एक सवाल : सुमित्रा की कामकाजी जिंदगी

अभी तक मामा अस्पताल से नहीं लौटे थे. मामी बड़ी बेचैनी से बारबार हर आनेजाने वाली गाड़ी के रुकने की आवाज सुन कर दरवाजे की ओर भागतीं और निराश हो कर फिर लौट आतीं.

दीपक ने मामी से कहा, ‘‘मामी, कब तक इंतजार कीजिएगा, पकौड़े बिलकुल ठंडे हो जाएंगे. अब आप भी खाना खा लीजिए. कोई मरीज आ गया होगा.’’

‘‘नहीं, इतनी देर तो वे कभी नहीं लगाते. आज तो कोई बड़ा आपरेशन भी नहीं करना था. पता नहीं, क्यों…’’ इतना कह कर मामी बिस्तर पर लेट कर एक पत्रिका पलटने लगीं.

उधर, सुमित्रा ड्राइंगरूम से मामी के चेहरे को एकटक निहार रही थी. मामी के चेहरे पर डर, चिंता और शक के मिलेजुले भाव उभरे थे. अकसर ऐसी हालत में यह सब देख कर सुमित्रा के चेहरे का रंग उड़ जाता था. शायद मामी की चिंता उस की भी चिंता थी. मामी को खुश देख कर वह भी खुश होती थी.

सुमित्रा ने अपने कामकाज से मामी का मन मोह लिया था. वह मामी को तो एक भी काम नहीं करने देती थी. खुद झपट कर उन का काम करने लग जाती थी. तब मामी दुलार से उसे ऐसे देखतीं, जैसे कह रही हों, ‘तुम मेरी कोख से क्यों नहीं जनमी?’

इतने में मामाजी आ गए. उन के हाथों में ढेर सारी मालाओं को देख कर मामी अचरज से भर उठीं. मामी कुछ पूछें, इस से पहले मालाओं का ढेर टेबल पर रखते हुए मामा ने बताया कि वे अंबेडकर जयंती में गए थे.

सुमित्रा फूलों को बड़े प्रेम से निहार रही थी. उस के पल्ले मामा की बात नहीं पड़ी.

‘‘वह क्या बाई?’’ उस ने पूछा.

‘‘अरे, छोटी जाति वालों ने साहब को बुलाया था. उन्हीं ने इन को माला पहनाई है. वे सब साहब को बहुत मानते हैं. ऊंचनीच, छोटी जाति, बड़ी जाति में हम लोग भेद नहीं करते. समझी?’’ मामी ने चहक कर कहा.

‘‘सच बाई?’’ सुमित्रा के पूछने में अचरज, शक और भरोसा, तीनों का मिलान था.

‘‘हांहां, एकदम सच,’’ मामी ने कहा.

उसी दिन शाम को कुछ लोगों का जुलूस जा रहा था. दूर से कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे कौन लोग हैं और क्या चिल्ला रहे हैं. मामी को जब कुछ समझ में नहीं आया, तो जुलूस में जा रहे एक लड़के को बुला कर उन्होंने पूछा.

वह ‘जलगार जना, जलगार जना,’ कह कर चला गया. मामी ‘जलगार जना’ का मतलब नहीं समझ पाईं. उन्होंने सुमित्रा से पूछा.

तब पलभर के लिए सुमित्रा सकपका गई. मामी को ताकते हुए दोनों हाथ उस ने इनकार में नचा दिए. शायद मामी की पेशानी पर चिड़चिड़ाहट भरी सिलवटें उभरी देख कर वह सहम गई थी या ‘जलगार जना’ शब्द की पहचान तक से अपने को अलग रखना चाहती थी.

दरअसल, सुमित्रा काम बड़ा अच्छा करती थी. अकसर उस के काम की बड़ाई मामी बड़े साफ दिल से अपनी सखीसहेलियों के बीच करती रहती थीं. इस का नतीजा यह हुआ कि उस से फायदा उठाने के लिए मामी की एक सहेली सीता ने उसे चुपके से फोड़ लेना चाहा.

एक दिन जब मामी के घर से काम निबटा कर सुमित्रा अपने घर जा रही थी, तभी रास्ते में खड़ी सीता उसे अपने घर ले गई. कुछ लगाईबुझाई की और अगले महीने से ज्यादा तनख्वाह पर काम करने के लिए राजी कर लिया जैसा कि अकसर लोग नौकरानी रखने से पहले करते हैं.

सीता एक दिन चुपके से सुमित्रा के पीछेपीछे गई. उसे शक था कि कहीं पूछने पर गलत घर न दिखा दे. गली तक उस के पीछे पैदल चलने के बाद उस ने एक घर में उसे घुसते देखा. वह उसी समय तेज चल कर उस के सामने पहुंची और पूछ बैठी, ‘‘तुम यहां रहती हो?’’

‘हां,’ में जवाब सुन कर सीता वहां से जल्दी हट गई, जैसे अंधे कुएं में गिरतेगिरते बची हो. उस के मन में एक खलबली सी थी, जिसे कहने के लिए वह बेचैन थी.

सीता दूसरे ही दिन मामी के पास आई और बोली, ‘‘देखिए, बुरा मत मानिएगा. आप की नौकरानी एक दिन मेरे घर आई और कहने लगी कि भूखी हूं. उस वक्त तो घर में कुछ था नहीं, इसलिए मैं ने होटल से मिठाई और डोसा मंगवा कर खिला दिया. पर वह तो खा भी नहीं रही थी. कह रही थी कि छोटे भाई के लिए घर ले जाऊंगी. फिर कहने लगी कि मेरा लहंगा फटा है. मुझे तरस आ गया और अपनी एक मैक्सी दे दी.’’

इतना सुनना था कि मामी गुस्से में उबलने लगीं. उन का तमतमाता चेहरा देख कर सीता असली बात तेजी से कह गई, ‘‘अरे, वह एससी कास्ट वाले सफाई का काम करते हैं.

मैं तो उस का घर चुपके से देख आई हूं. फिर, मैं ने चौकीदार को भी भेज कर पता लगवाया. वह भी यही कह रहा था.’’

ये बातें सुनने के बाद भी मामी के चेहरे पर कोई तीखे भाव नहीं दिखे, तो सीता सपाट शब्दों में कहने लगी, ‘‘मैं तो इन लोगों से काम नहीं करा सकती, क्योंकि ये लोग बहुत गंदे होते हैं.’’

तब भी मामी को गुस्सा उस के एससी होने पर नहीं के बराबर और अपनी सहेली पर ज्यादा हो रहा था. वे तो सोच रही थीं, ‘कैसी सहेली है? भला सुमित्रा क्या जाने इस का घर? आज तक उन से तो उस ने कभी मजाक में भी ‘भूख लगी है’ नहीं कहा. इस के घर जा कर क्यों कहेगी? जरूर उस ने काम करने से इनकार कर दिया होगा, तभी यह लगाईबुझाई कर रही है.’

मामी को सहीगलत तो सूझ नहीं रहा था. अलबत्ता, सहेली के सामने वे अपने को बड़ा शर्मिंदा महसूस कर रही थीं. ठीक उसी तरह जब छोटा बच्चा पड़ोस में जा कर ‘भूख लगी है, कुछ खाने को दो,’ कह कर मां को शर्मिंदा करता है.

इस झेंप को ढकने के लिए मामी अपनी सहेली से पूछने लगीं, ‘‘एससी होने का क्या सुबूत है तुम्हारे पास?’’

सीता तपाक से बोली, ‘‘अरे, क्या इस की दादी को नहीं देखा? रोज सिर पर एक टोकरी रख कर निकलती है. रास्तेभर कागज बटोरती, प्लास्टिक का टूटाफूटा सामान कूड़े से ढूंढ़ती इसी रास्ते से जाती है. ये जितनी औरतें सिर पर टोकरी रख कर निकलती हैं, सब छोटी जात हैं.’’

‘‘उसी वक्त एक औरत सिर पर टोकरी रखे सामने से आती दिखाई पड़ी. मामी ने सीता से पूछा, ‘‘क्या यह औरत भी?’’

‘‘हांहां, यह भी. अभी देखिएगा,’’ सीता ने कहा.

तभी वह औरत सड़क के उस पार वाले घर में घुस गई और टोकरी नीचे रख कर घर की मालकिन को बुलाने लगी. पता लगा कि वह तो सब्जी बेचने वाली थी. तब सीता ने कई और दलीलें दीं, पर मामी ने तो यह मान लिया था कि सीता झूठी है.

सुमित्रा को अचानक हटा देने का डर भी मामी के मन में कहीं न कहीं था. एक तो जल्दी नौकरानी मिलती नहीं, दूसरे एससी मान कर हटाना भी तो गलत होगा.

अब सीता की एकएक बात मामी की समझ में आने लगी. अपनी सहेली द्वारा लगाए गए जाति के लांछन की सचाई भी उन्होंने देख ही ली थी. वे मुसकरा रही थीं कि सीता कैसे अपनी ही बात से झूठी साबित हो गई.

दूसरे दिन मामी ने सुमित्रा को डांटा, ‘‘मुझे क्यों नहीं बताया कि सीता ने तुझे मैक्सी दी है?’’

तब सीधीसादी सुमित्रा ने जोकुछ बताया, उस से सबकुछ साफ हो गया. उस ने बताया कि किस तरह सीता उसे घर ले गई. अहाते की सफाई कराई. पौधों की जड़ों में गोबर डलवाया और 3 घंटे की मजदूरी की एवज में उसे पैसे के बदले पुरानी मैक्सी दी और डोसा खिलाया. साथ में मामी को कुछ भी नहीं बताने की हिदायत भी दी.

यह सुन कर मामी चिढ़ कर सीता पर बुदबुदाने लगीं, ‘‘कौन कहता है उसे पागल? वह तो खुद दूसरों को पागल बना दे. वह तो दूसरों की हमदर्दी का नाजायज फायदा उठाती रहती है और इसी ओट में चालें भी चलती रहती है.’’

उस दिन के बाद सीता ने मामी के घर आना बंद कर दिया. मामी ने कई बार देखा कि वह पड़ोस के घरों में आतीजाती थी, पर मामी को इस बात का बिलकुल भी दुख या मलाल नहीं था कि वह उन के घर नहीं आती. उन्हें उस का दूर रहना ही अच्छा लग रहा था.

एक बार सड़क पर दीपक से सीता मिली थी. दीपक के पूछने पर सीता ने कहा था, ‘‘मैं तो तुम्हारी मामी के घर पानी भी नहीं पी सकती.’’

यह बात दीपक ने मामी से नहीं कही थी, क्योंकि उस से मामी के घाव फिर हरे होते. दीपक ऐसा नहीं चाहता था.

उस दिन सुमित्रा बड़ी लगन से मामी के पैर दबा रही थी और वह बड़े दुलार से उस की ओर देख रही थीं. उसे कुछ खोया देख मामी ने पूछा, ‘‘क्या बात है सुमित्रा?’’

वह हंस कर बोली, ‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ बात तो जरूर है. बड़ा सन्नाटा छाया है. बता, क्या बात है?’’

भोलीभाली सुमित्रा दुखभरी आवाज में कहने लगी, ‘‘बाई, उस जमाने में मेरी दादी को बड़े दुख उठाने पड़े थे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अब भी मेरी दादी बड़ी जाति वालों से डरती हैं.’’

‘‘यह बड़ी जाति और छोटी जाति क्या होती है?’’ मामी ने डपटा.

सुमित्रा बड़ी सावधान थी. साफसाफ न बता कर इशारों में बता रही थी, जैसे दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. वह बोली, ‘‘गांव में मेरी दादी को एक बार पुलिस वालों ने खूब मारा था.’’

फिर वह थोड़ा ठहर कर बोली, ‘‘शहर में डर नहीं है बाई.’’

मामी समझ नहीं पा रही थीं कि आखिर सुमित्रा कहना क्या चाह रही थी.

मामी को हैरानी में पड़ा देख सुमित्रा बोली, ‘‘गांव में तो दादी की परछाईं से भी लोग दूर भागते थे. यहां तो हम लोग मंदिर भी जाते हैं, कोई नहीं रोकता.’’

मामी ने पूछा, ‘‘तुम्हारी दादी गांव में करती क्या थीं?’’

‘‘सूअर चराती थीं,’’ जल्दी में या असावधानी में सुमित्रा के मुंह से सच निकल गया. फिर सफाई देते हुए वह बोली, ‘‘अब नहीं चराती हैं.’’

मामी तो मानो आसमान से धरती पर गिरी हों. वह अपने पैर उस के हाथों से धीरे से छुड़ा कर बैठ गईं. सीता की जानकारी में थोड़ा सा भी झूठ उन्हें दिखलाई नहीं पड़ रहा था. उन की आंखों के सामने वह सीन भी घूम गया, जब उन्होंने ‘जलगार जना’ का मतलब सुमित्रा से पूछा था, तब उस का चेहरा फक्क पड़ गया था. उन्होंने भी इधर जवान लड़कियों और औरतों को सड़क से कचरा बीनते देखा था, लेकिन उन में से किसी ने कभी आपस में बातचीत नहीं की थी. उन्हें इतमीनान होता चला गया था कि ये एससी होतीं, तो आपस में बोलतीं जरूर, पर नहीं.

आज मामी को याद आ रहा था उन लड़कियों को देख कर सुमित्रा या तो ठिठक कर कठोर चेहरा बना लेती थी या दूसरी तरफ मुंह मोड़ लेती थी. ऐसा वह क्यों करती थी, यह पहेली मामी सुलझा नहीं पा रही थीं.

मामी को यह भी याद आ रहा था कि अंबेडकर जयंती के दूसरे दिन सुमित्रा अपने देर से आने की सफाई देते हुए बोली थी, ‘‘बाई, कल हमारे दादीबाबा 20 कोस गए थे.’’

‘‘भला क्यों?’’

‘‘50-50 रुपए और एक जून का खाना

मिला था,’’ फिर थोड़ा रुक कर वह बोली थी,

‘‘मैं भी जाती तो 50 रुपए पाती, पर आप के डर से नहीं गई.’’

‘‘किसलिए रुपए मिले थे?’’

‘‘पता नहीं,’’ दोनों हाथ बड़ी सरलता व ईमानदारी से चमका कर सुमित्रा ने कहा था. तब मामी आदतन झुंझला गई थीं. आज दीपक को लग रहा है कि जहां दो जून की रोटी के लाले पड़े हों, पीने के लिए पानी न हो, वहां बौराई आबादी यही

तो करती है. उन का सारा समय तो जुगाड़ में बीत जाता है. ऊपर से उन का ठग मुखिया साल में एक बार 50 रुपए व एक वक्त के भोजन के बल पर चुनाव के आसपास नेताओं की सभा की शोभा बढ़ाता है, वोट दिलाता है.

एकाएक मामी को सुमित्रा में अनेक कमियां नजर आने लगी थीं. चूंकि महीना पूरा होने में एक हफ्ता बाकी था, इसलिए मामी ने उसे अचानक हटाने का पाप अपने सिर पर नहीं लिया. महीना पूरा होते ही उन्होंने उसे आगे से काम पर न आने को कह दिया.

उस वक्त यह बात देखने को मिली कि सुमित्रा के निकालते ही पड़ोसी बड़े खुश हो गए थे. बहुत लोग तो मामी को बधाई देने लगे थे मानो मामी ने सच में बड़ी होशियारी का काम किया.

कुछ ही दिनों बाद मामी अंदर ही अंदर अपने से लड़ती हुई बीमार पड़ गईं. एक हफ्ते बुखार में तपती रहीं.

दीपक को पता था कि मामी के मन में कुछ टीस रहा है. पर वे कह नहीं पा रही थीं मानो वे खुद से जूझते हुए पूछ रही थीं, ‘छुआछूत की प्रथा गई कहां है? बस, गंदगी के ऊपर कालीन बिछा दिया गया है. इतनी जवान, गरीब छोकरियां सड़क पर घूमा करती हैं. कोई उन्हें काम पर नहीं रखता. मैं ही कौन भली हूं? भूल से रख लिया, तो सचाई जानते ही निकाल दिया.’

यह सब देखने के बाद दीपक के दिमाग में एक महापुरुष के शब्द घूमने लगे, ‘यदि अछूतों को अछूत इसलिए माना जाता है कि वे जानवरों को मारते हैं, मांस, रक्त, हड्डियां और मैला छूते हैं, तब तो हर नर्स और डाक्टर को भी अछूत माना जाना चाहिए, जो खाने या बलि देने के लिए जानवरों की हत्या करते हैं.’

ये शब्द बारबार घंटे की तरह दीपक के दिमाग में बज रहे थे. तब वह मामी से यह पूछने के लिए बेचैन हो उठा, ‘तो क्या हम सब और मामा अछूत नहीं हुए?’

उधर सुमित्रा यह जान चुकी थी कि ऊंची जाति वाले आसानी से नहीं बदलने वाले. वे उन लोगों को बारबार एहसास दिलाएंगे कि तुम्हारा जन्म नीच कुल में हुआ है, नीचे रहोगे. वक्तजरूरत पर जरूर काम के लिए बुला लेंगे. कुरसी पर बैठा भी देंगे, पर उतरते ही उसे छींटे मार कर धोने से बाज नहीं आएंगे.

दीपक की मामी भी उस मकड़जाल से नहीं निकल पाईं, जो समाज ने उन के चारों ओर बुन रखा था. उन्हें सुमित्रा की जाति से न कोई शिकायत थी, न अलगाव पर पड़ोसियोंरिश्तेदारों का वे क्या करें. सुमित्रा ने उन्हें कब का माफ कर दिया, पर मामी खुद को सालों तक माफ नहीं कर पाईं.

उलझे रिश्ते: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

दिन भर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ?

सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

‘‘नहीं नहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

‘‘जानती हूं पर यह कौन सा तरीका है?’’ रश्मि ने प्यार से समझाने की कोशिश की,  ‘‘कुछ दिन इंतजार करो मिस्टर. रश्मि तुम्हारी है. एक दिन पूरी तरह तुम्हारी हो जाएगी.’’ परंतु सुधीर पर कोई असर नहीं हुआ. हद से आगे बढ़ता देख रश्मि ने सुधीर को धक्का दिया और हिरणी सी कुलांचे भरती हुई घर से बाहर निकल गई. उस रात रश्मि सो नहीं पाई. उसे सुधीर का यों बांहों में लेना अच्छा लगा. कुछ देर और रुक जाती तो…सोच कर सिहरन सी दौड़ गई. और एक दिन ऐसा आया जब पढ़ाई की आड़ में चल रहा प्यार का खेल पकड़ा गया. दोनों अब तक बी.कौम अंतिम वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और एकदूजे में इस कदर खो चुके थे कि उन्हें आभास भी नहीं था कि इस रिश्ते को रश्मि के पिता और भाई कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उस दिन रश्मि के घर कोई नहीं था. वह अकेली थी कि सुधीर पहुंच गया. उसे देख रश्मि की धड़कनें बढ़ गईं. वह बोली,  ‘‘सुधीर जाओ तुम, पापा आने वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हो गया. दामाद अपने ससुराल ही तो आया है,’’ सुधीर ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘नहीं, तुम जाओ प्लीज.’’

‘‘रुको डार्लिंग यों धक्के मार कर क्यों घर से निकाल रही हो?’’ कहते हुए सुधीर ने रश्मि को अपनी बांहों में भर लिया. तभी जो न होना चाहिए था वह हो गया. रश्मि के पापा ने अचानक घर में प्रवेश किया और दोनों को एकदूसरे की बांहों में समाया देख आगबबूला हो गए. फिर पता नहीं कितने लातघूंसे सुधीर को पड़े. सुधीर कुछ बोल नहीं पाया. बस पिटता रहा. जब होश आया तो अपने घर में लेटा हुआ था. सुधीर और रश्मि के परिवारजनों की बैठक हुई. सुधीर की मम्मी ने प्रस्ताव रखा कि वे रश्मि को बहू बनाने को तैयार हैं. फिर काफी सोचविचार हुआ. रश्मि के पापा ने कहा,  ‘‘बेटी को कुएं में धकेल दूंगा पर इस लड़के से शादी नहीं करूंगा. जब कोई काम नहीं करता तो क्या खाएगाखिलाएगा?’’ आखिर तय हुआ कि रश्मि की शादी जल्द से जल्द किसी अच्छे परिवार के लड़के से कर दी जाए. रश्मि और सुधीर के मिलने पर पाबंदी लग गई पर वे दोनों कहीं न कहीं मिलने का रास्ता निकाल ही लेते. और एक दिन रश्मि के पापा ने घर में बताया कि दिल्ली से लड़के वाले आ रहे हैं रश्मि को देखने. यह सुन कर रश्मि को अपने सपने टूटते नजर आए. उस ने कुछ नहीं खायापीया.

भाभी ने समझाया, ‘‘यह बचपना छोड़ो रश्मि, हम इज्जतदार खानदानी परिवार से हैं. सब की इज्जत चली जाएगी.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? इस घर में बच्चों की खुशी का खयाल नहीं रखा जाता. दोनों दीदी कौन सी सुखी हैं अपने पतियों के साथ.’’

‘‘तेरी बात ठीक है रश्मि, लेकिन समाज, परिवार में ये बातें माने नहीं रखतीं. तेरे गम में पापा को कुछ हो गया तो…उन्होंने कुछ कर लिया तो सब खत्म हो जाएगा न.’’

रश्मि कुछ नहीं बोल पाई. उसी दिन दिल्ली से लड़का संभव अपने छोटे भाई राजीव और एक रिश्तेदार के साथ रश्मि को देखने आया. रश्मि को देखते ही सब ने पसंद कर लिया. रिश्ता फाइनल हो गया. जब यह बात सुधीर को रश्मि की एक सहेली से पता चली तो उस ने पूरी गली में कुहराम मचा दिया,  ‘‘देखता हूं कैसे शादी करते हैं. रश्मि की शादी होगी तो सिर्फ मेरे साथ. रश्मि मेरी है.’’ पागल सा हो गया सुधीर. इधरउधर बेतहाशा दौड़ा गली में. पत्थर मारमार कर रश्मि के घर की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले. रश्मि के पिता के मन में डर बैठ गया कि कहीं ऐसा न हो कि लड़के वालों को इस बात का पता चल जाए. तब तो इज्जत चली जाएगी. सब हालात देख कर तय हुआ कि रश्मि की शादी किसी दूसरे शहर में जा कर करेंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. अब एक तरफ प्यार, दूसरी तरफ मांबाप के प्रति जिम्मेदारी. बहुत तड़पी, बहुत रोई रश्मि और एक दिन उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘मैं अपने प्यार का बलिदान देने को तैयार हूं. परंतु मेरी एक शर्त है. मुझे एक बार सुधीर से मिलने की इजाजत दी जाए. मैं उसे समझाऊंगी. मुझे पूरी उम्मीद है वह मान जाएगा.’’

भाभी ने घर वालों से छिपा कर रश्मि को सुधीर से आखिरी बार मिलने की इजाजत दे दी. रश्मि को अपने करीब पा कर फूटफूट कर रोया सुधीर. उस के पांवों में गिर पड़ा. लिपट गया किसी नादान छोटे बच्चे की तरह,  ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रश्मि. मैं नहीं जी  पाऊंगा, तुम्हारे बिना. मर जाऊंगा.’’ यंत्रवत खड़ी रह गई रश्मि. सुधीर की यह हालत देख कर वह खुद को नहीं रोक पाई. लिपट गई सुधीर से और फफक पड़ी, ‘‘नहीं सुधीर, तुम ऐसा मत कहो, तुम बच्चे नहीं हो,’’ रोतेरोते रश्मि ने कहा.

‘‘नहीं रश्मि मैं नहीं रह पाऊंगा, तुम बिन,’’ सुबकते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘अगर तुम ने मुझ से सच्चा प्यार किया है तो तुम्हें मुझ से दूर जाना होगा. मुझे भुलाना होगा,’’ यह सब कह कर काफी देर समझाती रही रश्मि और आखिर अपने दिल पर पत्थर रख कर सुधीर को समझाने में सफल रही. सुधीर ने उस से वादा किया कि वह कोई बखेड़ा नहीं करेगा. ‘‘जब भी मायके आऊंगी तुम से मिलूंगी जरूर, यह मेरा भी वादा है,’’ रश्मि यह वादा कर घर लौट आई. पापा किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए एक दिन रात को घर के सब लोग चले गए एक अनजान शहर में. रश्मि की शादी दिल्ली के एक जानेमाने खानदान में हो गई. ससुराल आ कर रश्मि को पता चला कि उस के पति संभव ने शादी तो उस से कर ली पर असली शादी तो उस ने अपने कारोबार से कर रखी है. देर रात तक कारोबार का काम निबटाना संभव की प्राथमिकता थी. रश्मि देर रात तक सीढि़यों में बैठ कर संभव का इंतजार करती. कभीकभी वहीं बैठेबैठे सो जाती. एक तरफ प्यार की टीस, दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से रश्मि टूट कर रह गई. ससुराल में पासपड़ोस की हमउम्र लड़कियां आतीं तो रश्मि से मजाक करतीं  ‘‘आज तो भाभी के गालों पर निशान पड़ गए. भइया ने लगता है सारी रात सोने नहीं दिया.’’ रश्मि मुसकरा कर रह जाती. करती भी क्या, अपना दर्द किस से बयां करती? पड़ोस में ही महेशजी का परिवार था. उन के एक कमरे की खिड़की रश्मि के कमरे की तरफ खुलती थी. यदाकदा रात को वह खिड़की खुली रहती तो महेशजी के नवविवाहित पुत्र की प्रणयलीला रश्मि को देखने को मिल जाती. तब सिसक कर रह जाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता था रश्मि के पास.

संभव जब कभी रात में अपने कामकाज से जल्दी फ्री हो जाता तो रश्मि के पास चला आता. लेकिन तब तक संभव इतना थक चुका होता कि बिस्तर पर आते ही खर्राटे भरने लगता. एक दिन संभव कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था और रश्मि तपती दोपहर में  फर्स्ट फ्लोर पर बने अपने कमरे में सो रही थी. अचानक उसे एहसास हुआ कोई उस के बगल में आ कर लेट गया है. रश्मि को अपनी पीठ पर किसी मर्दाना हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. वह आंखें मूंदे पड़ी रही. वह स्पर्श उसे अच्छा लगा. उस की धड़कनें तेज हो गईं. सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं. उसे लगा शायद संभव है, लेकिन यह उस का देवर राजीव था. उसे कोई एतराज न करता देख राजीव का हौसला बढ़ गया तो रश्मि को कुछ अजीब लगा. उस ने पलट कर देखा तो एक झटके से बिस्तर पर उठ बैठी और कड़े स्वर में राजीव से कहा कि जाओ अपने रूम में, नहीं तो तुम्हारे भैया को सारी बात बता दूंगी, तो वह तुरंत उठा और चला गया. उधर सुधीर ने एक दिन कहीं से रश्मि की ससुराल का फोन नंबर ले कर रश्मि को फोन किया तो उस ने उस से कहा कि सुधीर, तुम्हें मैं ने मना किया था न कि अब कभी मुझ से संपर्क नहीं करना. मैं ने तुम से प्यार किया था. मैं उन यादों को खत्म नहीं करना चाहती. प्लीज, अब फिर कभी मुझ से संपर्क न करना. तब उम्मीद के विपरीत रश्मि के इस तरह के बरताव के बाद सुधीर ने फिर कभी रश्मि से संपर्क नहीं किया.

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

रश्मि चाय बना लाई और दोनों सोफे पर बैठ गए. रश्मि ने बताया कि वह राधाकृष्ण की एक बहुत बड़ी पोट्रेट तैयार करने जा रही है. उस में राधाकृष्ण के प्यार को दिखाया गया है. यह बताते हुए रश्मि अपने अतीत में डूब गई. उस की आंखों के सामने सुधीर का चेहरा घूम गया. हिमेश कुछ और समझ बैठा. उस ने एक हिमाकत कर डाली. अचानक रश्मि का हाथ थामा और ‘आई लव यू’ कह डाला. रश्मि को लगा जैसे कोई बम फट गया है. गुस्से से उस का चेहरा लाल हो गया. वह अचानक उठी और क्रोध में बोली, ‘‘आप उठिए और तुरंत यहां से चले जाइए. और दोबारा इस घर में पांव मत रखिएगा वरना बहुत बुरा होगा.’’ हिमेश को तो जैसे सांप सूंघ गया. रश्मि का क्रोध देख उस के हाथ कांपने लगे.

‘‘आ…आ… आप मुझे गलत समझ रही हैं मैडम,’’ उस ने कांपते स्वर में कहा.

‘‘गलत मैं नहीं समझ रही आप ने मुझे समझा है. एक शिक्षक के नाते मैं आप की इज्जत करती रही और आप ने मुझे क्या समझ लिया?’’ फिर एक पल भी नहीं रुका हिमेश. उस के बाद उस ने कभी रश्मि के घर की तरफ देखा भी नहीं. जब कभी साहिल ने पूछा रश्मि से तो उस से उस ने कहा कि सर बाहर रहने लगे हैं. रश्मि की जिंदगी फिर से दौड़ने लगी. एक दिन एक पांच सितारा होटल में लगी डायमंड ज्वैलरी की प्रदर्शनी में एक संभ्रात परिवार की 30-35 वर्षीय महिला ऊर्जा से रश्मि की मुलाकात हुई. बातों ही बातों में दोनों इतनी घुलमिल गईं कि दोस्त बन गईं. वह सच में ऊर्जा ही थी. गजब की फुरती थी उस में. ऊर्जा ने बताया कि वह अपने घर पर योगा करती है. योगा सिखाने और अभ्यास कराने योगा सर आते हैं. रश्मि को लगा वह भी ऊर्जा की तरह गठीले और आकर्षक फिगर वाली हो जाए तो मजा आ जाए. तब हर कोई उसे देखता ही रह जाएगा.

ऊर्जा ने स्वाति से कहा कि मैं योगा सर को तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दूंगी. वे तुम से संपर्क कर लेंगे. रश्मि ने अपने पति संभव को मना लिया कि वह घर पर योगा सर से योगा सीखेगी. एक दिन रश्मि के मोबाइल घंटी बजी. उस ने देखा तो कोई नया नंबर था. रश्मि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई,  ‘‘हैलो मैडम, मैं योगा सर बोल रहा हूं. ऊर्जा मैडम ने आप का नंबर दिया था. आप योगा सीखना चाहती हैं?’’‘‘जी हां मैं ने कहा था, ऊर्जा से,’’ रश्मि ने कहा.

‘‘तो कहिए कब से आना है?’’

‘‘किस टाइम आ सकते हैं आप?’’

‘‘कल सुबह 6 बजे आ जाता हूं. आप अपना ऐडै्रस नोट करा दें.’’

रश्मि ने अपना ऐड्रैस नोट कराया. सुबह 5.30 बजे का अलार्म बजा तो रश्मि जाग गई. योगा सर 6 बजे आ जाएंगे यही सोच कर वह आधे घंटे में फ्रैश हो कर तैयार रहना चाहती थी. बच्चे और पति संभव सो रहे थे. उन्हें 8 बजे उठने की आदत थी. रश्मि उठते ही बाथरूम में घुस गई. फ्रैश हो कर योगा की ड्रैस पहनी तब तक 6 बजने जा रहे थे कि अचानक डोरबैल बजी. योगा सर ही हैं यह सोच कर उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोला तो सामने खड़े शख्स को देख कर वह स्तब्ध रह गई. उस के सामने सुधीर खड़ा था. वही सुधीर जो उस की यादों में बसा रहता था.

‘‘तुम योगा सर?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘हां.’’

फिर सुधीर ने, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ कहा तो रश्मि हड़बड़ा गई.

‘‘हांहां आओ, आओ न प्लीज,’’ उस ने कहा. सुधीर अंदर आया तो रश्मि ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने को कहा. दोनों एकदूसरे के सामने बैठे थे. रश्मि को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले, क्या नहीं. सुधीर कहे या योगा सर. रश्मि सहज नहीं हो पा रही थी. उस के मन में सुधीर को ले कर अनेक सवाल चल रहे थे. कुछ देर में वह सामान्य हो गई, तो सुधीर से पूछ लिया, ‘‘इतने साल कहां रहे?’’

सुधीर चुप रहा तो रश्मि फिर बोली, ‘‘प्लीज सुधीर, मुझे ऐसी सजा मत दो. आखिर हम ने प्यार किया था. मुझे इतना तो हक है जानने का. मुझे बताओ, यहां तक कैसे पहुंचे और अंकलआंटी कहां हैं? तुम कैसे हो?’’ रश्मि के आग्रह पर सुधीर को झुकना पड़ा. उस ने बताया कि तुम से अलग हो कर कुछ टाइम मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा रहा. फिर थोड़ा सुधरा तो शादी की, लेकिन पत्नी ज्यादा दिन साथ नहीं दे पाई. घरबार छोड़ कर चली गई और किसी और केसाथ घर बसा लिया. फिर काफी दिनों के इलाज के बाद ठीक हुआ तो योगा सीखतेसीखते योगा सर बन गया. तब किसी योगाचार्य के माध्यम से दिल्ली आ गया. मम्मीपापा आज भी वहीं हैं उसी शहर में. सुधीर की बातें सुन अंदर तक हिल गई रश्मि. यह जिंदगी का कैसा खेल है. जो उस से बेइंतहां प्यार करता था, वह आज किस हाल में है सोचती रह गई रश्मि. अजब धर्मसंकट था उस के सामने. एक तरफ प्यार दूसरी तरफ घरसंसार. क्या करे? सुधीर को घर आने की अनुमति दे या नहीं? अगर बारबार सुधीर घर आया तो क्या असर पड़ेगा गृहस्थी पर? माना कि किसी को पता नहीं चलेगा कि योगा सर के रूप में सुधीर है, लेकिन कहीं वह खुद कमजोर पड़ गई तो? उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. गृहस्थी जैसी भी है बिखर जाएगी. उस ने तय कर लिया कि वह सुधीर को योगा सर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी. कहीं दूर चले जाने को कह देगी इसी वक्त.

‘‘देखो सुधीर मैं तुम से योगा नहीं सीखना चाहती,’’ रश्मि ने अचानक सामान्य बातचीत का क्रम तोड़ते हुए कहा.

‘‘पर क्यों रश्मि?’’

‘‘हमारे लिए यही ठीक रहेगा सुधीर, प्लीज समझो.’’

‘‘अब तुम शादीशुदा हो. अब वह बचपन वाली बात नहीं है रश्मि. क्या हम अच्छे दोस्त बन कर भी नहीं रह सकते?’’ सुधीर ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘नहीं सुधीर, मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मेरी गृहस्थी, मेरे बच्चों पर असर पड़े,’’ रश्मि ने कहा. सुधीर ने लाख समझाया पर रश्मि अपने फैसले पर अडिग रही. सुधीर बेचैन हो गया. सालों बाद उस का प्यार उस के सामने था, लेकिन वह उस की बात स्वीकार नहीं कर रहा था. आखिर रश्मि ने सुधीर को विदा कर दिया. साथ ही कहा कि दोबारा संपर्क की कोशिश न करे. सुधीर रश्मि से अलग होते वक्त बहुत तनावग्रस्त था. पर उस दिन के बाद सुधीर ने रश्मि से संपर्क नहीं किया. रश्मि ने तनावमुक्त होने के लिए कई नई फ्रैंड्स बनाईं और उन के साथ बहुत सी गतिविधियों में व्यस्त हो गई. इस से उस का सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया. उस दिन वह बहुत से बाहर के फिर घर के काम निबटा कर बैडरूम में पहुंची तो न्यूज चैनल पर उस ने वह खबर देखी कि सुधीर ने दिल्ली मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया था. वह देर तक रोती रही. न्यूज उद्घोषक बता रही थी कि उस की जेब में एक सुसाइड नोट मिला है, जिस में अपनी मौत के लिए उस ने किसी को जिम्मेदार नहीं माना परंतु अपनी एक गुमनाम प्रेमिका के नाम पत्र लिखा है. रश्मि का सिर घूम रहा था. उस की रुलाई फूट पड़ी. तभी संभव ने अचानक कमरे में प्रवेश किया और बोला, ‘‘क्या हुआ रश्मि, क्यों रो रही हो? कोई डरावना सपना देखा क्या?’’ प्यार भरे बोल सुन रश्मि की रुलाई और फूट पड़ी. वह काफी देर तक संभव के कंधे से लग कर रोती रही. उस का प्यार खत्म हो गया था. सिर्फ यादें ही शेष रह गई थीं.

