सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम- भाग 2

‘‘मुझे भी अच्छी नहीं लगती.’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘बस, तो फिर हम सब उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘पापा कहेंगे, तब भी?’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ पूछा.

‘‘हां, तब भी बात नहीं करेंगे. उसे देख कर हंसना भी नहीं है, न ही उसे कुछ देना है. उस से कुछ मांगना भी नहीं है. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है. समझ गए न?’’

‘‘हां, समझ गए.’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ कहा, ‘‘पर दादी मां कहेंगी कि उसे बुलाओ तो…’’

‘‘तब देखा जाएगा. दोनों ध्यान रखना, हमें उस से बिलकुल बात नहीं करनी है.’’

‘‘पापा, इसे क्यों ले आए?’’ मासूम अनुष्का ने पूछा.

‘‘पता नहीं.’’ ऋजुता ने लापरवाही से कहा.

‘‘दीदी, एक बात कहूं, मुझे तो अब पापा भी अच्छे नहीं लगते.’’

‘‘मुझे भी,’’ मनु ने कहा. मनु ने यह बात कही जरूर, पर उसे पापा अच्छे लगते थे. वह उस से बहुत प्यार करते थे. उस की हर इच्छा पूरी करते थे. पर दोनों बहनें कह रही थीं, इसलिए उस ने भी कह दिया. इतना ही नहीं, उस ने आगे भी कहा, ‘‘दीदी, अब यहां रहने का मन नहीं होता.’’

‘‘फिर भी रहना तो पड़ेगा ही. अच्छा, चलो अब सो जाओ.’’

‘‘मैं तुम्हारे पास सो जाऊं दीदी?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘लात तो नहीं मारेगी?’’

‘‘नहीं मारूंगी.’’ कह कर वह ऋजुता का हाथ पकड़ कर क्षण भर में सो गई.

ऋजुता को अनुष्का का इस तरह सो जाना अच्छा नहीं लगा. घर में इतनी बड़ी घटना घटी है, फिर भी यह इस तरह निश्चिंत हो कर सो गई. कुछ भी हो, 17-18 साल की एक लड़की पूरी रात तो नहीं जाग सकती थी. वह भी थोड़ी देर में सो गई.

सुबह वह सो कर उठी तो पिछले दिन का सब कुछ याद आ गया. उस ने अनुष्का को जगाया, ‘‘कल रात जैसा कहा था, वैसा ही करना.’’

‘‘उस से बात नहीं करना न?’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘किस से?’’

‘‘अरे वही, जिसे पापा ले आए हैं, नई मम्मी. भूल गई क्या? दीदी, उस का नाम क्या है?’’

‘‘संविधा. पर हमें उस के नाम का क्या करना है. हमें उस से बात नहीं करनी है बस. याद रहेगा न?’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘अरे हां, हंसना भी नहीं है.’’

‘‘ठीक है.’’

इस के बाद ऋजुता ने मनु को भी समझा दिया कि नई मम्मी से बात नहीं करेगा. जबकि वह समझदार था और खुद भी उस से चिढ़ा हुआ था. इसलिए तय था कि वह भी संविधा से बात नहीं करेगा. विघ्न आया दादी की ओर से. चायनाश्ते के समय वह बच्चों का व्यवहार देख कर सब समझ गईं. अकेली पड़ने पर वह ऋजुता से कहने लगीं, ‘‘बेटा, अब तो वह घर आ ही गई है. उस के प्रति अगर इस तरह की बात सोचोगी, तो कैसे चलेगा. अविनाश को पता चलेगा तो वह चिढ़ जाएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं दादी,’’ पीछे खड़े मनु ने कहा.

‘‘बेटा, तू तो समझदार है. आखिर बात करने में क्या जाता है.’’

दादी की इस बात का जवाब देने के बजाए ऋजुता ने पूछा, ‘‘दादी, आप को पता था कि पापा शादी कर के नई पत्नी ला रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जब बताया ही नहीं तो कैसे पता चलता.’’

‘‘इस तरह शादी कर के नई पत्नी लाना आप को अच्छा लगा?’’

‘‘अच्छा तो नहीं लगा, पर कर ही क्या सकते हैं. वह उसे शादी कर के लाए हैं, इसलिए अब साथ रहना ही होगा. तुम सब बचपना कर सकते हो, पर मुझे तो बातचीत करनी ही होगी.’’ दादी ने समझाया.

‘‘क्यों?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बेटा, इस तरह घरपरिवार नहीं चलता.’’

‘‘पर दादी, हम लोग तो उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘ऋजुता, तू बड़ी है. जरा सोच, इस बात का पता अविनाश को चलेगा तो उसे दुख नहीं होगा.’’ दादी ने समझाया.

