कोशिशें जारी हैं : सास – बहू का निराला रिश्ता – भाग 1

‘‘पहली बार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक ड्रैसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरुआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

उसे किस ने मारा : दीपाली की नासमझी का नतीजा- भाग 1

आज आकाश चला गया…लोग कहते हैं, उस की मौत हार्ट अटैक से हुई है पर मैं कहती हूं कि उसे जमाने ने मौत के आगोश में धकेला है, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया है. हां, आत्महत्या… आप लोग समझ रहे होंगे कि आकाश की मृत्यु के बाद मैं पागल हो गई हूं…हां…हां मैं पागल हो गई हूं…आज मुझे लग रहा है, इस दुनिया में जो सही है, ईमानदार है, कर्मठ है, वह शायद पागल ही है…यह दुनिया उस के रहने लायक नहीं है.

आज भी ऐसे पागल इस दुनिया में मौजूद हैं, जो अपने उसूलों पर चलते हुए शायद वे भी आकाश की तरह ही सिसकतेसिसकते मौत को गले लगा लें, इस से दुनिया को क्या फर्क पड़ने वाला है. वह तो यों ही चलती जाएगी. सिसकने के लिए रह जाएंगे उस बदनसीब के घर वाले.

दीपाली का प्रलाप सुन कर वसुधा चौंकी थी. दीपाली उस की प्रिय सखी थी. उस के जीवन का हर राज उस का अपना था. यहां तक कि उस के घर अगर एक गमला भी टूटता तो उस की खबर भी उसे लग ही जाती. उन में इतनी अंतरंगता थी.

लेकिन क्या आकाश की हालत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी. वह आकाश की जीवनसाथी थी. उस के हर सुखदुख में शामिल होने का हक ही नहीं, उस का कर्तव्य भी था पर क्या वह उस का साथ दे पाई? शायद नहीं, अगर ऐसा होता तो इतनी कम उम्र में आकाश का यह हश्र न होता.

आकाश एक साधारण किसान परिवार से था. पढ़ने में तेज, धुन का पक्का, मन में एक बार जो ठान लेता उसे कर के ही रहता था. अच्छा खातापीता परिवार था. अभाव था तो सिर्फ शिक्षा का…उस के पिताजी ने उस की योग्यता को पहचाना. गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने घर वालों के विरोध के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजा, तो शहर की चकाचौंध से कुछ पलों के लिए आकाश भ्रमित हो गया था.

यहां की तामझाम, गिटरपिटर अंगरेजी बोलते बच्चों के बीच उसे लगा था कि वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा पर धीरेधीरे अपने आत्मविश्वास के कारण अपनी कमियों पर आकाश विजय प्राप्त करता गया और अव्वल आने लगा. जहां पहले उस के शिक्षक और मित्र उस के देहातीपन को ले कर मजाक बनाते रहते थे, अब उस की योग्यता देख कर कायल होने लगे. हायर सेकंडरी में जब वह पूरे राज्य में प्रथम आया तो पेपर में नाम देख कर घर वालों की छाती गर्व से फूल उठी.

उसी साल उस का इंजीनियरिंग कालिज इलाहाबाद में चयन हो गया. पिता ने अपनी सारी जमापूंजी लगा कर उस का दाखिला करवा दिया. बस, यही बात उस के बड़े भाइयों को खली, कुछ सालों से फसल भी अच्छी नहीं हो रही थी. भाइयों को लग रहा था, मेहनत वे करते हैं पर उन की कमाई पर मजा वह लूट रहा है.

कहते हैं न कि ईर्ष्या से बड़ा जानवर कोई नहीं होता. वह कभीकभी इनसान को पूरा निगल जाता है. उस के भाइयों का यही हाल था और उन के वहशीपन का शिकार उस के मातापिता बन रहे थे. छुट्टियों में जब आकाश घर गया तो उस की पारखी नजरों से घर में फैला विद्वेष तथा मां और पिताजी के चेहरे पर छाई दयनीयता छिप न सकी. मां ने अपने कुछ जेवर छिपा कर उसे देने चाहे तो उस ने लेने से मना कर दिया.

एक दृढ़ निश्चय के साथ आकाश इलाहाबाद लौट गया था. कुछ ट्यूशन कर ली, साथ ही इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में प्रथम आने के कारण उसे स्कालरशिप भी मिलने लगी. अब उस का अपना खर्चा निकलने लगा. इंजीनियरिंग करते ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई.

नौकरी मिलते ही वह अपने मातापिता को साथ ले आया. भाइयों ने भी चैन की सांस ली. पर पानी होते रिश्तों को देख कर आकाश का मन रोने लगा था.

सरकारी नौकरी मिली तो शादी के लिए रिश्ते भी आने शुरू हो गए. वैसे आकाश अभी कुछ दिन विवाह नहीं करना चाहता था पर मां की आंखों में सूनापन देख कर उस ने बेमन से ही विवाह की इजाजत दे दी.

मातापिता के साथ रहने की बात जान कर कुछ लोगों ने आगे बढ़ अपने कदम पीछे खींच लिए थे. रिश्तों में आती संवेदनहीनता को देख कर उस का मन बहुत आहत हुआ था. मातापिता को इस बात का एहसास हुआ तो वे खुद को दोषी समझने लगे, तब आकाश ने उन को दिलासा देते हुए कहा था, ‘आप स्वयं को दोषी क्यों समझ रहे हैं, यह तो अच्छा ही हुआ कि समय रहते उन की असलियत खुल गई, जो रिश्तों का सम्मान करना नहीं जानते. वे भला अन्य रिश्ते कैसे निभा पाएंगे. रिश्तों में स्वार्थ नहीं समर्पण होना चाहिए.’

