कब तक होते रहेंगे छुआछूत के शिकार दलित

उम्मीदों के चिराग रोशन हो रहे हैं. सत्तारूढ़ दल का ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारा भी उम्मीदों को चार चांद लगा देता है.तसवीर कुछ इस अंदाज में पेश होती है, जैसे समाज में बराबरी आ रही है. दलित तबका अब अनदेखा नहीं है और उस की जिंदगी में खुशियां दस्तक दे रही हैं. यह सपने सरीखा हो सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत ऐसी नहीं है. जातिवाद और छुआछूत की बीमारी ने 21वीं सदी में भी अपने लंबे पैर पसार रखे हैं. इस पर शर्मनाक बात यह है कि रूढि़वाद के बोझ से लोग निकलने को तैयार नहीं हैं. यों तो संविधान में सब को बराबरी का हक है. कोई दिक्कत आए, तो इसे लागू कराने के लिए सख्त कानून भी बने हुए हैं, इस के बावजूद गैरबराबरी धड़ल्ले से जारी है.

18 अप्रैल, 2017 का ही एक मामला लें. उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के कोतवाली इलाके में एक दलित के यहां शादी समारोह में बरातियों के पीने के लिए फिल्टर पानी के जार मंगवाए गए. सप्लायर वहां पहुंचा, तो उसे जाति का पता चल गया. इस से पानी के अछूत होने का भयानक डर पैदा हो गया. लिहाजा, सप्लायर जार वापस ले जाने लगा.

इस पर दलित भड़क गए और नौबत मारपीट तक आ गई. पुलिस पहुंची और मामला समझौते से निबट गया, लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी सी थी? जालौन जिले के झांसीकानपुर हाईवे के नजदीक गिरथान गांव में 16 अप्रैल को मोटा चंदा इकट्ठा कर के सामूहिक भंडारा कराया गया. गांव के दलितों से भी इस के लिए चंदा वसूला गया था.

भोज चल ही रहा था कि इसी बीच कुछ दलित नौजवानों ने भी भोज परोसने के लिए पूरियों की टोकरियां उठा लीं. बस, इस बात पर दबंगों की त्योरियां चढ़ गईं. उन्होंने सोचा कि शायद चंदा देने के बाद ये बराबरी के भरम के शिकार हो गए हैं. दलितों को वहीं बेइज्जत किया गया. उन्होंने न सिर्फ खाना खाने से इनकार कर दिया, बल्कि दलितों को अलग बिठाने को भी कहा.

दलितों ने इस का विरोध किया, तो झगड़ा हो गया. इतने पर भी शांति नहीं हुई, तो दबंगों ने फरमान जारी कर दिया कि दलितों का बहिष्कार किया जाए. इस फरमान को तोड़ने वालों पर एक हजार रुपए जुर्माना लगाने के साथ ही सरेआम 5 जूते भी मारे जाएंगे.

गांव में बाल काटने की 2 दुकानें थीं. एक ने झगड़े के चक्कर में दुकान बंद कर दी और दूसरे ने दलितों के बाल काटने से इनकार कर दिया. दूसरे दुकानदारों ने भी उन्हें जरूरत का सामान देना बंद कर दिया. ट्यूशन पढ़ाने वाले एक नौजवान ने दलितों के 5 बच्चों को ट्यूशन आने से रोक दिया.

बात अफसरों तक पहुंची. वे भी समझाने के सिवा कुछ नहीं कर सके. आखिरकार दलितों को ही झुकना पड़ा. दलित बुजुर्ग तुलाराम के मुताबिक, कुएं से पानी भरने से ले कर दूसरी कई बातों में दलित भेदभाव के शिकार रहे हैं. साल 1952 में जब वे 5 साल के थे, तब से यही सब देख रहे हैं.

इसी तरह हाथरस जिले के छीतीपुर गांव में कुछ दलित सार्वजनिक जगह पर हो रही भागवत कथा सुनने के लिए बैठ गए, जिस का आयोजन जाति विशेष के लोगों द्वारा कराया जा रहा था. दलितों को देख कर वे भड़क गए और उन पर आयोजन को अछूत करने का आरोप लगा कर गालीगलौज की. विरोध करने पर उन के साथ मारपीट कर दी गई.

इस घटना में 6 दलित घायल हो गए थे. बाद में कई नेता हमदर्दी का मरहम लगाने वहां पहुंचे, लेकिन आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की मांग करने से वे हिचक रहे थे.

उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के लोयन गांव का मामला लें. यहां दबंगों को सार्वजनिक नल से दलितों के पानी ले जाने पर एतराज था. रोक लगाने पर दलितों ने विरोध किया, तो बदले में उन्हें गालियां खानी पड़ीं. इतना ही नहीं, दलितों को कई तरह की पाबंदियों का फरमान सुना दिया गया. प्रशासन के दखल से मामला सुलझाया गया.

इसी तरह उत्तराखंड के जयरामपुर गांव में दलितों को अछूत होने के चलते सरकारी नल से पानी लेने से रोक दिया गया. इस की शिकायत तो की गई, लेकिन कोई स्थायी हल नहीं निकला.

चंदौसी के गांव गंगुरा में भी खेतों पर घास काटने गई चरन सिंह की 13 साला बेटी सुधा एक मंदिर में लगे नल पर पानी पीने के लिए चली गई, लेकिन पुजारी और वहां बैठे लोगों ने उसे पानी नहीं पीने दिया. चरन सिंह इस बात का विरोध जताने पहुंचा, तो उस के साथ मारपीट की गई.

इलाहाबाद के पुरखास गांव की रहने वाली एक किशोरी को दबंग नौजवान ने ऐसी सजा दी, जिसे वह शायद ही कभी भूल पाए. ये दबंग आमतौर पर पिछड़ी जातियों के थे, जो जमींदारी खत्म होने से पहले दलितों सी हालत में थे और उन के साथ ठाकुरब्राह्मण बैठ कर खाना नहीं खा सकते थे. अब वे अपने को ठाकुरब्राह्मण साबित करने में लग गए हैं.

दलित समुदाय के संगमलाल की बेटी सुशीला खेत पर घास काटने गई थी. इस दौरान उस ने एक दबंग के खेत में शकरकंद के पौधे की पत्तियां भी काट लीं. एक दलित लड़की द्वारा अपने खेत की पत्ती काटने पर गुस्से से तिलमिलाए दबंग के बेटों ने दरांती छीन कर उस के दाएं हाथ की 2 उंगलियों पर वार कर दिया.

इस हैवानियत का पता जब गांव वालों को चला, तो उन्होंने आरोपियों के पिता को पकड़ कर पीट दिया. मामला पुलिस तक पहुंच गया. सुशीला का बड़े अस्पताल में उपचार कराया गया. इस घटना से दबंगों की नजर में दलितों की हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

दलित चिंतक चाहते हैं कि ऐसी सामाजिक बुराई के खिलाफ लगातार आवाज बुलंद की जानी चाहिए. संवैधानिक हकों को मारने वालों के खिलाफ कानून का कड़ाई से पालन हो और उस में डर पैदा हो.

हालांकि दलितों की भलाई के लिए कई तरह के कानून बने हैं, पर कागजी और कानूनी हकों को दबंग सामाजिक तौर पर देने को आज भी तैयार नहीं हैं. बात सिर्फ कानून बनाने से हल होती नहीं दिखती, बल्कि इस के लिए सामाजिक पहल की भी जरूरत है.

दुखी दलित ने खोद दिया कुआं

एक दलित की बीवी ऊंची जाति वाले पड़ोसियों के कुएं से पानी लेने गई, तो उन्होंने छुआछूत की बात कह कर ताने मारे और उसे बेइज्जत कर के लौटा दिया. अमनपसंद पति ने अपने ही अंदाज में जवाब देने की ठान ली. एक दिन उस ने जातिवाद को ऐसा करारा जवाब दिया कि सब हैरान रह गए.

महाराष्ट्र के वाशिम जिले के ताजणे का दिल पत्नी की बेइज्जती से बहुत दुखी हुआ. उस ने एक महीने से ज्यादा की गई मेहनत के बाद बिना किसी की मदद से अपना ही कुआं खोद दिया.

ताजणे 8 घंटे की मजदूरी कर के घर आने के बाद हर रोज तकरीबन 6 घंटे खुदाई करता था. जब वह कहता था कि दलितों के लिए अलग कुआं बना रहा है, तो लोग उस का मजाक बनाते थे, लेकिन उस ने इस की परवाह नहीं की. एक दिन ऐसा आया कि कुएं से पानी निकला, तो सब हैरान रह गए.

दलितों की खुशियों पर पहरा

आलम यह है कि दलितों की खुशियों पर भी दबंगों का पहरा होता है. उन के हिसाब से दलितों को उन के सामने खुशियां मनाने की इजाजत नहीं होती. ठीक वैसे जैसे पहले पिछड़ों यानी शूद्रों को खुशियां मनाने पर पाबंदी थी. हां, वे नौकर थे, पर अछूत नहीं.

अब दलितों की शादियों में बैंडबाजे बजने और दूल्हों के घोड़ी पर बैठने पर दबंग एतराज करते हैं. ऐसा करने की कोशिश में उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है. मध्य प्रदेश के मालवा जिले में माना गांव के चंदेर की बेटी की शादी थी. चंदेर ने बैंड पार्टी बुलवा ली. यह बात ऊंची जातियों के दबंगों को नागवार गुजरी. उन्होंने उसे सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी. इस के बावजूद बैंडबाजा बजा, तो दलितों ने खुशियां मनाईं.

दलित की बेटी की शादी में बैंडबाजा बजने से दबंग बुरी तरह नाराज हो गए. बदला लेने के लिए उन्होंने दलितों के कुएं में मिट्टी का तेल डाल दिया.

इसी तरह राजस्थान के जयपुर के हसनपुरा गांव में एक दलित के घोड़ी पर बैठने को ले कर दबंग भड़क गए. झगड़ा बढ़ गया, तो दलितों ने पुलिस में फरियाद कर दी. इस बात से नाराज हो कर दबंगों ने शादी के घर में काम आ रही पानी की टंकी में जहरीली चीज मिला दी, जिस से तकरीबन एक दर्जन लोग बीमार हो गए.

फिरोजाबाद के एक गांव में दबंगों ने दलितों की बरात रोक दी. काफी मिन्नतों के बाद भी उन्होंने दलित को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया. दरअसल, ऊंची जाति के गुमान में रहने वाले दबंग नहीं चाहते कि दलित गांवों में उन की बराबरी कर के खुशियां मनाएं.

जाति न पूछो प्यार में

वैलेंटाइन डे पर प्यार करने से पहले जाति और धर्म को बीच में नहीं लाना चाहिए. अगर युवा अपनी सोच बदलेंगे तो समाज में बदलाव होगा. प्यार और शादी को ले कर ज्यादातर युवाओं की यह सोच होती है कि प्यार जहां हो, शादी भी वहीं हो. कुछ युवा प्यार और शादी के मुद्दे को अलग रखना चाहते हैं. उन का कहना है कि शादी पेरैंट्स की मरजी से ही होनी चाहिए. भारत में प्रेम और उस को ले कर चल रहे प्रयोग बहुत अलगअलग होते हैं. भारतीय फिल्में देखने से ऐसा लगता है कि युवा भारतीयों के लिए रोमांस और प्रेम के सिवा कोई दूसरा काम नहीं है. लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो अभी भी ‘अरेंज मैरिज’ को अपनी पहली पसंद मानता है.

लव मैरिज के प्रति बदल रहा नजरिया

2018 के सर्वे के मुताबिक, एक लाख 60 हजार से अधिक भारतीय परिवारों में 93 प्रतिशत शादीशुदा लोगों ने कहा कि उन की शादी अरेंज मैरिज है. महज 3 प्रतिशत लोगों ने अपने विवाह को प्रेम विवाह बताया जबकि केवल 2 प्रतिशत लोगों ने अपनी शादी को लव कम अरेंज बताया. इस से जाहिर है कि भारत में परिवार के लोग शादियां तय करते हैं. समय के साथ इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है.

भारत में अरेंज शादियों की विशेषता अपनी जाति में ही शादी करना है. 2014 के एक सर्वे में शहरी भारत के 70 हजार लोगों में 10 प्रतिशत से भी कम लोगों ने माना कि उन के अपने परिवार में जाति से अलग से कोई शादी हुई है. अंतर्धामिक शादियां तो और भी कम होती हैं. शहरी भारत में महज

5 प्रतिशत लोगों ने माना है कि उन के परिवार में किसी ने धर्म से बाहर जा कर शादी की है. भारत में युवा अमूमन जाति के बंधन को तोड़ कर शादी करने की इच्छा जताते हैं लेकिन वास्तविकता में काफी अंतर है.

 हावी है रूढि़वादी सोच

लड़का व लड़की अगर दलित या दूसरे धर्म के हैं तो तमाम मापदंडों, शिक्षा, वेतन, गोरा रंग में ठीक होने के बाद भी उसे शादी के लिए ऊंची जातियों में पसंद नहीं किया जाता है. जिन को ऐसी शादियां करनी होती हैं वे विद्रोह कर के ही कर सकते हैं. इस के अपने खतरे हैं. घर से भागने से ले कर पुलिस, कचहरी, थाना और कोर्ट तक के चक्कर लगाने होते हैं. लड़की के मातापिता की ओर से अपहरण और बलात्कार के मामले दर्ज करा दिए जाते हैं. युवा जोड़ों के बीच शारीरिक संबंधों को बलात्कार की श्रेणी में रख दिया जाता है.

