Funny Story: कर्ज ले कर घी पीना तरक्की का पैमाना

Funny Story: कर्ज ले कर घी पीना पुरानी कहावत है. आज के आदमी में तो घी पीने का स्टैमिना ही नहीं बचा. गंगाधर को तो उस समय हैरानी हुई, जब उसे पता चला कि दुनिया के अमीर देश अमेरिका के ऊपर तकरीबन 37 लाख करोड़ डौलर का कर्ज है, जो इस की जीडीपी का तकरीबन 122 फीसदी है. वहां की सरकार अब इस के बारे में चिंतित है कि कहीं अमेरिका, जो दुनिया के भविष्य के लिए तरहतरह से चिंतित रहता है, दिवालियापन के चलते इस का भविष्य ही अंधकार से न भर जाए.

भारतीय रुपए में यह तकरीबन 3,250 लाख करोड़ रुपए है. कहां भारत 5 ट्रिलियन डौलर की इकोनौमी बनने के सपने न जाने कब से देख रहा है, जबकि अमेरिका पर कर्ज ही इस के 6 गुना से ज्यादा है. भारत का कर्ज सितंबर, 2024 में 161 लाख करोड़ था यानी अमेरिका से 20 गुना कम, जो हमारी जीडीपी का भी महज 60 फीसदी के आसपास है.

ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विकसित देशों का भी कर्ज उन की जीडीपी से ज्यादा है. अब समझ आ रहा है कि हम पिछडे़ के पिछडे़ क्यों बने हुए हैं. अगर कुछ साल पहले ही थोड़ा ज्यादा कर्ज ले कर घी पीने की आदत डाल ली होती, तो पिछडे़पन के शाप से कब का छुटकारा पा गए होते.

पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही कर्ज पर टिकी है. अब सुपर पावर का मतलब सुपर कर्ज से है और विकासशील मतलब कर्जशील से है. पहले आमदनी, फिर उस के बाद खपत के आधार पर गरीबी की रेखा तय की गई थी, लेकिन अब कर्ज की बुनियाद पर इसे तय करना चाहिए. जिस पर बहुत मामूली सा कर्ज है, वह गरीब. जिस पर बिलकुल भी कर्ज नहीं है, वह दीनहीन या बहुत ज्यादा गरीब और जिस पर ज्यादा कर्ज है, वह अमीर कहलाएगा. जिस पर बहुत ही ज्यादा कर्ज है वह अमीरेआजम.

लगता है कि हमारे नेता अब जा कर इस बात को सम?ा पाए हैं, इसलिए वे ज्यादा से ज्यादा कर्ज लेने के लिए एक पैर से तैयार रहते हैं. वोटरों को मुफ्त की रेवड़ी बांटने का सब से आसान जरीया कर्ज ले कर बांटना ही है, जिस में कोई भी सरकार बंटी नहीं है, सब एकमत हैं. यहां ‘बंटेंगे तो सत्ता से हटेंगे’ इन का नारा है.

आलोचकों को अब आम बजट के समय अपना मुंह बंद रखना चाहिए. रुपया आता कहां से है और जाता कहां है के पाई चार्ट में कर्ज की देनदारी अभी भी एकचौथाई से ज्यादा नहीं रहती. क्या यह एक सब से बड़ी वजह है हमारे मुद्दत से विकासशील ही बने रहने की?

अगर जम कर कर्ज न लेने के शील को जल्द ही हम ने नहीं उतार फेंका, तो हम साल 2047 क्या साल 2147 तक भी विकसित नहीं बन पाएंगे. सरकार को तो रेवड़ी बांटने की आधा दर्जन और योजनाएं जल्दी ही ले आनी चाहिए. सरकार का आज मतलब ही है, जो कि खुद भी कर्ज ले कर घी पीए व वोटरों को भी पिलाती रहे.

मोटी बात है कि भारत का कर्ज अमेरिका और दूसरे विकसित देशों के लैवल से कोसों दूर है, तो विकसित का टैग भी कोसों दूर रहेगा. तो इसे उस लैवल पर पंहुचाने के लिए सारे जरूरी कदम पहली फुरसत में उठाने चाहिए. पहला कदम यह कि यहां का एकएक आदमी कर्ज में डूबा होना चाहिए. क्रेडिट कार्ड लेना मैंडेटरी कर दिया जाए.

बहुत से कारोबारी घराने अपनी कंपनी को पब्लिक नहीं करना चाहते. यह सब धांधली सरकार को एक कानून बना कर बंद कर देनी चाहिए. मतलब इतना सा है कि जो भी कर्ज का घी नहीं पी रहा है, उस के लिए घी पीना मैंडेटरी कर दिया जाएगा. नसबंदी के समय जैसी कड़ाई कर देनी चाहिए. जो उधार का घी पीना न चाह रहा हो, उसे पकड़ कर उधार का घी मुंह में जबरन डाल दिया जाए.

अगर आप के पास पूंजी रूपी घी है तो भी कर्ज रूपी घी पीना ही होगा. जब कर्ज विकसित देशों के लैवल का पहुंचेगा, तो हमें विकास के उस लैवल तक पहुंचने से कोई रोक नहीं पाएगा.

साल 2023 में चीन तक का कर्ज उस की जीडीपी का 83 फीसदी था. हाथ कंगन को आरसी क्या… देखिए, चीन के सामने हम कहां खडे़ हैं.

हमारी सरकार भले ही रोजगार के मौके बढ़ाने की बात को सालों से आत्मसात नहीं कर पा रही हो, पर इस बात को आत्मसात कर गई है. सरकार को एक नई कर्ज नीति जल्दी ही बना देनी चाहिए, जिस में पैदा होने से ले कर मरने तक बारबार कर्ज लेना मैंडेटरी होगा. इस से बहुत जल्दी बजट में रुपया आता कहां से है, जाता कहां है संबंधी पाई चार्ट के एकचौथाई पर और कब्जा हो जाएगा यानी आधी कमाई कर्ज व ब्याज चुकाने पर.

आदर्श हालात वही होंगे कि एक रुपया कमाओ तो कम से कम एक रुपए का कर्ज तुरंत लो. जितनी आवक हो, वह कर्ज व ब्याज पटाने में चली जाए, बल्कि अमेरिका जैसे और अमीर बनना है, तो 122 फीसदी का बैंचमार्क है. अमेरिका कौन सा अपनी वर्तमान तरक्की से संतुष्ट है. वह तो लगातार तरक्की करते हुए जीडीपी का 200 फीसदी कर्ज ले कर तरक्की की हद पर पहुंच कर ही मानेगा.

एक और बात कि अगर कोई राज्य सरकार उधार का घी पीने के मामले में पिछड़ी है, तो केंद्र सरकार अपनी ओर से ही उस का उधारी का घी ले कर उस को भी अच्छा कर्जदार बना कर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ाने का बीड़ा खुद उठाए. क्षेत्रीय असमानता न बढे़, यह जिम्मेदारी आखिर केंद्र सरकार की ही होती है.

केंद्र सरकार को अगर मां माना जाए तो राज्य सरकारें उस की संतानें हुईं. मां का काम है कि अपने सभी बच्चों को एक ही नजर से देखना. जो उधार का घी न पी कर कमजोर हो रहा है, उसे जबरन घी पिला कर सेहतमंद बनाए रखना.

निजी कर्ज की भी बात की जाए, तो आज जिस ने लाखों रुपए का तरहतरह का कर्ज नहीं ले रखा है या उस के पास क्रेडिट कार्ड नहीं है तो वह पिछडा़ ही माना जाता है. ऐसा आदमी गर्लफ्रैंड पर क्या खर्च कर पाएगा. होनहार नौजवान तो इस के लिए चेन स्नैचिंग तक करते हैं. जो अपनी तनख्वाह का आधा क्रेडिट कार्ड के भुगतान पर न करे, वह प्रगतिशील कैसे हो सकता है.

वैसे, हम तरक्की के रास्ते पर हैं. हमारे यहां अब किसान, नौजवान, कारोबारी कर्ज से परेशान हो कर खुदकुशी कर रहे हैं, जो पिछड़े समाज के लक्षण हैं.

पहले जब देश गरीब था, आप एक भी घटना बताओ, जब किसी किसान ने खुदकुशी की हो. गरीब की पहचान ही है कि उसे कर्ज नहीं मिलता. पर जिसे अरबों रुपए का कर्ज मिलता है, वह ‘राष्ट्र निर्माता’ कहलाता है.

कर्ज का ज्यादा घी पीने वाले की बैंक में आवभगत की जाती है. जिस ने ऐसा घी पिया ही नहीं, उसे खड़ा रखा जाता है या दुत्कार कर भगा दिया जाता है.

सरकार कितनी दयालु है. उस ने ढेरों योजनाएं नौजवानोंअधेड़ों को कर्ज देने के लिए बना रखी हैं. वह चाहती है कि औसत प्रति व्यक्ति घरेलू कर्ज है, वह अभी के तकरीबन 40,000 से बढ़ कर कम से कम एक लाख रुपए हो जाए, तो अपनेआप तरक्की दिखने लगेगी. उधार अब प्रेम की कैंची नहीं, बल्कि विकास की सीढ़ी माना जाता है.

आम आदमी सरकार के उधार पर ही तो मस्त है. लाड़ली बहना फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन सरकार द्वारा दी गई किस्तों के दम पर किस्तों पर उठा रही है.

आम आदमी का सरकार को कम से कम इस बात का कर्जदार होना चाहिए कि वह खुद के साथ ही सब को मोटा कर्जदार बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रख रही है.

आत्मनिर्भर भारत भी कर्ज की बुनियाद पर ही बनाया गया है. अरे, उधार ले कर घी पीने से डरते क्यों हो…? आगामी चुनाव में माफी हो जाएगी. यहां ये सुविधा भी तो है कि सैकड़ोंहजारों करोड़ का कर्ज न चुका पाओ, तो रातोंरात दूसरे देश भाग सकते हो. उधार पर जितना ऐश कर सकते हो कर लो, सरकार भी तो कर रही है.

अब जल्दी ही वह समय आने वाला है, जब कहा जाएगा कि यहां का हर आदमी अच्छाखासा कर्ज ले कर अच्छाखासा घी पी रहा है और ईएमआई में गुमशुदा है.

