Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 3

जीवन मंथर गति से चल रहा था. सीमा ने एम.बी.ए. कर लिया. अपनी योग्यता के आधार पर उसे बैंक में नौकरी मिल गई. सीमा ने अपनी पहली तनख्वाह से परिवार के हर सदस्य को उपहार दिए. उस में सब से महंगा उपहार हीरों का लाकेट निधि के लिए खरीदा था.

निधि नानुकुर करती रही. अब भी बहन के अपनापन को उस का एहसान समझ रही थी. पर सीमा दृढ़संकल्प थी. किसी भी तरह  से वह निधि के दिमाग से यह गलतफहमी निकालना चाह रही थी कि घर के सदस्य उसे प्यार नहीं करते.

निधि अब नन्हे अभिनव की मां बन गई थी. राहुल के पास अब भी नौकरी नहीं थी. उधर रिटायर ससुर को बेटेबहू और पोते का खर्च बोझ सा लगने लगा तो गृहकलह बढ़ गया. आएदिन की चिखचिख से निधि की तबीयत गिरने लगी. डाक्टरों से परामर्श किया गया तो हाई ब्लड प्रेशर निकला. ससुर ने पूरी तरह से हाथ खींचा तो रोटी के भी लाले पड़ने लगे.

शशांक ने सुना तो माथा पीट कर कहने लगे कि कितना समझाया था. कमाऊ लड़के से ब्याह करो पर नहीं. अब भुगतो.

निधि उन लोगों में से नहीं थी जो दूसरों की बात चुपचाप सुन लेते हैं. तड़ातड़ जवाब देती चली गई.

‘दुखी क्यों हो रहे हैं आप लोग? आप की कोखजाई बेटी तो सुखी है न? मुझे तो फुटपाथ से उठा कर लाए थे न? नसीब ने फुटपाथ पर ला कर पटक भी दिया.’

सीमा बारबार बहन का पक्ष लेती. उसे शांत करने का प्रयास भी करती पर निधि चुप क्यों होती और जब उस का क्रोध शांत हुआ तो वह जोरजोर से रोने लगी.

सीमा से बहन की ऐसी दशा देखी नहीं जा रही थी. दौड़ भाग कर के उस ने गारंटी दी और बैंक से लोन ले कर राहुल को साइबर कैफे खुलवा दिया. फिर निधि से विनम्र स्वर में बोली, ‘जिंदगी की राहें इतनी कठिन नहीं जो कोई रास्ता ही न सुझा सके. अपना रास्ता खुद ढूंढ़ने का प्रयास कीजिए, दीदी. आप ने एम.ए. किया है और कुछ नहीं तो ट्यूशन कर के आप भी कुछ कमा सकती हैं.’

सीमा का ब्याह हो गया. दिव्यांश बैंक में मैनेजर था. सुखद गृहस्थी और 2 बेटों के साथ सुखसुविधा के सभी साधन दिए थे उसे दिव्यांश ने. जिंदगी से उसे कोई शिकायत नहीं थी.

उधर मानसिक तनाव के चलते निधि के दोनों गुर्दों ने लगभग काम करना बंद कर दिया था. जिंदगी डायलिसिस के सहारे चलने लगी तो डाक्टर गुर्दा प्रत्यारोपण करवाने पर जोर देने लगे.

निधि की जान को खतरा था, यह जान कर सीमा ने कहा कि परिवार में इतने लोग हैं कोई भी दीदी को अपना एक गुर्दा दे कर उन्हें नया जीवन दे सकता है.

सभी सदस्यों के टेस्ट हुए पर सीमा के ही टिशू मैच कर पाए. वो सहर्ष गुर्दा देने के लिए तैयार हो गई. यद्यपि घर के ही कुछ सदस्य इस का विरोध कर रहे थे पर सीमा अपने फैसले पर अडिग रही.

अस्पताल के पलंग पर लेटी अपनी दोनों बेटियों को देख अरु का मन रो उठा था. बारबार निधि के शब्द कानों से टकरा रहे थे. वे शब्द चाहे पीड़ा दें या विस्मित कर दें, सहने तो थे ही.

मेरी निगाहें बरबस ही बाहर का दृश्य देखने लगीं. पश्चात्ताप की आग में जलती अरु और शशांक आई.सी.यू. के बाहर कई बार चक्कर काट चुके थे. बारबार अरु रोते हुए कहती, ‘कैसी ग्रंथि पाल ली इस लड़की ने. कितनी बीमारियां घर कर गईं इस के शरीर में?’

उधर, अपनी ही सोच में डूबतीउतराती मैं सोच रही थी कि बरसों पुरानी कड़वाहटें अब भी निधि के मन से धुल जाएं तो रिश्ते सहज हो उठेंगे.

होश में आने पर बड़ी कठिनाई से निधि ने पलकें उठाईं तो उन बेजान आंखों में मुझे मोह और मिठास की एक झलक दिखाई दी. घर के सब लोगों को अपने और सीमा के प्रति चिंतित देख कर उसे पहली बार महसूस हुआ कि भावनाओं, प्यार और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. अरु ने सांत्वना के लिए सिर हिलाया तो रोती निधि, मां के सीने से जा लगी.

‘मां, मुझे सीमा से मिलना है.’

एक माह बाद सीमा और निधि जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद ले रही थीं. सभी के चेहरे पर खुशी के भाव देख मुझे ऐसा लगा कि टूटते तार अब जुड़ गए हैं. हंसी की एक किरण बस, फूटने ही वाली है.

विस्मृत होता अतीत – भाग 3: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है…’’ मैं रोष भरे स्वर में बोली.

‘‘सुनो विभा, अगर अपने इस डर से बाहर निकलना चाहती हो तो अपनी फोटो जरूर अपलोड करो,’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से कहा.

वे वाकई सच बोल रहे थे. मैं ने कुछ सोच कर अपनी फोटो अपलोड कर दी और मुझे जो तारीफ भरी कमैंट मिले उन्होंने मुझे अपने अतीत से बाहर खींच लिया. वास्तव में मैं उस एक गुनाह का बोझ ढो रही थी जो मैं ने किया ही नहीं था. सच पूछा जाए तो यह समाज की खींची हुई लकीर है जिस में मर्द गुनाह कर के भी बचा रहता है और उस के किए की सजा अकसर बेटियां ही भुगतती हैं. उन्हें बचपन से शिक्षा भी ऐसी दी जाती है कि वे मानसिक और शारीरिक रूप से अपने अनकिए गुनाहों का दोषी खुद को ही मान लिया करती हैं.

मेरे साथ तो फिर भी राजीव थे जिन्होंने मुझे अपने इस अनचाहे अतीत से छुटकारा दिलावाने में मदद की, पर और न जाने कितनी…? मैं ने अपनेआप को अपनी इस सोच से बाहर निकाला.

मैं ने राजीव को कवि सम्मेलन में शिरकत होने वाले इनविटेशन के बारे में बताया तो वे खुशी से उछल पड़े और मुझे इस के लिए ट्रीट देने को कहा. हम ने आपस में मिल कर तय किया कि शहर में नए खुले रैस्टोरैंट में डिनर किया जाए. इन्होंने एक टेबल बुक कर ली. डिनर के लिए जब मैं इन की पसंद की साड़ी पहन कर आई तो इन्होंने धीरे से सीटी बजाई और कहा, ‘‘आज तो गजब ढा रही हो डार्लिंग… क्यों न आज की रात…’’ मैं बेतरह लजा गई.

रैस्टोरैंट बेहद शानदार था. राजीव कार पार्क करने लगे और मैं बच्चों को ले कर जैसे ही रैस्टोरैंट में दाखिल होने लगी तो दरवाजे पर मौजूद वरदीधारी दरबान को देख कर मैं ठिठक गई. राहुल था जो सैल्यूट मार रहा था. मेरी निगाहों में आश्चर्य था और उस का चेहरा मुझे देख कर फीका पड़ गया था. पीछे आ रहे राजीव मुझे दरवाजे पर रुका हुआ देख कर मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगे तो मैं बिना कुछ बोले अंदर दाखिल हो गई.