पिछले एक दशक में भारत में जिस तरह से ‘लव जिहाद’ और कट्टर जातिवाद का हौवा खड़ा किया गया है उस से गैरजाति और गैरधर्म के बीच शादी करने वालों के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं. कई राज्यों में महिलाओं को विवाह के बाद जबरन धर्मांतरण के लिए दबाव भी डाला जाता है. अंतर्धामिक शादी करने वालों पर भी प्रतिबंध बढ़ाया गया है. इस को एक तरह से प्रेम पर पुलिस का पहरा माना जा सकता है. प्रेम करने वालों पर इस तरह की रोकटोक से अंतर्धामिक जातीय शादियों पर प्रभाव पड़ेगा.

कोर्ट के तमाम बार फैसला देने के बाद भी भारत में किसी का प्रेम में होना एक निजी मामला बिलकुल नहीं होता. समाज, घरपरिवार ही तय करता है कि कौन किस से प्रेम और शादी करेगा. भारतीय समाज हमेशा से ही अपनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है. आज इस संस्कृति का मतलब बदल चुका है. संस्कृति की रक्षा के नाम पर इस का दुरुपयोग किया जा रहा है. अब यहां मोरल पुलिसिंग होने लगी है. रूढि़वादी सोच से ग्रसित लोगों ने समाज में प्रेम को भी अपना निशाना बनाया हुआ है. भारतीय समाज में कोई अपनी मरजी से अपना जीवनसाथी चुनता है तो उसे तुच्छ और घृणा की नजर से देखा जाता है, जैसे, उस ने कोई अपराध किया हो. उन को समाज के ताने सुनने पड़ते हैं.

 प्यार पर हावी होती नफरती सोच

समाज में प्रेम संबंधों के प्रति नफरत इस कदर हावी है कि अगर लड़की के घर पर उस के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है तो परिवार के सदस्य इसे समाज में अपनी बेइज्जती और सम्मान पर लगा दाग सम?ाते हैं. यदि कोई लड़कालड़की घरवालों की सहमति के साथ प्रेम विवाह करता है तो लड़की के घर वाले यह बात समाज के सामने उजागर नहीं होने देते और सभी रिश्तेदार आदि से छिपाने की कोशिश करते हैं. वे इस को अरेंज्ड मैरिज ही बताते हैं. प्रेम विवाह को यह समाज भारतीय संस्कृति के खिलाफ ही मानता है. समाज में फैली ऐसी ही रूढि़वादी विचारधारा से ‘औनर किलिंग’ जैसे अपराध बढ़ते हैं.

वैसे देखा जाए तो भारतीय संस्कृति प्रेम की मुखालफत नहीं करती है. कुछ रूढि़वादी लोगों ने इस धारणा को बढ़ावा दिया है. ऐसे लोग हमेशा से ही पितृसत्ता के ही पक्ष में रहते हैं. किसी लड़की का अपनी मरजी से अपना साथी चुनना पितृसत्ता को चुनौती देना माना जाता है. इसलिए लोग प्रेम विवाह के विरुद्ध कई तरह के अभियान चलाते हैं.

उदाहरण के तौर पर बजरंग दल, जिस का मानना होता है कि वैलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी विदेशी संस्कृति है जो युवाओं को भ्रमित कर रही है. इस तरह के लोग वैलेंटाइन डे के दिन सार्वजनिक स्थलों, सड़क आदि पर दिखने वाले हर जोड़े, यहां तक साथ दिखने वाले हर लड़कालड़की को बिना जाने कि वे प्रेमी जोड़े हैं भी या नहीं, परेशान करते हैं.

कानून ने भले ही बालिग लड़कालड़की को अपनी इच्छा अनुसार जीवनसाथी चुनने को या लिवइन रिलेशनशिप आदि का अधिकार दिया हो पर समाज अभी भी इस के विरोध में ही रहता है. सामाजिक तौर पर इसे अपनाया नहीं गया है. प्रेम के खिलाफ वही रूढि़वादी अवधारणाएं फैली हुई हैं. इन के कारण इस तरह के संबंधों में हत्या की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं. पिछले कुछ वर्षों से देश में लगातार ऐसे प्रेम संबंधों की भयानक तसवीरें सामने आ रही हैं. अब देश में हर साल ढाईतीन हजार हत्याएं प्रेम संबंधों में बिखराव के चलते हो रही हैं.

प्रेम में बढ़ता अपराध

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, प्रेम या अवैध संबंधों के कारण देशभर में हत्याएं तेजी से बढ़ी हैं. आंकड़ों के अनुसार, 2017 से 2021 तक देशभर में प्रेम संबंधों या अवैध संबंधों के कारण होने वाली हत्याओं की संख्या 2,706 से बढ़ कर 3,139 हो गई.

हाल ही में श्रद्धा वालकर की आफताब अमीन पूनावाला द्वारा की गई हत्या चर्चा में है. आफताब अमीन पूनावाला 2018 से श्रद्धा वालकर के साथ रिश्ते में था. 18 मई, 2022 को दोनों के बीच हुए ?ागड़े के बाद आफताब ने श्रद्धा का गला घोंट दिया. इस के बाद उस ने उस के शरीर के कई टुकड़े कर दिए और शरीर के हिस्सों को अलगअलग जगहों पर ठिकाने लगा दिया.

 आफताब पूनावाला को अपराध के

6 महीने बाद गिरफ्तार किया गया. दोनों 2019 से लिवइन रिलेशनशिप में थे और 8 मई, 2022 को दिल्ली चले आए थे. वे पहाड़गंज के एक होटल में 7 दिनों तक रहे और फिर 15 मई को श्रद्धा की हत्या के ठीक 3 दिन पहले किराए के मकान में शिफ्ट हो गए थे. आफताब ने अपने अपराध के हर सुबूत को मिटाने के लिए महीनों तक काम किया. एक विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 2017 में विश्व में लगभग 30 हजार महिलाएं अपने प्रेमियों के हाथों मौत के घाट उतारी गईं. अपने दोस्त के हाथों मारे गए लोगों में 80 फीसदी महिलाएं रही हैं.

संयुक्त राष्ट्र का दावा है कि प्रेम संबंधों के कारण विश्व स्तर पर सालाना 5,000 हत्याओं में 1,000 हत्याएं तो अकेले भारत में हो रही हैं. गैरसरकारी संगठन बता रहे हैं कि विश्व में ऐसी हत्याओं की संख्या 20 हजार तक पहुंच चुकी है. भारत में प्रेम संबंधों में रोजाना 7 हत्याएं, 14 आत्महत्याएं और 47 अपहरण की घटनाएं हो रही हैं.

पुलिस रिकौर्ड के मुताबिक, इन दिनों 90 में से 25 हत्याएं प्रेम संबंधों और अवैध संबंधों को ले कर हो रही हैं. ऐसी हत्याओं के पीछे मूल कारण गलतफहमी, व्यभिचार और घरेलू हिंसा है. ऐसी ज्यादातर हत्याओं के खुलासे पीडि़त के अंतिम फोन कौल्स से हो रहे हैं. ऐसे हत्यारे पुलिस की मामूली सख्ती पर ही पूरा राज उगल देते हैं.

 सोच बदलने की जरूरत

मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, इन दिनों का प्रेम संबंध इंसान को अंदर से बहुत पजेसिव बना दे रहा है. लड़की से उम्मीद के मुताबिक निर्वाह नहीं मिलने पर पुरुष पार्टनर प्रतिशोध पर आमादा हो जा रहे हैं. भारत में हर साल 1,000 से अधिक हत्याएं औनर किलिंग की हो रही हैं, जिन में प्रतिवर्ष हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में करीब 900 और बाकी देश में लगभग 300 औनर किलिंग हो रही हैं. अवैध प्रेम संबंधों में होने वाली हत्याओं का आंकड़ा तो और भी भयावह है.

आजकल के प्रेमी अपनी महिला दोस्तों पर चोरीछिपे नजर रखते हुए उन का उत्पीड़न करते रहते हैं. उन का रोमांस पहले तो तेजी से गहरे संबंधों में तबदील हो जाता है, फिर वे स्वयं पर नियंत्रण खो कर संबंध पर हावी होने लगते हैं. वे अकसर आत्महत्या की धमकियां देते हैं, प्रतिशोध की साजिश रचने लगते हैं. जबरदस्ती महिला दोस्त पर नियंत्रण रखने की प्रवृत्ति के कारण वे उन्माद के जनून में अंधे हो कर हत्या तक कर बैठते हैं. प्यार में एकदूसरे को समान अधिकार देने की जरूरत होती है. जहां यह नहीं होता वहीं अपराध घटता है.

ऐसे में सोच बदलने की जरूरत है. प्यार में सम्मान देना सीखें. अगर कहीं संबंधों में प्यार और सम्मान खो रहा है तो एकदूसरे के प्रति अपराध करने की जगह पर अलग हो जाएं. अगर प्यार में बढ़ते अपराध और भेदभाव को रोका नहीं गया तो प्यार का भाव ही खत्म हो जाएगा. इस से रूढि़वादी सोच रखने वालों की धारणा मजबूत होगी. जरूरत इस बात की है कि युवा प्यार को आगे बढाएं और यह साबित करें कि प्यार से बेहतर कुछ भी नहीं है. तभी प्यार के प्रति समाज की सोच और नजरिया बदल सकेगा.

घरेलू हिंसा कानून सास बहू दोनों के लिए

मेरे महल्ले में एक वृद्ध महिला अपने घर में अकेली रहती हैं. वे बेहद मिलनसार व हंसमुख हैं. उन का इकलौता बेटा और बहू भी इसी शहर में अलग घर ले कर रहते हैं. एक दिन जब मैं ने उन से इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने जो कुछ भी बताया वह सुन कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए.

उन्होंने बताया, ‘‘मेरे बेटे ने प्रेमविवाह किया था. फिर भी हम ने कोई आपत्ति नहीं की. बहू ने भी आते ही अपने व्यवहार से हम दोनों का दिल जीत लिया. 2 साल बहुत अच्छे से बीते. लेकिन मेरे पति की मृत्यु होते ही मेरे प्रति अप्रत्याशित रूप से बहू का व्यवहार बदलने लगा. अब वह बेटे के सामने तो मेरे साथ अच्छा व्यवहार करती, परंतु उस के जाते ही वह बातबात पर मुझे ताने देती और हर वक्त झल्लाती रहती. मुझे लगता है कि शायद अधिक काम करने की वजह से वह चिड़चिड़ी हो गई है, इसलिए मैं ने उस के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. मगर उस ने तो जैसे मेरे हर काम में मीनमेख निकालने की ठान रखी थी.

‘‘धीरेधीरे वह घर की सभी चीजों को अपने तरीके से रखने व इस्तेमाल करने लगी. हद तो तब हो गई जब उस ने फ्रिज और रसोई को भी लौक करना शुरू कर दिया. एक दिन वह मुझ से मेरी अलमारी की चाबी मांगने लगी. मैं ने इनकार किया तो वह झल्लाते हुए मुझे अपशब्द कहने लगी. जब मैं ने यह सबकुछ अपने बेटे को बताया तो वह भी बहू की ही जबान बोलने लगा. फिर तो मुझे अपनी बहू का एक नया ही रूप देखने को मिला. वह जोरजोर से रोनेचिल्लाने लगी तथा रसोई में जा कर आत्महत्या का प्रयास भी करने लगी. साथ ही, यह धमकी भी दे रही थी कि वह यह सबकुछ वीडियो बना कर पुलिस में दे देगी और हम सब को दहेज लेने तथा उसे प्रताडि़त करने के इलजाम में जेल की चक्की पिसवाएगी. उस समय तो मैं चुप रह गई, परंतु मैं ने हार नहीं मानी.

‘‘अगले ही दिन बिना बहू को बताए उस के मातापिता को बुलवाया. अपने एक वकील मित्र तथा कुछ रिश्तेदारों को भी बुलवाया. फिर मैं ने सब के सामने अपने कुछ जेवर तथा पति की भविष्यनिधि के कुछ रुपए अपने बेटेबहू को देते हुए इस घर से चले जाने को कहा. मेरे वकील मित्र ने भी बहू को निकालते हुए कहा कि महिला संबंधी कानून सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी सास के लिए भी है. तुम्हारी सास भी चाहे तो तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट कर सकती है. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम सीधी तरह से इस घर से चली जाओ. मेरा यह रूप देख कर बहू और बेटा दोनों ही चुपचाप घर से चले गए. अब मैं भले ही अकेली हूं परंतु स्वस्थ व सुरक्षित महसूस करती हूं.’’

उक्त महिला की यह स्थिति देख कर मुझे ऐसा लगा कि अब इस रिश्ते को नए नजरिए से भी देखने की आवश्यकता है. सासबहू के बीच झगड़े होना आम बात है. परंतु, जब सास अपनी बहू के क्रियाकलापों से खुद को असुरक्षित व मानसिक रूप से दबाव महसूस करे तो इस रिश्ते से अलग हो जाना ही उचित है. बदलते समय और बिखरते संयुक्त परिवार के साथ सासबहू के रिश्तों में भी काफी परिवर्तन आया है.

