‘‘जानती थी कि तुम अपने भाई की वकालत करोगे. उसी विजय के सगे हो न. वही तुम्हारा सबकुछ है. मैं तो कल भी आप सब के लिए मुफ्त की नौकरानी थी और आज भी. इस घर में मेरी बस इतनी ही जगह है कि आने वाले को सलाम करूं और जाने वाले से कुछ भी न पूछूं…इस में मैं किसी को कोई दोष नहीं देती क्योंकि मेरा यही हाल होना चाहिए था. ज्यादा शराफत भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती.’’
अवाक् रह गए थे हम दोनों. शोभा की सूरत तो रोने जैसी हो गई. नीरा भाभी का यह रूप उस ने कहां सोचा था. कभी मेरा मुंह देखती और कभी भाभी का.
‘‘भाभी, आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मेरी जान निकल जाएगी घबराहट से.’’
‘‘मैं ने भी सोचा था, मेरी जान निकल जाएगी लेकिन निकली कहां है… देखो न मैं जिंदा हूं. रिश्तों की मानमर्यादा का बहुत महत्त्व होता है. इतना तो तुम जानते हो न. सच कहा तुम ने, इनसान विश्वास की डोर के सहारे ही दूरदूर तक उड़ता है. मैं भी उसी डोर के सहारे 15 साल से उड़ रही थी. कितना कर्ज था विजय के सिर पर. सब तुम जानते हो न, तब कैसेकैसे मेहनत कर मैं पैसे बचाती रही. कुछ पैसे जमा हो जाते तो कर्ज की एक किस्त उतर जाती. मैं पाईपाई जोड़ती रही और तुम्हारा दोस्त पाईपाई बाहर लुटाता रहा.
‘‘बोनस मिलता रहा और आफिस के काम के बहाने दोस्तों के साथ बाहर घूमनेफिरने जाता रहा. वह हर साल जाता है. उसे कभी मेरा सूना गला या सूनी कलाइयां नजर नहीं आईं? मेरी कुरबानी को उस ने अपना अधिकार ही मान लिया, क्या यह घर सिर्फ मेरा है?
‘‘मैं किसी शक के बिना पर ऐसा नहीं कह रही हूं. अपने कानों से मैं ने विजय को अग्रवाल के साथ बातें करते सुना है. 3 महीने पहले उसे जो बोनस मिला उस का इस्तेमाल कैसे हुआ था. वही चटखारे लगालगा कर दोनों आपस में बातें कर रहे थे. विजय को लगा था कि मैं घर पर नहीं हूं. अपने भीतर के जानवर को उस ने कबकब, कहांकहां और कैसेकैसे खुश किया, कहो तो एकएक शब्द बोल कर सुनाऊं आप दोनों को? सुनोगे?’’
मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. यह तो सच है कि हर साल विजय कुछ दिन के लिए बाहर जाता है. वैसे भी जब से उस की पदोन्नति हुई है, उस का बाहर का काम ज्यादा रहता है. कोई कब कहां जा रहा है और वहां क्या करता है, कोई कैसे जान सकता है?
‘‘तुम्हारे दोस्त के पास पत्नी के लिए एक सूती धोती तक लाने के पैसे कभी नहीं हुए. खुद बाहर से मौजमस्ती कर के आता रहा और मैं आगेपीछे घूमती रही कि बेचारे आफिस के काम से थक कर आए हैं.
‘‘तुम्हीं बताओ मुझ से कहां चूक हुई? कभी कुछ मांगा नहीं, क्या इसी का असर यह हुआ कि मेरी सारी इच्छाएं ही मर गईं. उन की हर इच्छा जागती रही और मेरी इच्छाओं का क्या?’’
रो रही थीं भाभी. तनिक झुकीं फिर आंसू पोंछ हंस दीं.
‘‘अच्छा बेवकूफ बनाया मुझे मेरे पति ने…’’
‘‘आप के इस व्यवहार का बच्चों पर क्या असर होगा, भाभी?’’
‘‘बच्चे सिर्फ मेरे हैं क्या? अब तो जो हो गया सो हो गया. जब बच्चों के पिता ने घर की चौखट लांघी थी तब क्या उस ने सोचा था कि इस का उस
के बच्चों पर क्या असर होगा. जानती हूं, विजय ने ही तुम्हें मेरे पास समझाने के लिए भेजा है क्योंकि अब घर पर उन के पैर दबाने को मैं जो नहीं मिलती उन्हें.’’
