मेरे अपने – भाग 1 : क्यों परिवार से दूर हो गई थी सुरभि

सुबह के 4 बजे थे. फरवरी का  महीना था. नैशनल हार्ट इंस्टिट्यूट की सूनी व सर्द गैलरी की ठंडी बैंच पर बैठी सुरभि को न तो कुछ महसूस हो रहा था न कुछ सूझ रहा था. कोमा की सी स्थिति में सुन्न सुरभि औपरेशन थिएटर के दरवाजे पर नजरें टिकाए बैठी थी. भीतर मास्टरजी का औपरेशन हो रहा था. उन्हें हार्ट अटैक हुआ था.

रात को सोते समय उन्हें कुछ बेचैनी महसूस हो रही थी. उन्होंने सुरभि को बताया तो सुरभि रसोई समेटते हुए बोली, ‘गैस हो गई है पेट में. मैं अभी डायजीन ले कर आती हूं,’ उस ने सपने में भी न सोचा था कि जिन को आज तक साधारण तकलीफों के अतिरिक्त कभी कुछ न हुआ था उन की इस बेचैनी का गैस या बदहजमी के अलावा कोई दूसरा कारण भी हो सकता है. उन्होंने सदा एक नियमित जीवन जीया था. सैर और योगाभ्यास नियम से करते थे. खानपान भी उन का बिलकुल सादा था.

दोनों सुबह 7 बजे अपनेअपने स्कूल के लिए निकल जाते थे. मास्टरजी कार से सुरभि को उस के कन्या विद्यालय छोड़ते, जहां वह अध्यापन कार्य करती थी. उस के बाद अपने राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पहुंचते जहां वे गणित के अध्यापक थे. लौटते भी दोनों एक ही साथ थे. उन के कोई संतान न थी. इसलिए बचे समय में वे अपने विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ाते थे. ये कक्षाएं वित्तीय कारणों से नहीं ली जाती थीं, बल्कि जो होनहार छात्र बड़ेबड़े कोचिंग सैंटरों की मोटी फीस भर पाने में असमर्थ होते थे, उन से नाममात्र की गुरुदक्षिणा ले ये दोनों उन्हें पढ़ाते थे.

मास्टरजी अपने छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे. वे अपने हंसमुख और मित्रवत व्यवहार से छात्रों के गुरु ही नहीं, मित्र भी बन जाते थे. वहीं, टीचर आंटी हालांकि अपने गंभीर और अंतर्मुखी स्वभाव के कारण छात्रों से अधिक घुलतीमिलती नहीं थीं परंतु उन का स्नेह बच्चों के लिए कम न था. पूरा दिन इतने सारे बच्चों में घिरे रह कर उन्हें कभी अपनी संतान के न होने की कमी महसूस ही न हुई थी. अवकाश के दिनों में भी बच्चे अकसर उन के घर कुछ न कुछ पूछनेपढ़ने चले आते थे. पूरा जीवन एक ही ढर्रे पर चलते बीत रहा था.

आखिरकार, एक दिन मास्टरजी रिटायर हो गए. अब उन्हें अपना सरकारी आवास खाली करना था. मास्टरजी उम्र के इस पड़ाव पर आ कर किराए के मकानों में भटकना नहीं चाहते थे. इंदौर में उन का अपना घर था जो वर्षों से बंद पड़ा था. मास्टरजी चाहते थे कि अब वे अपना बाकी का बचा समय अपने उसी पैतृक निवास में व्यतीत करें, जहां उन का बचपन बीता था. सुरभि के रिटायरमैंट को अभी 5 साल बाकी थे. पर उस ने मास्टरजी की इच्छा का सम्मान किया और सेवानिवृत्ति ले ली. इंदौर शिफ्ट होने से पहले उन के मित्रों और छात्रों ने मिल कर उन के लिए विदाई समारोह का आयोजन किया और अश्रुपूरित आंखों से उन्हें विदा किया.

इंदौर हालांकि मास्टरजी का पैतृक निवास था पर जीवन के 40-45 वर्ष उन्होंने कानपुर में व्यतीत किए थे. इतने लंबे अरसे में वे कभी लौट कर यहां नहीं आए थे. अब यहां की दुनिया उन के लिए लगभग अनजान ही थी. शुरू के 8-10 दिन तो सामान इत्यादि व्यवस्थित करने में व्यतीत हो गए. उस के बाद करने को कुछ था ही नहीं. दोनों जैसे नौकरी से सेवानिवृत्त ही न हुए थे बल्कि जीवन की तेज बहती धार से छिटक कर दूर आ गिरे थे.

अपने ही शहर में अपरिचय का एक महासागर ढाढें़ मार रहा था और दोनों पतिपत्नी उस के किनारे हतप्रभ से खड़े थे. अकेले, उदास और किंकर्तव्यविमूढ़. सुरभि रोंआसी हो उठती. इस उम्र में किसी नए स्थान पर फिर अपनी जड़ें जमाना आसान तो नहीं. ऐसा विकराल अकेलापन जीवन में उन्हें कभी महसूस नहीं हुआ था. इंदौर आने का निर्णय कहीं उन की भूल तो नहीं थी.

जिस ‘अपने’ शहर में लौटने को मास्टरजी इतने लालायित थे, वहां दूरदूर तक कोई अपना दिखाई नहीं दे रहा था. अपनी संतान के न होने का दुख भी अब सालने लगा था सुरभि को. काश, समय रहते उन्होंने कोई बच्चा गोद ले लिया होता तो आज उसी के सहारे जिंदगी कट जाती. सुरभि तो सदा अपने आदर्शवादी पति की परछाईं बनी, उन्हीं के पदचिह्नों पर चलती आई थी. मास्टरजी कहते थे कि 1 या 2 स्वयं के पैदा किए बच्चों की रगों में अपना खून दौड़ने से कहीं बेहतर है, पराए कहे जाने वाले बच्चों की रगरग में नैतिकता, मनुष्यता और उत्तम आचारविचार भर दिए जाएं. पूरी उम्र पतिपत्नी दोनों इन्हीं उसूलों और आदर्शों पर चलते आए थे.

आज सुरभि का मन डोलने लगा था. उदास तो मास्टरजी भी थे. पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा था. बरसों पहले एक अनजान शहर को उन्होंने अपना बना लिया था तो इस अपने शहर को फिर से अपना बनाने में कितना समय लगेगा. इसी तरह की उत्साहवर्धक बातों से उन्होंने सुरभि का हौसला बनाए रखा. शीघ्र ही घबरा कर हतोत्साहित हो जाने वालों में से तो सुरभि भी न थी. उस ने शीघ्र ही खुद पर काबू पाया और अपने करने के लिए कुछ रचनात्मक कार्य खोजने लगी.

सुरभि के घर जो कामवाली बाई आती थी उसे पढ़नालिखना न आता था. अध्यापकों के घर में अशिक्षित? न, यह नहीं हो सकता. सुरभि को काम मिल गया था. उस ने उसे शिक्षित करने का बीड़ा उठा लिया. बड़े ही उत्साह से सुरभि उस के लिए स्लेट, पैंसिल व आवश्यक सामान जुटा लाई.