एकल परिवार की वृद्धि होने के कारण लड़कियां प्रारंभ से ही सासविहीन ससुराल की ही अपेक्षा करती हैं. वे पति व बच्चे तो चाहती हैं परंतु पति से संबंधित अन्य कोई रिश्ता उन्हें गवारा नहीं होता. शायद वे यह भूल जाती हैं कि आज यदि वे बहू हैं तो कल वे सास भी बनेंगी.

फिल्मों और धारावाहिकों का प्रभाव:  हम मानें या न मानें, फिल्में व धारावाहिक हमारे भारतीय परिवार व समाज पर गहरा असर डालते हैं. पुरानी फिल्मों में बहू को बेचारी तथा सास को दहेजलोभी, कुटिल बताते हुए बहू को जला कर मार डालने वाले दृश्य दिखाए जाते थे.

कई अदाकारा तो विशेषरूप से कुटिल सास का बेहतरीन अभिनय करने के लिए ही जानी जाती हैं. आजकल के सासबहू सीरीज धारावाहिकों का फलक इतना विशाल रहता है कि उस में सबकुछ समाया रहता है. कहीं गोपी, अक्षरा और इशिता जैसी संस्कारशील बहुएं भी हैं तो कहीं गौरा और दादीसा जैसी कठोर व खतरनाक सासें हैं. कोकिला जैसी अच्छी सास भी है तो राधा जैसी सनकी बहू भी है. अब इन में से कौन सा किरदार किस के ऊपर क्या प्रभाव डालता है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलता है.

आज के व्यस्त समाज में आशा सहाय और विजयपत सिंघानिया की स्थिति देख कर तो यही लगता है कि अब हम सब को अपनी वृद्धावस्था के लिए पहले से ही ठोस उपाय कर लेने चाहिए. कई यूरोपियन देशों में तो व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद शोक मनाने के लिए भी सारे इंतजाम करने के बाद ही मरता है. हमारे समाज का तो ढांचा ही कुछ ऐसा है कि हम अपने बच्चों से बहुत सारी अपेक्षाएं रखते हैं.

हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार, बेटेबहू के हाथ से तर्पण व मोक्ष पाने का लालच इतना ज्यादा है कि चाहे जो भी हो जाए, वृद्ध दंपती बेटेबहू के साथ ही रहना चाहते हैं. बेटियां चाहे जितना भी प्यार करें, वे बेटियों के साथ नहीं रह सकते, न ही उन से कोई मदद मांगते हैं. कुछ बेटियां भी शादी के बाद मायके की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना चाहती हैं. और दामाद को तो ससुराल के मामले में बोलने का कोई हक ही नहीं होता.

भारतीय समाज में एक औरत के लिए सास बनना किसी पदवी से कम नहीं होता. महिला को लगता है कि अब तक उस ने बहू बन कर काफी दुख झेले हैं, और अब तो वह सास बन गई है. सो, अब उस के आराम करने के दिन हैं. सास की हमउम्र सहेलियां भी बहू के आते ही उस के कान भरने शुरू कर देती हैं. ‘‘बहू को थोड़ा कंट्रोल में रखो, अभी से छूट दोगी तो पछताओगी बाद में.’’

‘‘उसे घर के रीतिरिवाज अच्छे से समझा देना और उसी के मुताबिक चलने को कहना.’’

‘‘अब तो तुम्हारा बेटा गया तुम्हारे हाथ से’’, इत्यादि जुमले अकसर सुनने को मिलते हैं. ऐसे में नईनई सास बनी एक औरत असुरक्षा की भावना से घिर जाती है और बहू को अपना प्रतिद्वंद्वी समझ बैठती है. जबकि सही माने में देखा जाए तो सासबहू का रिश्ता मांबेटी जैसा होता है. आप चाहें तो गुरु और शिष्या के जैसा भी हो सकता है और सहेलियों जैसा भी.

यदि हम कुछ बातों का विशेषरूप से ध्यान रखें तो ऐसी विपरित परिस्थितियों से निबटा जा सकता है, जैसे-

  • नई बहू के साथ घर के बाकी सदस्यों के जैसा ही व्यवहार करें. उस से प्यार भी करें और विश्वास भी, परंतु न तो चौबीसों घंटे उस पर निगरानी रखें और न ही उस की बातों पर अंधविश्वास करें.
  • नई बहू के सामने हमेशा अपने गहनों व प्रौपर्टी की नुमाइश न करें और न ही उस से बारबार यह कहें कि ‘मेरे मरने के बाद सबकुछ तुम्हारा ही है.’ इस से बहू के मन में लालच पैदा हो सकता है. अच्छा होगा कि आप पहले बहू को ससुराल में घुलमिल जाने दें तथा उस के मन में ससुराल के प्रति लगाव पैदा होने दें.
  • बहू की गलतियों पर न तो उस का मजाक उड़ाएं और न ही उस के मायके वालों को कोसें. बल्कि, अपने अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए सहीगलत, उचितअनुचित का ज्ञान दें. परंतु याद रहे कि ‘हमारे जमाने में…’ वाला जुमला न इस्तेमाल करें.
  • बहू की गलतियों के लिए बेटे को ताना न दें, वरना बहू तो आप से चिढ़ेगी ही, बेटा भी आप से दूर हो जाएगा.
  • अपने स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दें तथा घरेलू कार्यों में आत्मनिर्भर रहने का प्रयास करें.
  • समसामयिक जानकारियों, कानूनी नियमों, बैंक व जीवनबीमा संबंधी नियमों तथा इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स के बारे में भी अपडेट रहें. इस के लिए आप अपनी बहू का भी सहयोग ले सकती हैं. इस से वह आप को पुरातनपंथी नहीं समझेगी, और वह किसी बात में आप से सलाह लेने में हिचकेगी भी नहीं.
  • अपने पड़ोसी व रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखने का प्रयास करें.
  • बेटेबहू को स्पेस दें. उन के आपसी झगड़ों में बिन मांगे अपनी सलाह न दें.
  • परंपराओं के नाम पर जबरदस्ती के रीतिरिवाज अपनी बहू पर न थोपें. उस के विचारों का भी सम्मान करें.

आखिर में, यदि आप को अपनी बहू का व्यवहार अप्रत्याशित रूप से खतरनाक महसूस हो रहा है तो आप अदालत का दरवाजा खटखटाने में संकोच न करें. याद रखिए घरेलू हिंसा का जो कानून आप की बहू के लिए है वह आप के लिए भी है.

कानून की नजर में

केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक अंगरेजी अखबार के जरिए यह कहा था कि घरेलू हिंसा कानून ऐसा होना चाहिए जो बहू के साथसाथ सास को भी सुरक्षा प्रदान कर सके. क्योंकि अब बहुओं द्वारा सास को सताने के भी बहुत मामले आ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि हिंदू मैरिज कानून के मुताबिक, कोई भी बहू किसी भी बेटे को उस के मांबाप के दायित्वों के निर्वहन से मना नहीं कर सकती.

क्या कहता है समाज

भारतीय समाज के लोगों ने अपने मन में इस रिश्ते को ले कर काफी पूर्वाग्रह पाल रखे हैं. विशेषकर युवा पीढ़ी बहू को हमेशा बेचारी व सास को दोषी मानती है. युवतियां भी शादी से पहले से ही सासबहू के रिश्ते के प्रति वितृष्णा से भरी होती हैं. वे ससुराल में जाते ही सबकुछ अपने तरीके से करने की जिद में लग जाती हैं. वे पति को ममा बौयज कह कर ताने देती हैं और सास को भी अपने बेटे से दूर रखने की कोशिश करती हैं.

हकीकत: धर्म का धंधा, लूट का जरिया 

हम बचपन में जब कहानियों की कोई भी किताब पढ़ा करते थे, उन में एक कहानी इस टाइप की जरूर होती थी कि एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था. एक दानवीर राजा था, जो सवेरेसवेरे राज्य के 100 ब्राह्मणों को सोने की 100 मोहरें और 100 गाएं दान दिया करता था वगैरह.

सवाल उठता है कि रोजरोज इतना सोना, इतनी गाएं कहां से आती थीं?  मकसद सिर्फ एक था कि कैसे भी कर के ब्राह्मण को ‘बेचारा’ साबित कर दो, ताकि वह लोगों की दया का पात्र बना रहे और जितना हो सके कहानियों के जरीए दान की महिमा गाओ, ताकि सवेरेसवेरे जब ब्राह्मण किसी के घर की चौखट पर भिक्षा मांगने जाए तो उसे मंगता समझ कर दुत्कारें नहीं, बल्कि ब्राह्मण देवता समझ कर एक मुट्ठी की जगह 2 मुट्ठी आटा, दाल, चावल और दहीघी दे दें. तथाकथित धर्मग्रंथों में सबकुछ वही लिखा है, जो इन के लिए फायदे का सौदा था.

फायदे का धंधा

धर्म को धंधा बना कर चालाक लोगों द्वारा गरीबों, दलितों, पिछड़ों का शोषण करने की महज एक सोचीसमझी चाल है. यह एकतरफा वसूली है. आमजन के साथसाथ पूरे देश के भविष्य के लिए

यह खतरनाक है. मुफ्त में ठग कर खाने वाली आदत बड़ी खराब होती है. खुद तो निठल्ले हो कर खा ही रहे हैं, आम जनता की तरक्की को भी रोक देते हैं.

सालासर बालाजी मंदिर का पुजारी अपनी बेटी की शादी में 11 किलो सोना दे और करोड़ों रुपए खर्च कर डाले, तो इसे क्या कहेंगे, जबकि मंदिर की देखरेख के लिए एक ट्रस्ट बना हुआ है और ट्रस्ट में शामिल पुजारियों को तनख्वाह दी जाती है? 30,000 रुपए महीना तनख्वाह लेने वाला पुजारी इतना पैसा अपनी बेटी पर कहां से खर्च करेगा? यकीनी तौर पर चंदेचढ़ावे में हेराफेरी हुई होगी, नहीं तो इतना खर्चा इस समय 30,000 रुपए कमाने वाले के बूते में तो कतई नहीं है.

आजकल पुराने मंदिरों पर करोड़ों रुपए खर्च कर के उन्हें भव्य बनाया  जा रहा है. दिलचस्प बात तो यह है कि इन मंदिरों पर किसानों की कड़ी मेहनत की पूंजी इस्तेमाल की जा रही है. चाहे किसान फटे कपड़े पहने, उस के बच्चे भूखे रहें, वे पढ़ाई छोड़ दें, लेकिन मंदिर के लिए तो कमाई दान करनी ही होगी, वरना धर्म के ठेकेदार नाराज हो जाएंगे और स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा.

जब कोई इस तरह की लूटखसोट पर सवाल उठाता है, तो यह प्रचार किया जाता है कि तुम तो हिंदू विरोधी हो, कम्यूनिस्ट हो, देशद्रोही हो वगैरह. तो क्या करें? इस एक सवाल का जवाब इन का बड़ा हैरान करने वाला होता है कि लोग अपनी मरजी से देते हैं, तेरा मन नहीं है तो मत दे.

क्या आप को भी ऐसा ही लगता है कि लोग दान अपनी मरजी से देते हैं? नमूने के तौर पर, जब कोई औरत पेट से होती है, तो इन का प्रतिनिधि यह बताने आ जाता है कि आप का होने वाला बच्चा बड़ा काबिल होगा, बस थोड़ा

राहू का प्रकोप है. पैदा होने के 7वें दिन बला आएगी, जिसे कुछ मंत्र पढ़ कर और दान दे कर टाला जा सकता है. आप

10 ब्राह्मणों को खाना खिला कर कुछ दान दे दो, तो बुरा समय टल जाएगा.

अब 9 महीने तक पीड़ा झेलने वाली वह औरत क्या करेगी? उस के पास 2 ही रास्ते होते हैं. एक तो पंडितजी के कहे हिसाब से चल कर बच्चे को बचा ले या बच्चा पैदा करने के बाद 7वें दिन उसे मरने के लिए छोड़ दे. कोई भी मां अपने बच्चे को मरने के लिए नहीं छोड़ सकती, तो वह पहला रास्ता अपनाएगी और ढोंग पर अपनी मेहनत की कमाई लुटाएगी.

तो क्या हम यह मान लें कि उस मां ने डर कर नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से यह खर्चा कर डाला? क्या 90 फीसदी लूट के ढोंग का बोझ उठा रहे इस बूढ़े धर्म की सफाई नहीं होनी चाहिए? कोई मर गया तो वह भूत बन कर परेशान न करे, इसलिए पंडितजी के कहे मुताबिक उधार ले कर ही सही, लेकिन झोलीझंडा उठा कर गंगा में अस्थि बहाने के लिए हरिद्वार की तरफ निकलना ही पड़ेगा, चाहे जिंदगी में कभी भूत देखा ही नहीं हो, लेकिन पंडितजी ने डराया है तो डरना ही पड़ेगा. मासूमों की अज्ञानता और नासमझी का इस तरह नाजायज फायदा उठाना क्या धर्म के हिसाब से सही हो सकता है? बिलकुल नहीं.

