कायर – भाग 2 : क्या घना को मिल पाया श्यामा का प्यार

घना सोचने लगा कि श्यामा का गांव यहां से थोड़ी ही दूर पर है. क्यों न एक बार फिर कोशिश की जाए. आज उसे किसी बात का डर नहीं था. न मरने का डर, न जंगली जानवरों का डर. लिहाजा, वह श्यामा के घर की तरफ चल पड़ा.

घना मास्टर बिछन दास के घर के सामने रुक गया.

खड़कोट गांव के एक हिस्से में ब्राह्मण और एक हिस्से में दलित रहते हैं. इसी गांव के दलित टोले के बिछन दास मास्टर की बेटी श्यामा सेंदुल कालेज में बीए के आखिरी साल में पढ़ रही थी.

मास्टर बिछन दास नजदीक के ही एक गांव में मिडिल स्कूल के हैडमास्टर थे. खेतीबारी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पत्नी भी अकसर उन के साथ ही

रहती थी.

बिछन दास का स्कूल बहुत ज्यादा दूर न होने के चलते वे हर 15 दिन बाद घर आ जाते थे. श्यामा अपनी बूढ़ी दादी मां के साथ गांव में रहती थी.

करीब के गांव का होने की वजह से और श्यामा में घना की खास दिलचस्पी होने के चलते उसे श्यामा और उस के घर के बारे में बहुतकुछ पता था.

घना जानता था कि श्यामा की मां अकसर उस के पिता के साथ ही रहती हैं. घर में उस की बूढ़ी दादी मां न साफ देखती हैं और न साफ सुनती हैं. उसे यह भी पता था कि श्यामा घर की अलग कोठरी में पढ़ाई करती है. हो सकता है कि वह अभी भी पढ़ रही हो.

घना जब श्यामा के घर के चौक में पहुंचा, तब उस ने देखा कि ऊपरी मंजिल की एक कोठरी में अभी भी रोशनी थी. वह जानता था कि श्यामा इसी कोठरी में पढ़ रही होगी.

घना ने दरवाजा खटखटाया. कमरे में कोई भी हलचल नहीं हुई. उस ने फिर दरवाजा खटखटाया.

‘‘कौन है?’’ कोठरी से श्यामा की आवाज आई.

‘‘मैं… घना.’’

‘‘घना?’’

‘‘हां, घना.’’

‘‘इतनी रात में…’’

‘‘हां, दरवाजा खोल दो. अपनी बात कर के मैं यहां से चला जाऊंगा.’’

श्यामा ने घड़ी की ओर देखा. रात के 2 बज रहे थे. वह सोचने लगी, ‘क्या करूं? दरवाजा खोलूं, तो कहीं यह कोई ?ां?ाट न खड़ा कर दे. अपनी बात कहने के अलावा यह और क्या कर सकता है? यह मेरा घर है. एक दलित लड़की के घर में इतनी रात को… इसे भी तो अपनी इज्जत का खयाल होगा.’

श्यामा ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजे पर घना खड़ा था. कपड़े फटे हुए, चेहरे पर खरोंचों के निशान, जिन से खून निकल रहा था.

श्यामा को उस पर तरस आ गया. उस ने उसे अंदर आने दिया. वह ठंड से बुरी तरह कांप रहा था. उस के चेहरे पर पीड़ा साफ ?ालक रही थी.

‘‘यह सब क्या है?’’ श्यामा ने हैरान होते हुए पूछा.

घना ने श्यामा के साथ कालेज से घर आते समय रास्ते में जो बातचीत हुई थी, उस के बाद की सारी घटना बता दी.

‘‘मैं क्या करूं श्यामा? मैं अपने को संभाल नहीं पा रहा हूं. तुम्हारे बिना मैं अब जी नहीं सकूंगा.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? यह तो जबरदस्ती है. मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती. ऐसा कभी नहीं हो सकता. मैं ने आप से पहले भी कहा था.’’

‘‘ठीक है, तब फिर चलता हूं. मैं तुम्हारा नुकसान नहीं करना चाहता. ज्यादा क्या कहूं… शायद यह मेरी जिंदगी की आखिरी रात है,’’ कह कर घना उठने को हुआ.

‘‘इतनी रात को तुम कहां जाओगे?’’ श्यामा ने डर कर पूछा.

‘‘कहां जाऊंगा? जहां एक दिन सभी को जाना है. क्यों न मैं आज ही भिलंगना नदी में डूब जाऊं. मैं जी कर क्या करूंगा, खुद भी नहीं जानता. पर मैं तुम से माफी मांगता हूं. मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ दी है, मु?ो माफ कर देना.’’

घना ने दरवाजे की तरफ कदम रखा ही था कि श्यामा ने उस की बांह थाम कर उसे कुरसी पर बैठा दिया.

कुंआरी ख्वाहिशें-भाग 2 : हवस के चक्रव्यूह में फंसी गीता

‘ठीक है जाओ, लेकिन कल ज्यादा देर रुकना. पापा से कहना कि ऐक्स्ट्रा क्लास है,’’ सागर ने कहा.

‘‘मैं ने आप को यह तो नहीं कहा कि मैं कल आऊंगी…’’ गीता ने चौंक कर कहा.

‘‘मैं जानता हूं कि तुम कल भी आओगी. जैसे मुझे पता था कि तुम आज मुझ से मिलने आओगी…. तो ठीक है फिर कल मिलते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर गीता कालेज चली गई और इतने में उस के पापा आ गए. अगले दिन फिर वही सिलसिला शुरू हो गया.

बंटी ठीक हो गया और इत्तिफाक से उसे वहीं पंजाबी बाग में ही

अच्छी नौकरी मिल गई. गीता की तो बल्लेबल्ले. अब तो अकेले ही बस पर जाने की छूट. उधर सागर भी फ्री हो गया कि अब न बंटी मिलेगा और न ही उसे पता चलेगा कि सागर कब औफिस गया और कब नहीं.

सागर और गीता के प्यार की पेंग ऊंची और ऊंची चढ़ने लगी. दोनों को एकदूसरे के बिना एक पल भी चैन नहीं.

सागर तो प्यासा भंवरा कली का रस चूसने को उतावला, लेकिन गीता अभी तक डर के मारे बची हुई थी और उसे ज्यादा करीब आने का मौका नहीं दिया.

गीता चाहती कि सागर भाई से शादी की बात करे, क्योंकि गीता नहीं जानती थी कि सागर शादीशुदा है, पर बंटी जानता था.

सागर हर बार गीता को कहता, ‘‘तुम बंटी से अभी कुछ मत बताना, क्योंकि उस का सपना है कि वह तुम्हें बहुत बड़े घर में ब्याहे और मैं ठहरा मिडिल क्लास… वह नहीं मानेगा हमारी शादी के लिए, इसलिए मौका देख कर मैं खुद अपने तरीके से बात करूंगा, ताकि वह मान जाए.’’गीता सागर की बातों में आ गई.एक दिन भंवरे ने कली का रस चूस लिया… सागर ने प्यार से गीता को बहलाफुसला कर उस का कुंआरापन खत्म कर दिया और कर ली अपने मन की पूरी.

कुछ दिनों तक यह खेल फिर चलता और एक दिन गीता बोली, ‘‘सागर, ऐसा न हो कि भाई को कहीं किसी और से हमारे बारे में पता चले. इस से अच्छा है कि हम खुद ही बता दें. भाई फिर मम्मीपापा से खुद बात कर लेगा.’’

सागर बोला, ‘‘गीता, अगर तुम मेरी बात मानो तो हम कोर्ट मैरिज कर लेते हैं और फिर मैं आऊंगा तुम्हारे घर और दोनों बात करेंगे. जब हमारे पास कोर्ट मैरिज का सर्टिफिकेट होगा, फिर कोई मना ही नहीं कर पाएगा.

‘‘और सोचो, तुम्हें अगर बच्चा ठहर गया, तब क्या कोई तुम से शादी करेगा… तुम्हें तो तुम्हारे घर वाले मार ही डालेंगे. फिर क्या मैं जी सकूंगा तुम्हारे बिना… मुझे मौत से डर नहीं लगता, बस मेरी छोटी बहन, बूढ़े मांबाप बेचारे किस के सहारे जिएंगे…’’

इस तरह सागर ने गीता को समझा दिया और वह बेचारी एक दिन घर से मां के जेवर और कुछ नकदी ले कर अपने सागर के पास चली गई.

‘‘सागर, चलो कोर्ट और अभी इसी समय शादी कर के फिर घर चलते हैं… और ये लो पैसे और जेवर, जितना खर्च हो कर लो.’’

सागर इन सब के लिए पहले से तैयार था. उस ने अपना परिवार कहीं और शिफ्ट कर दिया था. नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया था. गीता को वह अपने किराए वाले घर में ले गया.

गीता ने देखा कि घर पर कोई नहीं है, तो उस ने पूछा, ‘‘सागर, मांबाबूजी और तुम्हारी बहन कहां हैं? यह घर खालीखाली क्यों है?’’

‘‘ओहो गीता, मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गया, मुझे दूसरे औफिस से अच्छा औफर आया है और मैं नौकरी बदल रहा हूं, इसलिए सारा सामान नए घर में शिफ्ट कराया है. मांबाबूजी और छुटकी हमारे रिश्ते के चाचा की बेटी की शादी मेंगए हैं.

तुम चिंता मत करो. आज शादी होना मुश्किल है, क्योंकि अभी तक हमारी अर्जी पास नहीं हुई. कल हो जाएगी. आज रात तुम यहीं रुको, कल शादी करते ही हम तुम्हारे घर चलेंगे.’’

अभी भी न समझ पाई गीता और सबकुछ सौंप दिया सागर को. 2 दिन बाद कमरा भी बदल लिया. इस तरह सागर कई दिनों तक गीता को बेवकूफ बनाता रहा.

