जीने की राह- भाग 4: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

Writer- संध्या 

मैं ने स्वयं ही मन में एक संकल्प लिया कि मैं नीता और रिया की यादों को अपनी कमजोरी नहीं बनने दूंगा बल्कि उसे संबल बनाऊंगा और उस से प्रेरणा ले कर जिंदगी आगे जीऊंगा. एक पल बाद मैं सोचने लगा, मैं करूंगा क्या ऐसा, जिस से जीवन सार्थक महसूस हो. एकाएक सोनू की याद आ गई-तनहा, उदासीन, सोनू. मन में एक संकल्प उभर आया, हां, मैं नीता व रिया की अपनी यादों को अपने दिल में बसाए, अपने जीवन में संजोए, तनहा व उदासीन सोनू की जिंदगी संवारने की कोशिश करूंगा. इस उदास युवती को एक सामान्य खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करूंगा. अब मेरे जीवन का यही लक्ष्य होगा. मैं खुद को बेहद हलका महसूस करने लग गया, जीने की राह जो मुझे मिल गई थी.

अपने संकल्प की चर्चा मैं ने किसी से भी नहीं की थी. मैं ने कालेज भी जौइन कर लिया. मन में खयाल आया, अपने दुख के कारण विद्यार्थियों को हानि पहुंचाना गलत है, सो, अब सुबह कालेज जाने की व्यस्तता हो गई थी. सोनू ने भी स्कूल जौइन कर लिया था. दिन में हम अपनेअपने कार्यों में व्यस्त रहते थे किंतु शाम में अवश्य मौका निकाल कर हम मिल लेते थे. अचानक 5 दिनों के लिए उत्तम एवं भाभीजी को दिल्ली जाने का प्रोग्राम बनाना पड़ गया, परिवार में एक शादी पड़ गई थी. सोनू फ्लैट में अकेली रह गई थी, इसलिए मैं उस का ज्यादा खयाल रखने लगा था. अब वह भी मुझ से ज्यादा बातें करने लगी है. उस ने अपने मांपापा के विषय में विस्तार से बताया कि उस के मांपापा ने दोनों परिवारों के विरोध के बावजूद अंतर्जातीय विवाह किया था. इसलिए दोनों परिवार वालों ने उन लोगों से संबंध तोड़ लिए थे. उस ने बताया कि उस के मांपापा को उस से पहले भी एक बेटी हुई थी, जिस का नाम पापा ने बड़े प्यार से ‘संगम’ रखा था. 2 भिन्न जातिधर्म का संगम. उस की मां बहुत सरल स्वभाव की थीं, उन्होंने दोनों परिवारों को संगम के बहाने मिलाने का काफी प्रयास किया किंतु दोनों तरफ से कड़ा जवाब ही मिला कि वे संगम को नाजायज औलाद मानते हैं, उस के जन्म से उन्हें कोई खुशी नहीं है. सो, मेलमिलाप का तो सवाल ही नहीं उठता है. उस ने आगे बताया, ‘‘संगम 9 माह की हो कर खत्म हो गई. मां ने बताया था कि संगम को सिर्फ बुखार हुआ था, जो अचानक काफी तेज हो गया था. उसे डाक्टर के पास ले गए किंतु उस ने कम समय में ही आंखें उलट दीं एवं उस का शरीर ऐंठ गया. डाक्टर कुछ भी न कर सके.

‘‘मांपापा का प्यार सच्चा था, दोनों एकदूसरे का संबल बन एकदूसरे के लिए खुश रहते एवं एकदूसरे को खुश रखने की पूरी कोशिश करते. संगम की मृत्यु के 2 साल बाद मेरा जन्म हुआ. मां ने फिर दोनों परिवारों से मुझे स्वीकार करने की मिन्नतें कीं. उन्होंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि इस नन्ही जान को स्वीकार कर लीजिए. आप लोगों ने मेरी पहली बच्ची को नहीं स्वीकारा, वह रूठ कर चली गई. किंतु मां की पुकार दोनों परिवारों के बीच की तपन को पिघला न सकी. दोनों परिवारों का एक ही जवाब था, जब हमारा तुम से ही कोई संबंध नहीं है तब तुम्हारी औलाद से हमें क्या मोह?

‘‘मां ने मुझे बताया था कि दोनों परिवारों के रुख के कारण पापा ने नाराज हो कर मां से वचन लिया था कि अब वह कभी भी दोनों परिवारों से मेलमिलाप का प्रयास नहीं करेगी. इस के बाद मां ने दोनों परिवारों के संबंध में सोचना बंद कर दिया,’’ मुझे यह सब बता कर सोनू फूटफूट कर रो पड़ी. मैं ने उसे सांत्वना देने के उद्देश्य से उस के कंधे थपथपाते हुए कहा, ‘‘सोनू, धैर्य रखो, आश्चर्य होता है लोग इतने निर्दयी क्यों हो जाते हैं जो अपने खून को पहचानने से, उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं.’’ सोनू अपने आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘मनजी, मेरी समझ में नहीं आता, लोग प्यार से इतनी घृणा क्यों करते हैं. मेरे मांपापा अलगअलग जातिधर्म के थे, दोनों ने प्यार किया था, कोई अपराध तो नहीं किया था, किंतु दोनों परिवारों ने उन का बहिष्कार कर दिया. मां ने एक बार बताया था कि उन की मां ने उन्हें उलाहना देते हुए कहा था कि यह दिन दिखाने से तो अच्छा होता कि वे मर गई होतीं, तो उन्हें खुशी होती.’’

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सोनू की जीवनगाथा सुननेसुनाने में हमें समय का खयाल ही नहीं रहा. रात के साढ़े 8 बज चुके थे. मैं ने कहा, ‘‘सोनू, काफी देर हो चुकी है. अब तुम घर जाओ. हम कल मिलते हैं. अपना खयाल रखना.’’ वह बिना कुछ बोले, धीरे से बाय, गुडनाइट कह कर चल दी. रविवार का दिन था, सोनू का फोन आया, ‘‘मनजी, मेरे साथ मार्केट चलिएगा, घर का थोड़ा जरूरी सामान खरीदना है.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, 4 बजे तक चलते हैं.’’ हम नजदीक के मौल में चले गए. उस ने चादरें, तौलिया तथा किचन का काफी सामान लिया. मैं ने भी किचन की कुछ चीजें खरीद लीं. यह सब खरीदारी नीता ही किया करती थी. सो, मुझे थोड़ी असुविधा हो रही थी. सोनू से मुझे खरीदारी में काफी मदद मिली. खरीदारी करते हुए हमें 8 से ऊपर बज गए. सो हम ने डिनर भी बाहर ही कर लिया. सोनू का सामान कुछ ज्यादा था, इसलिए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारा सामान तो ज्यादा है, इसलिए कुछ सामान मैं तुम्हारे घर तक पहुंचा देता हूं.’’ उस ने सहमति में सिर हिला दिया. उस का सामान पहुंचा कर मैं लौटने लगा तब वह बोली, ‘‘मनजी, मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं.’’

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‘‘हांहां, बोलो,’’ मैं ने कहा.

वह झिझकते हुए बोली, ‘‘मनजी, अब हम एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं.’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, समान दुख के कारण हम एकदूसरे को जल्दी समझ सके.’’ ‘‘मनजी, हमें एकदूसरे को जानते हुए 6 माह से भी ऊपर हो चुके हैं. मैं इंतजार में थी कि आप ही इस संबंध में कुछ करते किंतु आप तो…’’ वह एक पल रुक कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘मनजी, आप बहुत भले इंसान हैं. इतनी बातें मैं मांपापा के सिवा सिर्फ आप से करती हूं.’’ मैं ने भी उस की हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं भी इतनी बातें सिर्फ नीता और रिया से करता था. हम दोनों बातें कर ही रहे थे कि उत्तम और भाभीजी दिल्ली से लौट आए. घर के सामने उन की टैक्सी आ चुकी थी, हम दोनों उन की अगवानी में लग गए. उत्तम से सारी बातें जानने के लिए मैं अधीर हो रहा था, क्योंकि मैं ने उस से विशेष आग्रह किया था कि वह दिल्ली में समय निकाल कर मेरे बड़े भैया एवं भतीजे सुमन से अवश्य मिल ले तथा मैं ने शादी संबंधी जो भैया एवं सुमन से सलाह मांगी थी, वह प्रत्यक्षत: उस संबंध में राय जान ले एवं उन की प्रतिक्रिया प्रत्यक्षत: देख कर, उन के विचार साफतौर पर समझ ले. उत्तम ने बताया कि दोनों ही मेरे विचारों से सहमत हैं तथा इस सिलसिले में इसी हफ्ते आ जाएंगे. अगले दिन सोनू शाम को मेरे घर पर आई थी. हम दोनों चाय पी रहे थे एवं बातें कर रहे थे कि बड़े भैया का फोन आया. जरूरी बातें कर, मैं ने उन से थोड़ी देर बाद बात करने की बात कह कर फोन काट दिया.

तांक झांक- भाग 2: क्यों शालू को रणवीर की सूरत से नफरत होने लगी?

Writer- Neerja Srivastava

‘ओह आज तो सुबह से बड़ी चहलकदमी हो रही है… तैयार मैडम प्रिया सधे कदमों से हाईहील में खटखट करते इधरउधर आजा रही हैं,’ दिल में उस के जलतरंग सी उठने लगी. ‘लगता है किसी फंक्शन में जा रही है… उफ लो यह खड़ूस अपने जूते पहने यहीं आ मरा… बेटा, थ्री पीस सूट पहन कर हीरो नहीं बन जाएगा… बीवी की बात कभी तो मान लिया कर… थोड़ी बौडीशौडी बना ले,’ तरुण परदे के पीछे खड़ा बड़बड़ाए जारहा था.

