Hindi Story : प्यार और समाज

Hindi Story : लता आज भी उस दर्दनाक हादसे को सोच कर रोने लगती है. उसे लगता है कि सारा मंजर उस के सामने किसी फ़िल्म की भांति चल रहा है. अभी मुश्किल से सालभर भी न हुआ जब उस के हाथों में राजन के नाम की मेहंदी सजी थी और उस की मांग में राजन द्वारा भरा सिंदूर चमक रहा था. अब उस की सूनी मांग हर किसी को रोने को मजबूर कर देती है.लता की उम्र अभी 24 साल है और वह बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी है.

उस की शादी 6 महीने पहले शहर के एक बड़े व्यापारी  के इकलौते पुत्र राजन से हुई. राजन सुंदर और सुशील लड़का था जो लता को बहुत प्यार भी करता था. उन के प्यार को शायद किसी की नज़र लग गई और राजन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस की मौत के बाद उस के घर वालों ने लता को बेसहारा कर के उस के मायके भेज दिया. तब से लता यहीं रहती है. उस के पिता शहर से बाहर रहते हैं. वह उन की अकेली बेटी है.

प्रकृति न जाने क्यों ऐसी तक़लीफ देती है जिस में मनुष्य न जी सकता, न मर सकता. लता के दुखों के पहाड़ ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां को दबा दिया था. उस की यौवन से सजी बगिया आज वीरान हुई थी.  जिस उम्र में उस की सहेलियों ने अपने परिवार को बढ़ाने और पति के साथ अलगअलग जगहों पर घूमने के प्लान बना रहीं, उस उम्र में वह अकेली सिसकती है.

लता के घर की बगल में महेश का घर है. उन के घर में कई लोग किराए पर रहते हैं. उन में ही एक हैं सुशील, जो पेशे से एक अखबार में काम करते हैं. उन की उम्र 28 साल होगी. वे लंबे कद, सुंदर चेहरे व बढ़िया कदकाठी के मालिक हैं.

वे लता को उस की शादी के पहले से काफ़ी पसंद करते हैं. लेकिन कहने से डरते हैं. आज वे बालकनी में खड़े थे कि लता छत पर कपड़े डालने आई. उन्होंने उस को देखा. उस को देखते ही उन को अपने प्रेम की अनुभूति फिर से उमड़ पड़ी.

लता का सफेद बदन धूप में चमक रहा था. उस के लंबे कमर तक के बाल अपनी लटों में किसी को उलझाने के लिए पर्याप्त थे. उस का यौवन किसी भी को आकर्षित करने में महारथी था.

सुशील उस को देखता रहा. एक दिन उस को लता बाजार में मिली. उस ने कहा, “लता, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.”

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

दोनों एकदूसरे को अच्छे से जानते थे. कोई पहली बार नहीं था कि वह उस से बात कर रही थी. एक दोस्त के नज़रिए से दोनों अकसर बात किया करते थे.

सुशील ने कहा, “कहीं बैठ कर बातें करें.”

दोनों बगल के पार्क में चले गए.

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

सुशील ने कहा, “लता, सच कहूं, मुझ से तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं शुरुआत के दिनों से ही तुम्हें बहुत पसंद करता हूं. मैं ने न जाने कितने सपनों में तुम्हें अपने पत्नी के रूप में स्वीकार किया. लेकिन मेरी इच्छा तुम्हें पाने की असफल रह गई.

“तुम अकेली  कब तक ऐसे दर्द को सहते रहोगी. तुम्हारी भी उम्र है और यह फासला बहुत बड़ा है जिसे अकेले काटना मुश्किल हो जाएगा. अगर तुम चाहो, मैं तुम्हारे साथ इस उम्र के सफर में चलना चाहता हूं.”

लता सारी बातें सुन कर चौंक गई, लेकिन अंदर ही अंदर उस के मन में कहीं न कहीं ये बातें बैठ भी गई थीं. उस के आंखों से अश्रु की धारा अनवरत गिरने लगी.

सुशील ने बड़े प्यार से उसे अपने रूमाल से पोंछा और कहा, “तुम सोचसमझ कर बताना, मैं इंतज़ार करूंगा तुम्हारे जवाब का.”

उस के बाद लता घर आई और उस ने इस विषय में काफ़ी सोचा. उस को उस की उम्र काटने की बातें घर कर गई थीं लेकिन उस के ह्रदय में अभी राजन का चेहरा बसा था.

लेकिन कहते हैं न, कि वक़्त बड़ा बलवान होता है जो दिल से लोगों को निकाल भी फेंकता और किसी अंजान को बसा भी देता है.

लता लगभग एक महीने न सुशील को दिखी न मिली. एक दिन उस के घर की घंटी बजी और जब उस ने दरवाजा खोला तो सामने सुशील खड़ा था.

उस ने कहा, “अंदर आने को नहीं कहोगी?”

लता ने उसे अंदर बुलाया और फिर चाय के लिए पूछा. लेकिन सुशील ने मना कर दिया.

सुशील ने उस को बैठाया और उस से फिर अपने सवाल का जवाब मांगा.

लता ने कहा, “सुशील, मुझे तुम्हारी बातों ने बहुत प्रभावित किया परंतु एक विधवा से शादी करना क्या तुम्हारे घर वाले स्वीकार करेंगे?”

सुशील ने कहा, “मानें या न मानें, मैं तुम से ही करूंगा.”

लता को न जाने क्यों उस पर विश्वास करने को दिल कर रहा था लेकिन वह यह भी जानती थी इस समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियों और रूढ़िवादी सोचों का कब्जा है जो उस के मिलन में बाधा पैदा करेंगी.

लेकिन फिर भी उस ने सब से लड़ने का फैसला कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने को सोच लिया और सुशील के प्रस्ताव को मान लिया.

धीरेधीरे दोनों का साथ घूमना, मिलना, घर आनाजाना भी शुरू हो गया. लता के घर में सिर्फ उस के पिताजी थे जो अकसर शहर से बाहर रहते थे. उन को लता ने सब बता दिया और वे भी बहुत खुश थे कि उन की बेटी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती है. एक पिता के लिए इस से खूबसूरत खबर क्या हो सकती थी.

एक दिन लता सुशील के घर गई. दरवाजा खुला था, वह सीधे अंदर गई. तभी किसी ने उस की कमर को पकड़ कर अपनी बांहों में भींच लिया. उस ने पलट कर देखा तो वह सुशील था.

उस ने कहा, “क्या कर रहे हो सुशील, छोड़ो मुझे?”

सुशील ने उस के कंधे पर चूमते हुए कहा, “अपनी जान को प्यार कर रहा हूं. क्या कोई गुनाह कर रहा?”

लता ने कहा, “तुम्हारी ही हूं. कुछ दिन रुक जाओ, फिर शादी के बाद करना प्यार. अभी छोड़ो.”

लेकिन सुशील उसे बेतहाशा कंधे, गले सब जगह चूमता रहा और अपनी बांहों में समेट रखा था. फिर लता ने भी छुड़ाने के असफ़ल प्रयास करना छोड़ उस की बाजुओं में खुद को समेट लिया.

सुशील की सशक्त बाजुओं में वह खुद समर्पित हो कर यौवन के प्रवाह के अधीन हो गई और दोनों काम के यज्ञ में आहुति बन गए.

दोनों का रिश्ता अब जिस्मानी हो चुका था. लता ने अपनी सीमा लांघ कर प्रेम में खुद को अशक्त कर लिया. सुशील ने भी उस के यौवन पर अपनी छाप छोड़ दी.

कुछ दिनों बाद सुशील अपने घर गया. लता ने 2 दिनॉ तक उस का फ़ोन बारबार मिलाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल रहा था.

न जाने क्यों उस के मन मे बुरेबुरे ही ख़याल आते रहे.  उस का मन अंदर ही अंदर किसी अनहोनी को ही सामने ला रहा था परंतु उसे यकीन था, समय हर बार ऐसे खेल नहीं खेल सकता.

3 दिनों बाद एक अलग नंबर से उस के फ़ोन पर घंटी बजी. उस ने तपाक से फ़ोन उठाया और बोली, “हेलो, कौन?”

उसे ज़रा भी देर नहीं लगी कि दूसरी तरफ सुशील था. लता ने धड़ाधड़ प्रश्नों की बौछार कर सुशील को बोलने के मौके का रास्ता अवरुद्ध कर दिया.

सुशील बोला, “लता, तुम सच में मुझ से प्यार करती हो.”

लता ने कहा, “पागल हो, अगर नहीं करती तो सारी सीमाएं तोड़ कर खुद को तुम में समर्पित न करती.”

सुशील ने कहा, ” लता, घर वाले मेरी कहीं और शादी करना चाहते हैं. वे तुम्हारे और मेरे रिश्ते के विरुद्ध हैं. हम दोनों चलो भाग कर शादी कर लें.”

लता स्तब्ध मौन थी. वह न हां बोल रही, न ही मना कर रही. उस को जिस बात का डर था आख़िर वही हो रहा था. उसे पता था कि यह समाज एक विधवा को अभी भी अछूत और कलंकित समझता है.

उस ने फ़ोन रख दिया और फूटफूट कर रोने लगी मानो सालों पहले बीता वही मंजर, जिसे वह भुला चुकी थी, फिर से आ गया हो.

अगले दिन सुबह उस के दरवाजे पर दस्तक हुई और उस ने दरवाजा खोला. सामने सुशील खड़ा था. उस के कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने तुरंत उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, “लता, चलो, हम अभी शादी करते हैं.”

लता ने कहा, “अभी…ऐसे? क्या हुआ?”

सुशील ने कहा, “अगर तुम्हें मुझ से प्रेम है तो सवाल न करो और चुपचाप मेरे साथ चलो.”

लता ने उस के साथ जाना उचित समझा. दोनों सीधे कोर्ट गए और वहां कोर्ट मैरिज कर ली.

आज से लता फ़िर सुहागिन हो गई. उस के चेहरे पर अलग सुंदरता आ गई मानो चांद को ढके हुए बादलों का एक हिस्सा अलग हो गया.

समाज की कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच को मात दे कर दो प्रेमियों ने अपनी प्रेमकहानी को मुक्कमल कर दिया. सुशील ने लता को नई जिंदगी दी. उसे अपना नाम दिया और जीवनभर चलने के वादे को पूरा किया.

लेखक- शुभम पांडेय गगन

Hindi Story : बताएं कि हम बताएं क्या

Hindi Story : ‘उई मां, मैं लुट गई’ के आर्तनाद के साथ वह दीवार के साथ लग कर फर्श पर बैठ गई.

कई दिनों से मुझे बुखार ने अपने लपेटे में ले रखा था और लीना आज डाक्टर के पास मेरी ब्लड रिपोर्ट लेने गई थी. मैं ने सोचा रास्ते में जाने उस ने किस रिश्तेदार के बारे में कौन सी मनहूस खबर सुन ली कि घर आते ही दुख को बरदाश्त न कर पाई और बिलख पड़ी.

तभी मेरे दिमाग की घंटियां बजीं कि अपने हाथों की चूडि़यां तोड़ना तो सीधे अपने सुहाग पर अटैक है. मैं ने जल्दी से अपने दिल की धड़कन को जांचा फिर नब्ज टटोली तो मुझे अपने जीवित होने पर कोई शक न रहा.

पलंग से उतर कर मैं लीना के पास पहुंचा और शब्दों में शहद घोल कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘दूर रहिए मुझ से,’’ लीना खुद ही थोड़ी दूर सरक गई और बोली, ‘‘आप को एड्स है.’’

‘‘मुझे… और एड्स…’’ मैं ने जल्दी से दीवार का सहारा लिया और गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से अपने को संभाल कर पलंग तक ले गया.

‘‘हांहां, आप को एड्स है,’’ लीना ने सहमे स्वर में कहा, ‘‘मै

डा. गुप्ता के रूम में आप की ब्लड रिपोर्ट लेने बैठी थी. उन्होंने रिपोर्ट देखी और कहा कि पोजिटिव है. तभी उन का कोई विदेशी दोस्त आ गया. मुझे बाहर भेज कर वे दोनों आप के केस के बारे में विचार विमर्श करने लगे. बाहर बैठेबैठे मैं ने सुना कि वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आप को एड्स है.’’

‘‘लीनाजी, मगर मुझे एड्स कैसे हो सकता है?’’ मैं ने थोड़ा संभल कर कहा, ‘‘मैं न तो बाहर दाढ़ी बनवाता हूं कि मुझे किसी एड्स रोगी के ब्लेड से कट लगा है. न ही आज तक किसी को अपना खून दियालिया कि किसी एड्स रोगी का खून मेरे शरीर में गया. यहां तक कि वर्षों से मुझे इंजेक्शन भी नहीं लगा है और वैसे भी आजकल डिसपोजेबल इंजेक्शन इस्तेमाल किए जाते हैं. यहां तक कि मेरे परिवार में भी किसी को यह बीमारी नहीं थी.’’

‘‘हूं,’’ हिंदी फिल्मों की खलनायिका की तरह लीना ने लंबी सांस छोड़ी, ‘‘फिर वह कौन थी?’’

‘‘वह कौन थी?’’ मैं ने दोहराया और उस की आंखों में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने लगा.

‘‘हां, मैं पूछती हूं, वह कौन थी?’’

‘‘वह कौन थी…ओ, वह कौन थी? तो भई ‘वह कौन थी’ एक फिल्म का नाम है, जिस में मनोज कुमार और साधना थे और कोई आत्मा…’’ मैं ने बतलाना चाहा.

मेरी इस हरकत पर आज लीना की आंखों में प्यार का सागर लहराने के बजाय लाल डोरे उभर आए और वह गुस्से में बोली, ‘‘मैं पूछती हूं कि वह कौन थी जिस से आप यह सौगात ले कर आए हैं?’’ लीना मेरे सामने आ खड़ी हुई.

‘‘लीनाजी, आप जो समझ रही हैं वैसी कोई बात नहीं है,’’ मैं ने लीना के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मत छुओ मुझे,’’ इतना कहते हुए लीना ने मेरा हाथ झटक दिया और फिर मोबाइल थामे वह दूसरे कमरे में चली गई.

थोड़ी देर बाद देखता क्या हूं कि 2 युवतियां कमरे के अंदर आ गईं. उन में से एक के गले में फ्लैश लगा कैमरा था. वह लड़की सुर्ख रंग की बिना बाजू की मिनी शर्ट और नीले रंग की स्लैक्स में थी. दूसरी लड़की ने सफेद सलवारकमीज पर काले रंग की जैकेट पहन रखी थी. उस के कंधे पर एक बैग लटका हुआ था.

अपने नाम की पुकार सुन लीना कमरे में आ गई और सिसकते हुए बारीबारी से दोनों के गले लगी.

‘‘घबराओ नहीं, हम सब संभाल लेंगे,’’ कैमरे वाली लड़की ने लीना की पीठ थपकते हुए कहा, ‘‘तो यह हैं तुम्हारे एड्स पीडि़त पति,’’ और इसी के साथ लड़की ने मुझे फोकस में ले कर 3-4 बार फ्लैश चमकाए.

‘‘मेरे फोटो क्यों ले रही हो?’’ यह कहते हुए मैं ने अपने चेहरे को हाथ से छिपाने का असफल प्रयास किया.

‘‘आप के फोटो कल समाचार- पत्रों में छापे जाएंगे ताकि जनता को पता चले कि इस शहर में भी कोई एड्स का मरीज है और तुम्हें देखते ही लोग पहचान जाएं,’’ उस ने मुझे बताया और फिर लीना से बोली, ‘‘दीदी, तुम तनिक इन के साथ लग कर बैठ जाओ ताकि मैं दुनिया को बता सकूं कि किस तरह एक आदर्श पत्नी, अपने एड्स रोगी पति की सेवा, अपनी सलामती की परवा किए बिना कर रही है.’’

लीना पलंग पर मुझ से सट कर ऐसे बैठी मानो हम स्टूडियो में बैठे हों और मेरे बालों में अपनी उंगलियों से कंघी करने लगी.

कैमरे वाली लड़की ने हमें फोकस में लिया और फ्लैश का झपाका हुआ.

इस के बाद लीना पलंग से मेढक की तरह कूद कर अपनी दोनों सहेलियों के पास पहुंच गई.

अब जैकेट वाली लड़की ने अपने कंधे पर लटके बैग से एक कागज निकाला जिस पर कोर्ट का टिकट लगा था.

‘‘लो, वकालतनामे पर दस्तखत करो, तुम्हारे तलाक का मुकदमा मैं

लड़ं ूगी. एड्स के रोगी के साथ तुम्हारी शादी पहली पेशी पर ही टूट जाएगी.’’

लीना ने अपनी सहेली के हाथ से पैन ले कर वकालतनामे पर दस्तखत घसीटे.

‘‘हां जनाब, अब आप अपनी उस ‘गर्लफ्रैंड’ का नाम बताएं जिस से आप को यह तोहफा मिला ताकि उस की तसवीरें और नामपता भी अखबार में छाप कर हम दूसरे भोलेभाले मर्दों को एड्स का शिकार होने से बचा सकें,’’ कैमरे वाली लड़की ने चुभती नजरों से मुझे देखा.

‘‘मगर मैं ऐसी किसी औरत को नहीं जानता और न ही मैं किसी दूसरी औरत के पास गया हूं.’’

‘‘ए मिस्टर,’’ जैकेट वाली लड़की बोली, ‘‘सीधी तरह बताएं कि वह कौन थी?’’

‘‘फिर वही ‘वह कौन थी?’ मैं ने कहा न मैं किसी ‘वह कौन थी’ को नहीं जानता,’’ मैं ने प्रोटेस्ट किया.

बाहर किसी ट्रक की गड़गड़ाहट को अनसुना कर मैं ने कहा, ‘‘आप मेरा विश्वास कीजिए, मैं किसी ‘वह कौन थी’ को नहीं जानता हूं.’’

‘‘विश्वास और तुम्हारा?’’ लीना के ताऊजी का गुस्से से भरा स्वर कानों में गूंजा.

मैं ने दरवाजे की ओर देखा तो लीना के ताऊजी, बलदेव भैया और 4 हट्टेकट्टे मजदूर अंदर आ गए. एक मजदूर के कंधे से रस्सी का गुच्छा लटक रहा था.

लीना अपने ताऊजी के गले लग कर रोने लगी और हिचकियों के बीच बोली, ‘‘ताऊजी, मैं लुट गई. बरबाद हो गई.’’

