एक घड़ी औरत – भाग 1: क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

आतंकित और हड़बड़ाई प्रिया ने तकिए के नीचे से टौर्च निकाल कर सामने की दीवार पर रोशनी फेंकी. दीवार की इलैक्ट्रौनिक घड़ी में रेडियम नहीं था, इसलिए आंख खुलने पर पता नहीं चलता था कि कितने बज गए हैं. अलार्म घड़ी खराब हो गई थी, इसलिए उसे दीवार घड़ी का ही सहारा लेना पड़ता था. ‘फुरसत मिलते ही वह सब से पहले अलार्म घड़ी की मरम्मत करवाएगी. उस के बिना उस का काम नहीं चलने का,’ उस ने मन ही मन सोचा. एक क्षण को उसे लगा कि वह औरत नहीं रह गई है, घड़ी बन गई है. हर वक्त घड़ी की सूई की तरह टिकटिक चलने वाली औरत. उस ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि जिंदगी ऐसे जीनी पड़ेगी. पर मजबूरी थी. वह जी रही थी. न जिए तो क्या करे? कहां जाए? किस से शिकायत करे? इस जीवन का चुनाव भी तो खुद उसी ने किया था.

उस ने अपने आप से कहा कि 6 बज चुके हैं, अब उठ जाना चाहिए. शरीर में थकान वैसी ही थी, सिर में अभी भी वैसा ही तनाव और हलका दर्द मौजूद था, जैसा सोते समय था. वह टौर्च ज्यादा देर नहीं जलाती थी. पति के जाग जाने का डर रहता था. पलंग से उठती और उतरती भी बहुत सावधानी से थी ताकि नरेश की नींद में खलल न पड़े. बच्चे बगल के कमरे में सोए हुए होते थे.

जब से अलार्म घड़ी बिगड़ी थी, वह रोज रात को आतंकित ही सोती थी. उसे यह डर सहज नहीं होने देता था कि कहीं सुबह आंख देर से न खुले, बच्चों को स्कूल के लिए देर न हो जाए. स्कूल की बस सड़क के मोड़ पर सुबह 7 बजे आ जाती थी. उस से पहले उसे बच्चों को तैयार कर वहां पहुंचाना पड़ता था. फिर आ कर वह जल्दीजल्दी पानी भरती थी.

अगर पानी 5 मिनट भी ज्यादा देर से आता था तो वह जल्दी से नहा लेती ताकि बरतनों का पानी उसे अपने ऊपर न खर्च करना पड़े. सुबह वह दैनिक क्रियाओं से भी निश्ंिचत हो कर नहीं निबट पाती. बच्चों को जल्दीजल्दी टिफिन तैयार कर के देने पड़ते. कभी वे आलू के भरवां परांठों की मांग करते तो कभी पूरियों के साथ तली हुई आलू की सब्जी की. कभी उसे ब्रैड के मसालाभरे रोल बना कर देने पड़ते तो कभी समय कम होने पर टमाटर व दूसरी चीजें भर कर सैंडविच. हाथ बिलकुल मशीन की तरह काम करते. उसे अपनी सुधबुध तक नहीं रहती थी.

एक दिन में शायद प्रिया रोज दसियों बार झल्ला कर अपनेआप से कहती कि इस शहर में सबकुछ मिल सकता है पर एक ढंग की नौकरानी नहीं मिल सकती. हर दूसरे दिन रानीजी छुट्टी पर चली जाती हैं. कुछ कहो तो काम छोड़ देने की धमकी कि किसी और से करा लीजिए बहूजी अपने काम.

उस की तनख्वाह में से एक पैसा काट नहीं सकते, काटा नहीं कि दूसरे दिन से काम पर न आना तय. सो, कौन कहता है देश में गरीबी है? शोषण है? शोषण तो ये लोग हम मजबूर लोगों का करते हैं. गरीब और विवश तो हम हैं. ये सब तो मस्त लोग हैं.

‘कल भी नहीं आई थी वह. आज भी अभी तक नहीं आई है. पता नहीं अब आएगी भी या मुझे खुद ही झाड़ूपोंछा करना पड़ेगा. इन रानी साहिबाओं पर रुपए लुटाओ, खानेपीने की चीजें देते रहो, जो मांगें वह बिना बहस के उन्हें दे दो. ऊपर से हर दूसरे दिन नागा, क्या मुसीबत है मेरी जान को…’ प्रिया झल्ला कर सोचती जा रही थी और जल्दीजल्दी काम निबटाने में लगी हुई थी.

‘अब महाशय को जगा देना चाहिए,’ सोच कर प्रिया रसोई से कमरे में आई और फिर सोए पति को जगाया, ‘‘उठिए, औफिस को देर करेंगे आप. 9 बजे की बस न मिली तो पूरे 45 मिनट देर हो जाएगी आप को.’’

‘‘अखबार आ गया?’’

‘महाशय उठेंगे बाद में, पहले अखबार चाहिए,’ बड़बड़ाती प्रिया बालकनी की तरफ चल दी जहां रबरबैंड में बंधा अखबार पड़ा होता है क्योंकि अखबार वाले के पास भी इतना समय नहीं होता कि वह सीढि़यां चढ़, दरवाजे के नीचे पेपर खिसकाए.

ट्रे में 2 कप चाय लिए प्रिया पति के पास आ कर बैठ गई. फिर उस ने एक कप उन की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘अखबार में ऐसा क्या होता है जो आप…’’

‘‘दुनिया…’’ नरेश मुसकराए, ‘‘अखबार से हर रोज एक नई दुनिया हमारे सामने खुल जाती है…’’

चाय समाप्त कर प्रिया जल्दीजल्दी बिस्तर ठीक करने लगी. फिर मैले कपड़े ढूंढ़ कर एकत्र कर उन्हें दरवाजे के पीछे टंगे झोले में यह सोच कर डाला कि समय मिलने पर इन्हें धोएगी, पर समय, वह ही तो नहीं है उस के पास.

हफ्तेभर कपड़े धोना टलता रहता कि शायद इतवार को वक्त मिले और पानी कुछ ज्यादा देर तक आए तो वह उन्हें धो डालेगी पर इतवार तो रोज से भी ज्यादा व्यस्त दिन…बच्चे टीवी से चिपके रहेंगे, पति महाशय आराम से लेटेलेटे टैलीविजन पर रंगोली देखते रहेंगे.

‘‘इस मरी रंगोली में आप को क्या मजा आता है?’’ प्रिया झल्ला कर कभीकभी पूछ लेती.

‘‘बंदरिया क्या जाने अदरक का स्वाद? जो गीतसंगीत पुरानी फिल्मों के गानों में सुनने को मिलता है, वह भला आजकल के ड्रिल और पीटी करते कमर, गरदन व टांगे तोड़ने वाले गानों में कहां जनाब.’’

प्रिया का मन किया कि कहे, बंदरिया तो अदरक का स्वाद खूब जान ले अगर उस के पास आप की तरह फुरसत हो. सब को आटेदाल का भाव पता चल जाए अगर वह घड़ी की सूई की तरह एक पांव पर नाचती हुई काम न करे. 2 महीने पहले वह बरसात में भीग गई थी. वायरल बुखार आ गया था तो घरभर जैसे मुसीबत में फंस गया था. पति महाशय ही नहीं झल्लाने लगे थे बल्कि बच्चे भी परेशान हो उठे थे कि आप कब ठीक होंगी, मां. हमारा बहुत नुकसान हो रहा है आप के बीमार होने से.

‘‘सुनिए, आज इतवार है और मुझे सिलाई के कारीगरों के पास जाना है. तैयार हो कर जल्दी से स्कूटर निकालिए, जल्दी काम निबट जाएगा, बच्चे घर पर ही रहेंगे.’’

‘‘फिर शाम को कहोगी, हमें आर्ट गैलरी पहुंचाइए, शीलाजी से बात करनी है.’’

सुन कर सचमुच प्रिया चौंकी, ‘‘बाप रे, अच्छी याद दिलाई. मैं तो भूल ही गई थी यह.’’