इधर शाम को गीता के कालेज में न मिलने पर उस के पापा परेशान हो गए. उस की सहेली से पूछा तो पता चला कि गीता तो पिछले कुछ दिनों से कालेज में कम ही आई है. बस शाम के समय बाहर नजर आती थी. उसे एक लड़का छोड़ने आता था.

पापा सारा माजरा समझ गए. उन्होंने बंटी को बताया. वे अब मान चुके थे

कि कोई गीता को बहलाफुसला कर ले गया है.

गीता के साथियों से पूछने पर अंदाजा लगाया कि ये सब शायद सागर की बात कर रहे हैं. सागर को फोन मिलाया तो फोन बंद मिला. सागर ने वह नंबर बंद कर के दूसरा नंबर ले लिया था.

बंटी जा पहुंचा सागर के घर. वहां से पूछताछ की तो मकान मालिक ने बताया कि बीवी को पहले ही मायके भेज दिया था. वह एक लड़की लाया था. 2 दिन बाद उसे ले कर कहां गया, पता नहीं.

लड़की के हुलिए से वे समझ गए कि गीता ही थी. बंटी को अपनी दोस्ती पर अफसोस होने लगा कि उस ने आस्तीन में सांप पाल लिया था

तुम ऐसी निकलीं – भाग 2: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मोनिका जिस दोपहर को चादरें ले  गई थी, उसी दिन की शाम उस को बारबार कहीं भगा कर ले जाती. उस रात उस की रात में भी, बस, रात ही रात थी. फिर भोर हुई, दिन चढ़ा और एक फोन आया. हालांकि वह औपचारिक फोन था मगर  जब 2-3 चादरों के  गड़बड़  और उन में कुछकुछ  घिसे हुए प्रिंट को ले कर मोनिका ने शिकायतभरा फोन किया तो उस ने घर का सब अतापता पूछ कर  खुद ही सही, सुंदर, सुघड़ छपाई की नईनई  चादरें उस के घर पर जा कर  अपने हाथों से मोनिका के हाथों में दी थीं.  तब से करीबकरीब वह 4 बार तो  वहां जा ही  चुका था.

एक दिन जब वह मोनिका के  घर पर भोजन और शयन कर के चाय की  चुस्कियां ले रहा था तभी मोनिका के  दरवाजे पर एक बरतन वाला आ गया. पुराने कपड़े के  बदले बरतन बेचने वाला वह धंधेबाज  मोनिका को उस की 3 पुरानी चुन्नियों के  एवज में एक कटोरी पकड़ा गया. उस के जाने के  बाद  मोनिका को  ऐसा  लगा कि वह ठगी गई है.

तब उस ने मोनिका के  गालों को सहलाते  हुए कहा था कि मोना, जाने दो न, भूल जाओ, दूसरों को मूर्ख बना कर खुश होने वाला अंत में पछताता है. हमारी उदासी  और खुशी हमारे सोचने पर और मन की दशा पर निर्भर करती है. अपने कष्ट के  लिए औरों को दोषी कहने वाला रोज कष्ट में रहता है. सुखदुख कुछ नहीं है, हमारा चुनाव है मोना. वह मन ही मन हंस रहा था कि गोवा की डेल्मा का  कहा उस को हूबहू याद रह गया, वाह.

मोनिका ने उस के चुप होने का  इंतजार किया और  यह कीमती सलाह सुन कर उस को  प्यार से एक मधुर  चुंबन दिया. ओह, मोनिका…

वह हौलेहौले  मोनिका का  कितना आदी होता जा रहा था. मोनिका के  साथ उस को  जीवन एकदम से ही सरस और  मधुमय  लगने लगा था. कभी लगता कि इसीलिए हर  मधुरता भी  एक हद तक ही रहती है, कहीं यह समय गुजर न जाए. फिलहाल भले ही चादरों का ही बहाना होता  था मगर उस को लगता कि यह तकदीर का संकेत था. उस के इस तुच्छ से  प्रेमिल संसार में भले ही किसी महान हीरो  वाला  का पुट न हो, भले ही मोनिका को ले कर वह, बस, कोई  सपना ही देख रहा हो  पर आज तो ये सब अनुभूतियां  ही उस के जीवन को रोमांचक बना रही  हैं.

एक रात जब चांदनीरात  जैसे दूध में नहा कर भीग  रही थी और काठगोदाम के कुछ पहाड़ सफेद हो कर दूर से ही चांदी जैसे चमक रहे थे, नीचे रानीबाग की  तरफ गौला नदी का  शोर संगीत सा लग रहा था. उस ने अपना फोन लिया और मोनिका के  नंबर पर लगा दिया. मगर डरकर  दोबारा नहीं किया. तो उसी समय  मोनिका ने ही फोन कर दिया, पूछने लगी, “ओ बुद्धू सेल्समैन.”

“अ,हां,” उस ने घबरा कर कहा.

“इस समय फ़ोन कैसे किया?”

“बस, यह बताना था कि आज शाम ही चादरों की  एक नई गांठ आई है. तुम अपनी किटी की 7-8 सहेलियों के लिए कह रहीं थी न. बिलकुल रोमांटिक छपाई है.”

“कैसी रोमांटिक, यह कैसी छपाई होती है, मैं नहीं समझी?”

“अब यह तो उन को छू कर पता लगेगा.”

“अच्छा, बुद्धू सेल्समैन, जब तुम ने छुआ तो  तुम को कैसा लगा, यह तो बताओ?” मोनिका की आवाज में बहुत शरारत थी.

वह दीवाना हुआ जा रहा था. पर  अब आगे और कुछ भी  बात नहीं करना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि मिनटदोमिनट बाद ही सही फोन तो बंद करना ही होगा. उस ने बहाना बना कर अलविदा कहा, फोन बंद कर  दिया.

पर वह साफसाफ कल्पना कर  पा रहा था कि खुले हुए बाल कभी  मोनिका के गालों से तो  कभी उस की  गरदन पर खेल रहे होंगे.  वह वहां होता तो अभी वह गरमागरम… वह फिर अपना ध्यान हटा कर कहीं कुछ और ही सोचने लगा.

सर्कस की  अपनी भोजन व्यवस्था थी. वहां सुबह चायपोहा, दोपहर में दालरोटीखिचड़ी, शाम को चायपकौड़े और रात को रस  वाले  आलू-तेल के  परांठे मिलते थे.  साथ ही, मालिक उस को एक प्लेट राजमाचावल खाने  के पैसे अलग से रोज  नकद दिया करता था. पर यहां मोनिका के  हाथों के भरवां करेले, आलूशिमलामिर्च, आलूमटरगोभी का  स्वाद ही निराला था.

कुल मिला कर जिंदगी का  हर पल यहां चादर की दुकान और टैंट में मोनिका के बगैर  एक बहुत बरबाद चीज़ ही साबित हो रही  थी. बहुत बोर. रोज़ चादरों की तह करो और  उसी तह में तहमद बनते रहो. कहीं कोई रंग नहीं, कोई रस नहीं. मशीनी हाट और मशीनी काम. यह जीना भी कोई जीना था. हां, अब दुनिया में हर कोई अपना एक जीवन तो चुन ही लेता है और बाकी बारहखडी़ भी उसी हिसाब से तय होती जाती है.

एक दिन उस के लिए कितना भावुक करने वाला पल आया था कि जब मोनिका उस से खुद को कुछ सैकंड के लिए अलग कर के शायद कहीं शून्य में खो गई और एक गीत ‘रोजरोज आंखों तले एक ही सपना चले’ बस, इतना सा टूटाफूटा गुनगुना कर वह  कुछ देर चुप रही और पलंग के  नीचे कच्चे फर्श को ताकने लगी. वहां अपनी आंखों की  कलम  से ज़मीन पर कुछ चित्र बनाती रही,  फिर अचानक   बोली, “हां, जो भी हो, उम्मीद तो बना कर रखनी चाहिए.  सब खत्म होने  तक भी अच्छे होने  की उम्मीद करते रहना, कुदरत का फरमान है.  देह भले ही कितनी  उम्र  पार कर चुकी हो, तो भी उम्मीद को जवानी का  एहसास  छू कर रखना चाहिए, अगर  कहीं यह कमजोर देह डगमगा गई और हमारा आत्मबल मुंह के बल  गिर पड़े. तो चट संभल जाए. इस तरह जीवन के कंधे पर निराशा का बोझ नहीं पड़ता.”

मोनिका से यह सब सुन कर उस को अचंभा हुआ और फिर वह भी मोनिका के  सुर मे सुर मिला कर बोल पड़ा, “हां मोनिका,  हरेक  पल को स्वीकार करना जरूरी है. स्वीकृति ही तो  हर चीज से मुक्त कर देती है. यही रास्ता है. स्वीकृति सहनशीलता से कहीं ज्यादा बेहतर है. लेकिन अगर हम जागरूक नहीं हैं, अगर स्वीकार करना आप के लिए संभव नहीं है और आप हर छोटीछोटी चीज के लिए भी  चिड़चिड़ा जाते हैं तो उस से बचने के  लिए  कम-से-कम कुछ  सहनशीलता तो विकसित कर ही लेनी चाहिए. मैं ने आज तक यही माना कि यह जीवन, बस,  एक सहनशीलता पर ही टिका  है.  मैं खुद कितनी छोटी उम्र से कैसे शहरशहर किसी का  नौकर बन कर  जूझ रहा हूं. मगर मैं हमेशा  यही देख पाता हूं कि कोई  चीज सुविधाजनक नहीं है, तो उस के बारे में शिकायत करने का क्या लाभ. सब स्वीकार कर लो,  यही  सब से अच्छा और आरामदायक  रास्ता है.”