‘काश, प्रिया जैसी मेरी बीवी होती… खटखट करते2 कदम आगे2 कदम पीछे करके मेरे साथ डांस करती… मैं उसे यों गोलगोल घुमाता,’ वह खयालों में खो गया.

एक दिन खयालों को सच करने के लिए तरुण शालू के नाप के हाईहील सैंडल ले आया. बड़े चाव से शालू को पहना कर उस ने म्यूजिक औन कर दिया. शालू को सहारा दे कर उस ने खड़ा किया. घुमाया तो शालू खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तरु मुझ से नहीं होगा… गिर जाऊंगी,’’ फिर अपनेआप को संभालने के लिए उसने तरुण को जो खींचा तो दोनों बिस्तर पर जा गिरे. तरुण को भी हंसी आ गई. थोड़ी देर तक दोनों हंसते रहे.

प्रिया को अपनी बालकनी से ज्यादा कुछ तो दिखाई नहीं दिया पर दोनों की हंसी बड़ी देर तक सुनाई देती रही.

‘अकसर दोनों की हंसीखिलखिलाहट सुनाई देती है. कितना हंसमुख है तरुण… अपनी पत्नी को कितना खुश रखता है और एक ये हैं श्रीमान रणवीर हमेशा मुंह फुलाए बैठे रहते हैं जैसे दुनिया का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर हो,’ प्रिया के दिल में हूक सी उठी तो वह अंदर हो ली.

थोड़ी देर बाद ही तरुण उठा और शालू को भी उठा दिया, ‘‘चलो, थोड़ी प्रैक्टिस करते हैं… कल 35 नंबर कोठी वाले उमेशजी के बेटे की सगाई है. सारे पड़ोसियों को बुलाया है. हमें भी. और रणवीर फैमिली को भी. खूब डांसवांस होगा. बोला है खूब तैयार हो कर आना.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तभी ये सैंडल…’’ शालू मुसकराई.

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शालू फिर खड़ी हो गई. किसी तरह तरुण कमर में हाथ डाल कर डांस करवाने लगा. हंसते हुए शालू ने 2 राउंड लिए. फिर अचानक पैर ऐसा मुड़ा कि हील सैंडल से अलग जा पड़ी और शालू अलग.

‘‘तुम से कुछ नहीं होगा शालू… तुम ने अच्छेखासे सैंडल भी बेकार कर दिए.’’

‘‘ब्रैंडेड नहीं थे…  तो पहले ही लग रहा था पर आप को बुरा लगेगा इसलिए कहा नहीं. प्रिया को रणवीर हर चीज ब्रैंडेड ही दिलाते हैं. काश, मेरा पति भी इतना रईस होता,’’ कह शालू ने ठंडी आह भरी.

‘‘यह देखो क्या किया…’’ तरुण ने दोनों टुकड़े उसे थमा दिए.

शालू ने उन्हें क्विकफिक्स से चिपका दिया. बोली, ‘‘देखो तरु सैंडल बिलकुल सही हो गया. अब चलो पार्टी में.’’

‘‘हां पर डांसवांस तुम रहने ही देना… वहां तुम्हारे साथ कहीं मेरी भी भद्द न हो जाए,’’ तरुण बेरुखाई से बोला.

उधर रणवीर अपनी बालकनी में शालू की किचन से रोज आती आलू, पुदीने के परांठों की खुशबू से काफी प्रभावित था. पत्नी प्रिया के रोजरोज के उबले अंडे, दलिया के नाश्ते से त्रस्त था. कई बार चुपके से शालू की तारीफ भी कर चुका था और वह कई बार मेड के हाथों उसे भिजवा भी चुकी थी. आज सुबह भी उस ने परांठे भिजवाए थे.

शालू तरुण के साथ नीचे उतरी तो प्रिया और रणवीर भी आ चुके थे. रणवीर गाड़ी स्टार्ट कर रहा था.

‘‘आइए, साथ ही चलते हैं तरुणजी,’’ रणवीर ने कहा तो प्रिया ने भी इशारा किया. चारों बैठ गए.

रणवीर बोला, ‘‘परांठों के लिए थैंक्स शालूजी… आप के हाथों में जादू है… मैं अपनी बालकनी से रोज पकवानों की खुशबू का मजा लेता हूं… प्रिया को तो घी, तेल पसंद नहीं… न बनाती है न मु?ो खाने देना चाहती है. तरुणजी आप के तो मजे हैं. रोज बढि़याबढि़या पकवान खाने को मिलते हैं. काश…’’

‘अबे आगे 1 लफ्ज भी न बोलना… क्या बोलने जा रहा था तू,’ तरुण मुट्ठियां भींचते हुए मन ही मन बुदबुदा उठा.

इधर शालू महंगी बड़ी सी गाड़ी में बैठ एक रईस से अपनी तारीफ सुन कर निहाल हुई जा रही थी.

और प्रिया ‘हां फैट खूब खाओ और ऐक्सरसाइज मत करो. फिर थुलथुल बौडी लेकर घूमना इन्हीं यानी शालू के साथ… तरुणकी तारीफ में क्यों बोलोगे? क्या गठीली बौडीहै. काश मेरा हबी ऐसा होता,’ प्रिया मन हीमन बोली.

शालू पर उड़ती नजर पड़ी तो न जाने क्यों वह जलन सी महसूस करने लगी. गाड़ी के ब्रेक के साथ सभी के उठते विचारों को भी ब्रेक लगे. पार्टी स्थल आ गया था.

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मेहमान आ चुके थे. फंक्शन जोरों पर था. मीठीमीठी धुन के साथ कोल्डड्रिंक्स, मौकटेल के दौर चल रहे थे. तभी वधू का प्रवेश हुआ. स्टेज से उतर लड़के ने उस का स्वागत किया और स्टेज पर ले आया. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सगाई की रस्म पूरी की गई.

सभी ने बारीबारी से स्टेज पर आ कर बधाई दी. लड़कालड़की की शान में कुछ कहना भी था उन्हें चाहे गा कर चाहे वैसे ही. सभी ने कुछ न कुछ सुनाया.

तरुण और शालू स्टेज पर आए तो प्रिया की हसरत भरी नजरें डैशिंग तरुण पर ही जमी थीं. तरुण ने किसी गीत की मुश्किल से 2 लाइन ही गुनगुनाईं और फिर बधाई गिफ्ट थमा शालू का हाथ थामे शरमाते हुए स्टेज से उतर गया.

‘ओह तरुण की तो बस बौडी ही बौडी है. अंदर तो कुछ है ही नहीं… 2 शब्द भी नहीं बोल पाया लोगों के सामने. कितना शाई… गाना भी पूरा नहीं गा सका,’ तरुण को स्टेज पर चढ़ता देख प्रिया की आंखों में आई चमक की जगह अब निराशा झलक रही थी. आकर्षण कहीं काफूर हो रहा था.

‘शालू, आप ऐसे कैसे जा सकती हो बगैर डांस किए. मैं ने आप का बढि़या डांस देखा है… मेरे हाथों में… आइएआइए,’’ उमेशजी की पत्नी आशाजी ने आत्मीयता से उसे ऊपर बुला लिया.

लौटती बहारें- भाग 3: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

पिछली बार तो पगफेरे के समय वे साथ थे. मम्मीपापा, भाईबहन से ज्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि शेखर हर समय साथ रहते थे. अगले दिन वापस भी आ गए थे.

मन रोमांचित हो रहा था कि इस बार अपनी प्यारी सहेली चित्रा से भी मिलूंगी. रेनू और राजू मेरे बाद कितने अकेले हो गए होंगे. उन दोनों की चाहे पढ़ाई से संबंधित समस्या हो या कोई और, हल अपनी मीनू दीदी से ही पूछते थे. मम्मी का भी दाहिना हाथ मैं ही थी. पापा मुझे देख गर्व से फूले न समाते. यही सोचतेसोचते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

झटके से बस रूकी. मैं ने देखा सहारनपुर आ गया था. मैं पुलकित हो उठी. बस की खिड़की से झांका तो राजू तेज कदमों से बस की ओर आता दिखा. बस से उतरते ही राजू ने मेरा सूटकेस थाम लिया. उसे देख खुशी से मेरी आंखें भर आईं. 2 ही महीनों में राजू बहुत स्मार्ट हो गया था. नए स्टाइल में संवरे बाल, आंखों पर काला चश्मा लगा था.

घर पहुंचते ही ऐसे लगा मानो कोई खोई हुई चीज अचानक मिल गई हो. मैं सब से टूट कर मिली. मम्मीपापा ने पीठ पर हाथ फेर कर दुलारा. मुझे लगा कि मैं इस प्यार के लिए कितना तरस गई थी. मेरा और ससुराल का हालचाल

पूछ मम्मी किचन में चली गईं. मैं पापा की सेहत और रेनू व राजू की पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने लगी.

बड़े अच्छे माहौल में खाना खत्म हुआ. राजू और रेनू मेरी अटैची के आसपास घूमने लगे. बोले, ‘‘बताओ दीदी, दिल्ली से हमारे लिए क्या लाई हो?’’

मैं शर्म से गड़ी जा रही थी कि किस मुंह से उपहार दिखाऊं. मैं अनिच्छा से ही उठी और उन दोनों के पैकेट निकाल कर दे दिए. पैकेट खोलते ही रेनू और राजू के मुंह उतर गए. दोनों मेरी ओर देखने लगे.

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रेनू बोली, ‘‘आप कमाल करती हैं दीदी… पूरी दिल्ली में यही घटिया चीजें आप को हमारे लिए मिलीं.’’

राजू भी बोल उठा, ‘‘दीदी, ऐसे चीप कपड़े तो हमार कामवाली बाई के बच्चे भी नहीं पहनते हैं.’’

शर्म और अपमान से मैं क्षुब्ध हो उठी. यह सही था. कपड़े उन के स्तर के नहीं थे, परंतु ऐसा व्यवहार तो मैं ने उन का पहली बार देखा था. दोनों पैकेटों को पलंग पर रख कमरे से बाहर निकल गए. मैं हैरानपरेशान उन्हें देखती रह गई.

