कुढ़न : जिस्म का भूखा है हर मर्द

हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं.

तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई.

जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं.

कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है.

कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं.

अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी.

तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली.

‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा.

पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई.

मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी.

मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे.

कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई.

लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’

लक्ष्मी की इस बात पर कमला चुप थीं.

लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें…

‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए.

‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी.

कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’

कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’

अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

पहल -भाग 3 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

सोमल ने कहा, ‘‘तारु, क्या हमारा भी बच्चा हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं… मगर बच्चा तो मां के गर्भ में ही पलता है न… फिर कैसे होगा?’’ तारेश ने कहा.

‘‘विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, कोई तो रास्ता होगा… क्या हम सैरोगेसी तकनीक का सहारा नहीं ले सकते?’’

‘‘हो सकता है यह संभव हो, मगर इस में कई कानूनी अड़चनें भी आ सकती हैं. क्या कानून हम जैसे लोगों को सैरोगेसी की इजाजत देता है और सब से बड़ी बात यह कि हम सैरोगेट मां कहां से लाएंगे? हमारे तो सब रिश्तेदार भी हम से किनारा कर चुके हैं. खैर अभी तुम ये सब बातें छोड़ो… किसी दिन किसी विशेषज्ञ से मिलते हैं,’’ कह कर तारेश ने एक बार तो चर्चा को विराम दे दिया, मगर बात उस के दिमाग से निकली नहीं. उस ने ठान लिया कि अगर संभव हुआ तो वह सोमल की इस इच्छा को जरूर पूरा करेगा.

एक दिन तारेश किसी काम से एक नामी हौस्पिटल गया. वहां आईवीएफ सैंटर देख कर उस के पांव ठिठक गए. उसे सोमल का सपना याद आ गया. उस ने वहां की हैड डा. सरोज से अपौइंटमैंट लिया और सोमल के साथ उन से मिलने पहुंच गया.

डा. सरोज ने उन की पूरी बात ध्यान से सुनी और बताया कि सोमल का सपना आईवीएफ और सैरोगेसी तकनीक के माध्यम से पूरा हो सकता है.

दोनों के चेहरे पर आई उम्मीद की रोशनी को परखते हुए वे आगे बोलीं, ‘‘देखिए, सरकार ने हाल ही में सैरोगेसी बिल पास किया है जिस के अनुसार सिंगल पेरैंट और समलैंगिक जोड़ों को इस की इजाजत नहीं होगी. हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है, लेकिन निकट भविष्य में यह परेशानी आ सकती है. वैसे आप ने सुना होगा कि पिछले दिनों ही फिल्म अभिनेता तुषार कपूर इसी तकनीक के माध्यम से पहले सिंगल पिता बने हैं. हमारे पास और भी कई सिंगल महिलाओं और पुरुषों ने मातापिता बनने के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखा है. आप भी करवा सकते हैं.’’

‘‘किराए की कोख का इंतजाम कैसे होगा?’’

‘‘इस के लिए आप को अपनी किसी नजदीकी रिश्तेदार की मदद लेनी होगी.’’

‘‘मगर हमारे रिश्तेदारों ने हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.’’

‘‘अब इतनी मेहनत तो आप लोगों को करनी ही होगी,’’ कह कर डा. ने अगले विजिटर को बुलवा लिया.

सोमल को लीना भाभी याद आ गईं. उस ने उन्हें फोन लगाया, ‘‘हाय भाभी, कैसी हैं आप?’’

‘‘सोमल बाबू को आज हमारी याद कैसे आ गई?’’ लीना ने अपनेपन से पूछा तो सोमल मुद्दे पर आ गया और कहा, ‘‘मुझे इस काम के लिए तुम्हारी मदद की जरूरत है.’’

‘‘माफ करना सोमल, मगर इस मसले पर मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती. तुम्हारे भैया इस के लिए कभी राजी नहीं होंगे और मेरे लिए अपना परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

लीना के टके से जवाब से सोमल की एकमात्र उम्मीद भी खत्म हो गई.

