बंधन टूट गए

बंधन टूट गए : भाग 3

पर कालिंदी उस की बात ही नहीं मान रही थी, मानो वह अपने बाड़े से निकलना ही नहीं चाह रही हो. सुहानी देवी कुछ देर तक यह सब देखती रही, पर जब उस से नहीं रहा गया तो खुद उस नौजवान के पास गई और बोली, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है और इसे क्यों घसीट रहे हो?’’ ‘‘मालकिन, मेरा नाम बातुल है. मालिक ने मुझे जानवरों की साफसफाई के लिए रखा है.’’ ‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ उस नौजवान ने बड़े अदब से जवाब दिया, ‘‘दरअसल, कालिंदी ने इस रस्सी को अपने गले में उलझा लिया है. हम इसे बाहर ला कर इस के बंधन को सुलझाना चाहते हैं, पर यह है कि अपने फंदे में ही फंसी रहना चाह रही है. यह खुद भी परेशान है, पर फिर भी निकलना नहीं चाहती.’’ बातुल की बातें सुहानी देवी के कानों से टकराईं और सीधा उस के मन में उतरती चली गईं. ‘‘ठीक है, ठीक है… पर यह नाम बड़ा अजीब सा है, बातुल…’’ बोलते हुए हंस पड़ी थी सुहानी. बातुल ने बताया कि उसे बचपन से ही बहुत बोलने की आदत है,

इसलिए गांव में सब उसे ‘बातुल’ कह कर ही बुलाते हैं. बातोंबातों में बातुल ने यह भी बताया कि गांव वापस आने से पहले वह शहर में भी काम कर चुका है. बातुल के मुंह से शहर का नाम सुन कर सुहानी देवी के मन में जैसे कुछ जाग उठा था. बातुल के रूप में ठकुराइन को बात करने वाला कोई मिल गया था. ठाकुर भवानी सिंह के जाने के बाद सुहानी देवी अपनी सास से कुछ बहाना कर के हवेली की छत पर चली जाती और बातुल को काम करते देखती रहती और फिर खुद ही बातुल से कुछ न कुछ काम बताती. आज ठाकुर साहब सुबहसुबह ही शहर चले गए और बातुल को शाम के लिए मछली लाने को बोल गए. दोपहर में बातुल अपने कंधे पर मछली पकड़ने वाला जाल ले कर आता दिखा. उस में कई सारी मछलियां फंसी हुई थीं और तड़प रही थीं. बातुल ने जाल जमीन पर पटक दिया और सभी मछलियों को निकाल कर पास ही बने एक कच्चे गड्ढे में डाल दिया और उस में ऊपर तक पानी भर दिया, ताकि वे सब शाम तक जिंदा रहें और ठाकुर साहब के आने पर उन्हें पकाया जा सके.

सुहानी देवी ने देखा कि जो मछलियां अब तक पानी के बिना तड़प रही थीं, वे पानी पाते ही कितनी तेज तैर रही थीं मानो उन्होंने जिंदगी ही पा ली हो. सुहानी देवी अभी मछलियों को देख ही रही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. सुहानी देवी ने आवाज लगा कर बातुल को हवेली के अंदर आने को कहा और खुद बारिश का मजा लेने लगी. बारिश मूसलाधार हो रही थी. चारों तरफ पानी भर गया था और उस मछली वाले गड्ढे और बाहर आंगन में पानी का लैवल बराबर हो जाने के चलते गड्ढे की मछलियां जलधारा के साथ बाहर बह चली थी. यह सीन देख कर सुहानी देवी भूल गई थी कि वह एक ठकुराइन है. वह खुश हो कर ताली बजाने लगी और बातुल के कंधे पर हाथ रख दिया. एक ठकुराइन के छुए जाने के चलते एकसाथ कई सवाल बातुल की आंखों में तैर गए थे और उस की नसों में दौड़ते खून की तेजी में उतारचढ़ाव आने लगा था. बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

सुहानी देवी का मन किया कि वह बाहर आंगन में जा कर भीगे, अपने सारे गहने उतार कर नहाए, पर ठकुराइन की मर्यादा ने उसे रोके रखा था. ठाकुर शहर से वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि बारिश तेज है और बातुल को भी इसी वजह से आज हवेली में ही रुकना होगा. सास सो गई थीं. बातुल खाना खा कर हवेली के नीचे वाले हिस्से में सोने चला गया था. सुहानी देवी ने सोने से पहले अपने कमरे का दरवाजा जानबूझ कर क्यों खुला छोड़ दिया था, इस का जवाब खुद उस के पास भी नहीं था. उसी दरवाजे से दबे पैर कोई आया और सीधा सुहानी देवी से लिपट गया. वह भी किसी लता की तरह लिपट गई और फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘हां, जैसे तुम जानती नहीं…’’ उस की यह बात सुन कर सुहानी देवी ने बातुल का सिर अपने सीने के बीचोंबीच भींच लिया और दोनों सैक्स का मजा लेने लगे. एक बार, 2 बार… 3 बार… न जाने कितनी बार हवेली के उस कमरे में ज्वालामुखी का उबाल आया था. आज वहां ऊंचनीच और जातिधर्म की दीवार गिर गई थी. सुहानी देवी को बातुल से प्यार हो गया था. उस दिन के बाद से तो न जाने कितनी बार बातुल और सुहानी देवी ने अपने इस प्यार को भोगा था. अगले दिन सुहानी देवी फिर से भारी गहनों और कपड़ों में लदी हुई थी. बातुल आया, तो उस के एक हाथ में सांप की केंचुली थी.

‘‘यह क्या है?’’ सुहानी ने पूछा. ‘‘केंचुली है ठकुराइन… जब यह पुरानी हो जाती है, तो सांप इस में एक बंधन महसूस करता है और ठीक समय पर वह पुरानी केंचुली को उतार फेंक छुटकारे का अहसास करता है.’’ सुहानी देवी बातुल की बातों को सुन रही थी. उस के दिमाग में बंधन, मुक्ति जैसे शब्द लगातार गूंज रहे थे. 2 दिन बाद ठाकुर भवानी सिंह शहर से लौटे थे. वे सुहानी देवी के लिए सच्चे मोतियों का एक हार लाए थे. उन्होंने वह हार सुहानी देवी के गले में डाल दिया, पर उस के चेहरे को देखा तक नहीं. ठाकुर भवानी सिंह अपने चमचों के बीच बैठ कर रैडलाइट एरिया की बातें करते रहते. इस बार उन के मुंह से कुछ औरतों के नाम भी निकल रहे थे. एक अनजाने सौतिया डाह में जल उठी थी सुहानी देवी. ‘‘अगर गंदे एरिया में जा कर रासरंग ही करना था ठाकुर को तो फिर मुझ से ब्याह ही क्यों रचाया? मैं परंपरा निभाने और दिखावे के लिए मात्र एक गुडि़या की तरह हूं,’’ गुस्से की ज्वाला धधक उठी थी सुहानी देवी के मन में.

ठाकुर भवानी सिंह का शहर जा कर रैडलाइट एरिया में मजे करना बदस्तूर जारी रहा, पर अब सुहानी देवी को भी इस बात की कोई चिंता नहीं थी. उसे तो बातुल के रूप में एक प्यार करने वाला मिल गया था, जिस से वह अपने मन का हर दर्द कह सकती थी और उस की बांहों में अपने अंदर की औरत को महसूस कर सकती थी. पर, आज पूरे 3 दिन बीत गए थे, बातुल हवेली की दहलीज पर सलाम बजाने भी नहीं आया था. ‘कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया बातुल के साथ?’ सुहानी देवी का बेचैन मन बारबार हवेली के दरवाजे की तरफ देख रहा था. रात हो चली थी.

ठाकुर को तो आज आना नहीं था. बातुल से बात करने का मन कर रहा था, उस की खैरियत की भी चिंता हो रही थी. लिहाजा, सास के सो जाने के बाद सुहानी देवी पिछले दरवाजे से बाहर निकली और सीधा बातुल के घर के बाहर जा पहुंची. दरवाजा अंदर से बंद था, पर भीतर से बातुल की आवाज बाहर तक आ रही थी. सुहानी देवी ने दरवाजे की झिर्री से आंख सटा दी. अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई थी. बातुल किसी दूसरी औरत से मजे ले रहा था. ‘‘ठकुराइन ने मुझे बहुत मजा दिया, बहुत मस्त थी उस की जवानी… ठाकुर की रैडलाइट एरिया में मुंह मारने की आदत का मैं ने खूब फायदा उठाया…’’ ‘‘इस का मतलब… तुम नमकहराम हो. जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया,’’ बातुल की बांहों में लेटी औरत ने कहा. ‘‘नहीं, मैं एक व्यापारी हूं… जिसे जो चाहिए था, मैं ने उसे वह दिया और फिर ठाकुर भी तो शहर में जा कर मुंह मारता है, तो मैं नमकहराम कैसे?’’

 

बंधन टूट गए : भाग 1

यह जोड़ी बहुत ही बेमेल थी. 50 साल के ठाकुर भवानी सिंह तो 25 साल की ठकुराइन सुहानी देवी. बेमेल भले ही हो, पर लोगों की नजरों में तो यही जोड़ी सब से बेजोड़ थी, क्योंकि ठाकुर भवानी सिंह 50 साल के हो कर भी दमखम के मामले में किसी जवान लड़के को मात देते थे और ठकुराइन सुहानी देवी का रूप अपनी हद पर था. ठाकुर भवानी सिंह की पहली पत्नी 5 साल पहले ही चल बसी थीं. उन के पहली पत्नी से कोई औलाद नहीं थी. रिश्तेदारों के कहने पर उन्होंने दूसरी शादी के लिए हां कर दी थी और अपने मुकाबले थोड़े कम पैसे वाले ठाकुरों के यहां से सुहानी देवी को ब्याह लाए थे.

