सोने का घाव

लावारिस : क्यों प्रमोद का दिल बहलाती थी सुनयना

‘‘तुम्हें गोली लेने को कहा था,’’ प्रमोद ने शिकायत भरे लहजे में कहा. ‘‘मैं ने जानबूझ कर नहीं ली,’’ सुनयना ने कहा.

‘‘पागल हो गई हो,’’ अपने कपड़े पहन चुके और बालों में कंघी करते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘बच्चा जिंदगी में खुशियां लाता है, घर में चहलपहल हो जाती है और बुढ़ापे का सहारा भी बनता है,’’ सुनयना ने प्रमोद को समझाया. ‘‘बंद करो अपनी बकवास. मैं तुम से बच्चा कैसे चाह सकता हूं. मेरी तो सोशल लाइफ ही खत्म हो जाएगी,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘तो आप को खुद ध्यान रखना चाहिए था. मैं ने आप से कंडोम का इस्तेमाल करने को कहा था.’’ ‘‘मुझे मजा नहीं आता. आजकल तो औरतों के कंडोम भी आते हैं, तुम्हें इस्तेमाल करने चाहिए.’’

‘‘जो भी हो, इस बार मैं बच्चा नहीं गिरवाऊंगी,’’ सुनयना ने दोटूक कहा. ‘‘तो तुम पछताओगी,’’ धमकता हुआ प्रमोद बोला. फिर दरवाजा खोल वह बाहर चला गया.

प्रमोद कारोबारी था. उस के पास खूब दौलत थी. घर में खूबसूरत पत्नी थी और 3 बच्चे थे. प्रमोद ने अपना दिल बहलाने के लिए एक रखैल सुनयना रखी हुई थी. उस को फ्लैट ले कर दिया हुआ था. मिलने के लिए वह हफ्ते में 2-3 दफा वहां आता था. कभीकभी वह उसे बिजनैस टूर पर भी ले जाता था.

सुनयना तकरीबन 3 साल से प्रमोद के साथ थी. बीचबीच में 3-4 बार वह पेट से भी हुई थी, लेकिन चुपचाप पेट साफ करवा आई थी. एक रात मेकअप करते समय सुनयना की नजर अपने चेहरे पर उभरती झुर्रियों और सिर में 3-4 सफेद बालों पर पड़ी. उसे चिंता हो गई कि अगर उस का ग्लैमर खत्म हो गया, तब क्या होगा?

प्रमोद को कोई और जवान रखैल मिल जाएगी. ऐसी औरतों को बुढ़ापे में कौन पूछता है. सुनयना के पास प्रमोद द्वारा दिए गए जेवर काफी थे. बैंक के लौकर में जमापूंजी भी काफी थी. अपने मातापिता को पैसे भेजने के बाद भी उस के पास अच्छीखासी रकम बच जाती थी.

उसी रात सुनयना ने सोचा कि अगर उसे प्रमोद से एक बच्चा हो जाए, तो वह उस के बुढ़ापे का सहारा बन जाएगा. इस के बाद से सुनयना ने पेट से न होने वाली गोलियों को खाना बंद कर दिया था. प्रमोद भी कंडोम का इस्तेमाल कम ही करता था. नतीजतन, सुनयना पेट से हो गई.

प्रमोद गुस्से से लालपीला हो रहा था. कल को सुनयना उसे ब्लैकमेल कर सकती थी. 3-4 दिन बाद प्रमोद सुनयना से मिलने आया और उस से पूछा, ‘‘बच्चा गिरवाया कि नहीं?’’

‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं बच्चा चाहती हूं.’’ ‘‘तुम से मेरा बच्चा कैसे हो

सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं हो सकता? यह बच्चा मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा.’’

उस शाम को प्रमोद सुनयना के पास जैसे आया था, वैसे ही चला गया. उस के मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि अगर सुनयना उस के बच्चे को जन्म देगी, तो क्या होगा? ‘‘मेरे पेट में पल रहे बच्चे के पीछे आप क्यों पड़े हैं? आप मुझे जवाब दे दें, तो कहीं और मैं चली जाती हूं,’’ अगली बार प्रमोद के आने पर सुनयना ने पूछा.

‘‘बच्चा मुझ से है. नाजायज है, मेरे लिए वह परेशानी खड़ी कर सकता है.’’ ‘‘क्या परेशानी खड़ी कर सकता

है वह?’’ ‘‘मेरा वारिस बनने का दावा कर सकता है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? मैं बताऊंगी तभी न.’’ ‘‘बच्चा कल को पूछ भी तो सकता है कि उस का पिता कौन है?’’

‘‘लेकिन, मैं एक बच्चा चाहती हूं.’’ ‘‘इस को गिरवा कर तुम किसी और से बच्चा गोद ले लो.’’

‘‘फर्ज करो कि वह आप से नहीं किसी और से है तब?’’ ‘‘बकवास मत करो. मैं जानता हूं कि यह मुझ से है.’’

‘‘मैं आप की वफादार हूं और वफादारी का यह इनाम है.’’ यह सुन कर प्रमोद दनदनाता हुआ वहां से चला गया. वह कानूनी और सामाजिक पचड़े के बारे में सोच रहा था कि कल को अगर मैडिकल रिपोर्ट का सहारा ले कर सुनयना बच्चे को उस का बच्चा साबित कर के उस की जायदाद में से हिस्सा मांग सकती है.

प्रमोद की कशमकश को सुनयना बखूबी समझ रही थी. उस ने चुपचाप अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. एक दिन वह फ्लैट छोड़ कर चली गई. 2 दिन बाद प्रमोद ने फ्लैट का चक्कर लगाया. उस को वहां सन्नाटा मिला. सुनयना कहां गई? धरती निगल गई या आसमान?

प्रमोद कुछ दिनों तक बेचैन रहा, फिर खाली फ्लैट को आबाद करने के लिए एक नई उम्र की कालगर्ल को ला कर बसा दिया. प्रमोद को यह डर बराबर सता रहा था कि सुनयना उस के सामने उस की नाजायज औलाद को वारिस के तौर पर न ले आए.