अब जो आखिरी उम्मीद उन्हें नजर आ रही थी वह था इंटरनैट. कहते हैं यहां खोजो तो सब मिल जाता है. दोनों साथी जोरशोर से इंटरनैट खंगालने लगे. इसी कवायद में उन्हें एक समाचारपत्र रिपोर्टर की कवर स्टोरी पढ़ने को मिली, जिस में उस ने लिखा था कि गुजरात में स्थित आणंद एक ऐसी जगह है जहां सैरोगेट मदर आसानी से उपलब्ध हैं और यही नहीं यहां अब तक सैरोगेसी से लगभग 1,100 बच्चों का जन्म हो चुका है. पढ़ते ही दोनों खिल उठे. फिर क्या था पहुंच गए दोनों आणंद, जहां उन के सपने पर सचाई की मुहर लगने वाली थी. यहां एक टैस्ट ट्यूब बेबी क्लिनिक के बाहर उन का संपर्क एक दलाल से हुआ जोकि सैरोगेसी के लिए किराए की कोख का इंतजाम करता था. उन की स्थिति और बच्चा पाने की प्रबल इच्छा को देखते हुए दलाल ने उन की मजबूरी का पूरापूरा फायदा उठाया और कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए मुंहमांगी कीमत में उन के लिए एक औरत को कोख किराए पर देने के लिए तैयार कर लिया. 2 ही दिन में सभी आवश्यक औपचारिकताएं भी पूरी करवा दीं.

1 महीने बाद उन्हें वापस आना था ताकि आगे की कार्यवाही को अंजाम दिया जा सके. दोनों खुशीखुशी वापस मुंबई आ गए.

तभी अचानक एक दिन यह हादसा हुआ और तारेश की दुनिया में अंधेरा छा गया. दोनों साथी पिता बनने की खुशी सैलिब्रेट करने और मौसम की पहली बारिश में भीगने का मजा लेने खंडाला जा रहे थे. तभी हाईवे पर तेज गति से आ रहे एक ट्रक ने अनियंत्रित हो कर उन की कार को टक्कर मार दी. दोनों को जख्मी हालत में हौस्पिटल ले जाया जा रहा था, मगर रास्ते में सोमल जिंदगी की जंग हार गया. सोमल की मौत पर भी उस के घर से कोई नहीं आया.

1 महीना बीतने पर दलाल का फोन आया तो तारेश ने उसे अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताया और सोमल के संरक्षित शुक्राणुओं की मदद से पिता बनने की इच्छा जाहिर की. दलाल ने इस बाबत कुछ और रकम का इंतजाम करने के लिए कहा. तारेश ने अपनी सारी जमापूंजी इस प्रोजैक्ट पर खर्च कर दी.

सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद महिला के अंडाणु और सोमल के स्पर्म बैंक में सुरक्षित रखे शुक्राणुओं को प्रयोगशाला में निषेचित करवा कर भ्रूण को सैरोगेट मदर के गर्भ में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया और निश्चित समय पर उस बच्ची का जन्म हुआ जिस का जैनेटिक पिता सोमल था.

तारेश जानता था कि इस बच्ची को अकेले पालना आसान काम नहीं है. मगर सोमल का सपना पूरा करना ही अब उस का एकमात्र सपना था और इस के लिए वह किसी नहीं भी हालात का सामना करने के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार था.

कौंट्रैक्ट के अनुसार 1 महीने तक बच्ची को सैरोगेट मां ने अपना दूध  पिलाया और फिर बच्ची को तारेश के अनाड़ी हाथों में सौंप कर चली गई.

1 महीने की कोमल काया को ले कर तारेश सोमल के घर गया. जब उस ने सोमल के मम्मीपापा को बताया कि यह बच्ची सोमल की है तो राखी उसे गोद में लेने आगे बढ़ी. मगर मम्मीपापा के विरोध के कारण उस के बढ़ते कदम रुक गए.

तारेश ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं आप लोग मुझ से नफरत करते हैं, मगर इस बच्ची में तो आप का अपना अंश है… हालांकि मैं अकेला ही इसे बेहतर परवरिश दे सकता हूं, मगर आज अगर सोमल जिंदा होता तो वह भी यही चाहता कि उस की बच्ची को उस के दादादादी का आशीर्वाद और बूआ का स्नेह मिले…’’ कह कर तारेश कुछ देर खड़ा रहा. मगर सामने से कोई पौजिटिव जवाब न पा कर वह बच्ची को गोद में लिए बाहर की ओर पलट गया.

अभी दरवाजे से बाहर नहीं निकला था कि सोमल की मां की आवाज आई, ‘‘रुको.’’

तारेश ने मुड़ कर देखा तो बच्ची के दादादादी अपनी आंखें पोंछते हुए उस की तरफ बढ़ रहे थे.

