छलिया कौन: खेतों में क्या हुआ था सुमेधा के साथ

सब कहते हैं और हम ने भी सुना है कि जिंदगी एक अबूझ पहेली है. वैसे तो जिंदगी के कई रंग हैं, मगर सब से गहरा रंग है प्यार का… और यह रंग गहरा होने के बाद भी अलगअलग तरह से चढ़ता है और कईकई बार चढ़ता है. अब प्यार है ही ऐसी बला कि कोई बच नहीं पाता. ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है…’ और हर बार कोई छली जाती है… यह भी सुनते आए थे.

आज भी ‘छलिया कौन’ यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह बन कर मुंहबाए खड़ा है. प्यार को छल मानने को दिल तैयार नहीं और प्यार में सबकुछ जायज है, तो प्यार करने वाले को भी कैसे छलिया कह दें? प्यार करने वाले सिर्फ प्रेमीप्रेमिका नहीं होते, प्यार तो जिंदगी का दूसरा नाम है और जिंदगी में बहुतेरे रिश्ते होते हैं. मसलन, मातापिता, भाईबहन, मित्र और इन से जुड़े अनेक रिश्ते…

ममत्व, स्नेह, लाड़दुलार और फटकार ये सभी प्यार के ही तो स्वरूप हैं. इन सब के साथ जहां स्वार्थ हो वहां चुपके से छल भी आ जाता है.

वैसे, जयवंत और वनीला की कहानी भी कुछ इसी तरह की है. कथानायक तो जयवंत ही है, मगर नायिका अकेली वनीला नहीं है. वनीला तो जयवंत और उस की पत्नी सुमेधा की जिंदगी में आई वह दूसरी औरत है जिस की वजह से सुमेधा अपनी बेटी मीनू के साथ अकेली रहने के लिए विवश है. सुमेधा सरकारी स्कूल में शिक्षिका है और जयवंत सरकारी कालेज में स्पोर्ट्स टीचर है. दोनों की शादी परिवारजनों ने तय की थी.

सुमेधा सुंदर और सुशील है और जयवंत के परिजनों को दिल से अपना मान कर सब के साथ सामंजस्य बैठा कर कुशलतापूर्वक घर चला रही है. शादी के 10 सालों बाद सरकारी काम से जयवंत को दूसरे शहर में ठौर तलाशना पड़ा. काफी प्रयासों के बाद भी सुमेधा का ट्रांसफर नहीं हुआ. जयवंत हर शनिवार शाम को आता और पत्नी व बेटी के साथ 2 दिन बिता कर सोमवार को लौट जाता. मीनू भी प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ रही थी तो सुमेधा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया. सुमेधा सप्ताहभर घर की जिम्मेदारी अकेली उठाती रहती और सप्ताहांत में घर आए पति के लिए भी समय निकालती.

जयवंत के कालेज में एक प्राध्यापिका थी वनीला, जो अधिक उम्र की होने के बाद भी अविवाहित थी. वह सुंदर, सुशील और संपन्न थी. मनोनुकूल वैवाहिक रिश्ता न मिलने से सब को नकारती रही. उम्र के इस सोपान पर तो समझौता करना ही था, जो उस के स्वभाव में नहीं था, इसलिए आजीवन अविवाहित रहने का मन बना चुकी थी. अक्ल और शक्ल दोनों कुदरत ने जी खोल कर दी थी तो अकड़ भी स्वाभाविक. कालेज में सब को अपने से कमतर ही समझती थी.

जयवंत और वनीला ने जब पहली दफा एकदूसरे को देखा तो दोनों का दिल कुछ जोर से धड़का. जयवंत तो था ही स्पोर्ट्समैन तो उस का गठीला शरीर था. उसे देख कर वनीला को अपना संकल्प कमजोर पड़ता जान पड़ा. उसे लगा कि कुदरत ने उस के लिए योग्य जीवनसाथी बनाया तो सही, मगर मिला देर से. दोनों देर तक स्टाफरूम में बैठे रहते, जबरदस्ती का कुछ काम ले कर.

 

दोनों को पहली बार पता चला कि वे कितने कर्मठ हैं. एकदूसरे की उपस्थिति मात्र से वे उत्साह से लबरेज हो तेजी से काम निबटा देते. अधिकांश कार्यकारिणी समितियों में दोनों का नाम साथ में लिखा जाने लगा, क्योंकि इस से समिति के अन्य सदस्य निश्चिंत हो जाते थे. दोनों को किसी अन्य की उपस्थिति पसंद भी नहीं थी.

स्पोर्ट्स समिति की कर्मठ सदस्य और अधिकांश गतिविधियों की संयोजक अब वनीला मैडम होती थीं. यह अलग बात है कि उन की बातचीत अभी भी शासकीय कार्यों तक ही सीमित थी. व्यक्तिगत रूप से दोनों एकदूसरे से अनजान ही थे.

बास्केटबौल के टूर्नामैंट्स होने थे, जिस की टीम में वनीला दल की अभिभावक के तौर पर जबकि जयवंत कोच के रूप में छात्राओं के दल के साथ गए थे. वहां अप्रत्याशित अनहोनी हुई कि एक छात्रा की तबियत काफी खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में भरती करना पड़ा. शहर के दूसरे कालेज के दल के साथ ही अपनी टीम को रवाना कर वे दोनों छात्रा के पेरैंट्स के आने तक वहीं रुके.

हौस्पिटल में गुजरी वह एक रात उन की जिंदगी में बहुत बड़ा परिवर्तन ले आई. रातभर बेंचनुमा कुरसियों पर बैठेबैठे ही काटनी पड़ी और चूंकि काम तो कुछ था नहीं, सो उस दिन खूब व्यक्तिगत बातें हुईं.

जयवंत ने वनीला से अभी तक शादी न करने की वजह पूछी तो उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, “तुम्हारे जैसा कोई मिला ही नहीं…”

उस की बात का इशारा समझ कर जयवंत भी बोल उठा, “जब मैं ही मिल सकता हूं तो मेरे जैसे की जरूरत ही क्या है?”

वनीला की आंखें आश्चर्यमिश्रित खुशी से फैल गईं,”क्या आप ने भी अभी तक शादी नहीं की?”

अब जयवंत मगरमच्छी आंसुओं के साथ बोला,”मेरी दादी मरते वक्त मुझे उन के एक दूर के रिश्तेदार की बेटी का हाथ जबरन थमा गईं… वह दिमाग से पैदल है, तभी तो यहां ले कर नहीं आया… अब मैं उसे तलाक दे दूंगा… यदि तुम चाहोगी तो हम शादी कर लेंगे, वीनू.”

“ओह जय, कितना गलत हुआ तुम्हारे साथ… हम पहले क्यों नहीं मिले? अब तुम्हारी पत्नी है तो हम कैसे शादी कर सकते हैं?”

“क्यों नहीं कर सकते वीनू… आई लव यू…और मुझे पता है कि तुम भी मुझे प्यार करती हो… बोलो, सच है न यह? हमारी जिंदगी है… हम एकदूसरे के साथ बिताना चाहें तो इस में गलत क्या है?” कहते हुए उस ने भावातिरेक में वनीला का हाथ कस कर पकड़ लिया.

उम्र की परतों में वनीला ने जो भावनाओं की बर्फ छिपा रखी थी वह जयवंत के सहारे की गरमी से पिघलने लगी… जवाब में उस ने भी बोल ही दिया, “आई लव यू टू जय… आई वांट टू स्पैंड माई लाइफ विद यू.”

इधर इजहार ए इश्क हुआ और उधर छात्रा की तबियत थोड़ी सुधरने लगी. वीनू सोच रही थी कि जय की पत्नी के साथ मैं छल कर रही हूं तो गलत नहीं है, क्योंकि उस के परिवार वालों ने भी तो जय के साथ छल किया है. जय सोच रहा था कि घर की जिम्मेदारी भी उठाऊंगा, पत्नी और बेटी तो वैसे ही अकेले रहने की आदी हो गई हैं… यहां पर मैं वीनू को उस के हिस्से का प्यार दे कर उस पर उपकार कर रहा हूं… कोई छल नहीं कर रहा, वह भी तो मुझे पाना चाहती है. बेटी को पढालिखा कर शादी कर दूंगा… कितने ही पुरुषों ने 2 शादियां की हैं… यह कहीं से भी गलत नहीं है और सुमेधा तो इस सब से अनजान ही थी.

जय और वीनू अब कालेज के बाद भी साथ में समय गुजारने लगे थे. उम्र का तकाजा था तो शाम के बाद कभी कोई रात भी साथ में गुजर जाती. जय अपने रूम पर कम और वीनू के घर पर अधिक समय गुजारने लगा. दोनों ने चोरीछिपे शादी भी कर ली, मगर उसे गुप्त रखा.

जय का रविवार अभी भी सुमेधा और मीनू के साथ गुजरता था. यह बात भी सोलह आने सच है कि पत्नियों की आंखें उन्हें अपने पतियों की नजरों में परिवर्तन का एहसास करा ही देती हैं. सुम्मी भी जय में आए परिवर्तन को महसूस कर रही थी. रहीसही कसर स्टाफ मैंबर्स ने पूरी कर दी.

एक गुमनाम पत्र पहुंचा था सुम्मी के पास जिस में जयवंत और वनीला के संबंधों का जिक्र करते हुए उसे सावधान किया गया था.

अगले रविवार जब जयवंत घर पहुंचा तो वहां अपने मातापिता और सासससुर को आया देख कर हैरान रह गया. हंगामा होना था… हुआ भी… जयवंत लौट आया इस समझौते के साथ कि तलाक के बाद भी मीनू की पढ़ाई और शादी की सारी जिम्मेदारी वही वहन करेगा. अब वीनू से शादी की बात राज नहीं रह गई थी.

काफी लंबे अरसे बाद किसी वजह से हमारा सुमेधा के शहर में जाना हुआ. जयवंत ने सुम्मी और मीनू से मिल कर आने को कहा. हमें भला क्यों आपत्ति होती… जयवंत और वनीला निस्संतान थे, इसलिए इस की तड़प तो थी ही.

इतने सालों बाद बेटी से मिलने की तड़प तो पिता को होनी स्वाभाविक भी थी. प्यार का खुमार हमेशा एकजैसा नहीं रहता है और जयवंत की पोस्टिंग भी दूसरे शहर में हो चुकी थी. अब उसे अकेले में अपराधबोध सालता होगा. जयवंत के मातापिता ने वीनू को कोसने में कोई कसर नहीं रखी. उन के अनुसार उस बांझ स्त्री ने उन के बेटेबहू का घर तोड़ कर उन का जीवन नारकीय बना दिया है. उस ने पत्नी का सुख तो दिया मगर पिता का सुख नहीं दे पाई. उसी की वजह से जय और मीनू इतने सालों तक एकदूसरे से दूर रहे.

अब मीनू पीजी की पढ़ाई पिता के साथ रह कर उन के कालेज से करना चाहती थी. जयवंत और वनीला की पोस्टिंग अलगअलग शहर में होने से शायद उन्हें फिर उम्मीद की किरण दिख रही थी. सुमेधा का कहना था कि मुझे कोई अपेक्षा नहीं है मगर मीनू को उस का अधिकार मिलना चाहिए.

वनीला के विरोध के बावजूद भी मीनू अपने पिता के घर रहने आ गई थी. वीनू अब वीकैंड में आती थी. जब कभी कुछ विवाद होता तो उन का फोन आने पर हमें ही जाना पड़ता था, क्योंकि न चाहते हुए भी इस कलह की अप्रत्यक्ष वजह तो हम बन ही चुके थे. न हम सुम्मी से मिलने जाते और न ही यह टूटा तार फिर से जुड़ता.

आज भी अचानक फोन आया और वीनू ने कहा, “आपलोग तुरंत आइए, अब इस घर में या तो मैं रहूंगी या मीनू.”

कुछ देर तक तो हम समझ ही नहीं पाए… सौतन का आपसी झगड़ा तो सुना था, मगर सौतेली मां और बेटी का इस तरह से झगड़ना…?

आश्चर्य की एक वजह और थी कि वनीला और मीनू दोनों ही काफी समझदार थीं. अलगअलग दोनों से बात करने पर हम इतना समझ पाए थे कि दोनों अपनी सीमाएं जानती थीं और एकदूसरे के क्षेत्राधिकार में दखल भी नहीं देती थीं. कभीकभी जय संतुलन नहीं कर पाते, तभी विवाद होता था.

