा ही होगा, जो जहां एक ओर रोमांस करने में बड़ा भावुक व नाजुक होगा वहीं कठिनाई के समय अकेले ही 10-12 गुंडों से लोहा लेगा. इन सपनों में जीते हुए वह दिन भी आ पहुंचा जब मुझे अपने पति का चुनाव करना पड़ा.

मोहन अपनी मां के साथ मुझे देखने आए थे. सुबह ही मैं सौंदर्य विशेषज्ञा के यहां से सज कर आई थी. नायक पाने के लिए नायिका को न जाने क्याक्या करना पड़ता है. पूर्ण औपचारिकता के बाद मोहन की मां ने इच्छा प्रकट की कि मोहन लड़की से बात करना चाहता है. इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी. हम दोनों को अकेला छोड़ दिया गया. न जाने क्यों, मेरा दिल धड़कने लगा, मानो कचहरी के कटघरे में खड़ी हूं.

मोहन पहली दृष्टि में ही मुझे अच्छे लगे थे. सुंदर और गोरेचिट्टे, सौम्य व बड़ीबड़ी भूरी आंखें. मेरे सपनों का नायक उभर रहा था. कद 190 सेंटीमीटर, वजन न कम न अधिक.

‘‘एक प्याला चाय और अपने हाथों से…’’

मैं चौंक पड़ी. मोहन मुसकरा रहे थे. मैं ने चाय बना कर प्याला आगे बढ़ाया तो हाथों में एक कंपन था. फिर भी मैं सावधान थी. मैं डर रही थी कि कहीं चाय छलक न जाए. अगर छलक ही गई तो? क्या मेरा नायक इस स्थिति पर कोई गाना गाने लगेगा?

‘‘क्या शौक हैं आप के?’’

मैं फिर चौंक पड़ी, ‘‘शौक? मेरे?’’

मोहन ने हंस कर कहा, ‘‘क्या यहां कोई तीसरा भी है?’’

मैं ने बौखला कर कहा, ‘‘नहीं तो.’’

‘‘तो फिर यह सवाल आप ही से पूछा है.’’

‘‘ओह.’’

‘‘ओह क्या?’’

‘‘हां, शौक के बारे में आप पूछ रहे थे. मुझे फिल्म देखने का बहुत शौक है.’’

‘‘खाना बनाना, सीनापिरोना, घर के काम…इन में शौक रखने की तो गलती नहीं करतीं आप?’’ मोहन की आंखों में शरारत थी.

मैं हंस पड़ी, ‘‘नहीं, ऐसी भूल नहीं करती. यह सब काम मां कर लेती हैं. वैसे मां के साथ मैं सब कामों में हाथ बंटाती हूं. आप ने वह फिल्म देखी है…’’

मैं ने फिल्म की कहानी शुरू कर दी. नायक, नायिकाओं के नाम गिनाने शुरू कर दिए. मोहन शांति से सुन रहे थे. मुझे लगा कि मेरी कहानी कुछ लंबी हो रही थी.

अचानक मुझे अपने धाराप्रवाह कथावाचन में अर्धविराम लगाते देख मोहन ने कहा, ‘‘आप को तो मालूम है कि मेरे पिता नहीं हैं. कई वर्ष पहले उन की मृत्यु हो चुकी है. मेरे लिए सबकुछ मेरी मां हैं. मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूं.’’

उफ, मैं ने सोचा कि यह खलनायक कहां से आ गया. मैं ने शीघ्रता से कहा, ‘‘हां, मुझे मालूम है. आप ने ‘कभीकभी’ फिल्म देखी? उस में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी,’’ और मैं फिर शुरू हो गई.

मोहन हंस रहे थे. कुछ देर सुन कर बीच में टोक दिया, ‘‘मैं यह कहना चाह रहा था कि मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो मेरी इन भावनाओं को समझ सके.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो हर पत्नी का कर्तव्य है. आप ने वह फिल्म देखी…’’

‘‘जानम, सिलसिला, अनाड़ी, खंडहर…’’

अब हम दोनों हंस रहे थे. कितने भोले हैं मोहन. नाम तो फिल्मों के गिना दिए पर इन में से कोई भी स्थिति यहां लागू नहीं होती थी. ओह, समझी. शायद ज्यादा चतुर होने की कोशिश कर रहे थे.

