समझौता: आखिर क्यों परेशान हुई रिया

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प्रेम का दूसरा नाम: तलाश मंजिल की

दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा. आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

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सच्ची परख : शैफाली की कशमकश

बिस्तर पर लेटी वह खिड़की से बाहर निहार रही थी. शांत, स्वच्छ, निर्मल आकाश देखना भी कितना सुखद लगता है. घर के बगीचे के विस्तार में फैली हरियाली और हवा के झोंकों से मचलते फूल वगैरा तो पहले भी यहां थे लेकिन तब उस की नजरों को ये नजारे चुभते थे. परंतु आज…?

शेफाली ने एक ठंडी सांस ली, परिस्थितियां इंसान में किस हद तक बदलाव ला देती हैं. अगर ऐसा न होता तो आज तक वह यों घुटती न रहती. बेकार ही उस ने अपने जीवन के 2 वर्ष मृगमरीचिका में भटकते हुए गंवा दिए, निरर्थक बातों के पीछे अपने को छलती रही. काश, उसे पहले एहसास हो जाता तो…

‘‘लीजिए मैडम, आप का जूस,’’ सुदेश की आवाज ने उसे सोच के दायरे से बाहर ला पटका.

‘‘क्यों बेकार आप इतनी मेहनत करते हैं, जूस की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने संकोच से कहा.

‘‘देखिए जनाब, आप की सेहत के लिए यह बहुत जरूरी है. आप तो बस आराम से आदेश देती रहिए, यह बंदा आप को तरहतरह के पकवान बना कर खिलाता रहेगा. फिर कौन सी बहुत मेहनत करनी पड़ती है, यहां तो सबकुछ डब्बाबंद तैयार मिलता है, विदेश का कम से कम यह लाभ तो है ही,’’ सुदेश ने गिलास थमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप काम करें, यह मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘शेफाली, थोड़े दिनों की बात है. जहां पेट के टांके कटे, वहीं तुम थोड़ाबहुत चलने लगोगी. अभी तो डाक्टर ने तुम्हें पूरी तरह आराम करने को कहा है. अच्छा, देखो, मैं बाजार से सामान ले कर आता हूं, तब तक तुम थोड़ा सो लो. फिर सोचने मत लग जाना. मैं देख रहा हूं, जब से तुम्हारा औपरेशन हुआ है, तुम हमेशा सोच में डूबी रहने लगी हो. सब ठीक से तो हो गया है, फिर काहे की चिंता. खैर, अब आराम करो.’’

सुदेश ने ठीक ही कहा था. जब से उस के पेट के ट्यूमर का औपरेशन हुआ था तब से वह सोचने लगी थी. असल में तो वह इन 2 वर्षों में सुदेश के प्रति किए गए व्यवहार की ग्लानि थी जो उसे निरंतर मथती रहती थी.

सुदेश के साधारण रूपरंग और प्रभावहीन व्यक्तित्व के कारण शेफाली हमेशा उसे अपमानित करने की कोशिश करती. अपने अथाह रूप और आकर्षण के सामने वह सुदेश को हीन समझती. अपने मातापिता को भी माफ नहीं कर पाई थी. अकसर वह मां को चिट्ठी में लिखती कि उस ने उन्हें वर चुनने का अधिकार दे कर बहुत भारी भूल की थी. ऐसे कुरूप पति को पाने से तो अच्छा था वह स्वयं किसी को ढूंढ़ कर विवाह कर लेती. ऐसा लिखते वक्त उस ने यह कभी नहीं सोचा था कि भारत में बैठे उस के मातापिता पर क्या बीत रही होगी.

शेफाली अपनी मां से तब कितना लड़ी थी, जब उसे पता चला था कि सुदेश ने कनाडा में ही बसने का निश्चय कर लिया है. सुदेश ने वहीं अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी और अच्छी नौकरी मिलने के कारण वह अब भारत नहीं आना चाहता था. शेफाली ने स्वयं एमबीबीएस पास कर लिया था और ‘इंटर्नशिप’ कर रही थी. वह चाहती थी कि भारत में ही रह कर अपना क्लीनिक खोले. नए देश में, नए परिवेश में जाने के नाम से ही वह परेशान हो गई थी. बेटी को नाखुश देख मातापिता को लगा कि इस से तो अच्छा है कि सगाई को तोड़ दिया जाए, पर उस ने उन्हें यह कह कर रोक दिया था कि इस से सामाजिक मानमर्यादा का हनन होगा और उस के भाईबहनों के विवाह में अड़चन आ सकती है. सुदेश से पत्रव्यवहार व फोन द्वारा उस की बातचीत होती रहती थी, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि ऐसी हालत में रिश्ता तोड़ कर उस का दिल दुखाया जाए. इसी कशमकश में वह विवाह कर के कनाडा आ गई थी.

अचानक टिं्रन…ट्रिंन…की आवाज से शेफाली का ध्यान भंग हुआ, फोन भारत से आया था. मां की आवाज सुन कर वह पुलकित हो उठी

‘‘कैसी हो बेटी, आराम कर रही हो न? देखो, ज्यादा चलनाफिरना नहीं.’’

उन की हिदायतें सुन वह मुसकरा उठी, ‘‘मैं ठीक हूं मां, सारा दिन आराम करती हूं. घर का सारा काम सुदेश ने संभाला हुआ है.’’

‘‘सुदेश ठीक है न बेटी, उस की इज्जत करना, वह अच्छा लड़का है, बूढ़ी आंखें धोखा नहीं खातीं, रूपरंग से क्या होता है,’’ मां ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘‘मां, तुम फिक्र मत करो. देर से ही सही, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है,’’ तभी फोन कट गया.

दूर बैठी मां भी शायद जान गई थीं कि वह सुदेश को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती. फिर से एक बार शेफाली के मानसपटल पर बीते दिन घूमने लगे.

मौंट्रीयल के इस खूबसूरत फ्लैट में जब उस ने कदम रखा था तो ढेर सारे फूलों और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उस का स्वागत किया गया था. उन के आने की खुशी में सुदेश के मित्रों ने पूरे फ्लैट को सजा रखा था. ऐसी आवभगत की उसे आशा नहीं थी, इसलिए खुशी हुई थी, लेकिन वह उसे दबा गई थी. आखिर किस काम की थी वह खुशी.

सुदेश एकएक कर अपने साथियों से उसे मिलवाता रहा. उस की खूबसूरती की प्रशंसा में लोगों ने पुल बांध दिए.

