नजरिया- भाग 2: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

15 दिन और बीत गए. आशी की सास रोज घर में आशी के बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिए कहतीं. निखिल की बहन भी फोन कर निखिल को समझाती कि आजकल तो उन की जातबिरादरी में सभी गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लेते हैं ताकि यदि गर्भ में कन्या हो तो छुटकारा पा लिया जाए.

पहले तो निखिल को ये सब बातें दकियानूसी लगीं, पर फिर धीरेधीरे उसे भी लगने लगा कि यदि सभी ऐसा करवाते हैं, तो इस में बुराई भी क्या है?

उस दिन आशी अचानक फिर से मेरे घर आई. इधरउधर की बातों के बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसा महसूस करती हो अब? मौर्निंग सिकनैस ठीक हुई या नहीं? अब तो 4 महीने हो गए न?’’

‘‘ऋचा क्या बताऊं. आजकल न जाने निखिल को भी क्या हो गया है. कुछ सुनते ही नहीं मेरी. इस बार जब चैकअप के लिए गई तो डाक्टर से बोले कि देख लीजिए आप. पहले ही हमारी 2 बेटियां हैं, इस बार हम बेटी नहीं चाहते. ऋचा मुझे बहुत डर लग रहा है. अब तक तो बच्चे में धड़कन भी शुरू हो गई है… यदि निखिल न समझे और फिर से लड़की हुई तो कहीं मुझे गर्भपात न करवाना पड़े,’’ वह रोतेरोते कह रही थी, ‘‘नहीं ऋचा यह तो हत्या है, अपराध है… यह बच्चा गर्भ में है, तो किसी को नजर नहीं आ रहा. पैदा होने के बाद तो क्या पता मेरी दोनों बेटियों जैसा हो और उन जैसा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है. उस में भी जान तो है. उसे भी जीने का हक है. हमें क्या हक है अजन्मी बेटी की जान लेने का… यह तो जघन्य अपराध है और कानूनन भी यह गलत है. यदि पता लग जाए तो इस की तो सजा भी है. लिंग परीक्षण कर गर्भपात करने वाले डाक्टर भी सजा के हकदार हैं.’’

आशी बोले जा रही थी और उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. मेरी आंखें भी नम हो गई थीं.

अत: मैं ने कहा, ‘‘देखो आशी, तुम्हें यह समय हंसीखुशी गुजारना चाहिए. मगर तुम रोज दुखी रहती हो… इस का पैदा होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है. मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं. यदि निखिल तुम्हारी बात समझ जाए तो शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए… तुम्हें उसे यह समझाना होगा कि यह उस का भी बच्चा है. इस में उस का भी अंश है… एक मूवी है ‘साइलैंट स्क्रीम’ जिस में पूरी गर्भपात की प्रक्रिया दिखाई गई है. तुम आज ही निखिल को वह मूवी दिखाओ. शायद उसे देख कर उस का मन पिघल जाए. उस में सब दिखाया गया है कि कैसे अजन्मे भू्रण को सक्शन से टुकड़ेटुकड़े कर दिया जाता है और उस से पहले जब डाक्टर अपने औजार उस के पास लाता है तो वह कैसे तड़पता है, छटपटाता है और बारबार मुंह खोल कर रोता है, जिस की हम आवाज तो नहीं सुन सकते, किंतु देख तो सकते हैं. किंतु यदि उस के अपने मातापिता ही उस की हत्या करने पर उतारू हों तो वह किसे पुकारे? जब उस का शरीर मांस के लोथड़ों के रूप में बाहर आता है तो बेचारे का अंत हो जाता है. उस का सिर क्योंकि हड्डियों का बना होता है, इसलिए वह सक्शन द्वारा बाहर नहीं आ पाता तो किसी औजार से दबा कर उसे चूरचूर कर दिया जाता है… उस अजन्मे भू्रण का वहीं खात्मा हो जाता है. बेचारे की अपनी मां की कोख ही उस की कब्र हो जाती है. कितना दर्दनाक है… यदि वह भू्रण कुछ माह और अपनी मां के गर्भ में रह ले तो एक मासूम, खिलखिलाता हुआ बच्चा बन जाता है. फिर शायद सभी उसे बड़े प्यार व दुलार से गोद में उठाए फिरें. मुझे ऐसा लगता है कि शायद निखिल इस मूवी को देख लें तो फिर शायद अपनी मां की बात न मानें.

‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं,’’ कह आशी थोड़ी देर बैठ घर चली गई.

मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक औरत पुरुष के सामने इतना विवश क्यों हो जाती है कि अपने बच्चे को जन्म देने में भी उसे अपने पति की स्वीकृति लेनी होती है?

खैर, आशी ने रात को अपने पति निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ मूवी दिखाई. मैं बहुत उत्सुक थी कि अगले दिन आशी क्या खबर लाती है?

अगले दिन जब आशी बेटियों को स्कूल बस में बैठाने आई तो कुछ चहक सी रही थी, जो अच्छा संकेत था. फिर भी मेरा मन न माना तो मैं उसे सैर के लिए ले गई और फिर एकांत मिलते ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ आशी, निखिल तुम्हारी बात मान गए? तुम ने मूवी दिखाई उन्हें?’’

वह कहने लगी, ‘‘हां ऋचा तुम कितनी अच्छी हो. तुम ने मेरे लिए कितना सोचा… जब रात को मैं ने निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ यूट्यूब पर दिखाई तो वे मुझे देख स्वयं भी रोने लगे और जब मैं ने बताया कि देखिए बच्चा कैसे तड़प रहा है तो फूटफूट कर रोने लगे. फिर मैं ने कहा कि यदि हमारे बच्चे का लिंग परीक्षण कर गर्भपात करवाया तो उस का भी यही हाल होगा… अब निखिल ने वादा किया है कि वे ऐसा नहीं होने देंगे. चाहे कुछ भी हो जाए.’’

मैं ने सोचा काश, आशी जो कह रही है वैसा ही हो. किंतु जैसे ही निखिल ने मां को अपना फैसला सुनाया कि चाहे बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाएगा तो उस की मां बिफर पड़ीं. कहने लगीं कि क्या तू ने भी आशी से पट्टी पढ़ ली है?’’

‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.

अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.

आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.

निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’

निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.

इंग्लिश रोज- भाग 1 : क्या सच्चा था विधि के लिए जौन का प्यार

वह आज भी वहीं खड़ी है. जैसे वक्त थम गया है. 10 वर्ष कैसे बीत जाते हैं…? वही गांव, वही शहर, वही लोग…यहां तक कि फूल और पत्तियां तक नहीं बदले. ट्यूलिप्स, सफेद डेजी, जरेनियम, लाल और पीले गुलाब सभी उस की तरफ ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे उस की निगाह को पहचानते हों. चौश्चर काउंटी के एक छोटे से गांव नैनटविच तक सिमट कर रह गई उस की जिंदगी. अपनी आरामकुरसी पर बैठ वह उन फूलों का पूरा जीवन अपनी आंखों से जी लेती है. वसंत से पतझड़ तक पूरी यात्रा. हर ऋतु के साथ उस के चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं, कभी उदासी, कभी मुसकराहट. उदासी अपने प्यार को खोने की, मुसकराहट उस के साथ समय व्यतीत करने की. उसे पूरी तरह से यकीन हो गया था कि सभी के जीवन का लेखाजोखा प्रकृति के हाथ में ही है. समय के साथसाथ वह सब के जीवन की गुत्थियां सुलझाती जाती है. वह संतुष्ट थी. बेशक, प्रकृति ने उसे, क्वान्टिटी औफ लाइफ न दी हो किंतु क्वालिटी औफ लाइफ तो दी ही थी, जिस के हर लमहे का आनंद वह जीवनभर उठा सकेगी.

यह भी तो संयोग की ही बात थी, तलाक के बाद जब वह बुरे वक्त से निकल रही थी, उस की बड़ी बहन ने उसे छुट्टियों में लंदन बुला लिया था. उस की दुखदाई यादों से दूर नए वातावरण में, जहां उस का मन दूसरी ओर चला जाए. 2 महीने बाद लंदन से वापसी के वक्त हवाईजहाज में उस के साथ वाली कुरसी पर बैठे जौन से उस की मुलाकात हुई. बातोंबातों में जौन ने बताया कि रिटायरमैंट के बाद वे भारत घूमने जा रहे हैं. वहां उन का बचपन गुजरा था. उन के पिता ब्रिटिश आर्मी में थे. 10 वर्ष पहले उन की पत्नी का देहांत हो गया. तीनों बच्चे शादीशुदा हैं. अब उन के पास समय ही समय है. भारत से उन का आत्मीय संबंध है. मरने से पहले वे अपना जन्मस्थान देखना चाहते हैं, यह उन की हार्दिक इच्छा है. उन्होंने फिर उस से पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘मैं भारत में ही रहती हूं. छुट्टियों में लंदन आई थी.’’

‘‘मैं भारत घूमना चाहता हूं. अगर किसी गाइड का प्रबंध हो जाए तो मैं आप का आभारी रहूंगा,’’ जौन ने निवेदन करते कहा.