यह सुन कर मोनिका उस से कैसे लता सी लिपटती गई थी.  तब से मोनिका के  हर स्पर्श में उस को  एक कोमलता लगती.  उसे बारबार महसूस होता कि वह एक पोखर है और उस के  समूचे उदास पानी  में वह एक लहर पैदा कर देती है. वह  अब एक ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज थी जो परिभाषित तो नहीं हो पा रही थी पर वह कुछ ऐसी तो थी  जो  उस के मर्म पर  और आंतरिक  इच्छा पर राज करने लगी थी.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 2

मन मार कर मैं मंगनी में पहुंची. जब मैं अपनी कार से उतर रही थी. मैं ने मंसूर को देखा. मेरे दिमाग में बिजली सी चमकी. मैं चेहरे पर वही दिखावे का प्यार लिए मंसूर के पास जा पहुंची. मैं ने उस से कहा, ‘‘प्लीज मंसूर, मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘तुम एक नहीं सौ काम बोलो, बंदा हाजिर है.’’ उस ने आशिकाना अंदाज में कहा.

‘‘मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. अम्मी ने मुझे बाजार जाने नहीं दिया. अभी मंगनी में वक्त है, तुम मुझे बाजार से मेरे सूट के कलर की चूडि़यां ला दो.’’ मैं ने कहा.

मैं पैसे निकालने लगी, पर उस ने मना कर दिया. मेरे सूट को गौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैं चूडि़यां तो ला दूंगा, पर एक शर्त पर.’’

‘‘कैसी शर्त?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह मैं चूडि़यां लाने के बाद ही बताऊंगा.’’ इतना कह कर वह फौरन मोटरसाइकिल ले कर चला गया. मैं अंदर आ कर किरण से मिली. हमारे सभी दोस्त थे, मैं बातों में लग गई कि कानों में हल्की सी आवाज आई, ‘‘शीना.’’

मैं ने मुड़ कर देखा मंसूर था. मैं फौरन उस के पास गई. वहां से दूर हट कर उस ने चूडि़यों का पैकेट मेरे हाथों पर रख दिया. परफेक्ट मैचिंग की बेहद खूबसूरत चूडि़यां लाया था.

जैसे ही मैं चूडि़यां पहनने लगी, उस ने मेरे हाथ से चूडि़यां लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें मैं पहनाऊंगा, यही तो मेरी शर्त थी.’’

कुछ कहने की गुंजाइश न थी. उस ने बड़े प्यार से चूडि़यां पहनाईं. मैं उस की आंखों की चमक से डर गई. मैं ने उस से मीठे लहजे में मिन्नत की, ‘‘देखो मंसूर, तुम्हारे साथ मोटरसाइकिल पर जाना या कहीं बैठना ठीक नहीं है. किसी जानने वाले ने देख लिया तो मेरी मुसीबत आ जाएगी. आइंदा मुझे मोटरसाइकिल पर बैठने को मत कहना.’’

‘‘ठीक है, पर तुम अम्मी से मिलने मेरे घर आती रहोगी.’’ उस ने कहा.

मेरे पास सिवाय वादा करने के और कोई रास्ता नहीं था. मैं ने किरण को मजे ले कर सारा किस्सा सुनाया. वह नाराज हो कर बोली, ‘‘किसी के दिल के साथ इस तरह खेलना अच्छी बात नहीं है. क्या तुम उस गरीब से शादी करोगी? नहीं न. जानती है, यह खेल उस की जान का रोग बन जाएगा. इतनी आसानी से वह तुम्हें नहीं छोड़ेगा.’’

मैं ने किरण को यकीन दिलाया कि आगे से ध्यान रखूंगी. मुझे किरण की बात सही लग रही थी, पर मैं अपनी फितरत से मजबूर थी. मुझे इस खेल में मजा आ रहा था. कोई मुझे सराहे, मुझे चाहे, मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाए. यह बात भला किसे बुरी लग सकती है.

अपना वादा निभाने के लिए मैं 2 सूट ले कर उस की अम्मी के पास सिलाने गई. मैं ने कहा, ‘‘खाला, मैं ये 2 सूट सिलवाने आई हूं.’’

उसी वक्त मंसूर कमरे से बाहर आ गया. मुझे देख कर वह खुश हो गया. कहने लगा, ‘‘अब अम्मी ने सिलाई का काम बंद कर दिया है. पर ये तुम्हारे सूट हैं, इसलिए जरूर सिलेंगी.’’

उस ने चाहतभरी नजर मुझ पर डाली. खाला ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी बेटी के सूट मैं खूब अच्छे से सीऊंगी, मंसूर जाओ, जल्दी से बेटी के लिए गरम समोसे और जलेबी ले आओ. तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मेरे ना करने पर भी मंसूर चला गया. हम ने साथ बैठ कर मजे से समोसेजलेबी खाई और चाय पी. मंसूर मुझे देखता रहा. मेरी खातिरदारी करता रहा. जब मैं वापस आने लगी तो वह मुझे दरवाजे तक छोड़ने भी आया. उस ने धीमे से कहा, ‘‘शीना, कल इंस्टीट्यूट के बाहर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा, मुझे तुम से एक जरूरी बात करनी है.’’

जिस अंदाज में उस ने मुझ से यह बात कही थी मैं चौंक गई. मैं ने कहा, ‘‘मंसूर वह कौन सी जरूरी बात है जो तुम यहां नहीं कर सकते?’’

‘‘नहीं, यहां मुमकिन नहीं है, तुम परेशान न हो, मैं लंबी बात नहीं करूंगा.’’

दूसरे दिन मैं अपने वक्त पर इंस्टीट्यूट से निकली तो मंसूर इंतजार करते हुए मुझे बाहर मिला. उस ने मुझ से रेस्टोरेंट में चलने के लिए कहा तो मैं ने रेस्टोरेंट में जाने से मना कर दिया. वह मुझे एक करीबी पार्क में ले गया. वहां सन्नाटा था. वहां पहुंच कर उस ने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कल मुझे पहली सैलरी मिली. ये गिफ्ट तुम्हारे लिए है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे तुम्हारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है कि मैं ये गिफ्ट ले लूं.’’

‘‘रिश्ता भी बन जाएगा. फिलहाल इसे स्वीकार कर लो.’’ वह बोला.

मैं ने पैकेट रख लिया. जब मैं अपने घर की तरफ मुड़ी तो उस ने मेरी तरफ अपनेपन की तरह देखते हुए कहा, ‘‘मुझे उस दिन का इंतजार है जब तुम जिद कर के हक जताते हुए मुझ से तोहफे मांगा करोगी.’’

मुझे यूं लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया है. यानी वह मुझ से शादी करने के ख्वाब देख रहा था. दिल तो चाहा कि उस का गिफ्ट उस के मुंह पर मार दूं, मगर मैं चुपचाप गिफ्ट लिए घर आ गई. कमरा बंद कर के मैं बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी कि मैं ने मजाकजाक में एक जंजाल पीछे लगा लिया. लेकिन अब इस से छुटकारा पाना बहुत जरूरी था.

मंसूर के दिल में ये बात बैठ गई है तो वह अपनी मां को रिश्ता ले कर भी भेज सकता है. रिश्ता आने पर मेरी अम्मी और अब्बू जो भी फैसला करें पर मेरे इनकार से मंसूर और साफिया खाला के दिल जरूर टूट जाएंगे. अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझे मंसूर को इस तरह बढ़ावा नहीं देना चाहिए था. मेरे प्यार मेरे व्यवहार से ही वह मेरी तरफ आकर्षित हुआ, वरना पहले तो उस से केवल हायहैलो ही होती थी.

मेरा कंप्यूटर का कोर्स भी 2 दिन में पूरा होने वाला था. इसलिए मैं ने किरण को फोन किया कि वह अपने दोस्त फराज से मेरी जौब की बात करे. उस के वालिद की 2-3 कंपनियां हैं. उस में कहीं मुझे रख ले.

किरण ने कहा, ‘‘फराज मेरा दोस्त ही नहीं कजिन भी है. एक हफ्ते में मैं तुम्हें औफिस में सेट कर दूंगी.’’

उसी की बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई. पता नहीं क्यों मेरे मेरे दिमाग में बारबार फराज का खयाल आने लगा. मैं अब जौब करना चाहती थी, पर घर का माहौल ऐसा था कि वह जौब नहीं करने देते. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनी अम्मी से जौब करने की इजाजत ली.

मेरे वालिद फराज के वालिद व उन के कारोबार को जानते थे. 3 दिन बाद मुझे कंपनी से अपाइंटमेंट लेटर मिल गया. फराज का औफिस किलीकटन पर था. मैं ने रिसेप्शन पर अपने बारे में बताया तो मुझे फौरन ही बुलाया गया. फराज बेहद स्मार्ट और खूबसूरत था. उस ने इंटरकाम के जरिए एक लड़की को बुलाया और कहा, ‘‘मिस शीना, ये मिस तबंदा हैं. ये जौब से रिजाइन कर रही हैं इन्हीं की जगह पर आप यहां मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी. मिस तबंदा आप इन्हें काम के बारे में सब बातें अच्छे से समझा दीजिए.’’

वह मुझे ले कर बाहर आ गई. उस ने बताया कि मेरी शादी हो गई और मैं दुबई जा रही हूं. उस ने मुझे अच्छे से सारा काम समझा दिया. वह दिन भर मेरे साथ रही, मुझे गाइड करती रही. दूसरे रोज भी वह मेरे साथ रही. उस के बाद मैं ने बखूबी सारा काम संभाल लिया. मुझे एक केबिन मिला था. मेरी टेबल पर कंप्यूटर भी था, जो मुझे अच्छे से आता था और अपनी काबीलियत के बल पर मैं जल्द ही अच्छे से एडजस्ट हो गई.

इस बीच मेरी फराज से 2-3 मुलाकातें हुईं. उस के औफिस का रास्ता मेरे केबिन से हो कर गुजरता था. वह केवल काम से काम रखने वाला शख्स था. किसी से ज्यादा बात नहीं करता. काम होने पर ही केबिन में बुलाता था. अब उस ने मुझे अपने बिजनेस लेटर्स टाइप करने को दे दिए.