‘‘घबरा मत मेरी बच्ची, अब हम मनोज को लूटेंगे,’’ ताऊजी ने लीना के सिर पर हाथ फेर कर उसे पुचकारा. फिर वह मजदूरों की ओर पलटे, ‘‘घर का सामान उठा कर बाहर खड़े ट्रक में भर लो.’’

2 मजदूर फ्रिज और 2 सोफे की ओर बढे़. तभी मैं चिल्लाया और पलंग से उठ कर उन के बीच जा कर खड़ा हो गया कि किसी भी सामान को हाथ मत लगाना.

‘‘सामान हमारी बेटी का है और अब वह यहां नहीं रहेगी,’’ ताऊजी ने झाग छोड़ते हुए मुझ से कहा, ‘‘एक तरफ हट जाओ.’’

‘‘बलदेव भैया,’’ मैं ने उन की दुहाई दी, तो वह हाथी की तरह चिंघाड़े, ‘‘मुझे भैया कहा तो जबान खींच लूंगा,’’ और इसी के साथ उन्होंने अपना हाथ मेरे मुंह की ओर बढ़ाया. फिर जल्दी से हाथ पीछे खींच लिया.

‘‘आप लोग ऐसा नहीं कर सकते,’’ मैं ने ताऊजी को कहा.

‘‘हम क्याक्या कर सकते हैं यह हम तुम्हें अभी बताते हैं,’’ इतना कह कर ताऊजी मजदूरों की ओर मुडे़ और बोले, ‘‘अरे, तुम लोग देखते क्या हो, इसे इस पलंग पर डाल कर बांध दो.’’

3 मजदूरों ने मुझे बकरे की तरह गिरा कर दाब लिया और रस्सी वाले मजदूर ने मुझे पलंग से बांधना शुरू किया. एक तो बुखार की कमजोरी उस

पर हट्टेकट्टे मजदूरों की ताकत… मिनटों में पलंग के साथ जकड़ा बेबस पड़ा था.

चारों मजदूर जल्दीजल्दी घर का सामान बाहर ले जाने लगे.

लीना और उस की सहेलियां भी बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर में ही खाली कमरे में वह पलंग रह गया जिस के ऊपर मैं बंधा पड़ा था.

‘‘अब इस को पलंग समेत उठाओ और बाहर ले चलो,’’  ताऊजी ने मजदूरों को आदेश सुनाया, ‘‘बलदेव बेटा, घर को ताला लगा कर चाबी साथ ले चलो.’’

मजदूरों ने मुझे पलंग समेत उठा लिया और दरवाजे की तरफ ले गए. पलंग चौड़ा होने से दरवाजे की चौखट में किसी अडि़यल नेता की तरह अड़ गया.

‘‘पलंग को थोड़ा तिरछा कर लो जी,’’ बलदेव ने मजदूरों को राय दी.

मजदूरों ने उन के बताए अनुसार पलंग को तिरछा कर उठाएउठाए ही दरवाजा पार कर लिया. उसे ले जा कर सड़क के किनारे रख दिया.

मैं पलंग से बंधा बेबस अपने सामान को देख रहा था जो ट्रक में बेतरतीब ढंग से रखा गया था. ट्रक के पास लीना, उस की दोनों सहेलियां, बलदेव भैया, ताऊजी और मजदूर खड़े थे. आसपड़ोस के कुछ लोग भी थे मगर वे घटनास्थल से काफी दूर खड़े थे. उन के चेहरों पर डर के भाव थे और वे सहमीसहमी निगाहों से मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हूं. कुछ एक ने तो अपनी नाक पर रूमाल ही टिका रखा था.

अब ताऊजी ने फरमान जारी किया कि इसे यहां से उठा कर सामने पार्क में किसी पेड़ के नीचे डाल दो.

चारों मजदूर पलंग की ओर बढ़े तो मैं बचाव में चिल्लाया और अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगा.

तभी मेरे घर के सामने एक कार आ कर रुकी तो मैं ने अपनी गरदन घुमा कर देखा.

कार में से डा. गुप्ता और एक लंबा, सुर्ख सफेद आदमी बाहर निकले.

सामान से भरे ट्रक पर एक नजर डालने के बाद डा. गुप्ता बोले, ‘‘लीनाजी, क्या मकान शिफ्ट कर रही हैं? तभी जल्दी में आप मनोजजी की रिपोर्ट भी क्लिनिक में छोड़ आईं,’’ फिर मेरी ओर देख कर डाक्टर बोले. ‘‘मनोजजी को ऐसे क्यों बांध रखा है? क्या बुखार सिर को चढ़ गया है?’’

‘‘नहीं, डाक्टर साहब, मुझे पार्क में डालने की तैयारी है,’’ लीना से पहले मैं बोल पड़ा.

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे  एड्स है,’’ मैं ने रुंधे गले से कहा.

‘‘किस ने बताया कि तुम्हें एड्स है?’’

‘‘आप ही ने तो लीना को बताया था कि मुझे एड्स है.’’

‘‘मैं ने…कब,’’ डा. गुप्ता लीना की ओर देखने लगे.

‘‘आज जब मैं आप के क्लिनिक में गई थी तो आप ने बताया था कि पोजिटिव रिपोर्ट आई है. तभी आप के यह दोस्त आ गए और आप ने मुझे बाहर भेज दिया और अपने कमरे में बैठ कर आप इन के साथ इस केस पर विचारविमर्श करने लगे. मैं ने बाहर बैठ कर सुना था. आप के मित्र ने कहा था कि इन को एड्स है,’’ इतना कह कर लीना सिसकने लगी.

‘‘मिस्टर लाल, हम ने कब इन के केस को ले कर डिसकस किया था?’’ डा. साहब ने अपने मित्र से पूछा.

कुछ सोचते हुए मिस्टर लाल बोले, ‘‘डा. गुप्ता, मैं ने आप के अस्पताल के लिए जो चैक विदेश से ला कर दिए और बताया कि यह ‘ऐड’ है उसे ही इन्होंने एड्स तो नहीं समझ लिया?’’ मिस्टर लाल ने डा. गुप्ता से प्रश्न किया.

‘‘तो आप लोग इन को एड्स होने की बात नहीं कह रहे थे?’’ लीना ने डरतेडरते पूछा, ‘‘और वह पोजिटिव रिपोर्ट?’’

‘‘वह तो इन के मलेरिया की रिपोर्ट थी,’’ डा. साहब ने बताया, ‘‘मैं इधर से निकल रहा था तो मैं ने सोचा कि मनोजजी की रिपोर्ट देता चलूं और दवाइयां भी लिख दूंगा.’’

डा. गुप्ता ने मेरी ओर देखने के बाद लीना की ओर मुंह फेरा और चुभते शब्दों में बोले, ‘‘किसी एड्स के मरीज को यों जकड़ कर पार्क में डालने की क्या तुक है?’’

‘‘चाहिए तो यह कि एड्स के मरीज को इस बात का एहसास न होने दिया जाए कि वह मौत की ओर खिसक रहा है,’’ मिस्टर लाल कहते गए, ‘‘उस के साथ तो ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि वह जीवन का आखिरी रास्ता सुकून से अपने हमदर्दों के बीच तय कर पाए और आप लोग तो जानते हैं कि यह बीमारी छूत की नहीं है फिर भी आप ने ऐसा बेवकूफी का काम किया?’’

डाक्टर के तेवर को देख कर ताऊजी बोले, ‘‘अरे, तुम लोग खडे़खडे़ मुंह क्या देख रहे हो. जाओ, जल्दी से जंवाई राजा के सामान को घर के अंदर पहुंचाओ’’.

ताऊजी ने बलदेव के हाथ से मकान की चाबी छीन कर घर का दरवाजा खोल दिया.

डेढ़ घंटे बाद कमरे में सामान के ढेर के पास मैं पलंग पर अधलेटे बैठा था. ट्रक जा चुका था. ताऊजी, बलदेव और लीना की दोनों सहेलियां बाहर से ही खिसक चुके थे और लीना?

लीना, अपनी नई कांच की चूडि़यां शृंगार बाक्स से निकाल, कलाइयों में पहने, डे्रसिंग टेबल के सामने बैठी अपनी कलाइयां घुमा कर चूडि़यां खनका रही थी.

दूर कहीं से गाने की आवाज आ रही थी :

‘‘मेरे हाथों में नौनौ चूडि़यां हैं…’’

Hindi Story : फैसला – सुगंधा ने फैमिली के लिए अपने प्यार की दी कुर्बानी

Hindi Story : सुगंधा लौन में इधरउधर देख अपने  लिए एक कोना तलाश रही थी कि सामने खंभे के पास खड़े व्यक्ति के चेहरे की झलक ने उसे चौंका दिया. अपना शक दूर करने के लिए वह थोड़ा और करीब आ गई. वह मयंक ही था जो विवाह के अवसर पर सामने लगे सजावटी बल्बों को निहारते हुए जाने किस दुनिया में खोया हुआ था. उसे देख सुगंधा को लगा सारी दुनिया थम सी गई है. पहलू में धड़कते दिल को संभालना उस के लिए मुश्किल हो रहा था. पूरे 15 वर्षों के बाद वह मयंक को देख पा रही थी.

समय के इस लंबे अंतराल ने मयंक  में कहीं कुछ नहीं बदला था. वही छरहरा बदन और मुसकराता हुआ चेहरा. समय सिर्फ उस के बालों को छू कर निकल गया था. बालों पर जहांतहां सफेदी झलक रही थी.

मुड़ते ही मयंक की नजर सुगंधा पर पड़ी और उसे इस तरह अपने सामने पा कर वह भी स्तब्ध रह गया. उस के चेहरे पर आताजाता रंग बता रहा था कि उसे भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘सुगंधा, तुम यहां कैसे? कब आईं दिल्ली? क्या तुम्हारे पति का तबादला यहां हो गया है?’’

एक ही सांस में मयंक ने कई प्रश्न पूछ लिए थे. उस की आवाज में आश्चर्य और उत्सुकता साफ झलक रही थी पर आवाज की मिठास पहले की तरह ही कायम थी.

सुगंधा ने तबतक अपनेआप को काफी हद तक संभाल लिया था फिर भी आवाज की लड़खड़ाहट शब्दों में झलक ही आई थी.

‘‘नहीं, तबादला नहीं हुआ है, यह सौरभ के मामाजी का घर है और हम इस शादी में आमंत्रित हैं,’’ सुगंधा बोली.

‘‘अच्छा, कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं, अपनी कहो. तुम ने शादी कर ली या…’’ सुगंधा न चाहते हुए भी अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाई थी.

‘‘किसी ने खुद को बेगाना बना इंतजार करने का अवसर ही नहीं दिया तो शादी करनी ही पड़ी. मांपापा का इकलौता, आशाओं का केंद्र जो था.’’

दोनों में अभी इतनी ही बात हो पाई थी कि एक खूबसूरत सी आधुनिका वहां आ धमकी थी.

‘‘इतनी देर से कहां गायब थे? जल्दी चलो, सब लोग तुम्हारा कब से इंतजार कर रहे हैं,’’ इतना कह कर वह लगभग मयंक को खींचते हुए वहां से ले जाने लगी.

‘‘रुको यार, क्या कर रही हो?’’ मयंक अपनेआप को उस से छुड़ाते हुए बोला था.

‘‘यह मेरी सहपाठी सुगंधा है. अचानक आज हम वर्षों बाद मिले हैं. कालिज के दिनों में हम दोनों के बीच अच्छी निभती थी.’’

फिर मयंक सुगंधा से बोला, ‘‘यह मेरी पत्नी सुकन्या है.’’

सुकन्या शायद जल्दी में थी इसीलिए बिना किसी भाव के उस ने यंत्रवत अपने दोनों हाथ जोड़ दिए. सुगंधा के हाथ भी स्वत: जुड़ गए थे जैसे. हवा के झोंके की तरह आई सुकन्या तेजी से मयंक को ले कर वहां से चली गई और अकेली खड़ी सुगंधा उसे देखती ही रह गई, ठीक वैसे ही जैसे आज से 15 वर्ष पहले मयंक उस से दूर हो गया था और वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकी थी. बस, चुपचाप टुकड़ेटुकडे़ होते तकदीर के खेल को देखती रही थी.

जिंदगी भी जाने कैसेकैसे रंग दिखाती है, जिस अतीत को अपनी जिंदगी की राहों पर हमेशाहमेशा के लिए वह पीछे छोड़ आई थी, आज मृगतृष्णा बन स्वयं उस के सामने आ खड़ा हुआ था.

आज मयंक के मुंह से अपने लिए ‘यह मेरी सहपाठी’ सुन सुगंधा के कलेजे में टीस सी उठी थी. सिर्फ सहपाठी और कुछ नहीं. एक समय था जब सबकुछ उस की मुठ्ठी में था जिसे उस ने रेत की तरह मुट्ठी से जानबूझ कर फिसल जाने दिया था.

उस ने ही मयंक से शादी न करने का फैसला किया था. यद्यपि मयंक ने उस पर फैसला बदलने के लिए भरपूर दबाव डाला था पर सुगंधा टस से मस नहीं हुई थी.

सच पूछो तो वह फैसला भी उस का कहां था, वह तो भैया और पापा का फैसला था जिसे उस ने अपना दायित्व समझ कर सिर्फ निबाहा था. तब उस ने अपने सुखों से ज्यादा पापा और भैया के सुखों को अहमियत दी थी, अपने परिवार के सुखों की रक्षा और समाज से जोड़े रखने की कीमत दी थी.

फिर सुगंधा के सामने अपनी 2 छोटी बहनों के भविष्य का सवाल भी था जो उस के दूसरी जाति में विवाह करने के साथ ही तहसनहस हो सकता था. दुनिया ने चाहे जितनी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं शताब्दी में ही जी रहा है. वैसे भी घरबार त्याग कर, परिवार के सभी सदस्यों को दुखी कर वह मयंक के साथ कभी भी सुखी वैवाहिक जीवन नहीं व्यतीत कर सकती थी.

जिंदगी हमेशा मनमुताबिक नहीं मिलती. सब को कहीं न कहीं समझौता तो करना ही पड़ता है. सौरभ के साथ शादी कर के जो समझौता उस ने अपनेआप से किया था वह उसे बहुत भारी पड़ा था. उस के और सौरभ के विचार कहीं नहीं मिलते थे. सौरभ उन दंभी पतियों में से था जिस के दिमाग में हमेशा यही रहता कि जो वह करता है, कहता है, सोचता है सब सही है, गलत तो हमेशा उस की पत्नी होती है.

सौरभ के दोहरे व्यक्तित्व से अकसर वह अचंभित रह जाती थी. जो व्यक्ति बाहर इतना हंसमुख, मिलनसार और सहयोगी दिखता था वही घर पहुंचतेपहुंचते कैसे दंभी, गुस्सैल और झगड़ालू व्यक्ति में बदल जाता था, बातबात में उसे नीचा दिखा अपमानित कर सुखी होता था, पर अपना वजूद खो कर भी सुगंधा ने अपनी सहनशीलता और समझौते से इस रिश्ते को अब तक बिखरने नहीं दिया था.

सौरभ के उद्दंड स्वभाव से कभीकभी पापा और भैया भी सहम जाते थे. सुगंधा के दुखों का एहसास कर अकसर उन के चेहरे पर पछतावे की परछाईं साफ दिखती थी जिस में मयंक जैसे सुशील लड़के को खो देने का गम भी शामिल होता था. न जाने क्यों उन क्षणों में सुगंधा को एक अजीब सी आत्मसंतुष्टि मिलती थी. चलो, पापा और भैया को अपनी गलती का एहसास तो हुआ.

सुगंधा और मयंक के घरों के बीच बस, एक सड़क का ही तो फासला था. यह अलग बात है कि उस का घर कोठीनुमा था और मयंक अपने परिवार के साथ 2 कमरों के फ्लैट में रहता था. उस के पिता सिंचाई विभाग में ऊंचे ओहदे पर थे जबकि मयंक के पिता एक सरकारी आफिस में मामूली क्लर्क थे पर मयंक की गिनती कालिज के मेधावी छात्रों में होती थी और सभी का विश्वास था कि एक दिन जरूर वह अपने मांबाप का ही नहीं अपने कालिज का भी नाम रोशन करेगा.

दिनप्रतिदिन की मुलाकातों और पढ़ाई की कठिनाइयों को हल करतेकरते जाने कब दोनों की दोस्ती के बीच प्यार का नन्हा सा अंकुर फूट पड़ा जो समय के साथ बढ़तेबढ़ते परिणयसूत्र में बंधने की आकांक्षा तक बढ़ गया. इस का थोड़ाबहुत आभास घर के लोगों को भी होने लगा था. भैया ने उस की शादी के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था, पर इन सब बातों से अनजान दोनों के प्यार की पेंगें मुक्त आकाश को छूने लगी थीं.

मयंक अपनी पढ़ाई में भी जोरशोर से जुटा हुआ था. उसे पूरा विश्वास था कि अगर वह एक अच्छी नौकरी पाने में सफल हो गया तो सुगंधा के मातापिता उन की शादी से कभी इनकार नहीं करेंगे पर नियति को कुछ और ही मंजूर था.

अचानक एक दिन सुगंधा के भैया उस की शादी सौरभ से लगभग पक्की कर आए. घर में लड़की दिखाने की तैयारियां जोरशोर से शुरू हो गई थीं. इस अप्रत्याशित फैसले के लिए सुगंधा कतई तैयार नहीं थी. सुनते ही सुगंधा पर मानो बिजली गिर पड़ी. वह अच्छी तरह जानती थी कि मयंक और उस की शादी का घर में काफी विरोध होगा, फिर भी वह उसे आसानी से गंवा नहीं सकती थी.

भाभी को सबकुछ बता कर सुगंधा ने अंतिम कोशिश की थी. भाभी भी सब सुन सकते में आ गई थीं. वह उसे इस तरह की शादियों से होने वाली परेशानियों को समझाती रही थीं, पर सुगंधा का अत्यंत उदास चेहरा देख मौका पा भाभी ने भैया से बात की थी.

भैया के कान में बात पड़ते ही जैसे भूचाल आ गया. गुस्से से उबलते हुए भैया ने थोड़ी ही देर में भाभी और ननद के रिश्ते को ले कर न जाने कितनी बातों के पिन भाभी को चुभाए थे. दरवाजे की ओट में खड़ी सुगंधा भाभी की बेइज्जती से आहत और पछताती अपने कमरे में आ गई थी. उस का एकमात्र आसरा भाभी ही थीं, वह भी टूट गया था.

