शरणार्थी : मीना ने कैसे लगाया अविनाश को चूना

वह हांफते हुए जैसे ही खुले दरवाजे में घुसी कि तुरंत दरवाजा बंद कर लिया. अपने ड्राइंगरूम में अविनाश और उन का बेटा किशन इस तरह एक अनजान लड़की को देख कर सन्न रह गए.

अविनाश गुस्से से बोले, ‘‘ऐ लड़की, कौन है तू? इस तरह हमारे घर में क्यों घुस आई है?’’

‘‘बताती हूं साहब, सब बताती हूं. अभी मुझे यहां शरण दे दो,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘वह गुंडा फिर मुझे मेरी सौतेली मां के पास ले जाएगा. मैं वहां नहीं जाना चाहती हूं.’’

‘‘गुंडा… कौन गुंडा…? और तुम सौतेली मां के पास क्यों नहीं जाना चाहती हो?’’ अविनाश ने जब सख्ती से पूछा, तब वह लड़की बोली, ‘‘मेरी सौतेली मां मुझ से देह धंधा कराना चाहती है. उदय प्रकाश एक गुंडे के साथ मुझे कोठे पर बेचने जा रहा था, मगर मैं उस से पीछा छुड़ा कर भाग आई हूं.’’

‘‘तू झूठ तो नहीं बोल रही है?’’

‘‘नहीं साहब, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. सच कह रही हूं,’’ वह लड़की इतना डरी हुई थी कि बारबार बंद दरवाजे की तरफ देख रही थी.

अविनाश ने पूछा, ‘‘ठीक है, पर तेरा नाम क्या है?’’

‘‘मीना है साहब,’’ वह लड़की बोली,

अविनाश ने कहा, ‘‘घबराओ मत मीना. मैं तुम्हें नहीं जानता, फिर भी तुम्हें शरण दे रहा हूं.’’

‘‘शुक्रिया साहब,’’ मीना के मुंह से निकल गया.

‘‘एक बात बताओ…’’ अविनाश कुछ सोच कर बोले, ‘‘तुम्हारी मां तुम से धंधा क्यों कराना चाहती है?’’

मीना ने कहा, ‘‘जन्म देते ही मेरी मां गुजर गई थीं. पिता दूसरी शादी नहीं करना चाहते थे, मगर रिश्तेदारों ने जबरदस्ती उन की शादी करा दी.

‘‘मगर शादी होते ही पिता एक हादसे में गुजर गए. मेरी सौतेली मां विधवा हो गई. तब से ही रिश्तेदार मेरी सौतेली मां पर आरोप लगाने लगे कि वह पिता को खा गई. तब से मेरी सौतेली मां अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारने लगी.

‘‘इस तरह तानेउलाहने सुन कर मैं ने बचपन से कब जवानी में कदम रख दिए, पता ही नहीं चला. मेरी सौतेली मां को चाहने वाले उदय प्रकाश ने उस के कान भर दिए कि मेरी शादी करने के बजाय किसी कोठे पर बिठा दे, क्योंकि उस के लिए वह कमाऊ जो थी.

‘‘मां का चहेता उदय प्रकाश मुझे कोठे पर बिठाने जा रहा था. मैं उस की आंखों में धूल झोंक कर भाग गई और आप का मकान खुला मिला, इसी में घुस गई.’’

अविनाश ने पूछा, ‘‘कहां रहती हो?’’

‘‘शहर की झुग्गी बस्ती में.’’

‘‘तुम अगर मां के पास जाना चाहती हो, तो मैं अभी भिजवा सकता हूं.’’

‘‘मत लो उस का नाम…’’ मीना जरा गुस्से से बोली.

‘‘फिर कहां जाओगी?’’ अविनाश ने पूछा.

‘‘साहब, दुनिया बहुत बड़ी है, मैं कहीं भी चली जाऊंगी?’’

‘‘तुम इस भेडि़ए समाज में जिंदा रह सकोगी.’’

‘‘फिर क्या करूं साहब?’’ पलभर सोच कर मीना बोली, ‘‘साहब, एक बात कहूं?’’

‘‘कहो?’’

‘‘कुछ दिनों तक आप मुझे अपने यहां नहीं रख सकते हैं?’’ मीना ने जब यह सवाल उठाया, तब अविनाश सोचते रहे. वे कोई जवाब नहीं दे पाए.

मीना ही बोली, ‘‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसी आप सोच रहे हैं.’’

‘‘तुम्हारे कहने से मैं कैसे यकीन कर लूं?’’ अविनाश बोले, ‘‘और फिर तुम्हारी मां का वह आदमी ढूंढ़ता हुआ यहां आ जाएगा, तब मैं क्या करूंगा?’’

‘‘आप उसे भगा देना. इतनी ही आप से विनती है,’’ यह कहते समय मीना की सांस फूल गई थी.

मीना आगे कुछ कहती, तभी दरवाजे के जोर से खटखटाने की आवाज आई. कमरे में तीनों ही चुप हो गए. इस वक्त कौन हो सकता है?

मीना डरते हुए बोली, ‘‘बाबूजी, वही गुंडा होगा. मैं नहीं जाऊंगी उस के साथ.’’

‘‘मत जाना. मैं जा कर देखता हूं.’’

‘‘वही होगा बाबूजी. मेरी सौतेली मां का चहेता. आप मत खोलो दरवाजा,’’ डरते हुए मीना बोली.

एक बार फिर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आई.

अविनाश बोले, ‘‘मीना, तुम भीतर जाओ. मैं दरवाजा खोलता हूं.’’

मीना भीतर चली गई. अविनाश ने दरवाजा खोला. एक गुंडेटाइप आदमी ने उसे देख कर रोबीली आवाज में कहा, ‘‘उस मीना को बाहर भेजो.’’

‘‘कौन मीना?’’ गुस्से से अविनाश बोले.

‘‘जो तुम्हारे घर में घुसी है, मैं उस मीना की बात कर रहा हूं…’’ वह आदमी आंखें दिखाते हुए बोला, ‘‘निकालते हो कि नहीं… वरना मैं अंदर जा कर उसे ले आऊंगा.’’

‘‘बिना वजह गले क्यों पड़ रहे हो भाई? जब मैं कह रहा हूं कि मेरे यहां कोई लड़की नहीं आई है,’’ अविनाश तैश में बोले.

‘‘झूठ मत बोलो साहब. मैं ने अपनी आंखों से देखा है उसे आप के घर में घुसते हुए. आप मुझ से झूठ बोल रहे हैं. मेरे हवाले करो उसे.’’

‘‘अजीब आदमी हो… जब मैं ने कह दिया कि कोई लड़की नहीं आई है, तब भी मुझ पर इलजाम लगा रहे हो? जाते हो कि पुलिस को बुलाऊं.’’

‘‘मेरी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. मैं ने मीना को इस घर में घुसते हुए देखा है. मैं उसे लिए बिना नहीं जाऊंगा…’’ अपनी बात पर कायम रहते हुए उस आदमी ने कहा.

अविनाश बोले, ‘‘मेरे घर में आ कर मुझ पर ही तुम आधी रात को दादागीरी कर रहे हो?’’

‘‘साहब, मैं आप का लिहाज कर रहा हूं और आप से सीधी तरह से कह रहा हूं, फिर भी आप समझ नहीं रहे हैं,’’ एक बार फिर वह आदमी बोला.

‘‘कोई भी लड़की मेरे घर में नहीं घुसी है,’’ एक बार फिर इनकार करते हुए अविनाश उस आदमी से बोले.

‘‘लगता है, अब तो मुझे भीतर ही घुसना पड़ेगा,’’ उस आदमी ने खुली चुनौती देते हुए कहा.

तब एक पल के लिए अविनाश ने सोचा कि मीना कौन है, वे नहीं जानते हैं, मगर उस की बात सुन कर उन्हें उस पर दया आ गई. फिर ऐसी खूबसूरत लड़की को वे कोठे पर भिजवाना भी नहीं चाहते थे.

वह आदमी गुस्से से बोला, ‘‘आखिरी बार कह रहा हूं कि मीना को मेरे हवाले कर दो या मैं भीतर जाऊं?’’

‘‘भाई, तुम्हें यकीन न हो, तो भीतर जा कर देख लो,’’ कह कर अविनाश ने भीतर जाने की इजाजत दे दी. वह आदमी तुरंत भीतर चला गया.

किशन पास आ कर अविनाश से बोला, ‘‘यह क्या किया बाबूजी, एक अनजान आदमी को घर के भीतर क्यों घुसने दिया?’’

‘‘ताकि वह मीना को ले जाए,’’ छोटा सा जवाब दे कर अविनाश बोले, ‘‘और यह बला टल जाए.’’

‘‘तो फिर इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी. उसे सीधेसीधे ही सौंप देते,’’ किशन ने कहा, ‘‘आप ने झूठ बोला, यह उसे पता चल जाएगा.’’

‘‘मगर, मुझे मीना को बचाना था. मैं उसे कोठे पर नहीं भेजना चाहता था, इसलिए मैं इनकार करता रहा.’’

‘‘अगर मीना खुद जाना चाहेगी, तब आप उसे कैसे रोक सकेंगे?’’ अभी किशन यह बात कह रहा था कि तभी वह आदमी आ कर बोला, ‘‘आप सही कहते हैं. मीना मुझे अंदर नहीं मिली.’’

‘‘अब तो हो गई तसल्ली तुम्हें?’’ अविनाश खुश हो कर बोले.

वह आदमी बिना कुछ बोले बाहर निकल गया.

अविनाश ने दरवाजा बंद कर लिया और हैरान हो कर किशन से बोले, ‘‘इस आदमी को मीना क्यों नहीं मिली, जबकि वह अंदर ही छिपी थी?’’

‘‘हां बाबूजी, मैं अगर अलमारी में नहीं छिपती, तो यह गुंडा मुझे कोठे पर ले जाता. आप ने मुझे बचा लिया. आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ बाहर निकलते हुए मीना बोली.

‘‘हां बेटी, चाहता तो मैं भी उस को पुलिस के हवाले करा सकता था, मगर तुम्हारे लिए मैं ने पुलिस को नहीं बुलाया,’’ समझाते हुए अविनाश बोले, ‘‘अब तुम्हारा इरादा क्या है?’’

‘‘किस बारे में बाबूजी?’’

‘‘अब इतनी रात को तुम कहां जाओगी?’’

‘‘आप मुझे कुछ दिनों तक अपने यहां शरणार्थी बन कर रहने दो.’’

‘‘मैं तुम को नहीं रख सकता मीना.’’

‘‘क्यों बाबूजी, अभी तो आप ने कहा था.’’

‘‘वह मेरी भूल थी.’’

‘‘तो मुझे आप एक रात के लिए अपने यहां रख लीजिए. सुबह मैं खुद चली जाऊंगी,’’ मीना बोली.

‘‘मगर, कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, इसे अभी निकाल दो,’’ किशन विरोध जताते हुए बोला.

‘‘किशन, मजबूर लड़की की मदद करना हमारा फर्ज है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर कहीं इसी इनसानियत में हैवानियत न छिपी हो बाबूजी.’’

‘‘आप आपस में लड़ो मत. मैं तो एक रात के लिए शरणार्थी बन कर रहना चाहती थी. मगर आप लोगों की इच्छा नहीं है, तो…’’ कह कर मीना चलने लगी.

‘‘रुको मीना,’’ अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा. मीना वहीं रुक गई.

अविनाश बोले, ‘‘तुम कौन हो, मैं नहीं जानता, मगर एक अनजान लड़की को घर में रखना खतरे से खाली नहीं है. और यह खतरा मैं मोल नहीं ले सकता. तुम जो कह रही हो, उस पर मैं कैसे यकीन कर लूं?’’

‘‘आप को कैसे यकीन दिलाऊं,’’ निराश हो कर मीना बोली, ‘‘मैं उस सौतेली मां के पास भी नहीं जाना चाहती.’’

‘‘जब तुम सौतेली मां के पास नहीं जाना चाहती हो, तो फिर कहां जाओगी?’’