नरेश से प्रिया की मुलाकात अचानक ही हुई थी. नगर के प्रसिद्ध फैशन डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट से प्रिया को डिगरी मिलते ही एक कंपनी में नौकरी मिल गई. दिल लगा कर काम करने के कारण वह विदेश जाने वाले सिलेसिलाए कपड़ों की मुख्य डिजाइनर बन गई.

नरेश अपनी किसी एक्सपोर्टइंपोर्ट की कंपनी का प्रतिनिधि बन कर उस कंपनी में एक बड़ा और्डर देने आए तो मैनेजर ने उन्हें प्रिया के पास भेज दिया. नरेश से प्रिया की वह पहली मुलाकात थी. देर तक दोनों उपयुक्त नमूनों आदि पर बातचीत करते रहे. अंत में सौदा तय हो गया तो वह नरेश को ले कर मैनेजर के कक्ष में गई.

फिर जब वह नरेश को बाहर तक छोड़ने आईर् तो नरेश बोले, ‘आप बहुत होशियार हैं, एक प्रकार से यह पूरी कंपनी आप ही चला रही हैं.’

‘धन्यवाद जनाब,’ प्रिया ने जवाब दिया. प्रशंसा से भला कौन खुश नहीं होता.

परित्यक्ता – भाग 3 : कजरी के साथ क्या हुआ था

‘‘हमेशा ही चुका देती हूं, भैया. हां, इस बार जरूर कुछ देर हो गई. पर मैं जल्द ही आप के सारे रुपए चुका दूंगी,’’ कजरी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘माफ करना, मैं ने यहां कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है, जो मुफ्त में ही सब को जलपान कराता जाऊं,’’ बाबूलाल ने उसे दुत्कारते हुए कहा.

‘‘आज मेरा काम छूट गया है, लेकिन मैं विश्वास दिलाती हूं कि जल्द ही कोई काम ढूंढ़ कर आप की पूरी उधारी चुका दूंगी,’’ कह कर कजरी ने बेबसी से अपने हाथ जोड़ दिए.

‘‘काम तो मैं भी तुम्हें दे सकता हूं, अगर तुम चाहो तो. इस से तुम्हारा आज तक का पूरा उधार चुक जाएगा और ऊपर से कुछ कमाई भी हो जाएगी.’’ बाबूलाल की आंखों से टपकती लार देख कर कजरी सहम गई.

जाने कैसे ये भेडि़ए एक औरत की मजबूरी को सूंघ कर अपना दांव गांठते हैं. कजरी ने गहरी सांस छोड़ी और दुकान के बाहर आ गई.

मोड़ तक आतेआते वह कुछ ठिठक कर खड़ी हो गई. घर जा कर बच्चों को क्या खिलाएगी? बच्चों के भूख से कलपते चेहरे उसे साफ दिखाई पड़ रहे थे. मकान का किराया कहां से आएगा? विमला काकी का पूरा उधार अभी बाकी है. उफ, कैसे होगा यह सब? कजरी के दिल और दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई थी. दिल कहता था…यह गलत है जबकि दिमाग कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो चला था, जो हालफिलहाल की स्थिति से कैसे निबटा जाए, यह सोच रहा था. आखिरकार, एक औरत के सतीत्व पर मां की ममता भारी पड़ गई. कजरी के दुकान में दोबारा प्रवेश करते ही बाबूलाल की आंखों में वासनाजनित चमक आ गई.

कुछ देर बाद ही कजरी दोनों हाथों में सामान लिए घर की तरफ तेजी से बढ़ी चली जा रही थी. सामान्यतया रोज खुला रहने वाला दरवाजा आज भीतर से बंद था. अंदर से आती घुटीघुटी सिसकारी की आवाज ने कजरी को तनिक संशय में डाल दिया. किसी अनिष्ट की आशंका से उस का मन कांप गया. जोरजोर से बच्चों को आवाज लगा कर उस ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया. पर दरवाजा न खुला.

इतने में सुमि और कमल को बाहर से आता देख कजरी चीख पड़ी, ‘‘रीना कहां है सुमि?’’

‘‘अंदर ही होगी, आई. मैं कुछ देर पहले ही ब्रैड और दूध लेने गई थी और यह कमल मेरे पीछे लग लिया. बहुत समझाया, पर माना ही नहीं.’’

तब तक चिल्लाने की आवाज सुन कर आसपड़ोस से कई लोग निकल कर जमा हो गए. तुरंतफुरत ही दरवाजा तोड़ दिया गया. दरवाजा टूटते ही कजरी अंदर घुसी और कमरे के एक कोने में रीना को बेसुध पड़ा देख बदहवास सी हो गई. तभी भीतर से एक साया निकल कर बाहर की तरफ भागा. हां, वह दीनू ही था, जिस ने रीना के अकेले होने का फायदा आज उठा ही लिया था. यह सब इतना अचानक हुआ कि किसी को कुछ समझ ही नहीं आया.

शोरगुल की आवाज से विमला काकी भी आ चुकी थीं. कजरी ने रीना को उठानेहिलाने की बहुत कोशिश की, मगर सब बेकार था. रीना बेजान हो चुकी थी. एक नन्ही कली आज फिर किसी वहशी दरिंदे की बुरी नीयत का शिकार हो चुकी थी. कजरी सामने पड़ी सचाई स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अपनी प्यारी गोलू का यह हाल देख कर वह कांप उठी थी. उस की पूरी दुनिया ही जैसे उजड़ गई थी. सुमि लगातार रोए जा रही थी और कमल सहमा हुआ एक तरफ खड़ा हुआ था.

लोगों की आपसी चर्चा चालू थी. कोई पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था तो कोई रीना को डाक्टर के पास ले जाने को कह रहा था. कजरी अचानक उठी और पलंग के नीचे से हंसिया निकाल कर बिजली की फुरती से बाहर निकल गई. उधर, दीनू जल्दीजल्दी एक बैग में अपने कुछ कपड़े भर कर घर से निकलने ही वाला था कि कजरी ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘मुझे माफ कर दो कजरी भाभी, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. पता नहीं मुझे क्या हो गया था. मैं उसे मारना नहीं चाहता था, वह चिल्ला न सके, इसलिए मैं ने उस का मुंह बंद किया. मुझे नहीं…’’ दीनू अपनी सफाई देता रह गया और कजरी ने उस पर हंसिये से प्रहार करना शुरू कर दिया.

‘‘नीच, तू ने मेरी गोलू को क्यों मारा, क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने तेरा,’’ कजरी चीखती जा रही थी. तभी पीछे से विमला काकी ने आ कर कुछ लोगों की मदद से उसे रोका.

दीनू घायल हो कर गिर पड़ा था. इलाके की पुलिस ने तुरंत ही दीनू को अस्पताल भेजा. और पूछताछ में लग गई. रीना की मृतदेह एम्बुलेंस में ले जाई जा रही थी. उपस्थित सभी लोगों की आंखें नम थीं. इतनी देर से मूकदर्शक बनी कजरी ने अचानक अट्टहास करना शुरू कर दिया. भीड़ में से किसी ने कहा, ‘वह पागल हो गई है.’ एक विमला काकी ही ऐसी थीं जिन्हें कजरी में एक परित्यक्त मां की बेबसी और हताशा दिखाई दे रही थी, जो अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी अपनी मासूम बच्ची को नहीं बचा पाई.

अंधेरी रात का जुगनू – भाग 3 : रेशमा की जिंदगी में कौन आया

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

ऐसे ही सही – भाग 3 : क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

अगले दिन सुबह ही मैं उन की पत्नी और उन की 20 साल की बेटी को ले कर जाने लगा. उसी समय मुझे अचानक याद आ गया कि उन की फोटो मैं घर से लाना भूल गया जो कल रात ही मैं ने बनवाई थी. मैं जैसे ही घर पहुंचा तो संगीता ने पूछा, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे आ गए…मुझ पर तरस आ गया क्या?’’

मैं कुछ नहीं बोला और अपनी अलमारी से फोटो निकाल कर चला गया. उत्सुकतावश वह भी मेरे पीछेपीछे बाहर आ गई. मेरे कार में बैठने से पहले ही पूछने लगी, ‘‘कौन हैं और इस समय इन के साथ कहां जा रहे हो? कार कहां से मिल गई?’’