आखिर एक ऐसा परिवार मिल ही गया. मातापिता के साथ में रहने की बात सुन कर लड़की का भाई विवेक बोला, ‘हम ने मातापिता का सुख नहीं भोगा. पर मुझे उम्मीद है कि आप के सान्निध्य में मेरी बहन को यह सुख नसीब हो जाएगा.’

विवेक और दीपाली के मातापिता बचपन में ही मर गए थे. उन के चाचाचाची ने उन्हें पाला था पर धीरेधीरे रिश्तों में आती कटुता ने उन्हें अलग रहने को मजबूर कर दिया. विवेक ने जैसेतैसे एक नौकरी तलाशी तथा बहन को ले कर अलग हो गया. नौकरी करतेकरते ही उस ने अपनी पढ़ाई जारी रखी, बहन को पढ़ाया और आज वह स्वयं एक अच्छी जगह नौकरी कर रहा था.

दीपाली आकाश को अच्छी लगी. अच्छे संस्कारिक लोग पा कर विवाह के लिए वह तैयार हो गया. दीपाली ने घर अच्छी तरह से संभाल लिया था. मातापिता भी बेहद खुश थे. घर में सुकून पा कर आफिस के कामों में भी मन रमने लगा. अभी तक तो उसे काम सिखाया जा रहा था पर अब स्वतंत्र विभाग उस को दे दिया गया.

आकाश ने जब अपने विभाग की फाइलों को पढ़ा और स्टोर में जा कर सामान का मुआयना किया तो सामान की खरीद में हेराफेरी को देख कर वह सिहर उठा. पेपर पर दिखाया कुछ जाता, खरीदा कुछ और जाता. कभीकभी आवश्यकता न होने पर भी सामान खरीद लिया जाता. सरप्लस स्टाक इतना था कि उस को कहां खपाया जाए, वह समझ नहीं पा रहा था. अपने सीनियर से इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘अभी नएनए आए हो, इसलिए परेशान हो. धीरेधीरे इसी ढर्रे पर ढलते जाओगे. जहां तक सरप्लस सामान की बात है, उसे पड़ा रहने दो, कुछ नहीं होगा.’

एक दिन आकाश अपने आवास पर आराम कर रहा था कि एक सप्लायर आया और उसे एक पैकेट देने लगा. उस ने पूछा, ‘यह क्या है?’

‘स्वयं देख लीजिए सर.’

पैकेट खोला तो उस के अंदर रखी रकम देख कर आकाश का खून जम गया.

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह रकम मुझे पकड़ाने की.’

‘सर, आप नए हैं, इसलिए जानते नहीं हैं, यह आप का हिस्सा है.’

‘पर मैं इसे नहीं ले सकता.’

‘यह आप की मर्जी सर, पर ऐसा कर के आप बहुत बड़ी भूल करेंगे. आखिर घर आई लक्ष्मी को कोई ऐसे ही नहीं लौटाता है.’

‘अब तुम यहां से जाओ वरना मैं पुलिस को बुलवा कर तुम्हें रिश्वत देने के आरोप में गिरफ्तार करवा दूंगा.’

‘ऐसी गलती मत कीजिएगा. यह आरोप तो मैं आप पर भी लगा सकता हूं,’ निर्लज्जता से मुसकराते हुए वह बोला.

अगले दिन आकाश ने अपने सहयोगी से बात की तो वह बोला, ‘इस में तुम या मैं कुछ नहीं कर सकते. यह तो वर्षों से चला आ रहा है. जो भी इस में अड़ंगा डालने का प्रयत्न करता है उस का या तो स्थानांतरण करवा देते हैं या फिर झूठे आरोप में फंसा कर घर बैठने को मजबूर कर देते हैं, वैसे भी घर आई लक्ष्मी को दुत्कारना मूर्खता है.’

आधी तस्वीर : कैसा था मनशा का शक- भाग 1

वह दरवाजे के पास आ कर रुक गई थी. एक क्षण उन बंद दरवाजों को देखा. महसूस किया कि हृदय की धड़कन कुछ तेज हो गई है. चेहरे पर शायद कोई भाव हलकी छाया ले कर आया. एक विषाद की रेखा खिंची और आंखें कुछ नम हो गईं. साड़ी का पल्लू संभालते हुए हाथ घंटी के बटन पर गया तो उस में थोड़ा कंपन स्पष्ट झलक रहा था. जब तक रीता ने आ कर द्वार खोला, उसे कुछ क्षण मिल गए अपने को संभालने के लिए, ‘‘अरे, मनशा दीदी आप?’’ आश्चर्य से रीता की आंखें खुली रह गईं.

‘‘हां, मैं ही हूं. क्यों यकीन नहीं हो रहा?’’

‘‘यह बात नहीं, पर आप के इधर आने की आशा नहीं थी.’’

‘‘आशा…’’ मनशा आगे नहीं बोली. लगा जैसे शब्द अटक गए हैं.