‘‘भाइयों से पूछ कर फोन कर दूंगी,’’ विधि ने आश्वासन दिया. बातोंबातों में 8 घंटे का सफर न जाने कैसे बीत गया. एकदूसरे से विदा लेते समय दोनों ने टैलीफोन नंबर का आदानप्रदान किया. दूसरे दिन अचानक जौन सीधे विधि के घर पहुंच गए. 6 फुट लंबी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, काला ब्लेजर और दर्पण से चमकते जूते पहने अंगरेज को देख कर सभी चकित रह गए. विधि ने भाइयों से उस का परिचय करवाते कहा, ‘‘भैया, ये जौन हैं, जिन्हें भारत में घूमने के लिए गाइड चाहिए.’’

‘‘गाइड? गाइड तो कोई है नहीं ध्यान में.’’

‘‘विधि, तुम क्यों नहीं चल पड़ती?’’ जौन ने सुझाव दिया. प्रश्न बहुत कठिन था. विधि सोच में पड़ गई. इतने में विधि का छोटा भाई सन्नी बोला, ‘‘हांहां, दीदी, हर्ज की क्या बात है.’’

‘‘थैंक्यू सन्नी, वंडरफुल आइडिया. विधि से अधिक बुद्धिमान गाइड कहां मिल सकता है,’’ जौन ने कहा. 2 सप्ताह तक दक्षिण भारत के सभी पर्यटन स्थलों को देखने के बाद दोनों दिल्ली पहुंचे. उस के एक सप्ताह बाद जौन की वापसी थी. जाने से पहले तकरीबन रोज मुलाकात हो जाती. किसी कारणवश जौन की विधि से बात न हो पाती तो वह अधीर हो उठता. उस की बहुमुखी प्रतिभा पर जौन मरमिटा था. वह गुणवान, स्वाभिमानी, साहसी और खरा सोना थी. विधि भी जौन के रंगीले, सजीले, जिंदादिल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई. उस की उम्र के बारे में सोच कर रह जाती. जौन 60 वर्ष पार कर चुका था. विधि ने अभी 35 वर्ष ही पूरे किए थे. लंदन लौटने से 2 दिन पहले, शाम को टहलतेटहलते भरे बाजार में घुटनों के बल बैठ कर जौन ने अपने मन की बात विधि से कह डाली, ‘‘विधि, जब से तुम से मिला हूं, मेरा चैन खो गया है. न जाने तुम में ऐसा कौन सा आकर्षण है कि मैं इस उम्र में भी बरबस तुम्हारी ओर खिंचा आया हूं.’’ इस के बाद जौन ने विधि की ओर अंगूठी बढ़ाते हुए प्रस्ताव रखा, ‘‘विधि, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

विधि निशब्द और स्तब्ध सी रह गई. यह तो उस ने कभी नहीं सोचा था. कहते हैं न, जो कभी खयालों में हमें छू कर भी नहीं गुजरता, वो, पल में सामने आ खड़ा होता है. कुछ पल ठहर कर विधि ने एक ही सांस में कह डाला, ‘‘नहींनहीं, यह नहीं हो सकता. हम एकदूसरे के बारे में जानते ही कितना हैं, और तुम जानते भी हो कि तुम क्या कह रहे हो?’’ ‘‘हांहां, भली प्रकार से जानता हूं, क्या कह रहा हूं. तुम बताओ, बात क्या है? मैं तुम्हारे संग जीवन बिताना चाहता हूं.’’ विधि चुप रही.

जौन ने परिस्थिति को भांपते कहा, ‘‘यू टेक योर टाइम, कोई जल्दी नहीं है.’’ 2 दिनों बाद जौन तो चला गया किंतु उस के इस दुर्लभ प्रश्न से विधि दुविधा में थी. मन में उठते तरहतरह के सवालों से जूझती रही, ‘कब तक रहेगी भाईभाभियों की छत्रछाया में? तलाकशुदा की तख्ती के साथ क्या समाज तुझे चैन से जीने देगा? कौन होगा तेरे दुखसुख का साथी? क्या होगा तेरा अस्तित्व? क्या उत्तर देगी जब लोग पूछेंगे इतने बूढ़े से शादी की है? कोई और नहीं मिला क्या?’ इन्हीं उलझनों में समय निकलता गया. समय थोड़े ही ठहर पाया है किसी के लिए. दोनों की कभीकभी फोन पर बात हो जाती थी एक दोस्त की तरह. कालेज में भी खोईखोई रहती. एक दिन उस की सहेली रेणु ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘विधि, जौन के जाने के बाद तू तो गुमसुम ही हो गई. बात क्या है?’’

‘‘जाने से पहले जौन ने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था.’’

‘‘पगली…बात तो गंभीर है पर गौर करने वाली है. भारतीय पुरुषों की मनोवृत्ति तो तू जान ही चुकी है. अगर यहां कोई मिला तो उम्रभर उस के एहसानों के नीचे दबी रहेगी. उस के बच्चे भी तुझे स्वीकार नहीं करेंगे.

जौन की आंखों में मैं ने तेरे लिए प्यार देखा है. तुझे चाहता है. उस ने खुद अपना हाथ आगे बढ़ाया है. अपना ले उसे. हटा दे जीवन से यह तलाक की तख्ती. तू कर सकती है. हम सब जानते हैं कि बड़ी हिम्मत से तू ने समाज की छींटाकशी की परवा न करते हुए अपने पंथ से जरा भी विचलित नहीं हुई. समाज में अपना एक स्थान बनाया है. अब नए रिश्ते को जोड़ने से क्यों हिचकिचा रही है. आगे बढ़. खुशियों ने तुझे आमंत्रण दिया है. ठुकरा मत, औरत को भी हक है अपनी जिंदगी बदलने का. बदल दे अपनी जिंदगी की दिशा और दशा,’’ रेणु ने समझाते हुए कहा. ‘‘क्या करूं, अपनी दुविधाओं के क्रौसरोड पर खड़ी हूं. वैसे भी, मैं ने तो ‘न’ कर दी है,’’ विधि ने कहा. ‘‘न कर दी है, तो हां भी की जा सकती है. तेरा भी कुछ समझ में नहीं आता. एक तरफ कहती है, जौन बड़ा अलग सा है. मेरी बेमानी जरूरतों का भी खयाल रखता है. बड़ी ललक से बात करता है. छोटीछोटी शरारतों से दिल को उमंगों से भर देता है. मुझे चहकती देख कर खुशी से बेहाल हो जाता है. मेरे रंगों को पहचानने लगा है. तो फिर झिझक क्यों रही है?’’

‘‘उम्र देखी है? 60 वर्ष पार कर चुका है. सोच कर डर लगता है, क्या वह वैवाहिक सुख दे पाएगा मुझे?’’ ‘‘आजमा कर देख लेती? मजाक कर रही हूं. यह समय पर छोड़ दे. यह सोच कि तेरी आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. तेरा अपना घर होगा जहां तू राज करेगी. ठंडे दिमाग से सोचना…’’ ‘‘डर लगता है कहीं विदेशी चेहरों की भीड़ में खो तो नहीं जाऊंगी. धर्म, सोच, संस्कृति, सभ्यता, कुछ भी तो नहीं है एकजैसा हमारा. फिर इतनी दूर…’’ ‘‘प्रेम उम्र, धर्म, भाषा, रंग और जाति सभी दीवारों को गिराने की शक्ति रखता है. मेरी प्यारी सखी, प्यार में दूरियां भी नजदीकियां हो जाती हैं. अभी ईमेल कर उसे, वरना मैं कर देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं खुद ही कर लूंगी,’’ विधि ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘डियर जौन,

किसकी मां, किसका बाप- भाग 1 : ससुराल में कैसे हुआ वरुण का स्वागत ?

-मां बाप अकसर इस कहावत ‘आ बैल मुझे मार’ के शिकार हो जाते हैं. पहले तो मुसीबत को बड़े जोश से निमंत्रण देते हैं और फिर परेशान हो कर सिर पटकते हैं. दूरदर्शिता तो दूरदर्शन पर भी नहीं दिखाई देती जो एक आम आदमी के जीवन का अहम हिस्सा बन गई है. अब निशा और वरुण की सगाई तो दोनों के मांबापों ने जल्दबाजी में न केवल कर दी बल्कि अच्छी तरह से ढोल बजा कर की. सारे रिश्तेदारों और महल्ले वालों को मालूम है, यहां तक कि पान वाले और बनिए को भी, जिस के यहां से घर का सामान आता है, मालूम है. नौकरानी रोज अपनी मांगें बढ़ाती जाती है. एक नहीं, 3 साडि़यां, वेतन दोगुना और नेग अलग. जानते हुए भी सब लोग पूछते रहते हैं कि शादी कब हो रही है? शादी के सिवा सब विषयों पर पूर्णविराम लग गया है. मुश्किल यह है कि शादी होने में अभी  7 महीने बाकी हैं. 1-2 महीने तो यों ही गुजर जाते हैं, पर 7 महीने? परिवार वाले तो जब कभी इकट्ठा बैठते हैं, खोखली योजनाओं पर बहस कर लेते हैं. वैसे, होगा तो वही जो होना है, पर 7 महीने का विकराल अंतराल 7 साल सा लगता है. सगाई के साथ ही शादी क्यों न कर दी?