एक दिन कार से गुजरते समय प्रमोद की नजर एक नर्सिंगहोम के बाहर रिकशे से उतरती एक औरत पर पड़ी. उस का पेट फूला हुआ था. गौर से देखने पर पता चला कि वह तो सुनयना ही थी. वह जल्दी ही बच्चा जनने वाली थी. प्रमोद ने कार सड़क की एक तरफ रोक दी और सुनयना के बाहर निकलने का इंतजार करने लगा. लेकिन वह काफी देर तक बाहर नहीं निकली.

तब प्रमोद ने अपना मोबाइल फोन निकाला और नर्सिंगहोम के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा मोबाइल फोन नंबर पढ़ कर उस पर फोन किया. ‘‘हैलो, यह अस्पताल का रिसैप्शन है?’’ प्रमोद ने पूछा.

‘जी हां, बोलिए.’ ‘‘अभी थोड़ी देर पहले मिसिज सुनयना ने डिलीवरी के लिए विजिट किया था, क्या उन को एडमिट किया गया है?’’

‘जी हां, उन को मैटरनिटी वार्ड में एडमिट कर लिया गया है.’ ‘‘थैक्यू,’’ प्रमोद ने इतना कह कर फोन काट दिया.

अब प्रमोद को सुनयना और उस के बच्चे को खत्म करना था. वह अपनी फैक्टरी पहुंचा. अभी तक उस की जिंदगी बिना रुकावट वाली रही थी. उस का अब तक किसी से पंगे वाला वास्ता नहीं पड़ा था. प्रमोद की फैक्टरी का मैनेजर अरुण बड़ा ही धूर्त था. मालिक के कई उलझे मामले उस ने सुलझाए थे, लेकिन ऐसा पंगा कभी नहीं निबटाया था.

‘‘साहब, आप को सुनयना और उस का बच्चा क्या परेशानी दे सकता है?’’ अरुण ने पूछा. ‘‘कल को वह मेरा वारिस होने का दावा कर सकता है.’’

‘‘क्या सुनयना ने कभी ऐसा इरादा जाहिर किया है?’’ ‘‘नहीं. वह तो कहती है कि बच्चा बुढ़ापे का सहारा बनेगा. वह उस बच्चे को पैदा करना चाहती है.’’

‘‘तो इस में आप को क्या परेशानी है?’’ ‘‘अरे भाई, कल को वह बच्चा बड़ा हो कर मेरे सामने आ कर खड़ा हो सकता है. मेरी सोशल लाइफ खराब हो सकती है.’’

‘‘वह बच्चा आप से ही है, क्या यह बात सच है?’’ ‘‘वह तो यही कहती है. मेरा भी यही विश्वास है कि वह वफादार है.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ ‘‘बच्चे और मां को खत्म करना है, खासकर बच्चे को.’’

‘‘ऐसा काम मैं ने कभी नहीं किया. फिर भी देखता हूं कि क्या हो सकता है,’’ अरुण ने कहा. अरुण सुनयना को पहचानता था. वह नर्सिंगहोम पहुंचा. जच्चाबच्चा वार्ड में सुनयना एक बिस्तर पर लेटी थी.

‘‘एक रिश्तेदार को देखना है. एक मिनट के लिए अंदर जाने दें,’’ अरुण ने वार्ड के बाहर बैठी एक औरत से कहा. इजाजत मिलने के बाद वह अंदर गया और कुछ ही पलों में लौट आया. सुभाष और अर्जुन सुपारी किलर थे. उन्हें सुनयना को खत्म करने की सुपारी दी गई थी. वे दोनों एक कार में बैठ कर बारीबारी से नर्सिंगहोम की निगरानी करने लगे थे.

‘‘आप यहां अकेली आई हैं? आप के साथ कोई नहीं है?’’ लेडी डाक्टर ने मुआयना करने के बाद सुनयना से पूछा. ‘‘जी, मेरी मजबूरी है,’’ इस पर लेडी डाक्टर समझ गईं.

सुनयना कुंआरी मां बनने वाली थी. ऐसे मामले नर्सिंगहोम में आते रहते थे, लेकिन कानूनी औपचारिकता अपनी जगह थी. इलाज, डिलीवरी या औपरेशन के दौरान मरीज की मौत हो सकती थी, इसलिए किसी जिम्मेदार आदमी के फार्म पर दस्तखत कराना जरूरी था. ‘‘आप की जिम्मेदारी के फार्म पर दस्तखत कौन करेगा?’’

‘‘मैं खुद ही करूंगी.’’ ‘‘ऐसा नहीं हो सकता.’’

तभी सुनयना को दर्द शुरू हो गया. चंद मिनटों के बाद उस ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया. सारी औपचारिकताएं धरी की धरी रह गईं.

4 दिन बाद सुनयना को छुट्टी मिल गई. बच्चे को गोद में उठाए वह नर्सिंगहोम से बाहर आई. आटोरिकशे में बैठी. उस के पीछे किराए के हत्यारों की कार लग गई. इंस्पैक्टर मधुकर लोकल थाने के एसएचओ थे. वे चुस्त और मुस्तैद पुलिस अफसर थे. दोपहर का खाना खाने के बाद वे चंदू पनवाड़ी के यहां पान खाते थे. इस बहाने से वे इलाके का दौरा भी कर लेते थे.

नर्सिंगहोम से आटोरिकशे में बैठी सुनयना के पीछे किराए के हत्यारों की कार लगी थी. उन की यह हरकत जीप पर सवार एसएचओ मधुकर की निगाह में आ गई. उन के एक इशारे पर ड्राइवर ने जीप कार के पीछे लगा दी. आटोरिकशा एक बस्ती में पहुंचा. सुनयना उतरी, भाड़ा चुकाया और

अपने किराए के कमरे की तरफ बढ़ी. पीछे आ रही कार थमने लगी. तभी सुभाष की नजर पीछे से आ रही जीप पर पड़ी.