‘‘इस में हम क्या करें. पापा ने हम सब के बारे में सोचा क्या? दादी, वह मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती. हम उस से बिलकुल बात नहीं करेंगे. पापा कहेंगे, तब भी नहीं.’’ ऋजुता ने कहा. उस की इस बात में मनु ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘बेटा, तू बड़ी हो गई है, समझदार भी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘बिलकुल नहीं करेगी बात?’’ दादी ने फिर पूछा. इसी के साथ वहां खड़ी अनुष्का से भी पूछा, ‘‘तू भी बात नहीं करेगी अनुष्का?’’

अनुष्का घबरा गई. उसे प्यारी बच्ची होना अच्छा लगता था. अब तक उसे यही सिखाया गया था कि जो बड़े कहें, वही करना चाहिए. ऋजुता ने तो मना किया था, अब क्या किया जाए? वह अंगूठा मुंह में डालना चाहती थी, तभी उसे याद आ गया कि वह क्या जवाब दे. उस ने झट से कहा, ‘‘दीदी कहेंगी तो बात करूंगी.’’

अनुष्का सोच रही थी कि यह सुन कर ऋजुता खुश हो जाएगी. पर खुश होने के बजाए ऋजुता ने आंखें दिखाईं तो अनुष्का हड़बड़ा गई. उस हड़बड़ाहट में उसे रात की बात याद आ गई. उस ने कहा, ‘‘बात की छोड़ो, हंसना भी मना है. अगर कुछ देती है तो लेना भी नहीं है. वह मुझे ही नहीं मनु भैया को भी अच्छी नहीं लगती. और ऋजुता दीदी को भी, है न मनु भैया?’’

‘‘हां, दादी मां, हम लोग उस से बात नहीं करेंगे.’’ मनु ने कहा.

‘‘जैसी तुम लोगों की इच्छा. तुम लोग जानो और अविनाश जाने.’’

पर जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं. बच्चों के मन में क्या है, इस बात से अनजान अविनाश औफिस चले गए. जातेजाते संविधा से कहा था कि वह चिंता न करे, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा

संविधा ने औफिस से 2 दिनों की छुट्टी ले रखी थी. नया घर, जिस में 3 बच्चों के मौन का बोझ उसे असह्य लगने लगा. उसे लगा, उस ने छुट्टी न ली होती, तो अच्छा रहता.   अविनाश के साथ वह भी अपने औफिस चली गई होती.

सबसे हसीन वह: भाग 2

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं. मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में

यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मु झे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

लेखक : केशव राम वाड़दे

जो बीत गई सो बात गई- भाग 1

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

ऐताहासिक कहानी: वंश की मर्यादा- भाग 1

उदयपुर के राजमहल में राणाजी ने आपात सभा रखी थी. सभा में बैठे हर राजपूत सरदार के चेहरे पर चिंता

की लकीरें साफ नजर आ रही थीं. आंखों में गहरे भाव दिख रहे थे. सब के हावभाव देख कर ही लग रहा था कि किसी बडे़ दुश्मन के साथ युद्ध की रणनीति पर गंभीर विचारविमर्श हो रहा है.

सभा में प्रधान की ओर देखते हुए राणाजी ने गंभीर होते हुए कहा, ‘‘इन मराठों ने तो आए दिन हमला कर सिरदर्द कर रखा है.’’

‘‘सिरदर्द क्या कर रखा है अन्नदाता, इन मराठों ने तो पूरा मेवाड़ राज्य ही तबाह कर रखा है. गांवों को लूटना और उस के बाद आग लगा देने के अलावा तो ये कुछ जानते ही नहीं.’’ पास ही बैठे सरदार सोहन सिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘इन मराठों जैसी दुष्टता तो बादशाही हमलों के समय मुसलमान भी नहीं करते थे. पर मराठों का उत्पात तो सारी हदें ही पार कर रहा है. मुसलमान ढंग से लड़ते तो थे, लेकिन मराठे तो लूटपाट और आगजनी कर भाग खड़े होते हैं.’’ एक और राजपूत सरदार ने पहले सरदार सोहन सिंह की बात को आगे बढ़ाया.

सभा में इसी तरह की बातें सुन राणाजी और गंभीर हो गए. उन की गंभीरता उन के  चेहरे पर साफ नजर आ रही थी.

मराठों की सेना मेवाड़ पर हमला कर लूटपाट व आगजनी करते हुए आगे बढ़ रही थी. मेवाड़ की जनता उन के उत्पात से आतंकित थी.

उन्हीं मराठों से मुकाबला करने के लिए देर रात तक राणाजी मुकाबला करने के लिए रणनीति बना रहे थे और मराठों के खिलाफ युद्ध की तैयारी में जुटे थे. अपने राजपूत सरदारों को बुला कर उन्हें जिम्मेदारियां समझा रहे थे.