जय का कहना था कि मीनू ही मेरी इकलौती संतान है तो वीनू को भी इसे स्वीकार लेना चाहिए. आखिर वह उस की भी बेटी है. सुमेधा ने तो वनीला को अपनी जगह दे दी तो क्या यह उस की बेटी को हमारी जिंदगी में थोड़ी भी जगह नहीं दे सकती? उस का अधिकार तो यह नहीं छीन रही है. 2-3 साल बाद तो ससुराल चली जाएगी, तब तक भी इसे आंख की किरकिरी नहीं मान कर सूरमे की तरह सजा ले… हमारी जिंदगी में रोशनी ही तो कर रही है…

हम भी जय की बातों से सहमत थे. जिंदगी का यही दस्तूर है… दूसरी औरत ही हमेशा गलत ठहराई जाती है. मैं भी एक औरत हूं तो सुम्मी का दर्द महसूस कर रही थी और मीनू से सहानुभूति होते हुए भी वीनू को गलत नहीं मान पा रही थी. मेरे पति वीनू को गलत ठहरा रहे थे और मैं जय को… एक पल को लगा कि उन का झगड़ा सुलझाने में हम न झगड़ पड़ें.

वीनू ने चुप्पी तोड़ी,”हम इतने सालों से अकेले रहे, मीनू कोई छोटी बच्ची नहीं है, उसे समझना चाहिए कि मैं वीकैंड पर आती हूं, उस के आने के बाद जय तो आते नहीं उसे अकेला छोड़ कर, यदि कुछ गलत दिखे तो मुझे मीनू को डांटने का अधिकार है या नहीं? यदि कुछ ऊंचनीच हो गई तो दोष तो मुझे देंगे सब… पड़ोस में रहने वाले लड़के से इस का नैनमटक्का चल रहा है, मैं ने खुद देखा… पूछा तो साफ मुकर गई और जय मुझे ही गलत कह रहे हैं. यह उतनी भी सीधी नहीं है, जितनी दिखती है…” उस का प्रलाप चलता ही रहता यदि हमें मीनू की सिसकियां न सुनाई देतीं.

“मेरी कोई गलती नहीं हैं… आंटी मुझे क्यों ऐसा बोल रही हैं, वे खुद जैसी हैं, वैसा ही मुझे समझ रही हैं… मैं उन की सगी बेटी नहीं हूं तो मेरी तकलीफ क्यों समझेंगी?” सुबकते हुए भी मीनू इतनी बड़ी बात बोल गई. एक पल को सन्नाटा छा गया.

“मुझे भी आज मीनू को देख कर अपना अजन्मा बच्चा याद आता है…” सन्नाटे को चीरते हुए वनीला ने रहस्योद्घाटन किया. अब चौंकने की बारी हमारी थी.

“वीनू, चुप रहो प्लीज… मीनू बेटी के सामने इस तरह बात मत करो…” जयवंत गिड़गिड़ाते हुए बोले. मीनू भी सहम सी गई.

वीनू के सब्र का बांध जो टूटा तो आंसुओं की बाढ़ सी आ गई, “बताओ मेरी क्या गलती है… जब जय आखिरी बार सुम्मी के घर से लौटे थे, तब मैं ने इन्हें खुशखबरी दी थी… जीवन बगिया में नया फूल खिलने वाला था… मगर…”

जय ने बीच में ही बात काट दी, “वीनू प्लीज… मेरी गलती है, मुझे माफ कर दो. मगर प्लीज अब चुप हो जाओ…”

लेकिन वीनू ने भी आज ठान ही लिया था. वह बोलती रही और परत दर परत जयवंत के छल की कलई खोलती गई.

“उस समय इन्होंने मुझे कहा कि अभी कोर्ट में केस चल रहा है. इस समय सुम्मी के वकील को हमारी शादी का सुबूत मिल गया तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे… सरकारी नौकरी भी जा सकती है… तुम अभी बच्चे को एबोर्ट करवा दो.… एक बार कोर्ट की कार्यवाही निबट जाएं फिर हम नए सिरे से जिंदगी शुरू करेंगे और बच्चा तो भविष्य में फिर हो ही जाएगा…”

“तो मैं ने गलत नहीं कहा था… उस समय यही उचित था…”

“उचितअनुचित मैं नहीं जानती. मुझ पर तो बांझ होने का कलंक लग गया, क्योंकि मीनू तुम्हारी बेटी है, यह सब जानते हैं.”

हम पसोपेश में बैठे थे. स्थिति इतनी बिगड़ने की उम्मीद नहीं थी. मैं सोच रही थी कि प्यार क्याक्या बदलाव ला देता है, सही और गलत की विवेचना के परे… सुम्मी ने मातृत्व को जिया मगर परित्यक्त हो कर अधूरी रही.… वीनू ने प्रेयसी बन प्यार पाया मगर मातृत्व की चाह में अधूरी रही… जयवंत ने सुम्मी और वीनू के साथ अधूरी जिंदगी जी, बेटी होने के बाद भी मीनू को दुलार न सका… क्या यही प्यार है या मात्र छलावा है?

“आप ने मेरे पापा को छीना, अपने अजन्मे बच्चे की हत्या की थी, इसलिए आप मां नहीं बन सकीं… कुदरत ने आप को सजा दी,” मीनू भी आज उम्र से बड़ी बातें कर वीनू को कटघरे में खींच रही थी.

“देखो, जो हुआ उसे हम बदल नहीं सकते. मीनू सही कह रही है, हमारी गलती का प्रायश्चित करने के लिए ही कुदरत ने मीनू को हमारे पास भेज दिया है, वही हमारी बेटी है, तुम बांझ नहीं हो… प्लीज अब बात को यहीं खत्म करो…”

“बात तो अब शुरू हुई है. कुदरत ने सजा नहीं दी, यह तो… ” बोलते हुए वीनू उठी और पर्स में से एक कागज निकाल कर मेरे सामने रख दिया, “यह देखो… सजा मुझे मिली है, यह सही है, मैं ने प्यार किया मगर जय ने मेरे साथ कितना बड़ा छल किया… यह अचानक मिला है मुझे, देखो…”

“क्या नाटक है यह? कौन सा कागज है?” जय अब गुस्से से चिल्लाया.

मैं ने देखा… वह मैडिकल सर्टिफिकेट था, जय की नसबंदी का…”आप ने वीनू को बताए बिना ही औपेरशन…”

मैं ने बात अधूरी छोड़ दी. अब जरूरी भी नहीं था कुछ बोलना. अब परछाई पानी में नहीं थी. आईने में सब स्पष्ट दिख रहा था और हम सोच रहे थे कि प्यार में छल हम किस से करते हैं, अपने रिश्तों से या खुद से, खुद की जिंदगी से?

प्रश्न अभी तक अनुत्तरित ही है…

पहल : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

तुम ही चाहिए ममू : राजेश ने किसके लिए कविता लिखी थी

कुछ अपने मिजाज और कुछ हालात की वजह से राजेश बचपन से ही गंभीर और शर्मीला था. कालेज के दिनों में जब उस के दोस्त कैंटीन में बैठ कर लड़कियों को पटाने के लिए तरहतरह के पापड़ बेलते थे, तब वह लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें खंगालता रहता था.

ऐसा नहीं था कि राजेश के अंदर जवानी की लहरें हिलोरें नहीं लेती थीं. ख्वाब वह भी देखा करता था. छिपछिप कर लड़कियों को देखने और उन से रसीली बातें करने की ख्वाहिश उसे भी होती थी, मगर वह कभी खुल कर सामने नहीं आया.

कई लड़कियों की खूबसूरती का कायल हो कर राजेश ने प्यारभरी कविताएं लिख डालीं, मगर जब उन्हीं में से कोई सामने आती तो वह सिर झुका कर आगे बढ़ जाता था. शर्मीले मिजाज की वजह से कालेज की दबंग लड़कियों ने उसे ‘ब्रह्मचारी’ नाम दे दिया था.

कालेज से निकलने के बाद जब राजेश नौकरी करने लगा तो वहां भी लड़कियों के बीच काम करने का मौका मिला. उन के लिए भी उस के मन में प्यार पनपता था, लेकिन अपनी चाहत को जाहिर करने के बजाय वह उसे डायरी में दर्ज कर देता था. औफिस में भी राजेश की इमेज कालेज के दिनों वाली ही बनी रही.

शायद औरत से राजेश का सीधा सामना कभी न हो पाता, अगर ममता उस की जिंदगी में न आती. उसे वह प्यार से ममू बुलाता था.

जब से राजेश को नौकरी मिली थी, तब से मां उस की शादी के लिए लगातार कोशिशें कर रही थीं. मां की कोशिश आखिरकार ममू के मिलने के साथ खत्म हो गई. राजेश की शादी हो गई. उस की ममू घर में आ गई.

पहली रात को जब आसपड़ोस की भाभियां चुहल करते हुए ममू को राजेश के कमरे तक लाईं तो वह बेहद शरमाई हुई थी. पलंग के एक कोने पर बैठ कर उस ने राजेश को तिरछी नजरों से देखा, लेकिन उस की तीखी नजर का सामना किए बगैर ही राजेश ने अपनी पलकें झुका लीं.

ममू समझ गई कि उस का पति उस से भी ज्यादा नर्वस है. पलंग के कोने से उचक कर वह राजेश के करीब आ गई और उस के सिर को अपनी कोमल हथेली से सहलाते हुए बोली, ‘‘लगता है, हमारी जोड़ी जमेगी नहीं…’’

‘‘क्यों…?’’ राजेश ने भी घबराते हुए पूछा.

‘‘हिसाब उलटा हो गया…’’ उस ने कहा तो राजेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बेचैन हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो ममू… क्या गड़बड़ हो गई?’’

‘‘यह गड़बड़ नहीं तो और क्या है? कुदरत ने तुम्हारे अंदर लड़कियों वाली शर्म भर दी और मेरे अंदर लड़कों वाली बेशर्मी…’’ कहते हुए ममू ने राजेश का माथा चूम लिया.

ममू के इस मजाक पर राजेश ने उसे अपनी बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

ख्वाबों में राजेश ने औरत को जिस रूप में देखा था, ममू उस से कई गुना बेहतर निकली. अब वह एक पल के लिए भी ममू को अपनी नजरों से ओझल होते नहीं देख सकता था.

हनीमून मना कर जब वे दोनों नैनीताल से घर लौटे तो ममू ने सुझाव दे डाला, ‘‘प्यारमनुहार बहुत हो चुका… अब औफिस जाना शुरू कर दो.’’

उस समय राजेश को ममू की बात हजम नहीं हुई. उस ने ममू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘नौकरी तो हमेशा करनी है ममू… ये दिन फिर लौट कर नहीं आएंगे. मैं छुट्टियां बढ़वा रहा हूं.’’

‘‘छुट्टियां बढ़ा कर क्या करोगे? हफ्तेभर बाद तो प्रमोशन के लिए तुम्हारा इंटरव्यू होना है,’’ ममू ने त्योरियां चढ़ा कर कहा.

ममू को सचाई बताते हुए राजेश ने कहा, ‘‘इंटरव्यू तो नाम का है डार्लिंग. मुझ से सीनियर कई लोग अभी प्रमोशन की लाइन में खड़े हैं… ऐसे में मेरा नंबर कहां आ पाएगा?’’

‘‘तुम सुधरोगे नहीं…’’ कह कर ममू राजेश का हाथ झिड़क कर चली गई.

अगली सुबह मां ने राजेश को एक अजीब सा फैसला सुना डाला, ‘‘ममता को यहां 20 दिन हो चुके हैं. नई बहू को पहली बार ससुराल में इतने दिन नहीं रखा करते. तू कल ही इसे मायके छोड़ कर आ.’’

मां से तो राजेश कुछ नहीं कह सका, लेकिन ममू को उस ने अपनी हालत बता दी, ‘‘मैं अब एक पल भी तुम से दूर नहीं रह सकता ममू. मेरे लिए कुछ दिन रुक जाओ, प्लीज…’’

‘‘जिस घर में मैं 23 साल बिता चुकी हूं, उस घर को इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊं?’’ कहते हुए ममू की आंखें भर आईं.

राजेश को इस बात का काफी दुख हुआ कि ममू ने उस के दिल में उमड़ते प्यार को दरकिनार कर अपने मायके को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन मजबूरी में उसे ममू की बात माननी पड़ी और वह उसे उस के मायके छोड़ आया.

ममू के जाते ही राजेश के दिन उदास और रातें सूनी हो गईं. घर में फालतू बैठ कर राजेश क्या करता, इसलिए वह औफिस जाने लगा.

कुछ ही दिन बाद प्रमोशन के लिए राजेश का इंटरव्यू हुआ. वह जानता था कि यह सब नाम का है, फिर भी अपनी तरफ से उस ने इंटरव्यू बोर्ड को खुश करने की पूरी कोशिश की.