भवानी सिंह सुहानी देवी के सामने बड़े ही गर्व से अपनी ठकुराई का बखान करते और अपने खानदान की तलवार दिखाते थे. शान के साथ अपनी खानदानी बातें बताते और हर रीतिरिवाज का बखान करते थे. हर महीने सुहानी देवी के लिए 4-5 जोड़े कपड़े और गहने लाना तो ठाकुर भवानी सिंह के लिए आम बात थी. उन का मानना था कि गहनेकपड़े औरतों के लिए ठीक उसी तरह जरूरी हैं, जैसे मर्दों के लिए शराब और मांस. उन्हें इस के लालच में फंसाओ और खुद चाहे जो भी करो. औरतें घर की चारदीवारों में नियमों, परंपराओ में फंसी रह कर भी अपनेआप को धन्यभागी समझती रहेंगी. जब सुहानी देवी नईनई ब्याह कर आई थी, तो उस की सास उसे बताती थीं कि तुम ठकुराइन हो…

फलां काम तुम्हें इस तरह से करना है और फलां काम कुछ इस तरह से… हम ठकुराइनों के खांसने और छींकने में भी एक शालीनता और एक अदा होती है और अगर घर में कोई शोक हो तो भी हमें चीखचीख कर नहीं रोना… रोने के लिए एक अलग जाति की औरतें होती हैं, जो इन्हीं मौकों पर बुलाई जाती हैं. न जाने और क्याक्या बताया गया था सुहानी देवी को, पर उसे इन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. ठकुराइन होने का भार उस के लिए कुछ ज्यादा ही था. एक बार जब जेठ की दोपहरी में गरमी से परेशान हो कर सुहानी देवी ने अपने बदन के गहने उतार दिए और एक हलके कपड़े वाली साड़ी पहन ली, तो उस की सास ने कितना डांटा था उसे, ‘‘ये भारी कपड़ेलत्ते तो हम ठकुराइनों की शान हैं. इन्हें जीतेजी अपने बदन से अलग नहीं करते… दोष होता है.’’

सुहानी देवी अब इन भारी गहनों और कपड़ों को हमेशा ही ढोती रहती, पर ये भारीभारी गहने और सोने के तार वाली साडि़यों से भी ज्यादा कीमती कुछ और भी था, जिसे सुहानी ढूंढ़ रही थी. अभी तो सुहानी देवी का जवान दिल प्यार चाहता था… घंटों अपने पति के बाहुपाश में लिपटने की चाहत थी उस की. उस का मन अभी आकाश में बिना किसी बंधन के उड़ना चाहता था. ठाकुर भवानी सिंह कभीकभी तो पूरी रात घर से बाहर रहते, तो कभीकभार देर रात ही आते और आते ही औंधे मुंह बिस्तर पर गिर जाते. पूरे महीने में 4-5 ही ऐसे दिन होते, जब वे घर में रुकते, नहीं तो उन की हर रात बाहर ही गुजरती थी. कभीकभार दबी जबान से सुहानी देवी ने पूछने की कोशिश भी की, तो ठाकुर साहब ने खुद के ठाकुर होने का दावा कर के बात आईगई कर दी. ठाकुर भवानी सिंह सुहानी देवी को बिस्तर पर प्यार करना भी जानते थे, पर उन के लिए सिर्फ अपनी संतुष्टि ही माने रखती थी. सुहानी देवी को मजा मिला या नहीं,

इस बात से उन को कोई मतलब नहीं होता था. वे तो बिस्तर पर भी ठाकुर ही बने रहते थे. सुहानी देवी अपने पति से बात करना चाहती थी और आने वाले भविष्य को ले कर कुछ योजनाएं भी बनाना चाहती थी, पर कड़क स्वभाव वाले ठाकुर के साथ ऐसा हो नहीं पाता था. यों तो हवेली में नौकरचाकर भी थे, पर वे सब सुहानी देवी की सास की चमचागीरी और तीमारदारी में ही लगे रहते थे. सुहानी देवी किसी से बात करने को भी तरसती थी. एक रात को जब ठाकुर भवानी सिंह वापस लौटे तो काफी नशे में थे और मूड भी अच्छा लग रहा था, तो सुहानी देवी ने उन से पूछ ही लिया, ‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि रोज इतनी रात तक आप बाहर रहते हो… आखिर आप जाते कहां हो?’’ सुहानी देवी की बात सुन कर ठाकुर मुसकराने लगे और बोले, ‘‘देखो सुहानी, हमारे बापदादा की किसी जमाने में तूती बोलती थी और हमारी हवेली पर औरतों का नाच होता था, हमारे बापदादा जिस औरत पर उंगली रखते वही औरत उन के बिस्तर पर बिछ जाती थी,

पर अब हमारी ठकुराई तो रही नहीं, हम बस नाम के ठाकुर हैं, पर हमारे शौक तो वही पुराने हैं,’’ ठाकुर भवानी सिंह ने पानी का एक बड़ा घूंट भरा और फिर से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘हम अपने उसी शौक को पूरा करने के लिए शहर में जाते हैं.’’ ‘‘तो क्या आप औरतों का नाच देखने जाते हैं?’’ सुहानी देवी ने पूछा. ‘‘नहीं रे पगली, शहर में रैडलाइट एरिया नाम की एक जगह है, जहां पर पैसे दे कर औरतों के साथ मजे किए जाते हैं. हम वहीं पर मन बहलाने के लिए जाते हैं,’’ आखिरी शब्द कहतेकहते ठाकुर साहब पर नींद हावी हो गई थी और वे सोने लगे, पर सुहानी देवी की आंखों से तो नींद कोसों दूर जा चुकी थी. ‘‘तो इस का मतलब है कि ठाकुर की नजर में मेरी कोई अहमियत नहीं है… मैं बस उन की झूठी परंपराओं और सड़ेगले रीतिरिवाजों को निभाने के लिए यहां लाई गई हूं…’’ सुहानी देवी अपनेआप से ही कई सवाल करने लगी थी. वह सारी रात करवट बदलती रही थी. अगले दिन सुहानी देवी का सिर भारी सा था और मन भी उचटा सा लग रहा था. वह अपनी छत के कोने पर खड़ी दूर तक निहारने लगी थी कि उस की नजर घर के आंगन में खड़े एक नौजवान पर पड़ी, जिस की उम्र 22-23 साल की रही होगी. वह नौजवान ठाकुर साहब की पसंदीदा गाय कालिंदी को पकड़ कर खींच रहा था,

करमवती- भाग 3 : राजपाल प्लंबर कहा गिरा था

उस ने ओपन यूनिवर्सिटी से 2 साल में बीऐड भी कर लिया. जिस दिन उस का बीऐड का नतीजा आया, उस दिन मैं ने खुशी से महल्ले में मिठाई बांटी. उस की कामयाबी मेरी कामयाबी थी. ‘‘करमवती के स्कूल की प्रबंधन समिति ने उस से पहले ही बोल दिया था कि अगर उस ने बीऐड कर लिया, तो वे उस की नियुक्ति प्रवक्ता के पद पर कर देंगे और इंटर की क्लास पढ़ाने के लिए दे देंगे.

उस का यह सपना भी पूरा हो गया. उसी दिन हम ने अपने मकान की बुनियाद रख दी और कुछ महीने बाद उस में शिफ्ट हो गए.’’ ‘‘बड़े कमाल की कहानी है राजपाल तुम्हारी. शराब पीते रहते तो कहीं गटर में होते या फिर किसी हादसे का शिकार हो जाते. करमवती ने तुम्हें दोनों ही चीजों से बचा लिया.’’ ‘‘बाबूजी, अभी मैं ने आप को नाली में पड़े होने से ले कर अब तक 13 साल की कहानी सुनाई है. अभी और भी साल बाकी हैं. कहो तो वह भी सुना दूं.’’ मैं ने कहा, ‘‘जरूर सुनाओ. ऐसी कामयाबी की कहानी कौन नहीं सुनना चाहेगा.’’ ‘‘बाबूजी, करमवती ने निश्चय किया कि वह सरकारी नौकरी करेगी.

2 साल उस ने कड़ी मेहनत की. किताब बाद में लाती, चट पहले कर जाती. फिर पता क्या हुआ बाबूजी?’’ ‘‘क्या हुआ राजपाल? बताओ.’’ ‘‘पिछले महीने उसे सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र मिला. धामपुर के बालिका कालेज में वह प्रवक्ता हो गई. बाबूजी, 30,000 की पगार से 70,000 की पगार पर,’’ यह कहतेकहते राजपाल भावुक हो गया. उस के औजार रुक गए. वह अपने आंसू पोंछने लगा, ‘‘पता है बाबूजी, अब वह क्या कहती है?’’ राजपाल की बात सुन कर अब मैं असमंजस में पड़ गया. किसी फिल्मी कहानी की तरह मैं उस की कहानी सुन रहा था.

मुझे लगा कि किसी फिल्मी कहानी की तरह करमवती कामयाबी के शिखर पर चढ़ कर राजपाल को अपने लायक न समझ कर उसे छोड़ने की बात करने लगी होगी. मैं अब राजपाल के मुंह से बद से बदतर बात सुनने को तैयार था. करमवती मुझे कहानी की खलनायिका नजर आने लगी. मेरी पूरी हमदर्दी राजपाल के साथ थी. मुझे लगा कि उस के आंसू खुशी के नहीं दुख के थे. मैं ने पूछा, ‘‘क्या कहती है अब करमवती? क्या तुम अब उस के लायक नहीं रहे?’’ ‘‘नहीं बाबूजी, आप यहां गलत सोच रहे हैं.’’ फिर उस ने बड़े गर्व से आगे की कहानी सुनाई, ‘‘अब करमवती कहती है कि मुझे अब इन औजारों का थैला उठाने की जरूरत नहीं है. वह कहती है कि वह जल्दी ही मुझे प्लंबरी के सामान की बड़ी सी दुकान खुलवाएगी. उस दुकान से भी बड़ी, जिस दुकान के लालाजी ने आप को मेरे पास भेजा था.

‘‘वह कहती है कि यह तो अभी हमारी नई जिंदगी की शुरुआत?है, आगेआगे देखो क्या होता?है.’’ राजपाल का काम लगभग खत्म होने को था, तभी उस के घर से फोन आया. उस ने बताया कि उस का काम खत्म होने ही वाला है. जब राजपाल का काम खत्म हो गया, तो मैं ने उस का हिसाब कर दिया. तभी घर के सामने एक कार आ कर रुकी. ड्राइविंग सीट पर कोई औरत बैठी थी और पिछली सीट पर 2 बड़े बच्चे. मुझे लगा कि कोई मेहमान आया है. तभी पिछली सीट से बड़ा लड़का नीचे उतरा. उस ने मुझे नमस्ते की और राजपाल का औजारों का थैला हाथ से पकड़ते हुए कहा, ‘‘लाओ पापा, यह मुझे दो.’’ मुझे समझते देर न लगी कि कार किस की है. तभी राजपाल बोला,

‘‘बाबूजी, यही है मेरी करमवती. और ये हैं हमारे बच्चे.’’ करमवती ने कार से उतर कर मुझे नमस्ते की. उस की आंखों में अथाह आत्मविश्वास था. ‘‘करमवती, ये वही बाबूजी हैं, जिन्होंने मुझे नाली में से खींचा था.’’ ‘‘मैं उस बात के लिए आज भी बाबूजी की एहसानमंद हूं,’’ करमवती ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर कहा. ‘‘अच्छा बाबूजी नमस्ते,’’ राजपाल ने कार की अगली सीट पर बैठते हुए कहा. ‘‘नमस्ते,’’ मैं ने कहा. उस के बाद करमवती ने कार आगे बढ़ा दी. मैं हैरानी से उस कार को तब तक आगे बढ़ते देखता रहा, जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई. मैं सोच रहा था, ‘समझदारी और हौसला हो, तो आदमी आसमान छू सकता है. करमवती कामयाबी की मिसाल है.’