अंदर आ कर मैं ने उन्हें सब बताया तो वे पलट कर बाहर चले गए. मैं उन के पीछे लपकी. वे राहुल के पास पहुंच चुके थे और उस का हाथ अपने हाथ में ले कर शेकहैंड करने लगे, ‘‘तुम्हारा बहुतबहुत थैक्स यार… तुम ने जो किया यदि वह न करते तो (मेरी ओर इशारा किया) विभा मेरे जीवन में नहीं आतीं…’’ उस से बोल कर उसे हक्काबक्का छोड़ कर उलटे पांव रैस्टोरैंट में दाखिल हो गए और मैं अरे… अरे… कर के रह गई. मैं भी चुपचाप आ कर कुरसी पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद दरवाजे की ओर देखा तो वहां राहुल नहीं था. जब खाना खा कर लौट रहे थे तो राजीव ने राहुल की जगह दूसरे दरबान को खड़े देखा. उन से रहा नहीं गया तो उन्होंने उस के बारे में पूछ ही लिया तो पता चला कि वह नौकरी छोड़ कर जा चुका था.

उजली परछाइयां- भाग 3: क्या अंबर और धरा का मिलन हुआ?

उस के बाद के अब तक के साल कैसे बीते, यह धरा और अंबर दोनों ही जानते हैं. दूर रह कर भी न तो दूर रह सके, न साथ रह सके दोनों. वे महीनों के अंतराल में मिलते, किट्टू के बड़े होने और साथ जीने के सपने देखते और एकदूसरे की हिम्मत बढ़ाते. लेकिन कभी उन की नजदीकियां ही जब उन्हें कमजोर बनातीं तो दोनों खुद ही टूटने भी लगते और फिर संभलते. रिश्तेदारों, पड़ोस, महल्ले वालों सब से क्या कुछ नहीं सुनना और सहना पड़ा था दोनों को. लेकिन, उन्होंने हर पल हर कदम एकदूसरे को सपोर्ट किया था. बस, कभी शादी की बात नहीं की.

धरा के घर वाले कुछ सालों तक शादी के लिए बोलते रहे. लेकिन बाद में उस ने अपने घर वालों को समझा लिया था कि वे जिस इंडस्ट्री में हैं, वहां शादी इतना माने नहीं रखती है और उस के सपने अलग हैं.  इस बीच, उस ने न कभी अंबर और उस के घर वालों का साथ छोड़ा, न किसी और से रिश्ता जोड़ा. वह अंबर से ले कर उस के बेटे किट्टू तक के बारे में सब खबर रखती थी.

‘‘छुट्टी का टाइम हो गया, मैडमजी,’’ चपरासी की आवाज से धरा की तंद्रा टूटी.

कुछ मिनटों बाद किट्टू को आता देख धरा ने उसे पुकारा, तो किट्टू के चेहरे पर गुस्से और नफरत के भाव उभर आए. फेसबुक पर देखा है उस ने धरा को. यही है वह जिस से शादी करने के लिए पापा हमें छोड़ कर चले गए, ऐसा ही कुछ सुनता आया है वह इतने सालों से मां और नानी से और जब बड़ा हुआ तो उस की नफरत और गुस्सा भी उतना ही बढ़ता गया. अंबर से कभीकभार फोन पर बात होती, तो, बस, हांहूं करता रहता था.

‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’ किट्टू गुस्से में घूरते हुए कहा.

‘‘जरूरी बात करनी है, तुम्हारे पापा से रिलेटेड है,’’ धरा ने शांत स्वर में कहा. 2 दिनों बाद तुम्हारे पापा का बर्थडे है, मैं चाहती हूं कि तुम उस दिन उन के पास रहो…’’

‘‘और मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूं?’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही किट्टू ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘क्योंकि वे भी इतने सालों से तुम्हें उतना ही मिस कर रहे हैं जितना कि तुम करते हो. यह उन की लाइफ का बैस्ट गिफ्ट होगा क्योंकि तुम उन के लिए सब से बढ़ कर हो,’’ धरा ने किट्टू से कहा, ‘‘क्या तुम मेरे साथ कल देहरादून चलोगे?’’

किट्टू का कोल्डड्रिंक जैसा ठंडा स्वर उभरा, ‘‘इतना ही कीमती हूं तो मुझे वे छोड़ कर क्यों गए थे? मैं उन से नहीं मिलना चाहता. वे कभी मेरे बर्थडे पर नहीं आए…या…या फिर तुम्हारी वजह से नहीं आए. मुझे तुम से बात ही नहीं करनी. तुम गंदी औरत हो.’’ अपना बैग उठाते हुए लगभग सुबकने वाला था किट्टू.

‘‘तुम जाना चाहते हो तो चले जाना लेकिन, बस, एक बार ये देख लो,’’ कह कर धरा ने सारे पुराने मैसेज और चैट के प्रिंट किट्टू के सामने रख दिए जिन में घूमफिर कर एक ही तरह के शब्द थे अंबर के कि ‘किट्टू से बात करा दो,’ या ‘मैं मिलने आना चाहता हूं’ या ‘डाइवोर्स मत दो.’ और रोशनी के भी शब्द थे, ‘मैं तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकती,’ या ‘शादी जल्दबाजी में कर ली लेकिन तुम्हारे साथ और नहीं रहना चाहती,’ ‘किट्टू से तुम्हें नहीं मिलने दूंगी…’ ऐसा ही और भी बहुतकुछ था.

किट्टू की तरफ देखते हुए धरा ने कहा, ‘‘मेरे पास कौल रिकौर्डिंग्स भी हैं. अगर तुम सुनना चाहो तो. तुम्हारे पापा कभी नहीं चाहते कि तुम अपनी मां के बारे में थोड़ा सा भी बुरा सोचो या सच जान कर तुम्हारा दिल दुखे. इसलिए आज तक उन्होंने तुम्हें सच नहीं बताया. लेकिन मैं उन्हें इस तरह और घुटता हुआ नहीं देख सकती. और हां, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम ने कभी शादी नहीं की. जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पापा को लगता था कि शादी करने पर तुम उन्हें और भी गलत समझोगे.  क्या अब भी तुम मेरे साथ कल देहरादून नहीं चलोगे?’’ यह कह कर धरा ने हौले से किट्टू के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘चलो, चल कर मम्मी को बोलते हैं कि पैकिंग कर दें,’’ किट्टू को जैसे अपनी ही आवाज अजनबी लगी.

जब धरा के साथ किट्टू घर पहुंचा तो सभी की आंखें फैल गईं. नानी की तरफ देखते हुए किट्टू ने अपनी मां से कहा, ‘‘मैं पापा के बर्थडे पर धरा के साथ 2-3 दिनों के लिए देहरादून जा रहा हूं, मेरी पैकिंग कर दो.’’

रोशनी और बाकी सब समझ गए थे कि किट्टू अभी किसी की नहीं सुनेगा. सुबह उसे लेने आने का बोल धरा होटल के लिए निकल गई. पूरे रास्ते धरा सोचती रही कि आगे न जाने क्या होगा, किट्टू न जाने कैसे रिऐक्ट करेगा. वह अंबर से कैसे मिलेगा और अब क्या सबकुछ ठीक होगा? सुबह दोनों देहरादून की फ्लाइट में थे. किट्टू ने धरा से कोई बात नहीं की.

अगली सुबह का सूरज अंबर के लिए दुनियाजहान की खुशियां ले कर आया. किट्टू को सामने देख एकबारगी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ और अगले ही पल अंबर ने अपने बेटे को गोद में उठा कर कुछ घुमाया. जैसे वह अभी भी 14 साल का नहीं, बल्कि उस का 4 साल का छोटा सा किट्टू हो. पूरे 9 साल बाद आज वह अपने बच्चे को अपने पास पा कर निहाल था और घर में सभी नम आंखों से बापबेटे के इस मिलन को देख रहे थे.

अंबर का इतने सालों का इंतजार आज पूरा हुआ था, अंबर के साथ आज धरा को भी अपना अधूरापन पूरा लग रहा था. शाम में किट्टू ने बर्थडे केक अपने हाथ से कटवाया था और सब से पहला टुकड़ा अंबर ने किट्टू के मुंह में रखा, तो एक बार फिर अंबर और किट्टू दोनों की आंखें नम हो गईं. तभी किट्टू ने अंबर की बगल में खड़ी धरा को अजीब नजरों से देखा तो वह वहां से जाने लगी. अचानक उसे किट्टू की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा, केक नहीं खिलाओगे धरा आंटी को?’’ और धरा भाग कर उन दोनों से लिपट गई.