‘‘यह हमारे साहब की पत्नी हैं और पीछे उन की बेटी बैठी है. मैं इन के ही काम से जा रहा हूं.’’

‘‘ऐसा तो मैं ने पहले कभी नहीं सुना कि साहब अपनी खूबसूरत पत्नी और बेटी को कार सहित तुम्हारे साथ भेज दें. कहीं कुछ तो है. शक तो मुझे पहले से ही था. तुम ने सोचा घर पर मैं नहीं होऊंगी तो यहीं रंगरलियां मना ली जाएं और अगर मिल गई तो साहब का बहाना बना देंगे.’’

उन के सामने ऐसी बातें सुन कर मैं बेहद परेशान हो गया और शर्मिंदा भी. मैं ने बहुत कोशिश की कि वह  चुप हो जाए पर उसे तो जैसे लड़ने का नया बहाना मिल गया था. साहब की पत्नी भी संगीता को लगातार समझाने का प्रयत्न करती रहीं. मुझे ऐसी बेइज्जती महसूस हुई कि मेरी आंखों में आंसू आ गए. मेरे लिए वहां खड़ा हो पाना अब बेहद मुश्किल हो गया. मैं जैसे ही कार में बैठा तो वह अपनी चिरपरिचित तीखी आवाज में बोली, ‘‘मैं अब इस घर में एक मिनट भी नहीं रहूंगी.’’

शाम को मैं जल्दी घर आ गया और जो होना चाहिए था वही हुआ. संगीता की मां और बहन बैठी मेरा इंतजार कर रही थीं. मैं उन्हें इस समय वहां देख कर चौंक गया पर खामोश रहा. अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का विरोध करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी क्योंकि मेरे विरोध करने का मतलब उन तीनों की तीखी और आक्रामक आवाज से अपने ही महल्ले में जलील होना.

‘‘मैं अपना हक लेना जानती हूं और कभी यहां वापस नहीं लौटूंगी,’’ कह कर वे तीनों वहां से चली गईं. सारा सामान वे ले गईं. स्त्रीधन और सारा सामान उस के हिस्से आया और मानसिक पीड़ा मेरे हिस्से में. अब मेरे लिए वहां रुकने का कोई प्रयोजन नहीं था. उसी शाम अपनी जरूरत भर की वस्तुओं को ले कर मैं अपने मातापिता के यहां आ गया.

मुझे इस वेदना से उभरने में काफी समय लग गया. इन्हीं दिनों 2-3 बार सपना के फोन आए थे जो मैं ने व्यस्त होने का बहाना बना कर टाल दिए.

अपने को व्यस्त रखने के लिए मैं ने सब से पहला काम शर्माजी का विज्ञापन स्थानीय अखबार में दे दिया. पासपोर्ट से ले कर सभी सुविधाओं का विवरण था. एलआईसी का एजेंट  होने के नाते मुझे दिन में 2 घंटे ही आफिस जाना होता था.

इस विज्ञापन के प्रकाशित होते ही मेरे पास आशाओं से अधिक फोन आने लग गए. मैं बहुत उत्साहित था. लोग अपनी समस्याओं को सुनाते और मैं उस से संबंधित पेपर ले कर शाम को शर्माजी के पास पहुंच जाता. इस प्रकार हफ्ते में 2 बार जा कर अपना काम सौंप कर पुराना काम ले आता.

दिन बीतते गए. मैं जब भी घर पहुंचता, सपनाजी अपनी कई बातें मुझ से कहतीं. अपना कोई न कोई काम मुझे देती रहतीं. शाम को कई बार ऐसा संयोग होता कि वह रास्ते में ही मुझ से मिल जातीं और मेरे साथ ही घर आ जातीं. कभीकभी उन का कोई ऐसा काम फंस जाता जो वह नहीं कर सकतीं तो उसे मुझे ही करना पड़ता था.

एक दिन दोपहर को मुझे किसी जरूरी काम से शर्माजी के घर जाना पड़ा. मैं ने देखा बड़ी तल्लीनता से वह सब कागज फैला कर अपना काम करने में व्यस्त थे. मुझे बड़ी खुशी हुई कि शायद उन की जीवन के प्रति नकारात्मक सोच में बदलाव हो गया. सपनाजी पास ही बैठी उन्हें पैड पकड़ा रही थीं. मेरे वहां पहुंचते ही वह हंस कर बोलीं, ‘‘जानते हो, इन दिनों यह बहुत खुश रहते हैं. मुझे तो पूछते भी नहीं.’’

‘‘तुम ऐसा मौका ही कहां देती हो. बस, सवेरे उठ कर तैयार हो जाती हो और चल देती हो. दोपहर तक स्कूल में फिर शाम को बाहर घूमने चली जाती हो.’’

‘‘यह तो आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि कितना काम हो जाता है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं कि तुम क्या करती हो.’’

कहतेकहते अपने सारे कागज एक तरफ रख कर मुझे घूरने लगे, जैसे भीतर उठी खीज को दबा लिया हो. वह जिन नजरों से मुझे देख रहे थे, मुझे बड़ी बेचैनी महसूस होने लगी. मैं ने विज्ञापन देने से पहले ही सपनाजी  को पता और फोन नंबर देने के लिए कहा था. सपनाजी भी अपनी जगह ठीक थीं. कहने लगीं कि घर पर आने वाले सभी व्यक्तियों को शर्माजी की हालत के बारे में पता चल जाएगा. घर पर मैं और बेटी ही रहती हैं तो कोई कुछ भी कर सकता है. मैं चुप रहा था.

मैं ने औपचारिकता निभाते हुए नया काम दिया और जाने लगा तो सपनाजी बोलीं, ‘‘कहां तक जा रहे हैं आप?’’

‘‘अब तो आफिस ही जाऊंगा,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘क्या आप मुझे सिविल लाइंस तक छोड़ देंगे?’’ उन्होंने पूछा.

मैं इनकार नहीं कर सका. शर्माजी टीवी पर मैच देखने में व्यस्त हो गए.

सपनाजी तैयार हो कर आईं और अपना बैग उठा कर बोलीं, ‘‘मैं ममता के घर जा रही हूं. उस के बेटे का जन्मदिन है. आप का उस तरफ का कोई काम हो तो…’’

‘‘जाओजाओ. तुम्हें तो बस, घूमने का बहाना चाहिए. मैं घर पर पड़ा सड़ता रहूं पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है,’’ कहतेकहते उन की आवाज तेज और मुद्रा आक्रामक हो गई, ‘‘तुम क्या समझती हो. मैं कुछ जानता नहीं हूं. तुम्हें बाहर जाने की छूट क्या दी तुम ने तो इस का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया…मुझे तुम्हारा इस तरह गैर मर्दों के साथ जाना एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

सपनाजी  एकदम सहम गईं. आंखों में आंसू भर कर चुपचाप भीतर चली गईं. शर्माजी का ऐसा रौद्र रूप मैं ने कभी नहीं देखा था.

अचानक वातावरण में भयानक सन्नाटा पसर गया. मैं पाषाण बना चुपचाप वहीं बैठा रहा. नारी शायद हर संबंधों को सीमाओं में रह कर निभा लेती है पर पुरुष इतना सहज और सरल नहीं होता. शक की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी

डर कहीं मेरे भीतर भी बैठ गया था. मौका देख कर मैं ने कहा, ‘‘सर, अब रोजरोज मेरा आना संभव नहीं है. और अब तो आप भी सभी कामों को अच्छी तरह समझ गए हैं. फिर बहुत जल्दी मेरा तबादला भी होने वाला है. आगे से सभी लोगों को मैं आप के पास ही भेज दिया करूंगा,’’ वह मुझे अजीब सी नजरों से देखने लगे पर कहा कुछ नहीं.

वहां से उठतेउठते ही मैं ने कहा, ‘‘साहब, मेरा कहासुना माफ करना. मुझ से जो बन पड़ा, मैं ने किया.’’