महीना खत्म होने पर मुझे अच्छीखासी सैलरी मिली. मैं खुश हो गई. मुझे फराज बहुत पसंद आया. वह मेरी ख्वाहिश के मुताबिक खूबसूरत होने के साथसाथ दौलतमंद भी था. धीरेधीरे मेरे हुस्न मेरी अदाओं से वह मेरी तरफ आसक्त होने लगा. फराज के वालिद कभीकभार ही औफिस आते थे, वह मुझ से बड़े प्यार से बात करते थे.

नजरिया- भाग 2: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

15 दिन और बीत गए. आशी की सास रोज घर में आशी के बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिए कहतीं. निखिल की बहन भी फोन कर निखिल को समझाती कि आजकल तो उन की जातबिरादरी में सभी गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लेते हैं ताकि यदि गर्भ में कन्या हो तो छुटकारा पा लिया जाए.

पहले तो निखिल को ये सब बातें दकियानूसी लगीं, पर फिर धीरेधीरे उसे भी लगने लगा कि यदि सभी ऐसा करवाते हैं, तो इस में बुराई भी क्या है?

उस दिन आशी अचानक फिर से मेरे घर आई. इधरउधर की बातों के बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसा महसूस करती हो अब? मौर्निंग सिकनैस ठीक हुई या नहीं? अब तो 4 महीने हो गए न?’’

‘‘ऋचा क्या बताऊं. आजकल न जाने निखिल को भी क्या हो गया है. कुछ सुनते ही नहीं मेरी. इस बार जब चैकअप के लिए गई तो डाक्टर से बोले कि देख लीजिए आप. पहले ही हमारी 2 बेटियां हैं, इस बार हम बेटी नहीं चाहते. ऋचा मुझे बहुत डर लग रहा है. अब तक तो बच्चे में धड़कन भी शुरू हो गई है… यदि निखिल न समझे और फिर से लड़की हुई तो कहीं मुझे गर्भपात न करवाना पड़े,’’ वह रोतेरोते कह रही थी, ‘‘नहीं ऋचा यह तो हत्या है, अपराध है… यह बच्चा गर्भ में है, तो किसी को नजर नहीं आ रहा. पैदा होने के बाद तो क्या पता मेरी दोनों बेटियों जैसा हो और उन जैसा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है. उस में भी जान तो है. उसे भी जीने का हक है. हमें क्या हक है अजन्मी बेटी की जान लेने का… यह तो जघन्य अपराध है और कानूनन भी यह गलत है. यदि पता लग जाए तो इस की तो सजा भी है. लिंग परीक्षण कर गर्भपात करने वाले डाक्टर भी सजा के हकदार हैं.’’

आशी बोले जा रही थी और उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. मेरी आंखें भी नम हो गई थीं.

अत: मैं ने कहा, ‘‘देखो आशी, तुम्हें यह समय हंसीखुशी गुजारना चाहिए. मगर तुम रोज दुखी रहती हो… इस का पैदा होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है. मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं. यदि निखिल तुम्हारी बात समझ जाए तो शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए… तुम्हें उसे यह समझाना होगा कि यह उस का भी बच्चा है. इस में उस का भी अंश है… एक मूवी है ‘साइलैंट स्क्रीम’ जिस में पूरी गर्भपात की प्रक्रिया दिखाई गई है. तुम आज ही निखिल को वह मूवी दिखाओ. शायद उसे देख कर उस का मन पिघल जाए. उस में सब दिखाया गया है कि कैसे अजन्मे भू्रण को सक्शन से टुकड़ेटुकड़े कर दिया जाता है और उस से पहले जब डाक्टर अपने औजार उस के पास लाता है तो वह कैसे तड़पता है, छटपटाता है और बारबार मुंह खोल कर रोता है, जिस की हम आवाज तो नहीं सुन सकते, किंतु देख तो सकते हैं. किंतु यदि उस के अपने मातापिता ही उस की हत्या करने पर उतारू हों तो वह किसे पुकारे? जब उस का शरीर मांस के लोथड़ों के रूप में बाहर आता है तो बेचारे का अंत हो जाता है. उस का सिर क्योंकि हड्डियों का बना होता है, इसलिए वह सक्शन द्वारा बाहर नहीं आ पाता तो किसी औजार से दबा कर उसे चूरचूर कर दिया जाता है… उस अजन्मे भू्रण का वहीं खात्मा हो जाता है. बेचारे की अपनी मां की कोख ही उस की कब्र हो जाती है. कितना दर्दनाक है… यदि वह भू्रण कुछ माह और अपनी मां के गर्भ में रह ले तो एक मासूम, खिलखिलाता हुआ बच्चा बन जाता है. फिर शायद सभी उसे बड़े प्यार व दुलार से गोद में उठाए फिरें. मुझे ऐसा लगता है कि शायद निखिल इस मूवी को देख लें तो फिर शायद अपनी मां की बात न मानें.

‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं,’’ कह आशी थोड़ी देर बैठ घर चली गई.

मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक औरत पुरुष के सामने इतना विवश क्यों हो जाती है कि अपने बच्चे को जन्म देने में भी उसे अपने पति की स्वीकृति लेनी होती है?

खैर, आशी ने रात को अपने पति निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ मूवी दिखाई. मैं बहुत उत्सुक थी कि अगले दिन आशी क्या खबर लाती है?

अगले दिन जब आशी बेटियों को स्कूल बस में बैठाने आई तो कुछ चहक सी रही थी, जो अच्छा संकेत था. फिर भी मेरा मन न माना तो मैं उसे सैर के लिए ले गई और फिर एकांत मिलते ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ आशी, निखिल तुम्हारी बात मान गए? तुम ने मूवी दिखाई उन्हें?’’

वह कहने लगी, ‘‘हां ऋचा तुम कितनी अच्छी हो. तुम ने मेरे लिए कितना सोचा… जब रात को मैं ने निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ यूट्यूब पर दिखाई तो वे मुझे देख स्वयं भी रोने लगे और जब मैं ने बताया कि देखिए बच्चा कैसे तड़प रहा है तो फूटफूट कर रोने लगे. फिर मैं ने कहा कि यदि हमारे बच्चे का लिंग परीक्षण कर गर्भपात करवाया तो उस का भी यही हाल होगा… अब निखिल ने वादा किया है कि वे ऐसा नहीं होने देंगे. चाहे कुछ भी हो जाए.’’

मैं ने सोचा काश, आशी जो कह रही है वैसा ही हो. किंतु जैसे ही निखिल ने मां को अपना फैसला सुनाया कि चाहे बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाएगा तो उस की मां बिफर पड़ीं. कहने लगीं कि क्या तू ने भी आशी से पट्टी पढ़ ली है?’’

‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.

अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.

आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.

निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’

निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.

इंग्लिश रोज- भाग 1 : क्या सच्चा था विधि के लिए जौन का प्यार

वह आज भी वहीं खड़ी है. जैसे वक्त थम गया है. 10 वर्ष कैसे बीत जाते हैं…? वही गांव, वही शहर, वही लोग…यहां तक कि फूल और पत्तियां तक नहीं बदले. ट्यूलिप्स, सफेद डेजी, जरेनियम, लाल और पीले गुलाब सभी उस की तरफ ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे उस की निगाह को पहचानते हों. चौश्चर काउंटी के एक छोटे से गांव नैनटविच तक सिमट कर रह गई उस की जिंदगी. अपनी आरामकुरसी पर बैठ वह उन फूलों का पूरा जीवन अपनी आंखों से जी लेती है. वसंत से पतझड़ तक पूरी यात्रा. हर ऋतु के साथ उस के चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं, कभी उदासी, कभी मुसकराहट. उदासी अपने प्यार को खोने की, मुसकराहट उस के साथ समय व्यतीत करने की. उसे पूरी तरह से यकीन हो गया था कि सभी के जीवन का लेखाजोखा प्रकृति के हाथ में ही है. समय के साथसाथ वह सब के जीवन की गुत्थियां सुलझाती जाती है. वह संतुष्ट थी. बेशक, प्रकृति ने उसे, क्वान्टिटी औफ लाइफ न दी हो किंतु क्वालिटी औफ लाइफ तो दी ही थी, जिस के हर लमहे का आनंद वह जीवनभर उठा सकेगी.

यह भी तो संयोग की ही बात थी, तलाक के बाद जब वह बुरे वक्त से निकल रही थी, उस की बड़ी बहन ने उसे छुट्टियों में लंदन बुला लिया था. उस की दुखदाई यादों से दूर नए वातावरण में, जहां उस का मन दूसरी ओर चला जाए. 2 महीने बाद लंदन से वापसी के वक्त हवाईजहाज में उस के साथ वाली कुरसी पर बैठे जौन से उस की मुलाकात हुई. बातोंबातों में जौन ने बताया कि रिटायरमैंट के बाद वे भारत घूमने जा रहे हैं. वहां उन का बचपन गुजरा था. उन के पिता ब्रिटिश आर्मी में थे. 10 वर्ष पहले उन की पत्नी का देहांत हो गया. तीनों बच्चे शादीशुदा हैं. अब उन के पास समय ही समय है. भारत से उन का आत्मीय संबंध है. मरने से पहले वे अपना जन्मस्थान देखना चाहते हैं, यह उन की हार्दिक इच्छा है. उन्होंने फिर उस से पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘मैं भारत में ही रहती हूं. छुट्टियों में लंदन आई थी.’’

‘‘मैं भारत घूमना चाहता हूं. अगर किसी गाइड का प्रबंध हो जाए तो मैं आप का आभारी रहूंगा,’’ जौन ने निवेदन करते कहा.