दोनों चल कर ड्राइंगरूम में आ गईं. कालीन में उस का पांव उलझा, तो रीता ने उसे सहारा दे दिया. उस से लगे झटके से स्मृति की एक खिड़की सहसा खुल गई. उस दिन भी इसी तरह सूने घर में घंटी पर रवि ने दरवाजा खोला था और अपनी बांहों का सहारा दे कर वह जब उसे ड्राइंगरूम में लाया था तो मनशा का पांव कालीन में उलझ गया था. वह गिरने ही वाली थी कि रवि ने उसे संभाल लिया था. ‘बस, इसी तरह संभाले रहना,’ उस के यही शब्द थे जिस पर रवि ने गरदन हिलाहिला कर स्वीकृति दी थी और उसे आश्वस्त किया था. उसे सोफे पर बैठा कर रवि ने अपलक निशब्द उसे कितनी देर तक निहार कर कहा था, ‘तुम्हें चुपचाप देखने की इच्छा कई बार हुई है. इस में एक विचित्र से आनंद का अनुभव होता है, सच.’

मनशा को लगा 20-22 वर्ष बाद रीता उसी घटना को दोहरा रही है और वह उस की चुप्पी और सूनी खाली नजरों को सहन नहीं कर पा रही है. ‘‘क्या बात है, रीता? इतनी अजनबी तो मत बनो कि मुझे डर लगे.’’
‘‘नहीं दीदी, यह बात नहीं. बहुत दिनों से आप को देखा नहीं न, वही कसर पूरी कर रही थी.’’ फिर थोड़ा हंस कर बोली, ‘‘वैसे 20-22 वर्ष अजनबी बनने के लिए काफी होते हैं. लोग सबकुछ भूल जाते हैं और दुनिया भी बदल जाती है.’’

‘‘नहीं, रीता, कोई कुछ नहीं भूलता. सिर्फ याद का एहसास नहीं करा पाता और इस विवशता में सब जीते हैं. उस से कुछ लाभ नहीं मिलता सिवा मानसिक अशांति के,’’ मनशा बोली. ‘‘अच्छा, दीदी, घर पर सब कैसे हैं?’’

‘‘पहले चाय या कौफी तो पिलाओ, बातें फिर कर लेंगे,’’ वह हंसी. ‘‘ओह सौरी, यह तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा,’’ और रीता हंसती हुई उठ कर चली गई.

मनशा थोड़ी राहत महसूस करने लगी. जाने क्यों वातावरण में उसे एक बोझिलपन महसूस होने लगा था. वह उठ कर सामने के कमरे की ओर बढ़ने लगी. विचारों की कडि़यां जुड़ती चली गईं. 20 वर्षों बाद वह इस घर में आई है. जीवन का सारा काम ही तब से जाने कैसा हो गया था. ऐसा लगता कि मन की भीतरी तहों में दबी सारी कोमल भावनाएं समाप्त सी हो गई हैं. वर्तमान की चढ़ती परत अतीत को धीरेधीरे दबा गई थी. रवि संसार से उठ गया था और भैया भी. केवल उन से छुई स्मृतियां ही शेष रह गई थीं.

रवि के साथ जीवन को जोड़ने का सपना सहसा टूट गया था. घटनाएं रहस्य के आवरण में धुंधलाती गई थीं. प्रभात के साथ जीवन चलने लगा-इच्छाअनिच्छा से अभी भी चल ही रहा है. उन एकदो वर्षों में जो जीवन उसे जीना था उस की मीठी महक को संजो कर रखने की कामना के बावजूद उस ने उसे भूलना चाहा था. वह अपनेआप से लड़ती भी रही कि बीते हुए उन क्षणों से अपना नाता तोड़ ले और नए तानेबाने में अपने को खपा कर सबकुछ भुला दे, पर वह ऊपरी तौर पर ही अपने को समर्थ बना सकी थी, भीतर की आग बुझी नहीं. 20 वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं. आज ज्वालामुखी की तरह धधक उठने के एहसास से ही वह आश्चर्यचकित हो सिहर उठी थी. क्या 20 वर्षों बाद भी ऐसा लग सकता है कि घटनाएं अभीअभी बीती हैं, जैसे वह इस कमरे में कलपरसों ही आ कर गई है, जैसे अभी रवि कमरे का दरवाजा खोल कर प्रकट हो जाएगा. उस की आंखें भर आईं. वह भारी कदमों से कमरे की ओर बढ़ गई.

कोई खास परिवर्तन नहीं था. सामने छोटी मेज पर वह तसवीर उसी फ्रेम में वैसी ही थी. कागज पुराना हो गया था पर रवि का चेहरा उतनी ही ताजगी से पूर्ण था. जनता पार्क के फौआरे के सामने उस ने रवि के साथ यह फोटो खिंचवाई थी. रवि की बांह उस की बांह से आगे आ गई थी और मनशा की साड़ी का आंचल उस की पैंट पर गया था. ठीक बीच से जब रवि ने तसवीर को काटा था तो एक में उस की बांह का भाग रह गया और इस में उस की साड़ी का आंचल रह गया. 2-3 वाक्य कमरे में फिर प्रतिध्वनित हुए, ‘मैं ने तुम्हारा आंचल थामा है मनशा और तुम्हें बांहों का सहारा दिया है. अपनी शादी के दिन इसे फिर जोड़ कर एक कर देंगे.’ वह कितनी देर तक रवि के कंधे पर सिर टिका सपनों की दुनिया में खोई रही थी उस दिन.

उन्होंने एमए में साथसाथ प्रवेश किया था. भाषा विज्ञान के पीरियड में प्रोफैसर के कमरे में अकसर रवि और मनशा साथ बैठते. कभी उन की आपस में कुहनी छू जाती तो कभी बांह. सिहरन की प्रतिक्रिया दोनों ओर होती और फिर धीरेधीरे यह अच्छा लगने लगा. तभी रवि मनशा के बड़े भैया से मिला और फिर तो उस का मनशा के घर में बराबर आनाजाना होने लगा.