चलिए परिवार वालों को छोडि़ए. किसी ने निशा और वरुण के बारे में भी सोचा है? रोज मिलें और प्रेमवाटिका में विचरण करें तो मुश्किल और कई दिनों तक न मिलें तो विरह के मारे बुरा हाल. सब से बड़ी मुश्किल तो इन लोगों की है. जब सगाई हो जाए और मिलने न दें तो यह परिवार का सरासर अन्याय ही कहा जाएगा. दूसरी ओर मिलने की गति और अवधि दिन पर दिन बढ़ती जाए तो मांबाप का चिंतित होना स्वाभाविक है. विशेषकर लड़की के मांबाप का. बुरा जमाना है, पैर फिसलते देर नहीं लगती. कोई ऊंचनीच हो गई तो जगहंसाई तो होगी ही, मुंह दिखाने योग्य भी न रहेंगे. कहीं रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई तो लड़की तो बस गई काम से. दूसरा कौन पकड़ेगा हाथ?

सगाई के कुछ दिन बाद ही ससुराल से वरुण के लिए दोपहर के भोजन का निमंत्रण आ गया. सासससुर को तो दामाद की खातिरदारी करने का चाव था ही, निशा के बदन में भी वरुण का नाम सुनते ही गुदगुदी होने लगी. वह बारबार घड़ी को देखती. मरी 1 घंटे में भी 1 मिनट ही आगे खिसकती है. वरुण की हालत भी कम खराब नहीं थी. ससुराल जाने लायक कोई कपड़ा समझ में नहीं आ रहा था. अगर सगाई में मिले कपड़े पहनेगा तो सब यही समझेंगे कि बेचारे के पास अपने कोई कपड़े नहीं हैं. अगर अपने पुराने कपड़े पहनेगा तो लगेगा कि जनाब की हालत खस्ता है. अपनी जींस और चैक वाली लालनीली कमीज में लगता तो स्मार्ट है, पर इन कपड़ों में उस का फोटो खिंच चुका है और इस फोटो की एक कौपी ससुराल में बतौर इश्तिहार के पहले ही भेजी जा चुकी है. जहां तक वरुण का अनुमान है, यह फोटो ससुराल के ड्राइंगरूम में बहुत सारे चांद लगा रही है.

हठ कर के मां के गुल्लक में से रुपए निकाले और कुछ अपने जोड़े. बहन की शरारतभरी हंसी से चिढ़ा तो, पर उसे डांट कर चुप कर दिया और नई जींस, कमीज, टौप की जैकेट व गला कसने के लिए एक बहुरंगा स्कार्फ ले आया. काला चश्मा तो उस के पास था. जब आईने में देखा तो आंखों में चमक आ गई. सामने वरुण नहीं, दिलीप कुमार, देव आनंद, आमिर खान, शाहरुख और सैफ अली खान, सब मिला कर एक अनूठा व्यक्तित्व वाला जवां मर्द खड़ा था.

जब चलने लगा तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, जल्दी आ जाना. ससुराल में ज्यादा देर बैठने से इज्जत कम हो जाती है. अपना सम्मान अपने हाथ में है.’’

पिता ने चुटकी ली, ‘‘मेरा उदाहरण ले सपूत. जानता है न मेरा सम्मान कितना करते हैं तेरे मामा लोग?’’

यह मां के लिए बड़ा दुखदायी विषय था. जब से मामियां आई हैं कोई उसे बुलाता तक नहीं है और अब तो यह बात जूते की तरह घिस गई है. शरारती बहन बोली तो कुछ नहीं, बस, सुगंधित परफ्यूम पेश कर दिया. परफ्यूम का नाम था ‘फेटल अट्रैक्शन’ यानी घातक आकर्षण. चुलबुली इतनी है कि गंभीर से गंभीर चेहरा भी खिल जाए. वरुण ने पहले तो घूर कर देखा और फिर मुसकरा कर प्यार से चपत मारने के लिए हाथ उठाया. बहन भाग कर मां के पल्लू में छिप गई. मां की ढाल के आगे सारी तलवारें कुंद हो जाती हैं. सब हंस पड़े, वरुण भी. लगता था कि सब दरवाजे से चिपके खड़े थे. वरुण ने घंटी के बटन पर उंगली रखी ही थी कि दरवाजा अलीबाबा के ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह चर्रचूं करता हुआ खुल गया. सब के चेहरे इतने नजदीक कि नाक से नाक भिड़ जाती अगर वरुण चौंक कर पीछे न हट जाता.

‘‘नमस्कार जीजाजी,’’ एक सामूहिक स्वर जिस में 2 साले और 1 साली की आवाजें शामिल थी. एक साला उधार का था. छुट्टियों में गुलछर्रे उड़ाने के लिए चाची ने भेज दिया था.

‘‘आप लोगों ने तो मुझे डरा ही दिया,’’ वरुण ने झेंपते हुए कहा.

‘‘यह तो सिर्फ नमूना है जीजाजी,’’ शिवानी ने आंखें मिचकाते हुए कहा, ‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या.’’

‘‘आगे क्या होगा?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘आप दीदी से डर जाएंगे,’’ शिवानी ने उत्तर दिया.

‘‘भला क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जब से आप से रूबरू हुई हैं, उन के 2 सींग निकल आए हैं,’’ शिवानी ने निहायत गंभीरता से कहा, ‘‘आंखें फूल कर बजरबट्टू हो गई हैं, कान हाथी के से बड़े हो कर फड़फड़ा रहे हैं और नाक कंधारी अनार की तरह फूल गई है. दांत…’’

वरुण वापस मुड़ा, मानो जा रहा हो.

‘‘अरेअरे, कहां जा रहे हैं?’’ शिवानी ने पूछा.

‘‘लगता है मैं गलती से किसी अजायबघर आ गया हूं,’’ वरुण ने गंभीरता से कहा, ‘‘क्या गोपालदासजी घर छोड़ कर चले गए हैं?’’

मां ने पीछे से हंसते हुए आवाज लगाई, ‘‘अरे, अब अंदर आने भी दोगे या बाहर से ही भगा दोगे? आओ बेटे, ये लोग तो बड़े शरारती हैं. बुरा मत मानना. टीवी देखदेख कर सब बिगड़ गए हैं.’’ सब ने सिर झुका कर सलाम किया और वरुण के लिए रास्ता बनाया. बैठते ही सास ने फ्रिज में से शीतल पेय की बोतल निकाल कर पेश कर दी. निशा कमरे के अंदर से परदे की दरार में से झांक रही थी और वरुण की रूपरेखा दिल में उतार रही थी. बड़ा बांका लग रहा था.

इतने में शिवानी पास आ कर फुसफुसाई, ‘‘बड़े स्मार्ट लग रहे हैं जीजाजी, बिलकुल चार्ली चैपलिन की तरह. पूछ तो सही, कपड़े जामा मसजिद की कौन सी दुकान से लाए हैं?’’

‘‘चल हट,’’ निशा ने झिड़क कर कहा, ‘‘तू ही पूछ ले.’’

फिर निशा ने भी अधिक शरमाने में भलाई नहीं समझी. उस का जी भी तो वरुण के पास बैठने को मचल रहा था. मां तो समझती ही नहीं, पर फिर भी…

जब धीरेधीरे खुली खिड़की से आती खुशबूदार हवा की तरह उस ने कमरे में प्रवेश किया तो वरुण की आंखें मानो उस पर चिपक गईं. फालसई रंग का सलवारकुरता उस पर अच्छा खिल रहा था. सांवला रंग फीका पड़ गया था और वरुण को वह आशा के विपरीत अधिक साफसुथरी नजर आ रही थी. अलग अकेले में बात करने को मन करने लगा. शिवानी ने उठते हुए वरुण के पास निशा के लिए जगह बना दी.

सास मुंह बना कर अंदर रसोई में चली गईं. ससुर 1-2 औपचारिक बातें करने के बाद अपने कमरे में चले गए. शिवानी मां की मदद करने के लिए रसोई में गई और दोनों साले बाजार से कुछ लाने को भेज दिए गए.

इस तरह मैदान खाली कर दिया गया.

निशा शरमा कर नीचे देख रही थी. वरुण उस के चेहरे पर आंखें गड़ाए था. यही तो है न वह.

वरुण ने गहरी सांस ले कर आहिस्ते से कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

निशा ने मुसकरा कर मासूमियत से कहा, ‘‘हां, मां भी यही कहती हैं.’’

वरुण शरारत से हंसा, ‘‘ओह, तो मां का प्रमाणपत्र पहले ही मिल चुका है. यह अधिकार तो मेरा था.’’

निशा भी हंसी, ‘‘आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. लीजिए, रसमलाई खाइए.’’

‘‘तुम ने बनाई है?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ निशा ने कहा, ‘‘बाजार से मंगाई है. बहुत मशहूर दुकान की है.’’

‘‘तुम ने क्या बनाया है?’’ वरुण ने हंस कर कहा, ‘‘वही खिलाओ.’’

‘‘कुछ नहीं,’’ निशा ने सादगी से कहा, ‘‘मां ने कुछ बनाने नहीं दिया.’’

‘‘क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मां ने कहा कि अगर अच्छा नहीं बना तो,’’ निशा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और आप को भी अच्छा नहीं लगा तो आप हमेशा वही याद रखेंगे.’’

‘‘मां तो बहुत समझदार हैं,’’ वरुण के स्वर में हलका सा व्यंग्य था, ‘‘पर उस दिन तो तुम ने हम लोगों का मन जीत लिया था.’’

‘‘दरअसल उस दिन अधिक व्यंजन तो मां ने ही बनाए थे. मैं ने तो उन की मदद की थी,’’ निशा की हंसी में रबड़ी की खुशबू थी.