‘यार, तुम तो इतनी सुंदर परी को भारत से उड़ा लाए,’ सुदेश के मित्र की बात सुन उसे वह मुहावरा याद आ गया था, ‘हूर के साथ लंगूर’. सुदेश जब भी उस का हाथ पकड़ता, वह झटके से उसे खींच लेती. ऐसा नहीं था कि सुदेश उस के व्यवहार से अनभिज्ञ था, लेकिन उस ने सोचा था कि अपने प्यार से वह शेफाली का मन जीत लेगा.

विवाह के कुछ दिन बाद उस ने कहा था, ‘अभी छुट्टियां बाकी हैं. चलो, तुम्हें पूरे कनाडा की सैर करा दें.’

तब शेफाली ने यह कह कर इनकार कर दिया था कि उस की तबीयत ठीक नहीं है. उस की हरसंभव यही कोशिश रहती कि वह सुदेश से दूरदूर रहे. अपने सौंदर्य के अभिमान में वह यह भूल गई थी कि वह उस का पति है. उस का प्यार, उस का अपनापन और छोटीछोटी बातों का खयाल रखना शेफाली को तब दिखता ही कहां था.

सुदेश के सहयोगियों ने क्लब में पार्टी रखी थी, पर उस ने साथ जाने से इनकार कर दिया था.

‘देखो शेफाली, यह पार्टी उन्होंने हमारे लिए रखी है.’

पति की इस बात पर वह आगबबूला हो उठी थी, ‘मुझ से पूछ कर रखी है क्या? मैं पूछती हूं, तुम्हें मेरे साथ चलते झिझक नहीं होती. कहां तुम कहां मैं?’

तब सुदेश अवाक् रह गया था.

दरवाजा खुलने से एक बार फिर उस की तंद्रा भंग हो गई, ‘‘अरे, इतना सामान लाने की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने सुदेश को पैकटों से लदे देख पूछा.

‘‘अरे जनाब, ज्यादा कहां है, बस, कुछ फल हैं और डब्बाबंद खाना. जब तक तुम ठीक नहीं हो जातीं, इन्हीं से काम चलाना है,’’ सुदेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अच्छा, खाना यहीं लगाऊं या बालकनी में बैठना चाहोगी?’’

‘‘नहींनहीं, यहीं ठीक है और देखो, ज्यादा पचड़े में मत पड़ना, वैसे भी ज्यादा भूख नहीं है.’’

‘‘क्यों, भूख क्यों नहीं है? तुम्हें ताकत  चाहिए और इस के लिए खाना बहुत जरूरी है,’’ सुदेश ने अपने हाथों से उसे खाना खिलाते हुए कहा.

शेफाली की आंखें नम हो आईं. ऐसे व्यक्ति से, जिस के अंदर प्यार का सागर लबालब भरा हुआ है, वह आज तक घृणा करती आई, सिर्फ इसलिए कि वह कुरूप है. लेकिन बाहरी सौंदर्य के झूठे सच में वह उस के गुणों को नजरअंदाज करती रही. अंदर से उस का मन कितना निर्मल, कितना स्वच्छ है. वह कितनी मूर्ख थी, तभी तो वैवाहिक जीवन के 2 सुनहरे वर्ष यों ही गंवा दिए. उस का हर पल यही प्रयत्न रहता कि किसी तरह सुदेश को अपमानित करे इसलिए उस की हर बात काटती.

लेकिन अपनी बीमारी के बाद उस ने जाना कि सच्चा प्रेम क्या होता है. शेफाली की इतनी बेरुखी के बाद भी सुदेश कितनी लगन से उस की सेवा कर रहा था.

‘‘अरे भई, खाना ठंडा हो जाएगा. जब देखो तब सोचती ही रहती हो. आखिर बात क्या है, मुझ से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’ शेफाली ने सफाई से आंखें पोंछते हुए कहा, ‘‘मुझे शर्मिंदा मत करो. अरे हां, मां का फोन आया था,’’ उस ने बात पलटते हुए कहा.

रसोई व्यवस्थित कर सुदेश बोला, ‘‘मैं थोड़ी देर दफ्तर हो कर आता हूं, तब तक तुम सो भी लेना. चाय के समय तक आ जाऊंगा. अरे हां, दफ्तर के साथी तुम्हारा हालचाल पूछने आना चाहते हैं, अगर तुम कहो तो?’’ सुदेश ने झिझकते हुए पूछा तो शेफाली ने मुसकरा कर हामी भर दी.

शेफाली जानती थी सुदेश ने क्यों पूछा था. वह उस के साथ न तो कहीं जाती थी, न ही उस के मित्रों का आना उसे पसंद था, क्योंकि तब उसे सुदेश के साथ बैठना पड़ता था, हंसना पड़ता था और वह यह चाहती नहीं थी. कितनी बार वह सुदेश को जता चुकी थी कि उस की पसंदनापसंद की उसे परवा नहीं है, खासकर उन दोस्तों की, जो हमेशा उस के सामने सुदेश की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं, ‘भाभीजी, यह तो बहुत ही हंसमुख और जिंदादिल इंसान है. अपने काम और व्यवहार के कारण सब काप्यारा है, अपना यार.’

शेफाली उस की बदसूरती के सामने जब इन बातों को तोलती तो हमेशा उसे सुदेश का पलड़ा हलका लगता. सुदेश जब भी उसे छूता, उसे लगता, कोई कीड़ा उस के शरीर पर रेंग रहा है और वह दूसरे कमरे में जा कर सो जाती.दरवाजे की घंटी बजी तो वह चौंक उठी. सच ही था, वह ज्यादा ही सोचने लगी थी. सोचा, शायद पोस्टमैन होगा. वह आहिस्ता से उठी और पत्र निकाल लाई. मां ने खत में वही सब बातें लिखी थीं और सुदेश का सम्मान करने की हिदायत दी थी. उस का मन हुआ कि वह अभी मां को जवाब दे दे, पर पेन और कागज दूसरे कमरे में रखे थे और वह थोड़ा चल कर थक गई थी. लेटने ही लगी थी कि सुदेश आ गया.

‘‘सुनो, जरा पेन और पैड दोगे, मां को चिट्ठी लिखनी है,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘बाद में, अभी लेटो, तुम्हें उठने की जरूरत ही क्या थी,’’ सुदेश ने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘दवा भी नहीं ली. ठहरो, मैं पानी ले कर आता हूं.’’

‘‘सुनो,’’ शेफाली ने उस की बांह पकड़ ली. सुदेश ने कुछ हैरानी से देखा. शेफाली को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे अपने किए की माफी मांगे.