‘‘मैं यही कहना चाहता था. अगर आप को स्वीकार हो तो मैं बात पक्की करने के लिए मां से कह दूंगा.’’

कौन सी फिल्म थी वह? हां, ठीक तो है. मैं ने याद करते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘क्यों, क्या आप की मां मेरी मां नहीं हैं? ऐसा भी हो सकता है कि शायद आप से अधिक मैं उन्हें प्यार व आदर दे सकूं.’’

हमारा विवाह हो गया और मैं मोहन के यहां आ गई. और तो सब ठीक लगा पर सोने का कमरा देख कर बड़ी निराशा हुई. न वह बड़ा गोल पलंग और न फूलों से महकती सुहागरात की सेज, रात भी यों ही गुजर गई. मोहन अपनी मां का बखान कर के मुझे उबा रहे थे और मैं फिल्मी स्थितियां बना कर माहौल दिलचस्प करने का प्रयत्न कर रही थी. आखिर उन्हें ही हथियार डालने पड़े. मैं बोल रही थी और वह सुन रहे थे.

‘‘वाह, कितने अच्छे परांठे बने हैं,’’ मोहन कह रहे थे, ‘‘गोभी भर के बनाए हैं. जरूर मां ने बनाए होंगे. क्यों?’’

‘‘हां,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम भी सीख लो. मां मूली के परांठे भी बहुत बढि़या बनाती हैं.’’

‘‘सीख लूंगी,’’ मुझे न जाने क्यों अच्छा न लगा. कल तो मैं ने भी बनाए थे, पर कुछ बोले नहीं थे.

मां ने रसोई से आवाज लगाई, ‘‘बहू, परांठे और ले जाओ. बन गए हैं. हां, तुम भी खा लो. गरमगरम सेंक रही हूं.’’

मैं परांठे ले आई. एक मोहन को दे कर दूसरा स्वयं खाने लगी.

मोहन ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हैं न स्वादिष्ठ. एक काम करो. एक मेरे साथ खा लो और दूसरा मां के साथ खा लेना. उन्हें भी अच्छा लगेगा कि बहू उन का साथ दे रही है, क्यों?’’

मैं ने सिर हिला दिया. परंतु उन का आशय समझ रही थी. मुझे मां के साथ खाना चाहिए या उन के बाद. मेज पर कल मैं ने एक ताजा गुलदस्ता रखा था. देखा कि किनारे वाले फूलों की पखंडि़यां झड़ने लगी थीं. मोहन दफ्तर जाने के लिए उठ खड़े हुए थे.

‘‘मां, मैं जा रहा हूं,’’ जोर से बोले, और फिर धीरे से मुझ से कहा, ‘‘जाऊं? जाने की आज्ञा है?’’

मैं तय नहीं कर पा रही थी कि हंसूं कि रूठ जाऊं. अब मां से तो कह दिया है, मैं कौन होती हूं? मेरे गाल पर चुटकी काटते हुए वह शैतानी से हंसते हुए बाहर निकल गए.

दिन भर ऐसे ही काम में या सोतेजागते निकल जाता है. शाम होने की प्रतीक्षा है. मैं पत्नी हूं, मोहन की प्रतीक्षा में आकुल हो जाती हूं. एक यह मां हैं जिन्हें चिंता हो जाती है. बारबार खड़ी हो कर बाहर झांकती हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता.

‘‘बहू, साढ़े 5 बज रहे हैं. मोहन आता ही होगा. बेसन तैयार है न. मोहन को पकौडि़यां बहुत अच्छी लगती हैं. आते ही बना लेना. चाय का पानी बाद में चढ़ा देना.’’

मैं चिढ़ जाती हूं. भुनभुनाती हूं मन में. दिन भर से कार्यक्रम बना रही हूं. मुझे क्या मालूम नहीं है कि आते ही पकौडि़यां बनानी हैं और फिर चाय का पानी रखना है. एक दिन मैं ने मोहन को टोका भी था.