लुट गई जोगी तेरे प्यार में : क्या थी मौलाना की शर्त

जमीला और शर्मिला पक्की सहेलियां थीं. उन की दोस्ती को देख कर घरपरिवार वाले और पड़ोसी उन्हें दो जिस्म एक जान कहते थे.

दोनों सहेलियों ने गांव में ही एकसाथ पढ़ाई की थी. आगे की पढ़ाई के लिए गांव में स्कूल न होने, गरीबी और परदा प्रथा की वजह से उन के परिवारों ने आगे दिलचस्पी नहीं दिखाई. नतीजतन, वे दोनों घर पर ही रह कर परिवार के साथ बीड़ी बनाने का काम करने लगीं.

जमीला कब जवान हो गई, उस की समझ में नहीं आया. घर के बड़ेबूढ़े जब उसे टोकते, ‘बड़ी हो गई है तू, ठीक से दुपट्टा ओढ़ कर बाहर निकला कर. अकेले घूमने मत जाना. बहू, इसे नकाब ला कर दे. अब कोई छोटी बच्ची थोड़े ही है, बड़ी हो गई…’

वह सोचती, ‘आखिर मुझ में ऐसा क्या हुआ है? जब मैं स्कूल जाती थी, तब कोई कुछ नहीं कहता था.’

शर्मिला की शादी पास के गांव में हो गई और जमीला अकेली रह गई. दिल की बात कहनेसुनने वाला कोई न रहा. उस की जिंदगी कैद के पंछी की तरह रह गई. बीड़ी बनाते और घर का काम करतेकरते उस का दम घुटने लगा.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. जवानी जमीला को जिंदगी का मजा लूटने की दावत देने लगी. वह अंदर ही अंदर कसमसाने लगी. जब वह जवान जोड़ों को देखती, तो उस की बेचैनी और बढ़ जाती. शहनाई की आवाज सुन कर वह जोश में आ जाती.

‘‘जमीला के अब्बू, देखना… जमीला को क्या हुआ है…’’ उस की मां ने घबरा कर आवाज दी.

‘‘आया बेगम,’’ बाहर अपने दोस्तों के साथ बैठे जमीला के अब्बू जावेद मियां ने कहा.

वे दौड़ेदौड़े बैठक में आए, जहां जमीला अकेली बैठी बीड़ी बनातेबनाते बेहोश हो कर गिर गई थी.

‘‘क्या हुआ बेटी, देखो मुझे… आंखें खोलो… बेगम, पानी लाओ… इस के मुंह पर पानी के छींटे मारो,’’ जावेद मियां ने कहा.

तब तक उन के दोस्त भी अंदर आ गए थे.

‘‘कैसे हो गया यह सब?’’ मौलाना ने पूछा, जो जावेद के दोस्त थे.

‘‘क्या बताऊं… जमीला बैठी बीड़ी बना रही थी कि एकाएक बेहोश हो कर गिर पड़ी,’’ जमीला की मां ने बताया.

मौलाना ने झाड़फूंक शुरू कर दी. मुंह पर पानी के छींटे मारे, प्याज

सुंघाई गई और तकरीबन आधा घंटे बाद जमीला को होश आ गया.

जमीला कुछ थकीथकी सी लग

रही थी, इसलिए उसे आराम करने की सलाह दे कर जावेद मियां के दोस्त वहां से चले गए.

दूसरे दिन मौलाना ने जावेद मियां के घर पर दस्तक दी. दोनों बैठ कर जमीला की बीमारी पर बातचीत करने लगे.

‘‘देखो जावेद मियां, ऐसे हालात

में लड़की की शादी करने में मुश्किल आएगी,’’ मौलवी ने कहा.

‘‘बात तो सही है, पर इस का कोई उपाय तो बताओ?

‘‘जमीला के ठीक होते ही मुझे जैसा भी लड़का मिलेगा, मैं उस की शादी कर दूंगा,’’ कह कर जावेद मियां चुप हो गए.

‘‘ठीक है, मैं पता करता हूं, फिर तुम्हें खबर करूंगा…’’ मौलाना ने कहा, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

तकरीबन हफ्तेभर बाद मौलाना जावेद मियां के घर दोबारा आए.

‘‘आओ मौलाना, काफी दिन बाद आना हुआ,’’ जावेद मियां ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारे काम में लगा था. बड़ी मुश्किल से एक शख्स मिला है. उस का कहना है कि वह लड़की को ठीक कर देगा. कुछ वक्त लगेगा, पैसा भी खर्च होगा. जब तक झाड़फूंक चलेगी, तब तक यह बात किसी तक न पहुंचे, वरना इल्म टूट जाएगा.’’

‘‘मौलाना, मुझे हर शर्त मंजूर है. तुम आज से ही इलाज शुरू करा दो. अपनी बेटी की बेहतरी के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.’’

मौलाना के मन में खोट था. उस ने अपने एक दूर के साले असद से इस पूरे मसले पर पहले ही बात कर ली थी.

मौलाना ने उस से कहा था, ‘देखो मियां, मैं ने सौदा पटा लिया है. जावेद मियां की जमीन अपनी जमीन से लगी हुई है. हमें उसे हड़पना है. अब जा कर फंसा है. पहले तो बड़ीबड़ी बातें करता था, खेत जाने का रास्ता बंद कर दिया था, इसलिए मजबूरी में मुझे उस से दोस्ती करनी पड़ी.

‘तुम ऐसी चाल चलो कि जावेद की जमीन बिक जाए और वह मुझे मिल जाए.’

असद एक शातिर बदमाश था. उस की बीवी उस की हरकतों से तंग आ कर पिछले 10 सालों से अपने मायके में बैठी थी. गांव के भोलेभाले लोगों को गंडेतावीज बना कर देना, उन से रकम ऐंठना उस का पेशा था.

असद ने जावेद मियां के घर आ कर अपना काम शुरू कर दिया.

शुरूशुरू में तो जमीला को कुछ अच्छा न लगा, लेकिन अकेले में पराए मर्द को पा कर वह धीरेधीरे खुश रहने लगी.

जब असद को महसूस हुआ कि जमीला उस की ओर खिंच रही है, तो उस ने जावेद मियां से कहा, ‘‘जावेद साहब, कुछ जरूरी काम से मैं 1-2 दिन के लिए घर जा रहा हूं, लेकिन जल्दी ही वापस आ जाऊंगा.’’

जाने से पहले मौलाना और असद के बीच साजिश की लंबी बात चली. इसी के तहत वह अचानक अपने घर चला गया.

इधर जावेद मियां परेशान हो उठे, क्योंकि जमीला फिर से बारबार बेहोश होने लगी थी.

वे घबरा कर मौलाना के पास गए और असद को जल्द से जल्द बुलाने की गुहार लगाई.

मौलाना की खबर पा कर असद वापस आया ही था कि 8-10 मर्द और औरत उसे ढूंढ़ते हुए जावेद मियां के घर जा पहुंचे.

वे सभी गुजारिश करने लगे, ‘जोगी बाबा गांव वापस चलो, हम सब परेशान होने लगे हैं.’

इसी बीच मौलाना ने आ कर लोगों को समझीया कि आप के जोगी बाबा 2 दिन बाद आप के पास आ जाएंगे.

रात में असद उर्फ जोगी बाबा के शरीर में भयानक हलचल होने लगी और वह जोरजोर से हंसने लगा. घर के सभी लोग जाग गए. बाहर से आए उस के चेले दुआ मांगने लगे, परेशानी से बचने के उपाय पूछने लगे.

जोगी बाबा का गुस्से से भरा मिजाज देख कर सब डर गए. असद ने बताया कि जावेद के घर के पीछे किसी ने काला जादू कर दिया है, उसे निकाल कर नदी में डाल दो.

पर सावधान, किसी की जान जा सकती है. 5 क्विंटल पुलाव बना कर फातिहा दिलाओ और पहले कहीं से काले जादू की पुडि़या ढूंढ़ो. ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना खिलाओ. जोगी बाबा जो कहे वह करो. सब ठीक हो जाएगा.

काफी मशक्कत के बाद आखिर कपड़े में लिपटी एक पुडि़या मिल गई.

उस पुडि़या में हड्डी, काजल, सिंदूर, अनाज, काली चूड़ी वगैरह मिली. शक अब यकीन में बदल गया.

‘‘जावेद मियां, बात को समझे…’’ मौलाना ने कहा, ‘‘बच्ची प्यारी है या जायदाद. तुम ऐसा करो कि मेरे नाम जमीन की रजिस्ट्री कर दो. पूरा खर्चा मैं करता हूं. जब पैसा हो, तो मेरा पैसा लौटा देना और जमीन वापस ले लेना.’’

मौलाना ने अपनी चाल से जावेद को फांस लिया. अंधविश्वास में फंसे जावेद ने मौलाना की बात मान कर जमीन की रजिस्ट्री उन के नाम कर दी.

इधर असद उर्फ जोगी बाबा ने ऐसी चाल चली कि जमीला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया.

अब वे दोनों बीमारी की आड़ले कर जिंदगी का मजा लूटने लगे. झाड़फूंक के बहाने अब दोनों को कोई नहीं रोक पाता था.

जमीला को जब से पराए मर्द का चसका लगा था, तब से वह खुश रहने लगी थी. उस के मांबाप इसे जोगी बाबा की झाड़फूंक का नतीजा मान रहे थे.

धीरेधीरे साल पूरा होने को आया. उस के मांबाप को जमीला की शादी

की फिक्र होने लगी और वे लड़के की तलाश में जुट गए.

इस बात की भनक असद को लग गई. वह मौका पा कर वहां से रफूचक्कर हो गया.

इसी बीच जमीला की शादी पक्की हो गई, लेकिन एक दिन वह अचानक बेहोश हो कर गिर पड़ी.

लोगों के झकझोरने पर भी होश नहीं आया, तो उसे अस्पताल ले जाया गया.

लेडी डाक्टर ने जांच करने के बाद कहा, ‘‘हम ने बच्ची को देख लिया है. अब वह होश में आ गई है. आप

उस का खयाल रखिए. भारी चीज न उठाने दें, क्योंकि आप की बेटी मां बनने वाली है.’’

लेडी डाक्टर की यह बात सुन कर जावेद, उस की बेगम और रिश्तेदारों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. उन की जमीला ढोंगी जोगी के प्यार में लुट चुकी थी.

पकड़ौआ ब्याह : भाभी से कैसा परदा

ट्रेन पूरी स्पीड से भागी जा रही थी. ट्रेन के उस एसी कोच में सन्नाटा पसरा था. पराग के सामने वाली सीट पर भी कोई नहीं था. ऊपर की बर्थ पर एक बुजुर्ग बैठे थे, जो बीचबीच में ऊपर की बर्थ से नीचे उतर कर अपना नीचे रखा सूटकेस खोल कर देख लेते थे, फिर ऊपर की बर्थ पर जा कर लेट जाते थे.

पराग ने उस बुजुर्ग को नीचे वाली बर्थ पर आने को कहा, लेकिन उन का कहना था कि उन की बर्थ ऊपर वाली है. वे ऊपर ही रहेंगे. नीचे की बर्थ का पैसेंजर आ गया, तो फिर उठना पड़ेगा.

पराग ने फिर दोबारा नहीं कहा. वह जानता था कि पैसेंजर को आना होता तो अब तक आ गया होता. खैर, वह फिर अपना लैपटौप खोल कर बैठ गया.

तकरीबन 25 साल का पराग दिल्ली मैट्रो रेल में नौकरी करता था. सालभर पहले ही उस की नौकरी लगी थी. लेकिन अब वह दिल्ली मैट्रो रेल की नौकरी छोड़ने वाला था, क्योंकि दिल्ली की ही एक अच्छी कंपनी में उसे आटोमोटिव इंजीनियर की नौकरी मिल गई थी.

थोड़ी देर में ही लैपटौप बंद कर पराग खिड़की से बाहर देखने लगा. अगस्त का महीना था. हलकीहलकी फुहार थी. हरियाली की चादर चारों ओर थी. कुदरत मानो मुसकरा रही थी. छोटेछोटे टीले ऊंचेनीचे छोटे से पहाड़, जगहजगह तालाबों में पानी भरा था.

ऐसा ही खुशनुमा मौसम था, जब पराग की मुलाकात गोमती से हुई थी. गोमती अब 23 साल की होगी. गोमती उस के गांव की लड़की. गांव की मिट्टी सी सौंधीसौंधी खुशबू उस के पूरे शरीर से उठती हुई महसूस होती.

पराग आज भी वह 2 साल पहले की बारिश का दिन नहीं भूलता, जब गांव के पेड़ों पर सावन के ?ाले डल गए थे. गोमती अपने घर के बाहर बगीचे के झूले में झाला झूल रही थी. नीले रंग के सलवारसूट में लंबी लहराती चोटी, उस पर बारिश की फुहारें… सूट भीग कर

उस के शरीर से चिपक गया था, जिस से उस का शरीर किसी अजंता की मूरत सा दिख रहा था.

पराग का दिल पहली बार इतनी जोर से धड़का था. उसे अपने दिल की धड़कन की आवाज सुनाई देने लगी थी. पराग ने बारिश से बचने के लिए कुछ नहीं लिया था. न रेनकोट, न ही छाता. उसे हलकी फुहार में भीगना पसंद था.

भीगे हाथों से ही गोमती ने घर की डोरबैल दबा दी थी. गोमती के पापा गांव के जमींदार थे. नाम था तेजबहादुर. जैसे ही उन्होंने पराग को देखा, खुश हो गए.

‘‘आओ, पराग बेटा.’’

पराग बोला, ‘‘अंकलजी, मैं भीगा हुआ हूं, अंदर नहीं आऊंगा. अम्मां ने मखाने की खीर और आलू की पूरियां भेजी हैं,’’ पराग अपने साथ लाया टिफिन तेजबहादुर को थमा ही रहा था कि गोमती वहां आ गई और तेजबहादुर से टिफिन ले कर अंदर जाने लगी.

‘‘अरी, कपड़े तो बदल ले पहले, खीर कहां भागी जा रही है?’’ बेटी का उतावलापन देख तेजबहादुर हंस दिए. वे जानते थे कि पराग की अम्मां जब भी मखाने की खीर बनाती हैं, उन के घर जरूर पहुंचाती हैं.

पराग फिर वापस घर लौट आया था, लेकिन उस दिन लगा था जैसे दिल वहीं गोमती के पास छोड़ आया है. वह बचपन से गोमती को देखता आ रहा है. कालेज की पढ़ाई के लिए ही वह गांव से बाहर गया था, लेकिन इस नजर से उस ने गोमती को नहीं देखा था.

पराग जब वापस घर आया था, तो अम्मां ने उसे खोयाखोया सा देख कर अनेक सवाल किए थे. खीर खातेखाते भी भीगी गोमती दिख रही थी, तो खीर का चम्मच मुंह के बजाय कपड़ों पर गिर पड़ा था. अम्मां जोर से हंसने लगी थीं. बापू भी हंस दिए थे. बड़े भाई अनुराग ने भांप लिया था कि कुछ तो बात है. छोटा भाई गुमसुम है.

बड़े भाई अनुराग ने एक दिन पराग से पूछ ही लिया था. पराग ने उन्हें अपने दिल की बात बता दी थी.

‘‘अरे वाह, यह तो अच्छी बात है. तू गांव में रहता तो बापू से बात करते, पर तू ठहरा शहरी बाबू, नौकरी करने शहर जाएगा,’’ अनुराग भैया ने कहा.

‘‘भैया, वह तो मैं करूंगा ही. मेरा सपना है, शहर में नौकरी करना,’’ पराग बोला.

‘‘तो फिर एक काम कर कि गांव में तब तक रुक जा, जब तक गोमती के दिल की बात भी न जान ले,’’ अनुराग भैया ने कहा.

यह सुन कर पराग खुश हो गया. कुछ दिन बाद पराग को पता चला कि गोमती की एक बड़ी बहन भी है, जो ज्यादातर घर पर ही रहती है. उस के पैर में थोड़ी सी लंगड़ाहट है और नाम रेवती है. पर पराग को गोमती से मतलब था. उस ने गोमती से मिलने का समय भी मांग लिया था.

दूसरे दिन तालाब के मंदिर के पास शाम ढले गोमती इंतजार करती मिली.

वह आज साड़ी में थी. कमर तक चोटी किसी नागिन सी लग रही थी. हलकी पीली साड़ी में उस का रंग बादामी लग रहा था. छोटी सी बिंदी खूबसूरत लग रही थी. नाक में छोटी सी नथ थी. पराग तो मानो उस मुलाकात में पगला सा गया था, जब वह सिमट कर उस की बांहों में आई थी.

‘‘कुछ बोलोगे भी या यों ही बुत बन कर खड़े रहोगे?’’

‘‘क्या कहूं…’’ पराग की आवाज लरज रही थी, फिर भी वह बोला, ‘‘गोमती, हम गांव में साथ ही रहते हैं. एकदूसरे को पसंद भी करते हैं. क्यों न हम जीवनसाथी भी बन जाएं?’’

‘‘बात तो ठीक है तुम्हारी, पर तुम को शहर में जाना है. हमारे घर वाले कैसे मानेंगे?’’ गोमती बोली.

‘‘तो क्या हुआ… शहर में नौकरी लगेगी, तो हम शहर में रहेंगे. गांव में आतेजाते रहेंगे,’’ पराग ने समझाया. फिर वे काफी देर तक वहां रहे और आगे भी मिलते रहे.