दादा ने कहा, ‘‘बेटा तो चला गया, लेकिन उस की निशानी को हम अपने से दूर नहीं जाने देंगे. इस बच्ची को हम पालेंगे और हां, मूल न सही सूद ही सही… हम तुम्हारा एहसान नहीं भूलेंगे…’’

‘‘मगर यह बच्ची हम दोनों का सपना है,’’ तारेश को लगा मानो वह बच्ची को हमेशा के लिए खो देगा.

‘‘हांहां, तुम्हीं इस के पिता रहोगे. मगर अभी इसे एक मां की ज्यादा जरूरत है… अगर तुम्हें एतराज न हो तो यह जिम्मेदारी राखी निभा सकती है.’’

‘‘मगर आप लोग तो सचाई जानते हैं… मैं राखी को कभी पति का सुख नहीं दे पाऊंगा.’’

‘‘मैं पत्नी का नहीं मां बनने का सुख चाहती हूं,’’ इस बार राखी ने कहा और बच्ची को अपनी गोद में ले लिया. तारेश को लगा जैसे बच्ची की मासूम मुसकराहट में सोमल खिलखिला रहा है.

तांती : क्या अपनी हवस पूरी कर पाया बाबा

पहल -भाग 2 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

दोनों एकदूसरे से लिपट कर देर तक रोते रहे. वे जुदा नहीं होना चाहते… आज रात तारेश और सोमल को पता चल गया कि वे दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. इस एक रात ने उन्हें समझा दिया कि क्यों उन्हें एकदूसरे का साथ इतना अच्छा लगता. आज रात दोनों ने अपने प्यार का इजहार कर अपने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया, जो दुनिया की निगाहों में धर्मविरोधी था, अप्राकृतिक था… हां, वे गे थे और उन्हें इस बात पर कोई शर्म नहीं थी.

दोनों ने अपनाअपना प्लेसमैंट कैंसिल कर तय किया कि वे दिल्ली में ही रह कर काम तलाश करेंगे. कुछ दिनों के प्रयास के बाद तारेश को एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. फिर कुछ दिन बाद सोमल को भी. दोनों की जिंदगी फिर से पटरी पर आ गई. सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहा.

तारेश की मां अब उस पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी थीं और सोमल के घर वाले भी यही चाहते थे कि उस का घर बस जाए. दोनों घरों में जोरशोर से लड़कियां देखी जा रही थीं. मगर वे दोनों लव बर्ड्स इन सब बातों से बेखबर अपने में ही खोए थे. उन की एक अलग ही दुनिया थी. उन्हें बिलकुल अंदेशा नहीं था कि कोई तूफान आने वाला है.

जब बारबार बिना किसी ठोस कारण के लड़कियां रिजैक्ट होने लगीं तो तारेश की मां का माथा ठनका कि कहीं किसी लड़की का चक्कर तो नहीं…

यही हाल सोमल के घर पर भी था. हकीकत जानने के लिए एक दिन बिना बताए तारेश की मां दिल्ली उन के फ्लैट पहुंच गईं. दोनों के हावभाव से उन्हें दाल में कुछ काला लगा. उन्होंने फोन कर के तारेश के पापा और सोमल के घर वालों को भी बुला लिया.

दोनों लड़कों ने साफसाफ कह दिया कि वे एकदूसरे के साथ जिंदगी बिताना चाहते हैं और किसी को भी उन के लिए लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है. पहले तो दोनों के घर वालों ने उन्हें समाज में अपनी इज्जत का हवाला दे कर बहुत समझाया. सोमल की मां ने बहन की शादी में आने वाली परेशानी का वास्ता दिया. वंश बेल के खत्म होने का डर भी दिखाया, मगर जब दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए तो तारेश की मां ने सोमल को और सोमल के घर वालों ने तारेश को जी भर कर कोसा. खूब हंगामा हुआ. मामला फ्लैट से बिल्डिंग में फैला और फिर पूरी सोसाइटी में वायरल हो गया. मकानमालिक ने फ्लैट खाली करने का नोटिस दे दिया.

बात धीरेधीरे दोनों के औफिस में भी पहुंच गई. हर व्यक्ति उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे वे किसी दूसरे ही ग्रह के प्राणी हों. कल तक जो साथी उन के साथ काम करते, खातेपीते, उठतेबैठते, पार्टियां करते थे आज अचानक उन से कन्नी काटने लगे, अछूतों सा व्यवहार करने लगे. दोनों को ही घुटन होने लगी.