भैया बैठे उसे घंटों समझाते रहे थे, पर सुगंधा के बोल नहीं फूटे थे. भैया के विनीत भाव, कमरे के दरवाजे पर खड़ी अम्मां के चेहरे की बेचैनी और बहनों के अंधकारमय होते भविष्य ने उसे अपना फैसला बदलने के लिए मजबूर कर दिया था. सारे अपनों को दुखी कर वह कैसे सुखी रह सकती थी.

जब उस ने अपना यह फैसला मयंक को सुनाया था तो वह भी कम आहत नहीं हुआ था.

पटना छोड़तेछोड़ते सुगंधा के परिवार के लोग सिर्फ इतना ही जान पाए थे कि मयंक सिविल सर्विसेज में चुन लिया गया था और टे्रनिंग के लिए गया हुआ था. 15 वर्षों बाद यों मुलाकात हो जाएगी उस ने कभी सोचा भी नहीं था.

अगले दिन दोपहर में वह कपड़े बदल कर लेटने जा ही रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी. दरवाजा खोलते ही अप्रत्याशित रूप से मयंक को सामने पा सुगंधा बुरी तरह से चौंक गई थी.

‘‘अब अंदर भी आने दोगी या इसी तरह खड़ा रहूं,’’ मयंक ने कहा.

बिना कुछ बोले सुगंधा ने मयंक को रास्ता दे दिया. ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के मयंक ने सीधेसीधे बात शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरी जिंदगी के साथ इतना बड़ा मजाक क्यों किया?’’

अचानक मयंक के इस सवाल और उस की आंखों के कोर पर चमकते हुए आंसुओं ने सुगंधा को बेहद व्याकुल बना दिया था. उस ने कल्पना भी नहीं की थी कि मयंक यों सीधेसीधे बात करेगा.

अपने को संयत करने का प्रयास करते हुए सुगंधा बोली, ‘‘क्या बचपना है, मयंक? अब हम बच्चे नहीं रहे. हम दोनों की एक बसीबसाई गृहस्थी और जिम्मेदारियां हैं जिस से हम भाग नहीं सकते.’’

‘‘सिद्धांत की बातें छोड़ो सुगंधा, मैं क्या करूं यह बताओ? मेरे लिए तुम्हें भुला देना आज भी आसान नहीं है.’’

अब सुगंधा के शब्द भी उस के भर्राए गले और भर आईं आंखों में खो गए थे. थोड़ी देर की चुप्पी को सुगंधा ने ही तोड़ा.

‘‘मैं जानती हूं, मयंक मेरे फैसले ने तुम्हें बहुत आहत किया है. इस फैसले ने मुझे भी कम आहत नहीं किया था. मेरे लिए तुम्हारे बिना जीना और भी कठिन था फिर भी मेरी अंतरात्मा ने मुझे स्वार्थ की डोर पकड़ने से रोक दिया था. उस समय अपने कर्तव्य से पलायन और अपनों को आहत करने का साहस मैं जुटा नहीं पाई थी.

‘‘ऐसा भी नहीं था कि मैं ने प्रयास नहीं किए. जब अत्यधिक प्रयास के बाद भी मुझे मेरे अपनों की मंजूरी नहीं मिली और मेरे अंदर उन्हें आहत करने का साहस चुक गया, मेरी कितनी रातें बेचैनी और छटपटाहट में गुजरीं. मेरे पास दो ही रास्ते थे, विद्रोह या अपनी इच्छाओं की कुरबानी. जी तो चाहता था समाज की पुरानी जीर्णशीर्ण मान्यताओं को रौंद, जीवन भर दूसरों के लिए जीने के बजाय खुद के लिए जीऊं. लेकिन सारी जद्दोजेहद के बाद मेरे अंतस ने मुझे कुरबानी के रास्ते पर ही ढकेला था.

‘‘मुझे लगा, प्यार के बंधन के अलावा दुनिया में और भी बंधन होते हैं जिन से इनकार नहीं किया जा सकता. जिन अपनों के स्नेह की छांव में हम पलते हैं, जिन के संग खेल कर, लड़ कर हम बड़े होते हैं, ये सभी रिश्ते भी तो प्यार के बंधन होते हैं. उन के सुखदुख भी तो हमारे सुखदुख होते हैं इसलिए मेरे कारण सभी के जीवन में घुलते जहर को खुद ही पी लेना मुझे कल्याणकारी लगा था.’’

एक गहरी सांस ले सुगंधा ने फिर अपनी बात कहनी शुरू की, ‘‘पर मन के बंधन क्या इतनी आसानी से टूट जाते हैं? मेरी समझ से शारीरिक आकर्षण से परे प्यार एक एहसास है जो हमेशा मन के कोने में सुरक्षित रहता है, जो सहजता से जीवन का फैसला लेने और निभाने का साहस देता है. आज मेरे जीवन में भी मेरा प्यार ही जीवन जीने की शक्ति है. अपने अंदर की उसी शक्ति के बलबूते मैं ने जीवन में आई कठिन परिस्थितियों को झेला है.

‘‘आज तुम्हें देख कर न मेरे दिल के तार झनझनाए न ही मन में कोई घंटी बजी, फिर भी यह सोच कर मेरी आंखें भर आईं कि आज भी तुम से ज्यादा अंतरंग मित्र और मुझे समझने वाला कोई नहीं है. यह विश्वास शायद उसी अछूते प्यार का एहसास है.

‘‘आज का सत्य यही है कि ढेर सारी कमियों के बावजूद मैं अपने पति और बच्चों से बेहद प्यार करती हूं. इतने दिनों के वैवाहिक जीवन में चाहे जितनी भी कमियां रही हों फिर भी एक अटूट विश्वास का रिश्ता जरूर हम दोनों के बीच कायम हो गया है जिसे तोड़ने का साहस हम में से कोई नहीं कर सकता.’’

वर्षों पहले अपने द्वारा लिए गए फैसले की अबूझ पहेली के सूत्र मयंक के हाथों में थमा कर सुगंधा यकायक चुप हो गई. थोड़ी देर तक उन दोनों के बीच एक सन्नाटा व्याप्त रहा. अब तक निढाल से बैठे मयंक का दुखी और मुरझाया चेहरा काफी कुछ सहज हो चला था. थोड़ी देर पहले आंखों में छाया दर्द पिघलने लगा था.

‘‘शायद तुम ठीक ही कह रही हो  सुगंधा. आज तक मैं भी एक मृगतृष्णा के पीछे ही तो भाग रहा था. जिस सचाई को जानते हुए भी मानने को तैयार नहीं था, संयोग से आज मिलते ही तुम ने उस का दूसरा पहलू दिखा कर मेरी सारी उलझन ही दूर कर दी. आज मुझे तुम्हारी दोस्ती पर गर्व हो रहा है. क्या मैं आशा रखूं कि आगे भी हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे,’’ कुछ देर पहले मयंक की आवाज में जो दर्द भरा था वह अब गायब हो चुका था.

‘‘क्यों नहीं? आज और इसी वक्त से हम अपनी टूटी हुई दोस्ती की नई शुरुआत करेंगे.’’

शाम को खाने पर सौरभ से सुगंधा ने गर्व के साथ मयंक को मिलवाया, ‘‘इन से मिलो, यह मेरे सहपाठी और यहां के कमिश्नर मयंक अग्रवाल हैं.’’

‘‘हमारी दोस्ती बचपन के दिनों की तरह मजबूत है, चाहे हम 15 साल बाद मिल रहे हों,’’ मयंक ने सौरभ को गले लगाते हुए कहा, ‘‘हां, आज मुझे एक नया दोस्त मिल रहा है, सौरभ?’’

लेखिका- रीता कुमारी

Hindi Story : दो पहलू – आखिर नीरा अपनी सास से क्यों चिढ़ती थी

Hindi Story : सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी तो नीरा ने कसमसा कर अंगड़ाई ली. अधखुली आंखों से देखा, आसमान पर अभी लाली छाई हुई है. सूरज अभी निकला नहीं है, पर मांजी का सूरज अभी से सिर पर चढ़ आया है. न उन्हें खुद नींद आती है और न  किसी और को सोने देती हैं. एक गहरी खीज सी उभर आई उस के चेहरे पर.

परसों उस की नींद जल्दी टूट गई थी. लेटेलेटे कमर दर्द कर रही थी. वह उठ गई और अपने लिए चाय बनाने लगी. खटरपटर सुन कर मांजी की नींद टूट गई. बोल पड़ीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों उठ गई, बहू. कौन सा लंबाचौड़ा परिवार है जिस के लिए तुम्हें खटना पड़ेगा.’’

गुस्से से नीरा का तनबदन सुलग उठा था. आखिर यह चाहती क्या हैं? जल्दी उठो तो मुश्किल, देर से उठो तो मुश्किल. बोलने का बहाना भर चाहिए इन्हें.

अभी तो उसे यहां आए मुश्किल से 2 माह हुए  हैं, पर लगता है कि मानो दो युग ही गुजर गए हैं. अभी दीपक को वापस आने में पूरे 4 माह और हैं. कैसे कटेगा इतना लंबा समय? शुरू से ही संयुक्त परिवार के प्रति एक खास तरह की अरुचि सी थी उस के अंदर.

मातापिता ने भी उस के लिए वर देखते समय इस बात का खास खयाल रखा था कि लड़का चाहे उन्नीस हो, पर वह मांबाप से दूर नौकरी करता हो. उसे सास, ननदों के संग न रहना पड़े. आखिर काफी खोजबीन के बाद उन्हें इच्छानुसार दीपक का घर मिल गया था.

दीपक का परिवार भी छोटा सा था. मां, बाप और छोटी बहन. वह घर से अलग, दूसरे शहर में एक कालिज में अध्यापक था. सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व वाले दीपक को सब ने पहली नजर में ही पसंद कर लिया था. शादी के बाद नीरा 8-10 दिन ससुराल रही थी.

इन चंद दिनों में ही सब का थोड़ाबहुत  स्वभाव उस के आगे उजागर हो गया था. बाबूजी गंभीर स्वभाव के अंतर्मुखी व्यक्ति थे. ज्यादा बोलते या बतियाते नहीं थे, पर उन की कसर मांजी पूरी कर देती थीं. मांजी जरा तेजतर्रार थीं. सारा दिन बकझक करना उन की आदत थी. ननद सिम्मी एक प्यारी सी हंसमुख लड़की थी. उस की हमउम्र थी.

मांजी हर बात में नुक्ताचीनी कर के बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेती थीं. पर उन की इस आदत पर न कोई ध्यान देता था और न उन की बातों को गंभीरता से लेता था. बाबूजी निरपेक्ष से बस हां, हूं करते रहते थे. 10 दिन बाद ही दीपक नौकरी पर वापस गया, तो वह भी साथ चली गई थी.

दीपक को कालिज के पास ही मकान मिला हुआ था. नीरा ने सुघड़ हाथों से जल्दी ही अपनी गृहस्थी जमा ली. दीपक भी अपने पिता की ही तरह धीर, गंभीर था. नीरा कई बार सोचती कि एक ही परिवार में कैसा विरोधाभास है? कोई इतना बोलने वाला है और कोई इस कदर अंतर्मुखी. अभी उस की शादी को 3 माह ही हुए थे कि दीपक को विश्वविद्यालय की ओर से 6 माह के प्रशिक्षण के लिए जरमनी भेजने का प्रस्ताव हुआ. नीरा भी बहुत खुश थी.

दीपक उसे बांहों में समेट कर बोला था, ‘‘नीरू, तुम्हारे कदम बड़े अच्छे पड़े. बड़े दिनों का अटका काम हो गया. 6 माह तुम मां और बाबूजी के पास रह लेना. उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाएगा.’’

नीरा जैसे आसमान से गिरी. इस ओर तो उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. अचानक उस की आंखें भर आईं और वह बोली, ‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बिना वहां अकेली नहीं रह सकती. मुझे भी अपने साथ ले चलो.’’

‘‘नहीं, नहीं, नीरू, यह संभव नहीं है. मैं फैलोशिप पर जा रहा हूं. वहां होस्टल में रह कर कुछ शोधकार्य करना है. तुम वहां कहां रहोगी? 6 माह का समय होता ही कितना है? पलक झपकते समय निकल जाएगा.’’

फिर तो सब कुछ आननफानन में हो गया. एक माह के अंदर ही दीपक जरमनी चला गया. उसे मांजी और बाबूजी के पास छोड़ते समय वह बोला था, ‘‘नीरू, मां की जरा ज्यादा बोलने की आदत है. वैसे दिल की वह साफ हैं. उन की बातों को दिल पर न लाना. तुम्हें पता तो है कि वह सारा दिन बोलती रहती हैं. तुम बस हां, हूं ही करती रहना.’’

दीपक की बात उस ने गांठ बांध ली थी. मांजी कुछ भी कहतीं, वह अपना मुंह बंद ही रखती. मांजी की बातों को कड़वे घूंट की तरह गटक जाती. पर उन का छोटीछोटी बातों पर हिदायतें देना और टोकना उसे सख्त नागवार गुजरता. सिम्मी न होती तो उस का समय बीतना और मुश्किल हो जाता. वही तो थी जिस के साथ हंस कर वह बोलबतिया लेती थी. वही उसे खींच कर कभी फिल्म दिखाने ले जाती तो कभी खरीदारी के लिए.

दीवार घड़ी ने टनटन कर के 6 बजाए तो वह चौंक पड़ी. अभी मांजी को बोलने का एक और विषय मिल जाएगा. वह न जाने किन सोचों में डूब गई. जल्दी से उठी और दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो कर रसोई में जा कर आटा गूंधने लगी. बाबूजी और सिम्मी, दोनों 8 बजे घर से निकल जाते थे.

तभी सिम्मी आ कर जल्दी मचाने लगी, ‘‘भाभी, जल्दी नाश्ता दो, आज मेरा पहला घंटा है.’’

नीरा के कुछ बोलने से पहले ही मांजी बोल पड़ीं, ‘‘जरा जल्दी उठ जाया करो, बहू, मैं तो गठिया के मारे उठ नहीं पाती हूं. अब सब को देर हो जाएगी. हम तो सास के उठने से पहले ही मुंहअंधेरे सारा काम कर लेते थे. क्या मजाल जो सास को किसी बात पर बोलने का मौका मिले.’’

‘‘हो गया तुम्हारा भाषण शुरू?’’ बाबूजी गुस्से से बोले, ‘‘अभी सिर्फ 7 बजे हैं और सिम्मी को जाने में पूरा एक घंटा बाकी है.’’

‘‘तुम चुप रहो जी,’’ मांजी बोलीं, ‘‘पहले बेटी को सिर चढ़ाया, अब बहू को माथे पर बिठा लो.’’

नीरा चुपचाप परांठे सेकती रही. सिम्मी बोली, ‘‘कभी मां मौनव्रत रखें तो मजा ही आ जाए.’’

नीरा के होंठों पर मुसकान आ गई. सिम्मी पर भी मांजी सारा दिन बरसती ही रहती थीं. कालिज से आने में जरा देर हो जाए तो मांजी आसमान सिर पर उठा लेती थीं. प्रश्नों की बौछार सी कर देतीं, ‘‘देर क्यों हुई? घर पर पहले बताया क्यों नहीं था?’’ आदि.

सिम्मी झल्ला कर कहती, ‘‘बस भी करो मां, जरा सी देर क्या हो गई, तूफान मचा दिया. मैं कोई बच्ची नहीं हूं जो खो जाऊंगी. आजकल अतिरिक्त कक्षाएं लग रही हैं, इस से  देर हो जाती है. तुम्हें तो बोलने का बहाना भर चाहिए.’’

बेटी के बरसने पर मांजी थोड़ी नरम पड़ जातीं, फिर धीमे स्वर में बड़बड़ाने लगतीं. सिम्मी तो बेटी है. मांजी से तुर्कीबतुर्की सवालजवाब कर लेती है पर वह तो बहू है. उसे अपने होंठ सी कर रखने पड़ते हैं. बिना बोले यह हाल है. जो कहीं वह भी सिम्मी की तरह मुंहतोड़ जवाब देने लगे तो शायद मांजी कयामत ही बरपा कर दें. मांजी और बाबूजी का दिल रखने के लिए ही तो वह यहां रह रही है. वरना क्या इतने दिन वह अपने मायके में नहीं रह सकती थी?

बाबूजी और सिम्मी चले गए. वह भी रसोई का काम निबटा कर नहाधो कर आराम कर रही थी. पड़ोस से कुंती की मां आई हुई थीं. वह चाय बनाने लगी. बाहर महरी ने टोकरे में बरतन धो कर रखे थे. कांच का गिलास निकालने लगी तो जाने कैसे गिलास हाथ से छूट कर टूट गया.

मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, ध्यान से बरतन उठाया करो. महंगाई का जमाना है. इतने पैसे नहीं हैं जो रोजरोज गिलास खरीद सकें. जब अपनी गृहस्थी जमाओगी तब पता चलेगा.’’

बाहर वालों के सामने भी मांजी चुप नहीं रह सकतीं. नीरा की आंखों में क्रोध और क्षोभ के आंसू आ गए. चाय दे कर वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. उस ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी और यहां दिनरात मांजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़ती हैं.

रात खाने के समय नीरा ने देखा कि दही अभी ठीक से जमा नहीं है. मांजी का बोलना फिर शुरू हो गया, ‘‘तुम ने बहुत ठंडे या बहुत गरम दूध में खट्टा डाल दिया होगा, तभी तो नहीं जमा दही. अगर ध्यान से जमातीं तो क्या अब तक दही जम न जाता? दीपक को तो दही बहुत पसंद है. पता नहीं तुम वहां भी दही ठीक से जमा पाती होगी या नहीं.’’

बाबूजी बोल पड़े, ‘‘ओह हो, अब चुप भी रहोगी या बोलती ही जाओगी? तरी वाली सब्जी है. दही बिना कौन सा पहाड़ टूट रहा है? तुम्हें खाना हो तो हलवाई से ले आता हूं. बहू पर बेकार में क्यों नाराज हो रही हो?’’

मांजी खिसिया कर बोलीं, ‘‘लो और सुनो. बाप और बेटी पहले ही एक ओर थे. अब बहू को और शामिल कर लो गुट में.’’

