हाय हैंडसम – भाग 3 : प्रेम की दिवानी गौरी का क्या हुआ

मैं ने मन में सोच लिया, मैं अपना मोबाइल नंबर बदल लूंगा और कुछ समय के लिए फेसबुक चलाना भी बंद कर दूंगा. उसी समय मु?ो याद आया, गौरी ने मु?ा से कहा था, अगर मु?ो जिंदा देखना चाहते हो तो मु?ो कभी फेसबुक से अलग मत करना.’ मैं ने मन में सोचा, अगर गौरी ने ऐसावैसा कुछ कर लिया तो? नहीं, वह ऐसावैसा कुछ नहीं करेगी. मु?ो थोड़ाबहुत बुराभला कहेगी और फिर नौर्मल हो जाएगी. इसी बहाने कमसेकम उस के दिलोदिमाग से प्यार का भूत तो उतर जाएगा. मैं ने ऐसा ही किया. दिल्ली से वापस आने के बाद अपना मोबाइल नंबर, जो गौरी के पास था बंद करवा कर दूसरा नंबर ले लिया और फेसबुक भी चलाना बंद कर दिया.

4 वर्षों बाद अब अचानक एक दिन मेरे व्हाटसऐप पर एक मैसेज आया, ‘‘हम तो आप को धोखेबाज, चालबाज और बेवफा भी नहीं कह सकते क्योंकि आप ने तो हमें कभी प्यार किया ही नहीं था. प्यार तो हम ने आप से किया था और वह भी बेइंतहा, हद से भी ज्यादा. हां, आप से यह जरूर पूछेंगे, आप ने ऐसा क्यों किया? आप का प्यार पाने के लिए हम ने रातदिन पढ़ाई कर के इंटर की परीक्षा में टौप किया, उस के बाद बीएससी भी फर्स्ट डिवीजन से पास कर ली. आप को नहीं मालूम, जब हम ने इंटर में टौप किया था तो हम कितने खुश थे. कितने ख्वाब देख डाले थे हम ने आप के लिए. हमें पूरा यकीन था आप अपना वादा निभाने के लिए हमारे पास जरूर आएंगे. हमें यह नहीं मालूम था आप ने हम से ?ाठ बोला था. हम ने सैकड़ों बार आप को फोन लगाया, आप ने अपना फोन नंबर बदल दिया. फेसबुक पर भी हमारा कोई मैसेज नहीं पढ़ा, क्यों? क्यों किया आप ने ऐसा? हमारी भावनाओं के साथ आप ने खिलवाड़ क्यों किया?

‘‘हैंडसम, आप अच्छे इंसान हैं, इस बात का अंदाजा हमें तभी हो गया था जब हम आप से मिले थे और आप ने हमारी बेपनाह खूबसूरती को नजरभर कर भी नहीं देखा था. न आप ने हमारी खूबसूरती की तारीफ की थी. उसी दिन हम सम?ा गए थे आप उन आदमियों में से नहीं हैं जो किसी भी लड़की को देख कर अपना आपा खो देते हैं. आप की शालीनता और गंभीरता के कायल तो हम आज भी हैं. लेकिन हमें आप से यह उम्मीद नहीं थी कि आप हम से इस तरह किनारा कर जाएंगे.’’

व्हाट्सऐप पर गौरी का लंबा मैसेज पढ़ कर मैं असमंजस में पड़ गया. समझ नहीं आ रहा था, मैं गौरी के मैसेज का क्या जवाब दूं? जवाब दूं भी या नहीं? सोचा, अगर जवाब दूंगा तो बात आगे बढ़ जाएगी और नहीं दिया तो वह अपना आपा खो बैठेगी. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ जाएंगी. फिर सोचा, मु?ो गौरी से बात कर के उसे सम?ा देना चाहिए.

मैं ने गौरी को मैसेज किया, ‘‘गौरी, तुम ने मेरे कहने से इंटर में टौप किया और फिर बीएससी भी फर्स्ट डिवीजन से पास किया, यह जान कर मु?ो बेहद खुशी हो रही है. रही बात तुम से बात न करने की, तो सुनो, दिल्ली से वापस आने के बाद मु?ो किन्हीं कारणों से अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. इसलिए कंपनी ने अपना सिम भी वापस ले लिया. उसी में तुम्हारा नंबर था. और फेसबुक मैं इसलिए नहीं देख पाया, क्योंकि मैं भी 4 सालों से काफी परेशान रहा, मेरी पत्नी एक्सपायर हो गई थीं.’’

‘‘ओह, सो सैड. यू नो हैंडसम, मेरी मम्मी भी नहीं रहीं. वे भी…’’ गौरी भावुक हो गई.

‘‘अरे, फिर तो बड़ी मुश्किल हो गई होगी?’’

‘‘हां, और पापा ने हमारी शादी कर दी,’’ उस ने कहा.

‘‘इतनी जल्दी?’’

‘‘हां, जानते हो हैंडसम, हमारे हसबैंड बहुत अच्छे इंसान हैं. बिलकुल आप के जैसे. बड़े बिजनैसमैन हैं. बहुत प्यार करते हैं हम से. पर हम ने उन से कह दिया, हम अपने हैंडसम से प्यार करते हैं.’’

‘‘गौरी, यह तुम ने गलत किया, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए.’’

‘‘क्यों नहीं करना चाहिए? हम किसी को धोखे में नहीं रखना चाहते, इसीलिए हमारे मन में जो था, वह हम ने कह दिया.’’

‘‘एक बात कहूं गौरी, तुम मु?ो बहुत प्यार करती हो न?’’

‘‘यह भी कोई पूछने वाली बात है. हम तो आप को खुद से भी ज्यादा प्यार करते हैं.’’