2 हफ्ते बाद ममू मायके से लौट आई और तभी नतीजा भी आ गया.

लिस्ट में अपना नाम देख कर राजेश खुशी से उछल पड़ा. दफ्तर में उस के सीनियर भी परेशान हो उठे कि उन को छोड़ कर राजेश का प्रमोशन कैसे हो गया.

उन्होंने तहकीकात कराई तो पता चला कि इंटरव्यू में राजेश के नंबर उस के सीनियर सहकर्मियों के बराबर थे. इस हिसाब से राजेश के बजाय उन्हीं में से किसी एक का प्रमोशन होना था, मगर जब छुट्टियों के पैमाने पर परख की गई तो उन्होंने राजेश से ज्यादा छुट्टियां ली थीं. इंटरव्यू में राजेश को इसी बात का फायदा मिला था.

अगर ममू 2 हफ्ते पहले मायके न गई होती तो राजेश छुट्टी पर ही चल रहा होता और इंटरव्यू के लिए तैयारी भी न कर पाता. अचानक मिला यह प्रमोशन राजेश के कैरियर की एक अहम कामयाबी थी. इस बात को ले कर वह बहुत खुश था.

उस शाम घर पहुंच कर राजेश को ममू की गहरी समझ का ठोस सुबूत मिला.

मां ने बताया कि मायके की याद तो ममू का बहाना था. उस ने जानबूझ कर मां से मशवरा कर के मायके जाने का मन बनाया था ताकि वह इंटरव्यू के लिए तैयारी कर सके.

सचाई जान कर राजेश ममू से मिलने को बेताब हो उठा. अपने कमरे में दाखिल होते ही वह हैरान रह गया. ममू दुलहन की तरह सजधज कर बिस्तर पर बैठी थी. राजेश ने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया. उस की हथेलियां ममू की कोमल पीठ को सहला रही थीं.

ममू कह रही थी, ‘‘माफ करना… मैं ने तुम्हें बहुत तड़पाया. मगर यह जरूरी था, तुम्हारी और मेरी तरक्की के लिए. क्या तुम से दूर रह कर मैं खुश रही? मायके में चौबीसों घंटे मैं तुम्हारी यादों में खोई रही. मैं भी तड़पती रही, लेकिन इस तड़प में भी एक मजा था. मुझे पता था कि अगर मैं तुम्हारे साथ रहती तो तुम जरूर छुट्टी लेते और कभी भी मन लगा कर इंटरव्यू की तैयारी नहीं करते.’’

राजेश कुछ नहीं बोला बस एकटक अपनी ममू को देखता रहा.

ममू ने राजेश को अपनी बांहों में लेते हुए चुहल की, ‘‘अब बोलो, मुझ जैसी कठोर बीवी पा कर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’’

‘‘तुम को पा कर तो मैं निहाल हो गया हूं ममू…’’ राजेश अभी बोल ही रहा था कि ममू ने ट्यूबलाइट का स्विच औफ करते हुए कहा, ‘‘बहुत हो चुकी तारीफ… अब कुछ और…’’

ममू शरारत पर उतर आई. कमरा नाइट लैंप की हलकी रोशनी से भर उठा और ममू राजेश की बांहों में खो गई, एक नई सुबह आने तक.

ड्रीम डेट- भाग 3 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

‘‘और सुना, क्या हाल है तेरा और तेरे दोनों बौडीगार्ड्स का?’’ आरव ने गरमजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘सब सही, भाई.’’

इन को बौडीगार्ड की क्या जरूरत. मैं ने मन ही मन में सोचा, यह कोई फिल्मस्टार तो लग नहीं रहे.

‘‘सुनो, अब तुम वेटिंगरूम में जा कर आराम से बैठो, मैं अपने यार से बातें कर लूं. बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है और सब से ज्यादा खुशी की बात यह है कि उस ने मुझे पहचान लिया है.’’

‘‘जी.’’

अब तो मुझे जाना ही था लेकिन मैं जाना नहीं चाहती थी. इतनी मुश्किल से मिले इस साथ का एकएक पल साथ में ही बिताना चाहती थी. खैर, मैं अंदर आ

गई और अपना मन बाहर आरव के पास  छोड़ आई.

करीब एक घंटा गुजर गया और मैं वहां आसपास के लोगों से बोलती व मोबाइल यूज करती रही. अब मुझे घुटन सी होने लगी. आरव, तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो, कोई तुम्हारे इंतजार में बैठा है और तुम करीब हो कर भी मेरे करीब नहीं हो.

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, नजरें लगातार वेटिंगरूम के गेट की तरफ लगी हुई थीं. आखिर नहीं रहा गया और मैं खुद ही बाहर निकल आई, देखा दूरदूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे. अब तो ट्रेन के आने का समय भी हो गया है. आधे घंटे में ट्रेन आ जाएगी, मैं ने अपनी नजरें चारों तरफ घुमाईं तो देखा सामने से दोस्त से बतियाते चले आ रहे हैं.

मैं ने उन को देखा और नजरों से ही इशारा किया. वे समझ गए और करीब आते हुए बोले, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, यह बताने आई थी कि ट्रेन के आने का समय हो गया है.’’

‘‘हां यार, पता है.’’

‘‘तो चलिए, सामान ले आएं.’’

‘‘अरे ले आएंगे, अभी बहुत देर है.’’

‘‘जी नहीं, अब देर नहीं है. यहां से सामान ले कर जाने में ही करीबकरीब 10 मिनट लग जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक है.’’ उन्होंने आखिर सहमति में सिर हिलाया. भरे हुए वेटिंगरूम में किसी तरह सामान निकाल कर बाहर ले कर आए क्योंकि लोग फर्श तक पर बैठे हुए थे और इस का कारण सिर्फ एक ही था कि ट्रेन हद से ज्यादा लेट थी.

हम लोग हमेशा फ्लाइट ही से जाते हैं परंतु इस बार हमें जाना था ट्रेन के फर्स्ट क्लास के एसी कोच में, कुछ अलग या बिलकुल अलग सा एहसास महसूस करने के लिए. ट्रेन प्लेटफौर्म पर बस आने ही वाली है, अनाउंसमेंट हो गई थी. मैं और आरव अपनेअपने सामान को ले कर प्लेटफौर्म पर खड़े हो गए थे. ‘‘यार, इस सरकार के राज में ट्रेनों ने रुला ही दिया. मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन आज तक कभी भी इतनी लेट ट्रेन नहीं देखी. अनाउंसमैंट हो गई है लेकिन ट्रेन का कहीं अतापता ही नहीं,’’ आरव बोले. सच ही तो कह रहे हैं, जिसे देखो वह परेशान है. वेटिंगरूम भरे हुए हैं, लोग जमीन पर बैठे हुए हैं, क्या करें.

अकेली महिलाएं, बच्चे सफर कर रहे हैं. वे भी ट्रेन के लेट होने से दुखी हैं और उन के साथसाथ घर में बैठे उन के परिवार वाले भी. खैर, ट्रेन प्लेटफौर्म पर लग गई. मानो सब को सांस में सांस आ गई है. एसी कोच के फर्स्ट क्लास वाले कूपे में चढ़ते हुए लगा जैसे किसी घर में प्रवेश कर लिया है जहां हमारा अपना कमरा हर सुविधा से युक्त है. सीनरी, फ्लौवर पौट से सजे हुए उस कूपे में 2 सीटें थीं, एक ऊपर और एक नीचे. नीचे वाली सीट को खींच कर बैड की तरह बना कर हम दोनों बैठ गए, फिल्मों में देखे हुए वे सीन याद आ गए जो पुरानी फिल्मों में हुआ करते थे, जब गाने गाते हुए हीरोहीरोइन अपने हनीमून इसी तरह की ट्रेन के कूपे में मनाते थे.

‘‘सुनो आरव, जब हम बात करते हैं न, तो कितना हलकाहलका सा हो जाता है मन. है न?’’

‘‘हां, तुम सही कह रही हो, एकदम फूल की तरह से. जब मैं तुम से अपने मन की बात कर लेता हूं तो वाकई बहुत ही अच्छा लगता है.’’

‘‘लेकिन मुझे कुछ भी समझ नहीं आता कि दुनिया में ऐसा क्यों होता है?’’ मैं ने कहा.

‘‘ऐसा?’’

‘‘हां, ऐसा ही कि हम जिस से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं वह हम से दूर क्यों हो जाता है? क्यों वह उसे दुख देता है जिस ने अपनी पूरी जान सौंप दी. पूरी जिंदगी उस के नाम कर दी? क्या उस का दिल नहीं कसकता? क्या उसे यह एहसास नहीं होता कि वह तो पलपल में उसे जी रही है और वह अपने एहसास तक नहीं दे रहा है, न ही शब्द दे रहा है. क्या यह स्वार्थ नहीं है? चुप क्यों हो? आखिर इंसान ऐसा कर कैसे पाता है? क्या यही प्रेम है? वैसे, प्रेम क्या होता है, मुझे बताओ?’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होता. कभीकभी परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि इंसान मजबूर हो जाता है.’’

‘‘अच्छा, आरव सुनो, मेरा एहसास, प्यार, समर्पण और विश्वास सबकुछ तुम्हारा ही तो है. मेरी कैसे याद नहीं आती, तुम कैसे मुझे भूल जाते हो?’’

‘‘नहीं, भूलता नहीं. कहा न मजबूरी.’’

‘‘इतनी मजबूरी कि कोई घूंटघूंट दर्द पी रही है बिना कहे, बिना सुने. मेरे आंसू तुम्हें क्यों नहीं दिखते क्योंकि मैं छिपछिप कर रोती हूं और सामना होने पर अपने आंसू छिपा लेती हूं ताकि तुम को कोई दुख न हो. क्या मेरी कमजोरी समझते हो, इसलिए ऐसा करते हो?’’

‘‘ समझ नहीं आ रहा, क्या कहूं.’’

‘‘कहो न कुछ, मेरे दर्द को समझे. मैं कुछ कह नहीं पाती हूं.’’

‘‘समझता हूं, सच में. तुम जानती हो कि मैं कभी झठ नहीं बोलता.’’

‘‘तो सब कह देना चाहिए क्योंकि प्रेम कहनेसुनने से और बढ़ता है, है न? जब हम प्रेम करते हैं तो फिर यह क्यों सोचते हैं कि वह कुछ न कहे, बस सामने वाला कहे.

‘‘प्रेम गली अति संकरी जामें दाऊ न समाई.

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं.’’

कुछ समझ आया, प्यार में अहं की जगह नहीं.’’

‘‘एक ही बात है, चाहे कोई कह दे.’’

‘‘लेकिन अगर एक ही बारबार कहता रहे, दूसरा कभी पहल न करे तो?’’

‘‘तो भी कोईर् बात नहीं? तुम प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं हो?’’

मुझे पता था कि आरव किसी तरह से भी अपनी ही बात रखेंगे चाहे उन से कितनी भी बहस क्यों न कर लूं, जीतेंगे वही और मैं हार जाऊंगी. वैसे, हार जाने में भी जीत छिपी होती है. हार कर जीत जाना बेहतर है, जीत के हार जाने से.

 

खैर, मेरी खवाबोंभरी आंखों में थकान की वजह से नींद भर गईर् थी. कल से आने की तैयारी और आज सुबह ही घर से निकलना और यहां पहुंच कर ट्रेन के इंतजार में शरीर दर्द से जवाब देता लग रहा था, बस, अब सो जाओ.

आरव ने सामान सही से लगाया और मुझे कस कर सीने से लगाते हुए मेरे माथे को चूम लिया. आह, मानो जेठ की तपती हुई रेत पर सागर की शीतल लहर आ कर ठंडक दे रही हो. सच में कितना मुश्किल होता है न? यों महीनों और सालों एकदूसरे से दूर रहना.

‘‘सुनो आरव, तुम अपने दोस्त से क्या कह रहे थे कि दोनों बौडीगार्ड्स ठीक हैं? क्या वह कोई बड़ी हस्ती है जो उसे यों बौडीगार्ड की जरूरत पड़ी?’’

‘‘अरे नहीं यार, उस की 2 प्रेमिकाएं हैं न, उन के बारे में कह रहा था.’’

‘‘2-2 प्रेमिकाएं? लेकिन यह गलत है न? शादी क्यों नहीं कर लेते किसी एक से?’’

‘‘वह पहले से ही शादीशुदा है,’’ आरव मुसकराते हुए बोले.

‘‘शादीशुदा हो कर भी 2-2 प्रेमिकाएं?’’ मैं चौंक सी गई.

‘‘हां यार, आजकल की दुनिया में यही सब चल रहा है, तुझे कुछ पता भी है दुनियादारी के बारे में? खैर छोड़, हम क्यों अपना दिमाग खराब करें? सुनो, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘अच्छा अब पहले तुम दिखाओ.’’