व्यक्ति की पहचान उस के गुणों से होती है, उस के व्यवहार से होती है, वही उस के व्यक्तित्व की छाप बनती है. सुदेश की सच्ची परख तो उसे अब हुई थी. आज तक तो वह अपनी खूबसूरती के दंभ में एक ऐसे राजकुमार की तलाश में कल्पनालोक में विचर रही थी जो किस्सेकहानियों में ही होते हैं, पर यथार्थ तो इस से बहुत परे होता है. जहां मनुष्य के गुणों को समाज की नजरें आंकती हैं, उस की आंतरिक सुंदरता ज्यादा माने रखती है. अगर खूबसूरती ही मापदंड होता तो समाज के मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लग जाता.

‘‘शेफाली, तुम कुछ कहना चाहती थीं?’’ सुदेश ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां…बस, कुछ खास नहीं,’’ वह चौंकते हुए बोली.

‘‘मैं जानता हूं, मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं. अगर तुम चाहो तो मुझे छोड़ कर जा सकती हो,’’ सुदेश के स्वर में दर्द था.

‘‘बसबस, और कुछ न कहो, मैं पहले ही बहुत शर्मिंदा हूं. हो सके तो मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है. फिर भी तुम ने कभी मुझ से कटुता से बात नहीं की. मेरी हर कड़वाहट को सहते रहे और अब भी मेरी इतनी सेवा कर रहे हो, शर्म आती है मुझे अपनेआप पर,’’ शेफाली उस से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो, कौन नहीं जानता कि तुम्हारी खूबसूरती के सामने मैं कितना कुरूप लगता हूं.’’

‘‘खबरदार, जो तुम ने अपनेआप को कुरूप कहा. तुम्हारे जैसा सुंदर मैं ने जिंदगी में नहीं देखा. मेरी आंखों को तुम्हारी सच्ची परख हो गई है.’’

दोनों अपनी दुनिया में खोए थे कि तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई और घंटी भी बजी.

‘‘सुदेश, दरवाजा खोलो,’’ बाहर से शोर सुनाई दिया.

‘‘लगता है, मित्रमंडली आ गई है,’’ सुदेश बोला.

दरवाजा खुलते ही फूलों की महक से सारा कमरा भर गया. सुदेश के मित्र शेफाली को फूलों का एकएक गुच्छा थमाने लगे.

‘‘भाभीजी, आप के ठीक होने के बाद हम एक शानदार पार्टी लेंगे. क्यों, देंगी न?’’ एक मित्र ने पूछा.

‘‘जरूर,’’ शेफाली ने हंसते हुए कहा. उसे लग रहा था कि इन फूलों की तरह उस का जीवन भी महक से भर गया है. हर तरफ खुशबू बिखर गई है. गुच्छों के बीच से उस ने देखा, सुदेश के चेहरे पर एक अनोखी मुसकराहट छाई हुई है. शेफाली ने जब सारी शर्महया छोड़ आगे बढ़ कर उस का चेहरा चूमा तो ‘हे…हे’ का शोर मच गया और सुदेश ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया.

दुलहन वही जो पिया मन भाए

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दो चुटकी सिंदूर : सविता की क्या थी गलती

‘‘ऐ सविता, तेरा चक्कर चल रहा है न अमित के साथ?’’ कुहनी मारते हुए सविता की सहेली नीतू ने पूछा. सविता मुसकराते हुए बोली, ‘‘हां, सही है. और एक बात बताऊं… हम जल्दी ही शादी भी करने वाले हैं.’’

‘‘अमित से शादी कर के तो तू महलों की रानी बन जाएगी. अच्छा, वह सब छोड़. देख उधर, तेरा आशिक बैजू कैसे तुझे हसरत भरी नजरों से देख रहा है.’’

नीतू ने तो मजाक किया था, क्योंकि वह जानती थी कि बैजू को देखना तो क्या, सविता उस का नाम भी सुनना तक पसंद नहीं करती.

सविता चिढ़ उठी. वह कहने लगी, ‘‘तू जानती है कि बैजू मुझे जरा भी नहीं भाता. फिर भी तू क्यों मुझे उस के साथ जोड़ती रहती है?’’

‘‘अरे पगली, मैं तो मजाक कर रही थी. और तू है कि… अच्छा, अब से नहीं करूंगी… बस,’’ अपने दोनों कान पकड़ते हुए नीतू बोली.

‘‘पक्का न…’’ अपनी आंखें तरेरते हुए सविता बोली, ‘‘कहां मेरा अमित, इतना पैसे वाला और हैंडसम. और कहां यह निठल्ला बैजू.

‘‘सच कहती हूं नीतू, इसे देख कर मुझे घिन आती है. विमला चाची खटमर कर कमाती रहती हैं और यह कमकोढ़ी बैजू गांव के चौराहे पर बैठ कर पानखैनी चबाता रहता है. बोझ है यह धरती पर.’’

‘‘चुप… चुप… देख, विमला मौसी इधर ही आ रही हैं. अगर उन के कान में अपने बेटे के खिलाफ एक भी बात पड़ गई न, तो समझ ले हमारी खैर नहीं,’’ नीतू बोली.

सविता बोली, ‘‘पता है मुझे. यही वजह है कि यह बैजू निठल्ला रह गया.’’

विमला की जान अपने बेटे बैजू में ही बसती थी. दोनों मांबेटा ही एकदूसरे का सहारा थे. बैजू जब 2 साल का था, तभी उस के पिता चल बसे थे. सिलाईकढ़ाई का काम कर के किसी तरह विमला ने अपने बेटे को पालपोस कर बड़ा किया था.

विमला के लाड़प्यार में बैजू इतना आलसी और निकम्मा बनता जा रहा था कि न तो उस का पढ़ाईलिखाई में मन लगता था और न ही किसी काम में. बस, गांव के लड़कों के साथ बैठकर हंसीमजाक करने में ही उसे मजा आता था.

लेकिन बैजू अपनी मां से प्यार बहुत करता था और यही विमला के लिए काफी था. गांव के लोग बैजू के बारे में कुछ न कुछ बोल ही देते थे, जिसे सुन कर विमला आगबबूला हो जाती थी.

एक दिन विमला की एक पड़ोसन ने सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘अब इस उम्र में अपनी देह कितना खटाएगी विमला, बेटे को बोल कि कुछ कमाएधमाए. कल को उस की शादी होगी, फिर बच्चे भी होंगे, तो क्या जिंदगीभर तू ही उस के परिवार को संभालती रहेगी?