करमवती- भाग 2 : राजपाल प्लंबर कहा गिरा था

‘‘मेरी घरवाली करमवती ने जैसेतैसे हाथ जोड़ कर मकान मालिक को मनाया. वह इस शर्त पर राजी हुआ कि अगर उस दिन के बाद मैं शराब पी कर आया, तो वह किसी सूरत में फिर अपने मकान में नहीं रखेगा.’’ ‘‘लेकिन, तुम शराब पीने से बाज तो नहीं आए होगे राजपाल?’’ मैं ने ताना कसा. ‘‘बाबूजी, मैं शर्मिंदा तो बहुत था, लेकिन आप को क्या बताऊं, हम शराबियों को शराब पीने की ऐसी आदत पड़ जाती है कि कितना भी चाहें पीए बिना रहा नहीं जाता. हम मजदूरों की क्या इज्जत और क्या बेइज्जती. लेकिन बाबूजी, करमवती को यह सब बरदाश्त न हुआ…’’

राजपाल काम करता गया और कहानी को आगे बढ़ाता गया. ‘‘अगले दिन मेरी हिम्मत काम पर जाने की नहीं हो रही थी, लेकिन करमवती ने मेरा हौसला बढ़ाया. उस ने एक हाथ में बच्चे को गोद में लिया और दूसरे हाथ में मेरे औजारों का थैला उठाया और कहा, ‘चलो.’ ‘‘मैं उसे ऐसा करते देख हैरान था. मैं ने उस से औजारों वाला थैला ले लिया. लेकिन उस ने काम पर मुझे अकेले न जाने दिया. मेरे लाख मना करने के बावजूद वह मेरे साथ चल दी. ‘‘काम में उस ने मेरी मदद की और शाम को काम निबटा कर मेरे साथ ही घर वापस आई. शराबी दोस्तों से मिलने के उस ने रास्ते बंद कर दिए. ‘‘वह अब रोज मेरे साथ काम पर जाने लगी. काम में वह मेरी पूरी मदद करती. अब मेरा 8 घंटे का काम 5-6 घंटे में निबटने लगा. इस से मैं ने अपना काम और बढ़ा लिया, जिस से मेरी आमदनी बढ़ने लगी. ‘

‘आप को तो मालूम होगा ही बाबूजी कि हम मजदूर तबके के लोग शाम को मजदूरी करने के बाद थकान मिटाने के बहाने शराब पीने बैठ जाते हैं और फिर पीने की कोई हद नहीं होती. दिनभर की कमाई मिनटों में स्वाहा हो जाती है. ‘‘कभीकभी तो इस चक्कर में एक पैसा भी घर नहीं पहुंचता, बल्कि कई बार तो उधारी और चढ़ जाती है. लेकिन करमवती के साथ होने से ये सब चीजें बंद हो गईं. ‘‘शराब पीने की फुजुलखर्ची घटी तो बचत अपनेआप बढ़ गई. बचत किसे खुशी नहीं देती. मैं मजदूरी का पैसा करमवती को देता. वह घर चलाती और बचत का पैसा अपने खाते में जमा कर आती. घर में अच्छा खाना, पहनना होने लगा. मेरे शराबी दोस्त मुझे ताना मारते ‘जोरू का गुलाम’, पर मैं एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देता.’’ ‘‘अच्छा, फिर तो करमवती ने तुम्हारी जिंदगी बदल दी, लेकिन आज तुम करमवती को ले कर नहीं आए?’’ मैं ने पूछा. ‘‘बाबूजी, आगे तो सुनिए. अभी तो मेरी कहानी शुरू हुई है. करमवती भी आएगी, जरूर आएगी.’’ राजपाल ने अपनी कहानी फिर आगे बढ़ा दी.

‘‘बाबूजी, करमवती से जब मेरी शादी हुई, तब वह 8वीं पास थी. वह और पढ़ना चाहती थी, लेकिन उस के गरीब मांबाप ने उस की पढ़ाई रोक कर घर के कामकाज में झोंक दिया और फिर उसे मेरे पल्ले बांध दिया. ‘‘फिर वह और 3 साल मेरे साथ ऐसे ही घिसटती रही. तब उस के मन में आगे पढ़ने का विचार आया. उस ने 10वीं का प्राइवेट फार्म भरा और वह अच्छे नंबरों से पास हो गई. हमारा बच्चा भी अब 3 साल का हो गया था और हमारी शादी को 5 साल. ‘‘अब तक मेरी समझ में यह आ गया था कि शराब कितनी बुरी चीज होती?है. हम मजदूरों के लिए तो यह किसी जहर से कम नहीं. ‘‘गरीब मजदूर सोचता है कि वह शराब पी कर अपने दुख मिटा रहा होता है, लेकिन सच तो यह है बाबूजी, शराब पी कर वह अपने दुख बढ़ा रहा होता है. वह शराब पी कर तबाह होता है और गरीबी के नरक में सड़ता है. करमवती की वजह से मैं उस नरक में सड़ने से बच गया.’’ ‘‘राजपाल, तुम्हारी कहानी रोचक है. आगे बताओ, फिर तुम्हारी जिंदगी में क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘बाबूजी, करमवती को अब यकीन हो चला था कि अब मैं शराब नहीं पीऊंगा, तो उस ने मेरे साथ जाना छोड़ छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से हमारी आमदनी और भी बढ़ गई. अब हम ने 2 कमरों का मकान किराए पर ले लिया. एक कमरे में करमवती ट्यूशन पढ़ाती और दूसरे कमरे में हम रहते. ‘‘लेकिन बाबूजी, करमवती का पढ़ाई का शौक अभी छूटा नहीं था. 2 साल में उस ने 12वीं भी पास कर ली. अब उस के पास इतने ट्यूशन हो गए कि घर का खर्चा ट्यूशन की आमदनी से आराम से चलने लगा. मेरी कमाई बैंक में जमा होने लगी. ‘‘ट्यूशन के बच्चों के सामने मुझे बीड़ी पीना अच्छा नहीं लगता था, तो मैं ने वह भी छोड़ दी. चाय की लत भी बहुत बुरी थी. मैं ने ठान लिया और फिर चाय पीना भी छोड़ दिया.’’ ‘‘वाह राजपाल. इतना सुधार, ऐसा निश्चय.’’ ‘‘बाबूजी, बस उस करमवती की करामात है.’’ ‘‘तो अब तो ट्यूशन वगैरह काफी अच्छी चल रही होगी और तुम्हारी बचत भी अच्छी हो रही होगी?’’ राजपाल फिर अपनी जिंदगी की कहानी सुनाने लगा और मैं भी बड़ी दिलचस्पी के साथ मगन हो कर उस की कहानी सुनने लगा. ‘‘फिर करमवती ने पहले बेटे के जन्म के 5 साल बाद एक बेटी को जन्म दिया और फिर नसबंदी करा ली. उस ने कहा,

‘छोटा परिवार, सुखी परिवार. हम इन 2 बच्चों की परवरिश ठीक से करेंगे. और बच्चों की जरूरत नहीं.’ ‘‘बाबूजी, आप भी सुन कर हैरान होंगे, करमवती ने 3 साल में बीए भी कर लिया और वह एक प्राइवेट स्कूल में मास्टरनी हो गई. बाबूजी, पूछो मत. जिस दिन करमवती स्कूल में मास्टरनी हुई, उस दिन मैं खुशी से रो पड़ा था. लोग उस दिन से मुझे ‘मास्टरनी का हसबैंड’ कहने लगे. ‘‘गरीब आदमी की आमदनी में दो पैसे बढ़ जाएं, तो उस से बड़ा सेठ कौन. यहां तो लोग अब इज्जत से भी पेश आने लगे थे.’’ ‘‘अरे वाह, ‘मास्टरनी के हसबैंड’ तुम्हारी करमवती ने तो कमाल ही कर दिया. उस के साथ तुम भी पढ़ लेते,’’ मैं ने कहा. ‘‘बाबूजी, करमवती यहीं नहीं रुकी. उस ने एमए भी पास किया और फिर तो वह इंटर कालेज में पढ़ाने लगी. अब हमारी इतनी बचत हो चुकी थी कि हम ने महल्ले में ही 100 गज का प्लौट खरीद लिया. हमारे बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ने लगे. ‘‘बच्चों को बनठन कर स्कूल जाते देखता, तो मेरा कलेजा खुशी से चौगुना हो जाता. मैं और मेहनत करता. करमवती मेरी मेहनत को सलाम करती, मेरा हौसला बढ़ाती. ‘‘लेकिन बाबूजी, करमवती तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

 

परफैक्ट बैलेंस : नेहा किस बात से कमजोर महसूस कर रही थी

‘‘नेहा बहुत थक गया हूं, एक गरमगरम चाय का कप और प्याज के पकौड़े हो जाएं. जरा जल्दी डार्लिंग,’’ राज ने औफिस से आते ही सोफे पर फैलते हुए कहा.

फीकी सी मुसकान बिखेरते नेहा ने पति को पानी का गिलास दिया और फिर उस के पास ही बैठ गई. फिर थकी सी आवाज में बोली, ‘‘चाय और पकौड़े थोड़ी देर में तैयार करती हूं. आज जल्दीजल्दी नहीं हो सकेगा.’’

‘‘क्यों, सब ठीक तो है?’’ राज की आवाज में खिन्नता साफ थी.

‘‘पिछले कुछ दिनों से थोड़ी कमजोरी महसूस कर रही हूं. थकीथकी सी रहती हूं,’’ पति की खिन्नता को भांप कर नेहा ने अपनी बढ़ती कमजोरी को थोड़ी बातों में समेट दिया था. यही तो वह करती आ रही है कई सालों से. कोई भी समस्या हो वह यथासंभव स्वयं ही सुलझा लेती या फिर हलके से उसे राज के सामने रखती ताकि उसे किसी प्रकार का तनाव न हो. ऐसा करने में नेहा को बहुत खुशी मिलती.

‘‘ठीक है पकौड़े न सही चाय के साथ बिस्कुट तो दे सकती हो मेरी नाजुक रानी,’’ राज ताना मारने से नहीं चूका. फिर नेहा की कमजोरी वाली बात को अनसुना कर फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर बढ़ गया.