अगली सुबह धरा जल्दी ही निकल गई थी. उस ने बताया था कि कोई जरूरी काम है बस जाते हुए 2 मिनट को किट्टू से मिलने आई थी. दोपहर में अंबर को धरा का मैसेज मिला, ‘तुम्हें तुम्हारा किट्टू मिल गया. मैं कल आखिरी बार तुम से उस जगह मिलना चाहती हूं जहां हम ने चांदनी रात में साथ जाने का सपना देखा था.’

अंबर जानता था धरा ने उसे जबलपुर में धुआंधार प्रपात के पास बुलाया है. उस ने पढ़ा था कि शरद पूर्णिमा की रात चांद की रोशनी में प्रकृति धुआंधार में अपना अलौकिक रूप दिखाती है. तब से उस का सपना था कि चांदनी रात में नर्मदा की सफेद दूधिया चट्टानों के बीच तारों की छांव में वह अंबर के साथ वहां हो. अगली शाम में जब अंबर भेड़ाघाट पहुंचा तो किट्टू भी साथ था. वहां उन्हें एक लोकल गाइड इंतजार करता मिला जिस ने बताया कि वह उन लोगों को धुआंधार तक छोड़ने के लिए आया है.

करीब 9 बजे जब अंबर वहां पहुंचा तो धरा दूर खड़ी दिखाई दी. चांद अपने पूरे रूप में खिल आया था और संगमरमर की चट्टानों के बीच धरा, यह प्रकृति,? सब उसे अद्भुत और सुरमई लग रहे थे. वह धरा के पास पहुंचा और उस का हाथ पकड़ कर बेचैनी से बोला, ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ, धरा. मैं नहीं रह सकता तुम्हरे बिना. अब तो सब ठीक हो चुका है. देखो, किट्टू भी तुम से मिलने आया है.’’

धरा ने धीरे से अपना हाथ अंबर के हाथ से छुड़ाया, तो अंबर के चेहरे पर हताशा फैल गई. किट्टू ने धरा की तरफ देखा और दोनों शरारत से मुसकराए. दूर क्षितिज में आसमान के तारे और शहर की लाइट्स एकसाथ झिलमिला रही थीं. तभी धरा ने एक गुलाब निकाला और घुटने पर बैठ कर कहा, ‘‘मुझे भी अपने परिवार का हिस्सा बना लो, अम्बर. क्या अब से रोज सुबह मेरे हाथ की चाय पीना चाहोगे?’’

खुशी और आंसुओं के बीच अंबर ने धरा को जोर से गले लगा लिया था और किट्टू अपने कैमरे से उन की फोटो खींच रहा था.

उन का इतने सालों का इंतजार आज खत्म हुआ था. अंबर के साथसाथ धरा का अधूरापन भी हमेशा के लिए पूरा हो गया था. आज उसे उस का वह क्षितिज मिल गया था जहां अतीत की गहरी परछाइयां वर्तमान का उजाला बन कर जगमगा रही थीं, वह क्षितिज जहां 10 साल के लंबे इंतजार के बाद अंबरधरा भी एक हो गए थे.

बयार बदलाव की- भाग 3 : नीला की खुशियों को किसकी नजर लग गई थी

‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

‘‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

मां की उम्मीद- भाग 2 : क्या कामयाब हो पाया गोपाल

गोपाल डर से कांप रहा था और उस के दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी. पर जैसे ही उन लड़कों के हाथ उस की चोटी पर पहुंचते कि क्लास टीचर आते हुए दिख गए. उन्हें देखते ही सब लड़के अपनीअपनी डैस्क की ओर भाग गए और उस की जान बच गई.

क्लास टीचर ने सब की हाजिरी लगाई और पूछा, ‘‘आज नया लड़का कौन आया है क्लास में?’’

कुछ देर पहले हुई घटना से गोपाल अभी भी डरा हुआ था. डरतेडरते उस ने अपना हाथ उठाया था. मास्टरजी ने अपने मोटे चश्मे को नाक के ऊपर चढ़ाया और उस की ओर कुछ पल ध्यान से देखा, मानो उस का परीक्षण कर रहे हों, फिर बोले, ‘‘गणित में पक्के हो?’’

गोपाल को समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे. मास्टरजी ने एकाएक उस पर सवालों की बौछार कर दी थी, ‘‘खड़े हो जाओ और जल्दीजल्दी बताओ कि 97 और 83 कितना हुआ?’’

गोपाल ने एक पल सोचा और बोला, ‘‘180.’’

‘‘सोलह सत्ते कितना?’’

‘‘एक सौ बारह,’’ गोपाल ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘तेरह का पहाड़ा बोलो,’’ टीचर ने आगे कहा.

‘‘तेरह एकम तेरह,

तरह दूनी छब्बीस, तेरह तिया उनतालीस… तेरह नम एक सौ सत्रह, तेरह धाम एक सौ तीस,’’ गोपाल एक ही सांस में तेरह का पहाड़ा पढ़ गया.

‘‘उन्नीस का पहाड़ा आता है?’’

‘‘जी आता है. सुनाऊं क्या?’’ गोपाल का आत्मविश्वास अब बढ़ रहा था.

‘‘नहीं रहने दो,’’ टीचर की आवाज अब कुछ नरम हो गई थी.

‘‘तुम्हें पहाड़े किस ने सिखाए?’’

‘‘मां ने घर पर ही सिखाए हैं,’’ गोपाल ने दबी आवाज में जवाब दिया था.

‘‘तुम्हारी मां कितनी पढ़ीलिखी हैं?’’ मास्टरजी की आवाज में अविश्वास था.

‘‘नहीं गुरुजी, मां पढ़ीलिखी नहीं हैं.  उन्होंने तो मुझे सिखाने के लिए मेरे बड़े भाई से पहाड़े सीखे थे.’’

‘‘हम्म… बैठ जाओ,’’ मास्टरजी की आवाज में गोपाल को कुछ तारीफ के भाव दिखे और वह बैठ गया. लगा, तनाव अब कुछ कम हो गया था.

मास्टरजी क्लास टीचर होने के अलावा बच्चों को गणित भी पढ़ाते थे. वे बहुत लायक मास्टर थे, बहुत मेहनत से छात्रों को पढ़ाते थे और उन से ऊंची उम्मीद भी रखते थे. उम्मीद पूरी न होने पर उन का पारा चढ़ जाता था और गुस्सा उतरता था बच्चों की हथेलियों पर, उन की छड़ी की लगातार मार से. और इस छड़ी की मार से सभी बच्चे बहुत डरते थे. उन का मकसद तो बस इतना था कि उन का कोई छात्र गणित में कमजोर न रह जाए.

ऐसे ही धीरेधीरे एक महीना निकल गया. उन 3 शैतानों की तिगड़ी गोपाल को परेशान करने का और मजाक बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी. कभी उस के बालों का मजाक तो कभी उस के कपड़ों का. असहाय सा हो कर गोपाल सब सहता था, इस के अलावा उस के पास और कोई चारा भी तो नहीं था.

वे 3 थे, शारीरिक रूप से बलशाली थे और शहर के दबदबे वाले परिवारों से थे. वे तीनों तो स्कूल भी रोज कार से आते थे और उन का ड्राइवर उन का बस्ता और खाने का डब्बा क्लास तक छोड़ कर जाता था.

उन की तुलना में तो गोपाल एक बेहद गरीब परिवार से था, जिसे स्कूल की फीस देना भी मुश्किल लगता था, अपनी साइकिल चला कर 5 किलोमीटर दूर से आता था. खाने के डब्बे में तो बस 2 नमकीन रोटी और अचार होता था.

यों ही दिन निकलते गए और तिमाही इम्तिहान का समय आ गया था. तिमाही इम्तिहान के नंबर बहुत अहम थे, क्योंकि उस के 25 फीसदी सालाना इम्तिहान के नतीजे में जुड़ते थे, इसीलिए सभी छात्रों से यह उम्मीद होती थी कि वे इन इम्तिहानों को गंभीरता से लें.