तभी प्रधानजी ने पूरी परिस्थिति पर गौर करते हर कहा, ‘‘खजाना रुपयों से खाली है. मराठों के आतंक से प्रजा आतंकित है. मराठों की लूटपाट व आगजनी के चलते गांव के गांव खाली हो गए और प्रजा अपना घर छोड़ कर भागने में लगी है. राजपूत भी अब पहले जैसे रहे नहीं, जो इन उत्पातियों को पलक झपकते मार भगा दें और ऐसे दुष्टों के हमले का मुकाबला कर सकें.’’

प्रधान के मुंह से ऐसी बात सुन पास ही बैठे एक राजपूत सरदार ने तैश में आ कर कहा, ‘‘पहले जैसे राजपूत अब क्यों नहीं हैं? कभी किसी संकट में पीछे हटे हों तो बताएं? आज तक हम तो गाजरमूली की तरह सिर कटवाते आए हैं और आप कह रहे हैं कि पहले जैसे राजपूत नहीं रहे.

‘‘पिछले 200 सालों से लगातार मेवाड़ पर हमले हो रहे हैं, पहले मुसलमानों के और अब इन मराठों के. रातदिन लगातार चलने वाले युद्धों में भाग लेतेलेते राजपूतों के घरों की हालत क्या हो गई? कभी देखा है आप ने? कभी राजपूतों के गांवों में जा कर देखो एकएक घर में 10-10 शहीदों की विधवाएं बैठी मिलेंगी. फिर भी राजपूत तो अब भी सिर कटवाने के लिए तैयार हैं. बस एक हुक्म चाहिए राणाजी का. मराठा तो क्या खुद यमराज भी आ जाएंगे तब भी मेवाड़ के राजपूत पीठ नहीं दिखाएंगे.’’

यह सुन राणा बोले, ‘‘राज पाने व बचाने के लिए गाजरमूली की तरह सिर कटवाने ही  पड़ते हैं. इसीलिए तो कहा जाता है कि राज्य का स्वामी बनना आसान नहीं. स्वराज बलिदान मांगता है और हम राजपूतों ने अपने बलिदान के बूते ही यह राज हासिल किया है. धरती उसी की होती है जो इसे खून से सींचने के लिए तैयार रहे.

‘‘हमारे पूर्वजों ने मेवाड़ भूमि को अपने खून से सींचा है. इस की स्वतंत्रता के सिर जंगलजंगल ठोकरें खाई हैं. मातृभूमि की रक्षा के लिए घास की रोटियां खाई हैं और अब ये लुटेरे इस की अस्मत लूटने आ गए तो क्या हम आसानी से इसे लुट जाने दें? अपने पूर्वजों के बलिदान को यूं ही जाया करें? इसलिए बैठ कर बहस करना छोड़ें और मराठों को माकूल जबाब देने की तैयारी करें.’’

राणा की बात सुन कर सभा में चारों ओर चुप्पी छा गई. सब की नजरों के आगे सामने आई युद्ध की विपत्ति का दृश्य घूम रहा था. मराठों से मुकाबले के लिए इतनी तोपें कहां से आएंगी? खजाना खाली है फिर सेना के लिए खर्च का बंदोबस्त कैसे होगा? सेना कैसे संगठित की जाए? सेना का सेनापति कौन होगा? साथ ही इन्हीं बिंदुओं पर चर्चा भी होने लगी.

आखिर चर्चा पूरी होने के बाद राणाजी ने अपने सभी सरदारों व जागीरदारों के नाम एक पत्र लिख कर उस की प्रतियां अलगअलग घुड़सवारों को दे कर तुरंत दौड़ाने का आदेश दिया.

पत्र में लिखा था, ‘मेवाड़ राज्य पर उत्पाती मराठों ने आक्रमण किया है. उन का मुकाबला करने व उन्हें मार भगाने के लिए सभी सरदार व जागीरदार यह पत्र पहुंचते ही अपने सभी सैनिकों व हथियारों के साथ मेवाड़ की फौज में शामिल होने के लिए बिना कोई देरी किए जल्द से जल्द हाजिर हों.’

पत्र में राणाजी के दस्तखत के पास ही राणा द्वारा लिखा था, ‘जो जागीरदार इस संकट की घड़ी में हाजिर नहीं होगा, उस की जागीर जब्त कर ली जाएगी. इस मामले में किसी भी तरह की कोई रियायत नहीं दी जाएगी और इस काम की तामील ना करना देशद्रोह व हरामखोरी माना जाएगा.’

राणा का एक घुड़सवार राणा का पत्र ले कर मेवाड़ की एक जागीर कोसीथल पहुंचा और जागीर के प्रधान के हाथ में पत्र दिया. प्रधान ने पत्र पढ़ा तो उस के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. कोसीथल चूंडावत राजपूतों के वंश की एक छोटी सी जागीर थी और उस वक्त सब से बुरी बात यह थी कि उस वक्त उस जागीर का वारिस एक छोटा बच्चा था.