News Story: भगवाधारियों का फर्जी ‘आपरेशन सिंदूर’

News Story: कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव ज्यादा बढ़ गया था. ‘आपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान के 9 आतंकी ठिकानों पर हमला करने के बाद भारत में हर जगह भारतीय सेना की खूब तारीफ हो रही थी.

भारत और पाकिस्तान की सरहद पर तनाव बढ़ा, तो पूरे उत्तर भारत में लोगों को आगाह करने के लिए सरकार की तरफ से भी दिशानिर्देश दिए गए.

अनामिका भी रोज इस तरह की खबरें सुन रही थी. आज शाम को उसे मोती नगर की मार्केट में अपने लिए कुछ छोटे कपड़े खरीदने के लिए जाना था. वहां अनामिका की जानपहचान की एक मंजू आंटी की दुकान थी, जहां सिर्फ औरतों और लड़कियों से जुड़े निजी सामान ही मिलते थे.

अनामिका ने शाम के 5 बजे विजय को फोन किया, ‘‘हाय, अभी क्या कर रहे हो? मुझे मंजू आंटी की दुकान से कुछ सामान लेना है. तुम भी आ जाना. कौफी पी लेंगे.’’

‘यार, मैं आज नहीं आ पाऊंगा,’ विजय ने कहा.

‘‘क्या हुआ? घर पर सब ठीक तो है न?’’ अनामिका ने पूछा.

‘घर पर तो सब ठीक है, पर मेरा दोस्त रहमान आज के हालात से थोड़ा घबराया हुआ सा है. वह यहां किराए पर अकेला रहता है और पिछले 2-3 दिन से महल्ले के कुछ सिरफिरे लोग इसे ‘पाकिस्तान का जासूस’ कह कर चिढ़ा रहे हैं. जबरदस्ती ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने को बोल रहे हैं.

‘कल तो हद ही हो गई. यहीं के एक गुंडे ने उस से कह दिया कि ‘आपरेशन सिंदूर’ शुरू हो गया है, अब तुझ जैसों की मांग भरने का वक्त आ गया है,’ विजय ने बताया.

‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. कोई बात नहीं. तुम रहमान के साथ रहो. मुझे मंजू आंटी के पास ज्यादा समय नहीं लगेगा. कौफी फिर कभी पी लेंगे,’’ अनामिका बोली.

‘मेरा तुम्हारे साथ आने का बड़ा मन था, पर रहमान को मेरी ज्यादा जरूरत है. तुम मार्केट में अपना ध्यान रखना,’ विजय ने इतना कह कर फोन काट दिया.

शाम के साढ़े 6 बजे थे. अनामिका मोती नगर की मार्केट में जा रही थी. आम दिनों की तरह चहलपहल थी. एक दुकान के सामने भीड़ जमा थी. वह किराने की दुकान थी. कोई गुप्ताजी पिछले 30 साल से यह दुकान चला रहे थे. गल्ले पर वही बैठे थे.

दुकान पर जमा वह भीड़ ग्राहकों की नहीं थी, बल्कि 8-10 भगवाधारी नौजवान उन गुप्ताजी से उलझे हुए थे.

एक नौजवान चिल्ला रहा था, ‘‘समझ नहीं आता क्या… जब हम ने बोल दिया है कि ब्लैकआउट हो गया है, तो फिर दुकान खोलने की जिद क्यों कर रहे हो…?’’

‘‘पर मौक ड्रिल तो शाम को 8 बजे शुरू होगी. पहले सायरन बजेगा, फिर सब को 15 मिनट के लिए अपनी दुकान की बिजली बंद करनी है और शटर डाउन कर के दुकान के अंदर तब तक रहना है, जब तक अगला सायरन न बज जाए…’’ गुप्ताजी ने अपनी बात रखी.

‘‘पहलगाम में आतंकियों ने चुनचुन कर हिंदुओं को मार दिया और आप यहां हम से बहस कर रहे हो? इस इलाके का प्रशासन हम ही हैं. हमारी बात मानो और दुकान बंद कर के घर चले जाओ. आज की कमाई हो गई आप की,’’ एक और भगवाधारी ने कहा और दुकान के बाहर रखे कोल्डड्रिंक के क्रेट को पलटने का दिखावा करने लगा, ताकि गुप्ताजी डर जाएं.

इसी बीच 2-3 मुस्टंडे गुप्ताजी की नजर बचा कर चीनी की एक बोरी ही गायब कर गए. उन्होंने बड़ी चालाकी से वह बोरी उठाई और अपनी कार की डिग्गी में छिपा दी. एक लड़के ने तो गुप्ताजी के सामने ही एक जार से कुछ चौकलेट निकाल ली और बाकी सब लोगों में बांट दी.

‘‘चलो, अब अगली दुकान वाले को हड़काते हैं. जब तक सब की हवा टाइट नहीं होगी, हमारा दबदबा कैसे बनेगा. ‘आपरेशन सिंदूर’ के बहाने अपनी दुकान भी तो चमकानी है,’’ उन सब लोगों का नेता दिखने वाले एक नौजवान ने कहा और बाकी सब उस के पीछे हो लिए.

मंजू आंटी की दुकान थोड़ा आगे थी. मंजू आंटी विधवा थीं और उन्होंने अपने पति की दुकान को अब अच्छे से संभाला हुआ था. उन की एक बेटी थी, जो शादी के बाद अपने पति के साथ आस्ट्रेलिया में रह रही थी.

‘‘आंटी, मुझे ब्रा दिखाइए… और हां, गरमी है न तो सूती ही दिखाना, वरना पसीने से दिक्कत होती है,’’ अनामिका ने मंजू आंटी को बताया.

मंजू आंटी को अनामिका का साइज पता था. वे बोलीं, ‘‘कल ही नया माल आया है. बहुत अच्छी क्वालिटी का है. तुझे पसंद आएगा.’’

‘‘आंटी, दीदी की शादी और अंकल के जाने के बाद आप एकदम अकेली पड़ गई हैं. अच्छा है कि आप दुकान संभाल रही हैं, वरना घर बैठे बोर हो जातीं,’’ अनामिका ने कहा.

‘‘यह तो है, पर जब से पहलगाम कांड हुआ है, तब से मन में अजीब सा डर भर गया है. भारत और पाकिस्तान की सरहद पर तनाव बढ़ा हुआ है. रोजाना एकदूसरे पर ड्रोन से हमले की खबरें आ रही हैं… पता नहीं, आगे क्या होगा,’’ मंजू आंटी ने पैकेट से ब्रा निकालते हुए अनामिका से कहा.

‘‘अच्छा आंटी, मुझे कोई बढि़या सा रेजर भी दे दीजिए,’’ अनामिका ने ब्रा की क्वालिटी चैक करते हुए कहा.

आज अनामिका बेहद खूबसूरत लग रही थी और बारबार खुद को आईने में देख रही थी, तभी उसे आईने में दिखा कि कुछ लड़के दुकान में घुस आए हैं. लेडीज सामान की दुकान में लड़कों का क्या काम… अनामिका को उन के इरादे ठीक नहीं लगे.

‘‘ओ आंटी, जल्दी से अपनी दुकान बंद करो और घर जाओ. ब्लैकआउट हो गया है,’’ एक भगवाधारी ने गेट पर डंडा मारते हुए कहा.

‘‘किस के कहने पर यह ब्लैकआउट किया गया है? प्रशासन ने तो मौक ड्रिल का समय रात 8 बजे रखा है,’’ अनामिका ने पूछा.

‘‘तू कौन है…? बड़ी जबान चला रही है. अपना सामान ले और निकल यहां से. जल्दी घर जा. कहीं कोई अनहोनी हो गई, तो दिक्कत हो जाएगी. घर पर मम्मीपापा इंतजार कर रहे होंगे,’’ एक भगवाधारी ने कहा.

‘‘छोटू, दीदी को उन के घर छोड़ आ. और हां, रास्ते में इन्हें कोई दिक्कत न हो,’’ एक कमउम्र साथी को आवाज लगाते हुए उस भगवाधारी ने अनामिका को ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘यह कैसी जबरदस्ती है. हमें कोई आदेश नहीं मिला है जल्दी दुकान बंद करने का,’’ मंजू आंटी ने कहा.

‘‘वहां भारत की सेना हमारे दुश्मन देश पाकिस्तान से लोहा ले रही है और यहां आंटीजी को जल्दी दुकान बंद करने में दिक्कत हो रही है. पहलगाम में मारे गए हिंदुओं की विधवाओं के नाम पर सरकार ने ‘आपरेशन सिंदूर’ चलाया है और आंटीजी को ब्रा बेच कर अपना घर पैसों से भरना है,’’ एक भगवाधारी ने कहा.

‘‘तो तुम्हें क्या लगता है कि पहलगाम में मारे गए लोगों का दुख हमें नहीं है. बेटा, मैं अपनी दुकान की हर शादीशुदा ग्राहक को सिंदूर की डब्बी मुफ्त में दे रही हूं,’’ मंजू आंटी भावुक हो कर बोलीं.

यह सुन कर भगवाधारी लीडर ने कहा, ‘‘यह तो बड़ा महान काम किया आप ने. पर ‘आपरेशन सिंदूर’ की तूती हर जगह बोल रही है. भारत ने 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद जवाबी ऐक्शन के रूप में 7 मई की सुबह ‘आपरेशन सिंदूर’ शुरू किया था.

‘‘पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 28 लोगों की मौत हुई थी. वहीं, इस के जवाब में ‘आपरेशन सिंदूर’ के तहत 100 से ज्यादा आतंकियों का खात्मा किया गया.

‘‘कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका ने ‘आपरेशन सिंदूर’ के बारे में जानकारी साझा करते हुए बताया कि इस मिशन के दौरान आतंकियों के 9 ठिकानों को कामयाबी के साथ बरबाद किया गया है.

‘‘समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, प्रतिबंधित आतंकी संगठनों जैश ए मोहम्मद, लश्कर ए तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के हैडक्वार्टरों को निशाना बना कर 9 ठिकानों बहावलपुर के मरकज सुब्हान अल्लाह, मुरिदके के मरकज तैयबा, टेहड़ा कलां के सरजाल, सियालकोट के महमूना जोया, बरनाला के मरकज अहले हदीस, कोटली के मरकज अब्बास और मस्कर रहील शहीद, मुजफ्फराबाद के सवाई नाला कैंप और सैयदना बिलाल कैंप पर हमला कर उन्हें खत्म किया गया.’’