दुलारी की शिक्षा का बीड़ा उन्होंने उठा लिया. 2-4 दिन तो वह बड़े उत्साह से पढ़ने आई लेकिन शीघ्र ही वह इस कवायद से ऊब गई. पढ़ने में आनाकानी करने के उस के पास सौ बहाने थे. दुलारी के अनुसार, वास्तव में अब इस उम्र में उसे पढ़ने की कोई आवश्यकता ही न थी. पर सुरभि ने हार न मानी. उस ने ठान लिया था कि वह दुलारी और उस के जैसी अन्य स्त्रियों को शिक्षा का महत्त्व समझा कर उन्हें पढ़नेलिखने योग्य बना कर ही दम लेगी.

दुलारी पास की बस्ती में रहती थी. सुरभि ने मास्टरजी को अपना मंतव्य बताया और दोनों अब रोज शाम को बस्ती में चक्कर लगाने जाते. उन्हें यह देख कर हैरानी हुई कि वहां लगभग हर कच्चेपक्के घर में रंगीन टीवी, कूलर, फ्रिज इत्यादि मौजूद थे.

ले बाबुल घर आपनो…- भाग 1 : सीमा ने क्या चुना पिता का प्यार या स्वाभिमान

न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

‘‘मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं,’’ सीमा ने साफ शब्दों में अपनी बात कह दी.

शंभुजी कोलकाता से लौट कर आए तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. हमेशा दरवाजे पर स्वागत करने वाली सीमा आज कहीं भी नजर नहीं आ रही थी. मैसेज तो उन्होंने कोलकाता से चलने से पहले ही उस के मोबाइल पर भेज दिया था. क्या उस ने पढ़ा नहीं? लेकिन वे तो हमेशा ही ऐसा करते हैं. चलने से पहले मैसेज कर देते हैं और उन की लाड़ली बेटी सीमा दरवाजे पर मिलती है. उस का हंसता चेहरा देखते ही वे अपनी सारी थकान, सारा अकेलापन पलभर में भूल जाते हैं. शंभुजी का मन उदास हो गया. कहां गई होगी सीमा? मोबाइल भी घर पर छोड़ गई. किस से पूछें वे? और उन्होंने एकएक कर के सारे नौकरों को बुला लिया. पर किसी को पता नहीं था कि सीमा कहां है. सब का एक ही जवाब था, ‘‘सुबह घर पर थी, फिर पता नहीं बिटिया कहां गई.’’

शंभुजी ने सीमा का मोबाइल चैक किया. उन का मैसेज उस ने पढ़ लिया था. फिर भी सीमा घर में नहीं रही. क्या होता जा रहा है उसे? पिछले कई महीनों से वे देख रहे हैं, सीमा में कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं. न वह उन के साथ उतना लाड़ करती है, न उन्हें अपने मन की कोई बात ही बताती है और न ही अब उन से कुछ पूछती है. पिछली बार जब वे कोलकाता जा रहे थे, तो उन्होंने कितना पूछा था, ‘क्यों, बेटे, तुम्हें कुछ मंगवाना है वहां से?’ तो बस, केवल सिर हिला कर उस ने न कर दी थी और वहां से चली गई थी.

पहले जब वे कहीं जाते थे, तो कैसे उन के गले में बांहें डाल कर लटक जाती थी, और मचल कर कहती थी, ‘पापा, जल्दी आ जाइएगा, इतने बड़े सूने घर में हमारा मन नहीं लगता.’

उन का भी कहां इस घर में मन लगता है. यह तो सीमा ही है, जिस के पीछे उन्होंने इतने बरस हंसतेहंसते काट दिए हैं और अपनी पत्नी मीरा को भी भुला बैठे हैं. जबजब वे सीमा को देखते हैं, उन्हें हमेशा यही संदेह होता है, मीरा लौट आई है. और वे अपने अकेलेपन की खाई को सीमा की प्यारीप्यारी बातों से पाट देते हैं.

एक दिन सीमा भी तो पूछ बैठी थी, ‘पापा, मेरी मां बहुत सुंदर थीं?’

‘हां बेटा, बहुत सुंदर थी?’

‘बिलकुल मेरी तरह?’

‘हां, बिलकुल तेरी तरह.’

‘वे आप से रूठती भी थीं?’

‘हां बेटा.’

‘मेरी तरह?’

‘आज तुम्हें क्या हो गया है, सीमा? यह सब तुम्हें किस ने बताया है?’ वे नाराज हो गए थे.

‘15 नंबर कोठी वाली रेखा चाची हैं न, उन्होंने कहा था, मां बहुत अच्छी थीं. आप उन की बात नहीं मानते थे तो वे रूठ जाती थीं,’ सीमा बड़े भोलेपन से बोली थी.

‘तू वहां मत जाया कर, बेटी. अपने घर में क्यों नहीं खेलती? कितने खिलौने हैं तेरे पास?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘वहां शरद है न, वह मेरे साथ कैरम खेलता है, बैडमिंटन खेलता है, यहां मेरे साथ कौन खेलेगा? आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं,’ वह रोआंसी हो आई थी.

वे उस छोटी सी बेटी को कैसे बताते कि उस की मां उन से क्यों रूठ जाती थी. वे तो आज तक अपने को कोसते हैं कि मीरा की वे कोई भी इच्छा पूरी न कर सके. कितनी स्वाभिमानी थी वह? इतनी बड़ी जायदाद की भी उस की नजर में कोई कीमत न थी. हमेशा यही कहती थी कि वह सुख भी किस काम का जिस से हमेशा यह एहसास होता रहे, यह हमारा अपना नहीं, किसी का दिया हुआ है.

यह जो आज इतना बड़ा राजपाट है, यह सब उन्हें मीरा की बदौलत ही तो मिला था. लेकिन मीरा ने कभी इस राजपाट को प्यार नहीं किया. न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आ आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

बहुत बड़ा कारोबार था मीरा के पिताजी का. कितने ही लोग उन के दफ्तर में काम करते थे. शंभुजी भी वहीं काम करते थे. वे बहुत ही स्मार्ट, होनहार और ईमानदार व्यक्ति थे. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने मीरा के पिता का मन जीत लिया था. शंभुजी से उन की कोई बात छिपी नहीं थी, और शंभुजी भी उन की बात को अपनी बात समझ कर न जाने पेट के किस कोने में रख लेते थे, जिस से कोई जान तक नहीं पाता था. मीरा की मां ने ही एक दिन पति को सुझाव दिया था, ‘क्योंजी, तुम तो दिनरात शंभुजी की प्रशंसा करते हो. अगर हम अपनी मीरा की शादी उन से कर दें, तो कैसा रहेगा? गरीब घर का लड़का है, अपने घर रह जाएगा.’

‘मैं भी कितने दिनों से यही सोच रहा था. मुझे भी ऐसा लड़का चाहिए जो मेरा कारोबार भी संभाल ले, और हमारी बेटी भी हमारे पास रह जाए,’ मीरा के पिता ने बात का समर्थन किया था.

‘मेरी चिंता दूर हुई. लेदे कर एक ही तो औलाद है, वही आंखों से दूर हो जाए तो यह तामझाम किस काम का?’

‘लड़का हीरा है, हीरा. चरित्रवान, स्मार्ट, मेहनती, ईमानदार, यह समझ लो, चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी ऐसा लड़का हमें नहीं मिलेगा.’