मैं दबे पांव वहां से निकल जाना चाहता था. गेट खोल कर जैसे ही स्कूटर स्टार्ट किया, सपनाजी धीरे से दूसरे कमरे से निकल कर मेरे पास आ गईं और बेहद कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘आप ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है उस का एहसान तो नहीं चुका सकती पर भूलूंगी भी नहीं. शर्माजी की बातों का बुरा मत मानना,’’ कहतेकहते वह अपराधी मुद्रा में तब तक खड़ी रहीं जब तक मैं चला नहीं गया. मैं भारी मन और उदास चेहरे से वहां से चला गया.

सच, अपने हिस्से की पीड़ा तो स्वयं ही भोगनी पड़ती है. झूठे आश्वासनों के अलावा हम कुछ नहीं दे सकते. कोई किसी की पीड़ा को बांट भी नहीं सकता. उस के बाद मैं उस घर में कभी नहीं गया. यह जीवन का एक ऐसा यथार्थ था जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता. यदि इस दुनिया में यही जीने का ढंग और संकीर्ण मानसिकता है तो ऐसे ही सही.

दूरियां – भाग 3 : क्या काम्या और हिरेन के रिश्ते को समझ पाया नील

जब मैं ने नील को बताया कि मुझे 5 दिनों के लिए लखनऊ जाना है तो वह बड़बड़ाने लगा. यह मेरे लिए बड़ी परेशानी की बात हो गई थी कि पति का मिजाज देखूं या नौकरी. मेरा मन बड़ा खिन्न सा रहता. उस से बात करने का भी मन नहीं करता.

जाने से 2 दिन पहले निर्मलाजी ने बताया मुझे लखनऊ

नहीं शिमला जाना होगा. वहां जो टीम औडिट करने गई है उस के एक सदस्य की तबीयत खराब हो गई है. मु  झे क्या फर्क पड़ता था फिर कहीं भी जाना हो. नील को बताने का मन नहीं हुआ. इसलिए कि फिर दोबारा उस की बड़बड़ शुरू हो जाएगी. अच्छा हुआ नहीं बताया. मु  झे नील का वह रंग देखने को मिला जिस पर मु  झे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है.

‘‘मैं जब 5 दिनों के लिए बाहर गई थी 2 महीने पहले तो क्या तुम शिमला गए थे?’’

नील आश्चर्य से, ‘‘हां, लेकिन तु  झे कैसे पता?’’

‘‘मैं भी तब शिमला में थी और मैं ने तुम्हें देखा था.’’

‘‘तुम तो लखनऊ जाने वाली थी और अगर शिमला गईर् थी तो बताया क्यों नहीं? साथ में घूमते बड़ा मजा आता.’’

‘‘अच्छा और जिस के साथ घूमने का कार्यक्रम बना कर गए थे उस बेचारी को म  झधार में छोड़ देते?’’

नील असमंजस से देखते हुए बोला, ‘‘तुम क्या बोल रही हो मु  झे नहीं पता… राहुल और सौरभ बहुत दिनों से कह रहे थे कहीं घूमने चलते हैं… मैं बस टालता जा रहा था. जब तुम जा रही थी तो मैं ने उन्हें कार्यक्रम बनाने के लिए हां कह दी.’’

‘‘रहने दो… तुम   झूठ बोल रहे हो, तुम वहां काम्या के साथ रंगरलियां मनाने गए थे.’’

नील आश्चर्य से बोला, ‘‘कौन काम्या? तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, लड़ने के बहाने ढूंढ़ती हो. अलग होना चाहती हो… हिरेन का साथ चाहती हो… ठीक है, पर गलत इलजाम मत लगाओ. अब मैं   झूठ क्यों बोलूंगा जब हम अलग हो रहे हैं… वैसे भी मैं   झूठ नहीं बोलता हूं.’’

‘‘बहुत अच्छे, तुम हिरेन को ले कर मु  झ पर कोई भी इलजाम लगाओ वह ठीक है.’’

‘‘तुम हिरेन के लिए क्या महसूस करती हो मैं नहीं जानता, लेकिन हिरेन के दिल में तुम्हारे लिए क्या है मैं सम  झता हूं… मेरे लिए तुम क्या हो तुम नहीं जानती हो, तुम मेरी जिंदगी की धुरी हो, सबकुछ मेरा तुम्हारे इर्दगिर्द घूमता है.’’

उस की आंखें और भी बहुत कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन उस की बात सुन कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. उस की इस तरह की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर मैं मीरा की तरह उसे कृष्ण मान कर उस की दीवानी हो जाती थी.

जब मैं शिमला जाने वाले प्लेन में सवार हुई, बहुत उदास थी. पहली बार 5 दिनों के

लिए नील से अलग हो रही थी और उस ने केवल बाय कह कर मुंह फेर लिया. शुरू में हम औफिस के लिए भी जब निकलते थे तो ऐसा लगता

7-8 घंटे कैसे एकदूसरे के बिना रहेंगे, बहुत देर तक एकदूसरे के गले लगे रहते. प्लेन में मेरी बगल वाली सीट पर बैठी लड़की बहुत उत्साहित थी. कुछ न कुछ बोले जा रही थी. मु  झे उस की आवाज से बोरियत हो रही थी.   झल्ला कर मैं ने पूछा, ‘‘पहली बार प्लेन में बैठी हो या पहली बार शिमला जा रही हो?’’

वह शरमाते हुए बोली, ‘‘पहली बार अपने प्रेमी से इस तरह मिलने जा रही हूं. वह शादीशुदा है… जब तक तलाक नहीं हो जाता हमें इसी तरह छिपछिप कर मिलना पड़ेगा. तलाक मिलते ही हम शादी कर लेंगे.’’

मेरी उस की प्रेम कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैं आंखें बंद कर सिर टिका कर सोने की कोशिश करने करने लगी. लेकिन जब नाश्ता आया तो यह नाटक नहीं चला और वह दोबारा शुरू हो गई. उस के औफिस में ही काम करता था और उस के अनुसार दिखने में बहुत मस्त था. लेकिन बेचारा दुखी था. बीवी   झगड़ालू थी. दोनों में बिलकुल नहीं बनती थी. उस लड़की की बकबक से बचने के लिए मैं कान में इयर फोन लगा कर बैठ गई.

उतरते समय वह कुछ परेशान लगी, बोली, ‘‘मैं पहली बार इस तरह अकेली यात्रा कर रही हूं मु  झे बहुत घबराहट हो रही है. अगर वे नहीं आए तो मैं क्या करूंगी. आप मु  झे प्लीज अपना फोन नंबर और नाम बता दो. अगर जरूरत पड़ी तो मैं आप से सहायता मांग लूंगी. मेरा नाम काम्या है. मैं सुगम लिमिटेड में काम करती हूं.’’

मु  झे ऐसे लोगों से चिढ़ होती है जो बेमतलब चिपकते हैं. मैं ने उस से परिचय मांगा था… बेमतलब उतावली हो रही थी अपने बारे में बताने को. लेकिन वह उस कंपनी में काम करती है, जिस में नील भी नौकरी करता है.

हिरेन मु  झे एयरपोर्ट पर लेने आया. देख कर बड़ा खुश हुआ. अच्छे होटल में ठहरने की व्यवस्था की थी. कमरे तक पहुंचा कर हिरेन बोला, ‘‘आज रविवार है. कल से काम करेंगे. तुम अभी आराम करो. जब उठो तो कौल करना. कहीं घूमने चलेंगे.’’

‘‘बाकी सब कहां हैं?’’

‘‘वे सब चले गए… उन का काम खत्म हो गया. अब बस मेरा और तुम्हारा काम रह गया है.’’

मैं चुपचाप कमरे में अपने फोन को हाथ में पकड़ कर बैठ गई. अगर नील का फोन आया यह पूछने के लिए कि मैं ठीक से पहुंच गई कि नहीं और मैं इधरउधर हुई तो बात नहीं हो पाएगी. अत: मैं शाम तक ऐसे ही बैठी रही पर उस का फोन नहीं आया.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. खोला तो सामने हिरेन था.

‘‘यह क्या कपड़े भी नहीं बदले… जब से ऐसे ही बैठी हो. मैं इंतजार करता रहा तुम्हारे बुलाने का. तैयार हो जाओ हम बाहर घूमने चलते हैं वहीं कुछ खा कर आ जाएंगे,’’ वह बोला.