सोमल के तो बौस ने उसे एकांत में बुला कर समझा भी दिया, ‘‘देखो सोमल, तुम्हारे कारण औफिस का माहौल खराब हो रहा है. कर्मचारी अपने काम पर कम, तुम्हारी स्टोरी पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. बेहतर होगा तुम इस्तीफा दे दो. अगर रिमार्क के साथ निकाले जाओगे तो तुम्हारे भविष्य के लिए घातक होगा.’’

तूफानों में बहने वालों के लिए वक्त कभी आसान नहीं होता. हार कर दोनों ने शहर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुंबई शिफ्ट हो गए. इस बीच सोमल की बहन राखी की भी शादी हो गई. मगर उसे खबर तक नहीं की गई.

घर वालों ने तो पहले ही किनारा कर लिया था. सभी पुराने दोस्त भी छूट चुके थे. बस सोमल की एक चचेरी भाभी लीना ही थी, जिस ने इतना कुछ होने के बाद भी उस से संपर्क बनाए रखा था. अब इस नए शहर में दोनों को कोई नहीं जानता था. फिर से एक नई जिंदगी की शुरुआत हुई.

एक दिन अचानक लीना भाभी ने फोन पर बताया कि सोमल राखी के पति की ऐक्सीडैंट में डैथ हो गई. सोमल तड़प उठा. बहुत प्यार करता था अपनी बहन से.

‘उसे इस मुश्किल घड़ी में अपनी बहन के पास होना चाहिए,’ सोच कर तत्काल में ट्रेन के टिकट ले सोमल पहुंच गया अपनी बहन के पास.

उसे देखते ही राखी दौड़ कर लिपट गई भाई से. तभी उस की सास आई और उसे खींचते हुए भीतर ले गई. साथ ही सोमल को भी एहसास करवा गई कि उस का आना उन्हें जरा भी नहीं भाया. बस यही आखिरी मुलाकात थी सोमल की अपने अपनों से. इस के बाद उस की और तारेश की दुनिया एकदूसरे तक ही सिमट कर रह गई.

एक दिन दोनों फुरसत के पलों में टीवी पर ‘हे बेबी’ फिल्म देख रहे थे, जिस में 3 पुरुष साथी मिल कर एक बच्ची की परवरिश करते हैं.

 

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 2 : रत्ना की क्या जिद थी

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

 

एक डाली के तीन फूल- भाग 1: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 1 : रत्ना की क्या जिद थी

ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

-*

जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था. ‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

पहल -भाग 1 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

‘‘तारेश. यह क्या नाम रखा है मां तुम ने मेरा? एक तो नाम ऐसा और ऊपर से सर नेम का पुछल्ला तिवाड़ी… पता है स्कूल में सब मुझे कैसे चिढ़ाते हैं?’’ तारेश ने स्कूल बैग को सोफे पर पटकते हुए शिकायत की.

‘‘क्या कहते हैं?’’

‘‘तारू तिवाड़ी…खोल दे किवाड़ी…’’ तारेश गुस्से में बोला.

मां मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘तुम्हारा यह नाम तुम्हारी दादी ने रखा था, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे उस वक्त भोर होने वाली थी और आसमान में सिर्फ भोर का तारा ही दिखाई दे रहा था.’’

‘‘मगर नाम तो मेरा है न और स्कूल भी मुझे ही जाना पड़ता है दादी को नहीं. मुझे यह नाम बिलकुल पसंद नहीं… आप मेरा नाम बदल दो बस,’’ तारेश जैसे जिद पर अड़ा था.

‘‘तारेश यानी तारों का राजा यानी चांद… तुम तारेश हो तभी तो चांद सी दुलहन आएगी…’’ मां ने प्यार से समझाते हुए कहा.

‘‘नहीं चाहिए मुझे चांद सी दुलहन… मुझे तो तेज धूप और रोशनी वाला सूरज पसंद है,’’ तारेश गुस्से में चीखा. मगर तब तारेश खुद भी कहां जानता था कि उसे सूरज क्यों पसंद है.

‘‘बधाई हो, बेटी हुई है,’’ नर्स ने आ कर कहा तो तारेश जैसे सपने से जागा.

‘‘क्या मैं उसे देख सकता हूं, उसे छू सकता हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ तारेश का उतावलापन देख कर नर्स मुसकरा दी.