‘‘नहीं जानती. मैं रहने के लिए एक रात मांग रही थी, मगर आप को एतराज है. आप का एतराज भी जायज है. आप मुझे जानते नहीं. ठीक है, मैं चलती हूं.’’

अविनाश उसे रोकते हुए बोले, ‘‘रुको, तुम कोई भी हो, मगर एक पीडि़त लड़की हो. मैं तुम्हारे लिए जुआ खेल रहा हूं. तुम यहां रह सकती हो, मगर कल सुबह चली जाना.’’

‘‘ठीक है बाबूजी,’’ कहते हुए मीना के चेहरे पर मुसकान फैल गई… ‘‘आप ने डूबते को तिनके का सहारा दिया है.’’

‘‘मगर, सुबह तुम कहां जाओगी?’’ अविनाश ने फिर पूछा.

‘‘सुबह मौसी के यहां उज्जैन चली जाऊंगी?’’

अविनाश ने यकीन कर लिया और बोले, ‘‘तुम मेरे कमरे में सो जाना.’’

‘‘आप कहां साएंगे बाबूजी?’’ मीना ने पूछा.

‘‘मैं यहां सोफे पर सो जाऊंगा,’’ अविनाश ने अपना फैसला सुना दिया और आगे बोले, ‘‘जाओ किशन, इसे मेरे कमरे में छोड़ आओ.’’

काफी रात हो गई थी. अविनाश और किशन को जल्दी नींद आ गई. सुबह जब देर से नींद खुली. मीना नहीं थी. सामान बिखरा हुआ था. अलमारियां खुली हुई थीं. उन में रखे गहनेनकदी सब साफ हो चुके थे.

अविनाश और किशन यह देख कर हैरान रह गए. उम्रभर की कमाई मीना ले गई. उन का अनजान लड़की पर किया गया भरोसा उन्हें बरबाद कर गया. जो आदमी रात को आया था, वह उसी गैंग का एक सदस्य था, तभी तो वह मीना को नहीं ले गया. चोरी करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया, उस तरीके पर कोई यकीन नहीं करेगा.

मीना ने जोकुछ कहा था, वह झूठ था. वह चोर गैंग की सदस्य थी. शरणार्थी बन कर अच्छा चूना लगा गई.

फर्क: रवीना की एक गलती ने तबाह कर दी उसकी जिंदगी

18 साल की रवीना के हाथों में जैसे ही वोटर आईडी कार्ड आया, उसे लगा जैसे सारी दुनिया उस की मुट्ठी में समा गई हो. यह सिर्फ एक दस्तावेज मात्र नहीं था बल्कि उस की आजादी का सर्टिफिकेट था।

‘अब मैं कानूनी रूप से बालिग हूं और अपनी मरजी की मालिक, अपनी जिंदगी की सर्वेसर्वा. निर्णय लेने को स्वतंत्र. जो चाहे करूं, जहां चाहे जाऊं. जिस के साथ मरजी रहूं. कोई बंधन, कोई रोकटोक नहीं. बस, खुला आसमान और ऊंची उड़ान…’ मन ही मन खुश होती हुई रवीना पल्लव के साथ अपनी आजादी का जश्न मनाने का नायाब तरीका सोचने लगी.

ग्रैजुऐशन के आखिरी साल की स्टूडैंट रवीना मातापिता की इकलौती बेटी थी. फैशन और हाई प्रोफाइल लाइफ की दीवानी रवीना नाजों पली होने के कारण जिद्दी और मनमौजी थी. पढ़ाईलिखाई में तो वह एक औसत छात्रा ही थी इसलिए पास होने के लिए हर साल उसे ट्यूशन और कोचिंग का सहारा लेना पड़ता था.

पल्लव भी पिछले दिनों ही इस कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने लगा है. पहली नजर में ही रवीना उस की तरफ झुकने लगी थी. लंबा और ऊंचा कद, गहरीगंभीर आंखें और लापरवाही से पहने कस्बाई फैशन के हिसाब से आधुनिक लिबास. बाकी लड़कियों की निगाहों में पल्लव कुछ भी खास नहीं था मगर उस का बेपरवाह अंदाज अतिआधुनिक शहरी रवीना के दिलोदिमाग में खलबली मचाए हुए था.

पल्लव कहने को तो कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाता था लेकिन असल में तो वह खुद भी एक स्टूडैंट ही था. उस ने इसी साल अपना ग्रैजुऐशन पूरा किया था और अब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए शहर में रुका था. कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने के पीछे उस का यह मकसद भी था कि इस तरीके से वह किताबों के संपर्क में रहेगा, साथ ही जेबखर्च के लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाएगी.

पल्लव के पिता उस के इस फैसले से सहमत नहीं थे. वे चाहते थे कि पल्लव पूरी तरह से समर्पित हो कर अपना ध्यान केवल अपने भविष्य की तैयारी पर लगाए लेकिन पल्लव से पूरा दिन एक ही जगह बंद कमरे में बैठ कर पढ़ाई नहीं होती थी, इसलिए उस ने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ पढ़ने के साथसाथ पढ़ाने का विकल्प चुना और इस तरह से रवीना के संपर्क में आया.

‘2 विपरीत ध्रुव एकदूसरे को आकर्षित करते हैं’, इस सर्वमान्य नियम से भला पल्लव कैसे अछूता रह सकता था. धीरेधीरे वह भी खुद के प्रति रवीना के आकर्षण को महसूस करने लगा था। मगर एक तो उस का संकोची स्वभाव, दूसरे सामाजिक स्तर पर कमतरी का एहसास उसे दोस्ती के लिए आमंत्रित करती रवीना की मुसकान के निमंत्रण को स्वीकार नहीं करने दे रहा था.

आखिर विज्ञान की जीत हुई और शुरुआती औपचारिकता के बाद अब दोनों के बीच अच्छीखासी ट्यूनिंग बनने लगी थी. फोन पर बातों का सिलसिला भी शुरू हो चुका था.

“लीजिए जनाब, सरकार ने हमें कानूनन बालिग घोषित कर दिया है,” पल्लव के चेहरे के सामने अपना वोटर कार्ड हवा में लहराते हुए रवीना खिलखिलाई.

“तो जश्न मनाएं…” पल्लव ने भी उसी गरमजोशी से जवाब दिया.

“चलो, आज तुम्हें पिज्जा खिलाने ले चलती हूं.”

“न… न… तुम अपने खुबसूरत हाथों से 1 कप चाय बना कर पिला दो. मैं तो इसी में खुश हो जाउंगा,” पल्लव ने रवीना के चेहरे पर शरारत करते बालों की लट को उस के कानों के पीछे ले जाते हुए कहा. रवीना उस का प्रस्ताव सुन कर हैरान थी.

“चाय? मगर कैसे? कहां?” रवीना ने पूछा.

“मेरे रूम पर और कहां?” पल्लव ने उसे आश्चर्य से बाहर निकाला. रवीना राजी हो गई.

रवीना ने मुसकरा कर स्कूटर स्टार्ट करते हुए पल्लव को पीछे बैठने के लिए आमंत्रित किया. यह पहला मौका था जब पल्लव उस से इतना सट कर बैठा था. कुछ ही मिनटों के बाद दोनों पल्लव के कमरे पर थे. जैसाकि आम पढ़ने वाले युवाओं का होता है, पल्लव के कमरे में भी सामान के नाम पर एक पलंग, टेबलकुरसी और रसोई का सामान था. रवीना अपने बैठने के लिए जगह तलाश कर ही रही थी कि पल्लव ने उसे पलंग पर बैठने का इशारा किया. रवीना सकुचाते हुए बैठ गई. पल्लव भी वहीं उस के पास आ बैठा.

एकांत में 2 युवा दिल एकदूसरे की धड़कनें महसूस करने लगे और कुछ ही पलों में दोनों के रिश्ते ने एक लंबा फासला तय कर लिया. दोनों के बीच बहुत सी औपचारिकताओं के किले ढह गए. एक बार ढहे तो फिर बारबार ये वर्जनाएं टूटने लगीं.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. दोनों की नजदीकियों की भनक जब रवीना के घर वालों को लगी तो उसे लाइन हाजिर किया गया.

“मैं पल्लव से प्यार करती हूं,” रवीना ने बेझिझक स्वीकार किया. बेटी की मुंहजोरी पर पिता आगबबूला हो गए.
यह उम्र कैरियर बनाने की है, रिश्ते नहीं. समझीं तुम…” पापा ने उसे लताड़ दिया.

“मैं बालिग हूं. अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है मुझे,” रवीना बगावत पर उतर आई थी. इसी दौरान बीचबचाव करने के लिए मां उन के बीच आ खड़ी हुईं.

“कल से इस का कालेज और इंस्टिट्यूट दोनों जगह जाना बंद,” पिता ने उस की मां की तरफ मुखातिब होते हुए कहा तो रवीना पांव पटकते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी. थोड़ी ही देर में कपड़ों से भरा सूटकेस हाथ में लिए वह खड़ी थी.

“मैं पल्लव के साथ रहने जा रही हूं,” रवीना के इस ऐलान ने घर में सब के होश उड़ा दिए.

“तुम बिना शादी किए एक पराए मर्द के साथ रहोगी? क्यों समाज में हमारी नाक कटवाने पर तुली हो?” इस बार मां उस के खिलाफ हो गई.

“हम दोनों बालिग हैं. अब तो कोर्ट ने भी इस बात की इजाजत दे दी है कि 2 बालिग लिव इन में रह सकते हैं, उम्र चाहे जो भी हो,” रवीना ने मां के विरोध को चुनौती दी.

“कोर्ट अपने फैसले नियमकानून और सुबूतों के आधार पर देता है. सामाजिक व्यवस्थाएं इन सब से बिलकुल अलग होती हैं. कानून और समाज के नियम सर्वथा भिन्न होते हैं,” पापा ने उसे समझाने की कोशिश की मगर रवीना के कान तो पल्लव के नाम के अलावा कुछ और सुनने को तैयार ही नहीं थे.

उसे अब अपने और पल्लव के बीच कोई बाधा स्वीकार नहीं थी. वह बिना पीछे मुड़ कर देखे अपने घर की दहलीज लांघ गई. यों अचानक रवीना को सामान सहित अपने सामने देख कर पल्लव अचकचा गया. रवीना ने एक ही सांस में उसे पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा दे दिया.

“कोई बात नहीं, अब तुम मेरे पास आ गई हो न. पुराना सब बातें भूल जाओ और मिलन का जश्न मनाओ,” कमरा बंद कर के पल्लव ने उसे अपने पास खींच लिया और कुछ ही देर में हमेशा की तरह उन के बीच रहीसही सारी दूरियां भी मिट गईं. रवीना ने एक बार फिर अपना सबकुछ पल्लव को समर्पित कर दिया.

2-4 दिन में ही पल्लव के मकानमालिक को भी सारी हकीकत पता चल गई कि पल्लव अपने साथ किसी लड़की को रखे हुए है. उस ने पल्लव को धमकाते हुए कमरा खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया. समाज की तरफ से उन पर यह पहला प्रहार था मगर उन्होंने हार नहीं मानी. कमरा खाली कर के दोनों एक सस्ते होटल में आ गए.

कुछ दिन तो सोने से दिन और चांदी सी रातें गुजरीं मगर साल बीततेबीतते ही उन के इश्क का इंद्रधनुष फीका पड़ने लगा. ‘प्यार से पेट नहीं भरता’ इस कहावत का मतलब पल्लव अच्छी तरह समझने लगा था.
समाज में बदनामी होने के कारण पल्लव की कोचिंग छूट गई और अब आमदनी का कोई दूसरा जरीया भी उन के पास नहीं था. पल्लव के पास प्रतियोगी परीक्षाओं का शुल्क भरने तक के पैसे नहीं बच पा रहे थे. उस ने वह होटल भी छोड़ दिया और अब रवीना को ले कर बहुत ही निम्न स्तर के मोहल्ले में रहने आ गया.