जो भाईबहन मुझे इतना आदर और मान देते थे वही सस्ते से उपहारों के लिए इतना सुना गए. मन खिन्न हो उठा. बहुत थकी थी. वहीं पलंग पर लेट गई. न जाने कब आंख लग गई.

शाम को आंख खुली तो कानों में रेनू की आवाज सुनाई दी.

मैं ने बालकनी से नीचे देखा तो रेनू एक लड़के से बातें करती दिखाई दी. लड़का बाइक पर बैठा था. हावभाव और बातचीत से किसी निम्नवर्गीय परिवार का लग रहा था. अचानक उस ने बाइक स्टार्ट की और रेनू को फ्लाइंग किस देता हुआ तेज गति से चला गया.

यह सब देख मैं हैरान रह गई. अभी तो कालेज में रेनू का पहला वर्ष ही है. उस ने अपनी आयु के 18 वर्ष भी पूरे नहीं किए. अपरिपक्व है. अभी से यह किस रास्ते चल पड़ी? फिर मैं ने सोचा कि मौका देख कर बात करूंगी.

मम्मी कमरे में चाय ले कर आ गईं. मैं ने मम्मी का हाथ पकड़ कर, ‘‘मम्मी, आप यहीं बैठो,’’ कह कर मैं ने उन के लिए लाई साड़ी और पापा की शौल का पैकेट उन्हें पकड़ा दिया. मेरी आंखें शर्म से झुकी जा रही थीं.

उन्होंने साड़ी और शौल को उलटपुलट कर देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की क्या जरूरत थी. अभी तेरे पापा ने रिटायरमैंट के अवसर पर महंगी साडि़यां दिलवाई हैं,’’ और फिर पैकेट वहीं छोड़ किचन में चली गईं.

मैं शर्मिंदगी से उबर नहीं पा रही थी. मैं ने सारे तोहफे समेटे और अलमारी के कोने में रख दिए.

बड़ा नौर्मल सा दिखने का अभिनय करते हुए मैं मम्मी के पास किचन में चली गई.

मुझे देखते ही मम्मी बोली, ‘‘अरे, तू कमरे में ही आराम कर यहां कहां चली आई. अब तो तू हमारी मेहमान है.’’

यह सुन कर मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह फेर कर बरतनों को उलटपलट कर रखने लगी. मुझे वे दिन याद आने लगे, जब मेरे किचन में जाने पर मम्मी आश्वस्त हो बाहर निकल जाती थीं. दो घड़ी आराम कर लेती थीं. कल तो मौसियां, चाची, बूआ सब मेहमान आ जाएंगे. फिर तो मम्मी को जरा सी भी फुरसत नहीं मिलेगी. बड़ा मन कर रहा था कि मां की गोद में सिर रख कर खूब रो लूं, मन हलका कर लूं पर मां तो लगातार काम करती जा रही थीं. बीचबीच में ससुराल के मेरे अनुभव भी पूछती जा रही थीं. मुझे जो भी सूझता जवाब देती जा रही थी.

मम्मी ने रसोई में पड़ा स्टूल मेरी तरफ खिसका दिया और बोलीं, ‘‘थक जाएगी, बैठ जा.’’

उन का यह मेहमानों वाला व्यवहार मेरे सीने में किसी कांटे की तरह चुभ रहा था.

अगले दिन बहुत चहलपहल रही. घर में खूब रौनक हो गई थी. सब की केंद्र बिंदु मैं थी. सभी ससुराल के अनुभव, पति, घर वालों के स्वभाव के बारे में पूछ रहे थे. मैं दिल में टीस छिपाए रटेरटाए उत्तर देती जा रही थी. कैसे बताती कि मैं पेड़ से टूटी शाखा और शाखा से

टूटे पत्ते जैसी जिंदगी गुजार रही हूं. अपनापन पाने की कई परीक्षाएं दे चुकी पर हर बार असफल होती रही.

पापा का सेवानिवृत्ति का आयोजन बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया. सभी लोगों

ने उन की ईमानदारी की खूब प्रशंसा की. मैं ने देखा पापा ने चेहरे पर कृतिम खुशी का जो मुखौटा लगा रखा था वह कई बार खिसक जाता तो चेहरे पर चिंता की रेखाएं दिखने लगतीं. मैं जानती थी कि ये चिंताएं रेनू और राजू को ले कर हैं, जो अभी कहीं सैटल नहीं हैं. उन की शिक्षा, विवाह, नौकरी सभी कुछ बाकी है. यह तो पापा की दूरदर्शिता थी कि समय पर यह मकान बनवा लिया था, जिस की छत्रछाया में उन का परिवार सुरक्षित था. अब तो फंड और पैंशन से गुजारा चलाना था.

अगले दिन पापा कैटरिंग वालों का हिसाब कर रहे थे. उधर मेहमानों की विदाई भी हो रही थी.

मेहमानों के जाते ही घर में सन्नाटा सा छा गया. सब थके हुए थे. दोपहर को थकान उतारने के लिए आराम करने लगे.

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मैं ने इस आयोजन के दौरान एक बात और नोट की कि पूरे आयोजन में रेनू और राजू का सहयोग नगण्य था. रेनू काफी समय तो पार्लर में लगा आई बाकी समय मौसी, चाची और बूआ से गपशप करती रही. राजू भी मेहमानों के साथ मेहमान बना घूम रहा था. 1-2 बार तो मैं ने उसे बिलकुल पड़ोस वाली टीना, जो उस की ही हमउम्र थी, से इशारेबाजी करते भी देखा. देखने में ये बातें इस उम्र में नौर्मल होती है, परंतु इन्हें अपनी पढ़ाईलिखाई और जिम्मेदारी का पूरा ध्यान रखना चाहिए. उपहारों को ले कर किए इन दोनों के कटाक्ष एक बार फिर मेरी वेदना को बढ़ा गए. मन उचाट हो गया. मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई.

रेनू और राजू घर पर नहीं थे. मम्मीपापा सोए हुए थे. मैं ने देखा पूरे कमरे की काया पलट हो चुकी थी. दीवारों पर आलिया भट्ट, वरुण धवन के पोस्टर लगे हुए थे.

फिर मैं ने अपनी अलमारी खोली. इस में मेरी बहुत सी यादें जुड़ी थी. अलमारी में रेनू के कपड़े और सामान रखा था. इधरउधर देखा, रेनू की अलमारी पर ताला लगा था. अचानक अलमारी के ऊपर रखी 2 गठरियां दिखाई दीं. उतार कर देखीं तो एक में मेरे कपड़े थे और एक में किताबें बंधी थीं. मैं उन्हें कहां रखूं, यह सोच ही रही थी कि रेनू के बाय कहने की आवाज आई.

बालकनी में जा कर देखा, रेनू उसी लड़के की बाइक से उतर कर

ऊपर आ रही थी. मुझे सामने पा कर चौंक गई. फिर नजरें बचा कर अंदर जाने लगी.

उसी समय राजू भी किसी से मोबाइल पर बातें करता ऊपर आ गया. मुझे देख मोबाइल छिपाते हुए अपने कमरे की ओर जाने लगा. मैं ने उसे आवाज दी तो वह अनसुना कर गया.

अब मेरा धैर्य भी जवाब देने लगा था.

फिर भी मैं ने यथासंभव खुद को सामान्य करते हुए बड़े प्यार से दोनों को पुकारा. रेनू तो अभी वहीं खड़ी थी. राजू मुंह फुलाए आकर खड़ा हो गया.

मैं ने बड़े प्यार से दोनों की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछा तो दोनों ने संक्षिप्त उत्तर दिए और जाने लगे.

मैं ने राजू से पूछा, ‘‘यह मोबाइल तुम ने नया खरीदा क्या?’’

‘‘पापा ने ले कर दिया?’’

राजू मुंह बना कर बोला ‘‘पापा क्या ले कर देंगे, यह मुंबई वाली मौसी का बेटा रजत अपना पुराना मोबाइल दे गया. मैं ने अपनी सिम डलवा ली.’’

Top 10 Best Friendship Story In Hindi : दोस्ती की टॉप 10 बेस्ट कहानियां हिन्दी में

Top 10 Best Friendship Story In Hindi : दोस्ती जीवन का सबसे कीमती रिश्ता है. इस रिश्ते में हम एक-दूसरे के साथ सुख-दुख, अकेलापन, हंसी-ठिठोली, सबकुछ साझा करते हैं. एक सच्चा दोस्त जीवन के मुश्किल समय में भी हमारा ढाल बनकर खड़ा रहता है. दोस्ती के रिश्ते को हमेशा सहेज कर रखना चाहिए. तो इस आर्टिकल में आपके लिए लेकर आए हैं सरस सलिल की 10 Best Friendship Story In Hindi. इन कहानियां को पढ़ कर दोस्ती के अनमोल रिश्ते के बारे में आप जान पायेंगे. तो अगर आपको भी हैं कहानियां पढ़ने का शौक तो पढ़िए सरस सलिल की Top 10 Best Friendship Story In Hindi.

  1. दोस्ती: क्या एक हो पाए आकांक्षा और अनिकेत ?

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आकांक्षा खुद में सिमटी हुई दुलहन बनी सेज पर पिया के इंतजार में घडि़यां गिन रही थी. अचानक दरवाजा खुला, तो उस की धड़कनें और बढ़ गईं. मगर यह क्या? अनिकेत अंदर आया.

दूल्हे के भारीभरकम कपड़े बदल नाइटसूट पहन कर बोला, ‘‘आप भी थक गई होंगी. प्लीज, कपड़े बदल कर सो जाएं. मुझे भी सुबह औफिस जाना है.’’

आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, यह सुन कर और झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली. अपने सूटकेस से खूबसूरत नाइटी निकाल कर पहनी और फिर वह भी बिस्तर पर एक तरफ लुढ़क गई.