‘‘पर कुछ तो बनाया होगा?’’ वरुण ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘दहीबड़े बनाए थे,’’ निशा ने संकोच से कहा, ‘‘पर वे इतने सख्त थे कि मां ने नौकरानी को दे दिए.’’

मैली लाल डोरी – भाग 1 : दास्तान अपर्णा की

रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

कायर – भाग 1 : क्या घना को मिल पाया श्यामा का प्यार

घना जानता था कि श्यामा निचली जाति की लड़की है, पर उस के अच्छे बरताव की वजह से वह उस के प्रति खिंचता चला गया था. यहां तक कि वह श्यामा से शादी करने को भी तैयार था.

वैसे, घना जाति प्रथा को भारतीय समाज के लिए अभिशाप मानता था और अकसर अपने दोस्तों के साथ अंधविश्वास, जाति प्रथा जैसी बुराइयों पर बड़ीबड़ी बातें भी करता था.

घना कई बार अपने मन की बात श्यामा तक पहुंचाने की कोशिश कर चुका था, पर श्यामा ने उसे कभी भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया था.

आज घना को श्यामा से अकेले में बात करने का मौका मिल गया था और वह इस मौके को खोना नहीं चाहता था.

श्यामा आ रही थी. घना ने अपने गांव के दोस्तों को पहले ही चले जाने के लिए कह दिया था और खुद श्यामा का इंतजार कर रहा था.

जैसे ही श्यामा उस के करीब से गुजरी, घना ने उसे रुकने को कहा.

‘‘श्यामा,’’ घना ने अपना गला साफ करते हुए कहा.

‘‘जी,’’ श्यामा ने एक पल के लिए घना की ओर देखा और आगे बढ़ गई.

‘‘आज मौसम बहुत खराब है,’’ घना बोला.

श्यामा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘श्यामा, मैं तुम से कुछ बात कहना चाहता हूं.’’

श्यामा फिर भी चुप रही. घना श्यामा के बहुत करीब आ गया.

श्यामा घना की बात को अच्छी तरह से सम?ा रही थी. उस ने गुस्से से घना की तरफ देखा.

घना थोड़ा सा सहम गया था, पर वह सोचने लगा कि अगर आज नहीं कहेगा, तो वह अपनी बात कभी नहीं कह पाएगा.

‘‘श्यामा… मैं…मैं… तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ जैसे कि श्यामा घना की बात का मतलब न सम?ा हो.

‘‘श्यामा, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं.’’

‘‘यह जानते हुए भी कि मैं निचली जाति की हूं और आप ऊंची जाति वाले.’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं इस तरह की किसी भी बहस

में नहीं उल?ाना चाहती. अगर किसी ने यह सब सुन लिया, तो आप की बहुत बदनामी होगी.’’

‘‘श्यामा, मैं तुम से बहुत प्यार

करता हूं और तुम्हीं से शादी भी करना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम्हारे गांव के सब बराती निचली जाति वालों के हाथ का पका खाना खाएंगे? जो लोग निचली जाति वालों की छाया से भी दूर रहते हैं, क्या वे एक अछूत लड़की को अपने घर की बहू बनाएंगे?

‘‘घना, मु?ा गरीब पर दया करो. मैं किसी किस्सेकहानी का पात्र नहीं

बनना चाहती हूं. आप ऊंची जाति वालों की नजर में भले ही हमारी कोई इज्जत नहीं है, पर अपनी नजर में हमारी बहुत इज्जत है.

‘‘मेरे पिता एक स्कूल में मास्टर हैं. समाज में उन की भी कुछ इज्जत है. मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं कि मेरे साथ आगे से ऐसी हरकत कभी मत करना.’’

श्यामा का ऐसा चेहरा देख कर घना सकते में आ गया. वह कुछ न बोल सका और चुपचाप वहीं खड़ा रह गया. श्यामा तेज कदमों से आगे बढ़ गई.

श्यामा जा चुकी थी, पर उस के कहे गए शब्द घना के कानों मेें बारबार गूंज रहे थे.

घना ने आसमान की ओर देखा. आसमान में घने बादल छाए हुए थे. वह सोचने लगा कि आज की रात फिर बर्फबारी होने वाली है. वह बहुत निराश था. क्या करे? कहां जाए? खुदकुशी कर ले? समाज की रूढि़यों, जाति प्रथा के चलते ही तो श्यामा ने उस के प्यार

को ठुकरा दिया था, वरना उस में क्या कमी थी.

घना को लगा कि यह जिंदगी ही बेकार है. वह बदहवास सा रास्ते से हट कर ऊपर पहाड़ी पर चढ़ने लगा. चारों तरफ अंधेरा बढ़ने लगा था. जब वह चलतेचलते थक गया, तो सुस्ताने के लिए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया.

रात अब काफी हो चुकी थी. काफला और खड़कोट, दोनों गांवों के बीच, जहां पर खेत खत्म हो जाते हैं, वहां पर एक बेसिक स्कूल था. इस के बाद जंगल शुरू हो जाता था. बस्ती से दूर होने के चलते रात में स्कूल में कोई नहीं रहता था.

घना सोचने लगा कि आज की रात वह इसी स्कूल में बिता देगा. कल देखा जाएगा. अंधेरे में चलते, गिरतेपड़ते, ?ाडि़यों से गुजरते हुए उस का बदन बुरी तरह से छिल गया था. कई खरोंचें भी लग गई थीं.

जब घना स्कूल में पहुंचा, तब वहां भयंकर सन्नाटा पसरा हुआ था. वह स्कूल के बरामदे के एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया. ठंड से उस की हड्डियां तक कांप रही थीं. श्यामा का एहसास उस के दिलोदिमाग से हटने का नाम नहीं ले रहा था.

कुंआरी ख्वाहिशें-भाग 1 : हवस के चक्रव्यूह में फंसी गीता

‘‘गीता, ओ गीता. कहां है यार, मैं लेट हो रहा हूं औफिस के लिए. जल्दी चल… तुझे कालेज छोड़ने के चक्कर में मैं रोज लेट हो जाता हूं.’’

‘‘आ रही हूं भाई, तैयार तो होने दो, कितनी आफत मचा कर रखते हो हर रोज सुबह…’’

‘‘और तू… मैं हर रोज तेरी वजह से लेट हो जाता हूं. पता नहीं, क्या लीपापोती करती रहती है. भूतनी बन जाती है.’’

इतने में गीता तैयार हो कर कमरे से बाहर आई, ‘‘देखो न मां, आप की परी जैसी बेटी को एक लंगूर भूतनी कह रहा है… आप ने भी न मां, क्या मेरे गले में मुसीबत डाल दी है. मैं अपनेआप कालेज नहीं जा सकती क्या? मैं अब छोटी बच्ची नहीं हूं, जो मुझे हर वक्त सहारे की जरूरत पड़े.’’

मां ने कहा, ‘‘तू तो मेरी परी है. यह जब तक तेरे साथ न लड़े, इसे खाना हजम नहीं होता. और अब तू बड़ी हो गई है, इसलिए तुझे सहारे की जरूरत है. जमाना बहुत खराब है बच्चे, इसलिए तो कालेज जाते हुए तुझे भाई छोड़ता जाता है और वापसी में पापा लेने आते हैं. अब जा जल्दी से, भाई कब से तेरा इंतजार कर रहा है.’’

‘‘हांहां, जा रही हूं. पता नहीं ये मांएं हर टाइम जमाने से डरती क्यों हैं?’’ गीता बड़बड़ाते हुए बाहर चली गई.

 

गीता बीबीए के पहले साल में पढ़ रही थी. उस का भाई बंटी उस से

 

6 साल बड़ा था और नौकरी करता था. गीता का छोटा सा परिवार था. मम्मीपापा और एक बड़ा भाई, जो पंजाबी बाग, दिल्ली में रहते थे.

गीता के पापा का औफिस नारायणा में था और भाई नेहरू प्लेस में नौकरी करता था. गीता का राजधानी कालेज पंजाबी बाग में ही था, मगर घर से तकरीबन 10-15 किलोमीटर दूर, इसीलिए बस से जाने के बजाय वह भाई के साथ जाती थी.

वैसे भी जब से गीता ने कालेज में एडमिशन लिया था, मां ने सख्त हिदायत दी थी कि उसे अकेला नहीं छोड़ना, जमाना खराब है. कल को कोई ऊंचनीच हो गई, तो कौन जिम्मेदार होगा, इसलिए अपनी चीज का खयाल तो खुद ही रखना होगा न.

गीता को कालेज छोड़ने के बाद बंटी रास्ते से अपने औफिस के साथी सागर को नारायणा से ले लेता था.

एक दिन सागर ने कहा, ‘‘यार, मुझे अच्छा नहीं लगता कि तू रोज मुझे ले कर जाता है. तू परेशान न हुआ कर, मैं बस से चला जाऊंगा.’’

इस पर बंटी बोला, ‘‘यार, मेरा तो रास्ता है इधर से. मैं अकेला जाता हूं, अगर तू पीछे बाइक पर बैठ जाता है, तो क्या फर्क पड़ता है…’’

‘‘फिर भी यार, तुझे परेशानी तो होती ही है.’’

‘‘यार भी कहता है और ऐसी बातें भी करता है. देख, अगर बस के बजाय मेरे साथ जाएगा तो बस का किराया बचेगा न, वह तेरे काम आएगा. मैं जानता हूं, तेरा बड़ा परिवार है और तनख्वाह कम पड़ती है.’’