‘‘नर्ममुलायम… एकदम रुई के फाहे सी… इतनी छोटी कि उस की एक हथेली में ही समा गई. बंद आंखों से भी मानो उसे ही देख रही हो,’’ तारेश ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘तुम्हारी यह निशानी बिलकुल तुम पर गई है सोमल…’’ तारेश बुदबुदाया. फिर उस ने हौले से नवजात को चूमा और उस की सैरोगेट मां की बगल में लिटा दिया.

स्कूल के दिनों से ही तारेश सब से अलग था. हालांकि वह पढ़ने में बहुत तेज था, मगर उसे लड़कियों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. हां, उस के स्पोर्ट्स टीचर अशोक सर उसे बहुत अच्छे लगते थे. खासकर उन का बलिष्ठ शरीर…जब वे ग्राउंड में प्रैक्टिस करवाते थे तो तारेश किनारे बैठ कर उन के चौड़े सीने और लंबी मजबूत भुजाओं को निहारा करता था. वैसे तो उस की स्पोर्ट्स में कोई खास रुचि नहीं थी, फिर भी सिर्फ अशोक सर का सानिध्य पाने के लिए वह गेम्स पीरियड में जिमनास्टिक सीखने जाने लगा. जब अशोक सर प्रैक्टिस करवाते समय उस के शरीर को यहांवहां छूते थे तो तारेश के पूरे बदन में जैसे बिजली सी दौड़ जाती थी. उस की सांसें अनियंत्रित हो जाती थीं. वह आंखें बंद कर अपने शरीर को ढीला छोड़ देता था और अशोक सर की बांहों में झूल जाता था. सब हंसने लगते तब उसे होश आता और वह शरमा कर प्रैक्टिसहौल से बाहर निकल जाता.

कालेज में भी जहां सब लड़के अपनी मनपसंद लड़की को पटाने के चक्कर में रहते, वह बस अपनेआप में ही खोया रहता. लेकिन सोमल में कुछ ऐसा था कि बस उसे देखा तो उस में डूबता ही चला गया. सोमल को भी शायद तारेश का साथ पसंद आया और जल्दी दोनों बहुत अच्छे साथी बन गए. दोनों क्लास में पीछे की सीट पर बैठ कर पूरा पीरियड न जाने क्या खुसरफुसर करते रहते. तारेश तो उस का दीवाना ही हो गया. कालेज में एक दिन की छुट्टी भी उसे नागवार लगती. वह तो शाम से ही अगली सुबह होने का इंतजार करने लगता.

कालेज खत्म कर के दोनों ने ही बिजनैस मैनेजमैंट में मास्टर डिग्री करना तय किया. दोनों साथ ही रहेंगे, सोच कर दोनों के ही घर वालों ने खुशीखुशी जाने की इजाजत दे दी. तारेश को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई. दिल्ली के एक बड़े कालेज में दोनों को ऐडमिशन मिल गया और 1 कमरे का फ्लैट दोनों ने मिल कर किराए पर ले लिया.

सब कुछ सामान्य चल रहा था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ घूमतेफिरते और मजे करते. कभी खाना बाहर खाते, कभी बाहर से मंगवाते, तो कभीकभी दोनों मिल कर रसोई में हाथ आजमाते… दोनों की जोड़ी कालेज में ‘रामलखन’ के नाम से मशहूर थी.

देखते ही देखते लास्ट सैमैस्टर आ गया और कालेज में कैंपस इंटरव्यू शुरू हो गए. लगभग सभी स्टूडैंट्स का अच्छीअच्छी कंपनियों में प्लेसमैंट हो गया. तारेश को बैंगलुरु की कंपनी ने चुना तो सोमल को हैदराबाद की कंपनी ने. पैकेज से तो दोनों ही बेहद खुश थे, मगर एकदूसरे से जुदा होना अब दोनों को ही गवारा नहीं था. घर आ कर दोनों देर तक गुमसुम बैठे रहे. क्या करें क्या न करें की स्थिति थी. मगर एक को तो छोड़ना ही पड़ेगा… चाहे नौकरी चाहे साथी.

 

सपना -भाग 3 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

‘जी, क्या?’ आकाश अनजान बनते हुए पूछने लगा.

‘वही जो अभीअभी आप ने मेरे साथ किया.’

‘देखिए नेहाजी, प्लीज…’ आकाश वाक्य अधूरा छोड़ थूक सटकने लगा.

‘ओह हो, नेहाजी? अभीअभी तो मैं तुम थी?’ नेहा अब पूरी तरह आकाश पर रोब झाड़ने लगी.