‘‘तो सुनो, अपना यह प्यारव्यार वाला चक्कर छोड़ कर अपने हसबैंड से प्यार करो. उसी में अपनी दुनिया और अपनी खुशियों को बसाओ. तुम्हें उसी में सबकुछ मिल जाएगा.’’

‘‘लेकिन आप तो नहीं मिलोगे. हैंडसम, हम अपने हसबैंड से साफ कह चुके हैं कि जब तक हम अपने हैंडसम से नहीं मिल लेंगे तब तक हम किसी के नहीं हो पाएंगे और उन्होंने हमारी बात मान भी ली.’’

‘‘अपनी यह नादानी छोड़ दो. गौरी. ऐसा पागलपन अच्छा नहीं होता. गौरी, कागज की नाव में सवार हो कर भावनाओं का सफर तय नहीं हो सकता और अब तो तुम्हारी शादी भी हो गई है. अब तुम्हें तुम्हारी खुशियां तुम्हारे हस्बैंड में ही मिलेंगी, कहीं और नहीं.’’

‘‘हैंडसम, एक बार, बस, एक बार आप हमें अपने सीने से लगा कर आई लव यू बोल दो. यकीन करना, आप फिर जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे.’’

‘‘नहीं, यह नामुमकिन है, गौरी. तुम मु?ा से यह उम्मीद मत करो. मैं ऐसा कुछ नहीं कह पाऊंगा. तुम अच्छी तरह जानती हो, मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करता हूं. मैं अपने परिवार को धोखा नहीं दे सकता और तुम्हारे लिए तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा ही नहीं.’’

‘‘ठीक है, जब हम आप के नहीं हो पाए तो किसी और के भी नहीं हो पाएंगे. हम अपनी गाड़ी को सड़क के डिवाइडर से लड़ा देंगे और मर जाएंगे. हम सच कह रहे हैं, हैंडसम. इसे हमारी धमकी मत सम?ा लेना. जब हमारा दिल ही टूट गया, तो हम जी कर क्या करेंगे.’’

गौरी की बात सुन कर मैं एकदम घबरा गया. मैं ने कहा, ‘‘अच्छा ठीक है, अगर मेरे मिलने और आई लव यू बोलने से तुम्हें खुशी मिल रही है तो मैं बोल दूंगा लेकिन उस के बाद तुम कोई और जिद  नहीं करोगी.’’

‘‘हां, हम वादा करते हैं, आप के मिलने और आई लव यू बोलने के बाद हम आप से फिर कभी कोई जिद नहीं करेंगे. लेकिन फोन पर नौर्मल बात तो कर ही सकते हैं?’’

‘‘हां, ठीक है, तुम जब चाहो, मु?ा से मिल सकती हो.’’

‘‘हैंडसम, आप को नहीं मालूम कि आज हम कितने खुश हैं. आप से मिलने और प्यार के तीन शब्द ‘आई लव यू’ सुनने के लिए हम कल ही आप के पास आ रहे हैं.’’

‘‘ओके, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

खूबसूरत लम्हे – भाग 3 : दो प्रेमियों की कहानी

संगीता तब इठलाती हुई बोली, ‘‘नींद के मामले में मैं बहुत लक्की हूं, जहां भी रहूं, सोने से पहले जिस आखिरी इंसान से मेरी मुलाकात होती है वह हो तुम, बस, आंखें बंद कर लेती हूं और सो जाती हूं,’’ इतना कह कर उस ने अपनी मस्त नजरों से मुझे निहारा.

शेखर ने भी तब भावुकता में बहते हुए कहा, ‘‘मैं सुबह उठ कर सब से पहले बंद आंखों से जिस का चेहरा देखता हूं, वह हो सिर्फ तुम.’’

बातों ही बातों में संगीता ने बताया, ‘‘आज सुबह ही मम्मीपापा आए थे, डाक्टर ने डिस्चार्ज करने को कहा. दरअसल, वे लोग किसी रिश्तेदार के यहां फंक्शन में गए हैं सुबह मुझे लेने आएंगे.’’

‘‘मतलब एक रात और तुम्हें मरीज बन कर यहां रहना पड़ेगा,’’ शेखर ने कहा.

‘‘नहीं, अब तुम आ गए हो न. अब डाक्टर से इजाजत ले लेती हूं, पेपर वगैरा सब तैयार हैं.’’

‘‘पर डाक्टर पूछेगा कि कौन लेने आया है तो क्या बोलोगी?’’ शेखर ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘हां, बोलूंगी कि मेरी सगी बहन के सगे भाई के जीजाजी आए हैं?’’

‘‘मतलब?’’ शेखर ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा.

‘‘मतलब तुम समझो, मैं चली डाक्टर से मिलने.’’

संगीता फौरन डाक्टर से इजाजत ले कर आ गई और अपना सब सामान समेटने लगी. फिर शेखर ने बैग उठाया और दोनों हौस्पिटल से बाहर निकल पड़े.

रिकशा बुलाने से पहले ही संगीता ने पूछा, ‘‘कहां चल रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूंगा और मैं उसी रिकशे से वापस आ जाऊंगा,’’ शेखर ने सहज भाव से कहा.

‘‘नहीं, कहीं घूमने चलो न,’’ संगीता का आग्रह भरा स्वर था.

‘‘अभी तुम्हारी तबीयत नाजुक है. चुपचाप घर चलो,’’ शेखर ने समझाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, चलो लस्सी पिला दो,’’ संगीता बच्चे की तरह जिद करती हुई बोली.

शेखर तब भड़क गया, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न, अभी फीवर से उठी हो और ठंडा?’’

संगीता तपाक से बोली, ‘‘जब तक तुम नहीं मिलते दिमाग ठीक रहता है.’’

‘‘अगर मैं कभी न मिलूं तब तो तुम बिलकुल ठीक रहोगी?’’ शेखर ने जानबूझ कर ऐसा सवाल किया.