एक तरफ जहां पल्लव को रवीना के साथ अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा था, तो वहीं दूसरी तरफ रवीना तो अब पल्लव में ही अपना भविष्य तलाशने लगी थी. वह इस लिव इन को स्थाई संबंध में परिवर्तित करना चाहती थी और पल्लव से शादी करना चाहती थी. रवीना को भरोसा था कि जल्दी ही अंधेरी गलियां खत्म हो जाएंगी और उन्हें अपनी मंजिल के रास्ते मिल जाएंगे. बस, किसी तरह पल्लव कहीं सैट हो जाए.

एक बार फिर विज्ञान का यह आकर्षण का नियम पल्लव पर लागू हो रहा था,’2 विपरीत ध्रुव जब एक निश्चित सीमा तक नजदीक आ जाते हैं तो उन में विकर्षण पैदा होने लगता है।’ पल्लव भी इसी विकर्षण का शिकार होने लगा था. हालातों के सामने घुटने टेकता वह अपने पिता के सामने रो पड़ा तो उन्होंने रवीना से अलग होने की शर्त पर उस की मदद करना स्वीकार कर लिया. मरता क्या नहीं करता, पिता की शर्त के अनुसार उस ने फिर से कोचिंग जाना शुरू कर दिया और वहीं होस्टल में रहने लगा, मगर इस बार कोचिंग में पढ़ाने नहीं बल्कि स्वयं पढ़ने के लिए. रवीना के लिए यह किसी बड़े झटके से कम नहीं था. वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगी. मगर दोष दे भी तो किसे? यह तो उस का अपना फैसला था.

पल्लव के जाने के बाद वह अकेली ही उस मोहल्ले में रहने लगी. इतना सब होने के बाद भी उसे पल्लव का इंतजार था. वह भी उस के बैंक परीक्षा के रिजल्ट का इंतजार कर रही थी,’एक बार पल्लव का सिलैक्शन हो जाए तो फिर सब ठीक हो जाएगा. हमारा दम तोड़ता रिश्ता फिर से जी उठेगा,’ इसी उम्मीद पर वह हर चोट सहती जा रही थी.

आखिर रिजल्ट भी आ गया. पल्लव की मेहनत रंग लाई और उस का बैंक परीक्षा में में चयन हो गया. रवीना यह खुशी उत्सव की तरह मनाना चाहती थी. वह दिनभर तैयार हो कर उस का इंतजार करती रही मगर वह नहीं आया. रवीना पल्लव को फोन पर फोन लगाती रही मगर उस ने फोन भी नहीं उठाया.

आखिर रवीना उस के होस्टल जा पहुंची. वहां जा कर पता चला कि पल्लव तो सुबह रिजल्ट आते ही अपने घर चला गया. रवीना बिलकुल निराश हो गई. क्या करे? कहां जाए? वर्तमान तो खराब हुआ ही, भविष्य भी अंधकारमय हो गया. आसमान तो हासिल नहीं हुआ, पांवों के नीचे की जमीन भी अपनी नहीं रही. पल्लव का प्रेम तो मिला नहीं, मातापिता का स्नेह भी वह छोड़ आई. काश, उस ने अपनेआप को कुछ समय सोचने के लिए दिया होता. मगर अब क्या हो सकता है? पीछे लौटने के सारे रास्ते तो वह खुद ही बंद कर आई थी. रवीना बुरी तरह से हताश हो गई. वह कुछ भी सोच नहीं पा रही थी. कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी.

आखिर उस ने एक खतरनाक निर्णय ले ही लिया,”तुम्हें तुम्हारा रास्ता मुबारक हो. मैं अपने रास्ते जा रही हूं. खुश रहो,” रवीना ने एक मैसेज पल्लव को भेजा और अपना मोबाइल स्विच औफ कर लिया. संदेश पढ़ते ही पल्लव के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई.

‘अगर इस लड़की ने कुछ उलटासीधा कर लिया तो मेरा कैरियर चौपट हो जाएगा,’ यह सोचते हुए उस ने 1-2 बार रवीना को फोन लगाने की कोशिश की मगर नाकाम होने पर तुरंत दोस्त के साथ बाइक ले कर उस के पास पहुंच गया. जैसाकि उसे अंदेशा था, रवीना नींद की गोलियां खा कर बेसुध पड़ी थी. पल्लव दोस्त की मदद से उसे हौस्पिटल ले कर आया और उस के घर पर भी खबर कर दी. डाक्टरों के इलाज शुरू करते ही दवा लेने के बहाने पल्लव वहां से खिसक गया.

बेशक रवीना अपने घर वालों से सारे रिश्ते खत्म कर आई थी मगर खून के रिश्ते भी कहीं टूटे हैं भला? खबर पाते ही मातापिता बदहवास से बेटी के पास पहुंच गए. समय पर चिकित्सा सहायता मिलने से रवीना अब खतरे से बाहर थी. मांपापा को सामने देख वह फफक पड़ी,”मां, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. सिर्फ आज के लिए ही नहीं बल्कि उस दिन के अपने फैसले के लिए भी, जब मैं आप सब को छोड़ आई थी,” रवीना ने कहा तो मां ने कस कर उस का हाथ थाम लिया.

“यदि मैं ने उस दिन घर न छोड़ा होता तो आज कहीं बेहतर जिंदगी जी रही होती. मेरा वर्तमान और भविष्य, दोनों ही सुनहरे होते. मैं ने स्वतंत्र होने में बहुत जल्दबाजी की. मैं तो आप लोगों से माफी मांगने के लायक भी नहीं हूं…” रवीना फफक पङी.

“तुम घर लौट चलो. अपनेआप को वक्त दो और फिर से अपने फैसले का मूल्यांकन करो. जिंदगी किसी एक मोड़ पर रुकने का नाम नहीं बल्कि यह तो एक सतत प्रवाह है. इस के साथ बहने वाले ही अपनी मंजिल को पाते हैं,” पापा ने उसे समझाया.

“हां, किसी एक जगह अटके रहने का नाम जिंदगी नहीं है. यह तो अनवरत बहती रहने वाली नदी है. तुम भी इस के बाहव में खुद को छोड़ दो और एक बार फिर से मुकाम बनाने की कोशिश करो. हम सब तुम्हारे साथ हैं,” मां ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

मन ही मन अपने फैसले से सबक लेने का दृढ संकल्प करते हुए रवीना मुसकरा दी. अब उसे स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क साफसाफ नजर आ रहा था.

ज्योति: जैसा नाम वैसी ही गुणी

लेखिका : वैदेही कोठारी

घरगृहस्थी में ज्योति पूरी तरह रम चुकी थी. उसे घरपरिवार का ध्यान रखना, उन की पसंद का खाना बनाना सभीकुछ अच्छा लगता था, क्योंकि ज्योति की काकी ने उसे 8वीं क्लास के बाद सिर्फ घरपरिवार का कैसे ध्यान रखना है, खाना कैसे बनाना है, बस इतना ही सिखाया था. पढ़ाई बंद हुई, तो बाहर की दुनिया से ज्यादा नाता ही नहीं रहा. 18वां साल खत्म होते ही ज्योति को डोली में बैठा दिया था.

अगर घर के किसी भी सदस्य की तबीयत खराब होती, तो ज्योति उस का खास ध्यान रखती.

ज्योति जैसा नाम वैसी ही गुणी थी. वह घर की ज्योत थी. उस के पति रमेश सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थे, इसलिए वह उन के स्कूल जाने वाले समय का खास ध्यान रखती थी.

ज्योति के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा कालेज में और छोटा बेटा हाईस्कूल में पढ़ता था. घर में बूढ़ी सासूजी भी थीं, जो अपना ज्यादातर समय टैलीविजन देखने में बिताती थीं.

पर, समय कब एकजैसा चलता है. कुछ समय से ज्योति को अपनी सेहत कुछ अच्छी नहीं लग रही थी. वह कुछ काम करती, तो उसे थकान महसूस होने लगती.

एक दिन ज्योति ने रमेश से कहा, ‘‘कुछ दिनों से मुझे ज्यादा थकान महसूस होने लगी है,’’ तो रमेश ने कहा कि आराम कर लिया करो.

इसी तरह कुछ दिन तो निकल गए, पर अब ज्योति को कभी सिर दुखना, कभी हाथपैर में दर्द, कंपन जैसी कुछ परेशानियां बढ़ने लगी थीं.

ज्योति रमेश को जब भी अपनी तबीयत के बारे में बोलती, तो रमेश मुंह बना कर कहते, ‘‘तुम कब ठीक रहती हो… तुम्हें तो कुछ न कुछ होता ही रहता है… लाओ, जल्दी खाना दो मुझे… जाना है…’’

ज्योति मायूस हो कर चुप्पी साध गई और रमेश को खाना परोस कर, फिर पेनकिलर दवा खा कर धीरेधीरे अपने घर के काम निबटाने लग गई.

अब तो ज्योति दिन में जब कभी आराम करती, तो बेटा चिल्लाते हुए बोलता, ‘‘क्या मां, जब देखो तुम पड़ी रहती हो?’’

वह थकीथकी सी उठ कर पूछती कि क्या हुआ? तो बेटा बोलता, ‘‘मुझे खाना दो…’’

ज्योति बेटे को खाना परोसती, फिर धीरेधीरे घर के दूसरे काम में लग जाती.

ज्योति का चेहरा दिनोंदिन मुरझाने लगा था. उस की रंगत फीकी पड़ने लगी थी.

रमेश शाम को जब घर आता, तो उस का मुरझाया हुआ चेहरा देख कर बोलता, ‘‘अच्छे से नहीं रह सकती हो क्या? घर में तुम्हें हल नहीं चलाना पड़ता, जो ऐसी थकी सी दिख रही हो.’’

यह सुन कर ज्योति अंदर ही अंदर टूट गई. वह झूठी मुसकान के साथ बोली, ‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… अभी चाय बनाती हूं. आप कपड़े बदल लो.’’

ज्योति ने सभी के लिए चाय बनाई, फिर वह खाना बनाने की तैयारी करने लग गई.

आज ज्योति को पेनकिलर  दवा का भी असर नहीं हो रहा था. वह अपने दर्द को छिपाते हुए सब को खाना खिलाने लगी. आज उस का खाना खाने का मन भी नहीं कर रहा था.

ज्योति ने जैसेतैसे थकेहारे मन और तन से घर का काम निबटाया. उसे थोड़ा चक्कर आया तो वह कुरसी पर बैठने लगी, पर तभी नीचे गिर पड़ी.

जब सभी को आवाज आई, तो वे दौड़ कर ज्योति के पास आ गए और फिर उसे डाक्टर के पास ले गए.

डाक्टर ने जब पूरी जांच की, तो उसे सीरियस हालत में बताया.

यह सुन कर पति और बच्चे चिंतित हो गए. रमेश के कानों में ज्योति को कहे अपने वे शब्द घूम गए, ‘तुम को तो कुछ न कुछ होता ही रहता है…’

काश, उस समय रमेश ज्योति की हालत को समझ लेता…

कुछ मत लाना प्रिय: रश्मि की सास ने कौनसी बात बताई थी

अजय ने टूअर पर जाते हुए हमेशा की तरह मुझे किस किया. बंदा आज भी रोमांटिक तो बहुत है पर मैं उस बात से मन ही मन डर रही थी जिस बात से शादी के पिछले 10 सालों से आज भी डरती हूं जब भी वे टूअर पर निकलते हैं. मेरा डर हमेशा की तरह सच साबित हुआ, वे बोले, ”चलता हूं डार्लिंग, 5 दिनों बाद आ जाऊंगा. बोलो, हैदराबाद से तुम्हारे लिए क्या लाऊं?”

मैं बोल पङी, ”नहीं, प्लीज कुछ मत लाना, डिअर.”

पर क्या कभी कह पाई हूं, फिर भी एक कोशिश की और कहा, ‘’अरे नहीं, कुछ मत लाना, अभी बहुत सारे कपड़े पङे हैं जो पहने ही नहीं हैं.’’

‘’ओह, रश्मि, तुम जानती हो न कि जब भी मैं टूअर पर जाता हूं, तुम्हारे लिए कुछ जरूर लाता हूं, मुझे अच्छा लगता है तुम्हारे लिए कुछ लाना.’’