सीधी सी बात है कि या तो आप वैज्ञानिक शिक्षा व तार्किकता ला कर दुनिया के साथ मानव सभ्यता की दौड़ में साथ हो जाएं या ललाट पर भंवरें, कान के पीछे तिल या हथेली की खाज को खुजलातेखुजलाते किसी अनहोनी से डरते रहिए या धन खोजते रहिए.

आप चाहें तो पुराने काले जादू से भी चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं, क्योंकि ये लोग सब समस्याओं का समाधान ज्योतिष व जादू से करने का दावा जो करते हैं. हर गलीनुक्कड़ पर इन की दुकानें सजी हुई हैं.

गरीब लोगों का लुटना तकरीबन तय माना जाता है, चाहे वह मालीतौर से गरीब हो या मानसिक रूप से. मानसिक गरीब ज्यादा खतरनाक होते हैं, क्योंकि इन का लूट के अड्डों पर आनाजाना बहुत बड़ी आबादी पर असर डालता है. ये वे अमीर और पढ़ेलिखे लोग होते हैं, जिन्हें देख कर गरीब लोग भी अपना मानसिक आपा खो देते हैं.

साइरस मिस्त्री मंत्रों के बूते टाटा ग्रुप पर कब्जा जमाने की कोशिश करे तो इस का बहुत बड़ा असर पड़ता है, क्योंकि गरीब लोगों के दिमाग में भी यह घर कर जाता है कि शायद तिरुपति के दर्शन से अमिताभ बच्चन इतने बड़े स्टार बने होंगे या श्रीनाथजी को सोने का मुकुट चढ़ाने से ही अंबानी इतने बड़े उद्योगपति बने हैं.

मेरे एक दोस्त हैं. काफी समय बाद उन से मिला तो वे ललाट पर हाथ फेरते हुए कुछ इस तरह बताने लगे, ‘‘मेरा तीसरा नेत्र खुलता है, मैं मोहमाया

से बहुत दूर हो चुका हूं, मैं नौकरी छोड़ कर हरिद्वार जाऊंगा, भजन करूंगा…’’

तभी उन का 12 साल का बेटा पानी का गिलास ले कर आ गया. उस के पीछेपीछे 7 साल की बेटी भी आ गई. मैं बच्चों का मासूम चेहरा देख कर सहम सा गया. इन बच्चों का क्या होगा? था तो मैं भी जल्दी में, लेकिन उन बच्चों की मासूमियत ने मुझे रोक लिया. फिर 3 घंटे तक साइकोथैरेपी का दौर चला. वे दोस्त बिलकुल ठीक हो गए.

धर्म के धंधे का खेल

धर्म के धंधे का खेल समझना है, तो पितृपक्ष श्राद्ध और इस के कर्मकांडों को देखिए. आप को इस से बढि़या केस स्टडी दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिलेगी. ऐसी भयानक रूप से बेवकूफी से भरी बात सिर्फ ‘विश्वगुरु’ भारत के पास ही मिल सकती है.

एक तरफ तो यह माना जाता है कि पुनर्जन्म होता है. मतलब, घर के बुजुर्ग के मरने के बाद अगले जन्म में कहीं पैदा हो गए होंगे, तो दूसरी तरफ यह भी मानेंगे कि वे अंतरिक्ष में लटक रहे हैं और खीरपूरी के लिए तड़प रहे हैं.

अब सोचिए कि अगर पुनर्जन्म होता है, तो अंतरिक्ष में लटकने के लिए वे उपलब्ध ही नहीं हैं? किसी स्कूल में नर्सरी में पढ़ रहे होंगे या मिडडे मील वाले स्कूलों में खिचड़ी खा रहे होंगे.

अगर उन का अंतरिक्ष में लटकना सच है, तो पुनर्जन्म गलत हुआ. लेकिन हमारे पोंगा पंडित दोनों हाथ में लड्डू चाहते हैं, इसलिए मरने के पहले अगले जन्म को सुधारने के नाम पर भी उस आदमी से कर्मकांड करवाएंगे और मरने के बाद उस के बच्चों को पितरों का डर दिखा कर उन से भी खीरपूरी का इंतजाम जारी रखेंगे.

अब मजा यह है कि कोई कहनेपूछने वाला भी नहीं कि महाराज इन दोनों बातों में कोई एक ही सच हो सकती है. उस पर दावा यह कि ऐसा करने से खुशहाली आएगी, लेकिन इतिहास गवाह है कि हजारों साल तक यह सब करने के बावजूद यह देश गरीब और गुलाम बना रहा है. बावजूद इस कि हर घरपरिवार में श्राद्ध का ढोंग बहुत गंभीरता से निभाया जाता है.

हर कदम पर लूट

2 दिन की छुट्टी थी. मथुरा और वृंदावन 2 दिन में घूम सकते हैं. बृजभूमि है… कृष्ण से जुड़ी तमाम लीलाएं… यमुना का तीर… यह सब सोच कर मन में कौतूहल भी था. पर वहां जो देखा और अनुभव किया उस का धर्म और कर्म से कम और छल और छलावे से लेनादेना ज्यादा था.

मथुरा में प्रवेश करते ही खुद को पंडे या गाइड कहने वाले लोग आप को घेर लेंगे. कहेंगे कि महज 551 रुपए में दर्शन कराएंगे. आप की गाड़ी का दरवाजा अगर खुला मिल गया, तो आप के हां या न कहने के पहले आप की गाड़ी में बैठ भी जाएंगे.

दूरदराज से आए और इलाके से अपरिचित लोग आसानी से इन की बातों में आ जाते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि ये 551 रुपए आप को काफी महंगे पड़ने वाले हैं. दरअसल, यह पूरा रैकेट है. गाइड आप को मंदिर के बाहर तक ले जाता है और अंदर मौजूद किसी पंडित के हवाले कर देता है.

मथुरा में ऐसा ही एक पंडानुमा गाइड हमें मथुरा से गोकुल ले गया, बिना हमें ठीक से बताए कि वह हमें कहां ले जा रहा है. रास्ते में वह कुछ बातें बारबार दोहराता रहा, जैसे गाय को दान देना चाहिए, इस से उद्धार होगा वगैरह.

मंदिर में गाइड ने सब को पंडित के हवाले कर दिया. पंडितजी भी आते ही समझाने लगे कि गाय के नाम पर दान देना कितने पुण्य की बात होती है. तब समझ में आया कि वह गाइड दिमाग में बातें पहले से ही भर रहा था, ताकि पंडितजी की बात मानने में हमें आसानी हो.

यहां तक तो ठीक था. इस के बाद तो पंडितजी ने कमाल ही कर दिया. कहा, पूजा के बाद दान देना होगा. इस ‘दान देना होगा’ में आग्रह नहीं, बल्कि आदेश था. उस पर तुर्रा यह कि दान उन की बताई राशि के अनुसार देना पड़ेगा, जिस में न्यूनतम स्तर तय था. उस से ज्यादा दे पाए तो कहना ही क्या. दान न हुआ मानो इनकम टैक्स हो गया कि न्यूनतम कर देना लाजिमी है. भावनात्मक दबाव बनाने के लिए पंडितजी बोले, ‘‘मंदिर में संकल्प करो कि बाहर दानपात्र में कितने पैसे दोगे, तभी बाहर जाओ.’’

क्या इस के लिए आप के मन में धार्मिक ब्लैकमेल के अलावा कोई शब्द उभरता है? मन दुखी था कि कैसी लूटखसोट है? धार्मिक लूट का रैकेट बना रखा है.

वापस लौटने पर एक सहयोगी ने बताया कि जगन्नाथपुरी जैसी जगहों पर तो हालात इस से भी बुरे हैं. इस तरह ठगने वाले लोग धर्मधर्म में फर्क नहीं करते, क्योंकि एक दोस्त ने बताया कि अजमेर शरीफ व पुष्कर जैसी जगहों पर भी लोगों को कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ता है.

धर्मगुरु और उन के ग्राहक

धर्म एक ऐसा नशा है, अगर सिर पर चढ़ जाए तो आप ऐसे तथाकथित धर्म के वशीभूत हो कर अनेक तरीके से उन तथाकथित निठल्ले बाबाओं के लिए भरपूर सुखसुविधा का इंतजाम खुद

ही करने लग जाते हैं. जैसे दानपुण्य, धार्मिक भवन वगैरह बनाने में पैसे की मदद देना. यहां तक कि धर्म के नाम पर इनसान इनसान की हत्या तक करने के लिए उग्र हो जाते हैं. इस वजह से देश में कई सांप्रदायिक झगड़े और दंगे हो चुके हैं.

क्या कभी आप ने सोचा है कि धार्मिक संगठनों ने समाज का कोई कल्याण किया है आज तक? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन सच है. आज भी हमारे समाज में इतनी गरीबी, अनाथ बच्चे और लाचार लोग क्यों हैं? क्या कभी ऐसे धार्मिक संगठन के लोग अपने समाज की बदहाली के बारे में सोचते हैं? नहीं न?

लेकिन जब आस्था और धर्म की बात आती है, तो हम लोग लोकलिहाज के चलते भी पैसे से मदद करने के लिए तैयार हो जाते हैं. जितने भी धार्मिक संस्थान आप देखते हैं या कोई धार्मिक संगठन आप भारत में देखते हैं, क्या उन के पास दान के अलावा दूसरा कोई आमदनी का जरीया होता है? नहीं न? फिर भी उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती. जो लोग उन संगठनों के कर्ताधर्ता हैं, क्या आप ने उन्हें फटेहाल देखा है? आखिर सोनेचांदी के सिंहासन पर विराजमान हो कर धर्म का उपदेश देने वाले गरीब कैसे हो सकते हैं? यह सब आप के अंधभक्ति द्वारा दिए गए दान के पैसे से आता है.

इस वजह से आजकल कई ऐसे तथाकथित ढोंगी सीधेसरल लोगों को अपने धार्मिक प्रपंच के मायाजाल में फंसा कर उन से खूब पैसा इकट्ठा करते हैं और अपनेआप को ‘अवतार पुरुष’ तक घोषित कर देते हैं और भोलीभाली धर्मभीरु औरतों का जिस्मानी शोषण तक कर डालते हैं.

पिछले कुछ सालों में इस तरह के कई बाबाओं पर भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार और हत्या के केस दायर किए गए हैं और वे अपराध साबित भी हुए. पिछले सालों में न जाने कितने फर्जी बाबा पकड़े गए और वे सब जेल की हवा खा रहे हैं.

इस में हम दोष किस को दें? वजह यह है कि हर किसी के अंदर ही भक्ति भरी होती है और जब कोई फर्जी बाबा या फर्जी गुरु दोचार प्रवचन दे देता है, तो लोग उन की ओर खिंच जाते हैं और फिर धीरेधीरे उन के छलप्रपंच मे फंस कर उन के अनुयायी बनने लगते हैं.

धर्म और आस्था के नाम पर मंच से दान देने या सहायता राशि देने की अपील कर दी जाए, तो हर कोई अपनी जेब से कुछ न कुछ जरूर दे ही देता है, जिस से ऐसे संगठनों को आमदनी हो जाती है. फिर ऐसे संगठन घोषणा करते हैं कि अगला प्रोग्राम फलां जगह पर होगा. ऐसे आयोजकों द्वारा पूरे प्लान के साथ भक्तों को बेचने के लिए नईनई चीजों को आयोजन के जरीए बेचा जाता है. इस तरह पूरा कारोबार ही खड़ा किया जाता है.

आज ऐसे कई फर्जी बाबा पैसों के साथसाथ राजनीतिक शक्तियां भी खूब हासिल कर रहे हैं. बड़ेबड़े नेता उन फर्जी बाबाओं के आशीर्वाद भी खूब लेने जाते हैं, ताकि उन से राजनीतिक फायदा लिया जा सके.

आज हमारा देश अगर थोड़ाबहुत तरक्की की ओर आगे बढ़ रहा है, तो इस का क्रैडिट विज्ञान और पढ़ाईलिखाई को दिया जाना चाहिए, न कि अंधभक्ति और तथाकथित बाबाओं को. सच तो यह है कि आज के समय में धर्म का समावेश देश की राजनीति के साथ होना बहुत खतरनाक बात है.

एसिड अटैक रोकने में कानून नाकाम

देश की राजधानी दिल्ली में अपनी छोटी बहन के साथ जा रही एक लड़की पर द्वारका मोड़ के पास एक लड़के ने एसिड अटैक कर दिया. लड़की ने इस मामले में 2-3 लोगों पर शक जाहिर किया. पुलिस ने सभी 3 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया. लड़की के पिता ने बताया, ‘‘मेरी दोनों बेटियां सुबह स्कूल के लिए निकली थीं. कुछ देर बाद मेरी छोटी बेटी भागती हुई आई और उस ने बताया कि 2 लड़के आए और दीदी पर एसिड फेंक कर चले गए.

हर साल देश में एसिड अटैक के 1,000 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. आरोपी पकड़े जाते हैं. पुलिस अपना काम करती है. इस के बावजूद लड़की की जिंदगी खराब हो जाती है. एसिड अटैक को ले कर साल 2013 में कानून बना था. यह भी एसिड की शिकार लड़कियों की पूरी मदद नहीं कर पा रहा है. कानून के तहत एसिड हमलों को अपराध की श्रेणी में ला कर भारतीय दंड संहिता की धारा 326ए और धारा 326बी जोड़ी गई. इन धाराओं के तहत कुसूरवार पाए जाने पर कम से कम  10 साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया है.