नीरा शर्म से गड़ी जा रही थी. मांजी के तो मुंह में जो आया बोलने लगती हैं. किसी का लिहाज नहीं.

खाना खा कर वह कमरे में आई तो उस के मन में क्रोध भरा था. अब वह यहां हरगिज नहीं रह सकती. 2 माह जैसेतैसे काट लिए हैं पर अब और नहीं रहा जाता. उस की सहनशक्ति अब खत्म हो गई है. हर बात में टोकाटाकी, भाषणबाजी. आखिर कहां तक सुन सकती है वह? कभी कपड़ों में नील कम है तो कभी बैगन ठीक से नहीं भुने हैं, कभी चाय में पत्ती ज्यादा है तो कभी सब्जी में नमक कम. बिना वजह छोटीछोटी बातों में लंबाचौड़ा भाषण झाड़ देती हैं. बरदाश्त की भी हद होती है. अब वह यहां और नहीं रहेगी. वह उठ कर भैया को खत लिखने लगी. मायके में जा कर दीपक को भी पत्र डाल देगी कि भैया लेने आ गए थे, सो उन के साथ जाना पड़ा उसे.

सुबह मांजी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘उठो बहू, सुबह हो गई है.’’ वह उठने लगी तो उसे अचानक चक्कर सा आ गया. उस ने उठने की कोशिश की तो कमजोरी के कारण उठा न गया. हलकी झुरझुरी सी चढ़ रही थी. सारा बदन टूट रहा था.

वह फिर लेट गई और बोली, ‘‘मांजी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को?’’ यह कहती मांजी उस के कमरे में आ गईं. माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गईं. उन के मुंह से हलकी सी चीख निकल गई.

‘‘अरे, तुम्हारा माथा तो भट्ठी सा तप रहा है, बहू,’’ फिर वहीं से वह चिल्लाईं, ‘‘सुनो जी, जरा जल्दी इधर आओ.’’

‘‘अब क्या आफत है?’’ बाबूजी भुनभुनाते हुए कमरे में आ गए.

‘‘बहू को तेज बुखार है. जल्दी से जरा डाक्टर को बुला लाओ.’’

बाबूजी तुरंत कपड़े पहन कर डाक्टर को लेने चले गए.

मांजी नीरा के सिरहाने बैठ कर उस का माथा दबाने लगीं. ठंडेठंडे हाथों का हलकाहलका दबाव, नीरा को बड़ा भला लग रहा था. कुछ ही देर में बाबूजी डाक्टर को ले कर आ गए.

डाक्टर नीरा की अच्छी तरह जांच कर के बोले, ‘‘दवाएं मैं ने लिख दी हैं. इस हालत में अधिक तेज कैप्सूल तो दिए नहीं जा सकते.’’

‘‘किस हालत में?’’ मांजी पूछ बैठीं.

‘‘यह गर्भवती हैं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘बुखार ठंड से चढ़ा है. तुलसीअदरक की चाय भी पिलाती रहें. 2-1 दिन में बुखार उतर जाएगा.’’

मांजी के आगे एक नया रहस्य खुला. नीरा ने तो इस बारे में उन्हें बताया ही नहीं था. वह बड़बड़ाने लगीं, ‘‘अजीब लड़की है, यह. अरे, मैं सास सही, पर सास भी मां होती है. मैं तो इस से सारा काम कराती रही और इस ने कभी बताया तक नहीं कि कुछ खास खाने का मन कर रहा है. ये आजकल की बहुएं भी बस घुन्नी होती हैं. एक हमारा जमाना था. हमें बाद में पता चलता था और सास को पहले से ही खबर हो जाती थी. अब बताओ, मैं ने तो कभी इस से यह भी नहीं पूछा कि क्या खाने की इच्छा है?’’

‘‘तो अब पूछ लेना. काफी वक्त पड़ा है. इस समय बहू को सोने दो,’’ बाबूजी बोले और कमरे से बाहर चले गए.

रात मांजी अपनी खाट नीरा के कमरे में ही ले आईं. रसोई का काम सिम्मी को सौंप दिया था इसलिए अब मांजी का आक्रोश  उस पर बरसता.

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर खाना बनाने की अक्ल नहीं आई, गोभी में पानी तैर रहा है. और दाल इतनी गाढ़ी है कि गुठलियां बन गई हैं. दस बार कहा है कि जरा अपनी भाभी के साथ हाथ बंटाया करो. कुछ सीख जाओगी. पर…’’

‘‘ओहो मां, शुरू हो गईं तुम? एक तो खाना बनाओ, ऊपर से तुम्हारा भाषण सुनो. मुझ से खाना बनवाना है तो चुपचाप खा लिया करो, वरना खुद करो.’’

मांजी बड़बड़ाने लगीं, ‘‘इन बच्चों को तो समझाना भी मुश्किल है.’’

मांजी 2-2 घंटे बाद अदरकसौंफ वाला दूध ले कर नीरा के पास आ जातीं. खुद अपने हाथों से उसे दवा देतीं. रात भर माथा छूछू कर उस का बुखार देखतीं.

अपने प्रति मांजी को इतना चिंतित देख नीरा हैरान थी. बड़बोली मांजी के अंदर उस की इतनी फिक्र है और उस के प्रति इतना प्रेम है, आज तक कहां समझ पाई थी वह? वह तो मांजी के बोलने और टोकने पर ही सदा खीजती  रही.

नीरा 4-5 दिन बुखार की चपेट में रही. मांजी बराबर उस के सिरहाने बनी रहीं. उसे दवा, दूध, चाय, खिचड़ी आदि सब अपने हाथ से देती थीं. कई बार नीरा को लगता जैसे उस की मां ही सिरहाने बैठी हैं. उस का बुखार उतर गया था, पर मांजी उसे अभी जमीन पर पांव नहीं रखने देती थीं कि कहीं कमजोरी से दोबारा बुखार न चढ़ जाए.

दोपहर पड़ोस से रम्मो चाची उस का हाल पूछने आई थीं. उस के माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘माथा तो ठंडा पड़ा है, बुखार तो नहीं है.’’

नीरा ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब कल से बुखार नहीं है.’’

बाद में मांजी और रम्मो चाची बाहर आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं.

रम्मो चाची बोलीं, ‘‘आजकल की बहुएं भी फूल सी नाजुक होती हैं.  हम भी तो इस भरी सर्दी में काम करते हैं, पर हमें तो कभी ताप नहीं चढ़ता. ये तो बस छुईमुई सी है,’’ फिर फुसफुसा कर बोलीं, ‘‘अरे, बहू को बुखार भी है या यों ही बहाना किए पड़ी है. आजकल की बहुएं तो तुम जानो, ऐसी ही होती हैं.’’

तभी मांजी का तीव्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘बस, बस, रम्मो. तुम्हारा दिमाग भी कभी सीधी राह पर नहीं चला. तुम ने कभी अपनी बहुओं के दुखदर्द को समझा नहीं. तुम्हें तो सब कुछ बहाना लगता है. यह मत भूलो कि बहुएं भी हाड़मांस की बनी हैं. मैं ने तो नीरा और सिम्मी में कभी फर्क नहीं माना है. तुम भी अगर यह बात समझ लो तो तुम्हारे घर की रोज की चखचख खत्म हो जाए.’’

रम्मो चाची खिसियानी सी हो गईं, ‘‘मैं ने जरा सा क्या बोला, तुम ने तो पूरी रामायण बांच दी. यों ही बात से बात निकली थी तो मैं बोल पड़ी थी.’’

‘‘आज तो बोल दिया, आगे से मेरी बहू के बारे में यों न बोलना,’’ मांजी के अंदर अब भी आक्रोश था.

नीरा लेटीलेटी हैरानी से मांजी की बातें सुन रही थी. सचमुच वह मांजी को जान ही कहां पाई? दीपक ठीक ही कहते थे, ‘मुंह से मांजी चाहे बकझक कर लें पर मन तो उन का साफ पानी सा निर्मल है.’ इस बीमारी में उन्होंने उस का जितना खयाल रखा, उस की अपनी मां भी शायद इस तरह न रख पातीं.

और फिर मांजी सिर्फ उसी को तो नहीं बोलतीं. सिम्मी और बाबूजी भी मांजी की टोकाटाकी से कहां बच पाते हैं? यह तो मांजी का स्वभाव ही है. वैसे इस उम्र में आ कर औरतें अकसर इस स्वभाव की हो ही जाती हैं. उस की मां भी तो कितना बोलती हैं.

पर फर्क सिर्फ यह है कि वह मां हैं और यह सास हैं. उन का कहा वह इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देती थी और सासू मां का कहा गांठ बांध कर रख लेती है. अभी तक उस ने सिक्के के एक ही पहलू को देखा था, दूसरा पहलू तो अब देखने को मिला जिस में ममता और प्रेम भरा है.

नीरा उठी. मेज पर रखे भैया को लिखे खत को उठाया और उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मायके जाने का विचार उस ने छोड़ दिया. दीपक के आने तक वह मांजी के साथ ही रहेगी. मांजी का दूसरा ममतापूर्ण और करुणामय रूप देख कर अब इस घर से जाने की इच्छा ही नहीं उसे.

लेखक- कमला चमोला

Hindi Story : देर से ही सही

Hindi Story : सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

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Love Story : ‘‘इस धुंध में बाहर निकलना भी मुसीबत है. कपड़े, बाल सब सीलन से भर कर चिपकने से लगते हैं.’’

‘‘और बलराम मियां, कहीं वह भी तो…’’ मैं ने चुटकी ली.

सुधा ने मुझे मुक्का दिखा दिया.

‘‘मैं ने ऐसा क्या कहा? अपने स्वीट हार्ट के साथ खुद ही घूमफिर आई, हम से मिलवाया भी नहीं…’’ मैं ने रूठने का अभिनय करते हुए मुंह फुला लिया.

‘‘अच्छा बाबा, नाराज क्यों होती है? कल तुम सब की पार्टी पक्की रही.’’

सुधा मेरे कमरे में मेरे साथ ही रहती थी. यों वह मुझ से 7-8 साल बड़ी थी. वह बड़ी कक्षा की अध्यापिका थी. फिर भी हम दोनों में गहरी छनती थी. हम रात के 11-12 बजे तक बतियाते रहते.

गरीब घर की लड़की, छात्रवृत्ति के बल पर ही पढ़ती रही थी. घर में एक छोटा भाई और मां थी. हर महीने मां व भाई के लिए खर्चा भेजती थी. भाई इसी साल इंजीनियंिंरग कालिज में दाखिल हुआ था.

और भी एक व्यक्ति था सुधा के जीवन में, फ्लाइट लेफ्टिनेंट बलराज, जो कभीकभी हवाई जहाज ले कर स्कूल के ऊपर भी आता था. चर्च की मीनारों के ऐन ऊपर आ कर वह हवाई जहाज को नीचे ले आता तो सुधा का चेहरा जर्द पड़ जाता था. पर कुशल उड़ाक शोर मचाता, घाटी को गुंजाता हुआ पल भर में नीलेकाले पहाड़ों की सीमा लांघ जाता. वह कभीकभार सुधा से मिलने भी आता. लंबा, बांका, आंखें हरदम जीने की उमंग से चमकतीं मचलतीं.

सुधा और वह बचपन से ही एकसाथ खेलकूद कर बड़े हुए थे. एकसाथ गरीबी के अंधड़ों से गुजरे थे. फिर बलराज अनाथ हो गया. एक सांप्रदायिक दंगे में उस के मांबाप मारे गए. तभी करीब की हवेली के सेठजी ने उस की पढ़ाईलिखाई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था. पढ़ाई समाप्त कर बलराज वायुसेना में चला गया था.

जीवन के दुखभरे रास्तों को दोनों ने एकदूसरे की आंखों के प्रेमभरे आश्वासनों को भांपते हुए पार किया था. अब मंजिल करीब थी. सुधा के भाई के इंजीनियर बनते ही दोनों की शादी की बात पक्की थी.

इस बीच मेरी सगाई भी हो गई. नवंबर में स्कूल बंद हुए तो सुधा से मैं ने शादी में आने का वादा ले लिया. उस ने भी अपनी बात रखी. शादी से एक सप्ताह पहले ही वह आ पहुंची. फिर नैनीताल से दिल्ली की दूरी ही कितनी थी? मां सुधा के सिर पर शापिंग, कपड़े, गोटे तिल्ले का भार डाल कर निश्चिंत हो गईं. रिश्तेदार औरतों को इस काम में लगातीं तो सौ मीनमेख निकलते और पचास सलाह देने वाले जुट जाते.

डोली चलते समय मुझे लगा जैसे सगी बहन का साथ छूट रहा हो. पर फिर भी मालूम था कि स्नेह का बंधन अटूट है.

शादी के बाद भी सुधा के पत्र आते रहे. एकडेढ़ साल बीत चला था, पर उस की शादी का कार्ड नहीं आया, जिस की मुझे प्रतीक्षा थी.

इधर मेरे अपने घर में अनेक झमेले थे. संयुक्त परिवार, देवर, ननदों का भार सिर पर. मैं 3 भाइयों की लाड़ली बहन, गुस्सा नाक पर बैठा रहता. मुझ में कहां ताब कि एक तो दैनिक दिनचर्या के एकरस काम निबटाऊं, साथ ही सब की धौंस सहूं और फिर अपने पति की झल्लाहट भी झेलूं. अब अगर दफ्तर जाते समय कमीज का बटन टूटा है तो साहबजादे मुझ पर चिल्लाने की बजाय स्वयं भी तो लगा सकते हैं. पर नहीं, मैं रसोई में भी जूझूं, यह सब नखरे भी सहूं. अब सास तो सिर पर है नहीं कि घर की देखभाल करें.

छोटीछोटी बातों पर झगड़ा होता और बात का बतंगड़ बन जाता. मैं रूठ कर मायके आ जाती. उस भरेपूरे परिवार में मानमनोअल का अवसर भी कहां मिलता? एक बार इसी तरह रूठ कर गरमियों में मैं दिल्ली आई हुई थी. मन में क्या आया कि गरमियां बिताने भैया और माया भाभी के साथ नैनीताल आ गई. मन में सुधा से मिलने की दबी इच्छा भी थी और विवेक को थोड़ी और उपेक्षा दिखा कर तड़पाने की आकांक्षा भी. पता नहीं सुधा वहां है या नहीं. वैसे शादी तो अब तक हुई नहीं होगी वरना मुझे कार्ड तो अवश्य आता.

सुधा वहीं थी, उसी होस्टल में हम दोनों टूट कर गले मिलीं. पिछली स्मृतियों के पिटारे खुल गए. मैं ने तो साफ पूछ लिया, ‘‘बलराज की क्या खबर है? अभी तक हवा में ही कुलांचें भर रहे हैं क्या?’’

‘‘बस, इस साल के अंत तक ही…’’ सुधा का सिंदूरी रंग लज्जा से लाल पड़ गया. वह मेरे हालचाल पूछने लगी.

विवेक का नाम आते ही मेरा मुख कसैला सा हो आया, ‘‘मैं वह चिकचिक भरा जहन्नुम छोड़ आई हूं, अब वापस जाने वाली नहीं.’’

‘‘क्या पागलों जैसी बातें कर रही है,’’ सुधा ने मुझे लगभग झिंझोड़ सा दिया.

मेरे असंतुष्ट मन ने भरभरा कर अपना गुबार निकाला और वह बड़ीबूढ़ी की तरह मुझे नसीहतें देती रही, ‘‘तुम स्वयं को उन के घर की बांदी का दरजा दे रही हो, पर वह बेचारा भी तो तुम्हारे प्यार का गुलाम है. गृहस्थी की गाड़ी इसी आधार पर तो चलती है.’’

सुधा ने मुझे समझाना चाहा, पर मैं इस विषय में कोई बात नहीं करना चाहती थी.

2 महीने बीत चले थे. मेरा मन धीरेधीरे उदास हो उठा. भैया की नईनई शादी हुई थी. वह और भाभी बाहर घूमने जाते तो कोई न कोई बहाना बना कर मैं पीछे रह जाती. वे भी मुझ से साथ चलने का आग्रह न करते थे. आखिर मैं कब से मायके में आई हुई थी. अब मेहमान तो थी नहीं.

कई बार मन में आया कि स्कूल जा कर पिं्रसिपल से नौकरी के लिए कहूं पर अभी तो स्टाफ पूरा था. इसी संस्था में गृहविज्ञान की कक्षा में हमें आदर्श, निपुण गृहिणी बनने की शिक्षा दी गई थी. वही ब्रिटिश नन, अब नीली आंखों की तीखी दृष्टि से ताक कर घरबार छोड़ नौकरी ढूंढ़ने पर मुझ से जवाब तलब करेगी, व्यावहारिक जीवन की पहली ही परीक्षा में फेल हो जाने की सचाई स्वीकार कर सकूं, इतना साहस मुझ में नहीं था.

नैनीताल के एक सिनेमाघर में ‘गौन विद दी विंड’ फिल्म लगी हुई थी. थी तो वर्षों पुरानी पर सदाबहार. मैं पुलक उठी, कालिज के दिनों में एक बार देखी थी, फिर देखने का मन हो आया. पर दोपहर को भैया आए तो 2 ही टिकट ले कर.

‘‘तुम ने देख रखी है न यह फिल्म, मैं ने सोचा माया को दिखा दूं.’’

और वे दोनों चले गए. मैं काटेज में अकेली रह गई, अपनी उदासी से घिरी.

रसोइया पूछ रहा था, ‘‘बीबीजी, रात के खाने में क्या बनेगा?’’

‘‘मेरा सिर,’’ मैं झल्ला उठी.

सर्दी के बावजूद, बाहर लोहे की ठंडी रेलिंग से टिकी जाने कब तक खड़ी रही.

दिन भर का जलता सूरज क्षितिज पर बचीखुची आग बिखरा कर अंधेरे की चादर ओढ़ पहाडि़यों की ओट में उतर गया था. तभी काले भालू सा दिखता, गंदे बोरों व रस्सियों में लिपटा, गंधाता पहाड़ी कुली परिचित सा नीला सूटकेस उठाए आता दिखाई दिया. मैं सोचने लगी, यह कौन पगडंडी के पेड़ों के पीछे छिपता- दिखता ढलान उतर रहा है? शायद भैया का कोई दोस्त एकाध सप्ताह काटने आया हो. आगंतुक के अंतिम मोड़ पार कर पलटते ही मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी. यह तो विवेक था. न कोई चिट्ठी, न तार. अचानक कैसे? पल भर को मैं अपना सारा गुस्सा भूल कर हुलस उठी.