एकदम से ट्रेन रुक गई और पराग अपने खयालों से बाहर निकल आया. देखा कि स्टेशन आ गया है. अब यहां से कुछ ही घंटे में बस से अपने गांव पहुंच जाएगा.

जब बस रुकी, तो गांव रतिहानी आ चुका था. अब बस 10 मिनट का रास्ता था. जगहजगह कीचड़ और गड्ढों से बचता हुआ पराग घर पहुंचा. उस ने घर के बड़े गेट को खोला ही था कि पूरा घर लाइट से जगमगा गया. उसी का इंतजार हो रहा था.

भैया, बापू, अम्मां, सब दौड़े चले आए. भाभी गुड़ और पानी ले आईं. पराग ने गुड़ खा कर पानी पिया, फिर कपड़े बदलने चला गया. देर रात हो गई थी, सब अपनेअपने कमरों में चले गए.

सुबह तेज बारिश थी. पराग देर तक सोता रहा. भैया भी खेतों में नहीं गए थे. भाभी 2-3 बार आवाज दे चुकी थीं.

जब पराग उठा, तो सुबह के 9 बज रहे थे. पराग उठ कर किचन में ही चला गया. अरमान भैया ने पराग को देखा, तुरंत ही चाय का कप पकड़ा दिया.

पराग ने चाय जल्दी खत्म की और नहाधो कर अनुराग भैया के साथ नाश्ता करने बैठ गया. नाश्ते के बाद दोनों भाई कमरे में बंद हो गए. भाभी भी कमरे में चली आईं, तो पराग एकदम चुप हो गया.

‘‘भाभी से कैसा परदा, जानते हैं हम गोमती के बारे में,’’ कह कर भाभी जोर से हंस दीं.

‘‘तू बता, गोमती से तो बात होती होगी?’’ भैया ने पूछा.

‘‘हां भैया, होती है.’’

दोनों भाई बड़ी देर तक बतियाते रहे.

दूसरे दिन गांव के दोस्त मिलने आए, पर पराग बेताब था गोमती से मुलाकात करने के लिए. शाम को मिलना तय था. आज मौसम खुला था. जैसे ही दोस्त गए, पराग अपने कमरे में गया, जल्दी से कपड़े बदले.

पराग बाहर आ कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर ही रहा था कि बापू अचानक सामने से आते दिखे, ‘‘कहां चल दिए शहरी बाबू?’’

‘‘बापू, थोड़ा गांव का चक्कर लगाने जा रहा हूं,’’ पराग बोला.

‘‘बाद में चक्करवक्कर लगा लेना, अभी मौसम खराब है.’’

‘‘बारिश बंद है बापू,’’ पराग प्यार से बोला.

‘‘जवान लड़के को क्यों डांट रहे हो?’’ अम्मां उन दोनों की बातें सुनतेसुनते बाहर आईं.

‘‘जाने दो, थोड़ी देर में आ जाएगा,’’ अम्मां ने बेटे की तरफदारी की.

‘‘बेवकूफ हो तुम, नौकरी लगने बाद पहली बार घर आया है, आराम करे,’’ बापू गुस्सा हुए.

‘‘बापू, बस थोड़ी देर में आता हूं,’’ पराग बोला.

‘‘एक काम कर, जाना ही है तो भाई को साथ ले जा,’’ बापू बोले.

पराग को गुस्सा आ गया, ‘‘बापू, मैं बड़ा हो गया हूं, भैया के साथ जाऊंगा?’’

‘‘बापू सही बोल रहे हैं. मैं भी साथ चलता हूं,’’ भैया अंदर आतेआते बोले.

‘‘भैया, आप भी…’’ पराग गुस्साया.

‘‘चल, आ जा,’’ कहते हुए भैया मोटरसाइकिल पर बैठ गए.

मजबूरन पराग को मोटरसाइकिल स्टार्ट करनी पड़ी. थोड़ी दूर जा कर पराग मोटरसाइकिल रोकते हुए बोला, ‘‘भैया, पता है आप को कि मैं गोमती से मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? मैं थोड़ी दूरी पर रहूंगा. तू मिल लेना,’’ भैया बोले.

‘‘भैया, ऐसे मजा नहीं आएगा,’’ पराग बोला.

‘‘तो क्या करूं?’’ भैया बोले.

‘‘तब तक आप किसी दोस्त के पास हो लो,’’ पराग बोला.

‘‘कहीं कोई बात हो गई तो बापू मेरे पैर तोड़ देंगे,’’ भैया अनुराग ने कहा.

‘‘भैया, क्या मैं बच्चा हूं? क्या ऊंचनीच होगी?’’ पराग बोला.

‘‘अच्छाअच्छा ठीक है, पर ध्यान रखना अपना,’’ कहतेकहते भैया वहां से चले गए.

यह सुन कर पराग हंस दिया, फिर उस ने अपनी मोटरसाइकिल तालाब की तरफ मोड़ दी.

इतने में पराग का मोबाइल फोन बज उठा. मजबूरन उसे रुकना पड़ा. देखा तो गोमती का नाम चमक रहा था.

‘‘कहां अटक गए? मैं इंतजार कर रही हूं,’’ गोमती की आवाज नाराजगी से भरी थी.

‘‘मैं बस पहुंच ही रहा हूं. रास्ते में हूं,’’ पराग बोला.

‘‘मां ने कुछ सामान लाने को कहा था. तुम से मिल कर फिर बाजार जाऊंगी,’’ गोमती बोली.

‘‘छोटा सा बाजार है. पहले हम दोनों मोटर साइकिल से घूमेंगे, फिर तुम को बाजार के नजदीक छोड़ दूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ फिर गोमती बोली, ‘‘घर कब आओगे पापा से बात करने?’’

‘‘भैया को सब पता है. भैया पापा को समझ कर साथ लाएंगे. अच्छा फोन काटो, मिल कर बात करेंगे,’’ इतना कह कर पराग मोबाइल अपनी जेब में रखने लगा कि इतने में उस के सिर पर किसी ने चोट की और उस का चेहरा पूरे कपड़े से ढक दिया गया. हाथ एकदम से पीछे बांध दिए गए.

यह सब इतना अचानक हुआ कि पराग संभल नहीं पाया. वह चिल्लाने लगा. उस के चिल्लाने पर उस का मुंह भी बांध दिया गया.

पराग को एक दिशा में ले जाया जाने लगा. तकरीबन 10 मिनट बाद गाड़ी को रोक दिया गया, फिर दोनों कंधों से पकड़ कर उसे दरवाजे से बाहर धकेल दिया गया.

थोड़ी दूर चलने के बाद पराग की आंखों की पट्टी खोल दी गई. पीछे बंधे हाथ भी खोल दिए गए. जब उस ने अपनेआप को संभाला तो देखा कि सामने 2-3 आदमी खड़े थे. सभी के चेहरे ढके हुए थे और हाथों में बंदूकें थीं.

‘‘पराग बाबू, जल्दी कपड़े बदलो. उतारो यह शर्ट.’’

फिर पराग को शादी के कपड़े पहनाए गए. सिर पर चमकीली पगड़ी रख दी गई.

पराग सम?ा गया कि वह पकड़ौआ गैंग का शिकार बन गया है. गोमती इंतजार करतेकरते चली गई होगी.

‘‘मैं पुलिस में रिपोर्ट करूंगा,’’ पराग ने आवाज को कड़क बनाते हुए कहा.

‘‘वह भी कर लेना, पहले शादी कर लो,’’ एक आदमी बोला.

पराग को पकड़ कर शादी के मंडप में बिठा दिया गया. वहां पहले से लाल जोड़े में सजी दुलहन बैठी थी.

‘‘मैं इस को शादी नहीं मानता. मैं पढ़ालिखा हूं,’’ पराग ने हिम्मत की.

‘‘पढ़ेलिखे हो, इसलिए उठवाए गए हो पराग बाबू,’’ एक आवाज ने चौंका दिया. सामने देखा तो गोपाल काका थे.

‘‘गोपाल काका आप…?’’ पराग के चेहरे पर हैरानी थी.

‘‘हां बेटा, पर यहां गलत कुछ भी नहीं हो रहा है, बस तुम शांत रहो.’’

‘‘यह जुल्म है,’’ पराग गिड़गिड़ाया.

‘‘कोई जुल्म नहीं है. पंडितजी, आप मंत्र पढ़ो,’’ काका बोले.

मुश्किल से आधे घंटे में शादी के मंत्र पढ़ कर पंडित ने फेरे करवा दिए. गोपाल काका वहां काम में हाथ बंटवा रहे थे, इसलिए उन का चेहरा ढका नहीं था, बाकी लोगों के चेहरे ढके थे.

‘‘चलो, खड़े हो जाओ,’’ पंडित के इतना कहते ही पराग दुलहन के साथ खड़ा हो गया.

‘‘चलो, पैर छुओ इन के,’’ गोपाल काका ने कहा.

पराग ने देखा कि सामने एक चेहरा ढका आदमी था. पास ही एक औरत भी अपना चेहरा ढके हुए खड़ी थी. पराग उन के पैरों में झुक गया. उन दोनों ने पराग के सिर पर हाथ रखा. पराग को उस की दुलहन के साथ वापस कार में बिठा दिया गया. कार चल पड़ी.

तकरीबन आधे घंटे बाद कार गांव के अंदर दाखिल होने लगी. कार पराग के घर के सामने जा कर रुक गई.

‘‘चलो, उतरो जल्दी,’’ साथ आए आदमी ने कहा.

बाहर पराग अनुराग भैया और बापू परेशान घूम रहे थे कि कार को रुकते देख तुरंत नजदीक आए. बापू का गुस्सा हद पर था.

‘‘मैं ने बोला था कि अकेले मत जाओ, भैया को ले कर जाओ. ज्यादा होशियार बन रहे थे, अब भुगतो.’’

पराग बोला, ‘‘बापू, मैं इस शादी को नहीं मानता.’’

‘‘अब तो मानना पड़ेगा बेटा,’’ बापू बोले, ‘‘अब कुछ नहीं हो सकता.’’

‘‘पराग की मां, आरती की थाली ले आओ और बहू को अंदर ले जाओ.’’

पराग की मां आरती की थाली ले कर आईं और उन दोनों को अंदर ले गईं.

पराग गुस्से में था. उस ने गले की माला निकाल कर तोड़ दी और बड़े भैया के गले लग कर रोने लगा.

थोड़ी देर के बाद पराग बाहर आंगन में चला गया और वहां बिछी खाट पर सो गया. दुलहन अकेली कमरे में उस का इंतजार करती रही.

‘‘अरे वीरभद्र बाबू, कहां हो भई…’’ जोरजोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

‘‘बापू तो सुबहसुबह खेतों की तरफ निकल गए थे,’’ बड़े भैया अनुराग बोले.

इतने में पराग के बापू भी बाहर से आते दिखे. पराग जाग तो गया था, पर सिर पर चादर ओढ़े सुन रहा था.

‘‘कहां सुबहसुबह शोर मचा हुआ है,’’ सोचते हुए पराग ने चादर के अंदर ही मोबाइल फोन देखा. सुबह के साढ़े 9 बज रहे थे.

‘‘अभी यों ही पड़ा रहता हूं. शोर कम हो जाए, तब उठूंगा. सारी रात टैंशन में था,’’ पराग ने सोचा.

‘‘अरे, जमींदार बाबू, आप…’’ पराग के बापू की आवाज में हैरानी थी.

‘‘अरे भई, लड्डू खाओ. अब हम समधी हैं,’’ तेजबहादुर की ऊंची आवाज गूंजी और यह कहतेकहते लड्डू पराग के बापू के मुंह में ठूंस दिया.

यह सुनते ही पराग के दिल की धड़कन तेज होने लगी. मतलब, तेजबहादुर बापू के समधी तो क्या घूंघट में गोमती है? वह समझ नहीं पाया.

मां खुशी से चिल्ला पड़ीं, ‘‘पराग, ओ पराग.’’

बापू और तेजबहादुर घर के अंदर बैठक में आ गए.

अब पराग ने सोचा कि उसे उठना चाहिए, क्योंकि बैठक से खुशियों भरे ठहाकों की आवाज आ रही थी.

पराग तुरंत उठा और तकरीबन दौड़ता हुआ अपने कमरे से बाहर आया. उस ने सोचा कि पहले फ्रैश हो ले, घर में देर तक बातें चलेंगी.

पराग नहाधो कर निकला ही था, तभी पीछे से किसी ने उसे अपनी बांहों में कस लिया. उस के दिल की धड़कन तेज होने लगी. वह पलटा, गोमती सामने थी. तुरंत ही उस ने अपने गीले होंठ गोमती के प्यासे होंठों पर रख दिए. उसे लगा कि उसे उस की मंजिल मिल गई है.

तभी गोमती ने खुद को छुड़ाया और तुरंत ही बैठक में चली गई. पराग खुश हो गया. उस ने अपनी पसंद की सब से प्यारी शर्ट पहनी. हलकी खुशबू वाला परफ्यूम लगा कर वह भी बैठक में आ गया.

गरमागरम पकौड़ों का दौर चल रहा था. पराग के आते ही बैठक में मानो जान पड़ गई.

‘‘आओ बेटा,’’ तेजबहादुर बोले.

‘‘इन के पैर छुओ बेटा, ये तुम्हारे ससुर हैं,’’ बापू खुश हो कर बोले.

पराग ने ?ाक कर पैर छू लिए. वह सम?ा गया कि गोमती से उस की शादी कर दी गई है. गोमती भी वहीं बैठी थी और तिरछी नजरों से उसे देख कर मुसकराए जा रही थी.

तभी अंदर से हलकी गुलाबी साड़ी में लिपटी घूंघट किए बहू आई. मां ने उसे अंदर वाले कमरे में ही बिठा दिया.

पराग का सिर चकरा उठा. इस का मतलब घूंघट में दुलहन कोई दूसरी है, क्योंकि गोमती तो सामने है.

गोमती की बहन रेवती पराग की पत्नी हुई. पराग अपने बड़े भैया को इशारा करता हुआ अंदर चला गया. बड़े भैया जल्दी से अंदर चले आए.

‘‘बोल, क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा.

‘‘भैया, मुझे बचा लो. मैं इस शादी को नहीं मानता. गोमती के पापा से बात कर के मेरी शादी गोमती से करवा दो. प्लीज भैया.’’

‘‘देख पराग, जो हुआ सो हुआ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ भैया बोले.

‘‘भैया, आप तो मेरी फीलिंग को समझ,’’ पराग गिड़गिड़ाया.

‘‘देख, एक काम कर,’’ भैया सोचते  हुए बोले.

‘‘क्या…?’’ पराग थोड़ा उतावलेपन से बोला.

‘‘तू गोमती से मुलाकात कर ले आज ही, अगर वह राजी है, तो मैं तेरी शादी गोमती से करवा देता हूं, वहीं तेरे शहर दिल्ली में… बोल? जरूरत पड़ने पर कानून का सहारा लेंगे.’’

‘‘हां, यह हो सकता है,’’ पराग खुश हो गया. उस ने मोबाइल से मैसेज कर दिया कि आज शाम 6 बजे पीपल के पेड़ के नीचे मिलो.

गोमती का मैसेज तुरंत आ गया, ‘क्यों नहीं.’

शाम को सूरज की सुनहरी किरणें तालाब के पानी में चमक रही थीं. पीपल के चबूतरे पर बैठी गोमती पराग का इंतजार कर रही थी.

पराग के आते ही गोमती उस से लिपट गई. पराग ने भी बेताबी से उसे अपने में समेट लिया. गोमती ने पराग की शर्ट के बटनों से खेलते हुए कहा, ‘‘पराग, अब हम हमेशा साथ रहेंगे. कोई हमें अलग नहीं कर सकता.’’

‘‘हां गोमती…’’ पराग ने गोमती के बिखरे बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘गोमती, हम दोनों शादी कर

लेते हैं.’’

‘‘क्या… शादी?’’ गोमती अचानक चौंक गई.

‘‘इस में चौंकने की क्या बात है?’’ पराग ने सवाल किया.

‘‘शादी की क्या जरूरत है?’’ गोमती बोली, ‘‘समय ने हमें मिला तो दिया, चाहे किसी भी रूप में, तुम मेरे जीजू हुए. हमें यों भी कोई मिलने से नहीं रोक सकता.’’

‘‘अरे…’’ पराग हैरान था.

‘‘सही तो है… हम सबकुछ कर सकते हैं और करेंगे भी. मैं तो खुश हूं. सुहागरात भी मनाएंगे आज ही.’’

‘‘पागल तो नहीं हो गई हो गोमती, दिमाग ठिकाने पर है तुम्हारा? मैं ने तुम से प्यार किया है. अभी तक रेवती का तो घूंघट उठा कर उस का चेहरा भी नहीं देखा है.’’

‘‘तो फिर हम क्या करें पराग? तुम बताओ?’’ गोमती बोली.

‘‘तुम राजी हो तो सारी बातें घर वालों को बता देते हैं. हो सकता है कि तुम्हारे और मेरे पापा मान जाएं,’’ पराग ने समझाया. गोमती चुप रही.

‘‘हम कानून की भी मदद ले सकते हैं,’’ पराग ने दोबारा कोशिश की.

‘‘नहीं पराग, ऐसा नहीं हो पाएगा. पापा नहीं मानेंगे,’’ गोमती बोली, ‘‘इस गांव की प्रथा ही है, कोई अच्छी नौकरी वाला लड़का मिल गया तो ठीक, नहीं तो पकड़ौआ ब्याह कर देते हैं, अपहरण कर के. तुम ऐसे भोले बन रहे हो, जैसे जानते ही नहीं हो,’’ गोमती रूठने वाले अंदाज में बोली.

‘‘पता है, लेकिन गाज मुझ पर ही गिरेगी, यह पता नहीं था,’’ पराग दुखी था, ‘‘हम कानून की मदद ले कर भी इस समस्या का हल कर सकते हैं गोमती,’’ पराग बोला, ‘‘तुम भी प्यार करती हो न मुझ से?’’