‘तो बात पक्की कर लो. यह जरूर जतला देना, घरजमाई बन कर रहना पड़ेगा. उसे मंजूर हो तो बस चट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर ही डालो,’ मीरा की मां ने पुलकित हो कर कहा था.

बात पक्की हो गई थी. बड़ी धूमधाम से मीरा और शंभुजी की शादी हुई थी. शंभुजी के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. पहले तो दफ्तर में काम करने वाले सभी साथियों ने ईर्ष्या की थी, लेकिन धीरेधीरे वे सब के लिए छोटे मालिक हो गए थे. मीरा के पिता तो जैसे उन्हें पा कर पूरी तरह निश्ंिचत हो गए थे. धीरेधीरे सारा कारोबार ही उन्होंने शंभुजी को सौंप दिया था.

नीड़ – भाग 3 : सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’

‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’

उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया.  खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का.  मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.

वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’

‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’

अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.

सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.

यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.

धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.

एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’

उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’

स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.

नीड़ – भाग 2 : सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

नीड़ – भाग 1: सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

एक घड़ी औरत – भाग 3 : क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

शीलाजी उस दिन उस के सारे चित्र अपने साथ ले गईं. कुछ दिनों बाद औफिस में उन का फोन आया कि वे उन चित्रों की प्रदर्शनी अमृता शेरगिल और हुसैन जैसे नामी चित्रकारों के चित्रों के साथ लगाने जा रही हैं. सुन कर वह हैरान रह गई. प्रदर्शनी में वह अपनी सहेली और नरेश के साथ गई थी. तमाम दर्शकों, खरीदारों और पत्रकारों को देख कर वह पसोपेश में थी. पत्रकारों से बातचीत करने में उसे खासी कठिनाई हुई थी क्योंकि उन के सवालों के जवाब देने जैसी समझ और ज्ञान उस के पास नहीं था. जवाब शीलाजी ने ही दिए थे.

वापस लौटते वक्त शीलाजी ने नरेश से कहा, ‘आप बहुत सुखी हैं जो ऐसी हुनरमंद बीवी मिली है. देखना, एक दिन इन का देश में ही नहीं, विदेशों में भी नाम होगा. आप इन की अन्य कार्यों में मदद किया करो ताकि ये ज्यादा से ज्यादा समय चित्रकारिता के लिए दे सकें. साथ ही, यदि ये मेरे यहां आतीजाती रहें तो मैं इन्हें आधुनिक चित्रकारिता की बारीकियां बता दूंगी. किसी भी कला को निखारने के लिए उस के इतिहास की जानकारी ही काफी नहीं होती, बल्कि आधुनिक तेवर और रुझान भी जानने की जरूरत पड़ती है.’

नरेश के साथ उस दिन लौटते समय प्रिया कहीं खोई हुई थी. नरेश ही बोले, ‘तुम तो सचमुच छिपी रुस्तम निकलीं, प्रिया. मुझे तुम्हारा यह रूप ज्ञात ही न था. मैं तो तुम्हें सिर्फ एक कुशल डिजाइनर समझता था, पर तुम तो मनुष्य के मन को भी अपनी कल्पना के रंग में रंग कर सज्जित कर देती हो.’

व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. आमदनी का छोटा ही सही, पर एक जरिया प्रिया को नजर आने लगा तो वह पूरे उत्साह से रंग, कूचियां और कैनवस व स्टैंड आदि खरीद लाई. पर समस्या यह थी कि वह क्याक्या करे? कंपनी में ड्रैस डिजाइन करने जाए या घर संभाले, बच्चों की देखरेख करे या पति का मन रखे? अपने स्वास्थ्य की तरफ ध्यान दे या रोज की जरूरतों के लिए बेतहाशा दौड़ में दौड़ती रहे?

प्रिया की दौड़, जो उस दिन से शुरू हुई, आज तक चल रही थी. घर और बाहर की व्यस्तता में उसे अपनी सुध नहीं रही थी.

‘‘अब हमें एक कार ले लेनी चाहिए,’’ एक दिन नरेश ने कहा.

प्रिया सुन कर चीख पड़ी, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्यों?’’ नरेश ने हैरानी से पूछा.

‘‘फ्लैट के कर्ज से जैसेतैसे इतने सालों में अब कहीं जा कर हम मुक्त हो पाए हैं,’’ प्रिया बोली, ‘‘कुछ दिन तो चैन की सांस लेने दो. अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन की मांगें भी बढ़ती जा रही हैं. पहले होमवर्क मैं करा दिया करती थी पर अब उन के गणित व विज्ञान…बाप रे बाप… क्याक्या पढ़ाया जाने लगा है. मैं तो बच्चों के लिए ट्यूटर की बात सोच कर ही घबरा रही हूं कि इतने पैसे कहां से आएंगे. पर आप को अब कार लेने की सनक सवार हो गई.’’

‘‘अरे भई, आखिरकार इतनी बड़ी कलाकार का पति हूं. शीलाजी की कलादीर्घा में आताजाता हूं तुम्हें ले कर. लोग देखते हैं कि बड़ा फटीचर पति मिला है बेचारी को, स्कूटर पर घुमाता है. कार तक नहीं ले कर दे सका. नाक तो मेरी कटती है न,’’ नरेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां मां, पापा ठीक कहते हैं,’’ बच्चों ने भी नरेश के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अपनी कालोनी में सालभर पहले कुल 30 कारें थीं. आज गिनिए, 200 से ऊपर हैं. अब कार एक जरूरत की चीज बन गई है, जैसे टीवी, फ्रिज, गैस का चूल्हा आदि. आजकल हर किसी के पास ये सब चीजें हैं, मां.’’

‘‘पागल हुए हो तुम लोग क्या,’’ प्रिया बोली, ‘‘कहां है हर किसी के पास ये सब चीजें? क्या हमारे पास वाश्ंिग मशीन और बरतन मांजने की मशीन है? कार ख्वाब की चीज है. टीवी, कुकर, स्टील के बरतन और गैस हैं ही हमारे पास. किसी तरह तुम लोगों के सिर छिपाने के लिए हम यह निजी फ्लैट खरीद सके हैं. घर की नौकरानी रोज छुट्टी कर जाती है, काम का मुझे वक्त नहीं मिलता, पर करती हूं, यह सोच कर कि और कौन है जो करेगा. जरूरी क्या है, तुम्हीं बताओ, कार या अन्य जरूरत की चीजें?’’

‘‘तुम कुछ भी कहो,’’ नरेश हंसे, ‘‘घर की और चीजें आएं या न आएं, बंदा रोजरोज शीलाजी या अन्य किसी के घर इस खटारा स्कूटर पर अपनी इतनी बड़ी कलाकार बीवी को ले कर नहीं जा सकता. आखिर हमारी भी कोईर् इज्जत है या नहीं?’’

उस दिन प्रिया जीवन में पहली बार नरेश पर गुस्सा हुई जब एक शाम वे लौटरी के टिकट खरीद लाए, ‘‘यह क्या तमाशा है, नरेश?’’ उस का स्वर एकदम सख्त हो गया.

