अपारदर्शी सच: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

रात के 11 बज चुके थे. तनुजा की आंखें नींद और इंतजार से बोझिल हो रही थीं. बच्चे सो चुके थे. मम्मीजी और मनीष लिविंगरूम में बैठे टीवी देख रहे थे. तनुजा का मन हो रहा था कि मनीष को आवाज दे कर बुला ले, लेकिन मम्मी की उपस्थिति के लिहाज के चलते उसे ठीक नहीं लगा. पानी पीने के लिए किचन में जाते हुए उस ने मनीष को देखा पर उन का ध्यान नहीं गया. पानी पी कर भी अतृप्त सी वह वापस कमरे में आ गई.

बिस्तर पर बैठ कर उस ने एक नजर कमरे पर डाली. उस ने और मनीष ने एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल रख कर इस कमरे को सजाया था.

हलके नीले रंग की दीवारों में से एक पर खूबसूरत पहाड़ी, नदी से गिरते झरने और पेड़ों की पृष्ठभूमि से सजी पूरी दीवार के आकार का वालपेपर. खिड़कियों पर दीवारों से तालमेल बिठाते नैट के परदे, फर्श से छत तक की अलमारियां, तरहतरह के सौंदर्य प्रसाधनों से भरी अंडाकार कांच की ड्रैसिंगटेबल, बिस्तर पर साटन की रौयल ब्लू चादर और टेबल पर सजा महकते रजनीगंधा के फूलों का गुलदस्ता. उसे लगा, सभी मनीष का इंतजार कर रहे हैं.

तनुजा की आंख खुली, तब दिन चढ़ आया था. उस का इंतजार अभी भी बदन में कसमसा रहा था. मनीष दोनों हाथ बांधे बगल में खर्राटे ले कर सो रहे थे. उस का मन हुआ, उन दोनों बांहों को खुद ही खोल कर उन में समा जाए और कसमसाते इंतजार को मंजिल तक पहुंचा दे. लेकिन घड़ी ने इस की इजाजत नहीं दी. फुरफुराते एहसासों को जूड़े में लपेटते वह बाथरूम चली गई.

बेटे ऋषि व बेटी अनु की तैयारी करते, सब का नाश्ताटिफिन तैयार करते, भागतेदौड़ते खुद की औफिस की तैयारी करते हुए भी रहरह कर एहसास कसमसाते रहे. उस ने आंखें बंद कर जज्बातों को जज्ब करने की कोशिश की, तभी सासुमां किचन में आ गईं. वह सकपका गई. उस ने झटके से आंखें खोल लीं और खुद को व्यस्त दिखाने के लिए पास पड़ा चाकू उठा लिया पर सब्जी तो कट चुकी थी, फिर उस ने करछुल उठा लिया और उसे खाली कड़ाही में चलाने लगी. सासुमां ने चश्मे की ओट से उसे ध्यान से देखा.

कड़ाही उस के हाथ से छूट गई और फर्श पर चक्कर काटती खाली कड़ाही जैसे उस के जलते एहसास उस के जेहन में घूमने लगे और वह चाह कर भी उन्हें थाम नहीं पाई.

एक कोमल स्पर्श उस के कंधों पर हुआ. 2 अनुभवी आंखों में उस के लिए संवेदना थी. वह शर्मिंदा हुई उन आंखों से, खुद को नियंत्रित न कर पाने से, अपने यों बिखर जाने से. उस ने होंठ दबा कर अपनी रुलाई रोकी और तेजी से अपने कमरे में चली गई.

बहुत कोशिश करने के बावजूद उस की रुलाई नहीं रुकी, बाथरूम में शायद जी भर रो सके. जातेजाते उस की नजर घड़ी पर पड़ी. समय उस के हाथ में न था रोने का. तैयार होतेहोते तनुजा ने सोते हुए मनीष को देखा. उस की बेचैनी से बेखबर मनीष गहरी नींद में थे.

तैयार हो कर उस ने खुद को शीशे में निहारा और खुद पर ही मुग्ध हो गई. कौन कह सकता है कि वह कालेज में पढ़ने वाले बच्चों की मां है? कसी हुई देह, गोल चेहरे पर छोटी मगर तीखी नाक, लंबी पतली गरदन, सुडौल कमर के गिर्द लिपटी साड़ी से झांकते बल. इक्कादुक्का झांकते सफेद बालों को फैशनेबल अंदाज में हाईलाइट करवा कर करीने से छिपा लिया है उस ने. सब से बढ़ कर है जीवन के इस पड़ाव का आनंद लेती, जीवन के हिलोरों को महसूस करते मन की अंगड़ाइयों को जाहिर करती उस की खूबसूरत आंखें. अब बच्चे बड़े हो कर अपने जीवन की दिशा तय कर चुके हैं और मनीष अपने कैरियर की बुलंदियों पर हैं. वह खुद भी एक मुकाम हासिल कर चुकी है. भविष्य के प्रति एक आश्वस्ति है जो उस के चेहरे, आंखों, चालढाल से छलकती है.

मनीष उठ चुके थे. रात के अधूरे इंतजार के आक्रोश को परे धकेल एक मीठी सी मुसकान के साथ उस ने गुडमौर्निंग कहा. मनीष ने एक मोहक नजर उस पर डाली और उठ कर उसे बांहों में भर लिया. रीढ़ में फुरफुरी सी दौड़ गई. कसमसाती इच्छाएं मजबूत बांहों का सहारा पा कर कुलबुलाने लगीं. मनीष की आंखों में झांकते हुए तपते होंठों को उस के होंठों के पास ले जाते शरारत से उस ने पूछा, ‘‘इरादा क्या है?’’ मनीष जैसे चौंक गए, पकड़ ढीली हुई, उस के माथे पर चुंबन अंकित करते, घड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘इरादा तो नेक ही है, तुम्हारे औफिस का टाइम हो गया है, तुम निकल जाना.’’ और वे बाथरूम की तरफ बढ़ गए.

जलते होंठों की तपन को ठंडा करने के लिए आंसू छलक पड़े तनुजा के. कुछ देर वह ऐसे ही खड़ी रही उपेक्षित, अवांछित. फिर मन की खिन्नता को परे धकेल, चेहरे पर पाउडर की एक और परत चढ़ा, लिपस्टिक की रगड़ से होंठों को धिक्कार कर वह कमरे से बाहर निकल गई.

करीब सालभर पहले तक सब सामान्य था. मनीष और तनुजा जिंदगी के उस मुकाम पर थे जहां हर तरह से इतमीनान था. अपनी जिंदगी में एकदूसरे की अहमियत समझतेमहसूस करते एकदूसरे के प्यार में खोए रहते.

इस निश्चितता में प्यार का उछाह भी अपने चरम पर था. लगता, जैसे दूसरा हनीमून मना रहे हों जिस में अब उत्सुकता की जगह एकदूसरे को संपूर्ण जान लेने की तसल्ली थी. मनीष अपने दम भर उसे प्यार करते और वह पूरी शिद्दत से उन का साथ देती. फिर अचानक यों ही मनीष जल्दी थकने लगे तो उसी ने पूरा चैकअप करवाने पर जोर दिया.

सबकुछ सामान्य था पर कुछ तो असामान्य था जो पकड़ में नहीं आया था. वह उन का और ध्यान रखने लगी. खाना, फल, दूध, मेवे के साथ ही उन की मेहनत तक का. उस की इच्छाएं उफान पर थीं पर मनीष के मूड के अनुसार वह अपने पर काबू रखती. उस की इच्छा देखते मनीष भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते लेकिन वह अतृप्त ही रह जाती.

हालांकि उस ने कभी शब्दों में शिकायत दर्ज नहीं की, लेकिन उस की झुंझलाहट, मुंह फेर कर सो जाना, तकिए में मुंह दबा कर ली गई सिसकियां मनीष को आहत और शर्मिंदा करती गईं. धीरेधीरे वे उन अंतरंग पलों को टालने लगे. तनुजा कमरे में आती तो मनीष कभी तबीयत खराब होने का बहाना बनाते, कभी बिजी होने की बात कर लैपटौप ले कर बैठ जाते.

कुछकुछ समझते हुए भी उसे शक हुआ कि कहीं मनीष का किसी और से कोई चक्कर तो नहीं है? ऐसा कैसे हो सकता है जो व्यक्ति शाम होते ही उस के आसपास मंडराने लगता था वह अचानक उस से दूर कैसे होने लगा? लेकिन उस ने यह भी महसूस किया कि मनीष

अब भी उस से प्यार करते हैं. उस की छोटीछोटी खुशियां जैसे सप्ताहांत में सिनेमा, शौपिंग, आउटिंग सबकुछ वैसा ही तो था. किसी और से चक्कर होता तो उसे और बच्चों को इतना समय वे कैसे देते? औफिस से सीधे घर आते हैं, कहीं टूर पर जाते नहीं.

शक का कीड़ा जब कुलबुलाता है तब मन जितना उस के न होने की दलीलें देता है उतना उस के होने की तलाश करता. कभी नजर बचा कर डायरी में लिखे नंबर, तो कभी मोबाइल के मैसेज भी तनुजा ने खंगाल डाले पर शक करने जैसा कुछ नहीं मिला.

उस ने कईकई बार खुद को आईने में निहारा, अंगों की कसावट को जांचा, बातोंबातों में अपनी सहेलियों से खुद के बारे में पड़ताल की और पार्टियों, सोशल गैदरिंग में दूसरे पुरुषों की नजर से भी खुद को परखा. कहीं कोई बदलाव, कोई कमी नजर नहीं आई. आज भी जब पूरी तरह से तैयार होती है तो देखने वालों की नजर एक बार उस की ओर उठती जरूरी है.

हर ऐसे मौकों पर कसौटी पर खरा उतरने का दर्प उसे कुछ और उत्तेजित कर गया. उस की आकांक्षाएं कसमसाने लगीं. वह मनीष से अंतरंगता को बेचैन होने लगी और मनीष उन पलों को टालने के लिए कभी काम में, कभी बच्चों और टीवी में व्यस्त होने लगे.

अधूरेपन की बेचैनी दिनोंदिन घनी होती जा रही थी. उस दिन एक कलीग को अपनी ओर देखता पा कर तनुजा के अंदर कुछ कुलबुलाने लगा, फुरफुरी सी उठने लगी. एक विचार उस के दिलोदिमाग में दौड़ कर उसे कंपकंपा गया. छी, यह क्या सोचने लगी हूं मैं? मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती. मेरे मन में यह विचार आया भी कैसे? मनीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, प्यार का मतलब सिर्फ यही तो नहीं है. कितना धिक्कारा था तनुजा ने खुद को लेकिन वह विचार बारबार कौंध जाता, काम करते हाथ ठिठक जाते, मन में उठती हिलोरें पूरे शरीर को उत्तेजित करती रहीं.

अतृप्त इच्छाएं, हर निगाह में खुद के प्रति आकर्षण और उस आकर्षण को किस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, वह यह सोचने लगी. संस्कारों के अंकुश और नैसर्गिक प्यास की कशमकश में उलझी वह खोईखोई सी रहने लगी.

उस दिन दोपहर तक बादल घिर आए थे. खाना खा कर वह गुदगुदे कंबल में मनीष के साथ एकदूसरे की बांहों में लिपटे हुए कोई रोमांटिक फिल्म देखना चाहती थी. उस ने मनीष को इशारा भी किया जिसे अनदेखा कर मनीष ने बच्चों के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया. वे नासमझ बन तनुजा से नजरें चुराते रहे, उस के घुटते दिल को नजरअंदाज करते रहे. वह चिढ़ गई. उस ने जाने से मना कर दिया, खुद को कमरे में बंद कर लिया और सारा दिन अकेले कमरे में रोती रही.

तनुजा ने पत्रपत्रिकाएं, इंटरनैट सब खंगाल डाले. पुरुषों से जुड़ी सैक्स समस्याओं की तमाम जानकारियां पढ़ डालीं. परेशानी कहां है, यह तो समझ आ गया लेकिन समाधान? समाधान निकालने के लिए मनीष से बात करना जरूरी था. बिना उन के सहयोग के कोई समाधान संभव ही नहीं था. बात करना इतना आसान तो नहीं था.

शब्दों को तोलमोल कर बात करना, एक कड़वे सच को प्रकट करना इस तरह कि वह कड़वा न लगे, एक ऐसी सचाई के बारे में बात करना जिसे मनीष पहले से जानते हैं कि तनुजा इसे नहीं जानती और अब उन्हें बताना कि वह भी इसे जानती है, यह सब बताते हुए भी कोई आक्षेप, कोई इलजाम न लगे, दिल तोड़ने वाली बात पर दिल न टूटे, अतिरिक्त प्यारदेखभाल के रैपर में लिपटी शर्मिंदगी को यों सामने रखना कि वह शर्मिंदा न करे, बेहद कठिन काम था.

दिन निकलते गए. कसमसाहटें बढ़ती गईं. अतृप्त प्यास बुझाने के लिए वह रोज नए मौकेरास्ते तलाशती रही. समाज, परिवार और बच्चे उस पर अंकुश लगाते रहे. तनुजा खुद ही सोचती कि क्या इस एक कमी को इस कदर खुद पर हावी होने देना चाहिए? तो कभी खुद ही इस जरूरी जरूरत के बारे में सोचती जिस के पूरा न होने पर बेचैन होना गलत भी तो नहीं. अगर मनीष अतृप्त रहते तो क्या ऐसा संयम रख पाते? नहीं, मनीष उसे कभी धोखा नहीं देते या शायद उसे कभी पता ही नहीं चलने देते.

निशा उस की अच्छी सहेली थी. उस से तनुजा की कशमकश छिपी न रह सकी. तनुजा को दिल का बोझ हलका करने को एक साथी तो मिला जिस से सहानुभूति के रूप में फौरीतौर पर राहत मिल जाती थी. निशा उसे समझाती तो थी पर क्या वह समझना चाहती है, वह खुद भी नहीं समझ पाती थी. उस ने कई बार इशारे में उसे विकल्प तलाशने को कहा तो कई बार इस के खतरे से आगाह भी किया. कई बार तनुजा की जरूरत की अहमितयत बताई तो कई बार समाज, संस्कार के महत्त्व को भी समझाया. तनुजा की बेचैनी ने उस के मन में भी हलचल मचाई और उस ने खुद ही खोजबीन कर के कुछ रास्ते सुझाए.

धड़कते दिल और डगमगाते कदमों से तनुजा ने उस होटल की लौबी में प्रवेश किया था. साड़ी के पल्लू को कस कर लपेटे वह खुद को छिपाना चाह रही थी पर कितनी कामयाब थी, नहीं जानती. रिसैप्शन पर बड़ी मुश्किल से रूम नंबर बता पाई थी. कितनी मुश्किल से अपने दिल को समझा कर वह खुद को यहां तक ले कर आई थी. खुद को लाख मनाने और समझाने पर भी एक व्यक्ति के रूप में खुद को देख पाना एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है, यह जान रही थी.

अपनी इच्छाओं को एक दायरे से बाहर जा कर पूरा करना कितना मुश्किल होता है, लिफ्ट से कमरे तक जाते यही विचार उस के दिमाग को मथ रहे थे. कमरे की घंटी बजा कर दरवाजा खुलने तक 30 सैकंड में 30 बार उस ने भाग जाना चाहा. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. दरवाजा खुला, उस ने एक बार आसपास देखा और कमरे के अंदर हो गई. एक अनजबी आवाज में अपना नाम सुनना भी बड़ा अजीब था. फुरफुराते एहसास उस की रीढ़ को झुनझुना रहे थे. बावजूद इस के, सामने देख पाना मुश्किल था. वह कमरे में रखे एक सोफे पर बैठ गई, उसे अपने दिमाग में मनीष का चेहरा दिखाई देने लगा.

क्या वह ठीक कर रही? इस में गलत क्या है? आखिर मैं भी एक इंसान हूं. अपनी इच्छाएं, अपनी जरूरतें पूरी करने का हक है मुझे. मनीष को पता चला तो?

कैसे पता चलेगा, शहर के इस दूसरे कोने में घरऔफिस से दसियों किलोमीटर दूर कुछ हुआ है, इस की भनक तक इतनी दूर नहीं लगेगी. इस के बाद क्या वह खुद से नजरें मिला पाएगी? यह सब सोच कर उस की रीढ़ की वह सनसनाहट ठंडी पड़ गई, उठ कर भाग जाने का मन हुआ. वह इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती. मनीष, मम्मी, बच्चे, जानपहचान वाले, रिश्तेदार सब की नजरों में वह नहीं गिर सकती.

वेटर 2 कौफी रख गया. कौफी की भाप के उस पार 2 आंखें उसे देख रही थीं. उन आंखों की कामुकता में उस के एहसास फिर फुरफुराने लगे. उस ने अपने चेहरे से हो कर गरदन, वक्ष पर घूमती उन निगाहों को महसूस किया. उस के हाथ पर एक स्पर्श उस के सर्वांग को थरथरा गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. वह स्पर्श ऊपर और ऊपर चढ़ते बाहों से हो कर गरदन के खुले भाग पर मचलने लगा. उस की अतृप्त कामनाएं सिर उठाने लगीं. अब वह सिर्फ एक स्त्री थी हर दायरे से परे, खुद की कैद से दूर, अपनी जरूरतों को समझने वाली, उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखने वाली.

सहीगलत की परिभाषाओं से परे अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने को तत्पर वह दुनिया के अंतिम कोने तक जा सकने को तैयार, उस में डूब जाने को बेचैन. तभी वह स्पर्श हट गया, अतृप्त खालीपन के झटके से उस ने आंखें खोल दीं. आवाज आई, ‘कौफी पीजिए.’

कामुकता से मुसकराती 2 आंखें देख उसे एक तीव्र वितृष्णा हुई खुद से, खुद के कमजोर होने से और उन 2 आंखों से. होटल के उस कमरे में अकेले उस अपरिचित के साथ यह क्या करने जा रही थी वह? वह झटके से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. लगभग दौड़ते हुए वह होटल से बाहर आई और सामने से आती टैक्सी को हाथ दे कर उस में बैठ गई. तनुजा बुरी तरह हांफ रही थी. वह उस रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

दोनों ओर स्थितियां चरम पर थीं. दोनों ही अंदर से टूटने लगे थे. ऐसे ही जिए जाने की कल्पना भयावह थी. उस रात तनुजा की सिसकियां सुन मनीष ने उसे सीने से लगा लिया. उस का गला रुंध गया, आंसू बह निकले. ‘‘मैं तुम्हारा दोषी हूं तनु, मेरे कारण…’’

तनु ने उस के होंठों पर अपनी हथेली रख दी, ‘‘ऐसा मत कहो, लेकिन मैं करूं क्या? बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बरदाश्त नहीं कर पाती.’’