‘‘मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले में कई बेकुसूर लोग मारे गए थे, कइयों की मांग का सिंदूर उजड़ गया था. उस कायराना हमले में विवाहित महिलाओं के सिंदूर को आतंकियों ने उजाड़ दिया था, इसलिए बदले के इस ऐक्शन को ‘आपरेशन सिंदूर’ नाम दिया गया था. इस नाम का मतलब उन बेकुसूर महिलाओं, जिन का सिंदूर उजड़ गया, को इंसाफ दिलाना था,’’ एक और भगवाधारी ने अपनी बात रखी.

‘‘तो क्या जिन कुंआरी लड़कियों ने अपने पिता, भाई या दूसरे पारिवारिक सदस्य को खोया है, उन्हें इंसाफ दिलाने का सरकार का कोई इरादा नहीं था?’’ अनामिका ने चुटकी ली.

‘‘तुम जैसे लोग भी आतंकियों से कम नहीं हो. न सरकार पर यकीन करते हो और न ही हिंदुत्व की बात करने वालों पर. तुम से अच्छी तो ये आंटी हैं, जो मुफ्त में सिंदूर बांट रही हैं,’’ उन लोगों के लीडर ने गुस्से में कहा.

इतने में एक लड़के ने सिंदूर का बक्सा उठा लिया और बोला, ‘‘आंटीजी, आप अपने दिल पर ज्यादा बोझ मत लेना. आप के नाम से हम बांट देंगे औरतों को. आप तो दुकान बंद करो और घर जाओ.’’

‘‘यह क्या गुंडागर्दी है… सिंदूर का बक्सा वापस रखो, वरना अच्छा नहीं होगा,’’ अनामिका बोली.

‘‘क्या कर लेगी?’’ भगवाधरी गैंग का लीडर चिल्लाया.

‘‘वाह, एक तरफ तुम पाकिस्तानी आतंकवाद का रोना रो रहे हो और वहीं दूसरी तरफ यहां कमजोर को सता रहे हो. तुम भी आतंकियों से कम नहीं हो. देश को तुम जैसे लोगों से सावधान रहना चाहिए, जो अपने नकली हिंदुत्व की दुकान चमकाने के लिए यह सब नौटंकी कर रहे हो,’’ अनामिका को अब गुस्सा आ गया था.

‘‘बड़ी जबान चल रही है तेरी,’’ एक लड़के ने अनामिका को हड़काया.

‘‘जबान ही नहीं, मेरे लातघूंसे भी खूब चलते हैं,’’ इतना कह कर अनामिका ने वहां रखी कैंची उठा ली और चिल्लाई, ‘‘निकलो यहां से, वरना एकएक का पेट चीर दूंगी.’’

एक भगवाधारी अनामिका के करीब आया, तो उस ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया और मंजू आंटी के सामने जा कर अड़ गई.

यह सब देख कर वे लोग थोड़ा घबरा गए, क्योंकि उन्होंने पहले ही किराने वाले को लूटा था. वे आंखें दिखाते हुए वहां से चले गए.

‘‘बेटी, तुम बड़ी दिलेर निकली. पर, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. अगर कुछ हो जाता तो मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाती,’’ मंजू आंटी ने कहा.

‘‘मैं इन जैसे टुच्चों से बखूबी निबटना जानती हूं. आप चिंता मत करें. पर अब दुकान बंद कर लो,’’ अनामिका ने कहा.

‘‘तुम ठीक कहती हो. रुको, हम दोनों साथ चलेंगे. आज पहले मेरे घर चलना. अपने हाथ की चाय पिलाऊंगी,’’ मंजू आंटी ने कहा.

दुकान बंद कर के वे दोनों वहां से चली गईं. घर पर मंजू आंटी ने बढि़या सी चाय बनाई और बोलीं, ‘‘आज का माहौल बड़ा खराब है. हर कोई चौधरी बना फिर रहा है. इस से देश का माहौल काफी बिगड़ता है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं. मेरे बौयफ्रैंड को आज मेरे साथ आना था, पर वह अपने एक दोस्त रहमान के साथ है. जब से देश में यह भारत और पाकिस्तान का माहौल बना है, रहमान काफी डरा हुआ सा है,’’ अनामिका बोली.

‘‘सब ठीक हो जाएगा. हर समाज में अच्छेबुरे लोग होते हैं. तुम यह चाय लो, ठंडी हो रही है,’’ मंजू आंटी बोलीं.

‘‘जी आंटी. पर, मैं जरा विजय को फोन कर लूं,’’ इतना कह कर अनामिका ने विजय को फोन लगाया.

‘‘क्या हो रहा है?’’ अनामिका बोली.

‘कुछ नहीं. तुम्हारी खरीदारी कैसी रही?’

‘‘एकदम बेकार,’’ अनामिका ने उदास हो कर कहा.

‘कल मिलें?’ विजय ने पूछा.

‘‘हां, मुझे तुम से कुछ कहना भी है,’’ अनामिका बोली.

‘कल रात को छत पर आ जाना. पूर्णिमा आने वाली है. चांदनी रात में प्यारभरी बातें करेेंगे. ब्लैकआउट होगा तो और मजा आएगा,’’ विजय बोला.

‘‘ओह, जनाब को इश्कबाजी करनी है,’’ अनामिका का मूड थोड़ा ठीक हुआ.

‘‘हां, बहुत दिन हो गए, अकेले में मिले.’’

‘‘ठीक है. कल रात को मिलते हैं,’’ अनामिका बोली.

Hindi Story: वह लड़की

Hindi Story, लेखक – आनंद कुमार नायक

जब भी मैं कोई मासूम सी लड़की देखता हूं, तो उस लड़की की तसवीर मेरी आंखों में घूम जाती है, जिस को कभी मेरे फर्ज ने मरने पर मजबूर कर दिया होगा.

यह उन दिनों की बात है, जब मैं कश्मीर के एक थाना सारम में दारोगा था. यह थाना चारों तरफ से जंगली इलाकों से घिरा हुआ था. वहां आएदिन आतंकवादियों से मुठभेड़ होती रहती थी. कभी हम उन पर भारी पड़ते, कभी वे.

एक दिन मैं अपने कमरे में बैठ कर औफिस की फाइलें निबटा रहा था. काम की थकान की वजह से उन दिनों मैं बेहद गुस्से में था.

मेरे सामने मेरी दीदी बैठी अखबार देख रही थीं, जो बिना बताए अपने गांव से यहां आ धमकी थीं. अखबार देखने में दीदी का मन नहीं लग रहा होगा. मैं ने देखा, उन की आंखें मुझ पर ही टिकी हुई थीं. मुझ से नजर मिलते ही उन्होंने फौरन अपना ध्यान अखबार में लगा दिया. शायद, वे सोच रही होंगी कि उन्हें अकेले यहां आ कर मुझे गुस्सा दिलाना नहीं चाहिए था.

‘क्या कोई शरीफ लड़की इस तरह घर से बाहर निकलती है?’ ऐसा सोचते हुए मैं ने अपनी दीदी से आने की वजह पूछी ही थी कि तभी फोन की घंटी बज उठी. थाने से बुलावा था. आतंकवादियों ने चौकी पर हमला कर दिया था. दुश्मन अपना मोरचा मेन गेट पर संभाले हुए थे, इसलिए छिपतेछिपाते मुझे पीछे के दरवाजे से आना होगा.

‘ये आतंकवादी भी अपनेआप को समझते क्या हैं? जब चाहे थाने पर हमला बोल देते हैं. खैर, जो भी हो, आज ये सब आतंकवादी नहीं या मैं नहीं,’ मैं अपने मन में सोच रहा था.

मुझे सोचते देख मेरी दीदी ने मुझ से पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

न चाहते हुए भी मुझे सब सच बताना पड़ा कि आतंकवादियों ने चौकी पर हमला कर दिया है.

यह सुन कर दीदी मुझे थाने जाने से रोकने लगीं, पर मैं उन से अपना हाथ छुड़ा कर थाने की ओर भागा.

पीछे से दीदी ने आवाज दी, ‘‘तुम नहीं जानते. अपने पंडितजी का कहना है कि ग्रहनक्षत्र के मुताबिक कश्मीर में आतंकवादियों के हाथों आज तुम्हारे भाई की मौत भी हो सकती है.’’

दीदी की बात सुन कर मेरे पैर रुके. मैं ने कहा, ‘‘जो भी हो, मुझे मेरा फर्ज अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा है. आज मैं इन आतंकवादियों को चुनचुन कर मार डालूंगा,’’ कह कर मैं थाने की ओर जल्दी भागा.

दुश्मन और जवानों में गोलियां चल रही थीं. इस तरह से तकरीबन 15-20 मिनट बीत गए. इस बीच मैं ने कई दुश्मनों को मार गिराया था, पर कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था.

तभी एक गोली अनवर के बाजू में आ लगी. वह धड़ाम से फर्श पर गिर गया. उसे फर्श पर गिरता देख हमारे सभी जवान दौड़ कर उस के चारों ओर घेरा बना कर बैठ गए.

‘‘अनवर, तुम ठीक तो हो न…?’’ मैं ने उस के पास आते ही पूछा.

‘‘हां सर,’’ अनवर दर्द से कराहते हुए बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

अब हम लोगों की तरफ से गोलियां चलानी बंद कर दी गई थीं. हमारी तरफ से गोलियां चलनी बंद देख दुश्मनों ने भी गोलियां चलानी बंद कर दीं. हम लोगों के चेहरे पर एक ही सोच दिख रही थी कि आखिर दुश्मन से इस का बदला कैसे लिया जाए?

तभी कहते हुए मैं ने दीवार पर टंगी हुई बापू की तसवीर को देखा, तो हैरानी से भर गया. दरवाजा खुला रहने के चलते मैं ने उन की तसवीर में देखा कि सभी दुश्मन बड़ी चालाकी से दबे पैर थाने की ओर बढ़े चले आ रहे थे.

एकसाथ सभी आतंकवादियों को मारने, अनवर का बदला लेने और थाने को बचाने का मेरे पास यह आखिरी मौका था.