चोरी का फल : दोस्ती की आड़

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शायद : पैसों के बदले मिला अपमान

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वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत

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ऐसा भी होता है

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शायद : पैसों के बदले मिला अपमान-भाग 3

एक दिन अचानक दीनदयाल के मरने का समाचार मिला. कांप कर रह गई सुवीरा उस दिन. अब तक दीनदयाल ही ऐसे थे जो संवेदनात्मक रूप से बेटी से जुड़े थे. मां की मांग का सिंदूर यों धुलपुंछ जाएगा, सुवीरा ने कभी इस की कल्पना भी नहीं की थी. पति चाहे बूढ़ा, लाचार या बेसहारा ही क्यों न हो, उस की छत्रछाया में पत्नी खुद को सुरक्षित महसूस करती है.

अब क्या होगा, कैसे होगा, सोचतेविचारते सुवीरा मायके जाने की तैयारी करने लगी तो पहली बार अंगरक्षक के समान पति और दोनों बेटे भी साथ चलने के लिए तैयार हो उठे. एक मत से सभी ने यही कहा कि वहां जा कर फिर से अपमान की भागी बनोगी. पर सुवीरा खुद को रोक नहीं पाई थी. मोह, ममता, निष्ठा, अपनत्व के सामने सारे बंधन कमजोर पड़ते चले गए थे. ऐसे में सीमा ने ही साथ दिया था.

‘जाने दीजिए आप लोग मां को. ऐसे समय में तो लोग पुरानी दुश्मनी भूल कर भी एक हो जाते हैं. यह भी तो सोचिए, नानाजी मां को कितना चाहते थे. कोई बेटी खुद को रोक कैसे सकती है.’

मातमी माहौल में दुग्धधवल साड़ी में लिपटी अम्मां के बगल में बैठ गई थी सुवीरा. दिल से पुरजोर स्वर उभरा था. सोहन के पास तो इतना पैसा भी नहीं होगा कि बाबूजी की उठावनी का खर्चा भी संभाल सके. भाई से सलाह करने के लिए उठी तो लोगों की भीड़ की परवाह न करते हुए सोहन जोरजोर से चीखने लगा, ‘चलो, जीतेजी न सही, बाप के मरने के बाद तो तुम्हें याद आया कि तुम्हारे रिश्तेदार इस धरती पर मौजूद हैं.’

चाहती तो सुवीरा भी पलट कर इसी तरह उसे अपमानित कर सकती थी. जी में आया भी था कि इन लोगों से पूछे कि चलो मैं न सही पर तुम लोगों ने ही मुझ से कितना रिश्ता निभाया है, पर कहा कुछ नहीं था. बस, खून का घूंट पी कर रह गई थी.

लोगों की भीड़ छंटी तो सोहन की पत्नी से पूछ लिया था सुवीरा ने, ‘बैंक में हड़ताल है और मुझ से इस घर की आर्थिक स्थिति छिपी नहीं है. ऐसे मौकों पर अच्छीखासी रकम की जरूरत होती है. इसीलिए कुछ पैसे लाई थी, रख लो.’

‘क्यों लाई है पैसे?’ मां के मन में पहली बार परिस्थितिजन्य करुणा उभरी थी, पर सोहन का स्वर अब भी बुलंद था.

‘तुम मदद करने नहीं जायदाद बांटने आई हो. जाओ बहना, जाओ. अब तुम्हारा यहां कोई भी नहीं है.’

सोहन की पत्नी ने कई बार पति को शांत करने का असफल प्रयास किया था लेकिन गिरीश अच्छी तरह समझ गए थे कि सोहन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है. दंभी इनसान हमेशा दूसरे को गलत खुद को सही मानता है.

‘इस बदजबान को हम सुधारेंगे,’ जवानी का खून कहीं अनर्थ न कर डाले, इसीलिए सुवीरा ने रोका था अपने बेटों को.

‘हम कौन होते हैं किसी को सुधारने वाले? स्वभाव तो संस्कारों की देन है.’

लेकिन गिरीश उद्विग्न हो उठे थे, ‘सुवीरा, कब तक आदर्शों की सलीब पर टंगी रहोगी? खुद भी झुकोगी मुझे भी झुकाओगी? जिन लोगों में इनसानियत नहीं उन से रिश्ता निभाना बेवकूफी है. यदि आज के बाद तुम ने इन लोगों से संबंध रखा तो मेरा मरा मुंह देखोगी.’

घर लौट कर गिरीश ने कई बार अपनी दी हुई शपथ का विश्लेषण किया था पर हर बार खुद को सही पाया था. जिन रिश्तों के निभाने से तर्कवितर्क के पैने कंटीले झाड़ की सी चुभन महसूस हो, गहन पीड़ा की अनुभूति हो, उसे तोड़ देना क्या गलत था? कहते समय कब सोचा था उन्होंने कि सुवीरा का पड़ाव इतना निकट था?

बेहोशी की दशा में सन्नाटे को चीरते हुए सुवीरा के होंठों से जब सोहन और अम्मां का नाम छलक कर उन के कानों से टकराया तो उन्हें महसूस हुआ कि इतना सरल नहीं था सब. सिरहाने बैठे विक्रम की हथेलियों को हौले से थाम कर सुवीरा ने अपने शुष्क होंठों से सटाया, फिर चारों ओर देखा. उस की नजरें मुख्यद्वार पर अटक कर रह गईं.

‘‘सुवीरा, विगत को भूल जाओ. मांगो, जो चाहे मांगो. मैं अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखूंगा.’’