‘‘मैं तुम्हारी बेचैनी समझता हूं, तनु,’’ मनीष ने करवट ले कर तनुजा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया, ‘‘तुम चाहो तो किसी और के साथ…’’ बाकी के शब्द एक बड़ी हिचकी में घुल गए.

वह बात जो अब तक विचारों में तनुजा को उकसाती थी और जिसे हकीकत में करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाई थी, वह मनीष के मुंह से निकल कर वितृष्णा पैदा कर गई.

तनुजा का मन घिना गया. उस ने खुद ऐसा कैसे सोचा, इस बात से ही नफरत हुई. मनीष उस से इतना प्यार करते हैं, उस की खुशी के लिए इतनी बड़ी बात सोच सकते हैं, कह सकते हैं लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी? क्या ऐसा करना ठीक होगा? नहीं, कतई नहीं. उस ने दृढ़ता से खुद से कहा.

जो सच अब तक संकोच और शर्मिंदगी का आवरण ओढ़े अपारदर्शी बन कर उन के बीच खड़ा था, आज वह आवरण फेंक उन के बीच था और दोनों उस के आरपार एकदूसरे की आंखों में देख रहे थे. अब समाधान उन के सामने था. वे उस के बारे में बात कर सकते थे. उन्होंने देर तक एकदूसरे से बातें कीं और अरसे बाद एकदूसरे की बांहों में सो गए एक नई सुबह मेें उठने के लिए.

आभास: शारदा को कैसे हुआ गलती का एहसास

‘‘ओ  ह मम्मी, भावुक मत बनो, समझने की कोशिश करो,’’ दूसरी तरफ की आवाज सुनते ही शारदा के हाथ से टेलीफोन का चोंगा छूट कर अधर में झूल गया. कानों में जैसे पिघलता सीसा पड़ गया. दिल दहला देने वाली एक दारुण चीख दीवारों और खिड़कियों को पार करती हुई पड़ोसियों के घरों से जा टकराई. सब चौंक पड़े और चीख की दिशा की ओर दौड़ पड़े.

‘‘क्या हुआ, बहनजी?’’ किसी पड़ोसी ने पूछा तो शारदा ने कुरसी की ओर इशारा किया.

‘‘अरे…कैसे हुआ यह सब?’’

‘‘कब हुआ?’’ सभी चकित से रह गए.

‘‘अभीअभी आए थे,’’ शारदा ने रोतेरोते कहा, ‘‘अखबार ले कर बैठे थे. मैं चाय का प्याला रख कर गई. थोड़ी देर में चाय का प्याला उठाने आई तो देखा चाय वैसी ही पड़ी है, ‘अखबार हाथ में है. सो रहे हो क्या?’ मैं ने पूछा, पर कोई जवाब नहीं, ‘चाय तो पी लो’, मैं ने फिर कहा मगर बोले ही नहीं. मैं ने कंधा पकड़ कर झिंझोड़ा तो गरदन एक तरफ ढुलक गई. मैं घबरा गई.’’

‘‘डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘डाक्टर को ही तो दिखा कर आए थे,’’ शारदा ने रोते हुए बताया, ‘‘1-2 दिन से कह रहे थे कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है, कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है. डाक्टर के पास गए तो उस ने ईसीजी वगैरह किया और कहा कि सीढि़यां नहीं चढ़ना, आप को हार्ट प्रौब्लम है.

‘‘घर आ कर मुझ से बोले, ‘ये डाक्टर लोग तो ऐसे ही डरा देते हैं, कहता है, हार्ट प्रौब्लम है. सीढि़यां नहीं चढ़ना, भला सीढि़यां चढ़ कर नहीं आऊंगा तो क्या उड़ कर आऊंगा घर. हुआ क्या है मुझे? भलाचंगा तो हूं. लाओ, चाय लाओ. अखबार भी नहीं देखा आज तो.’

‘‘अखबार ले कर बैठे ही थे, बस, मैं चाय का प्याला रख कर गई, इतनी ही देर में सबकुछ खत्म…’’ शारदा बिलख पड़ीं.

‘‘बेटे को फोन किया?’’ पड़ोसी महेशजी ने झूलता हुआ चोंगा क्रेडल पर रखते हुए पूछा.

‘‘हां, किया था.’’

‘‘कब तक पहुंच रहा है?’’

‘‘वह नहीं आ रहा,’’ शारदा फिर बिलख पड़ीं, ‘‘कह रहा था आना बहुत मुश्किल है, यहां इतनी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती. दूसरे, उस की पत्नी डैनी वहां अकेली नहीं रह सकती. यहां वह आना नहीं चाहती क्योंकि यहां दंगे बहुत हो रहे हैं. मुसलमान, ईसाई कोई भी सुरक्षित नहीं यहां. कोई मार दे तो मुसीबत. बिजलीघर में कर दो सब, वहां किसी की जरूरत नहीं, सबकुछ अपनेआप ही हो जाएगा.’’

‘‘और कोई रिश्तेदार है यहां?’’

‘‘हां, एक बहन है,’’ शारदा ने बताया.

‘‘अरे, हां, याद आया. परसों ही तो मिल कर आए थे सुहासजी उन से. कह रहे थे कि यहां मेरी दीदी है, उन से ही मिल कर आ रहा हूं. आप उन का पता बता दें तो हम उन्हें खबर कर दें,’’ शर्मा जी ने कहा.

वहां फौरन एक आदमी दौड़ाया गया. सब ने मिल कर सुहास के पार्थिव शरीर को जमीन पर लिटा दिया. आसपास की और महिलाएं भी आ गईं जो शारदा को सांत्वना देने लगीं.

तभी रोतीबिलखती सुधा दीदी आ पहुंचीं.

‘‘हाय रे, भाई रे…क्या हुआ तुझे, परसों ही तो मेरे पास आया था. भलाचंगा था. यह क्या हो गया तुझे एक ही दिन में. जाना तो मुझे था, चला तू गया, मेरे से पहले ही सबकुछ छोड़छाड़ कर…हाय रे, यह क्या हो गया तुझे…’’

बहुत ही मुश्किल से सब ने उन्हें संभाला. उन्होंने अपनी तीनों बहनों, सरोज, ऊषा, मंजूषा व अन्य सब रिश्तेदारों के पते बता दिए. फौरन सब को सूचना दे दी गई. थोड़ी ही देर में सब आ पहुंचे.

काफी देर तक कुहराम मचा रहा, फिर सब शांत हो गए पर शारदा रोए ही जा रही थीं.

सुधा दीदी कितनी ही देर तक शारदा के चेहरे की ओर एकटक देखती रहीं. शारदा के चेहरे पर 22 वर्ष पुराना मां का चेहरा उभर आया, जब बाबूजी गुजरे थे और उन्होंने बंगलौर फोन किया था, ‘बाबूजी नहीें रहे, फौरन आ जाओ.’

‘पर ये तो दौरे पर गए हुए हैं, कैसे आ सकते हैं एकदम सब?’ शारदा ने बेरुखी से कहा था.

‘तुम उस के दफ्तर फोन करो, वह बुला देंगे.’

‘किया था पर उन्हें कुछ मालूम नहीं कि वह कहां हैं.’

‘ऐसा कैसे है, दफ्तर वालों को तो सब पता रहता है कि कौन कहां है.’

‘वहां रहता होगा पता, यहां नहीं,’ शारदा ने तीखे स्वर में कहा था.

‘मुझे दफ्तर का फोन नंबर दो, मैं वहां कांटेक्ट कर लूंगी.’

‘मेरे पास नहीं है नंबर…’ कह कर शारदा ने रिसीवर पटक दिया था.

ऐसे समय में भी शारदा ऐसा व्यवहार करेगी, कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. आखिरकार चाचाजी ने ही सब क्रियाकर्म किए. इस ने जैसा किया वैसा ही अब इस के आगे आया.

यह तो शुरू से ही परिवार से कटीकटी रही थी. हम 4 बहनें थीं, भाई एक ही था, बस. कितना चाव था इस का सब को कि बहू आएगी घर में, रौनक होगी. सब के साथ मिलजुल कर बैठेगी.

अम्मां तो इसे जमीन पर पैर ही ना रखने दें, हर समय ऊषा, मंजूषा से कहती रहतीं, ‘जा, अपनी भाभी के लिए हलवा बना कर ले जा…हलवाई के यहां से गरमगरम पूरियां ले आओ नाश्ते के लिए… भाभी से पूछ ले, ठंडा लेगी या गरम…भाभी के नहाने की तैयारी कर दे… गुसलखाना अच्छी तरह साफ कर देना…’

शाम को कभी गरमगरम इमरती मंगातीं तो कभी समोसे मंगातीं, ‘जा अपनी भाभी के लिए ले जा,’ पर भाभी की तो भौं तनी ही रहतीं हरदम.

एक दिन बिफर ही पड़ीं दोनों, ‘हम नहीं जाएंगी भाभी के पास. झिड़क पड़ती हैं, कहती हैं ‘कुछ नहीं चाहिए मुझे, ले जाओ यह सब…’

सरोज ने मां से 1-2 बार कहा भी, ‘क्या जरूरत है इतना सिर चढ़ाने की, रहने दो स्वाभाविक तरीके से. अपनेआप खाएपीएगी जब भूख लगेगी, तुम क्यों चिंता करती हो बेकार…’

‘अरे, कौन सी 5-7 बहुएं आएंगी. एक ही तो है, उसी पर अपना लाड़चाव पूरा कर लूं.’

पर इस ने तो उन के लाड़चाव की कभी कद्र ही न जानी, न ही ननदें कभी सुहाईं. आते ही यह तो अलग रहना चाहती थी. इत्तिफाकन सुहास की बदली हो गई और बंगलौर चली गई, सब से दूर…

ऊषा, मंजूषा की शादियों में आई थी बिलकुल मेहमान की तरह.

न किसी से बोलनाचालना, न किसी कामधंधे से ही मतलब. कमरे में ही बैठी रही थी अलगथलग सब से, गुमसुम बिलकुल…और अभी भी ऐसी बैठी है जैसे पहचानती ही न हो. चलो, नहीं तो न सही, हमें क्या, हम तो अपने भाई की आखिरी सूरत देखने आए थे…देख ली…अब हम काहे को आएंगे यहां…

‘‘राम नाम सत्य है…राम नाम सत्य है…’’ की आवाज से दीदी की तंद्रा टूटी. अर्थी उठ गई. हाहाकार मच गया. सब अरथी के पीछेपीछे चल पड़े. आज मां के घर का यह संपर्क भी खत्म हो गया.

औरत कितनी भी बड़ी उम्र की हो जाए, मां के घर का मोह कभी नहीं टूटता, नियति ने आज वह भी तुड़वा दिया. कैसा इंतजार रहता था राखीटीके का, सुबह ही आ जाता था और सारा दिन हंसाहंसा कर पेट दुखा देता था. ये तीनों भी यहां आ जाती थीं मेरे पास ही.

अरथी के पीछेपीछे चलते हुए वह फिर फूट पड़ीं, ‘‘अब कहां आनाजाना होगा यहां…जिस के लिए आते थे, वही नहीं रहा…अब रखा ही क्या है यहां…’’

अचानक उन की नजर शारदा पर पड़ी, जो अरथी के पीछेपीछे जा रही थी. उस के चेहरे पर मेकअप की जगह अवसाद छाया हुआ था, आंखों का आईलाइनर आंसुओं से धुल चुका था. होंठों पर लिपस्टिक की जगह पपड़ी जमी थी. ‘सैट’ किए बाल बुरी तरह बिखर कर रह गए थे, मुड़ीतुड़ी सफेद साड़ी, बिना बिंदी के सूना माथा, सूनी मांग…रूखे केश और उजड़े वेश में उस का इस तरह वैधव्य रूप देख कर दीदी का दिल बुरी तरह दहल उठा. रंगत ही बदल गई इस की तो जरा सी देर में. कैसी सजीसजाई दुलहन के वेश में आई थी 35 साल पहले, कितना सजाती थी खुद को और आज…आज सुहास के बिना कैसी हो गई. आज रहा ही कौन इस का दुनिया में.

मांबाप तो बाबूजी से पहले चल बसे थे, एक बहन थी वह शादी के दोढाई साल बाद अपने साल भर के बेटे को ले कर ऐसी बाजार गई, सो आज तक नहीं लौटी. एक भाई है, वह किसी माफिया गिरोह से जुड़ा है. कभी जेल में, कभी बाहर. एक ही एक बेटा है, वह भी इस दुख की घड़ी में मुंह फेर कर बैठ गया. उन्हें उस पर बहुत तरस आया, ‘बेचारी, कैसी खड़ी की खड़ी रह गई.’

अरथी को गाड़ी में रख दिया गया. गाड़ी धीरेधीरे चलने लगी और कुछ ही देर में आंखों से ओझल हो गई.

गाड़ी के जाने के बाद शारदा का मन बेहद अवसादग्रस्त हो गया.

जब हम दुख में होते हैं तो अपनों का सान्निध्य सब से अधिक चाहते हैं, पर ऐसे दुखद समय में भी अपनों का सान्निध्य न मिले तो मन बुरी तरह टूट जाता है. अकेलापन, बेबसी बुरी तरह मन को सालने लगती है.

यही हाल उस समय शारदा का हो रहा था. बारबार उसे अपने बेटे की याद आ रही थी कि काश, इस घड़ी में वह उस के पास होता. उसे गले लगा कर रो लेती. कुछ शांति मिलती, कितनी अकेली है आज वह, न मांबाप, न भाईर्बहन. कोई भी तो नहीं आज उस का जो आ कर उस के दुख में खड़ा हो. नीचे धरती, ऊपर आसमान, कोई सहारा देने वाला नहीं.

बेटे के शब्द बारबार कानों से टकरा कर उस के दिल को बुरी तरह कचोट रहे थे, जिसे जिंदगी भर अपने से ज्यादा चाहा, जिस के कारण उम्र भर किसी की परवा नहीं की, उसी ने आज ऐसे दुर्दिनों में किनारा कर लिया, मां के लिए जरा सा भी दर्द नहीं. बाप के जाने का जरा भी गम नहीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

कैसी पत्थर दिल औलाद है. जब अपनी पेटजाई औलाद ही अपनी न बनी तो और कौन बनेगा अपना. सासननदें तो भला कब हुईं किसी की, वे तो उम्र भर उस के और सुहास के बीच दीवार ही बनी रहीं. सुहास तो सदा अपनी मांबहनों में ही रमा रहा. उस की तो कभी परवा ही नहीं की. इस कारण सदैव सुहास और उस के बीच दूरी ही बनी रही.

अब भी तो देखो, एक शब्द भी नहीं कहा किसी ने…सुहास के सामने ही कभी अपनी न बनी, तो अब क्या होगी भला. कैसे रहेगी वह अकेली जीवन भर?  न जाने कितनी पहाड़ सी उम्र पड़ी है, कैसे कटेगी? किस के सहारे कटेगी? उसे अपने पर काबू नहीं हो पा रहा था.

दूसरी ओर बेटे की बेरुखी साल रही थी. उसे लगा जैसे वह एक गहरे मझधार में फंसी बारबार डूबउतरा रही है. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं कि किनारे आ जाए. क्या करे, कैसे करे?

उस ने तो कभी सोचा भी न था कि ऐसा बुरा समय भी देखना पड़ेगा. वह वहीें सीढि़यों की दीवार का सहारा ले कर बिलख पड़ी जोरजोर से.

सामने से उसे सुधा दीदी, सरोज, ऊषा, मंजूषा आती दिखाई दीं. उन्होंने उसे चारों ओर से घेर लिया और सांत्वना देने लगीं, ‘‘चुप कर शारदा, बहुत रो चुकी. वह तो सारी उम्र का रोना दे गया. कब तक रोएगी…’’ कहतेकहते सुधा दीदी स्वयं रो पड़ीं और तीनों बहनें भी शारदा के गले लग फफक पड़ीं, सब का दुख समान था. अत: जीवन भर का सारा वैमनस्य पल भर में ही आंसुओं में धुल गया.

‘‘हाय, क्या हाल हो गया भाभी का,’’ ऊषा, मंजूषा ने उस के गले लगते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? कैसे करूं? कहां जाऊं?’’ शारदा ने बिलखते हुए कहा.

‘‘तू धीरज रख, शारदा, जाने वाला तो चला गया, अब लौट कर तो आएगा नहीं,’’ सुधा दीदी ने उसे प्यार से सीने से लगाते हुए कहा.

‘‘पर मैं अकेली कैसे रहूंगी, सारी उम्र पड़ी है. वह तो मुझे धोखा दे गए बीच में ही.’’

‘‘कौन कहता है तू अकेली है, वह नहीं रहा तो क्या, हम 4 तो हैं तेरे साथ. तुझे ऐसे अकेले थोड़े ही छोडे़ंगे. चलो, घर में चलो.’’

वे चारों शारदा को घर में ले आईं, ऊषा, मंजूषा ने सारा घर धो डाला. सरोज ने उस के नहाने की तैयारी कर दी. तब तक सुधा दीदी उस के पास बैठी उस के आंसू पोंछती रहीं.

थोड़ी ही देर में सब नहा लिए, ऊषा, मंजूषा चाय बना लाईं. नहा कर, चाय पी कर शारदा का मन कुछ शांत हुआ. उस वक्त शारदा को वे चारों अपने किसी घनिष्ठ से कम नहीं लग रही थीं, जिन्होंने उसे ऐसे दुख में संभाला.

उसे लगा, जिन्हें उस ने सदा अपने और सुहास के बीच दीवार समझा, असल में वह दीवार नहीं थी, वह तो उस के मन का वहम था. उस के मन के शीशे पर जमी ईर्ष्या की गर्द थी. आज वह वहम की दीवार गहन दुख ने तोड़ दी. मन के शीशे पर जमी ईर्ष्या की गर्द आंसुओं में धुल गई.

बेटा नहीं आया तो क्या, उस की 4-4 ननदें तो हैं, उस के दुख को बांटने वाली. वे चारों उसे अपनी सगी बहन से भी ज्यादा लग रही थीं, आज दुख की घड़ी में वे ही चारों अपनी लग रही थीं. आज पहली बार उस के मन में उन चारों ननदों के प्रति अपनत्व का आभास हुआ.

तोसे लागी लगन: क्या हो रहा था ससुराल में निहारिका के साथ

मनोविज्ञान की छात्रा निहारिका सांवलीसलोनी सूरत की नवयुवती थी. तरूण से विवाह करना उस की अपनी मरजी थी, जिस में उस के मातापिता की रजामंदी भी थी. तरूण हैदराबाद का रहने वाला था और निहारिका लखनऊ की. दोनों दिल के रिश्ते में कब बंधे यह तो वे ही जानें.