मैं ने फर्श पर रखी राम सिंह की मशीनगन उठा ली और दरवाजे से बाहर निकल गया.

मुझे दरवाजे से बाहर निकलता देख दुश्मनों ने मु?ा पर निशाना साधा, लेकिन उन की गोलियों से बचते हुए मैं ने उन पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. मैं तब तक गोलियां बरसाता रहा, जब तक वे सभी मारे न गए.

अभी भी मेरी आंखें दुश्मनों को देख रही थीं. सब के सब बेजान पड़े थे. तब तक हमारे सभी जवान भी बाहर आ चुके थे.

तभी मेरी आंखें उछल कर एक मारे गए दुश्मन की जेब से आधे निकले हुए पर्स पर जा पड़ीं. मैं ने जा कर उसे उठा लिया. खोला तो मैं चौंक गया. उस में एक बेहद खूबसूरत लड़की की तसवीर और एक खत था.

खत उर्दू में लिखा था. मैं ने बचपन में अपने स्कूल मास्टर से काफी उर्दू सीखी थी. खत में लिखा था :

प्रिय साहिल,

तुम तो जानते ही हो कि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी रहना पसंद नहीं करती और जिस वजह से तुम मुझ से दूर रहते हो, सोचो साहिल, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा? अरे, जो तुम्हारे बिना एक पल भी रहना पसंद नहीं करती, वह तुम्हारे बिना पूरी जिंदगी क्या खाक जी लेगी?

मैं एक लेखिका हूं साहिल. आएदिन पत्रपत्रिकाओं में मेरी कहानी और लेख छपते रहते हैं. छोड़ दो साहिल यह कश्मीर की जिद. इस से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. ये लोग अपने फायदे के लिए ऐसी घिनौनी राजनीति करते हैं. तुम ये सब नहीं सम?ागे, इसलिए मेरा कहा मानो और छोड़ दो यह कश्मीर की जिद.

हमारी पाकिस्तान सरकार का क्या है, वह तो जनता को मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए इसे हवा देती है. कल को अगर तुम्हें कुछ हो गया, तो तुम्हारी जगह किसी और भटके हुए को रख लेगी. लेकिन, मेरा क्या होगा. मैं तुम से प्यार करती हूं. बताओ, मैं किस के सहारे जिऊंगी. कभी सोचा है तुम ने?

मेरी अम्मी तो मुझे जन्म देते ही चल बसीं. मेरे सभी रिश्तेदार मुझ से अलग हो गए. मेरे अब्बू ने मुझे पालापोसा, पढ़ायालिखाया, लेकिन कभी उन्होंने मुझे अपना प्यार नहीं दिया, क्योंकि वे मेरे लिए दूसरी मां जो ले आए थे. बचपन से ले कर आज तक मैं उन की जबान से ‘बेटी’ शब्द सुनने को तरसती रही हूं.

कभीकभी सोचती हूं कि मैं जिंदा क्यों हूं? किस के लिए हूं? तभी तुम्हारा चेहरा मेरी आंखों के आगे आ जाता है.

एक तुम ही थे, जिस ने मुझे प्यार करना सिखाया, जिंदगी से मुहब्बत करना सिखाया और आज तुम भटक गए हो, इसलिए मैं तुम्हें यह सब लिख रही हूं.

सुबह का भूला अगर शाम को लौट आए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते. अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है साहिल, छोड़ दो ये कश्मीर की जिद.

तुम्हारी हिना.

खत पूरा होते ही उस खूबसूरत मासूम सी लड़की की तसवीर मेरी आंखों के आगे घूमने लगी.
मैं ने यह क्या कर दिया? मैं ने किसे मार दिया? मेरी आंखों से टपटप आंसू टपकने लगे.

पर, मैं करता भी क्या? वह तो एक भटका हुआ राही था. वह दूसरे मुल्क का एक खिलौना था, जो हमारे मुल्क के टुकड़े कर देना चाहता था. वह एक आतंकवादी बन चुका था.

फिर भी मुझे पछतावा हो रहा था उस लड़की के लिए, जिस ने यह खूबसूरत खत लिखा था और मन ही मन उसे अपना सबकुछ मान बैठी थी.

आज मुझे सर्विस से रिटायर हुए कई साल बीत गए हैं. लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में भी वह लड़की बहुत याद आती है. आखिर उस का कुसूर क्या था?

यही न कि उस ने किसी से प्यार किया. पर, प्यार तो अंधा होता है, सहीगलत की पहचान ही इस में कब होती है.

Hindi Story: उस का वैलेंटाइन

Hindi Story: ‘‘अब 12वीं क्लास तो जैसेतैसे पढ़ ली, अब किताब में बिलकुल दिमाग नहीं लगता. सोच रहा हूं कि कोई कामधंधा शुरू कर दूं. क्या कहती हो अम्मी?’’ फिरोज ने तौलिए से बाल पोंछते हुए पूछा.

‘‘देख ले, तुझे जैसा ठीक लगे. तेरे अब्बू तो काम शुरू करने में कोई मदद न दे पाएंगे,’’ अम्मी की आवाज में ममता और साफगोई दोनों का मेल था.

‘‘हां, मुझे पता है अम्मी. मैं सोच रहा हूं कि फास्ट फूड का एक ठेला लगा लूं. चौखटे पर सुबह बहुत सारे मजदूर इकट्ठा होते हैं. उन्हें पोहा और परांठा सस्ते दाम पर खिलाऊंगा.’’

‘‘पर, तू धंधा शुरू करने के लिए पैसे कहां से लाएगा? घर में तो हजार रुपए भी नहीं हैं,’’ अम्मी ने इस बार शक जताया.

‘‘अम्मी, कम से कम 10-12 हजार रुपयों की जरूरत पड़ेगी. अजीत अंकल से पैसे उधार लेने की सोच रहा हूं. रहीम चाचा भी कुछ रकम उधार दे सकते हैं, पर अगले महीने शबनम आपा की शादी है. उन से मांगना ठीक न होगा.

‘‘एक बार काम जम गया, तो 8-10 हजार रुपए तो महीने के कमा ही लूंगा. फिरोजा और फखरुद्दीन पढ़ने में ठीक हैं. इन के स्कूल में आगे फिर कोई रुकावट नहीं आएगी,’’ फिरोज जोश में कहता जा रहा था.

अम्मी अवाक सी फिरोज का चेहरा देखती जा रही थीं. आंखें अचानक बड़े हो गए बेटे को देख कर गीली हो गई थीं.

‘‘यार मदन, मेरे साथ शाम को चल लेना. काम के लिए ठेला तैयार कराया है. उस को तुझे दिखाना भी है और लाने में मदद भी चाहिए,’’ फिरोज ने कहा.

मदन ने चुटकी ली, ‘‘ओहो, तो अब हवाईजहाज उड़ाने के सपने देखने वाला दोस्त सड़क पर ठेला दौड़ाएगा…’’

‘‘हां भाई, सपने में तो अब भी जहाज ही उड़ेंगे, जमीन पर चारपहिया ठेले के ही मजे ले लेते हैं.’’

‘स्वस्थ भोजन कौर्नर’ ठेले पर सामने टिन के बोर्ड पर लिखा देख मदन और फिरोज कुछ पल एकटक निहारते रहे, फिर उस ठेले के बारे में फिरोज मदन को समझाने लगा, ‘‘मदन, यहां पर गैस चूल्हा आएगा, यहां भगोने और एक बड़ी कड़ाही रखूंगा.’’

‘‘भगोने में सब्जी गरम मिलेगी, कड़ाही में पोहा तैयार होगा. वहीं, दूसरी तरफ गरमागरम 5 तरह के परांठे बनाने का इंतजाम रहेगा.’’

‘‘अबे फिरोज, इतना सब तू अकेले कैसे संभालेगा? थोड़े दिन के लिए तेरी मदद को मैं आ जाऊंगा.’’

‘‘नहीं मदन, मेरे काम की आदत तो मुझे ही डालनी पड़ेगी. मेरे हाथ के बने खाने का जब स्वाद लेना हो, तब बाकी यारों के साथ आ जाना,’’ फिरोज की आवाज में प्यार से लिपटा शुक्रिया झलक रहा था.

जुम्मे के दिन सुबहसुबह ठेला तय जगह पर पहुंच गया. कुछ लोग फिरोज से सवाल करने लगे कि हां भई, क्या खिला रहे हो?

‘‘आलू, प्याज, पालक और गोभी परांठा 10 रुपए, पनीर परांठा 15 रुपए. पोहा 10 रुपए प्लेट.’’

‘‘अच्छा, जरा बनाओ तो पनीर के 2 परांठे. आज टिफिन नहीं ला पाए हैं,’’ 20 बरस के 2 अलमस्त मजदूरों में से एक ने फिरोज को पहला और्डर दे डाला.

‘‘बस, 5 मिनट,’’ हंसते चेहरे से ऐसा बोल कर फिरोज बिजली की रफ्तार से हाथ चलाने लगा. पहले से ही तैयार माल को आटे की लोई से परांठे का रूप देने में ज्यादा देर नहीं लगी.

अम्मी के खाना बनाने में मदद करना आज काम आ रहा था. धनिया और टमाटर की चटनी के साथ परांठे 4 मिनट में ही कागज की प्लेट पर सज कर तैयार थे.

अगले 5 मिनट के बाद फिरोज के कानों ने सुना, ‘‘वाह हीरो, क्या स्वादिष्ठ परांठा बनाया है. अब तो रोज सुबह हम यहीं खा लिया करेंगे.’’

फिर 2 घंटे कैसे बीते फिरोज को परांठा बेलते और पोहा लगाते, पता ही नहीं चला. ग्राहक और थे, पर माल सारा खत्म. गल्ला गिना तो 1,000 रुपए.

अम्मी के हाथ जब हजार रुपए रखे, तो वे अवाक सी कभी फिरोज का मुंह देखतीं, तो कभी 500 के 2 नोट देखतीं. फिरोज को बांहों में भर कर अनेक दुआओं से लाद दिया.

पहले दिन ने ही फिरोज को आत्मविश्वास से लबरेज कर दिया.

