जब कभी जीतेंद्र कालिज जाते तो रत्ना भी साथ जाती थी. रत्ना के कालिज में उन के सहयोगियों से सहानुभूति और सहयोग की प्रार्थना की थी कि वे लोग जीतेंद्र की मानसिक स्थिति को देखते हुए उन के साथ बहस या तर्क न करें. जीतेंद्र को संतुलित रखने के लिए रत्ना साए की तरह उन के साथ रहती.
जीतेंद्र को बच्चों के भरोसे छोड़ कर रत्ना बाहर कहीं नौकरी करने भी नहीं जा सकती थी. इसलिए घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था. जिस दिन जीतेंद्र कुछ विचलित दिखते थे रत्ना को ट्यूशन वाले बच्चों को वापस भेजना पड़ता था, क्योंकि एक तो वह उन बच्चों को जीतेंद्र का कोपभाजन नहीं बनाना चाहती थी और दूसरे, वह नहीं चाहती थी कि आसपड़ोस के बच्चे जीतेंद्र की असंतुलित मनोदशा को नमकमिर्च लगा कर अपने परिजनों में प्रचारित करें. इस कारण सामान्य दिनों में उसे अधिक समय ट्यूशन में देना पड़ता था.
गृहस्थी की दो पहियों की गाड़ी में एक पहिए के असंतुलन से दूसरे पहिए पर सारा दारोमदार आ टिका था. सभी साजोसामान से भरा घर घोर आर्थिक संकट में धीरेधीरे खाली हो रहा था. यश और गौरव को शहर के प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल से निकाल कर पास के ही एक स्कूल में दाखिला दिला दिया था ताकि आनेजाने के खर्च और आर्थिक बोझ को कुछ कम किया जा सके. मासूम बच्चे भी इस संघर्ष के दौर में मां के साथ थे. वे कक्षा में अव्वल आ कर मां की आंखों में आशा के दीप जलाए हुए थे.
रत्ना जाने किस मिट्टी की बनी थी जो पल भर भी बिना आराम किए घर, बच्चों, ट्यूशन और पति सेवा में कहीं भी कोई कसर न रखना चाहती थी.
मेरे बेटे मयंक और आकाश अपनी लाड़ली बहन रत्ना की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते पर स्वाभिमानी रत्ना ने आर्थिक सहायता लेने से विनम्र इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अपने परिवार के खर्चों के बाद एक गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए आप को अपने परिवार की इच्छाओं का गला घोंटना पडे़गा. भाई, आप का यह अपनापन और सहारा ही काफी है कि आप मुश्किल वक्त में मेरे साथ खडे़ हैं.
इन हालात की जिम्मेदार जीतेंद्र की मां खुद को निरपराधी साबित करने के लिए चोट खाई नागिन की तरह रत्ना के खिलाफ नईनई साजिशें रचती रहतीं. छोटे बेटे हर्ष और पति की असहमति के बावजूद जीतेंद्र को दूरदराज के ओझास्यानों के पास ले जा कर तंत्र साधना और झाड़फूंक करातीं जिस से जीतेंद्र की तबीयत और बिगड़ जाती थी. जीतेंद्र के विचलित होने पर उसे रत्ना के खिलाफ भड़का कर उस के क्रोध का रुख रत्ना की ओर मोड़ देती थीं. केवल रत्ना ही उन्हें प्यारदुलार से दवा खिला पाती थी. लेकिन तब नफरत की आंधी बने जीतेंद्र को दवा देना भी मुश्किल हो जाता था.
जीतेंद्र को स्वयं पर भरोसा मजबूत कर अपने भरोसे में लेना, उन्हें उत्साहित करते हुए जिंदादिली कायम करना उन की काउंसलिंग का मूलमंत्र था.
सहनशक्ति की प्रतिमा बनी मेरी रत्ना सारे कलंक, प्रताड़ना को सहती चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रही. यश और गौरव को हमारे साथ रखने का प्रस्ताव वह बहुत शालीनता से ठुकरा चुकी थी. ‘मम्मी, इन्हें हालात से लड़ना सीखने दो, बचना नहीं.’ वाकई बच्चे मां की मेहनत को सफल करने में जी जान से जुटे थे. गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर पूणे में नौकरी कर रहा है. यश इंदौर में ही एम.बी.ए. कर रहा है.
हर्ष के डाक्टर बनते ही घर के हालात कुछ पटरी पर आ गए थे. रत्ना की सेवा, काउंसलिंग और व्यायाम से जीतेंद्र लगभग सामान्य रहने लगे थे. हां, दवा का सेवन लगातार चलते रहना है. अपने बेटों की प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार मिल रही सफलता से वे गौरवान्वित थे.
रत्ना की सास अपने इरादों में कामयाब न हो पाने से निराश हो कर चुप बैठ गई थीं. भाभी को अकारण बदनाम करने की कोशिशों के कारण हर्ष की नजरों में भी अपनी मां के प्रति सम्मान कम हुआ था. हमेशा झूठे दंभ को ओढे़ रहने वाली हर्ष की मां अब हारी हुई औरत सी जान पड़ती थीं.
ट्रेन खुली हवा में दौड़ने के बाद धीमेधीमे शहर में प्रवेश कर रही थी. मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. इत्मिनान से रत्ना की जिंदगी की किताब के सुख भरे पन्नों तक पहुंचतेपहुंचते मेरी ट्रेन भी इंदौर पहुंच गई.
स्टेशन पर रत्ना और जीतेंद्र हमें लेने आए थे. कितना सुखद एहसास था यह जब हम जीतेंद्र और रत्ना को स्वस्थ और प्रसन्न देख रहे थे. शादी में सभी रस्मों में भागदौड़ में जीतेंद्र पूरी सक्रियता से शामिल थे. उन्हें देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह व्यक्ति ‘सीजोफेनिया’ जैसे जजबाती रोग की जकड़न में है.
गौरव की शादी धूमधाम से हुई. शादी के बाद गौरव और नववधू बड़ों का आशीर्वाद ले कर हनीमून के लिए रवाना हो गए. शाम को मैं, धीरज, रत्ना और जीतेंद्र में चाय पीते हुए हलकीफुलकी गपशप में मशगूल थे. तब जीतेंद्र ने झिझकते हुए मुझ से कहा, ‘‘मम्मीजी, आप ने रत्ना के रूप में एक अमूल्य रत्न मुझे सौंपा है जिस की दमक से मेरा घर आलोकित है. मुझे सही मानों में सच्चा जीवनसाथी मिला है, जिस ने हर मुश्किल में मेरा साथ दिया है.’’
बेटी की गृहस्थी चलाने की सूझबूझ और सहनशक्ति की तारीफ सुन कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. ‘‘रत्ना, मेरा दुर्व्यवहार, इतनी आर्थिक तंगी, सास के दंश, मेरा इलाज… कैसे सह पाईं तुम इतना कुछ?’’ अनायास ही रत्ना से मुसकरा कर पूछ बैठे थे जीतेंद्र. रत्ना शरमा कर सिर्फ इतना ही कह सकी, ‘‘बस, तुम्हें पाने की जिद में.’’-