Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 3

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

पापा के लिए- भाग 3: सौतेली बेटी का त्याग

तभी इतनी देर से विचारों की कशमकश में हिचकोले सी खाती मैं ने, उन की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘नहीं मम्मी, हम सब को, पूरे परिवार को आप की बहुत जरूरत है. पापा को किडनी मैं दूंगी और कोई नहीं.’’

मेरी बात सुन कर मम्मी एकदम चीख कर ऐसे बोलीं, मानो बरसों का आक्रोश आज एकसाथ लावा बन कर फूट पड़ा हो, ‘‘दिमाग तो सही है तेरा नेहा. उस आदमी के लिए अपना जीवन दांव पर लगा रही है, जिस ने तुझे कभी अपना माना ही नहीं, जिस ने कभी दो बोल प्यार के नहीं बोले तुझ से… तू उसे अपने शरीर की इतनी कीमती चीज दे रही है… नहीं, कभी नहीं, यह बेवकूफी मैं तुझे नहीं करने दूंगी मेरी बच्ची, कभी नहीं. अभी तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है. पराए घर की अमानत है तू. अरे, जिन बच्चों पर वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे, वे करें यह सब. अमन का फर्ज बनता है यह सब करने का, तेरा नहीं. तू ही है सिर्फ क्या उन के लिए.’’

‘‘मैं उन के लिए चाहे कुछ न हूं लेकिन मेरे लिए वे बहुत कुछ हैं. मैं ने तो दिल से उन्हें अपना पापा माना है मम्मी. मैं अपने पापा के लिए कुछ भी कर सकती हूं और फिर मम्मी, प्यार का प्रतिकार प्यार ही हो, यह कोई जरूरी तो नहीं.’’

मम्मी मुझे हैरत से देखती रह गई थीं. उन का पूरा चेहरा आंसुओं से भीग गया था. शायद सोच रही थीं – काश, इस बेटी के दिल को भी पढ़ा होता उन्होंने कभी. इस बेटी को भी गले लगाया होता कभी. अपने दोनों बच्चों की तरह कभी इस की भी पढ़ाई, होमवर्क और ऐग्जाम्स की फिक्र की होती. कभी डांटा होता, तो कभी पुचकारा होता इसे भी. कभी झिड़का होता तो कभी समझाया होता इसे भी. मगर उन्होंने तो कभी इसे नजर भर देखा तक नहीं और यह है कि…

और फिर किसी की भी नहीं सुनी मैं ने. पापा ने भले न बनाया हो, मैं ने अपनी एक किडनी दे कर उन्हें अपने शरीर का एक हिस्सा बना ही लिया. दोनों को हौस्पिटल से एक ही दिन डिस्चार्ज किया गया. मैं गाड़ी में कनखियों से बराबर देख रही थी कि पापा बराबर मुझे ही देख रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. कुछ कहना चाह रहे थे, मगर कह नहीं पा रहे थे. ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उन के दिल के अनकहे शब्द मेरे दिल को स्नेह की तपिश से सहला रहे हों, जिस से बरसों से किया मेरे प्रति उन का अन्याय शीशा बन कर पिघला जा रहा हो.

घर आने के भी कई दिनों बाद एक दिन अचानक वे मेरे कमरे में आए. मुझे तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. आज तक वो मेरे इतने करीब, वे भी अकेले में आए भी तो नहीं थे और आज वे मेरे करीब, बिलकुल मेरे करीब. मेरे बैड पर बैठ गए थे. मैं ने उन की तरफ देखा. वे उदासी भरी, दर्दभरी, आंसुओं भरी आंखों से मुझे देख रहे थे. मैं भी देखती ही रही उन्हें… अपने पापा को. मुझे तो अब तक कि जिंदगी का एक दिन भी या यह कहूं कि एक लमहा भी याद नहीं, जब उन्होंने मुझे देखा भी हो. आंखों ही आंखों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया और बहुत कुछ मैं ने सुन लिया. मुझे लगा कि अगर एक शब्द भी उन्होंने जबानी बोला तो अपने आंसुओं के वेग को न मैं थाम सकूंगी और शायद न वे. भरभरा कर बस गिर ही पड़ूंगी अपने पापा की गोद में, जिस के लिए मैं अतृप्त सी न जाने कब से तरस रही थी. फड़फड़ाए ही थे उन के होंठ कुछ कहने को कि तड़प कर उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया मैं ने. बोली ‘‘न पापा न, कुछ मत कहना. मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. बस अपने पापा के लिए अपना छोटा सा फर्ज निभाया है.’’

अंतत: रोक ही नहीं सकी खुद को, रो ही पड़ी फूटफूट कर. पापा भी रो पड़े जोर से. उन्होंने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… माफ कर दे अपने इस गंदे से पापा को… बेटी है मेरी तू तो, दुनिया की सब से अच्छी बेटी है तू तो.’’

जिन लफ्जों और जिस स्नेह से मैं अब तक अपने ख्वाबों में ही रूबरू होती रही थी, आज हकीकत बन कर मेरे सामने आया था. इन पलों ने सब कुछ दे दिया था मुझे. बरसों के गिलेशिकवे आंसुओं के प्रवाह में बह गए थे. तभी पापा को देख कर मम्मी भी वहीं आ गईं तो उन्होंने मम्मी को भी अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम दोनों के साथ मैं ने बहुत अन्याय किया है, अतीत की यादों में इतना उलझा रहा कि वर्तमान के इतने खूबसूरत साथ और रिश्ते को नकारता रहा. मुझे माफ कर दो तुम दोनों… मुझे माफ कर दो…’’

बरसों बाद ही सही, यह परिवार आज मेरा भी हो गया था. मम्मी की भी आंखें खुशी से भीग गई थीं.

उस के बाद तो जैसे मेरी जिंदगी ही बदल गई. पापा ने मुझे और अमन दोनों को एकसाथ एम.बी.ए. में ऐडमिशन दिला दिया था. वे चाहते थे कि अब हम दोनों भाईबहन नई सोच और नई तकनीक से उन की कंपनी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दें. अमन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मैं अपने पापा के लिए कुछ भी करूंगी…

Father’s Day Special – हमारी अमृता- भाग 3: क्या अमृता को पापा का प्यार मिला?

उसी समय स्कूल में मतिमंद बच्चों की बनाई गई वस्तुओं की एक प्रदर्शनी आयोजित की गई. बच्चों द्वारा बनाए गए ग्रीटिंग कार्ड, मिटटी के अनगढ़ खिलौने एवं चित्र रखे गए थे. अमृता के चित्र सभी को बहुत पसंद आए. उस की पीठ पर हाथ रख कर जब कोई उसे शाबाशी देता तो उस की आंखों में चमक आ जाती. चित्रकला प्रदर्शनी का उद्घाटन उसी विद्यालय के पिं्रसिपल ने ही किया. वह अमृता के बनाए चित्रों से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने चित्रों की बेहद तारीफ की.

वह अपने स्कूल के बच्चों के चित्रों की प्रदर्शनी विदेश में लगाना चाहते थे. उन्होंने अमृता के 2 चित्र विदेश भेजने के लिए पसंद कर लिए. वीना ने सुना तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. विदेश में अमृता का नाम होगा यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठीं.

आज वीना को अपनी बेटी कहीं से भी अपूर्ण नहीं दिखाई दे रही थी, वह तो पूर्ण है. वह उन्हें कविता एवं वनिता से भी ज्यादा पूर्ण लग रही थी. खुशी के अतिरेक में उन की आंखों से आंसू निकल गए. तुरंत फोन कर के उन्होंने अमर को यह खुशखबरी दी. वह भी चौंक गए कि जिस बेटी को वह दुनिया की नजरों से छिपाते आए थे, आज वही उन का नाम रौशन कर रही है. खुशी से उन की आंखें भर आईं.

शाम को जब अमर घर आए तो प्यार से उन्होंने अमृता का माथा चूम लिया. वह उस की गुडि़या के लिए नया फ्राक एवं उस के लिए खिलौने एवं कपड़े लाए थे. घर के सभी सदस्य एक अरसे बाद साथ बैठे. उन की खिल-खिलाहट देख कर लग रहा था कि घर की असली सुखशांति इसी में ही है. कितने ही सुखसुविधा के सामान इस हंसी के आगे फीके पड़ जाते हैं.

अमर ने बातोंबातों में बताया कि कल अमृता की उपलब्धि के उपलक्ष्य में पार्टी आयोजित की जाएगी. वीना के हृदय में कांटा सा चुभा. वह पिछली पार्टी की बात भूली न थी, फिर भी वह बहस कर के रंग में भंग नहीं डालना चाहती थी, अत: चुपचाप रही.

दूसरे दिन सुबह से वीना पार्टी की तैयारी में लग गईं. अमर आफिस के काम के कारण ऐन वक्त पर आने वाले थे. हमेशा की तरह लान में पार्टी रखी गई थी. कविता, वनिता और वीना तैयार हो कर मेहमानों का स्वागत कर रही थीं.