थोङा प्यार और रोमांस के साथ (टूअर पर जाते हुए पति पर प्यार तो बहुत आ रहा होता है ) मैं ने भी अजय को भेज कर अपनी अलमारी खोली. यों ही ऊपरी किनारे में रखे कपड़ों का और बाकी कुछ चीजों का वही ढेर उठा लिया जो अजय पिछले कुछ सालों में टूअर से लाए थे. इस में कोई शक नहीं कि अजय मुझे प्यार करते हैं पर मुश्किल थोड़ी यह है कि अजय और मेरी पसंद थोड़ी अलगअलग है.

अजय हमेशा मेरे लिए कुछ लाते हैं. कोई भी पत्नी इस बात पर मुझ से जल सकती है. सहेलियां जलती भी हैं, साफसाफ आहें भी भरती हैं कि हाय, उन के पति तो कभी नहीं लाते ऐसे गिफ्ट्स. हर बार इस बात पर खुश मैं भी होती हूं पर परेशानी यह है कि अजय जो चीजें लाते हैं, अकसर मेरी पसंद की नहीं होतीं.

अब यह देखिए, यह जो ब्राउन कलर की साड़ी है, इस का बौर्डर देख रहे हैं कि कितना चौड़ा है. यह मुझे पसंद ही नहीं है और सब से बड़ी बात यह कि ब्राउन कलर ही नहीं पसंद है. अजीब सा लगता है यह पीला सूट. इतना पीला? मुझे खुद ही आंखों में चुभता है, औरों की क्या कहूं.

अजय को ब्राइट कलर पसंद है. कहते हैं कि तुम कितनी गोरी हो… तुम पर तो हर रंग अच्छा लगता है. मैं मन ही मन सोचती हूं कि हां, ठीक है, प्रिय, गोरी हूं तो कभी मेरे लिए मेरे फैवरिट ब्लू, व्हाइट, ब्लैक, रैड कलर भी तो लाओ. मुझ पर तो वे रंग भी बहुत अच्छे लगते हैं. और अभी तो अजय ने एक नया काम शुरू किया है. वह अपनेआप को इस आइडिया के लिए शाबाशी देते हैं, अब वह टूअर पर फ्री टाइम मिलते ही जब मेरे लिए शौपिंग के लिए किसी कपड़े की शौप पर जाते हैं, वीडिओ कौल करते हैं, कहते हैं कि मैं तुम्हें कपड़े दिखा रहा हूं तो तुम ही बताओ तुम्हें क्या चाहिए? मैं ने इस बात पर राहत की थोड़ी सांस ली पर यह भी आसान नहीं था.

पिछले टूअर पर अजय जब मेरे लिए रैडीमैड कुरती लेने गए, दुकानदार को ही फोन पकड़ा दिया कि इसे बता दो तुम्हें. मैं ने बताना शुरू किया कि कोई प्लेन ब्लू कलर की कुरती है?

”हां जी, मैडम, बिलकुल है.”

फिर वह कुरतियां दिखाने लगा. साइज समझने में थोड़ी दिक्कत उसे भी हुई और समझाने में मुझे भी. अजय को मैं ने व्हाट्सऐप पर मैसेज भी भेजे कि अभी न लें, साइज समझ नहीं आ रहा है, उन का रिप्लाई आया कि सही करवा लेना. एक कुरती लिया गया, फिर अजय हैदराबाद में वहां के फेमस पर्ल सैट लेने गए. मैं यहां दिल्ली में बैठीबैठी इस बात पर नर्वस थी कि क्या खरीदा जाएगा.

मैं बोली जा रही थी कि पहले वाले भी रखे हैं अभी तो. न खरीदो पर पत्नी प्रेम में पोरपोर डूबे हैं अजय. आप लोग मुझे पति के लाए उपहारों की कद्र न करने वाली पत्नी कतई न समझें. बस, जिस बात से घबराती हूं, वह है पसंद में फर्क.

रास्ते से अजय ने फोन किया, ”किस तरह का सैट लाऊं?”

”बहुत पतला सा, जिस में कोई बड़ा डिजाइन न हो, बस छोटेछोटे व्हाइट मोतियों की पतली सी माला और साथ में छोटी कान की बालियां, जो मैं कभी भी पहन पाऊं.’’

मैं ने काफी अच्छी तरह से अपनी पसंद बता दी थी. अगले दिन सुबह ही अजय को वापस आना था. हमारे दोनों बच्चों के लिए भी वे वहां से करांची बिस्कुट और वहां की मिठाई भी लाने वाले थे. अजय को दरअसल सब के लिए ही कुछ न कुछ लाने का शौक है. यह शौक शायद उन्हें अपने पिताजी से मिला है.

ससुरजी भी जब घर आते, कुछ न कुछ जरूर लाया करते. कभी किसी के लिए, तो कभी किसी के लिए कुछ लाने की उन की प्यारी सी आदत थी. सासूमां हमेशा इस बात को गर्व से बताया करतीं.

उन्होंने मुझे भी एक बार हिंट दिया, ”तुम्हारे ससुरजी को मेरे लिए कुछ लाने की आदत है. यह अलग बात है कि कभी मुझे उन की लाई चीजें कभी पसंद आती हैं, तो कभी नहीं, पर जिस प्यार से लाते हैं, बस उस प्यार की कद्र करते हुए मैं भी उन की लाई चीजें देखदेख कर थोड़ा चहकने की ऐक्टिंग कर लेती हूं जिस से वे खुश हो जाएं. तो बहू, जब भी अजय कुछ लाए, पसंद न भी हो तो खुश हो कर दिखाना,” हम दोनों इस बात पर बहुत देर तक हंसी थीं और इस बात पर जीभर कर हंसने के बाद हमारी बौंडिंग बहुत अच्छी हो गई थी.

सासूमां तो बहुत ही खुश हो गई थीं जब उन्हें समझ आया कि हम दोनों एक ही कश्ती में सवार हैं, कभी मूड में होतीं तो ससुरजी की अनुपस्थिति में अपनी अलमारी खोल कर दिखातीं, ”यह देखो, बहू, यह जितनी भी गुलाबी छटा बिखरी देख रही हो मेरे कपड़ों में, सब गुलाबी कपड़े तुम्हारे ससुरजी के लाए हुए हैं. उन्हें गुलाबी रंग बहुत पसंद हैं. वे जीवनभर मेरे लिए जो भी लाए, सब गुलाबी ही लाए. सहेलियां, रिश्तेदार गुलाबी रंग में ही मुझे देखदेख कर बोर हो गए पर तुम्हारे ससुरजी ने अपनी पसंद न छोड़ी. गुलाबी ढेर लगता रहा एक कोने में.”

मैं बहुत हंसी थी उस दिन, पर मैं ने प्यारी सासूमां की बात जरूर गांठ से बांध ली थी कि अजय जो भी लाते हैं, मैं ऐसी ऐक्टिंग करती हूं कि वे खुद को ही शाबाशी देने लगते हैं कि कितनी अच्छी चीज लाए हैं मेरे लिए. मुझे तो कुछ भी खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऐक्टिंग का अच्छा आइडिया दे गईं सासूमां. आज अगर वे होतीं तो अपनी चेली को देख खुश होतीं.

यह अलग बात है कि मैं अजय को यह नहीं समझा पाई कभी कि जब इतने नए कपड़े रखे रहते हैं तो मैं बीचबीच में अपनी पसंद का बहुत कुछ क्यों खरीदती रहती हूं. कुछ भी कहें लोग, पति होते तो हैं भोलेभाले और आसानी से आ जाते हैं बातों में. तभी तो आजतक जान नहीं पाए कि मैं खुद भी क्यों खरीदती रहती हूं बहुत कुछ.

दरअसल, मैं वह गलती भी नहीं करना चाहती जो मेरी अजीज दोस्त रीता ने की थी. उस ने शादी के बाद अपने पति की लाई हुई चीजें देख कर उन्हें साफसाफ समझा दिया कि दोनों की पसंद में काफी फर्क है. उसे उन का लाया कुछ पसंद नहीं आएगा तो पैसे बेकार जाएंगे. वह अपनी पसंद की ही चीजें खरीदना पसंद करती है और वे उस के लिए कुछ न लाया करें. वह जो भी खरीदेगी, आखिर होगा तो उन का ही पैसा, तो उन पति पत्नी में यहां बात ही खत्म हो गई.

जीवनभर का टंटा एक बात में साफ. पर मैं ने देखा है कि जब भी उस का फ्रैंड सर्किल उस से पूछता है कि भाई साहब ने क्या गिफ्ट दिया या क्या लाए, तो उस का चेहरा उतरता तो है, क्योंकि उन के पति ने भी उन की बात पर ध्यान दे कर फिर कभी न उन पर अपना पैसा वैस्ट किया, न ही समय. मतलब पति के लाए उपहारों में बात तो है.

खैर, रात को बच्चे खुश थे कि पापा उन के लिए जरूर कुछ लाएंगे. मैं हमेशा की तरह उन के आने पर तो खुश थी पर कुछ लाने पर तो डरी ही हुई थी, जब सुबह बच्चे अपनी चीजों में खुश थे.

अजय ने किसी फिल्मी हीरो की तरह पर्ल सैट का बौक्स मुझे देते हुए रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”अभी पहन कर दिखाओ, रश्मि.”

मैं ने बौक्स खोला, खूब बड़ेबड़े मोतियों की माला, बड़ा सा हरा पेडैंट, कंधे तक लटकने वाली कान खी बालियां, खूब भारीभरकम सा सैट. शायद मेरे चेहरे का रंग उड़ा होगा जो अजय पूछ रहे थे, ”क्या हुआ? पसंद नहीं है?”

”अरे, नहींनहीं, यह तो बहुत ही जबरदस्त है,” मुझे सासूमां की बात सही समय पर याद आई तो मैं ने कहा.

”थैंक यू,’’ कहते हुए मैं मुसकरा दी. मैं ने बौक्स अलमारी में रखा, वे फ्रैश होने चले गए. मैं ने उन के सामने चाय रखते हुए टूअर की बातें पूछीं और साथ में लगे हाथ पूरी चालाकी से यह भी कहा, ”बहुत भारी सैट ले आए. कोई हलकाफुलका ले आते जो कभी भी पहन लेती. यह तो सिर्फ किसी फंक्शन में ही निकलेगा. कोई हलका सा नहीं था क्या?’’

”अरे, था न. बहुत वैराइटी थी. पर मैं ने सोचा कि हलका क्या लेना.’’

मन हुआ कहूं कि प्रिय, इतना मत सोचा करो, बस जो हिंट दूं, ले आया करो. पर चुप ही रही और सामने बैठी कल्पना में हलकेफुलके सैट पहने अपनेआप को देखती रही.

अजय महीने में 15 दिन टूअर पर ही रहते हैं. एक दिन औफिस से आ कर बोले, ”रश्मि, अगले हफ्ते चंडीगढ़ जाना है, बोलो, क्या चाहिए? क्या लाऊं तुम्हारे लिए?’’

मैं ने प्यार से उन के गले में बांहें डाल दीं,”कुछ नहीं, इतना कुछ तो रखा है. हर बार लाना जरूरी नहीं, डिअर.’’

”मेरी जान, पर मुझे शौक है लाने का.’’

मेरा दिल कह रहा था कि नहीं… जानते हैं न आप, क्यों कह रहा था?

टुकड़ों में बंटी जिंदगी: एक मासूम बना कठपुतली

पिता की गलतियों के कारण ही मैं मंदबुद्धि बालक पैदा हुआ. जब मैं मां के गर्भ में था तो मेरी मां को भरपूर खाना नहीं मिलता था. उन को मेरे पिता यह कह कर मानसिक यंत्रणा देते थे कि उन की जन्मपत्री में लिखा है कि उन का पहला बच्चा नहीं बचेगा. वह बच्चा मैं हूं. जो 35 वर्षगांठ बिना किसी समारोह के मना चुका है.