नाजुक नेहा के मन रूपी दर्पण पर जैसे किसी ने पत्थर दे मारा हो. कब थी वह नाजुक. 15 सालों की गृहस्थी में उस ने हर छोटेबड़े काम को कुशलता से निभाया था. कब टपटप करता बिगड़ा नल ठीक हो गया, कब पंखा दोबारा चलने लगा, कब बाथरूम की दीवार से रिसता पानी बंद हो गया उस ने राज को पता ही नहीं लगने दिया. बच्चों की देखरेख, पढ़ाईलिखाई, बैंक का काम, कितने ही और घरबाहर से जुड़े काम वह चुपचाप सुचारु रूप से संपन्न करती आ रही थी.

इतना ही नहीं नेहा छोटी कक्षा के 8-10 बच्चों को घर पर ही ट्यूशन भी पढ़ा देती थी. ताकि घर की आमदनी में थोड़ीबहुत वृद्धि हो सके.

पति और अपने बच्चों को प्रसन्न रखने में ही उस ने खुद को भुला दिया था. राज जबजब उसे गुलाबो या झांसी की रानी कह कर छेड़ता तो वह फूली न समाती थी. यही तो उस का प्यारा सा संसार था. यही उस की मनचाही साधना. अपने शौक, अपनी चाहतें सब कुछ उस ने सहर्ष भुला दिए थे. इस बात का नेहा को कभी कोई मलाल नहीं था, कोई गिला नहीं था. पर आज उसे मलाल हुआ कि मेरी कमजोरी, मेरी तकलीफ राज की नजर में कुछ अर्थ नहीं रखती. खुद को ताक पर रख दिया, यही मुझ से गलती हुई.

विचारों की उठतीउफनती लहरों में नेहा ने जैसेतैसे चाय बनाई.

राज फ्रैश हो कर आ गया था. खोईखोई सी नेहा ने उस के सामने चाय और बिस्कुट रख दिए. बस एक रोबोट की तरह यंत्रवत. कहते हैं कि सूखी आंखों से भी आंसू गिरते हैं, पर उन्हें समझने या देखने वाले बिरले ही होते हैं.

‘‘क्या कमाल की चाय बनाई है मेरी गुलाबो ने,’’ चाय की चुसकियां लेते हुए राज ने घाव पर मरहम लगाने की असफल चेष्टा की.

‘गुलाबो, हूं… अब लगे हैं मेरी खुशामद करने. चाय, बिस्कुट मिल गए… मेरी कमजोरी गई भाड़ में. दिल रखने के लिए ही सही कुछ तो पूछते मेरी कमजोरी के बारे में. इन्हें क्या? गलती मेरी ही है जो कभी इन के सामने अपनी तकलीफ नहीं रखी… यही तो सजा मिली है,’ मन ही मन बुदबुदा कर नेहा ने अपनी खीज निकाली.

‘‘नीरू और उमेश कहां हैं?’’ राज के प्रश्न पर नेहा का ध्यान भंग हुआ.

‘‘ट्यूशन वाले बच्चों का कैसा चल रहा है?’’

‘‘अच्छा चल रहा है. उन्हें भी आजकल अधिक समय देना पड़ रहा है. परीक्षा जो नजदीक है,’’ अनमनी सी नेहा बोली.

हर पौधे की तरह मानव हृदय के कोमल पौधे को भी समयसमय पर प्रेमजल से सींचना  पड़ता है, सहृदयता एवं सहानुभूति की खाद को जड़ों में यदाकदा डालना पड़ता है अन्यथा पौधा मुरझा जाता है. विशेषकर नारी का संवेदनशील हृदय जो प्रेम की हलकी सी थाप से छलकछलक जाता है, किंतु अवहेलना की तनिक सी चोट पर मरुस्थल सा शुष्क बन जाता है.

‘‘वह तो है. परीक्षा आ रही है तो समय देना ही पड़ेगा. इतना तो शुक्र है कि घर बैठे ही कमा लेती हो. बाहर नौकरी करती तो आए दिन थक जाती… आनाजाना पड़ता तो पता चलता,’’ घायल मन पर राज ने फिर चोट की.

यह चोट नेहा के लिए असहनीय थी. बोली, ‘‘घर पर ही अंदरबाहर के हजारों काम होते हैं. ये काम आप को दिखते ही नहीं. सब कियाकराया जो मिल जाता है… इतने सालों की गृहस्थी में मैं ने आप पर किसी भी काम का कम से कम बोझ डाला है. इसीलिए मेरी थकान, मेरी कमजोरी आप को पच नहीं रही. आखिर बढ़ती उम्र है… शरीर हमेशा एकजैसा तो नहीं रहता… पर नहीं, मैं तो सदैव गुलाब की तरह खिली रहूं, तरोताजा रहूं… है न?’’ क्रोध और क्षोभ से नेहा की आंखें छलछला आईं.

‘‘अब यह भी क्या बात हुई नाराज होने की? तुम तो मेरी झांसी की रानी हो. कुछ भी कहो आज भी तुम मुझे पहले जैसी गुलाबो ही दिखती हो,’’ राज ने बढ़ती कड़वाहट में मिठास घोलनी चाही.

‘‘रहने दो अपने चोंचले. आप का चैक बैंक में जमा करा दिया था और इंश्योरैंस वाले को फोन कर दिया था,’’ नेहा ने मात्र सूचना दी.

‘‘यह हुई न बात. पढ़ीलिखी, मौडर्न बीवी का कितना सुख होता है. मौडर्न औरत वाकई चुस्त और दुरुस्त होती है.’’

‘‘मौडर्न औरत बेमतलब पिसतीघुटती नहीं है और न ही इतनी मूर्ख कि अपने वजूद को भुला दे चाहे कोई कद्र करे या न करे,’’ नेहा के स्वर तीखे हो चले थे.

‘‘तिल का ताड़ मत बनाओ नेहा. तुम ही एकमात्र स्त्री नहीं हो जो घर और बाहर संभाल रही है. इस बढ़ती महंगाई के युग में हर सजग स्त्री कुछ न कुछ कर के पैसा कमा रही है. घर और परिवार में बैलेंस आजकल की स्त्री को बखूबी आता है. तनिक सूझबूझ से सब हो जाता है,’’ राज ने आग में घी डाल ही दिया.

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं? क्या मुझ में सूझबूझ नहीं? इतने सालों से क्या मैं झकझोर रही हूं? क्या कमी रखी है किसी भी बात में? बैलेंस ही तो करती आ रही हूं अब तक… पर सच ही कहा है कि घर की मुरगी दाल बराबर,’’ नेहा आपे से बाहर हो चुकी थी.

सच सब से गहरे घाव भी उन्हीं से मिलते हैं जिन्हें हम बहुत चाहते हैं. उसी समय नीरू और उमेश आ गए. तूफान थम सा गया. नेहा ने उन्हें नाश्ता कराया. फिर उन्हें पढ़ाने बैठ गई.

वातावरण बोझिल हो चुका था.

‘‘मैं जरा बाहर घूमने जा रहा हूं,’’ कह कर राज बाहर निकल गया.

राज और नेहा की गृहस्थी सुखी और सामान्य थी. थोड़ी बहुत नोकझोंक होती रहती थी. यह सब तो गृहस्थ जीवन का अभिन्न अंग है. बहुत मिठास भी बनावटी लगती है.

नेहा राज को बहुत परिश्रम करता देखती. महीने में 2-3 टूअर भी हो जाते. देर रात तक राज नएनए प्रोजैक्ट पर काम करता. अपने पति पर नेहा को गर्व था. वह राज को प्रसन्न रखने की भरसक कोशिश करती.

सच तो यह था कि दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. लेकिन प्यार करने और दूसरे के मन की गहराई को समझने में काफी अंतर है. दिल महंगी भेंट नहीं मांगता. 2 शब्द प्रेम, प्रशंसा या सहानुभूति के ही पर्याप्त होते हैं. भावनाओं का स्थान भौतिक पदार्थ कमी नहीं ले सकते.

चूंकि नेहा हमेशा खिलीखिली रहती, इसलिए राज को उसे इसी प्रकार देखने की आदत हो चुकी थी. उस ने कभी इस बात को न जाना न समझा कि नेहा हर कार्य को कैसे कुशलतापूर्वक निबटा लेती. बहुत कम ऐसे अवसर आए जब नेहा ने अपनी परेशानी राज को बताई. प्रेमविभोर नेहा से शायद जानेअनजाने यही गलती हो गई थी. आज झगड़े का मूल कारण भी यही था. रात को डिनर के समय पतिपत्नी चुपचाप से थे. अंदर की पीड़ा जो थी सो थी.

बच्चे स्वभावानुसार चहक रहे थे, ‘‘पापा, मम्मी ने आज दमआलू कितने स्वादिष्ठ बनाए हैं,’’ नीरू ने चटकारे लेते हुए कहा.

‘‘हां बेटा, बहुत स्वादिष्ठ बने हैं,’’ राज ने स्वीकार किया.

उमेश भी नेहा को अपनी विज्ञान शिक्षिका और स्कूल की विज्ञान प्रदर्शिनी के बारे में बता रहा था. नेहा भी जैसेतैसे बेटे के उत्साह में भाग ले रही थी.

बच्चों का भोलापन वास्तव में कलकल करते निर्मल शीतल जलप्रपात सा है, जो पतिपत्नी के गिलेशिकवों के जलतेबुझते अंगारों को शांत कर देता है.

डिनर समाप्त हुआ तो बच्चे अपने बैडरूम में चले गए. नेहा ने जल्दी से बचे काम निबटाए और कपड़े बदल कर राज की तरफ पीठ कर के लेट गई. राज लेटेलेटे कुछ पढ़ रहा था. 11 बज रहे थे. नेहा के लेटते ही राज ने बत्ती बुझा दी.

‘‘नाराज हो क्या?’’ राज की आवाज में मलाई जैसी चिकनाहट थी.

नेहा चुप. कांटा बहुत गहरा चुभा था. पीड़ा हो रही थी.

‘‘डार्लिंग कल शाम मैं टूअर पर निकल जाऊंगा. 2-3 दिन के बाद ही आऊंगा. तुम बात नहीं करोगी तो कैसे चलेगा.’’

‘‘मेरा सिर दुख रहा है. आप सो जाएं,’’ नेहा ने टालना चाहा.

‘‘लाओ मैं तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ राज नेहा को मना रहा था.

नेहा अब तक मन ही मन कोई फैसला ले चुकी थी. इसलिए प्रतिकार किए बिना उस ने करवट बदली और राज की ओर देखा. राज ने समझा बिगड़ी बात बनने लगी है. वह नेहा का सिर दबाने लगा.

‘अच्छा है… होने दो सेवा,’ नेहा मन ही मन मुसकराई. मन हलका हुआ तो आंख लग गई. राज भी हलके मन से सो गया.