उन्होंने हंस कर कहा था, ‘‘मां हैं न, उन्हें चिंता रहती है बेटे की. समझा करो.’’

‘‘मैं कुछ नहीं हूं? क्या मुझे नहीं पता कि कब आप के लिए क्या करना है?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ उन्होंने उसी शरारती मुसकराहट से कहा, ‘‘जो चीज समझने में मां ने सारी जिंदगी निकाल दी, तुम तो 2 ही दिन में सीख गई हो.’’

बात उन्होंने हंस कर कही थी पर उस में जो तीखापन था वह मन में चुभ गया था. जब कभी बाजार जाते थे तो पहले मां से पूछते थे कि कुछ लाना है बाजार से? लेकिन मुझे उन से कहना पड़ता था कि आज यह लेते आना. मेरा संदेह अब विश्वास में बदलने लगा था कि मैं इस घर की दूसरी श्रेणी की व्यक्ति हूं. मेरा दरजा दूसरा है. पहले मां हैं यानी मेरी सास. यह परछाईं मेरे आगेपीछे कब तक रहेगी? ओह, मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

मोहन कोई भी चीज लाते हैं तो बिना मुझे बताए मां के हाथ में रख देते हैं, जैसे मैं एक अदृश्य व्यक्ति हूं, जो मौजूद तो है पर दिखाई नहीं देता. मैं ने न जाने कितनी बार कल्पना की थी कि आज आते हुए मिठाई लाएंगे और मां की नजर बचा कर कमरे में ले आएंगे. डब्बा खोलेंगे और प्यार से एक टुकड़ा उठा कर मुझे बांहों में समेटते हुए मुंह में रख देंगे.

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष – भाग 1

वह इतनी जोर से चीखा कि सड़क पर चलते सभी लोग एक पल को सहम गए. उस ने नारियल काटने वाला बड़ा सा छुरा निकाला और हरे नारियल को हाथ में ले कर एक झटके में ऐसा काटा मानो किसी का सिर काट रहा हो. नारियल फट गया, उस में भरा पानी हाथों से होता हुआ नीचे तक फैल गया. वह कटे नारियल को हाथ में लिए बैठ गया और जोरों से चीखते हुए रो पड़ा.

बात ही कुछ ऐसी थी कि बदहाली और गरीबी से परेशान हो कर सुरेश गांव छोड़ कर वेल्लोर आ गया था. बीआईटी यूनिवर्सिटी के सामने उस ने नारियल पानी बेचने की एक दुकान लगा ली थी. दुकान क्या… एक डब्बा रखा, एक फट्टे पर 10-20 नारियल रखे और हाथ में बड़ा सा छुरा.

हालांकि सुरेश को नारियल काटने की आदत थी. गांव में वह मिनटों में नारियल के पेड़ पर चढ़ जाता था और तेज धार के छुरे से नारियलों को पेड़ से काट कर नीचे गिरा देता था.

पिछले 2 सालों से बरसात नहीं हुई थी. धान की फसल सूख गई थी. गांव में मजदूरी नहीं थी. मांबाप ने गांव छोड़ने की बात कही तब सुरेश ने उन्हें पुश्तैनी जगह छोड़ कर जाने से मना कर दिया और खुद जाने का फैसला लिया. वहां से वेल्लोर पास था. सीएमसी बहुत बड़ा मैडिकल कालेज था लेकिन सड़क पर बहुत से लोग दुकानें सजाए बैठे थे. उस के लिए कोई जगह नहीं थी. गांव के एक मुंहबोले अन्ना के झोंपड़े में उस ने पनाह ली थी. उसी ने नारियल पानी बेचने की सलाह दी थी. एक नारियल पर 5 से 10 रुपए बच जाते थे. दिनभर में 50-100 रुपए की आमदनी हो जाएगी. नारियल का कचरा सूख जाने पर ईंधन के लिए काम में आ जाएगा, लेकिन जगह की दिक्कत थी.