यह सुन कर सागर चुप हो गया.

इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा. एक बार बंटी बहुत बीमार हो गया और लगातार कुछ दिनों तक औफिस नहीं गया.

सागर ने तो फोन कर के हालचाल पूछा, मगर उसे मिले बिना चैन कहां, यारी जो दिल से थी. एक दिन छुट्टी के बाद वह पहुंच गया बंटी से मिलने.

इधर जब बंटी बीमार था, तो गीता को कालेज छोड़ने कौन जाता, क्योंकि पापा तो सुबहसुबह ही काम पर चले जाते थे. लिहाजा, गीता बस से कालेज जाने लगी. बंटी ने समझा दिया था कि किस जगह से और कौन से नंबर की

बस पकड़नी है. वापसी में तो उसे पापा ले आते.

सागर ने बंटी के घर की डोरबैल बजाई, तो दरवाजा गीता ने खोला. अपने सामने 6 फुट लंबा बंदा, जो थोड़ा सांवला, मगर तीखे नैननक्श, घुंघराले बाल, जिस की एक लट माथे पर झूलती हुई, भूरी आंखें… देख कर गीता खड़ी की खड़ी रह गई.

यही हाल सागर का था. जैसे ही उस ने गीता को देखा तो हैरान रह गया. उसे लगा मानो कोई शहजादी हो या कोई परी धरती पर उतर आई हो.

सागर ने गीता को अपने बारे में बताया, तो वह उसे भीतर ले गई.

सागर बंटी के साथ बैठ कर बातें कर रहा था. मां और गीता चायपानी का इंतजाम कर रही थीं, मगर बीचबीच में सागर गीता को और गीता सागर को कनखियों से देख रहे थे. घर जा कर सागर सारी रात नहीं सो सका, इधर गीता उस के खयालों में खोई रही.

अगले दिन गीता को न जाने क्या सूझा कि बस से कालेज न जा कर नारायणा बस स्टैंड पर उतर गई, क्योंकि शाम को वह बातोंबातों में जान चुकी थी कि सागर नारायणा में रहता है, जिसे बंटी अपने साथ नेहरू प्लेस ले जाता था.जैसे ही गीता नारायणा बस स्टैंड पर उतरी, तकरीबन 5 मिनट बाद ही सागर भी वहां आ गया.

‘‘हैलो…’’ सागर ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा.

‘‘हाय, औफिस जा रहे हैं आप?’’ गीता ने ‘हैलो’ का जवाब देते हुए और बात आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘जी हां, जा तो रहा था, मगर अब मन करता है कि न जाऊं,’’ सागर आंखों में शरारत और होंठों पर मुसकान लाते हुए बोला.

‘‘कहते हैं कि मन की बात माननी चाहिए,’’ गीता ने भी कुछ ऐसे अंदाज से कहा कि सागर ने मस्ती में आ कर उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे सागरजी, छोडि़ए… कोई देख न ले…’’ गीता ने घबरा कर कहा.

‘‘ओफ्फो, यहां कौन देखेगा… चलिए, कहीं चलते हैं,’’ सागर ने कहा और गीता चुपचाप उस के साथ चल दी.

‘‘आज आप भी कालेज नहीं गईं?’’ सागर ने गीता के मन की थाह पाने

की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘बस, आज मन नहीं किया,’’ कह कर गीता ने शरमा कर आंखें झुका लीं.

सागर और गीता सारा दिन घूमते रहे, लेकिन शाम होते ही गीता बोली, ‘‘सागर, मुझे जाना है. पापा कालेज

लेने आएंगे. अगर मैं न मिली तो वे परेशान होंगे.’’

कोरोना के बाद पहली होली

कोरोना के बाद पहली होली ‘होली’ एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन कर हर देहाती नौजवान का दिल धड़क उठता है. उस का जीवन धिक्कार के लायक है, जिस ने होली पर गांव की लड़कियों से छेड़ाखानी न की हो. उस से भी बदतर वह है, जिस ने ससुराल की पहली होली के बारे में कुछ सुना न हो. मैं पढ़तेपढ़ते बीए तक जा पहुंचा था, लेकिन किसी पहली होली में शामिल होना नसीब नहीं हुआ था. 2 साल पहले होली पर मेरा नंबर तय था, क्योंकि मेरे एक खास दोस्त को ससुराल में पहली होली पर बुलाया गया था, फिर कोविड का साया आने लगा और लोग इधरउधर जाने से कतराने लगे. मेरे दोस्त ने भी अपनी बीवी को होली से पहले ही बुला लिया और ससुराल की होली से हम सब रह गए.

2 साल बाद इस बार उसे फिर गांव में होली खेलने बुलाया गया. मेरी भाभी ने जिद कर के मुझे ही चलने को कहा, क्योंकि मैं उन के नजदीक कुछ ज्यादा था और मेरे दोस्त हमारे इसी मजाक का मजा लेता था. होली के एक दिन पहले हम टैक्सी कर के गांव में उस के घर जा पहुंचे. लड़की वालों ने होली का बड़ा आयोजन किया था. मैं भाभी का प्यारा था और घर वालों से कई बार फेसटाइम पर बात कर चुका था. मेहमानों में सिर्फ मैं ही पढ़ालिखा था, इसलिए मुझे भरपूर इज्जत पाने की पूरी उम्मीद थी. लड़की वालों ने अच्छी आवभगत की. भाभी की सहेलियों ने रात को ही आ कर हम से ठिठोली करनी चालू कर दी. मैं गदगद हो गया, क्योंकि वे इतने मेहमानों को छोड़ कर मेरे ही आसपास मंडरा रही थीं. मुझे अपने लुभावनेपन का एहसास हुआ. मैं तन कर बैठ गया. मैं अभी तक कुंआरा था.

दिन ढल गया था. कुछ के मातापिता चाहते थे कि मेरी शादी उन की बेटी से हो जाए, इसलिए हम से कमरे के अंदर बैठने का अनुरोध किया गया. सभी लोग पलंगों और फर्श पर बिछे गद्दों को टटोलटटोल कर बैठ रहे थे. सभी चारपाइयों पर सुंदरसुंदर चादरें बिछी थीं. कोने वाला गद्दा खाली था. मैं ने सोचा कि इस से लड़कियों के नजारे अच्छी तरह देखे जा सकेंगे. साथ ही, यहां से मेरा रंगरूप भी बाहर से देखा जा सकता है, इसलिए मैं अकड़ कर बैठा, तभी धस्स… वह गद्दा था ही नहीं. वहां तो चारों ओर तकिए लगा कर चादर बिछा दी गई थी. मैं धंस गया. नीचे पापड़ थे, जो चरचर कर टूटने लगे. कुछ पर रंग लगा था. उस पर केवल चादर को अटका दिया गया था. मैं सीधे नीचे गिर गया.

पैर ऊपर और सिर नीचे. किसी ने मुझे उठाया. उस समय तो मैं गुस्से में तमतमाया, लेकिन जब देखा कि सब लोग ठहाके लगा कर हंस रहे हैं, तो मैं झेंप कर रह गया. सब से आगे एक बड़ी चौड़ी छातियों वाली शोख लड़की थी. लोग उसे पूर्णिमा सोनी कह रहे थे. पूर्णिमा ने तो मानोे मेरा मजाक उड़ाने की जिम्मेदारी ले ली. मैं ने उठने की कोशिश की तो उस ने हाथ बढ़ा दिया. मैं हाथ पकड़ कर उठ ही रहा था कि बीच में उस ने हाथ खींच लिया. मैं फिर जा गिरा पापड़ों पर. पर दूसरी बार उस ने जो खींचा तो ठीक उस की छातियों से जा टकराया. वह सुख उस दर्द से कम था, जो पापड़ों पर गिरने से मिला था. मैं अपनेआप पर झल्ला रहा था कि और लोगों की तरह मैं भी गद्दों को अच्छी तरह टटोल कर क्यों नहीं बैठा. तब तक लड़कियां कमरे में छेड़खानी करने चली आईं, जिस से इस बार पूर्णिमा ने अपने को लगभग जमीन पर लेट कर उठाने का अंदाज अपनाया था. दूसरी ने ठहाका लगाया, ‘‘पूर्णिमा, मार ले अपनी… देख तो मर्द भी है या नहीं.’’ मैं बुरी तरह शरमा भी गया और शर्मिंदा भी हो गया.

खाना खाने का वक्त हो गया था. खाने का इंतजाम लड़की के चाचाजी ने किया था, जिन का घर बगल में ही था. हमें खाने के लिए वहीं बुलाया गया. सभी ने अपनेअपने चेहरे को एक बार धोया. कपड़े बदले. शीशे में निहारा. फिर खाने चल दिए. गांव में बिजली तो थी, पर गली में नहीं. थोड़ा अंधेरा हो गया था. सब लोग संभलसंभल कर चल रहे थे. आखिर वे गांव वाले जो ठहरे. मैं शहर में कालेज का विद्यार्थी होने के नाते गरदन ऊंची कर के चलूं, यह लाजिमी था. मैं सब से आगे हो गया. घर के दरवाजे पर साफसाफ दिखाई नहीं दे रहा था, पर मैं तन कर सीधा आगे बढ़ा जा रहा था. अंदर से रोशनी सीधी मेरी आंखों पर पड़ रही थी. तभी मेरे पैर दरवाजे पर आड़ी बंधी रस्सी में उलझ गए.