कोई 2 साल पहले ही उस जागीर के जागीरदार ठाकुर एक युद्ध में शहीद हो गए थे और उन का छोटा सा इकलौता बेटा उस वक्त जागीर की गद्दी पर था. इसलिए जागीर के प्रधान की हवाइयां उड़ रही थीं.

राणाजी का बुलावा आया है और गद्दी पर एक बालक है. वो कैसे युद्ध में जाएगा. प्रधान के आगे एक बड़ा संकट आ गया. सोचने लगा, ‘क्या इन मराठों को भी अभी हमला करना था. कहीं नियति उन की परीक्षा तो नहीं ले रही.’

प्रधान राणा का संदेश ले कर जनाना महल के द्वार पर पहुंचा और दासी के जरिए माजी साहब (जागीरदार बच्चे की विधवा मां) को आपात मुलाकात करने की अर्ज की.

दासी के मुंह से प्रधान द्वारा आपात मुलाकात की बात सुनते ही माजी साहब के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. पता नहीं अचानक कोई मुसीबत तो नहीं आ गई. खैर, माजी साहब ने तुरंत प्रधान को बुलाया और परदे के पीछे खड़े हो कर प्रधान का अभिवादन स्वीकार करते हुए पत्र प्राप्त किया.

पत्र पढ़ते ही माजी साहब के मुंह से सिर्फ एक छोटा सा वाक्य ही निकला, ‘अब क्या होगा’. और वे प्रधान से बोलीं, ‘‘अब क्या करें? आप ही कोई सलाह दें. जागीर के ठाकुर साहब तो आज सिर्फ 2 साल के ही बच्चे हैं. उन्हें राणाजी की चाकरी में युद्ध के लिए कैसे ले जाया जाए.’’

तभी माजी के बेटे ने आ कर माजी साहब की अंगुली पकड़ी. माजी ने बेटे का मासूम चेहरा देखा तो उन के हृदय में ममता भर आई. मासूम बेटे की नजर से नजर मिलते ही माजी के हृदय में उस के लिए उस की जागीर के लिए दुख उमड़ पड़ा.

अंत भला तो सब भला- भाग 1

संगीता को यह एहसास था कि आज जो दिन में घटा है, उस के कारण शाम को रवि से झगड़ा होगा और वह इस के लिए मानसिक रूप से तैयार थी. लेकिन जब औफिस से लौटे रवि ने मुसकराते हुए घर में कदम रखा तो वह उलझन में पड़ गई.

‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम्हारा मूड हो तो खाना बाहर खाया जा सकता है,’’ रवि ने उसे हाथ से पकड़ कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘किस कारण इतना खुश नजर आ रहे हो ’’ संगीता ने खिंचे से स्वर में पूछा.

‘‘आज मेरे नए बौस उमेश साहब ने मुझे अपने कैबिन में बुला कर मेरे साथ दोस्ताना अंदाज में बहुत देर तक बातें कीं. उन की वाइफ से तो आज दोपहर में तुम मिली ही थीं. उन्हें एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने मैं ही ले गया था. मेरे दोस्त विपिन के पिताजी उस स्कूल के चेयरमैन को जानते हैं. उन की सिफारिश से बौस की वाइफ को वहां टीचर की जौब मिल जाएगी. बौस मेरे काम से भी बहुत खुश हैं. लगता है इस बार मुझे प्रमोशन जरूर मिल जाएगी,’’ रवि ने एक ही सांस में संगीता को सारी बात बता डाली. संगीता ने उस की भावी प्रमोशन के प्रति कोई प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय वार्त्तालाप को नई दिशा में मोड़ दिया, ‘‘प्रौपर्टी डीलर ने कल शाम जो किराए का मकान बताया था, तुम उसे देखने कब चलोगे ’’

‘‘कभी नहीं,’’ रवि एकदम चिड़ उठा.

‘‘2 दिन से घर के सारे लोग बाहर गए हुए हैं और ये 2 दिन हम ने बहुत हंसीखुशी से गुजारे हैं. कल सुबह सब लौट आएंगे और रातदिन का झगड़ा फिर शुरू हो जाएगा. तुम समझते क्यों नहीं हो कि यहां से अलग हुए बिना हम कभी खुश नहीं रह पाएंगे…हम अभी उस मकान को देखने चल रहे हैं,’’ कह संगीता उठ खड़ी हुई.