‘‘प्यार करती हूं, पर क्या हम बिना शादी किए जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाए रख सकते?’’ गोमती बोली.

‘‘नहीं गोमती, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. दिल पर बोझ नहीं होना चाहिए. यह रेवती के साथ नाइंसाफी होगी.’’

‘‘जिसे तुम ने देखा नहीं, उस के साथ कैसी नाइंसाफी?’’ गोमती बोली.

‘‘मैं आखिरी बार पूछ रहा हूं गोमती, क्या चाहती हो तुम?’’ पराग ने पूछा.

‘‘तुम्हारी बनी रहना चाहती हूं,’’ कह कर गोमती पराग के सीने से लिपट गई.

पराग फिर बेबस हो गया. उस ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया. गोमती को सीने से लिपटा रहने दिया.

‘‘क्या हुआ पराग? प्यार करो न,’’ गोमती ने कहा, ‘‘हम दोनों सभी सीमाएं तोड़ कर एक हो जाएं,’’ गोमती की सांसें तेज होने लगी थीं.

‘‘मुझे ऐसा प्यार नहीं चाहिए. मैं वापस जा रहा हूं,’’ कहतेकहते पराग मोटरसाइकिल की तरफ बढ़ने लगा, तभी गोमती ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा.

‘‘गोमती, अब भी मौका है, सोच लो,’’ पराग बोला,

‘‘नहीं पराग, इतनी परेशानियों, लड़ाई झगड़े, कानून, पुलिस के लफड़े में नहीं फंसना मुझे.’’

पराग ने कोई जवाब नहीं दिया और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी. पराग ने भैया को फोन कर दिया.

‘‘क्या हुआ पराग? क्या जवाब दिया गोमती ने?’’ भैया अनुराग ने पूछा.

‘‘भैया, आप सही बोले थे. मैं अपनी दुलहन रेवती को ले कर दिल्ली जाऊंगा. मांबापू को भी बता देना,’’ पराग की मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी.

मां जल्दी आना: विनीता अपनी मां को क्यों साथ रखना चाहती थी?

औफिस से आ कर जैसे ही मैं ने घर में प्रवेश किया एक सोंधी सी महक मेरे पूरे तनमन में फैल गई. बैग को सोफे पर पटक हाथमुंह धो कर मैं सीधे किचन में जा घुसी. कड़ाही में सिक रहे समोसों को देख कर पीछे से मां के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘अरे वाह मां, आज तो आप ने समोसे बना कर मोगैंबो को खुश कर दिया. बोलिए आप को क्या चाहिए.’’

‘‘तू खुद मां बन गई है पर अभी भी बचपना नहीं गया तेरा, ले जल्दी से खा कर बता कैसे बने हैं.’’ प्लेट में 2 समोसे और धनिया की चटनी डाल कर देते हुए मां ने हलकी सी चपत मेरे गाल पर लगा दी.

‘‘मां बन गई तो क्या मैं आप की बच्ची नहीं रही,’’ कहते हुए मैं समोसे खाने लगी. सर्दियों में मां के हाथ के समोसों के हम सब दीवाने थे. मुझे याद है मां किलोकिलो मैदा के समोसे बनातीं पर हम भाईबहन खाने में प्रतियोगिता सी करते और सारे समोसों को चट कर जाते थे. मां को कुकिंग का बहुत शौक था इसीलिए शायद हम भाईबहन बहुत चटोरे हो गए थे. मैं बचपन की सुनहरी यादों में कुछ और खोती उस से पहले मेरे पतिदेव अमन ने घर में प्रवेश किया और आते ही फरमान जारी किया.

‘‘विनू, जल्दी से कड़क चाय पिला दो सिर में तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बेटा तुम हाथमुंह धो कर आ जाओ मैं ने तुम्हारी पसंद के पनीर के समोसे बनाए हैं और कड़क चाय बस तैयार होने ही वाली है.’’

‘‘अरे मां, आप क्यों परेशान होती हो इतनी बार आप से कहा है कि आप बस आराम किया करिए पर नहीं आप मान नहीं सकतीं.’’

‘‘बेटा हाथपैर चलते रहेंगे तो बुढ़ापा आराम से कट जाएगा पर अगर जाम हो गए तो मेरे साथसाथ तुम लोग भी परेशान हो जाओगे. इसलिए हलकाफुलका काम तो करने ही देते रहो… जिंदगीभर तो काम में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहे और अब तुम आराम करने को कह रहे हो तो बताओ कैसे हो पाएगा…’’ मां ने मुसकराते हुए कहा तो अमन निशब्द से हो गए.

हमें खिला कर मां अपनी प्लेट लगा कर ले आईं और टीवी देखते हुए स्वयं भी खाने लगीं. मां की शुरू से आदत है कि जब तक घर के एकएक सदस्य को खिला नहीं लेंगी तब तक स्वयं नहीं खाएंगी.

मैं चेंज कर के कुछ देर आराम करने के उद्देश्य से बिस्तर पर लेट गई. लेटते ही मन आज से 2 वर्ष पूर्व जा पहुंचा जब एक दिन सुबहसुबह मेरे भाई अनंत का मेरे पास फोन आया. मां और बाबूजी उस समय अनंत के ही पास थे. मेरे फोन उठाते ही वह बोला, ‘‘मैं तो परेशान हो गया हूं इन दोनों से, जब भी घर में आओ तो लगता है मानो 2 जासूस बैठे हैं घर में, हमारा इन के साथ एडजस्ट करना बहुत मुश्किल हो रहा है. दीदी आप ही कोई तरीका बताओ जिस से ये दोनों यहां से चले जाएं,’’ अनंत की बातें सुन कर मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था.

उस से उम्र में 10 वर्ष बड़ी होने के बावजूद समझ नहीं पाई कि उस के प्रश्न का क्या जवाब दूं. जिस बेटे के जन्म के लिए मांबाबूजी ने न जाने कितनी मन्नतें मांगी, कितने मंदिर मस्जिद के दरवाजे खटखटाए और जिस के जन्म होने पर लगा मानो उन के जीवन के समस्त दुखों का हरण हो गया हो वही बेटा आज उन्हें जासूस कह रहा था. अपनी संतान की प्रगति से खुश होने वाले मातापिता अपने ही बेटे के घर में जासूस कैसे हो सकते हैं. भारतीय संस्कृति में पुत्र को मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने वाला कहा गया है.

हमारे धर्मरक्षकों ने इस पर और चाशनी चढ़ाई कि मरणोपरांत पुत्र के द्वारा दी गई मुखाग्नि से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है अन्यथा तो मानव बस नरक में ही जाता है बस इसी मानसिकता के शिकार धर्मभीरू मांबाबूजी इस कमर तोड़ती महंगाई में भी एक के बाद एक तीन बेटियों की कतार लगाते गए. इस बीच मां के गर्भ में पल रहीं कुछ बेटियों को तो जन्म ही नहीं लेने दिया गया. खैर इंतजार का फल मीठा होता है यह कहावत हमारे घर में भी चरितार्थ हुई और अंत में जब बेटा हुआ तो लगा मानो साक्षात स्वर्ग के द्वार खुल गए हों.

मांबाबूजी को उन का वह अनमोल हीरा मिल गया था जो उन की वृद्धावस्था को तारने वाला था. अपने हीरेमोती जैसे भाई को पा कर हम बहनों की खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि हर रक्षाबंधन और भाईदूज पर हमें ताऊजी के बेटों की राह देखनी पड़ती थी. अब वह औपचारिकता समाप्त हो गई थी. समय अपनी गति से बढ़ रहा था. हम तीनों बहनों की शादियां हो गईं. दोनों बड़ी बहनें अपने परिवार के साथ विदेश जा बसीं थी सो सालदोसाल में एक बार ही आ पातीं थी. न केवल भाई अनंत बल्कि हम बहनों को पढ़ाने लिखाने में भी मांबाबूजी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब तक अनंत भी इंजीनियरिंग कर के दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी करने लगा था. मैं भी यहां मुंबई में एक बैंक में कार्यरत थी.

भारतीय समाज में लड़केकी नौकरी लगते ही उस की बोली लगनी प्रारंभ हो जाती है सो अनंत के लिए भी रिश्तों की लाइन लगी थी. जब भी किसी लड़की का फोटो आता तो मांबाबूजी की खुशी देखते ही बनती थी. अपने बुढ़ापे का सुखमय होने का सपना देख रहे मांबाबूजी को उस समय तगड़ा झटका लगा जब एक बार अनंत छुट्टियों में घर आया और मांबाबूजी की लड़की देखने की तैयारी देख कर घोषणा की.

‘‘मां मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और उसी से विवाह करूंगा. आप लोग

नाहक परेशान न हों.’’ अनंत एक वाक्य में अपनी बात कह कर घर से बाहर निकल गया.

‘‘मांबाबूजी को काटो तो खून नहीं. मां कभी उस दरवाजे को देखतीं जहां से अभी अनंत निकल कर गया था और कभी बाबूजी को. अपने कानों सुनी बात पर वे भरोसा ही नहीं कर पा रहीं थीं. अचानक किए गए अनंत के इस विस्फोट से वे बुरी तरह घबरा गईं और फूटफूट कर रोने लगीं और बोली,’’ इसी दिन के लिए पैदा किया था इसे. इसे पता भी है कि कितने बलिदानों के बाद हम ने इसे पाया है. क्याक्या सपने संजोए थे बहू को ले कर, इस ने एक बार भी नहीं सोचा हमारे बारे में. बाबूजी शायद मामले की गंभीरता को भांप नहीं पाए थे या अपने बेटे पर अतिविश्वास को सो वे मां को दिलासा देते हुए बोले, ‘‘मैं समझाऊंगा उसे, बच्चा है, समझ जाएगा. सब ठीक हो जाएगा. यह सब क्षणिक आवेश है. मेरा बेटा है अपने पिता की बात अवश्य मानेगा.’’

मां को भी बाबूजी की बातों पर और उस से भी ज्यादा अपने बेटे पर भरोसा था. सो बोलीं, ‘‘हां तुम सही कह रहे हो मुझे लगता है मजाक कर रहा होगा. ऐसा नहीं कर सकता वह. हमारे अरमानों पर पानी नहीं फेरेगा हमारा बेटा.’’

चूंकि अगले दिन अनंत वापस दिल्ली चला गया था सो बात आईगई हो गई पर अगली बार जब अनंत आया तो बाबूजी ने एक लड़की वाले को भी आने का समय दे दिया. अनंत ने उन के सामने बड़ा ही रूखा और तटस्थ व्यवहार किया और लड़की वालों के जाते ही मांबाबूजी पर बिफर पड़ा.

‘‘ये क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने, जब मैं ने आप को बता दिया कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और शादी भी उसी से करूंगा फिर इन लोगों को क्यों बुलाया. वह मेरे साथ मेरे ही औफिस में काम करती है. और यह रही उस की फोटो,’’ कहते हुए अनंत ने एक पोस्टकार्ड साइज की फोटो टेबल पर पटक दी.

अपने बेटे की बातों को किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी सुन रहीं मां ने लपक कर टेबल से फोटो उठा ली. सामान्य से नैननक्श और सांवले रंग की लड़की को देख कर उन की त्यौरियां चढ़ गईं और बोलीं, ‘‘बेटा ये तो हमारे घर में पैबंद जैसी लगेगी. तुझे इस में क्या दिखा जो लट्टू हो गया.’’

‘‘मां मेरे लिए नैननक्श और रंग नहीं बल्कि गुण और योग्यता मायने रखते हैं और यामिनी बहुत योग्य है. हां एक बात और बता दूं कि यामिनी हमारी जाति की नहीं है,’’ अनंत ने कुछ सहमते हुए कहा.

‘‘अपनी जाति की नहीं है मतलब???’’ बाबूजी गरजते स्वर में बोले.

‘‘मतलब वह जाति से वर्मा हैं’’ अनंत ने दबे से स्वर में कहा.

‘‘वर्मा!!! मतलब!! सुनार!!! यही दिन और देखने को रह गया था. ब्राह्मण परिवार में एक सुनार की बेटी बहू बन कर आएगी… वाहवाह इसी दिन के लिए तो पैदा किया था तुझे. यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया. मुझे यह शादी कतई मंजूर नहीं,’’ बाबूजी आवेश और क्रोध से कांपने लगे थे. किसी तरह मां ने उन्हें संभाला.

‘‘तो ठीक है यह नहीं तो कोई नहीं. मैं आप लोगों की खुशी के लिए आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’ अनंत अपना फैसला सुना कर घर से बाहर चला गया था. उस दिन न घर में खाना बना और न ही किसी ने कुछ खाया. प्रतिपल हंसीखुशी से गुंजायमान रहने वाले हमारे घर में ऐसी मनहूसियत छाई कि सब के जीवन से उल्लास और खुशी ने मानो अपना मुंह ही फेर लिया हो. विवाहित होने के बावजूद हम बहनों को भी इस घटना ने कुछ कम प्रभावित नहीं किया. मांबाबूजी का दुख हम से देखा नहीं जाता था और भाई अपने पर अटल था पर शायद समय सब से बड़ा मरहम होता है. कुछ ही माह में पुत्रमोह में डूबे मांबाबूजी को समझ आ गया था कि अब उन के पास बेटे की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. जिस घर की बेटियों को उन की मर्जी पूछे बगैर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया था उस घर में बेटे की इच्छा का मान रखते हुए अंतर्जातीय विवाह के लिए भी जोरशोर से तैयारियां की गईं.

अनंत मांबाबूजी की कमजोर नस थी सो उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. खैर गाजेबाजे के साथ हम सब यामिनी को हमारे घर की बहू बना कर ले आए थे. सांवली रंगत और बेहद साधारण नैननक्श वाली यामिनी गोरेचिट्टे, लंबे कदकाठी और बेहद सुंदर व्यक्तित्व के स्वामी अनंत के आसपास जरा भी नहीं ठहरती थी पर कहते हैं न कि ‘‘दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज है?’’

एक तो बड़ा जैनरेशन गैप दूसरे प्रेम विवाह तीसरे मांबाबूजी की बहू से आवश्यकता से अधिक अपेक्षा, इन सब के कारण परिवार के समीकरण धीरेधीरे गड़बड़ाने लगे थे. बहू के आते ही जब मांबाबूजी ने ही अपनी जिंदगी से अपनी ही पेटजायी बेटियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था तो बेटेबहू के लिए तो वे स्वत: ही महत्वहीन हो गई थी. कुछ ही समय में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे.

अनंत और उस की पत्नी यामिनी को परिवार के किसी भी सदस्य से कोई मतलब नहीं था. कुछ समय पूर्व ही यामिनी की डिलीवरी होने वाली थी तब मांबाबूजी गए थे अनंत के पास. नवजात पोते के मोह में बड़ी मुश्किल से एक माह तक रहे थे दोनों तभी अनंत ने मुझ से उन्हें वापस भोपाल आने का उपाय पूछा था. मैं ने भी येनकेन प्रकारेण उन्हें दिल्ली से भोपाल वापस आने के लिए राजी कर लिया था.

अभी उन्हें आए कुछ माह ही हुए थे कि अचानक एक दिन बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा और वे इस दुनिया से ही कूच कर गए पीछे रह गई मां अकेली. लोकलाज निभाते हुए अनंत मां को अपने साथ ले तो गया परंतु वहां के दमघोंटू वातावरण और यामिनी के कटु व्यवहार के कारण वे वापस भोपाल आ गईं और अब तो पुन: दिल्ली जाने से साफ इंकार कर दिया. सोने पे सुहागा यह कि अनंत और यामिनी ने भी मां को अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. मनुष्य का जीवन ही ऐसा होता है कि एक समस्या का अंत होता है तो दूसरी उठ खड़ी होती है.

अचानक एक दिन मां बाथरूम में गिर गईं और अपना हाथ तोड़ बैठीं. अनंत ने इतनी छोटी सी बात के लिए भोपाल आना उचित नहीं समझा बस फोन पर ही हालचाल पूछ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. दोनों बड़ी बहनें तो विदेश में होने के कारण यूं भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थीं. बची मैं सो अनंत का रुख देख कर मेरे अंदर बेटी का कर्त्तव्य भाव जाग उठा. फ्रैक्चर के बाद जब मां को देखने गई तो उन्हें अकेला एक नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आने की मेरी अंतआर्त्मा ने गवाही नहीं दी और मैं मां को अपने साथ मुंबई ले कर आ गई. मैं कुछ और आगे की यादों में विचरण कर पाती तभी मेरे कानों में अमन का स्वर गूंजा.

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

एक थप्पड़ की कीमत: रवि ने कौन सी गलती की थी

रोटी बनाती ऋतु को ‘चटाक’ की आवाज के साथ सोहम के रोने का शोर सुनाई दिया. उस ने कमरे में जा कर देखा तो पाया कि रवि ने आज फिर सोहम को एक थप्पड़ जड़ दिया था.

ऋतु सोहम को गोद में ले कर रसोई में आ गई और उसे स्लैब पर बिठा कर चुप कराया, फिर आटे की एक लोई दे दी. नन्हा सोहम पलभर में रोना भूल कर उस लोई से खेलने लगा.

रोटी बेलती ऋतु को सोहम के गाल पर लाल निशान दिख रहे थे. मां का दिल कचोट गया.

‘‘आप ने आज फिर सोहम पर हाथ उठाया?’’ सोहम को सुला रही ऋतु ने रवि से पूछा, ‘‘ऐसा क्या किया था सोहम ने?’’

‘‘बहुत जिद्दी हो गया है सोहम. रिमोट ही नहीं दे रहा था. और हां, मैं ने थप्पड़ नहीं मारा था, बस हलकी सी चपत लगाई थी,’’ रवि बोला.

रवि की बात सुन कर ऋतु हैरान रह गई. अगर वह हलकी सी चपत थी, तो सोहम का गाल कैसे लाल हो गया?