‘‘लौटरी के टिकट,’’ नरेश बोले, ‘‘मुझे कार खरीदनी है, और कहीं से पैसे की कोई गुंजाइश निकलती दिखाईर् नहीं देती, इसलिए सोचता हूं…’’

‘‘अगर मुझे खोना चाहते हो तभी आज के बाद इन टिकटों को फिर खरीद कर लाना. मैं गरीबी में खुश हूं. मैं दिनरात घड़ी की तरह काम कर सकती हूं. मरखप सकती हूं, भागदौड़ करती हुई पूरी तरह खत्म हो सकती हूं, पर यह जुआ नहीं खेलने दूंगी तुम्हें इस घर में. इस से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा, सिवा बरबादी के.’’

प्रिया का कड़ा रुख देख कर उस दिन के बाद नरेश कभी लौटरी के टिकट नहीं लाए. पर प्रिया की मुसीबतें कम नहीं हुईं. बढ़ती महंगाई, बढ़ते खर्च और जरूरतों में सामंजस्य बैठाने में प्रिया बुरी तरह थकने लगी थी. नरेश में भी अब पहले वाला उत्साह नहीं रह गया था. प्रिया के सिर में भारीपन और दर्र्द रहने लगा था. वह नरेश से अपनी थकान व दर्द की चर्चा अकसर करती पर डाक्टर को ठीक से दिखाने का समय तक दोनों में से कोई नहीं निकाल पाता था.

प्रिया को अब अकसर शीलाजी व अन्य कलापे्रमियों के पास आनाजाना पड़ता, पर वह नरेश के साथ स्कूटर पर या फिर बस से ही जाती. जल्दी होने पर वे आटोरिक्शा ले लेते. और तब वह नरेश की कसमसाहट देखती, उन की नजरें देखती जो अगलबगल से हर गुजरने वाली कार को गौर से देखती रहतीं. वह सब समझती पर चुप रहती. क्या कहे? कैसे कहे? गुंजाइश कहां से निकाले?

‘‘औफिस से डेढ़ लाख रुपए तक का हमें कर्ज मिल सकता है, प्रिया,’’ नरेश ने एक रात उस से कहा, ‘‘शेष रकम हम किसी से फाइनैंस करा लेंगे.’’

‘‘और उसे ब्याज सहित हम कहां से चुकाएंगे?’’ प्रिया ने कटुता से पूछा.

‘‘फाइनैंसर की रकम तुम चुकाना और अपने दफ्तर का कर्ज मैं चुकाऊंगा पर कार ले लेने दो.’’

नरेश जिस अनुनयभरे स्वर में बोले वह प्रिया को अच्छा भी लगा पर वह भीतर ही भीतर कसमसाई भी कि खर्च तो दोनों की तनख्वाह से पूरे नहीं पड़ते, काररूपी यह सफेद हाथी और बांध लिया जाए…पर वह उस वक्त चुप रही, ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह जो आसन्न संकट के बावजूद अपनी सुरक्षा की गलतफहमी में बालू में सिर छिपा लेता है.

पति के जाने के बाद प्रिया जल्दीजल्दी तैयार हो कर अपने दफ्तर चल दी. लेकिन आज वह निकली पूरे 5 मिनट देरी से थी. उस ने अपने कदम तेज किए कि कहीं बस न निकल जाए, बस स्टौप तक आतीआती वह बुरी तरह हांफने लगी थी.

परित्यक्ता – भाग 2 : कजरी के साथ क्या हुआ था

उस के घर में ही लखन ने कुछ पासपड़ोसियों के सामने उसे मंगलसूत्र पहना कर उस की मांग में सिंदूर भर दिया. अब लखन उस के साथ ही आ कर रहने लगा. बच्चों ने भी कुछ समय बाद आखिर उसे अपना लिया.

शादी को 8 महीने हो चुके थे. पुराने जख्म भरने लगे थे कि अचानक एक दिन सुबहसुबह एक औरत उस के दरवाजे पर आ कर उसे भलाबुरा कहने लगी. पहले तो कजरी समझ ही न पाई कि यह चक्कर क्या है. बाद में उसे समझ आया, तो उस पर फिर से एक बार आसमान टूट पड़ा.

वह औरत लखन की पत्नी थी जो रात ही अपने गांव से आई थी, और लखन व उस के संबंध की जानकारी मिलते ही वह उस से लड़ने चली आई थी. कजरी ने इस बारे में लखन से कई सवाल किए, पर उस की खामोशी देख कर वह समझ गई कि समय ने फिर से उस के साथ बहुत ही गंदा मजाक किया है. लखन ने सिर्फ अपनी वासनापूर्ति की खातिर ही उस से संबंध जोड़ा था.

लखन जा चुका था, कजरी अंदर ही अंदर टूट कर फिर बिखर चुकी थी. पर इस बार वह पहले की तरह एक कमजोर औरत नहीं थी, जो अपनी बेबसी का रोना ले कर बैठे. सो, दूसरे दिन से ही उस ने सुमि पर भाईबहनों की जिम्मेदारी छोड़ कर काम पर जाना शुरू कर दिया.

इधर, पड़ोस में रहने वाला 22 साल का दीनू उस की छोटी बेटी रीना पर गलत निगाह रखता था. रीना 9 साल की एक अबोध बालिका थी, जिसे अकसर वह चौकलेट वगैरह का लालच दे कर अपने पास बुलाने की कोशिश करता था. एक दिन सुमि ने चौकलेट खाती रीना के शरीर पर उस के रेंगते हाथों को देख कर मां को तुरंत बताया था. कजरी ने भी इस वाकए को हलके रूप में न ले कर दीनू के मांबाप से जा कर तुरंत इस की शिकायत की थी. उस के बाद दीनू ने सब के सामने उस से माफी मांगी थी.

कुछ दिनों शांत बैठ कर दीनू फिर से वही काम दोहरा रहा था. कजरी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे. कैसे बुरी नीयत व बुरी निगाह रखने वाले लोगों से अपनी बच्चियों को बचाए. खुद उस की देह भी तो उस के लिए बड़ी दुखदाई बन चुकी थी. मर्दों की पैनी निगाहें उस के शरीर पर यों फिसलती थीं मानो कपड़ों के अंदर तक झांक लेना चाहती हों.

पति की छोड़ी औरत शायद हर मर्द की जागीर हो जाती है. जिस पर हर कोईर् हाथ साफ करना चाहता है. कजरी के अंदर की औरत बहुत अकेली व लाचार हो गई थी. क्या बिना आदमी के औरत का कोई वजूद नहीं है? आखिर औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है? उस की बेचैनी आंसू बन कर उस के गालोें पर ढुलकने लगी. रात को न जाने कब उस की आंख लगी.

सुबह उठी तो सिर भारी हो रहा था.

आंखें भी जल रही थीं. देररात तक जागने से ऐसा हुआ है, यह  सोच कर कजरी ने उठने की कोशिश की परंतु शरीर ने साथ न दिया.सुमि ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, तो चौंक पड़ी, ‘‘आई, तुझे तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां रे, मुझ से तो उठा भी नहीं जा रहा,’’ कजरी पर बेहोशी छाती जा रही थी. शायद बारिश में भीगने से उसे बुखार ने जकड़ लिया था.

मां की हालत देख कर सुमि घबरा गई. मां को वैसे ही छोड़ कर वह दौड़ कर पड़ोस से विमला काकी को बुला लाई. विमला काकी के पति औटो चलाते थे. जल्दी से कजरी को अपने औटो में बैठा कर वे उसे पास के अस्पताल ले गए.