अगला दिन सामान्य ही रहा. राज औफिस निकल गया. बच्चे स्कूल. नेहा

रोज के कार्यों में व्यस्त हो गई. पर कल रात उस ने जो फैसला लिया था. उसे भूली नहीं थी.

शाम हुई. बच्चे स्कूल से लौटे और राज औफिस से. कुछ खापी कर राज टूअर पर निकल गया. निकलने से पहले नेहा को आलिंगन में लिया. बच्चों को प्यार किया. सब ठीकठाक था. हमेशा की तरह.

3 दिन बाद राज सुबह 9 बजे घर लौटा. बच्चे स्कूल जा चुके थे. नेहा ने हंसते हुए स्वागत किया, ‘‘आप नहाधो लें. तब तक मैं नाश्ता तैयार करती हूं,’’

राज को लगा सब पहले जैसा नौर्मल है. दिल को सुकून मिला.

राज जैसे ही तरोताजा हुआ नेहा ने उस के सामने गरमगरम चाय और प्याज के पकौड़े रख दिए. साथ में पुदीने की चटनी.

‘‘मैं जानता था मेरी गुलाबो कभी बदल नहीं सकती,’’ राज बहुत खुश था.

‘‘कैसा रहा आप का टूअर?’’

‘‘अच्छा रहा. बहुत काम करना पड़ा पर मैं संतुष्ट हूं.’’

‘‘औफिस कितने बजे जाना है?’’

‘‘दोपहर 3 बजे निकलना है. थोड़ा आराम करूंगा. तुम अपनी कहो. क्याक्या किया इन 3 दिनों में?’’ राज ने पकौड़ों का आनंद लेते हुए उत्सुकता से नेहा की ओर देखा.

‘‘बहुत कुछ किया,’’ नेहा के चेहरे पर रहस्यमयी मुसकान थी.

‘‘बताओ तो सही.’’

‘‘एक स्कूल में इंटरव्यू दे कर आई हूं. पार्टटाइम जौब है. छठी और 7वीं कक्षा के बच्चों को अंगरेजी और समाजशास्त्र पढ़ाना है. मेरी ही पसंद के विषय हैं.’’

‘‘इंटरव्यू… यह सब क्या है,’’ राज सकपका गया.

‘‘हां डार्लिंग इंटरव्यू. नौकरी लगभग तय है. अगले महीने से जाना होगा. मेरी 1-2 सहेलियां भी वहां पढ़ा रही हैं. वेतन भी अच्छा है. मेरी सहेली ने ही मेरी सिफारिश की थी. अत: बात बन गई,’’ नेहा ने डट कर अपनी बात कह डाली. वह जानती थी कि राज को यह बात अच्छी नहीं लगेगी. लगे न लगे पर अब पता चलेगा कि परफैक्ट बैलेंस रखना क्या होता है.

‘‘अचानक यह नौकरी की क्या सूझी?’’ राज हैरान और खिन्न था.

‘‘अब इस में सूझने की क्या बात है?

जब हर आधुनिक स्त्री नौकरी कर रही है तो फिर मैं क्यों नहीं,’’ नेहा ने चटनी के चटखारे लेते हुए कहा.

‘‘तुम्हें मेरी उस दिन की बात बुरी लग गई?’’

‘‘बिलकुल नहीं. आप ठीक कहते थे. बैलेंस करने की ही तो बात है,’’ नेहा को मजा आ रहा था.

‘‘तुम्हारी कमजोरी… थकावट का क्या… सेहत भी देखनी पड़ती है.’’

‘‘भई कमाल है. आज आप को मेरी सेहत की बहुत चिंता होने लगी. पर सुन कर अच्छा लगा. चिंता न करें यह सब तो चलता ही है.’’

‘‘नेहा, बात उड़ाओ मत. मैं सीरियस हूं,’’ राज परेशान हो उठा.

‘‘धीरज रखें. मैं डाक्टर से मिल कर आई हूं. ब्लड टैस्ट की रिपोर्ट भी आ गई है.

सब ठीक है हीमोग्लोबिन कम है. डाक्टर की बताई दवा लेनी शुरू कर दी है और खानपान भी डाक्टर के निर्देशानुसार ले रही हूं.’’

‘‘और तुम्हारी ट्यूशनें?’’

‘‘पार्टटाइम नौकरी है. दोपहर 12:30 बजे तक लौट आऊंगी. ट्यूशन तो 3 बजे शुरू होती है. वह भी सप्ताह में 4 बार. महरी फुलटाइम सुबह से शाम तक आ जाया करेगी. बच्चे तो शाम 5 बजे तक ही लौटते हैं. स्कूल मुझे सप्ताह में 5 दिन ही जाना है. शनिर विवार छुट्टी. सब बैलेंस हो जाएगा,’’ नेहा मोरचे पर डटी थी.

‘‘तुम जानती हो अगले महीने बड़े भाईसाहब और भाभी आ रहे हैं,’’ राज ने हारे सिपाही के स्वर में कहा.

‘‘यह तो और भी अच्छी बात है. भाभीजी तो बहुत सुघड़ हैं. मेरी बहुत मदद हो जाएगी. वे भी थोड़ीबहुत घर की देखभाल कर लेंगी और भाईसाहब बच्चों को गणित और विज्ञान पढ़ा दिया करेंगे. इन विषयों में तो वे माहिर हैं,’’ नेहा आज घुटने टेकने वाली नहीं थी.

‘‘तो तुम ने नौकरी करने का निश्चय कर ही लिया है,’’ राज ने हथियार डाल दिए.

‘‘बिलकुल. आप देखना आप की झांसी की रानी घरबाहर को कैसा बैलेंस करती है. आप से ही तो मुझे प्रेरणा मिली है. खैर, छोडि़ए इन बातों को. आप थके हुए हैं. आओ सिर में तेल की मालिश कर देती हूं. आराम मिलेगा,’’ नेहा चाश्नी से सने तीर छोड़ रही थी.

‘‘लंच में क्या है?’’

‘‘सब आप की मनपसंद की चीजें.

लौकी के कोफ्ते, बैगन का भरता और मीठे में बासमती चावल की खीर. आया न मुंह में पानी?’’

‘‘हांहां, ठीक है,’’ राज निरुत्तर हो चुका था.

कहना न होगा कि नेहा परफैक्ट बैलेंस का अंदाज सीख चुकी थी.

सुलझे लोग : शिशिर आजीवन अविवाहित क्यों रहना चाहता था

सड़क दुर्घटना में हुई मिहिर की आकस्मिक मृत्यु ने सपना के परिवार को बुरी तरह झकझोर दिया था. सब से ज्यादा फिक्र सब लोगों को सपना को ले कर थी. बी.ए. की परीक्षा के तुरंत बाद सपना की सास ने सपना को एक शादी में देख कर अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया था और शादी के लिए जल्दी मचा दी थी. सपना के घर वालों ने कहा भी था कि सपना को कोई प्रोफैशनल कोर्स कर लेने दें लेकिन उस की सास ने बड़े दर्प से कहा था, ‘‘हमारे घर की बहू को कभी नौकरी नहीं करनी पड़ेगी. मिहिर सरकारी प्रतिष्ठान में इंजीनियर है, अच्छी तनख्वाह पाता है. घरपरिवार की उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं है. वकील बाप ने बढि़या कोठी बनवा ही दी है, इतना कैश भी छोड़ ही जाएंगे कि दोनों बेटे अपने बच्चों को अच्छा भविष्य दे सकें.’’

उन की बात गलत भी नहीं थी. सपना मिहिर के साथ बहुत खुश थी, पैसे की तो खैर, कमी थी ही नहीं. लेकिन शादी के 7 साल ही के बाद मिहिर उसे 2 बच्चों के साथ यों छोड़ कर चला जाएगा, यह किसी ने नहीं सोचा था. वैसे सपना के सासससुर का व्यवहार उस के साथ बहुत स्नेहपूर्ण और संवेदनशील था. सपना के भाई और पिता आश्वस्त थे कि उस का देवर और सासससुर उस का और बच्चों का पूरा खयाल रखेंगे, मगर सपना की चाची का कहना था कि यह सब मुंह देखी बातें हैं. हम लोगों को अभी सब बातें साफ कर लेनी चाहिए और उठावनी होते ही उन्होंने सपना की मां से कहा कि वह उस की सास से पूछें कि सपना अब कहां रहेगी?

‘‘हमारे साथ दिल्ली में रहेगी, बच्चों की छुट्टियों में आप लोगों के पास मेरठ आ जाया करेगी. मिहिर की बरसी के बाद उस के लिए उपयुक्त घरवर देखना शुरू करेंगे,’’ सास का स्वर कोशिश करने के बावजूद भी भर्रा गया.

‘‘आजकल कुंआरी लड़कियों के लिए तो उपयुक्त घरवर मिलते नहीं, बहनजी, सपना बेचारी के तो 2 बच्चे हैं,’’ चाची बोलीं.

‘‘मनोयोग से चेष्टा करने पर सब मिल जाता है, बहनजी. कोई न कोई विकल्प तो तलाशना ही होगा, क्योंकि सपना को हम ने न तो कभी बेचारी कहलवाना है, न ही उसे एक बेवा की निरीह और बोसीदा जिंदगी जीने देना है,’’ उस की सास ने दृढ़ स्वर में कहा और सपना की मां की ओर मुड़ीं, ‘‘फिलहाल तो हमें यह सोचना है कि अभी सपना के पास कौन रहेगा, आप या मैं? खैर, कोई जल्दी नहीं है, रिश्तेदारों के जाने के बाद तय कर लेंगे.’’

सब ने यही मुनासिब समझा कि सपना की मां उस के साथ रहे. सपना का देवर शिशिर नागपुर के एक कालेज में व्याख्याता था. वह हर दूसरे सप्ताहांत में आ जाता था. उस के आने से बच्चे तो खुश होते ही थे, सपना भी उस की पसंद का खाना बनाने में रुचि लेती थी. देवरभाभी में थोड़ी नोकझोंक भी हो जाती थी. शिशिर उम्र में सपना से कुछ महीने बड़ा था. कहता तो भाभी ही था लेकिन व्यवहार दोस्ती का था.

‘‘तुम्हारे आने से सब का दिल बहल जाता है, शिशिर, लेकिन तुम्हारी छुट्टियां खराब हो जाती हैं,’’ सपना की मां ने कहा.‘‘यहां आ कर मेरी छुट्टियां भी मजे से गुजर जाती हैं, मांजी. वहां छुट्टी के दिन सोने या पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करता.’’‘‘दोस्तों के साथ समय नहीं गुजारते?’’