सात फेरों के बंधन में बंध कर दोनों एअरपोर्ट पहुंचे. हवाईजहाज ने जब उड़ान भरी तो निहारिका ने आंखे बंद कर लीं और कस कर तरूण को थाम लिया। स्थिति सामान्य हुई तो लज्जावश नजरें झुक गईं पर तरुण की मंद मुसकराहट ने रिश्ते में मिठास घोल दी थी.

“हम पग फेरे के लिए इसी हवाई जहाज से वापस आएंगे,” निहारिका ने आत्मियता से कहा.

“नहीं, अब आप कहीं नहीं जाएंगी, हमेशाहमेशा मेरे पास रहेंगी,” तरूण ने निहारिका के कंधे पर सिर रखते हुए कहा.

सैकड़ों की भीड़ में नवविवाहिता जोड़ा एकदूसरे की आंखों में खोने लगा था.

तरूण की मां ने पड़ोसियों की मदद से रस्मों को निभाते हुए निहारिका का गृहप्रवेश करवाया. घर में बस 3 ही
सदस्य थे. शुरू के 2-4 दिन वह अपने कमरे में ही रहती थी फिर धीरेधीरे उस ने पूरा घर देखा। पूरा घर पुरानी कीमती चीजों से भरा पङा था। एक कोने में कोई पुरानी मूर्ति रखी हुई थी. निहारिका ने उसे हाथ में उठाया ही था कि पीछे से आवाज आई,”क्या देख रही हो, चुरा मत लेना।”

आवाज में कड़वाहट घुली हुई थी. निहारिका ने पीछे मुड़ कर देखा, तरूण की मां खड़ी थीं.

“नहीं मम्मीजी, बस यों ही देख रही थी,” निहारिका ने सहम कर जबाव दिया.

ससुराल में पहली बार इस तरह का व्यवहार… उस का मन भारी हो गया. मां की याद आने लगी. रात को बातों ही बातों में तरूण के सामने दिन वाले घटना का जिक्र हो आया.

“हां वे थोड़ी कड़क मिजाज हैं… पर प्लीज, तुम उन की किसी बात को दिल पर मत लेना। वे दिल की बेहद अच्छी हैं,” तरुण अपनी तरफ से निहारिका को बहलाने लगा.

एक दिन दोपहर को जब निहारिका लेटी हुई कोई पत्रिका पढ़ रही थी तभी तरूण की मां मनोहरा देवी उस के कमरे में आईं. उन्हें देख वह उठ कर बैठ गई। उस के बाद सासबहु में इधरउधर की बातें हुईं, बातों ही बातों में निहारिका के गहनों का जिक्र हो आया तो निहारिका खुशी से उन्हें गहने दिखाने लगीं. बातों का सिलसिला चलता रहा। करीब आधे
घंटे बाद जब निहारिका गहनों को डब्बे में डालने लगीं तो सोने के कंगन गायब थे. वह परेशान हो कर उसे ढूंढ़ने लगी.

आश्चर्य भी हो रहा था उसे। सासुमां से कुछ पूछे इतनी हिम्मत कहां थी उस में. रात को तरूण से बताया तो उस ने भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी.

“तुम औरतें केवल पहनना जानती हो, यहीं कहीं रख कर भूल गईं होगी। मिल जाएंगे। अभी सो जाओ,” दिनभर का थका हुआ तरूण करवट बदल कर सो गया.

‘नईनवेली दुलहन का ज्यादा बोलना भी ठीक नहीं,’ यह सोच कर निहारिका चुपचाप रह गई.

लेकिन वह मनोविज्ञान की छात्रा थी। अनकहे भावों को पढ़ना जानती थी, पर कहे किस से? तरूण के बारे में सोचते ही कंगन बेकार लगने लगे. लेकिन अगले ही दिन घर में सोने की एक और मूर्ति दिखाई दिए.

“मम्मीजी, बहुत सुंदर है यह मूर्ति। कहां से खरीद कर लाईं आप?” निहारिका ने तारीफ करते हुए पूछा.

“कहीं से भी, तुम से मतलब…” मनोहरा देवी ने तुनक कर जवाब दिया.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

15 दिन के अंदरअंदर उस के नाक की नथ कहीं गुम हो गई थी. पानी सिर के ऊपर जा रहा था. तरूण कुछ सुनने को तैयार न था। स्थिति दिनबदिन बिगड़ती जा रही थी.

एक दिन दोपहर के भोजन के बाद सभी अपनेअपने कमरे में आराम करने गए। उस वक्त मनोहरा देवी पूरे गहने पहन कर स्वयं को आईने में निहार रही थीं। तरहतरह के भावभंगिमा कर रही थीं. संयोगवश उसी वक्त निहारिका किसी काम से उन के पास आना चाहती थी. अपने कमरे से निकली ही थी कि खिड़की से ही उसे वह मंजर दिख गया.

उस वक्त उन के शरीर पर वे गहने भी थे जो उस के डब्बे से गायब हुए थे. शक को यकीन में बदलते देख निहारिका सिहर उठी। उस ने चुपके से 1-2 तसवीरें ले लीं।

रात को डिनर खत्म करने के बाद…

“तरूण, मुझे कुछ गहने चाहिए थे…” निहारिका अभी वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि तरूण बोला,”मेरी खूबसूरत बीबी को गहनों की क्या जरूरत है? सच कह रहा हूं नीरू, तुम बहुत बहुत खूबसूरत हो।”

पर तरुण की बातें अभी उसे बेमानी लग रही थीं क्योंकि वह जहां पहुंचना चाहती वह रास्ता ही तरुण ने बंद कर
दिया था. हार कर निहारिका ने वे फोटोज दिखाए जिसे देखते ही तरुण उछल पड़ा। उस की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।

“मम्मी के पास इतने गहने हैं, मुझे तो पता ही नहीं था,” तरूण ने आश्चर्य से फैली आंखों को सिकोड़ते हुए कहा.

“नहीं यह अच्छी बात नहीं है। तरूण, तुम ने शायद देखा नहीं। इन में वे गहने भी हैं जो मेरे डब्बे से गायब हुए थे,” निहारिका ने उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा.

मामला संजीदा था लेकिन उसे दबाना और भी मुश्किल स्थिति को जन्म दे
सकता था.

“मां के गहने यानी तुम्हारे गहने…” तरूण को शर्मिंदगी महसूस हो रही थी तो उस ने बात को टालते हुए कहा.

“तरूण, तुम क्यों समझना नहीं चाहते या फिर…” निहारिका उस के चेहरे पर आ रहे भाव को पढ़ने की कोशिश करने लगी, क्योंकि जो बात सामने आ रही थी वह अजीब सी थी.

“या फिर क्या…” तरूण ने तैश से कहा.

“यही कि तुम जानबूझ कर कुछ छिपाना चाहते हो,” निहारिका ने गंभीर आवाज में कहा.

“मैं क्या छिपा रहा हूं?”

निहारिका चुप रही।

“बोलो नीरू, मैं क्या छिपा रहा हूं?”

“यही कि मम्मी जी क्लाप्टोमैनिया की शिकार हैं…”

“क्या… यह क्या होता है?” तरुण ने कभी नहीं सुना था यह नाम.

“यह एक तरह की बीमारी है। इस बीमारी में व्यक्ति चीजें चुराता है और भूल जाता है,” निहारिका एक ही सांस में सारी बातें कह गई.

“देखो नीरू, मैं मानता हूं मेरी मां बीमार हैं पर चोरी… तरूण बौखला गया.

“वे चोर नहीं हैं। प्लीज मुझे गलत मत समझो,” निहारिका ने अपनी सफाई दी.

“तुम्हें पग फेरे के लिए घर जाना था न, बताओ कब जाना है?” तरूण बहस को और बढ़ाना नहीं चाहता था.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

दोनों ने करवट फेर ली लेकिन नींद किसी के आंखों में न थी. तरूण ने वापस जाने के लिए कह दिया था। सपनों में जो ‘होम स्वीट होम’ का सपना था वह टूट कर चकनाचूर हो गया था.

निहारिका ने हार नहीं मानी। उस ने अपने प्रोफैसर साहब से बात की,”सर, मुझे आप की मदद चाहिए,” निहारिका का दृढ़ स्वर बता रहा था कि वह अपने काम के प्रति कितनी संकल्पित है.

“अवश्य मिलेगी, काम तो बताओ,” प्रोफेसर की आश्वस्त करने वाली आवाज ने निहारिका को निस्संकोच हो अपनी बात रखने का हौसला दिया। इस से पहले वह अपराधबोध से दबी जा रही थी.

“सर, मेरी सासूमां यहांवहां से चुरा कर वस्तुएं ले आती हैं और पूछे जाने पर इनकार कर देती हैं,” निहारिका के आंसुओं ने अनकही बात भी कह दी थी.

“घबराओ मत, धीरज से काम लो निहारिका। सब ठीक हो जाएगा। कभीकभी जीवन का एकाकीपन इस की वजह बन जाती है। आगे तुम खुद समझदार हो,” प्रोफैसर साहब ने रिश्ते की नाजुकता को समझते हुए कहा.

“क्लाप्टोमैनिया लाइलाज बीमारी नहीं, अपनापन और लगाव से इसे दूर किया जा सकता है,” प्रोफैसर साहब के आखिरी वाक्य ने निहारिका के मनोबल को बढ़ा दिया था. वह उन के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने लगी। इलाज का पहला कदम था गाढ़ी दोस्ती…

“मम्मीजी, आज से मैं आप के कमरे में आप के साथ रहूंगी, आप के बेटे से मेरी लड़ाई हो गई है,” निहारिका ने अपना तकिया मनोहरा देवी के बिस्तर पर रखते हुए कहा.

“रहने दो, बीच रात में उठ कर न चली गई तो कहना,” मनोहरा देवी ने अपना अनुभव बांटते हुए कहा.

“कुछ भी हो जाए नहीं जाउंगी,” निहारिका ने आत्मविश्वास से कहा.

रात में उन दोनों ने एकदूसरे के पसंद की फिल्में देखीं। धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के करीब आने लगीं. मनोहरा देवी जब भी बाहर जाने के लिए तैयार होतीं तो निहारिका साथ चलने के लिए तैयार हो जाती या उन्हें अकेले जाने से रोक लेती। कभी मानमुनहार से तो कभी जिद्द से.

ऐसा नहीं था कि तरूण कुछ भी जानता नहीं था, कितनी बार उसे भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी पर मां तो आखिर मां है न… सबकुछ सह जाता था. मां को समझाने की कोशिश भी की पर बिजनैस की व्यस्तता की वजह से ध्यान बंट गया था। निहारिका की कोशिश रंग ला रही थी, यह बात उस से छिपी नहीं थी. अपनी नादानी पर शर्मिंदा भी था। अपने बीच
के मनमुटाव को कम करने के लिए निहारिका के पसंद की चौकलैट फ्लैवर वाली आइस्क्रीम लाया था जिसे अपने हाथों से खिला कर कान पकड़ कर माफी मांगी थी। उठकबैठक भी करने को तैयार था पर नीरू ने गले लगा कर रोक दिया
था.

“नीरू, तुम ने जिस तरह से मम्मी को संभाला है न उस के लिए तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, तरूण ने नम आंखों से कहा.

“अभी नहीं, अभी हमें उन सभी चीजों की लिस्ट बनानी होगी जो मम्मीजी कहीं और से ले आई हैं, उन्हें लौटाना भी होगा,” निहारिका ने इलाज का दूसरा कदम उठाया.

“लौटाना क्यों है नीरू, इस से तो बात…” तरूण ने अपने घर की इज्जत की परवाह करते हुए कहा.

“लोगों को समझने दो। क्लापटोमेनिया एक बीमारी है, समाज को उन्हें उसी रूप में स्वीकारने दो, वे भी समाज का
हिस्सा हैं, कमरे में बंद रखना उपाय नहीं है,” निहारिका की 1-1 बात उस के आत्मविश्वास का परिचय दे रही
थी. निहारिका के रूप का दीवाना तो वह पहले से ही था पर आज अपनी मां के प्रति फिक्रमंद देख मन ही मन अपनी पसंद पर गर्व करने लगा था.
रातरात भर जाग कर दोनों ने उन सभी सामानों का लिस्ट बनाई जो घर के नहीं थे, सब को गिफ्ट की तरह रैपिंग किया। अंदर एक परची पर ‘सौरी’ लिख कर वस्तुओं को लोगों के घर तक पहुंचाया. पतिपत्नी दोनों ने
मिल कर मुश्किल काम को आसान कर लिया था. धीरेधीरे स्थिति सामान्य होने लगी थी.

मंगलवार की सुबह मम्मीजी को बाजार जाना था।

“मम्मी, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ जाते वक्त छोड़ दूंगा,” तरूण ने नास्ता करते हुए कहा,

“नहींनहीं तुम जाओ, मैं नीरू के साथ चली जाउंगी।”

निहारिका ने तरुण की ओर देख कर अपनी पीठ अपने हाथों से थपथपाई।प्रतिउत्तर में तरूण ने हाथ जोड़ने का अभिनय किया. निहारिका मुसकरा दी।

तभी निहारिका की मम्मी का फोन आया,”बेटाजी, नीरू को मायके आए हुए बहुत दिन हो गए, पग फेरे के लिए भी नहीं आए आप दोनों, हो सके तो इस इस दशहरे में कुछ दिनों के लिए उसे छोड़ जाते,” निहारिका की मां अपनी बात एक ही सांस में कह गई थीं.

“माफी चाहूंगा मम्मीजी, लेकिन मेरी मम्मी अब नीरू के बगैर एक पल भी नहीं रहना चाहतीं, ऐसे में मैं उसे वहां
छोड़ना नहीं चाहता…” तरूण ने गर्व से कहा.

“कोई बात नहीं बेटाजी, बेटी अपने घर में खुश रहे, राज करे इस से ज्यादा और क्या चाहिए,” मां ने रुंधे गले से कहा और फोन रख दिया. तरूण के स्वर ने उसे उस घर में मुख्य भूमिका में ला दिया था. निहारिका का होम स्वीट होम का सपना साकार हो रहा था.

पछतावा : आखिर दीनानाथ की क्या थी गलती

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा.

दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है? इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है?’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू?’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या?’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया.

रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया. दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू?’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न?’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया. दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा. शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया.

यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था. बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा?’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं? अपने लाड़ले को इधर भेज.’’

रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं? पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है? चल, ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’

‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन? अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था. इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती.

दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता. मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’

मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता. समय बीतता गया. अब रजनीश 21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगरनिगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था.

घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था.

मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’

रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’

रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘

यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया.

छोटे राजा: क्या थी गौरव की कहानी ?

हाथ की मेहंदी और पैर के महावर का रंग फीका भी नहीं पड़ा था कि कांता ने घर का काम संभाल लिया. घर में न सास थी, न कोई ननद, जो नई दुलहन के आने पर रस्में निभाती. पड़ोस की 2-4 औरतों के साथ मिल कर उस ने खुद ही उन रस्मों को पूरा किया था. गौने में आए तकरीबन सभी मेहमान जा चुके थे. कांता की पायल से रुनझुन की उठने वाली मीठीमीठी आवाज ने सौरभ के आंगन में पिछले 3 सालों से छाई उदासी दूर कर दी थी.  जब 3 साल पहले सौरभ की मां की मौत हुई थी, तब वह जवानी की दहलीज पर पैर रख चुका था. छोटे भाई गौरव की उम्र तब केवल 7 साल की थी. मां के मरने पर वह फूटफूट कर रोया था. अब उस के लिए भैया सौरभ ही मांबाप व भाई सबकुछ था. गौरव को कई रातें थपकियां दे कर सुलाना पड़ा था. वह भैया से बारबार एक ही सवाल पूछता था, ‘‘मां कब आएगी?’’ सौरभ हर बार झूठ बोलता था, ‘‘मां बहुत जल्द वापस आ जाएगी.’’ समझनेबूझने के लिए 10 साल की उम्र कम नहीं होती. पर गौरव को समझने में दिक्कत हो रही थी कि भैया जिसे नई दुलहन के रूप में लाया है, वह मां है या कोई और…? 3 साल में मां की याद धुंधली हो चली थी, लेकिन गौरव को भैया की बात अब तक याद थी कि मां बहुत जल्द वापस आ जाएगी. जब से घर में नईनवेली दुलहन को देखने का मेला लगा था, तब भी वह सब से अलग बैठ कर भैया की बातों को याद कर रहा था.

‘क्या सचमुच मां वापस आ गई? अगर वह मां नहीं है, तो इतनी सुंदर, जवान और काले बालों वाली कैसे हो गई? लेकिन, वह पूछे तो किस से पूछे?’ उस दिन जब भाभी ने पहली बार गौरव का हाथ पकड़ कर प्यार से अपने पास बैठाया, तो वह लाज के मारे पानीपानी हो गया.  भैया आंगन से बाहर निकल रहे थे. निकलतेनिकलते वह बोलते गए, ‘‘कांता, गौरव बड़ा नटखट है. यह तुम्हें बहुत तंग करेगा… और हां, अब तक तो इसे मैं ने संभाला, अब तुम संभालो.’’ कांता ने उसे अपने सीने से लगा लिया. उस दिन देवर और भाभी के बीच काफी देर तक बातें हुईं. गौरव की झिझक मिट चुकी थी. दोनों बहुत जल्दी घुलमिल गए. ‘‘गौरव, एक बात पूछूं?’’ ‘‘पूछिए न.’’ ‘‘आप मुझे क्या कह कर पुकारेंगे?’’ इस सवाल पर गौरव चुप रह गया. क्या कहना ठीक रहेगा, उस की समझ में नहीं आया. ‘‘कुछ बोले नहीं?’’ कांता ने टोका. ‘‘हूं… मां,’’ गौरव के मुंह से बिना सोचे ही निकल गया. कांता जोर से हंस पड़ी और प्यार से गौरव का कान पकड़ कर बोली, ‘‘सिर्फ मां नहीं… भाभी मां.’’ ‘‘भाभी मां,’’ गौरव ने दोहराया.