‘‘अर्जुन, कार मत रोकना. पीछे एसएचओ आ रहा है,’’ सुभाष ने कहा, तो अर्जुन ने कार की रफ्तार बढ़ा दी. एचएचओ मधुकर ने जीप में सादा कपड़ों में बैठे एक पुलिस वाले को इशारे से कुछ समझाया. वह पुलिस वाला सुनयना की निगरानी करने लगा. कार का नंबर नोट कर मधुरकर ने पुलिस कंट्रोल रूम को भेज दिया.

चंद मिनटों में शहर के खासखास इलाकों में तैनात पुलिस की गाडि़यों को उस कार के बारे में हिदायतें मिल गईं. एक चौराहा पार करते समय एक कार उस कार के पीछे लग गई. उस कार में सादा ड्रैस में मुखबिर थे. एसएचओ मधुकर थाने पहुंचे. थोड़ी देर में उन का मोबाइल फोन बजा, ‘सर, उस कार में 2 लोग हैं, जो अपराधी नहीं दिख रहे हैं,’ मुखबिर ने खबर दी.

‘‘ठीक है, तुम उन पर निगाह रखो,’’ इंस्पैक्टर मधुकर बोले. थोड़ी देर बाद एक बस्ती में

तैनात मुखबिर का फोन आया, ‘‘साहब, खतरा है.’’ ‘‘क्या खतरा है?’’

‘‘जान जाने का. और क्या खतरा हो सकता है?’’ ‘‘तू उन मवालियों को पहचानता

है क्या?’’ ‘‘नहीं. पर मेरा अंदाजा है कि इस इलाके का खबरिया राम सिंह भी नहीं पहचानता होगा.’’

‘‘तब हम क्या करें?’’ ‘‘इस बाई की हिफाजत और निगरानी.’’

‘‘खतरे की वजह?’’ ‘‘इस का बच्चा.’’

‘‘क्या…’’ ‘‘तेरी इस क्या का जवाब फिलहाल मेरे पास नहीं है.’’

सुनयना नहीं जानती थी कि वह पुलिस के जासूसों की नजर में आ चुकी है.

‘‘सेठ की माशूका और उस के बच्चे के ठिकाने का पता हम ने लगा लिया है. जल्दी ही वे दोनों को मार देंगे,’’ प्रमोद के मैनेजर अरुण को सुपारी लेने वाले ने बताया.

‘‘ठीक है. मेरा और सेठ का नाम नहीं आना चाहिए,’’ अरुण ने कहा. ‘‘आप तसल्ली रखें.’’

बच्चे के जन्म के बाद सुनयना ने अपनी एक सहेली मीरा को फोन किया, जो उस के बारे में सबकुछ जानती थी. ‘‘अरी, तेरे और तेरे बच्चे को मरवाने का ठेका दिया है सेठ ने,’’ उस की सहेली मीरा ने बताया.

‘‘क्या? उस को कैसे पता चला?’’ ‘‘वह तेरे पीछे शुरू से ही लगा है.’’

‘‘तुझे किस ने बताया?’’ ‘‘तेरी जगह फ्लैट में आई उस नई लड़की ने.’’

‘‘अब मैं क्या करूं?’’ सुनयना ने पूछा.

‘‘अपना ठिकाना बदल ले.’’ ‘‘ठीक है,’’ सुनयना बोली.

दोनों सुपारी किलर सुभाष और अर्जुन आपस में सलाह कर रहे थे. ‘‘बाई इस बस्ती में है. कल उस का घर ढूंढ़ कर उसे खत्म कर देते हैं,’’ सुभाष ने कहा.

सुबह सुनयना बच्चे को कुनकुने पानी से नहला कर साफ कपड़े में लपेट चुकी थी. वह सोच रही थी कि कहां जाए? तभी उस को अपनी पुरानी सहेली प्रेमलता का ध्यान आया. वह एक अनाथालय की मैनेजर थी.

सुनयना बच्चे को गोद में ले कर बाहर आई. उस ने एक आटोरिकशा किया. आटोरिकशे के चलते ही मवालियों की कार पीछे लगी. उस की खबर पुलिस कंट्रोल रूम को भी हो गई. आटोरिकशा अनाथालय के बाहर रुका.

‘‘थोड़ी देर इंतजार करो. मैं अभी आई,’’ सुनयना ने आटोरिकशे वाले से कहा. सुनयना को देखते ही प्रेमलता मुसकराई, ‘‘अरे सुनयना, तुम यहां

कैसे आई?’’ ‘‘मैं मुसीबत में फंस गई हूं. जरा यह बच्चा संभाल. मैं थोड़ा ठहर कर आऊंगी,’’ बच्चा देते हुए सुनयना ने कहा. ‘‘यह किस का बच्चा है?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘मेरा है,’’ सुनयना बोली. ‘‘तेरा है? तू ने शादी कर ली क्या?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘फिर बताऊंगी. शाम को आऊंगी. कुछ दिक्कत है.’’ प्रेमलता ने बच्चा थामा. सुनयना आटोरिकशे में बैठ रेलवे स्टेशन की ओर चली गई.

‘‘उस्ताद, बाई यतीमखाने में गई थी. वहां अपना बच्चा दे आई है, अब क्या करें?’’ सुभाष ने अर्जुन से पूछा. ‘‘सेठ कहता है कि बच्चे को पहले खत्म करना है. यतीम खाने में चलते हैं. बाई को फिर मारेंगे.’’

कार एक तरफ खड़ी कर वे दोनों सुपारी किलर अनाथालय में घुस गए. सुनयना के बच्चे को एक पालने में लिटा कर प्रेमलता मुड़ी ही थी कि 2 बदमाश नौजवानों को देख कर वह चौंकी, ‘‘क्या बात है?’’ ‘‘अभी एक बाई तुझे बच्चा दे कर गई है. वह कौन सा है?’’ सुभाष ने कमरे में नजर डालते हुए पूछा. दर्जनों पालनों में नवजात बच्चे अठखेलियां करते दूध पी रहे थे.