‘‘अंतिम समय… इस धरती से विदा लेते समय कांटों की गहरी चुभन झेलते हुए प्राण त्याग कर मुझे कौन सी शांति मिलेगी?’’

‘‘क्यों इतना दुख करती हो? संबंधजन्य दुख ही तो दुख का कारण होते हैं,’’ दीर्घ निश्वास भर कर गिरीश ने पत्नी को सांत्वना दी थी.

‘‘देखना, मेरे मरने के बाद ये लोग समझेंगे कि मेरा निश्छल प्रेम किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता था. मुझे तो सिर्फ प्यार के दो मीठे बोल और वैसी ही आत्मीयता चाहिए थी जैसी अम्मां सोहन को देती थीं.’’

घनघोर अंधेरे में सुवीरा की आवाज डूबती चली गई. शरीर शिथिल पड़ने लगा, आंखों की रंगत फीकी पड़ने लगी. धीरेधीरे उन के चेहरे की तड़प शांत हो गई. स्थिर चिरनिद्रा में सो गई सुवीरा.

पत्नी की शांत निर्जीव देह को सफेद चादर से ढक उन की निर्जीव पलकों को हाथों के दोनों अंगूठों से हौले से बंद करते हुए गिरीश आत्मग्लानि से घिर गए. पश्चात्ताप से टपटप उन की आंखों से बहते आंसू सुवीरा की पेशानी को न जाने कब तक भिगोते रहे.

‘‘अपनी अम्मां और भाई को एक नजर देखने की तुम्हारी अभिलाषा मेरे ही कारण अधूरी रह गई. दोषी हूं तुम्हारा. गुनहगार हूं. मुझे क्षमा कर दो.’’

जैसे ही सुवीरा के मरने का समाचार लोगों तक पहुंचा, भीड़ का रेला उमड़ पड़ा. गिरीश और दोनों बेटों की जानपहचान, मित्रों और परिजनों का दायरा काफी बड़ा था.

तभी लोगों की भीड़ को चीरते हुए सोहन और तारिणी देवी आते दिखाई दिए. बहन की शांत देह को देख सोहन जोरजोर से छाती पीटने लगा. उसे देख तारिणी देवी भी रोने लगीं.

‘‘अपने लिए तो कभी जी ही नहीं. हमेशा दूसरों के लिए ही जीती रही.’’

‘‘हमें अकेला छोड़ गई. कैसे जीएंगे सुवीरा के बिना हम लोग?’’

नानी का रुदन सुन दोनों जवान बेटों का खून भड़क उठा. मरने के बाद मां एकाएक उन के लिए इतनी महान कैसे हो गईं? दंभ और आडंबर की पराकाष्ठा थी यह. यह सब मां के सामने क्यों नहीं कहा? इन्हीं की चिंता में मां ने आयु के सुख के उन क्षणों को भी अखबारी कागज की तरह जला कर राख कर दिया जो उन्हें जीवन के नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर सकते थे.

उधर शांत, निर्लिप्त गिरीश कुछ और सोच रहे थे. कमल और बरगद की जिंदगी एक ही तराजू में तौली जाती है. कमल 12 घंटे जीने के बावजूद अपने सौंदर्य का अनश्वर और अक्षय आभास छोड़ जाता है जबकि 300 वर्ष जीने के बाद जब बरगद उखड़ता है तब जड़ भी शेष नहीं रहती.

कई बार सुवीरा के मुंह से गिरीश ने यह कहते सुना था कि प्यार के बिना जीवन व्यर्थ है. लंबी जिंदगी कैदी के पैर में बंधी हुई वह बेड़ी है जिस का वजन शरीर से ज्यादा होता है. बंधनों के भार से शरीर की मुक्ति ज्यादा बड़ा वरदान है.

सुवीरा की देह को मुखाग्नि दी जा रही थी लेकिन गिरीश के सामने एक जीवंत प्रश्न विकराल रूप से आ कर खड़ा हो गया था. कई परिवार बेटे को बेटी से अधिक मान देते हैं. बेटा चाहे निकम्मा, नाकारा, आवारागर्द और ऐयाश क्यों न हो, उसे कुल का दीपक माना जाता है, जबकि बेटी मनप्राण से जुड़ी रहती है अपने जन्मदाताओं के साथ फिर भी उतने मानसम्मान, प्यार और अपनत्व की अधिकारिणी क्यों नहीं बन पाती वह जितना बेटों को बनाया जाता है? यदि इन अवधारणाओं और भ्रांतियों का विश्लेषण किया जाए तो रिश्तों की मधुरता शायद कभी समाप्त नहीं होगी.

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 3

नरेंद्र के इस सवाल पर उस की मां बुरी तरह से चौंक गईं और पल भर में ही मां का चेहरा आशंकाओें के बादलों में घिरा नजर आने लगा.

‘‘तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ नरेंद्र को बांह से पकड़ झंझोड़ते हुए मां ने पूछा.

‘‘सुरजीत के घर में उस का बापू  एक कुदेसन ले आया है. लोग कहते हैं हमारे घर में रहने वाली यह औरत भी एक ‘कुदेसन’ है. क्या लोग ठीक कहते हैं, मां?’’

नरेंद्र का यह सवाल पूछना था कि एकाएक आवेश में मां ने उस के गाल पर चांटा जड़ दिया और उस को अपने से परे धकेलती हुई बोलीं, ‘‘तेरे इन बेकार के सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. वैसे भी तू स्कूल पढ़ने के लिए जाता है या लोगों से ऐसीवैसी बातें सुनने? तेरी ऐसी बातों में पड़ने की उम्र नहीं. इसलिए खबरदार, जो दोबारा इस तरह की  बातें कभी घर में कीं तो मैं तेरे बापू से तेरी शिकायत कर दूंगी.’’