पैदा होने के बाद मैं पीलिया रोग से ग्रसित था, लेकिन मेरा इलाज नहीं करवाया गया. मेरी मां बहुत ही सीधी थीं मेरे पापा उन को पैसे नहीं देते थे कि वे अपनी मरजी से मेरे लिए कुछ कर सकें. सबकुछ सहते हुए वे अंदर से घुटती रहती थीं. वह जमाना ही ऐसा था जब लड़कियां शादी के बाद अपनी ससुराल से अर्थी में ही निकलती थीं. मायके वाले साथ नहीं देते थे.

मेरी नानी मेरी मां को दुखी देख कर परेशान रहती थीं. लेकिन परिवार के अन्य लोगों का सहयोग न मिलने के कारण कुछ नहीं कर पाईं. मैं 2 साल का हो गया था, लेकिन न बोलता था, न चलता था. बस, घुटनों चलता था. मेरी मां पलपल मेरा ध्यान रखती थीं और हर समय मु झे गोदी में लिए रहती थीं. शायद वे जीवनभर का प्यार 2 साल में ही देना चाहती थीं.

मेरे पैदा होने के बाद मेरे कार्यकलाप में प्रगति न देख कर वे बहुत अधिक मानसिक तनाव में रहने लगीं. जिस का परिणाम यह निकला कि वे ब्लडकैंसर जैसी घातक बीमारी के कारण 3 महीने में ही चल बसीं. लेकिन मैं मंदबुद्धि बालक और उम्र भी कम होने के कारण सम झ ही नहीं पाया अपने जीवन में आए इस भूचाल को. सूनी आंखों से मां को ढूंढ़ तो रहा था, लेकिन मु झे किसी से पूछने के लिए शब्दों का ज्ञान ही नहीं था. मु झे अच्छी तरह याद है जब मेरी मां का क्रियाकर्म कर के मेरे मामा और नाना दिल्ली लौटे तो मु झे एक बार तो उन्होंने गोद में लिया, लेकिन मेरी कुछ भी प्रतिक्रिया न देख कर किसी ने भी मेरी परवाह नहीं की. बस, मेरी नानी ने मु झे अपने से बहुत देर तक चिपटाए रखा था. मेरे पापा तो एक बार भी मु झ से मिलने नहीं आए.

मां ने अंतिम समय में मेरी जिम्मेदारी किसी को नहीं सौंपी. लेकिन मेरे नानानानी ने मु झे अपने पास रखने का निर्णय ले लिया. उन का कहना था कि मेरी मां की तरह मेरे पापा मु झे भी यंत्रणा दे कर मार डालेंगे. वे भूले नहीं थे कि मेरी मां ने उन को बताया था कि गलती से मेरी बांह पर गरम प्रैस नहीं गिरी थी, बल्कि मेरे पिता ने जानबू झ कर मेरी बांह पर रख दी थी, जिस का निशान आज तक मेरी बांह पर है. एक बार सीढ़ी से धकेलने का प्रयास भी किया था. इस के पीछे उन की क्या मानसिकता थी, शायद वे जन्मपत्री की बात सत्य साबित कर के अपना अहं संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे. वे मु झे कभी लेने भी नहीं आए.

मां की मृत्यु के 3 महीने के बाद ही उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया. यह मेरे लिए विडंबना ही तो थी कि मु झे मेरी मां के स्थान पर दूसरी मां नहीं मिली, लेकिन मेरे पिता को दूसरी पत्नी मिलने में देर नहीं लगी. पिता के रहते हुए मैं अनाथ हो गया.

मैं मंदबुद्धि था, इसलिए मेरे नानानानी ने मु झे पालने में बहुत शारीरिक, मानसिक व आर्थिक कष्ट सहे. शारीरिक इसलिए कि मंदबुद्धि होने के कारण  15 साल की उम्र तक लघु और दीर्घशंका का ज्ञान ही नहीं था, कपड़ों में ही अपनेआप हो जाता था और उन को नानी को साफ करना पड़ता था. रात को बिस्तर गीला हो जाने पर नानी रात को उठ कर बिस्तर बदलती थीं.

ढलती उम्र के कारण मेरे नानानानी शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गए थे. लेकिन मोहवश वे मेरा बहुत ध्यान रखते थे. मैं स्कूल अकेला नहीं जा पाता था, इसलिए मेरे नाना मु झे स्कूलबस तक छोड़ने जाते थे. मु झे ऐसे स्कूल में भेजा जहां सभी बच्चे मेरे जैसे थे. उन्होंने मानसिक कष्ट सहे, इसलिए कि मेरे मंदबुद्धि होने के कारण नानानानी कहीं भी मु झे ले कर जाते तो लोग परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए मेरे असामान्य व्यवहार को देख कर उन को ताने देते. उस से उन का मन बहुत व्यथित होता. फिर वे मु झे कहीं भी ले कर जाने में कतराने लगे.

उन के अपने बच्चों ने भी मेरे कारण उन से बहुत दूरी बना ली थी. कई रिश्तेदारों ने तो यहां तक भी कह दिया कि मु झे अनाथाश्रम में क्यों नहीं डाल देते? नानानानी को यह सुन कर बहुत दुख होता. कई बार कोई घर आता तो नानी गीले बिस्तर को जल्दी से ढक देतीं, जिस से उन की नकारात्मक प्रतिक्रिया का दंश उन को न  झेलना पड़े.

मैं शारीरिक रूप से बहुत तंदुरुस्त था. दिमाम का उपयोग न होने के कारण ताकत भी बहुत थी, अंदर ही अंदर अपनी कमी को सम झते हुए सारा आक्रोश अपनी नानी पर निकालता था. कभी उन के बाल खींचता कभी उन पर पानी डाल देता और कभी उन की गोदी में सिर पटक कर उन को तकलीफ पहुंचाता. मातापिता के न रहने से उन के अनुशासन के बिना मैं बहुत जिद्दी भी हो गया था. मैं ने अपनी नानी को बहुत दुख दिया. लेकिन इस में मेरी कोई गलती नहीं थी क्योंकि मैं मंदबुद्धि बालक था. नानानानी ने आर्थिक कष्ट सहे, इस प्रकार कि मेरा सारा खर्च मेरे पैंशनधारी नाना पर आ गया था. कहीं से भी उन को सहयोग नहीं मिलता था. उन्होंने मेरा अच्छे से अच्छे डाक्टर से इलाज करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वैसे भी मु झे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी.

नानी मेरे भविष्य को ले कर बहुत चिंतित रहती थीं और मेरे कारण मानसिक आघात सहतेसहते थक कर असमय ही 65 वर्ष की उम्र में ही सदा के लिए विदा हो गईं. उस समय मेरी उम्र 18 वर्ष की रही होगी. अब तक मानसिक और शारीरिक रूप से मैं काफी ठीक हो गया था. अपने व्यक्तिगत कार्य करने के लिए आत्मनिर्भर हो गया था. लेकिन भावाभिव्यक्ति सही तरीके से सही भाषा में नहीं कर पाता था. टूटीफूटी और कई बार निरर्थक भाषा ही बोल पाता था.

मेरे जीवन की इस दूसरी त्रासदी को भी मैं नहीं सम झ पाया और न परिवार वालों के सामने अभिव्यक्त ही कर पाया, इसलिए नानी की मृत्यु पर आए परिवार के अन्य लोगों को मु झ से कोई सहानुभूति नहीं थी. वैसे भी, अभी नाना जिंदा थे मेरे पालनपोषण के लिए. औपचारिकता पूरी कर के सभी वापस लौट गए. नाना ने मु झे भरपूर प्यार दिया. उन के अन्य बच्चों के बच्चों को मु झ से ईर्ष्या भी होती थी कि उन के हिस्से का प्यार भी मु झे ही मिल रहा है. लेकिन उन के तो मातापिता भी थे, मैं तो अनाथ था. मेरी मंदबुद्धि के कारण यदि कोईर् मेरा मजाक उड़ाता तो नाना उन को खूब खरीखोटी सुनाते, लेकिन कब तक…? वे भी मु झे छोड़ कर दुनिया से विदा हो गए.

उस समय मैं 28 साल का था, लेकिन परिस्थिति पर मेरी प्रतिक्रिया पहले जैसी थी. मेरा सबकुछ लुट चुका था और मैं रो भी नहीं पा रहा था. बस, एक एहसास था कि नाना अब इस दुनिया में नहीं हैं. इतनी मेरे अंदर बुद्धि नहीं थी कि मैं अपने भविष्य की चिंता कर सकूं. मु झे तो पैदा ही कई हाथों की कठपुतली बना कर किया गया था. लेकिन अभी तक मैं ऐसे हाथों के संरक्षण में था, जिन्होंने मु झे इस लायक बना दिया था कि मैं शारीरिक रूप से बहुत सक्षम और किसी पर निर्भर नहीं था और कोई भी कार्य, जिस में बुद्धि की आवश्यकता नहीं हो, चुटकियों में कर देता था. वैसे भी, जो व्यक्ति दिमाग से काम नहीं करते, शारीरिक रूप से अधिक ताकत वाले होते हैं.

मेरी मनोस्थिति बिलकुल 2 साल के बच्चे की तरह थी, जो उस के साथ क्या हो रहा है, उस के लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, सम झ ही नहीं पाता. लेकिन मेरी याद्दाश्त बहुत अच्छी थी. गाडि़यों के नंबर, फोन नंबर तथा किसी का घर किस स्थान पर है. मु झे कभी भूलता नहीं था. कहने पर मैं कोई भी शारीरिक कार्य कर सकता था, लेकिन अपने मन से कुछ नहीं कर पाता था.

नाना की हालत गंभीर होने पर मैं ने अपने पड़ोस की एक आंटी के कहने पर अपनी मौसी को फोन से सूचना दी तो आननफानन मेरे 2 मामा और मौसी पहुंच गए और नाना को अस्पताल में भरती कर दिया. डाक्टरों ने देखते ही कह दिया कि उन का अंतिम समय आ गया है. उन के क्रियाकर्म हो जाने के बाद सब ने घर की अलमारियों का मुआयना करना शुरू किया. महत्त्वपूर्ण दस्तावेज निकाले गए. सब की नजर नाना के मकान पर थी. मैं मूकदर्शक बना सब देखता रहा. भरापूरा घर था. मकान भी मेरे नाना का था.

मेरे एक मामा की नजर आते ही मेरे हृष्टपुष्ट शरीर पर टिक गई. उन्होंने मेरी मंदबुद्धि का लाभ ले कर मु झे मेरे मनपसंद खाने की चीजें बाजार से मंगवा कर दीं और बारबार मु झे उन के साथ भोपाल जाने के लिए उकसाते रहे. मु झे याद नहीं आता कि कभी उन्होंने मेरे से सीधेमुंह से बात भी की हो. तब तो और भी हद हो गई थी जब एक बार मैं नानी के साथ भोपाल उन के घर गया था और मेरे असामान्य व्यवहार के लिए उन्होंने नानी को दोषी मानते हुए बहुत जलीकटी सुनाई. उन को मामा की बातों से बहुत आघात पहुंचा. जिस कारण नानी निश्चित समय से पहले ही दिल्ली लौट गई थीं.

अब उन को अचानक इतना प्यार क्यों उमड़ रहा था. यह सोचने की बुद्धि मु झ में नहीं थी. इतना सहयोग यदि नानी को पहले मिलता तो शायद वे इतनी जल्दी मु झे छोड़ कर नहीं जातीं. पहली बार सब को यह विषय विचारणीय लगा कि अब मैं किस के साथ रहूंगा?

नाना से संबंधित कार्यकलाप पूरा होने तक मेरे मामा ने मेरा इतना ब्रेनवौश कर दिया कि मैं कहां रहना चाहता हूं? किसी के भी पूछने पर मैं  झट से बोलता, ‘मैं भोपाल जाऊंगा,’ नाना के कई जानने वालों ने मामा को कटाक्ष भी किया कि कैसे सब खत्म हो जाने के बाद उन का आना हुआ. इस से पहले तो उन को वर्षों से कभी देखा नहीं. इतना सुनते ही ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ मुहावरे को सार्थक करते हुए वे उन पर खूब बरसे. परिणाम यह निकला कि बहुत सारे लोग नाना की तेरहवीं पर बिना खाए ही लौट गए.