सुरेश आवारा की तरह जगह खोज रहा था. वेल्लोर के बीआईटी कैंपस के सामने जगह खाली थी और बहुत से लड़केलड़कियां वहां से गुजरते थे. वे जरूर नारियल पानी पीना पसंद करेंगे. उस ने अन्ना से कह कर अपने लिए 20 नारियल उधार ले लिए. छुरा भी मिल गया. एक बोरे में नारियल ले कर वह एक फट्टे को बिछा कर सड़क किनारे बैठ गया.

पहले दिन 5-7 नारियल ही बिके. स्ट्रा का एक डब्बा भी रख लिया था. शाम को बाकी बचे नारियलों को कंधे पर रख कर वह अन्ना के झोंपड़े में लौटा. चावल और रसम खा कर वह अपने गांव की याद में खो गया. यह गांव कभी यादों में से जाता क्यों नहीं है? क्यों बारबार बुलाता है?

सुरेश 6 फुट का एकदम काले रंग का लेकिन मेहनती लड़का था. एक पुरानी रंगीन लुंगी और गंदी सी  शर्ट, बाल उलझे हुए और ग्राहक को तलाशती आंखें.

अगली सुबह सुरेश फिर फट्टा ले कर वहां बैठ गया. 2 तरह के नारियल रखे. बड़ा पानी वाला 20 रुपए का, छोटा 15 रुपए का था. अंदर मलाई वाला भी था. पानी पीने के बाद वह नारियल को फाड़ कर अंदर की मलाई खरोंच कर दे देता था. 1-2 बार उस की भी बड़ी इच्छा हुई कि पानी पी कर देखे, मलाई खा कर देखे, लेकिन एक नारियल पर 10 रुपए का नुकसान हो जाएगा. अभी उसे रुपयों की जरूरत है, वह बिलकुल भी नारियल का पानी नहीं पी सकता.

यूनिवर्सिटी कैंपस से लड़कों का हुजूम निकलता था. कुछ पास आते, मोलभाव करते और आगे बढ़ जाते. लड़कालड़की आते तो एक नारियल में 2 स्ट्रा डाल कर एकसाथ पीते. वह देखता, उसे सबकुछ बहुत अजीब लगता. वह अपनी नजरें फेर लेता था.

कभीकभी लड़कालड़की इतना चिपक कर नारियल पानी पीते कि उसे लगता, उस के शरीर में कुछ गड़बड़ी हो रही है. वह नजरें घुमा लेता तो उन के हंसने की आवाज कानों में आती. वह नजरें नीची कर लेता.

वैसे भी सुरेश की उम्र अभी 20-22 साल की रही होगी. प्यार जैसे रिश्तों से उस का कोई नाता नहीं पड़ा था, फिर जिस गांव में वह रहता था वहां प्यार नहीं होता था, सीधे शादी और बच्चा पैदा होता था. लेकिन यहां जोकुछ हो रहा था, वह सब हैरानी की बात थी.

एक हफ्ता होतेहोते सुरेश की बिक्री बढ़ गई. वह तकरीबन 40-50 नारियल काटने लगा था. कचरा भी उठा कर अपने झोंपड़े में अन्ना के लिए ले आता था. उस ने अन्ना को 100-200 रुपए देने भी शुरू कर दिए थे. उन्हीं की जमानत पर तो वह नारियल उठा पा रहा था. थोड़े से रुपए उस ने गांव में भी भेज दिए थे और प्लास्टिक की एक पुरानी मेज ले ली थी जिस पर नारियल का ढेर रख लेता था. वह जानता था कि कालेज से कब लड़केलड़की बाहर आएंगे. इसलिए वह 3-4 नारियल पहले ही छील कर रख लेता था.

एक दिन एक ग्राहक आया. उस ने नारियल मांगा. सुरेश ने काट कर उसे दिया. उस ने पीया और 10 रुपए का नोट देने लगा. सुरेश ने कहा, ‘‘भाई, यह 20 रुपए का नारियल है.’’

‘‘मैं 20 रुपए ही देता, लेकिन नारियल में पानी नहीं था,’’ वह बोला.