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2. पंचायती राज: कैसी थी उनकी दोस्ती

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उस दिन मुनिया अपने मकान में अकेली थी कि शोभित को अपने पास आया देख कर उस का मन खुशी से झूम उठा. उस ने इज्जत के साथ शोभित को पास बैठाया. पास के मकानों में रहते हुए शोभित और मुनिया में अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों बचपन से ही एकदूसरे के घर आनेजाने लगे थे. कब उन के बीच प्यार का बीज पनपने लगा, उन्हें पता भी नहीं चला. अगर उन दोनों में मुलाकातें न हो जातीं, तो उन के दिल तड़पने लगते थे.

कुछ देर की खामोशी को तोड़ते हुए शोभित बोला, ‘‘मुनिया, मैं कई दिनों से तुम से अपने मन की बात कहना चाहता था, लेकिन सोचा कि कहीं तुम्हें या तुम्हारे परिवार वालों को बुरा न लगे.’’ ‘‘तो आज कह डालो न. यहां कोई नहीं है. तुम्हारी बात मेरे तक ही रहेगी,’’ कह कर वह हंसी थी.

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3. दिये से रंगों तक: दोस्ती और प्रेम की कहानी

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हम दोनों चेन्नई में 2 महीने पहले ही आए थे. मेरे पति साहिल का यहां ट्रांसफर हुआ था. मेरे पास एमबीए की डिगरी थी. सो, मुझे भी नौकरी मिलने में ज्यादा दिक्कत न आई. हमारे दोस्त अभी कम थे. यही सोच कर दीवाली के दूसरे दिन घर में ही पार्टी रख ली. अपने और साहिल के औफिस के कुछ दोस्तों को घर पर बुलाया था. दीवाली के अगले दिन जब मैं शाम को दिये और फूलों से घर सजा रही थी तो साहिल बोले, ‘‘शैली, कितने दिये लगाओगी? घर सुंदर लग रहा है. तुम सुबह से काम कर रही हो, थक जाओगी. अभी तुम्हें तैयार भी तो होना है.’’

मैं ने साहिल की तरफ  प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘मैं क्यों, तुम भी तो मेरे साथ बराबरी से काम कर रहे हो. बस, 10 मिनट और, फिर तैयार होते हैं.’’

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4. भीगी पलकों में गुलाबी ख्वाब: क्या ईशान अपनी भाभी को पसंद करता था?

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मालविका की गजल की डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगे. वह डायरी छोड़ दौड़ी गई. पति के औफिस जाने के बाद वह अपनी गजलों की डायरी ले कर बैठी ही थी कि ड्राइंगरूम के चार्ज पौइंट में लगा उस का सैलफोन बज उठा.

फोन उठाया तो उधर से कहा गया, ‘‘मैं ईशान बोल रहा हूं भाभी, हम लोग मुंबई से शाम तक आप के पास पहुंचेंगे.’’

42 साल की मालविका सुबह 5 बजे उठ कर 10वीं में पढ़ रहे अपने 14 वर्षीय बेटे मानस को स्कूल बस के लिए  रवाना कर के 49 वर्षीय पति पराशर की औफिस जाने की तैयारी में मदद करती है. नाश्तेटिफिन के साथ जब पराशर औफिस के लिए निकल जाता और वह खाली घर में पंख फड़फड़ाने के लिए अकेली छूट जाती तब वह भरपूर जी लेने का उपक्रम करती. सुबह 9 बजे तक उस की बाई भी आ जाती जिस की मदद से वह घर का बाकी काम निबटा कर 11 बजे तक पूरी तरह निश्ंिचत हो जाती.

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5. पोलपट्टी: क्यों मिताली और गौरी की दोस्ती टूट गई?

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आज अस्पताल में भरती नमन से मिलने जब भैयाभाभी आए तो अश्रुधारा ने तीनों की आंखों में चुपके से रास्ता बना लिया. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. बस, सभी धीरे से अपनी आंखों के पोर पोंछते जा रहे थे. तभी नमन की पत्नी गौरी आ गई. सामने जेठजेठानी को अचानक खड़ा देख वह हैरान रह गई. झुक कर नमस्ते किया और बैठने का इशारा किया. फिर खुद को संभालते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए? किस ने बताया कि ये…’’

‘‘तुम नहीं बताओगे तो क्या खून के रिश्ते खत्म हो जाएंगे?’’ जेठानी मिताली ने शिकायती सुर में कहा, ‘‘कब से तबीयत खराब है नमन भैया की?’’

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6. बहुरुपिया- दोस्ती की आड़ में क्या थे हर्ष के खतरनाक मंसूबे?

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हर्ष से मेरी मुलाकात एक आर्ट गैलरी में हुई थी. 5 मिनट की उस मुलाकात में बिजनैस कार्ड्स का आदानप्रदान भी हो गया.

‘‘मेरी खुद की वैबसाइट भी है, जिस में मैं ने अपनी सारी पेंटिंग्स की तसवीरें डाल रखी हैं, उन के विक्रय मूल्य के साथ,’’ मैं ने अपने बिजनैस कार्ड पर अपनी वैबसाइट के लिंक पर उंगली रखते हुए हर्ष से कहा.

‘‘जी, बिलकुल, मैं जरूर आप की पेंटिंग देखूंगा. फिर आप को टैक्स मैसेज भेज कर फीडबैक भी दे दूंगा. आर्ट गैलरी तो मैं अपनी जिंदगी में बहुत बार गया हूं पर आप के जैसी कलाकार से कभी नहीं मिला. योर ऐवरी पेंटिंग इज सेइंग थाउजैंड वर्ड्स,’’ हर्ष ने मेरी पेंटिंग पर गहरी नजर डालते हुए कहा.

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7. नेवीब्लू सूट : दोस्ती की अनमोल कहानी

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मैं हैदराबाद बैंक ट्रेनिंग सैंटर आई थी. आज ट्रेनिंग का आखिरी दिन है. कल मुझे लौट कर पटना जाना है, लेकिन मेरा बचपन का प्यारा मित्र आदर्श भी यहीं पर है. उस से मिले बिना मेरा जाना संभव नहीं है, बल्कि वह तो मित्र से भी बढ़ कर था. यह अलग बात है कि हम दोनों में से किसी ने भी मित्रता से आगे बढ़ने की पहल नहीं की. मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे थे. उन दिनों मैं दक्षिणी पटना की कंकरबाग कालोनी में रहती थी. यह एक विशाल कालोनी है. पिताजी ने काफी पहले ही एक एमआईजी फ्लैट बुक कर रखा था. मेरे पिताजी राज्य सरकार में अधिकारी थे. यह कालोनी अभी विकसित हो रही थी. यहां से थोड़ी ही दूरी पर चिरैयाटांड महल्ला था. उस समय उत्तरी और दक्षिणी पटना को जोड़ने वाला एकमात्र पुल चिरैयाटांड में था. वहीं एक तंग गली में एक छोटे से घर में आदर्श रहता था. वहीं पास के ही सैंट्रल स्कूल में हम दोनों पढ़ते थे.

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8. एक रिश्ता प्यारा सा: माया और रमन के बीच क्या रिश्ता था?

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“अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

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9. एक अच्छा दोस्त: सतीश से क्या चाहती थी राधा

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सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुला कर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

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10. यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

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रात को 8 से ऊपर का समय था. मेरे खास दोस्त रामहर्षजी की ड्यूटी समाप्त हो रही थी. रामहर्षजी पुलिस विभाग के अधिकारी हैं. डीवाईएसपी हैं. वे 4 सिपाहियों के साथ अपनी पुलिस जीप में बैठने को ही थे कि बगल से मैं निकला. मैं ने उन्हें देख लिया. उन्होंने भी मुझे देखा.

उन के नमस्कार के उत्तर में मैं ने उन्हें मुसकरा कर नमस्कार किया और बोला, ‘‘मैं रोज शाम को 7 साढ़े 7 बजे घूमने निकलता हूं. घूम भी लेता हूं और बाजार का कोई काम होता है तो उसे भी कर लेता हूं.’’

‘‘क्या घर चल रहे हैं?’’ रामहर्षजी ने पूछा.

मैं घर ही चल रहा था. सोचा कि गुदौलिया से आटोरिकशा से घर चला जाऊंगा पर जब रामहर्षजी ने कहा तो उन के कहने का यही तात्पर्य था कि जीप से चले चलिए. मैं आप को छोड़ते हुए चला जाऊंगा. उन के घर का रास्ता मेरे घर के सामने से ही जाता था.

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वेटिंग रूम- भाग 4: सिद्धार्थ और जानकी की छोटी सी मुलाकात के बाद क्या नया मोड़ आया?

Writer- जागृति भागवत 

पिछले अंक में आप ने पढ़ा : जानकी अनाथालय में पलीबढ़ी थी. मेहनत और प्रतिभा के बल पर पढ़ाई कर पुणे के एक कालेज में लैक्चरर के इंटरव्यू के लिए जा रही थी. ट्रेन के इंतजार में रेलवे प्रतीक्षालय में उस की मुलाकात सिद्धार्थ से होती है जो एक संपन्न व्यवसायी का बिगड़ैल बेटा था. समय काटने के लिए दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू होता है. सबकुछ होते हुए भी जिंदगी से नाराज सिद्धार्थ को जानकी की बातें एक नया नजरिया देती हैं. सिद्धार्थ स्वयं को शांत और सुलझा हुआ महसूस करने लगता है. उस के मातापिता उस में हुए बदलाव से हैरान थे. अब आगे…

सिद्धार्थ की आंखों से नींद कोसों दूर थी. जब तक नींद ने उसे अपनी आगोश में नहीं ले लिया तब तक वह सिर्फ जानकी के बारे में ही सोचता रहा. उसे अफसोस हो रहा था कि काश, वह थोड़ी हिम्मत कर के जानकी का फोन नंबर ही पूछ लेता. न जाने अब वह जानकी को देख पाएगा भी या नहीं? अचानक उसे याद आया कि 15 दिन बाद वह पुणे ही तो आ रही है नौकरी जौइन करने. उसी समय उस ने निश्चय किया कि 15 दिन बाद वह कालेज में जा कर जानकी को खोजेगा.