मैं कटे पेड़ की तरह धड़ाम से गिर गया. मेरे कपड़े वहां जमा की गई रेत से गंदे हो गए. घुटनों में रगड़ लग गई, दर्द होने लगा. सभी लोग नहीं देख पाए थे, इसलिए मैं तुरंत उठ गया. लेकिन ओट में छिपी पूर्णिमा ने ठहाके लगाना चालू कर दिया. और तो और मेरे साथ वाले भी मुझ पर हंस रहे थे. मेरे रोने में बस थोड़ी ही कसर बाकी थी. ‘‘बस, लड़कियों को देख कर फिसल गए जानूं,’’ एक आवाज आई. मैं ने टटोल कर चश्मा उठाया और फिर घर में घुसा. तभी मेरे जेहन में यह बात आई कि क्यों न दोस्त के साथ ही रहा जाए. वह तो अब पुराना हो चुका है. हालांकि पहली बार ससुराल आया था शादी के बाद. मैं तुरंत उस के साथ चलने लगा. गांवों में घरों में जूते ले जाना नहीं होता, इसलिए उस समय मुझे भी अपने जूते बाहर ही खोलने पड़े. भोजन के समय तरहतरह के पकवान परोसे गए. खाना स्वादिष्ठ था, इसलिए सभी लोग चटकारे लेले कर देर तक खाते रहे. जब सभी लोगों के साथ खापी कर मैं बाहर निकला, तो मुझे अपने जूते नहीं मिले. मैं ने एक बार तो चुपकेचुपके इधरउधर देखा, लेकिन वे कहीं नहीं मिले. हाल ही में मैं ने उन्हें उसे 1,500 रुपए में खरीदा था. कहीं चोरी तो नहीं हो गए… यह सोच कर आखिर मुझे सब को बताना ही पड़ा.

यह सुन कर सभी लोग खिलखिला पड़े. मामला धीरेधीरे समझ में आ गया. दोस्त की साली ने गलती से उस के जूते की जगह मेरे जूते उठा लिए थे. नतीजतन, मुझे नंगे पैर ही चलना पड़ा. पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे. बड़ी मुश्किल से मैं ठहराव वाली जगह पर पहुंचा. तभी पूर्णिमा सब की एजेंट बन कर आई और जमाई साहब से जूतों के बदले 2,000 रुपए की मांग करने लगी. जमाई के जूते तो उस के पास सलामत थे ही, इसलिए उस ने एक भी पैसा देने से इनकार कर दिया. जब उस की साली को यह पता लगा कि वे जूते उस के जीजाजी के नहीं, बल्कि मेरे थे, तो वह सीधी मेरे पास आई और 1,000 रुपए की मांग करने लगी.

मुझे गुस्सा आ गया. मैं ने उसे फटकारा, ‘‘जब मैं तुम्हारा जीजा ही नहीं हूं, तो मुझे क्यों परेशान कर रही हो? मेरे जूते तुरंत वापस करो.’’ पर इस का कोई असर पूर्णिमा पर नहीं हुआ. थोड़ी इठला कर वह बोली, ‘‘इतनी सारी लड़कियां हैं, किसी को पसंद कर के जीजा बन जाओ न. यह तो आप की हिम्मत पर है. हमें तो जूते छिपाई के पैसे चाहिए, चाहे यह जीजा दे, दूसरा नया जीजा. जनाब, नए जूते खरीद लेना, मैं तो चली.’’ आखिर में मैं ने बड़ी मिन्नत के बाद 500 रुपए दे कर अपने जूते छुड़ाए. हां, बदले में पूर्णिमा एक बड़ा लंबा किस सब के सामने दी गई. रात के 9 बजे गए थे. सभी मेहमान सोेने के लिए पलंगों पर लेट गए?थे. अब कोई चिंता की बात नहीं थी, इसलिए मैं भी लेट गया. तभी सामने चबूतरे पर कुछ औरतें जमा होने लगीं. मुझे खतरे की आशंका हुई. पर जब वे मिल कर गीत गाने लगीं, तो दिल को थोड़ी शांति मिली. मिलीजुली आवाज में गीत अच्छे लगे थे. कुछ देर बाद नाचने वाले गीत गाए जाने लगे. तब लेटे हुए लोग उठ कर धीरेधीरे बैठ गए, तो मैं भी बैठ गया.

गीतों का सार बदलने लगा. बाद में तो गीतों ही गीतों में समधियों पर गालियों की बौछारें भी शुरू कर दी गईं. इस तरह का मजाक आज भी चलता है, यह मुझे नहीं मालूम था. पता चला कि इस तरह के गीत गाने वाली लड़कियां असाइनमैंट पर आती हैं. दोस्त की ससुराल वालों ने खासतौर पर बुलाई हैं. 2 साल बाद होली मजे में मन रही थी, इसलिए कोई भी कसर नहीं छोड़ रहा था. उन गीतों में देशी मजाक भरा हुआ था. बच्चेबूढ़े सभी हंस रहे थे. गीतों में उन लोगों ने लड़की के 100 साल के दादाजी का विवाह जमाई की बूढ़ी दादी से करने का प्रस्ताव रख दिया. फिर आए हुए मेहमानों का नाम ले कर खिंचाई करने लगीं. तब हंसतेहंसते मेरा भी बुरा हाल हो गया था.

थोड़ी देर बाद जब गीत में मेरा भी नाम आया, तो मेरी हंसी बंद हो गई. जब गीत में यह कहा गया कि मेरी मां मेरे पिताजी के बस में नहीं रहतीं. वे गांव में इधरउधर ताकझांक करती रहती हैं, तो सभी लोग मेरी तरफ मुंह कर के ठहाके लगाने लगे. उस समय मेरी सूरत देखने लायक थी. मैं कहीं रो न पड़ूं, इसलिए अपना चेहरा मास्क से ढक कर लेट गया. जब सब की भद्द करने के बाद गीत गाने वालियां चली गईं, तभी हम सभी को चैन आया और हम सो गए. सुबह जब हम लोग जगे, तब खातिरदारी के लिए मेजबान तैयार थे. नाश्ते में देशी घी में बना गरमागरम हलवा खा कर मन खुश हो गया. लड़कियों की मीठी छेड़खानियों से तो दिल बागबाग हो ही रहा था. फिर हमें कहा गया कि खेत पर ट्यूबवैल में नहाना बहुत अच्छा लगेगा. मेरे लिए यह नया मौका था. वहां युवतियां भी थीं और उन से मजाक और नहाना साथसाथ होता रहा. सब ने जम कर होली मनाई. एक लड़की ने तो मुझे पस्त कर दिया. मुझे नहीं मालूम था कि गांव की लड़कियां इतनी दमदार होती हैं. वापस हम लड़की के घर पहुंचे ही थे कि ऊपर से किसी ने पानी की बालटी में लाल रंग का कीचड़ सा उड़ेल दिया, जो सारा का सारा मुझ पर ही गिरा. मुझे देख कर सभी हंसने लगे. तब मुझे गुस्सा आ गया. मैं गरज पड़ा, ‘‘तमीज नहीं है इन लोगों में. मजाक भी ढंग से होता?है.

ऐसे गंवार लोगों के यहां अब एक पल भी मैं नहीं ठहरूंगा.’’ ऐसी होली कौन खेलता है. मैं गुस्से में कमरे में जा बैठा. मेरे साथियों के समझाने व लड़की वालों की तरफ से माफी मांगने पर ही मैं रुकने पर राजी हुआ. इसी दौरान 1-2 और दूसरे मेहमानों पर भी रंग पड़ चुका था, इसलिए भी थोड़ा मेरा गुस्सा कम हुआ. अब मेरे पास न तो कोई और कपड़े थे और न दोबारा नहाने का समय ही. खाना खाने का वक्त हो गया था. तब एक लड़की आई और अपना टौप और जींस दे गई कि इसे पहन लो. खाने वाले कमरे में सभी दौड़ कर घुस रहे थे. अंदर 2 जवान लड़कियां दरवाजे की ओट में खड़ी हो कर घूंसे बरसा रही थीं. घूंसा खाने वाला आदमी मर्दानगी दिखाने के चक्कर में अपनी पीठ सहलाता भी नहीं था.

मेरी घिग्घी बंध गई. जाता तो घूंसे खाने पड़ते और नहीं जाता तो खिल्ली उड़ने का डर था. आखिर हिम्मत कर के मैं घुसने के लिए तैयार हो गया. मैं ने सोचा, एक घूंसा ही तो खाना पड़ेगा. मैं जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ, वैसे ही एक जवान लड़की ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए घूंसे से मेरे कंधे पर हमला किया. मैं तिलमिला गया. मुझे चक्कर आ गया. मैं गिर गया. किसी ने मुझे पकड़ कर उठाया व पानी पिलाया. काफी देर तक मेरा कंधा दुखता रहा, पर स्वादिष्ठ खाना खाने के बाद मैं वह दर्द भूल गया. चलने का समय आ गया था. गांवों के रिवाज के अनुसार चलते समय सभी मेहमानों को एकएक कर के पाटे पर बैठा कर उन को गुलाल लगाने और एक गिलास, कुछ उपहार भेंट के तौर पर देने की तैयारी की जाने लगी.