‘‘दोस्त हैं ही नहीं. पीएच.डी. करने के दौरान खानेसोने का समय ही नहीं मिला. जो दोस्त थे उन से भी संपर्क नहीं रहा और लड़कियां तो मांजी मुझ जैसे पुस्तक प्रेमी की ओर देखतीं भी नहीं,’’ शिशिर हंसा.

‘‘अब तो पीएच.डी. कर ली है, इसलिए दोस्त बनाओ.’’‘‘बनाऊंगा मांजी, मगर दिल्ली जा कर. मैं बंटीबन्नी के साथ रहने के लिए दिल्ली में नौकरी की कोशिश कर रहा हूं, उम्मीद है जल्दी ही मिल जाएगी,’’ शिशिर ने बताया.बच्चों की परीक्षा होने तक सपना भी संभल चुकी थी और बड़ी शांति से अपनी गृहस्थी को समेट रही थी. शिशिर को भी दिल्ली में नौकरी मिल गई थी. जब सपना की मां मेरठ लौट कर आई तो वह सपना की ओर से पूर्णतया निश्चिंत थी. सब के पूछने पर उस ने बताया, ‘‘मिहिर को तो वे वापस नहीं ला सकते, मगर ससुराल वाले बहुत सुलझे हुए लोग हैं और इसी कोशिश में रहते हैं कि सपना को हर तरह सुखी रखें. देवर ने भी बच्चों के साथ रहने की खातिर दिल्ली में नौकरी ढूंढ़ ली है.’’

‘‘बच्चों के साथ रहने को या यह देखने को कि कहीं सारी कोठी पर सपना का कब्जा न हो जाए,’’ चाची ने मुंह बिचकाया.‘‘चलो, इसीलिए सही, पर उस के रहने से हमारी बेटी और बच्चों का मन तो बहला रहेगा,’’ मां ने कहा.

‘‘तब तक जब तक उस की शादी नहीं होती. अपना घरसंसार बसाने के बाद कौन भाई के उजड़े चमन को सींचने आता है. मेरी मानो, तुम उन लोगों की बातों में न आ कर सपना के सासससुर से कहो कि वे उसे कोई अच्छा सा बिजनेस करा दें. उस का दिल भी लगा रहेगा और निजी आमदनी भी हो जाएगी,’’ चाची ने सलाह दी.

‘‘मगर सपना को तो बिजनेस का क ख ग भी नहीं मालूम,’’ मां ने कहा.‘‘सपना को न सही, जतिन को तो मालूम है. एम.बी.ए. कर रहा है, बहन की मदद करने को नौकरी के बजाय उस के साथ काम कर लेगा,’’ चाची बोलीं.

एक बार मेरठ आने पर जब वह सब को बता रही थी कि उसे आशंका थी कि भोपाल में पलेबढ़े बच्चे दिल्ली के बच्चों के साथ शायद न चल सकें, मगर बंटी और बन्नी ने तो बड़ी आसानी से नए परिवेश को अपना लिया है तो चाची ने पूछा, ‘‘लेकिन इन्हें संवारने के चक्कर में तुम ने अपने लिए भी कुछ सोचा है या नहीं?’’‘‘मेरा सर्वस्व या जीवन तो अब ये बच्चे ही हैं, चाची. इन का भविष्य संवारने के अलावा मुझे और क्या सोचना है?’’

इस से पहले कि चाची कुछ और बोलती, बच्चों ने आ कर कहा कि वे वापस दिल्ली जाना चाहते हैं. चाची की वजह पूछने पर बोले, ‘‘यहां हमारा दिल नहीं लग रहा. दिल्ली में तो चाचा के साथ छुट्टी के रोज सुबह घुड़सवारी करने जाते हैं और टैनिस तो रोज ही शाम को खेलते हैं. हम ने चाचा को भी फोन किया था. उन का भी दिल नहीं लग रहा. कहते थे, मम्मी से पूछ लो, अगर वे कहती हैं, तो मैं अभी लेने आ जाता हूं, आप क्या कहती हैं, मम्मी?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे चाचा को उदास तो कर नहीं सकती. इसलिए चलो, ड्राइवर से कहो, हमें छोड़ आएगा.’’लेकिन तब तक बन्नी ने शिशिर को आने के लिए फोन कर दिया. शिशिर के आने से बच्चे बहुत खुश हुए.‘‘बाप की कमी महसूस नहीं होने देता बच्चों को,’’ सब के जाने के बाद सपना के पिता ने कहा.

‘‘जब तक अपनी शादी नहीं हो जाती, भाई साहब. हमें शिशिर की शादी अपने परिवार की लड़की से करवानी चाहिए ताकि अगर वह सपना को कुछ तकलीफ दे तो हम उस की लगाम तो कस सकें,’’ चाची बोलीं.‘‘मगर अपने परिवार में लड़कियां हैं ही कहां?’’‘‘मेरे पीहर में हैं. मैं देखती हूं,’’ चाची ने बड़े इतमीनान से कहा.मिहिर की बरसी के कुछ दिन बाद ही चाची अपनी भांजी का रिश्ता शिशिर के लिए ले कर सपना की ससुराल पहुंच गईं.

‘‘अब घर में कुछ खुशी भी आनी चाहिए.’’‘‘जरूर आएगी, बहनजी, लेकिन पहले सपना की जिंदगी में,’’ सपना की सास ने कहा, ‘‘उसे व्यवस्थित करने के बाद ही हम शिशिर के बारे में सोचेंगे.’’‘‘व्यवस्थित करने वाली बात आप सही कह रही हैं. सपना को कोई बिजनेस करा दीजिए. मेरे बेटे ने अभी एम.बी.ए. किया है, वह सपना के अनुकूल अच्छा प्रोजैक्ट सुझा सकता है,’’ चाची उत्साह से बोलीं.

‘‘सपना को रोजीरोटी कमाने की कोई मुसीबत नहीं है. मिहिर ही उस के लिए बहुत कुछ छोड़ गया है और ससुर भी बहुत कमा रहे हैं. लेकिन जीने के लिए पैसा ही सब कुछ नहीं होता. मैं ने पहले भी कहा था कि हम लोग सपना को बेवा की बोसीदा जिंदगीज्यादा दिन तक नहीं जीने देंगे. आप लोगों को उस की फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ न चाहते हुए भी सपना की सास का स्वर तल्ख हो गया था.

‘‘मगर सपना ने तो बच्चों को अपना सर्वस्व बना लिया है. वह उन की जिम्मेदारी किसी अनजान आदमी से बांटने या शादी करने को तैयार नहीं होगी.’’सपना की सास कुछ सोचने लगी, ‘‘कहती तो आप सही हैं. फिर भी सपना को अब मैं ज्यादा रोज तक उदास या सादे लिबास में नहीं देख सकती. कोई न कोई विकल्प तो खोजना ही होगा,’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.

चाची ने उस की ओर देखा. हमेशा ठसके से सजीसंवरी रहने वाली सपना की सास सादी सी शिफौन की साड़ी पहने थी.‘अगर बहू बेवा की वेशभूषा में रही तो तुम्हार सिंगारपिटार कैसे होगा, महारानी,’ चाची ने विद्रूपता से सोचा.अगले सप्ताहांत सपना के ससुर ने सपना के पिता को फोन किया कि वे उन लोगों से कुछ विचारविमर्श करना चाहते हैं, इसलिए क्या वह सपरिवार दिल्ली आ सकते हैं?

‘‘मुझे पता है क्या विचारविमर्श करेंगे,’’ चाची ने हाथ नचा कर कहा, ‘‘सपना शादी के लिए तैयार नहीं हो रही होगी, इसलिए चाहते होंगे कि हम उसे अपने पास रख लें ताकि उस की सास फिर सजसंवर सके.’’‘‘सपना की ससुराल वाले बड़े सुलझे हुए लोग हैं, वे ऐसा सोच भी नहीं सकते. हमें उन की बात सुनने से पहले न अटकल लगानी है, न सलाह देनी है,’’ सपना के पिता ने कहा.

शिशिर और सपना के सासससुर तो सामान्य लग रहे थे, मगर सपना कुछ अनमनी सी थी.‘‘जैसा कि मैं ने आप को पहले बताया था, हम लोग सपना का पूर्ण विवाह करना चाहते हैं,’’ सपना की सास ने कहते हुए चाची की ओर देखा.‘‘और इन्होंने ठीक सोचा था कि सपना अपने बच्चों की जिम्मेदारी किसी और के साथ बांटने को तैयार नहीं होगी. सपना ही नहीं, शिशिर भी बन्नीबंटी की जिम्मेदारी किसी गैर को सौंपने को तैयार नहीं है.’’

‘‘शिशिर का कहना है कि वह आजीवन उन्हें संभालेगा और अविवाहित रहेगा, क्योंकि बीवी को उस का दिवंगत भाई के बच्चों पर जान छिड़कना पसंद नहीं आएगा,’’ सपना के ससुर बोले, ‘‘मैं भी उस के विचारों से सहमत हूं, क्योंकि एक अतिरिक्त परिवार की जिम्मेदारी संभालने वाले व्यक्ति का अपना विवाहित जीवन तो कदापि सुखद नहीं हो सकता, वैसे भी शिशिर को लड़कियों या शादी में कोई दिलचस्पी नहीं है.’’

‘‘मगर शादी से एतराज भी नहीं है, अगर सपना से हो तो,’’ सपना की सास ने कहा. ‘‘दोनों ही बच्चों को किसी तीसरे से बांटना नहीं चाहते और उन की परवरिश में जिंदगी गुजारने को कटिबद्ध हैं. जब तक बच्चे छोटे हैं तब तक तो ठीक है, मगर जब ये समझने लायक होंगे कि लोग उन की मां और चाचा को ले कर क्या कहते हैं, तब सोचिए, उन पर क्या बीतेगी? वैसे लोग तो कहेंगे ही, उन का मुंह बंद करने का तो एक ही तरीका है, शिशिर और सपना की शादी. मगर उस के लिए सपना नहीं मान रही.’’

‘‘मगर क्यों? शिशिर में कोई कमी तो है नहीं,’’ सपना की मां ने कहा.‘‘इसीलिए तो मैं उस से शादी नहींकरना चाहती, मां. उसे एक से बढि़या एक कुंआरी लड़की मिल सकती है, तो फिर वह 2 बच्चों की मां से शादी क्यों करे?’’ सपना ने पूछा.‘‘इसलिए सपना कि वे दोनों बच्चे मेरी जिंदगी का अभिन्न अंग हैं, जिन्हें सिर्फ तुम स्वीकार कर सकती हो, कोई कुंआरी लड़की नहीं,’’ शिशिर ने किसी के बोलने से पहले कहा.