तब संगीता घबराते हुए बोली, ‘‘अरे, ऐसा सोचना भी मत वरना तुम आगरा में मुमताज का ताजमहल निहारते रहोगे और मैं आगरा के पागलखाने में रहूंगी. वैसे भी आजीवन साथ रहना मुश्किल है, मेरे डैडी बहुत ही सख्त हैं, कुछ लमहे तो जी लूं.’’

शेखर उस की बकबक से तंग आ कर बोला, ‘‘प्लीज, अब रिकशे में बैठो. रास्ते में थोड़ी देर जूली पार्क में बैठेंगे फिर तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

थोड़ी देर बाद दोनों जूली पार्क में थे. शाम गहरा गई थी. सूरज की लालिमा अंतिम चरण में थी, अत: अंधकार गहराता जा रहा था. शेखर पेड़ से टिक कर बैठा और संगीता उस की गोद में सिर रख लेट गई.

शेखर की उंगलियां संगीता की कालीघनी जुल्फों से अठखेलियां करने लगीं. शेखर बिना बोले अपनी नई रचना सुनाता रहा और संगीता उस की गोद में सुकून से सोती रही. वह वाकई में सो जाती लेकिन शेखर ने उसे जगाते हुए चलने को कहा.

दोनों दोबारा रिकशे में बैठ गए. आज संगीता काफी खुश थी. उस का सारा रोग ही काफूर हो गया था. शेखर भी संगीता से मिलने के बाद खुद को काफी तरोताजा महसूस करने लगा था.

शेखर ने संगीता को उस के घर के सामने ड्रौप करने के लिए रिकशा रुकवाया. उसे सामने संगीता के मम्मीपापा दिखे. उन की आंखों में उसे भरपूर आक्रोश और नफरत दिखी. कुछ कहने से पहले ही संगीता के पापा आगे बढ़ने लगे, पर उस की मां ने उन्हें रोक लिया. संगीता भी माहौल को देखते हुए बिलकुल खामोश रही और रिकशे से उतर कर चुपचाप घर के अंदर चली गई.

शेखर का रिकशा आगे बढ़ गया. रास्ते में मजाक में कही संगीता की बात शेखर को बारबार कचोटती रही कि कहीं दोनों का प्यार धर्म की भेंट न चढ़ जाए?

दूसरे दिन शेखर डरतेडरते संगीता के घर के सामने गया. संगीता के पड़ोसियों से पता चला कि सभी लोग पंजाब चले गए हैं. शेखर बस ठगा सा रह गया.

शेखर उन्हीं खूबसूरत लमहों के सहारे जी रहा था, पर आज अचानक संगीता से मुलाकात, उस के पति का सामीप्य, उस की उपेक्षा. थोड़ी देर के लिए वह उदास हो गया, लेकिन गुजरे हुए खूबसूरत लमहों के संग जीने की उस की चाह कम न हुई. उस के पास अब रह गई थीं बस, संगीता की यादें और कुछ खूबसूरत लमहे.

रूह का स्पंदन – भाग 3: क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

पैर की जूती – भाग 3 : क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

जरीना जिस दिन से अमजद के घर में आई, उसी दिन से ही उस ने उस के घर का सारा काम संभाल लिया. इस पर भाभी कहतीं, ‘‘देखो जरीना, हमें आलसी मत बनाओ. बुजुर्गों का कहना है, काम करते रहो. इस से बच्चा होने के समय तकलीफ नहीं होती और तुम हमें बिठाए रखती हो.’’

‘‘अपनी ननद के रहते आप काम करेंगी, भाभी? आप चाहें तो पूरे घर की दौड़ लगाइए. कसरत होती रहेगी.’’

इस पर फरजाना हंस पड़ती. घर के कामों में व्यस्त रहने के कारण जरीना अपने उस अतीत को धीरेधीरे भूलने लगी जिस की आंच में उस का बदन 3 साल तक जलता रहा था. करीम ने भी उस की खोजखबर लेने की कोशिश नहीं की थी.

होली से 5 रोज पहले, जरीना अमजद को चाय देने गई तो उस ने उसे अपने समीप बिठाते हुए पूछा, ‘‘यह करीम तुझे कितना चाहता है, मुन्नी?’’इस पर जरीना ने सिर झुका कर कहा, ‘‘भाईजान, मैं ने तो आज तक उन की आंखों में प्यार जैसी चीज पाई ही नहीं.

3 साल में कई मुसलिम त्योहार आए और गए, मगर उन्होंने एक बार भी मुझे मायके नहीं भेजा. होली से हमारे घर का काफी लगाव है. एक दिन मैं ने उन से कहा कि हम लोग भी अपने हिंदू दोस्तों को बुला कर होली का जश्न मनाएं. इस पर वे भड़क उठे और लगे गालियां देने.’’

‘‘कुछ भी हो मुन्नी, मर्द के दिल के किसी कोने में उस की बीवी के लिए बेपनाह मुहब्बत का जज्बा जरूर होता है. सवाल है उसे जगाने का.’’

अमजद ने चाय पी कर जाने से पहले जरीना से मुसकराते हुए कहा, ‘‘देख मुन्नी, इस बार की होली में प्यार जैसी चीज ज्यादा उभरनी चाहिए, हम पूरे घर वाले एकसाथ इस होली को मनाएंगे. हां, मेरे स्टाफ के लोगों के लिए तुम लोग कुछ मिठाई बना लो, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘जैसी आप की मरजी, भाईजान.’’

उस रात को फरजाना और जरीना रातभर जाग कर मिठाई बनाने में मशगूल रहीं. पड़ोस की कमला भाभी भी उन्हें सहयोग देने आ गई थीं.

सवेरा होने से पहले ही अमजद थाने से आ गया. फरजाना उसे देख कर हैरान रह गई.

‘‘जनाब, आज तो आप की होली थाने में होती है. यहां कैसे पहुंच गए?’’