‘‘तुम भी न ऋतु, हर छोटीछोटी बात पर लड़ने लग जाती हो. अरे, सोहम मेरा भी बेटा है. मैं भी उस से प्यार करता हूं और एक थप्पड़ या चपत लगने से तुम्हारा बेटा टूट नहीं जाएगा. लड़का है, इतना तो बरदाश्त करना आना ही चाहिए.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हो रवि…

5 साल का बच्चा है सोहम. तुम्हारी यह आदत होती जा रही है कि कहीं भी हाथ चला देते हो. उस दिन सिर पर मार दिया था. कभी कहीं गलत जगह चोट लग गई तो जिंदगीभर पछताना पड़ेगा,’’ ऋतु ने समझाया और सोने चली गई.

सोहम ऋतु और रवि का एकलौता बेटा था. वे दोनों उसे बहुत प्यार करते थे, लेकिन रवि की गंदी आदत थी हाथ चला देने की. ऋतु के बारबार टोकने पर भी वह नहीं सुधर रहा था, उलटा ऋतु से बहस करता था. इस बात पर ऋतु चिढ़ जाती और कोशिश करती कि जब रवि घर पर हो, तब वह सोहम को अपने साथ ही रखे.

रविवार के दिन शाम को थप्पड़ लगा दिया क्रिकेट मैच आने वाला था, जबकि सोहम कार्टून फिल्म देख रहा था.

‘‘सोहम, रिमोट दो… मैच आने वाला है,’’ रवि ने कहा.

‘‘पापा, बस 5 मिनट और देखने दो न,’’ सोहम ने जिद की.

‘‘नहीं… जल्दी दो रिमोट, वरना टौस निकल जाएगा,’’ रवि ने चिढ़ते हुए कहा.

सोहम नहीं माना, तो आदत के मुताबिक रवि ने उस के सिर के पीछे एक चपत लगा दी और उस से रिमोट छीन लिया.

सोहम सुबकने लगा, पर जल्दी ही वह अपने खिलौनों से खेलने लगा. आधा घंटा भी नहीं बीता कि सोहम को उलटी आ गई.

‘‘मम्मी, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है,’’ अपने बच्चे की बात सुन कर ऋतु डर गई.

‘‘क्या हो गया सोहम?’’ ऋतु ने घबरा कर पूछा.

‘‘मम्मी, सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है,’’ रोते हुए सोहम ने सिर के पीछे की तरफ इशारा किया.

ऋतु ने सोहम के सिर पर तेल की मालिश कर एक पेन किलर दवा दी और गोदी में सिर ले कर दबाने लगी.

ऋतु को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उसे नहीं पता था कि रवि ने सोहम के सिर के पीछे मारा था. जब दोबारा उलटी हुई, तब ऋतु ने घबरा कर रवि को आवाज दी, ‘‘देखो न, सोहम के सिर में बहुत दर्द हो रहा है. 2 बार उलटी भी कर दी है. कह रहा है कि अच्छा नहीं लग रहा है. चलो न, किसी डाक्टर को दिखा दें…’’

‘‘यह टीवी बहुत देखता है, इसलिए सिर में दर्द हो रहा होगा. इतनी रात को कहां जाएंगे डाक्टर को दिखाने… कल तक ठीक नहीं हुआ तो दिखा देंगे,’’ इतना कह कर रवि मैच देखने लगा.

सोहम का सिर दबातेदबाते ऋतु और सोहम दोनों सो गए. अगले दिन जब ऋतु जागी तो देखा कि सोहम का आधा चेहरा सूजा हुआ था.

रवि और ऋतु तुरंत सोहम को डाक्टर के पास ले गए. सारी बात सुन कर डाक्टर ने पूछा, ‘‘कोई चोट तो नहीं लगी न बच्चे के सिर के पिछले हिस्से में?’’

डाक्टर की बात सुन कर रवि का चेहरा सफेद पड़ गया और बोला, ‘‘कल मैं ने सोहम के सिर के पीछे थप्पड़ मार दिया था, तभी उसे दर्द…’’

डाक्टर को समझते देर न लगी. सोहम की इस हालत का जिम्मेदार रवि खुद था.

जब डाक्टर को पता चला, तो उन्होंने रवि को खूब डांटा. ऋतु का तो रोरो कर बुरा हाल हो गया, ‘‘लाखों बार समझाया था तुम्हें, अब देख लो… अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ, तो मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगी.’’

आननफानन में सारे टैस्ट हुए. बात ज्यादा नहीं बिगड़ी थी, लेकिन सोहम की आंखों पर हमेशा के लिए ज्यादा पावर का चश्मा चढ़ गया था.

रवि एक अपराधी की तरह अपने बेटे के सामने खड़ा था. जिस थप्पड़ को मामूली समझ कर वह जबतब जड़ देता था, आज वही थप्पड़ अपनी कीमत वसूल रहा था.

पति की संतान : क्या थी सरिता की परेशानी

हरीतिमा के आने से सरिता की परेशानी बहुत कम हो गई थी, क्योंकि वह घर का सारा काम संभाल लेती थी.

पहले सरिता घर के बहुत से काम निबटा लेती थी. लेकिन जब से पति बीमार हुए थे और बिस्तर पकड़ चुके थे तब से पार्ट टाइम कामवाली बाई से उस का काम नहीं चलता था. उसे परमानैंट नौकरानी की जरूरत थी जो पूरा घर संभाल सके.

सरिता को पति का मैडिकल स्टोर सुबह से रात तक चलाना होता था. दुकान में 3 नौकर थे. सरिता बीच में थोड़ी देर के लिए खाना खाने और फ्रैश होने घर आती थी. सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक उसे मैडिकल स्टोर पर बैठना पड़ता था. काम सारा नौकर ही करते थे लेकिन हिसाब उसे ही देखना पड़ता था.

काफी समय तक सरिता को बहुत समस्या हुई. घर में एक बेटा, एक बेटी थे जो 8वीं और 9वीं क्लास में पढ़ते थे. उन के लिए चाय, नाश्ता, सुबह का टिफिन तैयार कर के स्कूल भेजना और शाम की चाय के बाद भोजन तैयार करना और खिलाना सब हरीतिमा की जिम्मेदारी थी.

बीमार पति को समय पर दवाएं और डाक्टर के बताए मुताबिक भोजन देना… यह सब हरीतिमा के बिना मुमकिन नहीं था.

सरिता जब बहुत परेशान हो गई तब उस ने एजेंसी में जा कर कई बार परमानैंट नौकरानी का इंतजाम करने के लिए कहा.

एक दिन एजेंसी के मालिक ने कहा, ‘‘अभी तो कोई लड़की नहीं है. जल्द ही असम और बिहार से लड़कियां आने वाली हैं. मैं आप को बता दूंगा.’’

सरिता ने एजेंसी वाले से कहा, ‘‘आप ज्यादा कमीशन ले लेना. लड़की को अच्छी तनख्वाह के साथ रहनेखाने की सारी सुविधाएं भी दूंगी लेकिन मुझे उस की सख्त जरूरत है.’’

और जल्द ही एजेंसी वाले का फोन आ गया. एजेंसी से 13 साल की हरीतिमा को लाने के बाद सरिता की सारी मुसीबतों का हल हो गया.

हरीतिमा सुबह से रात तक चकरघिन्नी बनी रहती. पूरे घर का काम करती. घर के हर सदस्य का ध्यान रखती.

हर समय पूरा घर साफसुथरा रहता. हरीतिमा हमेशा काम करती नजर आती. न कोई नखरा, न कोई शिकायत और न कोई छुट्टी.

13 साल की खूबसूरत, गोरी, नाजुक, मेहनती हरीतिमा बिहार के एक छोटे से गांव की थी. घर की माली हालत खराब थी. मां बीमार थीं. घर में 2 छोटे भाई थे. उस के पिता बचपन में ही गुजर गए थे.

शुक्रवार को जब मैडिकल स्टोर बंद रहता तब सरिता उस से बात करती. उस से पूछती, ‘‘किसी चीज की कोई जरूरत हो तो बेझिझक कहना. खाने में जो पसंद हो, बना कर खा लिया करो.’’

हरीतिमा को पढ़ने का शौक था. सरिता उस के लिए किताबें भी ला देती.

पति रतनलाल के एक के बाद एक 2-3 बड़े आपरेशन हुए थे. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी.

सरिता पति के कमरे में कम ही जाती थी. कमरे से आती दवाओं और गंदगी की बदबू से उसे उबकाई आती थी. पति की ऐसी बुरी दशा देखने का भी उस का मन नहीं करता था.

पति बिस्तर पर लेटे रहते. काफी समय तक तो उन के मलमूत्र का मार्ग बंद कर प्लास्टिक की थैलियां लटका दी गई थीं. उन्हें साफ करने का काम पहले तो एक नर्स करती थी, बाद में रतनलाल खुद करने लगे थे. लेकिन अब हरीतिमा ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया था.

सरिता को लगता था कि उस के पति की जिंदगी एक तरह से खत्म ही हो चुकी है. उन्हें बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही गुजारनी है. ठीक हो भी गए तो पहले जैसे नहीं रहेंगे.

सरिता ने अपना कमरा अलग तैयार कर लिया था. अपनी जरूरतों के हिसाब से सबकुछ अपने कमरे में रख लिया था. बच्चे बड़े हो रहे थे. वह गलती से ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी कि बच्चों की जिंदगी पर उस का बुरा असर पड़े.

सरिता की उम्र 40 साल थी और पति की उम्र 45 साल के आसपास. पिछले एक साल से वह पति की दुकान और घर सब देख रही थी.

आज रतनलाल को प्लास्टिक की थैली निकलवाने जाना था, लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं था.

सरिता को साथ जाना था लेकिन उस ने कह दिया, ‘‘मैं जा कर क्या करूंगी? मुझ से यह सब देखा नहीं जाता. तुम हरीतिमा को साथ ले जाओ. फिर मुझे दुकान भी देखनी है. काम करूंगी तो पैसा आएगा. आप के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं.’’ तय हुआ कि हरीतिमा ही साथ जाएगी.

रतनलाल अस्पताल से 3 दिन बाद घर वापस आए. उन्हें परहेज के साथ दवाएं समय पर लेनी थीं.

हरीतिमा बोर न हो, इस वजह से सरिता शुक्रवार को उसे बच्चों के साथ बाहर घुमाने ले जाती. बच्चे जो खाते, हरीतिमा को भी खिलाया जाता. चाट, पकौड़े, गोलगप्पे. बच्चे पार्क में खेलते तो हरीतिमा भी साथ में खेलती. बच्चों के लिए कपड़े खरीदने जाते तो हरीतिमा के लिए भी खरीदे जाते.

चाट खाते समय एक लड़के ने हरीतिमा से बात की. सरिता को अच्छा नहीं लगा. लौटते समय सरिता ने उस से पूछा, ‘‘तुम इसे कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे मुल्क का है मैडम.’’

‘‘मुल्क के नहीं राज्य के. मुल्क तो हम सब का एक ही है,’’ सरिता ने हंसते हुए कहा, फिर उसे समझाया, ‘‘देखो हरीतिमा, तुम मेरी बेटी जैसी हो. इस उम्र में लड़कों से दोस्ती ठीक नहीं है. अभी तुम्हारी उम्र महज 15 साल है.’’

अब हरीतिमा को अकसर ऐसी हिदायतें मिलने लगी थीं.

रतनलाल लाठी के सहारे घर में ही टहलने लगे थे. एक बार वे लड़खड़ा कर गिर गए. तब से सरिता ने हरीतिमा को हिदायत दी, ‘‘तुम अंकल को थोड़ा बाहर तक घुमा दिया करो. कहीं और कोई परेशानी न हो जाए.’’

तब से हरीतिमा घर से थोड़ी दूर बने पार्क में उन के साथ जाने लगी. वह पहले जैसी शांत और सहमी हुई नहीं थी. अब वह हंसने, बोलने लगी थी. खुश रहने लगी थी.

लेकिन हरीतिमा के खिलते शरीर और उस में आए बदलावों को देख कर सरिता जरूर चिंता में रहने लगी थी. उसे उस लड़के का चेहरा याद आया तो क्या बाहर जा कर इतनी उम्र में वह सब करने लगी थी हरीतिमा, जो उस की उम्र की लिहाज से गलत था? कहीं पेट में कुछ ठहर गया तो? सरिता ने एजेंसी वाले को सारी बात फोन पर बताई.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘मैडम, यह उस का निजी मामला है. हम और आप इस में क्या कर सकते हैं? वह अपनी नौकरी से बेईमानी नहीं करती. आप के घर की देखभाल ईमानदारी से कर रही है. और आप को क्या चाहिए?’’

सरिता को लगा कि एजेंसी वाला ठीक ही कह रहा है. फिर हरीतिमा उस की जरूरत बन गई थी. जरूरी नहीं कि दूसरी लड़की इतनी ईमानदार हो, मेहनती हो.

सरिता इस बात को भूलने की कोशिश कर ही रही थी. 2-4 दिन ही गुजरे थे कि सरिता ने हरीतिमा को उलटी करते हुए देख लिया.

सरिता घबरा गई. उस ने प्यार से हरीतिमा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘तुम ने आखिर बेवकूफी कर ही दी. जब यह सब कर रही थी तो सावधानी क्यों नहीं बरती? कितना समय हो गया? अभी जा कर अपने चाहने वाले के साथ मिल कर डाक्टर से अबौर्शन करा लो. बाद में मुसीबत में पड़ जाओगी और तुम्हारे आशिक को बलात्कार के जुर्म में जेल हो जाएगी. इतना तो समझती होगी कि 18 साल से कम उम्र की लड़की से संबंध बनाना बलात्कार कहलाता है?’’

हरीतिमा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा…’’ सरिता ने गुस्से में कहा, ‘‘मैं इस हालत में तुम्हें काम पर नहीं रख सकती. अभी इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से.’’

हरीतिमा रोने लगी. उस ने सरिता के पैर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, गलती हो गई. मुझे माफ कर दीजिए. आप ही कोई रास्ता निकालिए. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

सरिता को गुस्सा तो था लेकिन हरीतिमा की जरूरत भी थी. उस ने अपने परिचित डाक्टर को दिखाया. एक महीने का पेट था. 5,000 रुपए ले कर डाक्टर ने आसानी से पेट गिरा दिया.

सरिता ने फिर डांटा, समझाया और दोबारा ऐसी गलती न करने को कहा.

रात में उसे अपने पास बिठा कर प्यार से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिस के साथ तुम्हारे संबंध बने? चाटपकौड़े की दुकान में मिला वह लड़का?’’

हरीतिमा चुप रही. सरिता समझ गई कि वह बताना नहीं चाहती.

रतनलाल की ठीक होती तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. उन्हें फिर अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों ने हालत गंभीर बताई. जिस कैंसर से वे उबर चुके थे, वही कैंसर उन्हें पूरी तरह अंदर ही अंदर खोखला कर चुका था.

अस्पताल में ही रतनलाल की मौत हो गई. उस दिन सरिता फूटफूट कर रोई और हरीतिमा अकेले में अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करती रही.

पति के अंतिम संस्कार की सारी रस्में निबट चुकी थीं. सरिता की जिंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी थी. बच्चे अपनी पढ़ाई में लग चुके थे. दुख की परतें अब छंटने लगी थीं.

तभी फिर सरिता को हरीतिमा में वे सारे लक्षण दिखे जो एक गर्भवती औरत में दिखाई देते हैं. इस बार हरीतिमा अपने पेट को छिपाने की कोशिश करती नजर आ रही थी.

सरिता ने उसे गुस्से में थप्पड़ जड़ कर कहा, ‘‘फिर वही पाप…’’ इस बार हरीतिमा ने जवाब दिया, ‘‘पाप नहीं, मेरे प्यार की निशानी है.’’

हरीतिमा का जवाब सुन कर सरिता सन्न रह गई, ‘‘प्यार समझती भी हो? यह प्यार नहीं हवस है, बलात्कार है. चलो, अभी डाक्टर के पास,’’ सरिता ने गुस्से में कहा.

‘‘मैं नहीं गिराऊंगी.’’

‘‘यह कानूनन अपराध है. जेल जाएगा तुम्हारा आशिक.’’

‘‘कुछ भी हो, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? समझती क्यों नहीं हो?’’

‘‘हां, मेरा दिमाग खराब है. प्यार ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है.’’

‘‘बुलाओ इस बच्चे के बाप को.’’

‘‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘क्या… कौन है वह?’’

‘‘मैं उन्हें बदनाम नहीं करना चाहती.’’

‘‘चली जाओ यहां से.’’

हरीतिमा चली गई. सरिता ने एजेंसी वाले को फोन कर दिया.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं सब संभाल लूंगा.’’

सरिता निश्चिंत हो गई. कुछ दिन बीत गए. एक दिन वह घर की साफसफाई करने लगी. पति के कमरे का नंबर आया तो सरिता ने पति के सारे कपड़े, पलंग, बिस्तर सबकुछ दान कर दिया. वह एक अरसे बाद पति के कमरे में गई थी.

कमरा पूरी तरह खाली था. बस, एक पैन और डायरी रखी थी. सरिता ने डायरी के पन्ने पलटे. कुछ जगह हिसाब लिखा हुआ था. कुछ कागजों पर दवा लेने की नियमावली. एक पन्ने पर हरी स्याही से लिखा था हरीतिमा. यह नाम पढ़ कर वह चौंक गई. उस ने अपने कमरे में जा कर हरीतिमा के बाद पढ़ना शुरू किया…

‘सरिता, माना कि 15 साल की लड़की से प्यार करना गलत है. उस से संबंध बनाना अपराध है. लेकिन इस अपराध की हिस्सेदार तुम भी हो. मैं बीमार क्या हुआ, तुम ने मुझे मरा ही समझ लिया. अपना कमरा बदल लिया. मेरे कमरे में आना, मुझ से मिलना तक बंद कर दिया.

‘‘मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, तुम ने सोचा कभी? लेकिन तुम तो जिम्मेदारियां निभाने में लगी थीं. मैं तो जैसे अछूत हो चुका था तुम्हारे लिए.