‘‘भाई, अभी नारियल का मौसम नहीं है. पानी कम हो जाता?है. मलाई बन जाती?है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘नहीं… ये 10 रुपए रख,’’ कह कर वह चला गया. सुरेश को बहुत गुस्सा आया. सोचा कि अब ग्राहक से रुपए पहले लेगा, फिर नारियल काटेगा, लेकिन ऐसा करने पर दुकानदारी पर बुरा असर पड़ेगा. वह ग्राहक को देखसमझ कर रुपए मांगेगा.

धूप में खड़े रहने और दिनभर मेहनत करने से सुरेश का शरीर और काला मजबूत हो गया था. गरमी का मौसम जा चुका था, बरसात लग गई थी. कभी भी बरसात होने लगती थी. सामने की एक बड़ी दुकान के छज्जे के नीचे जा कर वह खड़ा हो जाता था. इस से ग्राहकी पर बुरा असर पड़ रहा था. दिन में 20-30 नारियल ही बिक रहे थे.

एक दोपहर बारिश हो कर रुकी ही थी कि सुरेश छज्जे की ओट से निकल कर अपनी दुकान के पास जा कर खड़ा हुआ. इतने में एक चमचमाती कार सड़क के उस ओर खड़ी हुई, उस में से एक मैडम उतर कर उस की दुकान पर आईं.

चोरी का फल : दोस्ती की आड़ – भाग 1

शिखा पर पहली नजर पड़ते ही मेरे मन ने कहा, क्या शानदार व्यक्तित्व है. उस के सुंदर चेहरे पर आंखों का विशेष स्थान था. उस की बड़ीबड़ी आंखों में ऐसी चमक थी कि सामने वाले के दिल को छू ले. वह एक दिन रविवार की सुबह मेरे छोटे भाई की पत्नी रेखा के साथ मेरे घर आई. शनिवार को शिखा हमारी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी के लिए इंटरव्यू दे कर आई थी. रेखा के पिता उस के पिता के अच्छे दोस्त थे. मेरी सिफारिश पर उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी, ऐसा आश्वासन दे कर रेखा उसे मेरे पास लाई थी.

‘‘सर, मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है. आप मेरी सहायता कीजिए, प्लीज,’’ यों प्रार्थना करते हुए उस की आंखों में एकाएक आंसू छलक आए.

अब तक शिखा ने मेरे दिल में अपनी खास जगह बना ली थी. मेरे मन ने कहा कि मैं भविष्य में उस से संपर्क बनाए रखूं.

‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आप का काम हो जाए. इस कागज पर आप जरूरी ब्योरा लिख दें,’’ मैं ने पैड और पैन उसे पकड़ा दिया.

करीब 10 मिनट बाद शिखा रेखा के साथ चली गई, लेकिन इन कुछ मिनटों में उस ने मेरा दिल जीत लिया था.

शिखा को क्लर्क की नौकरी दिलाना मेरे लिए कठिन काम नहीें था. करीब 10 दिन बाद मैं उस की नियुक्ति की अच्छी खबर ले कर शाम को उस के घर पहुंच गया.

वहां मेरी मुलाकात उस के पति संजीव, सास निर्मला व 4 वर्षीय बेटे रोहित से हुई. शिखा की नियुक्ति की खबर सुन घर का माहौल खुशी से भर गया.

शिखा के घर की हर चीज इस बात की तरफ इशारा कर रही थी कि वे लोग आर्थिक रूप से संपन्न नहीं थे. संजीव बातूनी किस्म का इनसान था. उस की बातों से यह भी मालूम हो गया कि उस की स्टौक मार्किट में बहुत दिलचस्पी थी.

कुछ देर बाद संजीव मुंह मीठा कराने के लिए बाजार मिठाई लेने चला गया. मैं ने तब आग्रह कर के शिखा को अपने सामने बैठा लिया.

अपनी सास की मौजूदगी में वह ज्यादा नहीं बोल रही थी. उस से पूछे गए मेरे अधिकतर सवालों के जवाब उस की सास ने ही दिए.