‘‘नहीं, पहले तुम.’’

‘‘अरे, लेडीज फर्स्ट.’’

‘‘नो, बैड मैनर, पहले आप को दिखाना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मैं हारा. वरना पहले आप, पहले आप में रात गुजर जाएगी.’’

मुझे जोर की हंसी आ गई, आरव भी मुसकरा दिए. कितना अच्छा लगता है न, यों हंसते हुए खुशियों को दामन में भरते हुए.

आरव ने अपनी पैंट की जेब से एक डब्बी निकाली और उस में से डायमंड की अंगूठी निकाल कर मुझे पहना दी.

‘‘वाओ, कितनी प्यारी है. और, मैं यह लाई हूं,’’ मैं ने एक गरम शौल उन के गले में डालते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम पहाड़ पर रहते हो, तो तुम्हें ठंड भी बहुत लगती होगी. है न?’’

‘‘हां, सच में.’’

‘‘तो अब इसे हमेशा अपने साथ में रखना,’’ कहते हुए मैं उन के गले से लग गई.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी और हमारी धड़कनें भी साथसाथ धड़क रही थीं जैसे ट्रेन और हमारी सांसों की रफ्तार एक सी हो गई हो.

ड्रीम डेट- भाग 2 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

चाय वाकई स्वादभरी थी. इंतजार की सारी थकान खत्म हो गई थी. लेकिन यह मेरी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. मैं तो उन के साथ गुजारे एकएक पल को बेहद खूबसूरत और रोमांटिक बना लेना चाहती थी. जैसे, चांद की रोशनी में बैठ कर उन्हें घंटों निहारती रहूं और वे मेरी गोद में सिर रखे, मेरे माथे को चूमते हुए मेरी आंखों में खा जाएं.

‘‘अरे चलना नहीं है? चाय इतनी अच्छी लगी कि और पीने का दिल कर रहा है?’’ आरव ने मुझे सोच में डूबे देख कर टोका.

‘‘नहींनहीं बाबा, ऐसा नहीं है. चलो, चलते हैं.’’

‘‘अब यह बाबा कौन है, यह भी बता दो हमें?’’ वे खूब जोर से खिलखिला कर हंस दिए, कितने प्यारे लगते हैं ये यों हंसते हुए.

‘कहीं किसी की नजर न लग जाए हमारे प्यार को, हमारी मुसकान को.’ मैं ने मन ही मन सोचा.

रात का समय था और ट्रेन अभी 2 घंटे और लेट थी. इस समय को गुजारना अब कोई मुश्किल काम नहीं था, क्योंकि मेरा प्यार, मेरा आरव मेरे साथ है. ‘वह हर जगह बहुत प्यारी है जहां मेरा आरव हो,’ मैं मन ही मन बोली. मैं ने आरव का हाथ अपने हाथ में कस कर पकड़ रखा था, ऐसे जैसे कि अगर पकड़ थोड़ी भी ढीली पड़ी तो वे कहीं मुझ से अलग न हो जाएं. मैं ने उस दूरी के कष्ट को इस कदर सहा है, इतने आंसू बहाए हैं कि अब साथ में हैं तो पलभर को भी उन्हें दूर या अलग नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘साथ ही हूं तेरे न, फिर कैसी परवा?’’ आरव ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां, मैं इस साथ को महसूस करना चाहती हूं,’’ मैं भी मुसकराते हुए बोली.

‘‘बड़े अच्छे लगते हैं… यह धरती, यह नदिया, यह रैना और तुम…’’ आरव गुनगुना रहे थे और मैं उस मधुर धुन में खोई उन का हाथ थामे हर बात से बेफिक्र सी चाल से चल रही थी.

जनवरी का महीना और सर्द मौसम, इसलिए स्टेशन पर लोग न के बराबर थे, हालांकि ट्रेन बहुत लेट चल रही थी. लोग वेटिंगरूम में ही खुद को किसी तरह से ऐडजस्ट किए हुए थे या जो कुछ लोग बाहर बैठे भी थे वे खुद को खुद में ही सिकोड़ेसमेटे दुबके हुए से बैठे थे. मैं इस सर्द मौसम में अपने आरव का हाथ पकड़े स्टेशन के एक छोर से दूसरे छोर तक घूम रही थी. चांद पूरे निखार के साथ आसमान में चमक रहा था. मैं ने उंगली उठा कर आरव को चांद दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, यह चांद गवाह है न हमारे प्रेम का, कितनी मोहकता से हमें ही देख रहा है.’’

‘‘हमारे प्रेम को किसी गवाह की जरूरत ही कब है?’’ वे बोले.

मैं सिर्फ मुसकरा कर रह गई और उस ताप, उस ऊष्मा में खोती हुई उसे अपने बेहद करीब महसूस करते हुए साथसाथ चलती रही. प्रेम में बिताया और प्रेम के साथ का एकएक पल हमेशा यादगार होता है. उसे हम एक ड्रीम की तरह अपने अंतर्मन में बसाए रहते हैं.

‘‘सुनो, तुम ने खाना खाया?’’ आरव ने मौन तोड़ा और मेरी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘सही,’’ वे संतुष्ट होते हुए बोले.

‘‘आप ने?’’

‘‘हां भाई, मैं तो खा कर ही आया हूं.’’

‘‘सुनो, मेरे पास बिस्कुट और केक रखे हैं, आप खाएंगे?’’

‘‘न, अभी कुछ नहीं खाना. चाय भी पी ली है और सफर भी करना है, रात का सफर है.’’

इस बात पर मैं ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

पूरे एक घंटे तक यों ही दीवानों की तरह हम उस स्टेशन के प्लेटफौर्म पर एकदूसरे का हाथ पकड़े टहलते रहे. आरव ने कुछ इस तरह से मेरे हाथ को अपने हाथ में सहेज रखा था मानो कोईर् फूल. मैं कभी मुसकरा रही थी और कभी आरव की बांहों पर अपना सिर टिका दे रही थी. कितना मजबूती का एहसास मन में भर रहा था, मानो खुशियां सिमट आई हों.

सच में उन के होने से बढ़ कर मेरे जीवन में कोई और खुशी नहीं है. उन के इंतजार में बिताए दिन, आंखों से बहाए गए आंसू, सब न जाने कहां खो गए थे. आज मैं उन के साथ अपने सारे दुख भुला कर सिर्फ मुसकराना चाहती थी. बहुत रो लिए अकेले में, अब साथ में हंसने के दिन आए हैं.

‘‘चलो, अब तुम थक गई होगी, जा कर वेटिंगरूम में बैठ जाओ.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘सही है. वैसे, मैं भी यहीं आप के साथ रहना चाहती हूं.’’

‘‘अरे यार, साथ ही तो हैं.’’

‘‘आरव, तुम यहां?’’ किसी ने उन को आवाज लगाते हुए कहा. वे शायद गार्ड थे और आरव के दोस्त. देखा जाए तो आरव का व्यवहार इतना अच्छा है कि वे एक बार किसी से मिलते हैं तो उस के दिल में उतर जाते हैं और फिर सालोंमहीनों न मिलने के बाद भी लोग उन्हें याद रखते हैं.

 

रिश्ते का सम्मान : क्या हुआ था राशि और दौलत के साथ

दौलत और राशि को आदर्श पतिपत्नी का खिताब महल्ले में ही नहीं, उस के रिश्तेदारों और मित्रों से भी प्राप्त है. 3 साल पहले रुचि के पैदा होने पर डाक्टर ने साफ शब्दों में बता दिया था कि आगे राशि मां तो बन सकती है पर उसे और उस के गर्भस्थ शिशु दोनों को जीवन का खतरा रहेगा, इसलिए अच्छा हो कि वे अब संतान की इच्छा त्याग दें.

माहवारी समय से न आने पर कहीं गर्भ न ठहर जाए यह सोच कर राशि सशंकित हो चली कि आदर्श पतिपत्नी से आखिर चूक हो ही गई. अपनी शंका राशि ने दौलत के सामने रखी तो वह भी सशंकित हुए बिना नहीं रहा. झट से राशि को डाक्टर के पास ले जा कर दौलत ने अपना भय बता दिया, ‘‘डाक्टर साहब, आप तो जानते ही हैं कि राशि के गर्भवती होने से मांबच्चा दोनों को खतरा है, आप की सलाह के खिलाफ हम से चूक हो गई. इस खतरे को अभी क्यों न खत्म कर दिया जाए?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं? 10 दिन बाद आ जाना,’’ डाक्टर ने समझाते हुए कहा.

रास्ते में राशि ने दौलत से कहा, ‘‘सुनो, यह बेटा भी तो हो सकता है…तो क्यों न खतरे भरे इस जुए में एक पांसा फेंक कर देखा जाए? संभव है कि दैहिक परिवर्तनों के चलते शारीरिक कमियों की भरपाई हो जाए और हम खतरे से बच जाएं.’’

‘‘तुम पागल हो गई हो,’’ दौलत बोला, ‘‘सोचो कि…एक लालच में कितना बड़ा खतरा उठाना पड़ सकता है. नहीं, मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकता. इतना बड़ा जोखिम…नहीं, तुम्हें खो कर मैं अधूरा जीवन नहीं जी सकता.’’

राशि चुप रह गई. वह नहीं चाहती थी कि पति की बात को ठुकरा कर उसे नाराज करे या कोई जोखिम ले कर पति को दुख पहुंचाए.

10 दिन बाद दौलत ने राशि को डाक्टर के पास चलने को कहा तो उस ने अपनी असहमति के साथ कहा, ‘‘गर्भपात तो 3 माह तक भी हो जाता है. 3 माह तक हम यह तो समझ सकते हैं कि कोई परेशानी होती है या नहीं. जरा सी भी परेशानी होगी तो मैं तुम्हारी बात नहीं टालूंगी.’’

‘‘जाने दो, मैं भी छोटी सी बात भूल गया था कि यह गर्भ और खतरे तुम्हारी देह में हैं, तुम्हारे लिए हैं. मैं कौन होता हूं तुम्हारी देह के भीतर के फैसलों में हस्तक्षेप करने वाला?’’ निराश मन से कहता हुआ वह कार्यालय चला गया.

शाम को कार्यालय से दौलत घर जल्दी पहुंच गया और बिना कुछ बोले सोफे में धंस कर बैठ गया. यह देख राशि बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारा मन ठीक नहीं है. नाहक परेशान हो. अभी डेढ़दो माह तुम्हें गंवारा नहीं है तो चलो, सफाई करवा लेती हूं. बस…अब तो खुश हो जाओ प्यारे…यह तुच्छ बात क्या, मैं तो आप के एक इशारे पर जान देने को तैयार हूं,’’ कहते हुए राशि ने दौलत की गोदी में सिर औंधा कर उस की कमर में बांहें डाल कर उसे कस लिया.

दौलत को लगा कि राशि उसे अनमना नहीं देख सकती, इसीलिए वह उस के फैसले को महत्त्व दे रही है. वह आपादमस्तक न्योछावर है तो उस के प्रति कुछ अहम दायित्व उस के भी बनते हैं और ऐसे दायित्वों की राशि सस्नेह उस से उम्मीद भी करती होगी. कहते भी हैं कि एक कदम पत्नी चले तो पति को दो कदम चलना चाहिए. मतलब यह कि राशि की सहमति पर अपनी ‘हां’ का ठप्पा लगा कर खतरे की प्रतीक्षा करे. पर वह किस विश्वास पर एक डाक्टर की जांच को हाशिए में डाल कर भाग्यवादी बन जाए? मस्तिष्क में एक के बाद एक सवाल पानी के बुलबुले की तरह बनते व बिगड़ते रहे. अंत में विचारों के मंथन के बाद दौलत ने पत्नी की प्रार्थना मान ली और दोनों एकदूसरे में सिमट गए.

आखिर डाक्टर की देखरेख में गर्भस्थ शिशु का 9वां महीना चल रहा था. राशि को किसी की मदद की आवश्यकता महसूस हुई तो उस ने अपनी मौसेरी बहन माला को बुलवाने के लिए कहा. फोन पर बात की, मौसी मान ही नहीं गईं, माला को राशि के हाथ सौंप कर वापस भी चली गईं.

दिन करीब आते देख राशि और दौलत एकदेह नहीं हो सकते थे. देहाग्नि दौलत को जैसे राख किए जा रही थी. बारबार ‘जीजाजी’ कह कर दौलत से सट कर माला का उठनाबैठना राशि को इस बात का संकेत दे रहा था कि कहीं वह नादान लड़की बहक गई तो? या फिर दौलत बहक गया तो?