‘‘मुझे इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाना है. अगर तुम में जरा सी भी बुद्धी है तो अपनी बहन और जीजा के बहकावे में आना छोड़ दो,’’ गुस्से के कारण रवि का स्वर ऊंचा हो गया था. ‘‘मुझे कोई नहीं बहका रहा है. मैं ने 9 महीने इस घर के नर्क में गुजार कर देख लिए हैं. मुझे अलग किराए के मकान में जाना ही है,’’ संगीता रवि से भी ज्यादा जोर से चिल्ला पड़ी. ‘‘इस घर को नर्क बनाने में सब से ज्यादा जिम्मेदार तुम ही हो…पर तुम से बहस करने की ताकत अब मुझ में नहीं रही है,’’ कह रवि उठ कर कपड़े बदलने शयनकक्ष में चला गया और संगीता मुंह फुलाए वहीं बैठी रही.

उन का बाहर खाना खाने का कार्यक्रम तो बना ही नहीं, बल्कि घर में भी दोनों ने खाना अलगअलग और बेमन से खाया. घर में अकेले होने का कोई फायदा वे आपसी प्यार की जड़ें मजबूत करने के लिए नहीं उठा पाए. रात को 12 बजे तक टीवी देखने के बाद जब संगीता शयनकक्ष में आई तो रवि गहरी नींद में सो रहा था. अपने मन में गहरी शिकायत और गुस्से के भाव समेटे वह उस की तरफ पीठ कर के लेट गई. किराए के मकान में जाने के लिए रवि पर दबाव बनाए रखने को संगीता अगली सुबह भी उस से सीधे मुंह नहीं बोली. रवि नाश्ता करने के लिए रुका नहीं. नाराजगी से भरा खाली पेट घर से निकल गया और अपना लंच बौक्स भी मेज पर छोड़ गया. करीब 10 बजे उमाकांत अपनी पत्नी आरती, बड़े बेटे राजेश, बड़ी बहू अंजु और 5 वर्षीय पोते समीर के साथ घर लौटे. वे सब उन के छोटे भाई के बेटे की शादी में शामिल होने के लिए 2 दिनों के लिए गांव गए थे.

फैली हुई रसोई को देख कर आरती ने संगीता से कुछ तीखे शब्द बोले तो दोनों के बीच फौरन ही झगड़ा शुरू हो गया. अंजु ने बीचबचाव की कोशिश की तो संगीता ने उसे भी कड़वी बातें सुनाते हुए झगड़े की चपेट में ले लिया. इन लोगों के घर पहुंचने के सिर्फ घंटे भर के अंदर ही संगीता लड़भिड़ कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. उस की सास ने उसे लंच करने के लिए बुलाया पर वह कमरे से बाहर नहीं निकली. ‘‘यह संगीता रवि भैया को घर से अलग किए बिना न खुद चैन से रहेगी, न किसी और को रहने देगी, मम्मी,’’ अंजु की इस टिप्पणी से उस के सासससुर और पति पूरी तरह सहमत थे. ‘‘इस की बहन और मां इसे भड़काना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाए,’’ उमाकांत की विवशता और दुख उन की आवाज में साफ झलक रहा था.

‘‘रवि भी बेकार में ही घर से कभी अलग न होने की जिद पर अड़ा हुआ है. शायद किराए के घर में जा कर संगीता बदल जाए और इन दोनों की विवाहित जिंदगी हंसीखुशी बीतने लगे,’’ आरती ने आशा व्यक्त की.‘‘किराए के घर में जा कर बदल तो वह जाएगी ही पर रवि को यह अच्छी तरह मालूम है कि उस के घर पर उस की बड़ी साली और सास का राज हो जाएगा और वह इन दोनों को बिलकुल पसंद नहीं करता है. बड़े गलत घर में रिश्ता हो गया उस बेचारे का,’’ उमाकांत के इस जवाब को सुन कर आरती की आंखों में आंसू भर आए तो सब ने इस विषय पर आगे कोई बात करना मुनासिब नहीं समझा.

सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम- भाग 1

मां की मौत के बाद ऋजुता ही अनुष्का का सब से बड़ा सहारा थी. अनुष्का को क्या करना है, यह ऋजुता ही तय करती थी. वही तय करती थी कि अनुष्का को क्या पहनना है, किस के साथ खेलना है, कब सोना है. दोनों की उम्र में 10 साल का अंतर था. मां की मौत के बाद ऋजुता ने मां की तरह अनुष्का को ही नहीं संभाला, बल्कि घर की पूरी जिम्मेदारी वही संभालती थी.

ऋजुआ तो मनु का भी उसी तरह खयाल रखना चाहती थी, पर मनु उम्र में मात्र उस से ढाई साल छोटा था. इसलिए वह ऋजुता को अभिभावक के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं था. तमाम बातों में उन दोनों में मतभेद रहता था. कई बार तो उन का झगड़ा मौखिक न रह कर हिंसक हो उठता था. तब अंगूठा चूसने की आदत छोड़ चुकी अनुष्का तुरंत अंगूठा मुंह में डाल लेती. कोने में खड़ी हो कर वह देखती कि भाई और बहन में कौन जीतता है.