‘नहीं… नहीं, नेहाजी… मैं…’ आकाश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या कहे. उधर नेहा उस की घबराहट पर मन ही मन मुसकरा रही थी. तभी आकाश ने पलटा खाया, ‘प्लीज, नेहा,’ अचानक आकाश ने उस का हाथ थामा और तड़प के साथ इसरार भरे लहजे में कहने लगा, ‘मत सताओ न मुझे,’ आकाश नेहा का हाथ अपने होंठों के पास ले जा रहा था.

‘क्या?’ उस ने चौंकते हुए अपना हाथ पीछे झटका. अब घबराने की बारी नेहा की थी. उस ने सकुचाते हुए आकाश की आंखों में झांका. आकाश की आंखों में अब शरारत ही शरारत महसूस हो रही थी. ऐसी शरारत जो दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक प्रेम में नजर आती है. दोनों अब खिलखिला कर हंस पड़े.

बाहर ठंड बढ़ती जा रही थी. बस का कंडक्टर शीशे के साथ की सीट पर पसरा पड़ा था. ड्राइवर बेहद धीमी आवाज में पंजाबी गाने बजा रहा था. पंजाबी गीतों की मस्ती उस पर स्पष्ट झलक रही थी. थोड़ीथोड़ी देर बाद वह अपनी सीट पर नाचने लगता. पहले तो उसे देख कर लगा शायद बस ने झटका खाया, लेकिन एकदम सीधी सड़क पर भी वह सीट पर बारबार उछलता और एक हाथ ऊपर उठा कर भांगड़ा करता, इस से समझ आया कि वह नाच रहा है. पहले तो नेहा ने समझा कि उस के हाथ स्टेयरिंग पकड़ेपकड़े थक गए हैं, तभी वह कभी दायां तो कभी बायां हाथ ऊपर उठा लेता.

उस के और ड्राइवर के बीच कैबिन का शीशा होने के कारण उस तरफ की आवाज नेहा तक नहीं आ रही थी, लेकिन बिना म्यूजिक के ड्राइवर का डांस बहुत मजेदार लग रहा था. आकाश भी ड्राइवर का डांस देख कर नेहा की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. शायद 2 प्रेमियों के मिलन की खुशी से उत्सर्जित तरंगें ड्राइवर को भी खुशी से सराबोर कर रही थीं. मन कर रहा था कि वह भी ड्राइवर के कैबिन में जा कर उस के साथ डांस करे. नेहा के सामीप्य और संवाद से बड़ी खुशी क्या हो सकती थी? आकाश को लग रहा था कि शायद ड्राइवर उस के मन की खुशी का ही इजहार कर रहा है.

‘बाहर चलोगी?’ बस एक जगह 20 मिनट के लिए रुकी थी.

‘बाहर… किसलिए… ठंड है बाहर,’ नेहा ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा.

‘चलो न प्लीज, बस दो मिनट के लिए.’

‘अरे?’ नेहा अचंभित हो कर बोली. लेकिन आकाश नेहा का हाथ थामे सीट से उठने लगा.

‘अरे…रे… रुको तो, क्या करते हो यार?’ नेहा ने बनावटी गुस्से में कहा.

‘बाहर कितनी धुंध है, पता भी है तुम्हें?’ नेहा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘वही तो…’ आकाश ने लंबी सांस ली और कुछ देर बाद बोला, ‘नेहा तुम जानती हो न… मुझे धुंध की खुशबू बहुत अच्छी लगती है. सोचो, गहरी धुंध में हम दोनों बाइक पर 80-100 की स्पीड में जा रहे होते और तुम ठंड से कांपती हुई मुझ से लिपटतीं…’

‘आकाश…’ नेहा के चेहरे पर लाज, हैरानी की मुसकराहट एकसाथ फैल गई.

‘नेहा…’ आकाश ने पुकारा… ‘मैं आज तुम्हें उस आकाश को दिखाना चाहता हूं… देखो यह… आकाश आज अकेला नहीं है… देखो… उसे जिस की तलाश थी वह आज उस के साथ है.’

नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…

‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.

रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.

‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.

‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’

‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.

‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’

‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.

‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.

‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.

‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’

‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.

‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’

‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’

‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’

कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’

‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’

‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.

‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’

नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.

‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.

नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.

आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.

बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.

‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.

सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.

प्रेम की इबारत : भाग 2

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

 

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