इम्तिहान होने के तकरीबन एक हफ्ते बाद जब मास्टरजी हाथ में 35 कापियां लिए घुसे, क्लास में सन्नाटा सा छा गया था. मास्टरजी ने कापियां धम्म से मेड़ पर पटकीं, अपनी छड़ी ब्लैकबोर्ड पर टिकाई और हुंकार भरी,

‘मुरकी वाले…’’

‘‘जी मास्टरजी,’’ गोपाल डर के मारे स्प्रिंग लगे बबुए की तरह उछल कर खड़ा हो गया था.

‘‘यह तुम्हारी कौपी है?’’

‘‘जी

मास्टरजी,’’ गोपाल की जबान डर से लड़खड़ा गई थी.

‘‘इधर आओ,’’ मास्टरजी की रोबदार आवाज कमरे में गूंजी तो गोपाल के हाथपैर ठंडे होने

लगे और वह धीरेधीरे मास्टरजी की मेज की तरफ बढ़ा.

‘‘अरे, जल्दी चल. मां ने खाना नहीं दिया क्या आज?’’

गोपाल तेजी से भाग कर मास्टरजी की मेज के पास पहुंच गया. मन ही मन वह खुद को मास्टरजी की बेंत खाने के लिए भी तैयार कर रहा था.

मास्टरजी ने गोपाल को दोनों कंधों से पकड़ा और क्लास की तरफ घुमा दिया. उस के कंधों पर हाथ रखेरखे मास्टरजी बोले, ‘‘यह लड़का छोटा सा लगता है. रोज साइकिल चला कर गांव से स्कूल आता है,

पर पूरी क्लास में बस एक यही है जिस के 100 में से 100 नंबर आए हैं. शाबाश मेरे बच्चे, तुम ने मेरा दिल खुश कर दिया,’’ कहते हुए मास्टरजी ने गोपाल की पीठ थपथपाई तो उसे चैन की सांस आई.

अब मास्टरजी ने आखिरी बैंच की ओर घूर कर देखा और आवाज लगाई, ‘‘ओए मोटे, ओ मंदबुद्धि, अरे ओ अक्ल के दुश्मन… तीनों इधर आगे आओ. तुम तीनों तो मेरी क्लास के लिए काले धब्बे हो. तीनों को अंडा मिला है.’’

अब जो हुआ, वह तो गोपाल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. मास्टरजी ने उसे अपनी छड़ी पकड़ाई और कहा, ‘‘तीनों के हाथों पर 10-10 बार मारो. तभी इन को अक्ल आएगी.’’

गोपाल अकबका कर खड़ा रह गया. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे. एक लड़के ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘धीरे से… नहीं तो…’’

गोपाल ने धीरे से उस लड़के की हथेली पर छड़ी मारी तो मास्टरजी की ऊंची आवाज कान में पडी, ‘‘जोर से मारो, नहीं तो डबल छडि़यां तुम्हारे हाथों पर पड़ेंगीं.’’

यह सुन कर तो गोपाल की हवा सरक गई और अगले 5 मिनट तक छडि़यों की आवाज कमरे में गूंजती रही.

और इस तरह से छोटे से गांव का वह छोटा सा लड़का अपनी क्लास का बेताज का बादशाह बन गया था. आने वाले 4 सालों में उस का सिक्का चलता रहा था. उसे समझ आ गया था कि पढ़ाई में सब से ऊपर रह कर ही वह अपने आत्मसम्मान को बचा सकता था.

अचानक होस्टल की बिजली चली गई और गरमी का एहसास गोपाल को अतीत से वर्तमान में खींच लाया. उठ कर वह कमरे के बाहर आ गया और बरामदे की दीवार पर बैठ गया. जून का महीना था, सुबह के 11 बज चुके थे और हवा गरम थी. पूरा होस्टल खाली पड़ा था. तकरीबन सभी छात्र गरमियों की छुट्टी में घर चले गए थे, पर वह वहीं रुक गया था. घर जा कर क्या करता, यहां रह कर लाइब्रेरी से किताबें ले कर वह आने वाली प्रतियोगात्मक परीक्षाओं की तैयारी कर सकता था.

आज सोमवार था और लाइब्रेरी बंद थी, इसलिए गोपाल बरामदे की दीवार पर बैठा नीले आकाश की ओर देख रहा था जहां कुछ पक्षी ऊंची उड़ान भर रहे थे. क्या वह भी कभी ऐसी उड़ान भर पाएगा? सोचतेसोचते ध्यान फिर से अतीत की गलियों में भटक गया.

4 साल पहले, देहरादून में माता वाले बाग के पास वह एक छोटा सा कमरा जहां गोपाल और उस के बड़े भाई रहते थे. रात का समय था. कमरे में बान की 2 चारपाइयां पड़ी थीं. उन के बीच एक लकड़ी का फट्टा रखा था और उस फट्टे पर मिट्टी के तेल वाली एक लालटेन रखी थी, जिस से दोनों को रोशनी मिल रही थी.

गोपाल इंटरमीडिएट इम्तिहान की तैयारी कर रहा था और बड़े भैया एमए की. दोनों भाई अपनीअपनी चारपाई पर पालथी मार कर बैठे हुए थे, किताब गोद में थी और इम्तिहान की तैयारी चल रही थी. कमरे में सन्नाटा था,

बस कभीकभी पन्ना पलटने की आवाज आती थी.

लालटेन की लौ अचानक भभकने लगी.

‘‘चलो, अब सो जाते हैं. लगता है लालटेन में तेल खत्म हो रहा है,’’ बड़े भैया ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘पर मेरी पढ़ाई तो पूरी नहीं हुई है,’’ गोपाल ने दबा हुआ सा विरोध किया.

‘‘समझा करो न. घर में और तेल नहीं है. अगर कल ट्यूशन के पैसे मिल गए तो मैं तेल ले आऊंगा. अब किताबें रख दो और सो जाओ. मैं भी सो रहा हूं.  और कोई तरीका नहीं है,’’ कहते हुए बड़े भैया ने किताबें जमीन पर रख दीं और करवट बदल कर लेट गए.

लालटेन की लौ एक बार जोर से भड़की और लालटेन बुझ गई. कोठरी में पूरी तरह अंधकार छा गया था.

गोपाल ने अंधेरे में ही किताबें उठाईं और दबे पैर कमरे के बाहर निकल गया.

बुढ़ापे में जो दिल बारंबार खिसका-भाग 2

रणवीर और जयंति का तकरीबन रोज ही मिलना हो जाता. दोनों को एकदूसरे का बरसों बाद मिला साथ अच्छा लगने लगा था. एक दिन जब जयंति ने रणवीर से कहा, ‘‘यार, इतने दिन हो गए कई बार कहा भी, घर में तो सब से मिलवाओ, मेरा तो कोई है नहीं, लेदे के एक वही मस्ताना डौग है, वैसे वह भी मिलने लायक चीज है, चलोगे, मिलोगे?’’ वह हंसी थी.

‘‘चलूंगा, पर आज नहीं. मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं जयंति कि क्यों मैं तुम्हें घर नहीं ले जा पाता,’’ रणवीर ने पिता की वजह से घरबाहर फैले रायते को जयंति के सामने रख दिया. ‘‘छि, बड़ी शर्म आती है मुझे, घर से बाहर निकलते लोगों से मिलते. सब बाप की तरह बेटे को भी समझते होंगे. क्या करूं कोई उपाय सूझ नहीं पाता. मैं खुद उस घर में नहीं जाना चाहता.

सिर्फ मां की वजह से वहां हूं. मां से अलग घर, मैं सोच भी नहीं पाता. ऐसे पिता की वजह से न घर में कोई आता है न ही हम किसी को बुलाने की हिम्मत कर पाते हैं. मां की तो पूरी जिंदगी ही उन्होंने खराब कर दी, वही अब मेरे साथ भी कर रहे हैं. रानी दी ने तो सही किया, लड़की थीं, निकल गईं जंजाल से. पर मैं तो बेटा हूं, इन्हें छोड़ भी नहीं सकता, बुढ़ापे में मां को इन से अलग भी नहीं कर सकता. साथ रख कर ही पालना पड़ेगा. जब तक इन की हरकतें रहेंगी, ये जिंदा रहेंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता. कितना भी कर लूं, पर न मैं ऐसे में खुश रह सकता हूं, न मां को या किसी को खुशी दे सकता हूं. शादी के बारे में तो सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘ओह, तो यह बात है जरा सी, जो तुम सब को कब से परेशान किए हुए है.’’