कुछ मामलों में उम्रकैद का भी प्रावधान रखा गया है.  सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक पीडि़ता की अर्जी पर सुनवाई के दौरान कहा था, ‘एसिड हमला हत्या से भी बुरा है. इस से पीडि़त की जिंदगी पूरी तरह बरबाद हो जाती है.’ इस के बाद एसिड अटैक के पीडि़तों के इलाज और सुविधाओं के लिए भी नई गाइडलाइंस जारी की गई थीं.

सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को एसिड हमले के शिकार को तुरंत कम से कम 3 लाख रुपए की मदद देने का प्रावधान है. पीडि़ता का मुफ्त इलाज भी सरकार की जिम्मेदारी है.  देखने में यह बेहतर लगता है, पर हकीकत में इस को संभालना बहुत मुश्किल होता है. एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगी, इस के बाद भी एसिड मिल रहा है. साल 2018 से साल 2020 के बीच देश में महिलाओं पर एसिड हमलों के 386 मामले दर्ज किए गए थे.

इन में से केवल 62 मामलों के आरोपियों को कुसूरवार पाया गया था. एसिड अटैक की शिकार अपना मुकदमा सही से नहीं लड़ पाती हैं. उन के पास अच्छा वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं. एसिड अटैक की शिकार अंशु बताती हैं, ‘‘एसिड अटैक के बाद जिंदगी बेहद मुश्किल हो जाती है. इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं. सरकार से मिलने वाली मदद लेना बेहद मुश्किल होता है. वह मदद इतनी नहीं होती कि सही तरह से इलाज हो सके.  ‘‘इस के बाद जिंदगी में किसी का साथ नहीं मिलता. एसिड अटैक की शिकार लड़कियों के लिए सरकार को पुख्ता कदम उठाने चाहिए.

अंधविश्वास: कुंडली भाग्य औरतों की फूटी किस्मत

लोग पहले जाति देखते हैं, गोत्र मिलान करते हैं, तनख्वाह देखते हैं, कुंडली खंगालते हैं और देखते हैं कि लड़की का पैर कैसा है. उसे कदम दर कदम चला कर देखते हैं… फिर सवालों की बौछार… खाना बना लेती हो न? सिलाईबुनाई जानती हो न? तुम पढ़ीलिखी कितनी हो, इस से फर्क नहीं पड़ता, पर तुम घर संभाल लोगी न? फिर तय करते हैं कपड़ों के रंगरूप की तरह चरित्र और रूप और फिर जोड़ते हैं एक नया रिश्ता… मनचाही सब्जी खरीद ली हो जैसे… और उस के बाद कहते हैं कि रिश्ता तो ऊपर वाला तय करता है. यह कितने दुख की बात है कि आज भी लोग कुंडली पर विश्वास कर के लड़कियों की जिंदगी को झोंक देते हैं. मेरी सहेली की भी यही आपबीती है‘

मैं आज भी कुंडली के दायरे में बंधी हुई हूं. कभीकभी कोई मुद्दा खड़ा होता है, जैसे अच्छा कारोबार हो जाए तो लड़की के पैर भाग्यशाली हैं, आते ही घर को स्वर्ग बना दिया और जब पति का काम न बने, तो मेरी कुंडली में दोष ढूंढ़ते हैं. ‘इस जमाने में भी कई जगह कुंडली के आधार पर फैसले होते आए हैं. जब मेरी कुंडली मिलाई गई, तब सब ठीक था. शादी हुई तो कुछ दिन सब सही रहा, फिर कुंडली का खेल शुरू. ‘यहांवहां के पंडितों ने पैसा बनाने के चक्कर में मिलान कर दिया था किस्मत का मेरी. शादी के कुछ साल बाद पता चला कि मैं अर्धमंगली हूं. तब से ससुराल का तांडव शुरू.

जब कभी कुछ सही नहीं होता, तो मुझे चार बातें सुननी पड़ती हैं. ‘20 साल में अब बोलने वाले जिंदा नहीं हैं, लेकिन मेरे हमसफर ने कुंडली पर पूरा जीवन निकाल दिया मेरा. ‘यह रत्न पहन लो, वह रत्न पहन लो’, जीवन जैसे मेरा नहीं उन्हीं का है. कभीकभी मन झल्ला उठता है, इस शकुनअपशकुन के बीच.’ अपनी सहेली की बात सुन कर मुझे दुख हुआ. यह सच है कि कुछ अंधविश्वासी लोगों की वजह से घर टूट रहे हैं.

समाधान निकालने की कोई कोशिश नहीं करना चाहता, सुनीसुनाई फालतू की कुरीतियों को कोई नहीं रोकता. यह तो वही बात हो गई, सब्जी की तरह पसंद कर के लड़कियां खरीद लाएं और जब सब्जी खा कर ऊब गए तो शुरू उस की क्वालिटी पर सवालों की बौछार. पर अब समय आ गया है कि आप सभी औरतें खुद को मजबूत बना कर इन सब दायरों से निकलें. बेचारी बन कर रहोगी तो लोग दबा ही देंगे आप की कोमल भावनाओं को, तो निकलें इस दलदल से.

पहले ही जांचपरख कर शादी करें, वरना जिंदगी नरक हो जाती है. दुनिया बदल रही है, तो आप भी इस कुचक्र को तोड़ कर आगे बढ़ें, अपने पैरों पर खड़ी हों, ताकि आगे आप को यह न सुनना पड़े कि ‘तुम मेरे टुकड़ों पर पल रही हो…’ शादी करो तो लड़कालड़की खुद इतने समझदार हों कि अपनी जिंदगी को सुखमय बनाए रखें. लड़कियां इतना याद रखें कि आज के जमाने में बस उसी घर से जुड़ें, जहां आप की इज्जत हो.

कुश्ती में घमासान: नफरत का तूफान

साल 2022 में हुए टोकियो ओलिंपिक खेलों में भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट ने वहां के खेलगांव में रहने और दूसरे भारतीय खिलाडि़यों के साथ ट्रेनिंग करने से मना कर दिया था. इस के साथ ही उन्होंने भारतीय दल के आधिकारिक प्रायोजक ‘शिव नरेश’ की जर्सी पहनने से भी इनकार कर दिया था. उन्होंने अपनी बाउट्स के दौरान ‘नाइक’ के लोगो वाली ड्रैस पहनी थी.

इस के बाद भारतीय कुश्ती महासंघ ने विनेश फोगाट को अस्थाई रूप से निलंबित और सभी रैसलिंग ऐक्टिविटी से प्रतिबंधित कर दिया था. तब यह भी कहा गया था कि विनेश फोगाट जब तक इस पर अपना पक्ष नहीं रखती हैं और भारतीय कुश्ती महासंघ इस पर आखिरी फैसला नहीं लेता है, तब तक वे किसी भी नैशनल या डोमैस्टिक इवैंट में हिस्सा नहीं ले सकेंगी.

इस पूरे मामले पर भारतीय कुश्ती महासंघ को इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन की ओर से फटकार का सामना करना पड़ा था कि वह अपने खिलाडि़यों को कंट्रोल में क्यों नहीं रख पाता है? अब सीधा 18 जनवरी, 2023 पर आते हैं. दिल्ली के ऐतिहासिक जंतरमंतर पर बुधवार को भारत के कई नामचीन पहलवान जमा हुए और उन्होंने भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मोरचा खोल दिया.

धरना देने वाले खिलाडि़यों में बजरंग पुनिया, विनेश फोगाट, साक्षी मलिक समेत 30 नामीगिरामी पहलवान शामिल थे. छरहरे बदन और तीखे नैननैक्श की 28 साला विनेश फोगाट हरियाणा की पहलवान हैं. बचपन में ही उन के पिता राजपाल सिंह फोगाट का देहांत हो गया था. मां प्रेमलता फोगाट ने ही उन का लालनपालन किया था.

5 फुट, 3 इंच कद की विनेश फोगाट ने साल 2014 में हुए कौमनवैल्थ गेम्स में कुश्ती के 48 किलोग्राम भारवर्ग और साल 2018 के कौमनवैल्थ गेम्स में 50 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल अपने नाम किया था. विनेश फोगाट ने साल 2019 में नूर सुलतान वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी कांसे का तमगा जीता था. वे 2 बार की एशियन गेम्स पदक विजेता भी रह चुकी हैं.

उन्होंने साल 2018 के जकार्ता एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल और साल 2014 के इंचियोन एशियन गेम्स में कांसे का तमगा जीता था. नाटे कद की तेजतर्रार पहलवान साक्षी मलिक का जन्म 3 सितंबर, 1992 को हरियाणा के रोहतक में हुआ था. उन के पिता सुखबीर मलिक डीटीसी में बस कंडक्टर और माता सुदेश मलिक एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं.

साल 2016 में ब्राजील के रियो ओलिंपिक खेलों में साक्षी मलिक कांसे का मैडल अपने नाम कर के भारत के लिए ओलिंपिक मैडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बनी थीं. साल 2016 के बाद से साक्षी मलिक के कैरियर में एक लंबा ब्रेक आ गया था. साल 2020 में वे टोकियो ओलिंपिक खेलों के लिए क्वालिफाई करने से भी चूक गई थीं, लेकिन साल 2020 और 2022 की एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने कांसे के 2 मैडल अपने नाम किए थे.

साल 2022 की शुरुआत में ही साक्षी मलिक ने यूडब्ल्यूडब्ल्यू रैंकिंग सीरीज में गोल्ड मैडल जीता था. विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया ने जंतरमंतर पर मोरचा संभाला था. ओलिंपिक मैडलिस्ट बजरंग पुनिया ने भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर बेहूदा शब्दों का इस्तेमाल कर के गाली देने का आरोप लगाया. कई पहलवानों ने उन्हें ‘तानाशाह’ तक करार दिया. विनेश फोगाट ने तो भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगा दिया.

उन्होंने यह भी कहा कि कई और कोच भी यौन उत्पीड़न करते हैं. जंतरमंतर पर जमा हुए पहलवानों का कहना था कि वे इस लड़ाई को आखिर तक लड़ेंगे और बृजभूषण शरण सिंह को पद से हटाने तक चुप नहीं बैठेंगे. विनेश फोगाट ने रोते हुए कहा था, ‘‘प्रैसिडैंट ने मुझे ‘खोटा सिक्का’ बोला. फैडरेशन ने मुझे मैंटली टौर्चर किया. मैं इस के बाद सुसाइड करने की सोच रही थी.’’ बजरंग पुनिया ने कहा, ‘‘महासंघ द्वारा हमें मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है.

फैडरेशन द्वारा एक दिन पहले ही नियम बना लिए जाते हैं. सारी भूमिका प्रैसिडैंट निभा रहे हैं. प्रैसिडैंट हम से गालीगलौज करते हैं. उन्होंने प्लेयर्स को थप्पड़ तक मार दिया था.’’ कुश्ती जगत में हुए इस धमाके से यह साफ हो गया है कि जिस तरह से भारतीय कुश्ती महासंघ का संचालन बृजभूषण शरण सिंह कर रहे हैं, उस से कुश्ती खिलाड़ी तंग आ चुके हैं.

वैसे, बता दें कि बृजभूषण शरण सिंह उत्तर प्रदेश की कैसरगंज लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं. बृजभूषण शरण सिंह अपने इलाके के वे एक दबंग नेता माने जाते हैं. आज की तारीख में उन का असर गोंडा के साथसाथ बलरामपुर, अयोध्या और आसपास के जिलों में काफी बढ़ा है. उन के बेटे प्रतीक भूषण भी गोंडा से भाजपा विधायक हैं.

बृजभूषण शरण सिंह साल 2011 से ही कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष हैं. साल 2019 में वे कुश्ती महासंघ के तीसरी बार अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने 2 साल पहले रांची में भरे मंच पर एक पहलवान को थप्पड़ मार दिया था. भारतीय कुश्ती महासंघ का चुनाव एक निर्वाचक मंडल से होता है.

इस महासंघ की वैबसाइट पर दी गई जानकारी के आधार पर कार्यकारी समिति के पदाधिकारियों और सदस्यों के चुनाव के लिए निर्वाचक मंडल होता है. इस में 26 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 51 सदस्य शामिल होते हैं. धरने पर बैठे बजरंग पुनिया ने साफ किया, ‘‘पहलवान इस तानाशाही को बरदाश्त नहीं करना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रबंधन में बदलाव किया जाए. हमें उम्मीद है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हमारा समर्थन करेंगे.’’ खिलाडि़यों और भारतीय कुश्ती महासंघ के बीच हुए इस घमासान को खेल मंत्रालय ने बहुत गंभीरता से लिया है.

मंत्रालय ने फैडरेशन से 72 घंटे के भीतर इन आरोपों पर जवाब मांगा और ऐसा नहीं करने पर सख्त कार्यवाही की चेतावनी दी. इसी बीच बहुत से पहलवान भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के पक्ष में भी खड़े दिखाई दिए. साल 2010 में कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीतने वाले नरसिंह यादव ने बृजभूषण शरण सिंह की तारीफ की और उन का पक्ष लिया. केरल की पहलवान रोज मार्या और उन की बहन शालिनी भी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में सामने आईं. उन का कहना था, ‘हम दोनों नैशनल मैडलिस्ट हैं.