एक पान भी दिया गया, जिस से खुशबू आ रही थी. मैं ने उसे मुंह में डाला तो चबाते ही मुंह धूल से भर गया. मैं असमंजस में पड़ गया. उसे थूकूं तो कहां? पूरा चबूतरा खचाखच भरा था. ‘‘मेहमानजी, आप किस कालेज में पढ़ते हैं?’’ एक मेजबान ने दबी हंसी में पूछा. मुझ से कुछ बोलते न बना. अगर मुंह खोलता तो मिट्टी गले में चली जाती. ‘‘अरे, थोड़ी देर पहले तो यह भलाचंगा था. अचानक यह गूंगा कैसे हो गया?’’ पास ही खड़ी एक लड़की ने अपने बगल में खड़ी सहेली से शरारती अंदाज में पूछा. मैं भकुआ कर असहाय सा देखने लगा. फिर उन्होंने मुझे माला पहनाई. मुझे लग रहा था, जैसे जूते मार कर वे विदा कर रहे हों. मैं उठ कर बाहर आया व धूल को थूक दिया. वहीं पर एक लड़की पानी लिए खड़ी थी. अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद मैं वापस आया, तो मुझे दूसरा पान दिया गया.

मैं पागल की तरह एक बार पान को देखता, फिर लोगों को. आखिर मैं ने साहस कर के पान को मुंह में डाल ही लिया. उस में धूल नहीं थी. फिर लड़की की विदाई की जाने लगी. वह जोरजोर से रो रही थी और धीरेधीरे कदम बढ़ा रही थी. जमाई के साथ गए सभी लोग भी लौटने की तैयारी कर रहे थे. मुझे तो इतना कष्ट झेलने के बाद भी वहां से लौटने का मन नहीं कर रहा था. आज भी गांव की होली का नाम आते ही मेरा मन मचल उठता है. सोचता हूं, फिर किसी की पहली होली में जाने का मौका मुझे मिलता तो कितना अच्छा होता.

तुम ऐसी निकलीं – भाग 1: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मन का बोधबिंदु जब  बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह  कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.

दिल्ली के सदर बाजार  से  जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8  दिनों पहले उस को  बता रहे थे  कि उन के दादाजी भी इस जगह को  इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक  विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी,  लहसुन,  प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की  आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर  आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.

पर, अब इस का चेहरामोहरा  बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.

यहीं मटर गली से पतली सी  पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ  जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो  उस को कुछ भी  मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि  पहले भी यह  एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी  कच्ची  ही रह गई है यह पगडंडी.

वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर  चलते हुए पहली बार मोनिका  से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली  में ही घड़ी ठीक करने का  काम करता था और कुछ दलाली वाले  वैधअवैध काम भी  करता था. उस दोपहर मोनिका  परदे से सटी  उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा  था.

मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका  से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना  पहले ही  हुई थी  जब उस ने अपने मालिक के  साथ बैडशीट और चादरों की  स्टाल सर्कस मैदान में  ही लगा रखी थी.

यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और  चादरों की  यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की  विधा यानी  एक कलाबाजी ही थी.

वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा  और जयपुर  से चादरों की  एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात  की चर्चा  कर के मालिक के  साथ हंस  रहा था कि मोनिका अचानक ही  सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने  में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर  देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा  तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और  सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट  की तरफ निकल गया.

अब मोनिका आराम से   बैठ  गई और एक चादर की  तरफ अपनी उंगली से  इशारा करती हुई उस की डिटेल्स  पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि  यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की  गाड़ी की  स्टेयरिंग  भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का  परिचय कराया. वह चादरों का  कपड़ा और उन के  प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी.  उस के बदन से किसी मोगरे  वाले साबुन की  भीनीभीनी महक आ रही थी.  मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की  महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां,  उस को  अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के  साथ  ओडिशा एक  मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी  ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.

वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर  तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों  बाद जब वह उस के पास ही था  तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी.  तब छिम्मा ने राई और मिर्च से  नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर  उस की कितनी सेवा की  थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था  और  अब वह  छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की  रमा  और गोवा की डेल्मा की  तरह उस पर कोई  रुपया खर्च  ही नहीं करना पड़ा था.

छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की  तरह बिलकुल ही  फोकट में उस को  हासिल हो  गई थी. पर, वह आज,  बस, इसी महक के  कारण छिम्मा  को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि  उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार  यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब  भा  रही थी.

जैसे दोपहर की  अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक  भीनीभीनी  शाम.  तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी,  ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है,  मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज  लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.

तब उस ने हंस कर मोनिका को  चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया  और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर   पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए  बताया था कि इस चादर की दुकान का  परिचय करवाया 2 दिनों पहले के  अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था.  कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में  कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम  दाम.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 1

मैं बचपन से आजादखयाल, शोख व चंचल थी. हंसीमजाक, छेड़छाड़ और शरारत करना मेरा शौक था. हमारा  परिवार काफी खुशहाल था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. घर से मुझे जेब खर्च के लिए अच्छीखासी रकम मिलती थी. मेरा अच्छा रहनसहन देख कर लोग जल्द ही मुझे तवज्जो देने लगे थे.

कालेज में मैं जल्द ही बहुत पापुलर हो गई. अच्छेअच्छे लड़के मुझ से दोस्ती करने आने लगे. मेरी ऐसी आदत थी कि मैं हर एक से दोस्ती कर लेती थी. किसी का दिल तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सब के साथ घुलमिल कर खुश रहती थी.  सभी दोस्तों के साथ हंसतेखेलते 3 साल गुजर गए. मेरी ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी हो गई.

मैं पोस्ट गै्रजुएशन करना चाहती थी, पर आगे पढ़ने की इजाजत अम्मी ने नहीं दी. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा अब तुम घर पर रह कर घर के कामकाज सीखो. जल्द ही अच्छा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर देंगे.’’

एक दिन मैं दोपहर के समय शौपिंग कर के लौट रही थी, तभी रास्ते में औटो खराब हो गया. मैं दूसरे औटो के आने का इंतजार करने लगी. जब कोई औटो नहीं मिला तो सामान उठा कर मैं पैदल ही घर के लिए चल पड़ी.

मैं थोड़ी दूर चली थी कि अचानक मंसूर आ गया. मुझे देख कर वह रुक गया. मुझे पसीने से भीगा देख कर बोला, ‘‘इतनी तेज धूप में सामान लिए पैदल कहां जा रही हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘औटोरिक्शा खराब हो गया था, इसलिए पैदल ही घर जा रही हूं.’’

‘‘लाओ सामान मुझे दो. मैं पहुंचाए देता हूं.’’ उस ने कहा.

मैं ने आवाज में मोहब्बत भर कर कहा, ‘‘आप को हमारी इतनी फिक्र कब से होने लगी.’’

उस ने मुझे हैरानी से देखा तो मैं ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘आप को देख लिया, यही काफी है. सामान रहने दो.’’

इस के बाद उस ने मुझे कुछ उलझन भरी नजरों से देखा. उस के बाद मेरे हाथ से सामान ले कर साथ चलने लगा. घर पहुंचने पर वह बरामदे में सामान रख कर जाने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘शुक्रिया, आओ बैठो, चाय पी कर जाना.’’

‘‘नहीं, रहने दो. फिर कभी पी लूंगा.’’ कह कर वह चला गया.

मंसूर हमारे मोहल्ले की एक गरीब औरत साफिया का एकलौता बेटा था. मोहल्ले के सभी लोग साफिया को खाला कहते थे. साफिया खाला के बारे में हम बस इतना जानते थे कि वह सिलाई कर के गुजरबसर करती हैं. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने मंसूर को अच्छी तालीम दिलवाई थी. अब वह नौकरी की तलाश में था.

खाला को उम्मीद थी कि मंसूर की नौकरी लगने के बाद उस के बुरे दिन दूर हो जाएंगे. आज मैं ने मजाक में उस के दिल में गलतफहमी डाल दी थी. मेरी दोस्त किरण यूनिवसिर्टी में पढ़ रही थी. उस का घराना लखपति था, बाप के कारखाने थे, पर उसे एक लड़के जमील से मोहब्बत हो गई थी, जबकि जमील ने उस की मोहब्बत को कबूल नहीं किया था.

उस ने कहा था, ‘‘आज जज्बात और मोहब्बत के जोश में आ कर तुम मुझ से शादी कर लोगी. तुम्हारे मांबाप हरगिज मुझे कबूल नहीं करेंगे और मेरी गरीबी से तुम जल्द ही तंग आ जाओगी, क्योंकि तुम जिस तरह ऐशोइशरत में रहती हो, वह तुम्हारी आदत बन चुकी है. इसलिए बेहतर है कि तुम मुझे भूल जाओ और मुझे मेरी मंजिल तलाश करने दो.’’

किरण अपनी नाकाम मोहब्बत की कहानी मुझे सुनाती रहती थी. इस के अलावा फराज और मीना भी. घर के कामकाज निपटाने के बाद मैं खाली हो जाती तो मेरा मन नहीं लगता था. किरण, मीना, फराज मेरे अच्छे दोस्त थे. यह सभी अमीर घरानों से ताल्लुक रखते थे. जब मुझे पता चला कि फराज के बाप की कई कंपनियां हैं तो मैं ने किरण से कहा कि वह फराज से बात कर के कहीं मेरी भी नौकरी लगवा दे.