आखिरकार, मैं मामा के साथ भोपाल पहुंच गया. मेरी दाढ़ी और बाल बहुत बड़ेबड़े हो गए थे. सब से पहले मेरे मामा ने उन्हें संवारने के लिए मु झे सैलून भेजा, फिर मेरे लिए नए कपड़े खरीदे, जिन को पहन कर मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. मेरे मामा की फैक्ट्री थी, जिस में मैं उन के बेटे के काम में हाथ बंटाने के लिए जाने लगा. जब मैं नानी के साथ एक बार यहां आया था, तब मु झे इस फैक्ट्री में घुसने की भी अनुमति नहीं थी. अब जबकि मैं शारीरिक श्रम करने के लायक हो गया तो उन के लिए मेरे माने ही बदल गए थे.

धीरेधीरे मु झे सम झ में आने लगा कि उन का मु झे यहां लाने का उद्देश्य क्या था? मैं चुपचाप एक रोबोट की तरह सारा काम करता. मु झे अपनी इच्छा व्यक्त करने का तो कोई अधिकार ही नहीं था. दिल्ली के जिस मकान में मेरा बचपन गुजरा, उस में तो मैं कभी जा नहीं सकता था क्योंकि प्रौपर्टी के  झगड़े के कारण उस में ताला लग गया था. और मैं भी मामा की प्रौपर्टीभर बन कर रह गया था, जिस में कोई बंटवारे का  झं झट नहीं था. उन का ही एकछत्र राज्य था. मैं अपने मन से किसी के पास जा नहीं सकता था, न किसी को मु झे बुलाने का अधिकार ही था.

मेरा जीवन टुकड़ों में बंट गया था. मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं था. मैं अपना आक्रोश प्रकट भी करता तो किस के सामने करता. कोई नानानानी की तरह मेरी भावना को सम झने वाला ही नहीं था. मैं तो इस लायक भी नहीं था कि अपने पिता से पूछूं कि मेरे इस प्रकार के टुकड़ों में बंटी जिंदगी का उत्तरदायी कौन है? उन को क्या हक था मु झे पैदा करने का? मेरी मां अंतिम समय में, मेरे पिता की ओर इशारा कर के रोते हुए मामा से कह रही थीं, ‘इस ने मु झे बीमारी दी है, इस को मारो…’ लेकिन प्रतिक्रियास्वरूप किसी ने कुछ नहीं किया, करते तो तब जब उन को मेरी मां से प्यार होता.

काश, मु झे इतनी बुद्धि होती कि मैं अपनी मां का बदला अपने पिता से लेता. लेकिन काश ऐसा कोई होता जो मेरा बदला जरूर लेता. जिस के पास बुद्धि है.

मेरी कथा को शब्दों का जामा पहनाने वाली को धन्यवाद, कम से कम उन को मु झ से कुछ सहानुभूति तो है, जिस के कारण मु झ मंदबुद्धि बालक, जिस को शब्दों में अभिव्यक्ति नहीं आती, की मूकभाषा तथा भावना को सम झ कर उस की आत्मकथा को कलमबद्ध कर के लोगों के सामने उजागर तो किया.

नेताजी मोंटेसरी स्कूल: किस बुरी आदत से परेशान थे सब

सालभर से मैं यानी कमल घर नहीं जा पाया था. पहलेपहल तो काम से छुट्टी ही नहीं मिली और जब तक छुट्टी मिलने की उम्मीद जगी, कोरोना अपनी हद पर पहुंच चुका था. ऐसे में हर जगह लगे लौकडाउन के चलते जिंदगी 10 बाए 10 फुट के उस कमरे तक सिमट कर रह गई, जो रातभर सोने के लिए भी नाकाफी था. ऐसे में गांव जाना तो दूर कमरे से बाहर कदम रखना ही बैन हो गया. बस मैं था और मेरा मोबाइल फोन. कोई संकेत मिलता तो सब्जी वगैरह खरीद लाता और आ लेटता अपने घोंसले में. गनीमत थी कि किन्हीं वजहों से पिछले 3 महीने की तनख्वाह गांव नहीं भिजवा पाया था, वरना खाने के लाले पड़ते, सो अलग. सुबह मैं बड़े इतमीनान से उठता. नित्य क्रिया से फारिग हो कर नाश्ता बना कर खाता और बैठ जाता कभी मोबाइल फोन पर इंटरनैट चला कर,

तो कभी टैलीविजन खोल कर. ऐसे ही कामों में पूरा दिन बीत जाता. पहलेपहल तो गांव से ढेरों फोन आया करते मेरी खैरखबर लेने और गांव की खैरियत की खबर देने के लिए. खैरियत भी कैसी? जितने भी फोन आते, बस यही सूचना होती कि अमुक को कल कोरोना हुआ था और आज चल बसा. उन दुखद सूचनाओं से मैं इतना आजिज आ गया कि गांव से आने वाले फोन रिसीव करने ही बंद कर दिए. कभी मन करता तो मां को फोन लगा लेता या फिर भैया से बात हो जाती. ऐसे ही एक दिन मां से बात करने के लिए फोन लगाया था, मगर फोन मां के बजाय भाभी ने उठाया. भाभी से बात करना मैं कम ही पसंद करता था. पहली बात तो यह कि भाभी अनपढ़ थीं, ऊपर से इतनी बातूनी कि गांवभर की खबर एक सांस में बता दिया करती थीं. पड़ोस की चाची का मां से झगड़ा हुआ था,

गांव के दूसरे छोर पर रहने वाले बिशन ताऊ की बेटी का रिश्ता तय हुआ था, लेकिन लड़के को दहेज में कार चाहिए थी, इसलिए रिश्ता टूट गया और बैजू चाचा के बेटे नादान उम्र में ही नशा करने लगे हैं जैसी खबरें सुनाने में भाभी खुशी महसूस किया करती थीं. फोन मिल ही गया तो मजबूरन मैं ने उन को नमस्ते की और उन की खैरियत पूछी. मगर इस बात में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन को तो जो सूचनाएं देनी थीं, बिना रुके बताती चली गईं. उन्हीं दर्जनों सूचनाओं में से एक सूचना ऐसी भी थी, जो मेरी दिलचस्पी के काबिल थी. मनोहर अंकल के घर की खबर. पता चला कि कोरोना में मनोहर अंकल का एकलौता बेटा और पत्नी एकएक कर के चल बसे. बाकी बचे अपाहिज मनोहर अंकल और उन की बेटी मानसी. भाभी ने बताया कि इतना सब हो जाने के बाद जब घर में फाके की नौबत आई,

तो गांवभर से लोग पैसे इकट्ठा कर के मनोहर अंकल को देने उन के घर गए, मगर मानसी ने पैसे लेने से मना कर दिया. कई दिन तक उन दोनों बापबेटी ने एक वक्त खाना खा कर गुजारा किया, फिर एक दिन मानसी ने अपने घर पर बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. आज उस मकान में पूरा स्कूल चलता है, जिस का नाम रखा है ‘नेताजी मोंटेसरी स्कूल’. अब वह अपना और पिता का गुजारा बेहतर ढंग से चला रही है. यह घटनाक्रम 2 महीने पुराना था और इस दौरान जाने कितनी बार मां और भैया से फोन पर बात हुई. किसी ने इस दर्दनाक घटना का जिक्र न किया. फोन एक तरफ पटक कर मैं निढाल सा चारपाई पर लेट गया, यह कल्पना करने के लिए कि भाई और मां को खो देने के बाद मानसी पर क्या गुजर रही होगी. मानसी के पिता की शराब की लत ने सारी जमीन छीन ली थी. वे खुद अपाहिज हो कर चारपाई पर पड़े थे. घर की गुजरबसर का कोई तय जरीया था ही नहीं.

अगर मानसी पढ़ने से वंचित रह गई होती, तो आज क्या हालत होती. स्कूल का नाम सुनते ही पलभर को एक अजीब सी खुशी और सुकून का एहसास हुआ. पढ़ाई के दिनों में मैं सामाजिक कामों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करता था. तब मानसी प्यार से मुझे ‘नेताजी’ कह कर बुलाया करती थी. स्कूल को मेरा नाम देना इस बात का संकेत जरूर था कि स्कूल के दिनों का प्यार आज भी उस के दिल में जिंदा था. मुझे लगा कि जिंदगी ने 15 साल पहले के वाकिए को ताजा कर दिया था. तब मैं और मानसी 10वीं जमात में पढ़ते थे. मानसी का भाई हम से 2 क्लास आगे ही था. एक दिन अचानक मानसी ने स्कूल आना बंद कर दिया. मास्टरजी ने उस के भाई को क्लास में बुला कर वजह पूछी, तो उस ने बताया कि पिताजी उसे आगे पढ़ने नहीं देना चाहते हैं. 2 दिन बाद मास्टरजी ने मनोहर अंकल को स्कूल बुलाया था. वे स्कूल में दाखिल हुए तो नशे में उन के कदम लड़खड़ा रहे थे और मुं*ह से शराब की बदबू दूर तक महसूस हो रही थी. ‘‘आप की बेटी पढ़ाई में अव्वल है. ऐसे बच्चे को तो बढ़ावा देना चाहिए और आप उस की पढ़ाई बंद करा रहे हैं?’’ बड़े अदब के साथ मास्टरजी ने समझाना चाहा.

‘‘मास्टर साहब, लड़के कमा कर घर चलाते हैं. बेटियों को तो बस रोटी बनानी होती है. अब पढ़े या न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है?’’ मनोहर अंकल ने जैसे बेरुखी से जवाब दे कर उम्मीद पर पानी फेर दिया. ‘‘फर्क तो बहुत पड़ता है मनोहरजी. कल बेटों की शादी करोगे तो पढ़ीलिखी बहू लाओगे. आप की बेटी भी किसी के घर की बहू बन कर जाएगी. पढ़लिख लेगी तो किसी की मुहताज नहीं रहेगी. वैसे भी बुरे वक्त में कमाया धन रहे न रहे, विद्या काम जरूर आती है.’’ मास्टरजी ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन मनोहर अंकल जिद पर अड़े रहे. यह सब पूरी क्लास के सामने हुआ था. हम सब को इस बात का दुख था, इसलिए उन के जाने के बाद सब ने तय किया था कि कुछ न कुछ किया जाना चाहिए. अगले एक हफ्ते तक क्लास में पढ़ाई न हुई. सब बच्चे मास्टरजी को साथ ले कर बारीबारी से मनोहर अंकल के पास जाते और उन को मनाने की कोशिश करते, मगर एक हफ्ते की उस परेड का कोई अच्छा नतीजा सामने न आया. उस दिन शाम को घर लौट कर मैं ने पापा से सवाल किया,

‘‘किसी आदमी को मनाने का आसान तरीका क्या है?’’ ‘‘हर आदमी की कोई न कोई कमजोरी जरूर होती है. पता चल जाए तो काम हो गया समझो,’’ पापा ने जवाब दिया. एक घंटे बाद मैं मनोहर अंकल के पास बैठा उन के लिए पैग बना रहा था. अगले दिन मानसी स्कूल में आई, तो सब हैरान थे. और अगले 5 साल पापा परेशान रहे कि रोज एक तय रकम उन के पर्स से गायब कैसे हो रही थी. मानसी और मैं ने साथसाथ बीएससी की थी. मनोहर अंकल के मिजाज में मानसी के मामले में अचानक आई नरमी सब के लिए एक राज की बात थी. मानसी के लिए भी. हालांकि मानसी को लगा कि इस सब बदलाव के पीछे मेरी ही कोई सोच रही होगी, इसीलिए मेरे प्रति उस का लगाव तब प्यार में बदल गया था, लेकिन उस बात के बारे में या तो मैं जानता था या खुद मनोहर अंकल. कालेज की पढ़ाई खत्म कर के मैं हैदराबाद चला आया था और मानसी पीछे गांव में ही छूट गई थी. लौकडाउन खुला, तो मैं गांव लौटा. मैं ने पाया कि गांव का नक्शा ही बदल गया था. कीचड़ से भरी सड़कें अब साफसुथरी थीं.