अगले ही पल उस की बांहों में लिपटी मैं पूछ रही थी, ‘‘अब याद आई हमारी?’’

फिर हमें कुली का ध्यान आया.  अवसर भांप उस ने भी तगड़ी मजदूरी मांगी और चलता बना. विवेक जम्हाई लेता हुआ बोला, ‘‘चलो, कुछ चायवाय पिलवाओ, डीलक्स बस में भी चूलें हिल गईं हड्डियों की.’’

मैं हैरान भी थी और खुश भी. कुछ अभिमान भी हो आया. मैं ने तो एक चिट्ठी भी नहीं लिखी. आए न दौडे़ स्वयं मनाने. भला मेरे बगैर रह सकते हैं कभी?

विवेक कह रहा था, ‘‘सच मानो, तुम्हारे बिना बहुत उदास रहा. घर में सब तुम्हें याद करते हैं.’’

‘‘छोड़ो, तुम्हें कहां परवा मेरी, अब बडे़ देवदास बन कर दिखा रहे हो,’’ मैं तिनकी.

‘‘तुम भी तो पारो सी, उदासी की प्रतिमूर्ति बनी हुई थीं.’’

‘‘पर तुम्हें मेरा ध्यान आया कैसे, अभिमानी वीर पुरुष?’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘वह जो तुम्हारी पुरानी सहेली है न सुधा, जिस ने शादी में कलीचढ़ी के लिए मेरी फजीहत की थी, उसी ने चिट्ठी लिख कर मुझे यहां आने की कसम दी थी. और मैं भी तो आने का बहाना ढूंढ़ रहा था,’’ विवेक ने स्वीकार किया.

मुझे सुधा के इस कार्य से प्रसन्नता ही हुई. शायद वह समझ गई थी कि अपनेअपने आत्मसम्मान व अहं की रक्षा करते हुए हम अपनी कच्ची गृहस्थी ही छितरा रहे थे. पर हमारे मानअभिमान के बीच रेशम की डोर का फासला था. एक के जरा आगे बढ़ते ही दूसरा स्वयं दौड़ आया था.

अगले सप्ताह विवेक के साथ मैं वापस आ गई. सुधा ने जिन नसीहतों का पाठ पढ़ा कर मुझे भेजा था, उन्हीं के बल पर मैं अपने घोंसले के तिनके संभाले रही.

2 साल बीतने को आए पर सुधा की शादी के विषय में कुछ निर्णय न हो पाया था. इस बार सर्दियों में मैं ने उसे जिद कर के अपने पास बुला लिया. उस में न पहले सी रंगत रही थी, न कुंआरे सपनों की महक. मैं ने बलराज के विषय में पूछा तो वह दुख के गहरे भंवर में डूब सी गई. हिचकियों के बीच उस ने जो कहानी सुनाई, उस से यही निष्कर्ष निकला कि जिन सेठजी ने बलराज को पाला था, उन की अचानक मृत्यु हो गई थी. अपनी इकलौती कुरूप बेटी के गम में सेठजी के प्राण गले में आ अटके. कातर हो कर उन्होंने बलराज से ही भिक्षा मांगी कि वह उन के बाद उन की बेटी और फैक्टरी को संभाले.

मौत के मुंह में जाते व्यक्ति का आग्रह ठुकरा सके, इतना पत्थर दिल बलराज नहीं था.

‘‘वह साहब तो शहीद हो कर फैक्टरी के मालिक बन बैठे. घरघर में उन की नजफगढ़ रोड वाली फैक्टरी की बनी ट्यूबें व बल्ब जलते हैं पर तुझे क्या मिला? वर्षों का प्यार क्या एक हलके झोंके से ही उड़ गया? अच्छा तगड़ा दहेज दे कर क्या बलराज सेठजी की बेटी की शादी नहीं करवा सकता था कहीं?’’ मैं गुस्से से उफन पड़ी.

‘‘वह मेरे पास आया था, इस विषय में बात करने, कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिसता वह चूरचूर हो रहा था. मैं ने ही उसे मुक्त कर दिया. आखिर अपने उपकारक मरणासन्न व्यक्ति को दिए वचन का भी तो कुछ मूल्य होता है,’’ सुधा ने बलराज का ही पक्ष लिया.

‘‘हां…हां, एक वही तो रह गए थे सूली पर चढ़ने को,’’ मैं ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘जब मैं कुछ नहीं बोल रही तो तू क्यों इतना उबल रही है?’’ सुधा मुझ पर ही झल्ला पड़ी.

‘‘तो फिर आंखों में नमी क्यों भर आ रही है बारबार?’’

मैं ने उस की आंखें पोंछ दीं. सुधा के जीवन में अब बलराज वाला अध्याय समाप्त हो चुका था.

मैं ने और विवेक ने कितनी कोशिश की उस की शादी के लिए, पर उस ने  तो शादी न करने की कसम खा ली थी. जिस प्रेम की जड़ें बचपन तक फैली हुई थीं उसे उखाड़ फेंकना शायद उस के वश का न था. फिर उस की मां की मृत्यु हो गई. इंजीनियर भाई को घरजामाता बना कर धनी ससुर अमेरिका ले गया.

वह नितांत अकेली रह गई. बालों में सफेदी झांकने लगी थी. पर हम ने अब भी कोशिश नहीं छोड़ी. हमारे सिवा उस का था ही कौन? अब उस की सर्दियों की 3 महीने की छुट्टियां मेरे बच्चों के साथ खेलते बीततीं या वह लड़कियों का दल ले कर उन्हें कहीं घुमाने ले जाती. एक बार तो वह सिंगापुर तक हो आई थी और अपनी एक महीने की तनख्वाह हमारे लिए महंगे उपहार खरीदने में फूंक आई थी.

इस वर्ष दिलीप बदली हो कर विवेक के दफ्तर में आया. मुझे लगा शायद उसे सुधा के लिए ही भेजा गया है. साधारण घर का, अच्छी नौकरी पर लगा बेटा. सारी जवानी छोटे भाईबहनों को पढ़ाते- लिखाते, ठिकाने लगाते बीत गई. अब अपने लिए अधिक आयु की, सुलझे विचारों वाली पत्नी चाहता था.

मैं ने उसे सुधा की फोटो दिखाई नापसंद करने का सवाल ही कहां था. हम चाहते थे कि दोनों एकदूसरे को मिल कर देखपरख लें. इसीलिए मैं ने सुधा को चिट्ठी लिख दी और विवेक को छुट्टी मिलते ही हम लोग कार ले कर नैनीताल के लिए निकल पड़े, यह निश्चय कर के कि इस बार जैसे भी हो, सुधा को मनाना ही है.

पर उस के होस्टल के काटेज में एक और आश्चर्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. लान में सुधा एक 15-16 साल के लड़के के साथ बैठी थी. बिना परिचय कराए ही मैं समझ गई कि वह बलराज का बेटा है, एकदम कार्बन कापी.

ऐसे में उस से दिलीप का परिचय कराना व्यर्थ था. दूसरे दिन मैं ने उसे पकड़ा, ‘‘यह क्या तमाशा लगा रखा है? पंछी भी शाम ढले घरों को लौटते हैं. तुम क्या जीवन भर इस होस्टल में काट दोगी?’’ मैं उस पर बरस ही तो पड़ी.

‘‘अब मैं अकेली कहां हूं? रवि जो है मेरे पास,’’ वह मुसकरा कर बोली.

‘‘पागल हुई हो? पराए बेटे को अपना कह रही हो?’’

‘‘अब वह मेरा ही बेटा है,’’ सुधा गंभीर हो उठी. उस ने मुझे बताया कि बलराज से फैक्टरी तो चली नहीं, घाटे में चलातेचलाते कर्ज चुकाने में बिक गई. शराब पी कर पतिपत्नी में झगड़ा होता. पत्नी सुधा का नाम ले कर बलराज को कोसती. इसी चिल्लपों में रवि सुधा के विषय में जान गया. एक रेल दुर्घटना में बलराज की मृत्यु हो गई. पत्नी पागलखाने में भरती कर दी गई, क्योंकि उसे दौरे पड़ने लगे थे. अनाथ बच्चे की जिम्मेदारी कौन ले? रिश्तेदार भी पल्ला झाड़ गए. अब रवि अंतिम सहारा समझ उसी के पास आया था.

मैं अवाक् बैठी थी. सुधा गर्व से बता रही थी, ‘‘सीनियर सेकंडरी की परीक्षा दी है रवि ने. मेडिकल में जाने का विचार है.’’

‘‘और उस की पढ़ाई का खर्चा तुम दोगी?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘अब कौन बैठा है उस का सरपरस्त?’’ सुधा बोली.

‘‘ओफ्फोह, तुम कभी समझोगी भी? तुम ने भाई को पढ़ायालिखाया, लेकिन कभी उस ने इस ओर झांका भी कि तुम जिंदा हो या मर गईं?’’ मैं बड़बड़ाती हुई उसे कोसती रही.

‘‘दिलीप बाबू से मेरी ओर से माफी मांग लेना. मैं मजबूर हूं,’’ वह इतना ही बोली. मैं पैर पटकती वापस आ गई. वापसी पर भी मेरा मूड उखड़ा रहा. विवेक कार चला रहा था, सो तीखी ढलान के मोड़ों पर दृष्टि गड़ाए बैठा था. मैं भुनभुनाती दिलीप को सुना रही थी, ‘‘कुछ कमबख्त होते ही हैं अपना शोषण करवाने को. चाहे सारी दुनिया उन्हें रौंद कर आगे बढ़ जाए, उन के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी.’’

दिलीप ने मेरे गुस्से पर पानी डाला, ‘‘छोडि़ए, भाभीजी, हम आप जैसे दुनिया के पचड़ों में फंसे सांसारिक जीव इसे नहीं समझ पाएंगे. पर शायद यही प्यार है.’’

‘‘जो अच्छेभले को अंधा कर दे, उस प्यार का क्या लाभ?’’ मैं बड़बड़ाई.

‘‘देखूं, शायद इसे कभी जीत पाऊं,’’ गहरी सांस ले कर दिलीप ने कहा और मैं अपना गुस्सा भूल आश्चर्य से उसे देखने लगी.

लेखक- आदर्श मलगूरिया

Family Story : लंबी रेस का घोड़ा

Family Story : ‘‘हर्षजी, टीवी आप का ध्यान दर्द से हटाने के लिए चल रहा है पर मेरा ध्यान तो न बटाएं. आप को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए यह कसरतें दवा से भी अधिक आवश्यक हैं,’’ डा. अनुराधा अनमने स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, अनुराधाजी, कसरतों की जरूरत मैं भली प्रकार समझता हूं. मैं तो आप को केवल यह बताना चाह रहा था कि कभी मैं भी मैराथन रनर था.’’

‘‘अच्छा तो फिक्र मत करें, आप एक बार फिर दौड़ेंगे,’’ डा. अनुराधा मुसकराई थीं.

‘‘क्यों मजाक करती हैं, डा. साहिबा, उठ कर खडे़ होने का साहस भी नहीं है मुझ में और आप मैराथन दौड़ने की बात करती हैं. आप मेरे बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं,’’ हर्ष दर्द से कराहते हुए बोले.

‘‘मिस्टर हर्ष, कोई लक्ष्य सामने हो तो व्यक्ति बहुत जल्दी प्रगति करता है.’’

‘‘मेरे हाथों का हाल देखा है आप ने, कलाई से बेजान हो कर लटके हैं. अब तो मैं ने इन के ठीक होने की उम्मीद भी छोड़ दी है,’’ हर्ष ने एक मायूस दृष्टि अपने बेजान हाथों पर डाली.

‘‘जानती हूं मैं, आज आप छोटेछोटे कामों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं पर पहले से आप की हालत में सुधार तो आया है, यह तो आप भी जानते हैं. छोटी दौड़ में हाथों का प्रयोग करने की तो आप को जरूरत नहीं होगी,’’ डा. अनुराधा इतना कह कर हर्ष को सोचता छोड़ चली गई.

‘‘क्या हुआ? कहां खोए हैं आप?’’ पत्नी टीना की आवाज से हर्ष की तंद्रा टूटी.

‘‘कहीं नहीं, टीना, अपनी यादों में खोया था. मेरे जैसे दीनहीन, अपाहिज के पास सोचने के अलावा

दूसरा विकल्प भी क्या है.

डा. अनुराधा ने कहा कि मैं भी अर्द्धमैराथन में भाग ले सकता हूं, जबकि मैं जानता हूं कि यह संभव नहीं,’’ हर्ष के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘खबरदार, जो कभी स्वयं को दीनहीन और अपाहिज कहा तो. याद रखो, तुम्हें एक दिन पूरी तरह स्वस्थ होना ही होगा. वैसे भी डा. अनुराधा उन लोगों में से नहीं हैं जो केवल मरीज का मन रखने के लिए झूठे आश्वासन दें.’’

‘‘अच्छा छोड़ो यह सब और बताओ, बीमा एजेंट ने क्या कहा?’’ हर्ष ने टीना के चेहरे की गंभीरता को देख कर पूछा था.

‘‘वह कह रहा था, आप का व्यापार और उस में काम करने वाले कर्मचारी तो बीमा पालिसी के दायरे में आते हैं पर इस तरह असामाजिक तत्त्वों द्वारा किया गया हमला बीमा के दायरे में नहीं आता.’’

‘‘यानी बीमा से हमें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी?’’ हर्ष उत्तेजित हो उठे.

‘‘लगता तो ऐसा ही है हर्ष,’’ टीना बोली, ‘‘वैसे गलती हमारी ही है जो हम ने समय रहते मेडीक्लेम पालिसी नहीं ली.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि मेरे साथ ऐसा भयंकर हादसा…’’ हर्ष का स्वर टूट गया.

‘‘छोड़ो, यह सब. आज की एक्सरसाइज पूरी हो गई हो तो घर चलें?’’ टीना ने बात टालते हुए कहा.

‘‘हां, डा. अनुराधा कह रही थीं कि आप अब एक दिन छोड़ कर आ सकते हैं, रोज आने की जरूरत नहीं.’’

टीना पहिए वाली कुरसी ले आई और उस की सहायता से हर्ष को कार में बैठाया फिर दूसरी ओर बैठ कर कार चलाने लगी. हर्ष पत्नी को सजल नेत्रों से कार चलाते देखता रहा.

हर्ष ने अपने दोनों हाथों पर एक नजर डाली जो आज दैनिक जरूरत के काम भी पूरा करने के लायक नहीं थे. अब तो खाने और बटन लगाने से ले कर जूतों के फीते बांधने में भी दूसरों की सहायता लेनी पड़ती थी. कार चलाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. ऐसे अपाहिज जीवन का भी भला कोई मतलब है और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी जीवन- लीला समाप्त कर के वह अपने परिवार को मुक्ति तो दे ही सकता है.

दूसरे ही क्षण हर्ष चौंक गए कि यह क्या सोचने लगे वह. अपने परिवार को वह और दुख नहीं दे सकते.

‘‘क्या हुआ? बहुत दर्द है क्या?’’ टीना ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, आज दर्द कम है. मैं तो बस, यह सोच रहा हूं कि मेरे इलाज में ही 6 लाख से ऊपर खर्च हो गए हैं. जमा पूंजी तो इसी में चली गई अब बीमे की राशि मिलेगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? फ्लैट की किस्त, बच्चों की पढ़ाई, कार की किस्त और सैकड़ों छोटेबडे़ खर्चे कैसे पूरे होंगे?’’

‘‘मैं शाम को ट्यूशन ले लिया करूंगी. कुछ न कुछ पैसों का सहारा हो ही जाएगा.’’

‘‘ट्यूशन कर के कितना कमा लोगी तुम?’’

‘‘फिर तुम ही कोई रास्ता दिखाओ,’’ टीना मुसकराई.

‘‘मेरे विचार से तो हमें अपना फ्लैट बेच देना चाहिए. जब मैं ठीक हो जाऊंगा तो फिर खरीद लेंगे,’’ हर्ष ने सुझाव दिया.

उत्तर में टीना ने बेबसी से उस पर एक नजर डाली. उस की नजरों में जाने क्या था जिस ने हर्ष को भीतर तक छलनी कर दिया. इसी के साथ बीते समय की कुछ घटनाएं सागर की लहरों की भांति उस के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्यों भाई, तुम्हारा मीटर तो ठीकठाक है?’ उस दिन आटोरिकशा से उतरते हुए हर्ष ने मजाक के लहजे में कहा था.

‘कैसी बातें कर रहे हैं साहब. मीटर ठीक न होता तो मैं गाड़ी सड़क पर उतारता ही नहीं,’ चालक ने जवाब दिया.

हर्ष ने अपना बटुआ खोल कर 75 रुपए 50 पैसे निकाले. इस से पहले कि वह किराया चालक को  दे पाते, किसी ने उन की कमर पर खंजर सा कुछ भोंक दिया.

दर्द से तड़प कर वह पीछे की ओर पलटे कि दाएं हाथ और फिर बाएं हाथ पर भी वार हुआ. वह कराह उठे. दायां हाथ तो कलाई से इस तरह लटक गया जैसे किसी भी क्षण अलग हो कर गिर पडे़गा.

हर्ष छटपटा कर जमीन पर गिर पडे़ थे. धुंधलाई आंखों से उन्होंने 3 लोगों को दौड़ कर कुछ दूर खड़ी कार में बैठते देखा.

‘नंबर….नंबर नोट करो,’ असहनीय दर्द के बीच भी वह चिल्ला पडे़े. आटोचालक, जो अब तक भौचक खड़ा था, कार की ओर लपका. उस ने तेजी से दूर जाती कार का नंबर नोट कर लिया.

‘मेरा बैग,’ कटे हाथों से हर्ष ने कार की तरफ संकेत किया. पर वे जानते थे कि इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘चलिए, आप को पास के दवाखाने तक छोड़ दूं,’ चालक ने सहारा दे कर हर्ष को आटोरिकशा में बैठाया तो उन्होंने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि चालक पर डाली और पीछे की सीट पर ढेर हो गए.

दिव्या नर्सिंग होम के सामने आटो रिकशा रुका तो उस से बाहर निकलने के लिए हर्ष को पूरी शक्ति लगानी पड़ी. उन को डर लग रहा था कि कहीं उन का दायां हाथ शरीर से अलग ही न हो जाए. आखिर बाएं हाथ से उसे थाम कर वे नर्सिंग होम की सीढि़यां चढ़ गए थे.