‘‘हां…’’ कांता पूछ बैठी, ‘‘और मैं आप को क्या कह कर पुकारूंगी?’’ ‘‘गौरव.’’ ‘‘नहीं… छोटे राजा.’’ इस बात पर वे दोनों काफी देर तक हंसते रहे.  वक्त गुजरता गया. सौरभ गांव का सब से बड़ा किसान था. गौरव की पढ़ाई गांव के स्कूल में ही हो रही थी. वह भाभी मां के लाड़प्यार में कुछ ज्यादा ही चंचल हो गया था. सौरभ कभीकभी इस की शिकायत कांता से करता कि तुम ने गौरव को बिगाड़ दिया?है. कभी गुस्से में आ कर वह गौरव को मारने दौड़ता, तो गौरव भाभी मां की साड़ी पकड़ कर उस के पीछे छिप जाता. इस पर कभीकभी सौरभ व कांता में कहासुनी भी हो जाती. सौरभ चिल्ला कर कहता, ‘‘देखना कांता, यह भी मेरी तरह गंवार ही रह जाएगा. और इस में सारी गलती तुम्हारी होगी.’’ ‘‘नहीं, छोटे राजा गंवार नहीं रहेगा… खूब पढ़ेगा और साहब बनेगा,’’ कांता गौरव को अपने पीछे रख कर भैया की पिटाई से बचा लेती. गौरव पढ़नेलिखने में बहुत तेज था. लेकिन ज्यादा चंचल होने के चलते वह अकसर स्कूल से पढ़ाई छोड़ कर भाग जाया करता.  सौरभ दिनरात खेती में लगा रहता.

इस की उसे जानकारी भी नहीं हो पाती. जब स्कूल के मास्टर इस की शिकायत करते, तो वह घर आ कर कांता पर बरस पड़ता.  तब भी कांता यह कर कर गौरव का बचाव करती, ‘‘आप बेकार ही चिंतित हो रहे हैं. अपना गौरव पढ़ने में बहुत तेज है. अच्छे डिवीजन से क्लास पास करेगा.’’ यों तो सौरभ नहीं चाहता था कि गौरव खेती में हाथ बंटाए और उस की पढ़ाई बरबाद हो. फिर भी जरूरत पड़ने पर खेत जाने की हिदायत जरूर करता.  लेकिन गौरव को खेत जाना पसंद नहीं था. वह खेत से लौट कर भाभी मां को पैर और कपड़े में लगे कीचड़ को दिखाते हुए कहता, ‘‘देखो भाभी मां, इसीलिए मैं खेत पर जाना नहीं चाहता.’’ ‘‘लेकिन, आप तो किसान के लड़के हैं. आप को खेत पर जाने में कहीं हिचकना चाहिए?’’ कांता गौरव को प्यार से समझाती.  इस पर गौरव ठुनकने लगता, तो कांता को मजबूर हो कर कहना पड़ता, ‘‘ठीक है, आइंदा आप खेत पर नहीं जाएंगे. मैं आप के भैया से कह दूंगी.’’

सौरभ को यह बात पसंद नहीं थी. गौरव ने स्कूल का इम्तिहान अच्छे नंबर से पास कर लिया. भाभी मां को मना कर के उस ने शहर के अच्छे कालेज में दाखिला ले लिया.  गौरव के बिना कांता को पूरा घर सूनासूना सा लगने लगता था. बाद में अपने बच्चे के साथ रह कर वह इस कमी को भूल गई. सौरभ ने गौरव को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. एक दिन गौरव जब गांव आया, तो आते ही भाभी मां को एक खुशखबरी सुनाई. सुन कर कांता खुशी से उछल पड़ी. घर आते ही सौरभ पूछ बैठा, ‘‘अरे कांता, आज तुम बहुत खुश हो.’’ ‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ कांता सौरभ के सामने दोनों हाथ पीछे कर थोड़ा झुकते हुए बोली, ‘‘जरा मैं भी तो सुनूं कि कैसी खुशी है?’’ ‘‘ऐसे नहीं, पहले वादा.’’ ‘‘कैसा वादा?’’ सौरभ मुसकराया. ‘‘यही कि इस बार फसल बिकने पर अपनी पूजा बेटी के लिए सोने का एक जोड़ा कंगन बनवा दोगे,’’ कांता ने चहकते हुए कहा. ‘‘यह भी कोई शर्त हुई? पूजा तो अभी बच्ची है, भला वह कंगन ले कर क्या करेगी?’’ सौरभ बोला. ‘‘इसलिए कि इसी बहाने उस की शादी के लिए कुछ गहने हो जाएंगे.’’ ‘‘उस की शादी की अभी से चिंता?’’ सौरभ कह कर जोर से हंस पड़ा और कांता के और नजदीक हो कर बोला, ‘‘चलो, यह शर्त मंजूर है. सिर्फ पूजा का ही नहीं… इस बार तुम्हारा भी कंगन.’’ ‘‘शर्त?’’ ‘‘हां.’’ ‘‘अपना गौरव डाक्टरी की पढ़ाई में दाखिला लेने के लिए होने वाले इम्तिहान में पास हो गया है…

वह अब डाक्टर बनेगा… डाक्टर…’’ ‘‘सच…? कहां है वह? पहले मुझे नहीं बताया. आज उस की पिटाई करूंगा…’’ कहतेकहते सौरभ खुशी से रो पड़ा. गौरव का दाखिला डाक्टरी की पढ़ाई वाले कालेज में हो गया. अब तो वह गांव से और भी दूर चला गया था. लेकिन भैया, भाभी मां और भतीजाभतीजी से मिलने वह बारबार गांव आता. भाभी मां अब उसे ‘डाक्टर साहब’ कह कर पुकारने लगी.  गौरव इस पर एतराज करता. वह कहता, ‘‘मुझे ‘छोटे राजा’ सुनने में ही अच्छा लगता है.’’ डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद गौरव किसी बड़े डाक्टर के साथ रह कर मरीजों का इलाज करने की तरकीब सीख रहा था. उस के बाद वह किसी बड़े शहर में डाक्टर की नौकरी करना चाहता था. गौरव कुछ समय के लिए गांव आया था. बातचीत के दौरान उस ने भाभी मां को भी बताया कि वह किसी बड़े शहर में नौकरी करना चाहता है. इस का कांता ने हंसते हुए विरोध किया, ‘‘अगर सभी डाक्टर शहर में ही रहना पसंद करेंगे, तो गांव के लोग कहां जाएंगे?’’ ‘‘भाभी मां, इतना पढ़लिख कर भी गांव की नौकरी? गांव में क्या रखा है? न बिजली, न सड़कें, न मन बहलाने के लिए सिनेमाघर, जबकि शहरों में सड़कें, बिजली की चकाचौंध, बड़ीबड़ी इमारतें, गाडि़यां, पढ़ेलिखे लोग.’’ कांता गौरव का मुंह देख रही.

गौरव इसी धुन में बोलता रहा, ‘‘हर कोई पैसा कमाना चाहता है. मैं भी यही चाहूंगा. गांव में सेवा तो हो सकती है, पैसे नहीं मिल सकते. गांव के लोग गरीब होते हैं, वे डाक्टर को पैसा कहां से देंगे? और शहरों में तो जितना जी चाहे पैसे वसूले जा सकते हैं.’’ ‘‘डाक्टर साहब, यह आप क्या बोल रहे हैं? गांव में जनमे, बड़े हुए, आज गांव से ही नफरत करते हैं? सारे डाक्टर ऐसा ही सोचने लगेंगे, तो गांवों का क्या होगा, जबकि देश के ज्यादातर लोग गांवों में ही रहते हैं?’’ ‘‘छोड़ो भी भाभी मां, यह सब सरकारी भाषा है. सरकार भी यही कहती है कि डाक्टरों को गांवों में अस्पताल खोलने चाहिए, लेकिन कितने डाक्टर गांव में आना चाहते हैं?’’ गौरव की इस बात ने कांता को काफी दुखी किया. गौरव तो वापस चला गया, लेकिन कांता कई दिनों तक बेचैन रही. गौरव की एकएक बात आग बन कर उस के अंदर उतर चुकी थी. हालांकि वह ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थी. फिर भी जितना वह समझ सकी, गौरव का फैसला उसे अच्छा नहीं लगा. कुछ दिनों बाद गौरव मनचाहे शहर में सरकारी डाक्टर बन गया. यह खबर पा कर सौरभ और कांता को काफी खुशी हुई. अब गौरव बहुत कम गांव आ पाता. लेकिन हर महीने भैया को रुपए भेजना नहीं भूलता. जब कभी छुट्टी मिलती, तो घर के सभी लोगों के लिए तरहतरह के तोहफे ले कर जरूर आता. इस बार जब वह घर आया, तो भाभी मां को बीमार देख कर चिंतित हो गया. उस ने भाभी मां से शहर चलने के लिए कहा, ताकि ठीक से इलाज हो सके. लेकिन कांता ने यह कह कर शहर जाने से इनकार कर दिया कि शहर में उस का दम घुटने लगता है.  देहात की ताजा हवा, साफसुथरा माहौल, दूरदूर तक फैली हरियाली, भोलेभाले लोग और मिट्टी की सोंधीसोंधी महक को छोड़ कर वह शहर में नहीं रह सकेगी. शहर में गंदी हवा, भीड़भाड़, कलकारखाने व मशीनों के चिंघाड़ने की आवाजें, चिमनियों से निकलता जहरीला धुआं उसे और ज्यादा बीमार कर देंगे. ‘‘लेकिन, आप वहां नहीं जाएंगी, तो आप की सेहत का क्या होगा?’’ गौरव ने समझाया. ‘‘छोटे राजा साहब, मुझे कुछ नहीं होगा. आप मेरी चिंता मत कीजिए. छोडि़ए भी ये बेतुकी बातें, एक जरूरी बात पूछूं?’’ कांता ने कहा. ‘‘हां, पूछिए.’’

‘‘आप ने अपने लिए कहीं पसंद की है?’’ कांता कह कर हंस पड़ी. ‘‘समझा नहीं…?’’ गौरव भाभी मां का मुंह देखने लगा. ‘‘बुद्धू,’’ कांता ठठा कर हंस पड़ी. ‘‘साफसाफ कहिए न भाभी मां.’’ ‘‘बुद्धू राजा, मेरा मतलब है कि अपने लिए कोई लड़की पसंद की है?’’ ‘‘भाभी मां, जब बाप के समान भैया और मां के समान आप हैं, तो फिर यह हिम्मत मैं कैसे कर सकता हूं?’’ ‘‘भाषणबाजी छोडि़ए,’’ कांता गंभीर होने का नाटक करने लगी. बोली, ‘‘भैया ही पूछ रहे थे. एक लड़की के बाप से बात चल रही है. सोचे, गौरव अपनी पसंद की लड़की खुद चुन लिया होगा तो बाद में दिक्कत होगी.’’ ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है भाभी मां?’’ ‘‘ठीक है, आप खुद भी उस लड़की को देख लेते,’’ कांता ने कहा.

‘‘नहीं, आप लोग जो पसंद करेंगे, मुझे मंजूर होगा.’’ ‘‘अच्छा मेरे लाला, आप के लिए परी ही लाऊंगी. जल्दी इस की खबर मिल जाएगी,’’ कह कर कांता हंसने लगी. गौरव ने भी इस में साथ दिया. गौरव अगले दिन ही वापस चला गया. 2-3 महीने सबकुछ ठीकठाक चला. उस दिन गौरव सो कर उठा ही था कि गांव से आए रिश्ते में भाई लगने वाले अरुण को देख कर चौंक गया. एक झटके में ही उस ने अंदाजा लगाया कि शायद उस की शादी पक्की हो गई?है. यह उसी की खबर ले कर आया होगा. ‘‘अरुण गांव से आ रहे हो? सभी कुशल तो हैं?’’ गौरव ने पूछा. ‘‘अरे, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं… भैया, भाभी मां, पूजा, राहुल, पिंकी सब कुशल तो हैं?’’ गौरव चिंतित हो गया. ‘‘अरुण,’’ गौरव उसे जोर से झकझोरते हुए चिल्लाया. वह किसी अनहोनी के डर से कांपने लगा. ‘‘कांता भाभी…’’ अरुण पूरा नहीं बोल सका.

‘‘क्या हुआ भाभी मां को?’’ गौरव पागलों की तरह चिल्लाया. ‘‘नहीं…’’ गौरव की चीख देर तक गूंजती रही. रेलगाड़ी महानगर से निकल कर खेतखलिहानों से हो कर गांव की ओर दौड़ रही थी. रात आधी बीत चुकी थी. डब्बे के लगभग सभी मुसाफिर सो चुके थे. केवल गौरव और अरुण ही ऐसे थे, जिन्हें नींद नहीं आ रही थी. गौरव तो पत्थर की मूरत की तरह बैठा था. अरुण धीरेधीरे कुछ बतिया रहा था. ‘‘गौरव.’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘जानते हो, कांता भाभी पूरे 24 घंटे तक दर्द से तड़पती रहीं. उन की  पित्त की थैली फट गई थी. अगर कोई अच्छा डाक्टर होता तो कांता भाभी नहीं मरतीं.  ‘‘सौरभ भैया ने तो कहा था, ‘पूरी जमीन बेच दूंगा, लेकिन कांता को नहीं मरने दूंगा…’ मगर कोई डाक्टर आता तब तो… कीचड़ होने के चलते मनमानी फीस का लोभ देने पर भी कोई डाक्टर गांव नहीं आया.

भाभी की हालत शहर ले जाने की नहीं थी.’’ रेलगाड़ी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी. गौरव दीवार से पीठ टेके छत को निहार रहा था.  अरुण अब भी धीमी आवाज में  बोल रहा था, ‘‘गांव के नीमहकीम डाक्टरों ने कांता भाभी को बचाने की पूरी कोशिश की.’’ ‘‘जानते हो गौरव, गांव वाले क्या कानाफूसी कर रहे थे?’’ अरुण कुछ देर रुक कर बोला. ‘‘क्या…?’’ ‘‘अगर तुम होते तो कांता भाभी नहीं मरतीं… और मरतीं भी तो इस तरह  24 घंटे तक तड़प कर नहीं.’’ अरुण की एकएक बात जहर बुझे तीर की तरह गौरव के दिल में उतरती चली गई. भाभी मां की याद और उन की एकएक बात टीस पैदा करने लगी. उस ने पूछा, ‘‘अरुण, सुबह होने में कितनी देर है?’’ ‘‘बस, एक घंटा.’’ ‘‘शहर लौटने के लिए कितने बजे गाड़ी है?’’ ‘‘रात को है. क्या आज ही शहर लौट जाओगे?’’ अरुण ने हैरानी से पूछा. ‘‘हां, आज ही…’’ गौरव की आवाज सख्त थी, ‘‘मैं नौकरी से इस्तीफा दे कर अब गांव में ही डाक्टरी करूंगा, ताकि और कोई भाभी मां तड़पतड़प कर न मरने पाए.’’ ‘‘गौरव…’’ अरुण की आवाज भर आई. ‘‘हां अरुण, भाभी की मौत ने मेरी आंखें खोल दी हैं.’’

अति सर्वत्र वर्जएत : कैसी थी कल्याणी

“माँ! अब मैं थक चुकी हूँ. आपमेरी  भलाई चाहती हैं यह मैं जानती हूँ. आपमेरा बहुत खयाल रखती हैं. जरूरत से कहीं ज्यादा. और आपका यह जरूरत से ज्यादा खयाल मेरे अरमानों का मेरे स्वतन्त्रता का गला घोंट देती है. आप बात-बात पर उदाहरण देती हैं न कि अति सर्वत्र वर्जएत. यहाँ भी अति हो रहा है और इससे आपको परहेज करना चाहिए.” सपना ने तमतमाते हुए कहा.

दर असल अभी-अभी उसका बॉय फ्रेंड उमेश उसे छोड़कर वापस गया था और उसकी माँ कल्याणी ने उसके प्रति अपनी नापसंदगी जताई थी.

“लेकिन बेटा हम तुम्हारी भलाई के लिए ही तो कुछ कहते हैं. मुझे उमेश जरा भी पसंद नहीं है. उसकी पर्सनाल्टी तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं है.” कल्याणी ने अपनी बेटी को समझाया.

“माँ वह मेरा फ्रेंड है. मुझे पसंद है उसका साथ. आपके पसंद होने न होने से क्या मतलब है? मैं अब बालिग हूँ और अपना भला बुरा समझ सकती हूँ.” सपना ने गुस्से से कहा.

“देखो, तुम बालिग जरूर हो गई हो. पर मेरे लिए तुम हमेशा बच्ची ही रहोगी और तुम्हारी भालाई सुनिश्चित करना मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी.” कल्याणी ने क्रोधपूर्वक कहा. पर उसके क्रोध में भी प्यार झलक रहा था.

“आज तक आपको मेरा कोई भी दोस्त ठीक नहीं लगा. किसी न किसी कारण से आपने सबसे मुझे दूरी बनाने की सलाह दी. आपको हमेशा यही लगता रहा कि मुझे और अच्छे लड़के से दोस्ती करनी चाहिए. आपके स्टैंडर्ड तक पहुंचना मेरे लिए संभव नहीं है और न ही मैं पहुंचाना चाहती हूँ. आप कैसे व्यक्ति को पसंद करती हैं शायद आपको भी नहीं पता.” सपना ने पैर पटकते हुए कहा और अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर पलंग पर निढाल पड़ गई.

इतना ज्यादा प्यार भी बच्चों से माँ बाप को नहीं होना चाहिए. सपना ने सोचा. उमेश उसका चौथा बॉयफ्रेंड था जिसके प्रति माँ ने अपनी नापसंदगी जताई थी.और पापा? पापा तो बस अपने काम में व्यस्त रहते हैं. माँ के किसी भी निर्णय के खिलाफ वह जा ही नहीं सकते. और अपना कोए निर्णय उनका है ही नहीं. अतः उनसे कोई अपेक्षा किया जाए या नहीं यह समझना भी मुश्किल था.

उसका पहला दोस्त था दीपक.दीपक उसका बचपन का दोस्त था. साथ-साथ दोनों ने स्कूल में पढ़ाई की थी. कॉलेज में भले ही दोनों अलग हो गए थे परंतु साथ बना रहा था. जन्मदिन, नववर्ष, पर्व-त्योहार पर बधाई देना, बीच-बीच में किसी होटल में डिनर करना, साथ में मल्टीप्लेक्स जाना होता रहता था। दीपक ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा था. काफी दिनों के बाद उसने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. वैसे उसने कभी दीपक को इस नजर से नहीं देखा था. उसने कहा भी था कि उसे कुछ दिनों की मोहलत चाहिए सोचने के लिए. घर में उसने अपनी माँ से दीपक के बारे में बात की तो माँ ने नाक भौं सिकोड़ लिया था. कारण बस एक ही था. दीपक संयुक्त परिवार में रहता था. उसका एक छोटा भाई और एक छोटी बहन थी. माँ का कहना था कि संयुक्त परिवार में आज के जमाने में एडजस्ट करना मुश्किल है. माँ की बात मान उसने दीपक को सॉरी बोल दिया था. धीरे-धीरे दीपक उससे दूर होता चला गया था. और अब वह उसका दोस्त भी नहीं रहा था. अब वह उससे किसी भी मौके पर संपर्क नहीं रखता था. फेसबुक से पता चला था कि उसने शादी कर ली है. उसने बधाई भी दी थी उसे पर उसने उसके कमेन्ट को न लाइक किया न ही कोई प्रतिक्रिया दी.