‘‘भाइयों से पूछ कर फोन कर दूंगी,’’ विधि ने आश्वासन दिया. बातोंबातों में 8 घंटे का सफर न जाने कैसे बीत गया. एकदूसरे से विदा लेते समय दोनों ने टैलीफोन नंबर का आदानप्रदान किया. दूसरे दिन अचानक जौन सीधे विधि के घर पहुंच गए. 6 फुट लंबी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, काला ब्लेजर और दर्पण से चमकते जूते पहने अंगरेज को देख कर सभी चकित रह गए. विधि ने भाइयों से उस का परिचय करवाते कहा, ‘‘भैया, ये जौन हैं, जिन्हें भारत में घूमने के लिए गाइड चाहिए.’’

‘‘गाइड? गाइड तो कोई है नहीं ध्यान में.’’

‘‘विधि, तुम क्यों नहीं चल पड़ती?’’ जौन ने सुझाव दिया. प्रश्न बहुत कठिन था. विधि सोच में पड़ गई. इतने में विधि का छोटा भाई सन्नी बोला, ‘‘हांहां, दीदी, हर्ज की क्या बात है.’’

‘‘थैंक्यू सन्नी, वंडरफुल आइडिया. विधि से अधिक बुद्धिमान गाइड कहां मिल सकता है,’’ जौन ने कहा. 2 सप्ताह तक दक्षिण भारत के सभी पर्यटन स्थलों को देखने के बाद दोनों दिल्ली पहुंचे. उस के एक सप्ताह बाद जौन की वापसी थी. जाने से पहले तकरीबन रोज मुलाकात हो जाती. किसी कारणवश जौन की विधि से बात न हो पाती तो वह अधीर हो उठता. उस की बहुमुखी प्रतिभा पर जौन मरमिटा था. वह गुणवान, स्वाभिमानी, साहसी और खरा सोना थी. विधि भी जौन के रंगीले, सजीले, जिंदादिल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई. उस की उम्र के बारे में सोच कर रह जाती. जौन 60 वर्ष पार कर चुका था. विधि ने अभी 35 वर्ष ही पूरे किए थे. लंदन लौटने से 2 दिन पहले, शाम को टहलतेटहलते भरे बाजार में घुटनों के बल बैठ कर जौन ने अपने मन की बात विधि से कह डाली, ‘‘विधि, जब से तुम से मिला हूं, मेरा चैन खो गया है. न जाने तुम में ऐसा कौन सा आकर्षण है कि मैं इस उम्र में भी बरबस तुम्हारी ओर खिंचा आया हूं.’’ इस के बाद जौन ने विधि की ओर अंगूठी बढ़ाते हुए प्रस्ताव रखा, ‘‘विधि, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

विधि निशब्द और स्तब्ध सी रह गई. यह तो उस ने कभी नहीं सोचा था. कहते हैं न, जो कभी खयालों में हमें छू कर भी नहीं गुजरता, वो, पल में सामने आ खड़ा होता है. कुछ पल ठहर कर विधि ने एक ही सांस में कह डाला, ‘‘नहींनहीं, यह नहीं हो सकता. हम एकदूसरे के बारे में जानते ही कितना हैं, और तुम जानते भी हो कि तुम क्या कह रहे हो?’’ ‘‘हांहां, भली प्रकार से जानता हूं, क्या कह रहा हूं. तुम बताओ, बात क्या है? मैं तुम्हारे संग जीवन बिताना चाहता हूं.’’ विधि चुप रही.

जौन ने परिस्थिति को भांपते कहा, ‘‘यू टेक योर टाइम, कोई जल्दी नहीं है.’’ 2 दिनों बाद जौन तो चला गया किंतु उस के इस दुर्लभ प्रश्न से विधि दुविधा में थी. मन में उठते तरहतरह के सवालों से जूझती रही, ‘कब तक रहेगी भाईभाभियों की छत्रछाया में? तलाकशुदा की तख्ती के साथ क्या समाज तुझे चैन से जीने देगा? कौन होगा तेरे दुखसुख का साथी? क्या होगा तेरा अस्तित्व? क्या उत्तर देगी जब लोग पूछेंगे इतने बूढ़े से शादी की है? कोई और नहीं मिला क्या?’ इन्हीं उलझनों में समय निकलता गया. समय थोड़े ही ठहर पाया है किसी के लिए. दोनों की कभीकभी फोन पर बात हो जाती थी एक दोस्त की तरह. कालेज में भी खोईखोई रहती. एक दिन उस की सहेली रेणु ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘विधि, जौन के जाने के बाद तू तो गुमसुम ही हो गई. बात क्या है?’’

‘‘जाने से पहले जौन ने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था.’’

‘‘पगली…बात तो गंभीर है पर गौर करने वाली है. भारतीय पुरुषों की मनोवृत्ति तो तू जान ही चुकी है. अगर यहां कोई मिला तो उम्रभर उस के एहसानों के नीचे दबी रहेगी. उस के बच्चे भी तुझे स्वीकार नहीं करेंगे.

जौन की आंखों में मैं ने तेरे लिए प्यार देखा है. तुझे चाहता है. उस ने खुद अपना हाथ आगे बढ़ाया है. अपना ले उसे. हटा दे जीवन से यह तलाक की तख्ती. तू कर सकती है. हम सब जानते हैं कि बड़ी हिम्मत से तू ने समाज की छींटाकशी की परवा न करते हुए अपने पंथ से जरा भी विचलित नहीं हुई. समाज में अपना एक स्थान बनाया है. अब नए रिश्ते को जोड़ने से क्यों हिचकिचा रही है. आगे बढ़. खुशियों ने तुझे आमंत्रण दिया है. ठुकरा मत, औरत को भी हक है अपनी जिंदगी बदलने का. बदल दे अपनी जिंदगी की दिशा और दशा,’’ रेणु ने समझाते हुए कहा. ‘‘क्या करूं, अपनी दुविधाओं के क्रौसरोड पर खड़ी हूं. वैसे भी, मैं ने तो ‘न’ कर दी है,’’ विधि ने कहा. ‘‘न कर दी है, तो हां भी की जा सकती है. तेरा भी कुछ समझ में नहीं आता. एक तरफ कहती है, जौन बड़ा अलग सा है. मेरी बेमानी जरूरतों का भी खयाल रखता है. बड़ी ललक से बात करता है. छोटीछोटी शरारतों से दिल को उमंगों से भर देता है. मुझे चहकती देख कर खुशी से बेहाल हो जाता है. मेरे रंगों को पहचानने लगा है. तो फिर झिझक क्यों रही है?’’

‘‘उम्र देखी है? 60 वर्ष पार कर चुका है. सोच कर डर लगता है, क्या वह वैवाहिक सुख दे पाएगा मुझे?’’ ‘‘आजमा कर देख लेती? मजाक कर रही हूं. यह समय पर छोड़ दे. यह सोच कि तेरी आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. तेरा अपना घर होगा जहां तू राज करेगी. ठंडे दिमाग से सोचना…’’ ‘‘डर लगता है कहीं विदेशी चेहरों की भीड़ में खो तो नहीं जाऊंगी. धर्म, सोच, संस्कृति, सभ्यता, कुछ भी तो नहीं है एकजैसा हमारा. फिर इतनी दूर…’’ ‘‘प्रेम उम्र, धर्म, भाषा, रंग और जाति सभी दीवारों को गिराने की शक्ति रखता है. मेरी प्यारी सखी, प्यार में दूरियां भी नजदीकियां हो जाती हैं. अभी ईमेल कर उसे, वरना मैं कर देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं खुद ही कर लूंगी,’’ विधि ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘डियर जौन,

कायर – भाग 1 : क्या घना को मिल पाया श्यामा का प्यार

घना जानता था कि श्यामा निचली जाति की लड़की है, पर उस के अच्छे बरताव की वजह से वह उस के प्रति खिंचता चला गया था. यहां तक कि वह श्यामा से शादी करने को भी तैयार था.

वैसे, घना जाति प्रथा को भारतीय समाज के लिए अभिशाप मानता था और अकसर अपने दोस्तों के साथ अंधविश्वास, जाति प्रथा जैसी बुराइयों पर बड़ीबड़ी बातें भी करता था.

घना कई बार अपने मन की बात श्यामा तक पहुंचाने की कोशिश कर चुका था, पर श्यामा ने उसे कभी भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया था.

आज घना को श्यामा से अकेले में बात करने का मौका मिल गया था और वह इस मौके को खोना नहीं चाहता था.

श्यामा आ रही थी. घना ने अपने गांव के दोस्तों को पहले ही चले जाने के लिए कह दिया था और खुद श्यामा का इंतजार कर रहा था.

जैसे ही श्यामा उस के करीब से गुजरी, घना ने उसे रुकने को कहा.

‘‘श्यामा,’’ घना ने अपना गला साफ करते हुए कहा.

‘‘जी,’’ श्यामा ने एक पल के लिए घना की ओर देखा और आगे बढ़ गई.

‘‘आज मौसम बहुत खराब है,’’ घना बोला.

श्यामा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘श्यामा, मैं तुम से कुछ बात कहना चाहता हूं.’’

श्यामा फिर भी चुप रही. घना श्यामा के बहुत करीब आ गया.

श्यामा घना की बात को अच्छी तरह से सम?ा रही थी. उस ने गुस्से से घना की तरफ देखा.

घना थोड़ा सा सहम गया था, पर वह सोचने लगा कि अगर आज नहीं कहेगा, तो वह अपनी बात कभी नहीं कह पाएगा.

‘‘श्यामा… मैं…मैं… तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ जैसे कि श्यामा घना की बात का मतलब न सम?ा हो.

‘‘श्यामा, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं.’’

‘‘यह जानते हुए भी कि मैं निचली जाति की हूं और आप ऊंची जाति वाले.’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं इस तरह की किसी भी बहस

में नहीं उल?ाना चाहती. अगर किसी ने यह सब सुन लिया, तो आप की बहुत बदनामी होगी.’’

‘‘श्यामा, मैं तुम से बहुत प्यार

करता हूं और तुम्हीं से शादी भी करना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम्हारे गांव के सब बराती निचली जाति वालों के हाथ का पका खाना खाएंगे? जो लोग निचली जाति वालों की छाया से भी दूर रहते हैं, क्या वे एक अछूत लड़की को अपने घर की बहू बनाएंगे?