कजरी की बिगड़ती हालत देख कर डाक्टर ने उसे वहीं ऐडमिट कर ग्लूकोस की बोतल चढ़ाने की सलाह दी. जब तक वह हौस्पिटल में रही, विमला काकी ने उस की पूरी देखभाल की और हौस्पिटल का बिल भी उन्होंने ही भरा.

कजरी घर पर तो आ गई लेकिन कमजोरी के चलते उस से उठतेबैठते नहीं बन रहा था. कुछ पैसे जो उस ने बचा कर रखे थे, वे घर के खानेखर्च में खत्म हो गए. अभी विमला काकी का उधार पूरा बाकी था.

‘‘आई, आज आटा खत्म हो गया है, तेल भी नहीं बचा. खाना कैसे बनाऊं?’’ सुमि ने एक सुबह कुछ झिझकते हुए मां से कहा. काम पर गए उसे एक हफ्ता हो गया था.

‘‘आज कुछ अच्छा लग रहा है. आज जाती हूं काम पर. उधर से आते वक्त सब किराना लेती आऊंगी. तब तक तुम पास वाली दुकान से दूध और ब्रैड ले आना और चाय बना कर उस के साथ टोस्ट खा लेना,’’ अपने पास बचे 50 रुपए का आखिरी नोट सुमि को पकड़ाते हुए वह बोली.

काम पर जा कर उसे बहुत बड़ा झटका लगा. उस की मालकिन ने बगैर बताए इतने दिनों की छुट्टी करने पर उसे काम से हटा कर दूसरी बाई रख ली थी. उस ने लाख मिन्नतें कर उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की कि उस ने जानबूझ कर छुट्टी नहीं मारी. लेकिन उन का कलेजा न पसीजा. उन्होंने उसे दोबारा काम पर रखने से साफ मना कर दिया.

एक घड़ी औरत – भाग 2 : क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

बाद में किसी न किसी बहाने नरेश औफिस में आते रहे. प्रिया को बहुत जल्दी एहसास हो गया कि महाशय के दिल में कुछ और है. एक दिन वह शाम को औफिस से बाहर निकल रही थी कि नरेश अपने स्कूटर पर आते नजर आए. पहले तो वह मुसकरा दी पर दूसरे ही क्षण वह सावधान हो गई कि अजनबी आदमी से यों सरेराह हंसतेमुसकराते मिलना ठीक नहीं है.

‘अगर बहुत जल्दी न हो आप को, तो मैं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठ कर आप से एक बात करना चाहता हूं,’ नरेश ने पास आ कर कहा.

प्रिया इनकार नहीं कर पाई. उन के साथ रेस्तरां की तरफ चल दी. वेटर को 1-1 डोसा व कौफी का और्डर दे कर नरेश प्रिया से बोले, ‘भूख लगी है, आज सुबह से वक्त नहीं मिला खाने का.’

वह जानती थी कि यह सब असली बात को कहने की भूमिका है. वह चुप रही. नरेश उसे भी बहुत पसंद आए थे… काली घनी मूंछें, लंबा कद और चेहरे पर हर वक्त झलकता आत्मविश्वास…

‘टीवी में एक विज्ञापन आता है, हम कमाते क्यों हैं? खाने के लिए,’ प्रिया हंसी और बोली, ‘कितनी अजीब बात है, वहां विज्ञापन में उस बेचारे का खाना बौस खा जाता है और यहां वक्त नहीं खाने देता.’

‘हां प्रिया, सचमुच वक्त ही तो हमारा सब से बड़ा बौस है,’ नरेश हंसे. फिर जब तक डोसा और कौफी आते तब तक नरेश ने पानी पी कर कहना शुरू किया, ‘अपनी बात कहने से मुझे भी कहीं देर न हो जाए, इसलिए मैं ने आज तय किया कि अपनी बात तुम से कह ही डालूं.’

प्रिया समझ गई थी कि नरेश उस से क्या कहना चाहते हैं, पर सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही.

‘वैसे तो तुम किसी न किसी से शादी करोगी ही, प्रिया, क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूं? कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. अगर तुम ने किसी और के बारे में तय कर रखा हो तो मैं सहर्ष रास्ते से हट जाऊंगा. और अगर तुम्हारे मांबाप तुम्हारी पसंद को स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का हमसफर बनाना चाहता हूं.’

प्रिया चुप रही. इसी बीच डोसा व कौफी आ गई. नरेश उस के घरपरिवार के बारे में पूछते रहे, वह बताती रही. उस ने नरेश के बारे में जो पूछा, वह नरेश ने भी बता दिया.

जब नरेश के साथ वह रेस्तरां से बाहर निकली तो एक बार फिर नरेश ने उस की ओर आशाभरी नजरों से ताका, ‘तुम ने मेरे प्रस्ताव के बारे में कोईर् जवाब नहीं दिया, प्रिया?’

‘अपने मांबाप से पूछूंगी. अगर वे राजी होंगे तभी आप की बात मान सकूंगी.’

‘मैं आप की राय जानना चाहता हूं.’ सहसा एक दूरी उन के बीच आ गई.

‘क्यों एक लड़की को सबकुछ कहने के लिए विवश कर रहे हैं?’ वह लजा गई, ‘हर बात कहनी जरूरी तो नहीं होती.’

‘धन्यवाद, प्रिया,’ कह कर नरेश ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

उस के बाद जैसे सबकुछ पलक झपकते हो गया. उस ने अपने घर जा कर मातापिता से बात की तो वे नाराज हुए. रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. जाति बाधा बन गई. वह उदास मन से जब वापस लौटने लगी तो पिता उसे स्टेशन तक छोड़ने आए, ‘तुम्हें वह लड़का हर तरह से ठीक लगता है?’ उन्होंने पूछा.

प्रिया ने सिर्फसिर ‘हां’ में हिलाया. पिता कुछ देर सोचते रहे. जब गाड़ी चलने को हुई तो किसी तरह गले में फंसे अवरोध को साफ करते हुए बोले, ‘बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी और कुछ नहीं प्रिया. वैसे, तुम खुद अब समझदार हो, अपना भलाबुरा स्वयं समझ सकती हो. बाद में कहीं कोई धोखा हुआ तो हमें दोष मत देना.’

मातापिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए प्रिया ने उन से आर्थिक सहायता भी नहीं ली. नरेश ने भी अपने मातापिता से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली. दोनों ने शादी कर ली. शादी में मांबाप शामिल जरूर हुए पर अतिथि की तरह.

विवाह कर घर बसाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी खर्च करने के बाद भी दोनों को अपने मित्रोंसहेलियों से कुछ उधार लेना पड़ा था. उसे चुका कर वे निबटे ही थे कि पहला बच्चा आ गया. उस के आने से न केवल खर्चे बढ़े, कुछ समय के लिए प्रिया को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी. जब दूसरी कंपनी में आई तो उसे पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं.

नरेश की भागदौड़ और अधिक बढ़ गई थी. घर का खर्च चलाने के लिए वे दिनरात काम में जुटे रहने लगे थे.

‘मैं ने एक फ्लैट देखा है, प्रिया’ एक दिन नरेश ने अचानक कहा, ‘नया बना है, तीसरी मंजिल पर है.’