‘‘तुम्हें यह जरा सी बात लगती है?’’ ‘‘इसीलिए तुम ने शादी न करने का फैसला कर लिया है,’’ वह बोली.

‘‘ऊं, न, नहीं, ऐसा कुछ नहीं. पर कुछ हद तक सही ही है. जहां खुद मेरा दम घुटता हो वहां किसी को लाने की मैं सोच भी कैसे सकता हूं.’’ ‘‘लग तो कुछ ऐसा ही रहा है,’’ वह मुसकराई, तुम शादी तो करो, यार, मैं उसे ऐसे गुरुमंत्र दूंगी कि बस, फिर तुम कमाल देखते ही रहना. आई प्रौमिस यू, तुम तो जानते ही हो, जो मैं कहती हूं वह जरूर कर के रहती हूं.’’

‘‘कोई और क्यों, तुम क्यों नहीं. जानता हूं कि असलियत जान कर किसी को मुझ से शादी करना मंजूर नहीं होगा,’’ वह कुछ संकुचाते हुए बोल ही गया. उस के संबल में उसे एक उम्मीद की किरण सी उसे दिखने लगी. पर जयंति अचानक दिए इस प्रपोजल पर हैरान थी. अपनी हैसियत से उसे ऐसी सपने में भी कल्पना न थी. जल्दी में कुछ न सूझा तो वह बोल पड़ी, ‘‘मेरे ऊपर तो बड़ी जिम्मेदारी है जो कभी पीछा नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘अभी तो तुम ने कहा, कोई नहीं रहता, तुम अकेले हो?’’ ‘‘भूल गए, मस्ताना, उस का भी कोई नहीं मेरे सिवा,’’ वह अमिताभ की फिल्म ‘द ग्रेट गैम्बलर’ के अंदाज में गा उठी.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा, पूरी तरह से सीरियस हूं.’’ ‘‘अच्छा, चलो, फिर कर लेते हैं, पर समझ लो, मैं तुम्हारी हस्ती से मैच भी करूंगी? एक पहिया गाड़ी का, एक स्कूटी का. आड़ातिरछा चलाचला के झूम…’’ और वह हंसने लगी. रणवीर की गंभीर गुस्से वाली मुद्रा देख कर वह फिर बोली, ‘‘अच्छा, अब सीरियस हो जाती हूं. मां से तो मिलवाओगे या सीधे कोर्ट मैरिज कर के घर ले चलना है.’’ वह फिर से हंसने वाली थी, अपने को रोक कर मुसकराई.

जयंति रणवीर की मां रेवती से मिली, आशीर्वाद लिया और फिर शहनाइयां बज उठीं. जयंति ब्याह कर रणवीर के घर आ गई. उस के साथ मस्ताना भी था. रेवती, रणवीर दोनों ही ने उसे साथ लाने को कहा था. रेवती ने देखा, हमेशा गंभीर दिखने वाले बेटे के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी. मस्ताना की चमकती आंखें रामशरण को लगता उन्हें ही घूर रही हैं. वह अपनी लहरदार, घनी पूंछ जब पटकता तो लगता उन्हें धमकी दे रहा हो. कई बार रामशरण मस्ताना की वजह से ताकझांक करते हुए, कहीं चोरी पकड़ी न जाए, गिरतेगिरते बचते क्योंकि मस्ताना कहीं न कहीं से उन्हें देख लेता. लहराती दुम उठा कर जो वह जोरजोर से भूंकना शुरू करता तो रुकने का नाम ही न लेता. जयंति को मालूम हो गया था कि ससुरजी मस्ताना से थोड़ा डरते हैं. वह अकसर उन्हें मस्ताना से काफी दूर घूम कर जाते हुए देखती तो मुसकराती. कोई शरारत उस के खुराफाती दिमाग में दौड़ने लगी थी. कुछ तो करना ही पड़ेगा घर में सब के सुकून के लिए.

सुबहशाम जयंति भी ससुरजी के टाइम पर ही मस्ताना को टहलाने के लिए जाने लगी. पहले बहुत जिद की थी पापाजी से, ‘‘आप ही उसे अपने साथ ले जाया कीजिए पापाजी, मैं मां का हाथ बंटा लूंगी. फिर औफिस भी जाना होता है.’’ पर रामशरण किसी न किसी बहाने से टाल गए. अगले वीक उस की छुटटी सैंक्शन हो गई. जितनी भी छुट्टियां बची थीं, सब ले डालीं. रणवीर तो उसे यह जौब छोड़ कर उसे अपना पसंदीदा एनीमेशन कोर्स कर कुछ बड़ा करने पर जोर दे रहा था जिसे वह अपने घर की परेशानियों के चलते पूरा न कर सकी थी.

‘‘अब ये सब करने की क्या जरूरत है? जो चाहती थी वह कर डालो न.’’ ‘‘ओ थैंक्स डियर, तुम्हें अब भी याद है? मेरा तो सपना ही था. अभी कुछ दिन रुक जाओ, फिर देखती हूं.’’

रणवीर की आंखों में असीमित प्यार देख कर वह निहाल हुई जा रही थी. उसे सब याद आया कि वह ब्लैकबोर्ड पर, कौपी में अकसर सहपाठियों, टीचर के कार्टून बना दिया करती, हूबहू कोई भी पहचान लेता. एक बार प्रिंसिपल शशिपुरी का भी कार्टून बना डाला. अचानक मैम राउंड पर आ गईं. सभी बच्चे हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे. मैम ने अपना कार्टून पहचान लिया और औफिस बुला कर उसे खूब झाड़ा. उस दिन मिस खुराफाती को पहली बार किसी ने रोते देखा था. सब बच्चों को तो मजा आया पर जाने क्यों रणवीर को अच्छा नहीं लगा था, जबकि उस ने उसे कितनी ही बार चिढ़ाया, कितने ही नाम दिए थे. वह सोचता, ‘इसे तो आज इस अनोखी प्रतिभा के लिए इनाम मिलना चाहिए था.’

जयंति के मस्ताना के साथ सुबह टहलने जाने से पार्क में रामशरण और उन के दोस्तों की मस्ती थोड़ी कम हो गई थी. एक तो साथियों में से वह एक की बहू थी, उस पर से उस का खूंखार नजरों से घूरता अल्सेशियन डौग मस्ताना. कभी जयंति शाम को जल्दी घर आती तो वह शाम को भी मस्ताना को ले कर निकल पड़ती सखियों के पास टहलते हुए. फिर तो रामशरण और उन के दोस्तों की शाम भी खराब होती. चाटगोलगप्पे वालों के यहां उन का लड़कियों से छेड़खानीचुहल करने का मजा किरकिरा हो जाता. जयंति अपने मस्तमौला स्वभाव के कारण जल्दी ही नेहा, शिखा आदि लड़कियों से घुलमिल गई. इतवार व छुट्टियों के दिनों में अकसर वे सुबह अपनीअपनी स्कूटी पर पास की पहाड़ी की ओर खुली हवा में सैर कर आतीं. इन बुड्ढों के दिल में हूक उठती, पार्क में रौनक जो नहीं दिखती.

एक दिन आखिर एक बुड्ढे ने कमैंट कर ही दिया, ‘‘अरे, कहां जाती हो घूमने अकेलेअकेले, हमें भी तो कभी घुमा दिया करो, तरस खाओ हम पे.’’ सुन लिया था जंयति ने भी. मस्ताना को ले कर वह थोड़ा आगे बढ़ गई थी नेहा के पास. उस ने नेहा से धीरे से कहा, ‘‘बोल दो, ‘हांहां, एकएक बैठ जाओ स्कूटी पर’ तुम चारों अपनीअपनी स्कूटी पे इन्हें वहीं पहाड़ी के पीछे झरने के पास दूर छोड़ कर वापस आ जाना. आज इन्हें मजा चखा ही देते हैं. फिर सारी आशिकी भूल जाएंगे. मैं फोन पर कौंटैक्ट में रहूंगी. ससुर हैं एक, इसलिए मैं नहीं जा सकती. तब तक मैं घर जा कर वापस मस्ताना को दोबारा टहलाने यहां आती हूं.’’