एक महीने में ही ‘स्वस्थ भोजन कौर्नर’ चौखटे पर चर्चा का विषय बन गया. ठेले को भी फिरोज ने सजा कर नया रूपरंग दे दिया.

हर सुबह गुलाब की खुशबू वाली अगरबत्ती चौखटे पर बैठने वाले मजदूरों के लिए भी ऊर्जा का स्रोत बन गई. सामने फूलों की दुकान पर बिकने वाले फूलों से ज्यादा अब मजदूरों को फिरोज का ठेला अपनी तरफ खींचता था.

आज वैलेंटाइन डे पर फूलों की दुकान पर भी बहुत भीड़ थी. फिरोज भी भीड़ में से फूल चुन रहा था, अपने वैलेंटाइन (ठेले) को सजाने के लिए.

Romantic Story: तुम मेरी हो

Romantic Story, लेखक – पी. कुमार

‘‘गीता, क्या तुम इस बार माघ मेले में शंकरगढ़ जा रही हो?’’ पारो ने पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. तुम सब नहीं चलोगी क्या?’’ गीता ने पूछा.

‘हम भी चलेंगी,’ सब ने एकसाथ जवाब दिया.

एक हफ्ते बाद मेला शुरू हो गया. पारो और उस की सहेलियां शंकरगढ़ की ओर निकल गईं. साथ में और भी औरतें थीं, 3-4 मर्द भी साथ में जा रहे थे.

यों तो केशवगढ़ से लोग हर साल शंकरगढ़ जाते थे, लेकिन गीता को पहली बार जाने का मौका मिला था, इसलिए वह बहुत खुश थी.

‘‘हमारी गीता रानी शंकरजी से क्या मांगेगी?’’ पारो ने चुटकी ली.

‘‘एक सुंदर राजकुमार जो इसे उड़ा कर ले जाए,’’ दूसरी सहेली ने छेड़ा.

‘‘धत,’’ गीता झेंप गई. उस के गालों पर लाली बिखर गई.

गीता किसी राजकुमारी से कम न थी. सहेलियों के बीच उस का चेहरा ऐसे दमक रहा था, जैसे बगुलों के बीच हंस. जो भी उसे देखता, बस देखता ही रह जाता.

सांझ ढलते यह काफिला शंकरगढ़ पहुंच गया. औरतों और मर्दों के लिए अलगअलग तंबू लगाए गए.

अचानक गीता बोल उठी, ‘‘पारो, कितनी सुंदर जगह है…’’

‘‘हां, बहुत सुंदर है.’’

‘‘भीड़ भी काफी होगी?’’

‘‘हां, चंदा काकी कह रही थीं कि 10-15 हजार की भीड़ होगी कल.’’

दोनों सखियों की बातचीत अचानक भंग हो गई. चंदा काकी की आवाज आई, ‘‘अब सो जाओ… भोर होते ही पूजा के लिए जाना है.’’

मुंहअंधेरे ही केशवगढ़ का काफिला मंदिर में जा घुसा. जल्दी ही वे पूजा कर के लौट आए.

पंडे लोगों के हाथों से चढ़ावा छीनने में बिजी थे. किसी तरह शंकर की मूर्ति तक लोग पहुंचते तो बाकी काम पंडे संभाल लेते. धक्कामुक्की की वजह से लोग भी जल्दी बाहर निकलना चाहते थे, क्योंकि ऐसे में जेवर, नकदी वगैरह लूट लिए जाने का खतरा बना रहता था.

गीता और उस की सहेलियां मंदिर की सीढि़यां उतर ही रही थीं, तभी एक अधेड़ उम्र के गठीले बदन वाले पंडे को गीता को घूरते पाया. उस के घूरने का अंदाज गीता को बहुत बुरा लगा, पर वह चुप ही रही. बिना किसी खास बात के एक पंडे पर शक करने से वह खुद की हंसी नहीं उड़वाना चाहती थी.

12 बजे तक वे सब लोग मेले में घूमते रहे. कहीं झूले पड़े थे तो कहीं जादू का खेल चल रहा था. गीता तो जैसे सारा नजारा एक ही दिन में समेट लेना चाहती थी.

‘‘चलो, उस ओर देख आएं,’’ हाथ से इशारा करते हुए गीता ने पारो से कहा.

‘‘नहीं गीता, अब वापस चलो. बाकी कल देखेंगे.’’

‘‘थक गई क्या? थोड़ा सा और देख लेते हैं.’’

‘‘नहीं, अब एक कदम भी आगे नहीं बढ़़ेंगे हम.’’

गीता को बुझे दिल से लौटना पड़ा. वह तो बहुतकुछ देखना चाहती थी, पर अकेले जा नहीं सकती थी.

‘‘प्रवचन क्या होता है काकी…?’’ तंबू में लौट कर गीता ने चंदा से पूछा.

गीता के भोलेपन पर हंसती काकी समझाने लगीं, ‘‘बड़ी भोली है हमारी गीता बिटिया. प्रवचन में महात्मा लोग अच्छीअच्छी बातें बताते हैं. देवताओं के गुणों का बखान करते हैं. नेक चालचलन और बरताव के बारे में बताते हैं.’’

‘‘तब तो प्रवचन जरूर सुनना चाहिए,’’ कह कर गीता हंस पड़ी.

शाम को घंटेघडि़यालों की आवाज कानों में पड़ते ही लोग मंदिर में इकट्ठा होने लगे. जगह कम थी और भीड़ बहुत ज्यादा.

आरती के वक्त 4-5 जवान साधु गीता के आसपास ही मंडरा रहे थे. गीता को कुछ अटपटा सा लगा, पर उसे किसी तरह का डर या परेशानी महसूस न हुई.

आरती आधी से ज्यादा हो चुकी थी कि अचानक बिजली गुल हो गई. लोग धक्कामुक्की करने लगे. चारों ओर गहरा अंधेरा छा गया.

अचानक गीता को लगा, जैसे किसी ने उस की बांह पकड़ ली. जब वह चीखना चाहती थी, पर किसी ने उस का मुंह दबा दिया. साथ ही, कोई उसे एक ओर खींच कर ले गया.

थोड़ी देर में बिजली आ गई. उजाला होते ही पारो की नजर सामने पड़ी. गीता को गायब पाया देख वह चीख पड़ी. तुरंत ही होहल्ला मच गया. केशवगढ़ वाले गीता को तलाशने लगे, पर हजारों की भीड़ में उसे तलाशना भी कम मुश्किल नहीं था.

किसी ने कहा कि इधर ही कहीं होगी, तो किसी ने कहा कि ‘तंबू में चली गई होगी’. जितने लोग थे, उतनी बातें कर रहे थे.

चंदा काकी और पारो सब से ज्यादा परेशान हो उठीं, क्योंकि गीता की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी. गांव जा कर गीता के मांबाप को कौन सा मुंह दिखातीं.

पारो की नजरें आसपास टटोलने लगीं तो उसे लगा कि वे जवान साधु भी गायब हैं. वह चीख उठी, ‘‘काकी, यहां खड़े 4-5 साधु भी नहीं हैं… वे ही गीता को उठा कर ले गए हैं.’’

इधर गीता को मंदिर से दूर पेड़ों के झुरमुट में ले जाया गया. वहां उस के सामने वही पंडा आ खड़ा हुआ, जो उसे दोपहर को घूर रहा था. पहले वह गीता के गहने उतारने लगा, तो वह चीख उठी,’’ नीच, पापी, कमीने, ढोंगी, साधु होने का ढोंग रचते हो और लोगों को लूटते हो.’’

देखते ही देखते वह नाजुक कली उस वहशी की बांहों में जकड़ी गई. गीता के कुंआरेपन के चिथड़े उड़ गए. वह छटपटा रही थी, चिल्ला रही थी, पर वहां कोई भी उस की चीखें सुन नहीं पा रहा था.

उस पंडे के बाद उस के चेले एकएक कर के गीता की इज्जत लूटने लगे. वह चीखती जा रही थी, रोती जा रही थी.

एक नौजवान जो भीड़भाड़ से दूर, नदी के किनारे एक चट्टान पर कुदरत के नजारों का मजा ले रहा था, गीता की पुकार सुन कर चौंक पड़ा. वह फुरती के साथ उठा, लोगों को आवाज दी और दरिंदों से जा भिड़ा.

अचानक हुए हमले से वे साधु बौखलाए और घबराए. नौजवान ने उन पर लातों, घूंसों की बौछार कर दी.

दूर से कई लोगों के इधर आने की आवाज भी सुनाई देने लगी थी, इसलिए घबरा कर वे दरिंदे भागने लगे.
लोगों ने पूरा जंगल छान मारा, पर उन साधुओं में से किसी को पकड़ा न जा सका. गीता बेहोश हो चुकी थी.

उसे इलाज के लिए नजदीक के अस्पताल में ले जाया गया.

थोड़ी देर बाद गीता को होश आने लगा था. वह बुदबुदा रही थी, ‘‘मुझे छोड़ दो. कमीनो… धर्मात्मा बन कर यह जुल्म करते हो…’’

जब उस ने आंखें खोलीं तो सामने सब को खड़ा पाया. पास ही वह अमर नामक नौजवान भी खड़ा था. किसी से नजरें मिलाने की गीता की हिम्मत नहीं हो रही थी. वह फूटफूट कर रोने लगी.

चंदा काकी ने कहा, ‘‘गीता बेटी, मन छोटा मत कर. जो होना था, हो चुका. देख, सभी प्रवचन सुनने जा रहे हैं. तू भी चल, मन कुछ शांत होगा.’’

अचानक गीता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘दिल क्या खाक शांत होगा काकी, जहां साधु लूटते हों, वहां जा कर क्या मिलेगा? असली सुखचैन और शांति तो दिल के अंदर होती है. ये मंदिर अपवित्र हो चुके हैं. इन की पवित्रता खो चुकी है. अब ये लुटेरों के अड्डे बन गए हैं.

‘‘बताओ, मुझे यहां आ कर क्या मिला? लुटी हुई लड़की और फूटी हुई हंडिया किस काम की, काकी? मुझे अकेला छोड़ दो… तुम सब जाओ.’’

पर काकी जा न सकीं. वे और पारो गीता के साथ रहीं, बाकी प्रवचन सुनने चली गईं.