‘क्या हुआ? कैसे हुआ यह सब?’ आपातकक्ष में डाक्टर के नेत्र उन्हें देखते ही विस्फारित हो गए थे.

‘गुंडों ने हमला किया…तलवार और चाकू से.’

‘तब तो पुलिस केस है. हम आप को हाथ तक नहीं लगा सकते. आप प्लीज, सरकारी अस्पताल जाइए.’

हर्ष उलटे पांव नर्सिंग होम से बाहर निकल आए और सरकारी अस्पताल तक छोड़ने की प्रार्थना करते हुए उन्होंने आतीजाती गाडि़यों से लिफ्ट मांगी पर किसी ने मदद नहीं की.

वह अपने को घसीटते हुए कुछ दूर चले पर इस अवस्था में सरकारी अस्पताल पहुंच पाना उन के लिए संभव नहीं था.

तभी एक पुलिस जीप उन के पास आ कर रुकी. उन्होंने सहायता के लिए प्रार्थना नहीं की क्योंकि जिस से आशा ही न हो उस से मदद की भीख मांगने से क्या लाभ?

‘क्या हुआ?’ जीप के अंदर से प्रश्न पूछा गया. उत्तर में हर्ष ने अपना बायां हाथ ऊपर उठा दिया.

दूसरे ही क्षण कुछ हाथों ने उठा कर उन्हें जीप में बैठा दिया. बेहोशी की हालत में भी उन्होंने टूटेफूटे शब्दों में अनुनय किया था, ‘मुझे अस्पताल ले चलो भैया…’

जीप में बैठे सिपाही गणेशी ने न केवल उन्हें सरकारी अस्पताल पहुंचाया बल्कि उन की जेब से ढूंढ़ कर कार्ड निकाला और उन के घर फोन भी किया.

‘आप हर्षजी की पत्नी बोल रही हैं क्या?’

गणेशी का स्वर सुन कर टीना के मुख से निकला, ‘देखिए, हर्षजी अभी घर नहीं लौटे हैं. आप कल सुबह फोन कीजिए.’

‘आप मेरी बात ध्यान से सुनिए. हर्षजी यहां उस्मानिया अस्पताल में भरती हैं. वे घायल हैं और यहां उन का इलाज चल रहा है. उन के पास न तो पैसे हैं और न कोई देखभाल करने वाला.’

‘क्या हुआ है उन्हें और उन के पैसे कहां गए?’ टीना बदहवास सी हो उठी थी. रिसीवर उस के हाथ से छूट गया. अपने को किसी तरह संभाल कर टीना लड़खड़ाते कदमों से पड़ोसी दवे के घर तक पहुंची तो वह तुरंत साथ चलने को तैयार हो गए. टीना ने घर में रखे पैसे पर्स में डाल लिए. मन किसी अनहोनी की आशंका से धड़क रहा था.

अस्पताल पहुंच कर हर्ष को ढूंढ़ने में टीना को अधिक समय नहीं लगा. घायल अवस्था में अस्पताल आने वाले वही एकमात्र व्यक्ति थे.

‘आप के पति की किसी से दुश्मनी है क्या?’ टीना को देखते ही गणेशी ने प्रश्न किया.

‘नहीं तो, वह बेचारे सीधेसादे इनसान हैं. मैं ने तो उन्हें कभी ऊंची आवाज में किसी से बात करते भी नहीं सुना,’ उत्तर दवे साहब ने दिया था.

‘तो क्या बहुत रुपए थे उन के पास?’

‘नहीं, उन का अधिकतर लेनदेन तो बैंकों के माध्यम से होता है.’

‘तो फिर ऐसा क्यों हुआ इन के साथ…?’ गणेशी ने प्रश्न बीच में ही छोड़ दिया था.

‘पर हुआ क्या है आप बताएंगे…?’ टीना अपना आपा खो रही थी.

‘गुंडों ने आप के पति पर जानलेवा हमला किया है. वह अभी तक जीवित हैं आप के लिए यह एक अच्छी खबर है,’  गणेशी ने सीधे सपाट स्वर में कहा.

हर्ष की दशा देख कर टीना और दवे दंपती सकते में आ गए थे.

‘गुंडों ने तलवार और छुरों से हमला किया था. कमर में बहुत गहरा जख्म है. हाथों को भारी नुकसान पहुंचा है. दायां हाथ तो कलाई से लगभग अलग ही हो गया है. मांसपेशियां, रक्तवाहिनियां सब कट गई हैं, इन का तुरंत आपरेशन करना पडे़गा,’ चिकित्सक ने सूचना दी थी.

हर्ष के मातापिता कुछ ही दूरी पर रहते थे. पिता को 2-3 वर्ष पहले पक्षाघात हुआ था पर मां अंबिका समाचार मिलते ही दौड़ी आईं.

‘मां, हर्ष को दूसरे अस्पताल ले जाएंगे, वहां के डा. मनुज रक्तवाहिनियों के कुशल शल्य चिकित्सक हैं,’ टीना बोली.

आपरेशन 4 घंटों से भी अधिक समय तक चला. 5 दिनों के बाद ही हर्ष को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई थी. पट्टियां खुलने के बाद भी दोनों हाथ बेकार थे. छोटेमोटे कामों के लिए भी हर्ष दूसरों पर निर्भर हो गए.

कुछ ही दिनों में हर्ष के पैरों में इतनी ताकत आ गई कि वह बिना किसी सहारे के अस्पताल चले जाते थे. टीना के वेतन पर ही सारा परिवार निर्भर था अत: सुबह 10 से 3 बजे तक वह हर्ष के साथ नहीं रह पाती थी.

कार झटके से रुकी तो हर्ष वर्तमान में आ गया.

‘‘क्या बात है, ऐसी रोनी सूरत क्यों बना रखी है?’’ कार से उतरते टीना ने कहा, ‘‘क्या हुआ जो बीमे की राशि नहीं मिलेगी. कुछ ही दिनों में तुम पूरी तरह स्वस्थ हो जाओगे और अपना व्यापार संभाल लोगे.’’

हर्ष और टीना घर पहुंचे तो हर्ष की मां अंबिका वहां आई हुई थीं.

‘‘तुम्हारी पसंद का भोजन बनाया है आज. याद है न आज कौन सा दिन है?’’ टिफिन खोल कर स्वादिष्ठ भोजन मेज पर सजाते हुए मां अंबिका बोलीं, ‘‘हर्ष, आज मैं ने तेरी पसंद की मखाने की खीर और दाल की कचौडि़यां बनाई हैं.’’

हर्ष और टीना को याद आया कि वह अपने विवाह की वर्षगांठ तक भूल गए थे.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगी, घर में तेरे पापा अकेले हैं,’’  खाने के बाद चलने के लिए तैयार अंबिका ने कहा, ‘‘सब ठीक है ना हर्ष. तुम्हारा इलाज ठीक से चल रहा है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है मां,’’ हर्ष ने जवाब दिया.

‘‘फिर तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’’

‘‘मां, मैं जिस बीमे की रकम की उम्मीद लगाए बैठा था वह अब नहीं मिलेगी,’’  इस बार उत्तर टीना ने दिया.

‘‘तो क्या सोचा है तुम ने?’’ अंबिका ने पूछा.

‘‘सोचता हूं मां, यह फ्लैट बेच दूं. बाद में फिर खरीद लेंगे,’’  हर्ष ने कहा.

‘‘मैं कई दिनों से एक बात सोच रही थी,’’  अंबिका गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘क्यों न तुम सपरिवार हमारे पास रहने आ जाओ. अपने फ्लैट को किराए पर उठाओगे तो किस्तों की समस्या हल हो जाएगी.’’

एकाएक सन्नाटा पसर गया था.

‘‘क्या हुआ?’’ मौन अंबिका ने ही तोड़ा. हर्ष ने कुछ नहीं कहा पर टीना रो पड़ी थी.

‘‘हम इस योग्य कहां मां, जो आप के साथ रह सकें. याद है जब पापा पर लकवे का असर हुआ था तो हम आप को अकेला छोड़ कर यहां रहने चले आए थे. तब लगा था कि वहां रहने पर हमें दिनरात की कुंठा और निराशा का सामना करना पडे़गा,’’  हर्ष ने ग्लानि भरे स्वर में कहा.

‘‘बेटा, मैं यह नहीं कहूंगी कि उस वक्त मुझे बुरा नहीं लगा था. पर मुसीबत का सामना करने के लिए मैं ने खुद को पत्थर सा कठोर बना लिया था. तुम लोग आज भी मेरे परिवार का हिस्सा हो और आज फिर मेरे परिवार पर आफत आई है,’’  अंबिका सधे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना. जो कुछ हुआ उस के लिए हर्ष से अधिक मैं दोषी हूं,’’ यह कह कर टीना अपनी सास के चरणों में झुक गई.

‘‘नदी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहती है बेटी. मातापिता कभी अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहते. हम जितना अपनी संतान के लिए करते हैं मातापिता के लिए कहां कर पाते,’’ यह कहते हुए अंबिका ने टीना को गले से लगा लिया.

‘‘आप जैसे मातापिता हों तो कोई भी औलाद बडे़ से बडे़ संकट से जूझ सकती है,’’  टीना बोली.

‘‘यह मत सोचना कि मेरा बेटा किसी से कम है. मैराथन का धावक रहा है मेरा बेटा. लंबी रेस का घोड़ा है यह,’’ अंबिका मुसकराईं.

‘‘अरे, हां, अच्छा याद दिलाया आप ने. शहर में अर्द्धमैराथन होने को है और हर्ष ने उस में भाग लेने का फैसला किया है,’’  टीना बोली.

‘‘सच? पर इस के लिए कडे़ अभ्यास की जरूरत होगी,’’ अंबिका ने कहा.

‘‘चिंता मत कीजिए दादी मां, हम दोनों भी पापा के साथ अभ्यास करेंगे,’’ कहते हुए ऋचा और ऋषि ने हाथ हवा में लहराए. आगे की बात उन सब की सम्मिलित हंसी में खो गई थी.

Family Story : जेल में है रत्ना

Family Story : समाचार को जब विस्तार से पढ़ा तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. डा. रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा. निकिता को जहर दे कर मारने की कोशिश की क्योंकि वह कम दहेज लाई थी और समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भरती थी. मेरी रत्ना जेल में, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उच्च शिक्षित और डिगरी कालिज की प्रवक्ता बहू, खुद रत्ना मेडिकल कालिज में गायनियोलोजिस्ट है और बेटा अभी 3 साल पहले चेकोस्लोवाकिया विश्वविद्यालय में हेड आफ डिपार्टमेंट हो कर गया है. एक साधनसंपन्न घर में जितना कुछ होना चाहिए वह सबकुछ तो है. फिर दोनों तरफ का परिवार पढ़ालिखा सभ्य व प्रतिष्ठित है. ऐसे में दहेज के लिए हत्या करने का प्रयास करने की रत्ना को क्या जरूरत थी.

हां, इतना तो मुझे भी पता था कि बेटे के विवाह के बाद वह काफी बीमार रही थी और उसे कई महीने छुट्टी पर रहना पड़ा था. लेकिन अब तो सबकुछ ठीक था.

मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘बड़ी बदनसीब है तू रत्ना,’ ‘‘10 साल पहले एक कार दुर्घटना में पति का देहांत हो गया था. तब भी वह बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी. मैं बच्चों के भविष्य की दुहाई देदे कर किसी प्रकार इस हादसे से उसे उबार सकी थी.

बेटी गरिमा को कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और एक इंजीनियर लड़के से विवाह किया. अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभाती रही वह. ससुराल में था ही कौन? पति के 2 भाई थे. एक की मौत हो गई और दूसरा कब का विदेश में बस चुका था. बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आया था.

चाचा की शह पर ही प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गई. अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां यहां किस के सहारे रहेगी. प्रखर के विवाह के बाद तो रत्ना के जीवन में जैसे ठहराव सा आ गया. अब किस के लिए क्या करना है?

समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही. घर में कब तक बंद रहा जा सकता है? रत्ना ने क्लब ज्वाइन कर लिया. शामें वहीं बीतने लगीं. बेटी की तरफ से बेफिक्र, लेकिन अब तो बेटी गरिमा और बेटे प्रखर के नाम भी वारंट थे जो घटना के समय दूसरे मुल्कों में बैठे थे.

किस से बात करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपनी असहायता और सखी की मुसीबत पर रोने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. उस के बारे में तरहतरह की कल्पना कर मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित हो चली थी. भूल गई कि बचपन की सहेली है तो मायके से ही पता कर लूं.

स्मृतिपटल पर बचपन की ढेरों बातें घूम गईं. साथसाथ पढ़ना, खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना, मनाना और बड़ी क्लास में आने पर एकदूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों को चाटना.

ज्योंज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए. इंटर के बाद हम ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा दी. रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण. मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया और वह पढ़ने बाहर चली गई. मैं ने बी.एससी. के बाद बी.एड. किया और फिर शादी हुई तो घरेलू औरत बन गई. रत्ना डा. रत्ना बनने के बाद अपने एक सहयोगी डाक्टर के साथ ही विवाह बंधन में बंध गई.

इस सब से दोनों सखियों की अंतरंगता में कोई अंतर नहीं आया. जब भी हम मिलते बीते समय की जुगाली करते रहते. वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने घरपरिवार के दायित्वों को. यह बात हमारे पति भी जानते थे. इसीलिए हमारी बातचीत में कोई व्यवधान न डाल वे हमारे उत्तरदायित्वों को खुद संभाल लेते थे.

ऐसे ही हंसीखुशी समय गुजरता रहा और हम उम्र की सीढि़यां चढ़ते दादीनानी सभी बन बैठे. जब भी मिलते एकदूसरे से पूछते कि दादीनानी बन कर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर रत्ना कहती, ‘यार, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं. मेरे मन में तो आज भी कालिज की मौजमस्ती घूमती रहती है.’

‘हाल तो मेरा भी यही है, रत्ना. जब बच्चे अम्मांजी और नानीमां कहते हैं तो लगता है जबरदस्ती किसी सुरंग में घसीटा जा रहा है.’

अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में गुपचुप ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पहुंचा. अब पूछूं भी तो किस से? ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूछूं और डायरी में उन का फोन नंबर ढूंढ़ कर उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जेल जा पहुंची.

पहले तो हम गले मिल कर खूब रोईं फिर मैं ने शिकायत की, ‘‘तू ने मुझे इस लायक समझना बंद कर दिया है कि अपना सुखदुख भी बांट सके और अकेले यहां तक पहुंच गई. क्या हुआ कुछ तो बता?’’

‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊं? बहूबेटे के ईगो की लड़ाई है. प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी स्थायी नौकरी छोड़ कर साथ जाना नहीं चाहती थी. उस का कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ूं, तुम्हीं मेरे लिए विदेश का आफर ठुकरा दो.’’

पिछले 1 साल से मायके में रह रही है. पढ़ीलिखी समझदार है. अपना भलाबुरा समझती है. इतना तो मांबाप भी समझा सकते थे. प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था. अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं. इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का आरोप लगाया है. दोनों की ईगो में मैं मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं ही उन्हें आसानी से उपलब्ध भी हूं.

‘‘पता नहीं निकिता के मन में क्या है? कई बार समझाना चाहा. जब भी बात करती उस का उत्तर होता. ‘मम्मीजी, आप हमारे बीच में न ही बोलें तो अच्छा होगा.’

‘‘‘क्या तुम दोनों मेरे कुछ लगते नहीं? क्या इस ईगो की लड़ाई के लिए ही शादी की थी? यह तो तुम्हें शादी से पहले ही सोचना चाहिए था? तुम दोनों अलगअलग रहते हो तो क्या मुझे दुख नहीं होता?’

‘‘‘दुख होता तो आप प्रखर को समझातीं. सोचने और समझौता करने का काम क्या सिर्फ इसलिए मेरा है कि मैं पत्नी हूं.’

‘‘वह फिर मुझे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोेशिश करती.

‘‘‘प्रखर के विदेश जाने पर यहां आप का है ही कौन? आप अकेले किस के सहारे रहेंगी?’

‘‘‘तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो अपना वक्त काट लूंगी…इतने समय से नौकरी की है रिटायर हो कर ही निकलूंगी.’

‘‘‘जब आप को अपनी नौकरी से इतना मोह है तो मुझे भी तो है,’ और वह पैर पटकती उठ कर चली जाती.

‘‘उस के पापा भी बेटी को समझाने के बजाय उस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं, ‘प्रखर को यदि निकिता को अपने साथ नहीं रखना था तो विवाह ही क्यों किया.’

‘‘‘आप ऐसा कैसे समझते हैं?’

‘‘‘और क्या समझूं? लोग तो अपनी पत्नियों के लिए जाने क्याक्या करते हैं? वह विदेश से लौट कर यहां नहीं आ सकता? उस के आने से आप को भी सहारा होगा.’

‘‘‘बात मेरे सहारे की नहीं उस के कैरियर की है.’

‘‘‘तो बनाता रहे वह अपना कैरियर. मैं भी बताऊंगा उसे कि मैं क्या हूं. मेरी बेटी  का जीवन बरबाद कर के आप का बेटा सुखी नहीं रह सकता.’

‘‘मैं ने उन की धमकी पर ध्यान नहीं दिया. महज गीदड़ भभकी समझा. बस, यहीं गलती की मैं ने. यदि यह सारी बातें गंभीरता से ली होतीं और एक पत्र एस.एस.पी. के यहां लगा दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’’

सुन कर दुख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. वकील, डाक्टर सब नोटों के सामने कैसेकैसे हाथकंडे अपनाकर बेकुसूरों को फंसाते हैं.

‘‘क्या करूं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके,’’ उस के कंधे पर हाथ रख कर शब्दों में अपनापन समेट कर मैं ने कहा.

‘‘निकिता के पापा ऊंची पहुंच वाले आदमी हैं. सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उन का क्या बिगाड़ सकती है. उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही है, अब तो शायद हाईकोर्ट से ही होगी.’’

‘‘और प्रखर?’’

‘‘इस कांड का पता प्रखर को चल गया है. वह आना भी चाहता है पर आने से क्या फायदा? आते ही गिरफ्तार हो जाएगा. मैं ने ही उसे मना कर दिया है कि वह बाहर रह कर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करे.’’