क्या उत्तर देता मैं? भाभी कहां गलत हैं? क्या करतीं वे जब उन्होंने अपने पति की रासलीलाएं उसी के मुंह से सुनी होंगी. बुरी तरह ठगा हुआ महसूस किया होगा स्वयं को. रिश्ते को काट कर फेंक न देती तो क्या करतीं. मुझे भी तो ठगा है न विजय ने, इतनी पुरानी दोस्ती में अपने चरित्र का यह रूप तो मुझे कभी दिखाया ही नहीं. अपनी वकालत के लिए भाभी के पास भी भेज दिया. चुपचाप वापस लौट आए हम, लेकिन रात भर सो नहीं पाए. शोभा की नजर मुझ पर यों पड़ रही थी मानो मैं भी कहीं न कहीं भाभी का गुनहगार हूं.
दूसरी सुबह विजय मुझ से मिला. तरस भी आ रहा था मुझे उस पर और क्रोध भी.
‘‘भाभी ने सब से पहले कब तुम पर चीखनाचिल्लाना शुरू किया बता सकते हो, कोई बात हुई थी क्या?’’
‘‘नहीं तो, कोई भी बात नहीं हुई थी.’’
‘‘पिछली बार जब तुम शिमला गए थे तब वहां होटल में क्याक्या किया था, क्या याद है तुम्हें…दिल्ली और उदयपुर का तजरबा भी खासा रंगीन था, याद आया…’’
विजय के चेहरे का उड़ता रंग मुझे सारी सचाई बता गया और उसी पल मुझे लगा भाभी की तरह मैं ने भी विजय को खो दिया.
‘‘भाभी ने तुम्हारी वे सारी बातें सुन ली थीं जब तुम शिमला से वापस आने पर अपने सहयोगी अग्रवाल से बात कर रहे थे. तब तुम्हें यह पता नहीं था कि वे घर में ही हैं.’’
मानो विजय नंगा हो गया. क्या कहे अपनी सफाई में? प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत थी.
‘‘अपनी गृहस्थी में तुम ने खुद आग लगाई है. चरित्र तुम्हारा घिनौना है और आरोप भाभी पर लगा रहे हो. क्या तुम्हारी आंखों में जरा सी भी शर्म है? सारी कालोनी में तुम बदनाम हो गए, इस में दोष किस का है?…
‘‘…और कैसे प्रतिक्रिया करे वह औरत जिस के अटूट विश्वास को ही तुम ने चौराहे का मजाक बना दिया. ईमानदार पति तो पत्नी का अभिमान होता है न. तुम ने जो किया उस के बाद वे तुम्हारी परछाईं से दूर न भागें तो क्या करेें. बेचारी अपना लहूलुहान विश्वास ले कर अलग कमरे में क्यों न चली जाएं.’’
‘क्योंभरोसा करें भाभी उस इनसान पर जो खुद को पाकसाफ बताता रहा और भाभी को ही चरित्रहीन कहता रहा. वजह यह बताई कि शायद वही अपनी जरूरतों के लिए कहीं और से जुड़ गई है जिस कारण अब विजय की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती उन्हें.
‘‘तुम्हें आज भी बच्चों के भविष्य की चिंता नहीं है. तकलीफ है तो इस बात की कि अब भाभी ने तुम्हारी जरूरतें पूरी करनी छोड़ दी हैं. मुफ्त की औरत नसीब नहीं होती तुम्हें.’’
‘‘नीरा सबकुछ जान कर भी चुप रह सकती थी. अकेला मैं ही तो ऐसा नहीं हूं जो बाहर से मौजमस्ती कर के लौटता हूं,’’ विजय का उत्तर था.
वास्तव में मुझे उस पर शर्म आई उस पल. क्या यह वही विजय है? सच कहा है बुजुर्गों ने. कोई भी अनैतिकता अपनाने जाओ तो बस एक बार की ही जरा सी झिझक होती है. किसी पर गोली चलाने वाले के हाथ भी बस पहली बार ही कांपते हैं. समझ नहीं पा रहा हूं विजय के संस्कार क्यों और कब भटक गए. वह इतना कमजोर तो कभी नहीं था.
‘‘इतने महंगे शौक क्या उस इनसान को शोभा देते हैं जिस के सिर पर आज तक बहन की शादी का कर्ज है.
‘‘ईमानदार के सामने चरित्रहीनता परोस दोगे तो बेचारा कैसे निगल पाएगा? नहीं पचा सकीं सो उलट दिया उस गरीब ने. सहने की भी एक सीमा होती है, विजय. और मुझे अफसोस हो रहा है कि अपनी करनी पर तुम्हें जरा सी भी आत्म- ग्लानि नहीं है.’’