कुछ भी हो, तीनों भाईबहनों में पटती खूब थी. बड़ों की दुनिया से अलग रह सकें, उन्होंने अपने आसपास इस तरह की एक दीवार खड़ी कर ली थी, जहां निश्चित रूप से ऋजुता का राज चलता था. मनु कभीकभार विरोध करता तो मात्र अपना अस्तित्व भर जाहिर करने के लिए.

अनुष्का की कोई ऐसी इच्छा नहीं होती थी. वह बड़ी बहन के संरक्षण में एक तरह का सुख और सुरक्षा की भावना का अनुभव करती थी. वह सुंदर थी, इसलिए ऋजुता को बहुत प्यारी लगती थी. यह बात वह कह भी देती थी. अनुष्का की अपनी कोई इच्छाअनिच्छा होगी, ऋजुता को कभी इस बात का खयाल नहीं आया.

अगर अविनाश को दूसरी शादी न करनी होती तो घर में सबकुछ इसी तरह चलता रहता. घर में दादी मां यानी अविनाश की मां थीं ही, इसलिए बच्चों को मां की कमी उतनी नहीं खल रही थी. घर के संचालन के लिए या बच्चों की देखभाल के लिए अविनाश का दूसरी शादी करना जरूरी नहीं रह गया था.

इस के बावजूद उस ने घर में बिना किसी को बताए दूसरी शादी कर ली. अचानक एक दिन शाम को एक महिला के साथ घर आ कर उस ने कहा, ‘‘तुम लोगों की नई मम्मी.’’

उस महिला को देख कर बच्चे स्तब्ध रह गए. वे कुछ कहते या इस नई परिस्थिति को समझ पाते, उस के पहले ही अविनाश ने मां की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘संविधा, यह मेरी मां है.’’

बूढ़ी मां ने सिर झुका कर पैर छू रही संविधा के सिर पर हाथ तो रखा, पर वह कहे बिना नहीं रह सकीं. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इस तरह अचानक… कभी सांस तक नहीं ली, चर्चा की होती तो 2-4 सगेसंबंधी बुला लेती.’’

‘‘बेकार का झंझट करने की क्या जरूरत है मां.’’ अविनाश ने लापरवाही से कहा.

‘‘फिर भी कम से कम मुझ से तो बताना चाहिए था.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ अविनाश ने उसी तरह लापरवाही से कहा, ‘‘नोटिस तो पहले ही दे दी थी. आज दोपहर को दस्तखत कर दिए. संविधा का यहां कोई सगासंबंधी नहीं है. एक भाई है, वह दुबई में रहता है. रात को फोन कर के बता देंगे. बेटा ऋजुता, मम्मी को अपना घर तो दिखाओ.’’

उस समय क्या करना चाहिए, यह ऋजुता तुरंत तय नहीं कर सकी. इसलिए उस समय अविनाश की जीत हुई. घर में जैसे कुछ खास न हुआ हो, अखबार ले कर सोफे पर बैठते हुए उस ने मां से पूछा, ‘‘मां, किसी का फोन या डाकवाक तो नहीं आई, कोई मिलनेजुलने वाला तो नहीं आया?’’

संविधा जरा भी नरवस नहीं थी. अविनाश ने जब उस से कहा कि हमारी शादी हम दोनों का व्यक्तिगत मामला है. इस से किसी का कोई कुछ लेनादेना नहीं है. तब संविधा उस की निडरता पर आश्चर्यचकित हुई थी. उस ने अविनाश से शादी के लिए तुरंत हामी भर दी थी. वैसे भी अविनाश ने उस से कुछ नहीं छिपाया था. उस ने पहले ही अपने बच्चों और मां के बारे में बता दिया था. पर इस तरह बिना किसी तैयारी के नए घर में, नए लोगों के बीच…

‘‘चलो,’’ ऋजुता ने बेरुखी से कहा.

संविधा उस के साथ चल पड़ी. उसे पता था कि विधुर के साथ शादी करने पर रिसैप्शन या हनीमून पर नहीं जाया जाता, पर घर में तो स्वागत होगा ही. जबकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था. अविनाश निश्चिंत हो कर अखबार पढ़ने लगा था. वहीं यह 17-18 साल की लड़की घर की मालकिन की तरह एक अनचाहे मेहमान को घर दिखा रही थी. घर के सब से ठीकठाक कमरे में पहुंच कर ऋजुता ने कहा, ‘‘यह पापा का कमरा है.’’

‘‘यहां थोड़ा बैठ जाऊं?’’ संविधा ने कहा.

‘‘आप जानो, आप का सामान कहां है?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बाद में ले आऊंगी. अभी तो ऐसे ही…’’

‘‘खैर, आप जानो.’’ कह कर ऋजुता चली गई.