तंबू के अंदर बिस्तर पर लेटेलेटे गीता सोचने लगी, ‘अब जी कर क्या करूंगी? किसी और की कैसे बनूंगी? लुटी हुई इज्जत किसी के हवाले करने से बेहतर है, अपनेआप को ही खत्म कर लिया जाए. यह मैला जिस्म अब किस काम का?’

अमर को भीड़भाड़ पसंद नहीं थी. धर्मस्थलों में फैली गंदगी की वजह से वह बेकार के कर्मकांडों में यकीन नहीं करता था.

वह तो अपनी मां के जिद पर आ गया था. पर यहां दिल न लगने की वजह से अकेले नदी किनारे जा कर किसी चट्टान पर बैठ जाता.

सोचतेसोचते गीता परेशान हो गई थी. उस के नाजुक दिल पर गहरी चोट लगी थी. वह अपनेआप को संभाल न पाई. पारो पीछे से पुकारती रह गई. अमर ने पारो की आवाज सुनी तो उधर ही दौड़ पड़ा.

गीता नदी में कूदने ही वाली थी कि अचानक अमर ने पीछे से उसे पकड़ लिया. उसे झकझोरते हुए अमर बोला, ‘‘यह क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आत्महत्या… इस के सिवा अब कोई रास्ता नहीं है. क्यों बचाया मुझे… मर जाने दिया होता.’’

‘‘मरते तो डरपोक लोग हैं… मरने में क्या मिलेगा?’’

‘‘जी कर ही क्या करूंगी मैं? कौन शरीफ आदमी अब मुझ से ब्याह करेगा? यह दुनिया तो अब मेरा जीना मुश्किल कर देगी.’’

‘‘हिम्मत करनी होगी… दुनिया से दोदो हाथ करने की. हथियार नहीं डालने हैं अभी. मैं तुम्हारे साथ हूं.’’ अमर ने गीता को संभालते हुए कहा.

गीता अमर के एहसानों तले दबती चली गई. उस का सिर अपनेआप अमर के चरणों में झुक गया.

अमर ने उसे उठा कर अपने सीने से लगा लिया और कहा, ‘‘असल में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. उन भेडि़यों ने ही तुम्हें गंदा करना चाहा. भले ही तुम्हारे जिस्म को उन गंदे लोगों ने झकझोरा हो, पर तुम्हारा दिल तो साफ है.

‘‘मैं तुम से ब्याह करूंगा…. आज से तुम मेरी हो.’’

गीता को लगा जैसे उसे नई जिंदगी मिल गई, साथ ही, अपने सपनों का राजकुमार भी.

Hindi Story: मास्टर मटरूराम

Hindi Story, लेखक – हरे राम मिश्र

दिल्ली के पहाड़गंज में बने उस चमचमाते होटल में, जहां मास्टर मटरूराम हर महीने की 28 तारीख को अपने कारोबार के सिलसिले में रात को रुकते थे, तीसरे फ्लोर के कमरा नंबर 2 में 19 साल की एक बेहद खूबसूरत बर्फ सी सफेद, गोरे बदन वाली लड़की जूली बिस्तर पर बिछी, पर सिकुड़न भरी सफेद चादर पर आड़ीतिरछी बिना कपड़ों के पड़ी हुई थी.

आखिर एक घंटे तक मास्टर मटरूराम द्वारा रौंदे जाने के बाद वह बेसुध हो कर अपनी बचीखुची ताकत को दोबारा इकट्ठा कर के अगली बार के लिए खुद को दिमागी और जिस्मानी तौर पर तैयार कर रही थी.

मास्टर मटरूराम जैसे कांइयां और पैसा वसूल सोच के शख्स, जो पूरी दुनिया को सिर्फ नफा और नुकसान के नजरिए से ही देखने का आदी था, ने बहुत ही दर्दनाक तरीके से किए गए सैक्स से जूली को अंदर तक हिला डाला था.

जूली इस बेइंतिहा दर्द को महसूस कर सकती थी. बेदर्दी से रौंदे जाने से उपजी थकान और दर्द से टूटते बदन से वह बेदम सी हो गई थी. वह मन ही मन बुदबुदा रही थी कि किस ‘कसाई’ से आज उस का पाला पड़ गया है.

जूली होटल के इस कमरे को छोड़ कर भागना चाहती थी, लेकिन अपने उस चचेरे भाई, जो इस धंधे में उस का ‘दलाल’ भी था, को धोखा नहीं दे सकती थी. यही ‘दलाल’ उस के लिए 30 फीसदी कमीशन पर अकसर अमीर ग्राहक का जुगाड़ कर देता था, जो अमूमन कौर्पोरेट कंपनियों के अफसरों से ले कर बड़े सरकारी मुलाजिम और नेता तक होते थे.

चूंकि उस के सिर पर दिल्ली के एक मंत्री का हाथ था. लिहाजा, पुलिस के लफड़े और बेगार में अपनी ‘सैक्स सेवा’ देने से वह बच जाती थी.

जूली हमबिस्तरी के लिए अकसर अमीर ग्राहक ही चुनती थी, क्योंकि अपनी कैंसर से पीडि़त मां के इलाज, जांच और दवा के लिए उसे अकसर बड़ी रकम का जुगाड़ करना होता था. जिस्म के बाजार में वह यह जान चुकी थी कि जवानी ढलते ही उसे कुत्ता भी नहीं सूंघेगा, इसलिए सेवा के बदले पूरा पैसा वसूल करना उस के दिमाग में भरा हुआ था.

खैर, होटल पहुंचते ही मास्टर मटरूराम ने अपने ड्राइवर अनोखेलाल तिवारी को पहले ही बाहर भेज दिया था. वह उन का बेहद ही खास कारिंदा था, जो अकसर उन की गैरहाजिरी में उन की फर्म का हिसाबकिताब भी देख लेता था और कभीकभी नकद रकम भी उन के घर तक ले आता था.

इस होटल में चखना, दारू और डिनर का इंतजाम अनोखेलाल ही करता था. मास्टर मटरूराम और अनोखेलाल की पहचान उन के टैंपो चलाने के दिनों से थी. दोनों साथ बैठ कर देशी ठर्रा पीते थे.

समय के साथ मास्टर मटरूराम नेता बन गए और अनोखेलाल मामूली ड्राइवर ही रह गया. भले ही दोनों हमउम्र थे, लेकिन उन के बीच विश्वास की डोर बहुत मजबूत थी.

मास्टर मटरूराम अनोखेलाल पर काफी भरोसा करते थे और अनोखेलाल ने कभी उस भरोसे को दागदार नहीं होने दिया था.

अनोखेलाल को ड्राइवर रखने का एक फायदा और था. अपने समाज की मीटिंग में सामने खड़ी जनता को मटरूराम बहुत दावे से बताते थे कि अपनी गुलामी के दिन अब जा चुके हैं. हमें अब ताकतवर होना है और उन्हें नौकर रखना है, जिन्होंने हम पर अब तक राज किया है.

हालांकि, असलियत यह थी कि अपनी जातबिरादरी के लोगों को मास्टर मटरूराम ने इसलिए ड्राइवर नहीं रखा, क्योंकि जात और समाज को यह नहीं जानना चाहिए कि मास्टर मटरूराम असल में क्या हैं, वरना सियासत में दिक्कत होती है. अपनी जात से एक खास दूरी सियासत में जमे रहने के लिए बहुत जरूरी होती है, ऐसा मास्टर मटरूराम का मानना था.

खैर, इसी कमरे में सफेद रोशनी से चमचमाते बिस्तर से कुछ ही दूरी पर रखे गए एक बड़े से सोफे पर एक सफेद वी कट कच्छा पहने मास्टर मटरूराम बैठ कर ह्विस्की पी कर उस का स्वाद ले रहे थे. वे 1-2 पैग से ज्यादा कभी नहीं पीते थे, लेकिन कम से कम 2 घंटे जरूर लगाते थे.

सामने रखी टेबल पर काजू और बादाम के साथ भुने हुए लहसुन और सामने पीसों में कटे हुए सेब, केला और प्याज की पकौड़ी की प्लेट सजी हुई थी. बस वे हर चुसकी के बाद चखना मुंह में भरते और आंखें मूंद कर दोनों के स्वाद का पूरा मजा लेते.

हालांकि, कमरे में ही बिना कपड़ों के लेटी जूली से मास्टर मटरूराम ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि क्या वह भी उन के साथ कुछ खानापीना चाहेगी?

इस मामले में मास्टर मटरूराम इस तरह से बरताव कर रहे थे, जैसे कमरे में कोई और मौजूद ही न हो या फिर उन्हें एक ‘धंधेवाली’ को तवज्जुह देने की कोई जरूरत नहीं है.

कमरे की सफेद रोशनी में गोरे और साफ चेहरे वाले मास्टर मटरूराम के चेहरे पर एक अलग किस्म की चमक दिख रही थी. उन्होंने गले में सोने की एक मोटी चेन भी पहन रखी थी, जो इस रोशनी में कुछ अलग ही चमक रही थी. अपनी चालढाल और बरताव में वे खुद को दबंग के तौर पर दिखाते थे.

शराब की चुसकी के बीच कुछ देर के बाद वे अपनी मूंछ भी मरोड़ते थे. उन के अपने इलाके में कुछ ऊंची जाति के लोग उन्हें एक खूनी मानते थे, जिस ने कम से कम एक ब्राह्मण की हत्या की है. हालांकि, इस का सच क्या है, इस पर किसी के पास कोई ठोस सुबूत नहीं था. पुलिस आज तक उन्हें पूछताछ के लिए भी नहीं बुला सकी थी.

उन के समाज के लोग यह मानते थे कि इस तरह जंजीर पहनने का मतलब इलाके के क्षत्रियों को यह बताना होता है कि हम आप को कुछ नहीं सम?ाते. हम भी इन क्षत्रियों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं.

हमारे समाज का नेता भी क्षत्रियों से कमतर बरताव किसी भी कीमत पर नहीं करता है. हम भी अब जमींदार हैं और कोई हमें टक्कर नहीं दे सकता.