‘पैसा कहां से आएगा?’ प्रिया नरेश की बात से खुश नहीं हुई. जानती थी कि फ्लैट जैसी महंगी चीज की कल्पना करना सपना है. पर दूसरे बच्चे की मां बनतेबनते प्रिया ने अपनेआप को सचमुच एक नए फ्लैट में पाया, जिस की कुछ कीमत चुकाई जा चुकी थी पर अधिकांश की अधिक ब्याज पर किस्तें बनी थीं, जिन्हें दोनों अब तक लगातार चुकाते आ रहे थे.

उस की नई बनी सहेली ने प्रिया का परिचय एक दिन शीला से कराया, ‘नगर की कलामर्मज्ञा हैं शीलाजी,’ सहेली ने आगे कहा, ‘अपने मकान के बाहर के 2 कमरों में कलादीर्घा स्थापित की है. आजकल चित्रकारी का फैशन है. इन दिनों हर कोईर् आधुनिक बनने की होड़ में नएपुराने, प्रसिद्ध और कम जानेमाने चित्रकारों के चित्र खरीद कर अपने घरों में लगा रहे हैं. 1-1 चित्र की कीमत हजारों रुपए होती है. तू भी तो कभी चित्रकारी करती थी. अपने बनाए चित्र शीलाजी को दिखाना. शायद ये अपनी कलादीर्घा के लिए उन्हें चुन लें. और अगर इन्होंने कहीं उन की प्रदर्शनी लगा दी तो तेरा न केवल नाम होगा, बल्कि इनाम भी मिलेगा.’

प्रिया शरमा गई, ‘मुझे चित्रकारी बहुत नहीं आती. बस, ऐसे ही जो मन में आया, उलटेसीधे चित्र बना देती थी. न तो मैं ने इस के विषय में कहीं से शिक्षा ली है और न ही किसी नामी चित्रकार से इस कला की बारीकियां जानीसमझी हैं.’

लेकिन वह सचमुच उस वक्त चकित रह गई जब शीलाजी ने बिना हिचक प्रिया के घर चल कर चित्रों को देखना स्वीकार कर लिया. थोड़ी ही देर में तीनों प्रिया के घर पहुंचीं.

2 सूटकेसों में पोलिथीन की बड़ीबड़ी थैलियों में ठीक से पैक कर के रखे अपने सारे चित्रों को प्रिया ने उस दिन शीलाजी के सामने पलंग पर पसार दिए. वे देर तक अपनी पैनी नजरों से उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘अमृता शेरगिल से प्रभावित लगती हो तुम?’

प्रिया के लिए अमृता शेरगिल का नाम ही अनसुना था. वह हैरान सी उन की तरफ ताकती रही.

‘अब चित्रकारी करना बंद कर दिया है क्या?’

‘हां, अब तो बस 3 चीजें याद रह गई हैं, नून, तेल और लकड़ी,’ हंसते वक्त उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगी.

परित्यक्ता – भाग 1 : कजरी के साथ क्या हुआ था

बरसती बूंदें कजरी के पैरों से कदमताल कर रही थीं. अभी 6 ही तो बजे थे, पर तेज बारिश और काले बादलों ने वक्त से पहले ही जैसे अंधेरा करने की ठान ली थी. ठीक उस के जीवन की तरह, जिस में उस की खुशियों के उजाले को समय के स्याह बादलों ने हमेशा के लिए ढक लिया था. कजरी सोचती जा रही थी. झमाझम होती बारिश में उस की पुरानी छतरी ने भी आज उस का साथ छोड़ दिया था. बच्चों की चिंता ने उस के पैरों की गति को और बढ़ा दिया. उस का घर आने से पहले ही बाबूलाल किराने वाले की दुकान पड़ती थी, जहां से उसे कुछ किराना भी लेना था.

‘‘क्या चाहिए?’’ बाबूलाल ने कजरी की भीगी देह पर भरपूर नजर डालते हुए कहा.

‘‘2 किलो आटा, आधा लिटर तेल, पाव किलो शक्कर और हां, आधा लिटर दूध भी दे देना,’’ कजरी ने अपने आंचल को ठीक करते हुए कहा. बाबूलाल की ललचाई नजरों में उसे हमेशा ही एक मौन आमंत्रण दिखाई देता था. यह तो उस की मजबूरी थी कि वह यहां से वक्तबेवक्त कभी भी उधारी में सामान ले लिया करती थी, वरना उस की दुकान की ओर कभी वह मुड़ कर भी न देखती.

सोचतेसोचते कजरी घर पहुंच गई. बच्चे ‘‘मां, मां’’ कहते हुए उस से लिपट गए.

‘‘आई बहुत भूख लगी है, ताई ने कुछ खाने को नहीं दिया,’’ छोटे बेटे कमल ने दीदी की शिकायत की.

‘‘क्या करती आई, घर में आटा ही नहीं था,’’ सुमि ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘अच्छा मेरा राजा बेटा, मैं अभी गरमागरम रोटी बना कर अपने लाल को खिलाती हूं, मीठे दूध में मींज के खा लेना,’’ कजरी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा.

‘‘आई, मैं भी खाऊंगी,’’ 9 साल की रीना ने मचलते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं मेरी गोलू, तू भी खाना.’’ गोलमटोल बड़ीबड़ी आंखों वाली रीना को सब गोलू ही कह कर बुलाते थे.

‘‘मैं ने टमाटर की मस्त चटनी भी बनाई है, आई,’’ सुमि ने उसे पानी का गिलास पकड़ाते हुए कहा.

जल्दी से आटा गूंध कर उस ने बच्चों को खाना खिलाया. उन को सुलाने के बाद कजरी सुमि के साथ वहीं नीचे जमीन पर लेट गई.

‘‘आई, आज फिर दीनू रीना को चौकलेट खिला रहा था. तब मैं ने रीना के हाथ से छीन कर वापस उस के मुंह पर फेंक दी, तो वह मेरे को देख लेने की धमकी दे कर चला गया. मुझे उस से बहुत डर लगता है, आई,’’ सुमि ने भयभीत स्वर में मां को बताते हुए कहा.

‘‘तुम घबराओ नहीं, सुमि, मैं उस की मां से बात करूंगी,’’ कजरी ने उसे तो समझा दिया, परंतु खुद सोच में पड़ गई.

जब से रमेश उसे छोड़ कर गया है, जीना कितना दूभर हो गया है. कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इस कदर बोझ बन जाएगी. रमेश के रहते उसे कभी भी बाहर जा कर काम करने की जरूरत नहीं पड़ी. 17 साल की थी जब मांबाप ने रमेश के साथ उस का ब्याह कर दिया था. बहुत खुश थी वह रमेश के साथ. पेशे से पेंटर रमेश इंदौर के राजेंद्रनगर इलाके से कुछ दूर बुद्धनगर के स्लम एरिया में किराए के मकान में रहता था. मकान बहुत अच्छा नहीं, पर रहने लायक जरूर था. दोनों की जिंदगी मजे में कट रही थी.

समय के साथ कजरी 3 प्यारे बच्चों की मां बनी. सब से बड़ी सुमि, उस से छोटी रीना और सब से छोटा कमल. बच्चों के जन्म के बाद कजरी का भरा बदन और भी सुंदर लगने लगा था. शादी के 12 साल बीत जाने पर भी रमेश उसे जीजान से चाहता था. आसपड़ोस के लोग उन दोनों के प्यारभरे रिश्ते से अनजान नहीं थे. कजरी के घर के पास ही एक बढ़ई परिवार रहता था. इस परिवार की इकलौती लड़की माया रमेश को बहुत पसंद करती थी, पर रमेश उस पर कभी ध्यान नहीं देता था.