हम साल 2014 में लखनऊ के सांईं सैंटर में हुए नैशनल कैंप का हिस्सा थीं. हम वहां पूरी तरह से सेफ थीं. हमें वहां कोई समस्या नहीं हुई. इस के लिए हम रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया की शुक्रगुजार हैं.’ इस पूरे मसले पर कौन कितना सच्चा या झूठा है, यह तो जांच समिति की रिपोर्ट आने से पता चलेगा. हालांकि जब तक रिपोर्ट आएगी, तब तक कुश्ती मैट फट चुके होंगे.

सोशल मीडिया पर बवाल भारत के मुक्केबाज विजेंदर सिंह ने धरने पर बैठे पहलवानों का समर्थन करते हुए फेसबुक पर एक फोटो डाला था, तो उस के एक कमैंट में एक यूजर ने लिखा, ‘बृजभूषण बोल रहा है कि एक जाति विशेष के पहलवान धरने पर बैठे हैं, उस को बोलो कि मैडल भी तो जाति विशेष के पहलवान ही लाए थे.’ यहां जाति विशेष का मतलब जाट से है.

इस कमैंट के जवाब में दूसरे यूजर ने लिखा, ‘विनेश फोगाट, बजरंग पुनिया, साक्षी मलिक जैसे खिलाडि़यों को शर्म आनी चाहिए, जो नए खिलाडि़यों की चुनौतियां स्वीकार करने के बजाय बेबुनियाद आरोप संघ अध्यक्ष पर लगा रहे हैं. एक और यूजर का कहना था, ‘हर खेल का नियम है कि नए खिलाड़ी आने पर पुराने खिलाडि़यों को रिटायर होना पड़ता है. अपनी कमजोरी छिपाने के लिए अनावश्यक दबाव बनाने के लिए भारतीय कुश्ती संघ को बदनाम कर रहे हैं.

मेरा इन खिलाडि़यों के प्रति सम्मान है, किंतु इन्हें अपने स्वार्थ के लिए संघ को बदनाम नहीं करना चाहिए…’ किसी यूजर ने लिखा, ‘खास वर्ग को तकलीफ है. जय राजपुताना.’ एक यूजर ने इस तरह अपनी भड़ास निकाली, ‘ब्रजभूषण के बयान से जाहिर है, उन्हें परेशानी एक खास वर्ग से ही है. उन का बयान उन की मानसिकता का साफ चित्रण करता दिख रहा है. जब हम मैडल ले कर आते हैं तो हिंदू और अब सिर्फ जाट. वाह रे, ब्रजभूषण.’ ये तो चंद उदाहरण हैं, जबकि सोशल मीडिया पर ऐसी न जाने कितनी अनर्गल बातें चल रही थीं, जो हमारी जनता की सोच को सामने ले आईं. यह एक खतरनाक ट्रैंड है.

फेसबुक बनी अधकचरी सैक्स बुक

सैक्स बुक

  •  सवाल : क्या खिलाने से लड़कियां सैक्स करने को तैयार हो जाती हैं?
  • जवाब : आंवला खिलाने से.
  • सवाल : अंग पर क्या लगा कर सैक्स में ज्यादा देर तक टिका रहा जा सकता है?
  • जवाब : नीबू व शहद लगाने से.
  • सवाल : योनि पर थप्पड़ मारने से क्या होता है?
  • जवाब : लड़की जल्दी डिस्चार्ज नहीं होती है.

येऔर ऐसे सैकड़ों बेमतलब के और बेहूदा सवाल फेसबुक पर पूछे जाते हैं, जिन का हकीकत और विज्ञान से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं होता है. सैक्स के नाम पर कचरा परोसती बातें फेसबुक पर इफरात से मौजूद हैं. इन्हें पढ़ और देख कर सिर पीट लेने का मन करने लगता है.

एक अंदाजे के मुताबिक, देशभर में तकरीबन 35 करोड़ लोग फेसबुक इस्तेमाल करते हैं और अब ज्यादातर लोग सैक्स के छोटेछोटे वीडियो देखने के लिए लौगइन करते हैं. इस के अलावा फेसबुक पर पोर्न फिल्मों की भी भरमार है, जो ज्यादा हर्ज की बात नहीं है, लेकिन बीते कुछ समय से सैक्स के सवालजवाब वाले वीडियो लोग ज्यादा देख रहे हैं.

ये वीडियो मशहूर टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की तर्ज पर होते हैं, जिन में एक सवाल पूछ कर 5 सैकंड यूजर को दिए जाते हैं. यूजर बड़ी दिलचस्पी से अपने अंदाजे के बाद जवाब सुनता है तो हैरान रह जाता है कि ऐसा कैसे हो सकता है. यह तो सरासर बेवकूफी वाली बात है.

मिसाल के तौर पर, योनि पर थप्पड़ मारने वाले जैसे सवाल ही अपनेआप में हिंसक होते हैं. जवाब बनाने वालों ने यह भी नहीं सोचा कि लड़की का प्राइवेट पार्ट बहुत नाजुक होता है, जिस पर थप्पड़ मारने से उसे कितनी तकलीफ होगी. यह तो वह लड़की ही बता सकती है, जिस के प्राइवेट पार्ट पर थप्पड़ मारा जाए.

हैरानी नहीं होनी चाहिए कि दर्द से तिलमिलाती और बिलबिलाती लड़की गुस्से में लड़के के प्राइवेट पार्ट पर लात मार दे. फिर न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी वाली कहावत की तर्ज पर न हमबिस्तरी होगी, न दोनों में से कोई डिस्चार्ज होगा.

हां, मुमकिन यह है कि दोनों में से कोई एक या दोनों ही पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाते या डाक्टर के यहां इलाज कराते दिखें.

अब अगर कोई लड़का अपने अंग पर नीबूशहद लगाएगा, तो दर्द और जलन से आधा हो जाएगा, क्योंकि लड़कों का प्राइवेट पार्ट भी लड़कियों के प्राइवेट पार्ट से कम नाजुक नहीं होता.

एक और सवाल के जवाब में बताया जा रहा है कि शराब पीने से वीर्य जल्दी नहीं गिरता है, जबकि हकीकत में शराब पिया हुआ आदमी जल्दी डिस्चार्ज हो जाता है और उस ने अगर ज्यादा चढ़ा रखी हो तो बिस्तर पर ही डिस्चार्ज हो जाता है, क्योंकि नशे में धुत्त रहने के चलते उसे कुछ सूझता ही नहीं.

होश वाले जरूर एक सवाल के जवाब के मुताबिक अंग पर तिल का तेल लगा कर सैक्स करें, तो वीर्य उन की मरजी से गिरने की गारंटी रहती है. अब कौन किस के सामने जा कर दुखड़ा रोए कि तिल और सांडे के तेल से भी चौथी ड्राइव में फुस हो गए थे. वीर्य ने मरजी की परवाह ही नहीं की, जिस से भद्द पिट गई पार्टनर के सामने.

तो फिर क्यों देखते हैं लोग

यह ठीक वैसी ही बात है, जैसी यह कि लोग सैक्स क्यों करते हैं? दरअसल, हमारे देश और समाज में सैक्स की चर्चा को यों बुरा समझा जाता है मानो यह कोई पाप हो, जबकि हर कोई जानता है कि सैक्स भोजन के बाद जिंदगी की दूसरी बड़ी जरूरत है.

एक उम्र के बाद लड़केलड़कियां कुदरती तौर पर इस के बारे में जानने को मजबूर और बेचैन हो जाते हैं और जहां से उन्हें जानकारी मिलती है, वे उस पर टूट पड़ते हैं.

इंटरनैट के इस दौर में लोग खासतौर से कम उम्र के लड़के व लड़कियां अगर इसी के लिए फेसबुक भी खोलने लगे हैं, तो इस में हैरत की कोई बात नहीं है. जब वीडियो नहीं होते थे, तो नौजवान चोरीछिपे सैक्स से जुड़ी पत्रिकाएं और किताबें खरीद कर पढ़ते थे.

कहीं पकड़े न जाएं, इस का जरा सा भी खटका होता था, तो किताब या मैगजीन तोड़मरोड़ कर पाजामे या बिस्तर में छिपाना पड़ता था, लेकिन अब स्मार्टफोन पर ऐसा कोई खतरा नहीं है. जरा सी भी आहट हो तो बैक हुआ जा सकता है.

उस दौर में लड़के अपने दोस्तों से और लड़कियां अपनी भाभी, मामी, मौसी या शादीशुदा सहेलियों से सैक्स से जुड़ी जानकारियां शेयर करती थीं, पर अब ये सिलसिले और रिश्ते गांवदेहात तक में इंटरनैट ने छीन लिए हैं.

पर अफसोस की बात आज भी यह है कि इन ख्वाहिशमंदों को आज भी सटीक और सही जानकारी कहीं से नहीं मिल रही है. सोशल मीडिया, जो जानकारी पाने का सब का एकलौता सहारा हो चला है, के तमाम प्लेटफार्म उन्हें पोर्न वीडियो तो दिखा रहे हैं, लेकिन यह नहीं बता रहे हैं कि सैक्स कोई हौआ नहीं है और न ही हमबिस्तरी में ज्यादा पहलवानी दिखाना कोई मर्दानगी की बात है.

अगर आप सैक्स के बारे में अच्छी और सही जानकारी देने वाली किताबें और पत्रिकाएं पढ़ेंगे, तो कभी परेशान या चिंतित नहीं होंगे, फिर तनाव होना तो दूर की बात है, क्योंकि ये किताबें और पत्रिकाएं समाज के जिम्मेदार लोग छापते और बेचते हैं, जो किसी भी कीमत पर लोगों को गुमराह नहीं कर सकते.

इन की पहचान बहुत आसान है कि ये नामी बुक स्टोर्स पर मिलती हैं और रैगुलर मिलती हैं. मुनाफा कमाना इन का एकलौता मकसद नहीं होता है.

भोपाल के न्यू मार्केट इलाके में छोटी सी गुमटी लगाने वाले दुर्ग से आए नौजवान विकास का कहना है कि वह फेसबुक वगैरह पर जब भी सैक्स संबंधित जानकारियां ढूंढ़ने की कोशिश करता है, तो ऐसे पेज या वीडियो तुरंत सामने आ जाते हैं और वह इन्हीं में भटक कर रह जाता है. बहुत कम पेज या वीडियो ऐसे मिलते हैं, जो उस के सवालों के ठीकठीक जवाब दे पाएं.

परेशानी में डालती गलत जानकारियां

विकास को नहीं पता कि मर्द के अंग की औसत लंबाई कितनी होती है या कितनी होनी चाहिए. इस बाबत जब उस ने फेसबुक खंगाला, तो ऐसे विज्ञापनों की भरमार थी, जो अंग के मजबूत, बड़े और कड़े होने का दावा कर रहे थे.

विकास ने रात को बाथरूम में अपना अंग नाप कर देखा तो वह 5 इंच से कुछ कम निकला, जिसे ले कर वह टैंशन में आ गया और उसे अपना अंग औरों से छोटा लगने लगा, जबकि उस ने किसी और का अंग कभी नाप कर नहीं देखा था. 2 दिन बाद ही उस ने एक मालिश वाला तेल और्डर कर दिया.

महीनेभर बाद विकास ने फिर अंग नापा, तो वह पिछली बार जितना ही निकला, जिस से

उसे समझ आया कि वह उल्लू बन गया है और चायसमोसे बेच कर वह जो लगभग 1,000-500 रुपए के बीच कमाता था, उन में से एक दिन की कमाई इस तेल की बलि चढ़ गई है.

फिर भी विकास कहता है कि रोजाना की मालिश से यह फायदा तो हुआ कि अंग जल्दी जोश में आ जाता है और थोड़ा साफ व गोरा भी दिखने लगा है.

बात केवल ऐसी एक सवाल की नहीं, बल्कि जिज्ञासाओं से भरे सैकड़ों सवालों की है, जिन के जवाब करोड़ों विकासों को चाहिए.

सैक्स और हमबिस्तरी से ताल्लुक सही जानकारियां न मिलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितनी यह है, कि गलत जानकारियों को लोग सही समझ कर अमल में लाने लगते हैं.

इश्तिहारों के लिए है कचरा

सैक्स के प्रोडक्ट बेचने वाले अब औनलाइन सक्रिय हो कर धंधा कर रहे हैं. इस चक्कर में कई बार सही इश्तिहार गलत और गलत इश्तिहार सही समझ लिए जाते हैं.

मिसाल फेसबुक की ही लें, तो जान कर हैरानी होती है कि इश्तिहारों से उस की आमदनी प्रति घंटा 100 करोड़ रुपए है और उस की इश्तिहार पौलिसी में सबकुछ जायज है.

पोर्न फिल्मों और सवालजवाब वाले सैक्सी वीडियो के बीच सब से ज्यादा इश्तिहार दिखाए जाते हैं और अकसर उसी समय दिखाए जाते हैं, जब वीडियो या तो क्लाइमैक्स पर होता है या उस में यह इशारा कर दिया जाता है कि इश्तिहार के बाद वाले सीन में वह सब दिखाया जाने वाला है, जिस के लिए आप ने वीडियो देखना शुरू किया है. तो यूजर इश्तिहार भी देख लेता है, जिस से आमदनी फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों की बढ़ती है.