‘‘घना, मु?ा गरीब पर दया करो. मैं किसी किस्सेकहानी का पात्र नहीं

बनना चाहती हूं. आप ऊंची जाति वालों की नजर में भले ही हमारी कोई इज्जत नहीं है, पर अपनी नजर में हमारी बहुत इज्जत है.

‘‘मेरे पिता एक स्कूल में मास्टर हैं. समाज में उन की भी कुछ इज्जत है. मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं कि मेरे साथ आगे से ऐसी हरकत कभी मत करना.’’

श्यामा का ऐसा चेहरा देख कर घना सकते में आ गया. वह कुछ न बोल सका और चुपचाप वहीं खड़ा रह गया. श्यामा तेज कदमों से आगे बढ़ गई.

श्यामा जा चुकी थी, पर उस के कहे गए शब्द घना के कानों मेें बारबार गूंज रहे थे.

घना ने आसमान की ओर देखा. आसमान में घने बादल छाए हुए थे. वह सोचने लगा कि आज की रात फिर बर्फबारी होने वाली है. वह बहुत निराश था. क्या करे? कहां जाए? खुदकुशी कर ले? समाज की रूढि़यों, जाति प्रथा के चलते ही तो श्यामा ने उस के प्यार

को ठुकरा दिया था, वरना उस में क्या कमी थी.

घना को लगा कि यह जिंदगी ही बेकार है. वह बदहवास सा रास्ते से हट कर ऊपर पहाड़ी पर चढ़ने लगा. चारों तरफ अंधेरा बढ़ने लगा था. जब वह चलतेचलते थक गया, तो सुस्ताने के लिए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया.

रात अब काफी हो चुकी थी. काफला और खड़कोट, दोनों गांवों के बीच, जहां पर खेत खत्म हो जाते हैं, वहां पर एक बेसिक स्कूल था. इस के बाद जंगल शुरू हो जाता था. बस्ती से दूर होने के चलते रात में स्कूल में कोई नहीं रहता था.

घना सोचने लगा कि आज की रात वह इसी स्कूल में बिता देगा. कल देखा जाएगा. अंधेरे में चलते, गिरतेपड़ते, ?ाडि़यों से गुजरते हुए उस का बदन बुरी तरह से छिल गया था. कई खरोंचें भी लग गई थीं.

जब घना स्कूल में पहुंचा, तब वहां भयंकर सन्नाटा पसरा हुआ था. वह स्कूल के बरामदे के एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया. ठंड से उस की हड्डियां तक कांप रही थीं. श्यामा का एहसास उस के दिलोदिमाग से हटने का नाम नहीं ले रहा था.

कुंआरी ख्वाहिशें-भाग 1 : हवस के चक्रव्यूह में फंसी गीता

‘‘गीता, ओ गीता. कहां है यार, मैं लेट हो रहा हूं औफिस के लिए. जल्दी चल… तुझे कालेज छोड़ने के चक्कर में मैं रोज लेट हो जाता हूं.’’

‘‘आ रही हूं भाई, तैयार तो होने दो, कितनी आफत मचा कर रखते हो हर रोज सुबह…’’

‘‘और तू… मैं हर रोज तेरी वजह से लेट हो जाता हूं. पता नहीं, क्या लीपापोती करती रहती है. भूतनी बन जाती है.’’

इतने में गीता तैयार हो कर कमरे से बाहर आई, ‘‘देखो न मां, आप की परी जैसी बेटी को एक लंगूर भूतनी कह रहा है… आप ने भी न मां, क्या मेरे गले में मुसीबत डाल दी है. मैं अपनेआप कालेज नहीं जा सकती क्या? मैं अब छोटी बच्ची नहीं हूं, जो मुझे हर वक्त सहारे की जरूरत पड़े.’’

मां ने कहा, ‘‘तू तो मेरी परी है. यह जब तक तेरे साथ न लड़े, इसे खाना हजम नहीं होता. और अब तू बड़ी हो गई है, इसलिए तुझे सहारे की जरूरत है. जमाना बहुत खराब है बच्चे, इसलिए तो कालेज जाते हुए तुझे भाई छोड़ता जाता है और वापसी में पापा लेने आते हैं. अब जा जल्दी से, भाई कब से तेरा इंतजार कर रहा है.’’

‘‘हांहां, जा रही हूं. पता नहीं ये मांएं हर टाइम जमाने से डरती क्यों हैं?’’ गीता बड़बड़ाते हुए बाहर चली गई.

 

गीता बीबीए के पहले साल में पढ़ रही थी. उस का भाई बंटी उस से

 

6 साल बड़ा था और नौकरी करता था. गीता का छोटा सा परिवार था. मम्मीपापा और एक बड़ा भाई, जो पंजाबी बाग, दिल्ली में रहते थे.

गीता के पापा का औफिस नारायणा में था और भाई नेहरू प्लेस में नौकरी करता था. गीता का राजधानी कालेज पंजाबी बाग में ही था, मगर घर से तकरीबन 10-15 किलोमीटर दूर, इसीलिए बस से जाने के बजाय वह भाई के साथ जाती थी.

वैसे भी जब से गीता ने कालेज में एडमिशन लिया था, मां ने सख्त हिदायत दी थी कि उसे अकेला नहीं छोड़ना, जमाना खराब है. कल को कोई ऊंचनीच हो गई, तो कौन जिम्मेदार होगा, इसलिए अपनी चीज का खयाल तो खुद ही रखना होगा न.

गीता को कालेज छोड़ने के बाद बंटी रास्ते से अपने औफिस के साथी सागर को नारायणा से ले लेता था.

एक दिन सागर ने कहा, ‘‘यार, मुझे अच्छा नहीं लगता कि तू रोज मुझे ले कर जाता है. तू परेशान न हुआ कर, मैं बस से चला जाऊंगा.’’

इस पर बंटी बोला, ‘‘यार, मेरा तो रास्ता है इधर से. मैं अकेला जाता हूं, अगर तू पीछे बाइक पर बैठ जाता है, तो क्या फर्क पड़ता है…’’

‘‘फिर भी यार, तुझे परेशानी तो होती ही है.’’

‘‘यार भी कहता है और ऐसी बातें भी करता है. देख, अगर बस के बजाय मेरे साथ जाएगा तो बस का किराया बचेगा न, वह तेरे काम आएगा. मैं जानता हूं, तेरा बड़ा परिवार है और तनख्वाह कम पड़ती है.’’

यह सुन कर सागर चुप हो गया.

इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा. एक बार बंटी बहुत बीमार हो गया और लगातार कुछ दिनों तक औफिस नहीं गया.

सागर ने तो फोन कर के हालचाल पूछा, मगर उसे मिले बिना चैन कहां, यारी जो दिल से थी. एक दिन छुट्टी के बाद वह पहुंच गया बंटी से मिलने.

इधर जब बंटी बीमार था, तो गीता को कालेज छोड़ने कौन जाता, क्योंकि पापा तो सुबहसुबह ही काम पर चले जाते थे. लिहाजा, गीता बस से कालेज जाने लगी. बंटी ने समझा दिया था कि किस जगह से और कौन से नंबर की

बस पकड़नी है. वापसी में तो उसे पापा ले आते.

सागर ने बंटी के घर की डोरबैल बजाई, तो दरवाजा गीता ने खोला. अपने सामने 6 फुट लंबा बंदा, जो थोड़ा सांवला, मगर तीखे नैननक्श, घुंघराले बाल, जिस की एक लट माथे पर झूलती हुई, भूरी आंखें… देख कर गीता खड़ी की खड़ी रह गई.

यही हाल सागर का था. जैसे ही उस ने गीता को देखा तो हैरान रह गया. उसे लगा मानो कोई शहजादी हो या कोई परी धरती पर उतर आई हो.

सागर ने गीता को अपने बारे में बताया, तो वह उसे भीतर ले गई.

सागर बंटी के साथ बैठ कर बातें कर रहा था. मां और गीता चायपानी का इंतजाम कर रही थीं, मगर बीचबीच में सागर गीता को और गीता सागर को कनखियों से देख रहे थे. घर जा कर सागर सारी रात नहीं सो सका, इधर गीता उस के खयालों में खोई रही.

अगले दिन गीता को न जाने क्या सूझा कि बस से कालेज न जा कर नारायणा बस स्टैंड पर उतर गई, क्योंकि शाम को वह बातोंबातों में जान चुकी थी कि सागर नारायणा में रहता है, जिसे बंटी अपने साथ नेहरू प्लेस ले जाता था.जैसे ही गीता नारायणा बस स्टैंड पर उतरी, तकरीबन 5 मिनट बाद ही सागर भी वहां आ गया.

‘‘हैलो…’’ सागर ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा.

‘‘हाय, औफिस जा रहे हैं आप?’’ गीता ने ‘हैलो’ का जवाब देते हुए और बात आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘जी हां, जा तो रहा था, मगर अब मन करता है कि न जाऊं,’’ सागर आंखों में शरारत और होंठों पर मुसकान लाते हुए बोला.

‘‘कहते हैं कि मन की बात माननी चाहिए,’’ गीता ने भी कुछ ऐसे अंदाज से कहा कि सागर ने मस्ती में आ कर उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे सागरजी, छोडि़ए… कोई देख न ले…’’ गीता ने घबरा कर कहा.

‘‘ओफ्फो, यहां कौन देखेगा… चलिए, कहीं चलते हैं,’’ सागर ने कहा और गीता चुपचाप उस के साथ चल दी.

‘‘आज आप भी कालेज नहीं गईं?’’ सागर ने गीता के मन की थाह पाने

की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘बस, आज मन नहीं किया,’’ कह कर गीता ने शरमा कर आंखें झुका लीं.

सागर और गीता सारा दिन घूमते रहे, लेकिन शाम होते ही गीता बोली, ‘‘सागर, मुझे जाना है. पापा कालेज

लेने आएंगे. अगर मैं न मिली तो वे परेशान होंगे.’’