इधर, बच्चों की देखरेख और घर के कामों में व्यस्त कजरी चाहते हुए भी रमेश को ज्यादा वक्त न दे पाती थी जिस वजह से अकसर दोनों में झड़प हो जाया करती थी. वह रमेश को समझाती थी कि बच्चों के आने के बाद उस का काम बढ़ गया है. पर पुरुषवादी सोच का गुलाम रमेश उस की न को अपना अपमान समझने लगा था. धीरेधीरे उन के बीच में दूरियां बढ़ती चली गईं.

अब काम से लौट कर रमेश सीधे जो बाहर निकलता, तो रात 11-12 बजे ही वापस आता. बच्चों के पालनपोषण में व्यस्त कजरी ने पहले तो इस ओर ध्यान नहीं दिया, और जब ध्यान दिया तब तक बड़ी देर हो चुकी थी.

35 साल का रमेश अब 16 साल की लड़की माया का दीवाना बन चुका था. इस बात का पता लगते ही कजरी ने बहुत बवाल मचाया. रमेश से लड़ीझगड़ी, उस माया के घर जा कर उसे लताड़ा. फिर भी उन दोनों पर कोई असर न होता देख कजरी ने माया के सामने अपना आंचल फैलाते हुए अपने बच्चों के पिता को छोड़ देने के लिए बहुत अनुनयविनय की. पर माया टस से मस न हुई. माया के मातापिता भी उस की इस हरकत के आगे मजबूर थे.

फिर, एक दिन वह दिन भी आया जब काम पर गया रमेश कभी घर नहीं लौटा. इधर, माया भी घर से गायब थी. कजरी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह फूटफूट कर रोई. पर अब हो भी क्या सकता था. भारी मन से उस ने इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि अब वह एक परित्यक्ता है, जिसे उस का आदमी हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुका है.

पति द्वारा छोड़ी हुई औरत समाज के पुरुषों की बपौती बन जाती है, कुछ ही दिनों में यह बात उस की समझ में आ चुकी थी. यह वह समाज है, जहां पुरुषों द्वारा की गई गलती की सजा भी औरत को ही भुगतनी पड़ती है. घर के बाहर हर दूसरा आदमी उस के शरीर पर अपनी गिद्ध निगाह जमाए बैठा था. पर बच्चों के भरणपोषण के लिए उस का घर से निकलना बेहद जरूरी हो चुका था. ऐसे में रमेश के दोस्त लखन ने उस की बहुत सहायता की. उस ने अपने मालिक के घर पर कजरी को काम दिला दिया.

जल्द ही कजरी ने भी बेशर्मी की चादर ओढ़ कर जीना सीख लिया. लेकिन, अब भी काम पर जाने के बाद बच्चों की देखरेख की समस्या उस के आगे मुंहबाए खड़ी थी, जिस का जिम्मा उस की 11 साल की बेटी ने ले लिया. अपनी पढ़ाई छोड़ कर वह अपने छोटे भाईबहन को संभालने लगी. पापा के घर छोड़ कर चले जाने से वह अचानक ही अपनी उम्र से कुछ ज्यादा बड़ी हो गई थी. कुछ महीनों में कजरी को ऐसा लगने लगा कि जिंदगी फिर पटरी पर आने लगी है.

एक दिन वह काम पर से वापस आ रही थी कि रास्ते में लखन मिल गया. बातोंबातों में उस ने कजरी से अपने प्यार का इजहार कर दिया. उस के एहसानों तले दबी कजरी उसे एकदम से इनकार न कर सकी. उस ने उस से सोचने के लिए कुछ समय मांगा. रातभर वह इसी ऊहापोह में रही कि अपने ही पति द्वारा वह एक बार ठगी जा चुकी है. क्या फिर से उसे किसी पर इतना विश्वास करना चाहिए? परंतु बिना मर्द के घर पर लोगों की चीलकौवे सी पड़ती निगाहों से बचने के लिए आखिरकार उसे यही रास्ता सब से उपयुक्त लगा.

दूरियां – भाग 4: क्या काम्या और हिरेन के रिश्ते को समझ पाया नील

अगले दिन हिरेन जिद करने लगा कि कुछ खरीदारी करते हैं. मैं अधिकतर जींस पहनती हूं तो मु  झे शर्ट, टीशर्ट की दुकान पर ले गया. काम्या वहां पुरुषों के विभाग में शर्ट देखने में व्यस्त थी. उस ने हमें नहीं देखा. बड़ी अजीब फंकी सी शर्ट देख रही थी. खैर, मैं ने नील के लिए एक चैकदार शर्ट खरीदी और बाहर जाने लगी तो काम्या से टकरा गई.

काम्या ने अपनी ली हुई शर्ट दिखाते हुए पूछा, ‘‘यह कैसी शर्ट है?’’

शर्ट चटक औरेंज रंग की थी. मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसी शर्ट पसंद नहीं करती. लेकिन मैं ने उस से कहा अच्छी है और आगे बढ़ गई.

नील की याद इतनी सता रही थी कि बरदाश्त नहीं हो रहा था. आखिर मैं ने फोन किया, लेकिन संपर्क नहीं हो सका.

अगले दिन हमारा काम खत्म हो गया. लेकिन हिरेन ने जानबू  झ कर एक

दिन अधिक रखा था आसपास घूमने का. मु  झे जान कर बड़ी बोरियत हुई. मेरा बिलकुल मन नहीं था एक भी दिन और रुकने का.

जब घर पहुंची तो नील घर पर नहीं था, सोचा उस की शर्ट निकाल कर पहन लेती हूं. मैं ऐसा अकसर करती जब भी उस की नजदीकी का एहसास करना होता था. अलमारी खोलते ही सामने औरेंज रंग की शर्ट दिखी. हाथ में ले कर देखा तो यह वही शर्ट थी जो काम्या ने अपने बौयफ्रैंड के लिए खरीदी थी. अब कहनेसुनने को कुछ नहीं बचा था. स्थिति एकदम साफ थी. एक कागज पर संदेश लिखा:

‘‘मैं तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं. अब हमारे रिश्ते में ऐसा कुछ नहीं बचा कि हम साथ रहें,’’ मैं किसी वकील से बात कर के आगे सहेली के घर रहने आ गई.

उस के बाद नील के बहुत फोन आए, लेकिन मैं ने फोन नहीं उठाया. जानती थी उस की आवाज सुन कर रो पड़ूंगी और कमजोर पड़ जाऊंगी. 17 महीनों से एक जिंदा लाश की तरह घूम रही हूं. हिरेन ने बहुत मदद की, दाद देनी पड़ेगी बंदा जितना मेरे साथ धैर्य से पेश आ रहा है कोई नहीं आ सकता. वकील से भी उस ने जोर दे कर समय लिया वरना मैं तो टालती जा रही थी.

नील ने जब मेरा हाथ पकड़ कर दबाया तो मैं अतीत से बाहर निकली.