राशि का संदेह तब मजबूत हो चला जब अगली सुबह माला न तो समय से उठी, न ही उस ने चायनाश्ते का ध्यान रखा. राशि ने दौलत को अपने बिस्तर पर नहीं देखा तो वह माला के कमरे में गई जो अकेली सो रही थी. रसोई में देखा तो दौलत टोस्ट और चाय तैयार कर रहा था.

आहट पा कर दौलत अधबुझी राशि को देख चौंक कर बोला, ‘‘अरे, तुम ने ब्रश किया कि नहीं?’’ उस के गाल पर चुंबन की छाप छोड़ते हुए फिर बोला, ‘‘मैं ने सोचा, आज मैं ही कुछ बना कर देखूं. पहले हम दोनों मिल कर सबकुछ बना लेते थे पर अब मेरी आदत छूट गई है. तुम्हारी वजह से मैं पक्का आलसी हो गया हूं. जाओ, कुल्ला करो और मैं चाय ले कर आता हूं.’’

‘‘मैं तो यह देख रही थी कि रुचि स्कूल के लिए लेट हो रही है और घर में आज सभी घोड़े बेच कर सो रहे हैं. आज रुचि को जगाया नहीं गया,’’ मन का वहम छिपा कर राशि रुचि के स्कूल की बात कह बैठी.

‘‘कल रात को तो बताया था कि आज उस की छुट्टी है, मेरी भुलक्कड़ रानी. कहीं मुझे न भूल जाना. वैसे भी आजकल मुझे बहुत तड़पा रही हो,’’ कहते हुए दौलत राशि को अपनी बांहों में भींच कर लिपट गया.

प्यार करने के लिए लिपटे पतिपत्नी को पता नहीं था कि रसोई में आती माला ने उन्हें लिपटे हुए देख लिया है…वह बाधा डालते हुए बोली थी, ‘‘दीदी, तुम क्यों रसोई में आ गईं? मैं छुट्टी की वजह से आज लेट हो गई.’’

चौंक कर दौलत राशि से अलग छिटक गया और खौल रही चाय में व्यस्त हो कर बोला, ‘‘साली साहिबा, मैं ने सोचा कि आज सभी को बढि़या सी चाय पिलाऊं. चाय तैयार हो तब तक आप रुचि को जगा कर नाश्ते के लिए तैयार कीजिए.’’

माला रुचि को जगाने में लग गई.

सब से पहले चाय माला ने पी और पहली चुस्की के साथ ही ताली बजा कर हंस पड़ी…दौलत झेंप गया. उसे लगा कि कहीं चाय में चीनी की जगह नमक तो नहीं पड़ गया? उस को हंसते देख कर राशि ने चाय का प्याला उठाया और मुंह से लगा कर टेबल पर रखते हुए हंस कर बोली, ‘‘बहुत अच्छी चाय बनी है. रुचि… जरा देख तो चाय पी कर.’’

रुचि ने चाय का स्वाद लिया और वह भी मौसी से चिपट कर हंस पड़ी. बरबस दौलत ने चाय का स्वाद लिया तो बोल पड़ा, ‘‘धत् तेरे की, यह दौलत का बच्चा भी किसी काम का नहीं. इतनी मीठी चाय…’’ उस ने सभी कप उठाए और रसोई की ओर चल दिया.

पीछे से माला रसोई में पहुंची, ‘‘हटिए, जीजाजी, आप जैसी हरीभरी चाय मैं तो फिलहाल नहीं बना पाऊंगी, पर नीरस चाय ही सही, मैं ही बनाती हूं,’’ कह कर माला हंस पड़ी.

दौलत ने सोचा था कि सभी को नाश्ता तैयार कर के सरप्राइज दे. पर पांसे उलटे ही पड़ गए लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ. काफी दिनों बाद शक में जी रही राशि आज जी भर कर हंसी तो…

पेट में दर्द के चलते दौलत ने राशि को अस्पताल में भरती करवाया और माला को अस्पताल में रातदिन रुकना पड़ा. दूसरे दिन मौसी आ गई थीं, सो यह काम उन्होंने ले लिया और माला को घर भेज दिया. घर में भोजन की व्यवस्था करतेकरते माला को दौलत के करीब आने व बहकने के मौके मिले. जवान लड़की घर में हो…संगसाथ, एकदूसरे को कुछकुछ छूना और छूने की हद पार कर जाना, फिर अच्छेबुरे से बेपरवाह एक कदम और…बस…एक और कदम ही दौलत और माला के करीब लाया.

दौलत ने और करीब आ कर माला को अपनी बांहों में भींच कर गाल पर चुंबन जड़ दिया. माला लाज से सिहर उठी साथ ही भीतर से दहक गई. दौलत ने भी माला की सिहरन व दहक महसूस की.

दौलत एक बार तो तड़प उठा पर… ‘‘सौरी, मालाजी,’’ कह कर झटके से दूर हो चुका था और कान पकड़ कर माफी मांगने लगा, ‘‘सौरी, अब कभी नहीं. किसी हालत में नहीं. मैं भूल गया था कि हमारे बीच में क्या रिश्ता है,’’ और फिर नजर झुका कर वह बाहर चला गया था.

मर्द का स्पर्श पा कर देह के भीतर स्वर्गिक एहसास से माला तड़प गई थी, शायद कुछ अधूरा रह गया था जो अब पूरा न हुआ तो वह बराबर छटपटाती रहेगी. काश, यह अधूरापन समाप्त हो जाए. काश, एक कदम और…

उस एक कदम और…के परिणाम अब माला की सोच के बाहर थे. उस को दुनियादारी की चिंता नहीं रही. उसे सुधबुध थी तो सिर्फ यह कि यह अधूरापन अब वह नहीं सह पाएगी. अब उसे हर कीमत पर दौलत का स्पर्श चाहिए. भले ही उसे कई मौत मरना पड़े. वह तकिए को वक्ष के नीचे भींच कर पलंग पर औंधी पड़ी छटपटाती रही.

अस्पताल की कैंटीन में मौसी को लंच करवा कर दौलत काफी देर रुका. डाक्टर ने तो सब सामान्य बताया, इसलिए उस की खुशी का ठिकाना न था. अगले दिन आपरेशन की तारीख थी. आपरेशन को ले कर दौलत व राशि संदेहजनक स्थिति से गुजर रहे थे.

रात को घर आ कर दौलत रुचि और माला के साथ खाना खा कर अपने कमरे में सोने की कोशिश कर रहा था और माला अपने कमरे में. दौलत सोच रहा था कि माला ने आपत्ति नहीं जताई तो क्या…पर अब वह उस के लिए सम्माननीय व्यक्ति नहीं रहा. अपने ही घर में उसे माला जैसी मेहमान की इज्जत के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए थी. हर अगले कदम के भलेबुरे के बारे में उसे अवश्य सोच लेना चाहिए.

मुश्किल से दौलत को उनींदी हालत में रात काटनी पड़ी. पुरुष हो कर इतना भलाबुरा सोच ले तो वह वाकई पुरुष है. बहक कर संभल चुके पुरुष को चट्टान समझ कर उलटे पांव वापस लौट जाए वही समझदार स्त्री है. जमीर सभी का सच बोलता है, परंतु उस जमीर के सच को सुनने वाले दौलत जैसे पुरुष विरले ही होते हैं.

माला तो करवटें बदलबदल कर अपने गदराए यौवन को दौलत के हाथ सौंपना चाहती थी पर कैसे? क्या यह संभव था? दौलत माफी मांग कर माला से नजदीकी समाप्त कर चुका है. परंतु माला में एक ही चाहत पल रही थी कि वह अपना सबकुछ दौलत को सौंप दे.

माला अब अपनी देह की दास थी. छटपटा कर वह कब उठ कर कमरे से निकली और कब दौलत की चादर में धीरे से घुस कर लेट गई, उसे पता ही नहीं चला. पर आहट पाते ही दौलत उठ कर बैड के नीचे उतर कर धीमे स्वर में बोल पड़ा, ‘‘माला, मैं ने तुम से माफी मांगी है. इस माफी का सम्मान करो. मैं तुम्हारे, राशि, रुचि, इस घरौंदे के भविष्य को धोखा नहीं दे सकता. देखो, भूल जब समझ में आ जाए, त्याग देनी चाहिए. तुम जानती हो कि जिस इच्छापूर्ति के लिए तुम पहल कर रही हो, इस से कितनी जिंदगियां बरबाद हो सकती हैं…जिन में एक जिंदगी तुम्हारी भी है? मौसीजी जानेंगी, तब क्या होगा? और राशि जानेगी तो पता है?…वह मर जाएगी जिस की जिम्मेदार तुम भी बनोगी. चलो, अब अपने कमरे में जाओ और मेरी साली साहिबा की तरह बरताव करो. तुम अपनी इस देह को और अपने स्त्रीत्व को अपनी सुहागरात के लिए बचा कर रखो. ऐसी जल्दी न करो कि अपने पति के लिए यह तोहफा गंवा कर अंतिम सांस तक आत्मग्लानि के बोझ से दब कर आनंद न पा सको और न ही पति को दे सको.

‘‘हमारे बीच जीजासाली का रिश्ता है, इस रिश्ते का सम्मान करो. मैं गलत हूं, मैं ने अपना कदम पीछे हटाया तो तुम भी अपने को गलत मान कर अपने कदम पीछे हटा लो. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहा जाता. मैं भूल कर लौट आया. इसी तरह तुम भी लौट जाओ और अपनी जिंदगी के साथ तमाम जिंदगियों को तबाह होने से बचाओ.’’

माला चुप नहीं रह सकी, वह बोल पड़ी, ‘‘जीजाजी, रिश्तों का मैं क्या करूं? अहम बात तो यह है कि मेरे शरीर में आग आप ने लगाई है, इसे बुझाने के लिए कहां जाऊं? किस घाटी में कूद जाऊं?’’

दौलत ने माला की मंशा को स्पष्ट किया, ‘‘तुम गलत हो, माला.’’

माला जिद कर बोली, ‘‘मैं गलतसही की बात नहीं करती. मैं तो सिर्फ जानती हूं कि आप मुझे मेरी ही देहाग्नि से जला कर राख कर देना चाहते हो. मैं अपनी इस देहाग्नि को बरबाद नहीं होने दूंगी और न ही इसे और ज्यादा छटपटाने दूंगी.’’

‘‘मुझे पता नहीं था कि तुम इतनी जिद्दी और महत्त्वाकांक्षी हो कि अपना तो अपना, सारे परिवार, समाज की हदें पार करने पर तुल जाओगी. क्या तुम्हें समझ में नहीं आ रहा है कि जो तुम करने वाली हो वह कितना बुरा है?’’ दौलत ने समझाने की कोशिश की और उस की बांह पकड़ कर बच्चों की तरह खींच कर उस के कमरे में ले गया और बोला, ‘‘कुछ लाज हो तो यह नादानी छोड़ दो और अच्छी औरत की तरह पेश आओ. जो तुम चाहती हो वह पति के साथ किया जाता है.’’

बात टल गई…पर माला रात भर नहीं सोई. आंखें सूज कर लाल हो गईं और उस के चेहरे पर रंगत की जगह अधूरेपन की बेचैनी झलक रही थी जैसे वह कुछ भी कर सकती है.

अगले दिन आपरेशन की वजह से दौलत अस्पताल में रहा और दोपहर बाद माला भी पहुंच गई. आपरेशन सफलतापूर्वक हो गया और बेहोश राशि बाहर आ गई. कुछ घंटों बाद दौलत बेटे को देख कर खुशी से उछल पड़ा था. इस अवसर पर माला भी नवजात बहनौते को गोदी में ले कर राशि के चेहरे पर तब तक नजर गड़ाए रही जब तक कि उसे यह समझ में नहीं आ गया कि राशि और उस के नवजात शिशु का मासूम चेहरा उस से किस तरह प्यार के हकदार हैं. कुछ पल सोचने के बाद पिछली रात तक उस के मन पर पला ज्वार आंखों के रास्ते बह चला. आंखों में रोशनी लौटी तो माला ने अपने आंसू पोंछ कर नवजात बहनौते को इस प्रकार से चूमा जैसे कह रही हो कि अरे, फूल की पंखुड़ी से बच्चे आज तुझे देख कर मेरा मन भी फूल सा हलका हो गया है.

निर्णय : अफरोज ने क्या माना बड़ों का फैसला

जब से अफरोज ने वक्तव्य दिया था, पूरे महल्ले और बिरादरी में बस, उसी की चर्चा थी. एक ऐसा तूफान था, जो मजहब और शरीअत को बहा ले जाने वाला था. वह जाकिर मियां की चौथे नंबर की संतान थी. 2 लड़के और उस से बड़ी राबिया अपनेअपने घरपरिवार को संभाले हुए थे. हर जिम्मेदारी को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया था और अब अफरोज की विदाई के बारे में सोच रहे थे.