मैं बेमन सी हो गई और फिर सिरदर्द का बहाना बना कर जल्दी वापस आ कर कमरे में सो गई.

अगले दिन जिस होटल में ठहरे थे वहीं का औडिट करना था, इसलिए सुबह से शाम तक काम करते रहे. शाम को हिरेन फिर घूमने की जिद करने लगा. अकेले रोज उस के साथ इस तरह घूमना मु  झे ठीक नहीं लग रहा था. लेकिन क्या करती.

घूमतेघूमते काम्या दिख गई. अकेली थी. फिर चिपक गई. उस दिन मु  झे उस का साथ बुरा नहीं लगा. हिरेन से उस का परिचय करा कर हम इधरउधर की बातें करने लगे. काम्या ने बताया कि उस का बौयफ्रैंड कल आने वाला था सड़क मार्ग से पर गाड़ी खराब हो गई तो बीच में कहीं रुकना पड़ा. अब रात तक आएगा. वह अकेली थी. हमारे साथ घूमने लगी, हिरेन बोर हो रहा था, लेकिन मु  झे क्या.

असुविधा के लिए खेद है – भाग 4 : जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

जाने जीजी के मन में क्या था. उस ने इन्हीं दिनों सेल्विना को अपना और तनय का वीडियो भेज कर अपने घर बुला लिया. वह भी उस वक्त जब तनय जीजी के साथ था.

सेल्विना का रोतेराते बुरा हाल था. वह लौट गई. सुबह तनय सेल्विना के पास वापस नहीं

लौट सका.

तनय समझ गया था कि वह सेल्विना को खो चुका है. जीजी ने उसे समझ लिया कि

जीजी तनय को हमेशा के लिए अपना बनाना चाहती है, इधर डेढ़ महीना होने को आया था- मम्मीपापा को बिहार के पास रखे हुए. अब जल्दी नतीजे पर पहुंचना जरूरी था. आखिर सेल्विना कौन थी? क्यों जीजी ने उस की जिंदगी उजाड़ी? तनय ही क्यों?

मैं ने अनादि को एक कौफी शौप में बुलाया. उस से कहा, ‘‘क्या तुम भी इस गेम में उतर रहे हो अनादि?’’

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें?’’

‘‘फिर ये सब क्या है? चाहने की बात क्यों करने लगे.’’

‘‘इस में बुराई तो कुछ नहीं न. हमउम्र हैं दोनों और दोनों की आय भी अच्छी है, दोस्त भी हैं. मैं तुम्हें पसंद भी करता हूं.’’

‘‘और मैं? पूछोगे नहीं या जरूरी नहीं है?’’

‘‘प्लीज बताओ.’’

‘‘बताऊंगी. पहले मेरे लिए हमारे इस काम को खत्म करो.’’

‘हांहां क्यों नहीं.’’

‘‘चलो फिर सेल्विना के स्कूल.’’

स्कूल पहुंच कर सेल्विना हमें नहीं मिली तो एक बच्चे की मदद से पास ही उस के फ्लैट में पहुंचे. शाम के 5 बज रहे थे. सेल्विना ने दरवाजा खोला तो पूरे घर में अंधेरा पसरा था. खिड़कीदरवाजे सब बंद. सेल्विना एक स्लीवलैस औफ व्हाइट बनियान फ्रौक में बड़ी मुरझई सी लग रही थी. ब्रेकअप का दर्द साफ था उस के चेहरे पर.

सेल्विना हमें ड्राइंगरूम में ले गई. हम ने अपना परिचय देकर अपनी

मंशा जताई. उस ने पूरी जानकारी देने का वादा किया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे बौयफ्रैंड का नाम

तनय है?’’

‘‘हां.’’

‘‘कब मिली थी उस से?’’

‘‘लगभग 3 साल पहले. मैं रशिया के समारा शहर की लड़की हूं, सौतेले पिता के 2 बेटों की मुझ पर बुरी नजर थी, मैं वहां से अमेरिका चली गई पढ़ने. वहां तनय मिला मुझे.

‘‘उसे ग्राफिक्स कंपनी में जल्द नौकरी

मिल गई. हमारी आपस में बौंडिंग अच्छी हो गई थी. पेंटिंग्स का वह दीवाना था और अपनी ग्राफिक्स डिजाइनिंग में मुझ से आइडिया लेता रहता था.’’

‘‘तनय का बैकग्राउंट बताओ. कहां का है व कहां से पढ़ा है?’’

‘‘वे लोग कोलकाता से हैं… ये असल में राजस्थान के लाला हैं.’’

‘‘हमारे रिश्तेदार भी हैं कुछ जिन की लाला में शादी हुई थी. पढ़ा कहां से है?’’

‘‘मुंबई.’’

‘‘इस के पिता का नाम हरिनाथ और मां का नाम सुभागी है?’’

‘‘हां ऐसा ही कुछ है.’’

‘‘तनय तो तुम्हारे ही साथ रहता है, उस की मां कहां है?’’

‘‘यहां से पास ही है उन लोगों का घर. वह शाम को नौकरी के बाद वहां जाता था, कभीकभी मैं भी.’’

‘‘सेल्विना तनय का कोई पुराना सर्टिफिकेट है तुम्हारे पास जिस में उस के पिता का नाम

दर्ज हो?’’

सेल्विना ने अलमारी से एक फाइल निकाल कर दिखाई.

हां, यह तो वही शख्स है जिस पर जीजी ने बदले का प्रण किया था यानी हमारी नानी के चचिया सास की बेटी के बेटे यानी हमारी नानी की चचेरी ननद के बेटे यानी हमारे चचेरेफुफेरे मामा तनय लाला.

धन्य हो जीजी. तुम्हारे बदले की भावना हम सब को कहां ले कर गई. अब और तुम क्या करने वाली हो. तुम ने तो बदले की भावना से न सिर्फ सेल्विना और तनय को बरबाद किया, बल्कि और भी कई लोगों को उलझया. अब और क्या हासिल करना चाहती हो?’’

सेल्विना ने ही बताया कि जीजी तनय से पहले ही से जुड़ी थी, बाद में तनय ने सल्विना से जोड़ा जीजी को. मगर तनय धीरेधीरे जीजी के जाल में कब फंस गया, खुद ही नहीं समझ पाया.

हम सेल्विना को मदद का वादा कर बाहर आ गए. अनादि से मैं ने पूछा ‘‘क्या अब तुम्हें मेरी मदद करने के लिए किसी शर्त की जरूरत पड़ेगी?’’

‘‘नहींनहीं पड़ेगी, मेरी कोई शर्त भी नहीं है, यह तो तुम्हारी इच्छा पर है कि तुम मेरी बनना चाहोगी या नहीं.’’

‘‘तो पहले एक निर्दोष का दुख दूर करें, उस के बाद दूसरी बातें.’’

‘‘जी आज्ञा,’’ अनादि मुसकराया.

मैं अनादि के फ्लैट में रहने चली गई. अनादि मुझ से चाबी ले कर मेरे घर पहुंच कर मेरे कमरे में जा कर सो गया. तनय सुबह वहीं से औफिस के लिए निकल गया. सभी यही समझते रहे कि बंद कमरे में मैं हूं.

जीजी अभी नहा कर निकली थी और वह टौवल लपेटे थी. अनादि कमरे से निकला. जीजी उसे सामने देख अचंभित हो गई.

अनादि उसे आगे कुछ समझने का मौका दिए बिना मेरे कमरे में खींच ले गया. अनादि अपने शिकार को काबू में करता हुआ धीरेधीरे उसे इस तरह तैयार कर चुका था कि वह  खुद शिकारी बन जाए.

गोरी रंगत का नया लड़का, जीजी खुद पर काबू नहीं रख पा रही थी जो उठ कर इस का विरोध करे.

आधे चंद्रमा के सामने जब आधी रात

जीजी तड़प उठी तो उस ने खुद ही यह बीड़ा उठा लिया.

अनादि इसी इंतजार में था. सतर्कता से रखे कैमरे को अनादि ने अब औन कर लिया था.

मैं ने अनादि से क्षमा मांगी और उस के पैन में लगे कैमरे में कैद दृश्यों को देखा और उन्हें अपने फोन में लिया. मेरा काम बन गया था.