नरेंद्र को अपने सवाल का जवाब तो नहीं मिला मगर अपने सवाल पर मां का इस प्रकार आपे से बाहर होना भी उस की समझ में नहीं आया.

ऐसा लगता था कि उस के सवाल से मां किसी कारण डर गईं और यह डर मां की आखों में उसे साफ नजर आता था.

नरेंद्र के मां से पूछे इस सवाल ने घर के शांत वातावरण में एक ज्वारभाटा ला दिया. मां और बापू के परस्पर व्यवहार में तलखी बढ़ गई थी और सिमरन बूआ तलख होते मां और बापू के रिश्ते में बीचबचाव की कोशिश करती थीं.

मां और बापू के रिश्ते में बढ़ती तलखी की वजह कोने में बनी कोठरी में रहने वाली वह औरत ही थी जिस के बारे में अमली चाचा का कहना था कि वह एक ‘कुदेसन’ है.

मां अब उस औरत को घर से निकालना चाहती हैं. नरेंद्र ने मां को इस बारे में बापू से कहते भी सुना. नरेंद्र को ऐसा लगा कि मां को कोई डर सताने लगा है.

बापू मां के कहने पर उस औरत को घर से निकालने को तैयार नहीं हैं.

नरेंद्र ने बापू को मां से कहते सुना था, ‘‘इतनी निर्मम और स्वार्थी मत बनो, इनसानियत भी कोई चीज होती है. वह लाचार और बेसहारा है. कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए मगर मैं अब उस को इस घर में एक पल भी देखना नहीं चाहती हूं. नरेंद्र भी इस के बारे में सवाल पूछने लगा है. उस के सवालों से मुझ को डर लगने लगा है. कहीं उस को असलियत मालूम हो गई तो क्या होगा?’’ मां की बेचैन आवाज में साफ कोई डर था.

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में किसी वहम का शिकार हो गई हो. हमें इतना कठोर और एहसानफरामोश नहीं होना चाहिए. इस को घर से निकालने से पहले जरा सोचो कि इस ने हमें क्या दिया और बदले में हम से क्या लिया? सिर छिपाने के लिए एक छत और दो वक्त की रोटी. क्या इतने में भी हमें यह महंगी लगने लगी है? जरा कल्पना करो, इस घर को एक वारिस नहीं मिलता तो क्या होता? एक औरत हो कर भी तुम ने दूसरी औरत का दर्द कभी नहीं समझा. तुम को डर है उस औलाद के छिनने का, जिस ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया. जरा इस औरत के बारे में सोचो जो अपनी कोख से जन्म देने वाली औलाद को भी अपने सीने से लगाने को तरसती रही. जन्म देते ही उस के बच्चे को इसलिए उस से जुदा कर दिया गया ताकि लोगों को यह लगे कि उस की मां तुम हो, तुम ने ही उस को जन्म दिया है. इस बेचारी ने हमेशा अपनी जबान बंद रखी है. तुम्हारे डर से यह कभी अपने बच्चे को भी जी भर के देख तक नहीं सकी.

‘‘इस घर में वह तुम्हारी रजामंदी से ही आई थी. हम दोनों का स्वार्थ था इस को लाने में. मुझ को अपने बाप की जमीनजायदाद में से अपना हिस्सा लेने के लिए एक वारिस चाहिए था और तुम को एक बच्चा. इस ने हम दोनों की ही इच्छा पूरी की. इस घर की चारदीवारी में क्या हुआ था यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं जानता. बच्चे को जन्म इस ने दिया, मगर लोगों ने समझा तुम मां बनी हो. कितना नाटक करना पड़ा था, एक झूठ को सच बनाने के लिए. जो औरत केवल दो वक्त की रोटी और एक छत के लालच में अपने सारे रिश्तों को छोड़ मेरा दामन थाम इस अनजान जगह पर चली आई, जिस को हम ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया, पर उस ने न कभी कोई शिकायत की और न ही कुछ मांगा. ऐसी बेजबान, बेसहारा और मजबूर को घर से निकालने का अपराध न तो मैं कर सकता हूं और न ही चाहूंगा कि तुम करो. किसी की बद्दुआ लेना ठीक नहीं.’’

नरेंद्र को लगा था कि बापू के समझाने से बिफरी हुई मां शांत पड़ गई थीं.

लेकिन नरेंद्र उन की बातों को सुनने के बाद अशांत हो गया था.

जानेअनजाने में उस के अपने जन्म के साथ जुड़ा एक रहस्य भी उजागर हो गया था.

अमली चाचा जो बतलाने में झिझक गया था वह भी शायद इसी रहस्य से जुड़ा था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि घर में रह रही वह औरत जोकि अमली चाचा के अनुसार एक ‘कुदेसन’ थी, दूर से क्यों उस को प्यार और हसरत की नजरों से देखती थी? क्यों जरा सा मौका मिलते ही वह उस को अपने सीने से चिपका कर चूमती और रोती थी? वह उस को जन्म देने वाली उस की असली मां थी.

नरेंद्र बेचैन हो उठा. उस के कदम बरबस उस कोठरी की तरफ बढ़ चले, जिस के अंदर जाने की इजाजत उस को कभी नहीं दी गई थी. उस कोठरी के अंदर वर्षों से बेजबान और मजबूर ममता कैद थी. उस ममता की मुक्ति का समय अब आ गया था. आखिर उस का बेटा अब किशोर से जवान हो गया था.