‘‘एक बात और सपना, मैं किसी मजबूरी या दयावश तुम से शादी नहीं कर रहा बल्कि इसलिए कि जब शादी करनी ही है तो किसी अनजान लड़की के बजाय जानीपहचानी तुम बेहतर रहोगी. तुम्हें ले कर मेरे मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है, मैं ने तुम्हें भाभी जरूर कहा है लेकिन देखा एक दोस्त की नजर से ही है.’’

‘‘और दोस्त तो अकसर शादी कर लेते हैं,’’ सपना का भाई सुनील बोला.‘‘खुद हिम्मत न करें तो दोस्त बढ़ कर करवा देते हैं, यार,’’ शिशिर हंसा.‘‘तो तुम्हारी शादी हम करवा देते हैं,’’ सुनील भी हंसा.‘‘मगर सपना माने तब न. उसे बेकार का वहम यह भी है कि उसे सुहाग का सुख है ही नहीं, तभी मिहिर की असमय मृत्यु हो गई.’’

‘‘जब उस के घर वाले मान गए हैं तो सपना भी मान जाएगी,’’ सपना के ससुर बोले. ‘‘उस की यह शंका कि दूसरी शादी कर के वह मिहिर की यादों के साथ बेवफाई कर रही है, मैं दूर कर देता हूं. मिहिर तुम्हें बच्चों की जिम्मेदारी सौंप कर गया है, जो तुम अकेले तो निभा नहीं सकतीं. हम तुम्हारा पूर्ण विवाह करना तो चाहते थे लेकिन साथ ही यह सोच कर भी विह्वल हो जाते थे कि किसी अनजान आदमी को अपने मिहिर की निशानियां कैसे सौंपेंगे? लेकिन शिशिर के साथ ऐसी कोई परेशानी नहीं है. दूसरे, मिहिर की जितनी आयु थी वह उतनी जी कर मरा है. शिशिर की जितनी आयु है, वह तुम से शादी करे या न करे, उतनी ही जिएगा और कोई शंका या एतराज?’’

‘‘नहीं, पापाजी,’’ सपना ने सिर झुका कर कहा लेकिन उस के रक्तिम होते गाल बहुत कुछ कह गए.‘‘आप ठीक कहते थे, भाई साहब, सपना के ससुराल वाले बहुत सुलझे हुए लोग हैं,’’ चाची के स्वर में अपनी हार के बावजूद भी उल्लास था.

उपहार : कौन थी क्षमा जिस ने रविकांत के जीवन में बहार ला दी   

अपने पहले एकतरफा प्रेम का प्रतिकार रविकांत केवल ‘न’ मेें ही पा सका. उस की कांती तो मां-बाप के ढूंढ़े हुए लड़के आशुतोष के साथ विवाह कर जरमनी चली गई. वह बिखर गया. विवाह न करने की ठान ली. मांबाप अपने बेटे को कहते समझाते 4 साल के अंदर दिवंगत हो गए.

कांती के साथ कौलेज में बिताए हुए दिनों की यादें भुलाए नहीं भूलती थीं. यह जानते हुए भी कि वह निर्मोही किसी और की हो कर दूर चली गई है वह अपने मन को उस से दूर नहीं कर पा रहा था. कालिज की 4 सालों की दोस्ती मेें वह उसे अपना दिल दे बैठा था. कई बार कोशिश करने के बाद रविकांत ने बड़ी कठिनाई से सकुचाते झिझकते एक दिन कांती से कहा था, ‘मैं तुम से प्रेम करने लगा हूं और तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में पा कर अपने को धन्य समझूंगा.’

जवाब में कांती ने कहा था, ‘रवि, मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं और इसी नाते से मैं तुम से मिलती जुलती रही. मैं तुम से उस तरह का प्रेम नहीं करती हूं कि मैं तुम्हारी जीवनसंगिनी बनूं. रही विवाह की बात, तो मैं तुम्हें यह भी बता देती हूं कि मैं शादी तो अपने मां-बाप की मर्जी और उन के ढूंढ़े हुए लड़के से ही करूंगी. अब चूंकि तुम्हारे विचार मेरे प्रति दोस्ती से बढ़ कर दूसरा रुख ले रहे हैं, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम भविष्य में मुझ से मिलना-जुलना छोड़ दो और हम दोनों की दोस्ती को यहीं खत्म समझो.’

उस के बाद कांती फिर कभी रविकांत से नहीं मिली. रविकांत भी यह साहस नहीं कर सका कि उस के मातापिता से मिल कर कांती का हाथ उन से मांगता क्योेंकि उस आखिरी मुलाकात  के दिन उसे कांती की आंखों में प्यार तो दूर सहानुभूति तक नजर नहीं आई थी.

रविकांत ने खुद को प्रेम में असफल समझ कर जिंदगी को बेमानी, बेकार और बेरौनक मान लिया. ऐसे में अधिकतर लोग कठिनाइयों और असफलताओं से घबरा कर खुद को कमजोर समझ अपना आत्मविश्वास और उत्साह खो बैठते हैं.

रविकांत अब 50 पार कर चुके हैं. उन के कनपटी के बाल सफेद हो चुके हैं. आंखों पर चश्मा लग गया  है. इतने सालों तक एक ही कंपनी की सेवा में पूरी निष्ठा से लगे रहे तो अब वह जनरल मैनेजर बन गए हैं.

कंपनी से मिले हुए उन के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही शोभना नाम की एक महिला अपनी 24 साल की बेटी क्षमा के साथ किराए पर रहने के लिए आई.

क्षमा अपनी मां की ही तरह अत्यंत सुंदर और हंसमुख लड़की थी. वह जब भी रविकांत के सामने पड़ती ‘अंकल नमस्ते’ कहना और उन्हें एक मुसकराहट देना कभी नहीं भूलती. रविकांत भी ‘हैलो, कैसी हो बेटी’ कहते और उस के उत्तर में वह ‘थैंक यू’ कहती. क्षमा एम.एससी. कर के 2 वर्ष का कंप्यूटर कोर्स कर रही थी. इधर कई दिनों से रविकांत को न देख कर उस ने उन के नौकर से पूछा तो पता चला कि वह तो कई दिनों से बीमार हैं और नर्सिंग होम में भरती हैं. नौकर से नर्सिंग होम का पता पूछ कर क्षमा उसी शाम उन से मिलने नर्सिंग होम पहुंची.

क्षमा को देख कर रविकांत बेहद खुश हुए पर क्षमा ने पहले तो इस बात का गुस्सा दिखाया कि इतने दिनों से बीमार होने पर भी उन्होंने उसे खबर क्यों नहीं दी. वह तो हमेशा की तरह यही सोचती रही कि आप कहीं ‘टूर’ पर गए होंगे. क्षमा की झिड़की वह चुपचाप सुनते रहे. मन में उन्हें अच्छा लगा. क्षमा काफी देर तक उन के पास बैठी उन का हालचाल पूछती रही.

रविकांत ने जब बताया कि अब वह ठीक हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी मिल जाएगी तभी उस की प्रश्नावली रुकी. घर वापस लौटते समय वह उन्हें जल्दी से अच्छे होने की शुभकामना देना नहीं भूली.

क्षमा अब रोज शाम को रविकांत को देखने नर्सिंग होम जाती. रविकांत का भी मन बहल जाता था. वह बड़ी बेसब्री से उस के आने की प्रतीक्षा करते. उस के आने पर वे दोनों विभिन्न विषयों पर बहस करते और हंसते हुए बातचीत करते रहते. 2 घंटे कितनी जल्दी गुजर जाते पता ही नहीं लगता.

जिस दिन रविकांत को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली, क्षमा उन्हें अपने साथ ले कर उन के फ्लैट पर आई. अगले दिन रविकांत अपनी ड्यूटी पर जाने लगे तो क्षमा ने यह कह कर जाने नहीं दिया कि आप आज आराम करें और फिर कल तरोताजा हो कर काम पर जाएं.

अगले दिन शाम को जब रविकांत देर से वापस लौटे तो उन के आने की आहट सुन उस ने दरवाजा खोला. नमस्ते की. साथ ही देर करने का उलाहना भी दिया.

सप्ताह में 1-2 बार क्षमा उन के बुलाने पर या खुद ही उन के फ्लैट में जा कर घंटे डेढ़ घंटे गप लड़ाती, नौकर थोड़ी देर में चाय दे जाता. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह अपनी बातें चालू रखते जो अकसर अन्य विषयों से सिमट कर अब कालिज, आफिस, घरेलू और निजी बातों पर आ जाती थीं.

क्षमा ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप अकेले क्यों हैं? आप ने शादी क्यों नहीं की? आप को साथी की कमी महसूस नहीं होती क्या? आप को अकेले घर काटने को नहीं दौड़ता? नौकर के हाथ का खाना खातेखाते आप का जी नहीं ऊबता?’’

रविकांत ने अपने पिछले प्रेम का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘क्षमा, हम सब नियति के हाथों की कठपुतली हैं जिसे वह जैसा चाहती है नचाती है. अकेलापन तो मुझे भी बहुत काटता है पर मैं अपने आप को आफिस के काम में व्यस्त रख उसे भगाए रहता हूं. मुझे खुशी है कि अब मेरा कुछ समय तुम्हारे साथ हंसते-बोलते कट जाता है. तुम्हारे साथ बिताए ये क्षण मुझे अब भाने लगे हैं.’’

रविकांत की बीमारी को धीरे-धीरे 1 वर्ष हो गया. इस बीच क्षमा ने अपनी मां से पूछ रविकांत को करीब-करीब हर माह 1-2 बार खाने पर बुलाया. रविकांत शोभनाजी से मिलने पर क्षमा की बड़ी प्रशंसा करते. उन की थोड़ीबहुत औपचारिक बातें भी होतीं. जिस दिन रविकांत खाने पर आने को होते उस दिन क्षमा बड़े उत्साह से घर ठीक करने और खाना बनाने में मां के साथ लग जाती. वह अकसर मां से रविकांत के गुणों और विशेषताओं पर चर्चा करती रहती. वे हांहूं कर उस की बातें सुनती रहतीं.

बेटी और पड़ोसी रविकांत की बढ़ती दोस्ती और मिलनाजुलना कुछ महीनों से शोभना के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था. क्षमा से इस बारे में कुछ न कह उन्होंने उस के विवाह के लिए प्रयत्न जोरों से शुरू कर दिए. उन की सहेली रमा का बेटा रौनक इन दिनों आस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था. क्षमा भी उस से बपचन से परिचित थी. शोभना ने रमा को क्षमा और रौनक के विवाह का सुझाव दिया तो वह अगले दिन शाम को अपने पति देवनाथ और बेटे रौनक के साथ मिलने आ गईं. शोभना और रमा के बीच कोई औपचारिकता तो थी नहीं सो उस ने उन्हें खाने के लिए रोक लिया.