ज्यादातर मकानों पर रंगरोगन हो गया था, जिस से गांव में शहर जैसी झलक नजर आती थी. और अकसर यहांवहां भटकते छोटे बच्चे कहीं दिखाई न दिए. हाथ में अपना बैग थामे मैं घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था कि एक मकान के अहाते से बच्चों की चिल्लपों की आवाज सुन कर ठहर गया. दरवाजे पर बोर्ड लगा हुआ था, ‘नेताजी मोंटेसरी स्कूल’. दरवाजे के अंदर कदम रखा, तो वह हाथ में पतली सी डंडी लिए बच्चों के इर्दगिर्द चक्कर लगाती किताब का कोई पाठ पढ़ाती दिखी. आधा चक्कर काट कर उस का मुंह मेरी तरफ हुआ, तो उस की नजर मुझ पर पड़ी. कई पलों तक उस के मुंह से कोई शब्द न निकला. आखिर हम बहुत दिनों के बाद एकदूसरे से रूबरू जो हुए थे. ‘‘कमल, तुम इतने दिनों बाद लौटे हो,’’ कुछ कहने के लिए जब शब्द न हों, तो उस हालत में कुछ भी कह देने की वजह से उस ने शिकायत की. ‘‘छुट्टी नहीं मिली,’’ मैं ने छोटा सा जवाब दिया. ‘‘पापा तुम्हें दिनरात याद करते हैं. कहते हैं कि वह आ नहीं सकता, तो कम से कम बात ही कर ले.’’ ‘‘अच्छा, तो क्या तुम फोन नहीं कर सकती थी?’’ ‘‘तुम्हारा नंबर होता तो बात करती न. पर ऐसी क्या बात है कि पापा तुम से मिलने के लिए इतने उतावले हैं?’’ ‘‘क्या पता, होगी कोई बात.’’ ‘‘तो चलो और मिल लो. आजकल उन की तबीयत भी बहुत खराब रहती है. शायद तुम्हें देख कर कुछ राहत मिल जाए. तुम्हें तो पता है कि वे जिस भी हाल में हों, मेरे लिए एकमात्र सहारा हैं.’’ स्कूल के पीछे बने मकान के बरामदे में वे एक चारपाई पर पड़े थे. शरीर सूख कर कांटा हो चुका था और चेहरे की चमक गायब थी. ‘‘पापा, शहर से कमल बाबू आए हैं,

’’ मानसी बोली. मेरा नाम सुनते ही जैसे उन के शरीर में बिजली का करंट दौड़ गया. उन्होंने उठने की कोशिश की, मगर उठ न पाए. ‘‘आप लेटे रहिए,’’ मैं ने कहा और उन के पास बैठ गया. उन्होंने तकिए के नीचे हाथ डाला. हाथ बाहर आया तो उस में कुछ रुपए थे. वे रुपए उन्होंने मेरी तरफ बढ़ाए. ‘‘रुपए… मुझे किसलिए?’’ उन का मकसद जानते हुए भी अनजान बने रहने की ऐक्टिंग करते हुए मैं ने पूछा. ‘‘याद है कमल, बचपन में जब मैं ने मानसी को पढ़ाने से मना कर दिया था, तब तुम ने मुझे शराब की बोतल दे कर राजी किया था और तय नियम के हिसाब से तुम रोज मुझे एक बोतल शराब की दे जाया करते थे. ‘‘मैं ने पढ़ाईलिखाई की अहमियत को कभी नहीं समझा.

शराब पीने की बुरी आदत जो थी. मगर जब कुदरत ने इस घर के सारे कमाने वालों को अपने पास बुला लिया, तब मानसी की पढ़ाईलिखाई ने इस घर को संभाला. ‘‘अगर उस वक्त तुम ने मुझे मानसी को स्कूल भेजने के लिए न मनाया होता, तो आज हम भूखे मर गए होते,’’ कहतेकहते उन का गला रुंध गया और वे मेरा हाथ थाम कर रोने लगे. मैं ने मानसी की ओर देखा, तो वह भी नम आंखों और चेहरे पर मुसकान लिए मेरी तरफ देख रही थी. इस पुराने राज के मानसी के सामने खुलने से मुझे सुखद एहसास हुआ. मैं ने अपना बैग उठाया और घर की तरफ चल दिया.

जिस गली जाना नहीं: क्या हुआ था सोम के साथ

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते

ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?’

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

नई सुबह: जिंदगी के दोराहे पर खड़ी अमृता

अमृता को नींद नहीं आ रही थी. वह जीवन के इस मोड़ पर आ कर अपने को असहाय महसूस कर रही थी. उस ने कभी नहीं सोचा था कि ऐसे दिन भी आएंगे कि हर पल बस, दुख और तकलीफ के एहसास के अलावा सोचने के लिए और कुछ नहीं बचेगा. एक तरफ उस ने गुरुजी के मोह में आ कर संन्यास लेने का फैसला लिया था और दूसरी ओर दादा, माधवन से शादी करने को कह रहे थे. इसी उधेड़बुन में उलझी अमृता सोच रही थी.

उस के संन्यास लेने के फैसले से सभी चकित थे. बड़ी दीदी तो बहुत नाराज हुईं, ‘यह क्या अमृता, तू और संन्यास. तू तो खुद इन पाखंडी बाबाओं के खिलाफ थी और जब अम्मां के गुरुभाई आ कर धर्म और मूल्यों की बात कर रहे थे तो तू ने कितनी बहस कर के उन्हें चुप करा दिया था. एक बार बाऊजी के साथ तू उन के आश्रम गई थी तो तू ने वहां जगहजगह होने वाले पाखंडों की कैसी धज्जियां उड़ाई थीं कि बाऊजी ने गुस्से में कितने दिन तक बात नहीं की थी और आज तू उन्हीं लोगों के बीच…’

बड़े भाईसाहब, जिन्हें वह दादा बोलती थी, हतप्रभ हो कर बोले थे, ‘माना कि अमृता, तू ने बहुत तकलीफें झेली हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि तू अपने को गड्ढे में डाल दे.’

दादा भी शुरू से इन पाखंडों के बहुत खिलाफ थे. वह मां के लाख कहने के बाद भी कभी आश्रम नहीं गए थे.

सभी लोग अमृता को बहुत चाहते थे लेकिन उस में एक बड़ा अवगुण था, उस का तेज स्वभाव. वह अपने फैसले खुद लेती थी. यदि और कोई विरोध करता तो वह बदतमीजी करने से भी नहीं चूकती थी. इसलिए जब भी कोई उस से एक बार बहस करता तो जवाब में मिले रूखेपन से दोबारा साहस नहीं करता था.

अब शादी को ही लें. नरेन से शादी करने के उस के फैसले का सभी ने बहुत विरोध किया क्योंकि पूरा परिवार नरेन की गलत आदतों के बारे में जानता था पर अमृता ने किसी की नहीं सुनी. नरेन ने उस से वादा किया था कि शादी के बाद वह सारी बुरी आदतें छोड़ देगा…पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ, बल्कि यह सोच कर कि अमृता ने अपने घर वालों का विरोध कर उस से शादी की है तो अब वह कहां जाएगी, नरेन ने उस पर मनमानी करनी शुरू कर दी थी.

शुरुआत में अमृता झुकी भी पर जब सबकुछ असहनीय हो गया तो फिर उस ने अपने को अलग कर लिया. नरेन के घर वाले भी इस शादी से नाखुश थे, सो उन्होंने नरेन को तलाक के लिए प्रेरित किया और उस की दूसरी शादी भी कर दी.

अब इस से घर के लोगों को कहने का अवसर मिल गया कि उन्होंने तो नरेन के बारे में सही कहा था लेकिन अमृता की हठ के चलते उस की यह दशा हुई है. वह तो अमृता के पक्ष में एक अच्छी बात यह थी कि वह सरकारी नौकरी करती थी इसलिए कम से कम आर्थिक रूप से उसे किसी का मुंह नहीं देखना पड़ता था.

बाबूजी की मौत के बाद मां अकेली थीं, सो वह अमृता के साथ रहने लगीं. अब अमृता का नौकरी के बाद जो भी समय बचता, वह मां के साथ ही गुजारती थी. मां के पास कोई विशेष काम तो था नहीं इसलिए आश्रम के साथ उन की गतिविधियां बढ़ती जा रही थीं. आएदिन गुरुजी के शिविर लगते थे और उन शिविरों में उन को चमत्कारी बाबा के रूप में पेश किया जाता था. लोग अपनेअपने दुख ले कर आते और गुरु बाबा सब को तसल्ली देते, प्रसाद दे कर समस्याओं को सुलझाने का दावा करते. कुछ लोगों की परेशानियां सहज, स्वाभाविक ढंग से निबट जातीं तो वह दावा करते कि बाबा की कृपा से ऐसा हो गया लेकिन यदि कुछ नहीं हो पाता तो वह कह देते कि सच्ची श्रद्धा के अभाव में भला क्या हो सकता है?

अमृता शुरू से इन चीजों की विरोधी थी. उसे कभी धर्मकर्म, पूजापाठ, साधुसंत और इन की बातें रास नहीं आई थीं पर अब बढ़ती उम्र के साथ उस के विरोध के स्वर थोड़े कमजोर पड़ गए थे. अत: मां की बातें वह निराकार भाव से सुन लेती थी.

मां ने बेटी के इस बदलाव को सकारात्मक ढंग से लिया. उन्होंने सोचा कि शायद अमृता उन के धार्मिक क्रियाकलापों में रुचि लेने लग गई है. उन्होंने एक दिन गुरुजी को घर बुलाया. बड़ी मुश्किल से अमृता गुरुजी से मिलने को तैयार हुई थी. गुरुजी भी अमृता से मिल कर बहुत खुश हुए. उन्हें लगा कि एक सुंदर, पढ़ीलिखी युवती अगर उन के आश्रम से जुड़ जाएगी तो उन का भला ही होगा.

गुरुजी ने अमृता के मनोविचार भांपे और उस के शुरुआती विरोध को दिल से स्वीकारा. उन्होंने स्वीकार किया कि वाकई कुछ मामलों में उन का आश्रम बेहतर नहीं है. अमृता ने जो बातें बताईं वे अब तक किसी ने कहने की हिम्मत नहीं की थी इसलिए वह उस के बहुत आभारी हैं.

अमृता ने गुरुजी से बात तो महज मां का मन रखने को की थी पर गुरुजी का मनोविज्ञान वह भांप न सकी. गुरुजी उस की हर बात का समर्थन करते रहे. अब नारी की हर बात का समर्थन यदि कोई पुरुष करता रहे तो यह तो नारी मन की स्वाभाविक दुर्बलता है कि वह खुश होती है. अमृता बहुत दिन से अपने बारे में नकारात्मक बातें सुनसुन कर परेशान थी. उस ने गुरुजी से यही उम्मीद की थी कि वह उसे सारी दुनिया का ज्ञान दे डालेंगे, लेकिन गुरुजी ने सब्र से काम लिया और उस से सारी स्थिति ही पलट गई.

गुरुजी जब भी मिलते उस की तारीफों के पुल बांधते. अमृता का नारी मन बहुत दिन से अपनी तारीफ सुनने को तरस रहा था. अब जब गुरुजी की ओर से प्रशंसा रूपी धारा बही तो वह अपनेआप को रोक नहीं  पाई और धीरेधीरे उस धारा में बहने लगी. अब वह गुरुजी की बातें सुन कर गुस्सा नहीं होती थी बल्कि उन की बहुत सी बातों का समर्थन करने लगी.

गुरुजी के बहुत आग्रह पर एक दिन वह आश्रम चली गई. आश्रम क्या था, भव्य पांचसितारा होटल को मात करता था. शांत और उदास जिंदगी में अचानक आए इस परिवर्तन ने अमृता को झंझोड़ कर रख दिया. सबकुछ स्वप्निल था. उस का मजबूत व्यक्तित्व गुरुजी की मीठीमीठी बातों में आ कर न जाने कहां बह गया. उन की बातों ने उस के सोचनेसमझने की शक्ति ही जैसे छीन ली.