किरण ने मुझे कंप्यूटर का कोर्स करने की सलाह दी. कोर्स पूरा होने के बाद वह फराज से बात कर लेगी. मैं ने कंप्यूटर कोर्स करने के बारे में अम्मी से बात की. वह मना कर रही थीं, पर मैं ने उन्हें मना लिया और एक अच्छे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया.

एक दिन मैं जब इंस्टीट्यूट से लौट रही थी तो मुझे मंसूर मिल गया. वह मोटरसाइकिल पर था. उस दिन वह अच्छे और महंगे कपडे़ पहने था. उस ने मोटरसाइकिल रोक कर मुझ से कहा, ‘‘आओ मोटरसाइकिल पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

‘‘इंकार कर के क्यों गरीब का दिल तोड़ती हो.’’ कह कर उस ने बेतकल्लुफी से मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे बैठने पर मजबूर कर दिया. मैं अंदर ही अंदर गुस्सा हुई. मंसूर के इस व्यवहार से मुझे लगा कि उस दिन जो मैं ने इस से मुसकरा कर बात की थी, कहीं उस का इस ने गलत मायने तो नहीं निकाल लिया.

अब मुझे अपनी शरारत और दिखावे की मोहब्बत बहुत बुरी लग रही थी. मैं ने मन ही मन सोच लिया कि अब मैं मंसूर को जरा भी लिफ्ट नहीं दूंगी, वरना यह मेरे पीछे ही पड़ जाएगा.

रास्ते में मंसूर ने मुझे बताया कि उस की एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है. यह मोटरसाइकिल उसे कंपनी से ही मिली है. मोटरसाइकिल एक स्टाल के सामने रोक कर उस ने कहा, ‘‘आओ, एकएक कोल्डड्रिंक हो जाए.’’

वहां कुछ अन्य लोग खड़े थे. मैं इंकार कर के उन सब के सामने तमाशा नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस के साथ चली गई. मैं ने उसे जौब की मुबारकबाद दी तो उस ने कहा, ‘‘जौब की मुझे सख्त जरूरत थी. अम्मी बीमार रहती हैं और अब वह अकेले रहतेरहते तंग आ गई हैं. उन्हें किसी के साथ की जरूरत है.’’

यह कह कर मंसूर ने प्यार से मुझे देखा. मैं परेशान हो गई. घर पहुंच कर मैं ने बहुत सोचा. पहले दिन शरारत में मैं ने मंसूर से जो प्यार जताया था, यह उसी का नतीजा था. वह मुझे अपनी मोहब्बत समझ बैठा था. मेरे जमीर ने मुझे चेताया, ‘‘अगर मोहब्बत जताई है तो उसे निभाओ. अब उस का दिल न तोडो. साथ निभाओ.’’

मैं ने सोचा कि मैं जिस तरह की ऐशोआराम की जिंदगी की आदी हूं, लगीबंधी तनख्वाह और छोटे से घर में खुश नहीं रह सकती. माना कि मंसूर एक अच्छा लड़का है, पर उस के पास इतना पैसा नहीं है कि उस के साथ मैं खुश रह सकूंगी. इसलिए मैं ने मन ही मन तय किया कि मैं मंसूर को नहीं अपनाऊंगी.

दिन गुजरते रहे. काफी दिनों तक मंसूर मुझे नजर नहीं आया. बात मेरे दिमाग से निकल गई. मेरी सहेली किरण की मंगनी थी. उस ने बडे़ प्यार से मुझे बुलाया. उस की मंगनी में ग्रुप के सभी दोस्त आने वाले थे. मैं ने अंगूरी कलर का नया सूट पहना था, जो मुझ पर खूब फब रहा था. उसी रंग की ज्वैलरी पहन कर मैं और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी, पर मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. जिस की वजह से सारा शृंगार अधूरा लग रहा था.

नजरिया- भाग 1: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

आज आशी जब अपनी जुड़वां बेटियों को स्कूल बस में छोड़ने आई तो रोज की तरह नहीं खिलखिला रही थी. मैं उस की चुप्पी देख कर समझ गई कि जरूर कोई बात है, क्योंकि आशी और चुप्पी का तो दूरदूर तक का वास्ता नहीं है.

आशी मेरी सब से प्यारी सहेली है, जिस की 2 जुड़वां बेटियां मेरी बेटी प्रिशा के स्कूल में साथसाथ पढ़ती हैं. मैं आशी को 3 सालों से जानती हूं. मात्र 21 वर्ष की उम्र में उस का अमीर परिवार में विवाह हो गया था और फिर 1 ही साल में 2 जुड़वां बेटियां पैदा हो गईं. रोज बच्चों को बस में बैठा कर हम दोनों सुबह की सैर को निकल जातीं. स्वास्थ्य लाभ के साथसाथ अपने मन की बातों का आदानप्रदान भी हो जाता. किंतु उस के चेहरे पर आज उदासी देख कर मेरा मन न माना तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है आशी, आज इतनी उदास क्यों हो?’’

‘‘क्या बताऊं ऋचा घर में सभी तीसरा बच्चा चाहते हैं. बड़ी मुश्किल से तो दोनों बेटियों को संभाल पाती हूं. तीसरे बच्चे को कैसे संभालूंगी? यदि एक बच्चा और हो गया तो मैं तो मशीन बन कर रह जाऊंगी.’’

‘‘तो यह बात है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘निखिल को नहीं उन की मां को चाहिए बच्चा. उन का कहना है कि इतनी बड़ी जायदाद का कोई वारिस मिल जाता तो अच्छा रहता. असल में उन्हें एक पोता चाहिए.’’

‘‘पर क्या गारंटी है कि इस बार पोता ही होगा? यदि पोती हुई तो क्या वारिस पैदा करने के लिए चौथा बच्चा भी पैदा करोगी?’’

‘‘वही तो. पर निखिल की मां को कौन समझाए. फिर वे ही नहीं मेरे अपने मातापिता भी यही चाहते हैं. उन का कहना है कि बेटियां तो विवाह कर पराए घर चली जाएंगी. वंशवृद्धि तो बेटे से ही होती है.’’

‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘वैसे तो निखिल बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं समझते. किंतु उन का भी कहना है कि पहली बार में ही जुड़वां बेटियां हो गईं वरना क्या हम दूसरी बार कोशिश न करते? एक कोशिश करने में कोई हरज नहीं… सब को वंशवृद्धि के लिए लड़का चाहिए बस… मेरे शरीर, मेरी इच्छाओं के बारे में तो कोई नहीं सोचता और न ही मेरे स्वास्थ्य के बारे में… जैसे मैं कोई औरत नहीं वंशवृद्धि की मशीन हूं… 2 बच्चे पहले से हैं और बेटे की चाह में तीसरे को लाना कहां तक उचित है?’’

मैं सोचती थी कि जमाना बदल गया है, लेकिन आशी की बात सुन कर लगा कि हमारा समाज आज भी पुरातन विचारों से जकड़ा हुआ है. बेटेबेटी का फर्क सिर्फ गांवों और अनपढ़ घरों में ही नहीं वरन बड़े शहरों व पढ़ेलिखे परिवारों में भी है. यह देख कर मैं बहुत आश्चर्यचकित थी. फिर मैं तो सोचती थी कि आशी का पति बहुत समझदार है… वह कैसे अपनी मां की बातों में आ गया?

आशी मन से तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. न बेटा न बेटी. अब आशी अकसर अनमनी सी रहती. मैं भी सोचती कि रोजरोज पूछना ठीक नहीं. यदि उस की इच्छा होगी तो खुद बताएगी. हां, हमारा बच्चों को बस में बैठा कर सुबह की सैर का सिलसिला जारी था.

एक दिन आशी ने बताया, ‘‘ऋचा मैं गर्भवती हूं… अब शायद रोज सुबह की सैर के लिए न जा सकूं.’’

उस की बात सुन मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह शायद निखिल की बातों में आ गई या क्या मालूम निखिल ने इसे मजबूर किया हो. फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘तो अब तुम्हें भी वारिस चाहिए?’’

‘‘नहीं. पर यदि मैं निखिल की बात न मानूं तो वे मुझे ताने देने लगेंगे… इसीलिए सोचा कि एक चांस और ले लेती हूं. अब वही फिर से 9 महीनों की परेड.’’

इस के बाद आशी को कभी मौर्निंग सिकनैस होती तो सैर पर नहीं आती. देखतेदेखते 3 माह बीत गए. फिर एक दिन अचानक आशी मेरे घर आई. उसे अचानक आया देख मुझे लगा कि कुछ बात जरूर है. अत: मैं ने पूछा, सब ठीक तो है? कोई खास वजह आने की? तबीयत कैसी है तुम्हारी आशी?’’

आशी कहने लगी, ‘‘कुछ ठीक नहीं चल रहा है ऋचा… निखिल की मम्मी को किसी ने बताया है कि आजकल अल्ट्रासाउंड द्वारा गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण किया जाता है… लड़की होने पर गर्भपात भी करवा सकते हैं. अब मुझे मेरी सास के इरादे ठीक नहीं लग रहे हैं.

2 दिन से मेरे व निखिल के पीछे बच्चे के लिंग की जांच कराने के लिए पड़ी हैं.’’

‘‘यह तो गंभीर स्थिति है… तुम सास की बातों में मत आ जाना… निखिल को समझा दो कि तुम अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाना चाहती,’’ मैं ने कहा.

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