‘‘देखो बेगम, हमारी बहन आई है और हम आज इसी खातिर थाने से छुट्टी ले कर आए हैं.’’ और अमजद ने आगे बढ़ कर फरजाना के चेहरे पर ढेर सारा गुलाल मल दिया. जरीना भैया और भाभी की इस कशमकश के दौरान हंसतीमुसकराती रही.

‘‘जरीना, यह ले, तू भी अपनी भाभी को लगा. मैं कमला भाभी और दूसरे लोगों से मिल कर आता हूं.’’

अमजद उसे गुलाल थमा कर बाहर चला गया और जरीना ने तेजी से आगे बढ़ कर फरजाना के मुंह पर गुलाल मल दिया.

फरजाना इस पर झींकती हुई बोली, ‘‘आज तो तुम दोनों मुल्लाओं के बीच मैं बेमोल मारी गई.’’ फिर फरजाना ने भी आगे बढ़ कर जरीना के चेहरे पर गुलाल मल दिया. इतने में महल्ले की और औरतें भी आ गईं. और सब ने खूब मिल कर एकदूसरे पर रंग डाला.

12 बजे के करीब अमजद लौट आया. उस के साथ करीम भी था. जरीना करीम को देख कर चौंकी. दोनों के चेहरे रंगों से पुते हुए थे. अपने बदन पर एक बूंद रंग का छींटा न लेने वाले करीम की गत देख कर जरीना आश्चर्य में डूब गई.

अमजद के साथ करीम को आता देख कर फरजाना ने जरीना से कहा, ‘‘जरीना, हमारे मियां तुम्हारे मियां को भी लाइन पर ले आए हैं. रंग की बालटी तैयार करो.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं यह नहीं कर सकती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, दिल नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मैं समझ गई. मगर मैं क्यों चूकूं.’’

फरजाना ने उन लोगों के अंदर आतेआते रंग की बालटी तैयार कर ली और जैसे ही वे अंदर घुसे, उन दोनों पर रंगभरी बालटी उड़ेल दी.

‘‘अरे भाभीजान, यह क्या कर रही हैं?’’ करीम ने अपने चेहरे को बचाते हुए कहा.

करीम के इस स्वर से जरीना चौंकी. करीम का इतना मधुर स्वर तो उस ने आज पहली बार सुना था.

‘‘अरे मियां, वह देखो, जरीना को पकड़ो और रंगों से सराबोर कर दो.’’

अमजद के ये शब्द सुनते ही जरीना अंदर को भागी. करीम ने आगे बढ़ कर उसे पकड़ लिया और उस पर रंग डालते हुए बोला, ‘‘माफ नहीं करोगी, जरीना? मैं ने तुम्हें बहुत सताया है. पर अमजद भाईजान ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मैं तुम्हारा कुसूरवार हूं. तुम मुझे जो चाहे सजा दो.’’

जरीना, करीम की बांहों में बंध कर सिसक उठी.

‘‘जरीना, खुशी के मौके पर रोते नहीं. फरजाना, मिठाई लाओ. ये दोनों एकदूसरे को मिठाई खिलाएंगे, जिस से इन दोनों के बीच की दूरी मिट जाए.’’

अमजद की इस बात से जरीना और करीम भी मुसकराए बिना रह न सके. फरजाना अंदर से रसगुल्ले उठा लाई और दोनों के हाथों में थमा कर बोली, ‘‘अब, शुरू हो जाओ.’’

जरीना ने कांपते हुए करीम के मुंह में रसगुल्ला ठूंस दिया और करीम ने जरीना के मुंह में. फिर अचानक ही करीम ने जरीना के हाथों को ले कर चूम लिया.

अमजद चिल्लाया, ‘‘वाह, क्या बात है. इसे कहते हैं ईद में बिछड़े और होली में मिले. फरजाना, देखो इन दोनों को.’’

फरजाना करीम को अंदर ले गई तो जरीना ने अमजद को अकेले पा कर उस से धीमे से पूछा, ‘‘भैया, ये आए कैसे?’’

‘‘वाह, आता क्यों नहीं. अपना उदाहरण दिया. ठीक है मांबाप से प्यार करो. मगर इस के माने ये नहीं हैं कि बीवी से मुंह मोड़ लो. फिर शादी क्यों की थी? वैसे वह मुझ से काफी घबराता है, पहले तो वह मुझे सिर्फ तुम्हारा फुफेरा भाई और दूर का ही रिश्तेदार समझता रहा. पर संबंधों की घनिष्ठता और फिर थाने जा कर हथकड़ी पहन कर बैठने के बजाय सोचा, चलो अपनी बीवी से माफी मांगना ही अच्छा है. मैं ने उस का दिमाग पूरी तरह साफ कर दिया है. अब कहीं भी टूटफूट नहीं है. अब तो इस का ट्रांसफर भी इसी शहर में हो गया है.’’

‘‘सच भाईजान?’’

‘‘तो क्या मैं झूठ कह रहा हूं, जा कर खुद उसी से पूछ ले.’’

इस पर जरीना शरमा गई. वह रंगों के छितराए बादल से अपने सुंदर भविष्य को देख रही थी, पैर की जूती इस होली से गले का हार जो बन गई थी.

वे 3 दिन – भाग 3 : इंसान अपनी सोच सेे मौडर्न बनता है

बूआ की ऐसी हालत देख कर नव्या को लगा कि दाल में कुछ काला है. जब दवा देने पर भी फर्क नहीं पड़ा तो अब नव्या की भी चिंता बढ़ गई.

‘‘चलिए बूआ, मैं आप को डाक्टर को दिखा लाती हूं. यहां पास में ही सरकारी अस्पताल है, कोई न कोई डाक्टर तो मिल ही जाएगा.’’