पूरा घर अंधकार से घिर गया तो ऋजुता ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘मनु, तू जाग रहा है?’’

‘‘हां,’’ मनु ने कहा, ‘‘दीदी, अब हमें क्या करना चाहिए?’’

‘‘हमें भाग जाना चाहिए.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘कहां, पर अनुष्का तो अभी बहुत छोटी है. यह बेचारी तो कुछ समझी भी नहीं.’’

‘‘सब समझ रही हूं,’’ अनुष्का ने धीरे से कहा.

‘‘अरे तू जाग गई?’’ हैरानी से ऋजुता ने पूछा.

‘‘मैं अभी सोई ही कहां थी,’’ अनुष्का ने कहा और उठ कर ऋजुता के पास आ गई. ऋजुता उस की पीठ पर हाथ फेरने लगी. हाथ फेरते हुए अनजाने में ही उस की आंखों में आंसू आ गए. भर्राई आवाज में उस ने कहा, ‘‘अनुष्का, तू मेरी प्यारी बहन है न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘देख, वह जो आई है न, उसे मम्मी नहीं कहना. उस से बात भी नहीं करनी. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘वह अपनी मम्मी थोड़े ही है. वह कोई अच्छी औरत नहीं है. वह हम सभी को धोखा दे कर अपने घर में घुस आई है.’’

‘‘चलो, उसे मार कर घर से भगा देते हैं,’’ मनु ने कहा.

‘‘मनु, तुझे अक्ल है या नहीं? अगर हम उसे मारेंगे तो पापा हम से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘भले न करें बात, पर हम उसे मारेंगे.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते मनु, पापा उसे ब्याह कर लाए हैं.’’

‘‘तो फिर क्या करें?’’ मनु ने कहा, ‘‘मुझे वह जरा भी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘मुझे भी. अनुष्का तुझे?’’

मंदिर: क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस- भाग 1

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

सबसे हसीन वह: भाग 1

इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मु झे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचारशृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़तेघुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को  झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोईर् भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जूझ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

लेखक : केशव राम वाड़दे

यह जीवन है: अदिति-अनुराग को कौनसी मुसीबत झेलनी पड़ी

सम्मान: क्यों आसानी से नही मिलता सम्मान- भाग 2

ऐसे कई खर्च उन्होंने गिनाते हुए कहा, ‘‘संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए हम सब से सहयोग लेते हैं. चंदा करते हैं. ऐसे में लेखकों का दायित्व भी है कि वे अपने ही सम्मान के लिए कुछ तो खर्च करें. आखिर नाम तो लेखकों का ही होता है. हमारी जेब से भी बहुत खर्च होता है. लेकिन साहित्य सेवा का बीड़ा उठाया है, तो कर रहे हैं साहित्य की सेवा. आप जल्दी करिए. हमें गर्व होगा आप को सम्मानित करने में. भविष्य में योजना है कि लेखकों को नकद पुरस्कार भी दिया जाए. आनेजाने का खर्च भी. अब आप से इतने सहयोग की तो अपेक्षा कर ही सकते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, बाकी तो सब भेज दूंगा लेकिन जिसे आप प्रविष्टि शुल्क या रजिस्ट्रेशन शुल्क कहते हैं वह भेज पाना संभव नहीं है.’’

उधर से कुछ नाराजगीभरी आवाज आई, ‘‘संस्था का नियम है कि बिना शुल्क के सम्मान पर विचार नहीं किया जाएगा. बाकी भले ही कुछ न भेजें लेकिन शुल्क जरूर भेजें. आजकल तो बड़ीबड़ी पत्रिकाएं छापने से पहले शर्त रखती हैं कि पत्रिका की वार्षिक, आजीवन सदस्यता लेने वालों की रचनाएं ही छापी जाएंगी. फिर, हमारी संस्था तो छोटी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘विचार कर के बताता हूं.’’

उन्होंने कहा, ‘‘जल्दी करिए.’’

मैं ने दूसरे पत्र को पढ़ कर उस के अंत में दिए फोन नंबर पर फोन लगाया.

मैं ने कहा, ‘‘महोदय, आप ने मुझे कविता पर सम्मान देने के लिए आमंत्रणपत्र भेजा है. लेकिन मैं तो कविताएं लिखता ही नहीं हूं.’’

‘‘अरे, तो साहब लिख डालिए. न लिख सकें तो जो लिखा है उसी पर सम्मान दे देंगे. फोटो, परिचय और 2,500 रुपए का मनीऔर्डर भेज दीजिए. जल्दी करिए.’’

ऐसा लगा जैसे किसी कंपनी का लुभावना औफर निकला हो. मैं ने प्रविष्टि/सहयोग/रजिस्ट्रेशन शुल्क के विषय में पूछा तो पहले सेवा करने वाले की तरह ही उत्तर मिला, ‘‘बिना शुल्क के कुछ नहीं. पहली और अनिवार्य शर्त है शुल्क.’’