विनीत दूसरा दोस्त था उसका. विनीत उसके ऑफिस में काम करता था. काफी अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव का था विनीत. उसे वह अलग हट कर इसलिए लगा था क्योंकि उसने कभी भी उसे अपने या किसी और महिला सहकर्मी के शरीर को घूरते या किसी से अनावश्यक संपर्क बनाने की कोशिश करते हुए नहीं देखा था. जबकि अन्य सहकर्मी चोरी छिपे महिला सहकर्मियों के शरीर का मुआयना करते हुए प्रतीत होते थे. हाँ! जब वह उसके पास जाती थी तो जरूर वह उसका स्वागत करता था. बात बात पर उसका शरमा जाना सपना को बहुत भाता था. बल्कि उस वर्ष रोजडे पर उसने उसे लाल गुलाब देने का मन भी बना लिया था. जब उसने अपनी माँ से इस बारे में बताया तो माँ ने साफ मना कर दिया. और कारण क्या था.? कारण यह था कि विनीत ने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया था. पर माँ ने यह नहीं देखा था कि उसने तलाक क्यों दिया था. वास्तव में लड़की वालों ने धोखे से उसके पल्ले एक ऐसी असाध्य रोग से ग्रसित रोगिणी को बांध दिया था जिसके साथ रहना काफी खतरनाक था. माँ के सलाह पर उसने विनीत से प्यार का इजहार ही नहीं किया था.

तीसरा दोस्त निशांत था. उससे उसकी जान पहचान एक रिश्तेदार के घर किसी पारिवारिक समारोह में हुई थी. निशांत देखने में बड़ा ही आकर्षक था. बात व्यवहार में भी बड़ा ही भला था. एक बार जान पहचान होने के बाद सोशल मीडिया पर दोनों जुड़ गए थे. फिर मिलना जुलाना शुरू हो गया था. कई बार वह उसकी सहायता भी करता था. जब माँ को यह अहसास हुई कि वह निशांत के प्रति कोमल भावनाएँ रखती है तो उसने आगाह किया था, “बेटा निशांत से ज्यादा नजदीकी बनाना ठीक नहीं है.”

“क्यों माँ?क्या कमी हैं निशांत में? कितना सहयोग करता है मेरे साथ?”सपना ने मासूमियत से पूछा था.

“बेटा, उसके भाई ने अंतर्जातीय विवाह किया है. उसके परिवार को समाज में ठीक निगाह से नहीं देखा जाता है.” माँ ने बताया था.

“माँ! आज जात-पात को कौन मानता है? जमाना बादल गया है. ऐसी बातें आज के जमाने में कौन देखता है?” उसने अपना पक्ष रखा था.

“जमाना बादल गया होगा बेटा, पर मैं नहीं बदली. मैं तो इस तरह की शादी करने वालों के सख्त खिलाफ हूँ. और तुम्हें भी हिदायत देती हूँ. दोस्ती तक ठीक है पर उससे आगे बढ़ाने की सोचना भी मत.” माँ का सख्त निर्देश मिला था.और फिर निशांत से भी उसकी दोस्ती खतम हो गई थी.

अब बारी थी उमेश की. उमेश उसकी सहकर्मी, शिखा का भाई था. शिखा के घर आते-जाते उसका संपर्क उससे हो गया था. शिखा ने ही बातों-बातों में उसे बताया था कि उसका भाई उमेश उसे पसंद करता है और उसके साथ जीवन बिताना चाहता है. सपना भी पढ़ाई पूरी करने के बाद कई वर्षों से नौकरी कर रही थी. वह भी अब अपना घर बसाना चाहती थी.माँ की अपेक्षा होने वाले दामाद से इतनी अधिक थी कि कोई लड़का उन्हें पसंद ही नहीं आ रहा था.पापा तो मानो माँ के राज में ममोली प्रजा थे. उनकी पसंद नापसंद का कोई महत्व नहीं था.उमेश भी उन्हें नापसंद था और इसका कारण भी क्या था? उमेश की सांवला होना.

अब सपना थक चुकी थी.माँ की अपेक्षाओं के पहाड़ को पार करना उसके वश में नहीं था. पर वह करे क्या समझ नहीं पा रही थी.

पापा! उसके जेहन में पापा आए. वे माँ की इच्छा के सामने सामान्य तौर पर कुछ नहीं बोलते थे और अपने काम में व्यस्त रहते थे. क्या वे उसकी सहायता करेंगे या फिर माँ की हाँ में हाँ मिलाएंगे? पर बात करने में क्या हर्ज है? पर पापा नहीं माने तो? उसके दिल और दिमाग में कशमकश चल रहा था. पापा भी नहीं माने तो भी वह उमेश से शादी करेगी ही. अब वह बालिग है, अपने पैरों पर खड़ी है. अपना भला बुरा समझ सकती है.

उसने पापा के कमरे का दरवाजे पर दस्तक दी. पापा प्रायः अपने रूम बंद करके काम करते रहते थे.

“अंदर आ जाओ.” उन्होने कहा.

सपना दरवाजा खोल अंदर गई.

पापा डेस्कटॉप पर कुछ काम कर रहे थे. उन्होने तुरंत स्क्रीन ऑफ कर दिया और सपना की ओर मुखातिब हुए. यह उनका स्टाइल था. कोई भी उनसे मिलने आता तो वे पूरी तरह उस पर ध्यान केन्द्रित करते थे. यदि टीवी देख रहे हों तो टीवी बंद करते थे, मोबाइल पर कुछ काम कर रहे हों तो मोबाइल किनारे रख देते थे.

“बोलो बेटा.” उन्होने सपना की ओर प्रश्नभरी निगाहों से देखा.

“क्या बोलूँ पापा? आपके पास ऐसे बैठने नहीं आ सकती क्या?” सपना ने तुनकने का अभिनय किया.

“अरे बैठ क्यों नहीं सकती? पर आई हो कुछ विशेष काम से. इसलिए बता दो. फिर बैठना आराम से.” पापा ने कहा.

“पापा! मैं उमेश के साथ शादी करना चाहती हूँ और इस बार आपलोगों के अड़ंगे को मैं नहीं मानूँगी.”

“अड़ंगा? मैंने कभी अड़ंगा नहीं लगाया. तुमने अपने जीवन की बागडोर अपनी माँ के हाथों में दे रखी है. माँ से बात करो.” पापा ने कहा.

“माँ को तो कोई लड़का पसंद ही नहीं आता. मेरे तीन दोस्तों को रिजेक्ट कर चुकी है.” सपना ने निराश स्वर में कहा.

“देखो! मैं तुम्हारे साथ हूँ.मुझे तुम्हारे किसी भी निर्णय पर पूरा भरोसा है. यदि तुम उमेश के साथ शादी करना चाहती हो तो मेरा अपूरा समर्थन है. इसके लिए मैं तुम्हारी माँ से भी लड़ सकता हूँ. वैसे मेरी हिम्मत नहीं होती तुम्हारी माँ के सामने बोलने की पर तुम्हारे लिए मैं किसी भी मुसीबत से टकरा सकता हूँ. तुम्हारी माँ से भी.” पापा ने हँसते हुए कहा.

“पापा!” सपना ने अपना सर पापा के कंधे पर रख दिया. उसे विश्वास नहीं हो रहा था की पापा इतनी जल्द उसके बात मान जाएंगे.पापा ने प्यार से उसके सर पर हाथ रख दिया.

रात में जब आशीष कल्याणी से मिले तो उसे समझाया,” सपना अपने पसंद के लड़के से शादी कर रही है तो तुम क्यों बीच में बाधा बन रही हो.”

कल्याणी ने तल्ख शब्दों में कहा,”मैं बाधा नहीं बन रही, उसके भलाई के लिए कह रही हूँ. कहीं से भी उमेश टिकता है हमारी सपना के सामने. कहाँ सपना गोरी सुंदर कहाँ उमेश सांवला और देखने में एकदम साधारण.”

“भई हम भी तो साँवले और बिलकुल साधारण है. आपके गोरे रंग और सुंदरता के सामने मेरा क्या मोल. पर हम सुखद जीवन जी रहे हैं कि नहीं. यदि मेरे स्थान पर कोई गोरा सुंदर व्यक्ति आपका पति होता पर उतनी स्वतन्त्रता नहीं देता जितनी मैं देता हूँ तो क्या यह ठीक होता?” आशीष ने समझाया.

कुछ देर तर्क वितर्क होता रहा पर अंत में कल्याणी की समझ में बात आई कि रंग और सुंदरता से ज्यादा महत्वपूर्ण है आपसी समझ. और उमेश और सपना के बीच आपसी समझ काफी बेहतर है इसमें कोई दो मत तो था नहीं.

दूसरे दिन सुबह सपना को पापा की ओर से हरी झंडी मिल चुकी थी.और इस बार माँ की ओर से भी सहमति थी. अब सपना अपने पसंद के लड़के से शादी करने जा रही थी.

प्रमाणित किया जाता है कि “माँ! अब मैं थक चुकी….” शब्दों से प्रारंभ होने वाली  रचना ‘अति सर्वत्र वर्जएत’मेरी  स्वरचित मूल रचना है. इसे दिल्ली प्रेस प्रकाशन की पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु ‘विचारार्थ प्रेषित किया जा रहा है. यह कहीं  प्रकाशित  नहीं हुई है.

सन्नाटा: आखिर कौन समझ सकता था वृद्ध दंपती की व्यथा को?

इस वृद्ध दंपती का यह 5वां नौकर सुखलाल भी काम छोड़ कर चला गया. अब वे फिर से असहाय हो गए. नौकर के चले जाने से घर का सन्नाटा और भी बढ़ गया. नौकर था तो वह इस सन्नाटे को अपनी मौजूदगी से भंग करता रहता था. काम करते-करते कोई गाना गुन-गुनाता रहता था. मुंह से सीटी बजाता रहता था. काम से फारिग हो जाने पर टीवी देखता रहता था. बाहर गैलरी में खड़े हो कर सड़क का नजारा देखने लगता था. उस की उपस्थिति का एहसास इस वृद्ध दंपती को होता रहता था. उन के जीवन की एकरसता इस के कारण ही भंग होती थी, इसीलिए वे आंखें फाड़फाड़ कर उसे देखते रहते थे. दोनों जब तब नौकर से बतियाने का प्रयास भी करते रहते थे.

दोनों ऊंचा सुनते थे, लिहाजा, आपस में बातचीत कम ही कर पाते थे. संकेतों से ही काम चलाते थे. इसी कारण आधीअधूरी बातें ही हो पाती थीं.

जब कभी वे आधीअधूरी बात सुन कर कुछ का कुछ जवाब दे देते थे तो नौकर की मुसकराहट या हंसी फूट पड़ती थी. तब वे समझ जाते थे कि उन्होंने कुछ गलत बोल दिया है. उन्हें अपनी गलती पर हंसी आती थी. इस तरह घर के भीतर का सन्नाटा कुछ क्षणों के लिए भंग हो जाता था.

मगर अब नौकर के चले जाने से यह क्षण भी दुर्लभ हो गए. बाहर का सन्नाटा बोझिल हो गया. अपनी असहाय स्थिति पर वे दुखी होने लगे. इस दुख ने भीतर के सन्नाटे को और भी बढ़ा दिया. इस नौकर ने काम छोड़ने के जो कारण बताए उस से इन की व्यथा और भी बढ़ गई. उन्हें अफसोस हुआ कि सुखलाल के लिए इस घर का वातावरण इतना असहनीय हो गया कि वह 17 दिन में ही चला गया.

वृद्ध दंपती को अफसोस के साथसाथ आश्चर्य भी हुआ कि मांगीबाई तो इस माहौल में 7-8 साल तक बनी रही. उस ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. वह तो इस माहौल का एक तरह से अंग बन गई थी. इस छोकरे सुखलाल का ही यहां दम घुटने लगा.

सुखलाल से पहले आए 4 नौकरों ने भी इस घर के माहौल की कभी कोई शिकायत नहीं की. वे अन्य कारणों से काम छोड़ कर चले गए. मांगीबाई के निधन के बाद उन्हें सब से पहले आई छोकरी को चोर होने के कारण हटाना पड़ा था. उस के बाद आई पार्वतीबाई को दूसरी जगह ज्यादा पैसे में काम मिल गया था, इसलिए उस ने क्षमायाचना करते हुए यहां का काम त्यागा था.

पार्वतीबाई के बाद आई हेमा कामचोर और लापरवाह निकली थी. बारबार की टोकाटाकी से लज्जित हो कर वह चली गई थी. इस के बाद आया वह भील युवक जो यहां आ कर खुश हुआ था. उसे यह घर बहुत अच्छा लगा था. पक्का मकान, गद्देदार बिस्तर, अच्छी चाय, अच्छा भोजन आदि पा कर वह अपनी नियति को सराहता रहा था. उस ने वृद्ध दंपती की अपने मातापिता की तरह बड़े मन से सेवा की थी. पुलिस में चयन हो जाने की सूचना उसे यदि नहीं मिलती तो वह घर छोड़ कर कभी नहीं जाता. वह विवशता में गया था.

उस के बाद आया यह सुखलाल, यहां आ कर दुखीलाल बन गया. 17 दिन बाद एक दिन भी यहां गुजारना उसे असहनीय लगा. 14-15 साल का किशोर होते हुए भी वह छोटे बच्चों की तरह रोने लगा था. रोरो कर बस, यही विनती कर रहा था कि उसे अपने घर जाने दिया जाए.

दंपती हैरान हुए थे कि इसे एकाएक यह क्या हो गया. यह रस्सी तुड़ाने जैसा आचरण क्यों करने लगा? इसीलिए उन्होंने पूछा था, ‘‘बात क्या है? रो क्यों रहा है?’’

इस के उत्तर में सुखलाल बस, यही कहता रहा था, ‘‘मुझे जाने दीजिए, मालिक. मुझ से यहां नहीं रहा जाएगा.’’

तब प्रश्न हुआ था, ‘‘क्यों नहीं रहा जाएगा? यहां क्या तकलीफ है?’’

सुखलाल ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘कोई तकलीफ नहीं है, मालिक. यहां हर बात की सुविधा है, सुख है. जो सुख मैं ने अभी तक भोगा नहीं था वह यहां मिला मुझे. अच्छा खानापीना, पहनना सबकुछ एक नंबर. चमचम चमकता मकान, गद्देदार पलंग और सोफे. रंगीन टीवी, फुहारे से नहाने का मजा. ऐसा सुख जो मेरी सात पीढि़यों ने भी नहीं भोगा, वह मैं ने भोगा. तकलीफ का नाम नहीं, मालिक.’’

‘‘तो फिर तुझ से यहां रहा क्यों नहीं जा रहा है? यहां से भाग क्यों रहा है?’’

‘‘मन नहीं लगता है यहां?’’

‘‘क्यों नहीं लगता है?’’

‘‘घर की याद सताती है. मैं अपने परिवार से कभी दूर रहा नहीं, इसलिए?’’

‘‘मन को मार सुखलाल?’’ वृद्ध दंपती ने समझाने की पूरी कोशिश की थी.

‘‘यह मेरे वश की बात नहीं है, मालकिन.’’

‘‘तो फिर किस के वश की है?’’

इस प्रश्न का उत्तर सुखलाल दे न पाया था. वह एकटक उन्हें देखता रहा था. जब इस बारे में उसे और कुरेदा गया था तो वह फिर रोने लगा था. रोतेरोते ही विनती करने लगा था, ‘‘आप तो मुझे बस, जाने दीजिए. अपने मन की बात मैं समझा नहीं पा रहा हूं.’’

वृद्ध दंपती ने इस जिरह से तंग आ कर कह दिया था, ‘‘तो जा, तुझे हम ने बांध कर थोड़े ही रखा है.’’

सुखलाल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘‘जाऊं? आप की इजाजत है?’’

‘‘हां सुखलाल, हां. हम तुझे यहां रहने के लिए मजबूर तो नहीं कर सकते?’’

सुखलाल का चेहरा खिल उठा. वह अपना सामान समेटने लगा था. इस बीच वृद्ध दंपती ने उस का हिसाब कर दिया था. वह अपना झोला ले कर उन के पास आया तो उन्होंने हिसाब की रकम उस की ओर बढ़ाते हुए कहा था, ‘‘ले.’’

सुखलाल ने यह रकम अपनी जेब में रख कर अपना झोला दंपती के सामने फैलाते हुए कहा था, ‘‘देख लीजिए,’’ मगर वृद्ध दंपती ने इनकार में हाथ हिला दिए थे.

सुखलाल ने दोनों के चरणस्पर्श कर भर्राए स्वर में कहा था, ‘‘मुझे माफ कर देना, मालिक. आप लोगों को यों छोड़ कर जाते हुए मुझे दुख हो रहा है, पर करूं भी क्या?’’ इतना कह कर वह फर्श पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर बोला था, ‘‘एक विनती और है?’’

‘‘क्या…बोलो?’’

‘‘बड़े साहब से मेरी शिकायत मत करिएगा वरना मेरे मांबाप आदि की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी. इतनी दया हम पर करना.’’

बड़े साहब से सुखलाल का आशय वृद्धा के भाई फारेस्ट रेंजर से था. वही अपने विश्वसनीय नौकर भिजवाता रहा था. उसी ने ही इस सुखलाल को भी नर्सरी में परख कर भिजवाया था. वह अपने परिवार के साथ वहीं काम कर रहा था.

वृद्ध दंपती से कोई आश्वासन न मिलने पर वह फिर गिड़गिड़ाया था, ‘‘बड़े साहब के डर के कारण ही इतने दिन मैं ने यहां काटे हैं. वरना मैं 2-4 दिन पहले ही चल देता. मेरा मन तो तभी से उखड़ गया था.’’

‘‘मन क्यों उखड़ गया था?’’

तब सुखलाल आलथीपालथी मार कर इतमीनान से बैठते हुए बोला था, ‘‘मन उखड़ने का खास कारण था यहां का सन्नाटा, घर के भीतर का सन्नाटा. यह सन्नाटा मेरे लिए अनोखा था क्योंकि मैं भरेपूरे परिवार का हूं, मेरे घर में हमेशा हाट बाजार की तरह शोरगुल मचा रहता है.

‘‘मगर यहां तो मरघट जैसे सन्नाटे से मेरा वास्ता पड़ा. हमेशा सन्नाटा. किसी से बातें करने तक की सुविधा नहीं. आप दोनों बहरे, इस कारण आप से भी बातें नहीं कर पाता था. अभी की तरह जोरजोर से बोल कर काम लायक बातें ही हो पाती थीं, इसीलिए मेरा दम जैसे घुटने लगता था. मैं बातूनी प्रवृत्ति का हूं. मगर यहां मुझे जैसे मौन व्रत साधना पड़ा, इसीलिए यह सन्नाटा मुझे जैसे डसने लगा.