लेकिन अचानक उन की पुरसुकून सत्ता का तख्ता हिल उठा था और उस के पहले संबंधी की जमीन पर उन्होंने अपनी नेकनीयती और अक्लमंदी का सुबूत देते हुए वह बीज बोया था, जो अब पेड़ बन कर वक्त की आंधी के थपेड़े झेल रहा था. उन के बड़े भाई एहसान मियां उसी शहर में रहते थे. हिंदुस्तानपाकिस्तान बनने के वक्त हुए दंगों में उन का इंतकाल हो गया था. वह अपने पीछे अपनी बेवा और 1 लड़के को छोड़ गए थे. उस वक्त हारून 8 साल का था. तभी पति के गम ने एहसान मियां की बेवा को चारपाई पकड़ा दी थी.

उन की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी. उस हालत में भी उन्हें अपनी चिंता नहीं थी. चिंता थी तो हारून की, जो उन के बाद अनाथ हो जाने वाला था. कितनी तमन्नाएं थीं हारून को ले कर उन के दिल में. सब दम तोड़ रही थीं.

उन की बीमारी की खबर पा कर जाकिर मियां खानदान के साथ पहुंच गए थे. उन्हें अपने भाई की असमय मृत्यु का बहुत दुख था. उस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि अब भाभीजान भी साथ छोड़ती नजर आ रही थीं. उन के पलंग के निकट बैठे वह यही सोच रहे थे. तभी उन्हें लगा जैसे भाभीजान कुछ कहना चाह रही हैं. भाभीजान देर तक उन का चेहरा देखती रहीं. वह अपने शरीर की डूबती शक्ति को एकत्र कर के बोलीं, ‘वक्त से पहले सबकुछ खत्म हो गया,’ इतना कहतेकहते वह हांफने लगी थीं. कुछ पल अपनी सांसों पर नियंत्रण करती रहीं, ‘मैं ने कितने सुनहरे सपने देखे थे हारून के भविष्य के, खूब धूमधाम से शादी करूंगी…बच्चे…लेकिन…’

‘आप दिल छोटा क्यों करती हैं. यह सब आप अपने ही हाथों से करेंगी,’ जाकिर मियां ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश की थी. ‘नहीं, अब शायद आखिरी वक्त आ गया है…’ भाभीजान चुप हो कर शून्य में देखती रहीं. फिर वहां मौजूद लोगों में से हर एक के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं.

‘सायरा,’ वह जाकिर मियां की बीवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली थीं, ‘तुम लोग चाहो तो

मेरे दिल का बोझ हलका कर सकते हो…’ ‘कैसे भाभीजान?’ सायरा ने जल्दी से पूछा था.

‘मेरे हारून का निकाह मेरे सामने अपनी अफरोज से कर सको तो…’ भाभीजान ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था और आशाभरी नजरों से सायरा को देखने लगी थीं.

सायरा ने जाकिर मियां की तरफ देखा. जैसे पूछ रही हों, तुम्हारी क्या राय है? आखिर आप का भी तो कोई फर्ज है. वैसे भी अफरोज की शादी तो आप को ही करनी होगी. अच्छा है, आसानी से यह काम निबट रहा है. लड़का देखो, खानदान देखो, इन सब झंझटों से नजात भी मिल रही है. ‘इस में सोचने की क्या बात है? हमें तो खुशी है कि आप ने यह रिश्ता मांगा है,’ जाकिर मियां ने सायरा की तरफ देखा, ‘मैं आज ही निकाह की तैयारी करता हूं,’ यह कहते हुए जाकिर मियां उठ खड़े हुए.

वक्त की कमी और भाभीजान की नाजुक हालत देखते हुए अगले दिन ही अफरोज का निकाह हारून से कर दिया गया था. उसी के साथ वक्त ने तेजी से करवट ली थी और भाभीजान धीरेधीरे स्वस्थ होने लगी थीं. वह घटना भी अपने- आप में अनहोनी ही थी.

तब की 6 साल की अफरोज अब समझदार हो चुकी थी. उस ने बी.ए. तक शिक्षा भी पा ली थी. इसी बीच जब उस ने यह जाना था कि बचपन में उस का निकाह अपने ही चचाजाद भाई हारून से कर दिया गया था तो वह उसे सहजता से नहीं ले पाई थी. ‘‘यह भी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल हुआ कि चाहे जैसे और जिस के साथ ब्याह रचा दिया. दोचार दिन की बात नहीं, आखिर पूरी जिंदगी का साथ होता है पतिपत्नी का. मैं जानबूझ कर खुदकुशी नहीं करूंगी. बालिग हूं, मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ अरमान हैं,’’ अफरोज ने बारबार सोचा था और विद्रोह कर दिया था.

जब अफरोज के उस विद्रोह की बात उस के अम्मीअब्बा ने जानी थी तो बहुत क्रोधित हुए थे. ‘‘हम से जनमी बेटी हमें ही भलाबुरा समझाने चली है,’’ सायरा ने मां के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा था, ‘‘तुझे ससुराल जाना ही होगा. तू वह निकाह नहीं तोड़ सकती.’’

‘‘क्यों नहीं तोड़ सकती? जब आप लोगों ने मेरा निकाह किया था, तब मैं दूध पीती बच्ची थी. फिर यह निकाह कैसे हुआ?’’ अफरोज ने तत्परता से बोलते हुए अपना पक्ष रखा था. ‘‘शायद तेरी बात सही हो लेकिन तुझे पता होना चाहिए कि शरीअत के मुताबिक औरत निकाह नहीं तोड़ सकती. हम ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ायालिखाया कि तू अपने फैसले खुद करने लगे. आखिर मांबाप किस लिए हैं?’’ सायरा किसी तरह भी हथियार डालने वाली नहीं थी.

‘‘मैं किसी शरीअतवरीअत को नहीं मानती. आप को आज के माहौल में सोचना चाहिए. कैसी मां हैं आप? जानबूझ कर मुझे अंधे कुएं में धकेल रही हैं. लेकिन मैं हरगिज खुदकुशी नहीं करूंगी. चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े. यह मेरा आखिरी फैसला है,’’ अफरोज पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई थी. अफरोज के खुले विद्रोह के आगे मांबाप की एक नहीं चली थी. आखिर उन्हें इस बात पर समझौता करना पड़ा था कि शहर काजी या मुफ्ती से उस निकाह पर फतवा ले लिया जाए.

शाम को उन के घर बिरादरी भर के लोग जमा हो गए थे. हर शख्स मुफ्ती साहब का इंतजार बेचैनी से कर रहा था.

उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. कुछ ही देर बाद मुफ्ती साहब के आने की खबर जनानखाने में जा पहुंची थी. इशारे में जाकिर मियां ने कुछ कहा और अफरोज को परदे के पास बैठा दिया गया. दूसरी ओर मरदों के साथ मुफ्ती साहब बैठे थे. मुफ्ती साहब ने खंखारते हुए गला साफ किया. फिर बोले, ‘‘अफरोज वल्द जाकिर हुसैन, यह सही है कि हर लड़की को निकाह कुबूल करने और न करने का हक है, लेकिन उस के लिए कोई पुख्ता वजह होनी चाहिए. तुम बेखौफ हो कर बताओ कि तुम यह निकाह क्यों तोड़ना चाहती हो?’’

वह चुप हो कर अफरोज के जवाब का इंतजार करने लगे. ‘‘मुफ्ती साहब, मुझे यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं महसूस हो रही है कि मेरी अपनी मालूमात

और इला के मुताबिक हारून एक काबिल शौहर बनने लायक आदमी नहीं है. ‘‘उस की कारगुजारियां गलत हैं और बदनामी का बाइस है,’’ वह कुछ पल रुकी फिर बोली, ‘‘बचपन में हुआ यह निकाह मेरे अम्मीअब्बा की नासमझी है. इसे मान कर मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोल सकती. बस, मुझे इतना ही कहना है.’’

दोनों तरफ खामोशी छा गई. तभी मुफ्ती साहब बुलंद आवाज में बोले, ‘‘अफरोज के इनकार की वजह काबिलेगौर है. मांबाप की मरजी से किया गया निकाह इस पर जबरन नहीं थोपा जा सकता. निकाह वही जायज है जो पूरे होशहवास में कुबूल किया गया हो. इसलिए यह अपने निकाह को नहीं मानने की हकदार है और अपनी मरजी से दूसरी जगह निकाह करने को आजाद है.’’ मुफ्ती साहब के फतवा देते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था. अपने हक में निर्णय सुन कर, जाने क्यों, अफरोज की आंखों में आंसू आ गए थे.

प्रेम की इबारत : भाग 3

‘‘बडे़ कठोर प्रेमी हैं ये लोग, जिस बेदर्दी से दीवारों पर लिखते हैं, इस से क्या इन का प्रेम अमर हो गया?’’ दीवार के स्वर में अब गुस्सा था.

‘‘ये क्या जानें प्रेम के बारे में?’’ झरोखे ने कहा, ‘‘प्रेम था रानी रूपमती का. गायन व संगीत मिलन, सबकुछ अलौकिक…’’

नर्मदा की पवित्रता की मुसकान उभरी, ‘‘मेरे दर्शनों के बाद रूपमती अपना काम शुरू करती थीं, संगीत की पूजा करती थीं.’’

बिलकुल, या फिर प्रेम का बावलापन देखा है तो मैं ने उस लड़की की काली आंखों में, उस के मुसकराते हुए होंठों में’’, हवा बोली, ‘‘मैं ने कई बार उस के चंदन से शीतल, सांवले शरीर का स्पर्श किया है. मेरे स्पर्श से वह उसी तरह सिहर उठती है जिस तरह पराग के छूने से.’’

चांदनी की किरणों में हलचल होती देख कर हवा ने पूछा, ‘‘कुछ कहोगी?’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ महसूस कर रही हूं उस लड़की व पराग के प्रेम को,’’ किरणों ने कहा.

‘‘मैं ने छेड़ा है पराग के कत्थई रेशमी बालों को,’’ हवा ने कहा, ‘‘उस के कत्थई बालों मेें मैं ने मदहोश करने वाली खुशबू भी महसूस की है. कितनी खुशनसीब है वह लड़की, जिसे पराग स्पर्श करता है, उस से बातें करता है धीमेधीमे कही गई उस की बातों को मैं ने सुना है…देखती रहती हूं घंटों तक उन का मिलन. कभी छेड़ने का मन हुआ तो अपनी गति को बढ़ा कर उन दोनों को परेशान कर देती हूं.’’

‘‘सितार के उस के रियाज को मैं भी सुनता रहता हूं. कभी घंटों तक वह खोया रहेगा रियाज में, तो कभी डूबने लगेगा उस लड़की की काली आंखों के जाल में,’’ झरोखा चुप कब रहने वाला था, बोल पड़ा.

ताड़ के पेड़ों की हिलती परछाइयों से इन की बातचीत को विराम मिला. एक पल के लिए वे खामोश हुए फिर शुरू हो गए, लेकिन अब सोया हुआ जीवन धीरे से जागने लगा था. पक्षियों ने अंगड़ाई लेने की तैयारी शुरू कर दी थी.

दीवार, झरोखा, पर्यटकों के कदमों की आहटों को सुन कर खामोश हो चले थे.

दिन का उजाला अब रात के सूनेपन की ओर बढ़ रहा था. दीवार, झरोखा, हवा, किरण आदि वह सब सुनने को उत्सुक थे, जो नर्मदा की पवित्रता उन से कहने वाली थी पर उस रात कह नहीं पाई थी. वे इंतजार कर रहे थे कि कहीं से एक अलग तरह की खुशबू उन्हें आती लगी. सभी समझ गए कि नर्मदा की पवित्रता आ गई है. कुछ पल में ही नर्मदा की पवित्रता अपने धवल वेश में मौजूद थी. उस के आने भर से ही एक आभा सी चारों तरफ बिखर गई.

‘‘मेरा आप सब इंतजार कर रहे थे न,’’ पवित्रता की उज्ज्वल मुसकान उभरी.

‘‘हां, बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

उन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए पवित्रता ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या तुम सब को नहीं लगता कि महल के इस हिस्से में अभी कहीं से पायल की आवाज गूंज उठेगी, कहीं से कोई धीमे स्वर में राग बसंत गा उठेगा. कहीं से तबले की थाप की आवाज सुनाई दे जाएगी.’’

‘‘हां, लगता है,’’ हवा ने अपनी गति को धीमा कर कहा.