‘‘अच्छा, मुझे बता, मेरी कहां जरूरत है?’’

‘‘अभी तेरी जरूरत कहीं नहीं है. वकील सब देख रहा है.’’

आश्वस्त हुई सुन कर और मिल कर. हर रोज मैं जेल जाती रही. कभी फल, कभी बिस्कुट और कभी खाना ले कर. मुझे देख कर रत्ना की आंखें भर आतीं, ‘‘कितना कष्ट दे रही हूं तुझे.’’

‘‘सचमुच तेरी दशा देख कर मुझे कष्ट होता है. क्या अब ऐसा ही समय आ गया है कि बहूबेटे के झगड़े में बेचारी सास को जेल जाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मैं ने सोचसमझ कर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटाबहू को अलग रहने दो. कम से कम उन के मनमुटाव में मां को जेल तो नहीं जाना पड़ेगा.’’

‘‘अभी क्या है? जब तू जेल से बाहर आएगी, लोग तुझे ऐसे देखेंगे जैसे तू ने कत्ल किया है? सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है कि एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है.’’

‘‘मैं भी क्या करूंगी यह समझ में नहीं आ रहा. अब क्या नौकरी कर पाऊंगी? स्टाफ के बीच तरहतरह की चर्चाएं होंगी. लोग जाने क्याक्या कह रहे होेंगे,’’ रो पड़ी थी रत्ना.

इस तरह की जाने कितनी बातें जेल में होती रहीं. 20 दिन लग गए रिहाई में. आज रत्ना को साथ ले कर लौटी हूं. जम कर सोऊंगी और रत्ना आगे की योजना बनाती सारी रात जाग कर काट देगी क्योंकि उस की यातनाओं का अभी अंत नहीं हुआ है.

आंखों से नींद कोसों दूर हो गई है. दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बनी लेटी हैं. वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उस का. कई साल लग गए फैसला होने में. रत्ना ने समय से पहले ही रिटायरमेंट ले ली. तारीखें पड़ती रहीं और वह अब मरीज देख कर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांवपेंच पर विचारविमर्श करती रहती. ज्यादा तनाव होे जाता तो रात को नींद की गोली खा लेती. बननासंवरना सब छूट गया. जब भी मिलती मैं हमेशा टोकती, ‘‘स्वयं को संभाल रत्ना. तू खुद को दोषी क्यों समझती है? तू तो बिना किए अपराध की सजा पा रही है.’’

‘‘यही तो दुख है और दुख का भार अब सहा नहीं जाता. प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुख और बढ़ जाता है.’’

मैं ने कस कर रत्ना का हाथ थाम लिया. देखा प्रखर को भी है, सारे बाल पक गए हैं. चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छा गई है.  विदेश की नौकरी छोड़ दी है. रत्ना के साथ केस डिसकस करता रहता है. फैसला होने तक वह दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता. उस दिन केस का फैसला होना था. तलाक के 3 अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना को बाइज्जत बरी होने में 10 साल लग गए. फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी ओर.

कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथसाथ बाहर निकले. पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरेधीरे रत्ना और प्रखर के पास आ कर खड़ी हो गई. रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहती थीं कि निकिता बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, सौरी प्रखर.’’

इन 10 सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई. सबकुछ बिखर गया और आज यह लड़की कह रही है आई एम सौरी.

‘‘सौरी, निकिता,’’ कह कर प्रखर आगे बढ़ गया. ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना. क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है. कुछ कदम चल कर निकिता गिर कर बेहोश हो गई. प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए. उस ने निकिता को गोद में उठाया, गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी. भूल गया कि मां और मौसी साथ आई हैं.

अचानक रत्ना को फिर जेल की चारदीवारी स्मरण हो आई. लगा वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है बल्कि आजीवन  कारावास की सजा उसे मिली है. जेल में सलाखों के पीछे सीमेंट के फर्श पर बैठी है, लोग उस पर हंस रहे हैं और उस का मजाक उड़ा रहे हैं.

Crime Story : लाश वाली सवारी

Crime Story : टैक्सी ड्राइवर को उस सवारी पर शक हुआ था. उस की हरकतें ही कुछ वैसी थीं. उस सवारी ने एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी बुक कराई थी.

मुमताज हुसैन नाम से उस के ऐप पर बुकिंग हुई थी. इस से पहले कि ड्राइवर जीपीएस की मदद से वहां पहुंचता, तभी मुमताज हुसैन का फोन आ गया था, ‘‘हैलो, आप कहां हो?’’

‘‘बस 2 मिनट में लोकेशन पर पहुंच जाऊंगा,’’ टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया था और 2 मिनट बाद ही वह उस के लोकेशन पर पहुंच भी गया था. टैक्सी किनारे कर टैक्सी ड्राइवर

उस के टैक्सी में आने का इंतजार करने लगा. उस ने किनारे खड़े लड़के को गौर से देखा.

मुमताज हुसैन तकरीबन 20-22 साल का लड़का था. बड़ी बेचैनी से वह उस का इंतजार कर रहा था. हर आनेजाने वाली टैक्सी को बड़े ही गौर से देख रहा था. खासकर टैक्सी की नंबरप्लेट को वह ध्यान से देखता था.

जैसे ही उस की टैक्सी का नंबर मुमताज हुसैन ने देखा, उस के चेहरे पर संतोष के भाव आ गए. वह सूटकेस उठाने में दिक्कत महसूस कर रहा था. टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी से उतर कर सूटकेस उठाने में उस की मदद की.

ड्राइवर ने सूटकेस रखने के लिए कार की डिक्की खोली थी, पर मुमताज हुसैन उसे अपने साथ पिछली सीट पर ले कर बैठना चाहता था.

ड्राइवर को सूटकेस काफी वजनी लगा था. शायद कोई कीमती चीज थी उस में, जिस के चलते वह उसे अपने साथ ही रखना चाहता था. ठीक भी है. कोई अपने कीमती सामान को अपनी नजर के सामने रखना चाहेगा ही.

दोनों ने साथ उठा कर सूटकेस को टैक्सी की पिछली सीट पर रखा था. टैक्सी की पिछली सीट पर मुमताज हुसैन उस सूटकेस पर ऐसे हाथ रख कर बैठा था मानो हाथ हटाते ही कोई उस सूटकेस को ले भागेगा.

जीपीएस औन कर ड्राइवर ने एयरपोर्ट की ओर गाड़ी मोड़ दी. बैक व्यू मिरर में वह मुमताज हुसैन को बीचबीच में देख लेता था. उस के चेहरे पर बेचैनी थी. वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था.

वह थोड़ा घबराया हुआ भी लग रहा था. रास्ते में उस ने पहले बेलापुर चलने को कहा. इस से पहले कि अगले मोड़ पर वह टैक्सी को मोड़ पाता, उस ने उसे कुर्ला की ओर चलने का आदेश दिया.

टैक्सी ड्राइवर को उस के बरताव पर शक हुआ. कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है, तभी तो यह कभी यहां तो कभी वहां जाने के लिए कह रहा है.

मलाड से गुजरते हुए मुमताज हुसैन ने टैक्सी रुकवाई. उसे भुगतान कर वह सूटकेस किसी तरह उठा कर एक झाड़ी की ओर गया.

टैक्सी ड्राइवर का मुमताज हुसैन पर शक गहरा हो गया. बुकिंग एयरपोर्ट के लिए करवा कर पहले उस ने उसे बेलापुर जाने को कहा, फिर कुर्ला और अब मलाड में उतर गया. कुछ तो गड़बड़ है इस लड़के के साथ.

ड्राइवर नई बुकिंग के इंतजार में वहीं रुक गया और एक ओर गाड़ी खड़ी कर के मुमताज हुसैन की हरकतों पर ध्यान रखने लगा. थोड़ी ही देर में वह चौंक गया.

मुमताज हुसैन ने सूटकेस वहीं झाड़ी की ओट में छोड़ एक आटोरिकशा पकड़ लिया और वहां से चल दिया.

कोई भी आदमी अपना सूटकेस छोड़ कर क्यों भागेगा भला? वह भी उस सूटकेस को, जिसे वह डिक्की में न रख कर अपने पास रख कर लाया था. कहीं वह भी किसी झमेले में न पड़ जाए क्योंकि उस लड़के ने उस की टैक्सी को मोबाइल फोन से बुक कराया था. वैसे भी किसी लावारिस सामान की जानकारी पुलिस को देनी ही चाहिए. हो सकता है, सूटकेस में बम हो या बम बनाने का सामान हो या फिर किसी और चीज की स्मगलिंग की जा रही हो.

ड्राइवर ने तुरंत पुलिस को फोन किया और पूरी जानकारी दी. कुछ ही देर में पुलिस वहां पहुंच गई.

पुलिस ने सूटकेस खोला तो उस में एक लड़की की जैसेतैसे मोड़ कर रखी गई लाश मिली. उस के सिर पर जख्मों के निशान थे, जो ज्यादा पुराने नहीं लग रहे थे.

पुलिस ने टैक्सी कंपनी से उस के संबंध में जानकारी ली. वह उस टैक्सी सर्विस का काफी पुराना ग्राहक था. टैक्सी सर्विस से उस के बारे में काफी जानकारी मिली. पुलिस ने जल्दी ही उस की खोज की और 4 घंटे के अंदर वह पकड़ा गया. उस की मोबाइल लोकेशन से यह काम और आसान हो गया था.

पुलिस की सख्त पूछताछ में जो बातें सामने आईं, वे काफी चौंकाने वाली थीं. सूटकेस में जिस लड़की की लाश थी, वह एक मौडल थी, मानसी. वह पिछले 3 सालों से मुंबई में रह रही थी और मौडलिंग के साथसाथ फिल्म और टैलीविजन की दुनिया में जद्दोजेहद कर रही थी. वह राजस्थान के कोटा शहर की रहने वाली थी. उस का ज्यादातर समय मुंबई में ही बीतता था.

मुमताज हुसैन हैदराबाद का रहने वाला था और एक हफ्ते से मुंबई में था. यहां एक अपार्टमैंट में एक कमरे का फ्लैट उस ने किराए पर ले रखा था, क्योंकि उस का काम के सिलसिले में मुंबई आनाजाना लगा रहता था.

वह एक फ्रीलांस फोटोग्राफर था और हैदराबाद की कई कंपनियों के लिए मौडलों की तसवीरें खींचा करता था. मानसी से भी किसी इश्तिहार के सिलसिले में उस की जानपहचान

हुई थी.

मानसी का दोस्त सचिन भी उस इश्तिहार के फोटो शूट के लिए मानसी के साथ था. सचिन मानसी का पुराना दोस्त था और दोनों साथसाथ फिल्म, टीवी और विज्ञापन की दुनिया में पैर जमाने के लिए मेहनत कर रहे थे.

मानसी और सचिन में काफी नजदीकियां थीं. मुमताज हुसैन ने जब मानसी और सचिन की दोस्ती का मतलब यही निकाला कि मानसी सभी के लिए मुहैया है. उस ने इशारेइशारे में सचिन से इस बारे में बात भी की, पर सचिन ने मजाक में बात को उड़ा दिया.

सचिन के साथ मुमताज हुसैन का पहले से ही फोटो शूट के लिए परिचय था और उस के परिचय का फायदा उठा कर उस ने मानसी से भी नजदीकियां बढ़ाई थीं.

धीरेधीरे दोनों की दोस्ती बढ़ती चली गई थी. दोनों हमउम्र थे इसलिए फेसबुक, ह्वाट्सएप वगैरह पर लगातार दोनों में बातें होती रहती थीं.

मानसी शायद मुमताज हुसैन को सिर्फ एक परिचित के रूप में देखती थी, पर उस के मन में मानसी के बदन को भोगने की हवस थी. इसी के चलते

उस ने उस से मेलजोल बनाए रखा था खासकर उस के मन में यह बात थी कि जब मानसी सचिन के लिए मुहैया है तो उस के लिए क्यों नहीं?

पर वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहता था. धीरेधीरे उस ने मानसी से इतना परिचय बढ़ा लिया कि मानसी उस पर यकीन करने लगी.

उस दिन मुमताज हुसैन ने किसी बहाने मानसी को मुंबई में अपने फ्लैट पर बुलाया था. मानसी के पास कुछ खास काम नहीं था, इसलिए वह भी समय बिताने के लिए अपने इस फोटोग्राफर दोस्त के पास चली गई थी.

कुछ देर खानेपीने, इधरउधर की बातें करने के बाद मुमताज हुसैन बोला था, ‘‘मानसी, मैं जब से तुम से मिला हूं, तुम्हारा दीवाना हो गया हूं. मैं कई लड़कियों से मिला, पर कोई भी तुम्हारे टक्कर की नहीं.’’

‘‘इस तरह की बातें तो हर लड़का हर लड़की से करता है. इस में कुछ नया नहीं है,’’ मानसी ने हंस कर कहा था.

‘‘मैं सच बोल रहा हूं मानसी. तुम इसे मजाक समझ रही हो.’’

‘‘देखो मुमताज, हमारी दोस्ती एक फोटो शूट के जरीए हुई है. न मैं अपने कैरियर को संवार पाई हूं और न तुम. अच्छा होगा कि हम अपनाअपना कैरियर संभालें और दोस्त बन कर एकदूसरे की मदद करें.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर आज तो सैक्स कौमन बात है. मैं तो तुम्हारे साथ सिर्फ सैक्स का मजा लेना चाहता हूं. वह भी सुरक्षित सैक्स. कहीं कोई खतरा नहीं. किसी को कोई भनक तक नहीं.

‘‘मुमताज, मैं वैसी लड़की नहीं हूं. मैं एक छोटे से शहर की रहने वाली हूं. कपड़े भले ही मौडर्न पहनती हूं और सोच से नई हूं, पर सैक्स मेरे लिए सिर्फ पतिपत्नी के बीच होने वाला काम है. मैं इस तरह का संबंध नहीं बना सकती. चाहे तुम मेरे दोस्त रहो या न रहो.’’

पहले तो मुमताज हुसैन ने बारबार उसे मनानेसमझाने की कोशिश की थी, पर जब वह नहीं मानी तो उस के सब्र का बांध टूट गया और वह गुस्से से आगबबूला हो गया.

मुमताज हुसैन ने मानसी को धमकाया, ‘‘आज तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी. राजीखुशी से मानो या फिर मेरी जबरदस्ती को मानो.’’

‘‘ऐसी गलतफहमी में मत रहना. यह देखो, मिर्च स्प्रे…’’ मानसी ने अपने पर्स से मिर्च स्प्रे निकाल कर उसे दिखाया, ‘‘कुछ देर के लिए तो तुम अंधे हो जाओगे और अपने गंदे इरादे को पूरा नहीं कर पाओगे. अगर अपना भला चाहते हो तो मेरे रास्ते से हट जाओ…’’

मुमताज हुसैन ने आव देखा न ताव नजदीक रखे लकड़ी के स्टूल को उस के सिर पर दे मारा. चोट सिर के ऐसे हिस्से में लगी कि कुछ ही देर में मानसी की मौत हो गई.

मुमताज हुसैन यह देख कर हक्काबक्का रह गया. उस का हत्या करने का हरगिज इरादा नहीं था. वह तो बस अपनी हवस को शांत करना चाहता था. घबराहट में वह कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे.

मुमताज हुसैन कुछ सोच पाता, इस से पहले ही किसी ने डोरबैल की घंटी बजा दी. मैजिक आई से झांक कर उस ने देखा तो सचिन को वहां खड़ा पाया. गनीमत थी कि मानसी की लाश अंदर कमरे में पड़ी थी.

‘‘मानसी आई है क्या यहां?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘नहीं तो,’’ मुमताज हुसैन घबरा कर बोला.

‘‘उस ने मुझे ह्वाट्सएप पर संदेश दिया था कि वह तुम्हारे घर आ रही है. मुझे इस ओर ही आना था इसलिए सोचा कि उसे भी साथ ले चलूं.’’

‘‘हां… हां… उस ने यहां आने को कहा था, पर किसी काम से नहीं आ पाई,’’ मुमताज हुसैन ने कहा.

‘‘पर, तुम तो घर में हो. तुम्हें इतना पसीना क्यों आ रहा है?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘क… क… कुछ नहीं. थोड़ा वर्कआउट कर रहा था. आओ बैठो…’’ डरतेडरते मुमताज हुसैन ने कहा. वह सोच रहा था कि कहीं सचमुच ही सचिन अंदर न आ जाए.

‘‘अभी नहीं, समय पर स्टूडियो पहुंचना है, फिर कभी आऊंगा तो बैठूंगा. मानसी से मैं मोबाइल पर बात कर लूंगा. उसे भी स्टूडियो में किसी से मिलवाना था,’’ सचिन ने कहा और चलता बना.

मुमताज हुसैन ने जल्दी से दरवाजा बंद किया और अंदर रूम में जा कर सब से पहले मानसी का फोन स्वीच औफ किया. वह समझ सकता था कि लाश वहीं पड़ी रहेगी तो उस से बदबू आएगी और राज खुल जाएगा. आखिरकार लाश को ठिकाने लगाना जरूरी था. लेकिन, कैसे? यह उस की समझ में नहीं आ रहा था.

अपार्टमैंट के बाहर सिक्योरिटी गार्ड की चौकस ड्यूटी रहती थी. मुमताज हुसैन ने काफी सोचविचार के बाद फैसला किया कि एक बड़े से सूटकेस में लाश को ले कर कहीं छोड़ दिया जाए. कहीं और लाश मिलेगी तो पुलिस को उस पर शक नहीं होगा.

इसी योजना के तहत मुमताज हुसैन ने कार बुक की और मलाड में झाड़ी के पास सूटकेस को छोड़ आया था, पर उस की चाल कामयाब नहीं हो पाई और घटना के 5-6 घंटे के अंदर ही वह पुलिस की गिरफ्त में था.

थाने में बैठा मुमताज हुसैन सोच रहा था अपनी बदहाली की वजह. उस ने पाया कि उस की अनुचित मांग ही उस की इस हालत की वजह बनी.