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 3

‘‘जी, बिलकुल ठीक कहा आप ने,’’ वह बोली, ‘‘असल में हमारे घर का माहौल बिलकुल पुराना और परंपरावादी है. मां ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हैं. शहर में रहते जिंदगी निकल गई, पर बोलती अभी भी अपने गांव की ही भाषा हैं. पिताजी संगीत अध्यापक हैं. वे रागरागिनियों में हर वक्त खोए रहने वाले परंपरा से जुड़े व्यक्ति हैं. उन के लिए गीत, संगीत, लय, तान, तरन्नुम, स्वर, आरोह, अवरोह,  बाप रे बाप, क्याक्या शब्दावली प्रयोग करते हैं. सुनसुन कर ही सिर में दर्द होने लगता है.’’

‘‘मेरा लड़का एमबीए कर चुका है. उस की ढेरों किताबें हमारे घर में पड़ी हैं. आप उन्हें देख लें, अगर मतलब की लगें तो उन्हें ले जाएं,’’ वे संभल कर बोले, ‘‘लड़का अहमदाबाद के प्रसिद्ध मैनेजमैंट संस्थान में चुन लिया गया था. वहां से निकलते ही उसे बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. आजकल बंबई में है.’’

लड़की एकदम उत्सुक हो गई, ‘‘अहमदाबाद के संस्थान में लड़के का चुना जाना वाकई एक उपलब्धि है. उस के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनी…यह सब जरूर आप के दिशानिर्देश की वजह से संभव हुआ होगा. हमारे घर में हमें कोई गाइड करने वाला ही नहीं है. अपने मन से पढ़ रही हूं, प्रतियोगिता की तैयारी कर रही हूं. किसी से पूछने का मन नहीं होता. लोग हर लड़की से कोई न कोई लाभ उठाने की सोचने लगते हैं. इसलिए मेरे मातापिता भी पसंद नहीं करते. पर आप तो इसी महल्ले में रहते हैं. आप का घर देख लिया है. किसी दिन आऊंगी, किताबें देखूंगी,’’ उस ने कहा.

वे सोचने लगे, ‘किसी दिन क्यों? आज ही क्यों नहीं चलती?’ पर कुछ बोले नहीं. अच्छा भी है, उन लड़कों के सामने वे उसे अपने घर नहीं लिवा ले जा रहे. पता नहीं वे सब क्या समझें, क्या सोचें?

दूसरे दिन इतवार था. नौकरानी के साथ वे खुद जुटे. सारा घर ठीक से साफ किया. सब चीजें करीने से लगाईं. लड़के की किताबें भी झाड़फूंक कर करीने से अलमारी में लगाईं.

नौकरानी चकित थी, ‘‘कोई आ रहा है क्या, बाबूजी?’’

वे हंस पड़े. कहना तो चाहते थे कि कोई न आ रहा होता तो इस उम्र में इतनी मशक्कत क्यों करते, किसी पागल कुत्ते ने काटा है क्या? पर वे हंस दिए, ‘‘नहीं, कोई नहीं आ रहा. बस, लगा कि घर ठीक होना चाहिए, इसलिए ठीक कर लिया.’’

नौकरानी को विश्वास न हुआ. वह उन के चेहरे को गौर से ताकती रही. फिर मुसकरा दी, ‘‘जरूर आप हम से कुछ छिपा रहे हैं. काई आएगा नहीं तो यह सब क्यों?’’

वे सोचने लगे, ‘अजीब औरत है. बेकार बातों में सिर खपा रही है. इसे इस बात से क्या मतलब? पर दूसरों के मामले में दखल देने की इस की आदत है?’

खाना बना कर जाने में नौकरानी को

2 बज गए. वह बड़बड़ाती रही, ‘‘दसियों घरों का काम निबटाती इतनी देर में. आप ने हमारा सारा वक्त खराब करा दिया.’’

पर वे उस से कुछ बोले नहीं. कौन बेकार इन लोगों के मुंह लगे और अपना मूड खराब करे. खाना खा कर वे कुरतापाजामा पहन, आराम से कुछ पढ़ने का बहाना कर उस का इंतजार करने लगे.

लड़़की का इंतजार, जैसे खुशबू के झोंके का इंतजार, जैसे ठंडी फुहार का इंतजार, जैसे संगीत की मधुर स्वर लहरियों की कानों को प्रतीक्षा, जैसे किसी अप्सरा का हवा में उड़ता एहसास, जैसे रंगबिरंगी तितली का फूलों पर बेआवाज उड़ना, जैसे मदमत्त भौंरे का गुनगुनाना, जैसे नदी का किलकारियां भरते हुए बहना, जैसे झरने का…

इसी इंतजार के दौरान घंटी बजने लगी. वे लपक कर पलंग से उठे और दरवाजे की तरफ बढ़े.

ताना ही थी. देख कर वे फूल की तरह खिल गए. लगा, जैसे उन की रगों में फिर वही पुराना वाला, जवानी के दिनों वाला रक्त धमकने लगा है. उन्होंने उस का स्वागत किया. हलके हरे रंग का सूट और उस पर नारंगी रंग की चुन्नी. उन का मन हुआ, उस से कहें, ‘तुम ने हरी या नारंगी बिंदी क्यों नहीं लगाई?’ पर वे प्रकट में बोले, ‘‘आइए.’’