‘‘बाई, कौन बाई?’’ ‘‘जो अभीअभी यहां आई थी,’’ अर्जुन ने कहा.

‘‘यहां कोई बाई नहीं आई,’’ प्रेमलता बोली. ‘‘सीधी तरह मान जा. बता वह बच्चा कौन सा है,’’ अर्जुन ने चाकू निकालते हुए कहा.

तभी अनाथालय के दरवाजे पर एसएचओ मधुकर ने कदम रखा. प्रेमलता पुलिस को देखते ही चीखी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, चोरबदमाश…’’

सिपाहियों ने घेरा डाल कर दोनों बदमाशों को पकड़ लिया. थाने में उन्होंने सब सचसच उगल दिया. मैनेजर अरुण के काबू में आते ही सेठ प्रमोद भी टूट गया.

‘‘आप या तो बच्चे और उस की मां को अपना लें, अन्यथा 10 साल की सजा भुगतें. बच्चा आप का वारिस फिर भी माना जाएगा,’’ इंस्पैक्टर मधुकर ने समझाते हुए कहा. मरता क्या न करता, सेठ प्रमोद ने सुनयना को अपनी पत्नी और बच्चे को वारिस मान लिया.

दरवाजा खोल दो मां : आखिर क्यों बीमार हो गई स्मिता?

10वीं क्लास तक स्मिता पढ़ने में बहुत तेज थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, पर 10वीं के बाद उस के कदम लड़खड़ाने लगे थे. उस को पता नहीं क्यों पढ़ाईलिखाई के बजाय बाहर की दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इन्हीं सब वजहों के चलते वह पास में रहने वाली अपनी सहेली सीमा के भाई सपन के चक्कर में फंस

गई थी. वह अकसर सीमा से मिलने के बहाने वहां जाती और वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे. एक दिन सपन ने स्मिता से पूछा, ‘‘तुम ने कभी भूतों को देखा है?’’

‘‘तुम जो हो… तुम से भी बड़ा कोई भूत हो सकता है भला?’’ स्मिता ने हंसते हुए मजाकिया लहजे में जवाब दिया. सपन को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए अपनी बात को आगे रखते हुए पूछा, ‘‘चुड़ैल से तो जरूर सामना हुआ होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ है. तुम न जाने क्या बोले जा रहे हो,’’ स्मिता ने खीजते हुए कहा. तब सपन उसे एक कमरे में ले कर गया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ कहते हुए स्मिता को कुरसी पर बैठा कर उस का हाथ उठा कर हथेली को चेहरे के सामने रखने को कहा, फिर बोला, ‘‘बीच की उंगली को गौर से देखो…’’ आगे कहा, ‘‘अब तुम्हारी उंगलियां फैल रही हैं और आंखें भारी हो रही हैं.’’

स्मिता वैसा ही करती गई और वही महसूस करने की कोशिश भी करती गई. थोड़ी देर में उस की आंखें बंद हो गईं. फिर स्मिता को एक जगह लेटने को बोला गया और वह उठ कर वहां लेट गई. सपन ने कहा, ‘‘तुम अपने घर पर हो. एक चुड़ैल तुम्हारे पीछे पड़ी है. वह तुम्हारा खून पीना चाहती है. देखो… देखो… वह तुम्हारे नजदीक आ रही है. स्मिता, तुम डर रही हो.’’

स्मिता को सच में चुड़ैल दिखने लगी. वह बुरी तरह कांप रही थी. तभी सपन बोला, ‘‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’’ स्मिता ने जोकुछ भी देखा या समझने की कोशिश की, वह डरतेडरते बता दिया. वह यकीन कर चुकी थी कि चुड़ैल जैसा डरावना कुछ होता है, जो उस को मारना चाहता है.

‘‘प्लीज, मुझे बचाओ. मैं मरना नहीं चाहती,’’ कहते हुए वह जोरजोर से रोने लगी.

सपन मन ही मन बहुत खुश था. सबकुछ उस की सोच के मुताबिक चल रहा था. सपन ने बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं हूं न. मेरे एक जानने वाले पंडित हैं. उन से बात कर के बताता हूं. ऐसा करो कि तुम 2 घंटे में मुझे यहीं मिलना.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए जैसे ही स्मिता मुड़ी, सपन ने उसे टोका, ‘‘और हां, तुम को किसी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है. मुझ पर यकीन रखना. सब सही होगा.’’ स्मिता घर तो आ गई, पर वे 2 घंटे बहुत ही मुश्किल से कटे. पर उसे सपन पर यकीन था कि वह कुछ न कुछ तो जरूर करेगा.

जैसे ही समय हुआ, स्मिता फौरन सपन के पास पहुंच गई. सपन तो जैसे इंतजार ही कर रहा था. उस को देखते ही बोला, ‘‘स्मिता, काम तो हो जाएगा, पर…’’

‘‘पर क्या सपन?’’ स्मिता ने डरते हुए पूछा. ‘‘यही कि इस काम के लिए कुछ रुपए और जेवर की जरूरत पड़ेगी. पंडितजी ने खर्चा बताया है. तकरीबन 5,000 रुपए मांगे हैं. पूजा करानी होगी.’’

‘‘5,000 रुपए? अरे, मेरे पास तो 500 रुपए भी नहीं हैं और मैं जेवर कहां से लाऊंगी?’’ स्मिता ने अपनी बात रखी. ‘‘मैं नहीं जानता. मेरे पास तुम्हें चुड़ैल से बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ थोड़ी देर कुछ सोचने का दिखावा करते हुए सपन बोला, ‘‘तुम्हारी मां के जेवर होंगे न? वे ले आओ.’’

‘‘पर… कैसे? वे तो मां के पास हैं,’’ स्मिता ने कहा. ‘‘तुम्हें अपनी मां के सब जेवर मुझे ला कर देने होंगे…’’ सपन ने जोर देते हुए कहा, ‘‘अरे, डरती क्यों हो? काम होने पर वापस ले लेना.’’