सेल्विना और निहार को वे वीडियो भेजे और नोट लिखा, ‘‘बुराई को फांसा गया है, अब न्याय होगा.’’

मैं ने सेल्विना से संपर्क किया और कहा, ‘‘जल्द ही तुम्हें तुम्हारा प्यार वापस मिलेगा. तनय का फोन नंबर दो.’’

उस ने तुरंत दिया और मैं ने तनय से उस के औफिस में लंच के समय मिलने का तय किया.

मैं ने जीजी, उस के और हमारे बीच के परिचय सूत्र

और बदले के इतिहास का पूरा विवरण दे डाला. इस के साथ ही जीजी के साथ उस का वीडियो उसे यह कह कर दिखाया कि यह जीजी ने तुम्हारे विरुद्ध इस्तेमाल के लिए दिया था. किस तरह जीजी उस की मेहनत की कमाई लूट रही थी, याद दिलाया और अंतत: जीजी और अनादि का वीडियो यह कह कर दिखाया कि कैमरा मैं ने अपने कमरे में पहले से लगा रखा था. मुझे जीजी पर बिलकुल भी भरोसा नहीं था.

तनय खूबसूरत तो था, लेकिन वाकई कुछ नासमझ था.

वह डर गया, ‘‘यह औरत मेरे औफिस तक न आ जाए.’’

‘‘तुम अपने फोन की सिम बदल लो, साथ ही अपने बौस से मिला दो मुझे, तुम किस कदर मुश्किल में फंसे हो, वह भी पहले की किसी गलती के बिना, उन्हें समझ दूंगी. फिर तुम पर आंच नहीं आएगी.’’

तनय ने हमारे सामने सेल्विना से माफी

मांग ली. सेल्विना ने भी अपने प्यार को माफ  कर नया जीवन शुरू करने का ठान लिया. अब बारी थी निहार और अनादि की. अनादि के दिल में अब तूफान मचा था. चौंतीस साल के निहार

जिम और डायट कंट्रोल से छब्बीस के लग रहे थे. मैं ने मम्मीपापा और निहार को जीजी का

1-1 कारनामा बताया.

कहा मैं ने, ‘‘जीजी के अविकसित दिमाग में बदला, ईर्ष्या और वासना का अजब तालमेल है. इसलिए वह जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पाई. जो जैसा है उसे उस का प्रतिफल मिलता ही है. यही न्याय है. न्याय अपनापराया नहीं देखता और उसे देखना भी नहीं चाहिए.’’

अनादि अपनी बात के लिए चंचल हो

रहा था.

मैं ने अनादि से कहा, ‘‘अनादि तुम ने जो हमारे लिया किया, वह पूरी तरह निस्वार्थ था. किसी न किसी रूप में हम सब का स्वार्थ जुड़ा था. एक तुम ही ऐसे थे, जिन्हें इस केस से कुछ भी लेनादेना नहीं था. तुम्हारे लिए जो भी मेरे मन में है निहार से कहना जरूरी है.’’

मैं ने देखा उन दोनों की सांसें लगभग रुक चुकी थीं.

मैं ने निहार से कहा, ‘‘अनादि अब मेरा बहुत अच्छा दोस्त है और निहार, शादी के बाद…’’ मैं जानबूझ कर रुक गई थी.

निहार का चेहरा देखने लायक था, पर अनादि का सताना सही नहीं था. मैं बोल पड़ी, ‘‘शादी के बाद हम अनादि के लिए दुनिया की सब से अच्छी लड़की मिल कर

ढूंढ़ेंगी निहार. निहार की रुकी हुई सांसें जैसे चल पड़ी थीं.

‘‘ईशु,’’ निहार के मुंह से निकला.

अनादि उठ कर निहार से गले मिला. फिर मुझ से और निहार से संपर्क में रहने की बात कह वह चला गया. उधर तनय और सेल्विना की शादी में जीजी को छोड़ सभी उपस्थित थे.

जीजी को मम्मीपापा ने अपने गहनों और रुपयों से कुछ हिस्स देकर बाहर का

रास्ता दिखा दिया. जीजी के असामाजिक कृत्यों की वजह से जल्द ही निहार को जीजी से डिर्वोस मिल गया और मैं निहार की बन गई हमेशा के लिए. जीजी दिल्ली चली गई थी और वहीं एक स्कूल में नौकरी कर ली थी.

दिल्ली से एक दिन जीजी का मुझे संदेश आया, ‘‘उम्मीद नहीं थी तू मुझे धोखा दे कर जड़ से काट फेंकेगी.’’

मैं ने उसे कोई जवाब नहीं दिया. मन ही मन मथ रही थी मैं कि बदले की आग में इंसान खुद तो जल मरता है, दूसरों को भी अकारण जला देता है. अब अगर बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए मैं ने धोखा दिया तो दिया… जीजी, इस असुविधा के लिए खेद है, पर अफसोस नहीं.

खुशियों के फ़ूल -भाग 3 : किस बात से डर गए थे निनाद और अम्बा

निनाद को चादर उढ़ा वह दूसरे बेडरूम में अपने पलंग पर लेट गई. पिछले दिन से अम्बा गंभीर सोचविचार में मग्न थी. निनाद को लेकर वह कुछ फैसला नहीं कर पा रही थी. निनाद के रवैये से स्पष्ट था, वह अब समझौते के मूड में था, लेकिन क्या वह पिछले तीन वर्षों तक उसके दिये घावों को भुला कर उसकी इच्छानुसार उसके साथ एक बार फिर जिंदगी की नई शुरुआत कर पाएगी.वह घोर द्विविधा में थी. निनाद के बंधन को काट फेंके या फिर गुजरे दिनों को भुला कर एक नया आगाज़ करे? एक ओर उसका मन कहता, इंसान की फितरत कभी नहीं बदलती. उसने उसके साथ एक नई शुरुआत कर भी ली तो क्या गारंटी है कि वह उसे दोबारा तंग नहीं करेगा? तभी दूसरी ओर वह सोचती, जब निनाद ने अपनी गलती मान ली है तो एक मौका तो उसे देना ही चाहिए.अनायास उसके कानों में माँ के धीर गंभीर शब्द गूंज उठे, “रिश्तों की खूबसूरती उन्हें बनाए रखने में होती है, ना की उन्हें तोड़ने में.“

जिंदगी के इस मोड पर वह स्पष्टता से कुछ सोच नहीं पा रही थी, कि क्या करे.

बीमारी के इस दौर में निनाद एक दम बदला बदला नज़र आ रहा था. वह   बेहद डर गया था. वह एक बेहद डरपोक किस्म का, कमज़ोर दिल का इंसान था.उसे लगता वह कोरोना से मर जाएगा. ठीक नहीं होगा. वह बेहद कमज़ोरी फील कर रहा था. अम्बा  को यूं दिन रात अपनी देखभाल करते देख मन ही मन उसने न जाने कितनी बार अपने आप से दोहराया, “इस बार बस मैं ठीक हो जाऊं, अम्बा  को बिल्कुल तंग नहीं करूंगा. उसे पूरा प्यार और मान दूंगा. अब उसपर बिलकुल नहीं चिल्लाऊंगा.” अम्बा को इस तरह समर्पित भाव से अपनी सेवा करते देख वह गुजरे दिनों में उसके प्रति अपने दुर्व्यवहार को लेकर घोर  पछतावे से भर उठा. साथ ही कोरोना से मौत के खौफ ने उसे बहुत हद तक  बदल दिया था.

उस दिन रात का एक  बज रहा था. निनाद की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.  उसके हाथ पैरों में बहुत दर्द हो रहा था. वह बार-बार दर्द से हाथ पैर पटक रहा था. अम्बा  उसके हाथ पैर दबा रही थी. अम्बा  के हाथ पैर दबाने से उसे बेहद आराम लगा था और भोर होते होते वह गहरी नींद में सो गया था. इतनी देर तक उसके हाथ पैर दबाते दबाते अम्बा  भी थकान से बेदम हो गई थी लेकिन मन में कहीं अबूझ सुकून का भाव था. वह कोरोना की वज़ह से  निनाद में आए परिवर्तन को भांप रही थी. निनाद अब  बेहद बदल गया था. उसकी आंखों में अपने लिए प्यार का समुंदर उमड़ते  देख वह मानो  भीतर तक भीग  उठती लेकिन दूसरे की क्षण पुराने दिनों की याद कर भयभीत हो उठती.