‘‘मुझे ऐसा लगने लगा कि जैसे मैं किसी पिंजरे में बंद कर दिया गया हूं. इसीलिए मेरा मन यहां लगा नहीं. मेरा घर मुझे चुंबक की तरह खींचने लगा. आप दोनों को जब तब इस छोटी गैलरी में बैठ कर सामने सड़क की ओर ताकते देख कर मुझे पिंजरे के पंछी याद आने लगे. इस पिंजरे से बाहर जाने को मैं छटपटाने लगा. मेरा मन बेचैन हो गया. इसीलिए आप से यह विनती करनी पड़ी. मेरे मन की दशा बड़े साहब को समझा देना. मैं बड़े भारी मन से जा रहा हूं.’’

छोटे मुंह बड़ी बातें सुन कर वृद्ध दंपती चकित थे. उन्हें आश्चर्य हुआ था कि साधारण, दुबलेपतले इस किशोर की मूंछें अभी उग ही रही हैं मगर इस ने उन की व्यथा को मात्र 17 दिन में ही समझ लिया. गैलरी में बैठ कर हसरत भरी निगाहों से सामने सड़क पर बहते जीवन के प्रवाह को निहारने के उन के दर्द को भी वह छोकरा समझ गया, इसीलिए उन का मन हुआ था कि इस समझदार लड़के से कहें कि तू ने पिंजरे के पंछी वाली जो बात कही वह बिलकुल सही है. हम सच में पिंजरे के पंछी जैसे ही हो गए हैं. शारीरिक अक्षमता ने हमें इस स्थिति में ला दिया.

शारीरिक अक्षमता से पहले हम भी जीवन के प्रवाह के अंग थे, अब दर्शक भर हो गए. शारीरिक अक्षमता ने हमें गैलरी में बिठा कर जीवन के प्रवाह को हसरत भरी नजरों से देखते रहने के लिए विवश कर दिया. सामने सड़क पर जीवन को अठखेलियां करते, मस्ती से झूमते, फुदकते एवं इसी तरह अन्य क्रियाएं करते देख हमारे भीतर हूक सी उठती है. अपनी अक्षमता कचोटती है. हमारी शारीरिक अकर्मण्यता हमारी हथकड़ी, बेड़ी बन गई. पिंजरा बन गई. हम चहचहाना भूल गए.

वृद्ध दंपती का मन हो रहा था कि वे सुखलाल से कहें कि हाथपांव होते हुए भी वे हाथपांवविहीन से हो गए. बल्कि जैसे पराश्रित हो गए. पाजामे का नाड़ा बांधना, कमीज के बटन लगाना, खोलना, शीशी का ढक्कन खोलना, पैंट की बेल्ट कसना, अखबार के पन्ने पलटना, शेव करना, नाखून काटना, नहाना, पीठ पर साबुन मलना जैसे साधारण काम भी उन के लिए कठिन हो गए. घूमनाफिरना दूभर हो गया. हाथपांव के कंपन ने उन्हें लाचार कर दिया.

भील युवक ने उन की लाचारी समझ कर उन्हें हर काम में सहायता देना शुरू किया था. वह उन के नाखून काटने लगा था. शेव में सहायता करने लगा था. कपड़े पहनाने लगा था. बिना कहे ही वह उन की जरूरत को समझ लेता था. समझदार युवक था. ऐसी असमर्थता ने जीवन दूभर कर दिया है.

वृद्धा के मन में भी हिलोर उठी थी कि इस सहृदय किशोर को अपनी व्यथा से परिचित कराए. इसे बतलाए कि डायबिटीज की मरीज हो जाने से वह गठिया, हार्ट, ब्लडप्रेशर आदि रोगों से ग्रसित हो गई. उस की चाल बदल गई. टांगें फैला कर चलने लगी. एक कदम चलना भी मुश्किल हो गया. फीकी चाय, परहेजी खाना लेना पड़ गया. खानेपीने की शौकीन को इन वर्जनाओं में जीना पड़ रहा है. फिर भी जब तब ब्लड में शुगर की मात्रा बढ़ ही जाती है. मौत सिर पर मंडराती सी लगती है. परकटे पंछी जैसी हो गई है वह. पिंजरे के पंछी पिंजरे में पंख तो फड़फड़ा लेते हैं मगर उस में तो इतनी क्षमता भी नहीं रही.

मगर दोनों ने अपने मन का यह गुबार सुखलाल को नहीं बताया. वे मन की बात मन में ही दबाए रहे. सुखलाल से तो वह इतना ही कह पाए, ‘‘हम रेंजर साहब से तुम्हारी शिकायत नहीं करेंगे, बल्कि तुम्हारी सिफारिश करेंगे. तुम निश्चिंत हो कर जाओ. हम उन से कहेंगे कि तुम्हें आगे पढ़ाया जाए.’’

सुखलाल की बांछें खिल उठी थीं. वह खुशी से झूमता हुआ चल पड़ा था. जातेजाते उस ने वृद्ध दंपती के चरण स्पर्श किए थे. बाहर सड़क पर से उस ने गैलरी में आ खड़े हुए दंपती को ‘टाटा’  किया था. उन्होंने भी ‘टाटा’ का जवाब हाथ हिला कर ‘टाटा’ में दिया था. वे आंखें फाड़फाड़ कर दूर जाते हुए सुखलाल को देखते रहे. उन्हें वही प्रसन्नता हुई थी जैसे पिंजरे के पंछी को आजाद हो कर मुक्त गगन में उड़ने पर होती है.

लेखक- चंद्रशेखर दुबे

अलमारी का ताला : आखिर क्या थी मां की इच्छा?

हर मांबाप का सपना होता है कि उन के बच्चे खूब पढ़ेंलिखें, अच्छी नौकरी पाएं. समीर ने बीए पास करने के साथ एक नौकरी भी ढूंढ़ ली ताकि वह अपनी आगे की पढ़ाई का खर्चा खुद उठा सके. उस की बहन रितु ने इस साल इंटर की परीक्षा दी थी. दोनों की आयु में 3 वर्ष का अंतर था. रितु 19 बरस की हुई थी और समीर 22 का हुआ था. मां हमेशा से सोचती आई थीं कि बेटे की शादी से पहले बेटी के हाथ पीले कर दें तो अच्छा है. मां की यह इच्छा जानने पर समीर ने मां को समझाया कि आजकल के समय में लड़की का पढ़ना उतना ही जरूरी है जितना लड़के का. सच तो यह है कि आजकल लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करती लड़की से शादी करना चाहते हैं. उस ने समझाया, ‘‘मैं अभी जो भी कमाता हूं वह मेरी और रितु की आगे की पढ़ाई के लिए काफी है. आप अभी रितु की शादी की चिंता न करें.’’ समीर ने रितु को कालेज में दाखिला दिलवा दिया और पढ़ाई में भी उस की मदद करता रहता. कठिनाई केवल एक बात की थी और वह थी रितु का जिद्दी स्वभाव. बचपन में तो ठीक था, भाई उस की हर बात मानता था पर अब बड़ी होने पर मां को उस का जिद्दी होना ठीक नहीं लगता क्योंकि वह हर बात, हर काम अपनी मरजी, अपने ढंग से करना चाहती थी.

पढ़ाई और नौकरी के चलते अब समीर ने बहुत अच्छी नौकरी ढूंढ़ ली थी. रितु का कालेज खत्म होते उस ने अपनी जानपहचान से रितु की नौकरी का जुगाड़ कर दिया था. मां ने जब दोबारा रितु की शादी की बात शुरू की तो समीर ने आश्वासन दिया कि अभी उसे नौकरी शुरू करने दें और वह अवश्य रितु के लिए योग्य वर ढूंढ़ने का प्रयास करेगा. इस के साथ ही उस ने मां को बताया कि वह अपने औफिस की एक लड़की को पसंद करता है और उस से जल्दी शादी भी करना चाहता है क्योंकि उस के मातापिता उस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. मां यह सब सुन घबरा गईं कि पति को कैसे यह बात बताई जाए. आज तक उन की बिरादरी में विवाह मातापिता द्वारा तय किए जाते रहे थे. समीर ने पिता को सारी बात खुद बताना ठीक समझा. लड़की की पिता को पूरी जानकारी दी. पर यह नहीं बताया कि मां को सारी बात पता है. पिता खुश हुए पर कहा, ‘‘अपना निर्णय वे कल बताएंगे.’’

अगले दिन जब पिता ने अपने कमरे से आवाज दी तो वहां पहुंच समीर ने मां को भी वहीं पाया. हैरानी की बात कि बिना लड़की को देखे, बिना उस के परिवार के बारे में जाने पिता ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खुश तो हम खुश.’’ यह बात समीर ने बाद में जानी कि पिता के जानपहचान के एक औफिसर, जो उसी के औफिस में ही थे, से वे सब जानकारी ले चुके थे. एक समय इस औफिसर के भाई व समीर के पिता इकट्ठे पढ़े थे. औफिसर ने बहाने से लड़की को बुलाया था कुछ काम समझाने के लिए, कुछ देर काम के विषय में बातचीत चलती रही और समीर के पिता को लड़की का व्यवहार व विनम्रता भा गई थी. ‘उल्टे बांस बरेली को’, लड़की वालों के यहां से कुछ रिश्तेदार समीर के घर में बुलाए गए. उन की आवभगत व चायनाश्ते के साथ रिश्ते की बात पक्की की गई और बहन रितु ने लड्डुओं के साथ सब का मुंह मीठा कराया. हफ्ते के बाद ही छोटे पैमाने पर दोनों का विवाह संपन्न हो गया. जोरदार स्वागत के साथ समीर व पूनम का गृहप्रवेश हुआ. अगले दिन पूनम के मायके से 2 बड़े सूटकेस लिए उस का मौसेरा भाई आया. सूटकेसों में सास, ससुर, ननद व दामाद के लिए कुछ तोहफे, पूनम के लिए कुछ नए व कुछ पहले के पहने हुए कपड़े थे. एक हफ्ते की छुट्टी ले नवदंपती हनीमून के लिए रवाना हुए और वापस आते ही अगले दिन से दोनों काम पर जाने लगे. पूनम को थोड़ा समय तो लगा ससुराल में सब की दिनचर्या व स्वभाव जानने में पर अधिक कठिनाई नहीं हुई. शीघ्र ही उस ने घर के काम में हाथ बटाना शुरू कर दिया. समीर ने मोटरसाइकिल खरीद ली थी, दोनों काम पर इकट्ठे आतेजाते थे.

समीर ने घर में एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया जो पूनम के आने से आया. उस के पिता, जो स्वभाव से कम बोलने वाले इंसान थे, अपने बच्चों की जानकारी अकसर अपनी पत्नी से लेते रहते थे और कुछ काम हो, कुछ चाहिए हो तो मां का नाम ले आवाज देते थे. अब कभीकभी पूनम को आवाज दे बता देते थे और पूनम भी झट ‘आई पापा’ कह हाजिर हो जाती थी. समीर ने देखा कि पूनम पापा से निसंकोच दफ्तर की बातें करती या उन की सलाह लेती जैसे सदा से वह इस घर में रही हो या उन की बेटी ही हो. समीर पिता के इतने करीब कभी नहीं आ पाया, सब बातें मां के द्वारा ही उन तक पहुंचाई जाती थीं. पूनम की देखादेखी उस ने भी हिम्मत की पापा के नजदीक जाने की, बात करने की और पाया कि वह बहुत ही सरल और प्रिय इंसान हैं. अब अकसर सब का मिलजुल कर बैठना होता था. बस, एक बदलाव भारी पड़ा. एक दिन जब वे दोनों काम से लौटे तो पाया कि पूनम की साडि़यां, कपड़े आदि बिस्तर पर बिखरे पड़े हैं. पूनम कपड़े तह कर वापस अलमारी में रख जब मां का हाथ बटाने रसोई में आई तो पूछा, ‘‘मां, आप कुछ ढूंढ़ रही थीं मेरे कमरे में.’’

‘‘नहीं तो, क्या हुआ?’

पूनम ने जब बताया तो मां को समझते देर न लगी कि यह रितु का काम है. रितु जब काम से लौटी तो पूनम की साड़ी व ज्यूलरी पहने थी. मां ने जब उसे समझाने की कोशिश की तो वह साड़ी बदल, ज्यूलरी उतार गुस्से से भाभी के बैड पर पटक आई और कई दिन तक भाईभाभी से अनबोली रही. फिर एक सुबह जब पूनम तैयार हो साड़ी के साथ का मैचिंग नैकलैस ढूंढ़ रही थी तो देर होने के कारण समीर ने शोर मचा दिया और कई बार मोटरसाइकिल का हौर्न बजा दिया. पूनम जल्दी से पहुंची और देर लगने का कारण बताया. शाम को रितु ने नैकलैस उतार कर मां को थमाया पूनम को लौटाने के लिए. ‘हद हो गई, निकाला खुद और लौटाए मां,’ समीर के मुंह से निकला.

ऐसा जब एकदो बार और हुआ तो मां ने पूनम को अलमारी में ताला लगा कर रखने को कहा पर उस ने कहा कि वह ऐसा नहीं करना चाहती. तब मां ने समीर से कहा कि वह चाहती है कि रितु को चीज मांग कर लेने की आदत हो न कि हथियाने की. मां के समझाने पर समीर रोज औफिस जाते समय ताला लगा चाबी मां को थमा जाता. अब तो रितु का अनबोलापन क्रोध में बदल गया. इसी बीच, पूनम ने अपने मायके की रिश्तेदारी में एक अच्छे लड़के का रितु के साथ विवाह का सुझाव दिया. समीर, पूनम लड़के वालों के घर जा सब जानकारी ले आए और बाद में विचार कर उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया ताकि वे सब भी उन का घर, रहनसहन देख लें और लड़कालड़की एकदूसरे से मिल लें. पूनम ने हलके पीले रंग की साड़ी और मैचिंग ज्यूलरी निकाल रितु को उस दिन पहनने को दी जो उस ने गुस्से में लेने से इनकार कर दिया. बाद में समीर के बहुत कहने पर पहन ली. रिश्ते की बात बन गई और शीघ्र शादी की तारीख भी तय हो गई. पूनम व समीर मां और पापा के साथ शादी की तैयारी में जुट गए. सबकुछ बहुत अच्छे से हो गया पर जिद्दी रितु विदाई के समय भाभी के गले नहीं मिली.

रितु के ससुराल में सब बहुत अच्छे थे. घर में सासससुर, रितु का पति विनीत और बहन रिचा, जिस ने इसी वर्ष ड्रैस डिजाइनिंग का कोर्स शुरू किया था, ही थे. रिचा भाभी का बहुत ध्यान रखती थी और मां का काम में हाथ बटाती थी. रितु ने न कोई काम मायके में किया था और न ही ससुराल में करने की सोच रही थी. एक दिन रिचा ने भाभी से कहा कि उस के कालेज में कुछ कार्यक्रम है और वह साड़ी पहन कर जाना चाहती है. उस ने बहुत विनम्र भाव से रितु से कोई भी साड़ी, जो ठीक लगे, मांगी. रितु ने साड़ी तो दे दी पर उसे यह सब अच्छा नहीं लगा. रिचा ने कार्यक्रम से लौट कर ठीक से साड़ी तह लगा भाभी को धन्यवाद सहित लौटा दी और बताया कि उस की सहेलियों को साड़ी बहुत पसंद आई. रितु को एकाएक ध्यान आया कि कैसे वह अपनी भाभी की चीजें इस्तेमाल कर कितनी लापरवाही से लौटाती थी. कहीं ननद फिर कोई चीज न मांग बैठे, इस इरादे से रितु ने अलमारी में ताला लगा दिया और चाबी छिपा कर रख ली.

एक दिन शाम जब रितु पति के साथ घूमने जाने के लिए तैयार होने के लिए अलमारी से साड़ी निकाल, फिर ताला लगाने लगी तो विनीत ने पूछा, ‘‘ताला क्यों?’’ जवाब मिला-वह किसी को अपनी चीजें इस्तेमाल करने के लिए नहीं देना चाहती. विनीत ने समझाया, ‘‘मम्मी उस की चीजें नहीं लेंगी.’’

रितु ने कहा, ‘‘रिचा तो मांग लेगी.’’ अगले हफ्ते रितु को एक सप्ताह के लिए मायके जाना था. उस ने सूटकेस तैयार कर अपनी अलमारी में ताला लगा दिया. सास को ये सब अच्छा नहीं लगा. सब तो घर के ही सदस्य हैं, बाहर का कोई इन के कमरे में जाता नहीं, पर वे चुप ही रहीं. मायके पहुंची तो मां ने ससुराल का हालचाल पूछा. रितु ने जब अलमारी में ताला लगाने वाली बात बताई तो मां ने सिर पकड़ लिया उस की मूर्खता पर. मां ने बताया कि यहां ताला पूनम ने नहीं बल्कि मां के कहने पर उस के भाई समीर ने लगाना शुरू किया था और चाबी हमेशा मां के पास रहती थी. ताला लगाने का कारण रितु का लापरवाही से भाभी की चीजों का बिना पूछे इस्तेमाल करना और फिर बिगाड़ कर लौटाना था. यह सब उस की आदतों को सुधारने के लिए किया गया था. वह तो सुधरी नहीं और फिर कितनी बड़ी नादानी कर आई वह ससुराल में अपनी अलमारी में ताला लगा कर. मां ने समझाया कि चीजों से कहीं ऊपर है एकदूसरे पर विश्वास, प्यार और नम्रता. ससुराल में अपनी जगह बनाने के लिए और प्यार पाने के लिए जरूरी है प्यार व मान देना. रितु की दोपहर तो सोच में डूबी पर शाम को जैसे ही भाईभाभी नौकरी से घर लौटे उस ने भाभी को गले लगाया. भाभी ने सोचा शायद काफी दिनों बाद आई है, इसलिए ऐसा हुआ पर वास्तविकता कुछ और थी.

रितु ने देखा यहां अलमारी में कोई ताला नहीं लगा हुआ, वह भी शीघ्र ससुराल वापस जा ताले को हटा मन का ताला खोलना चाहती है ताकि अपनी भूल को सुधार सके, सब की चहेती बन सके जैसे भाभी हैं यहां. एक हफ्ता मायके में रह उस ने बारीकी से हर बात को देखासमझा और जाना कि शादी के बाद ससुराल में सुख पाने का मूलमंत्र है सब को अपना समझना, बड़ों को आदरमान देना और जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाना. इतना कठिन तो नहीं है ये सब. कितनी सहजता है भाभी की अपने ससुराल में, जैसे वह सब की और सब उस के हैं. मां के घुटनों में दर्द रहने लगा था. रितु ने देखा कि भाभी ने सब काम संभाल लिया था और रात को सोने से पहले रोज वे मां के घुटनों की मालिश कर देती थीं ताकि वे आराम से सो सकें. अब वही भाभी, जिस के लिए उस के मन में इतनी कटुता थी, उस की आदर्श बनती जा रही थीं.