कोरोना के बाद पहली होली

कोरोना के बाद पहली होली ‘होली’ एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन कर हर देहाती नौजवान का दिल धड़क उठता है. उस का जीवन धिक्कार के लायक है, जिस ने होली पर गांव की लड़कियों से छेड़ाखानी न की हो. उस से भी बदतर वह है, जिस ने ससुराल की पहली होली के बारे में कुछ सुना न हो. मैं पढ़तेपढ़ते बीए तक जा पहुंचा था, लेकिन किसी पहली होली में शामिल होना नसीब नहीं हुआ था. 2 साल पहले होली पर मेरा नंबर तय था, क्योंकि मेरे एक खास दोस्त को ससुराल में पहली होली पर बुलाया गया था, फिर कोविड का साया आने लगा और लोग इधरउधर जाने से कतराने लगे. मेरे दोस्त ने भी अपनी बीवी को होली से पहले ही बुला लिया और ससुराल की होली से हम सब रह गए.

2 साल बाद इस बार उसे फिर गांव में होली खेलने बुलाया गया. मेरी भाभी ने जिद कर के मुझे ही चलने को कहा, क्योंकि मैं उन के नजदीक कुछ ज्यादा था और मेरे दोस्त हमारे इसी मजाक का मजा लेता था. होली के एक दिन पहले हम टैक्सी कर के गांव में उस के घर जा पहुंचे. लड़की वालों ने होली का बड़ा आयोजन किया था. मैं भाभी का प्यारा था और घर वालों से कई बार फेसटाइम पर बात कर चुका था. मेहमानों में सिर्फ मैं ही पढ़ालिखा था, इसलिए मुझे भरपूर इज्जत पाने की पूरी उम्मीद थी. लड़की वालों ने अच्छी आवभगत की. भाभी की सहेलियों ने रात को ही आ कर हम से ठिठोली करनी चालू कर दी. मैं गदगद हो गया, क्योंकि वे इतने मेहमानों को छोड़ कर मेरे ही आसपास मंडरा रही थीं. मुझे अपने लुभावनेपन का एहसास हुआ. मैं तन कर बैठ गया. मैं अभी तक कुंआरा था.

दिन ढल गया था. कुछ के मातापिता चाहते थे कि मेरी शादी उन की बेटी से हो जाए, इसलिए हम से कमरे के अंदर बैठने का अनुरोध किया गया. सभी लोग पलंगों और फर्श पर बिछे गद्दों को टटोलटटोल कर बैठ रहे थे. सभी चारपाइयों पर सुंदरसुंदर चादरें बिछी थीं. कोने वाला गद्दा खाली था. मैं ने सोचा कि इस से लड़कियों के नजारे अच्छी तरह देखे जा सकेंगे. साथ ही, यहां से मेरा रंगरूप भी बाहर से देखा जा सकता है, इसलिए मैं अकड़ कर बैठा, तभी धस्स… वह गद्दा था ही नहीं. वहां तो चारों ओर तकिए लगा कर चादर बिछा दी गई थी. मैं धंस गया. नीचे पापड़ थे, जो चरचर कर टूटने लगे. कुछ पर रंग लगा था. उस पर केवल चादर को अटका दिया गया था. मैं सीधे नीचे गिर गया.

पैर ऊपर और सिर नीचे. किसी ने मुझे उठाया. उस समय तो मैं गुस्से में तमतमाया, लेकिन जब देखा कि सब लोग ठहाके लगा कर हंस रहे हैं, तो मैं झेंप कर रह गया. सब से आगे एक बड़ी चौड़ी छातियों वाली शोख लड़की थी. लोग उसे पूर्णिमा सोनी कह रहे थे. पूर्णिमा ने तो मानोे मेरा मजाक उड़ाने की जिम्मेदारी ले ली. मैं ने उठने की कोशिश की तो उस ने हाथ बढ़ा दिया. मैं हाथ पकड़ कर उठ ही रहा था कि बीच में उस ने हाथ खींच लिया. मैं फिर जा गिरा पापड़ों पर. पर दूसरी बार उस ने जो खींचा तो ठीक उस की छातियों से जा टकराया. वह सुख उस दर्द से कम था, जो पापड़ों पर गिरने से मिला था. मैं अपनेआप पर झल्ला रहा था कि और लोगों की तरह मैं भी गद्दों को अच्छी तरह टटोल कर क्यों नहीं बैठा. तब तक लड़कियां कमरे में छेड़खानी करने चली आईं, जिस से इस बार पूर्णिमा ने अपने को लगभग जमीन पर लेट कर उठाने का अंदाज अपनाया था. दूसरी ने ठहाका लगाया, ‘‘पूर्णिमा, मार ले अपनी… देख तो मर्द भी है या नहीं.’’ मैं बुरी तरह शरमा भी गया और शर्मिंदा भी हो गया.

खाना खाने का वक्त हो गया था. खाने का इंतजाम लड़की के चाचाजी ने किया था, जिन का घर बगल में ही था. हमें खाने के लिए वहीं बुलाया गया. सभी ने अपनेअपने चेहरे को एक बार धोया. कपड़े बदले. शीशे में निहारा. फिर खाने चल दिए. गांव में बिजली तो थी, पर गली में नहीं. थोड़ा अंधेरा हो गया था. सब लोग संभलसंभल कर चल रहे थे. आखिर वे गांव वाले जो ठहरे. मैं शहर में कालेज का विद्यार्थी होने के नाते गरदन ऊंची कर के चलूं, यह लाजिमी था. मैं सब से आगे हो गया. घर के दरवाजे पर साफसाफ दिखाई नहीं दे रहा था, पर मैं तन कर सीधा आगे बढ़ा जा रहा था. अंदर से रोशनी सीधी मेरी आंखों पर पड़ रही थी. तभी मेरे पैर दरवाजे पर आड़ी बंधी रस्सी में उलझ गए.

मैं कटे पेड़ की तरह धड़ाम से गिर गया. मेरे कपड़े वहां जमा की गई रेत से गंदे हो गए. घुटनों में रगड़ लग गई, दर्द होने लगा. सभी लोग नहीं देख पाए थे, इसलिए मैं तुरंत उठ गया. लेकिन ओट में छिपी पूर्णिमा ने ठहाके लगाना चालू कर दिया. और तो और मेरे साथ वाले भी मुझ पर हंस रहे थे. मेरे रोने में बस थोड़ी ही कसर बाकी थी. ‘‘बस, लड़कियों को देख कर फिसल गए जानूं,’’ एक आवाज आई. मैं ने टटोल कर चश्मा उठाया और फिर घर में घुसा. तभी मेरे जेहन में यह बात आई कि क्यों न दोस्त के साथ ही रहा जाए. वह तो अब पुराना हो चुका है. हालांकि पहली बार ससुराल आया था शादी के बाद. मैं तुरंत उस के साथ चलने लगा. गांवों में घरों में जूते ले जाना नहीं होता, इसलिए उस समय मुझे भी अपने जूते बाहर ही खोलने पड़े. भोजन के समय तरहतरह के पकवान परोसे गए. खाना स्वादिष्ठ था, इसलिए सभी लोग चटकारे लेले कर देर तक खाते रहे. जब सभी लोगों के साथ खापी कर मैं बाहर निकला, तो मुझे अपने जूते नहीं मिले. मैं ने एक बार तो चुपकेचुपके इधरउधर देखा, लेकिन वे कहीं नहीं मिले. हाल ही में मैं ने उन्हें उसे 1,500 रुपए में खरीदा था. कहीं चोरी तो नहीं हो गए… यह सोच कर आखिर मुझे सब को बताना ही पड़ा.

यह सुन कर सभी लोग खिलखिला पड़े. मामला धीरेधीरे समझ में आ गया. दोस्त की साली ने गलती से उस के जूते की जगह मेरे जूते उठा लिए थे. नतीजतन, मुझे नंगे पैर ही चलना पड़ा. पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे. बड़ी मुश्किल से मैं ठहराव वाली जगह पर पहुंचा. तभी पूर्णिमा सब की एजेंट बन कर आई और जमाई साहब से जूतों के बदले 2,000 रुपए की मांग करने लगी. जमाई के जूते तो उस के पास सलामत थे ही, इसलिए उस ने एक भी पैसा देने से इनकार कर दिया. जब उस की साली को यह पता लगा कि वे जूते उस के जीजाजी के नहीं, बल्कि मेरे थे, तो वह सीधी मेरे पास आई और 1,000 रुपए की मांग करने लगी.

मुझे गुस्सा आ गया. मैं ने उसे फटकारा, ‘‘जब मैं तुम्हारा जीजा ही नहीं हूं, तो मुझे क्यों परेशान कर रही हो? मेरे जूते तुरंत वापस करो.’’ पर इस का कोई असर पूर्णिमा पर नहीं हुआ. थोड़ी इठला कर वह बोली, ‘‘इतनी सारी लड़कियां हैं, किसी को पसंद कर के जीजा बन जाओ न. यह तो आप की हिम्मत पर है. हमें तो जूते छिपाई के पैसे चाहिए, चाहे यह जीजा दे, दूसरा नया जीजा. जनाब, नए जूते खरीद लेना, मैं तो चली.’’ आखिर में मैं ने बड़ी मिन्नत के बाद 500 रुपए दे कर अपने जूते छुड़ाए. हां, बदले में पूर्णिमा एक बड़ा लंबा किस सब के सामने दी गई. रात के 9 बजे गए थे. सभी मेहमान सोेने के लिए पलंगों पर लेट गए?थे. अब कोई चिंता की बात नहीं थी, इसलिए मैं भी लेट गया. तभी सामने चबूतरे पर कुछ औरतें जमा होने लगीं. मुझे खतरे की आशंका हुई. पर जब वे मिल कर गीत गाने लगीं, तो दिल को थोड़ी शांति मिली. मिलीजुली आवाज में गीत अच्छे लगे थे. कुछ देर बाद नाचने वाले गीत गाए जाने लगे. तब लेटे हुए लोग उठ कर धीरेधीरे बैठ गए, तो मैं भी बैठ गया.

गीतों का सार बदलने लगा. बाद में तो गीतों ही गीतों में समधियों पर गालियों की बौछारें भी शुरू कर दी गईं. इस तरह का मजाक आज भी चलता है, यह मुझे नहीं मालूम था. पता चला कि इस तरह के गीत गाने वाली लड़कियां असाइनमैंट पर आती हैं. दोस्त की ससुराल वालों ने खासतौर पर बुलाई हैं. 2 साल बाद होली मजे में मन रही थी, इसलिए कोई भी कसर नहीं छोड़ रहा था. उन गीतों में देशी मजाक भरा हुआ था. बच्चेबूढ़े सभी हंस रहे थे. गीतों में उन लोगों ने लड़की के 100 साल के दादाजी का विवाह जमाई की बूढ़ी दादी से करने का प्रस्ताव रख दिया. फिर आए हुए मेहमानों का नाम ले कर खिंचाई करने लगीं. तब हंसतेहंसते मेरा भी बुरा हाल हो गया था.

थोड़ी देर बाद जब गीत में मेरा भी नाम आया, तो मेरी हंसी बंद हो गई. जब गीत में यह कहा गया कि मेरी मां मेरे पिताजी के बस में नहीं रहतीं. वे गांव में इधरउधर ताकझांक करती रहती हैं, तो सभी लोग मेरी तरफ मुंह कर के ठहाके लगाने लगे. उस समय मेरी सूरत देखने लायक थी. मैं कहीं रो न पड़ूं, इसलिए अपना चेहरा मास्क से ढक कर लेट गया. जब सब की भद्द करने के बाद गीत गाने वालियां चली गईं, तभी हम सभी को चैन आया और हम सो गए. सुबह जब हम लोग जगे, तब खातिरदारी के लिए मेजबान तैयार थे. नाश्ते में देशी घी में बना गरमागरम हलवा खा कर मन खुश हो गया. लड़कियों की मीठी छेड़खानियों से तो दिल बागबाग हो ही रहा था. फिर हमें कहा गया कि खेत पर ट्यूबवैल में नहाना बहुत अच्छा लगेगा. मेरे लिए यह नया मौका था. वहां युवतियां भी थीं और उन से मजाक और नहाना साथसाथ होता रहा. सब ने जम कर होली मनाई. एक लड़की ने तो मुझे पस्त कर दिया. मुझे नहीं मालूम था कि गांव की लड़कियां इतनी दमदार होती हैं. वापस हम लड़की के घर पहुंचे ही थे कि ऊपर से किसी ने पानी की बालटी में लाल रंग का कीचड़ सा उड़ेल दिया, जो सारा का सारा मुझ पर ही गिरा. मुझे देख कर सभी हंसने लगे. तब मुझे गुस्सा आ गया. मैं गरज पड़ा, ‘‘तमीज नहीं है इन लोगों में. मजाक भी ढंग से होता?है.

ऐसे गंवार लोगों के यहां अब एक पल भी मैं नहीं ठहरूंगा.’’ ऐसी होली कौन खेलता है. मैं गुस्से में कमरे में जा बैठा. मेरे साथियों के समझाने व लड़की वालों की तरफ से माफी मांगने पर ही मैं रुकने पर राजी हुआ. इसी दौरान 1-2 और दूसरे मेहमानों पर भी रंग पड़ चुका था, इसलिए भी थोड़ा मेरा गुस्सा कम हुआ. अब मेरे पास न तो कोई और कपड़े थे और न दोबारा नहाने का समय ही. खाना खाने का वक्त हो गया था. तब एक लड़की आई और अपना टौप और जींस दे गई कि इसे पहन लो. खाने वाले कमरे में सभी दौड़ कर घुस रहे थे. अंदर 2 जवान लड़कियां दरवाजे की ओट में खड़ी हो कर घूंसे बरसा रही थीं. घूंसा खाने वाला आदमी मर्दानगी दिखाने के चक्कर में अपनी पीठ सहलाता भी नहीं था.

मेरी घिग्घी बंध गई. जाता तो घूंसे खाने पड़ते और नहीं जाता तो खिल्ली उड़ने का डर था. आखिर हिम्मत कर के मैं घुसने के लिए तैयार हो गया. मैं ने सोचा, एक घूंसा ही तो खाना पड़ेगा. मैं जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ, वैसे ही एक जवान लड़की ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए घूंसे से मेरे कंधे पर हमला किया. मैं तिलमिला गया. मुझे चक्कर आ गया. मैं गिर गया. किसी ने मुझे पकड़ कर उठाया व पानी पिलाया. काफी देर तक मेरा कंधा दुखता रहा, पर स्वादिष्ठ खाना खाने के बाद मैं वह दर्द भूल गया. चलने का समय आ गया था. गांवों के रिवाज के अनुसार चलते समय सभी मेहमानों को एकएक कर के पाटे पर बैठा कर उन को गुलाल लगाने और एक गिलास, कुछ उपहार भेंट के तौर पर देने की तैयारी की जाने लगी.

एक पान भी दिया गया, जिस से खुशबू आ रही थी. मैं ने उसे मुंह में डाला तो चबाते ही मुंह धूल से भर गया. मैं असमंजस में पड़ गया. उसे थूकूं तो कहां? पूरा चबूतरा खचाखच भरा था. ‘‘मेहमानजी, आप किस कालेज में पढ़ते हैं?’’ एक मेजबान ने दबी हंसी में पूछा. मुझ से कुछ बोलते न बना. अगर मुंह खोलता तो मिट्टी गले में चली जाती. ‘‘अरे, थोड़ी देर पहले तो यह भलाचंगा था. अचानक यह गूंगा कैसे हो गया?’’ पास ही खड़ी एक लड़की ने अपने बगल में खड़ी सहेली से शरारती अंदाज में पूछा. मैं भकुआ कर असहाय सा देखने लगा. फिर उन्होंने मुझे माला पहनाई. मुझे लग रहा था, जैसे जूते मार कर वे विदा कर रहे हों. मैं उठ कर बाहर आया व धूल को थूक दिया. वहीं पर एक लड़की पानी लिए खड़ी थी. अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद मैं वापस आया, तो मुझे दूसरा पान दिया गया.

मैं पागल की तरह एक बार पान को देखता, फिर लोगों को. आखिर मैं ने साहस कर के पान को मुंह में डाल ही लिया. उस में धूल नहीं थी. फिर लड़की की विदाई की जाने लगी. वह जोरजोर से रो रही थी और धीरेधीरे कदम बढ़ा रही थी. जमाई के साथ गए सभी लोग भी लौटने की तैयारी कर रहे थे. मुझे तो इतना कष्ट झेलने के बाद भी वहां से लौटने का मन नहीं कर रहा था. आज भी गांव की होली का नाम आते ही मेरा मन मचल उठता है. सोचता हूं, फिर किसी की पहली होली में जाने का मौका मुझे मिलता तो कितना अच्छा होता.

तुम ऐसी निकलीं – भाग 1: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मन का बोधबिंदु जब  बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह  कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.

दिल्ली के सदर बाजार  से  जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8  दिनों पहले उस को  बता रहे थे  कि उन के दादाजी भी इस जगह को  इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक  विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी,  लहसुन,  प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की  आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर  आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.

पर, अब इस का चेहरामोहरा  बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.

यहीं मटर गली से पतली सी  पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ  जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो  उस को कुछ भी  मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि  पहले भी यह  एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी  कच्ची  ही रह गई है यह पगडंडी.

वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर  चलते हुए पहली बार मोनिका  से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली  में ही घड़ी ठीक करने का  काम करता था और कुछ दलाली वाले  वैधअवैध काम भी  करता था. उस दोपहर मोनिका  परदे से सटी  उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा  था.

मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका  से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना  पहले ही  हुई थी  जब उस ने अपने मालिक के  साथ बैडशीट और चादरों की  स्टाल सर्कस मैदान में  ही लगा रखी थी.

यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और  चादरों की  यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की  विधा यानी  एक कलाबाजी ही थी.

वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा  और जयपुर  से चादरों की  एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात  की चर्चा  कर के मालिक के  साथ हंस  रहा था कि मोनिका अचानक ही  सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने  में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर  देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा  तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और  सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट  की तरफ निकल गया.

अब मोनिका आराम से   बैठ  गई और एक चादर की  तरफ अपनी उंगली से  इशारा करती हुई उस की डिटेल्स  पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि  यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की  गाड़ी की  स्टेयरिंग  भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का  परिचय कराया. वह चादरों का  कपड़ा और उन के  प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी.  उस के बदन से किसी मोगरे  वाले साबुन की  भीनीभीनी महक आ रही थी.  मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की  महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां,  उस को  अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के  साथ  ओडिशा एक  मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी  ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.

वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर  तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों  बाद जब वह उस के पास ही था  तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी.  तब छिम्मा ने राई और मिर्च से  नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर  उस की कितनी सेवा की  थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था  और  अब वह  छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की  रमा  और गोवा की डेल्मा की  तरह उस पर कोई  रुपया खर्च  ही नहीं करना पड़ा था.

छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की  तरह बिलकुल ही  फोकट में उस को  हासिल हो  गई थी. पर, वह आज,  बस, इसी महक के  कारण छिम्मा  को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि  उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार  यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब  भा  रही थी.

जैसे दोपहर की  अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक  भीनीभीनी  शाम.  तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी,  ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है,  मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज  लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.

तब उस ने हंस कर मोनिका को  चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया  और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर   पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए  बताया था कि इस चादर की दुकान का  परिचय करवाया 2 दिनों पहले के  अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था.  कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में  कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम  दाम.

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