उन्होंने उसे बैठक में बिठाया. ताना ने उड़ती सी नजर सब पर डाली. टीवी पर रखी लड़के की हंसती फोटो पर उस की नजर टिकी रह गई. वह सोफे से उठ कर टीवी के नजदीक पहुंची. फोटो को कुछ पल ताकती रही, फिर मुसकरा दी, ‘‘काफी स्मार्ट है आप का लड़का. क्या नाम है इस का?’’

‘‘सुब्रत,’’ वे भी ताना के समीप आ खड़े हुए, ‘‘सब से पहले बताओ, क्या लोगी, ठंडा या गरम? और गरम, तो चाय या कौफी? वैसे मैं कौफी अच्छी बना लेता हूं.’’

‘‘आप भी कमाल करते हैं,’’ वह बेसाख्ता हंसी, ‘‘आप मेरे लिए कौफी बनाएंगे और मैं बनाने दूंगी आप को? इतना पराया समझा है आप ने मुझे?’’

‘‘पराया क्यों नहीं?’’ वे बोले, ‘‘पहली बार हमारे घर आई हो. हमारी मेहमान हो. और भारतीय कितने भी दुनिया में बदनाम हों, पर मेहमाननवाजी में तो अभी भी वे मशहूर हैं.’’

‘‘इस तरह बोर करेंगे तो चली जाऊंगी, सचमुच,’’ ताना लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘आप हमारे पास बैठिए. आप से आज गपशप करने का मन है. खूब बातें करूंगी. कुछ आप की सुनूंगी, कुछ अपने गम हलके करूंगी. रसोई किधर है? कौफी मैं बनाती हूं.’’

वे उसे अपने साथ रसोई में ले गए.

कौफी के साथ ही लौटे. ताना का रसोई में इस तरह काम करना और खुला, बेतकल्लुफ व्यवहार उन्हें बहुत पसंद आया. कौफी पीते हुए वे देर तक तमाम तरह की बातें करते रहे. लड़की उन्हें हर तरह से समझदार लगी. फिर वह उन के लड़के के नोट्स व किताबें देखती रही. अपने मतलब की तमाम किताबें और नोट्स उस ने छांट कर अलग कर लिए और बोली, ‘‘धीरेधीरे इन्हें ले जाऊंगी, उन्हें एतराज तो न होगा?’’

‘‘किन्हें, लड़के को?’’ वे हंसे, ‘‘उसे अब इन से क्या काम पड़ेगा?’’

‘‘कभी बुलाइए न उन्हें यहां. चाचीजी भी शायद अरसे से वहां हैं. आप को भी अकेले तमाम तरह की तकलीफें हो रही होंगी. हमारे पिताजी तो अपने हाथ से पानी का एक गिलास भी उठा कर नहीं पी सकते. पता नहीं आप कैसे इतने दिनों से अकेले इस घर में रह रहे हैं.

‘‘चाचीजी को ले कर वे आएं तो हमें बताइएगा. हम भी उन से मिलना चाहेंगे. शायद उन से कुछ दिशानिर्देश मिल जाए. मैं जल्दी से जल्दी अपने पांवों पर खड़ी होना चाहती हूं. पिताजी की पुरानी, शास्त्रीय संगीत वाली दुनिया से ऊब गई हूं. मैं एक नई दुनिया में रमना चाहती हूं. जिंदगी की ताजा और तेज हवा में उड़ना चाहती हूं. मेरी कुछ मदद करिए न,’’ घर से जाते समय उस ने अनुरोधभरे स्वर में कहा.

‘‘आज इतवार है न. और इस वक्त 5 बजे हैं. चलो, पार्क के पास जो पीसीओ है, वहां चलते हैं. तुम्हें नंबर दूंगा. लड़का इस वक्त घर पर ही होगा. लड़के की मां भी वहीं होगी. फोन कर के दोनों को चौंकाओ. बोलो, चलोगी? मजा आएगा?’’ वे उस की चमकती आंखों में ताकने लगे.

बहुत मजा आया फोन पर. लड़की ने ऐसे चौंकाने वाले अंदाज में लड़के और उस की मां से बातें कीं कि वे खुद चकित रह गए. बाद में उन्होंने दोनों से आग्रह किया कि वे जल्दी यहां आएं.

लड़के की मां ने पूछा, ‘‘कोई खास बात?’’

वेताना की तरफ देख कर शरारत से हंस दिए, ‘‘खास बात न होती तो दोनों को क्यों बुलाता? हमेशा की तरह वह तुम्हें ट्रेन में बैठा देता और मैं तुम्हें स्टेशन पर उतार लेता… एक बहुत अच्छी लड़की?’’

‘‘यह फोन वाली लड़की?’’

‘‘नहीं, पार्क वाली लड़की,’’ वे बेसाख्ता हंसे. ताना का मुख एकदम सूरजमुखी की तरह खिल कर झुक गया.

‘‘पार्क वाली लड़की? क्या मतलब? कोई लड़की आप को पार्क में पड़ी मिल गई क्या?’’ पत्नी ने चमक कर पूछा.

‘‘पार्क में पड़ी नहीं मिल गई बल्कि फूलों में खिली हुई मिल गई है.’’ ताना उन्हें आंखों ही आंखों में डांट रही थी.

रिसीवर रख जब वे उस के साथ बाहर आए तो वह लजाई हुई बोली, ‘‘सचमुच आप जैसे इंसान भी इस दुनिया में हैं, सहज विश्वास नहीं होता.’’ वे मुसकराए, ‘‘ताना, कल से तुम माथे पर बिंदी जरूर लगाना, हाथों में लाल चूडि़यां और पांवों में सुनहरी बैल्ट वाली सैंडल पहनना.’’ और उस की तरफ ताकते हुए हंसने लगे.

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