अगली सुबह अम्बा ने डाक्टर को बुलवाया. उन्होंने निनाद के लिए कुछ दवाइयाँ लिख दीं. उन दवाइयों  से निनाद  की तबीयत धीमे धीमे सुधरने लगी थी. दस  दिनों में वह बिस्तर से उठ बैठा था.

वह  दिन उन दोनों की जिंदगी का एक अहम दिन था जब दोनों अस्पताल में टेस्ट के बाद कोरोना नेगेटिव निकले थे. अभी उन्हें चौदह दिनों तक क्वारंटाइन में और रहना था. सो दोनों फिर से निनाद के घर चले गए.

घर पहुंचकर निनाद ने अम्बा से  कहा, “अम्बा,  में ताउम्र तुम्हारा शुक्रगुजार रहूंगा कि तुम मेरी सारी ज़्यादतियाँ  भुलाकर मुझे मौत के मुंह से वापस खींच लाई. मैं वादा करता हूं तुमसे, अब कभी पुरानी  गलतियां  नहीं दोहराऊंगा. कभी बेबात तुम पर नहीं चिल्लाऊंगा. आई एम रीयली वेरी सॉरी. मुझे माफ कर दो.’’

“निनाद, तुम्हारे माफ़ी मांगने से क्या रो रो कर, कुढ़ते झींकते तुम्हारे साथ बिताए तीन साल अनहुए हो जाएँगे? उन तीन सालों में तुमने मुझे जो दर्द दिया, तुम्हारे सॉरी कह देने से क्या उनकी भरपाई हो जाएगी? मैं कैसे मान लूँ कि तुम अब पुरानी बातें नहीं दोहराओगे? नहीं नहीं, हम अलग अलग ही ठीक हैं. अब मुझमें तुम्हारी फ़िज़ूल की कलह को झेलने की सहनशक्ति भी नहीं बची है.मैं अकेले बहुत सुकून से हूँ.“

उसकी बातें सुन निनाद ने उससे फिर से मिन्नतें की “अम्बा, मेरा यकीन करो, तुमसे अलग रह कर अब मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया. बेवज़ह तुमसे झगड़ा करता रहा. प्लीज़ अम्बा, एक बार मुझे माफ़ करदो. वादा करता हूँ, तुम्हें कभी मुझसे शिकायत नहीं होगी. प्लीज़ अम्बा.’’

निनाद की ये बातें सुन अम्बा को अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही निनाद है जो कुछ महीनों पहले तक उससे बात बात पर लड़ाई मोल लेता था. बहाने बहाने से उसे सताता था. कुछ सोच कर उसने निनाद से कहा, “इस बार तो मैं तुम्हारी बात मान  लेती हूँ, लेकिन एक बात कान खोलकर सुन लो, अगर  अब तुमने फिर से बेबात मुझसे कभी भी कलह की, बेवज़ह मुझसे झगड़े तो मैं उसी वक़्त  तुम्हें छोड़ कर चली जाऊँगी और तुमसे तलाक लेकर रहूंगी. पढ़ी लिखी अपने पैरों पर खड़ी हूं, अकेले जिंदगी काटने का दम खम  रखती हूं. इतने दिनों से अकेली बड़े चैन से रह ही रही हूँ. अब मैं तुम्हें अपनी मानसिक शांति भंग करने की इज़ाजत  हर्गिज़ हर्गिज़  नहीं दूँगी. ना ही अपनी बेइज्ज़ती करवाऊंगी. तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया, इसलिए इस बार तो मैंने तुम्हें माफ़ किया लेकिन याद रखना, अगली बार तुम्हें कतई माफ़ी नहीं मिलेगी.“

“नहीं, नहीं अम्बा, भरोसा रखो, अब मैं तुम्हें शिकायत का मौका हर्गिज़ हर्गिज़ नहीं दूंगा. मैं वास्तव में अपनी पुरानी ज़्यादतियों के लिए बहुत शर्मिंदा हूँ. अब हम एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे. जिंदगी की यह दूसरी पारी तुम्हारे नाम, माय लव,” यह  कहते हुए निनाद ने अम्बा  को अपने सीने से लगा लिया था .

पति की बाहों में बंधी अम्बा  को लगा, मानो पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में थी. निनाद  के साथ साझा, सुखद  भविष्य के सतरंगे  सपने उसकी आंखों में झिलमिला उठे.उसे लगा, एक अर्से बाद उसके चारों ओर खुशियों के फ़ूल गमक महक उठे थे.

जल समाधि- आखिर क्यूं परेशान था सुशील?

अंधेरी रात का जुगनू – भाग 2 : रेशमा की जिंदगी में कौन आया

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

ऐसे ही सही – भाग 2 : क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

उन की कमर से नीचे का हिस्सा निष्क्रिय हो चुका था. पेशाब की थैली लगी हुई थी. उन की पत्नी सपना भी ऐसी स्थिति में नहीं थीं कि उन से कोई बात की जा सके. जिसे सारी उम्र पति की ऐसी हालत का सामना करना हो, भीतरबाहर के सारे काम उन्हें स्वयं करने हों, इन सब से बदतर पति को खींच कर उठाना, मलमूत्र साफ करना, शेव और ब्रश के लिए सबकुछ बिस्तर पर ही देना और गंदगी को साफ करना हो, उस की हालत क्या होगी.

मैं उन के पास जा कर बैठ गया. चेहरे पर गहन उदासी छाई हुई थी. मुझे देखते हुए बोले, ‘‘आप यदि उस दिन न होते तो शायद मेरी जिंदगी भी बदतर हालत में होती.’’

‘‘नहीं सर. मैं तो सामने से गुजर रहा था…और मैं ने जो कुछ भी किया बस, मानवता के नाते किया है.’’

‘‘ऐसी जिंदगी भी किस काम की जो ताउम्र मोहताज बन कर काटनी पडे़. मैं तो अब किसी काम का नहीं रहा,’’ कहतेकहते वह रोने लगे तो उन की पत्नी आ कर उन के पास बैठ गईं.

माहौल को हलका करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों के लिए चायनाश्ता आदि ला दूं क्या?’’

सपना पति की तरफ देख कर बोलीं, ‘‘जब इन्होंने खाना नहीं खाया तो मैं कैसे मुंह लगा सकती हूं.’’

‘‘ये दकियानूसी बातें छोड़ो. जो होना था वह हो चुका. पी लो. सुबह से कुछ खाया भी तो नहीं,’’ वह बोले.

‘‘तो फिर मैं ला देता हूं,’’ कह कर मैं चला गया. उन के अलावा 1-2 और भी व्यक्ति वहां बैठे थे. थोड़ी देर में जब मैं वहां चाय ले कर पहुंचा तो वे सब धीरेधीरे सुबक रहे थे.

मैं ने थर्मस से सब के लिए चाय डाली और वितरित की. मैं ने शर्माजी को चाय देते हुए कहा, ‘‘आप को कोई परहेज तो बताया होगा.’’

‘‘कुछ भी नहीं. आधे शरीर के अलावा सबकुछ ठीक है. बस, इतना हलका खाना है कि पेट साफ रहे,’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर कहने लगे, ‘‘इन को चाय के पैसे तो दे दो…पहले भी न जाने कितना…’’

‘‘क्यों शर्मिंदा करते हैं, सर. यह कोई इतनी बड़ी रकम तो है नहीं.’’

बातोंबातों में मैं ने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और उन्होंने अपना. पता चला कि वह एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान में ऊंचे ओहदे पर हैं. कुछ माह पहले ही उन का तबादला इस शहर में हुआ था. मूल रूप से वह लखनऊ के रहने वाले हैं.

‘‘अब क्या करेंगे आप? वापस घर जाएंगे?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं वापस जा कर किसी के तरस का पात्र नहीं बनना चाहता. रिश्तेदारनातेदार और दोस्तों के पास रहने से तो अच्छा है कि यहीं पूरी जिंदगी काट दूं. नियमानुसार मैं विकलांग घोषित कर दिया जाऊंगा और सरकार मुझे नौकरी से रिटायर कर देगी.’’