‘‘यह तो सोच कि अगर तेरा बेटा कुछ कमाएगाधमाएगा नहीं, तो कौन देगा उसे अपनी बेटी?’’

विमला कहने लगी, ‘‘मैं हूं अभी अपने बेटे के लिए, तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है… समझी. बड़ी आई मेरे बेटे के बारे में सोचने वाली. देखना, इतनी सुंदर बहू लाऊंगी उस के लिए कि तुम सब जल कर खाक हो जाओगे.’’

सविता के पिता रामकृपाल डाकिया थे. घरघर जा कर चिट्ठियां बांटना उन का काम था, पर वे अपनी दोनों बेटियों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना चाहते थे. उन की दोनों बेटियां थीं भी पढ़ने में होशियार, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि उन की बड़ी बेटी सविता अमित नाम के एक लड़के से प्यार करती है और वह उस से शादी के सपने भी देखने लगी है.

यह सच था कि सविता अमित से प्यार करती थी, पर अमित उस से नहीं, बल्कि उस के जिस्म से प्यार करता था. वह अकसर यह कह कर सविता के साथ जिस्मानी संबंध बनाने की जिद करता कि जल्द ही वह अपने मांबाप से दोनों की शादी की बात करेगा.

नादान सविता ने उस की बातों में आ कर अपना तन उसे सौंप दिया. जवानी के जोश में आ कर दोनों ने यह नहीं सोचा कि इस का नतीजा कितना बुरा हो सकता है और हुआ भी, जब सविता को पता चला कि वह अमित के बच्चे की मां बनने वाली है.

जब सविता ने यह बात अमित को बताई और शादी करने को कहा, तो वह कहने लगा, ‘‘क्या मैं तुम्हें बेवकूफ दिखता हूं, जो चली आई यह बताने कि तुम्हारे पेट में मेरा बच्चा है? अरे, जब तुम मेरे साथ सो सकती हो, तो न जाने और कितनों के साथ सोती होगी. यह उन्हीं में से एक का बच्चा होगा.’’

सविता के पेट से होने का घर में पता लगते ही कुहराम मच गया. अपनी इज्जत और सविता के भविष्य की खातिर उसे शहर ले जा कर घर वालों ने बच्चा गिरवा दिया और जल्द से जल्द कोई लड़का देख कर उस की शादी करने का विचार कर लिया.

एक अच्छा लड़का मिलते ही घर वालों ने सविता की शादी तय कर दी. लेकिन ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला.

अभी शादी के फेरे होने बाकी थे कि लड़के के पिता ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बंद करो… अब नहीं होगी यह शादी.’’

शादी में आए मेहमान और गांव के लोग हैरान रह गए. जब सारी बात का खुलासा हुआ, तो सारे गांव वाले सविता पर थूथू कर के वहां से चले गए.

सविता की मां तो गश खा कर गिर पड़ी थीं. रामकृपाल अपना सिर पीटते हुए कहने लगे, ‘‘अब क्या होगा… क्या मुंह दिखाएंगे हम गांव वालों को? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़की ने हमें. बताओ, अब कौन हाथ थामेगा इस का?’’

‘‘मैं थामूंगा सविता का हाथ,’’ अचानक किसी के मुंह से यह सुन कर रामकृपाल  अचकचा कर पीछे मुड़ कर देखा, तो बैजू अपनी मां के साथ खड़ा था.

‘‘बैजू… तुम?’’ रामकृपाल ने बड़ी हैरानी से पूछा.

विमला कहने लगी, ‘‘हां भाई साहब, आप ने सही सुना है. मैं आप की बेटी को अपने घर की बहू बनाना चाहती हूं और वह इसलिए कि मेरा बैजू आप की बेटी से प्यार करता है.’’

रामकृपाल और उन की पत्नी को चुप और सहमा हुआ देख कर विमला आगे कहने लगी, ‘‘न… न आप गांव वालों की चिंता न करो, क्योंकि मेरे लिए मेरे बेटे की खुशी सब से ऊपर है, बाकी लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, उस से मुझे कोई फर्कनहीं पड़ता है.’’

अब अंधे को क्या चाहिए दो आंखें ही न. उसी मंडप में सविता और बैजू का ब्याह हो गया.

जिस बैजू को देख कर सविता को उबकाई आती थी, उसे देखना तो क्या वह उस का नाम तक सुनना पसंद नहीं करती थी, आज वही बैजू उस की मांग का सिंदूर बन गया. सविता को तो अपनी सुहागरात एक काली रात की तरह दिख रही थी.

‘क्या मुंह दिखाऊंगी मैं अपनी सखियों को, क्या कहूंगी कि जिस बैजू को देखना तक गंवारा नहीं था मुझे, वही आज मेरा पति बन गया. नहीं… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इतनी बड़ी नाइंसाफी मेरे साथ नहीं हो सकती,’ सोच कर ही वह बेचैन हो गई.

तभी किसी के आने की आहट से वह उठ खड़ी हुई. अपने सामने जब उस ने बैजू को खड़ा देखा, तो उस का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

बैजू के मुंह पर अपने हाथ की चूडि़यां निकालनिकाल कर फेंकते हुए सविता कहने लगी, ‘‘तुम ने मेरी मजबूरी का फायदा उठाया है. तुम्हें क्या लगता है कि दो चुटकी सिंदूर मेरी मांग में भर देने से तुम मेरे पति बन गए? नहीं, कोई नहीं हो तुम मेरे. नहीं रहूंगी एक पल भी इस घर में तुम्हारे साथ मैं… समझ लो.’’

बैजू चुपचाप सब सुनता रहा. एक तकिया ले कर उसी कमरे के एक कोने में जा कर सो गया.

सविता ने मन ही मन फैसला किया कि सुबह होते ही वह अपने घर चली जाएगी. तभी उसे अपने मातापिता की कही बातें याद आने लगीं, ‘अगर आज बैजू न होता, तो शायद हम मर जाते, क्योंकि तुम ने तो हमें जीने लायक छोड़ा ही नहीं था. हो सके, तो अब हमें बख्श देना बेटी, क्योंकि अभी तुम्हारी छोटी बहन की भी शादी करनी है हमें…’

कहां ठिकाना था अब उस का इस घर के सिवा? कहां जाएगी वह? बस, यह सोच कर सविता ने अपने बढ़ते कदम रोक लिए.

सविता इस घर में पलपल मर रही थी. उसे अपनी ही जिंदगी नरक लगने लगी थी, लेकिन इस सब की जिम्मेदार भी तो वही थी.