ताईजी: भाग 2- गलत परवरिश

पिछली रात जब वे दोनों बातें करने बैठी थीं तो विक्की के उन के पास आ कर चिपट कर बैठने पर रिचा ने उसे वहां से भगाने की चेष्टा की थी. पर वह वहां से जाना नहीं चाहता था. तब रिचा फूट पड़ी थी, ‘‘देखा दीदी, यह तो मेरी जान का दुश्मन बना हुआ है, कभी किसी से दो बातें नहीं कर सकती. देखिए, कैसे मुंह से मुंह जोड़ कर बैठा हुआ है. यहां सब बातें सुनेगा और वहां जा कर मांजी व अपने पिता से एक की दस लगाएगा. हर बात में अपनी टांग अड़ाएगा. मेरी छोटी बहन आई थी, तब भी इस ने बातें नहीं करने दीं. पीहर भी जाती हूं तो मां, बहनों, भाभी व सहेलियों से जरा भी बात नहीं करने देता. सच कहती हूं, बड़ी परेशान हो गई हूं, अब तो इस के मारे कहीं जाने का मन भी नहीं करता.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. मैं आप के पास रहना ही कब चाहता हूं. मैं तो अब बड़े ताऊजी के पास बरेली जा रहा हूं. पिताजी ने उन से बात कर ली है,’’ विक्की बेफिक्री से बोला.

‘‘अरे, यह बरेली जाने की क्या बात है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘दीदी, यह इतना बिगड़ता जा रहा है, इसी कारण हम लोग इसे बड़े भैया के पास भेजने की सोच रहे हैं.’’

‘‘वहां कोई अच्छा स्कूल है क्या?’’

‘‘न सही, पर उन का अनुशासन तो रहेगा ही. हमारी तो सुनता नहीं है, उन की तो सुनेगा. अब तो 7वीं कक्षा में आ गया है.’’

‘‘मतलब, अपनी बला औरों के सिर डालने से है? जब तुम सारा दिन बच्चे के सामने यही राग अलापती रहोगी कि हमारी तो सुनता नहीं, हमारी तो सुनता नहीं है, तो वह क्यों सुनेगा तुम्हारी?’’ विभा कुछ नाराजगी के साथ बोली.

‘‘दीदी, आप तो हर बात का दोष मुझे ही दे देती हो, बस.’’

‘‘रिचा, समझने की कोशिश तो करो. बच्चे प्यार के भूखे होते हैं. यों थोड़ीबहुत सख्ती कर लो, पर हर समय उसे सुनाते रहना, ताने देना, व्यंग्य कसना, बातबात पर डांटना, मारना, हर एक से उस की बुराई करना, किसी मां को शोभा नहीं देता. दूसरे के पास भेज तो दोगी, पर वे भी इस के साथ क्या सख्ती बरत सकेंगे? और यदि सिखाने के लिए सख्ती करेंगे तो कल को तुम्हें ही नागवार गुजरेगा. इस से तो अच्छा है कि किसी अच्छे होस्टल में इसे डाल दो.’’ ‘‘पहली बात तो यह है कि इसे इतने कम नंबरों पर किसी अच्छे स्कूल में दाखिला मिलेगा ही नहीं, फिर अच्छे महंगे स्कूलों के होस्टलों में ‘ड्रग्स’ का कितना चलन हो गया है आजकल, यह तो कुछ भी कर सकता है. दीदी, आप को पता नहीं है, इसे तो केवल मैं ही समझ सकती हूं. अभी से अपने पास पर्स रखता है, वह भी रुपयों से भरा होना चाहिए, नहीं तो रोनाधोना मचा देता है. इस से बाजार से सब्जी मंगवाती हूं तो बाकी के रुपए वापस नहीं करता. एक मुसीबत है क्या इस लड़के के साथ… अब मैं इस से लिख कर हिसाब मांगती हूं,’’ रिचा सिसकती हुई बोली.

‘बच्चे को मेरे प्रश्न से कितना आघात लगा है,’ सोच कर विभा अनमनी सी हो आई. बच्चे का कोमल हृदय दुखाने के लिए उस ने यह सब नहीं पूछा था, वह तो केवल यही जानना चाहती थी कि बच्चे की मानसिक दशा कैसी है? क्यों वह इस प्रकार का अभद्र व्यवहार अपनी मां के साथ करता है? विभा वहां अपने पति के साथ 8-10 दिन के लिए आई हुई थी. रिचा उस की सब से छोटी देवरानी थी. आयु में भी वह विभा से काफी छोटी थी. इस कारण विभा उस पर अपना अधिकार जमा लेती थी. विभा बहुत समझदार थी और पूरे परिवार में उस का बड़ा मान था. रिचा भी उस से परामर्श लेने हेतु उसे अपने मन की सब बातें बता दिया करती थी. दोनों भाइयों में भी बहुत स्नेहभाव था.

विक्की रिचा के विवाह के कई वर्षों के बाद हुआ था. इस से पूर्व उस के 2 बेटे जन्मते ही जाते रहे थे. सो, विक्की से परिवार के सब ही लोगों का असीम स्नेह था. रिचा हर समय अपने इकलौते बेटे के भविष्य के लिए चिंतित रहती थी. संयुक्त परिवार होने के कारण वह अपने मनोनुकूल अधिक कर नहीं पाती थी. पिछले 2-3 वर्षों से विक्की बिगड़ने लगा था, बड़ों के अत्यधिक लाड़प्यार ने उसे जिद्दी और चटोरा तो बनाया ही था, साथ ही अपनी बात मनवाने के लिए वह झूठ भी बोलने लगा था.

ऐसे में रिचा का दुख क्रोध के रूप में बाहर निकलता था. पति तो बच्चे की शिक्षा पर तनिक भी ध्यान केंद्रित नहीं करते थे, अधिक से अधिक ट्यूटर लगा दिया. पुत्र को अपने पिता द्वारा जिस व्यवहार, शिष्टाचार, शिक्षा, मार्गदर्शन, स्नेह और दुलार की अपेक्षा होती है, विक्की उस से पूर्णतया वंचित रहा था. हां, बच्चे के प्रति उन के लाड़प्यार में कोई कमी नहीं थी, उस की मुंहमांगी वस्तु उसे तत्क्षण प्राप्त हो जाती थी. इस कारण वह और भी अधिक ढीठ और आलसी होता जा रहा था. घर के किसी भी कार्य की आशा उस से नहीं की जा सकती थी, हर समय उस के पीछे होहल्ला मचा ही रहता. एक दिन विभा के काफी समझाने पर रिचा ने बेटे को वह टेपरिकौर्डर दे दिया. तब वह दौड़ता हुआ विभा के पास आया और उन के दोनों गालों की पप्पी लेते हुए बोला, ‘‘धन्यवाद, ताईजी. देखिए, मां ने मुझे टेपरिकौर्डर दे दिया है. सुनेंगी?’’

इतना कह कर विक्की ने टेपरिकौर्डर चला दिया. टेप में से उस की सुमधुर आवाजें सुनाई देने लगीं.

‘‘अरे विक्की, यह तो तुम्हारी आवाज है? तो तुम्हें गाना भी आता है?’’ विभा ने प्रसन्न होते हुए अचरज से पूछा.

‘‘देख लीजिए ताईजी,’’ विक्की मटकते हुए बोला. उस की सुंदर आंखों में उस समय विचित्र चमक भर उठी थी. विभा ने टेपरिकौर्डर को हाथ में ले कर देखा, नन्हा सा लाल रंग का वह जापानी रिकौर्डर बहुत ही प्यारा था. तब विभा को समझ में आया कि बच्चा उसे अपना गायन सुना कर प्रभावित करने के लिए ही टेपरिकौर्डर लेने की जिद कर रहा था. पर रिचा ने मां हो कर भी इस तथ्य को नहीं समझा. वह सोचने लगी, ‘आखिर इतना छोटा भी तो अब विक्की नहीं है, 11 वर्ष का हो चला है.’