भोजन के समय रमा ने सब के सामने क्षमा से सीधा प्रश्न कर दिया, ‘‘क्षमा बेटी, मेरा बेटा रौनक तुम्हें बचपन से पसंद करता है. यदि तुम्हें भी रौनक पसंद है तो तुम दोनों के विवाह से तुम्हारी मां और हमें बहुत खुशी होगी.’’

क्षमा पहले तो चुप रही पर रमा के बारबार आग्रह पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप लोग हमारे बड़े हैं. मां जैसा कहेंगी मुझे मान्य होगा.’’

शोभना ने कहा, ‘‘क्षमा, रौनक सब प्रकार से तुम्हारे लिए उपयुक्त वर है. हमारे परिवारों के बीच संबंध भी मधुर हैं, इसलिए मैं चाहूंगी कि तुम और रौनक दोनों खाना खत्म करने के बाद बाहर लान में एकसाथ बैठ कर आपस में सलाह कर लो.’’

आपस में बातें कर के जब वे लौटे तो दोनों को खुश देख कर शोभना ने क्षमा को अंदर कमरे में ले जा कर उस से कहा, ‘‘तो फिर मैं बात पक्की कर दूं?’’

क्षमा के सकुचाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाते ही उन्होंने उस के माथे को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया. वे दोनों मांबेटी तब डाइंगरूम में आ गईं. शगुन के रूप में शोभना ने 1 हजार रुपए रौनक के हाथ में रख दोनों को आशीर्वाद दिया और रमा से लिपट उसे और उस के पति को बधाई दी. रौनक के आस्ट्रेलिया लौटने से पहले ही विवाह संपन्न करने की बात भी अभिभावकों के बीच हो गई.

क्षमा, शोभना और उस के पति का पासपोर्ट जापान, हांगकांग और आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए पहले से ही बना हुआ था पर 3 वर्ष पहले क्षमा के पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से वह प्रोग्राम कैंसिल हो गया था. यदि इस बीच क्षमा का वीसा बन गया तो वह भी रौनक के साथ आस्ट्रेलिया चली जाएगी नहीं तो रौनक 6 महीने बाद आ कर उसे ले जाएगा.

अगली शाम रविकांत से मिलने पर क्षमा ने उन्हें अपनी शादी के बारे में जब बताया तो उन्हें चुप और गंभीर देख वह बोली, ‘‘ऐसा लगता है अंकल कि आप को मेरे विवाह की बात सुन कर खुशी नहीं हुई.’’

रविकांत बोले, ‘‘तुम चली जाओगी तो मैं फिर अकेला हो जाऊंगा. मैं तो इन कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने बहुत नजदीक समझने लगा था. पर यह तो मेरा स्वार्थ ही होगा, यदि मैं तुम्हारे विवाह से खुश न होऊं. मैं तो वर्षों से अकेले रहने का आदी हो गया हूं. मेरी बधाई स्वीकार करो.’’

क्षमा इठलाते हुए बोली, ‘‘ऐसे नहीं, मैं तो आप से बहुत बड़ा उपहार भी लूंगी, तभी आप की बधाई स्वीकार करूंगी.’’ रविकांत ने कहा, ‘‘तुम जो भी चाहोगी, मैं तुम्हें दूंगा. तुम कहो तो, तुम क्या लेना चाहोगी. अपनी इतनी अच्छी प्रिय दोस्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘पहले वादा कीजिए कि आप मना नहीं करेंगे.’’

‘‘अरे, मना क्योें करूंगा. लो, वादा भी करता हूं.’’

क्षमा बोली, ‘‘अंकल, मेरे सामने एक बड़ी समस्या है मेरी मां, जिन्होंने मेरे लिए इतना कुछ किया है, मैं उन्हें अकेली छोड़ विदेश चली जाऊं, ऐसा मेरा मन नहीं मानता. मैं चाहती हूं कि आप और मेरी मां, जो खुद भी एकाकी जीवन जी रही हैं, विवाह कर लें. आप दोनों को साथी मिल जाएगा. मैं मां को मना लूंगी. बस, आप हां कर दें.’’

रविकांत चुप रहे. कुछ देर के बाद क्षमा ने फिर कहा, ‘‘ठीक है, यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं अपने विवाह के लिए मना कर देती हूं. देखिए, मेरा विवाह अभी तय हुआ है, हुआ तो नहीं. मैं ने गलत सोचा था कि आप मेरे बहुत निकट हैं और मेरी भलाई के लिए मेरी भावनाओं को समझते हुए आप अपना दिया हुआ वादा निभाएंगे,’’ कहतेकहते क्षमा का गला रुंध गया.

रविकांत अपनी जगह से उठे. उन्होंने क्षमा के सिर पर हाथ रखा और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी की खुशी के लिए सबकुछ करूंगा. मैं तुम्हारे सुझाव से सहमत हूं.’’

क्षमा खुशी से उछल पड़ी और उन के गले से लिपट गई. क्षमा ने अपनी शादी से पहले उन दोनों के विवाह कर लेने की जिद पकड़ ली ताकि वे दोनों संयुक्त रूप से उस का कन्यादान कर सकें.

अगले सप्ताह ही रविकांत और शोभना का विवाह बड़े सादे ढंग से संपन्न हुआ और उस के 5 दिन बाद रौनक और क्षमा की शादी बड़ी धूमधाम से हुई.

मुंहबोली बहनें

मुंहबोली बहनें- भाग 2 : रोहन ने अपनी पत्नी को क्यों दे डाली धमकी

‘‘हां, जैसे मुझे समझ में नहीं आता कि आप क्यों उन का काम करते हैं. उन पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए भला इस से अच्छा मौका और कहां मिलेगा आप को.’’ ‘‘अब तुम ही बताओ मम्मा, इस चुहिया की कुछ सहेलियां मेरे पास आ कर कहती हैं, प्लीज रोहन भैया, हमारा फलां काम करवा दीजिए तो मैं भला कैसे मना कर सकता हूं उन्हें? जब उन्होंने मुझे भैया कह दिया तो मेरी मुंहबोली बहनें हो गईं न और बहनों के प्रति भाई की कुछ जिम्मेदारी बनती है कि नहीं? और कुछ कहती हैं, ‘रोहनजी, प्लीज हमारा फलां काम… रोहनजी प्लीज’ कहने वालों के प्रति तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि न जाने भविष्य में इन में से किस के साथ मेरा रिश्ता जुड़ जाए, इसलिए उन के काम तो मैं अपनी तथाकथित बहनों के काम से भी ज्यादा रुचि और मन से करता हूं.’’

‘‘रोहन, तू सचमुच बिगड़ रहा है, जरूरत से ज्यादा नटखटपन अच्छी बात नहीं है, सोनाली तेरी बहन है तो इस की सहेलियां भी तेरी छोटी बहन ही हुईं. तुझे हरएक के साथ तमीज से पेश आना चाहिए,’’ ताईजी उन्हें समझाते हुए बोलीं. ‘‘मम्मा, अब आप भी सोनाली की भाषा न बोलिए. जिस ने मुझे भैया कह दिया वह तो मेरे लिए सोनाली के ही समान हो जाती है पर जो खुद ही मुझे भैया न कहना चाहे, ‘रोहनजी प्लीज…’ कहे तो वहां मैं नटखट कैसे हो गया? नटखट तो वह हुई न?’’

मुझे पता था कि रोहन भैया से बहस में जीतना असंभव है. उन की वाक्पटुता ने ही तो उन के व्यक्तित्व में चार चांद लगा कर उन्हें हमारे कालेज का हीरो बना कर मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर दी थी. कालेज में उन के चाहने वालों की एक लंबी कतार है.

इसीलिए बहुत सी युवतियां मुझे पुल बना कर उन तक पहुंचने की कोशिश में किसी न किसी बहाने मेरे आगेपीछे लग कर मेरा जीना मुश्किल करती रहती हैं. फिर जिन को रोहन भैया थोड़ा भी भाव दे देते हैं, वे तो तारीफों के पुल बांध कर उन्हें आकाश पर बैठा देतीं और जिन पर उन की नजरें इनायत नहीं होतीं वे उन में दस दोष निकाल देती हैं, मेरे लिए दोनों ही तरह की बातें सुनना बरदाश्त के बाहर हो जाता है और कई बार अनायास ही मैं लड़कियों से बहस कर बैठती हूं. ‘‘रोहन भैया, कालेज तक तो ठीक था पर अब तो आप ने मेरी सहेलियों के घर के चक्कर काटना और उन के घर जाना भी शुरू कर दिया है. आखिर क्या चाहते हैं आप?’’ सोनाली ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘ऐ छिपकली, तेरी कौन सी सहेली हूर की परी है जिस के घर के चक्कर मैं काटने लगा. जरा मैं भी तो सुनूं,’’ रोहन भैया अपनी हेकड़ी जमाते हुए बोले. ‘‘कल अनाइका के घर नहीं गए थे आप?’’ मैं ने खा जाने वाली नजरों से उन्हें घूरा.

‘‘अच्छा जिस के घर कल मैं गया था, उस का नाम अनाइका है? तब तो निश्चय ही वह हूर की परी होगी. अच्छा किया तुम ने मुझे बता दिया. अब कल उसे कालेज में गौर से देखूंगा,’’ कह कर रोहन भैया जोरजोर से हंसने लगे. ‘‘हद हो गई रोहन भैया, आप की बेशर्मी की,’’ मैं ने भी चिढ़ कर अपनी मर्यादा की सीमा लांघते हुए कहा.

‘‘देख सोनाली, मैं तेरी बात को हंस कर टाल रहा हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि तू जो मन में आए बोलती जाए और एक बात साफसाफ सुन ले, मैं नहीं गया था किसी अनाइका के घर का चक्कर काटने. मैं अपने दोस्त संवेग के घर गया था. तेरी उस हूर की परी का घर भी वहीं था, उस ने मुझे देख कर अपने घर आने को कहा तो मैं चला गया. इस में मेरी क्या गलती है?’’ ‘‘आप की गलती यही है कि आप उस के घर गए. उस ने आप को बुलाया या आप वहां गए, मैं नहीं जानती पर आप का अनाइका के घर जाना ही आज कालेज में दिन भर चर्चा का विषय बना रहा था.

सब बोल रहे थे कि अनाइका और रोहन के बीच कुछ चल रहा है. आप सोच भी नहीं सकते कि यह सब सुन कर मेरा दिमाग कितना खराब होता है. रोज किसी न किसी के साथ आप का नाम जोड़ा जाता है. मुझे लग रहा था अब आप सुधर रहे हैं कि तभी अनाइका का नाम लिस्ट में जुड़ गया.’’

 

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