कभीकभी सविता को लगता कि बैजू की पत्नी बन कर रहने से तो अच्छा है कि कहीं नदीनाले में डूब कर मर जाए, पर मरना भी तो इतना आसान नहीं होता है. मांबाप, नातेरिश्तेदार यहां तक कि सखीसहेलियां भी छूट गईं उस की. या यों कहें कि जानबूझ कर सब ने उस से नाता तोड़ लिया. बस, जिंदगी कट रही थी उस की.

सविता को उदास और सहमा हुआ देख कर हंसनेमुसकराने वाला बैजू भी उदास हो जाता था. वह सविता को खुश रखना चाहता था, पर उसे देखते ही वह ऐसे चिल्लाने लगती थी, जैसे कोई भूत देख लिया हो. इस घर में रह कर न तो वह एक बहू का फर्ज निभा रही थी और न ही पत्नी धर्म. उस ने शादी के दूसरे दिन ही अपनी मांग का सिंदूर पोंछ लिया था.

शादी हुए कई महीने बीत चुके थे, पर इतने महीनों में न तो सविता के मातापिता ने उस की कोई खैरखबर ली और न ही कभी उस से मिलने आए. क्याक्या सोच रखा था सविता ने अपने भविष्य को ले कर, पर पलभर में सब चकनाचूर हो गया था.

‘शादी के इतने महीनों के बाद भी भले ही सविता ने प्यार से मेरी तरफ एक बार भी न देखा हो, पर पत्नी तो वह मेरी ही है न. और यही बात मेरे लिए काफी है,’ यही सोचसोच कर बैजू खुश हो उठता था.

एक दिन न तो विमला घर पर थी और न ही बैजू. तभी अमित वहां आ धमका. उसे यों अचानक अपने घर आया देख सविता हैरान रह गई. वह गुस्से से तमतमाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की?’’

अमित कहने लगा, ‘‘अब इतना भी क्या गुस्सा? मैं तो यह देखने आया था कि तुम बैजू के साथ कितनी खुश हो? वैसे, तुम मुझे शाबाशी दे सकती हो. अरे, ऐसे क्या देख रही हो? सच ही तो कह रहा हूं कि आज मेरी वजह से ही तुम यहां इस घर में हो.’’

सविता हैरानी से बोली, ‘‘तुम्हारी वजह से… क्या मतलब?’’

‘‘अरे, मैं ने ही तो लड़के वालों को हमारे संबंधों के बारे में बताया था और यह भी कि तुम मेरे बच्चे की मां भी बनने वाली हो. सही नहीं किया क्या मैं ने?’’ अमित बोला.

सविता यह सुन कर हैरान रह गई. वह बोली, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया? बोलो न? जानते हो, सिर्फ तुम्हारी वजह से आज मेरी जिंदगी नरक बन चुकी है. क्या बिगाड़ा था मैं ने तुम्हारा?

‘‘बड़ा याद आता है मुझे तेरा यह गोरा बदन,’’ सविता के बदन पर अपना हाथ फेरते हुए अमित कहने लगा, तो वह दूर हट गई.

अमित बोला, ‘‘सुनो, हमारे बीच जैसा पहले चल रहा था, चलने दो.’’

‘‘मतलब,’’ सविता ने पूछा.

‘‘हमारा जिस्मानी संबंध और क्या. मैं जानता हूं कि तुम मुझ से नाराज हो, पर मैं हर लड़की से शादी तो नहीं कर सकता न?’’ अमित बड़ी बेशर्मी से बोला.

‘‘मतलब, तुम्हारा संबंध कइयों के साथ रह चुका है?’’

‘‘छोड़ो वे सब पुरानी बातें. चलो, फिर से हम जिंदगी के मजे लेते हैं. वैसे भी अब तो तुम्हारी शादी हो चुकी है, इसलिए किसी को हम पर शक भी नहीं होगा,’’ कहता हुआ हद पार कर रहा था अमित.

सविता ने अमित के गाल पर एक जोर का तमाचा दे मारा और कहने लगी, ‘‘क्या तुम ने मुझे धंधे वाली समझ रखा है. माना कि मुझ से गलती हो गई तुम्हें पहचानने में, पर मैं ने तुम से प्यार किया था और तुम ने क्या किया?

‘‘अरे, तुम से अच्छा तो बैजू निकला, क्योंकि उस ने मुझे और मेरे परिवार को दुनिया की रुसवाइयों से बचाया. जाओ यहां से, निकल जाओ मेरे घर से, नहीं तो मैं पुलिस को बुलाती हूं,’’ कह कर सविता घर से बाहर जाने लगी कि तभी अमित ने उस का हाथ अपनी तरफ जोर से खींचा.

‘‘तेरी यह मजाल कि तू मुझ पर हाथ उठाए. पुलिस को बुलाएगी… अभी बताता हूं,’’ कह कर उस ने सविता को जमीन पर पटक दिया और खुद उस के ऊपर चढ़ गया.

खुद को लाचार पा कर सविता डर गई. उस ने अमित की पकड़ से खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की, पर हार गई. मिन्नतें करते हुए वह कहने लगी, ‘‘मुझे छोड़ दो. ऐसा मत करो…’’

पर अमित तो अब हैवानियत पर उतारू हो चुका था. तभी अपनी पीठ पर भारीभरकम मुक्का पड़ने से वह चौंक उठा. पलट कर देखा, तो सामने बैजू खड़ा था.

‘‘तू…’’ बैजू बोला.

अमित हंसते हुए कहने लगा, ‘‘नामर्द कहीं के… चल हट.’’

इतना कह कर वह फिर सविता की तरफ लपका. इस बार बैजू ने उस के मुंह पर एक ऐसा जोर का मुक्का मारा कि उस का होंठ फट गया और खून निकल आया.

अपने बहते खून को देख अमित तमतमा गया और बोला, ‘‘तेरी इतनी मजाल कि तू मुझे मारे,’’ कह कर उस ने अपनी पिस्तौल निकाल ली और तान दी सविता पर.

अमित बोला, ‘‘आज तो इस के साथ मैं ही अपनी रातें रंगीन करूंगा.’’

पिस्तौल देख कर सविता की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

बैजू भी दंग रह गया. वह कुछ देर रुका, फिर फुरती से यह कह कह अमित की तरफ लपका, ‘‘तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी पत्नी पर गोली चलाए…’’पर तब तक तो गोली पिस्तौल से निकल चुकी थी, जो बैजू के पेट में जा लगी.

बैजू के घर लड़ाईझगड़ा होते देख कर शायद किसी ने पुलिस को बुला लिया था. अमित वहां से भागता, उस से पहले ही वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया.खून से लथपथ बैजू को तुरंत गांव वालों ने अस्पताल पहुंचाया. घंटों आपरेशन चला.