स्मिता बोली, ‘‘वे मैं कैसे ला सकती हूं? उन्हें तो मां हर वक्त अपनी तिजोरी में रखती हैं.’’ ‘‘मैं नहीं जानता कि तुम यह सब कैसे करोगी. लेकिन तुम को करना ही पड़ेगा. मुझे उस चुड़ैल से बचाने की पूजा करनी है, नहीं तो वह तुम्हें जान से मार देगी.

‘‘अगर तुम जेवर नहीं लाई तो बस समझ लो कि तब मैं तुम्हें जान से मार दूंगा, क्योंकि पंडित ने कहा है कि तुम्हारी जान के बदले वह चुड़ैल मेरी जान ले लेगी और मुझे अपनी जान थोड़े ही देनी है.’’ उसी शाम स्मिता ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आज मैं आप का हार पहन कर देखूंगी.’’

स्मिता की मां बोलीं, ‘‘चल हट पगली कहीं की. हार पहनेगी. बड़ी तो हो जा. तेरी शादी में तुझे दे दूंगी.’’ स्मिता को रातभर नींद नहीं आई. थोड़ा सोती भी तो अजीबअजीब से सपने दिखाई देते.

अगले दिन सीमा स्मिता के पास आ कर बोली, ‘‘भैया ने जो चीज तुझ से मंगवाई थी, अब उस की जरूरत नहीं रह गई है. वे सिर्फ तुम्हें बुला रहे हैं.’’ जब स्मिता ने यह सुना तो उसे बहुत खुशी हुई. वह भागती हुई गई तो सपन उसे एक छोटी सी कोठरी में ले गया और बोला, ‘‘अब जेवर की जरूरत नहीं रही. चुड़ैल को तो मैं ने काबू में कर लिया है. चल, तुझे दिखाऊं.’’

स्मिता ने कहा, ‘‘मैं नहीं देखना चाहती.’’ सपन बोला, ‘‘तू डरती क्यों है?’’

यह कह कर उस ने स्मिता का चुंबन ले लिया. स्मिता को उस का चुंबन लेना अच्छा लगा. थोड़ी देर बाद सपन बोला, ‘‘आज रात को जब सब सो जाएं तो बाहर के दरवाजे की कुंडी चुपचाप से खोल देना. समझ तो गई न कि मैं क्या कहना चाहता हूं? लेकिन किसी को पता न चले, नहीं तो तेरे पिताजी तेरी खाल उतार देंगे.’’

स्मिता ने एकदम से पूछा, ‘‘इस से क्या होगा?’’ सपन ने कहा, ‘‘जिस बात की तुम्हें समझ नहीं, उसे जानने से क्या होगा?’’

स्मिता ने सोचा, ‘जेवर लाने का काम बड़ा मुश्किल था. लेकिन यह काम तो फिर भी आसान है.’ ‘‘अगर तू ने यह काम नहीं किया तो चुड़ैल तेरा खून पी जाएगी,’’ सपन ने एक बार फिर डराया.

तब स्मिता ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि दरवाजा खोलने से होगा क्या?’’ ‘‘अभी नहीं कल बताऊंगा. बस तुम कुंडी खोल देना,’’ सपन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘खोल दूंगी,’’ स्मिता ने चलते हुए कहा.

‘‘ठाकुरजी को हाथ में ले कर बोलो कि जैसा मैं बोल रहा हूं, तुम वही करोगी?’’ सपन ने जोर दे कर कहा. स्मिता ने ठाकुर की मूर्ति को हाथ में ले कर कहा, ‘‘मैं दरवाजा खोल दूंगी.’’

पर सपन को तो अभी भी यकीन नहीं था. पता नहीं क्यों वह फिर से बोला, ‘‘मां की कसम है तुम्हें.

कसम खा?’’ आज न जाने क्यों स्मिता बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘मां की कसम.’’

जब स्मिता घर गई तो उस की मां ने पूछा, ‘‘तेरा मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है?’’

जब मां ने स्मिता को छू कर देखा तो उसे तेज बुखार था. उन्होंने स्मिता को बिस्तर पर लिटा दिया. शाम के शायद 7 बजे थे.

स्मिता के पिता पलंग पर बैठे हुए खाना खा रहे थे. स्मिता पलंग पर पड़ीपड़ी बड़बड़ाए जा रही थी.

जब स्मिता को थर्मामीटर लगाया गया, उस को 102 डिगरी बुखार था. रात के 9 बजतेबजते स्मिता की हालत बहुत खराब हो गई. फौरन डाक्टर को बुलाया गया. स्मिता को दवा दी गई. स्मिता के पिताजी के दोस्त भी आ गए थे. स्मिता फिर भी बड़बड़ाए जा रही थी, पर उस पर किसी परिवार वाले का ध्यान नहीं जा रहा था.

स्मिता को बिस्तर पर लेटेलेटे, सिर्फ दरवाजा और उस की कुंडी ही दिखाई दे रही थी या उसे चुड़ैल का डर

दिखाई दे रहा था. कभीकभी उसे सपन का भी चेहरा दिखाई पड़ता था. उसे लग रहा था, जैसे चारों लोग उसी के आसपास घूम रहे हैं और तभी वह जोर से चीखी, ‘‘मां, मुझे बचाओ.’’ ‘‘क्या बात है बेटी?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘दरवाजे की कुंडी खोल दो मां. मां, तुम्हें मेरी कसम. दरवाजे की कुंडी खोल दो, नहीं तो चुड़ैल मुझे मार देगी. ‘‘मां, तुम दरवाजे को खोल दो. मां, मैं अच्छी तो हो जाऊंगी न? मां तुम्हें मेरी कसम,’’ स्मिता बड़बड़ाए जा

रही थी. स्मिता के पिताजी ने कहा, ‘‘लगता है, लड़की बहुत डरी हुई है.’’