बातोंबातों में मुझे इस परिवार के बारें में काफी जानकारी मिली. संजीव एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटैंट था. उस की पगार अच्छी थी, फिर भी वे लोग भारी कर्जे से दबे हुए थे. शेयर मार्किट में संजीव ने बारबार घाटा उठाया, पर बहुत अमीर बनने की धुन के चलते इस लत ने अब तक उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘सर, आप की कृपा से मुझे नौकरी मिली है और मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. अब दो वक्त की रोटी और रोहित की पढ़ाई का खर्च मैं अपने बलबूते पर उठा सकूंगी,’’ शिखा की बड़ीबड़ी आंखों में मुझे अपने लिए सम्मान के भाव साफ नजर आए.

‘‘शिखा, तुम्हें नौकरी दिलाने वाली बात अब खत्म हुई. इस के बाद तुम ने मुझे ‘धन्यवाद’ कहा तो मैं फौरन उठ कर चला जाऊंगा,’’ अपनी आवाज को मैं ने नाटकीय रूप से सख्त किया, पर मेरे होंठों पर मुसकराहट बनी रही.

‘‘अब नहीं दूंगी धन्यवाद, सर,’’ वह मुसकराई और फिर उठ कर रसोई की ओर चली गई.

कुछ देर बाद बडे़ अच्छे माहौल में हम सब ने चायनाश्ता किया. फिर मैं उन से विदा लेना चाहता था, पर ऐसा संभव नहीं हुआ क्योंकि बेहद अपनेपन के साथ आग्रह कर के शिखा ने मुझे रात का खाना खा कर जाने के लिए रोक लिया.

उस शाम के बाद से मेरा उस घर में जाना नियमित सा हो गया. कुछ दिनों बाद रोहित के जन्मदिन की पार्टी में मैं शामिल हुआ. फिर एक त्योहार आया और शिखा ने मुझे घर खाने के लिए आमंत्रित किया. मैं छुट्टी वाले दिन उन के यहां कुछ न कुछ खानेपीने की चीज ले कर पहुंच जाता. एक बार मेरी कार में सब पिकनिक मना आए. धीरेधीरे इस परिवार के साथ मेरे संबंध गहरे होते चले गए.

चाय पीने के लिए मैं फोन कर के शिखा को अपने कक्ष में बुला लेता. ऐसा अकसर लंच के समय में होता. उस के साथ बिताया हुआ वह आधा घंटा मेरी रगरग में चुस्तीफुरती भर जाता.

शिखा जैसी खूबसूरत और खुशमिजाज युवती के साथ सिर्फ मैत्रीपूर्ण संबंध रखना अब मेरे लिए दिन पर दिन कठिन होने लगा था. अगर मैं किसी कार्य में व्यस्त न होता तो वह मेरे खयालों में छाई रहती. हमारे संबंध दोस्ती की सीमा को लांघ कर कुछ और खास हो जाएं, यह इच्छा मेरे मन में लगातार गहराती जा रही थी.

एक दिन अपने कक्ष में चाय पीते हुए मैं ने शिखा से पूछा, ‘‘तुम्हें पता है शिखा, मैं किस दिन को अपने लिए भाग्यशाली मानता हूं.’’

‘‘आप बताओगे नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा,’’ उस ने जवाब सुनने के लिए अपना ध्यान मेरे चेहरे पर केंद्रित कर लिया.

‘‘जिस दिन तुम मेरे घर नौकरी पाने के सिलसिले में आई थीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘मेरे लिए तो वह यकीनन महत्त्वपूर्ण दिन था,’’ शिखा बोली, ‘‘पर आप क्योें उसे अपने लिए भाग्यशाली मानते हैं?’’

‘‘वह दिन मेरे जीवन में न आया होता तो आज मैं तुम्हारे जैसी अच्छी दोस्त कैसे पाता.’’

मेरे स्वर की भावुकता को पहचान कर शिखा नजरें झुका कर फर्श को निहारने लगी.