एक दिन जब पूनम और समीर को औफिस से आने में देर हो गई तब जल्दी कपड़े बदल पूनम रसोई में पहुंची तो पाया रात का खाना तैयार था. मां से पता चला कि खाना आज रितु ने बनाया है, यह बात दूसरी थी कि सब निर्देश मां देती रही थीं. रितु को अच्छा लगा जब सब ने खाने की तारीफ की. पूनम ने औफिस से देर से आने का कारण बताया. वह और समीर बाजार गए थे. उन्होंने वे सब चीजें सब को दिखाईं जो रितु के ससुराल वालों के लिए खरीदी गई थीं. इस इतवार दामादजी रितु को लिवाने आ रहे थे. खुशी के आंसुओं के साथ रितु ने भाईभाभी को गले लगाया और धन्यवाद दिया. मां भी अपने आंसू रोक न सकीं बेटी में आए बदलाव को देख कर. रितु ससुराल लौटी एक नई उमंग के साथ, एक नए इरादे से जिस से वह सब को खुश रखने का प्रयत्न करेगी और सब का प्यार पाएगी, विशेषकर विनीत का.

रितु ने पाया कि उस की सास हर किसी से उस की तारीफ करती हैं, ननद उस की हर काम में सहायता करती है और कभीकभी प्यार से ‘भाभीजान’ बुलाती है, ससुर फूले नहीं समाते कि घर में अच्छी बहू आई और विनीत तो रितु पर प्यार लुटाता नहीं थकता. रितु बहुत खुश थी कि जैसे उस ने बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो एक छोटे से हथियार से, ‘प्यार का हथियार’.

टूटे कांच की चमक : मैट्रो में लगी नई फिल्म

उस बिल्डिंग में वह हमारा पहला दिन था. थकान की वजह से सब का बुरा हाल था. हम लोग व्यवस्थित होने की कोशिश में थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक महिला खड़ी थीं.

अपना परिचय देते हुए वह बोलीं, ‘‘मेरा नाम नीलिमा है. आप के सामने वाले फ्लैट में रहती हूं्. आप नएनए आए हैं, यदि किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कहिएगा.

मैं ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा. माथे पर लगी गोल बड़ी सी बिंदी, साड़ी का सीधा पल्ला, लंबा कद, भरा बदन उन के संभ्रांत होने का परिचय दे रहा था.

कुछ ही देर बाद उन की बाई आई और चाय की केतली के साथ नाश्ते की ट्रे भी रख गई. सचमुच उस समय मुझे बेहद राहत सी महसूस हुई थी.

‘‘आज रात का डिनर आप लोग हमारे साथ कीजिए.’’

मेरे मना करने पर भी नीलिमाजी आग्रहपूर्वक बोलीं, ‘‘देखिए, आप के लिए मैं कुछ विशेष तो बना नहीं रही हूं, जो दालरोटी हम खाते हैं वही आप को भी खिलाएंगे.’’

रात्रि भोज पर नीलिमाजी ने कई तरह के स्वादिष्ठ पकवानों से मेज सजा दी. राजमा, चावल, दहीबड़े, आलू, गोभी और न जाने क्याक्या.

‘‘तो इस भोजन को आप दालरोटी कहती हैं?’’ मैं ने मजाकिया स्वर में नीलिमा से पूछा तो वह हंस दी थीं.

जवाब उन के पति प्रो. रमाकांतजी ने दिया, ‘‘आप के बहाने आज मुझे भी अच्छा भोजन मिला वरना सच में, दालरोटी से ही गुजारा करना पड़ता है.’’

लौटते समय नीलिमाजी ने 2 फोल्ंिडग चारपाई और गद्दे भी भिजवा दिए. हम दोनों पतिपत्नी इस के लिए उन्हें मना ही करते रहे पर उन्होंने हमारी एक न चलने दी.

अगली सुबह, रवि दफ्तर जाते समय सोनल को भी साथ ले गए. स्कूल में दाखिले के साथ, नए गैस कनेक्शन, राशन कार्ड जैसे कई छोटेछोटे काम थे, जो वह एकसाथ निबटाना चाह रहे थे. ब्रीफकेस ले कर रवि जैसे ही बाहर निकले नीलिमाजी से भेंट हो गई. उन के हाथ में एक परची थी. रवि को हाथ में देते हुए बोलीं, ‘‘भाई साहब, कल रात मैं आप को अपना टेलीफोन नंबर देना भूल गई थी. जब तक आप को फोन कनेक्शन मिले, आप मेरा फोन इस्तेमाल कर सकते हैं.’’

नीलिमाजी ने 2 दिन में काम वाली बाई और अखबार वाले का इंतजाम भी कर दिया. जब घर सेट हो गया तब भी नीलिमा को जब भी समय मिलता आ कर बैठ जातीं. सड़क के आरपार के समाचारों का आदानप्रदान करते उन्हें देख मैं ने सहजता से अनुमान लगा लिया था कि उन्होंने महिलाओं से अच्छाखासा संपर्क बना रखा है.

उस समय मैं सामान का कार्टन खोल रही थी कि अचानक उंगली में पेचकस लगने से मेरे मुंह से चीख निकल गई तो नीलिमाजी मेरे पास सरक आई थीं. उंगली से खून निकलता देख कर वह अपने घर से कुछ दवाइयां और पट्टी ले आईं और मेरी चोट पर बांधते हुए बोलीं, ‘‘जो काम पुरुषों का है वह तुम क्यों करती हो. यह सोनल क्या करता रहता है पूरा दिन?’’

नीलिमा दीदी का तेज स्वर सुन कर सोनल कांप उठा. बेचारा, वैसे ही मेरी चोट को देख कर घबरा रहा था. जब तक मैं कुछ कहती, उन्होंने लगभग डांटते हुए सोनल को समझाया, ‘‘मां का हाथ बंटाया करो. ये कहां की अक्लमंदी है कि बच्चे आराम फरमाते रहें और मां काम करती रहे.’’

सोनल अपने आंसू दबाता हुआ घर के अंदर चला गया. मैं अपने बेटे की उदासी कैसे सहती. अत: बोली, ‘‘दीदी, सोनल मेरी बहुत मदद करता है पर आजकल इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त है.’’

‘‘इंटरव्यू, कैसा इंटरव्यू?’’

‘‘दरअसल, इसे दूसरे स्कूलों में ही दाखिला मिल रहा है. लेकिन हम चाहते हैं कि इसे ‘माउंट मेरी’ स्कूल में ही दाखिला मिले.’’

‘‘क्यों? माउंट मेरी स्कूल में कोई खास बात है क्या?’’ नीलिमा ने भौंहें उचका कर पूछा तो मुझे अच्छा नहीं लगा था. अपने घर किसी पड़ोसी का हस्तक्षेप उस समय मुझे बुरी तरह खल गया था.

बात को स्पष्ट करने के लिए मैं ने कहा, ‘‘यह स्कूल इस समय नंबर वन पर है. यहां आई.आई.टी. और मेडिकल की कोचिंग भी छात्रों को मिलती है.’’

‘‘अजी, स्कूल के नाम से कुछ नहीं होता,’’ नीलिमा बोलीं, ‘‘पढ़ने वाले बच्चे कहीं भी पढ़ लेते हैं.’’

‘‘यह तो है फिर भी स्कूल पर काफी कुछ निर्भर करता है. कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों को अच्छी प्रतिस्पर्धा मिले तो वे सफलता के सोपान चढ़ते चले जाते हैं.’’

‘‘लेकिन इतना याद रखना सविता, इन्हीं स्कूलों के बच्चे ड्रग एडिक्ट भी होते हैं. कुछ तो असामाजिक गतिविधियों में भी भाग लेते देखे गए हैं,’’ इतना कहतेकहते नीलिमा हांफने लगी थीं.

खैर, जैसेतैसे मैं ने उन्हें विदा किया.

नीलिमा की जरूरत से ज्यादा आवाजाही और मेरे घरेलू मामले में दखलंदाजी अब मुझे खलने लगी थी. कई बार सुना था कि पड़ोसिनें दूसरे के घर में घुस कर पहले तो दोस्ती करती हैं, बातें कुरेदकुरेद कर पूछती हैं फिर उन्हें झगड़े में तबदील करते देर नहीं लगती.

एक दिन मैं और पड़ोसिन ममता एक साथ कमरे में बैठे थे. तभी नीलिमा आ गईं और बोलीं, ‘‘यह तुम्हारा पंखा बहुत आवाज करता है, कैसे सो पाती हो?’’

यह कह कर वह अपने घर गईं और टेबल फैन उठा कर ले आईं.

‘‘कल ही मिस्तरी को बुलवा कर पंखा ठीक करवा लो. तब तक इस टेबल फैन से काम चला लेना.’’

पड़ोसिन ममता के सामने उन की यह बेवजह की घुसपैठ मुझे अच्छी नहीं लगी थी. रवि दफ्तर के काम में बेहद व्यस्त थे इसलिए इन छोटेछोटे कामों के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे. सोनल भी ‘माउंट मेरी स्कूल’ के पाठ्यक्रम के  साथ खुद को स्थापित करने में कुछ परेशानियों का सामना कर रहा था, मिस्तरी कहां से बुलाता? मैं भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाई थी. मैं ने उन्हें धन्यवाद दिया और एक प्याली चाय बना कर ले आई.

चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने टटोलती सी नजर चारों ओर फेंक कर पूछा, ‘‘सोनल कहां है?’’

‘‘स्कूल में ही रुक गया है. कालिज की लाइब्रेरी में बैठ कर पढे़गा. आ जाएगा 4 बजे तक .’’

नीलिमा के चेहरे पर चिंता की आड़ीतिरछी रेखाएं उभर आईं. कभी घड़ी की तरफ  देखतीं तो कभी मेरी तरफ. लगभग सवा 4 बजे सोनल लौटा और किताबें अपने कमरे में रख कर बाथरूम में घुस गया. मैं ने तब तक दूध गरम कर के मेज पर रख दिया था.

नए कपड़ों में सोनल को देख कर नीलिमाजी ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘सोनल कहीं जा रहा है?’’

‘‘हां, इस के एक दोस्त का आज जन्मदिन है, उसी पार्टी में जा रहा है.’’

सोनल घर से बाहर निकला तो बुरा सा मुंह बना कर बोलीं, ‘‘सविता, जमाना बड़ा खराब है. लड़का कहां जाता है, क्या करता है, इस की संगत कैसी है आदि बातों का ध्यान रखा करो. अपना बच्चा चाहे बुरा न हो लेकिन दूसरे तो बिगाड़ने में देर नहीं करते.’’

नीलिमा की आएदिन की टीका- टिप्पणी के कारण सोनल अब उन से चिढ़ने लगा था. उन के आते ही उठ कर चला जाता. मुझे भी उन की जरूरत से ज्यादा घुसपैठ अच्छी नहीं लगती थी, किंतु उन के सहृदयी, स्नेही स्वभाव के कारण विवश हो जाती थी.

धीरेधीरे, मैं ने अपने घर का दरवाजा बंद रखना शुरू कर दिया. घर के  अंदर घंटी बंद करने का स्विच और लगवा लिया. अब जब भी दरवाजे पर घंटी बजती मैं ‘आईहोल’ में से झांकती. अगर नीलिमा होतीं तो मैं घंटी को कुछ देर के लिए अनसुनी कर देती और यह समझ कर कि घर के अंदर कोई नहीं है, वह लौट जातीं.

काफी राहत सी महसूस होने लगी थी मुझे. कई आधेअधूरे काम निबट गए. कुछ लिखनेपढ़ने का समय भी मिलने लगा. सोनल भी अब खुश रहता था. पढ़ने के बाद जो भी थोड़ाबहुत समय मिलता वह मेरे पास बैठ कर बिताता. शाम को जब रवि दफ्तर से लौटते, हम नीचे जा कर बैठ जाते. कुछ नए लोगों से जानपहचान बढ़ी, कुछ नए मित्र भी बने.

उन्हीं दिनों मैट्रो में एक नई फिल्म लगी थी. हम दोनों पतिपत्नी पिक्चर गए थे, बरसों बाद.

अचानक, रवि के मोबाइल की घंटी बजी. नीलिमाजी थीं. बदहवास, परेशान सी बोलीं, ‘‘भाई साहब, आप जहां भी हैं जल्दी घर आ जाइए. आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया गया है.’’

धक्क से रह गया दिल. पिक्चर आधे में ही छोड़ कर दौड़तीभागती मैं घर की सीढि़यां चढ़ गई थी. रवि गाड़ी पार्क कर रहे थे. दरवाजे पर ही रमाकांतजी मिल गए. बोले, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, भाभीजी. हम ने चोर को पकड़ कर अपने घर में बंद कर रखा है. पुलिस के आते ही उस लड़के को हम उन के हवाले कर देंगे.’’

मैं ने बदहवासी में दरवाजा खोला. अलमारी खुली हुई थी. कैमरा, वाकमैन, घड़ी के साथ और भी कई छोटीछोटी चीजें थैले में डाल दी गई थीं. लाकर को भी चोर ने हथौड़े से तोड़ने का प्रयास किया था पर सफल नहीं हो पाया था. एक दिन पहले ही रवि के एक मित्र की शादी में पहनने के लिए मैं बैंक से सारे गहने निकलवा कर लाई थी. कुछ नगदी भी घर में पड़ी थी. अगर नीलिमा ने समय पर बचाव न किया होता तो आज अनर्थ ही हो जाता.

मैंऔर रवि कुछ क्षण बाद जब नीलिमा के घर पहुंचे तो वह उस चोर लड़के को बुरी तरह मार रही थीं. रमाकांतजी ने पत्नी के चंगुल से उस लड़के को छुड़ाया, फिर बोले, ‘‘जान से ही मार डालोगी क्या इसे?’’ तब नीलिमा गुस्से में बोली थीं, ‘‘कम्बख्त, पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया.’’

कुछ ही देर में पुलिस आ गई और उस लड़के को पकड़ कर अपने साथ ले गई. हम सब के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे.

इस के बाद ही पसीने से लथपथ नीलिमा के सीने में तेज दर्द उठा तो सब उन्हें सिटी अस्पताल ले गए. डाक्टरों ने बताया कि हार्ट अटैक है. 3 दिन और 2 रातों के  बाद उन्हें होश आया. जिस दिन उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज होना था हम पतिपत्नी सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे. डाक्टरों ने हमें समझाया कि इन्हें हर प्रकार के टेंशन से दूर रहना होगा. जरा सा रक्तचाप बढ़ा तो दोबारा हार्टअटैक पड़ सकता है.

रमाकांतजी कुरसी पर बैठे एकटक पत्नी को देखे जा रहे थे. अचानक उन का गला भर आया. वे कांपते स्वर में बोले, ‘‘जिस के दिल में, ज्ंिदगी भर का नासूर पल रहा हो वह भला टेंशन से कैसे दूर रह सकता है. सविताजी, जिस लड़के ने आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया वह हमारा बेटा था.’’

विश्वास नहीं हुआ था अपने कानों पर. लोगों को शिक्षित करने वाले रमाकांतजी और पूरे महल्ले की हितैषी नीलिमा का बेटा चोर, जो खुद के स्नेह से सब को स्ंिचित करती रहती थीं उन का अपना बेटा अपराधी?

रमाकांतजी ने बताया, ‘‘दरअसल, नीलिमा ने आप लोगों को कार में बिल्ंिडग से बाहर जाते हुए देख लिया था. कोई आधा घंटा भी नहीं बीता होगा, जब दूध ले कर लौट रही थीं कि आप के घर का ताला नदारद था और दरवाजा अंदर से बंद था. पहले नीलिमा ने सोचा कि शायद आप लोग लौट आए हैं लेकिन जब खटखट का स्वर सुनाई दिया तो उन्हें शक हुआ. धीरे से उन्होंने दरवाजा बाहर से बंद किया और चौकीदार को बुला लाई. थोड़ी देर में चौकीदार की सहायता से चोर को अपने घर में बंद कर दिया और फोन कर पुलिस को सूचित भी कर दिया.’’

हतप्रभ से हम पतिपत्नी एकदूसरे का चेहरा देखते तो कभी रमाकांतजी के चेहरे पर उतरतेचढ़ते हावभावों को पढ़ने का प्रयास करते.

‘‘शहर के सब से अच्छे स्कूल ‘माउंट मेरी कानवेंट’ में हम ने अपने बेटे का दाखिला करवाया था,’’ टूटतेबिखरते स्वर में रमाकांत बताने लगे, ‘‘इकलौती संतान से हमें भी ढेरों उम्मीदें थीं. यही सोचते थे कि हमारा बेटा भी होनहार निकलेगा. पर वह बुरी संगत में फंस गया. हम दोनों पतिपत्नी समझते थे कि वह स्कूल गया है पर वह स्कूल नहीं, अपने दोस्तों के पास जाता था. स्कूल से शिकायतें आईं तो डांटफटकार शुरू की, मारपीट का सिलसिला चला पर सब बेकार गया. उसे तो चरस की ऐसी लत लगी कि पहले अपने घर से पैसे चुराता, फिर पड़ोसियों के घरों में चोरी करने लगा. लोग हम से शिकायतें करने लगे तो हम ने स्पष्ट शब्दों में सब से कह दिया कि ऐसी नालायक औलाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

सहसा मुझे याद आया वह दिन जब निर्मला ने स्कूल के मुद्दे को छेड़ कर मुझ से कितनी बहस की थी. मेरे सोनल में शायद वह अपने बेटे की छवि देखती होंगी. तभी तो समयअसमय आ कर सलाहमशविरा दे जाती थीं. यह सोचते ही मेरी आंखों की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े.

निर्मला की तांकनेझांकने की आदत से मैं कितना परेशान रहती थी. यही सोचती थी कि इन का अपने घर में मन नहीं लगता पर आज असलियत जान कर पता चला कि जब अपना ही खून अपने अस्तित्व को नकारते हुए बगावत का झंडा खड़ा कर बीच बाजार में इज्जत नीलाम कर दे तो कैसा महसूस होता होगा अभिभावकों को?