स्मिता की बत्तीसी भिंच गई थी. शरीर अकड़ने लगा था. यह सब स्मिता को नहीं पता चला. वह बारबार उठ कर भाग रही थी, जोरजोर से चीख रही थी, ‘‘मां, दरवाजा खोल दो. खोल दो, मां. दरवाजा खोल दो,’’ और उस के बाद वह जोरजोर से रोने लगी. मां ने कहा, ‘‘बेटी, बात क्या है? बता तो सही? क्या सपन ने कहा है ऐसा करने को?’’

‘‘हां मां, खोल दो नहीं तो एक चुड़ैल आ कर मेरा खून पी जाएगी,’’ स्मिता ने डरी हुई आवाज में कहा. अब उस के पिताजी के कान खड़े हो गए. उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘साफसाफ बताओ, बात क्या है?’’

‘‘पिताजी, मुझे अपनी गोद में लिटा लीजिए, नहीं तो मैं… ‘‘पिताजी, सपन ने कहा है कि जब सब सो जाएं तो चुपके से दरवाजा खोल देना. अगर दरवाजा नहीं खोला तो चुड़ैल मेरा खून पी जाएगी.’’

वहीं ड्राइंगरूम में बैठेबैठे ही स्मिता के पिताजी ने किसी को फोन किया था. शायद पुलिस को. थोड़ी देर में कुछ पुलिस वाले सादा वरदी में एकएक कर के चुपचाप उस के मकान में आ कर दुबक गए और दरवाजे की कुंडी खोल दी गई. रात के तकरीबन 2 बजे जब स्मिता तकरीबन बेहोशी में थी तो उसे कुछ शोर सुनाई दे रहा था. पर तभी वह बेहोश हो गई. आगे क्या हुआ ठीक से उस को मालूम नहीं. पर जब उसे होश आया तो घर वालों ने बताया कि 5 लोग पकड़े गए हैं.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि इन पकड़े गए लोगों में से एक सपन और एक चोरों के गैंग का आदमी भी था जिस के ऊपर सरकारी इनाम था. बाद में वह इनाम स्मिता को मिला. स्मिता 10 दिनों के बाद अच्छी हो गई.

अब स्मिता के अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि एक क्या वह तो कई चुड़ैलों की गरदन पकड़ कर तोड़ सकती थी.

कुढ़न : जिस्म का भूखा है हर मर्द

हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं.

तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई.

जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं.

कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है.

कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं.

अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी.

तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली.

‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा.

पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई.

मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी.

मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे.

कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई.

लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’

लक्ष्मी की इस बात पर कमला चुप थीं.

लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें…

‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए.

‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी.

कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’

कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’

अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

पहल -भाग 3 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

सोमल ने कहा, ‘‘तारु, क्या हमारा भी बच्चा हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं… मगर बच्चा तो मां के गर्भ में ही पलता है न… फिर कैसे होगा?’’ तारेश ने कहा.

‘‘विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, कोई तो रास्ता होगा… क्या हम सैरोगेसी तकनीक का सहारा नहीं ले सकते?’’

‘‘हो सकता है यह संभव हो, मगर इस में कई कानूनी अड़चनें भी आ सकती हैं. क्या कानून हम जैसे लोगों को सैरोगेसी की इजाजत देता है और सब से बड़ी बात यह कि हम सैरोगेट मां कहां से लाएंगे? हमारे तो सब रिश्तेदार भी हम से किनारा कर चुके हैं. खैर अभी तुम ये सब बातें छोड़ो… किसी दिन किसी विशेषज्ञ से मिलते हैं,’’ कह कर तारेश ने एक बार तो चर्चा को विराम दे दिया, मगर बात उस के दिमाग से निकली नहीं. उस ने ठान लिया कि अगर संभव हुआ तो वह सोमल की इस इच्छा को जरूर पूरा करेगा.

एक दिन तारेश किसी काम से एक नामी हौस्पिटल गया. वहां आईवीएफ सैंटर देख कर उस के पांव ठिठक गए. उसे सोमल का सपना याद आ गया. उस ने वहां की हैड डा. सरोज से अपौइंटमैंट लिया और सोमल के साथ उन से मिलने पहुंच गया.

डा. सरोज ने उन की पूरी बात ध्यान से सुनी और बताया कि सोमल का सपना आईवीएफ और सैरोगेसी तकनीक के माध्यम से पूरा हो सकता है.

दोनों के चेहरे पर आई उम्मीद की रोशनी को परखते हुए वे आगे बोलीं, ‘‘देखिए, सरकार ने हाल ही में सैरोगेसी बिल पास किया है जिस के अनुसार सिंगल पेरैंट और समलैंगिक जोड़ों को इस की इजाजत नहीं होगी. हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है, लेकिन निकट भविष्य में यह परेशानी आ सकती है. वैसे आप ने सुना होगा कि पिछले दिनों ही फिल्म अभिनेता तुषार कपूर इसी तकनीक के माध्यम से पहले सिंगल पिता बने हैं. हमारे पास और भी कई सिंगल महिलाओं और पुरुषों ने मातापिता बनने के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखा है. आप भी करवा सकते हैं.’’

‘‘किराए की कोख का इंतजाम कैसे होगा?’’

‘‘इस के लिए आप को अपनी किसी नजदीकी रिश्तेदार की मदद लेनी होगी.’’

‘‘मगर हमारे रिश्तेदारों ने हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.’’

‘‘अब इतनी मेहनत तो आप लोगों को करनी ही होगी,’’ कह कर डा. ने अगले विजिटर को बुलवा लिया.

सोमल को लीना भाभी याद आ गईं. उस ने उन्हें फोन लगाया, ‘‘हाय भाभी, कैसी हैं आप?’’

‘‘सोमल बाबू को आज हमारी याद कैसे आ गई?’’ लीना ने अपनेपन से पूछा तो सोमल मुद्दे पर आ गया और कहा, ‘‘मुझे इस काम के लिए तुम्हारी मदद की जरूरत है.’’