‘‘पड़ोस में से किसी को बुला ला, इतनी रात गए हम अकेली कैसे जाएंगी?’’

‘‘बूआ, आप चिंता छोडि़ए, मैं सब संभाल लूंगी,’’ नव्या ने बूआ को सहारा देने के लिए उन का हाथ पकड़ना चाहा, तो निकिता ने झटके से उसे अपने से दूर कर दिया.

‘‘आप… आप भी सच में हद करती हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं, आप ताला लगा कर बाहर आइए. रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया,’’ भुनभुनाते हुए नव्या बाहर निकल गई.

‘‘पर, गाड़ी को तू धक्का मार कर अस्पताल तक ले जाएगी क्या?’’

‘‘नहीं बूआ चला कर,’’ नव्या को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख निकिता बूआ ऐसे हैरान हुईं जैसे उन्होंने किसी दूसरे ग्रह के प्राणी को ड्राइविंग करते देख लिया हो.

अस्पताल में नाइट ड्यूटी पर तैनात स्टाफ को सोते देख नव्या ऐसे भड़की कि रिसैप्शनिस्ट से ले कर नर्स तक सब हरकत में आ गए. उन्होंने ड्यूटी डाक्टर को उठाया.

इस छोटे से शहर का सरकारी अस्पताल भी ठीकठाक था. डाक्टर ने जरूरी टैस्ट के बाद सोनोग्राफी की.

‘‘इन्हें अपैंडिक्स का दर्द है. मैं यह दर्द रोकने के लिए एक इंजैक्शन लगा देती हूं,’’ डाक्टर बोलीं.

नव्या को लगा, अब बूआ अपनी तबीयत के चलते 2 दिन अपने सारे नियमकानून ताक पर रख देंगी, पर उस के अंदाजे के उलट सुबह उठते ही वे वही रोबीली बूआ थीं.

उन्होंने उठते ही अपनी बेटी को फोन लगाया और उसे सारे हालात के बारे में बताया.

‘‘पूजा, तेरे पापा तो टूर पर गए हैं, पर तू अभी कोई बस पकड़ कर यहां आ जा.’’

‘‘मां, मैं अकेली कैसे आऊंगी? यहां से बसस्टैंड तक जाना, बस में बैठना…’’ बूआ चुप थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि बस से यहां अकेले आना तो दूर उन्होंने तो बेटी को अपनी गली से भी कभी अकेले नहीं निकलने दिया. हमेशा उसे छुईमुई बना कर रखा. पर अब क्या हो सकता था. एक दिन में तो कुछ भी बदला नहीं जा सकता.

कल से आज तक का सारा घटनाक्रम बूआ के जेहन में चलने लगा. न चाहते हुए भी वे अपनी बेटी की तुलना नव्या से करने लगीं. कितना दंभ था उन्हें अपने दिल्ली जैसे शहर में रहने का. अपने स्टाइलिश कपड़ों का, नएनए होटलों में घूमने का, बच्चों के हाईफाई स्कूलों का. इन के बूते पर वे अपने भाईभाभी को नीचे दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं.

इतने में नव्या चाय और बिसकुट लिए उन के सामने खड़ी मुसकरा रही थी. उस ने सबकुछ सुन लिया था. अब चौंकने की बारी नव्या की थी. निकिता बूआ ने उसे अपने गले से लगा लिया.

‘‘मेरी बहादुर बच्ची, तू ने मेरी आंखें खोल दीं. जिस तरह से तू ने कल रात को मुसीबत में मुझे संभाला, तेरी उम्र का कोई लड़का भी क्या संभाल पाता. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

‘‘कहां तो मैं तेरा खयाल रखने आई थी, उलटा तुझे एक दिन में परेशान कर डाला. मुझे माफ कर दे,’’ कहते हुए निकिता बूआ रोंआसी हो गईं.

तीसरे दिन नव्या के मम्मीपापा के आते ही निकिता बूआ उस की तारीफों के पुल बांधने लगीं, ‘‘भाभी, आप ने बहुत अच्छी परवरिश की है नव्या की. इन 3 दिनों में उस ने मुझे अच्छे से सिखा दिया कि ‘वे 3 दिन’ औरत के लिए सजा नहीं, उस की सहने की ताकत को मापने का पैमाना है.

‘‘नव्या ने मुझे जिंदगी का वह गूढ़ मंत्र भी दे दिया, जो मैं इतने सालों में भी नहीं सीख पाई. इनसान बड़े शहरों में रहने से, सुखसुविधाएं अपना लेने से मौडर्न नहीं बनता, बल्कि वह मौडर्न बनता है अपनी नई सोच से.

‘‘मैं भी घर पहुंचते ही अपनी बेटी को ड्राइविंग स्कूल में भेज दूंगी और सोच रही हूं मौका मिलते ही महीनेभर उसे आप के पास भेज दूं. कुछ दिन नव्या के पास रहेगी, तो वह भी थोड़ी स्मार्ट बनेगी.

‘‘लगता है कि मेरे कठोर अनुशासन ने उसे दब्बू बना दिया है,’’ कहते हुए बूआ ने नव्या को गले लगा लिया.

‘‘मैं अपनी सोच पर बहुत शर्मिंदा हूं भाभी. किसी ने सही कहा है कि हमारे समाज में औरत ही औरत की दुश्मन है.’’

मम्मी अपनी ननद के मुंह से ये सब बातें सुन कर चकित सी नव्या की तरफ देखने लगीं, तो उन्होंने पाया कि उन की दबंग बेटी अपना कौलर ऊंचा किए मुसकरा रही थी. वह मैचो गर्ल थी न, पापा की.