अमर किसी जरूरी काम से

10-15 मिनट लेट आए. आते ही उन की नजरें किसी को खोजने लगीं. उन्होंने वीना को करीब बुलाया और धीरे से पूछा, ‘‘अमृता कहां है?’’

वीना चौंक कर अमर का मुंह देखती रह गईं फिर बोलीं, ‘‘वह अपने कमरे में बाई के साथ बंद है.’’

‘‘अरे, यह क्या वीना, यह पार्टी अमृता के लिए ही रखी गई है. कुछ देर को ही सही, उसे जरूर यहां लाओ. और हां, मैं जो कपड़े लाया था उसे पहना दो.’’

वीना के पैर खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वह झट अंदर गईं. अमृता को नए कपड़े पहनाए. उसे समझाया कि सब से नमस्ते कैसे करनी है. फिर उस का हाथ पकड़ कर पार्टी में ले आईं. लोग जब सवालिया नजरों से अमृता को देखने लगे तब अमर, अमृता और वीना के पास गए. उन्होंने अमृता के गले में हाथ डाल दिया और बोले, ‘‘लेडिज एंड जेंटिलमैन, यह हमारी तीसरी बेटी अमृता है. इसी के बनाए चित्र पुरस्कार हेतु विदेश में भेजे जा रहे हैं और इसी खुशी में आज यह पार्टी रखी गई है.’’

सभी अमृता को तारीफ की नजरों से देखने लगे. उसे बधाई देने वालों का तांता लग गया. तभी ऋतु ने आ कर अमृता को उस की उपलब्धि पर बधाई दी, साथ ही उस ने अमर को भी बधाई दी. अमर बोले, ‘‘ऋतुजी, यह तो आप की नजर है जो आप ने इसे परखा, नहीं तो हमें भी कहां मालूम था कि इतनी गुणी है हमारी अमृता.’’

अनजाने में अमर के मुंह से निकला ‘हमारी अमृता’ शब्द वीना के हृदय के सारे तार छेड़ गया और प्रतिध्वनि रूप में उस में से आवाजें आने लगीं, ‘हमारी अमृता… हमारी अमृता.’

Father’s Day Special- मुट्ठीभर स्वाभिमान: भाग 3

सहसा सुकांत को फाइलों के नीचे एक किताब सी नजर आई. खींच कर निकाला तो देखा कि यह तो वही डायरी है जो उस ने बाबूजी को वहां से आते समय दी थी. सुकांत अपनी उत्सुकता न रोक पाया. फाइलें बंद कर दी और डायरी हाथ में लिए नीचे आ गया. लगभग आधी डायरी भरी हुई थी, जिसे वह आराम से पढ़ना चाहता था. डायरी का पहला पृष्ठ बाबूजी ने हवाई जहाज में ही लिखा था:

19 जनवरी : बेटे, सुकांत, मैं जानता हूं, तुम नहीं चाहते थे कि मैं अकेले रहने के लिए भारत वापस जाऊं. लेकिन मेरे लिए तुम्हारा सुखी जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण है. मैं तो बीता समय हूं, आने वाला कल तुम हो. मेरे यहां होने से तुम्हारी गृहस्थी में जो दरार पड़ती जा रही थी, वह मेरे लिए शर्म की बात थी. क्या मैं इतना अक्षम हूं कि अपने इस अकेले जीवन का बोझ भी नहीं उठा सकता?

22 जनवरी : वापस तो आ गया हूं, सुकांत, लेकिन घर मानो काटने को दौड़ रहा है. तुम्हारी मां के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता यहां. पड़ोस के योगेश साहब ने अपना नौकर भेज कर साफसफाई तो करवा दी है, खाना भी भिजवाया है, किंतु जीवन की आवश्यकताएं क्या केवल यही हैं?

25 जनवरी : सुकांत, बहुत याद आ रही है तुम्हारी. इस तरह अकेले रहना कितना कठिन है, यह रह कर ही जान सका हूं. इच्छा होती है कि वापस लौट जाऊं, किंतु शांता को मेरा वहां रहना पसंद नहीं. क्या करूं? कुछ सोच नहीं पाता. बहू में अपनी एक बेटी पाने का सपना था मेरा, जो नियति ने पूरा नहीं होने दिया.

26 जनवरी : आज सारा दिन योगेश साहब के साथ बैठ कर टीवी देखता रहा. 3 दिनों बाद उन के बेटे की शादी है, बड़े खुश थे. पत्नी के निधन के बाद आज पहली बार उन्हें दिल खोल कर हंसते देखा.

2 फरवरी : यह सप्ताह योगेश साहब के बेटे की शादी के हंगामे में कैसे बीत गया, पता भी न चला. पड़ोसी होने के नाते मेरा कर्तव्य भी था कि उन के कार्यों में हाथ बंटाऊं. वे भी तो हर समय मेरा ध्यान रखते हैं. लेकिन अब बड़ी थकान हो रही है. आज कहीं नहीं जाऊंगा.

4 फरवरी : अभीअभी मिठाई का डब्बा पकड़ा गए योगेश साहब. कहने लगे कि बहू के घर से आई है. बड़े ही खुश, खिलेखिले से दिखते हैं वे आजकल. पत्नी की मृत्यु उन्हें भी मेरी ही तरह अकेला कर गई थी. अब बहू ने आ कर घर में रौनक कर दी है. सचमुच, सुशील लड़की है, सगे पिता जैसा प्यार देती है योगेशजी को.

5 फरवरी : अब मैं होटल का खाना खा कर ऊब गया हूं. घर का बना खाना खाने की इच्छा होती है. कहा तो है कई लोगों से, शायद कोई नौकर मिल जाए. कोई छोटा सा लड़का भी मिल जाए तो मैं सब संभाल लूंगा. कभी सोचा भी न था कि यों अकेले रहना पड़ेगा मुझे. अनुभा के बिना यह घर कितना बेरौनक है.

8 फरवरी : अभीअभी सुकांत ने फोन पर बताया कि मैं दादा बन गया हूं. अकेले संभाल ही नहीं पा रहा इतनी खुशी. काश, आज अनुभा जीवित होती तो दादी बनने पर कितनी खुश होती. सुकांत के बच्चों को गोद में खिलाने की अदम्य लालसा मन में लिए ही इस दुनिया से चली गई. प्रकृति की इच्छा के आगे हम कितने विवश हैं. अब मुझे ही देखो, मैं तो जीवित हूं, फिर भी कितनी दूर हूं अपनी पोती से. तड़प रहा हूं उस नन्हीं गुडि़या को एक नजर देखने के लिए. किंतु नहीं, जब तक शांता स्वयं अपने मुंह से आने को न कहे, मुझे वहां नहीं जाना चाहिए. सबकुछ तो चला गया, केवल मुट्ठीभर स्वाभिमान ही तो शेष है. कैसे छोड़ दूं इसे भी?

11 फरवरी : अब रहा नहीं जाता, सुकांत की बच्ची को देखे बिना. कैसी होगी वह गुडि़या. जाने किस पर गई होगी. अनुभा का भी कोई गुण होगा उस में या नहीं? आज ही खत लिखता हूं सुकांत को कि आने के लिए छुट्टी का प्रबंध करे. मैं नहीं जा सकता वहां, लेकिन वे तो यहां आ कर रह सकते हैं न?

13 फरवरी : कल से लिफाफा ला कर रखा है, लेकिन सोच नहीं पा रहा कि क्या सुकांत को आने के लिए कहना ठीक होगा? इतने छोटे बच्चे के साथ सफर करना क्या कोई समझदारी होगी भला? अनुभा भी सदा यही कहती थी कि मैं हर काम में जल्दबाजी करता हूं. उस की कही सब बातें, सारी नसीहतें याद आती रहती हैं. नहीं, मुझे सब्र करना ही होगा. अभी सुकांत को आने के लिए खत लिखना ठीक नहीं.

16 फरवरी : अनुभा, तुम नहीं हो, इसलिए इस डायरी का सहारा लेना पड़ता है. इस बार के अमेरिका प्रवास ने मेरे हृदय पर जो मुहर लगाई, वह अमिट है. किंतु किस से कहूं यह सब? कैसे अपना मन हलका करूं? जो कुछ किसी से भी नहीं कह सकता, उसे कागज के इन कोरे पन्नों पर उतार कर मन को बड़ा चैन मिलता है. तुम होती तो…

अब सुकांत से और अधिक न पढ़ा गया. आंखों में आंसुओं की बाढ़ सी आ गई थी. अपने बड़ों के प्रति किया गया अपनी पीढ़ी का यह अन्याय उस के समक्ष एक चुनौती बन कर खड़ा हो गया कि क्या हक है उसे या उस की पीढ़ी को इस तरह अपने बुजुर्गों को बेसहारा छोड़ने का, उन के स्वाभिमान को ललकारने का, जिन के प्यार का खजाना अभी भी चुका नहीं है, जो बेचैन हैं किसी पर अपना प्यार लुटाने को.

क्यों इस सच को उस की पीढ़ी स्वीकार करने से कतराती है कि वे लोग नहीं जी सकते अकेले? किसी छांह की तलाश अब इन्हें भी है, थके कदमों को किसी बांह का सहारा इन्हें भी चाहिए. कहां गए वे दिन जब बच्चे अपने मातापिता की लंबी आयु की दुआएं मांगा करते थे?

और सहसा सुकांत को लगने लगा कि किसी को तो उदाहरण बनना ही है, तो फिर वही क्यों नहीं? क्या कमी है यहां उस के लिए? इस घर में रह कर तो उसे सदा यही लगेगा कि मां और बाबूजी अभी भी उस के साथ हैं, उन की निश्छल सांसों से महक रहा है सारा घर. आज तक वह कर ही क्या पाया है मां व बाबूजी के लिए?

अब यदि वह उन के यत्न से बसाए इस घर को आ कर संभाल लेगा तो क्या उन के मन को शांति नहीं मिलेगी? मराणोपरांत भी बाबूजी उस के लिए इतना पैसा बैंक में छोड़ गए हैं कि थोड़ी सी लगन व मेहनत से वह यहां दोबारा जम सकता है, अपना नया कारोबार शुरू कर सकता है. अच्छाभला घर है, पैसा भी है. फिर सोचना कैसा?

इन विचारों से प्रभावित होते ही विदेश की उस मिट्टी से सुकांत को न जाने कैसी वितृष्णा हो उठी. उसे लगा अपनी नन्हीं बच्ची को जल्दी से जल्दी अपनी धरती पर ले आए. नहीं तो संबंधों की यह मधुरिमा उस के रक्त में घुल नहीं सकेगी. उस पराए देश में पलबढ़ कर शायद वह भी सुकांत के साथ कल यही करेगी, जो सुकांत ने अपने मातापिता के साथ किया. सुकांत कांप उठा कि नहीं, ऐसा अनर्थ नहीं होने देगा वह.

ऊपर जा कर सुकांत ने अलमारी खोली और बड़े यत्न से बाबूजी की डायरी संभाल कर वापस उस में रख दी. यह उस के लिए अब बाबूजी की दी हुई वह अनमोल निशानी थी जिस ने उस का सही मार्गदर्शन किया.

कल को उस की अपनी बेटी बड़ी हो कर अगर उस से यह सवाल करेगी कि वह अमेरिका छोड़ कर भारत में रहने के लिए वापस क्यों आया, तो वह डायरी उसे पढ़ने के लिए देगा. तब अपने दादादादी को खो कर उस का बचपन अधूरा रह गया, यह दुख उसे भी सालेगा और तब शायद सुकांत अपनी बेटी की बांहों में मुंह छिपा कर रो सकेगा. अपने हृदय पर सालोंसाल चढ़ती दुख की परतों को एकएक कर उतार फेंकेगा.

सुकांत जानता था कि उस के इस फैसले को शांता आसानी से स्वीकार नहीं करेगी, अपनी ताकत से पूरा विरोध करेगी. किंतु सुकांत का निश्चय अब अटल था कि नहीं, वह नहीं बेचेगा इस मकान को, यहीं वापस आएगा वह, जल्दी से जल्दी हमेशाहमेशा के लिए. यही सच्चा आदरसम्मान होगा उस का अपने मातापिता के प्रति.

शेष चिह्न: भाग 3 – कैसा था निधि का ससुराल

‘‘ठहरो, निधि, तुम कभी शौपिंग को नहीं जाती हो? भई, रुपएपैसे मेरी अलमारी में पड़े रहते हैं. जेवर, कपड़े जो चाहिए खरीद लाया करो. कोई रोक नहीं है. आजकल तो महिलाएं नएनए डिजाइन के गहनेकपड़े पहन कर घूमती हैं. मैं चाहता हूं कि तुम भी वैसी ही घूमो, क्लब ज्वाइन कर लो, इस से परिचय बढ़ेगा. पढ़ीलिखी हो, सुंदर हो, थोड़ा स्मार्ट बनो.’’

दूसरे दिन दोनों बहनें बैंक जा कर सारे जेवर बैंक लाकर में रख आईं और चाबी अपने पास रख ली.

निधि कई बार मायके हो आई थी. कभी सोचा था कि दोनों छोटी बहनों को वह अपने पास रख कर पढ़ाएगी पर वह सब जैसे स्वप्न हो गया. हां, रुपए ले जा कर वह सब को कपड़े आदि अवश्य खरीद देती. हर बार जरूरत की कुछ न कुछ महंगी चीज खरीद कर रख जाती. रंगीन टेलीविजन, पंखे, छोटा सा फ्रिज आदि. इस से ज्यादा रुपए लेने की उस की हिम्मत नहीं थी. जब तक निधि मायके रहती कुछ दिन को अच्छा भोजन पूरे घर को मिल जाता, बाद में फिर वही पुराना क्रम चल पड़ता.

अभी मायके से आए निधि को केवल 15 दिन ही हुए थे कि अचानक जैसे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वह बीमार थी. कई दिनों से खांसी से पीडि़त थी. दोनों बहनें खापी कर अपने कमरे में बैठी टेलीविजन देख रही थीं.

तभी जोर से दरवाजे की घंटी बजी. उस ने आ कर दरवाजा खोला तो कुछ अनजाने चेहरों को देख कर चौंक गई.

‘‘आप लोग कौन हैं. साहब घर पर नहीं हैं,’’ उन्हें भीतर घुसते देख कर निधि घबरा गई, ‘‘अरे, अंदर कैसे घुस रहे हैं आप लोग?’’ वह चिल्ला कर बोली ताकि दोनों बहनें सुन लें लेकिन  टेलीविजन के तेज स्वर के कारण उस की आवाज वहां तक नहीं पहुंची. खिड़की से झांक कर दोबारा निधि चिल्ला कर बोली, ‘‘मधु, देखो ये लोग कौन हैं और घर में घुसे जा रहे हैं.’’

‘‘मैडम, हम विजिलेंस आफीसर हैं और आप के यहां छापा मारने आए हैं. यह देखिए मेरा आई कार्ड.’’

दोनों बहनें बाहर दौड़ कर आईं और चिल्ला कर बोलीं, ‘‘पापा घर पर नहीं हैं. जब वह आएं तब आप लोग आइए.’’

‘‘पापा आप के अभी नहीं आ पाएंगे, क्योंकि वह पुलिस हिरासत में हैं.’’

‘‘क्यों, क्या किया है उन्होंने?’’

‘‘शायद आप को पता नहीं कि आप के पापा रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़े गए हैं. अब तो बेल होने पर ही घर आ पाएंगे,’’ यह सुन कर निधि को चक्कर आ गया और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

‘‘पापा से फोन कर के हम बात कर लें तब आप को अंदर घुसने देंगे,’’ यह कहते हुए मधु ने फोन लगाया तो पापा का भर्राया स्वर गूंजा, ‘‘कानून में बाधा मत डालो, मधु. लेने दो तलाशी.’’

शाम को जब वह हारेथके घर आए तो लग रहा था महीनों से बीमार हों. पैर लड़खड़ा रहे थे. उन्होंने पहले निधि को फिर मधु व विधु की ओर देखा. बरामदे में पूरी शक्ति लगा कर वह अपने भारी- भरकम शरीर को चढ़ा पाए पर संभल नहीं पाए और धड़ाम से गिर पड़े. होंठों से झाग बह चला. तीनों के मुंह से चीखें निकल गईं. डाक्टर आया तो उन्होंने तुरंत अस्पताल में भरती करने की सलाह दी. तीनों उन्हें एंबुलेंस में लाद कर अस्पताल ले गईं. डाक्टरों ने हृदयाघात बताया.

निधि सारी रात पति के सिरहाने बैठी रही. दोनों बहनें कुछ देर को घर लौटीं, क्योंकि चपरासी ने बताया था कि मांजी की हालत बहुत खराब हो गई है.

उन्हें होश आया तो वह बोले, ‘‘निधि, मुझे बहुत दुख है कि अभी अपने विवाह को केवल 10 माह ही हुए हैं और मैं इस प्रकार झूठे मामले में फंसा दिया गया. तुम यह मकान बेच कर मां को ले कर मायके चली जाना. मधु के मामा संपन्न हैं. वे उन्हें जरूर इलाहाबाद ले जाएंगे. यदि मां को ले जाना चाहें तो ले जाने देना. मैं ने कुछ रुपए कबाड़खाने के टूटे बाक्स में पुराने कागजों के नीचे दबा रखे हैं. वहां कोई न ढूंढ़ पाएगा. तुम अपने कब्जे में कर लेना. बचे रहे तो मुकदमा लड़ने के काम आएंगे.’’

निधि फूटफूट कर रो पड़ी फिर बोली, ‘‘पर वहां तो सील लग गई है. पुलिस का पहरा है,’’ निधि के मुंह से यह सुन कर उन की आंखों से ढेरों आंसू लुढ़क पड़े. फिर पता नहीं कब दवा के नशे में सोतेसोते ही उन्हें दूसरा दौरा पड़ा, 3 हिचकियां आईं और उन के प्राण निकल गए.

निधि की तो अब दुनिया ही उजड़ गई. जिस धन की इच्छा में उस ने अधेड़ विधुर को अपनाया था वह उसे मंझधार में ही छोड़ कर चला गया.

मातापिता सब आए. मधु के नाना, मामा आदि पूरा परिवार जुड़ आया. सब उस के अशुभ चरणों को कोस रहे थे. चारों ओर के व्यंग्य व लांछनों से वह घबरा गई. पुलिस ने उस के मायके तक को खंगाल डाला था.

मांजी तो जीवित लाश सी हो गई थीं. निधि की हालत देख कर उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और पूजागृह से अपनी संदूक खींच कर उसे यह कहते हुए सौंप दी, ‘‘बेटी, इस में जो कुछ है तेरा है. मैं तो अपनी बेटी के पास शेष जीवन काट लूंगी. यह लोग तुझे जीने नहीं देंगे. मकान बिकेगा तो तुझे भी हिस्सा मिलेगा. मेरे दामाद व बेटी तुझे अवश्य हिस्सा दिलवाएंगे. तू अपने नंगे गले में मेरा यह लाकेट डाल ले और ये चूडि़यां, शेष तो सब सरकारी हो गया. बेटी, 1 साल बाद जहां चाहे दूसरा विवाह कर लेना… अभी तेरी उम्र ही क्या है.’’

वह चुपचाप रोती रही. फिर उसे ध्यान आया और जहां पति ने बताया था वहां ढूंढ़ा तो 10 लाख की गड्डियां प्राप्त हुईं. तलाशी तो पहले ही हो चुकी थी इस से वह सब ले कर मांबाप के साथ मायके आ गई. बस, वह पेंशन की हकदार रह गई थी. वह भी तब तक जब तक कि वह पति की विधवा बन कर रहे.

निधि ने रुपए किसी बैंक में नहीं डाले बल्कि उन से कंप्यूटर खरीद कर बहनों के साथ अपनी कंप्यूटर क्लास खोल ली. उस ने बैंक से लोन भी लिया था, जिस से कभी पकड़ी न जाए. अच्छी पेंशन मिली वह भी केस निबटने के कई वर्ष बाद.

मैं निधि के घर तुरंत गई थी. उस का वैधव्य रूप, शिथिल काया, कांतिहीन चेहरा देख कर खूब रोई.

‘‘मीनू, देख, कैसा राजसुख भोग कर लौटी हूं. रही बात अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिलने की तो वह 2 राज्यों के चलते कभी न मिल पाएगी. मैं उत्तर प्रदेश में रह नहीं सकती और मध्य प्रदेश में नौकरी मिल नहीं सकती. हर माह पेंशन के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ेगा. गनीमत है कि मैं बाप पर भार नहीं हूं. पति सुख नहीं केवल धन सुख भोग पाऊंगी. इसी रूप की तू सराहना करती थी पर वहां तो सब मनहूस की पदवी दे गए.

‘‘वे क्या जानें कि मैं ने आधी रात को नशे में चूर डगमगाए पति की भारीभरकम देह को कैसे संभाला है. मद में चूर, कामातुर असफल पुरुष की मर्दानगी को गरम रेत पर पड़ी मछली सी तड़प कर लोटलोट कर काटी हैं ये पूरे 10 माह की रातें. मेरा कुआंरा अनजाना तनमन जैसे लाज भरी उत्तेजना से उद्भासित हो उठता.’’

‘‘निधि, संभाल अपनेआप को. तू जानती है न कि मैं अभी इस अनुभव से सर्वथा अनजान हूं.’’

‘‘ओह, सच में मीना. मैं अपनी रौ में सब भूल गई कि तू यह सब क्या जाने. मुझे क्षमा करेगी न?’’

‘‘कोई बात नहीं निधि, तेरी सखी हूं न, जो समझ पाई वह ठीक, नहीं समझी वह भी ठीक. तेरा मन हलका हुआ. शायद विवाह के बाद मैं तेरी ये बातें समझ पाऊंगी, तब तेरी यह व्यथा बांटूंगी.’’

‘‘तब तक ये ज्वाला भी शीतल पड़ जाएगी. मैं अपने पर अवश्य विजय पा लूंगी. अभी तो नया घाव है न जैसे आवां से तप कर बरतन निकलता है तो वह बहुत देर तक गरम रहता है.’’

‘‘अच्छा, अब चलूंगी. बहुत देर हो गई.

प्यार के राही-भाग 3 : हवस भरे रिश्ते

वे यह भी जानते थे कि मासूम से मैं प्यार करती हूं, इसलिए उन्होंने एक दिन मौका पा कर मासूम से कहा, ‘‘बेटे, अब तू इस घर में ज्यादा दिनों तक बचा नहीं रह सकता. मैं अधेड़ हूं, अकसर बीमार रहता हूं. न जाने कब मेरे प्राण निकल जाएं. मेरे मरने के बाद तुम बिना माली के गुलशन की तरह हो जाओगे, इसलिए अभी ही तुम किसी मनपसंद लड़की से शादी कर लो. वैसे, गजाला बहुत अच्छी लड़की है. मैं ने उसे बचपन से अपनी गोद में खिलाया है. उस के साथ तुम हमेशा खुश रहोगे.’’

‘‘लेकिन मैं गजाला से मिलूंगा कैसे? अम्मी ने तो मुझ पर इतना सख्त पहरा लगा दिया है कि मैं घर से भी बाहर नहीं निकल पाता,’’ मासूम ने अपना दर्द कहा.

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. मैं आज रात तुम दोनों को मिलवा दूंगा, तब तुम दोनों आपस में तय कर लेना.’’

उस रात मौका पा कर चाचा ने मासूम राही से मेरी मुलाकात कराई. मैं ने रोतेरोते मासूम से कहा, ‘‘अब मैं एक पल भी तुम से जुदा नहीं रह सकती. वह घर मेरे लिए कैदखाने के समान हो गया है. मेरी हालत पिंजरे में कैद उस

पंछी की तरह हो गई है, जो किसी

दरिंदे से बचने के लिए सिर्फ पंख फड़फड़ा सकता है, लेकिन उड़ नहीं सकता. अब यही उपाय है कि हम दोनों निकाह कर लें.’’

‘‘तुम फिक्र मत करो, मैं ने तुम से प्यार किया है. मैं तुम्हारा दर्द मिटाने के लिए अपनी जान भी गंवा सकता हूं. मैं भी यह चाहता हूं कि हम दोनों जल्द ही शादी कर लें,’’ मासूम ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

अगले दिन मसजिद में मासूम राही के साथ मैं ने निकाह कर लिया. हम दोनों ने बीवीशौहर के रूप में एकदूसरे को सौंप दिया. उस समय मासूम राही की उम्र 21 साल और मेरी उम्र 20 साल थी. वह रात हम दोनों ने एक फुलवारी में बिताई.

मैं जानती थी कि मेरे घर वाले किसी भी कीमत पर मासूम को अपना दामाद नहीं मानेंगे और चाची डौली जरूर कोई न कोई बवाल खड़ा करेंगी. ऐसी हालत में शादी के बाद इस महल्ले में हम दोनों का रहना खतरे से खाली नहीं था, इसलिए भोर होने से पहले ही हम दोनों महल्ले की सरहद से पार हो गए. हम दोनों पैदल ही शहर की ओर बढ़ने लगे.

सुबह होने पर जब चाची ने मासूम को घर से गायब पाया, तो वे बेहद घबरा गईं. उन के गुस्से का पारा चढ़ने लगा. उन्होंने चाचा को अपने भाइयों से पिटवाने की धमकी दी और कहा कि तुम ने ही मासूम को भगा दिया है.

चाचा ने जबान नहीं खोली. चाची ने अपने गुंडों से महल्ले का चप्पाचप्पा छनवा मारा, लेकिन हम दोनों का कहीं कुछ पता नहीं लग सका.

चाची को शक था कि गजाला मासूम के अलावा किसी और के साथ नहीं जा सकती. उन्हें जब पता लगा कि गजाला भी घर से गायब है, तो उन का शक यकीन में बदल गया. वे गुस्से में हमारे घर आईं और पूछा, ‘‘गजाला कहां है?’’

अब्बाजान भी इस बारे में नहीं जानते थे, इसलिए अपनी इज्जत बचाने के लिए चुप्पी ही साधे रखी.

तब चाची ने उलटा इलजाम लगाया. अब्बाजान ने जानबूझ कर गजाला और मासूम को कहीं भगा दिया है, यह सोच कर चाची ने धमकी देते हुए कहा, ‘‘तुम सबकुछ जानते हुए भी कुछ नहीं बता रहे हो. मैं तुम्हें 12 घंटे का समय दे रही हूं. तब तक मासूम को मेरे हवाले कर दो, वरना मैं तुम लोगों पर मासूम को अगवा करने के इलजाम में थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दूंगी. इस का अंजाम क्या होगा, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

अब्बाजान तो सचमुच में ये सब नहीं जानते थे. वे लड़खड़ाई जबान में बोले, ‘‘एक हफ्ते से गजाला मामू के यहां गई हुई है.’’

तब चाची गुस्से से आगबबूला हो कर बोलीं, ‘‘तुम झूठ मत बोलो. हमें

12 घंटे का इंतजार है. उस के बाद भी अगर तुम ने मासूम का पता नहीं बताया, तो ठीक नहीं होगा.’’

आखिर चाची ने अब्बाजान और हमारे खिलाफ अगवा के इलजाम में रिपोर्ट दर्ज करवा ही दी. पुलिस ने तुरंत अब्बाजान के खिलाफ वारंट जारी कर गिरफ्तार कर लिया.

जब पुलिस ने उन से पूछताछ की, तो उन्होंने बताया, ‘‘इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता. न ही हम ने मासूम को अगवा किया. शादी की भी कोई बात नहीं है. मैं तो खुद नहीं चाहता कि हमारी बेटी की शादी उस बिन जात से हो.

‘‘2 महीने पहले हमें खबर मिली कि गजाला और मासूम प्यार करते हैं, तो मैं ने और मेरी बेगम ने गजाला को बहुत कड़ी सजा दी, जिस के चलते गजाला को अस्पताल में रहना पड़ा. कल रात गजाला और मासूम कहां चले गए, यह मुझे पता नहीं.’’

पुलिस इंस्पैक्टर ने एक बाप की बेबसी समझी और बात को सच्चा समझ कर अब्बा को छोड़ दिया. उस के बाद पुलिस तुरंत हरकत में आई और आसपास के इलाके में पूरी सरगर्मी के साथ हम दोनों को तलाश करने लगी. चाची भी पुलिस के साथ थीं.

हम दोनों पैदल ही अपना सफर तय कर रहे थे. इसलिए हम लोग पुलिस की पकड़ से बच नहीं सके. पुलिस ने हमें उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब हम दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हो रहे थे.

पुलिस हमें गिरफ्तार कर थाना में ले आई. चाची ने पुलिस को घूस के रूप में भरपूर रुपए दे कर खुश कर दिया. इसलिए पुलिस ने मासूम को चाची के हवाले कर दिया और मुझे कैद रखा.

मासूम से बिछुड़ कर मैं रोतेरोते पागल सी हो गई थी. थोड़ी देर बाद अब्बा को यह मालूम हुआ, तो वे तुरंत भागेभागे थाना में आए और मुझे जमानत पर छुड़ा कर ले गए.

मेरे आने पर अम्मी और अब्बा मुझ पर जुल्मों का कहर ढाने लगे, जैसे मैं उन की औलाद नहीं, बल्कि कोई भेड़बकरी होऊं. अब्बा ने तो मुझे ऐसा थप्पड़ मारा कि मेरे मुंह से खून निकलने लगा.

मेरी देखभाल छोटी बहन अफसाना करने लगी. उधर चाची ने मासूम को मकान के एक कमरे में कैद कर लिया और शादी करने के लिए रातदिन उस पर दबाव डालने लगीं.

चाचा जशीम राही को चाची की इस हरकत का पता लगा,

तो उन को बहुत गहरा सदमा

पहुंचा, जिस से उन की हालत और बिगड़ गई.

चाची 42 साल की थीं ही. वे चाचा से छुटकारा पाना चाहती थीं, क्योंकि वही उन के रास्ते का कांटा थे, इसलिए उन की बेबसी की हालत में भी उन की दवादारू नहीं कराई और उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिस के चलते वे कुछ दिनों के बाद चल बसे. तब मासूम पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा.

मियांबीवी राजी : क्यों करें रिश्तेदार दखलअंदाजी – भाग 3

‘‘और यदि दोनों ही न रूठें तो?’’ दादू के दिमाग में खिचड़ी पक रही थी. उन्होंने बृजलाल से अपना आइडिया बांटा. उन के कहने पर झूमुर ने उसी शाम परिवार वालों के लिए फिल्म की टिकटें मंगवा दीं. जब सभी खुशीखुशी फिल्म देखने चल पड़े तो अचानक दादू ने तबीयत नासाज होने की बात कर अपने संग राधेश्याम और बृजलाल को घर में रोक लिया. अब सब जा चुके थे. सो, दादू चैन से अपने दोनों बेटों से बात कर सकते थे. ‘‘देखो भाई, मुझे तुम दोनों से एक बहुत ही गंभीर विषय में बात करनी है. मेरी एक समस्या है और इस का उपाय तुम दोनों के पास है,’’ कहते हुए उन्होंने पूरी बात राधेश्याम और बृजलाल के समक्ष रख दी.  दोनों मुंह खोले एकदूसरे को ताकने लगे. इस से पहले कि कोई कुछ बोलता, दादू आगे बोले, ‘‘मैं पहले ही एक पोती को अपनी जिंदगी से खो चुका हूं सिर्फ इसी सिलसिले में. झूमुर मेरी सब से प्यारी पोती है और सब जानते हैं सूद असल से प्यारा होता है. मैं नहीं चाहता हूं कि झूमुर को भी खो दूं या हमारी झूठी शान और इज्जत के चक्कर में झूमुर अपनी हंसीखुशी खो बैठे. इस परेशानी का हल तुझे निकालना है राधे, और वह भी ऐसे कि किसी को कानोंकान खबर न हो.’’

‘‘मैं, पिताजी?’’ राधेश्याम हतप्रभ रह गए. एक तो विधर्म विवाह की बात से वे परेशान थे, ऊपर से पिताजी इस का हल निकालने का बीड़ा उन्हें ही दे बैठे थे.

‘‘बस, यह समझ ले कि मेरे परिवार के हित में मेरी यह आखिरी इच्छा है. मेरी पोती की खुशी और घरपरिवार की इज्जत-दोनों का खयाल रखना है,’’ पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि थी.

राधेश्याम ने बहुत सोचा-पहले तो बृजलाल से आंखोंआंखों में मूक शिकायत की लेकिन उस की झुकी गरदन के आगे वे भी बेबस थे. दोनों भाइयों ने मिल कर सोचा कि रिदम के परिवार से मिला जाए और आगे की बात तय की जाए. परिवार के बाकी सदस्यों को बिना खबर किए दोनों दूसरे शहर रिदम के घर चले गए. वहां बातचीत वगैरा हो गई और अपने घर लौट कर दोनों भाइयों ने बताया कि एक अच्छा रिश्ता मिल गया. सो, बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां आरंभ हो गईं.

किंतु रिश्तेदारों से कोई बात छिपाना ऐसे है जैसे धूप में बर्फ जमाना. रिश्तेनाते मकड़ी के जालों की भांति होते हैं. बड़े ताऊजी ने बूआ को कह डाला, साथ ही ताकीद की कि वह आगे किसी से कुछ नहीं बताएगी. बूआ के पेट में मरोड़ उठी तो उन्होंने अपनी बेटी को बता दिया. और सब रिश्तेदारों में बात फैल गई कि यह रिश्ता झूमुर की पसंद का है, तथा लड़का ईसाई है लेकिन सभी चुप थे. यह बवाल अपने सिर कौन लेता कि बात किस ने फैलाई.

बड़े संयुक्त परिवारों की यह खासीयत होती है कि मुंह के सामने ‘हम साथसाथ हैं’ और पीठ फिरते ही ‘हम आप के हैं कौन?’ सभी रिश्तेदार शादी वाले घर में एकदूसरे का काम में हाथ बंटवाते, स्त्रियां बढ़चढ़ कर रीतिरिवाज निभाने में लगी रहतीं, कोई न कोई रिवाज बता कर उलझउलझाती रहतीं परंतु जहां मौका पड़ता, कोई न कोई कह रहा होता, ‘‘अब हमारे बच्चों पर इस का क्या असर होगा, आखिर हम कैसे रोक पाएंगे आगे किसी को अपनी मनमानी करने से. ऐसा ही था तो छिपाने की क्या आवश्यकता थी. बेचारी रेणु के साथ ऐसा क्यों किया था फिर…’’

दादू के कानों में भी खुसुरफुसुर पड़ गई. यह तो अच्छा नहीं है कि पता सब को है, सब पीठ पीछे बातें भी बना रहे हैं किंतु मुंह पर मीठे बने हुए हैं. दादू को पारिवारिक रिश्तों में यह दोगलापन नहीं भाया. उन के अनुभवी मस्तिष्क में फिर एक विचार आया किंतु इस बार उन्होंने स्वयं ही इसे परिणाम देने की ठानी. न किसी दूसरे को कुछ करने हेतु कहेंगे, न वह किसी और से कहेगा, और न ही बात फैलेगी.

नियत दिन पर बरात आई. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. फिर कुछ ऐसा हुआ जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अचानक विवाह समारोह में एक व्यक्ति आए हाथ में रजिस्टर कलम पकड़े. उन के लिए एक कुरसी व मेज लगवाई गई. और दादू ने हाथ में माईक पकड़ घोषणा करनी शुरू कर दी, ‘‘मेरी पौत्री के विवाह में पधारने हेतु आप सब का बहुतबहुत आभार…आप सब ने मेरी पौत्री को पूरे मन से आशीष दिए. हम सब निश्चितरूप से यही चाहते हैं कि झूमुर तथा रिदम सदैव प्रसन्न रहें. इस अवसर पर मैं आप सब को एक खुशखबरी और देना चाहता हूं. मेरा परिवार इस पूरे शहर में, बल्कि आसपास के शहरों में भी काफी प्रसिद्ध श्रेणी में आता है किंतु मेरे परिवार के ऊपर एक कलंक है, अपनी एक बेटी की इच्छापालन न करने का दोष. आज मैं वह कलंक धोना चाहता हूं. हम कब तक अपनी मर्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’

‘‘मेरी झूमुर ने एक ईसाई लड़के  को चुना. हमें भी वह लड़का व उस का परिवार बहुत पसंद आया. और सब से अच्छी बात यह है कि न तो झूमुर अपना धर्म बदलना चाहती है और न ही रिदम. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा. लेकिन कानूनन ऐसी शादियां सिविल मैरिज कहलाती हैं जिस के लिए आज यहां रजिस्ट्रार साहब को बुलाया गया है.’’

दादू के इशारे पर झूमुर व रिदम दोनों रजिस्ट्रार के पास पहुंचे और दस्तखत कर अपने विवाह को कानूनी तौर पर साकार किया.

इस प्रकार खुलेआम सारी बातें स्पष्ट रूप से कहने और स्वीकारने से रिश्तेदारों द्वारा बातों की लुकाछिपी बंद हो गई तथा आगे आने वाले समय के लिए भी बात खुलने का डर या किसी प्रकार की शर्मिंदगी का प्रश्न समाप्त हो गया. दादू की दूरंदेशी और समझदारी ने न केवल झूमुर के निर्णय की इज्जत बनाई बल्कि परिवार में भी एकरसता घोल दी. पूरे शहर में इस परिवार की एकता व हौसले के चर्चे होने लगे. विदाई के समय झूमुर सब के गले मिल कर रो रही थी. किंतु दादू के गले मिलते ही, उन्होंने उस के कान में ऐसा क्या कह दिया कि भीगे गालों व नयनों के बावजूद वह अपनी हंसी नहीं रोक पाई. जब मियांबीवी राजी तो क्यों करें रिश्तेदार दखलबाजी.

जीवनसाथी – भाग 2 : उस नौजवान ने कैसे जीता दिल

एक दिन मां ने हमें दीपक के साथ गेंद खेलते देख लिया. वे उसी समय अपने पास बुला कर पूछने लगीं, ‘‘उधर क्यों गए थे? क्या कर रहे थे?’’ ‘‘कुछ नहीं मां, हमारी गेंद वहां गिर गई थी,’’ मैं ने बहाना बनाया. ‘‘अच्छा… इधर थोड़ा आंगन है खेलने को?’’ मां ने हमें झिड़क दिया था. फिर समझाते हुए बोलीं, ‘‘चलो, अच्छे बच्चे उधर नहीं जाते.’’

दीपक सहम गया था और हैरानी से मां को देखने लगा था. मुझे भी उन की बातें समझ में नहीं आ रही थीं कि आखिर ये जातपांत है क्या बला? समाज में यह ऊंचनीच, यह भेदभाव की दीवार क्यों है? दीपक पढ़ाई में बहुत तेज था, इसलिए मैं हमेशा उस की तारीफ करती.

मैं उस से दोस्ती तोड़ नहीं पाई. घर वालों की मुखालफत के बावजूद हम गहरे दोस्त बन गए.  दीपक के पास फटीपुरानी किताबें होती थीं. वह अपना काम करने के लिए कई बार मुझ से किताबें मांगता और मैं उसे खुशी से दे देती.

कभीकभी मैं भी चोरीछिपे उस के कमरे में चली जाती और हम दोनों इकट्ठे पढ़ते रहते.सर्दी के दिनों में दीपक पतले कपड़ों में ठिठुरता रहता. तब उस की मां मेरे मातापिता से मनोज के पुराने कपड़े मांगती. मां मनोज के कपड़े उसे दे देतीं.

उन ढीलेढाले कपड़ों को पहन कर दीपक की सुंदरता में और भी निखार आ जाता था. उस की जरूरत की थोड़ीबहुत चीजें मैं भी चोरीछिपे उसे दे देती, तब वह बारबार मेरा शुक्रिया अदा करता. एक बार मैं उसे अपने कमरे में ले आई, तभी दादीजी पता नहीं उधर कहां से निकल आईं.

दीपक को वहां देख कर वे आगबबूला हो गईं और उसे डांटती हुई बोलीं, ‘‘अरे, यहां तेरा क्या काम है? यहां क्यों आया है?’’ दीपक की घिग्घी बंध गई. वह डर गया. दादीजी उस के कान मरोड़ते हुए बोलीं, ‘‘चल, भाग यहां से… दोबारा कभी इस कमरे में आया तो तेरी टांगें तोड़ दूंगी.’’ दादीजी उसे कान से खींचते हुए बाहर तक ले गईं, जहां पार्वती काम कर रही थी.

उस से जा कर बोलीं, ‘‘अरे पार्वती, अपने इस लाड़ले को समझा  कर रखा करो, ऐसे ही कमरों में घुस जाता है.’’ पार्वती ने दीपक को झिड़का, फिर दादीजी से हाथ जोड़ कर कहने लगी, ‘‘बीबीजी, माफी दे दो, अभी बच्चा है. समझता नहीं…’’ ‘‘आगे से ऐसी गुस्ताखी नहीं होनी चाहिए,’’ दादीजी ने चेतावनी दी थी.  ‘‘जी, अच्छा…’’ पार्वती ने अपनी जान छुड़ाई थी.

दादीजी ने फिर मुझे भी लताड़ा था, ‘‘तू क्यों आने देती है री इसे? खबरदार जो इसे यहां घुसने दिया.’’ उस दिन के बाद से दीपक दादीजी और मां से डरने लगा. खुद तो हमारे कमरों में कदम नहीं रखता था, परंतु जब कभी मैं उस के कमरे में जाती तो डरते हुए कह उठता, ‘‘आशा, तुम यहां न आया करो.  तुम्हें मेरी वजह से दादीजी से मार  पड़ जाएगी.’’ मैं हंस कर उस की बात टाल देती थी.

धीरेधीरे वक्त गुजरता रहा. हम दोनों 8वीं क्लास में पहुंच गए. दीपक की मां पार्वती बहुत मेहनत करती. वह सुबह से ले कर देर रात तक काम करती रहती. एक दिन अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से वह चल बसी. दीपक के लिए यह गहरा सदमा था.

वह दीवार से टक्करें मारमार कर रोया था. हम सभी उसे तसल्ली दे रहे थे कि वह हमारे घर में ही रहेगा. दीपक पूरे जिले में अव्वल आया था, इसलिए उसे अब वजीफा मिलने लगा था. कुछ रुपया उस की मां ने भी उस के नाम पर बैंक में जमा कर रखा था.

इस तरह उस की पढ़ाई का खर्च चल पड़ा. दादीजी और मां का 2 बरस तक उस के साथ ठीक बरताव रहा, परंतु जैसेजैसे वह बड़ा होता जा रहा था, उन के बरताव में बदलाव होता चला गया. उन्हें अब दीपक एक आंख नहीं भाता था. वे चाहती थीं कि वह हमारा घर छोड़ कर कहीं और चला जाए, ताकि कमरा खाली करवाया जा सके.

एक दिन सभी लोग घूमने के लिए बाजार चले गए थे. घर में मैं और मनोज ही थे. मैं दीपक को अपने कमरे में ले आई. हम तीनों काफी देर तक बातचीत करते रहे, उस के बाद हम उसे खाना खिलाने के लिए रसोई में ले गए. उसी समय दादीजी, मां और पिताजी जल्दी ही बाजार से घर लौट आए और हमें इकट्ठे खाना खाते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया.

Father’s Day Special- मुट्ठीभर स्वाभिमान: भाग 2

‘तो मैं क्या करूं? मुझे भी तो घूमने के कभीकभी ही अवसर मिलते हैं,’ शांता का रोषपूर्ण स्वर था.

और अधिक सुनने का साहस न था दीनानाथजी में. सो, कमरे का दरवाजा बंद कर हाथ की किताब रख दी और बत्ती बुझा कर सोने की चेष्टा करने लगे. किंतु कहां थी नींद आंखों में? बंद भीगी पलकों में वे सुनहरे छायाचित्र तैर रहे थे, जो पत्नी के साथ बिताए 40 वर्षों की देन थे.

अपना एकाकीपन आज उन्हें बुरी तरह झकझोर गया. फिर भी स्वाभिमान के धनी थे. इसलिए सुबह होते ही सुकांत से अपने वापस जाने की इच्छा प्रकट की. किंतु सुकांत अटल था अपने निश्चय पर कि बाबूजी यहीं रहेंगे. सो, वे वहीं रहे. सुकांत अकेला ही जरमनी गया. सुकांत के बिना वह पूरा 1 महीना दीनानाथजी ने लगभग मौनव्रत रख कर ही काटा.

और फिर एक दिन उन के दांत में बेहद दर्र्द होने लगा. सारा दिन दर्द से तड़पते रहे. अपने देश में तो दंतचिकित्सक था, जो एक फोन करते ही उन्हें आ कर देख जाता था. दवा तक खरीदने जाना नहीं पड़ता था. वही खरीद कर भिजवा देता था. किंतु यहां? यहां तो वे असहाय से मफलर से मुंह लपेटे दफ्तर से सुकांत के घर लौटने का इंतजार करते रहे. यहां न तो वे गाड़ी चला सकते थे और न ही उन्हें किसी डाक्टर का पता मालूम था.

शाम को सुकांत लौटा तो बाबूजी का सूजा हुआ गाल देख कर सब समझ गया. पिता को गाड़ी में बिठा कर तुरंत दंतचिकित्सक के पास ले गया. 80 डौलर ले कर डाक्टर ने उन्हें देखा और फिर आगे के स्थायी इलाज के लिए लगभग 3,000 डौलर का खर्चा सुना दिया. दवा आदि ले कर जब सुकांत बाबूजी के साथ घर लौटा तो उस का चेहरा खिलाखिला सा था कि बाबूजी को अब आराम आ जाएगा.

किंतु रात को खाने की मेज पर बैठे दलिया खा रहे दीनानाथजी से शांता कह ही उठी, ‘बाबूजी, आप को भारत से स्वास्थ्य संबंधी बीमा पौलिसी ले कर ही आना चाहिए था. अब देखिए न, अभी तो डाक्टर ने 80 डौलर सिर्फजांच करने के ही ले लिए, इलाज में कितना खर्च होगा, कुछ पता नहीं.’

‘बस करो शांता,’ सुकांत कड़े स्वर में बोला, ‘यह मत भूलो कि बाबूजी अपना टिकट खुद खरीद कर आए हैं, तुम से नहीं मांगा है…’

‘तुम भी यह मत भूलो सुकांत कि जो पैसा बाबूजी पर खर्च हो रहा है, वह आखिरकार हमारा है,’ तलवार की धार जैसे इस एक ही वाक्य से दीनानाथजी का सीना चीर कर बहू उठ खड़ी हुई और अपने कमरे में जा कर झटके से दरवाजा बंद कर लिया.

सुकांत स्तब्ध रह गया. शांता के इस लज्जाजनक व्यवहार की तो उस ने कभी कल्पना भी न की थी. दीनानाथजी खामोश, मुंह झुकाए अपमानित से बैठे रहे. बात का रुख यह मोड़ लेगा, उन्हें उम्मीद न थी.

दूसरे दिन सुकांत को अकेला पा कर दीनानाथजी ने उस से अपने वापस लौटने की इच्छा जाहिर की. न चाहते हुए भी सुकांत को उन के निश्चय के आगे झुकना पड़ा. सो, भारत जा रहे अपने एक मित्र के साथ उन के वापस लौटने का प्रबंध कर दिया.

70 वर्ष की आयु में दीनानाथजी ने अपने इस एकाकी जीवन का एक नया अध्याय शुरू किया. घर में सबकुछ यथास्थान था. पत्नी घर को सदा ही सुव्यवस्थित रखती थी. बैंक में पैसा था और पैंशन भी आती थी. फिर किसी बात की दिक्कत क्यों होगी भला?

यही सब सोचते हुए उन्होंने यारदोस्तों से एक छोटे नौकर के लिए भी कह छोड़ा. किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था.

6 महीने भी न निकल पाए, वे अकेले टूट से गए थे. बहुत सालता था यह एकाकी जीवन. पढ़नेलिखने के शौकीन थे, सो, किताबें पढ़ कर कुछ समय कट जाता था. किंतु आखिर कोई बोलने वाला भी तो होना चाहिए घर में. आखिरकार उन्होंने डायरी लिखनी शुरू की और डायरी के पहले पन्ने पर लिखा, ‘सुकांत व शांता के नाम.’

अंत्येष्टि के सारे कामों से फुरसत पाने के बाद सुकांत को ध्यान आया कि बैंक व घर के कागजों को भी संभालना है. सभी चीजें बड़ी वाली अलमारी में बंद होंगी, वह जानता था. सारे कागज संभालना मां की जिम्मेदारी थी और बाबूजी उन के द्वारा रखी चीजों की जगह को कभी नहीं बदलते थे, यह भी वह जानता था. अलमारी की चाबी उसे पहले की ही तरह एक कागज के लिफाफे में लिपटी मिली. ‘कुछ भी तो नहीं बदला यहां,’ सुकांत सोचता रहा कि सबकुछ वैसा ही है. उस की मां नहीं बदली, बाबूजी नहीं बदले. बदल गया तो केवल वह खुद. और अब पहली बार सुकांत अकेले में फूटफूट कर रोया. घर की सूनी दीवारों ने मानो उसे अपने सीने में समेट लिया.

दूसरे दिन सुबह शांता का फोन आ गया, ‘‘कैसे हो? सब ठीक तो है न? फोन भी नहीं किया तुम ने?’’

‘‘सब ठीक है,’’ सुकांत का दोटूक जवाब था.

‘‘अरे, बोल कैसे रहे हो?’’ आदत के मुताबिक झल्ला उठी शांता, ‘‘हुआ क्या है तुम्हें?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ सुकांत अपनेआप पर नियंत्रण रखे था.

‘‘तो फिर,’’ शांता के स्वर में बेचैनी थी, ‘‘जल्दी ही सब काम निबटा कर वापस आने की कोशिश करो. बैंक के खाते और मकान के कागज तुम्हारे नाम हुए कि नहीं? बाबूजी की वसीयत तो होगी?’’

सुकांत ने बिना उत्तर दिए फोन रखदिया. विरक्ति से भर उठा वह. उस का हृदय मानो हाहाकार कर रहा था कि कैसी है यह स्त्री, जिसे पैसे के सिवा कुछ और दिखाई ही नहीं देता और क्यों वह स्वयं इतना कमजोर बन गया कि उस ने कभी शांता के इन विचारों पर अंकुश नहीं लगाया. इस भयावह स्थिति का जिम्मेदार वह खुद को मान रहा था.

सुकांत का सिर दर्द से फट रहा था. रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए थे, बल्कि सच तो यह था कि सुकांत ने ही हाथ जोड़ कर उन से विनती की थी कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए. कुछ को बुरा भी लगा, किंतु विरोध नहीं किया किसी ने भी. विदेश में बसे लोगों की मानसिकता कुछ भिन्न हो जाती है और यदि साफ शब्दों में कहें तो कुछ ऐसा कि उन का खून सफेद हो जाता है, यही मान कर चुपचाप चले गए सब.

जातेजाते चाची ने खाने के लिए भी पूछा, किंतु सुकांत ने मना कर दिया. पर अब एक प्याला चाय या कौफी चाहिए थी उसे, सो रसोई में चला गया. कौफी तो थी ही नहीं, क्योंकि मांबाबूजी चाय ही पीते थे. चीनी व चाय की पत्ती 2 डब्बों में मिल गई. दूध नहीं था. सो, बिना दूध की चाय ही बना ली. फिर रसोई में पड़े स्टूल पर बैठ गया.

उसे अच्छी तरह याद था कि मां रसोई में काम करती रहती थीं और बाबूजी इसी स्टूल पर बैठे उन से बातें करते हुए उन का हाथ बंटाने की कोशिश करते रहते. एक हूक सी उठी सुकांत के हृदय में… कितने अच्छे थे वे दिन…अपनेआप में परिपूर्ण और जीवंत. उसे लगा कि अब वह एक बनावटी जिंदगी जी रहा है.

चाय पी कर सुकांत का मन कुछ हलका हुआ तो उस ने यह सोच कर अलमारी खोली कि आखिर कागजों का काम तो निबटाना ही होगा. बड़ीबड़ी 2 फाइलों में बाबूजी ने सारे कागज सिलसिलेवार लगा रखे थे. उन्हीं कागजों में उन की वसीयत भी थी. वैसे वसीयत की कोई खास आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सुकांत अपने मातापिता की अकेली संतान था. किंतु दीनानाथजी की आदत हर काम को पक्के तौर पर करने की थी. आगेपीछे बहुत रिश्तेदार थे और सुकांत उतनी दूर विदेश में…किसी का क्या भरोसा?

शेष चिह्न: भाग 2 – कैसा था निधि का ससुराल

‘‘मीनू, तुम नहीं जानती घर की परिस्थिति, पर मुझ से कुछ छिपा नहीं है. निधि की मां मुझ से छोटी है. उसी के आग्रह पर मैं अब तक कई लड़के वालों के पतेठिकाने भेजती रही पर बेटा, पैसों के लालची आज के लोग रूपगुण के पारखी नहीं हैं…फिर आरती में क्या कमी है, लेकिन क्या हुआ उस के साथ…मय ब्याज के वापस आ गई…ये निधि है 28 पार कर चुकी है. आगे 2 और हैं.’’

मैं उन के पास से उठ आई, ‘‘चल निधि, कमरे में बैठते हैं.’’

वह उठ कर अंदर आ गई.

मैं ने जबरन निधि को उठाया. उस का हाथमुंह धुलाया और हलका सा मेकअप कर के उसे मौसी की लाई साडि़यों में से एक साड़ी पहना दी, क्योंकि निधि को शाम का चायनाश्ता ले कर अपने को दिखाने जाना था. सहसा वर बैठक से निकल कर बाथरूम की ओर गया तो मैं अचकचा गई. कौन कह सकता है देख कर कि वह 40 का है. क्षण भर में जैसे अवसाद के क्षण उड़ गए. लगा, भले ही वर दुहेजा है पर निधि को मनचाहा वरदान मिल गया.

शाम के समय लड़की दिखाई के वक्त नाश्ते की प्लेटें लिए निधि के साथ मैं भी थी. तैयार हो कर तरोताजा बैठा प्रौढ़ जवान वर सम्मान में उठ कर खड़ा हो गया और उस के मुंह से ‘बैठिए’ शब्द सुन कर मन आश्वस्त हो उठा.

हम दोनों बैठ गए. निधि ने चाय- नाश्ता सर्व किया तो उस ने प्लेट हम लोगों की ओर बढ़ा दी. फिर हम दोनों से औपचारिक वार्त्ता हुई तो मैं ने वहां से उठना ही उचित समझा. खाली प्लेट ले कर मैं बाहर आ गई. दोनों आपस में एकदूसरे को ठीक से देखपरख लें यह अवसर तो देना ही था. फिर पूरे आधे घंटे बाद ही निधि बाहर आई.

‘‘क्या रहा, निधि?’’ मैं निकट चली आई.

‘‘बस, थोड़ी देर इंतजार कर,’’ यह कह कर निधि मुझे ले कर एक कमरे में आ गई. फिर 1 घंटे बाद जो दृश्य था वह ‘चट मंगनी पट ब्याह’ वाली बात थी.

रात 8 बजतेबजते आंगन में ढोलक बज उठी और सगाई की रस्म में जो सोने की चेन व हीरे की अंगूठी उंगलियों में पहनाई गई उन की कीमत 60 हजार से कम न थी.

15 दिन बाद ही छोटी सी बरात ले कर भूपेंद्र आए और निधि के साथ भांवरें पड़ गईं. इतना सोना चढ़ा कि देखने वालों की आंखें चौंधिया गईं. सब यह भूल गए कि वर अधिक आयु का है और विधुर भी है. बस, एक बात से सब जरूर चकरा गए थे कि दूल्हे की दोनों बेटियां भी बरात में आई थीं. पर वे कहीं से भी 12 और 8 की नहीं दिखती थीं. बड़ी मधु 16 वर्ष और छोटी विधु 12 की दिखती थीं. जवानी की डगर पर दोनों चल पड़ी थीं. सब को अंदाज लगाते देर नहीं लगी कि वर 50 की लाइन में आ चुका है.

निधि से कोई कुछ न कह सका. सब तकदीर के भरोसे उसे छोड़ कर चुप्पी लगा गए. 1 माह तक ससुराल में रह कर निधि जब 10 दिन के लिए मायके आई थी तो मैं ही उस से मिलने पहुंची थी. सोने से जैसे वह मढ़ गई थी. एक से बढ़ कर एक महंगे कपड़े, साथ ही सारे नए जेवर.

एक बात निधि को बहुत परेशान किए थी कि वे दोनों लड़कियां किसी प्रकार से विमाता को अपना नहीं पा रही थीं. बड़ी तो जैसे उस से सख्त नफरत करती, न साथ बैठती न कभी अपने से बोलती. पति से इस बात पर चर्चा की तो उन्होंने निधि को समझा दिया कि लोगों ने या इस की सहेलियों ने इस के मन में  उलटेसीधे विचार भर दिए हैं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. अपनी बूढ़ी दादीमां का कहना भी वे दोनों टाल जातीं.

निधि हर समय इसी कोशिश में रहती कि वे दोनों उसे मां के बजाय अपना मित्र समझें. इस को निधि ने बताने की भी कोशिश की पर वे दोनों अवहेलना कर अपने कमरों में चली गईं. खाने के समय पिता के कई बार बुलाने पर वे डाइनिंग रूम में आतीं और थोड़ाबहुत खा कर चल देतीं. पिता भी जैसे पराए हो गए थे. पिता का कहना इस कान से सुनतीं उस कान निकाल देतीं.

निधि यदि कहती कि किसी सब्जेक्ट में कमजोर हो तो वह पढ़ा सकती है तो मधु फटाक से कह देती कि यहां टीचरों की कमी नहीं है. आप टीचर जरूर रही हैं पर छोटे से शहर के प्राइवेट स्कूल में. हम क्या बेवकूफ हैं जो आप से पढ़ेंगे और यह सुन कर निधि रो पड़ती.

एक से एक बढि़या डिश बनाने की ललक निधि में थी पर मायके में सुविधा नहीं थी इसलिए वह अपने शौक को पूरा न कर सकी. यहां पुस्तकों को पढ़ कर या टेलीविजन में देख कर तरहतरह की डिश बनाती, पूरे घर को खिलाती, पति और सास तो खुश होते पर उन दोनों बहनों की प्लेटें जैसी भरी जातीं वैसी ही कमरों से आ कर सिंक में पड़ी दिखतीं.

कई बार पिता ने प्यार से समझाया कि वह अब तुम्हारी मां हैं, उन का आदर करो, उन्हें अपना समझो तो बड़ी मधु फटाक से उत्तर दे देती, ‘पापा, आप की वह सबकुछ हो सकती हैं पर हमारी तो सौतेली मां हैं.’

इस पर पिता का कई बार हाथ उठ गया. निधि पक्ष ले कर आगे आई तो अपमानित ही हुई. इस से चुपचाप रो कर रह जाती. लड़कियां कहां जाती हैं, रात में देर से क्यों आती हैं. कुछ नहीं पूछ सकती थी वह.

लड़कियों के पिता सदैव गंभीर रहे. हमेशा कम बोलना, जैसे उन के चेहरे पर उच्च पद का मुखौटा चढ़ा रहता. बेटियों को भी कभी पिता से हंसतेबोलते नहीं देखा. कई बार निधि के मन में आया कि वह मधु से कुछ पूछे, बात करे पर वह तो हमेशा नाक चढ़ाए रहती.

बूढ़ी सास प्यार से बोलतीं, समझातीं, खानेपीने का खयाल रखने को कहतीं. जब बेटियों के बारे में वह पूछती तो कह देतीं, ‘‘सखीसहेलियों ने उलटासीधा भरा होगा. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. तू भूपेंद्र से बता दिया कर जो समस्या हो.’’

‘‘मांजी, एक तो रात में वह देर से आते हैं फिर वह इस स्थिति में नहीं होते कि उन से कुछ कहा जाए. दिन में बेटियों की बात बेटियों के सामने तो नहीं कह सकती, वह भी तब जब दोनों जैसे लड़ने को तैयार बैठी रहती हैं. मैं तो बोलते हुए भी डरती हूं कि पता नहीं कब क्या कह कर अपमान कर दें.’’

‘‘इसी से तो शादी करनी पड़ी कि पत्नी आ जाएगी तो कम से कम रात में घर आएगा तो उसे संभाल तो लेगी. अब तो तुझे ही सबकुछ संभालना है.’’

अधरों की हंसी, मन की उमंग, रसातल में समाती चली जा रही थी. सब सुखसाधन थे. जेवर, कपड़े, रुपएपैसे, नौकरचाकर परंतु लगता था वह जंगल में भयभीत हिरनी सी भटक रही है. मायके की याद आती, जहां प्रेम था, उल्लास था, अभावों में भी दिन भर किल्लोल के स्वर गूंजते थे. तभी एक दिन देखा कि दोनों बहनें मां का वार्डरोव खोल कर कपड़े धूप में डाल रही हैं और लाकर से उन के जेवर निकाल कर बैग में ठूंस रही हैं. निधि का माथा ठनका. उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. वह चुपके से घर के आफिस में गई. उस समय वह अकेले ही थे. बोली, ‘‘क्या मैं आ सकती हूं?’’

‘‘अरे, निधि, आओ, आओ, बैठो,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल से सिर उठाया.

‘‘ये मधुविधु कहीं जा रही हैं क्या?’’

‘‘क्यों, तुम्हें क्यों लगा ऐसा? पूछा नहीं उन से?’’

‘‘पूछ कैसे सकती हूं…कभी वे बोलती भी हैं क्या? असल में उन्होंने अपनी मां के कपड़े धूप में डाले हैं और जेवर बैग में रख रही हैं.’’

‘‘दरअसल, वह अपनी मां के जेवर बैंक लाकर में रखने को कह रही थीं तो मैं ने ही कहा कि निकाल लो, कल रख देंगे, घर पर रखना ठीक नहीं है. दोनों की शादी में दे देंगे.’’

‘‘क्षमा करें, अकसर दोनों कभी अकेले जा कर रात में देर से घर आती हैं. इस से आप से कहना पड़ा,’’ निधि जाने के लिए उठ खड़ी हुई.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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