जब अमृता की आंखें खुलीं तो वह अपना सर्वस्व गंवा चुकी थी. गुरुजी की बड़ीबड़ी आध्यात्मिक बातें वास्तविकता की चट्टान से टकरा कर चकनाचूर हो गई थीं. वह थोड़ा विचलित भी हुई, लेकिन आखिर उस ने उस परिवेश को अपनी नियति मान लिया.

उसे लगा कि वैसे भी उस का जीवन क्या है. उस ने सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले कर नरेन से शादी कर ली पर उसे क्या मिला…एक दिन वह भी उसे छोड़ कर चला गया और दे कर गया अशांति ही अशांति. नरेन के मामले में खुद गलत साबित होने से उस का विश्वास पहले ही हिल चुका था, ऊपर से रिश्तेदारों द्वारा लगातार उस की असफलता का जिक्र करने से वह घबरा गई थी. आज इस आश्रम में आ कर उसे लगा कि वह सभी अप्रिय स्थितियों से परे हो गई है.

दादा भी माधवन से शादी के लिए उस के बहुत पीछे पड़ रहे थे, वह मानती थी कि माधवन एक अच्छा युवक था, लेकिन वह भला किसी के लिए क्या कह सकती थी. नरेन को भी उस ने इतना चाहा था, परंतु क्या मिला?

दूसरी ओर उस की बड़ी बहन व दादा चाहते थे कि जो गलती हो गई सो हो गई. एक बार ऐसा होने से कोई जिंदगी खत्म नहीं हो जाती. वे चाहते थे कि अमृता के लिए कोई अच्छा सा लड़का देख कर उस की दोबारा शादी कर दें, नहीं तो वह जिंदगी भर परेशान रहेगी.

इस के लिए दादा को अधिक मेहनत भी नहीं करनी थी. उन्हीं के आफिस में माधवन अकाउंटेंट के पद पर काम कर रहा था. वह वर्षों से उसे जानते थे. उस के मांबाप जीवित नहीं थे, एक बहन थी जिस की हाल ही में शादी कर के वह निबटा था. हालांकि माधवन उन की जाति का नहीं था लेकिन बहुत ही सुशील नवयुवक था. दादा ने उसे हर परिस्थितियों में हंसते हुए ही देखा था और सब से बड़ी बात तो यह थी कि वह अमृता को बहुत चाहता था.

शुरू से दादा के परिवार के संपर्क में रहने के कारण वह अमृता को बहुत अच्छी तरह जानता था. दादा भी इस बात से खुश थे. लेकिन इस से पहले कि वह कुछ करते अमृता ने नरेन का जिक्र कर घर में तूफान खड़ा कर दिया था.

आज जब अमृता बिलकुल अकेली थी तो खुद संन्यास के भंवर में कूद गई थी. दादा को लगता, काश, माधवन से उस की शादी हो जाती तो आज अमृता कितनी खुश होती.

अमृता का तलाक होने के बाद दादा के दिमाग में विचार आया कि एक बार माधवन से बात कर के देख लेते हैं, हो सकता है बात बन ही जाए.

वह माधवन को समीप के कैफे में ले गए. बहुत देर तक इधरउधर की बातें करते रहे फिर उन्होंने उसे अमृता के बारे में बताया. कुछ भी नहीं छिपाया.

माधवन बहुत साफ दिल का युवक था. उस ने कहा, ‘दादा, आप को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. आप कितने अच्छे इनसान हैं. मैं भी इस दुनिया में अकेला हूं. एक बहन के अलावा मेरा है ही कौन. आप जैसे परिवार से जुड़ना मेरे लिए गौरव की बात है और जहां तक बात रही अमृता की पिछली जिंदगी की, तो भूल तो किसी से भी हो सकती है.’

माधवन की बातों से दादा का दिल भर आया. सचमुच संबंधों के लिए आपसी विश्वास कितना जरूरी है. दादा ने सोचा, अब अमृता को मनाना मुश्किल काम नहीं है लेकिन उन को क्या पता था कि पीछे क्या चल रहा है.

जैसे ही अमृता के संन्यास लेने की इच्छा का उन्हें पता चला, उन पर मानो आसमान ही गिर पड़ा. वह सारे कामकाज छोड़ कर दौड़ेदौड़े वहां पहुंच गए. वह मां से बहुत नाराज हो कर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘मैं क्या करूं,’ मां बोलीं, ‘खुद गुरु महाराज की मरजी है. और वह गलत कहते भी क्या हैं… बेचारी इस लड़की को मिला भी क्या? जिस आदमी के लिए यह दिनरात खटती रही वह निकम्मा मेरी फूल जैसी बच्ची को धोखा दे कर भाग गया और उस के बाद तुम लोगों ने भी क्या किया?’

दादा गुस्से में लालपीले होते रहे और जब बस नहीं चला तो अपने घर वापस आ गए.

दूसरी ओर अमृता गुरुजी के प्रवचन के बाद जब कमरे की ओर लौट रही थी, तब एक महिला ने उस का रास्ता रोका. वह रुक गई. देखा, उस की मां की बहुत पुरानी सहेली थी.

‘अरे, मंजू मौसी आप,’ अमृता ने पूछा.

‘हां बेटा, मैं तो यहां आती भी नहीं, लेकिन तेरे कारण ही आज मैं यहां आई हूं.’

‘मेरे कारण,’ वह चौंक गई.

‘हां बेटा, तू अपनी जिंदगी खराब मत कर. यह गुरु आज तुझ से मीठीमीठी बातें कर तुझे बेवकूफ बना रहा है पर जब तेरी सुंदरता खत्म हो जाएगी व उम्र ढल जाएगी तो तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक देगा. मैं ने तो एक दिन तेरी मां से भी कहा था पर उन की आंखों पर तो भ्रम की पट्टी बंधी है.’

अमृता घबरा कर बोली, ‘यह आप क्या कह रही हैं, मौसी? गुरुजी ने तो मुझे सबकुछ मान लिया है. वह तो कह रहे थे कि हम दोनों मिल कर इस दुनिया को बदल कर रख देंगे.’

मंजू मौसी रोने लगीं. ‘अरे बेटा, दुनिया तो नहीं बदलेगी, बदलोगी केवल तुम. आज तुम, कल और कोई, परसों…’

‘बसबस… पर आप इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकती हैं?’ अमृता ने बरदाश्त न होने पर पूछा.

‘इसलिए कि मेरी बेटी कांता को यह सब सहना पड़ा था और फिर उस ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली थी.’

अमृता को लगा कि सारी दुनिया घूम रही है. एक मुकाम पर आ कर उस ने यही सोच लिया था कि अब उसे स्थायित्व मिल गया है. अब वह चैन से अपनी बाकी जिंदगी गुजार सकती है, लेकिन आज पता चला कि उस के पांवों तले की जमीन कितनी खोखली है.

उसी शाम दादा का फोन आया. दादा उसे घर बुला रहे थे. अमृता दादा की बात न टाल सकी. वह फौरन दादा के पास चली गई. दादा उसे देख कर बहुत खुश हुए. थोड़ी देर हालचाल पूछने के बाद दादा बोले, ‘ऐसा है, अमृता… यह तुम्हारा जीवन है और इस बात को मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अगर तुम संन्यास लेना चाहोगी तो तुम्हें कोई रोक नहीं सकता. आज गुरुजी तुम्हें इस आश्रम से जोड़ रहे हैं तो इसलिए कि तुम सुंदर और पढ़ीलिखी हो. लेकिन इन के व्यवहार, चरित्र की क्या गारंटी है. कल को जिंदगी क्या मोड़ लेती है तुम्हें क्या पता. अगर कल से गुरु का तुम्हारे प्रति व्यवहार का स्तर गिर जाता है तो फिर तुम क्या करोगी? जिंदगी में तुम्हारे पास लौटने का क्या विकल्प रहेगा? अमृता, मेरी बहन, ऐसा न हो कि जीवन ऐसी जगह जा कर खड़ा हो जाए कि तुम्हारे पास लौटने का कोई रास्ता ही न बचे. सबकुछ बरबाद होने के बाद तुम चाह के भी लौट न पाओ.’

दादा की बात सुन कर अमृता की आंखें भर आईं. ‘और हां, जहां तक बात है तुम्हारी पुरानी जिंदगी की, तो उसे एक हादसा मान कर तुम नए जीवन की शुरुआत कर सकती हो. इस जीवन में सभी तो नरेन की तरह नहीं होते…और हम खुद भी अपनी जिंदगी से सबक ले कर आगे के लिए अपनी सोच को विकसित कर सकते हैं. माधवन तुम्हें बहुत पसंद करता है. मैं ने तुम्हारे बारे में उसे सबकुछ साफसाफ बता रखा है. उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है.’

अमृता उस रात एक पल भी नहीं सो पाई थी. मंजू मौसी व दादा की बातों ने उस के मन में हलचल मचा दी थी. एक ओर गुरुजी का फैला हुआ मनमोहक जाल था जिस की असलियत इतनी भयावह थी तो दूसरी ओर माधवन था, जिस के साथ वह नई जिंदगी शुरू कर सकती थी. वह दादा के साथ 3 साल से काम कर रहा था, दादा का सबकुछ देखा हुआ था. और सही भी है, आज नरेन ऐसा निकल गया, इस का मतलब यह तो नहीं कि सारी दुनिया के मर्द ही ऐसे होते हैं.

सही बात तो यह है कि जब वह किसी जोड़े को हंस कर बात करते देखती है तो उस के दिल में कसक पैदा हो जाती है.

फिर गुरुजी का भी क्या भरोसा… उस के मन ने उस से सवाल पूछा, आज वह उस की बातों का अंधसमर्थन क्यों करते हैं? क्या उस की सुंदरता व अकेली औरत होना तो इन बातों का कारण नहीं है? वाकई, सुंदर शरीर के अलावा उस में क्या है…जिस दिन उस की सुंदरता नहीं रही…फिर…क्या वह कांता की तरह आत्महत्या…

यह विचार आते ही अमृता पसीनापसीना हो उठी. सचमुच अभी वह क्या करने जा रही थी. अगर वह यह कदम उठा लेती तो फिर चाहे कितनी ही दुर्गति होती, क्या इस जीवन में कभी वापस आ सकती थी? उस ने निर्णय लिया कि वह अब केवल दादा की ही बात मानेगी. उसे अब इस आश्रम में नहीं रहना है. वह बस, सुबह का इंतजार करने लगी, कब सुबह हो और वह यहां से बाहर निकले.

धीरेधीरे सुबह हुई. चिडि़यों की चहचहाहट सुन कर उस की सोच को विराम लगा और वह वर्तमान में आ गई. सूरज की किरणें उजाला बन उस के जीवन में प्रवेश कर रही थीं. उस ने दादा को फोन लगाया.

‘‘दादा, मैं ने आप की बात मानने का फैसला किया है.’’

दादा खुशी से झूम कर बोले, ‘‘अमृता…मेरी बहन, मुझे विश्वास था कि तुम मेरी बात ही मानोगी. मैं तो तुम्हारे जवाब का ही इंतजार कर रहा था. मैं उस से बात करवाता हूं.’’

दादा की बात सुन कर अमृता का हृदय जोरों से धड़क उठा.

थोड़ी देर बाद…

‘‘हैलो, अमृता, मैं माधवन बोल रहा हूं. तुम्हारे इस निर्णय से हमसब बहुत खुश हैं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम मेरे साथ बहुत खुश रहोगी. मैं तुम्हारा बहुत ध्यान रखूंगा, कम से कम इतना तो जरूर कि तुम कभी संन्यास लेने की नहीं सोचोगी.’’

अमृता, माधवन की बातों से शरमा गई. वह केवल इतना ही बोल सकी, ‘‘नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं सोचूंगी,’’ और फिर धीरे से फोन रख दिया.

इस के बाद अमृता आश्रम से निकल कर ऐसे भागी जैसे उस के पीछे ज्वालामुखी का लावा हो.

लम्हे पराकाष्ठा के : रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी

वे नौ मिनट: बुआजी का अनोखा फरमान

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें