‘‘अब और पैदल नहीं चला जा रहा है मां,” राजू ने जैसे ही अपनी लड़खड़ाती जबान से यह बोला, सरिता के चलते कदम ठहर गए. इस के पहले भी राजू उस से दोतीन बार बोल चुका था कि वह थक गया है और उस से चला नहीं जा रहा. पर, हर बार सरिता उसे दिलासा देती रही कि ‘बस, कुछ दूर और चल लो, फिर हम कहीं रुक जाएंगे और खाने को भी देंगे.’
वैसे, सरिता जानती थी कि उस के पास खाने के नाम पर कुछ नहीं है. बिस्कुट के 2 पैकैट किसी ने दिए थे, उन्हें राजू खा चुका था. उसे तो राजू को दिलासा देना था, सो उस ने यों ही बोल दिया था. वहीं, राजू भी सरिता की परेशानी को समझ रहा था, पर वह करता क्या.
उस के नन्हे पैर जितना चल सकते थे, वह पूरी ताकत के साथ उन्हें चला रहा था. 4 साल का राजू भला कितना पैदल चलेगा. वह 2 दिनों से चल ही तो रहा है. कहींकहीं वे रुक जाते हैं, थोड़ा आराम कर फिर चलने लगते हैं.
मंजिल तो अभी दूर है. सरिता ने गहरी सांस ली. उस के कदम रुक चुके थे. उस ने सड़क के चारों ओर निगाह दौड़ाई, कोई साया मिल जाए तो वह राजू को गोदी में ले कर कुछ देर सुस्ता ले.
अप्रैल की गरम दोपहरी में सूरज आसमान से अंगारे बरसा रहा था. सरिता ने तो अपने सिर पर आंचल ले रखा था और राजू के सिर पर रूमाल बांध दिया था. सरिता एक हाथ से ट्रौलीबैग को घसीटते हुए चल रही थी और दूसरे हाथ की उंगलियों में राजू का हाथ पकड़ा हुआ था.
सरिता अपने गांव लौट रही थी अकेले ही पैदल चलते हुए. वह जिस शहर में मजूदरी का काम करती थी वहां काम बंद कर दिया गया था. वह तो उस दिन भी दिनभर काम कर के घर लौटी थी अपने पति के साथ. उस का पति और वह 3 सालों से मजदूरी का काम कर रहे थे. वैसे तो वे बहुत दूर दूसरे प्रांत के मड़ई गांव में रहते थे. जब वह ब्याह कर आई थी तब उस के घर के हालात इतने खराब नहीं थे कि उसे मजदूरी करने जाना पड़े.
पति अकेला काम पर जाता और वह घर के सारे कामकाज निबटाती. सास खेतों को चली जाती, एकाध गट्ठा चारा काट लाती. वह खुद बाखर में जा कर थोड़ाबहुत काम कर लेती जिस के बदले में उसे गल्ला मिल जाता. उन के परिवार का गजुरबसर हो ही जाता था.
पड़ोस में रहने वाला मोहन तो इसी शहर में काम कर रहा था. दीवाली पर जब वह गांव आया तो उस ने ही उस के पति को शहर में काम करने के लिए बहला लिया. उस का पति तो शहर जाने को राजी हो गया पर सरिता ने साफ मना कर दिया. वह पेट से थी, ऐसी हालत में अपना गांव तो अपना गांव ही होता है, हर कोई मदद करने को तैयार हो जाता है. परदेश में भला कौन मदद करेगा. उस की सास ने भी उस के पति को परदेश जाने की मनाही कर दी थी. पर वह नहीं माना. वह अकेला ही जाने को तैयार हो गया. मजबूरी में उसे साथ आना पड़ा.
यहां आ कर एक खोली किराए पर ले ली और अपनी घरगृहस्थी बसा ली. शुरूशुरू में तो उस का मन यहां बिलकुल नहीं लगा पर राजू के पैदा होने के बाद वह भी यहां के हिसाब से रचबस गई.
दोनों सुबह ही काम पर चले जाते और शाम का धुंधलका फैलतेफैलते ही घर लौट पाते. कई बार तो उन्हें रात भी हो जाती. जिस सेठ के यहां वे काम करते थे उस का साफ कहना था, ‘कितनी ही देर हो जाए पर जब तक काम पूरा नहीं होगा, काम बंद करने नहीं दिया जाएगा.’ उस के इस उसूल के चलते कई बार काम रात का अंधकार फैलने के बाद तक चलता रहता.
सेठ 15 दिनों में मजूदरी देता था. वे पैसों से खानेपीने का सामान खरीद लेते. राजू के पैदा होने के बाद उन का खर्चा बढ़ चुका था, जबकि मजदूरी जस की तस थी. राजू के लिए दूध वे रोज लेते और अपने खर्चे में कटौती कर लेते. वह केवल दूध ही तो पीता था. वे हर मांबाप की तरह राजू को राजकुमार की तरह पाल लेने का सपना देख रहे थे. वे काम करते रहते और वहीं पास में राजू खेलता रहता. उन के दिन अच्छे गुजर रहे थे.
पेड़ की छांव में सरिता राजू को गोद में लिए उस का सिर सहला रही थी. राजू आंख बंद किए उस की गोद में लेटा था. सरिता के पैरों में छाले साफ दिखाई दे रहे थे. वैसे भी उस के पैरों में टूटी प्लास्टिक की चप्पलें ही तो थीं. वे कितना चल पातीं. घिसघिस कर उन के तलुए टूट चुके थे.
उस ने दांएं हाथ से अपने पैरों के छालों पर हाथ फेरा. उस के मुंह से चीख निकल गई. उस के छाले दर्द कर रहे थे. उस की चीख से राजू ने भी आंखें खोल ली थीं, ‘‘क्या हुआ मां?” उस के चहरे पर मां की परेशानी को समझ लेने की उत्सुकता झलक रही थी.
‘‘कुछ नहीं,” सरिता ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था ताकि राजू उस की आंखों में छलक आए आंसू न देख पाए. वैसे, उस की आंखों से झलकने वाले आंसू स्थायी ठिकाना बना चुके थे. पिछले 15-20 दिनों में इतनी बार आंसू झलके थे जिन की गिनती वह लगा ही नहीं सकती थी.
लौकडाउन ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां छीन ली थीं. सत्ता में बैठे लोगों को गरीबों की खुशियां दिखाई नहीं देतीं. वे अपने मद में चूर बड़ेबड़े औफिसों में बैठ कर ऐसे निर्णय कर लेते हैं जिन की गाज केवल और केवल गरीबों पर ही गिरती है. ऐसे ही तो नोटबंदी की थी. रात के अंधियारे में घोषणा कर दी कि कल से फलां नोट नहीं चलेंगे. उस समय भी गरीब लोग बहुत परेशान हुए थे.
सरिता ने जो पाईपाई कर पैसे जोड़े थे, उन्हें बदलवाने के लिए बैंक की लाइन में घंटों खड़े रहना पड़ा था. फिर भी, उस के नोट नहीं बदल पाए, तो उसे अपने गांव के साहूकार के पास जाना पड़ा जिस ने आधे पैसे दे कर नोट बदले थे.
सरिता ने गहरी सांस ली. काश, सरकार ने लौकडाउन लगाने के पहले एक बार यह भी सोच लिया होता कि जो लोग अपने घरों से बाहर हैं वे अपने घरों की ओर लौटेंगे कैसे. रातोंरात गाड़ियां बंद कर दीं, रातोंरात बसें बंद कर दीं और रातोंरात ही कह दिया कि कल से कोई घर से न निकले. गरीब घर से नहीं निकलेगा तो खाएगा क्या. सरिता ने मन ही मन नेताओं को कोसा. एक गरीब की खुशियां जरा सी होती हैं और कष्ट भयानक होते हैं. वे कष्टों में रहरह कर खुशियों के आने की बाट जोहते हैं और सारी खुशियों को समेट कर स्थायीरूप से अपनी संदूक में रख लेने का जतन करते हैं.