अब क्या करूं मैं – भाग 3

यह कह कर मैं रो पड़ी थी तो भतीजे ने अपना हाथ पीछे कर लिया था. माला बहू के गले में पहना कर मैं ने उस का माथा चूम लिया. बड़ी प्यारी लगी मुझे पूजा. झट से मेरे लिए नाश्ता परोस लाई. उसी पल मुझे समझ में आ गया कि भैयाभाभी नीचे अलग रहते हैं और बहूबेटा ऊपर अलग हैं.

‘‘बूआ, पूजा का भी मां ने वही हाल किया था जो आप का हुआ. जो भी मां से छू भर जाता है उसी पर मां कोई न कोई आरोप लगा देती हैं. किसी दूसरे के मानसम्मान की मां को कोई चिंता नहीं. हैरान हूं मैं कि कोई इतना सब कैसे और क्यों करता है. आज कोई भी मां के पास जाना नहीं चाहता है. अपनी ईमानदारी पूजा भी कब तक प्रमाणित करती. इस की मां ने ही इसे 50 तोला सोना दिया है और मां ने इस पर भी अपनी अंगूठी उठा लेने का आरोप लगा दिया…और सब से बड़ी बात जिन चीजों के खो जाने के आरोप मां लगाती हैं वह चीजें वास्तव में होती ही नहीं हैं. मां एक काल्पनिक चीज गढ़ लेती हैं जो न कभी मां के पास मिलती है न ही उस के पास मिलती है जिस पर मां आरोप लगाती हैं.’’

याद आया मुझे, जब पहली बार भाभी ने मुझ पर आरोप लगाया था. भारी दुपट्टा और सुनहरी सैंडल का, ये दोनों चीजें कभी मिली ही नहीं थीं.

‘‘मां का ध्येय मात्र दूसरे को अपमानित करना होता है इसलिए वह अपनी कोई भी चीज खो जाने का बहाना करती रहती हैं… मैं क्या करूं बूआ, वह समझती ही नहीं.

‘‘और यही सब मां ने निशा को भी सिखा दिया है. मैं मानता हूं कि उस का पति पहले थोड़ा बिगड़ा हुआ था, अब शादी के बाद काफी संभल गया है, लेकिन निशा बातबेबात हर पल मां जैसा व्यवहार ससुराल में करती रहती है, जिस पर उस का पति तिलमिलाता रहता है. उस पर, उस की मां पर अपना कोई न कोई सामान चुरा लेने का आरोप निशा लगाती रहती है. अब आप ही बताओ, घर में शांति कैसे रहेगी…अपनी इज्जत तो सब को प्यारी है न बूआ.’’

‘‘अपनी मां को किसी डाक्टर को दिखाओ. कहीं कोई मनोवैज्ञानिक कारण ही न हो.’’

‘‘हर बेटी अपनी मां के चरित्र का आईना होती है. जो मां ने नानी से सीखा वही निशा में रोपा. बीमार होते हैं ऐसे लोग, जो जहां जाते हैं असंतोष और आक्रोश फैलाते हैं. आप ने हमें छोड़ दिया, दादादादी ने भी ताऊजी के पास ही रहना ठीक समझा. धीरेधीरे सब दूर हो गए. पूजा भी साथ नहीं रहना चाहती. निशा का पति भी अब उसे साथ नहीं रखना चाहता.

‘‘बूआ, मैं ने इसीलिए आप को बुलाया था कि इस टूटी डोर का एक सिरा पकड़ कर अपनी मां के किए का कुछ प्रायश्चित्त कर सकूं.’’

मेरी गोद में सिर छिपा कर रोने लगा मेरा भतीजा.

‘‘हर बेटी यही चाहती है कि उस का मायका रसताबसता रहे, फलताफूलता रहे क्योंकि मायका उसे बड़ा प्यारा होता है. वहां से मिले शगुन के 5 रुपए भी बेटी को लाखों के बराबर लगते हैं. चाहे बेटी अपने घर करोड़पति ही क्यों न हो… तुम सब को मेरी उम्र भी लग जाए… मेरे मुंह से हर समय यही निकलता है.’’

उस मर्म को मैं सहज ही महसूस कर सकती हूं जो आज भैया का है, उन के बेटे का है. क्या करते भैया भी. जिस का हाथ पकड़ा था उस का परदा तो रखना ही था. यह अलग बात है कि उसी ने पूरे घर, हर रिश्ते को नंगा कर दिया. हर रिश्ता दोनों तरफ से निभाना पड़ता है. अकेला इनसान कब तक अपने हिस्से का दायित्व निभाता रहेगा. एक रिश्ते का पूर्ण रूप तभी सामने आता है जब दोनों तरफ से निभाया जाए. अकेले की तूती ज्यादा देर तक नहीं बज सकती.

रो रहा था मेरा भतीजा. उस का मन तो हलका हो गया होगा लेकिन मेरे मन का बोझ यह सोच कर बढ़ने लगा था कि कैसे मैं अपनी चचिया सास के घर जा कर भतीजी की वकालत कर पाऊंगी. कैसे उसे समझा पाऊंगी कि वह अपनी बहू को माफ कर दें. सत्य तो यही है न कि आज तक मैं खुद भी अपनी भाभी को क्षमा नहीं कर पाई हूं.

‘‘बूआ, आप सिर्फ एक बार कोशिश कर के देखिए. मैं नहीं चाहता कि निशा का घर उजड़ जाए. मैं हाथ जोड़ता हूं आप के सामने, आप एक बार निशा के पति को समझाइए और मैं भी निशा को समझाऊंगा.’’

‘‘मैं जाऊंगी, बेटा, निशा मेरी भी तो बच्ची है. मैं कोशिश करूंगी पर तुम हाथ मत जोड़ो.’’

घर का माहौल बोझिल था फिर भी भैया ने मुझे नेग दे कर विदा किया.

भाभी सदा की तरह आज भी बाहर नहीं आईं. कुछ लोग अपने कर्मों की जिम्मेदारी कभी लेना ही नहीं चाहते. वापस लौट आई मैं. मेरा परिवार मुझे वापस पा कर बहुत खुश था.