‘‘तुम मेरी अच्छी दोस्त हो न, शिखा?’’ यह सवाल पूछते हुए अपने गले में मैं ने कुछ अटकता सा महसूस किया.

उस ने मेरी तरफ देख कर एक बार सिर हिला कर ‘हां’ कहा और फिर से नीचे फर्श देखने लगी.

‘‘दुनिया वाले कुछ न कुछ गलत हमारे संबंध में देरसवेर जरूर कहेंगे, पर उस कारण तुम मुझ से दूर तो नहीं हो जाओगी?’’ मैं ने व्याकुल भाव से पूछा.

‘‘जब हमारे दिलों में पाप नहीं है तो लोगों की बकवास को हम क्यों अहमियत देंगे?’’ शिखा ने मजबूत स्वर में मुझ से उलटा सवाल पूछा, ‘‘बिलकुल नहीं देंगे.’’

मैं ने अपना दायां हाथ बढ़ा कर उस के हाथ पर रखा और उस की आंखों में आंखेें डाल कर बोला, ‘‘तुम मुझे अपना समझ कर हमेशा अपने दुखदर्द मेरे साथ बांट सकती हो.’’

‘‘थैंक्स,’’ उस के होंठों पर उभरी छोटी सी मुसकान मुझे अच्छी लगी.

उस के हाथ पर मेरी पकड़ थोड़ी मजबूत थी. उस ने अपना हाथ आजाद करने का प्रयत्न किया, पर असफल रही. कुछ घबराए से अंदाज में उस ने मेरे चेहरे पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली.

पछतावा: थर्ड डिगरी का दर्द- भाग 1

‘‘सर, मुझे छोड़ दीजिए, मैं आप के पैर पड़ता हूं. मैं अपराधी नहीं, मुसीबत का मारा इनसान हूं…’’

जब इंस्पैक्टर राजन छेत्री ने उसे टौर्चर करते हुए थर्ड डिगरी का इस्तेमाल किया, तब रतन बापबाप बोल उठा. मारे दर्द के उस का रोमरोम कांप उठा. उसे ऐसा लगा, जैसे प्राण शरीर छोड़ कर उड़ जाएगा.

रतन ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह पुलिस के हत्थे चढ़ेगा, क्योंकि उसे अपनी काबीलियत और होशियारी पर कुछ ज्यादा ही घमंड था. पर वह जैसे ही ओम सिनेमा के पास पहुंचा, वहां सादे लिबास में तैनात पुलिस वालों ने उसे दबोच लिया. उस की चीते जैसी फुती और कुत्ते जैसी सतर्कता न जाने कहां फुर्र हो गई. उस पर सिलसिलेवार बम धमाके करने का गंभीर आरोप था, जिस में पुलिस उस को सरगर्मी के साथ तलाश कर रही थी.

रतन की गिरफ्तारी के बाद उसे जिला हैडक्वार्टर में लाया गया. जहां आरक्षी निरीक्षक राजन छेत्री उस से कुछ गुप्त चीजें उगलवाने की कोशिश में था.

‘‘बोल, तेरा नाम क्या है?’’

‘‘सर, अभी बताता हूं… सर…, पहले थोड़ा सा पानी पिला दीजिए न… मारे प्यास के मेरा गला सूखा जा रहा है. बिलकुल कांटे की तरह चुभ रहा है…’’ उस ने अपनी जबान को अपने होंठों पर फेरते हुए कहा.

‘‘कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती, तू ऐसे नहीं मानेगा?’’

‘‘सर….सर…सर…, मेहरबानी कर के मुझे थोड़ा सा पानी… प्लीज सर…’’

‘‘अच्छा, ठीक है…,’’ इतना बोल कर इंस्पैक्टर राजन छेत्री ने 2 गरम समोसे और एक गिलास गरम चाय मंगवा कर उसे दिया. साथ ही, जलती निगाहों से उसे घूरते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो यही मिलेगा…, तू समोसे खा कर चाय पी ले, प्यास मिट जाएगी.’’