‘‘यहां, इसी महल में गूंजती थी रानी रूपमती की पायलों की आवाज, उस के घुंघरुओं की मधुर ध्वनि, उस की चूडि़यों की खनक, उस के कपड़ों की सरसराहट,’’ नर्मदा की पवित्रता के शब्दों ने जैसे सब को बांध लिया.

‘‘महल के हर कोने में बसती थी वीणा की झंकार, उस के साथ कोकिलकंठी  रानी के गायन की सम्मोहित कर देने वाली स्वर लहरियां… जब कभी बाजबहादुर और रानी रूपमती के गायन और संगीत का समय होता था तो वह पल वाकई अद्भुत होते थे. ऐसा लगता था कि प्रकृति स्वयं इस मिलन को देखने के लिए थम सी गई हो.

‘‘रूपमती की आंखों की निर्मलता और उस के चेहरे का वह भोलापन कम ही देखने को मिलता है. बाजबहादुर के प्रेम का वह सुरूर, जिस में रानी अंतर तक भीगी हुई थी, बिरलों को ही नसीब होता है ऐसा प्रेम…’’

‘‘उन की छेड़छाड़, उन का मिलन, संगीत के स्वरों में उन का खो जाना, वाकई एक अनुभूति थी और मैं ने उसे महसूस किया था.

‘‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि झील में कोई छाया दिख जाएगी और एहसास दिला जाएगी अपने होने का कि प्रेम कभी मरता नहीं. रूप बदल लेता है समय के साथ…’’

‘‘हां, बिलकुल यही सब देखा है मैं ने पराग के मतवाले प्रेम में, उस की रियाज करती उंगलियों में, उस के तराशे हुए अधरों में,’’ झरोखे ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘गूंजती है जब सितार की आवाज तो मांडव की हवाओं में तैरने लगते हैं उस सांवली लड़की के प्रेम स्वर, वह देखती रहती है अपलक उस मासूम और भोले चेहरे को, जो डूबा रहता है अपने सितार के रियाज में,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

‘‘कितना सुंदर लगता था बाजबहादुर, जब वह वीणा ले कर हाथों में बैठता था और रानी रूपमती उसे निहारती थी. कितना अलौकिक दृश्य होता था,’’ नर्मदा की पवित्रता ने बात आगे बढ़ाई.

इस महान प्रेमी को युद्ध और उस के नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो प्रेम से, संगीत से. बाज बहादुर ने युद्ध कौशल में जरा भी रुचि नहीं ली, खोया रहा वह रानी रूपमती के प्रेम की निर्मल छांह में, वीणा की झंकार में, संगीत के सातों सुरों में.

‘‘ऐसे कलाकार और महान प्रेमी से आदम खान ने मांडव बड़ी आसानी से जीत लिया, फिर शुरू हुई आदम खान की बर्बरता इन 2 महान प्रेमियों के प्रति…’’

‘‘कितने कठोर होंगे वे दिल जिन्होंने इन 2 संगीत प्रेमियों को भी नहीं छोड़ा,’’ हवा ने अपनी गति को बिलकुल रोक लिया.

‘‘हां, वह समय कितना भारी गुजरा होगा रानी पर, बाज बहादुर पर. कितनी पीड़ा हुई होगी रानी को,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, ‘‘रानी इसी महल के कक्ष में फूटफूट कर रोई थीं.’’

‘‘आदम खान रानी के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुआ. रानी का कहना था कि वह एक राजपूत हिंदू कन्या है. उस की इज्जत बख्शी जाए…आदम खान ने मांडव जीता पर नहीं जीत पाया रानी के हृदय को, जिस में बसा था संगीत के सुरों का मेल और बाज बहादुर का पे्रम.

‘‘जब आदम खान नियत समय पर रानी से मिलने गया तो उस ने रूपमती को मृत पाया. रानी ने जहर खा कर अमर कर दिया अपने को, अपने प्रेम को, अपने संगीत को.’’

‘‘हां, केवल शरीर ही तो नष्ट होता है, पर प्रेम कभी मरा है क्या?’’ झरोखा अपनी धीमी आवाज में बोला.

तभी दीवार की धीमी आवाज ने वहां छाने लगी खामोशी को भंग किया, ‘‘हर जगह मुझे महसूस होती है रानी की मौजूदगी, कितना कठोर होता है यह समय, जो गुजरता रहता है अपनी रफ्तार से.’’

‘‘पराग, वह लंबा लड़का, जो रियाज करने आता है और उस के साथ आती है वह सुंदर आंखों वाली लड़की. मैं ने उस की बोलती आंखों के भीतर एक मूक दर्द को देखा है. वह कहती कुछ नहीं, न ही उस लड़के से कुछ मांगती है. बस, अपने प्रेम को फलते हुए देखना चाहती है,’’ झरोखा बोला.

‘‘हां, बिलकुल सही कह रहे हो. प्रेम की तड़प और इंतजार की कसक जो उस के अंदर समाई है वह मैं ने महसूस की है,’’ हवा ने अपने पंख फैलाए और अपनी गति को बढ़ाते हुए कहा, ‘‘उस के घंटों रियाज में डूबे रहने पर भी लड़की के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. वह अपलक उसे निहारती है. मैं जब भी पराग के कोमल बालों को बिखेर देती हूं, वह अपनी पतलीपतली उंगलियों से उन को संवार कर उस के रियाज को निरंतर चलने देती है.’’

‘‘सच, कितनी सुंदर जोड़ी है. मेरे दामन में कभी इस जोड़ी ने बेदर्दी से अपना नाम नहीं खुरचा. अपनी उदासियों को ले कर जब कभी वह पराग के विशाल सीने में खो जाती है तो दिलासा देता है पराग उस बच्ची सी मासूम सांवली लड़की को कि ऐसे उदास नहीं होते प्रीत…’’ दीवार ने कहा.

‘‘यों ही प्रेम अमर होता है, एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम खामोशी से सफर तय करता है,’’ झरोखा बोला.

हवा ने अपनी गति अधिक तेज की. बोली, ‘‘मैं उसे देखने फिर आऊंगी, समझाऊंगी कि ऐ सुंदर लड़की, उदास मत हो, प्रेम इसी को कहते हैं.’’

खामोशी का साम्राज्य अब थोड़ा मंद पड़ने लगा था, सुबह की किरणों ने दस्तक देनी शुरू जो कर दी थी.

भावनात्मक सुरक्षा : कविता को किसकी याद आ रही थी

मुकेशआज भी अनमना सा था. जब वेटर बिल ले कर आया तो उस के चेहरे पर काफी परेशानी उभर आई. कविता इस बात को समझ सकती थी. हमारे पुरुषप्रधान समाज में यदि स्त्री भुगतान करे तो इसे खराब माना जाता है. हमारे पुरुषप्रधान समाज में ही क्यों शायद सारी दुनिया में इसे अपमानजनक माना जाता है.

कविता को स्कूल के दिन याद आ गए जब वे एक कहानी पढ़ा करती थी लंचियों. इस में एक 40 वर्षीय महिला लेखक विलियम सोमरसेट की दीवानी थी. वह लेखक से एक बड़े रैस्टोरैंट में मिलने की इच्छा व्यक्त करती है. रैस्टोरैंट में दोनों लंच के लिए पहुंचते हैं.

विलियम को बिल की चिंता होती है क्योंकि महिला के द्वारा बिल का भुगतान किया जाना अपमानजनक होता और विलियम के पास ज्यादा पैसे नहीं थे. महिला काफी महंगी खानेपीने की चीजें मंगवाती जाती है और विलियम का दिल धड़कता रहता है.

अंत में स्थिति यह होती है कि उस के पास टिप देने को बहुत कम रकम बचती है और अगले कुछ दिनों के लिए उस के पास कुछ भी नहीं बचता है. यद्यपि यह कहानी हास्य का पुट लिए हुए थी पर यह संदेश तो था ही उस में कि पुरुष के होते महिला के द्वारा बिल का भुगतान करना या बिल शेयर करना ठीक नहीं माना

जाता था.

मगर मुकेश उस के साथ ऐसा क्यों महसूस करता है वह समझ नहीं पाती थी. आखिर वह उस का बौयफ्रैंड था. कई वर्षों से दोनों साथ थे. सुख में भी और दुख में भी. यह ठीक है कि उस की आमदनी कुछ कम थी. वैसे वह उम्र में भी उस से 2 वर्ष छोटा था और जौब भी उस के बाद ही शुरू की थी. परंतु जब इस में उसे कोई परेशानी नहीं थी तो आखिर मुकेश क्यों इतना गंभीर हो जाता था छोटीछोटी बातों पर?

मुकेश का मूड देख कविता ने इस बारे में बात करना मुनासिब नहीं समझ. इधरउधर की बातें कर के उस ने उस से विदा ली. पर यह बात उसे मथती रही. आज वे मित्र हैं कल पतिपत्नी होंगे. उस समय भी यदि मुकेश इसी प्रकार व्यवहार करेगा तो क्या आसान होगी जीवन की यात्रा?

क्या करे वह कुछ समझ नहीं पा रही थी. कहीं मुकेश के मन में हीनभावना न आती जाए और वह उसे छोड़ कर चला न जाए. वह उसे बहुत चाहती थी और उस के साथ जीवन बिताना चाहती थी. पर उस के इस व्यवहार से उस के मन में आशंका होती थी कि कहीं यह रिश्ता दरक न जाए.

कौन इस समस्या से उसे छुटकारा दिला सकता है? कई नाम उस के जेहन में आए जिन से वह चर्चा करने पर विचार कर सकती थी. पर अधिकांश लोगों से बात करने में उसे संदेह था कि लोग उस की खिल्ली न उड़ाएं. ‘रहिमन निज मन की व्यथा मन में राखो गोय, सुनी अठिलइन्हें  लोग सब बांट न लइन्हें कोय,’ उस के जेहन में रहीमदास की पंक्तियां गूंज गईं.

उस के मन में सुजीत का खयाल आया. वह उस का सहकर्मी था और बड़े ही सुलझे विचारों का था. उस से यह सलाह ली जा सकती है. औफिस में आधे घंटे का लंच होता था. वह सुजीत के साथ लंच लेते हुए बात कर सकती थी. वह उस की उलझन सुन हंसेगा नहीं और अपनी तरफ से सही सलाह भी देगा.

दूसरे दिन औफिस पहुंचते ही उस ने इंटरकौम से सुजीत का नंबर मिलाया.

डिस्प्ले पर कविता का नंबर देख सुजीत ने रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘हाय कविता.’’

‘‘हाय, कैसे हो सुजीत?’’ कविता ने पूछा.

‘‘चकाचक, मस्ती, झकास,’’ हमेशा की तरह सुजीत का जवाब था. कितनी भी परेशानी में क्यों न हो उस का यही जवाब होता था. वह कहता भी था, स्थिति जो भी हो जवाब यही होना चाहिए. यदि रोने बैठ जाओगे तो कोई हाल भी नहीं पूछेगा.

‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं पर पूरी तरह नहीं. कुछ उलझन है, तुम से निष्पक्ष सलाह चाहिए,’’ कविता ने कहा.

‘‘सलाह? अरे यह तो थोक के भाव कोई भी दे सकता है अपने देश में,’’ सुजीत ने हंस कर कहा, ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे.’’

‘‘मुझे पता है. पर मैं किसी सुलझे विचारों वाले व्यक्तिसे ही सलाह लेना चाहती हूं और वह भी थोक के भाव से नहीं. संक्षिप्त और गूढ़ सलाह और मेरे खयाल से तुम सही व्यक्तिहो.’’ कविता ने कहा.

‘‘बड़ी खुशी हुई कि मुझे इस लायक समझ गया. फरमाइए?’’ सुजीत ने कहा.

‘‘अभी नहीं. आज लंच तुम्हारे पास बैठ कर करूंगी और उसी समय बात भी करूंगी.’’

‘‘स्वागत है आप का. ठीक डेढ़ बजे मिलते हैं,’’ सुजीत ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कविता ने कहा और फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

डेढ़ बजे कविता सुजीत के कैबिन में टिफिन बौक्स ले कर पहुंची. वह जानती थी कि सुजीत भी घर से लंच लाता है. फिर उस का कैबिन थोड़ा बड़ा भी था और वहां वह अकेला बैठता था. अत: बात करने में सुविधा भी थी.

दोनों ने एकदूसरे के टिफिन बौक्स से खाद्यसामग्री मिलबांट कर खाई और फिर हाथ धो कर दोनों बातचीत करने बैठ गए.

‘‘क्या बात है?’’ सुजीत ने पूछा.

‘‘मुकेश को तो तुम जानते हो.’’

‘‘हां. तुम्हारा दोस्त.’’