सुबह 11 बजे से पहले कभी न जागने वाला सिद्धार्थ आज सुबह 8 बजे उठ गया. नहा कर नाश्ते की मेज पर ठीक 9 बजे पापा के साथ आ बैठा और बोला, ‘‘पापा, आज मैं भी आप के साथ औफिस चलूंगा.’’ पापा का चेहरा विस्मय से भर गया. मां, जो सिद्धार्थ की रगरग पहचानती थीं, नहीं समझ पाईं कि सिद्धार्थ को क्या हो गया है. बस, दोनों इसी बात से खुश हो रहे थे कि उन के बेटे में बदलाव आ रहा है. हालांकि वे आश्वस्त थे कि यह बदलाव ज्यादा दिन नहीं रहेगा. जल्द ही सिद्धार्थ काम से ऊब जाएगा. फिर उस की संगत भी तो ऐसी थी कि अगर सिद्धार्थ कोशिश करे भी, तो उस के दोस्त उसे वापस गर्त में ले जाएंगे. जानकी अनाथालय पहुंच चुकी थी. सब लोग उस के इंतजार में बैठे थे. जैसे ही जानकी पहुंची, सब उस पर टूट पड़े. जानकी, मानसी चाची को उस की कामयाबी के बारे में पहले ही फोन पर बता चुकी थी, इसलिए सब उस के स्वागत के लिए खड़े थे. आज वात्सल्य से पहली लड़की को नौकरी मिली थी. अनाथालय में उत्सव का माहौल था.

रात को जानकी ने मानसी चाची को साक्षात्कार से ले कर सारी यात्रा का वृत्तांत काफी विस्तार से सुनाया, सिवा प्रतीक्षालय में सिद्धार् से हुई मुलाकात के. यह बात छिपाने के पीछे कोई उद्देश्य नहीं था फिर भी जानकी को यह गैरजरूरी लगा. पिछली रात नींद न आने से जानकी काफी थक गई थी, इस कारण लेटते ही नींद लग गई. सुबह भी काफी देर से जागी. पिछले 8-10 दिनों से लगातार बारिश के कारण मौसम बहुत सुहाना हो गया था. सुबह ठंडक और बढ़ गई थी. नींद खुलने के बाद भी उस का उठने का मन नहीं हो रहा था. जानकी उठी और बाहर आंगन में आ कर बैठ गई. बारिश रुक चुकी थी और हलकी धूप खिली थी लेकिन गमलों की मिट्टी अभी भी गीली थी. ठंडी हवाएं अब भी चल रही थीं. लगा कि कोई शौल ओढ़ ली जाए. ऐसे में अचानक ही उसे सिद्धार्थ का खयाल आया, ‘अब तक तो वह भी अपने घर पहुंच गया होगा. क्या लड़का था, थोड़ा अजीब लेकिन काफी उलझा सा था. काफी नकारात्मक सोच थी, यदि सोच को सही दिशा दे देगा तो बहुत कुछ पा सकता है.’ जानकी की यादों की लड़ी तब टूटी जब मानसी चाची ने आ कर पूछा, ‘‘अरे जानकी बेटा, तू कब उठी?’’

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‘‘बस, अभी उठी हूं, चाची,’’ थोड़ी हड़बड़ाहट में जानकी ने जवाब दिया, लगा जैसे उस की कोई चोरी पकड़ी गई हो और उठ कर रोजमर्रा के कामों में जुट गई. धीरेधीरे दिन बीतते गए और जानकी के पुणे जाने के दिन करीब आते गए. जानकी को काफी तैयारियां करनी थीं. पुणे जा कर सब से बड़ी दिक्कत उस के रहने की व्यवस्था थी. पुणे में वह किसी को नहीं जानती थी. इस बीच उसे कई बार ऐसा लगा कि उस ने सिद्धार्थ से उस का मोबाइल नंबर क्यों नहीं लिया. शायद, उस अनजान शहर में वह कुछ मदद करता उस की. अनाथालय को छोड़ कर मानसी चाची भी उस के साथ नहीं जा सकती थीं. इसी चिंता में वे आधी हुई जा रही थीं कि जानकी का क्या होगा वहां, अनजान शहर में बिलकुल अकेली, कैसे रहेगी. सिद्धार्थ में आया बदलाव बरकरार था. पहले वह काफी गुस्सैल था और अब काफी शांत हो चुका था, बोलता भी काफी कम था, लगभग गुमसुम सा रहने लगा था. कोई दोस्तीयारी नहीं, कोई नाइट पार्टीज और बाइक राइडिंग नहीं. मां ने कई बार पूछा इस बदलाव का कारण लेकिन सिद्धार्थ ने मां से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘मौम, जब जागो तभी सवेरा होता है और मुझे भी एक न एक दिन तो जागना ही था, अब मान लो कि वह दिन आ चुका है. बस, आप लोग जैसा सिद्धार्थ चाहते थे वैसा बनने की कोशिश कर रहा हूं.’’

सिद्धार्थ को अब उस दिन का इंतजार था जब जानकी पुणे आने वाली थी. निश्चित तारीख तो उसे पता नहीं थी लेकिन वह उस रात के बाद से हिसाब लगा रहा था. अब उसे एहसास हो रहा था कि जानकी उस के दिलोदिमाग पर छा चुकी है. वही लड़की है जो उस के लिए बनी है, अगर वह उस की जिंदगी में आ जाए तो सिद्धार्थ के लिए किसी से कुछ मांगने के लिए बचेगा ही नहीं. इस बीच, वह जा कर पुणे आर्ट्स कालेज का पता लगा कर आ चुका था और यह भी पता कर चुका था कि जानकी कब आने वाली है. 15 सितंबर वह तारीख थी जिस का अब सिद्धार्थ को बेसब्री से इंतजार था. आखिर वह दिन आ गया. 14 सितंबर को जानकी पुणे के लिए रवाना होने वाली थी. यहां अनाथालय में खुशी और दुख साथसाथ बिखर रहे थे. मानसी चाची की तो एक आंख रो रही थी तो दूसरी आंख हंस रही थी. एक ओर तो उन की बेटी आज नौकरी करने जा रही है लेकिन उसी बेटी से बिछड़ने का गम भी खुशी से कम नहीं था. आखिर जानकी पुणे के लिए रवाना हो गई.

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सुबहसुबह पुणे पहुंच कर उस ने स्टेशन के पास ही एक ठीकठाक होटल खोज लिया. तैयार हो कर नियत समय पर कालेज पहुंच गई. सारी जरूरी कार्यवाही पूरी करने के बाद कालेज की एक प्रोफैसर ने उसे पूरा कालेज दिखाया और सारे स्टाफ व विद्यार्थियों से परिचय भी करवाया. इस बीच, उस ने उस प्रोफैसर से रहने की व्यवस्था के बारे में पूछा. उस प्रोफैसर ने कुछ एक जगह बताईं लेकिन पुणे बहुत महंगा शहर है, जानकी के लिए ज्यादा खर्चा करना मुमकिन नहीं था. इधर सिद्धार्थ ने पापा से एक दिन की छुट्टी ले ली थी. सुबह से काफी उत्साहपूर्ण लग रहा था. उस के तैयार होने का ढंग भी कुछ अलग ही था. मां सबकुछ देख रही थीं और समझने की कोशिश कर रही थीं. बेटा चाहे जितना भी बदल जाए, मां उस का मन फिर भी पढ़ लेती है. लेकिन मां खामोशी से सब देखती भर रहीं, कुछ बोली नहीं.

सजा- भाग 1: तरन्नुम ने असगर को क्यों सजा दी?

असगर ने अपने दोस्त शकील से शर्त जीत कर तरन्नुम से निकाह तो कर लिया था लेकिन तरन्नुम को जब उस के विवाहित होने का पता चला तो उस ने आम औरतों की तरह सामंजस्य करने से इनकार कर दिया और असगर को वह सजा दी जिस की कल्पना भी वह नहीं कर सकता था.

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

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दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

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असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

शहनाज खाला ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी आंखों से लगाया, ‘‘बेटा, तुम तो मेरे लिए फरिश्ते की तरह आए हो, जिस ने मेरी बच्ची की जिंदगी बहारों से भर दी,’’ खुशी से गमकते वह और खालू घर के अंदर खबर देने चले गए.

उन के जाने के बाद शकील कमरे में आते हुए बोला, ‘‘तो हुजूर ने मुझे शह देने के लिए सब हथकंडे आजमाए.’’

असगर ने कहा, ‘‘तू डर मत, मैं जीत का दावा कार मांग कर नहीं कर रहा हूं.’’

‘‘तू न भी मांगे,’’ शकील ने कहा, ‘‘तो भी मैं कार दूंगा. हम मुगल अपनी जबान पर जान भी दे सकने का दावा करते हैं, कार की तो बात ही क्या.’’

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‘‘मजाक छोड़ शकील,’’ असगर ने कहा, ‘‘कल उसे पता लगेगा तब…’’

‘‘अब कुछ असर होने वाला नहीं है,’’ शकील ने कहा, ‘‘अपनेआप शादी के बाद हालात से सुलह करना सीख जाएगी. अपने यहां हर लड़की को ऐसा ही करने की नसीहत दी जाती है.’’

‘‘पर तू कह रहा था शकील कि वह आम लड़कियों जैसी नहीं है, बड़ी तेजतर्रार है.’’

कैक्टस के फूल- भाग 2: क्यों ममता का मन पश्चात्ताप से भरा था?