‘‘माफ करना सोमल, मगर इस मसले पर मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती. तुम्हारे भैया इस के लिए कभी राजी नहीं होंगे और मेरे लिए अपना परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

लीना के टके से जवाब से सोमल की एकमात्र उम्मीद भी खत्म हो गई.

अब जो आखिरी उम्मीद उन्हें नजर आ रही थी वह था इंटरनैट. कहते हैं यहां खोजो तो सब मिल जाता है. दोनों साथी जोरशोर से इंटरनैट खंगालने लगे. इसी कवायद में उन्हें एक समाचारपत्र रिपोर्टर की कवर स्टोरी पढ़ने को मिली, जिस में उस ने लिखा था कि गुजरात में स्थित आणंद एक ऐसी जगह है जहां सैरोगेट मदर आसानी से उपलब्ध हैं और यही नहीं यहां अब तक सैरोगेसी से लगभग 1,100 बच्चों का जन्म हो चुका है. पढ़ते ही दोनों खिल उठे. फिर क्या था पहुंच गए दोनों आणंद, जहां उन के सपने पर सचाई की मुहर लगने वाली थी. यहां एक टैस्ट ट्यूब बेबी क्लिनिक के बाहर उन का संपर्क एक दलाल से हुआ जोकि सैरोगेसी के लिए किराए की कोख का इंतजाम करता था. उन की स्थिति और बच्चा पाने की प्रबल इच्छा को देखते हुए दलाल ने उन की मजबूरी का पूरापूरा फायदा उठाया और कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए मुंहमांगी कीमत में उन के लिए एक औरत को कोख किराए पर देने के लिए तैयार कर लिया. 2 ही दिन में सभी आवश्यक औपचारिकताएं भी पूरी करवा दीं.

1 महीने बाद उन्हें वापस आना था ताकि आगे की कार्यवाही को अंजाम दिया जा सके. दोनों खुशीखुशी वापस मुंबई आ गए.

तभी अचानक एक दिन यह हादसा हुआ और तारेश की दुनिया में अंधेरा छा गया. दोनों साथी पिता बनने की खुशी सैलिब्रेट करने और मौसम की पहली बारिश में भीगने का मजा लेने खंडाला जा रहे थे. तभी हाईवे पर तेज गति से आ रहे एक ट्रक ने अनियंत्रित हो कर उन की कार को टक्कर मार दी. दोनों को जख्मी हालत में हौस्पिटल ले जाया जा रहा था, मगर रास्ते में सोमल जिंदगी की जंग हार गया. सोमल की मौत पर भी उस के घर से कोई नहीं आया.

1 महीना बीतने पर दलाल का फोन आया तो तारेश ने उसे अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताया और सोमल के संरक्षित शुक्राणुओं की मदद से पिता बनने की इच्छा जाहिर की. दलाल ने इस बाबत कुछ और रकम का इंतजाम करने के लिए कहा. तारेश ने अपनी सारी जमापूंजी इस प्रोजैक्ट पर खर्च कर दी.

सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद महिला के अंडाणु और सोमल के स्पर्म बैंक में सुरक्षित रखे शुक्राणुओं को प्रयोगशाला में निषेचित करवा कर भ्रूण को सैरोगेट मदर के गर्भ में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया और निश्चित समय पर उस बच्ची का जन्म हुआ जिस का जैनेटिक पिता सोमल था.

तारेश जानता था कि इस बच्ची को अकेले पालना आसान काम नहीं है. मगर सोमल का सपना पूरा करना ही अब उस का एकमात्र सपना था और इस के लिए वह किसी नहीं भी हालात का सामना करने के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार था.

कौंट्रैक्ट के अनुसार 1 महीने तक बच्ची को सैरोगेट मां ने अपना दूध  पिलाया और फिर बच्ची को तारेश के अनाड़ी हाथों में सौंप कर चली गई.

1 महीने की कोमल काया को ले कर तारेश सोमल के घर गया. जब उस ने सोमल के मम्मीपापा को बताया कि यह बच्ची सोमल की है तो राखी उसे गोद में लेने आगे बढ़ी. मगर मम्मीपापा के विरोध के कारण उस के बढ़ते कदम रुक गए.

तारेश ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं आप लोग मुझ से नफरत करते हैं, मगर इस बच्ची में तो आप का अपना अंश है… हालांकि मैं अकेला ही इसे बेहतर परवरिश दे सकता हूं, मगर आज अगर सोमल जिंदा होता तो वह भी यही चाहता कि उस की बच्ची को उस के दादादादी का आशीर्वाद और बूआ का स्नेह मिले…’’ कह कर तारेश कुछ देर खड़ा रहा. मगर सामने से कोई पौजिटिव जवाब न पा कर वह बच्ची को गोद में लिए बाहर की ओर पलट गया.

अभी दरवाजे से बाहर नहीं निकला था कि सोमल की मां की आवाज आई, ‘‘रुको.’’

तारेश ने मुड़ कर देखा तो बच्ची के दादादादी अपनी आंखें पोंछते हुए उस की तरफ बढ़ रहे थे.

दादा ने कहा, ‘‘बेटा तो चला गया, लेकिन उस की निशानी को हम अपने से दूर नहीं जाने देंगे. इस बच्ची को हम पालेंगे और हां, मूल न सही सूद ही सही… हम तुम्हारा एहसान नहीं भूलेंगे…’’

‘‘मगर यह बच्ची हम दोनों का सपना है,’’ तारेश को लगा मानो वह बच्ची को हमेशा के लिए खो देगा.

‘‘हांहां, तुम्हीं इस के पिता रहोगे. मगर अभी इसे एक मां की ज्यादा जरूरत है… अगर तुम्हें एतराज न हो तो यह जिम्मेदारी राखी निभा सकती है.’’

‘‘मगर आप लोग तो सचाई जानते हैं… मैं राखी को कभी पति का सुख नहीं दे पाऊंगा.’’