डाक्टर ने कहा, ‘‘गोली तो निकाल दी गई है, लेकिन जब तक मरीज को होश नहीं आ जाता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

विमला का रोरो कर बुरा हाल था. गांव की औरतें उसे हिम्मत दे रही थीं, पर वे यह भी बोलने से नहीं चूक रही थीं कि बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सविता है.

‘सच ही तो कह रहे हैं सब. बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही हूं. जिस बैजू से मैं हमेशा नफरत करती रही, आज उसी ने अपनी जान पर खेल कर मेरी जान बचाई,’ अपने मन में ही बातें कर रही थी सविता.

तभी नर्स ने आ कर बताया कि बैजू को होश आ गया है. बैजू के पास जाते देख विमला ने सविता का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, ‘‘नहीं, तुम अंदर नहीं जाओगी. आज तुम्हारी वजह से ही मेरा बेटा यहां पड़ा है. तू मेरे बेटे के लिए काला साया है. गलती हो गई मुझ से, जो मैं ने तुझे अपने बेटे के लिए चुना…’’

‘‘आप सविता हैं न?’’ तभी नर्स ने आ कर पूछा.डबडबाई आंखों से वह बोली, ‘‘जी, मैं ही हूं.’’

‘‘अंदर जाइए, मरीज आप को पूछ रहे हैं.’’

नर्स के कहने से सविता चली तो गई, पर सास विमला के डर से वह दूर खड़ी बैजू को देखने लगी. उस की ऐसी हालत देख वह रो पड़ी. बैजू की नजरें, जो कब से सविता को ही ढूंढ़ रही थीं, देखते ही इशारों से उसे अपने पास बुलाया और धीरे से बोला, ‘‘कैसी हो सविता?’’

अपने आंसू पोंछते हुए सविता कह लगी, ‘‘क्यों तुम ने मेरी खातिर खुद को जोखिम में डाला बैजू? मर जाने दिया होता मुझे. बोलो न, किस लिए मुझे बचाया?’’ कह कर वह वहां से जाने को पलटी ही थी कि बैजू ने उस का हाथ पकड़ लिया और बड़े गौर से उस की मांग में लगे सिंदूर को देखने लगा.

‘‘हां बैजू, यह सिंदूर मैं ने तुम्हारे ही नाम का लगाया है. आज से मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी हूं,’’ कह कर वह बैजू से लिपट गई.

विदाई: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

Story in hindi

सफर : जिस्म का मजा और रंगीन नोटों की सजा

रात के ठीक 10 बजे ‘झेलम ऐक्सप्रैस’ ट्रेन ने जम्मूतवी से रेंगना शुरू किया, तो पलभर में रफ्तार पकड़ ली. कंपार्टमैंट में सभी मुसाफिर अपना सामान रख आराम कर रहे थे. गीता ने भी लोअर बर्थ पर अपनी कमर टिकाई. कमर टिकाते ही उस ने देखा कि सामने वाली बर्थ पर जो साहब अभी तक बैठे थे, मुंह खुला रख कर खर्राटों भरी गहरी नींद सो चुके थे. गीता की नजर उन साहब के ऊपर वाली बर्थ पर गई तो देखा कि एक नौजवान अपनी छाती पर मोबाइल फोन रख कानों में ईयरफोन लगाए उस में बज रहे गानों के संग जुगलबंदी में मस्त था.

गीता को नींद नहीं आ रही थी. उस के ऊपर वाली बर्थ पर कोई हलचल नहीं थी. उस पर सामान रखा हुआ था और सामान वाला उसी कंपार्टमैंट के आखिरी छोर पर अपने दोस्त के साथ कारोबार की बातें कर रहा था.

रात गुजर गई. गीता लेटी रही, मगर सो नहीं पाई थी. सुबह के 5 बज चुके थे. अपनी ही दुनिया में मस्त वह नौजवान उठा और वाशरूम की तरफ चल दिया.

जब वह लौटा, तो उस का चेहरा एकदम तरोताजा दिख रहा था. तब तक गाड़ी अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन पर रुक चुकी थी. वह नौजवान छोलेकुलचे ले कर आया और फिर उस ने देखते ही देखते नाश्ता कर लिया.

सामने वाली बर्थ पर लेटे साहब हरकत में आने शुरू हुए. उन्होंने गीता से पूछा, ‘‘मैडम, यह गाड़ी कौन से स्टेशन पर रुकी हुई है?’’

गीता ने उन के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी, अंबाला स्टेशन पर.’’

तभी ट्रेन ने रेंगना शुरू कर दिया. उन साहब ने सवाल किया, ‘‘क्या कोई चाय वाला नहीं आया अब तक?’’

गीता बोली, ‘‘जी, बहुत आए थे, मगर आप सो रहे थे.’’

वे साहब चाय की तलब लिए फिर से अपनी बर्थ पर आलू की तरह लुढ़क गए. थोड़ी देर बाद उन का मुंह खुला और वे फिर से खर्राटे लेने लगे.

गीता ने सामने ऊपर वाली बर्थ पर उस नौजवान पर निगाह डाली तो देखा कि वह कोई उपन्यास पढ़ रहा था.

न जाने क्यों गीता की निगाहों को वह अच्छा लगने लगा था. उस का डीलडौल, कदकाठी, हेयरकट और उस के दैनिक रूटीन से उस ने अंदाजा लगा लिया था कि यह तो पक्का फौजी है.

इस के बाद गीता वाशरूम चली गई. थोड़ी देर बाद वह होंठों को और गुलाबी कर, आंखों को कजरारी कर, चेहरे को चमका कर व जुल्फों को संवार कर जब वापस अपनी बर्थ की ओर लौटने लगी, तो उस की नजरें दूर से ही उस नौजवान पर जा टिकीं. वह उपन्यास के पात्रों में खोया हुआ था.

गीता ने ठोकर लगने की सी ऐक्टिंग कर उस का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की, मगर सब बेकार.

गीता खिसियाई सी खिड़की के पास आ कर बैठ गई और बाहर झांकने लगी.

तकरीबन 8 बजे गाड़ी पानीपत स्टेशन पर रुकी, तो गीता ने अपनी नजरें नौजवान पर टिका कर सामने वाले साहब को पुकारते हुए कहा, ‘‘जी उठिए, स्टेशन पर गाड़ी रुकी है… चायनाश्ता सब है यहां.’’

‘‘ओके थैंक्यू, चाय पीने का बड़ा मन है मेरा,’’ उन साहब ने कहा.