ये इश्तिहार ज्यादा बड़े भी नहीं होते, इसलिए भी यूजर इन्हें नहीं हटाता. ज्यादातर इश्तिहारों में लड़की का सवाल पूछना भी लोगों को भाता है, जो नाजुक अंगों और हमबिस्तरी के लिए बेहिचक चालू शब्दों का इस्तेमाल करती है.

नतीजतन, धीरेधीरे लोग इन इश्तिहारों पर भरोसा करने लगते हैं और प्रोडक्ट कभी न कभी और्डर कर ही देते हैं. अब इन में से कितने इश्तिहार असरदार हैं और कितने बेकार हैं, इस का कोई पैमाना किसी के पास नहीं है, क्योंकि सारे प्रोडक्ट औनलाइन ही मंगाए जाने का इंतजाम रहता है, इसलिए ठगे गए या लुटेपिटे लोग किसी से शिकायत भी नहीं कर पाते हैं, जिस से बेचने वाला और फेसबुक अपनी तिजोरी भरते खुश होते रहते हैं और सैक्स के नाम पर नएनए प्रयोग करते रहते हैं, जिस से उन का फेस खिला रहे.

भोपाल के एक नामी वकील का कहना है कि लोग कोई दूसरा घटिया प्रोडक्ट मिलने पर तो उपभोक्ता फोरम में दावा ठोंक देते हैं, जिन में सैक्स प्रोडक्ट का एक भी दावा नहीं होता, क्योंकि इस से उन की पहचान और बात उजागर होगी और उन की ही जगहंसाई होगी.

एक 50 पैसे के आंवले में अगर लड़की पट कर हमबिस्तारी करने के लिए तैयार नहीं होती है, तो लोग कहां जा कर शिकायत करेंगे. ऐसे टोनेटोटकों से लोगों को खुद ही आगाह रहना पड़ेगा.

इस से तो बेहतर है कि लोग सैक्स संबंधी जानकारियां वहीं से लें, जहां से दूसरी जानकारियां भी सच्ची वाली मिलती हों और जो सिर्फ तगड़े मुनाफे के लिए सैक्स और उस से जुड़े प्रोडक्ट का ही कारोबार न करते हों.

विवाद: क्या गलत कहा चंद्रशेखर ने ! धार्मिक जकड़न और शिकंजे से घबराते दलित

32साला ओंकार रजक (बदला हुआ नाम) भोपाल के एक पौश इलाके में लौंड्री चलाते हैं, जिस से उन्हें तकरीबन 50,000 रुपए महीने की आमदनी हो जाती है. अब से 14 साल पहले ओंकार रजक अपना गांव छोड़ कर भोपाल आ बसे थे. उन के मातापिता दोनों वहीं कपड़े धोते थे, लेकिन तब धोबी से कपड़े धुलवाने का रिवाज गांव में ऊंची जाति वालों तक ही सिमटा था.

ओंकार रजक को बखूबी याद है गांव का वह नजारा, जब मांबाप दोनों सुबह से ब्राह्मण, ठाकुर, बनियों और कायस्थों के घरघर जा कर कपड़ों की पोटली लेते थे और दिनभर तालाब पर धो कर सुखाते थे. फिर शाम को इस्तरी कर के वापस आते थे.

सब लोग उन्हें धोबी ही कहते थे. तब यह बुरा मानने वाली बात नहीं होती थी. या यों कह लें कि इस की इजाजत नहीं थी. ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘मेरे पापा इसी बात से खुद को तसल्ली दे लेते थे कि गांव में उन से छोटी जाति वाले लोग भी हैं, जिन्हें कोई छूता भी नहीं. इस बिना पर वे खुद को लाख गुना बेहतर मानते थे.’’

फिर एक दिन स्कूल में साथ के बच्चे ने ओंकार रजक को चिढ़ाते हुए यह कह दिया, ‘अबे, धोबी का बच्चा है. जिंदगीभर हमारे कपड़े ही धोएगा, तो पढ़लिख कर क्या करेगा’.

यह बात ओंकार रजक के कलेजे में चुभ गई. पिता से कहा, तो उन्होंने समझाया कि भाग्य और होनी टाली नहीं जा सकती. तुझे जिंदगी में कुछ बनना है, तो दिल लगा कर पढ़. पैसों की चिंता मत कर, वह हम कपड़े धो कर कमाएंगे. तू कुछ बन जाएगा, तो ठाट से शहर में रहेंगे.

यह बात ओंकार रजक को समझ आ गई और वे भोपाल आ कर पढ़ने लगे. लेकिन बीकौम करते समय एक साल के अंतर पर मांबाप दोनों चल बसे, तो उन्होंने गांव से डेराडंगर समेटा और भोपाल में ही इस्तरी करने की दुकान खोल ली और लोगों के कपड़े धोतेधोते ही लौंड्री शुरू कर दी, जो चल निकली.

अपने 8 साल के बेटे बिट्टू को ओंकार रजक एक महंगे स्कूल में एक खास मकसद से पढ़ा रहे हैं. वह मकसद या सपना वही है, जो उन के पिता का उन को ले कर था.

‘धोबी का बच्चा’ ताने से जो बेइज्जती ओंकार रजक को सालों पहले महसूस हुई थी, वह आज भी कभीकभी अंदर तक साल जाती है. जिस दिन वह वाकिआ उन्हें याद आ जाता है, उस दिन निवाला भी गले के नीचे नहीं उतरता.

भोपाल में ओंकार रजक ने इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना शुरू किया कि आखिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाए किस ने? अगर भगवान ने बनाए तो उस ने भी भेदभाव ही किया, जो आज तक जारी है और जिस के बारे में आज भी कहा जाता है कि यह भेदभाव तो कब का खत्म हो गया है.

ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘जब मैं टीटी नगर में पेड़ के नीचे ठेला लगा कर कपड़े इस्तरी करता था, तब खाली समय में किताबों और मैगजीनों में इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ा करता था, लेकिन वह कहीं नहीं मिला.’’

फिर एक दिन एक किताब ओंकार रजक को एक खाली होते मकान से मिली, जिस का नाम था, ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’. ओंकार रजक ने यह किताब कई बार पढ़ी और कुछ दिन में ही उन्हें समझ आ गया कि यह सब धर्मग्रंथ लिखने वाले ब्राह्मणों की करतूत है, जो देवीदेवताओं, पापपुण्य, कभी ज्योतिष, तो कभी मंदिर के नाम पर पैसा बटोरा करते हैं और समाज में ऊंचनीच और जाति के नाम पर उस के टुकड़ेटुकड़े किए हुए हैं, लेकिन कोई उफ भी नहीं करता.

जब चंद्रशेखर का बयान पढ़ा

‘‘हम धोबी शूद्रों में शुमार किए जाते हैं, फिर भले ही जातिगत आरक्षण में ओबीसी में गिने जाते हों और हमें छूने से किसी को पाप न लगता हो या उस का परलोक न बिगड़ता हो,’’ ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘होश संभालने के 18 साल तक हर कहीं मैं यह सुनता और पढ़ता रहा कि धर्मग्रंथों ने वर्ण व्यवस्था के इंतजाम किए हैं.

‘‘‘मनुस्मृति’ में ऐसा और वैसा लिखा है कि हम दलित या शूद्र कुछ भी कह लें, इस का विरोध करते हैं. आखिर हम भी

2 हाथपैर, एक पेट और गरदन, छाती, सिर वाले इनसान हैं, फिर हमें निचले पायदान पर क्यों खड़ा किया गया है?’’

ऐसी ही कशमकश में समय गुजरता गया. फिर पिछले दिनों ओंकार रजक ने अपने स्मार्टफोन पर खबर पढ़ी, जिस से उन का मन एक बार फिर कसैला हो गया और गैरत जाग उठी.

यह खबर बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के एक भाषण का हिस्सा था, जो उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में दिया था. उन्होंने प्रमुखता से कहा था कि ‘मनुस्मृति’ में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं. ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं. एक युग में ‘मनुस्मृति’, दूसरे युग में ‘रामचरितमानस’, तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का ‘बंच औफ थौट’ ये सभी देश व समाज में नफरत बांटते हैं. नफरत कभी देश को महान नहीं बनाएगी. देश को केवल मुहब्बत महान बनाएगी.

नफरत और मुहब्बत शब्द सुन कर ओंकार रजक को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ याद आ गई, जिस में वे भी यही सब नफरत और मुहब्बत की बात कह रहे थे, बस धर्मग्रंथों का नाम नहीं ले रहे थे, जिस की भरपाई चंद्रशेखर ने यह कहते हुए की कि मैं उस श्रीराम की पूजा करता हूं, जो माता शबरी के जूठे बेर खाते हैं, मां अहिल्या के मुक्तिदाता हैं, जो जीवनभर नाविक केवट के ऋणी रहते हैं, जिन की सेना में हाशिए के समूह से आने वाले वन्य प्राणी वर्ग सर्वोच्च स्थान पर रहते हैं.

फिर चंद्रशेखर ने कहा कि मैं उस ‘रामचरितमानस’ का विरोध करता हूं, जो हमें यह कहता है कि जाति विशेष (ब्राह्मणों) को छोड़ कर बाकी सभी नीच हैं, जो हम शूद्रों और नारियों को ढोलक के समान पीटपीट कर साधने की शिक्षा देता है, जो हमें गुणविहीन विप्र की पूजा करने और गुणवान दलित शूद्र को नीच समझ कर दुत्कारने की शिक्षा देता है.

चंद्रशेखर यहीं चुप नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कहा कि माता शबरी के जूठे

बेर खाने वाले श्रीराम अचानक ‘रामचरितमानस’ में आते ही इतने जातिवादी कैसे हो जाते हैं. किस के फायदे के लिए राम के कंधे पर बंदूक रख कर ये ठेकेदार चला रहे हैं. यही ठेकेदार हैं, जो एक राष्ट्रपति को जगन्नाथ मंदिर में घुसने से रोकते हैं, जीतनराम मांझी के मंदिर में जाने पर उसे धोते हैं.

ओंकार रजक को समझ आ गया कि ये सभी बातें हालांकि काफी पुरानी हैं, ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ में भी उस ने पढ़ी हैं और सदियों से कही जा रही हैं और हर बार थोड़ा हल्ला मचने के बाद टांयटांय फुस हो जाती हैं.

न जाने क्यों ओंकार रजक को लगने लगा कि उस के बेटे को सांप कहते दुत्कारा जाएगा. इस बार मामला तूल पकड़ रहा है, क्योंकि इस सच को बोलने के एवज में चंद्रशेखर की जीभ काटने वाले को 10 करोड़ रुपए दिए जाने का ऐलान अयोध्या से हो चुका है. वहां के संत जगद्गुरु परमहंस आचार्य ने यह तगड़ा इनाम रखा है. इस संत ने चंद्रशेखर को मंत्री पद से हटाने की मांग भी की, जिस पर किसी ने कान नहीं दिए.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चालाकी से इस मुद्दे को टरका गए, तो राजद, जिस के कोटे से चंद्रशेखर विधायक और मंत्री हैं, ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि यह उन की निजी राय है, लेकिन अच्छी बात यह है कि चंद्रशेखर अपने कहे पर कायम हैं.

दिल्ली समेत बिहार के सभी जिलों में भाजपा उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा चुकी है. देशभर के संत, महंत और शंकराचार्य चंद्रशेखर को कोसते हुए शाप सा दे रहे हैं कि उन्होंने ब्राह्मणों

और धर्मग्रंथों का अपमान किया है. लिहाजा, उन्हें अपने कहे की सजा मिलनी ही चाहिए.

इस ड्रामे पर ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘चंद्रशेखर को तो बजाय सजा के इनाम मिलना चाहिए, क्योंकि उन्होंने धर्मग्रंथों में लिखे सच को समाज के सामने ला दिया है.

‘‘अब पंडेपुजारियों यानी ठेकेदारों की बारी है कि वे इसे झूठ या गलत साबित करें, लेकिन दलीलों से करें, ‘ताड़ना’ शब्द का मतलब सीखना या सिखाना न बताएं. बात को तोड़ेंमरोड़ें नहीं. तुलसीदास की मंशा देखें. अगर वह पाकसाफ होती तो सिखाया ब्राह्मणों और क्षत्रियों को भी जाना चाहिए. शूद्र और नारी की तुलना ढोल और गंवार से ही क्यों की गई? इसलिए कि उन्हें नीचा दिखाना था और विरोध इसी बात को ले कर है.

‘‘हम नीची जाति वाले किस बिना पर सांप कहे जा रहे हैं और ब्राह्मण किस बिना पर श्रेष्ठ कहे जा रहे हैं? क्या इस बिना पर कि वे ऊंचे और हम नीच कुल में पैदा हुए हैं? ये कुल और जातियां बनाए किस ने? इस बात का जवाब परमहंस को मंच से देना चाहिए.

‘‘अगर पिछले जन्म के पापों के चलते हमें नीच मान लिया गया है, तो हम इन धर्मग्रंथों के सच तो दूर की बात है, वजूद से ही सरासर इनकार करते हुए एक बार फिर इन्हें जला देने की सिफारिश करते हैं, जिस से यह झगड़ा ही खत्म हो जाए और सभी जाति के लोग खुद को गर्व से हिंदू कहें, जैसा कि आरएसएस वाले भी आएदिन कहते रहते हैं और भाजपा वाले भी, लेकिन वे सिर्फ कहते हैं, करते इस बाबत कुछ नहीं…’’

ओंकार रजक तैश में कहते हैं, ‘‘यह विवाद या झगड़ा इन किताबों के जिंदा रहते तो कभी नहीं सुलझ सकता.’’