समझ में तो सब आ रहा था लेकिन मन में सम्मान की इच्छा थी, तो सोचा, एक बार चल कर देखा जाए और मैं ने प्रविष्टि शुल्क सहित सबकुछ भेज दिया. कुछ समय बाद निमंत्रणपत्र आया कि आप को सम्मान 28 अगस्त, 2019 समय 2 बजे रामप्रसाद शासकीय विद्यालय में दिया जाएगा. हम अपने साथ 2 जोड़ी कपड़े ले कर ट्रेन में चढ़े. समयपूर्व रिजर्वेशन करवा लिया था. 500 किलोमीटर के लंबे सफर की थकान के बाद एक होटल पहुंचे. 1,000 रुपए एक दिन के हिसाब से होटल में कमरा मिला. 100 रुपए प्लेट के हिसाब से भोजन किया. फिर रिकशा कर के नियत समय पर कार्यक्रम में सम्मानित होने की लालसा लिए पहुंचे. वहां अपना परिचय दिया. संस्था के सचिव ने हाथ मिला कर बधाई देते हुए कहा, ‘‘आप बैठिए.’’

समारोह कब शुरू होगा?’’

‘‘मुख्य अतिथि के आने पर. वे ठहरे बड़े आदमी. आराम से आएंगे. तब तक बैनर, पोस्टर लग जाएंगे. आप चाहें तो थोड़ी मदद कर सकते हैं.’’

मैं ने हामी भर दी. उन्होंने मुझे मंच पर मुख्य अतिथियों की कुरसी लगाने में लगा दिया. धीरेधीरे लोग आते रहे. मैं अपना काम समाप्त कर के दर्शक दीर्घा में पड़ी कुरसी पर बैठ गया. छोटा सा हौल भर गया. हौल में 50 लोगों के बैठने की जगह थी. कैमरामैन भी आ गया.

मंच पर 8-10 लोगों को नाम ले कर बिठाया गया जिन में कोई शिक्षा विभाग का कुलपति, अखबार का प्रधान संपादक, राजनीति से जुड़े हुए स्थानीय नेता थे. एक वयोवृद्ध लेखक जिन का नाम तभी पता चला कि ये लेखक हैं, इस शहर के बहुत बड़े लेखक. एकदो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपने दिवंगत मातापिता के नाम पर पुरस्कार रखे थे.

सारा मंच मुख्य अतिथियों से भरा हुआ था और दर्शक दीर्घा में मेरे जैसे लेखक बैठे हुए थे.

जनता हम ही थे. दर्शक हम लेखक लोग ही थे. पढ़ने वाला, सुनने वाला कोई नहीं था. सब से पहले मुख्य अतिथियों महोदय ने दीप प्रज्ज्वलित किए. इसी बीच कुछ कन्याओं ने अपने गीतों से सब को मंत्रमुग्ध कर दिया. इस के बाद संस्था अध्यक्ष, जोकि मंच संचालक भी थे, ने एक घंटे तक संस्था के कार्यों पर, सेवा पर उल्लेखनीय प्रकाश डाला.

दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाते प्रतीक्षा करते रहे कि कब उन्हें सम्मान मिलेगा. लेकिन अभी तो कार्यक्रम की शुरुआत थी. इस के बाद अपनेअपने क्षेत्र के आमंत्रित 10 मुख्य अतिथियों को फूलमाला पहना कर उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया. अपनेअपने क्षेत्र के मुख्य अतिथि अपनेअपने क्षेत्र की बातें बोलते रहे. बोलते रहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने विरोधी लेखकों, दूसरी विचारधाराओं के लोगों, अपने शत्रुओं को जीभर कर कोसते रहे. अपने मन की भड़ास निकालते रहे.

संस्था के अध्यक्ष ने तमाम साहित्यिक संस्थाओं को जीभर कर कोसा. सब को उन्होंने फर्जी, झूठा और ठग करार दिया. भारत सरकार, राज्य सरकार और तमाम बड़े संगठनों को कोसा जिन्होंने उन की संस्था को आर्थिक सहायता देना मंजूर नहीं किया था. उन के आमंत्रण पर जो लोग नहीं आए थे और सहायता देने में असमर्थता जाहिर की थी, उन्हें भी मंच से आड़ेहाथों लिया. तमाम वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों को भरभर कर कोसा. क्योंकि मंच संचालक उर्फ संस्था अध्यक्ष स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय लेखक कह चुके थे और उन की रचनाओं को सभी बड़ीछोटी पत्रिकाएं अस्वीकृत कर चुकी थीं. उन्होंने उन सब को साहित्यविरोधी, राष्ट्रविरोधी कहा.

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