विभा को सुबहशाम घूमने की आदत थी. वहां की सड़कों के विषय में अधिक जानकारी न होने के कारण उस ने पहले दिन अपने साथ विक्की को ले लिया था. उस के बाद उस के वहां रहने तक एक दिन भी उसे विक्की को साथ चलने के लिए कहना नहीं पड़ा था. वह स्वयं ही उन के साथ दौड़ा चला आता. विक्की को बिना बताए भी वह घर से निकल पड़ती, तो भी वह जाने कहां से सूंघ लेता और झटपट साथ हो लेता. तब विभा को बराबर लगता रहता था कि विक्की केवल प्यार का भूखा है. यदि उस के साथ प्यार व समझदारी से व्यवहार किया जाए तो वह हर बात मानने व करने को तैयार रहेगा. विभा एवं ताऊजी की तो वह हर बात बड़े ही ध्यान से सुनता था, केवल सुनता ही नहीं, बल्कि उस पर अमल भी करता. जैसे ही कोई काम उसे बताते, वह झटपट कर देता तब क्यों अपनी मां एवं घर के अन्य सदस्यों की बातों की वह इतनी अवहेलना करता है? क्यों सब को इतना छकाता है, इतना परेशान करता है? विभा बारबार सोचती. उधर मांजी कहतीं, ‘‘अरे, क्या बताऊं विभा, रिचा को तो विक्की फूटी आंखों नहीं सुहाता. रातदिन इस के पीछे हाथ धो कर पड़ी रहती है. कभी प्यार से बात नहीं करती. देखो, कब से वह ‘नाइटसूट’ बनवाने को कह रहा है, सारे पजामे फट गए हैं, पर यह है कि कपड़ा घर में ला कर रखा हुआ है, तो भी दरजी को नहीं दे रही, न ही अखिल को बाजार से बनेबनाए सूट लाने देती है. कहती है कि मैं स्वयं सिलूंगी, 6 महीने तो हो गए हैं ऐसे ही कहते…अब तू ही देख कि कितना परेशान हो रहा है बेचारा विक्की, इतनी घोर गरमी में भी पैंट पहन कर सोता है.’’

आई हेट हर – भाग 2 : मां से नाराजगी

गूंज दूसरी क्लास में थी. उस की फ्रैंड हिना का बर्थडे था. वह स्कूल में पिंक कलर की फ्रिल वाली फ्रौक पहन कर आई थी. उस ने सभी बच्चों को पैंसिल बौक्स के अंदर पैंसिल, रबर, कटर और टौफी रख कर दिया था. इतना सुंदर पैंसिल बौक्स देख कर वह खुशी से उछलतीकूदती घर आई और मां को दिखाया तो उन्होंने उस के हाथ से झपट कर ले लिया,’’कोई जरूरत नहीं है इतनी बढ़िया चीजें स्कूल ले जाने की, कोई चुरा लेगा.‘’

वह पैर पटकपटक कर रोने लगी, लेकिन मां पर कोई असर नहीं पड़ा था.

कुछ दिनों के बाद वह एक दिन स्कूल से लौट कर आई तो मां उस पैंसिल बौक्स को पंडित के लड़के को दे रही थीं. यह देखते ही वह चिल्ला कर  उन के हाथ से बौक्स छीनने लगी,”यह मुझे मिला था, यह मेरा है.”

इतनी सी बात पर मां ने उस की गरदन पीछे से इतनी जोर से दबाई कि उस की सांसें रुकने लगीं और मुंह से गोंगों… की आवाजें निकलने लगीं… वह बहुत देर तक रोती रही थी.

लेकिन समय सबकुछ भुला देता है.

वह कक्षा 4 में थी. अपनी बर्थडे के दिन नई फ्रौक दिलवाने की जिद करती रही लेकिन फ्रौक की जगह उस के गाल थप्पड़ से लाल हो गए थे. वह रोतेरोते सो गई थी लेकिन शायद पापा को उस का बर्थडे याद था इसलिए वह उस के लिए टौफी ले कर आए थे. वह स्कूल यूनीफौर्म में ही अपने बैग में टौफी रख कर बेहद खुश थी. लेकिन शायद टौफी सस्ती वाली थी, इसलिए ज्यादातर बच्चों ने उसे देखते ही लेने से इनकार कर दिया था. वह मायूस हो कर रो पड़ी थी. उस ने गुस्से में सारी टौफी कूङेदान में फेंक दी थी.

लेकिन बर्थडे तो हर साल ही आ धमकता था.

पड़ोस में गार्गी उस की सहेली थी. उस ने आंटी को गार्गी को अपने हाथों से खीर खिलाते देखा था. उसी दिन से वह कल्पनालोक में केक काटती और मां के हाथ से खीर खाने का सपना पाल बैठी थी. पर बचपन का सपना केक काटना और मां के हाथों  से खीर खाना उस के लिए सिर्सफ एक सपना ही रह गया .

वह कक्षा 6 में आई तो सुबह मां उसे चीख कर जगातीं, कभी सुबहसुबह थप्पड़ भी लगा देतीं और स्वयं पत्थर की मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी बजाबजा कर जोरजोर से भजन गाने बैठ जातीं.

वह अपने नन्हें हाथों से फ्रिज से दूध निकाल कर कभी पीती तो कभी ऐसे ही चली जाती. टिफिन में 2 ब्रैड या बिस्कुट देख कर उस की भूख भाग जाती. अपनी सहेलियों के टिफिन में उन की मांओं के बनाए परांठे, सैंडविच देख कर उस के मुंह में पानी आ जाता साथ ही भूख से आंखें भीग उठतीं. यही वजह थी कि वह मन ही मन मां से चिढ़ने लगी थी.

उस ने कई बार मां के साथ नजदीकी बढ़ाने के लिए उन के बालों को गूंथने और  हेयरस्टाइल बनाने की कोशिश भी की थी मगर मां उस के हाथ झटक देतीं.

मदर्सडे पर उस ने भी अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन के लिए प्यारा सा कार्ड बनाया था लेकिन वे उस दिन प्रवचन सुन कर बहुत देर से आई थीं. गूंज को मां का इतना अंधविश्वासी होना बहुत अखरता था. वे घंटों पूजापाठ करतीं तो गूंज को कोफ्त होता.

जब मदर्सडे पर उस ने उन्हें मुस्कराते हुए कार्ड दिया तो वे बोलीं,”यह सब चोंचले किसलिए? पढोलिखो, घर का काम सीखो, आखिर पराए घर जाना है… उन्होंने कार्ड खोल कर देखा भी नहीं था और अपने फोन पर किसी से बात करने में बिजी हो गई थीं.

वह मन ही मन निराश और मायूस थी साथ ही गुस्से से उबल रही थी.

पापा अपने दुकान में ज्यादा बिजी रहते. देर रात घर में घुसते तो शराब के नशे में… घर में ऊधम न मचे, इसलिए मां चुपचाप दरवाजा खोल कर उन्हें सहारा दे कर बिस्तर पर लिटा देतीं. वह गहरी नींद में होने का अभिनय करते हुए अपनी बंद आंखों से भी सब देख लिया करती थी.

रात के अंधेरे में मां के सिसकने की भी आवाजें आतीं. शायद पापा मां से उन की पत्नी होने का जजियाकर वसूलते थे. उस ने भी बहुत बार मां के चेहरे, गले और हाथों पर काले निशान देखे थे.

पापा को सुधारने के लिए मां ने बाबा लोगों की शरणों में जाना शुरू कर दिया था… घर में शांतिपाठ, हवन, पूजापाठ, व्रतउपवास, सत्संग, कथा आदि के आयोजन आएदिन होने लगे था. मां को यह विश्वास था कि बाबा ही पापा को नशे से दूर कर सकते हैं, इसलिए वे दिनभर पूजापाठ, हवनपूजन और उन लोगों का स्वागतसत्कार करना आवश्यक समझ कर उसी में अपनेआप को समर्पित कर चुकी थीं. वैसे भी हमेशा से ही घंटों पूजापाठ, छूतछात, कथाभागवत में जाना, बाबा लोगों के पीछे भागना उन की दिनचर्या में शामिल था.

अब तो घर के अंदर बाबा सत्यानंद का उन की चौकड़ी के साथ जमघट लगा रहता… कभी कीर्तन, सत्संग और कभी बेकार के उपदेश… फिर स्वाभाविक था कि उन का भोजन भी होगा…

पापा का बिजनैस बढ़ गया और उस महिला का तबादला हो गया था, जिस के साथ पापा का चक्कर चल रहा था. वह मेरठ चली गई थी… मां का सोचना था कि यह सब कृपा गुरूजी की वजह से ही हुई है, इसलिए अब पापा भी कंठी माला पहन कर सुबहशाम पूजा पर बैठ जाते. बाबा लोगों के ऊपर खर्च करने के लिए पापा के पास खूब पैसा रहता…

इन सब ढोंगढकोसलों के कारण उसे पढ़ने और अपना होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता. अकसर उस का होमवर्क अधूरा रहता तो वह स्कूल जाने के लिए आनाकानी करती. इस पर मां का थप्पड़ मिलता और स्कूल में भी सजा मिलती.