Holi Special: शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 3

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में.

Holi Special: शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 2

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मेरा संसार – भाग 2 : अपने रिश्ते में फंसते हुए व्यक्ति की कहानी

तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं. फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ. ‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’ कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है. ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है?

इसलिए कि मैं अकेला हूं? रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को. बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का. घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है.

फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है. सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है. मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि यह महज व्यवहार होता है, प्रेम नहीं, तो वह भड़क जाती है. उस का अहम् सिर चढ़ कर बोलने लगता है कि प्रेम के संदर्भ में मैं उसे कैसे समझाने लगा? जो प्रेम वह करती है वही एकमात्र सही है. और यदि मुझे उस से बातें करनी हैं या प्रेम करना है तो नतमस्तक हो कर उस की हां में हां मिलाता रहूं. यह अप्रत्यक्ष शर्त है उस की. किंतु मेरे लिए पे्रेम का अर्थ सिर्फ प्रेम है, कोई शर्त नहीं, कोई बंधन नहीं. प्रेम तो स्वतंत्र, विस्तृत होता है. एकदम खुला हुआ, जहां स्वयं का भान नहीं बल्कि जिस से प्रेम होता है उस की ही मूर्ति, उस का ही गुणगान होता है. मैं प्रेम को किसी प्रकार का संबंध भी नहीं मानता क्योंकि संबंध भी तो एक बंधन होता है और प्रेम बंधता कहां है? वह तो खुले आसमान की तरह अपनी बांहें फैलाए रखता है. क्योंकि व्यवहार में अंतर आना हो सकता है किंतु प्रेम में? …संभव नहीं. सच तो यह है कि रचना मेरे प्रेम को समझना नहीं चाहती और मैं भी उसे कुछ समझाना नहीं चाहता. कभीकभी मुझे लगता है कि मैं बेकार ही अपने दिमाग को परेशान किए रखता हूं.

मैं ने कोई ठेका तो नहीं ले रखा है उसे समझाने का या उसे अपनी हालत बता कर सहानुभूति बटोरने का…यदि ऐसा है तो फिर मेरे प्रेम का अर्थ क्या हुआ? पेन पता नहीं कहां रख दिया…ज्योति मेरी हरेक चीज को कायदे से जमा कर रखती है, और जब भी मुझे कुछ लेना होता है उसे आवाज दे देता हूं…. ज्योति कहती है कि जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं. इतने सारे कामों के बीच भी वह कभी कहती नहीं कि मैं थक चुकी हूं, कुछ तुम ही कर लो….पता नहीं ज्योति किस मिट्टी की बनी है. ओह, ज्योति तुम कहां हो. अचानक ज्योति की याद तेज हो गई. रचना कहीं खो गई. मैं ज्योति को कितना नजरअंदाज करता हूं इस के बावजूद ज्योति मेरा उतना ही ध्यान रखती है…क्या प्रेम यही होता है? ज्योति द्वारा किया जाने वाला व्यवहार मेरे प्रेम की परिभाषा को नए मोड़ पर ले जा रहा है, क्या मैं अब तक…यह जान नहीं पाया कि प्रेम होता क्या है? रचना द्वारा किए जाने वाला प्रेम और ज्योति द्वारा किया जाने वाला प्रेम…इस मुकाबले में मुझे तय करना है कि आखिर कौन सही है? आज इस अकेलेपन में निर्णय तो लेना ही होगा…मैं ने डायरी लिखने का मन बदल दिया और इसी द्वंद्व में स्वयं को धकेल दिया कि अचानक मोबाइल की रिंग बजी. 

हाय हैंडसम – भाग 2 : प्रेम की दिवानी गौरी का क्या हुआ

अगले दिन सुबह मैं बस में बैठ कर जा रहा था. मन किसी अनजाने भय से भयांकित था. सोच रहा था, पता नहीं क्या होगा? मेरे साथ कहीं कुछ गलत न हो जाए. अगर ऐसा कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों को कैसे सम?ाऊंगा? मैं तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा, मेरी इज्जत का ढिंढोरा बीच बाजार पिट जाएगा? एक मन कह रहा था, मैं गौरी से न मिलूं, तो एक मन कह रहा था, मिल लो, मिलने से स्थिति साफ हो जाएगी. यही सब सोचते हुए मैं मुरादाबाद पहुंच गया. कपूर कंपनी चौराहे पर बस रुकी. मैं बस से उतरा ही था, गौरी मेरे सामने आ कर बोली, ‘हाय हैंडसम.’ मैं उसे देख कर सकपका गया.

‘जनाब, पूरे 9 बजे से यहां खड़ी आप का इंतजार कर रही हूं,’ उस ने जताया.

मैं ने बस, उस से इतना ही कहा, ‘तुम ने मु?ो पहचान लिया?’

‘हां तो, इस में चौंकने की क्या बात है. बौडीशौडी तो बिलकुल फोटो जैसी है. बस, सिर के बाल ही तो थोड़े सफेद हुए हैं.’

मैं खामोश ही रहा.

‘हम चलें?’ उस ने सड़क किनारे खड़ी अपनी लाल रंग की बड़ी कार की तरफ इशारा कर के कहा.

‘हम कार से चलेंगे?’

‘हां कार भी हमारी, रैस्त्रां भी हमारा और लस्सी भी हमारी होगी, आप हमारे मेहमान जो हो.’