शराब पीते हुए, उस की चुसकी के बीच अपने आई फोन से बीचबीच में किसी को तेज आवाज में मास्टर मटरूराम गंदीगंदी गालियां देते और फिर भुना काजू खाते. शायद यह उन के घर का केयरटेकर था, जो उन के जातसमाज से ही आता था. उस का काम उन के विदेशी कुत्ते की ढंग से देखभाल करना था, जिस में नाकाम होने पर वह मास्टर मटरूराम से गालियां सुन रहा था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम का महंगा विदेशी कुत्ता किसी देशी कुतिया के चक्कर में गेट से बाहर निकल कर भाग गया था, जिसे देशी कुत्तों ने नोंचनोंच कर घायल कर दिया था. इस तरह उन का कुत्ता करैक्टर का ‘लूज’ होता जा रहा था. लूज करैक्टर का कुत्ता घर की रखवाली नहीं कर सकता, ऐसा उन का मानना था.

जिस काम के लिए आज अचानक मास्टर मटरूराम को दिल्ली आना पड़ा था, वह खास काम था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम को एक ऐसा फोन आने की उम्मीद थी, जिस से उन्हें 50 लाख की तीसरी किस्त की सूचना मिलने वाली थी. 2 किस्त वे पहले ही ले चुके थे.

पैसा कल मिलना था. बस, फोन पर केवल जगह का फिक्स होना बाकी था, जिस के लिए वे दिल्ली के इस होटल में इंतजार और मजा कर रहे थे.

थोड़ा सुरूर में आने पर फोन पर ही वे अपनी किसी तथाकथित प्रेमिका को मसूरी ट्रिप पर ले चलने और ‘मस्ती’ करने के प्लान के बारे में भी बोलते थे.

मास्टर मटरूराम भले ही इन दिनों अपने इलाके के बड़े नेता बन चुके थे, लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन की 20 साल की जद्दोजेहद थी. यह एक ऐसे लड़के का उदय था, जो अपने परिवार के चमड़ा छीलने और संवारने के पुश्तैनी काम को छोड़ कर, कपड़ा सिलने के काम में शिफ्ट होता है.

हालांकि, यहां से भी मन उचटने पर वह टैंपो ड्राइवर बनता है. फिर टैंपो यूनियन का कार्यकर्ता और फिर अपनी ग्राम पंचायत का सदस्य बनने से ले कर सरपंच और जिला लैवल का नेता बन जाता है. ‘मास्टर’ शब्द उन के कपड़ा सिलने के समय का लोगों का दिया हुआ नाम था, जिसे उन्होंने अपने नाम के पहले जोड़ लिया था.

अपनी 20 साल की इस सियासी जिंदगी में मास्टर मटरूराम ने यह सीखा कि जातसमाज का नेता बनना आसान नहीं है. उन्होंने अपने पैर जमाने के लिए काफी मेहनत की थी.

उन के मुताबिक, समाज की समस्याओं को पहचानना, उस के खिलाफ लड़ाई का बीड़ा उठाना, भाषणों में उन्हें दोहराना ही समाज के भीतर किसी नेता के मशहूर होने का सब से बेहतर तरीका है.

उन का यह भी सोचना था कि समाज की समस्याओं पर बात करना, समस्याओं के हल करने के बारे में बात करना ही समाज में मजबूती दिलाता है. इस के साथ खुद को सामाजिक और पैसे के तौर पर मजबूत करने पर भी काम होना चाहिए. बिना पैसे की मजबूती के सियासी मजबूती का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि चुनाव में पैसा लगता है.

भले ही मास्टर मटरूराम 5वीं जमात से आगे स्कूल नहीं जा सके, लेकिन अपने अनुभव से यह सीख लिया कि जातसमाज का ‘विश्वास’ कैसे जीता जाता है. वे मानते थे कि कम बोलना भी अपने समाज पर असर जमाने का एक अच्छा तरीका होता है.

अपने शुरुआती दिनों में तकरीबन 3 साल तक टैंपो यूनियन के संगठन में बिताने के बाद मास्टर मटरूराम ने अपने समुदाय के लिए एक संगठन बनाया था. संगठन में इस नजरिए को मजबूत करने की बात हुई कि अपनी जातसमाज के लोग पहले राजा थे. अब हमें वह दौर फिर से वापस लाना है. अपने समाज को शासक बनाना है.

इस के लिए उन्होंने अपने समाज के किसी एक काल्पनिक देवता के नाम को गढ़ा और खुद को उस का वंशज घोषित किया, जो एक बड़ा काम करने के, अपने समाज के उद्धार के लिए इस धरती पर आ चुका था. ऐसा शख्स, जो समाज के लिए खटने और कुछ चमत्कार करने के लिए आया था.

शुरुआत में मास्टर मटरूराम के जातसमाज के लोगों ने उन के इस दावे पर कम ध्यान दिया, लेकिन कुछ समय बाद ऊंची जाति के लड़कों से ‘तूतूमैंमैं’ या सामान्य सी मारपीट के बाद इलाके के लोगों का ध्यान उन की तरफ गया. आखिर इन ब्राह्मण के लौंडों को पीटने की हिम्मत किसी आम कलेजे में नहीं हो सकती. यह उन की निगाह में संघर्ष की शुरुआत थी. और फिर, आम लोग उन के राजा बननेबनाने की बात में रुचि भी लेने लगे.

तकरीबन एक साल में ही मास्टर मटरूराम ने समाज से मिले चंदे पर एक कार खरीदी, कुछ पैसे भी जोड़े और अपने छोटे भाई को सीमेंटबालू की सप्लाई का एक कारोबार भी शुरू करवा दिया, जो चल निकला.

अपनी जातसमाज के लिए काम करते हुए मास्टर मटरूराम को इसी समाज से पहचान, पैसा, प्रचार सबकुछ मिला. सरपंच के अगले चुनाव में वे ब्राह्मणों के उम्मीदवार को हराते हुए सरपंच भी बने और कुछ साल के भीतर ही वे जिला पंचायत के सदस्य भी बन गए.

इलाके में ब्राह्मण ज्यादा नहीं थे, कोरियों की तादाद ज्यादा थी. ब्राह्मणों के मैदान से हटते ही कोरियों से इन के समुदाय का सीधा मुकाबला होने लगा.

इलाके में मास्टर मटरूराम की जातसमाज और कोरी, दोनों समुदायों की तादाद तकरीबन बराबर थी. मास्टर मटरूराम को लगने लगा कि वे एक दिन विधायक भी बन सकते हैं और कोरियों के दबदबे वाली इस सीट से उन्हें खदेड़ा जा सकता है.

मास्टर मटरूराम अपनी मुहिम में लग गए और ‘अपना वोट अपना समाज’ का नारा बुलंद करने लगे. उन की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी. आखिर कपड़ा सिलने वाला एक मामूली दर्जी, जिसे गांव में सब ‘मास्टर’ बोलते थे, आज अपने समाज की एक ऐसी हस्ती बन चुके थे, जिन्हें इलाके के सामाजिक संगठन, जातसमाज की पंचायतें अपने यहां बुला कर मंच पर ‘इज्जत’ देते थे.

ऐसा मास्टर, जो आम आदमी से अपनी जाति का अभिमान बन चुका था. अब समाज के लोग पुलिस थाने जाने से पहले उन का आशीर्वाद लेना जरूरी समझते थे.

हालांकि, मास्टर मटरूराम अब विधायक बनना चाहते थे. उन्हें इस के लिए पैसे की जरूरत भी थी.

लिहाजा, उन्होंने ठेकेदारी का काम भी शुरू किया. काम चल निकला. पैसे से मजबूत होने के साथ वे अपने समाज का बड़ा चेहरा पहले ही बन चुके थे. कई दलों में उन्हें अब समाज के नेता के तौर पर मंच पर बुलाया जाता था.

वे भाईचारा सम्मेलनों में शिरकत करते थे. वे मंच पर जाते भी थे तो इस नीयत से कि कोई पार्टी उन्हें टिकट दे कर उम्मीदवार बना दे. इस मुकाम पर पहुंचने में उन्होंने 25 साल का लंबा समय बिताया. अब उन की उम्र 44 साल हो गई थी.

चुनाव के समय कई पार्टियों के नेता उन से उन की जाति का वोट ट्रांसफर कराने के लिए मेलजोल रखते थे, क्योंकि उन की जेब में तकरीबन 10 से 15 हजार वोट ट्रांसफर कराने की ताकत आ गई थी, लेकिन इस के लिए वे बड़ी रकम भी लेते थे. वोटिंग के 3 दिन पहले वे तय करते थे कि किसे समर्थन देंगे.

पिछले 2 चुनाव में उन्होंने सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय विधायक से 10 लाख रुपए ले कर अपनी जाति के वोट ट्रांसफर करवाए थे. इस के लिए उन्होंने बड़ी चालाकी से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कौम का दुश्मन बता दिया था.

हालांकि, इस बार के चुनाव में उम्मीदवार उलटफेर कोरी ने मास्टर मटरूराम को 30 लाख दे कर उन दलितों के वोट हासिल किए, जिन्हें वे जात का दुश्मन नंबर 3 बता चुके थे.

इस बार मास्टर मटरूराम ने अपनी जातसमाज के लोगों को समझाया कि ब्राह्मण और क्षत्रियों को बेइज्जत करने के लिए इस बार रघु पांडे की जगह उलटफेर कोरी को सपोर्ट देना है. वे चुने जाने के बाद समाज के महल्लों में विकास का काम करवाएंगे. उन्होंने भाषण भी दिया और उलटफेर कोरी के लिए खूब प्रचार भी किया.

उन के भाषण में यह बात बहुत साफ थी कि समाज के लिए काम करने वाले लोगों को समाज का साथ मिलेगा. हालांकि, वह काम क्या था, जिस पर काम होना है, इस के बारे में सार्वजानिक तौर पर कभी उन्होंने कुछ भी नहीं कहा.

खैर, विधानसभा के चुनाव हुए. चुनाव में उलटफेर कोरी की जीत हुई. ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय के साथ आने, यादव समुदाय के खुले सहयोग के बावजूद 2 बार के विधायक रघु पांडे चुनाव हार गए.

पिछली बार मास्टर मटरूराम ने उन्हें समर्थन किया था, लेकिन इस बार वह समर्थन के एवज में मांगी गई बढ़ी रकम देने को तैयार नहीं हुए, लिहाजा मटरूराम ने नया लौजिक गढ़ कर 20 हजार वोट का ट्रांसफर करवा कर पूरा पाला बदल दिया.