स्वामी भी बोले

मामला शांत हो पाता, इस के पहले ही उत्तर प्रदेश के सीनियर समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भी इस जंग में 22 जनवरी, 2023 को कूद पड़े. उन्होंने कहा कि ‘रामचरितमानस’ में लिखा है कि ब्राह्मण भले ही दुराचारी, अनपढ़ हो, उस को पूजनीय कहा गया है, लेकिन शूद्र कितना भी ज्ञानी हो, उस का सम्मान मत कीजिए. क्या यही धर्म है?

जो धर्म हमारा सत्यानाश चाहता है, उस का सत्यानाश हो. ‘रामचरितमानस’ एक बकवास ग्रंथ है. इस पर रोक लगनी चाहिए या फिर इस के आपत्तिजनक अंश को हटा देना चाहिए.

बागेश्वर धाम पर हमला

यह वह समय था जब पूरा देश खबरिया चैनलों पर बाबा बागेश्वर धाम यानी धीरेंद्र शास्त्री के चमत्कार को देख रहा था. ओंकार रजक की मानें, तो जब ऊंची जाति वाले कट्टर होते हैं और इस यानी हिंदुत्व के बाबत सारे संतमहंत और शंकराचार्य एकजुट हो जाते हैं, तो सब से ज्यादा घबराहट हम दलितों को होती है, क्योंकि हम को लगने लगता है कि ये लोग मिल कर मनुवादी व्यवस्था को फिर से थोप रहे हैं और आड़ धर्मांतरण और घरवापिसी की ले रहे हैं.

दिक्कत तो यह है कि देश में एक करंट सा दौड़ जाता है, जब सभी ब्राह्मण बाबा होहो करते हुए हिंदुत्व की वकालत करने लगते हैं. उस हिंदुत्व की, जिस में हमारी जगह या तो है ही नहीं और अगर है भी तो सब से नीचे है, क्योंकि हमें ब्रह्मा के पैर से पैदा होना बता कर सदियों तक गुलामी करवाई गई है. हमारी औरतों की इज्जत लूटी गई है. हम से जानवरों सरीखा बरताव किया गया है.

ये लोग फिर वही चाहते हैं, क्योंकि मोदीजी के आने के बाद से हिंदुत्व का करंट और फैला है. निजीतौर पर तो मुझे लगता है कि मेरे बिट्टू को धोबी कह कर दुत्कारने और बेइज्जत करने का जाल बुना जा रहा है, जिस से वह भी हिम्मत छोड़ दे. पढ़ाई तो फिर अपनेआप छूट ही जाएगी. ऐसे माहौल में कोई दलित बच्चा कैसे पढ़ सकता है?

शायद इस बात का एहसास स्वामी प्रसाद मौर्य को है, जो उन्होंने 26 साल के जवान, भगवान से भी ज्यादा पुज रहे धीरेंद्र शास्त्री पर हमलावर होते हुए कहा कि यह देश का दुर्भाग्य ही है कि धर्म के ठेकेदार ही धर्म को बेच रहे हैं. तमाम सुधारकों की कोशिश से देश आज तरक्की के रास्ते पर है, लेकिन ऐसी सोच वाले बाबा समाज में रूढि़वादी परंपराओं और अंधविश्वास पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं.

धीरेंद्र शास्त्री ढोंग फैला रहे हैं. ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए, जो संविधान की भावनाओं को आहत करते हैं. जब तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ लिखी, तब औरतों और दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था. इन्हें पढ़ने का अधिकार तो अंगरेजों ने दिया.

स्वामी प्रसाद मौर्य ने जोरदार दलीलों के साथ कहा कि जब सभी बीमारियों की दवा बाबा के पास है, तो सरकार बेकार में मैडिकल कालेज अस्पताल चला रही है. सभी लोग बाबा के यहां जा कर दवा ले लें.

उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की एक चौपाई का जिक्र किया कि ‘जे बरनाधम तेली कुम्हारा स्वपच किरात कोल कलवारा’. इन में जिन जातियों का जिक्र है, वे हिंदू धर्म को मानने वाली हैं. इस में सभी जातियों को नीच और अधम कहा गया है.

कहां जा रहा देश

इन दिनों देश में यही सब हो रहा है, जिस का आम लोगों की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं, उलटे ध्यान बंटाने के लिए फर्जी धार्मिक समस्याएं पेश की जा रही हैं, जिन से सवर्ण हिंदुओं को छोड़ कर बाकी सभी दहशत में हैं कि अब जाने क्या होगा.

धीरेंद्र शास्त्री खुलेआम देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर चुका

है, जिस का समर्थन सभी साधुसंत कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपनी दुकान और चमकने की गारंटी है.

ऐसे में चंद्रशेखर और स्वामी प्रसाद मौर्य दलित हितों और हक समेत उन की धार्मिक दुर्दशा की बात कर रहे हैं, तो उन के पास दलित राजनीति का लंबा अनुभव है, जिन की मंशा पर इसलिए भी सवाल खड़े नहीं किए जा सकते हैं कि आसपास खासतौर से बिहार और उत्तर प्रदेश में कोई चुनाव भी नहीं हैं, इसलिए मुमकिन है कि वे अपने तबके के लोगों को आने वाले खतरों से आगाह कर रहे हों.

लेकिन ओंकार रजक की मानें, तो यह माहौल राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की कामयाबी से लोगों का ध्यान भटकाने की साजिश है, जिस से भाजपा बौखला गई है.

सामाजिक आजादी बिना अधूरी है आजादी

आजाद भारत केवल वह सपना नहीं था, जिस में देश को अंगरेजों की गुलामी से आजाद कराने का रास्ता तय करना था, बल्कि यह सपना उस आजादी का भी था, जिस में देश के हर नागरिक को इज्जत से जीने का हक हासिल हो सके.

आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी इस बात को आज कोई भी दावे से नहीं कह सकता है कि देश के हर नागरिक को इज्जत की जिंदगी जीने का हक हासिल है.

इस देश में आज भी गरीब आदिवासी और पिछड़ेदलित अपनी इज्जत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. आदिवासियों को आज भी यह भरोसा नहीं है कि उन के जल, जंगल और जमीन में वे रह सकेंगे.

जिस तरह आजादी के बाद की सरकारों ने तरक्की के नाम पर खेती की जमीनों के कब्जे को बढ़ावा दिया है और आदिवासियों को उन की जगह से जबरन हटाया है, उस से उन कीदहशत सामने आई है.

यह कैसा आजाद देश है, जहां की दोतिहाई से ज्यादा आबादी एक दिन में 50 रुपए भी नहीं कमा पाती है? आजादी के इतने साल बाद भी गरीबी, बेरोजगारी, पढ़ाईलिखाई, इंसाफ देश के सामने बड़े सवाल बन कर खड़े हैं. जिन क्षेत्रों में तरक्की हुई दिखाई पड़ती है, वहां पर भी भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद ने आम लोगों की राह रोक रखी है.

आखिर इस देश में एक रिकशे वाले, एक मजदूर, एक गरीब या खेती करने वाले के बच्चों को भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुना जाना या खेल में इंटरनैशनल लैवल पर मैडल लाना महिमामंडन वाली खबरें क्यों हैं? वजह, हम ने देश में उस ढांचे का विकास ही नहीं किया है, जिस में देश के अमीर और गरीब दोनों के बच्चों के लिए बराबरी के मौके और सुविधाएं मुहैया हों.

देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों का बचपन ही भेदभाव से रूबरू करा देता है. एक तरफ सारी सुविधाओं से लैस अंगरेजी भाषा वाला बचपन होता है, जिस की पढ़ाईलिखाई सत्ता की भाषा में होती है. वहीं दूसरी तरफ नंगे पैर वाला टाटपट्टी पर इलाकाई भाषा में पढ़ने वाला बचपन, जो प्रतियोगी माहौल में पहुंचने पर पाता है कि उस ने जिस भाषा में लिखापढ़ा है, वह भाषा न तो बड़ीबड़ी कंपनियों में चलती है और न ही सार्वजनिक उपक्रमों में.

यहां तक कि उस भाषा में बड़ी अदालतों में भी न तो याचिका दाखिल की जा सकती है और न ही बहस की जा सकती है. इस का मतलब तो यही है कि इंसाफ पाने के अधिकार से ले कर आजीविका तक के अधिकार से देश की एक बड़ी आबादी दूर है.

एक गरीब के लिए इंसाफ की पहली लड़ाई न्यायपालिका के रूढि़वादी कानूनी तरीकों और जजों से निबटने से ही शुरू हो जाती है. जनता और न्यायपालिका के बीच बहुत दूरी है. इस देश में अभी भी उन्हीं कानूनों से जनता को हांका जा रहा है, जिसे अंगरेजों ने 19वीं सदी में बनाया और लागू किया था.

हमारे देश की पुलिस और न्यायपालिका कानून व्यवस्था की अंगरेजी प्रणाली और सोच से आज भी नहीं उबर सकी हैं. गुनाह और सजा से रिश्ता सिर्फ ऐसे लोगों का है, जिन के पास पैसा नहीं है, जिन का कोई रसूख नहीं है और जो काफी मेहनत कर के भी जिंदगीभर गरीबी की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

सवाल उठता है कि अगर महज 8 से 10 साल के भीतर गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइटें देश की हर भाषा में बात करने की भाषाई क्रांति ला सकती हैं, तो आधुनिकतम संसाधनों, तकनीकों और सुविधाओं से लैस हमारी संसद क्यों नहीं?

सोशल साइटों की भाषाई क्रांति ने साबित कर दिया है कि भाषा के मामले में हम ने अंगरेजी के दबदबे को कायम रखने के लिए देश की जनता के साथ तकरीबन 70 साल से धोखा किया है.

आज आम परिवार के बच्चों का राजनीति में आना मुश्किल हो गया है. परिवारवाद की राजनीति का कोढ़ देश की हर पार्टी में फैल चुका है और आलम यह?है कि देश की जनता को आज गुमराह किया जा रहा है कि देश में युवा नेतृत्व आ रहा है. किसे नहीं पता कि

यह युवा नेतृत्व नहीं, बल्कि परिवार नेतृत्व है. देश की सारी समस्याएं और मुद्दे छोड़ कर राजनीतिक दल धर्म और क्षेत्र की राजनीति करने में लगे हैं. आज किसी क्षेत्र के प्रतिनिधि, सांसद या विधायक की अपनी आवाज का कोई वजूद नहीं है. अगर पार्टी नहीं चाहती?है, तो वह सदन में किसी विधेयक पर अपनी निजी राय भी नहीं रख सकता है.

वैसे, इस की शुरुआत तो टिकट के बंटवारे के साथ ही हो जाती?है. इस से बड़ी खतरनाक बात क्या होगी कि जो लोग जनता की नुमाइंदगी नहीं हासिल कर पाते हैं, उन्हें भी सरकार में शामिल कर लिया जाता है.

देश आजाद हो गया है, लेकिन उस के साथ आजाद हुए केवल अमीर और रईस लोग. किस सरकार में दम है कि इन के हितों के खिलाफ जा कर भूमि सुधार लागू कर सके? नक्सलवाद के खिलाफ गोली उगलने वाली सरकार बता सकती है कि क्यों उस के अपने ही देश के नागरिक देश के भीतर अपनी अलग व्यवस्था बना कर रखे हुए हैं?

आखिर अमीरों के पैर दबादबा कर गरीबों के इस जख्म को नासूर किस ने बनने दिया? जो सरकार हकों का बंटवारा करने के नाम पर गरीबों का हक छीन कर अमीरों में बांटती हो, उस की खिलाफत किस बिना पर गलत कही जा सकती है?

आज भी जिस तरह से दलितों पर जोरजुल्म की खबरें देखनेसुनने को मिल रही हैं, उसे राजनीतिक मुद्दा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है.

ऊंचेतबके का एक बड़ा हिस्सा दलितों और आदिवासियों को आजादी के इतने साल बाद भी हिकारत की नजर से देखता है, उस के मुख्यधारा में आने की कोशिशों को नाकाम करने में लगा हुआ है. ऐसा समाज चाहता है कि दलित और आदिवासी समझे जाने वाले लोग ही काम करते रहें और उन का पहले की तरह शोषण किया जाता रहे.

शायद लोग भूल चुके हैं कि देर से ही सही, पर वाकई संचार क्रांति ने सामाजिक उथलपुथल की एक नई संस्कृति लिखी है, जिस को सैंसर करना अब किसी भी सरकार के बस के बाहर की बात है.

यह सोशल मीडिया का दबाव ही है कि देश के प्रधानमंत्री को दलित उत्पीड़न मामलों पर सामने आ कर सरकार का पक्ष रखने को मजबूर होना पड़ा है, इसलिए जनता के नुमाइंदों को समझना पड़ेगा कि देश की आजादी का रास्ता गरीब दलित और आदिवासी लोगों की माली व सामाजिक आजादी से हो कर जाता है. उन की आजादी के बिना इस आजादी का उत्सव अधूरा है.

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