मैं उस की कार में बैठ गया. कार वही चला रही थी. हम मुरादाबाद से करीब 7 किलोमीटर दूर बिजनौर रोड पर एक रैस्टोरैंट में आ कर बैठ गए. उस ने 2 कुल्हड़ वाली लस्सी और 2 सैंडविच का और्डर दे दिया. वहां बैठे लोग मु?ो और उस को अजीब निगाहों से घूरने लगे. मु?ो अजीब लगा, तो मैं ने अपने हावभाव ऐसे कर लिए जैसे मैं उस का कोई रिश्तेदार हूं. वह बहुत उतावली हो रही थी. टेप रिकौर्डर की तरह पटरपटर बोले जा रही थी. वह क्या बोल रही थी, मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था क्योंकि मेरा दिलोदिमाग उस की बातों में नहीं लग रहा था. मैं, बस, उसे देखे जा रहा था. फिर उस ने अपने दोनों हाथों की हथेलियों में अपने दोनों गालों को रोका और कुहनियों को मेज पर टिका कर हसरत से मु?ो ऐसे देखने लगी जैसे कोई अनोखी चीज देख रही हो. फिर मुसकराने लगी.

मैं ने कहा, ‘अरे, ऐसे क्यों देख रही हो मु?ो?’

वह उसी तरह मुसकराते हुए बोली, ‘एक बात बोलूं हैंडसम, मेरे दिल ने आप को चाह कर कोई गलती नहीं की. आप तो कल्पना से भी अधिक स्मार्ट और हैंडसम हैं. दिन में 10 बार देखते हैं आप की तसवीर को.’

‘अच्छा, ऐसा क्या है उस तसवीर में?’ मेरे कहते ही वह अपने महंगे मोबाइल फोन पर मेरा फेसबुक अकाउंट खोल कर मेरी डीपी को मु?ो दिखाते हुए बोली, ‘‘हमारी निगाहों से देखिए अपनी इस तसवीर को. कैसे अपने दोनों हाथों को ऊपर कर के मंदमंद मुसकरा रहे हैं. इसी मुसकराहट ने हमारी जान ले ली.’’

मैं कभी अपनी फोटो देख रहा था, तो कभी उस को.

‘आप की लस्सी गरम हो रही है, पीजिए इसे,’ उस ने अधिकार से कहा.

मैं ने लस्सी का कुल्हड़ उठाया और एक घूंट भर कर कहा, ‘गौरी, तुम ने कहा था तुम मु?ा से मिलना चाहती हो, तो मैं तुम से मिल लिया. तुम ने यह भी कहा था मिलने के बाद मैं जो कहूंगा, तुम उस को मानोगी?’

‘तो कहिए न, हम आप की बात सुनेंगे भी और मानेंगे भी,’ वह तपाक से बोली.

मैं ने कहा, ‘अब तुम न तो मु?ो कभी फोन करोगी और न ही फेसबुक पर मु?ो कोई मैसेज करोगी.’

‘आप से प्यार तो करूंगी या वह भी नहीं करूंगी. सुनिए हैंडसम, हम आप को अब न फोन करेंगे, न आप से फेसबुक पर चैट करेंगे लेकिन एक शर्त पर, एक बार, बस, एक बार आप हम से मुसकरा कर आई लव यू कह दीजिए.’

मैं ने मन में सोचा, यह लड़की बहुत जिद्दी है. ऐसे मानने वाली नहीं है. इस के लिए कुछनकुछ तो करना ही पड़ेगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं तुम से सचमुच प्यार करने लगूंगा, तुम्हें आई लव यू भी बोलूंगा, लेकिन तब जब तुम अच्छे से अपनी पढ़ाई करोगी और फर्स्ट डिवीजन से अपनी इंटर की परीक्षा पास कर लोगी. उस से पहले, न तुम मु?ो फोन करोगी और न ही मु?ा से चैट करोगी.’

‘ओके हैंडसम, हमें आप की शर्त मंजूर है. अब हम खूब जम कर पढ़ाई करेंगे. हालांकि, यह सब करना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा क्योंकि जो शर्त आप ने हमारे सामने रखी है वह हमारे लिए किसी सजा से कम नहीं है. फिर भी हम इस सजा को आप की मोहब्बत का तोहफा सम?ा कर स्वीकार कर लेते हैं, पर आप हमें भूल मत जाना.’

मेरे ड्राइवर ने मु?ो फोन कर के कहा कि वह मुरादाबाद पहुंच गया है. ड्राइवर का फोन आते ही मैं ने गौरी से विदा ली. विदा लेते समय गौरी का चेहरा उतर गया. वह बहुत भावुक हो गई थी. उस की आंखों की चमक कम हो गई. वह एकदम छुईमुई सी दिखाई देने लगी. उस ने मुसकराने की कोशिश की, मगर उस के होंठ कांपने लगे. उस की आंखों में आंसू तैरने लगे. उस ने अपनी उंगली से आंख में लटके आंसू की उस बूंद को उठा लिया, जो टपक कर उस के गाल पर गिरने ही वाली थी.

मैं अपने ड्राइवर को गौरी के बारे में कुछ पता नहीं चलने देना चाहता था, इसलिए मैं गौरी से कुछ दूर चला गया. गौरी मु?ो अभी भी अपलक देख रही थी.

मैं कार में बैठ गया. ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ाई, तो गौरी ने अपना एक हाथ थोड़ा सा ऊपर उठा कर मु?ो बाय का इशारा किया. बदले में मैं ने कुछ नहीं किया. गाड़ी की पिछली सीट पर बैठा मैं पीछे घूम कर काफी दूर तक गौरी को देखता रहा. वह भी मु?ो यों ही देखती रही और अपनी उंगलियों से अपनी आंखों के आंसू पोंछती रही.

गौरी से मिलने के बाद एक बात तो पूरी तरह साफ हो गई कि वह बहुत ही मासूम और भोली लड़की थी. उस के मन में मेरे लिए कोई छलकपट नहीं था. दिल की भी साफ थी. पता नहीं कैसे वह मेरी तरफ आकर्षित हो गई. कोई बात नहीं, अगर उस से यह भूल हो गई तो मु?ो उस की भूल को सुधारना होगा.

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