‘‘जी, इसीलिए तो उठाया है. मैं जानती हूं कि आप चाय की तलब के साथ ही सो गए थे,’’ गीता बोली.

चाय वाला जैसे ही खिड़की पर आया, तो उन साहब ने झट से चाय का कप लिया और अपनी जेब से पैसे निकाल कर चाय वाले को थमा दिए. इस के तुरंत बाद आलूपूरी वाले ने खिड़की पर दस्तक दी, तो पलभर में उन साहब ने आलूपूरी अपने हाथों में थाम ली.

गीता की नजर दोबारा ऊपर वाली बर्थ पर गई, तो उस ने देखा कि वह नौजवान अभी भी उपन्यास पढ़ने में डूबा हुआ था.

चायनाश्ते से निबट कर जब उन साहब को फुरसत मिली, तो उन्होंने गीता को ‘थैंक्यू’ कहा. तभी ऊपर बैठे उस नौजवान ने नीचे झांका तो देखा कि साहब नाश्ता कर चुके थे.

उस नौजवान ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘सर, अगर आप बैठ रहे हैं, तो मैं अपनी बर्थ नीचे कर लूं क्या?’’

‘‘हांहां क्यों नहीं.’’

थोड़ी देर बाद वह नौजवान उन साहब की बगल में, तो गीता के ठीक सामने बैठ चुका था.

गीता अपनी बर्थ पर बैठीबैठी खिड़की से बाहर झांकतेझांकते अपनी नजरें उस नौजवान की नजरों से मिलाने की कोशिश करने लगी.

लेकिन वह नौजवान तो उसे देख ही नहीं रहा था. वह सोचने लगी, ‘ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि मुझे कोई देखे भी न. अगर कोई मेरी बगल से भी गुजरता है, तो वह पलट कर मुझे जरूर देखता है.’

उस नौजवान पर टकटकी लगाए गीता सोच रही थी कि तभी उस ने पानी की बोतल गीता की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैडम, पानी पी लीजिए.’’

यह सुन कर गीता के गंभीर चेहरे पर एक मुसकान उभरी. उस की ओर देखतेदेखते गीता पानी की बोतल अपने हाथ में थाम बैठी और दोचार घूंट गटागट पी भी गई.

पानी की बोतल उसे वापस देते हुए गीता ने अपने कयास को पुख्ता करने के लिए पूछ लिया, ‘‘आप फौजी हैं न?’’

‘‘जी…’’

गीता ने उस से दोबारा कहा, ‘‘बुरा मत मानना प्लीज… मैं ने किसी से सुना था कि फौजी दिमाग से पैदल होते हैं… जहां लड़की देखी नहीं कि कभी उन के सिर में तो कभी बदन में खुजली होने लगती है और फिर वे पागलों की तरह लड़कियों को देखने लगते हैं. पर आप ने यह साबित कर दिया कि सभी फौजी एकजैसे नहीं होते.’’

‘‘हां, पर फौजियों को ठीक रहने कौन देता है… जहां फौजी ऐसी हरकत नहीं करते, वहां लड़कियां उन के साथ ऐसा ही करने लगती हैं. आखिर कोई कहां तक बचे?’’ उस नौजवान की यह बात सीधा गीता के दिल को जा कर लगी.

बातचीत का सिलसिला चला, तो उस नौजवान ने पूछ लिया, ‘‘क्या नाम है आप का?’’

‘‘गीता.’’

‘‘क्या करती हैं आप?’’

‘‘जी, मैं बैंक में हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ वह फौजी बोला.

गीता ने पूछा, ‘‘और आप का नाम?’’

‘‘मेरा नाम प्रिंस है.’’

‘‘प्रिंस… वह भी सेना में… पर कौन रहने देता होगा आप को वहां प्रिंस की तरह…’’

इस बात पर वे दोनों हंस दिए थे, हंसीठहाकों के बीच उन्हें पता ही नहीं चला कि टे्रन कब नई दिल्ली स्टेशन पर आ कर रुक गई.

सवारियों ने उतरना शुरू किया, तो साथ ही साथ नई सवारियों का चढ़ना भी जारी था.

तभी एक बंगाली जोड़ा अपना बर्थ नंबर ढूंढ़तेढूंढ़ते वहां आ पहुंचा. अधेड़ उम्र के उस बंगाली जोड़े ने अपना सामान सीट के नीचे रखा और वे दोनों गीता व प्रिंस के साथ ही आ बैठे.

दिनभर की प्यारभरी बातों के सिलसिले के साथ ही एक के बाद एक स्टेशन भी पीछे छूटते रहे और पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई. पैंट्री वाले आए, खाने का और्डर बुक किया. कुछ देर बाद रात का भोजन सब के सामने था.

खाना खाने के बाद प्रिंस ने टूथब्रश किया, तो गीता ने भी उस की देखादेखी यह काम कर डाला. सभी सुस्ताने के मूड में आए, तो सब ने अपनीअपनी बर्थ संभालनी शुरू कर दी.

बंगाली जोड़ा कुछ परेशान सा इधरउधर ताकनेझांकने लगा.

प्रिंस ने उन्हें टोकते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है जी?’’

बंगाली आदमी ने अपना दर्द बयां किया, ‘‘क्या बताएं बेटा. एक तो हम शरीर से भारी, उस पर उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि जहां हमारे लिए ऊपर वाली बर्थ पर चढ़नाउतरना किसी किले को फतेह करने से कम नहीं है. कहीं इस चढ़नेउतरने में फिसल कर गिर गए, तो 2-4 हड्डियां तो टूट ही जाएंगी.’’

इतने में बंगाली औरत की याचक निगाहें गीता के छरहरे बदन पर जा पड़ीं. उन्होंने विनती करते हुए कहा, ‘‘बेटी, क्या आप हमारी मदद कर सकती हैं?’’

गीता हैरानी से उन की ओर देखते हुए बोली, ‘‘कैसे आंटी?’’

‘‘आप बर्थ ऐक्सचेंज कर लीजिए प्लीज. आप जवान लोग हो, ऊपर की बर्थ पर चढ़उतर सकते हो.’’

‘‘ठीक है आंटी. मैं ऊपर वाली बर्थ पर चली जाती हूं, आप मेरी बर्थ पर सो जाइए,’’ गीता ने कहा.

गीता पायदान में पैर अटका कर प्रिंस के सामने ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गई, तो बंगाली जोड़ा भी नीचे वाली बर्थ पर लेट गया.