चुप रहा विजय. अपनी भूल पर शर्म तो नहीं आई उसे लेकिन इस बात की चिंता अवश्य हो रही थी कि लोग क्या कहेंगे. समाज क्या कहेगा, क्योंकि समाज से कट कर रहने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए.
‘‘जवान होते बेटों के पिता हो तुम. यह मत सोचना भाभी अकेली हैं. जरूरत पड़ी तो मैं भी तुम्हारा साथ नहीं दूंगा. जो कर चुके हो सो कर चुके हो, आगे की सोचो, तुम्हारी भूल तुम्हारी है, प्रायश्चित्त भी तुम्हीं को करना है. किसी तरह अपना घर बचाने का प्रयत्न करो, विजय.’’
विजय को समझाबुझा कर किसी तरह मैं चला तो आया लेकिन मेरे प्रयास का क्या प्रभाव होगा, नहीं जानता. आसार भी इस तरह के नहीं लग रहे थे कि जल्दी कोई अच्छी खबर सुनने को मिलेगी.
‘‘भाभी ने कल बच्चों का और अपना एचआईवी टैस्ट कराया है. अभी रिपोर्ट नहीं आई. पता नहीं क्या होगा. दम घुट रहा है मेरा.’’
शाम को रोंआसी सी शोभा ने खबर सुनाई. सकते में आ गया मैं भी. एक इनसान का गलत कदम पूरे परिवार को कैसे मुसीबत में डाल देता है, मैं बड़ी गहराई से महसूस कर रहा था.
कल से शोभा के चेहरे की भावभंगिमा भी विचित्र सी ही है. प्रश्न सा लिए मुझे निहारती हैं उस की बड़ीबड़ी आंखें. भाभी का परिवार सदा से मेरा भी परिवार रहा है. कहीं उसी का दुष्प्रभाव तो नहीं, जो शोभा की आंखों में भी संदेह के बादल मैं साफसाफ पढ़ रहा हूं.
‘‘क्या मैं भी शीना और अपना टैस्ट करवा लूं? क्या मुझे भी इस की जरूरत है?’’
हजारों प्रश्न अपने एक ही प्रश्न में समेटे शोभा ने अपने होंठ खोले. कल रात से ही शोभा भी परेशान सी है. चौंक कर मैं ने उस की ओर देखा.
‘‘क्या मतलब?’’ बड़ी मेहनत करनी पड़ी मुझे यह सवाल पूछने में 10 साल पुराना संबंध क्या किसी ऐेसे प्रश्न का मोहताज हो गया? विजय का परम मित्र हूं न जिस का हरजाना मुझे भी भरना पड़ेगा, विजय के घर में उठने वाला तूफान मेरे भी घर की दीवारें फाड़ कर भीतर चला आया था.
शोभा का चेहरा सफेद पड़ गया मेरा चेहरा देख कर. क्या समझ रही है वह मेरे चुप रहने का मतलब. लपक कर समीप चला आया मैं. यह क्या हो रहा है शोभा को?
‘‘अगर आप भी वैसे ही हैं तो पास मत आइए…’’
‘‘शोभा, यह क्या कह रही हो तुम?’’
‘‘अगर मेरी आंखों पर कोई परदा है तो बता दीजिए…विजय भैया की तरह आधे रास्ते में…’’
‘‘पागल हो गई हो क्या?’’
रो पड़ा था मैं भी. कस कर छाती से भींच लिया शोभा को. माथे पर प्रगाढ़ चुंबन देते हुए समझाने का प्रयास किया.
‘‘शीना की कसम. कहीं कोई परदा नहीं है. जो तुम्हारी आंखों के सामने है वही तुम्हारी पीठ के पीछे भी है.’’
फूटफूट कर रोने लगी शोभा. पास खड़ी शीना भी सहम गई मां की इस हालत पर. इशारे से बच्ची को पास बुलाया. अपने छोटे से परिवार को बांहों में बांध मैं सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी थी विजय को? क्षणिक सुख की चाह में क्यों उस ने पूरे परिवार की खुशी और जान सूली पर चढ़ा दी.’
शीना मेरे गाल चूम रही थी और उस मासूम के चुंबन में भी मैं इस का उत्तर खोज रहा था कि क्या कमी है मुझे जो मैं भटक जाऊं? क्या कमी थी विजय के पास जो वह भटक गया? आखिर क्या कमी थी?