‘‘पर पेंशन तो मिलेगी न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह तो मिलेगी ही. मैं तो सपना से भी कह रहा था कि अब उसे कोई नौकरी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘आप को यों अकेला छोड़ कर,’’ वह रोंआसी सी हो कर बोलीं, ‘‘जो ठीक से करवट भी नहीं बदल सकता है. हमेशा ही जिसे सहारे की जरूरत हो.’’

‘‘तो क्या तुम सारी उम्र मेरे साथ गांधारी की तरह पास बैठेबैठे गुजार दोगी. यहां रहोगी तो मुझे लाचार देखतेदेखते परेशान होगी. कहीं काम पर जाने लगोगी तो मन बहल जाएगा,’’ कह कर वह मेरी तरफ देखने लगे.

मैं वहां से जाने को हुआ तो शर्माजी बोले, ‘‘अच्छा, आते रहिएगा. मेरा मन भी बहल जाएगा.’’

दिन बीतते गए. इसी बीच मेरे संबंध अपनी पत्नी संगीता के साथ बद से बदतर होते चले गए. मैं लाख कोशिश करता कि उस से कोई बात न करूं पर उसे तो जैसे मेरी हर बात पर एतराज था. उस की मां की दखलंदाजी ने उसे और भी निर्भीक और बेबाक बना दिया था. मैं इतना सामर्थ्यवान भी नहीं था कि उस की हर इच्छा पूरी कर सकूं. यह मेरा एक ऐसा दर्द था जो किसी से बांटा भी नहीं जा सकता था.

एक दिन हमारे बडे़ साहब अपने परिवार के साथ छुट्टियां मनाने मलयेशिया जाना चाहते थे. उन्होंने मुझे बुला कर पासपोर्ट बनवाने का काम सौंप दिया. मैं ने एम.जी. रोड पर एक एजेंट से बात की, जो ऐसे काम करवाता था. उस एजेंट ने बताया कि यदि मैं किसी राजपत्रित अधिकारी से फार्म साइन करवा दूं तो यह पासपोर्ट जल्दी बन सकता है. अचानक मुझे शर्माजी का ध्यान आया और मैं सारे फार्म ले कर उन के घर गया और अपनी समस्या रखी.

‘‘मैं तो अब रिटायर हो चुका हूं. इसलिए फार्म पर साइन नहीं कर सकता,’’ उन्होंने अपनी मजबूरी जतला दी.

‘‘सर, आप किसी को तो जानते होंगे. शायद आप का कोई कुलीग या…’’ तब तक सपनाजी भीतर से आ गईं और कहने लगीं, ‘‘मैं कुछ दिनों से आप को बहुत याद कर रही थी. मेरे पास आप का कोई नंबर तो था नहीं. दरअसल, इन की गाड़ी तो पूरी तरह से खराब हो चुकी है. यदि वह ठीक हो सके तो मैं भी गाड़ी चलाना सीख लूं. आखिर, अब सब काम तो मुझे ही करने पडे़ंगे. यदि आप किसी मैकेनिक से कह कर इन की गाड़ी चलाने लायक बनवा सकें तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

‘‘क्या आप के पास गाड़ी के इंश्योरेंस पेपर हैं?’’ मैं ने पूछा तो उन्होंने सारे कागज मेरे सामने रख दिए. मैं ने एकएक कर के सब को ध्यान से देखा फिर कहा, ‘‘मैडम, इस गाड़ी का तो आप को क्लेम भी मिल सकता है. मैं आप को कुछ और फार्म दे रहा हूं. शर्माजी से इन पर हस्ताक्षर करवा दीजिए, तब तक मैं गाड़ी को किसी वर्कशाप में ले जाने का बंदोबस्त करता हूं.’’

इस दौरान शर्माजी पासपोर्ट के फार्म को ध्यान से देखते रहे. मेरी ओर देख कर वह बोले, ‘‘वैसे यह फार्म अधूरा भरा हुआ है. पिछले पेज पर एक साइन बाकी है और इस के साथ पते का प्रूफ भी नहीं. किस ने भरा है यह फार्म?’’

‘‘सर, एक ट्रेवल एजेंट से भरवाया है. वह इन कामों में माहिर है.’’

‘‘कोई फीस भी दी है?’’ उन्होंने फार्म पर नजर डालते हुए पूछा.

‘‘500 रुपए और इसे भेजेगा भी वही,’’ मैं ने कहा.

‘‘500 रुपए?’’ वह आश्चर्य से बोले, ‘‘आप लोग पढ़ेलिखे हो कर भी एजेंटों के चक्कर में फंस जाते हैं. इस के तो केवल 50 रुपए स्पीडपोस्ट से खर्च होंगे. आप को क्या लगता है वह पासपोर्ट आफिस जा कर कुछ करेगा? इस से तो मुझे 300 रुपए दो मैं दिन में कई फार्म भर दूं.’’

मेरे दिमाग में यह आइडिया घर कर गया. यदि इस प्रकार के फार्म शर्माजी भर सकें तो उन की अतिरिक्त आय के साथसाथ व्यस्त रहने का बहाना भी मिल जाएगा. आज कई ऐसे महत्त्वपूर्ण काम हैं जो इन फार्मों पर ही टिके होते हैं. नए कनेक्शन, बैंकों से लोन, नए खाते खुलवाना, प्रार्थनापत्र, टेलीफोन और मोबाइल आदि के प्रार्थनापत्र यदि पूरे और प्रभावशाली ढंग से लिखे हों तो कई काम बन सकते हैं. मुझे खामोश और चिंतामग्न देख कर वह बोले, ‘‘अच्छा, आप परेशान मत होइए…मैं अपने एक कलीग मदन नागपाल को फोन कर देता हूं. आप का काम हो जाएगा. अब तो आप खुश हैं न.’’

मैं ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रहा था कि यदि आप फार्म भरने का काम कर सकें तो…’’ इतना कह कर मैं ने अपने मन की बात उन्हें समझाई. सपनाजी भी पास बैठी हुई थीं. वह उछल कर बोलीं, ‘‘यह तो काफी ठीक रहेगा. इन का दिल भी लगा रहेगा और अतिरिक्त आय के स्रोत भी.’’

इतना सुनना था कि शर्माजी अपनी पत्नी पर फट पडे़, ‘‘तो क्या मैं इन कामों के लिए ही रह गया हूं. एक अपाहिज व्यक्ति से तुम लोग यह काम कराओगे.’’ मैं एकदम सहम गया. पता नहीं कब कौन सी बात शर्माजी को चुभ जाए.

‘‘आप अपनेआप को अपाहिज क्यों समझ रहे हैं. ये ठीक ही तो कह रहे हैं. आप ही तो कहते थे कि घर बैठा परेशान हो जाता हूं. जब आप स्वयं को व्यस्त रखेंगे तो सबकुछ ठीक हो जाएगा,’’ फिर मेरी तरफ देखते हुए सपनाजी बोलीं, ‘‘आप इन के लिए काम ढूंढि़ए. एक पढ़ेलिखे राजपत्रित अधिकारी के विचारों में और कलम में दम तो होता ही है.’’

सपनाजी जैसे ही खामोश हुईं, मैं वहां से उठ गया. मैं तो वहां से उठने का बहाना ढूंढ़ ही रहा था. वह मुझे गेट तक छोड़ने आईं.

हमारे बडे़ साहब के परिवार के पासपोर्ट बन कर आ गए. वह मेरे इस काम से बहुत खुश हुए. उन के बच्चों की छुट्टियां नजदीक आ रही थीं. उन्होंने मुझे वह पासपोर्ट दे कर वीजा लगवाने के लिए कहा. मैं इस बारे में सिर्फ इतना जानता था कि वीजा लगवाने के लिए संबंधित दूतावास में व्यक्तिगत रूप से जाना पड़ता है. उन को तो मीटिंग से फुरसत नहीं थी इसलिए अपनी कार दे कर पत्नी और बच्चों को ले जाने को कहा.

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