‘‘ऐसा एकदम से क्या हुआ कि तुम घर छोड़ कर चली गई? कारण जानने के लिए मैं पागल हो गया था… तुम्हारे औफिस के इतने चक्कर लगाए, लेकिन किसी ने अंदर नहीं घुसने दिया. तुम कहां रहने चली गई मैं नहीं जान सका. तुम मेरा फोन नहीं उठाती थी.’’

मैं आहत स्वर में बोली, ‘‘बनो मत, तुम शिमला में काम्या के साथ थे. बस मु  झ से तलाक का इंतजार कर रहे हो उस से शादी करने के लिए.’’

‘‘मु  झे नहीं मालूम तुम किस काम्या की बात कर रही हो… मैं तो बस एक काम्या को जानता हूं जो मेरे औफिस में काम करती है और मु  झे बिलकुल पसंद नहीं है. हर समय मेरे पीछे पड़ी रहती है. मैं शिमला अपने दोस्तों निखिल और सोमेश के साथ गया था… वे बहुत समय से पीछे पड़े थे, लेकिन मैं टाल जाता था. जब तुम ने बताया तुम बाहर जा रही हो तो तुम्हारे बिना मैं भी यहां रह कर क्या करता. मेरे हां कहते ही दोनों ने शिमला का कार्यक्रम बना लिया.’’

‘‘तुम सच छिपाने की कोशिश मत करो. काम्या ने तुम्हें औरेंज रंग की शर्ट तोहफे में दी थी.’’

‘‘तुम पागल हो गई हो. मैं उस बददिमाग लड़की से तोहफा क्यों लूंगा भला? वह शर्ट मैं ने स्वयं खरीदी थी तुम्हें चिढ़ाने के लिए. मु  झे मालूम था उस का रंग और प्रिंट देख कर तुम कितना गुस्सा खाओगी.’’

मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई. अब यहां रुकने से कोई लाभ नहीं, पुरानी यादों से बचने

आई थी, लेकिन फिर उसी भंवर में फंस गई. नील को भी यहीं आना था, उस को छोड़ कर जाने का मन नहीं कर रहा था. 2 दिन ही सही, फिर पता नहीं जिंदगी में कभी मिलें न मिलें.

तभी बाहर का दरवाजा खोलने की आवाज आई. उसे मेरी परवाह नहीं लगता है चला गया. जो थोड़ीबहुत उम्मीद थी उसे भी खत्म कर के ही दम लेगा. मैं थोड़ी देर बाद नहाने चली गई, जब बाहर आई तो नील कमरे में मेरा इंतजार कर रहा था.

‘‘तुम एकदम से नहीं दिखाई दी तो मु  झे लगा तुम गुस्सा हो कर चली गई. देखो आज छोटी दीवाली है. मैं कुछ लडि़यां, दीपक और रंगोली के रंग लाया हूं. आखिरी ही सही हम एक बार इस नए घर में पतिपत्नी का नाटक कर के दीवाली मनाते हैं.’’

फिर उस की नजर मु  झ पर ठहर गई. हाथ का सामान नीचे रखते हुए बोला, ‘‘तू सही कहती है मैं तुम्हारी देह देख कर पागल हो जाता हूं.’’

फिर वह एकदम मेरे करीब आ कर मु  झे बांहों में कस कर किस करने लगा. कायदे से मु  झे उसे धक्का दे कर अपने से अलग कर देना चाहिए था, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकी. कितनी संतुष्टि मिल रही थी उस की नजदीकी से… तन और मन कितने बेचैन थे… तृप्त हो गए.

वह हांफ रहा था, होंठों को अलग करते हुए बोला, ‘‘शादी के इतने साल बाद भी इतनी बेचैनी, कैसे रह सकेंगे एकदूसरे के बिना? यार एक अनजान लड़की ने क्या कह दिया तूने सच मान लिया. मु  झे देखा तूने उस के साथ कभी और वह शर्ट मैं ने स्वयं खरीदी थी. मैं तु  झे रसीद भी दिखा सकता हूं.’’

मैं आहिस्ता से उस से अलग होते हुए सोच रही थी कह तो यह सही रहा है. मैं ने अपना फोन खोल कर देखा हिरेन की कई कौल्स आई हुई थीं.

मेरी सहेली का संदेश था, ‘‘कहां हो यार तुम्हारा बौस पागल हो रहा है.’’

कमाल है हिरेन को क्या परेशानी है… 2 दिन की छुट्टी है. मैं कहीं भी जाऊं उसे क्या… मेरे मन में न जाने क्या आया कि मैं ने निर्मला को फोन मिलाया.

वह बेरुखी से बोली, ‘‘हैलो, बोलो क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं निर्मलाजी बस दीवाली की शुभकामनाएं देने के लिए फोन मिलाया था.’’

उन की आवाज एकदम बदल गई, ‘‘ओह, अच्छाअच्छा, आप को भी बहुतबहुत शुभकामनाएं. कल पार्टी में नहीं शामिल हुई… हिरेन सर का मूड बड़ा खराब रहा.’’

सुन कर कुछ अजीब लगा. बोली, ‘‘बस तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी. इसलिए शोरशराबे से दूर अपनी मम्मी से मिलने आ गई थी. आप ने इतने कम नोटिस पर शिमला जाने का टिकट करवा दिया, आप भी कमाल हो.’’

‘‘इस में कमाल क्या, हमारी ट्रैवल एजेंट्स से सांठगांठ रहती है, 2 टिकट ही तो करवाए थे. उस में कोई दिक्कत नहीं होती, अधिक हो तो थोड़ी परेशानी हो जाती है.’’

‘‘2 टिकट? लेकिन मैं तो अकेले गईर् थी?’’

‘‘तुम्हारी बगल में काम्या बैठ कर गई थी. उस का टिकट भी मैं ने ही करवाया था हिरेन सर के कहने पर. वह सर की ममेरी बहन है… उस ने तुम्हें बताया नहीं?’’

‘‘मैं इतनी थकी हुई थी कि प्लेन में बैठते ही नींद आ गई. इस कारण हमारी खास बात नहीं हुई,’’ फिर थोड़ी देर इधरउधर की बातें

कर के मैं ने फोन काट दिया.

नील मेरे निकट आते हुए बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘हिरेन और काम्या भाईबहन हैं और शिमला में ऐसे नाटक कर रहे थे मानो एकदूसरे को जानते तक नहीं हैं.’’

यह दोनों की चाल थी… शक का बीज बोया. नील तुम्हें और काम्या मु  झे पाना चाहती थी… शिमला में वह मु  झ पर नजर रख रही होगी. जैसे ही मैं ने वह शर्ट खरीदी उस ने भी वैसी एक और खरीद ली होगी. मैं अभी हिरेन के घर जा कर उस की ऐसी धुनाई करूंगा कि साला आगे से मेरी बीवी की तरफ आंख उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं करेगा.’’

‘‘रहने दो नील हमारे रिश्ते में दरार पड़ गई थी तभी दूसरों को सेंध लगाने का मौका मिला,’’ मैं उस के एकदम करीब जा कर बोली, ‘‘मैं आज ही हिरेन की नौकरी से इस्तीफा दे कर कहीं और काम ढूंढ़ लूंगी… अपने बीच किसी तीसरे को नहीं आने देंगे,’’ मु  झे लगा मेरे दिल का अंधेरा छंट गया है और अब हम रात को मिल कर दीए सजाएंगे असली पतिपत्नी की तरह.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें