धुंधली तस्वीरें – भाग 3 : क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

विकी को देखने लिंडा की मां और बहन आई थीं, पर घंटे भर से अधिक कोई नहीं रुका. ‘लिंडा अभी बहुत कमजोर है, उसे आराम की जरूरत है,’ कह कर वे चली गईं. वे हैरान थीं यह सब देख कर. सोचने लगीं कि क्या उन्हें भी वहां नहीं रुकना चाहिए. शायद उन की उपस्थिति से लिंडा को परेशानी होती हो पर किसी तरह 2 महीने का समय तो काटना ही था.

लिंडा को उन की जरूरत नहीं, विकी को भी उन की जरूरत नहीं क्योंकि गोद में लेने से उस की आदत बिगड़ जाएगी और विक्रम को तो कभी फुरसत ही नहीं मिलती, उन के पास घड़ीभर बैठने की. घरबाहर के सब काम उसे ही तो संभालने थे. काम करते हुए थक जाता बिलकुल. घर में होता भी तो टीवी चालू कर देता. कब बैठे उन के पास, और बातें भी करे तो क्या?

विकी 2 महीने का था, जब वे उसे छोड़ कर आई थीं. तब से कितना अंतर आ गया था. तसवीरें तो विक्रम हमेशा भेजा करता था, तकरीबन हर महीने. इस बार ढाई महीने के बाद पत्र आया था. तसवीरें भी ढेर सारी थीं, एकएक तसवीर को निहारती वे निहाल हुई जा रही थीं, रहरह कर आंखें छलछला उठतीं. उन की खुशी का अनुमान लगा कर ही सुमि ने मिठाई मांगी थी.

भरापूरा परिवार होते हुए भी वे बिलकुल अकेली थीं. बस चिट्ठियां ही थीं जो बीच में जोड़ने का काम करती थीं. पूरे ढाई महीने बाद विक्रम का पत्र और विकी की तसवीरें देख उन की खुशी रोके नहीं रुक रही थी. सब से पहले जा कर उमा और उस के पति को तसवीरें दिखाईं, ‘‘देखो तो, अपना विकी कितना सुंदर लगता है. बिलकुल विक्रम की तरह है न?’’ फिर पासपड़ोस में सब को दिखाईं,

दूसरे दिन कालेज जाने लगीं तो तसवीरों को अपने पर्स में डाल लिया. सब को दिखाती फिरीं, ‘‘अब तो मुझ से रहा नहीं जाता यहां. इच्छा हो रही है, उड़ कर पहुंच जाऊं अपने विकी के पास. उसे सीने से लगा लूं.’’

‘‘विक्रम तो हमेशा बुलाता है आप को. इस बार गरमी की छुट्टियों में चली जाइए,’’ शैलजा ने कहा तो वे और उत्साहित हो उठीं, ‘‘हां, जरूर जाऊंगी इस बार. छुट्टियां तो अभी बहुत पड़ी हैं. रिटायर होने से पहले क्यों न सब इस्तेमाल कर लूं.’’

‘‘यह भी आप ने ठीक ही सोचा. तो पहले ही चली जाइए, छुट्टियों का इंतजार क्यों करना भला?’’

‘‘वही तो. लिखूंगी विक्रम को, टिकट भेज दे. वीजा तो मेरा है ही, पिछली बार ही 5 साल का मिल गया था.’’

‘‘फिर तो जल्दी निकल जाइए. क्या धरा है यहां, रोज किसी न किसी बात को ले कर खिचखिच लगी ही रहती है. 5-6 महीने चैन से बीत जाएंगे.’’

विक्रम पहले तो उन्हें हर चिट्ठी में आने के लिए लिखता था. कारण जान कर भी वे अनजान बनने की कोशिश करती रही थीं. दरअसल, विक्रम और लिंडा दोनों ही काम पर चले जाते थे. कुछ दिनों तक विकी को शिशुसदन में डाला, फिर ‘बेबीसिटर’ के पास छोड़ने लगे. लिंडा के लिए तो यह कोई नई बात नहीं थी, पर विक्रम हमेशा महसूस करता कि बच्चे को जो आत्मीयता और प्यार मिलना चाहिए मातापिता की ओर से, उस में कमी हो रही है.

इसीलिए वह उन्हें बारबार आने को लिखता था. एक बार लिखा था, ‘अब नौकरी छोड़ ही दो मां, हम दोनों इतना कमाते हैं कि तुम्हारी सब जरूरतें पूरी कर सकते हैं. क्या कमी है तुम्हें? आ जाओ यहां और बाकी के दिन चैन से बिताओ, वहां तो रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है, आज बिजली नहीं तो कल पानी नहीं.’

उन्होंने लिख दिया था, ‘बेटे, हम अभावों में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं. हम ने वे दिन भी देखे हैं जब बिजली नहीं थी, पानी के नल नहीं थे, लेकिन केरोसिन तेल के लैंप और मिट्टी के दीए तो थे, कुएं का पानी तो था. वह सब अब भी है यहां. तुम मेरी चिंता बिलकुल मत करो, मैं मजे में हूं.’

पर अब वे इंतजार कर रही थीं विक्रम के बुलावे का. उस की चिट्ठी आई पूरे 4 महीने बाद, वह भी बिलकुल मामूली सी. सिर्फ कुशलक्षेम पूछा था. कालेज में सहकर्मियों के सामने उन्होंने झूठमूठ का बहाना बनाया, ‘‘यहां सब लोग विकी को देखना चाहते थे न, इसलिए मैं ने विक्रम को ही लिखा है आने के लिए. छुट्टी मिलते ही आ जाएगा. मैं अगले साल जाऊंगी.’’

विक्रम के पत्र अब भी आते, लेकिन बहुत ही देर में, बिलकुल संक्षिप्त से. फिर वे अपनी ओर से लिख न सकीं, ‘मैं आना चाहती हूं विक्रम, विकी को और तुम लोगों को देखने की बड़ी इच्छा है.’

पत्रों की भाषा बताती थी कि विक्रम उन से दिनबदिन दूर होता जा रहा है. वह इस के लिए मन ही मन खुद को ही दोषी ठहराया करतीं कि वह तो बराबर बुलाता था पहले, मैं ही तो इनकार करती रही. जब विकी छोटा था, उसे दादीमां की गोद की जरूरत थी. अब तो बड़ा हो गया है, कुछ दिनों में स्कूल जाने लगेगा. शायद, इसी कारण विक्रम नाराज हो गया हो. नाराज होना भी चाहिए. इतना बुलाया लेकिन वे बारबार इनकार करती गईं. शायद अच्छा नहीं किया. अब यही लिखूं कि एक बार यहां आओ विक्रम, लिंडा और विकी के साथ, सब लोग तुम सब से मिलना चाहते हैं.

इस बीच विक्रम का संक्षिप्त पत्र आया, ‘मैं ने अब तक तुम्हें लिखा नहीं था मां, विकी से अब हमारा कोई संबंध नहीं. विकी जब कुल 15 महीने का था, तभी लिंडा से मेरा तलाक हो गया. विकी चूंकि बहुत छोटा था, इसलिए कोर्ट के फैसले के अनुसार वह लिंडा के पास रह गया. तब से मैं ने उसे देखा भी नहीं. वह तो मुझे पहचान भी नहीं पाएगा.’

पत्र पढ़ कर वे सन्न रह गईं. यह क्या लिखा है विक्रम ने. लिंडा को तलाक दे दिया. अब तक विक्रम के सारे कुसूर वे माफ करती रही थीं, अमेरिका में रहने का फैसला किया, तब भी कुछ नहीं कहा. लिंडा से शादी की, तब भी कुछ नहीं कहा, लेकिन तलाक वाली बात ने उन्हें अंदर से तोड़ ही दिया.

दूसरे ही दिन उसे पत्र लिखा, ‘‘मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी, विक्रम. जरूर मेरी शिक्षादीक्षा में ही कोई कमी रह गई, जो तुम ऐसे निकले. हमारे यहां रिश्ते जोड़े जाते हैं, उन्हें तोड़ने में हम विश्वास नहीं रखते. तुम्हारी इस गलती को मैं कभी क्षमा नहीं कर सकूंगी, कभी भी नहीं. तुम ने मेरी, अपनी और साथसाथ अपने देश की तौहीन की है. ऐसे संस्कार तुम्हें मिले कहां?’’

पत्र को लिफाफे में डाल कर पता लिखते हुए वे फूटफूट कर रो पड़ीं. लग रहा था कि अंदर कोई महीन सा धागा था, जो टूट गया है, छिन्नभिन्न हो गया है. सामने दीवार पर विक्रम, लिंडा और विकी की तसवीरें लगी थीं, मुसकराती लिंडा, हंसता विक्रम और नन्हा सा गोलमटोल विकी. आंसुओं के कारण सारी तसवीरें धुंधली लग रही थीं. उन्होंने आंसू पोंछे नहीं, बस रोती रहीं देर तक.

 

सफर कुछ थम सा गया

कलंक- भाग 2 : बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उन में से एक की ऊंची आवाज ने इन तीनों को बुरी तरह चौंका दिया, ‘‘हे… कौन हो तुम लोग? इस लड़की को यहां फेंक कर क्यों भाग रहे हो?’’

‘‘रुको जर…सोनू, तू कार का नंबर नोट कर, मुझे सारा मामला गड़बड़ लग रहा है,’’ एक दूसरे आदमी की आवाज उन तक पहुंची तो वे फटाफट कार में वापस घुसे और आलोक ने झटके से कार सड़क पर दौड़ा दी.

‘‘संजय, तुझे तो मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगी,’’ उस लड़की की क्रोध से भरी यह चेतावनी उन तीनों के मन में डर और चिंता की तेज लहर उठा गई.

‘‘उसे मेरा नाम कैसे पता लगा?’’ संजय ने डर से कांपती आवाज में सवाल पूछा.

‘‘शायद हम दोनों में से किसी के मुंह से अनजाने में निकल गया होगा,’’ नरेश ने चिंतित लहजे में जवाब दिया.

‘‘आज मारे गए हमसब. मैं ने उन आदमियों में से एक को अपनी हथेली पर कार का नंबर लिखते हुए देखा है. उस लड़की को ‘संजय’ नाम पता है. पुलिस को हमें ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं आएगी,’’ आलोक की इस बात को सुन कर उन दोनों का चेहरा पीला पड़ चुका था.

नरेश ने अचानक सहनशक्ति खो कर संजय से चिढ़े लहजे में पूछा, ‘‘बेवकूफ इनसान, क्या जरूरत थी तुझे उस लड़की को उठा कर कार में डालने की?’’

‘‘यार, उस ने हमारी मांबहन…तो मैं ने अपना आपा खो दिया,’’ संजय ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘तो उसे उलटी हजार गालियां दे लेता…दोचार थप्पड़ मार लेता. तू उसे उठा कर कार में न डालता, तो हमारी इस गंभीर मुसीबत की जड़ तो न उगती.’’

‘‘अरे, अब आपस में लड़ने के बजाय यह सोचो कि अपनी जान बचाने को हमें क्या करना चाहिए,’’ आलोक की इस सलाह को सुन कर उन दोनों ने अपनेअपने दिमाग को इस गंभीर मुसीबत का समाधान ढूंढ़ने में लगा दिया.

पुलिस उन तक पहुंचे, इस से पहले ही उन्हें अपने बचाव के लिए कदम उठाने होंगे, इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझ कर उन तीनों ने आपस में कार में बैठ कर सलाहमशविरा किया.

अपनी जान बचाने के लिए वे तीनों सब से पहले आलोक के चाचा रामनाथ के पास पहुंचे. वे 2 फैक्टरियों के मालिक थे और राजनीतिबाजों से उन की काफी जानपहचान थी.

रामनाथ ने अकेले में उन तीनों से पूरी घटना की जानकारी ली. आलोक को ही अधिकतर उन के सवालों के जवाब देने पड़े. शर्मिंदा तो वे तीनों ही नजर आ रहे थे, पर सब बताते हुए आलोक ने खुद को मारे शर्म और बेइज्जती के एहसास से जमीन में गड़ता हुआ महसूस किया.

‘‘अंकल, हम मानते हैं कि हम से गलती हुई है पर ऐसा गलत काम हम जिंदगी में फिर कभी नहीं करेंगे. बस, इस बार हमारी जान बचा लीजिए.’’

‘‘दिल तो ऐसा कर रहा है कि तुम सब को जूते मारते हुए मैं खुद पुलिस स्टेशन ले जाऊं, लेकिन मजबूर हूं. अपने बड़े भैया को मैं ने वचन दिया था कि उन के परिवार का पूरा खयाल रखूंगा. तुम तीनों के लिए किसी से कुछ सहायता मांगते हुए मुझे बहुत शर्म आएगी,’’ संजय को आग्नेय दृष्टि से घूरने के बाद रामनाथ ने मोबाइल पर अपने एक वकील दोस्त राकेश मिश्रा का नंबर मिलाया.

राकेश मिश्रा को बुखार ने जकड़ा हुआ था. सारी बात उन को संक्षेप में बता कर रामनाथ ने उन से अगले कदम के बारे में सलाह मांगी.

‘‘जिस इलाके से उस लड़की को तुम्हारे भतीजे और उस के दोनों दोस्तों ने उठाया था, वहां के एसएचओ से जानपहचान निकालनी होगी. रामनाथ, मैं तुम्हें 10-15 मिनट बाद फोन करता हूं,’’ बारबार खांसी होने के कारण वकील साहब को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘इन तीनों को अब क्या करना चाहिए?’’

‘‘इन्हें घर मत भेजो. ये एक बार पुलिस के हाथ में आ गए तो मामला टेढ़ा हो जाएगा.’’

‘‘इन्हें मैं अपने फार्म हाउस में भेज देता हूं.’’

‘‘उस कार में इन्हें मत भेजना जिसे इन्होंने रेप के लिए इस्तेमाल किया था बल्कि कार को कहीं छिपा दो.’’

‘‘थैंक्यू, माई फैं्रड.’’

‘‘मुझे थैंक्यू मत बोलो, रामनाथ. उस थाना अध्यक्ष को अपने पक्ष में करना बहुत जरूरी है. तुम्हें रुपयों का इंतजाम रखना होगा.’’

‘‘कितने रुपयों का?’’

‘‘मामला लाखों में ही निबटेगा मेरे दोस्त.’’

‘‘जो जरूरी है वह खर्चा तो अब करेंगे ही. इन तीनों की जलील हरकत का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा. तुम मुझे जल्दी से दोबारा फोन करो,’’ रामनाथ ने फोन काटा और परेशान अंदाज में अपनी कनपटियां मसलने लगे थे.

 

कलंक- भाग 1: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

वह लड़की चीख पाती उस से पहले ही संजय ने उस का मुंह दबोच लिया और झटके से उस लड़की को गोद में उठा कर कार की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों को गुस्से से निर्देश दिए, ‘‘इस ‘बिच’ को अब सबक सिखा कर ही छोड़ेंगे. कार स्टार्ट करो. मैं इस की बोटीबोटी कर दूंगा अगर इस ने अपने मुंह से ‘चूं’ भी की.’’

आलोक कूद कर ड्राइवर की सीट पर बैठा और नरेश ने लड़की को काबू में रखने के लिए संजय की मदद की. कार झटके से चल पड़ी.

उस चौड़ी सड़क पर कार सरपट भाग रही थी. संजय ने उस लड़की का मुंह दबा रखा था और नरेश उसे हाथपैर नहीं हिलाने दे रहा था.

‘‘अगर अब जरा भी हिली या चिल्लाई तो तेरा गला दबा दूंगा.’’

संजय की आंखों में उभरी हिंसा को पढ़ कर वह लड़की इतना ज्यादा डरी कि उस का पूरा शरीर बेजान हो गया.

‘‘अब कोई किसी का नाम नहीं लेगा और इस की आंखें भी बंद कर दो,’’ आलोक ने उन दोनों को हिदायत दी और कार को तेज गति से शहर की बाहरी सीमा की तरफ दौड़ाता रहा.

एक उजाड़ पड़े ढाबे के पीछे ले जा कर आलोक ने कार रोकी. उन की धमकियों से डरी लड़की के साथ मारपीट कर के उन तीनों ने बारीबारी से उस लड़की के साथ बलात्कार किया.

लड़की किसी भी तरह का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी. बस, हादसे के दौरान उस की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू बहते रहे थे.

लौटते हुए संजय ने लड़की को धमकाते हुए कहा, ‘‘अगर पुलिस में रिपोर्ट करने गई, तो हम तुझे फिर ढूंढ़ लेंगे, स्वीटहार्ट. अगर हमारी फिर मुलाकात हुई तो तेजाब की शीशी होगी हमारे हाथ में तेरा यह सुंदर चेहरा बिगाड़ने के लिए.’’

तीनों ने जहां उस लड़की को सड़क पर उतारा. वहीं पास की दीवार के पास 4 दोस्त लघुशंका करने को रुके थे. अंधेरा होने के कारण उन तीनों को वे चारों दिखाई नहीं दिए थे.

धुंधली तस्वीरें

करमवती

सफर कुछ थम सा गया- भाग 2 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

‘‘तुम भाभी की चिंता मत करो. मैं इन्हें घर ले जाता हूं.’’

सूरज चला गया. फिर थोड़ी देर बाद  जीप सूरज के घर के सामने रुकी.

‘‘आओ भाभी, गृहप्रवेश करो. चलो,

मैं ताला खोलता हूं. अरे, दरवाजा तो अंदर से बंद है.’’

दोस्त ने घंटी बजाई. दरवाजा खुला तो 25-26 साल की एक स्मार्ट महिला गोद में कुछ महीने के एक बच्चे को लिए खड़ी दिखी.

‘‘कहिए, किस से मिलना है?’’

दोस्त हैरान, जया भी परेशान.

‘‘आप? आप कौन हैं और यहां क्या कर रही हैं?’’ दोस्त की आवाज में उलझन थी.

‘‘कमाल है,’’ स्त्री ने नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मैं अपने घर में हूं. बाहर से आप आए और सवाल मुझ से कर रहे हैं?’’

‘‘पर यह तो कैप्टन सूरज का घर है.’’

‘‘बिलकुल ठीक. यह सूरज का ही घर है. मैं उन की पत्नी हूं और यह हमारा बेटा. पर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

दोस्त ने जया की तरफ देखा. लगा, वह बेहोश हो कर गिरने वाली है. उस ने लपक कर जया को संभाला, ‘‘भाभी, संभालिए खुद को,’’ फिर उस महिला से कहा, ‘‘मैडम, कहीं कोई गलतफहमी है. सूरज तो शादी कर के अभी लौटा है. ये उस की पत्नी…’’

दोस्त की बात खत्म होने से पहले ही वह चिल्ला उठी, ‘‘सूरज अपनी आदत से बाज नहीं आया. फिर एक और शादी कर डाली. मैं कब तक सहूं, तंग आ गई हूं उस की इस आदत से…’’

जया को लगा धरती घूम रही है, दिल बैठा जा रहा है. ‘यह सूरज की पत्नी और उस का बच्चा, फिर मुझ से शादी क्यों की? इतना बड़ा धोखा? यहां कैसे रहूंगी? बाबूजी को फोन करूं…’ वह सोच में पड़ गई.

तभी एक जीप वहां आ कर रुकी. सूरज कूद कर बाहर आया. दोस्त और जया को बाहर खड़ा देख वह हैरान हुआ, ‘‘तुम दोनों इतनी देर से बाहर क्यों खड़े हो?’’

तभी उस की नजर जया पर पड़ी. चेहरा एकदम सफेद जैसे किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो. वह लपक कर जया के पास पहुंचा. जया दोस्त का सहारा लिए 2 कदम पीछे हट गई.

‘‘जया…?’’ इसी समय उस की नजर घर के दरवाजे पर खड़ी महिला पर पड़ी.

वह उछल कर दरवाजे पर जा पहुंचा,

‘‘आप? आप यहां क्या कर रही हैं? ओ नो… आप ने अपना वार जया पर भी

चला दिया?’’

औरत खिलखिला उठी.

थोड़ी देर बाद सभी लोग सूरज के ड्राइंगरूम में बैठे हंसहंस कर बातें कर रहे थे. वही महिला चाय व नाश्ता ले कर आई, ‘‘क्यों जया, अब तो नाराज नहीं हो? सौरी, बहुत धक्का लगा होगा.’’

इस फौजी कालोनी में यह एक रिवाज सा बन गया था. किसी भी अफसर की शादी हो, लोग नई बहू की रैगिंग जरूर करते थे. सूरज की पत्नी बनी सरला दीक्षित और रीना प्रकाश ऐसे कामों में माहिर थीं. कहीं पहली पत्नी बन, तो किसी को नए पति के उलटेसीधे कारनामे सुना ऐसी रैगिंग करती थीं कि नई बहू सारी उम्र नहीं भूल पाती थी. इस का एक फायदा यह होता था कि नई बहू के मन में नई जगह की झिझक खत्म हो जाती थी.

जया जल्द ही यहां की जिंदगी की अभ्यस्त हो गई. शनिवार की शाम क्लब जाना, रविवार को किसी के घर गैटटुगैदर. सूरज ने जया को अंगरेजी धुनों पर नृत्य करना भी सिखा दिया. सूरज और जया की जोड़ी जब डांसफ्लोर पर उतरती तो लोग देखते रह जाते. 5-6 महीने बीततेबीतते जया वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों की सर्वेसर्वा बन गई. घरों में जया का उदाहरण दिया जाने लगा.

खुशहाल थी जया की जिंदगी. बेहद प्यार करने वाला पति. ऐक्टिव रहने के लिए असीमित अवसर. बड़े अफसरों की वह लाडली बेटी बन गई. कभीकभी उसे वह पहला दिन याद आता. सरला दीक्षित ने कमाल का अभिनय किया था. उस की तो जान ही निकल गई थी.

2 साल बाद नन्हे उदय का जन्म हुआ तो उस की खुशियां दोगुनी हो गईं. उदय एकदम सूरज का प्रतिरूप. मातृत्व की संतुष्टि ने जया की खूबसूरती को और बढ़ा दिया. सूरज कभीकभी मजाक करता, ‘‘मेम साहब, क्लब के काम, घर के काम और उदय के अलावा एक बंदा यह भी है, जो घर में रहता है. कुछ हमारा भी ध्यान…’’

 

ई. एम. आई. – भाग 1: क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की एक बेंच पर सोम और समिधा बैठे हुए अम्मां बाबूजी की गाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे. कुहरे के कारण गाड़ी 4 घंटे लेट थी. सोम गहरे सोच में था.

वह मन ही मन बढ़ने वाले खर्च को सोच कर गुणाभाग में लगा हुआ था.

‘‘समिधा, इस ई.एम.आई. के कारण हम लोगों के हाथ हमेशा बंधे रहते हैं.’’

‘‘तुम भी सोम न जाने क्याक्या सोचते रहते हो. इसी के जरिए तो हम लोगों ने सुखसुविधा की चीजें जोड़ ली हैं, नहीं तो भला क्या मुमकिन था?’’

‘‘समिधा, अम्मांबाबूजी पहली बार अपने घर आ रहे हैं. ध्यान रखना, अम्मां नाराज न होने पाएं.’’

‘‘सोम, तुम यह बात कम से कम 15 बार कह चुके हो. तुम्हारी अम्मां तुनकमिजाज हैं, यह मुझे अच्छी तरह मालूम है.’’

सोम चुप हो कर बैठ गया.

उस के मन में डर था कि अम्मां और समिधा की कैसे निभेगी, क्योंकि अम्मां को उस के हर काम में मीनमेख निकालने की आदत है. समिधा भी बहुत जिद्दी है. सोम उसे 2 साल तक मां न बनने की बात कह रहा था, लेकिन उस ने चुपचाप अपनी मनमानी कर ली. यह राज तो तब खुला जब एक दिन उस ने समिधा से कहा कि उस का प्रमोशन हुआ है, उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. तभी हंस कर बोली थी वह, ‘‘आप का एक प्रमोशन और हुआ है.

‘‘वह क्या?’’ पूछने पर समिधा शरमाते हुए बोली थी, ‘‘आप पापा बनने वाले हैं.’’

सुन कर वह घबरा गया था, ‘‘नहींनहीं, अभी यह सब नहीं. अभी मेरे लिए तुम्हारी नौकरी बहुत जरूरी है. तुम औफिस जाओगी तो बच्चे को कौन रखेगा?’’

निश्चिंत हो कर वह बोली थी, ‘‘मैं ने अम्मां से बात कर ली है, वे अब यहीं रहेंगी. बच्चे को वे ही संभालेंगी.’’

दोनों में अच्छीखासी बहस हो गई थी. सोम का कहना था कि उस की और अम्मां की पटेगी नहीं.

समिधा का कहना था कि वह अम्मां को अच्छी तरह समझती है, वे उसे अकेला छोड़ कर गांव कभी नहीं जाएंगी.

सोम गंभीर हो कर अपनी और समिधा की मुलाकात और शादी के बारे में सोचने लगा. उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे कल की ही बात हो.

समिधा सोम के औफिस में ही काम करती थी. वह गोरे रंग एवं तीखे नैननक्श वाली लड़की थी. काम के सिलसिले में उसे सोम के पास बारबार जाना पड़ता था. दोनों ही साधारण परिवार से थे. मिलतेजुलते कब एकदूसरे के आकर्षण में बंध गए, उन्हें पता ही नहीं लगा.

ई. एम. आई. – भाग 2 : क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

समिधा का पहले शरमाना, फिर मुसकराना, फिर साथ में कौफी पीना और फिर बाइक पर लिफ्ट… चूंकि दोनों की पृष्ठभूमि लगभग एक सी थी, अत: प्यार परवान चढ़ने लगा. औफिस में दोनों के बारे में चर्चा होने लगी थी. कुछ दिन बाद अचानक समिधा ने औफिस आना बंद कर दिया, तो सोम परेशान हो उठा. उस ने समिधा के घर का पता लगाया और बेचैन हालत में उस के घर पहुंच गया. वह एक कालोनी में अपनी बूआ के साथ रहती थी. उस के मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. बूआ ने ही उसे पढ़ाया लिखाया था. बूआ एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. समिधा और बूआ दोनों एकदूसरे का सहारा थीं. मेवा मिठाई, पकवान तो उन के पास नहीं था, परंतु दाल रोटी अच्छी तरह से चल रही थी.

सोम को देखते ही समिधा की बूआ सरिताजी की त्योरियां चढ़ गई थीं. छूटते ही उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी कि कहां रहते हो? घर पर कौनकौन है? समिधा से क्यों मिलने आए हो? तुम्हारी तनख्वाह कितनी है? आदिआदि.

सोम के माथे पर पसीना आ गया था. वह उस घड़ी को कोसने लगा था, जब उस ने समिधा के घर की ओर रुख किया था. परंतु वह अपनी अम्मां के ऐसे तेवरों से वाकिफ था, इसलिए उस ने धैर्यपूर्वक उन्हें उत्तर दिए.

जब सरिताजी थोड़ी आश्वस्त हुईं तो बोलीं, ‘‘इसे तो 1 हफ्ते से बुखार आ रहा था. इसीलिए औफिस नहीं जा रही थी. अब बुखार ठीक हो गया है, इसलिए कल से यह औफिस जाएगी,’’ फिर चेतावनी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘मुझे लड़के लड़कियों की दोस्ती पसंद नहीं है. लड़के कुछ दिन तो लड़कियों से प्यार का नाटक करते हैं, फिर जब दूसरी पर दिल आ जाता है तो पहले वाली की ओर मुड़ कर भी नहीं देखते.’’

सोम की तो स्पष्टवादी सरिताजी के सामने बोलती ही बंद हो गई थी. सरिताजी उठ कर अंदर चली गईं तब समिधा ने फुसफुसा कर उस से कहा, ‘‘आप को यहां आने की क्या जरूरत थी? बूआ ने इतनी बातें कह डालीं आप से, मैं उन की ओर से क्षमा मांगती हूं.’’

सोम ने दबे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारा मोबाइल बंद था, इसलिए मैं घबरा गया था. अच्छा अब मैं चलता हूं.’’ वह खड़ा ही हुआ था कि तभी बूआ चायनाश्ता ले कर आ गईं. बोलीं, ‘‘क्यों बेटा, तुम मेरी बात का बुरा मान गए क्या? मेरी जवान बेटी है, सुंदर भी है इसलिए डरती हूं, कहीं किसी गलत लड़के के चक्कर में न पड़ जाए. लंबाचौड़ा दहेज देने की हैसियत तो मेरी है नहीं कि यह राजकुमार का ख्वाब देखे. कोई पढ़ालिखा, खाताकमाता लड़का मिल जाए, जो इस का ध्यान रखे, इस को इज्जत दे, बस यही चाहती हूं मैं. पढ़ालिखा कर काबिल बना दिया है मैं ने इसे, अपने पैरों पर खड़ी हो गई है यह.’’

सोम ने उन लोगों से विदा ली. सरिताजी की स्पष्टवादिता से वह उन का कायल हो गया. एक मां के दर्द को उस ने गहराई से अनुभव किया था. उसी क्षण उस ने मन ही मन समिधा से शादी का निर्णय कर लिया था. अम्मांबाबूजी से आज्ञा लेना तो मात्र औपचारिकता थी.

अगले दिन वह औफिस गई तो सोम से आंखें मिलाने में सकुचा रही थी, परंतु वह उस को देखते ही खुश हो गया. लंच के समय समिधा ने पुन: उस से बूआ की बातों के लिए माफी मांगी, परंतु सोम ने तो उस के समक्ष शादी का प्रस्ताव ही रख दिया. वह खुशी से झूम उठी, उसे अपने पर विश्वास नहीं हो रहा था.

एक हफ्ते बाद ही सोम छुट्टी ले कर अपने गांव गया. वहां उस ने अम्मांबाबूजी को उस का फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘यह लड़की कैसी है?’’ दोनों ने फोटो देखा फिर एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दहेज कितना मिलेगा?’’

वह बोला, ‘‘दहेज. लेकिन मैं तो बिना दहेज लिए ही शादी करूंगा.’’

बाबूजी भड़क उठे, ‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. मेरे पास क्या रकम गड़ी है, जो मैं शादी में खर्च करूंगा? अभी तक सुनंदा के विवाह का कर्ज चुका रहा हूं. ब्याज बढ़ता जा रहा है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा रुपया. तुम्हें जो नकद मिले उस से तुम शहर में अपने लिए घर ले लेना.’’

‘‘आप मेरे घर की चिंता न करें. किस्तों में फ्लैट मैं ले चुका हूं. आप दहेज की बात करते हैं, वह तो नौकरी कर रही है, सारी जिंदगी कमा कर दहेज देती रहेगी.’’

बाबूजी चीखते हुए बोले, ‘‘जब तुम ने सब तय कर लिया है, तो मुझ से हामी भरवाने की क्या जरूरत है. भाड़ में जाओ, जो चाहे वह करो.’’

सोम ने अगली सुबह की ट्रेन पकड़ी और दिल्ली लौट आया. उस के बाद 3-4 बार वह जल्दीजल्दी फिर गांव गया. अम्मां बाबूजी को तरहतरह से समझाने का प्रयास करता रहा, परंतु हठी बाबूजी का मन नहीं पसीजा.

 

प्यार की तलाश- भाग 1 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरी कक्षा में पढ़ने वाली नीतू मेरे बैंच से दाईं वाली पंक्ति में, 2 बैंच आगे बैठती थी. वह दिखने में साधारण थी पर उस में दूसरों से हट कर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जब मैं ने पहली बार उसे देखा तो बस देखता ही रह गया… वह अपनी सहेलियों के साथ हंसतीखिलखिलाती रहती और मैं उसे चोरीछिपे देखता रहता.

नीतू मेरी जिंदगी में, उम्र के उस मोड़ पर जिसे किशोरावस्था कहते हैं और जो जवानी की पहली सुबह के समान होती है, उस सुबह की रोशनी बन कर आई थी वह. उस सुखद परिवर्तन ने मेरे जीवन में जैसे रंग भर दिया था. मैं हमेशा अपने में मस्त रहता. पढ़ाई में भी मेरा ध्यान पहले से अधिक रहता. मम्मीपापा टोकते, उस से पहले ही मैं पढ़ने बैठ जाता और सुबहसुबह स्कूल जाने के लिए हड़बड़ा उठता.

आज सोचता हूं तो लगता है, काश, वक्त वहीं ठहर जाता. नीतू मुझ से कभी जुदा न होती, पर जीवन के सुनहरे दिन, कितने जल्दी बीत जाते हैं. मेरा स्कूली जीवन कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला.

मैट्रिक की परीक्षा के बाद, नीतू जैसे हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गई. मैं उस के घर का पता जानता था, लेकिन जब यह पता चला कि नीतू कालेज की पढ़ाई के लिए अपने मामा के यहां चली गई है तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया. मेरे पास कुछ था तो बस उस की यादें, उस के लिखे खत और स्कूल में मिली वह तसवीर, जिस में साथ पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी और शिक्षक एक कतार में खड़े थे और नीतू एक कोने में खड़ी मुसकरा रही थी.

मैं नीतू की यादों में खोया, डायरी के पन्ने पलटता जा रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक सुन कर चौंक गया. नजरें उठा कर देखा तो सामने सुनयना खड़ी थी. अचानक उसे देख कर मैं हड़बड़ा गया, ‘‘कहिए, क्या बात है?’’ मैं ने डायरी बंद करते हुए कहा.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं…’’ सुनयना मेरी मनस्थिति भांप कर मुसकराते हुए बोली.

‘‘हां… हां, आइए न बैठिए,’’ मैं ने जैसे शरमा कर कहा.

‘‘मैं ने आप को डिस्टर्ब कर दिया. शायद आप कुछ लिख रहे थे…’’ सुनयना डायरी की ओर देख रही थी.

‘‘बस डायरी है…’’ मैं ने डायरी पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, आप डायरी लिखते हैं, क्या मैं देख सकती हूं?’’ सुनयना की आंखों में पता नहीं क्यों चमक आ गईर् थी.

‘‘किसी की पर्सनल डायरी नहीं देखनी चाहिए,’’ मैं ने मुसकरा कर मना करने के उद्देश्य से कहा क्योंकि वैसे भी वह डायरी मैं उसे नहीं दिखा सकता था.

‘‘क्या हम इतने गैर हैं?’’ सुनयना नाराज तो नहीं लग रही थी पर अपने चिरपरिचित अंदाज में मुंह बना कर बोली.

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा,’’ मैं ने फिर मुसकराने का प्रयास किया.

‘‘खैर, छोडि़ए. पर कभी तो मैं आप की डायरी पढ़ कर ही रहूंगी,’’ सुनयना के चेहरे पर अब बनावटी नाराजगी थी. उस ने अपनी झील जैसी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे घूरते हुए कहा, ‘‘…अभी चलिए, आप को बुलाया जा रहा है.‘‘

बैठक में भैयाभाभी सभी बैठे हुए थे. अंत्याक्षरी खेलने का कार्यक्रम बनाया गया था पर मेरा मन तो कहीं दूर था, लेकिन मना कैसे करता? न चाह कर भी खेलने बैठ गया. सुनयना पूरे खेल के दौरान, अपने गीतों से मुझे छेड़ने का प्रयास करती रही.

सुनयना मेरी भाभी की छोटी बहन थी. अपने नाम के अनुरूप ही उस की गहरी नीली झील सी आंखें थीं. वह थी भी बहुत खूबसूरत. उस के चेहरे से हमेशा एक आभा सी फूटती नजर आती. उस के काले, घने, चमकदार बाल कमर तक अठखेलियां करते रहते. वह हमेशा चंचल हिरनी के समान फुदकती फिरती. वह बहुत मिलनसार और बिलकुल खुले दिल की लड़की थी. यही वजह थी कि उसे सब बहुत पसंद करते थे और मजाक में ही सही, पर सभी ये कहते, इस घर की छोटी बहू कोई बनेगी तो सिर्फ सुनयना ही बनेगी. मैं सुन कर बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रह जाता पर कभीकभार ऐसा लगता जैसे मेरी इच्छा, मेरी भावनाओं से किसी को कोईर् लेनादेना नहीं है पर मैं दोष देता तो किसे देता. किसी को तो पता ही नहीं था कि मेरे दिल में जो लड़की बसी है, वह सुनयना नहीं नीतू है.

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