‘सच कहूं तो मैं तुम्हारी बेरुखी देख कर ठीक होना ही नहीं चाहता था. लेकिन मैं ठीक हुआ हरीतिमा की देखभाल से. उस के प्यार से.

‘हां, मैं ने हरीतिमा से तुम्हारी शिकायतें कीं. उस से प्यार के वादे किए. उस के पैर पड़ा कि मेरी जिंदगी में तुम्हीं बहार ला सकती हो. मुझे तुम्हारी जरूरत है हरीतिमा. मैं तुम से प्यार करता हूं.

‘कम उम्र की नाजुक कोमल भावों से भरी लड़की मेरे प्यार में बह गई. उस ने मेरी जिस्मानी और दिमागी जरूरतें पूरी कीं.

‘हां, वह मेरे ही बच्चे की मां बनने वाली है. मैं उस के बच्चे को अपना नाम दूंगा. दुनिया इसे पाप कहे या अपराध, लेकिन वह मेरा प्यार है. मेरी पतझड़ भरी जिंदगी में वह हरियाली बन कर आई थी.

‘इस घर पर जितना तुम्हारा हक है, उतना ही हरीतिमा का भी है. लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मैं बचूंगा नहीं. अचानक से सारे शरीर में पहले की तरह भयंकर दर्द उठने लगा है.

‘मैं तुम से किसी बात के लिए माफी नहीं मांगूंगा. चिंता है तो बस हरीतिमा की. अपने होने वाले बच्चे की. उसे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए. तुम्हारा बंगला, तुम्हारा बैंक बैलैंस नहीं चाहिए. उसे बस सहारा चाहिए, प्यार चाहिए.’

डायरी खत्म हो चुकी थी. सरिता अवाक थी. उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था और खुद पर शर्मिंदगी भी. किस तरह झटक दिया था उस ने अपने पति को. बीमारी, लाचारी की हालत में. हां, वही जिम्मेदार है अपने पति की बेवफाई के लिए. इसे बेवफाई कहें या अकेले टूटे हुए इनसान की जरूरत.

सरिता को उसी एजेंसी से दूसरी लड़की मिल चुकी थी. उस ने पूछा, ‘‘तुम हरीतिमा को जानती हो?’’

‘‘नहीं मैडम, एजेंसी वाले जानते होंगे.’’

सरिता ने एजेंसी में फोन लगा कर बात की.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘क्या बताएं मैडम, किस के प्यार में थी? बच्चा गिराने को भी तैयार नहीं थी. न ही मरते दम तक बच्चे के बाप का नाम बताया.’

‘‘मरते दम तक… मतलब?’’ सरिता ने पूछा.

‘हरीतिमा बच्चे को जन्म देते समय ही मर गई थी.’

‘‘क्या…’’ सरिता चौंक गई ‘‘और बच्चा…’’

‘‘वह अनाथाश्रम में है.’’

सरिता सोचने लगी, ‘एक मैं हूं जिस ने पति के बंगले, कारोबार, बैंक बैलैंस को अपना कर पति को छोड़ दिया बंद कमरे में. बीमार, लाचार पति. बच्चों तक को दूर कर दिया. और एक गरीब हरीतिमा, जिस ने न केवल बीमारी की हालत में पति की देखभाल की, अपना सबकुछ सौंप दिया. यह जानते हुए भी कि उसे कुछ नहीं मिलेगा सिवा बदनामी के.

‘उस ने अपने प्यार की निशानी को जन्म दिया. वह चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी? इस धनदौलत पर उस का भी हक बनता था. वह ले सकती थी लेकिन उस ने सबकुछ छोड़ दिया अपने प्यार की खातिर. उस ने एक बीमार मरते आदमी से प्यार किया और उसे निभाया भी और एक मैं हूं…

‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं हरीतिमा के प्यार की निशानी, अपने पति के बच्चे को इस घर में ला कर रहूंगी. मैं पत्नी का धर्म तो नहीं निभा सकी, पर उन की संतान के प्रति मां होने की जिम्मेदारी तो निभा ही सकती हूं.’

सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद सरिता बच्चे को घर ले आई.

पति की संतान : क्या पति को ठीक कर पाई सरिता

पहले सरिता घर के बहुत से काम निबटा लेती थी. लेकिन जब से पति बीमार हुए थे और बिस्तर पकड़ चुके थे तब से पार्ट टाइम कामवाली बाई से उस का काम नहीं चलता था. उसे परमानैंट नौकरानी की जरूरत थी जो पूरा घर संभाल सके.

सरिता को पति का मैडिकल स्टोर सुबह से रात तक चलाना होता था. दुकान में 3 नौकर थे. सरिता बीच में थोड़ी देर के लिए खाना खाने और फ्रैश होने घर आती थी. सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक उसे मैडिकल स्टोर पर बैठना पड़ता था. काम सारा नौकर ही करते थे लेकिन हिसाब उसे ही देखना पड़ता था.

काफी समय तक सरिता को बहुत समस्या हुई. घर में एक बेटा, एक बेटी थे जो 8वीं और 9वीं क्लास में पढ़ते थे. उन के लिए चाय, नाश्ता, सुबह का टिफिन तैयार कर के स्कूल भेजना और शाम की चाय के बाद भोजन तैयार करना और खिलाना सब हरीतिमा की जिम्मेदारी थी.

बीमार पति को समय पर दवाएं और डाक्टर के बताए मुताबिक भोजन देना… यह सब हरीतिमा के बिना मुमकिन नहीं था.

सरिता जब बहुत परेशान हो गई तब उस ने एजेंसी में जा कर कई बार परमानैंट नौकरानी का इंतजाम करने के लिए कहा.

एक दिन एजेंसी के मालिक ने कहा, ‘‘अभी तो कोई लड़की नहीं है. जल्द ही असम और बिहार से लड़कियां आने वाली हैं. मैं आप को बता दूंगा.’’

सरिता ने एजेंसी वाले से कहा, ‘‘आप ज्यादा कमीशन ले लेना. लड़की को अच्छी तनख्वाह के साथ रहनेखाने की सारी सुविधाएं भी दूंगी लेकिन मुझे उस की सख्त जरूरत है.’’

और जल्द ही एजेंसी वाले का फोन आ गया. एजेंसी से 13 साल की हरीतिमा को लाने के बाद सरिता की सारी मुसीबतों का हल हो गया.

हरीतिमा सुबह से रात तक चकरघिन्नी बनी रहती. पूरे घर का काम करती. घर के हर सदस्य का ध्यान रखती.

हर समय पूरा घर साफसुथरा रहता. हरीतिमा हमेशा काम करती नजर आती. न कोई नखरा, न कोई शिकायत और न कोई छुट्टी.

13 साल की खूबसूरत, गोरी, नाजुक, मेहनती हरीतिमा बिहार के एक छोटे से गांव की थी. घर की माली हालत खराब थी. मां बीमार थीं. घर में 2 छोटे भाई थे. उस के पिता बचपन में ही गुजर गए थे.

शुक्रवार को जब मैडिकल स्टोर बंद रहता तब सरिता उस से बात करती. उस से पूछती, ‘‘किसी चीज की कोई जरूरत हो तो बे?ि?ाक कहना. खाने में जो पसंद हो, बना कर खा लिया करो.’’

हरीतिमा को पढ़ने का शौक था. सरिता उस के लिए किताबें भी ला देती.

पति रतनलाल के एक के बाद एक 2-3 बड़े आपरेशन हुए थे. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी.

सरिता पति के कमरे में कम ही जाती थी. कमरे से आती दवाओं और गंदगी की बदबू से उसे उबकाई आती थी. पति की ऐसी बुरी दशा देखने का भी उस का मन नहीं करता था.

पति बिस्तर पर लेटे रहते. काफी समय तक तो उन के मलमूत्र का मार्ग बंद कर प्लास्टिक की थैलियां लटका दी गई थीं. उन्हें साफ करने का काम पहले तो एक नर्स करती थी, बाद में रतनलाल खुद करने लगे थे. लेकिन अब हरीतिमा ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया था.

सरिता को लगता था कि उस के पति की जिंदगी एक तरह से खत्म ही हो चुकी है. उन्हें बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही गुजारनी है. ठीक हो भी गए तो पहले जैसे नहीं रहेंगे.

सरिता ने अपना कमरा अलग तैयार कर लिया था. अपनी जरूरतों के हिसाब से सबकुछ अपने कमरे में रख लिया था. बच्चे बड़े हो रहे थे. वह गलती से ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी कि बच्चों की जिंदगी पर उस का बुरा असर पड़े.

सरिता की उम्र 40 साल थी और पति की उम्र 45 साल के आसपास. पिछले एक साल से वह पति की दुकान और घर सब देख रही थी.

आज रतनलाल को प्लास्टिक की थैली निकलवाने जाना था, लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं था.

सरिता को साथ जाना था लेकिन उस ने कह दिया, ‘‘मैं जा कर क्या करूंगी? मु?ा से यह सब देखा नहीं जाता. तुम हरीतिमा को साथ ले जाओ. फिर मु?ो दुकान भी देखनी है. काम करूंगी तो पैसा आएगा. आप के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं.’’ तय हुआ कि हरीतिमा ही साथ जाएगी.

रतनलाल अस्पताल से 3 दिन बाद घर वापस आए. उन्हें परहेज के साथ दवाएं समय पर लेनी थीं.

हरीतिमा बोर न हो, इस वजह से सरिता शुक्रवार को उसे बच्चों के साथ बाहर घुमाने ले जाती. बच्चे जो खाते, हरीतिमा को भी खिलाया जाता. चाट, पकौड़े, गोलगप्पे. बच्चे पार्क में खेलते तो हरीतिमा भी साथ में खेलती. बच्चों के लिए कपड़े खरीदने जाते तो हरीतिमा के लिए भी खरीदे जाते.

चाट खाते समय एक लड़के ने हरीतिमा से बात की. सरिता को अच्छा नहीं लगा. लौटते समय सरिता ने उस से पूछा, ‘‘तुम इसे कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे मुल्क का है मैडम.’’

‘‘मुल्क के नहीं राज्य के. मुल्क तो हम सब का एक ही है,’’ सरिता ने हंसते हुए कहा, फिर उसे सम?ाया, ‘‘देखो हरीतिमा, तुम मेरी बेटी जैसी हो. इस उम्र में लड़कों से दोस्ती ठीक नहीं है. अभी तुम्हारी उम्र महज 15 साल है.’’

अब हरीतिमा को अकसर ऐसी हिदायतें मिलने लगी थीं.

रतनलाल लाठी के सहारे घर में ही टहलने लगे थे. एक बार वे लड़खड़ा

कर गिर गए. तब से सरिता ने हरीतिमा को हिदायत दी, ‘‘तुम अंकल को थोड़ा बाहर तक घुमा दिया करो. कहीं और कोई परेशानी न हो जाए.’’

तब से हरीतिमा घर से थोड़ी दूर बने पार्क में उन के साथ जाने लगी. वह पहले जैसी शांत और सहमी हुई नहीं थी. अब वह हंसने, बोलने लगी थी. खुश रहने लगी थी.

लेकिन हरीतिमा के खिलते शरीर और उस में आए बदलावों को देख कर सरिता जरूर चिंता में रहने लगी थी. उसे उस लड़के का चेहरा याद आया तो क्या बाहर जा कर इतनी उम्र में वह सब करने लगी थी हरीतिमा, जो उस की उम्र की लिहाज से गलत था? कहीं पेट में कुछ ठहर गया तो? सरिता ने एजेंसी वाले को सारी बात फोन पर बताई.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘मैडम, यह उस का निजी मामला है. हम और आप इस में क्या कर सकते हैं? वह अपनी नौकरी से बेईमानी नहीं करती. आप के घर की देखभाल ईमानदारी से कर रही है. और आप को क्या चाहिए?’’

सरिता को लगा कि एजेंसी वाला ठीक ही कह रहा है. फिर हरीतिमा उस की जरूरत बन गई थी. जरूरी नहीं कि दूसरी लड़की इतनी ईमानदार हो, मेहनती हो.

सरिता इस बात को भूलने की कोशिश कर ही रही थी. 2-4 दिन ही गुजरे थे कि सरिता ने हरीतिमा को उलटी करते हुए देख लिया.

सरिता घबरा गई. उस ने प्यार से हरीतिमा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘तुम ने आखिर बेवकूफी कर ही दी. जब यह सब कर रही थी तो सावधानी क्यों नहीं बरती? कितना समय हो गया? अभी जा कर अपने चाहने वाले के साथ मिल कर डाक्टर से अबौर्शन करा लो. बाद में मुसीबत में पड़ जाओगी और तुम्हारे आशिक को बलात्कार के जुर्म में जेल हो जाएगी. इतना तो सम?ाती होगी कि 18 साल से कम उम्र की लड़की से संबंध बनाना बलात्कार कहलाता है?’’

हरीतिमा ने कुछ नहीं कहा.

‘‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा…’’ सरिता ने गुस्से में कहा, ‘‘मैं इस हालत में तुम्हें काम पर नहीं रख सकती. अभी इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से.’’

हरीतिमा रोने लगी. उस ने सरिता के पैर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, गलती हो गई. मु?ो माफ कर दीजिए. आप ही कोई रास्ता निकालिए. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

सरिता को गुस्सा तो था लेकिन हरीतिमा की जरूरत भी थी. उस ने अपने परिचित डाक्टर को दिखाया. एक महीने का पेट था. 5,000 रुपए ले कर डाक्टर ने आसानी से पेट गिरा दिया.

सरिता ने फिर डांटा, सम?ाया और दोबारा ऐसी गलती न करने को कहा.

रात में उसे अपने पास बिठा कर प्यार से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिस के साथ तुम्हारे संबंध बने? चाटपकौड़े की दुकान में मिला वह लड़का?’’

हरीतिमा चुप रही. सरिता समझ गई कि वह बताना नहीं चाहती.

रतनलाल की ठीक होती तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. उन्हें फिर अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों ने हालत गंभीर बताई. जिस कैंसर से वे उबर चुके थे, वही कैंसर उन्हें पूरी तरह अंदर ही अंदर खोखला कर चुका था.

अस्पताल में ही रतनलाल की मौत हो गई. उस दिन सरिता फूटफूट कर रोई और हरीतिमा अकेले में अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करती रही.

पति के अंतिम संस्कार की सारी रस्में निबट चुकी थीं. सरिता की जिंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी थी. बच्चे अपनी पढ़ाई में लग चुके थे. दुख की परतें अब छंटने लगी थीं.

तभी फिर सरिता को हरीतिमा में वे सारे लक्षण दिखे जो एक गर्भवती औरत में दिखाई देते हैं. इस बार हरीतिमा अपने पेट को छिपाने की कोशिश करती नजर आ रही थी.

सरिता ने उसे गुस्से में थप्पड़ जड़ कर कहा, ‘‘फिर वही पाप…’’ इस बार हरीतिमा ने जवाब दिया, ‘‘पाप नहीं, मेरे प्यार की निशानी है.’’

हरीतिमा का जवाब सुन कर सरिता सन्न रह गई, ‘‘प्यार समझाती भी हो? यह प्यार नहीं हवस है, बलात्कार है. चलो, अभी डाक्टर के पास,’’ सरिता ने गुस्से में कहा.

‘‘मैं नहीं गिराऊंगी.’’

‘‘यह कानूनन अपराध है. जेल जाएगा तुम्हारा आशिक.’’

‘‘कुछ भी हो, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? समझाती क्यों नहीं हो?’’

‘‘हां, मेरा दिमाग खराब है. प्यार ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है.’’

‘‘बुलाओ इस बच्चे के बाप को.’’

‘‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘क्या… कौन है वह?’’

‘‘मैं उन्हें बदनाम नहीं करना चाहती.’’

‘‘चली जाओ यहां से.’’

हरीतिमा चली गई. सरिता ने एजेंसी वाले को फोन कर दिया.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं सब संभाल लूंगा.’’

सरिता निश्चिंत हो गई. कुछ दिन बीत गए. एक दिन वह घर की साफसफाई करने लगी. पति के कमरे का नंबर आया तो सरिता ने पति के सारे कपड़े, पलंग, बिस्तर सबकुछ दान कर दिया. वह एक अरसे बाद पति के कमरे में गई थी.

कमरा पूरी तरह खाली था. बस, एक पैन और डायरी रखी थी. सरिता ने डायरी के पन्ने पलटे. कुछ जगह हिसाब लिखा हुआ था. कुछ कागजों पर दवा लेने की नियमावली. एक पन्ने पर हरी स्याही से लिखा था हरीतिमा. यह नाम पढ़ कर वह चौंक गई. उस ने अपने कमरे में जा कर हरीतिमा के बाद पढ़ना शुरू किया…

‘सरिता, माना कि 15 साल की लड़की से प्यार करना गलत है. उस से संबंध बनाना अपराध है. लेकिन इस अपराध की हिस्सेदार तुम भी हो. मैं बीमार क्या हुआ, तुम ने मु?ो मरा ही सम?ा लिया. अपना कमरा बदल लिया. मेरे कमरे में आना, मु?ा से मिलना तक बंद कर दिया.

‘‘मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, तुम ने सोचा कभी? लेकिन तुम तो जिम्मेदारियां निभाने में लगी थीं. मैं तो जैसे अछूत हो चुका था तुम्हारे लिए.

‘सच कहूं तो मैं तुम्हारी बेरुखी देख कर ठीक होना ही नहीं चाहता था. लेकिन मैं ठीक हुआ हरीतिमा की देखभाल से. उस के प्यार से.

‘हां, मैं ने हरीतिमा से तुम्हारी शिकायतें कीं. उस से प्यार के वादे किए. उस के पैर पड़ा कि मेरी जिंदगी में तुम्हीं बहार ला सकती हो. मुझे तुम्हारी जरूरत है हरीतिमा. मैं तुम से प्यार करता हूं.

‘कम उम्र की नाजुक कोमल भावों से भरी लड़की मेरे प्यार में बह गई. उस ने मेरी जिस्मानी और दिमागी जरूरतें पूरी कीं.