Writer- इंदिरा राय

ममता पटना में केंद्रीय विद्यालय में अध्यापिका थी और सौरभ भी उन दिनों वहीं कार्यरत था. छुट्टियों के बाद पटना जा कर पहला काम जो उस ने किया वह था ममता से मुलाकात. स्कूल के अहाते में अमलतास के पीले गुच्छों वाले फूलों की पृष्ठभूमि में ममता का सौंदर्य और भी दीप्त हो आया था. वह तो ठगा सा रह गया किंतु तब भी ममता ने यथार्थ की खुरदरी बातें ही की थीं, ‘‘वह विवाह के बाद भी नौकरी करना चाहती है क्योंकि इतनी अच्छी स्थायी नौकरी छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है.’’

सौरभ तो उस समय भावनाओं के ज्वार में बह रहा था. ममता जो भी शर्त रखती वह उसे मान लेता फिर इस में तो कोई अड़चन नहीं थी. दोनों को पटना में ही रहना था. अड़चन आई 6 वर्ष बाद जब सौरभ का स्थानांतरण बिहार शरीफ के लिए हो गया. उस की हार्दिक इच्छा थी कि ममता नौकरी छोड़ दे और उस के साथ चले. 5 वर्ष की मीनी का उसी वर्ष ममता के स्कूल में पहली कक्षा में प्रवेश हुआ था. चीनी साढ़े 3 वर्ष की थी. वैसे सौरभ नौकरी छोड़ने को न कहता यदि ममता का तबादला हो सकता. वह केंद्रीय विद्यालय में थी और प्रत्येक शहर में तो केंद्रीय विद्यालय होते नहीं. परंतु ममता इस के लिए किसी प्रकार सहमत नहीं थी. उस के तर्क में पर्याप्त बल था. सौरभ के कई सहकर्मियों ने बच्चों की शिक्षा के लिए अपने परिवार को पटना में रख छोड़ा था. उन लोगों की बदली छोटेबड़े शहरों में होती रहती है. सब जगह बढि़या स्कूल तो होते नहीं. फिर आज मीनीचीनी छोटी हैं कल को बड़ी होंगी.

उस ने अपनी नौकरी के संबंध में कुछ नहीं कहा था परंतु सौरभ नादान तो नहीं था. मन मार कर ममता और बच्चों के रहने की समुचित व्यवस्था कर के उसे अकेले आना पड़ा. गरमी की छुट्टियों में पत्नी और बच्चे उस के पास आ जाते, छोटीछोटी छुट्टियों में कभी दौरा बना कर, कभी ऐसे ही सौरभ आ जाता.

गत 4 वर्षों से गृहस्थी की गाड़ी इसी प्रकार धकियाई जा रही थी. अकेले रहते और नौकर के हाथ का खाना खाते उस का स्वास्थ्य गड़बड़ रहने लगा था. 2 जगह गृहस्थी बसाने से खर्च भी बहुत बढ़ गया था. परंतु ममता की एक मुसकान भरी चितवन, एक रूठी हुई भंगिमा उस की सारी झुंझलाहट को धराशायी कर देती थी और वह उस रूपपुंज के इर्दगिर्द घूमने वाला एक सामान्य सा उपग्रह बन कर रह जाता.

9 बजे ममता और बच्चियों के जाने के बाद सौरभ ने स्नान किया, तैयार हो कर सोचा कि सचिवालय का एक चक्कर लगा आए. पटना स्थानांतरण के लिए किए गए प्रयासों में एक प्रयास और जोड़ ले. दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी सामने वाले मकान में देने के लिए घंटी बजाई. गृहस्वामिनी निशि गीले हाथों को तौलिए से पोंछती हुई बाहर निकलीं, ‘‘अरे भाईसाहब, आप कब आए?’’

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‘‘कल रात,’’ सौरभ ने उन्हें चाबी थमाने का उपक्रम किया. निशि ने चाबी लेने में कोई शीघ्रता नहीं दिखाई, ‘‘अब तो भाईसाहब, आप यहां बदली करवा ही लीजिए. अकेली स्त्री के लिए बच्चों के साथ घर चलाना बहुत कठिन होता है. बच्चे हैं तो हारीबीमारी चलती ही रहती है, यह तो कहिए आप के संबंधी कपिलजी हैं जो आप की अनुपस्थिति में पूरी देखरेख करते हैं, आजकल इतना दूसरों के लिए कौन करता है?’’

सौरभ अचकचा गया, वह तो कपिल को जानता तक नहीं. ममता ने झूठ का आश्रय क्यों लिया? उस ने निशि की ओर देखा, होंठों के कोनों और आंखों से व्यंग्य भरी मुसकान लुकाछिपी कर रही थी.

‘‘हां, बदली का प्रयास कर तो रहा हूं,’’ सौरभ सीढि़यों से नीचे उतर आया. नए जूते के कारण उंगलियों में पड़े छाले उसे कष्ट नहीं दे रहे थे क्योंकि देह में कैक्टस का जंगल उग आया था.

सचिवालय के गलियारे में इधरउधर निरुद्देश्य भटक कर वह सांझ गए लौटा. मीनीचीनी की मीठी बातें, ममता की मधुर मुसकान उस पर पहले जैसा जादू नहीं डाल सकीं. 10 वर्षों की मोहनिद्रा टूट चुकी थी.

ममता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबादले की फाइल आगे बढ़ी?’’

‘‘कुछ होनाहवाना नहीं है, सभी तो यहीं आना चाहते हैं. मैं तो सोचता हूं कि अब हम सब को इकट्ठे रहना चाहिए.’’

‘‘यह कैसे संभव होगा?’’ ममता के माथे पर बल पड़ गए थे.

‘‘संभव क्यों नहीं है? यहां का खर्च तुम्हारे वेतन से तो पूरा पड़ता नहीं. दोनों जनों की कमाई से क्या लाभ जब बचत न हो.’’

‘‘क्या सबकुछ रुपयों के तराजू पर तोला जाएगा? मीनीचीनी को केंद्रीय विद्यालय में शिक्षा मिल रही है, वह क्या कुछ नहीं?’’

‘‘आजकल सब शहरों में कान्वेंट स्कूल खुल गए हैं…फिर तुम स्वयं उन्हें पढ़ाओगी. तुम नौकरी करना ही चाहोगी तो वहां भी तुम्हें मिल जाएगी.’’

‘‘और मेरी 12 वर्षों की स्थायी नौकरी? क्या इस का कुछ महत्त्व नहीं?’’ ममता का क्रोध चरम पर था.

‘‘अब सबकुछ चाहोगी तो कैसे होगा?’’ हथियार डालते हुए सौरभ सोच रहा था. मैं क्यों ममता के तर्ककुतर्कों के सामने झुक जाता हूं? अपनी दुर्बलता से उत्पन्न खीज को दबाते हुए वह मन ही मन योजना बनाने लगा कि कैसे वह अपने क्रोध को अभिव्यक्ति दे.

दूसरे दिन प्रात:काल ही वह जाने के लिए तैयार हो गया. ममता ने आश्चर्य से टोका, ‘‘आज तो छुट्टी है…सुबह से ही क्यों जा रहे हो?’’

‘‘मुझे वहां काम है,’’ उस ने रुखाई से कहा. ममता को जानना चाहिए कि वह भी नाराज हो सकता है.

वापस आने के बाद भी सौरभ को चैन नहीं था. हर समय संदेह के बादलों से विश्वास की धूप कहीं कोने में जा छिपी थी. मन में युद्ध छिड़ा हुआ था, ‘स्त्री की आत्मनिर्भरता तो गलत नहीं, कार्यरत स्त्री की पुरुषों से मैत्री भी अनुचित नहीं फिर उस का सारा अस्तित्व कैक्टस के कांटों से क्यों बिंधा जा रहा है?’

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विवेक से देखने पर तो सब ठीक लगता है परंतु भावना का भी तो जीवन में कहीं न कहीं स्थान है. इच्छा होती है कि एक बार उन लोगों के सामने मन की भड़ास पूरी तरह निकाल ले. इसी धुन में 3-4 दिन बाद वह पुन: पटना पहुंचा. उस समय शाम के 7 बज रहे थे. द्वार पर ताला लगा था.

निशि ने भेदभरी मुसकान के साथ बताया, ‘‘कपिलजी के साथ वे लोग बाहर गए हैं.’’

वह उन्हीं की बैठक में बैठ गया. आधे घंटे बाद सीढि़यों पर जूतेचप्पलों के शोर से अनुमान लगा कि वे लोग आ गए हैं. सौरभ बाहर निकल आया. आगेआगे सजीसंवरी ममता, पीछे चीनी को गोद में लिए कपिल और हाथ में गुब्बारे की डोर थामे मीनी. अपने स्थान पर कपिल को देख कर आगबबूला हो उठा.

ममता भी सकपका गई थी, ‘‘सब ठीक है न?’’

‘‘क्यों, कुछ गलत होना चाहिए?’’ अंतर की कटुता से वाणी भी कड़वी हो गई थी.

‘‘नहींनहीं, अभी 3 दिन पहले यहां से गए थे, इसी से पूछा.’’

‘‘मुझे नहीं आना चाहिए था क्या?’’ सौरभ का क्रोध निशि और कपिल की उपस्थिति भी भूल गया था.

आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा- भाग 3

पत्र पूरा होते ही सब सिर झुका कर बैठ गए. ‘‘मैं अभी आया,’’ कह कर प्रशांत सर लंबेलंबे डग भरते हुए दूसरे कमरे की ओर चल दिए.

कुछ देर बाद वे एक व्हीलचेयर को पीछे से सहारा देते हुए चला कर ला रहे थे. व्हीलचेयर पर एक महिला गाउन पहने बैठी थी. शांत, सौम्य चेहरा, स्नेह से भरी बड़ीबड़ी आंखें, बालों से झांकती हलकी चांदी और कंधे पर आगे की ओर लटकती हुई लंबी सी चोटी.