‘‘दोस्त से कुछ ज्यादा… होने वाला जीवनसाथी.’’

‘‘मामला क्या है?’’

‘‘वह मुझ से 2 वर्ष छोटा है. जौब मेरे बाद शुरू की है. मेहनती भी बहुत ज्यादा नहीं है. थोड़ा कम व्यावहारिक भी है. अत: वेतन कम पाता है. स्वाभाविक है हम कहीं साथ होते हैं तो ज्यादातर खर्च मैं ही करती हूं. मुझे कोई आपत्ति भी नहीं है. पर वह इसे अपमानजनक मानता है. मैं उसे खोना नहीं चाहती. मैं क्या करूं?’’ कविता ने एक ही सांस में अपनी बात रख दी.

‘‘हूं, मामला पेचीदा है,’’ सुजीत ने कहा और फिर सोच में डूब गया.

थोड़ी देर सोचने के बाद बोला, ‘‘देखो वह जब तक आर्थिक रूप से समर्थ नहीं हो जाता उस का ऐसा व्यवहार स्वाभाविक है. आखिर वर्षों से जड़ जमाए पितृसत्तात्मक व्यवस्था का हिस्सा है वह. दूसरा उपाय यह है कि वह भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करे. आर्थिक रूप से समर्थ तो वह अपनी मेहनत और लगन से ही हो सकता है. इस में तुम ज्यादा कुछ नहीं कर सकती. हां भावनात्मक सुरक्षा तुम उसे दे सकती हो. तुम उस से बात करती रहो और बताओ कि तुम ज्यादा क्यों कमाती हो. पहली बात तुम उस से पहले से जौब कर रही हो. दूसरा तुम काफी मेहनत करती हो. तुम उस के साथ लगातार बात करती रहो और उसे समझती रहो. उसे बताओ कि जमाना बदल रहा है. अब पतिपत्नी साथसाथ काम कर रहे हैं. घर का भी, बाहर का भी.

‘‘अब संयुक्त परिवारों का समय नहीं रहा जब महिलाओं को घर के अंदर और पुरुषों को घर के बाहर काम करना होता था. अब वह समय नहीं रहा जब घर में कई महिलाएं होती थीं और कई पुरुष होते थे. महिलाएं आपस में काम बांटती थीं और पुरुष आपस के. अब परिवार में पतिपत्नी और बच्चे होते हैं. पतिपत्नी को ही मिल कर परिवार चलाना होता है. कोई बड़ा नहीं कोई छोटा नहीं होता. दोनों बराबर होते हैं और अपनी क्षमता के अनुसार कमाते हैं और घर का काम करते हैं. उसे बताओ कि तुम्हें उस की कम आमदनी से कोई परेशानी नहीं है.’’

‘‘ठीक कह रहो हो. मैं उस से बात करूंगी थैंक्यू,’’ कविता ने कहा और टिफिन बौक्स ले कर अपने कैबिन में वापस आ गई.

अगली बार जब कविता मुकेश से मिली तो उस ने कहा, ‘‘एक बुरी खबर सुनानी है.’’ ‘‘क्या?’’ मुकेश चौंका.

‘‘हो सकता है मेरी जौब चली जाए और मुझे कहीं अभी से आधी सैलरी पर काम करना पड़े. कहीं तुम मेरा साथ छोड़ तो नहीं दोगे?’’

‘‘कैसी बात करती हो? क्या मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी सैलरी के लिए जुड़ा हूं? मैं प्यार करता हूं तुम से. आधी सैलरी तो छोड़ो, बगैर सैलरी के भी रहोगी तो हम मिलजुल कर गुजारा कर लेंगे. अभी मेरी सैलरी कम है तो क्या तुम मुझे छोड़ कर चली गई?’’ मुकेश ने कहा.

‘‘नहीं और कभी जाऊंगी भी नहीं. पर तुम कभीकभी ऐसा व्यवहार क्यों करते हो जब कभी मैं बिल का भुगतान करती हूं,’’ कविता ने कहा.

‘‘वह… वह… वह…’’ मुकेश कुछ बोल नहीं पाया. शायद उसे पता भी नहीं था कि उस की प्रतिक्रिया से कविता वाकिफ है.

‘‘देखो मुकेश, जिंदगी में कभी मैं ज्यादा कमाऊंगी कभी तुम ज्यादा कमाओगे. इस से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. अब मैं और तुम, हम बनने वाले हैं. इन छोटीछोटी बातों को बीच में मत आने दिया करो.’’

मुकेश के चेहरे पर अनिश्चिंतता के भाव थे. शायद वह पूरी तरह सहमत नहीं हो पा रहा था. बाद में भी मुकेश का व्यवहार वैसा ही बना रहा. स्थिति तब और बुरी हो गई जब लौकडाउन के चलते पहले तो उसे वर्क फ्रौम होम का और्डर दिया गया और बाद में उसे जौब से ही हटा दिया गया.

मुकेश कोशिश करता रह गया कहीं काम पाने की पर सफल नहीं हो पाया. धीरेधीरे वह निराशा के गर्त में डूबता चला गया. अब उसे कविता से बारबार पैसे लेने पड़े. इस शहर में उस का और कोई ऐसा नहीं था जिस से वह सहायता ले पाता और घर वाले तो उस पर ही आश्रित थे. उन से वह कुछ मांग नहीं सकता था. कोढ़ में खाज की तरह वह कोरोना से संक्रमित हो गया. वह भी तब, जब सबकुछ सुधरता नजर आ रहा था. एक कंपनी से उस की बात भी हो गई थी और बहुत बढि़या पैकेज पर उसे जौब मिल रही था.

पहले तो हलका बुखार ही था पर जब उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी तो  अस्पताल जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. उस ने कविता को बताया कि वह अस्पताल जाने वाला है तो कविता उस के पास आ गई.

‘‘इस बीमारी में पास नहीं आते कविता. दूर ही खड़ी रहो और वापस जाओ,’’ दरवाजा खोलने के साथ ही उस ने कहा.

‘‘पूरी सावधानी के साथ आई हूं मुकेश. यह देखो मास्क, सैनिटाइजर मेरे बैग में हमेशा रहते हैं. तुम्हें अस्पताल में एडमिट करवा कर वापस आऊंगी तो स्नान कर लूंगी,’’ कविता ने कहा.

‘‘मेरे कारण तुम भी संक्रमित हो जाओगी,’’ मुकेश ने थोड़ी नाराजगी से कहा.

‘‘बीमारी कोई भी हो, अपने तो अपने के काम आएंगे. पूरी सावधानी बरतूंगी. अगर फिर भी संक्रमित होना होगा तो हो जाऊंगी, पर तुम्हें अकेले कैसे छोड़ दूं,’’ कविता ने कहा और उसे किनारे होने का इशारा कर अंदर चली आई.

मुकेश लाख समझता रहा पर कविता नहीं मानी. उसे ले कर अस्पताल गई.

डाक्टर ने चैक कर कहा, ‘‘शारीरिक से ज्यादा मानसिक परेशानी है आप की. बहुत ही मामूली संक्रमण है. अस्पताल में भरती होने की आवश्यकता नहीं है. घर पर ही क्वारंटाइन रहें और जो दवाएं लिख रहा हूं उन्हें लेते रहें, जो ऐक्सरसाइज बता रहा हूं वे करते रहें, समयसमय पर भाप लेते रहें.’’

कविता कुछ दिनों के लिए मुकेश के ही फ्लैट में आ गई. उस ने उस का पूरापूरा खयाल रखा. समय पर खानापानी देना, दवा देना, भाप देने की व्यवस्था आदि सबकुछ और साथ ही घर से ही कंपनी का काम भी करती रही.

मुकेश कुछ ही सप्ताह में पूरी तरह स्वस्थ हो गया. धीरेधीरे बात उस की समझ में आ गई कि साथी का क्या मतलब होता है. अब उसे जौब भी मिल गई. अब उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि बिल का भुगतान कविता करती है या वह.

कविता की निस्स्वार्थ सेवा ने उस के मन में भावनात्मक सुरक्षा भर दी थी और अब वे दोनों सुखी दांपत्य जीवन के पथ पर चलने के लिए तैयार थे.

ड्रीम डेट- भाग 1 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

सच तो यह है कि आरव से मिलना ही एक ड्रीम है और जब उस डे और डेट को अगर सच में एक ड्रीम की तरह से बना लिया जाए तो फिर सोने पर सुहागा. हां, यह वाकई बेहद रोमांटिक ड्रीम डेट थी, मैं इसे और भी ज्यादा रोमांटिक और स्वप्निल बना देना चाहती थी. कितने महीनों के बाद हमारा मिलना हुआ था. एक ही शहर में साथसाथ जाने का अवसर मिला था. कितनी बेसब्री से कटे थे हमारे दिनरात, आंसूउदासी में. आरव को देखते ही मेरा सब्र कहीं खो गया. मैं उस पब्लिक प्लेस में ही उन के गले लग गई थी. आरव ने मेरे माथे को चूमा और कहा, ‘‘चलो, पहले यह सामान वेटिंगरूम में रख दें.’’

‘‘हां, चलो.’’

मैं आरव का हाथ पकड़ लेना चाहती थी पर यह संभव नहीं था क्योंकि वे तेजी से अपना बैग खींचते हुए आगेआगे चले जा रहे थे और मैं उन के पीछेपीछे.

‘‘बहुत तेज चलते हो आप,’’ मैं नाराज सी होती हुई बोली.

‘‘हां, अपनी चाल हमेशा तेज ही रखनी चाहिए,’’ आरव ने समझने के लहजे में मुझ से कहा.

‘‘अरे, यहां तो बहुत भीड़ है,’’ वे वेटिंगरूम को देखते हुए बोले. लोगों का सामान और लोग पूरे हौल में बिखरे हुए से थे.

‘‘अरे, जब आजकल ट्रेनें इतनी लेट हो रही हैं तो यही होना है न,’’ मैं कहते हुए मुसकराई.

‘‘कह तो सही ही रही हो. आजकल ट्रेनों का कोई समय ही नहीं है,’’ वे मुसकराते हुए बोले.

मेरी मुसकान की छाप उन के चेहरे पर भी पड़ गई. ‘‘फिर कैसे जाएं, क्या घर में बैठें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं भई, आराम से फ्लाइट से जाओ,’’ उन्होंने जवाब दिया.

‘‘यह भी सही है, आजकल फ्लाइट का सफर राजधानी ऐक्सप्रैस से सस्ता है.’’

वे हंसे, ‘‘बिलकुल ठीक कहा. कुछ समय बाद देखना, फ्लाइट वाले जोरजोर से आवाजें लगाएंगे. आओ, आओ, एक सीट बची है यहां की, वहां की. जैसे बस वाले लगाते हैं.’’

उन की बात सुन कर मैं भी जोर से हंस दी.

इसी तरह से मुसकराते, बतियाते हुए लेडीज वेटिंगरूम आ गया था. किसी तरह से उस में अपने सामान के साथ उन का सामान सैट किया.

‘‘चलो, अब बाहर चलते हैं, यहां बैठना तो बड़ा मुश्किल है. लेकिन बाहर सर्दी लगेगी.’’

‘‘नहीं, कोई सर्दीवर्दी नहीं. आओ,’’ वे मेरा हाथ पकड़ते हुए बोले.

मैं किसी मासूम बच्चे की तरह उन का? हाथ पकड़े बाहर की तरफ चलती चली गई.

‘‘चलो आओ, पहले तुम्हें यहां की फेमस चाय की दुकान से चाय पिलवाता हूं.’’

‘‘आप को यहां की चाय की दुकानें पता हैं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं पता होंगी, क्या मैं यहां से कहीं आताजाता नहीं?’’

मैं जवाब में सिर्फ मुसकराई.

‘‘सुन भई, जरा 2 बढि़या सी चाय ले कर आओ,’’ उन्होंने वहां पहुंचते ही अपनी ठसकभरी आवाज में और्डर दिया.

कितने अपनेपन से कहा, जैसे जाने कब से उसे जानते हैं. वे शायद मेरे मन की भाषा समझ गए थे.

‘‘अरे, यह अपना यार है, बहुत ही बढि़या चाय बनाता है. मैं तो पहले कई बार सिर्फ चाय पीने के लिए ही यहां चला आता था.’’

वे बोल रहे थे और मैं उन के चेहरे को देख रही थी. न जाने कुछ खोज रही थी या उस चेहरे को अपनी आंखों में और भी ज्यादा भर लेना चाहती थी.

चाय मेज पर रख कर जाते हुए लड़के ने पूछा, ‘‘कुछ और भी चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यहां की चाय से ही तृप्त हो जाता हूं.’’

 

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