चुनाव के बाद 2 साल बीते. मास्टर मटरूराम के जातसमाज के इलाकों में विधायक उलटफेर कोरी की तरफ से विकास का कोई काम नहीं हुआ. इस से जुड़ी जातसमाज के लोगों की शिकायतों पर भी मास्टर मटरूराम ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

हालांकि, इस इलाके के विकास के लिए वर्तमान विधायक उलटफेर कोरी ने पैस्टीसाइड बनाने वाली एक कंपनी को सरकार से कारखाना लगाने का करार करवा दिया. जब जगह को चुना गया, तो सब से पहले कारखाने से निकलने वाले कचरे और गंदे जहरीले पानी पर बात शुरू हुई. कुछ एनजीओ कार्यकर्ताओं ने इलाके में कारखाना लगाए जाने के खिलाफ स्लोगन लिखना शुरू कर दिया.

मास्टर मटरूराम के समुदाय के लोगों ने भी इस के खिलाफ धरनाप्रदर्शन शुरू कर दिया, क्योंकि कारखाने से जहरीले पानी की निकासी दलितों के गांव की तरफ होनी थी. तकरीबन 8,000 की आबादी सीधे इस की जद में थी.

मास्टर मटरूराम के जातसमाज के कुछ जोशीले नौजवानों ने कारखाने के बनने का काम मारपीट कर जबरिया रुकवा दिया. इस के खिलाफ इलाके के ऊंचे और पिछड़े समुदाय के कुछ लोग कारखाना बनने के पक्ष में खड़े हो गए.

वे लोग चाहते थे कि कारखाना लगे, ताकि जमीन का मोटा मुआवजा ले कर वे शहर में फ्लैट खरीद सकें, लेकिन मास्टर मटरूराम के गांव के लोग कारखाने से निकलने वाले जहरीले पानी और कचरे से काफी डरे हुए थे.

यही नहीं, इलाके के कोरी समुदाय के लोग इस प्रोजैक्ट का रुकना अपने समाज की बेइज्जती समझने लगे. इस के लिए विधायक के लोगों ने गांव में कारखाना लगाने का विरोध कर रहे लोगों पर हमला कर उन को जम कर पीटा. औरतों और लड़कियों को नंगा कर दिया गया. जब रोज हंगामा बढ़ने लगा, तो सरकार को भी दखल देने की जरूरत महसूस हुई.

मास्टर मटरूराम भी इस मारपीट के बाद आंदोलन में शामिल हो गए. उन्होंने इस आंदोलन को ‘दलित बनाम पिछड़ा’ एंगल दे दिया. लेकिन इस के पक्ष में खड़े ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कैसे और कहां सैट करें, यह तय नहीं कर पा रहे थे. फिर इन्हें भी दलित जातसमाज विरोधी घोषित किया गया.

क्षेत्र के कोरियों के बहिष्कार का ऐलान खुलेआम किया जाने लगा. कहा गया कि अब कोरियों, ब्राह्मणों और क्षत्रियों की फसल हमारे समाज के लोग नहीं काटेंगे.

पूरे क्षेत्र में हंगामा बढ़ने लगा. रोज के तनाव से हिंसा हुई और पुलिस फायरिंग में 2 लोग मारे गए.

अब राज्य सरकार को भी इस प्रोजैक्ट के पूरा होने में शक होने लगा. बातचीत के रास्ते समस्या के समाधान पर जोर दिया जाने लगा. स्थानीय प्रशासन ने इस के लिए कंपनी के अफसरों से ले कर एनजीओ के कार्यकर्ताओं तक की मीटिंग बुलाई.

जहरीले पानी से प्रभावित गांव के लोगों ने मटरूराम को इसलिए प्रतिनिधि चुना, क्योंकि वे समाज के नेता थे और समाज की बात ठीक से इस मीटिंग में रख सकते थे.

3 बार की मीटिंग बेनतीजा रही, लेकिन चौथी मीटिंग से पहले ही कंपनी के अफसरों ने एनजीओ कार्यकर्ताओं को मोटा फंड देने की बात कह कर आंदोलन से ही बाहर कर दिया. सब अपना सामान समेट कर रात में ही चले गए. कोरी समुदाय पहले से ही इस कारखाने के पक्ष में था, लिहाजा स्थानीय विधायक को भी मामले में शामिल किया गया. मीटिंग के बाहर ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज प्रोजैक्ट लगाए जाने के पक्ष में नारेबाजी कर रहे थे.

मास्टर मटरूराम इस बार की मीटिंग में फिर शामिल हुए. कुल 3 लोगों की मीटिंग हुई. यह तय हुआ कि कारखाने का कचरा नए रास्ते से गांव के बाहर बहने वाली नदी में मिलाया जाएगा.

अब यह दलितों की आबादी की तरफ नहीं जाएगा.

लेकिन मास्टर मटरूराम अपनी बात पर कायम रहे कि इस कारखाने से उन के समाज को क्या फायदा होगा और यह गांव में क्यों लगे? हवापानी सब जहरीले हो जाएंगे और बदले में हमारे समाज को कुछ मिलेगा भी नहीं. वे कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे.

काफी सोचविचार के बाद यह तय हुआ कि 3 करोड़ रुपए खर्च कर के मामला सैटल किया जाएगा. एक करोड़ विधायक उलटफेर कोरी को मिलेंगे.

50 लाख मास्टर मटरूराम लेंगे. 5 लाख पुलिस के और बाकी रकम जिले के प्रशासन को मिलेगी.

सब बाहर निकले और बताया कि सम?ाता हो गया है. यह कंपनी अपना डिजाइन बदलेगी. मास्टर मटरूराम ने कौम की जीत की घोषणा की. विधायकजी ने भीड़ के सामने हाथ जोड़े और अपनी गाड़ी से चले गए.

जिन समुदायों की जमीन का अधिग्रहण होना था, उन्हें भी खुशी हुई कि चलो, अब जमीन का बड़ा मुआवजा मिलेगा और शान से थार गाड़ी में घूमेंगे और शहर में जमीन खरीदेंगे. हालांकि, गांव के उन दलितों को इस सम?ाते में क्या मिला, इस बारे में कोई ठोस बात ही नहीं हुई.

कारखाना बनने लगा. मास्टर मटरूराम की जातसमाज के लोग कारखाने में मजदूर बने और उलटफेर कोरी के लोगों ने सीमेंटबालू मजदूर सप्लाई का काम शुरू कर दिया. सब को तय रकम की 2 किस्तें जल्द ही मिल गईं.

तकरीबन 3 महीने बाद उसी सौदे की तीसरी किस्त लेने के लिए मास्टर मटरूराम दिल्ली के इस होटल में रुके हुए थे. वे फोन का इंतजार कर रहे थे.

थोड़ी देर में उन्हें एक फोन आया कि कल 10 बजे बेनी स्टेडियम के बगल के फार्महाउस में मिलिए, काम हो जाएगा. यह नंबर 10 बजे चालू मिलेगा. ओके कह कर बात दोनों ओर से खत्म हुई.

मास्टर मटरूराम ने गिलास की बची ह्विस्की को एक सांस में पूरा पी लिया. गरम रोस्टेड चिकन खाया. पैसे मिलने की खुशी में उन का जोश ज्यादा बढ़ गया. मुंह साफ किया और अपने बैग से एक गोली निकाली और उसे चूसने लगे. इस के बाद वे फोन पर ही पोर्न मूवी देखने लगे.

5 मिनट के बाद अचानक मास्टर मटरूराम ने अपना जांघिया उतारा और जूली के ऊपर चढ़ गए. जूली के कटे होंठों से निकलते खून को वे चाटने लगे. शराब और चिकन में लगे मसाले की बास भरी महक से जूली का गला भर गया.

रात के 12 बजने वाले थे. पिछले आधे घंटे से वे जूली को रौंद रहे थे. यह राउंड जूली के लिए पहले से और ज्यादा दर्द देने वाला था. लेकिन मास्टर मटरूराम और ज्यादा जोश में आ चुके थे. अब वे जूली को रौंदने में लगे हुए थे.

आखिर मास्टर मटरूराम ने आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पैसे का इंतजाम जो कर लिया था. भले ही उस समाज को उन्होंने धोखा दिया था, जिस ने उन्हें एक मामूली टैंपो ड्राइवर से ऊपर उठा कर ‘हीरो’ बना दिया था.

मास्टर मटरूराम का मानना था कि जातसमाज वाले केवल चमत्कार को ही सिर झुकाते हैं, इसलिए उन्हें अपने समाज में मजबूत बने रहने के लिए बड़े चमत्कार करते रहना जरूरी था. यही उन की सियासत की समझ का कुल हासिल था, जहां धोखा, फरेब, ऐयाशी, भ्रष्टाचार सब जायज है, क्योंकि जातसमाज को सिर्फ चमत्कारी लोग ही चाहिए.

उस चमत्कार के पीछे कितना घना अंधेरा है, लोकतंत्र और समाज को निगलने वाला कितना बड़ा साम्राज्य है, कितनी ज्यादा गहरी कालिख है, यह किसी को जाननेसम?ाने में दिलचस्पी नहीं है.

खैर, अब रात के 2 बज रहे थे. मास्टर मटरूराम उसी बिस्तर पर निढाल हो कर नंगे ही सो गए. जूली भी वहीं पड़ी रही. सुबह के 5 बजे उस ने अपने कपड़े पहने, रिसैप्शन से बैग लिया और अंधेरी गलियों में गुम हो गई.

मास्टर मटरूराम ने अपनी कौम को जो धोखा दिया था, उस की कीमत लेने के लिए वे सुबह से ही 10 बजने का इंतजार करते हुए बादाम मिक्स बिसकुट के साथ चाय की चुसकी लेने लगे. तय समय पर उन्होंने अपना हिस्सा लिया और एक नई जूली के शिकार में इस बार गोवा चले गए.

हालांकि, इस पैस्टीसाइड कारखाने के जहरीले कचरे का बहाव मास्टर के जातसमाज के गांव की ओर ही हुआ, जिस पर अब कोई बोलने को तैयार नहीं था. उन लोगों ने जो भरोसा किया था, मास्टर मटरूराम ने उसे तारतार कर दिया था.

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