प्रशांत सर नम आंखों से सब की ओर देख कर व्हीलचेयर पर बैठी महिला से परिचय करवाते हुए बोले, ‘‘मिलिए इन से, मेरे सुखदुख की साथी, मेरे जीवन की खुशी, मेरी अर्धांगिनी, जसप्रीत.’’

सब आश्चर्यचकित रह गए. कुछ देर तक उन दोनों को अपलक निहारने के बाद दीपेश उठ कर खड़ा हो गया और उस को देख सभी जसप्रीत के सम्मान में खड़े हो गए.

जसप्रीत ने अपना टेढ़ा हाथ उठा कर सब को बैठने का इशारा किया और अपने होंठों को धीरे से फैलाते हुए मुसकरा दी.

प्रशांत सर बोलने लगे, ‘‘अपनी पीएचडी के दौरान ही जब मुझे जसप्रीत के विषय में पता लगा तो मैं ने झट से विवाह का निर्णय ले लिया. दबी जबान में मम्मीपापा ने विरोध जरूर किया पर वे समझ गए थे कि अब मैं नहीं रुकने वाला. मैं नहीं छोड़ सकता था जसप्रीत को उस हाल में.’’

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‘‘इन्होंने बहुत इ…इ…इलाज करवाया मेरा. उस के बा…बाद ही थो…थोड़े हाथपैर चल…चलने लगे मेरे.’’ जसप्रीत अपनी बात रुकरुक कर कह पा रही थी.

‘‘आज जसप्रीत ने मुझ से कहा कि मैं अपनी डायरी आप सब को पढ़ने को दे दूं, इन का कहना था कि तभी बच्चे जान सकेंगे कि हम इमरान और स्वाति की भावनाएं क्यों बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं,’’ प्रशांत सर ने बताया.

‘‘ओह, आप से मिलना कितना अच्छा लग रहा है,’’ कह कर चहकती हुई साक्षी जसप्रीत से लिपट गई. सब लोग उठ कर जसप्रीत को घेर कर खड़े हो गए.

प्रशांत सर ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘आप लोग जानना चाहते थे कि मैं ने क्या कहा स्वाति और इमरान के पेरैंट्स से? सुनो, मैं ने पहले उन से पूछा कि धर्म के नाम पर बंटवारा आखिर है क्या? कहां से आईं ये बातें? क्या यह जन्मजात गुण है व्यक्ति का? जन्म लेते ही बच्चे के चेहरे पर क्या उस का धर्म अंकित होता है? हम ही बनाते हैं ये दीवारें और कैद हो जाते हैं उन में खुद ही. इतना ही नहीं, जब कोई प्रेम के वशीभूत हो इन दीवारों को तोड़ना चाहता है तो हम उसे नासमझ ठहरा कर या डराधमका कर चुप करा देते हैं. कब तक अपनी बनाई हुई दीवारों में खुद को कैद करते रहेंगे हम? कब तक अपनी बनाई हुई बेडि़यों में जकड़े रखेंगे खुद को हम? आखिर कब तक.’’

जसप्रीत ने अपनी दोनों हथेलियां मिलाईं और धीरे से ताली बजाने लगी. वहां खड़े छात्र भी मुसकराते हुए जसप्रीत का अनुसरण करने लगे. कमरा तालियों की आवाज से गूंज उठा.

‘‘सर, हम किन शब्दों में आप को धन्यवाद कहें,’’ दीपेश ने कहा.

प्रशांत सर मुसकराते हुए बोले, ‘‘एक बात मैं जरूर कहूंगा. स्वाति और इमरान के पेरैंट्स समझदार हैं. फिलहाल दोनों के मिलने पर रोकटोक न लगाने को तैयार हैं वे. कह रहे थे कि रिश्ता जोड़ने के विषय में कुछ दिन विचार करेंगे. चलो, आशा की किरण तो दिखाई दी न? पर दुख की बात है कि सब लोग ऐसे नहीं होते.’’

‘‘क्यों न हम सब मि…मिल…मिल कर एक ऐसा संग…संगठन बनाएं जो लोगों को जा…जा…जाग…जागरूक करे,’’ जसप्रीत ने सुझाव दिया.

‘‘हां, हां,’’ की सम्मिलित आवाज कमरे में सुनाई देने लगी.

‘‘मैं भी स…सह… सहयोग करूंगी उस…उस में.’’ कह कर जसप्रीत का चेहरा नई आभा से दैदीप्यमान हो झिलमिलाने लगा.

‘‘वाह जसप्रीत, खूब. हम जल्द ही ऐसा करेंगे,’’ प्रशांत सर बोले.

‘‘उस संगठन के माध्यम से हम सब को यह समझाने का प्रयास करेंगे कि जाति और धर्म का लबादा जो हम ने सिर तक पहन रखा है, बहुत जरूरी है अब उसे उतार फेंकना. दम घुट जाएगा वरना हमारा,’’ हर्षित अपनी बुलंद आवाज में बोला.

‘‘और यह भी कि बच्चों की बात सुना करें पेरैंट्स. उन पर भरोसा रखें, उन्हें दोस्त समझें,’’ साक्षी ने कहा.

‘‘औ…औ…और यह भी…यह भी… कि कोई औरत अपने को कम….कम…. कमजोर समझ कर आ…आ….आ… आत्महत्या की कोशिश न करे…क… कभी,’’ जसप्रीत अटकअटक कर बोली.

‘‘बिलकुल, नारी अबला नहीं वह तो संबल है सब का,’’ साक्षी ने कहा.

कुछ देर बाद प्रशांत ने सब का धन्यवाद किया और वे चारों लौट गए.

रात के 10 बज गए थे. प्रशांत सर ने कमला को खाना लगाने को कहा और जसप्रीत को सहारा दे कर डाइनिंग टेबल की कुरसी पर बैठा दिया.

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अगले दिन सुबह 6 बजे नींद खुली उन की. खिड़की का परदा हटा कर वे बाहर देखते हुए सोच रहे थे, ‘कितना सुंदर है यह आकाश में गुलाबी रंग बिखेरता हुआ सूरज और उस के उदय होते ही गगन में स्वच्छंदता से उड़ान भरते हुए ये पंछियों के झुंड…

‘जसप्रीत, तुम्हारा यह नया रूप शायद आने वाले समय को अपने गुलाबी रंग में रंग लेगा और फिर नई पीढ़ी भर सकेगी एक स्वच्छंद, ऊंची उड़ान…आज का दिन तो सचमुच तुम्हारे रंग में रंग कर निकला है प्रीत.’

प्रशांत सर गुनगुना उठे – ‘‘आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा.’’

छोटी छोटी खुशियां- भाग 4: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

उस ने जैसे ही चौराहा पार किया, सीटी बजाते हुए एक ट्रैफिक पुलिस वाला स्कूटर रोकने का इशारा करते हुए आगे आ गया. प्रताप को स्कूटर रोकना पड़ा. सिपाही ने कहा, ‘‘लाइसैंस?’’

प्रताप ने बिना कुछ कहे, जेब से लाइसैंस निकाल कर सिपाही की ओर बढ़ाया तो उस ने फुरती से लाइसैंस कब्जे में करते हुए कहा, ‘‘200 रुपए निकालो.’’

‘‘क्यों?’’ प्रताप ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘लाल बत्ती होने पर भी तुम ने स्कूटर नहीं रोका. इसलिए चालान तो कटवाना ही पड़ेगा,’’ सिपाही ने दांत निपोरते हुए कहा.

गुटखे से पीले हुए उस के दांत देख

कर प्रताप को चिढ़ हो गई. प्रताप की आंखों के सामने मैनेजर साहब का गुस्से से लालपीला होता चेहरा नाच रहा था. प्रताप ने आंखें फैला कर कहा, ‘‘भले आदमी, आधा चौराहा पार करने के बाद तो पीली लाइट जली. इस में मेरा क्या दोष, जो चालान कटवाऊं. फिर मेरे पीछे से जो बस गई, उसे तो तुम ने नहीं रोका?’’

‘‘तुम अपना चालान कटवाओ, दूसरे की चिंता मत करो,’’ सिपाही रसीद बुक निकाल कर बोला, ‘‘नाम?’’

प्रताप अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता था. सुधा की किचकिच की वजह से गए 200 रुपए. प्रताप ने 200 रुपए दिए और रसीद ले कर जेब में रखी. किक मार कर स्कूटर स्टार्ट किया. पानी के रेले की तरह चल रहे वाहनों के बीच से रास्ता बनाते हुए उस ने स्कूटर की गति बढ़ा दी.

आगे ट्रैफिक ढीला था. प्रताप के दिमाग की नसें और तन गईं. इस सिपाही का भी कुछ करना होगा. कैसेकैसे लोग ट्रैफिक में भरती हो गए हैं. एकएक को सीधा करना पड़ेगा. मैं इन सब की शिकायत गृहमंत्री से करूंगा. जल्दी पहुंचने के चक्कर में उस ने स्कूटर की गति भयानक रूप से तेज कर दी. जब से उस ने स्कूटर चलाना शुरू किया था, इतनी तेज गति से पहली बार चलाया था. उसी वक्त एक घटना घट गई.