‘‘मैं पत्नी का नहीं मां बनने का सुख चाहती हूं,’’ इस बार राखी ने कहा और बच्ची को अपनी गोद में ले लिया. तारेश को लगा जैसे बच्ची की मासूम मुसकराहट में सोमल खिलखिला रहा है.

तांती : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

पहल -भाग 2 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

दोनों एकदूसरे से लिपट कर देर तक रोते रहे. वे जुदा नहीं होना चाहते… आज रात तारेश और सोमल को पता चल गया कि वे दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. इस एक रात ने उन्हें समझा दिया कि क्यों उन्हें एकदूसरे का साथ इतना अच्छा लगता. आज रात दोनों ने अपने प्यार का इजहार कर अपने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया, जो दुनिया की निगाहों में धर्मविरोधी था, अप्राकृतिक था… हां, वे गे थे और उन्हें इस बात पर कोई शर्म नहीं थी.

दोनों ने अपनाअपना प्लेसमैंट कैंसिल कर तय किया कि वे दिल्ली में ही रह कर काम तलाश करेंगे. कुछ दिनों के प्रयास के बाद तारेश को एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. फिर कुछ दिन बाद सोमल को भी. दोनों की जिंदगी फिर से पटरी पर आ गई. सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहा.

तारेश की मां अब उस पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी थीं और सोमल के घर वाले भी यही चाहते थे कि उस का घर बस जाए. दोनों घरों में जोरशोर से लड़कियां देखी जा रही थीं. मगर वे दोनों लव बर्ड्स इन सब बातों से बेखबर अपने में ही खोए थे. उन की एक अलग ही दुनिया थी. उन्हें बिलकुल अंदेशा नहीं था कि कोई तूफान आने वाला है.

जब बारबार बिना किसी ठोस कारण के लड़कियां रिजैक्ट होने लगीं तो तारेश की मां का माथा ठनका कि कहीं किसी लड़की का चक्कर तो नहीं…

यही हाल सोमल के घर पर भी था. हकीकत जानने के लिए एक दिन बिना बताए तारेश की मां दिल्ली उन के फ्लैट पहुंच गईं. दोनों के हावभाव से उन्हें दाल में कुछ काला लगा. उन्होंने फोन कर के तारेश के पापा और सोमल के घर वालों को भी बुला लिया.

दोनों लड़कों ने साफसाफ कह दिया कि वे एकदूसरे के साथ जिंदगी बिताना चाहते हैं और किसी को भी उन के लिए लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है. पहले तो दोनों के घर वालों ने उन्हें समाज में अपनी इज्जत का हवाला दे कर बहुत समझाया. सोमल की मां ने बहन की शादी में आने वाली परेशानी का वास्ता दिया. वंश बेल के खत्म होने का डर भी दिखाया, मगर जब दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए तो तारेश की मां ने सोमल को और सोमल के घर वालों ने तारेश को जी भर कर कोसा. खूब हंगामा हुआ. मामला फ्लैट से बिल्डिंग में फैला और फिर पूरी सोसाइटी में वायरल हो गया. मकानमालिक ने फ्लैट खाली करने का नोटिस दे दिया.

बात धीरेधीरे दोनों के औफिस में भी पहुंच गई. हर व्यक्ति उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे वे किसी दूसरे ही ग्रह के प्राणी हों. कल तक जो साथी उन के साथ काम करते, खातेपीते, उठतेबैठते, पार्टियां करते थे आज अचानक उन से कन्नी काटने लगे, अछूतों सा व्यवहार करने लगे. दोनों को ही घुटन होने लगी.

सोमल के तो बौस ने उसे एकांत में बुला कर समझा भी दिया, ‘‘देखो सोमल, तुम्हारे कारण औफिस का माहौल खराब हो रहा है. कर्मचारी अपने काम पर कम, तुम्हारी स्टोरी पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. बेहतर होगा तुम इस्तीफा दे दो. अगर रिमार्क के साथ निकाले जाओगे तो तुम्हारे भविष्य के लिए घातक होगा.’’

तूफानों में बहने वालों के लिए वक्त कभी आसान नहीं होता. हार कर दोनों ने शहर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुंबई शिफ्ट हो गए. इस बीच सोमल की बहन राखी की भी शादी हो गई. मगर उसे खबर तक नहीं की गई.

घर वालों ने तो पहले ही किनारा कर लिया था. सभी पुराने दोस्त भी छूट चुके थे. बस सोमल की एक चचेरी भाभी लीना ही थी, जिस ने इतना कुछ होने के बाद भी उस से संपर्क बनाए रखा था. अब इस नए शहर में दोनों को कोई नहीं जानता था. फिर से एक नई जिंदगी की शुरुआत हुई.

एक दिन अचानक लीना भाभी ने फोन पर बताया कि सोमल राखी के पति की ऐक्सीडैंट में डैथ हो गई. सोमल तड़प उठा. बहुत प्यार करता था अपनी बहन से.

‘उसे इस मुश्किल घड़ी में अपनी बहन के पास होना चाहिए,’ सोच कर तत्काल में ट्रेन के टिकट ले सोमल पहुंच गया अपनी बहन के पास.

उसे देखते ही राखी दौड़ कर लिपट गई भाई से. तभी उस की सास आई और उसे खींचते हुए भीतर ले गई. साथ ही सोमल को भी एहसास करवा गई कि उस का आना उन्हें जरा भी नहीं भाया. बस यही आखिरी मुलाकात थी सोमल की अपने अपनों से. इस के बाद उस की और तारेश की दुनिया एकदूसरे तक ही सिमट कर रह गई.

एक दिन दोनों फुरसत के पलों में टीवी पर ‘हे बेबी’ फिल्म देख रहे थे, जिस में 3 पुरुष साथी मिल कर एक बच्ची की परवरिश करते हैं.

 

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 2 : रत्ना की क्या जिद थी

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

 

एक डाली के तीन फूल- भाग 1: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 1 : रत्ना की क्या जिद थी

ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

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जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था. ‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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