मरता क्या न करता, भूखप्यास से बेहाल रतन उस के हाथों से समोसे झटक कर जल्दीजल्दी खाने लगा. लेकिन गला सूखा होने की वजह से निगलने में उसे दिक्कत होने लगी तो उस ने गरम चाय सुड़क ली. किसी तरह उस ने समोसा खाया और चाय पी, लेकिन प्यास कम होने की जगह और बढ़ गई.

‘‘सर… सर… थोड़ा सा पानी… चुल्लू में ही दे दीजिए न, नहीं तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा,’’ वह मारे प्यास के तड़पते हुए हाथ जोड़ कर बोला. लेकिन इंस्पैक्टर राजन छेत्री पर उस का कोई असर नहीं दिखा.

‘‘पहले अपना नाम बता?’’

‘‘रतन विश्वास.’’

‘‘तेरे बाप का नाम क्या है?’’

‘‘सपन विश्वास.’’

‘‘सर, नेताजी आए हैं. उन्होंने आप को याद किया है,’’ इसी बीच थाने का एक सिपाही कस्टडी रूम में पहुंचा और आते के साथ ही एक पार्टी के कार्यकर्त्ता के आने की सूचना दी.

नेता का नाम सुनते ही इंस्पैक्टर राजन छेत्री गुस्से से लाल हो गया. कमरे से निकलते हुए उस ने एक बार रतन को घूरा जरूर, जैसे कह रहा हो कि तुम्हें छोड़ेंगे नहीं.

कमरे से इंस्पैक्टर राजन छेत्री के बाहर निकलते ही रतन ने गहरी सांस ली. वह समझ नहीं पा रहा था कि उस की मुखबिरी किस ने पुलिस से की है. उसे गिरफ्तार कराने में किस का हाथ है? कहीं मयंक और उस की प्रेमिका नैना थापा का हाथ तो नहीं. दार्जिलिंग के टाइगर हिल पर पिछले दिनों हुई थी उन से मुलाकात.

नैना टाइगर हिल में उगते सूरज को निहार रही थी. दूरदूर तक फैला हुआ नीला आकाश, उस के नीचे पहाड़ पर खूबसूरत कुदरती नजारे, रंगबिरंगी चिडि़यों का शोर मनभावन लग रहे थे. वह इन सब में खोई हुई थी कि अचानक रतन ने पीछे से आ कर उस की आंखों को अपनी उंगलियों से बंद कर दिया. वह हड़बड़ा कर अपनी आंखों पर से हथेलियों को हटाने की कोशिश करने लगी और बोली, ‘अरे मयंक, यह क्या मजाक है. मेरी आंखों के ऊपर से हटाओ हाथ, टाइगर हिल की वादियों का नजारा जीभर कर देख तो लेने दो.’

‘ऊहूं, पहले बुझो, मैं कौन हूं?’

अचानक पीछे से आई आवाज को नैना ने पहचान लिया. वह मयंक की आवाज नहीं, बल्कि रतन की आवाज थी. मयंक ने उसे बताया था कि रतन अच्छा इनसान नहीं है. उस का साथ आतंकवादियों से है.

रतन की आवाज पहचानते ही वह आगबबूला हो उठी और उस का हाथ अपनी आंखों से जबरन हटा दिया. उस की तरफ मुड़ कर नफरत भरी नजरों से देखते हुए वह बोली थी, ‘तू ने मुझे छुआ क्यों? मेरी आंखें बंद करने वाले तुम होते कौन हो? दफा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से…’’

‘अरे नैना, इतनी छोटी सी बात पर इतना बड़ा गुस्सा. ऐसी आंखमिचौनी तो हम कितनी बार खेल चुके हैं. प्लीज नैना, गुस्सा थूक दो. मैं अपने किए की माफी मांगता हूं,’ ‘रतन ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘यह मयंक कौन है, जो तुम्हारे कान भरता रहता है. अनजान लोगों से दूर ही रहो तो अच्छा है. तुम उस के साथ यहां आई हो और वह तुम्हें ही अकेला छोड़ कर अपने दोस्तों के साथ किसी मसले पर बातचीत कर रहा है. मैं उधर से गुजर रहा था तो तुम पर नजर ठहर गई.’

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