वह क्लास टेस्ट में फेल हो गई तो पेरैंट्स मीटिंग में टीचर ने उस की शिकायत की कि इस का होमवर्क पूरा नहीं रहता और क्लास में ध्यान नहीं देती, तो इस बात पर भी मां ने उस की खूब पिटाई की थी.

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 2- क्या हुआ आलोक के साथ

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

एक थी मां- भाग 2: कहानी एक नौकरानी की

पिताजी कभी मना करते, तो उलटे मां उन्हें ही उन की औकात याद दिलाने लगती थीं. पिताजी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाते थे. आखिर वे अभी तक अपने पिता के कमाए पैसों पर ही तो जीते आ रहे थे.

अब हम दोनों भाईबहन स्कूल जाने के लायक तो हो गए थे, मगर पैसे की तंगी और मांपिताजी के आपसी झगड़े के चलते हम दोनों स्कूल नहीं जा पा रहे थे.

पिताजी से जब मां का रोजरोज का झगड़ा सहा नहीं गया, तो उन्होंने घर के नजदीक वाले मंदिर के पास ही एक पूजा सामग्री और फूल माला की दुकान खोल ली थी. दुकान खोलने के लिए पिताजी ने अपने कुछ जानपहचान वालों से ही पैसे उधार लिए थे.

पिताजी अब अपने काम में ज्यादा बिजी रहने लगे थे. चोरी के डर से रात में भी वे दुकान पर ही सो जाते थे. इधर मां का रहनसहन और चालढाल बहुत तेजी से बदलता जा रहा था.

अब उन्होंने एक मोबाइल फोन भी खरीद लिया था. पिताजी ने जब मोबाइल फोन के बारे में पूछा था, तो अपने मायके से मिला हुआ बता कर पिताजी को डांट कर चुप करा दिया था.

मां अब दिनभर खुद कमरे में सोई रहती थीं और घर का सारा काम हम दोनों भाईबहन से कराने लगी थीं. स्कूल जाने की उम्र में हम दोनों भाईबहन अब हमेशा घर के कामों में उलझे रहने लगे थे. अब तो बातबात पर मां हम दोनों को पीटने भी लगती थीं.

एक रात की बात है. मैं और मेरा भाई अमर साथ ही सोए हुए थे. हम दोनों बचपन से ही साथ सोते आ रहे थे. अचानक आधी रात को मेरे भाई के पेट में दर्द होने लगा था. मुझ से जब उस का दर्द देखा नहीं गया, तो मैं मां के कमरे की ओर उन्हें बुलाने चल पड़ी थी, यह सोच कर कि शायद उन के पास कोई दवा होगी.

बहुत बार दरवाजा खटखटाने और चिल्लाने के बाद मां ने गुस्से में दरवाजा खोला था. जब मैं ने उन्हें अमर के पेटदर्द के बारे में बताया, तो वे मुझे ही गाली देने लगी थीं.

उन की एकएक बात मुझे आज भी याद है, जो मां ने अपने बेटे के लिए कही थी, ‘तुम्हारा भाई पेटदर्द से मर नहीं जाएगा. दिनभर चोरी करकर के तो खाता रहता है, फिर पेटदर्द तो उस का करेगा ही न…’

मैं चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई थी. कैसी मां थीं वे. मैं चुपचाप अपने नसीब को कोसती हुई कमरे की ओर जाने के लिए अभी मुड़ी ही थी कि तभी मैं ने मां के कमरे में एक अजनबी आदमी को देखा था.

मैं ठीक से चेहरा नहीं देख पाई थी. मां भांप गई थीं कि मैं ने कमरे के अंदर के आदमी को देख लिया था. वे उस समय बोली कुछ नहीं, सिर्फ तेजी से दरवाजा बंद कर लिया था.

भाई के पेटदर्द के चलते मैं बहुत परेशान थी, इसीलिए उस ओर मैं ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी. अमर अभी भी कमरे में जमीन पर लेटा पेट पकड़े दर्द से कराह रहा था. पिताजी तो दुकान पर ही रात में सोते थे, इसीलिए मैं उन को बुला भी नहीं सकती थी.

मैं अमर को पेट के बल लिटा कर उस की पीठ सहलाने लगी. मेरे ऐसा करने से उसे राहत मिलने लगी और कुछ ही देर के बाद उस का पेटदर्द कम हो गया था.

अगले दिन सुबह जब पिताजी घर आए, तो वे पहली बार बहुत खुश दिखाई दे रहे थे. उन्होंने दुकान के लिए लिया हुआ कर्ज चुकाने के लिए पूरा पैसा जमा कर लिया था. वे कल ही जा कर महाजन को पैसा देने की बात कर रहे थे. अब वे हम दोनों भाईबहन को भी स्कूल में दाखिल कराने के लिए बोल रहे थे.

पता नहीं क्यों उस समय मां पिताजी की बात सुन कर भी अनसुना करते हुए कहीं और खोई हुई थीं. वे थी तो पास में ही बैठीं, पर कुछ बोल नहीं रही थीं.

उसी दिन पहली बार पिताजी ने हम सभी को होटल में ले जा कर खाना खिलाया था. उस रात पिताजी हम दोनों भाईबहन के पास ही सो भी गए थे. हम तीनों ने उस रात बहुत सारे सपने देखे थे.

मगर कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था. सुबह जब उठे तो एक बुरी खबर को सुन कर हम सब के पैर तले की जमीन खिसक गई थी. पिताजी की दुकान में रात में आग लग गई थी. सारा सामान जल कर राख हो गया था. महाजन को देने के लिए रखा हुआ पैसा, जिसे पिताजी ने अपनी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर जमा किया था, वह भी आग में जल गया था. मां भी उस दिन बहुत रोई थीं, मगर शायद वह भी उन का दिखावा था.

पिताजी फिर से टूट गए थे. हम सब का देखा हुआ सपना एक ही बार में बिखर गया था.

दुकान जलने के कुछ ही दिन के बाद मां ने मुझे अपने दूर के एक रिश्तेदार के कहने पर बलिया में एक साहब के यहां घर का काम करने और उन के 4 साल के बच्चे की देखभाल के लिए भेज दिया था.

पिताजी ने मां को बहुत समझाया कि अभी कश्मीरा 10 साल की बच्ची है, भला कैसे किसी के यहां नौकरानी का काम कर पाएगी? मगर मां ने एक न सुनी. मैं यानी कश्मीरा बलिया में अपने मालिक साकेत भारद्वाज के यहां नौकरानी बन कर आ गई.

मेरा भाई मुझ से दूर नहीं होना चाहता था. वह भी मेरे साथ ही बलिया आने की जिद पर अड़ गया था, मगर मां ने उसे कमरे में बंद कर दिया था. मैं भी यह सोच कर कि मेरे कमाए पैसे से शायद पिताजी द्वारा लिया हुआ दुकान का कर्जा जमा हो जाएगा, बलिया आ गई थी.

मेरे मालिक साकेत सर और मालकिन मेघना मैडम का बलिया में खुद का घर था. साहब एक औफिस में बड़े पद पर थे. मैडम भी एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर नौकरी करती थीं. दोनों का एक 4 साल का बेटा था गौरव भारद्वाज, जिसे प्यार से सभी ‘गोलू’ कहते थे.

पहले साहब की अपनी बहन साथ में रहती थीं. वे ही बच्चे की देखभाल भी करती थीं, मगर उन की इसी साल शादी हो गई थी और वे यहां से चली गई थीं, जिस के चलते ही इस घर में अब मुझे लाया गया था.

पहले ही दिन से साकेत सर के यहां मुझे इतना प्यार मिला कि अपने घर से भी अच्छा यह घर लगने लगा. मैं सर और मैडम के कहने पर ही उन्हें ‘अंकल’ और ‘आंटी’ कहने लगी थी. गोलू भी मुझे दीदी कहने लगा था. वह तुरंत मुझ से घुलमिल गया था. वह हमेशा मेरे पास ही रहता था.

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