‘हां, वह मेरे ही बच्चे की मां बनने वाली है. मैं उस के बच्चे को अपना नाम दूंगा. दुनिया इसे पाप कहे या अपराध, लेकिन वह मेरा प्यार है. मेरी पतझड़ भरी जिंदगी में वह हरियाली बन कर आई थी.

‘इस घर पर जितना तुम्हारा हक है, उतना ही हरीतिमा का भी है. लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मैं बचूंगा नहीं. अचानक से सारे शरीर में पहले की तरह भयंकर दर्द उठने लगा है.

‘मैं तुम से किसी बात के लिए माफी नहीं मांगूंगा. चिंता है तो बस हरीतिमा की. अपने होने वाले बच्चे की. उसे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए. तुम्हारा बंगला, तुम्हारा बैंक बैलैंस नहीं चाहिए. उसे बस सहारा चाहिए, प्यार चाहिए.’

डायरी खत्म हो चुकी थी. सरिता अवाक थी. उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था और खुद पर शर्मिंदगी भी. किस तरह ?ाटक दिया था उस ने अपने पति को. बीमारी, लाचारी की हालत में. हां, वही जिम्मेदार है अपने पति की बेवफाई के लिए. इसे बेवफाई कहें या अकेले टूटे हुए इनसान की जरूरत.

सरिता को उसी एजेंसी से दूसरी लड़की मिल चुकी थी. उस ने पूछा, ‘‘तुम हरीतिमा को जानती हो?’’

‘‘नहीं मैडम, एजेंसी वाले जानते होंगे.’’

सरिता ने एजेंसी में फोन लगा कर बात की.

एजेंसी वाले ने कहा, ‘क्या बताएं मैडम, किस के प्यार में थी? बच्चा गिराने को भी तैयार नहीं थी. न ही मरते दम तक बच्चे के बाप का नाम बताया.’

‘‘मरते दम तक… मतलब?’’ सरिता ने पूछा.

‘हरीतिमा बच्चे को जन्म देते समय ही मर गई थी.’

‘‘क्या…’’ सरिता चौंक गई ‘‘और बच्चा…’’

‘‘वह अनाथाश्रम में है.’’

सरिता सोचने लगी, ‘एक मैं हूं जिस ने पति के बंगले, कारोबार, बैंक बैलैंस को अपना कर पति को छोड़ दिया बंद कमरे में. बीमार, लाचार पति. बच्चों तक को दूर कर दिया. और एक गरीब हरीतिमा, जिस ने न केवल बीमारी की हालत में पति की देखभाल की, अपना सबकुछ सौंप दिया. यह जानते हुए

भी कि उसे कुछ नहीं मिलेगा सिवा बदनामी के.

‘उस ने अपने प्यार की निशानी को जन्म दिया. वह चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी? इस धनदौलत पर उस का भी हक बनता था. वह ले सकती थी लेकिन उस ने सबकुछ छोड़ दिया अपने प्यार की खातिर. उस ने एक बीमार मरते आदमी से प्यार किया और उसे निभाया भी और एक मैं हूं…

‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं हरीतिमा के प्यार की निशानी, अपने पति के बच्चे को इस घर में ला कर रहूंगी. मैं पत्नी का धर्म तो नहीं निभा सकी, पर उन की संतान के प्रति मां होने की जिम्मेदारी तो निभा ही सकती हूं.’ सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद सरिता बच्चे को घर ले आई.

घर का चिराग : क्यों रूठा गया था साकेत

मां की गोद में एक बेजान देह रखी थी, जिस के माथे को वे हौलेहौले सहला रही थीं, ‘‘मेरा बेटा… मेरा राजा बेटा… आंखें खोलो बेटा…’’

उस बेजान देह में मां के छूने का भी कोई असर नहीं पड़ रहा था. मां ने लोरी गानी शुरू कर दी थी, ‘‘उठ जा राजदुलारे… मेरा प्यारा बेटा… उठ जा बेटा…’’

देह खामोश थी. सारा माहौल गमगीन था. मां और बापू के घर का चिराग बु?ा गया था.

चारों ओर जमा भीड़ भारी मन से यह सब देख रही थी. किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह उस देह को अंतिम संस्कार के लिए मां की गोद से उठा सके. एक कोने में बूढ़ा पिता बेसुध पड़ा था. अंतिम संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. इस परिवार में ऐसा कोई था भी नहीं, जिस के आने की राह देखी जा सके. एक बूढ़ी मां और एक बुजुर्ग पिता, बस इतना ही तो परिवार था.

साकेत अपने मांबाप की एकलौती औलाद था. मांबाप मजदूरी करते थे. साकेत की लाश आज ही शहर के बाहर एक पेड़ से लटकी मिली थी. पुलिस को शक था कि साकेत ने खुदकुशी की है, पर जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई, तो साफ हो गया कि उस की हत्या कर के उस की लाश को पेड़ से लटका दिया गया था.

30 साल का साकेत एक प्राइवेट कंपनी में चीफ इंजीनियर था. वैसे तो उसे नौकरी करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था, पर उस की मेहनत और लगन के चलते उस की तरक्की जल्दी हो गई थी. मांबाप के दिन फिर गए थे.

साकेत अपने मांबाप का बहुत ध्यान रखता था. दूर शहर में होने के बावजूद वह महीने में एक बार अपने गांव जरूर आता था. घर आ कर वहां के सारे इंतजाम करता था. महीनेभर का राशन ला कर रख देता था. उस ने मांबाप को मजदूरी करने से रोक दिया था. वह ढेर सारे रुपए उन्हें दे जाता था, ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो.

पिताजी बीमार रहने लगे थे. वह उन का इलाज एक बड़े अस्पताल में करा रहा था. मां भी कुछ ज्यादा ही बूढ़ी नजर आने लगी थीं. जिंदगीभर उन्होंने मेहनत जो की थी.

एक दिन की बात है, साकेत अपनी मां की गोद में सिर रख कर बोला था, ‘‘मां, आप बाबूजी को सम?ाओ न… मेरे साथ चलें… वहीं रहना. यहां अकेले रहने से क्या मतलब है.’’

‘‘तेरे बाबूजी भला मानते कहां हैं मेरी. उन्हें तो बस अपना यही गांव अच्छा लगता है. तू ही बोलना उन से,’’ मां ने साकेत का सिर सहलाया था. साकेत की बोलने की हिम्मत नहीं हुई थी. वैसे तो वह जब भी गांव आता था, हर बार अपने मांबाप के लिए नए कपड़े लाना नहीं भूलता था. इस बार भी वह नए कपड़े ले कर आया था.

‘‘बाबूजी, आप पुराने कपड़े क्यों पहनते हैं? आप इन्हें उतारिए और ये पहनें. देखो, कितने अच्छे लग रहे हैं.’’

‘‘अरे बेटा, अब इस उम्र में मैं ऐसे कपड़े पहन कर क्या करूंगा.’’

‘‘नहीं, आप को पहनने ही पड़ेंगे,’’ साकेत ने जिद की. पिताजी को उस की जिद के आगे ?ाकना पड़ा.

नए कपड़ों में बाबूजी बहुत अच्छे लग रहे थे. मां ने जब नई साड़ी पहनी, तो उन की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अरे मां, रो क्यों रही हो…? इतनी अच्छी लग रही हो… बिलकुल साकेत की मां ही लग रही हो… चीफ इंजीनियर साकेत,’’ साकेत ने मां की आंखों से आंसू पोंछ दिए थे.

‘‘बेटा, तू जब छोटा था, तो नए कपड़ों के लिए रूठ जाया करता था और हम दिला भी नहीं पाते थे. बस, यही सोच कर आंखें भर आईं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मुझे तो आप ने कभी शर्ट कभी पैंट, ऐसे करकर के नए कपड़े तो पहनाए ही हैं, पर आप को तो मैं ने कभी नए कपड़े पहनते नहीं देखा,’’ आंसू की एक बूंद उस की आंखों से भी बह निकली थी.

एक बार रक्षाबंधन पर साकेत अड़ गया था, ‘‘मां देखो, सब बच्चों ने नए कपड़े पहने हैं, मुझे भी चाहिए.’’

मां ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, पर वह माना नहीं था. मां सेठ के पास गई थीं और कुछ सामान गिरवी रख कर उस के लिए नया कपड़ा ले कर आई थीं. नए कपड़े पहन कर ही वह मुंहबोली बहन के घर राखी बंधवाने गया था.

‘‘तुझे याद है बेटा, तू दीवाली पर फुलझड़ी और मिठाई के लिए कितना रोया था,’’ मां उस घटना की कल्पना से ही सुबक पड़ी थीं. इस बार पिताजी के गालों पर भी आंसुओं की लड़ी दिखाई देने लगी थी.

‘‘हां मां, सच कहूं तो मुझे आज भी दीवाली केवल इसी वजह से अच्छी नहीं लगती. मां, आप कितनी परेशान हुई थीं उस दिन. धिक्कार है मुझे खुद पर मां.’’

मां ने साकेत को छाती से लगा लिया, ‘‘तब तू छोटा था बेटा. नासमझ.’’ साकेत के सामने वह दीवाली की रात कौंध गई थी. पटेल साहब का घर छोटेछोटे बल्बों से रोशन था. उन का बेटा गौरव नए कपड़े पहन कर एक हाथ में मिठाई और एक हाथ में पटाखे ले कर आया था.

‘‘चलो यार, पटाखे फोड़ते हैं,’’ गौरव ने कहा, तो साकेत उस के साथ चला गया था. साकेत गौरव को मिठाई खाते देख रहा था.

‘‘मिठाई बड़ी मीठी लगती है क्या?’’ साकेत ने कभी मिठाई नहीं चखी थी. एक बार गांव में एक तेरहवीं हुई तो उसे बेसन की बर्फी खाने को मिली थी. वह उसे मिठाई समझाता था, पर गौरव तो सफेद रस में डूबी मिठाई खा रहा था. ऐसी मिठाई उस ने खाने की तो छोड़ो देखी तक नहीं थी.

‘‘हां, बहुत मीठी लगती है. पर, मैं तुझे दे नहीं सकता, क्योंकि जूठी हो गई है न,’’ गौरव बोला था.

साकेत ललचाई निगाहों से गौरव को तब तक देखता रहा था, जब तक उस की मिठाई खत्म नहीं हो गई. मिठाई खत्म होने के बाद गौरव ने फुल?ाड़ी जलाई. फुल?ाड़ी ने रंगबिरंगी चिनगारियां छोड़नी शुरू कर दी थीं.

‘‘एक फुलझाड़ी मुझे भी दो न. मैं भी जलाऊंगा,’’ साकेत गिड़गिड़ाया था.

‘‘अपनी मां से बोलो,’’ गौरव बोला था. गौरव भी बच्चा ही था न और बड़े घर का होने के चलते उसे साकेत की लालसा की कद्र नहीं थी.

साकेत रूठ गया और घर आ कर वह मां के सामने यह बोलते हुए अड़ गया था, ‘‘मुझे वह वाली मिठाई ही चाहिए…’’

मां को तेज बुखार था. पिताजी ने साकेत को समझने की काफी कोशिश की थी, पर वह नहीं माना था. पिताजी उसे उंगली पकड़ कर मिठाई की दुकान पर ले गए थे, पर उस दुकान पर वह मिठाई नहीं थी. उस दिन वह बीमार मां की छाती से चिपक कर बहुत देर तक रोता रहा था.

‘‘आप ने मुझे मिठाई भी नहीं दिलाई और फुलझड़ी भी नहीं दिलाई. मैं आप से कभी बात नहीं करूंगा,’’ सुबक उठा था साकेत. साथ ही, दीवाली की रात में उस के मांबाप भी रोते रहे थे, रातभर अपनी बेबसी पर.

स्कूल जाने के लिए भी साकेत ऐसे ही अड़ा था. मांबाप को उस की जिद के आगे झाकना पड़ा था. पिताजी तो वैसे भी बहुत मेहनत करते ही थे, मां ने भी मजदूरी करनी शुरू कर दी थी. जैसेजैसे उस की पढ़ाई आगे बढ़ती गई, उस का खर्चा भी बढ़ता गया, वैसेवैसे ही मां और पिताजी की मेहनत भी बढ़ती चली गई. पेट काट कर पढ़ाया था उसे.

यादों का बवंडर खत्म ही नहीं हो रहा था. मां ने साकेत के आंसू पोंछे, ‘‘चलो, भूल जाओ. ये कपड़े देखो, मैं कैसी लग रही हूं?’’ मां बात को बदलना चाह रही थीं.

मां ने हलुआपूरी बनाई थी. उन के लिए खुशी में यही सब से बेहतर पकवान थे.

‘‘मां, याद है जब मैं इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे कर आया था तो आप ने मेरी पुरानी पैंट में पैबंद लगाते हुए कहा था, ‘बेटा, हमेशा बड़े सपने देखो, वे जरूर पूरे होते हैं.’’’

‘‘हां, तू इतनी ऊंची पढ़ाई कर रहा था, तब भी हम तुझे एक जोड़ी कपड़े तक नहीं सिलवा पा रहे थे.’’

‘‘पुराने कपड़े पहनना तो मेरी आदत हो गई थी मां, पर मैं यह बोल रहा हूं कि मैं ने हमेशा ऊंचे सपने देखे और इसी वजह से ही तो आज चीफ इंजीनियर बन पाया हूं.’’ मां चुप थीं, तब पिताजी ने कहा था, ‘‘तुम हमेशा सचाई पर डटे रहना, तभी हमारी मेहनत कामयाब होगी.’’

‘‘पिताजी, आप लोगों ने मेरी वजह से बहुत परेशानियां झोली हैं, पर अब आप को इतना खुश रखूंगा कि आप अपने सारे दुख भूल जाएंगे,’’ साकेत भावुक हो गया था.

लौटते समय साकेत ने मां को बोल दिया था, ‘‘मां अगली बार जब आऊंगा, तो आप लोगों को साथ ले कर ही जाऊंगा. आप पिताजी को तैयार कर लेना. मैं किसी की बात नहीं मानूंगा.’’

पर साकेत इस हालत में ही वापस आया था बेजान बन कर. उस की देह को रखे बहुत देर हो चुकी थी. लोगों में अब बेसब्री नजर आने लगी थी. कुछ औरतों ने मां को जबरदस्ती अलग किया था.

‘‘मत छीनो मेरे बेटे को मुझसे. वह अभी सो रहा है. जाग जाएगा.’’

सैकड़ों आंखें नम थीं. वहां जुटे समूह को अब अंतिम क्रिया करनी ही थी, इस वजह से साकेत के शरीर को अर्थी पर रख दिया था.

साकेत की मौत खुदकुशी नहीं, बल्कि हत्या थी. साकेत उन लोगों की हैवानियत का शिकार बना था, जिन के बेईमानी वाले कामों को चीफ इंजीनियर होने के नाते वह मान नहीं रहा था.

वह कोई बड़ा ठेकेदार था, सत्ता से जुड़ा. साकेत ने उस के बनाए पुल के भुगतान के कागजों को फेंक दिया था और बोला था, ‘‘इस पुल से लाखों लोग आनाजाना करेंगे और तुम थोड़े से लालच में इसे कमजोर बना रहे हो. मैं तुम्हारा भुगतान नहीं कर सकता.’’

साकेत के इनकार से उस ठेकेदार का खून खौल गया था, ‘‘आप जानते नहीं हैं कि मेरी कितनी पकड़ है,’’ उस ने अपने  कुरतेपाजामे की सिलवटों को दूर करते हुए कमर में खुंसी पिस्तौल की ?ालक साकेत को दिखाते हुए कहा था.

साकेत डरा नहीं और बोला, ‘‘आप जो चाहें कर लें, पर मैं इस पुल को पास नहीं कर सकता.’’

इस के बाद साकेत के पास किसी नेता का भी फोन आया था, ‘क्यों अपनी जान गंवाना चाहते हो…’ पर वह कुछ नहीं बोला था.

बिल का भुगतान तो नहीं हुआ, पर एक दिन साकेत की लाश पेड़ से लटकती जरूर मिली.

मांबाप अपनी एकलौती औलाद के यों गुजर जाने से दुखी थे. साकेत के गुजरने के बहुत दिनों बाद तक माहौल गमगीन बना रहा था. उस के पिताजी बीमारी के शिकार हो चुके थे. मां ने अब साकेत के हत्यारों को पकड़वाने के लिए कमर कस ली थी. वे जानती थीं कि यह सब इतना आसान नहीं है, पर वे हिम्मत नहीं हारना चाह रही थीं.

एक बैनर को अपने शरीर से लपेटे मां शहर दर शहर घूम रही थीं. उस बैनर पर लिखा था, ‘इंजीनियर साकेत के हत्यारों को पकड़वाने में मदद करें’.

लोग उस बैनर को पढ़ते, बुजुर्ग मां की हालत पर दुख भी जताते, पर मदद करने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था. समाज पंगु जान पड़ रहा था. सभी के चेहरे पर एक खौफ दिखाई देता था.

वह बूढ़ी औरत समाज के इस खोखलेपन से नाराज नहीं थी. वह जानती थी कि कोई भी अपने साकेत को नहीं खोना चाहता और इसी खौफ से लोग मदद करने के लिए आगे नहीं आ रहे थे.

बूढ़ी मां इस सब की परवाह किए बगैर दौड़ रही थीं अनजान रास्ते पर बगैर किसी सहारे के. वे प्रदेश की राजधानी जा पहुंची थीं और विधानसभा के सामने खड़े हो कर अपने बेटे के हत्यारों को पकड़ने की अपील कर रही थीं.

चारों ओर से भारी भीड़ ने उन्हें घेर लिया था. वे रो रही थीं और अपील कर रही थीं कि कोई तो आगे आए उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए. भीड़ तो केवल तमाशा देख रही थी.

सिक्योरिटी वालों ने मां को गिरफ्तार कर लिया, पर उन का चिल्लाना जारी था. धीरेधीरे वे निढाल हो गईं और मर गईं अपने बेटे को इंसाफ दिलाए बगैर.

Mother’s Day 2024- पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास

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