Social Story : मंदिर की चौखट

Social Story : यहां तक कि गणित का जो सवाल पूरी कक्षा से हल न होता उसे राहुल जरूर हल कर देता था. तभी तो मदर प्रिंसिपल गर्व से कहती थीं कि राहुल की प्रतिभा का कोई सानी नहीं है. और राहुल ने भी कभी उन को निराश नहीं किया. अंतरविद्यालयीन मुकाबलों में जीते पुरस्कार उस की प्रतिभा के प्रत्यक्ष प्रमाण थे. इतना मेधावी राहुल फिर आज बेचैन क्यों था? क्यों आज वह मानवीय आचरण की गुत्थी में उलझ कर रह गया था? क्यों वह नहीं समझ पा रहा था कि इनसान इतना संवेदनहीन भी हो सकता है? हुआ यह कि कल गणित का पेपर था और आज राहुल के पड़ोस में जागरण हो रहा था. कोई और दिन होता तो राहुल बढ़चढ़ कर जागरण मंडली के साथ मां की भेंटें गा रहा होता और ढोलमजीरे की लय पर आंखें बंद किए पुजारी को गरदन घुमाते हुए वह श्रद्धाभाव से देख रहा होता लेकिन आज बात कुछ और थी. उसे परीक्षा की तैयारी करनी थी. उसे पास होने की नहीं बल्कि प्रदेश में प्रथम स्थान पाने की चिंता थी. उसे अपने अध्यापकों, सहपाठियों तथा मातापिता, सब की आकांक्षाओं पर खरा उतरना था. यही कारण था कि मंदिर से लाउडस्पीकर की आ रही ध्वनि उसे बारबार परेशान कर रही थी.

भक्तजनों ने ‘जयजगदंबे’, ‘जय महाकाली’ के जयकारे लगाए तो लगा, उस के दिमाग पर वे लोग हथौड़ों की तरह वार कर रहे हैं. मृदंग और ढोलक की आवाज से राहुल का सिर फटा जा रहा था. जब उस की सहनशक्ति जवाब देने लगी तो वह उठा और पुजारीजी के पास जा कर हाथ जोड़ विनम्र शब्दों में प्रार्थना की, ‘पुजारीजी, कल मेरी 10वीं की वार्षिक परीक्षा है. कृपया लाउड- स्पीकर की आवाज थोड़ी हलकी करवा दें या उस का मुंह मेरे घर से दूसरी तरफ करवा दें तो आप की बड़ी कृपा होगी क्योंकि शोर के कारण मुझ से पढ़ा नहीं जा रहा है.’

पता नहीं पुजारी ने सुना नहीं या सुन कर भी अनसुना कर दिया. वह अपने चेले से बोले, ‘भई, जरा कलश तो पकड़ाना, पूजा में उस की जरूरत पड़ने वाली है.’

राहुल उन के और समीप पहुंचा और तनिक जोर से अपनी प्रार्थना फिर दोहराई. पर पुजारीजी के पास शायद राहुल की कोई बात सुनने का समय ही न था. 2 बार अपनी उपेक्षा देख कर वह तीसरी बार थोड़ा और साहस जुटा कर पुजारी के सामने जा कर खड़ा हो गया और फिर से नम्र निवेदन किया.

‘अरे, लड़के. क्यों हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ा है?’ पुजारीजी ने आव देखा न ताव, कड़क कर बोले, ‘दिखाई नहीं देता कि पूजा में देर हो रही है. क्या कहा तू ने? जागरण से तेरी पढ़ाई में विघ्न पड़ रहा है? अरे, कौन सी बी.ए. की परीक्षा देनी है, और फिर पढ़लिख कर  करेगा भी क्या? काम तो तुझे कपड़े की दुकान पर ही करना है. चल, छोड़ पढ़ाईलिखाई और महामाई का गुणगान करने को आजा, वही तेरी नैया पार लगाएंगी.’

पुजारी की बात राहुल को गाली से भी बुरी लगी. वह क्या करना चाहता है, क्या बनना चाहता है, यह तो वही जानता था. कपड़े की दुकान पर काम वाली बात राहुल कड़वे घूंट की तरह पी गया और मौके की नजाकत को देखते हुए पुजारी के सामने गिड़गिड़ा कर बोला, ‘पुजारीजी, परीक्षा छोटी हो या बड़ी, परीक्षा परीक्षा ही होती है. मैं आप से यह तो नहीं कहता कि जागरण बंद कर दें या लाउडस्पीकर बंद कर दें. हां, कुछ ऐसा कीजिए कि जागरण भी चलता रहे और मुझे पढ़ने में असुविधा भी न हो.’

राहुल का इतना कहना था कि पुजारी गुस्से में लालपीले हो गए. एकदम भड़क उठे और बोले, ‘मां जगदंबा के जगराते में विघ्न डालता है? निकृष्ट बालक, मां की अनुकंपा के बिना तू अच्छे नंबरों से तो क्या पास भी नहीं हो सकता,’ क्रोध से तमतमाए पुजारी ने अपने चेलों को आदेश दे कर लाउडस्पीकर की आवाज और भी ऊंची करवा दी.

निराश राहुल को मदन ताऊजी की याद आई जो महल्ले में किसी की कैसी भी समस्या हो धैर्य से सुनते थे और प्राय: समस्या का उचित समाधान भी ढूंढ़ते थे. वह अपनी व्यथा ले कर ताऊजी के पास जा पहुंचा. ताऊजी ने उस की सारी बातें ध्यान से सुनीं. उन्हें राहुल की बातों में सचाई और तर्क दोनों की झलक दिखाई दी. वह राहुल को ढांढ़स बंधाते हुए बोले, ‘बेटा, मैं तुम्हारे साथ चलता हूं, मुझे भरोसा है कि पुजारीजी मेरी बात जरूर सुनेंगे. उन का मूड किसी वजह से खराब होगा अन्यथा तुम्हारी इतनी छोटी सी बात मानने में भला उन का क्या जाता है.’

जागरण के पंडाल में पहुंच कर मदन ताऊजी ने पुजारी को नमस्कार किया और विनम्रतापूर्वक बोले, ‘पुजारीजी, इस लड़के की कल परीक्षा है. यदि लाउडस्पीकर जरा धीमा कर दें तो…’ ताऊजी की बात बीच में काटते हुए पुजारीजी उसी गुस्से भरी मुद्रा में बोले, ‘पंडितजी, तो ले आया आप को भी अपने साथ यह लड़का और आप भी इस की बातों में आ गए. यह लड़का पढ़ने का नाटक करता है. कल सारा दिन तो मैं ने इसे महल्ले में घूमते देखा और अब ठीक जागरण के समय इसे पढ़ाई की सूझ रही है.’

पुजारी द्वारा मंदिर के अहाते में देवी मां के सामने बोले गए सफेद झूठ ने राहुल की आत्मा को झकझोर दिया. वह भौचक हो कर पुजारी और ताऊ की बातों को सुनता रहा. आखिर जब बात किसी तरह नहीं बनी तो ताऊजी ने भी पुजारी के हठी आचरण के सामने हथियार डाल दिए और मुड़ कर राहुल से बोले, ‘बेटा राहुल, लगता है पुजारीजी मानने वाले नहीं हैं, तुम ही कहीं और जा कर पढ़ लो.’

राहुल खिन्न हो गया. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह वापस घर आया तो चौखट पर खड़ी मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और पुचकारते हुए बोलीं, ‘बेटा, अगर पुजारीजी ने तुम्हारे ताऊजी की बात नहीं मानी तो अब किसी और की बात मानने की संभावना शून्य है. अच्छा है कि तुम अब सो जाओ, और सुबह जल्दी उठ जाना और तब पढ़ाई कर लेना.’

मां की बात मान राहुल सोने की कोशिश करने लगा लेकिन इतने शोर में नींद भी कहां आती? वह इसी उधेड़बुन में था कि कैसे इस विपदा से पार पाया जाए. तरहतरह के विचार उस के मन में आने लगे कि क्या करूं, कहां जाऊं? हताश मन में एक विचार आया कि स्कूल में जा कर पढ़ लेता हूं. तभी अंदर से उत्तर मिला, वहां तो सारे कमरे बंद होंगे और फिर इतनी रात में कमरा कौन खोलेगा. मदर प्रिंसिपल से टेलीफोन कर के पूछूं? पर कहीं मना कर दिया तो? लेकिन मन ने आवाज दी, नहीं…नहीं…मना नहीं करेंगी क्योंकि वह बहुत प्यार करती हैं मुझ से. शायद मां से भी ज्यादा. इतनी रात गए क्या कहूंगा उन्हें कि मदरजी, हमारे धर्म में गौड की प्रेयर धूमधड़ाके वाली, शोरगुल से भरपूर होती है. भांग पी कर नाचते पुजारी और जोरजोर से मृदंग और करताल पीटते उन के चेले गौड्स को मनाने के अनिवार्य अंग होते हैं.

राहुल ने हृदय में मची उथलपुथल को अपनी बाल बुद्धि से तर्क दे कर शांत करने का प्रयास किया. सोचा, नींद तो आ नहीं रही, इधरउधर मन भटकाने से अच्छा है कि यहीं पढ़ने की कोशिश की जाए. सवाल ही तो हल करने हैं. एक बार एकाग्रता बन गई तो शोर सुनाई देना स्वत: ही बंद हो जाएगा.

बहुत चाहने के बावजूद भी राहुल की एकाग्रता बन नहीं पा रही थी. अनमना सा वह उठा और पड़ोस में जा कर स्कूल में टेलीफोन कर ही दिया.

‘गुड इवनिंग मदर, मैं राहुल बोल रहा हूं.’

‘वैल सन, कैसे याद किया? सब ठीक तो है न?’

‘मैम, मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं क्योंकि मेरे घर के पास लाउडस्पीकर का बहुत शोर हो रहा है.’

‘राहुल, तुम शोर करने वालों से प्रार्थना करो कि वे शोर न करें. उन को बताओ कि कल तुम्हारा मैथ का पेपर है. वे तुम्हारी बात जरूर मान लेंगे,’ मदर ने राहुल को समझाया.

‘मैम, सब तरीके अपनाने के बाद ही आप को इतनी रात में फोन किया है. आई एम सौरी, मैम.’

मदर प्रिंसिपल भांप गईं कि सचमुच राहुल के सामने भारी समस्या है वरना वह कभी फोन न करता. इसलिए जरूरी है कि इस समय उस की मदद की जाए.

‘सन, तुम होस्टल आ जाओ. यहां मैं तुम्हारी पढ़ाई का पूरा इंतजाम कर दूंगी,’ मदर प्रिंसिपल की आवाज में सहानुभूति और वात्सल्य का मेल था.

राहुल होस्टल पहुंच गया. मदर प्रिंसिपल ने उस का बेड डोरमेटरी में लगवा दिया था. पढ़ाई पूरी कर के वह सोने का प्रयत्न करने लगा.

बचपन से ले कर किशोर होने तक का सफर सिनेमा की तरह उस की आंखों के सामने घूम गया. राहुल के घर और मंदिर की दीवार साझी थी. जब से उस ने होश संभाला था, अपनेआप को मंदिर से किसी न किसी तरह जुड़ा पाया था. पूरे महल्ले के बच्चे खेलने के लिए मंदिर में जमा होते थे. वह भी वहीं खेलता था. सर्दियों में मंदिर के विशाल मैदान में खिली धूप का आनंद मिलता था तो गरमियों में नीम, पीपल तथा बरगद की ठंडी छांव सुख पहुंचाती थी.

मंदिर में कोई न कोई कथावार्ता हमेशा चलती रहती थी. संतमहात्मा आते रहते थे और अपने प्रवचनों से लोगों को ज्ञान प्रदान करते थे. ताऊजी भी अधिकांश समय मंदिर में बिताते थे. रोज सुबह खुद भी और बच्चों से भी हनुमान चालीसा का पाठ करवाते थे, जो उन्हें मुंहजबानी याद था. अनेक भक्तों की कहानियां ताऊजी को याद थीं. पुंडरीक, प्रह्लाद व ध्रुव आदि की कहानियां न जाने कितनी बार उन्होेंने राहुल को सुनाई थीं.

ताऊजी अपने ढंग से बच्चों को कहानियों के माध्यम से अनेक शिक्षाएं देते थे, ‘सदा सच बोलो’, ‘अन्याय मत करो’, ‘अन्याय मत सहो’, ‘अत्याचार मत करो’, ‘अत्याचारी से बड़ा पापी अत्याचार सहने वाला होता है’ आदि. बच्चों को भी उन की कहानियां सुनने में बड़ा आनंद आता था.

राहुल को वह दिन याद आया जिस दिन ताऊजी ने धन्ना जाट की कहानी उसे सुनाई थी. कहानी कुछ ऐसी थी कि राहुल के मन में कौतूहल जाग उठा. उस ने सोचा कि यदि धन्ना जाट अपने हठ से कृष्ण को पा सकता है तो वह क्यों नहीं? एक पत्थर उठाया और बैठ गया राहुल भी उस के सामने यह हठ कर के कि ‘तब तक न खाऊंगा, न पीऊंगा जब तक प्रभु दर्शन नहीं देते. ताऊजी की शैली में धन्ना जाट का डायलाग राहुल ने पत्थर के सामने दोहराया.

3-4 घंटे बीत जाने पर मां ने राहुल को ढूंढ़ना शुरू किया और जब वह कमरे में गईं तो देखा, पत्थर के सामने दीपक और अगरबत्ती जला कर राहुल बैठा है. मां को जब सारी बात का पता चला तो उन्होंने अपना माथा पकड़ लिया. हंसी भी आई और दुलार भी आया बेटे के भोलेपन पर.

होस्टल के बिस्तर पर पड़े राहुल को अतीत की वह हर घटना याद आ रही थी जिस ने बालक राहुल को सनातन कर्मकांड का भक्त बना दिया था. प्राय: उस का दिन मंदिर में जा कर पूजा से शुरू होता था. परीक्षा देने जाते समय भगवान को टीका अवश्य लगाता था. पूजापाठ या मंदिर का कोई भी काम होता तो राहुल सब से आगे होता था. राहुल के विवेक पर आस्था का साम्राज्य हो गया था.

छठी कक्षा की वह घटना भी उसे याद आई जब सिस्टर फ्लोरेंस स्कूल में हनुमानजी के बारे में पढ़ा रही थीं, ‘हनुमान वाज ए मंकी’ (हनुमान एक बंदर था).

राहुल का दिमाग भन्ना गया. वह बिफर कर बोला, ‘सिस्टर, हनुमान वाज नाट ए मंकी. ही वाज ए सर्वेंट आफ गौड.’ (अर्थात हनुमान बंदर नहीं भगवान के सेवक थे)

‘परंतु था तो बंदर ही,’ सिस्टर ने तर्क दिया.

‘नहीं, यह मेरे आराध्य देव का अपमान है. वे केवल रामभक्त थे, यही उन का परिचय है,’ ताऊजी के दिए संस्कार राहुल के सिर चढ़ कर बोल रहे थे.

राहुल के साहस और उग्रता के सामने सिस्टर फ्लोरेंस धीमी पड़ गई. वह खुद कोई दंड न दे कर राहुल को मदर प्रिंसिपल के पास ले गईं.

मदर प्रिंसिपल ने गंभीरतापूर्वक कहा था, ‘फ्लौरेंस, अगर हनुमान को बंदर कहने से राहुल की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो जो वह कहना चाहता है उसे वही कहने दो. दूसरों की भावनाओं का आदर करना ही मानव जाति का सब से बड़ा धर्म है और उन्हें कुचलना सब से बड़ा अधर्म.’

गांठ की तरह बांध ली थी राहुल ने अपने पल्ले से प्रिंसिपल मैम की यह बात.

राहुल को पुजारी के व्यवहार ने तोड़ दिया था. उस का संवेदनशील मन, सच और सही रास्ते की तलाश में भटक रहा था. वह भगवान के अस्तित्व को खोज रहा था. उसे फैसला करना था कि भगवान है कहां? मन में या मंदिर में, मानवता की सेवा में या मृदंग की थाप में? किसी का दिल दुखाने में या किसी की सहायता करने में? राहुल के मन

में मंथन जारी था. पता नहीं कब मन

में यह कशमकश लिए राहुल को नींद आ गई.

इस घटना को 30 साल बीत चुके हैं. पुजारीजी अभी जिंदा हैं. उन को पक्षाघात हो गया है जिस के कारण उन्होंने खटिया पकड़ ली है. उन के चेलों में सब से उद्दंड चेला अब पुजारी बन चुका है. उस ने उन की खाट मंदिर से निकाल, पिछवाड़े में भैंसों के तबेले के साथ वाले कमरे में डाल दी है.

जब राहुल ताऊजी के संस्कार पर गया था तो वह पुजारीजी से भी मिल कर आया था.

राहुल ने अपने साथ चलने के लिए पुजारीजी से आग्रह किया था ताकि वह अपने हस्पताल में उन का इलाज करवा सके. लेकिन वह नहीं माने तो उन की खटिया वापस मंदिर के आंगन में डलवा दी थी और नए पुजारी से उन के इलाज के लिए हर माह कुछ रकम भेजने का वादा भी किया था.

मदर प्रिंसिपल से राहुल की मुलाकात लगभग 12 बरस पहले स्कूल के रजत जयंती समारोह में हुई थी. उन के सीने में दर्द रहने लगा था और उन्होंने अपनी बीमारी की फाइल राहुल को दिखाई थी. राहुल जब उन के लिए दवाइयां लिख रहा था तो उन की आंखों की चमक बता रही थी कि वह खुशी से अधिक गर्व महसूस कर रही हैं. उन का नन्हा राहुल उन की हर आकांक्षाओं पर खरा जो उतरा.

राहुल की शादी हुए लगभग 10 साल हो चुके हैं. उस के 2 होनहार बच्चे हैं. राहुल कभी मंदिर नहीं जाता. पूरे परिवार को राहुल का यह व्यवहार बड़ा अटपटा लगता है. पत्नी कई बार सोचती है कि हर बात में बुद्धिसंगत व्यवहार करने वाले राहुल मंदिर का नाम आते ही इतना असंगत क्यों हो जाते हैं? ऐसी क्या गांठ राहुल के मन में है कि वह किसी भी तरह मंदिर जाने के लिए तैयार नहीं होते.

आज 30 साल बाद राहुल दक्षिण भारत के मदुरई नगर में स्थित मीनाक्षी मंदिर की दहलीज पर खड़ा है. राहुल ने अपना कदम आगे बढ़ाया और मंदिर की चौखट लांघी पर लांघने वाले कदम भगत राहुल के नहीं अपितु पर्यटक राहुल के थे.

लेखक – डा. सुभाष चंद्र गर्ग

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