प्रिंस, जो पहले से ही अपनी बर्थ पर मौजूद था, अब तक उपन्यास के पन्नों में डूब चुका था.

गीता ने ऊंघते हुए उस की तरफ देखा और एक बदनतोड़ अंगड़ाई लेते हुए अपनी छाती को उभारा, तो फौजी की नजरें उपन्यास से हट कर उस के बदन पर आ ठहरीं. उपन्यास हाथ से छूट कर नीचे गिर गया.

गीता के चेहरे पर मादकता में लिपटी जीत की मुसकान तैर गई. उस ने नीचे गिरे हुए उपन्यास को देखा तो उस के उभार झांकने लगे. फौजी की निगाहें तो मानो वहीं पर अटक कर रह गईं.

फौजी ने गीता की ओर देख कर कहा, ‘‘बुरा मत मानना, आप की हंसी तो बेहद खूबसूरत है.’’

गीता ने भी जवाब में कहा, ‘‘आप का चालचलन बहुत अच्छा है… मैं कल से देख रही हूं.’’

यह बात सुन कर प्रिंस हंस पड़ा और बोला, ‘‘आर्मी वालों का चालचलन बिगड़ने कौन देता है मैडम? कैद में रहते हैं. कोई हमें खुला छोड़ कर तो देखे.’’

गीता मुसकराते हुए कहने लगी, ‘‘अब चालचलन कुछ ठीक नहीं लग रहा है आप का.’’

‘‘कहां से ठीक रहता… आप जो कल रात से मुझ पर डोरे डालती आ रही हैं. हम कंट्रोल करना जानते हैं, तो इस का मतलब यह तो नहीं हुआ कि किसी हुस्नपरी को देख कर हमारा दिल ही नहीं धड़कता. हम बात मौका देख कर करते हैं मैडम.’’

गीता ने उस की बातों में दिलचस्पी लेते हुए पूछा, ‘‘गाने के शौकीन हो बाबू, फौज में क्यों चले गए?’’

प्रिंस गंभीर हो गया, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘एक लड़की के चक्कर में फौजी बन गया. उसे आर्मी वाले पसंद थे.’’

‘‘ओह… अब तो वह लड़की आप की पत्नी होगी?’’

‘‘न… जब मैं ट्रेनिंग कर के गांव लौटा, तब तक उस ने किसी कारोबारी से शादी कर ली थी. मगर मैं फौजी हो कर रह गया.’’

‘‘बहुत दुख हुआ होगा उस के ऐसा करने पर?’’

‘‘हां, पर क्या करता? जिंदगी है ही चलने का नाम. कभी दोस्तों ने मुझ को, तो कभी मैं ने खुद को समझा लिया कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है.’’

फिर गीता की ओर आंख मार कर प्रिंस ने हलके से मुसकराते हुए कहा, ‘‘बस, अब मैं कुछ अच्छा होने का इंतजार कर रहा हूं.’’

‘‘क्या बात है साहब… मुझे आप की यही अदा तो बड़ी पसंद है.’’

‘‘मुझ से दोस्ती करोगी?’’

‘‘वह तो हो ही गई है अब… इस में कहने की क्या बात है?’’

फिर उन दोनों ने एकदूसरे से हाथ मिलाया, तो गीता ने प्रिंस की हथेली में अपनी उंगलियों से सरसराहट सी पैदा कर दी. उस सरसराहट ने प्रिंस के तनमन में खलबली मचा दी थी. दोनों एकदूजे की आंखों में डूबने लगे.

रात अपने शबाब पर चढ़नी शुरू हो गई थी. वे दोनों कब एक ही बर्थ पर आ गए, किसी को भनक तक न हुई.

गीता के बदन से आ रही गुलाब के इत्र की भीनीभीनी खुशबू में प्रिंस बहकता चला गया.

गीता ने थोड़ी ढील दी, तो प्रिंस के हाथ उस के बदन से खेलने लगे. गीता ने कुछ नहीं कहा, तो प्रिंस ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया.

थोड़ी ही देर में वे दो बदन एक जान हो गए. चलती टे्रन में उन के प्यार का सफर अब अपनी हद पर था. फिर इसी सफर में वे दोनों हांफतेहांफते नींद के आगोश में समा गए.

सुबह के तकरीबन 3 बजे गाड़ी ने अपनी रफ्तार कम की, तो गीता की नींद खुल गई. उस ने अपनेआप को प्रिंस की बांहों से आजाद कर कपड़े पहने. उस का खंडवा स्टेशन आने वाला था.

गीता ने एक कागज पर प्रिंस के लिए कुछ लिखा और उस के सिरहाने रख दिया. फिर कुछ सोचा और जल्दबाजी में एक और पुरजे पर कुछ लिखा और पर्स निकाल कर उस पुरजे को पर्स में रखा और पैंट की जेब के हवाले किया.

फिर गीता ने अपना सामान समेटा और बिना आहट किए ही प्लेटफार्म पर उतर गई.

रात के प्यार में थके प्रिंस की नींद सुबह के 5 बजे खुली, तो उस ने अपनी बगल में गीता को टटोला. वह वहां नहीं थी और न ही उस का सामान.

प्रिंस हैरानपरेशान सा इधरउधर ताकने लगा. गीता का कहीं नामोनिशान न मिलने पर उस ने खुद को ठीकठाक करने के लिए सिरहाने रखी अपनी शर्ट उठाई, तो उसे उस के नीचे एक चिट्ठी मिली. लिखा था:

‘डियर,

‘आप बहुत अच्छे फौजी हैं. देर से बहकते हो जरा… पर बहकते जरूर हो. सफर रोमांचक गुजरा. आप की बात ही कुछ और थी… फिर कभी दोबारा आप से इसी तरह मुलाकात हो.

‘लव यू डियर, गुड बाय.’

चिट्ठी पढ़ कर प्रिंस हैरान हुआ. उस भोलीभाली दिखने वाली मासूम बला के बारे में सोचतेसोचते उस के माथे पर सिलवटें पड़ने लगीं, तभी चाय वाला वहां आया.

‘‘अरे भैया, एक कप चाय दे दो,’’ कहते हुए प्रिंस ने अपना पर्स निकाला, तो उस में से एक और पुरजा निकला, जिस पर लिखा हुआ था:

‘आप का पर्स रंगीन नोटों की गरमी से लबालब था. दिल आ गया… सो, निशानी के तौर पर सभी रंगीनियां साथ लिए जा रही हूं… उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.’

प्रिंस के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘चाय के लिए चिल्लर तो छोड़ जाती…पर फौजी पर तरस खाता कौन है…’’

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