सच, व्यक्तित्व तो दर्पण की तरह होता है. जहां तक नजर देख पाती है उतना ही सत्य हम पहचानते हैं, शीशे के पीछे पारे की पालिश तक कौन देख सकता है? काश, नीलिमा की प्रतिछवि को पार कर कांच की चमक के पीछे दरकती गर्द की चुभन को मैं ने पहचाना होता पर अब भी देर नहीं हुई थी. वह मेरे लिए पड़ोसिन ही नहीं, आदरणीय बहन भी बन गई थीं.

हियरिंग ऐड : क्या सालों बाद भी माया ने किया उसका इंतजार

फूलों सी नाजुक उस लड़की से कोई तो रिश्ता है मेरा वरना उसे देखते ही दिल
इतना बेचैन क्यों होता है? उस की आंखों में मैं अपना अक्स क्यों ढूंढने
लगता हूं ? एक अजनबी लड़की के होठों से अपना नाम क्यों सुनना चाहता हूं ?
मेरा दिल कह रहा था एक बार उस से अपने दिल की बात कह दूं. मैं मौके की
तलाश में था.

उस दिन वह कॉलेज कैंटीन में अकेली बैठी कुछ पढ़ रही थी. कैंटीन उस वक्त
खाली सा था. मैं उस के सामने वाली चेयर पर जा कर बैठ गया और गला साफ करते
हुए कुछ कहने की हिम्मत जुटाने लगा. मगर उस का ध्यान मेरी तरफ नहीं था.
वह नौवल पढ़ने में मशगूल थी.

मैं ने फिर से अपना गला साफ किया और टेबल पर रखे उस के हाथ थाम कर कहना
शुरू किया,” आज तक मैं ने कभी किसी के लिए ऐसा महसूस नहीं किया जैसा आप
के लिए करता हूं. यह प्यारी बोलती सी आंखें, ये घुंघराले बाल, यह मासूम
सा चेहरा मेरी आंखों में बस गया है. सोतेजागते, पढ़तेलिखते हर वक्त आप ही
नजर आती हो. यू आर माय फर्स्ट लव एंड द फर्स्ट लव विल बी द लास्ट लव. डू
यू लाइक मी?”

माया एक हल्की मुस्कान लिए मेरी नजरों में देख रही थी. उस ने कोई जवाब
नहीं दिया तो मैं थोड़ा असहज हो गया,” देखिए मैं दूसरे लड़कों की तरह
नहीं हूं. आई रियली लव यू. रूह की गहराइयों से प्यार करता हूं आप को. ”

वह अब भी मुझे वैसे ही देखती रही. एक बार फिर कोई जवाब न पा कर मैं ने उस
के हाथ छोड़ दिए और आंखें नीची कर ली.

तब जैसे वह होश में आई और तुरंत बोली,” एक्चुअली आई डोंट नो व्हाट डिड यू
से. मैं ने सुना नहीं. मेरे कान खराब हैं न. ”

मैं हतप्रभ रह गया. मेरी इतनी मेहनत बेकार गई थी. इतनी फीलिंग्स के साथ
मैं ने इतना कुछ कहा और वह तो कुछ सुन ही नहीं सकी. बहरी है बेचारी. मन
में अफसोस हुआ. इशारे से कुछ कहती हुई वह बैग खोलने लगी और मैं सॉरी कह
कर वहां से उठ गया.

“अरे सुनो. रुको तो. कहाँ जा रहे हो?” वह पुकार रही थी. मगर मैं अपनी ही
धुन में बाहर निकल आया.

मेरे पहले प्यार का पहला प्रपोजल सुना ही नहीं गया था. पर मैं ने हिम्मत
नहीं आ हारी और वही सब बातें एक कागज पर लिख कर फिर से उस के पास पहुंचा
और उसे कागज थमा दिया. मैं ने यह भी लिख दिया था कि आप बहरी हैं यह जान
कर बहुत दुख हुआ. मगर आप के अंदर इतनी खूबियां हैं कि है एक कमी कोई
मायने नहीं रखती.

कागज पढ़ कर वह मुस्कुरा उठी और सहजता से बोली,” आई रियली लाइक यू. कल
तुम क्या कह रहे थे यह मैं ने कानों से तो नहीं सुना मगर तुम्हारे दिल
में क्या है यह अच्छी तरह महसूस किया था. जब तुम मेरे पास आ कर बैठे थे
उसी पल मैं ने तुम्हें अपना दिल दे दिया था. तुम दूसरे लड़कों से बहुत
अलग हो. जैसा मैं चाहती थी बिल्कुल वैसे हो. तुम्हें यह भी बता दूं कि
मैं बहरी नहीं, बस सुनाई कम देता है. यह हियरिंग ऐड न लगाऊं तो हल्की
आवाज कान तक नहीं पहुंचती. जब कोई चिल्ला कर बोले तभी सुनाई देता है. पर
यह हियरिंग ऐड लगाते ही सब कुछ क्लियर सुन सकती हूं. कल मैं इसे निकालने
के लिए ही बैग खोल रही थी. तब तक तुम चले गए. मुझे लगा बहरी समझ कर तुम
दोबारा नहीं आओगे. मगर आज तुम फिर से वापस आए तो मुझे यकीन हो गया है कि
तुम्हारा प्यार सच्चा है. ”

” प्यार तो रूह से होता है. एक जुड़ाव जो तुम्हारे लिए महसूस किया, कभी
किसी और के लिए नहीं किया, ” मैं ने कहा.

” मेरे आगेपीछे हजारों लड़के घूमते हैं मगर किसी की आंखों में वह प्यार
नहीं था जो प्यार तुम्हारी आंखों में है. कितनी सादगी और सरलता से तुमने
अपने दिल की बात कह दी. सच तुम्हारी ही तलाश थी मुझे, ” वह मुझे चाहत भरी
नजरों से देख रही थी.

इस तरह वह यानी माया मेरी जिंदगी में आ गई. हम साथ हंसते, साथ खातेपीते
और साथ ही पढ़ते. वह ऐसी लड़की थी जो जिंदगी पूरी तरह जीना चाहती थी. खुद
के साथ दूसरों का भी ख्याल रखती. खूब मस्ती करती और पढ़ाई के समय सीरियस
हो कर पढ़ती भी. उसे नोवेल्स पढ़ने का बहुत शौक था. अक्सर नोवेल्स के
किरदारों में गुम रहती.

हम ने बेहद खूबसूरत लम्हे साथ बिताए. वह कभी मुझ से बोर हो जाती या झगड़ा
होता तो वह अपने हियरिंग ऐड कान से निकाल कर पर्स में रख लेती. फिर मैं
कितना भी बोलता रहता उसे फर्क नहीं पड़ता. थोड़ी देर के बाद मुझे याद आता
कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा होगा. हम दोनों बाद में इस बात पर बहुत
हंसते.

इसी तरह समय बीत रहा था. हम ने ग्रेजुएशन कर लिया. माया और मैं ने अब
एमबीए का कोर्स ज्वाइन कर लिया था. इधर कुछ दिनों से मां मेरी शादी की
बातें करने लगी थी. मगर मैं अभी माया के मन की थाह लेना चाहता था. हम ने
अब तक शादी को ले कर कोई चर्चा नहीं की थी.

एक दिन माया एक नौवेल पढ़ती हुई उस के किरदारों के बारे में बताने लगी, ”
जानते हो इस नौवेल के दोनों मुख्य किरदारों ने शादी कहां की ?”

“कहां की?”

” उन्होंने पानी के जहाज पर शादी की,” यह बात बताते वक्त उस की आंखों में
एक चमक थी. फिर अचानक गंभीर हो कर बोली,” अच्छा यह बताओ कि हम अपनी शादी
कहां करेंगे?”

मैं मुस्कुरा पड़ा. मेरे दिल को तसल्ली मिली कि माया मेरे साथ पूरी
जिंदगी के सपने देख रही है. उस ने फिर से मुझ से पूछा तो मैं ने उस के
हाथों को चूम कर कहा,” हम आसमान में शादी करेंगे. बादलों के बीच प्लेन
में बैठ कर हमेशा के लिए एकदूसरे के बन जाएंगे. ”

सुन कर वह खिलखिला उठी और मेरे गले लग गई. बिना कुछ कहे ही हम ने एकदूसरे
को शादी के लिए प्रपोज कर लिया था. अगले दिन मैं ने विचार किया कि अब
मुझे मां से शादी की बात कर लेनी चाहिए. आखिर मां मेरी शादी को ले कर
बहुत सपने देख रही है. दरअसल मैं मां का इकलौता बेटा हूं. बड़ी दीदी की
शादी हो चुकी है और पापा 2 साल पहले हमें छोड़ कर जा चुके हैं. सही मायने
में मां के सिवा मेरा कोई नहीं था.

मैं ने मां को हर बात सच बताने की ठानी और उन के पास पहुंच गया.

” मां आप काफी समय से पूछ रही थीं न कि मैं शादी कब करूंगा. तो बस आज आप
से यही कहने आया हूं कि मैं अब शादी के लिए तैयार हूं. मैं ने आप के लिए
बहू भी देख रखी है. ”

“अच्छा सच,” मां का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

मैं ने मां को माया के बारे में सब कुछ बताते हुए कहा ,” मां वह इतनी
खूबसूरत है जैसे स्वर्ग की अप्सरा हो, सांचे में ढला हुआ उस का बदन और मन
से इतनी भली लड़की है कि क्या बताऊँ. आंखें इतनी प्यारी हैं कि किसी को
देख ले तो वह फिर से जी जाए और बाल तो ऐसे कि आप देखोगे न तो आप को लगेगा
कि उस के अंदर कुदरत ने केवल खूबसूरती ही भर दी है. पर मां उसे नजर न लग
जाए इसलिए कुदरत ने एक छोटी सी कमी भी रख छोड़ी है, ” मेरी आवाज थोड़ी धीमी
हो गई थी.

” कमी? कैसी कमी बेटा ?” मां ने पूछा.

” मां उस के कानों में समस्या है. सुनने की समस्या.”

” यह क्या कह रहा है तू? मेरा इकलौता बेटा एक बहरी लड़की से शादी करेगा?
लोग क्या कहेंगे और भला तुझ में कौन सी कमी है जो तुझे ऐसी लड़की लाने की
सूझी?”मां एकदम से भड़क उठी.

” अरे मां वह बहरी नहीं है बस ऊंचा सुनती है. मगर हियरिंग ऐड लगा कर सब
कुछ सुन सकती है,” मैं ने मां को समझाना चाहा.

मगर मां अड़ गई थीं,” अरे बेटा वह हर समय तो मशीन लगा कर नहीं रहेगी न.
मान ले जब वह सो रही है या आराम कर रही है और उस ने मशीन उठा कर रखी हुई
है उस वक्त अचानक घर में कोई हादसा हो जाए, मैं गिर जाऊं, उस के बच्चे का
पैर फिसल जाए या फिर कुछ और हो जाए. तब हम तो चिल्लाते रह जाएंगे न और
उसे कुछ सुनाई ही नहीं देगा. बेटे आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जा सकती.
केवल खूबसूरत होना काफी नहीं. घर भी तो चलाना होगा न. पूरी दुनिया में
तुझे एक बहरी लड़की ही मिली थी? नहीं बेटा मैं इस शादी की अनुमति नहीं दे
सकती.” मां ने अपना फैसला सुना दिया था. इस के बाद मैं ने मां को लाख
समझाना चाहा मगर वह नहीं मानी.

मां ने मुझे साफ शब्दों में कहा,” सुन ले अगर मां के लिए जरा सी भी
मोहब्बत और इज्जत है तो तू उस लड़की से शादी नहीं करेगा. उसे भूल जा या
फिर मुझे भूल जा. ”

मेरे लिए मां से बढ़ कर कोई नहीं था सो मैं ने मां के बजाय माया को भूलना
ही मुनासिब समझा. मैं माया से दूरियां बढ़ाने लगा. वह करीब आने की कोशिश
करती तो मैं बहाने बना कर दूर चला जाता. बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा.

एक दिन उस ने मेरा हाथ पकड़ कर नम आंखों से पूछा,” तुम मुझे अवॉयड क्यों
कर रहे हो मनीष? मुझ से शादी नहीं करोगे?”

” नहीं मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. तुम किसी और को देख लो.,” मैं ने
जानबूझ कर बात इतनी खराब अंदाज में कही ताकि उसे बुरा लगे और वह मुझ से
दूर हो जाए. सचमुच ऐसा ही हुआ.

माया भड़क उठी,” किसी और को देख लो, इस का क्या मतलब होता है मनीष? आज तक
हम ने एकसाथ कितने ही सपने देखे और आज तुम ..”

” हां मैं कह रहा हूं कि किसी से भी कर लो शादी और मेरा पीछा छोड़ो ,” कह
कर मैं उस से हाथ छुड़ा कर घर आ गया और फिर कमरा बंद कर शाम तक रोता रहा.

मैं जानता था अब माया कभी भी मुझ से बात तक नहीं करेगी. ऐसा लग रहा था
जैसे किसी ने मेरे शरीर से रूह निकाल कर अलग कर दिया हो. मेरे होठों की
हंसी छिन गई हो. उस दिन के बाद माया मुझ से बिल्कुल कटीकटी रहने लगी. एक
दो महीने बाद ही फाइनल एग्जाम थे सो हमारे कॉलेज में प्रिपरेशन के लिए
छुट्टी हो गई. फिर एग्जाम हुए और इस बीच मेरा प्लेसमेंट एक मल्टीनेशनल
कंपनी में हो गया. माया ने भी कहीं और ज्वाइन कर लिया था. उस से मेरा कोई
संपर्क नहीं रह गया.

इन दिनों में जी तो रहा था मगर जीने की चाह मिट चुकी थी. मां सब समझ रही
थीं. फिर भी उन्हें लगता था कि कोई और लड़की मेरी जिंदगी में आएगी तो सब
नॉर्मल हो जाएगा. मगर मैं ने दिल के सारे दरवाजे इस कदर बंद कर लिए थे कि
कोई और लड़की दिल में आ ही नहीं सकती थी.

मां ने कई खूबसूरत लड़कियों के रिश्ते मुझे सुझाए. एक से बढ़ कर एक
लड़कियों के फोटो दिखाए मगर मुझे कोई पसंद नहीं आई. एक तो उन की बहन की
रिश्तेदार थी. मां ने उसे घर भी बुला लिया. मगर मुझे कोई रुचि लेते न देख
फिर उसे वापस भेज दिया. इस तरह 5 साल बीत गए. मां बीमार रहने लगी थी. वह
किसी भी तरह मुझे खुश देखना चाहती थीं .

अंत में एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा,” बेटा मैं समझ
चुकी हूं कि तू माया के बगैर खुश नहीं रह सकता. देख तो क्या हालत बना ली
है अपनी. जा मैं कहती हूं माया को ही अपना ले. मां हूँ, तेरे चेहरे पर यह
गमी बर्दाश्त नहीं कर सकती. ”

मां की बात सुन कर में फूटफूट कर रो पड़ा.,” मां अब अनुमति देने से क्या
होगा? 5 साल बीत चुके हैं. उस ने कब की शादी कर ली होगी. मेरा कोई
कांटेक्ट भी नहीं है उस से, ” मैं ने बुझे स्वर में कहा..

” बेटा मेरा दिल कहता है, अगर वह भी तुझ से प्यार करती होगी तो उस ने भी
जरूर अब तक शादी नहीं की होगी.”

मैं ने मां की बात का मान रखा और अपनी जिंदगी को ढूंढने निकल पड़ा.बड़ी
मुश्किल से उस की सहेली का पता मालूम किया जो ससुराल में थी. मैं ने उस
से माया का पता पूछा तो उस ने कहा कि उसे भी कुछ नहीं पता. शायद माया ने
उस से कुछ भी न बताने का वादा किया लिया होगा. बाद में मैं ने एक दो
दोस्तों से भी बात की मगर किसी को भी उस के बारे में पता नहीं था.

फिर एक दिन अचानक मेरी मुलाकात कॉलेज के एक लड़के से हुई जो दिल ही दिल
में माया को चाहता था. हालचाल पूछने पर उसी ने माया का जिक्र छेड़ा. उस
ने बताया कि वह एक मीटिंग में के सिलसिले में शिमला गया था. वही माया से
मुलाकात हुई थी. वह अपनी कंपनी को रिप्रेजेंट कर रही थी.

” क्या वह शादीशुदा है ?” मैं ने छूटते ही पूछा तो वह हंस पड़ा.

” उस समय तक मतलब करीब 3 महीने पहले तक तो वह अविवाहिता ही थी.”

मेरे चेहरे पर सुकून की रेखा खिंच गई. मैं ने जल्दी से उस से माया का
एड्रेस लिया और शिमला पहुंच गया. रास्ते भर में यही सोचता रहा कि माया
कैसी होगी? मुझे देख कर उस का रिएक्शन क्या होगा? कहीं वह मुझ से मिलने
से मना तो नहीं कर देगी? मैं दिए गए एड्रेस पर पहुंचा तो मुझे गार्डन में
एक लड़की खुले बालों में पौधों को पानी देती नजर आई. मैं ने एक पल में
पहचान लिया वह माया ही थी. चेहरे पर वही सादगी भरी मुस्कान और ललाट पर
सूर्य की लाली. बेहद हसीन गजल सा उस का व्यक्तित्व. दिल किया उसे बाहों
में समेट लूँ. 5 सालों से दिल में दफन सारे जज्बात उमड़ पड़ने को बेकरार
से थे.

मगर फिर ठहर गया. इन 5 सालों में आई दूरी कहीं उस के लिए मुझे अजनबी तो
नहीं बना गई? मैं उस के सामने जा कर खड़ा हो गया. वह उन्हीं निगाहों से
मुझे देखने लगी जब पहली बार मैं ने उसे प्रपोज किया था मगर उस ने हियरिंग
ऐड न लगा होने की वजह से सुना नहीं था.

मैं ने एक बार फिर अपने दिल की बात उसी अंदाज में कहनी शुरू की ,”माया
इतने सालों में एक भी लम्हा ऐसा नहीं जब मैं ने तुम्हें याद न किया हो.
मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया मगर मैं विवश था. मां नहीं चाहती थी कि तुम
उन की बहू बनो पर मैं तुम्हें मां की रजामंदी के बाद ही अपने घर ले जाना
चाहता था. आज वह दिन आ गया है. मैं इसीलिए आया हूं. बताओ माया क्या मुझ
से शादी करोगी?”

माया एकटक मुझे देख रही थी. मेरी बात खत्म होने पर उस ने कान की तरफ
इशारा करते हुए कहा कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा. तब मैं ने चिल्ला कर
कहा,” माया मुझ से शादी करोगी?”

माया हंस कर हां कहती हुई मेरे सीने से लग गई. आज हमारी इतने सालों की
तपस्या पूर्ण हो गई थी. हम एकदूसरे की बाहों में थे.

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