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अचानक एक लड़की उस के सामने आ गई. विचारों में खोया प्रताप एकदम से हकबका गया. उस लड़की को बचाने के लिए प्रताप स्कूटर की सीट पर लगभग आधा खड़ा हो गया. पूरी ताकत से उस ने ब्रेक दबाए. लेकिन तड़ाक से बे्रक वायर टूट गया. उस ने एकदम से स्कूटर को फर्स्ट गेयर में डाला. स्कूटर जोरदार झटके के साथ पलटा और आगे घिसट गया. दाहिने पैर का घुटना सड़क पर इस तरह रगड़ा कि पैंट तो फट ही गई, चमड़ी छिल कर अंदर का मांस भी दिखाई देने लगा. सिर डिवाइडर से टकरा गया, जिस की वजह से प्रताप की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

फिर कितनी देर तक प्रताप बेहोश रहा, उसे पता नहीं चला. होश में आया तो दिमाग की नसें अभी भी तनी हुई थीं. बड़ी मुश्किल से उस ने आंखें खोल कर अगलबगल देखा. बीच सड़क पर वह पड़ा हुआ था. उसे लोग घेरे हुए थे. जहां की त्वचा छिली थी, असहनीय जलन हो रही थी. भीड़ में से एक युवक ने आगे बढ़ कर पानी की बोतल प्रताप को पकड़ाई. ठंडा पानी पीने के बाद प्रताप को थोड़ी राहत महसूस हुई. उस युवक ने इशारे से एक युवक को बुलाया और प्रताप की बांह पकड़ कर बैठाया. प्रताप के घुटने में बहुत तेज जलन हो रही थी. फिर उन युवकों ने प्रताप को उठा कर खड़ा किया. पीड़ा होते हुए भी प्रताप को धीरेधीरे चलने में दिक्कत नहीं हो रही थी. भीड़ में से किसी ने आटो बुला दिया था. आभारी नजरों से सब की ओर ताकते हुए प्रताप आटो में बैठ गया. औफिस करीब ही था, फिर आटो वाला भी भला आदमी था, इसलिए उस ने प्रताप से पैसे नहीं लिए थे. चोट में जलन अभी भी वैसी ही थी. औफिस में फर्स्ट ऐड बौक्स है, प्रताप यह जानता था.

आटो से उतर कर लिफ्ट तक जाने में प्रताप को काफी तकलीफ हुई थी.

बैंक में पहुंच कर उस ने राहत की सांस ली. आज की एक छुट्टी तो बची. एक बार मैनेजर साहब को मुंह दिखा कर वह डाक्टर के पास जा कर पट्टी बंधवा लेगा. टिटनैस का इंजैक्शन भी लगवाना जरूरी है.

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प्रताप ने बैंक में प्रवेश किया. उपस्थिति रजिस्टर मैनेजर साहब की मेज पर रखा था. मैनेजर साहब कंप्यूटर पर काम कर रहे थे. उन के सामने पड़ी कुरसी पर प्रताप आराम से बैठ गया. इतना चलने के बाद उस के घुटने का दर्द और बढ़ गया था. उस ने हस्ताक्षर करने के लिए जैसे ही रजिस्टर उठाया, मैनेजर साहब का ध्यान उस की ओर गया. उन की भौंहें तन गईं. उन्होंने कहा, ‘‘मिस्टर प्रताप, यह भी कोई टाइम है आने का?’’

मैनेजर साहब यही कहेंगे, प्रताप पहले से ही जानता था. आज बाजी प्रताप के हाथ में थी, इसलिए वह आज मैनेजर साहब से पूरा का पूरा पुराना बदला ले लेना चाहता था. वह तल्ख लहजे में बोला, ‘‘इधर देखो, यह मेरा घुटना छिल गया है और आप मुझे समय बता रहे हैं. मैं किस तरह बैंक पहुंचा हूं, यह मैं ही जानता हूं.’’

प्रताप ने यह बात इतने जोर से कही थी कि बैंक का पूरा स्टाफ चौंक कर प्रताप और मैनेजर साहब को ताकने लगा था. मैनेजर साहब प्रताप के इस व्यवहार से हक्काबक्का रह गए थे. फिर तो प्रताप आक्रामक हो उठा, ‘‘आप आदमी हैं या शैतान? पूरा घुटना छिल गया है, खून भी बह रहा है. फिर भी मैं बैंक आया हूं,’’ सभी लोगों को दिखाई पड़े, इस तरह प्रताप ने अपना पैर उठाया. प्रताप की हालत देख कर मैनेजर साहब खिसिया गए. इस मुद्दे पर मैनेजर साहब को आज अच्छी तरह खींचा जा सकता है, यह सोच कर प्रताप थोड़ी तेज आवाज में बोला, ‘‘आप अफसर हैं तो खुद को महान मानने लगे हैं. अरे इंसान हैं, थोड़ी तो इंसानियत रखो. किसी को शौक नहीं है लेट आने का. कोई समस्या हो जाती है, तभी आदमी लेट होता है.’’

पूरा स्टाफ आश्चर्य से प्रताप को ताक रहा था. उस ने अपना पैर उठा कर सब को चोट दिखाई. फिर दांत भींच कर मैनेजर साहब को घूरा. अब मैनेजर साहब की हिम्मत उस से नजर मिलाने की नहीं हो रही थी. सिंह साहब को चुप देख कर प्रताप बोला, ‘‘इतनी तकलीफ सह कर भी मैं बैंक आया हूं. इस की कद्र करने के बजाय आप साहबगीरी दिखा रहे हैं. साहब, आप को शर्म आनी चाहिए.’’

मैनेजर साहब को काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई थी. उन्होंने धीमे से कहा, ‘‘सौरी.’’

‘‘यू हैव टू…’’ इतना कह कर प्रताप धीरेधीरे अपनी मेज की ओर बढ़ने लगा. एक नजर उस ने सहकर्मियों पर डाली. उसी एक नजर में उस ने भांप लिया था कि मैनेजर साहब के साथ आज उस ने जो बरताव किया है उस से सभी खुश हैं. वह अपनी सीट पर जा कर बैठा तो एकएक, दोदो कर के लोग उस के पास आ कर हालचाल पूछने लगे. मिश्राजी फर्स्ट ऐड बौक्स ले कर आए. रेखा ने घुटने पर डिटौल लगाई तो काफी तेज जलन हुई. होंठ भींच लिए प्रताप ने. फिर बीटाडीन लगा कर ऊपर से रुई रख कर पट्टी बांध दी. रेखा की ओर देखते हुए प्रताप ने कहा, ‘‘थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच, रेखाजी.’’

पट्टी बंधने के बाद प्रताप ने काफी राहत महसूस की.

मजाक: लोकसेवक सेवकराम की घरवाली और कामवाली

सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नईनकोर कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, “तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?”

“मैं संतू हूं साहब.”

“तुम कब से काम करने आने लगी?” सेवकराम ने पूछा.

“बस, कल से.”

“पर मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.”

“साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही चली गई थी.

“मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मुझ से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,” संतू ने कहा.

“मतलब?”

“वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा न?”

सेवकराम ने कहा, “अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मुझे लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.”

“ऐसा क्यों साहब?”

“संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

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“एक दिन मैं झूठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मुझे शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मुझे भूखे ही सोना पड़ा था,” सेवकराम ने कहा.

संतू ने हाथ में झाड़ू लिए हुए ही पूछा, “आप कोई नेता हैं क्या साहब?”

“यह बात बाद में करेंगे, पहले मुझे यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?”

संतू ने कहा, “मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?”

“मस्त लगती हो.”

“थैंक्यू साहब.”

“तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?”

“हां साहब, मैं 12वीं जमात तक पढ़ी हूं.”

“तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?”

“24 साल की हूं साहब.”

“पर अभी तो तुम 20 की ही लगती हो.”

“दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मुझे 16 साल की ही कहते थे.”

“तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.”

कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, “साहब, आप का नाम क्या है?”

“सेवकराम.”

“इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?”

“बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मुझे भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.

“पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों रखा है?”

संतू बोली, “साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मुझे प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मुझे बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था, फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.”

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“वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.”

संतू ने पूछा, “साहब, आप का कामकाज क्या है?”

“देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं,” इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौइन करने वाला हूं.”

“तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.”

“संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.”

“तो फिर आप क्या करेंगे साहब?”

मैं कांग्रेस पार्टी में जौइन करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.”

“पर वह ट्रेन न चली तो?”

“मैं आशावादी हूं. एक जमाने मेे भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 सौ भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.”

संतू ने पूछा, “ऐसा क्यों साहब?”

“सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.”

“इस से आप को क्या फायदा होगा?”

सेवकराम ने कहा, “देखो संतू, मुझे टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?”

“आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.”

“अरे संतू, मुझे तो पैसे का फायदा हो रहा है न.”

“आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मुझे एडवांस में एक बढ़िया साड़ी दे दीजिए न.”

“अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढ़िया साड़ी ला दूं.”

“थैंक्यू साहब, मुझे अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.”

“मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?”

“अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मुझे तो साड़ी आज ही चाहिए.”

सेवकराम ने कहा, “एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.”

“हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी, तब?”

“मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब कर दी.”

“इस का मतलब आप अपनी घरवाली से झूठ बोलेंगे?”

“तुम्हारे जैसी सुंदर कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, सौ झूठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.”

“कौन सी शर्त?”

सेवकराम ने कहा, “अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.

“पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मुझे सोते से उठा कर मुझे चाय देनी होगी.

“मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.”

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ठीक है साहब, आप की शर्त मंजूर है.”

“पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मुझे चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.”

“साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मुझे साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और सुंदर लगती हूं.”

“ठीक हे, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे, ले लो.”

“ठीक है साहब,” कह कर संतू अंदर गई और काम खत्म कर के एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.

संतू के इंतजार में सेवकराम को उस पूरी रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.

सेवकराम ने कहा, “आ गई डार्लिंग?”

“हां, लो यह चाय.”

सेवकराम को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.

चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, “मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.”

घबराते हुए सेवकराम ने कहा, “अरे तुम, तुम तो एक हफ्ते के लिए गई थी, दूसरे ही दिन कैसे आ गई?”

“मुझे तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मुझे फोन कर देना.

“कल रात को ही संतू ने फोन कर के मुझे सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढ़िया साड़ी पहले ही दे दी थी. समझे?”

“सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.”

“घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हेें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.”

“सच में…”

सेवकराम की घरवाली ने कहा, “मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.”

“ऐसा क्यों?”

“जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.”

सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.

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