शायद : पैसों के बदले मिला अपमान-भाग 2

सुवीरा चुप नहीं हुई. प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बरसों से सहेजी संवेदनाएं सारी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकलने लगीं.

‘मैं उस समय 5 साल की बच्ची ही तो थी जब अम्मां दुधमुंहे सोहन को मेरे हवाले छोड़ पड़ोस की औरतों के बीच गप मारने में मशगूल हो जाती थीं. लौट कर आतीं तो किसी थानेदार की तरह ढेरों प्रश्न कर डालतीं.

‘बेटे के लिए तो रचरच कर नाश्ता तैयार करतीं, लेकिन मैं अपनी पसंद का कुछ भी खाना चाहती तो बुरा सा मुंह बना लेतीं. उन की इस उपेक्षा और डांटफटकार से बचपन से ही मेरे मन में एक भावना घर कर गई कि अगर इतनी ही अकर्मण्य हूं मैं तो इन सब को अपनी काहिली दिखा कर रहूंगी.

‘सच मानो गिरीश, मां की तल्ख तेजाबी बहस के बीच भी मैं सफलता के सोपान चढ़ती चली गई. बाबूजी ने कई बार लड़खड़ाती जबान के इशारे से अम्मां को समझाया था कि थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास सोहन को भी करवाएं, पर अम्मां बाबूजी की कही सुनते ही त्राहित्राहि मचा देतीं. घर का हर काम उन की ही मरजी से होता था, वरना वे घर की ईंट से ईंट बजा कर रख देती थीं.

‘एक रात बाबूजी फैक्टरी से लौटते समय सड़क दुर्घटना में बुरी तरह जख्मी हो गए थे. शरीर के आधे हिस्से को लकवा मार गया था. अच्छेभले तंदरुस्त बाबूजी एक ही झटके में बिस्तर के हो कर रह गए. धीरेधीरे व्यापार ठप पड़ने लगा. सोहन की परवरिश सही तरीके से की गई होती तो वह व्यापार संभाल भी लेता. खानापीना, मौजमस्ती, यही उस की दिनचर्या थी. सीधा खड़ा होने के लिए भी उसे बैसाखी की जरूरत पड़ती थी तो वह कारोबार क्या संभालता?

‘व्यापार के सिलसिले में मेरा अनुभव शून्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं था. जमीन पर मजबूती से खड़े रहने के लिए मुझे भी बाबूजी के पार्टनरों, भागीदारों का सहयोग चाहिए था, पर अम्मां को न जाने क्या सूझी कि वह फोन पर ही सब को बरगलाने लगीं. शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि उन की बेटी उन के पति का कारोबार चला कर पूरी धनसंपदा हथिया लेगी और उन्हें और उन के बेटे को दरदर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देगी.

‘धीरेधीरे बाबूजी के सभी पार्टनर हाथ खींचते गए. मेरी दिनरात की मेहनत भी व्यापार को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी. हार कर व्यापार बंद करना पड़ा. बहुत रोए थे बाबूजी उस दिन. उन की आंखों के सामने ही उन की खूनपसीने से सजाई बगिया उजड़ गई थी. लेकिन अम्मां की आंखों में न विस्मय था न पश्चात्ताप बल्कि मन ही मन उन्होंने दूसरी योजना बना डाली थी. और एक दिन बेहोशी की हालत में पति से अंगूठा लगवा कर पूरा मकान और बैंक बैलेंस सोहन के नाम करवा कर ही उन्होंने चैन की सांस ली थी.

‘कालिज की पढ़ाई, ट्यूशन, बाबूजी की तीमारदारी में कंटीली बाढ़ की तरह जीवन उलझता चला गया. जितनी आमद होती, अम्मां और सोहन उस रकम पर यों टूटते जैसे कबूतरों के झुंड दानों पर टूटते हैं.’

कहतेकहते सिसक उठी थी सुवीरा. होंठों पर हाथ रख कर गिरीश ने उस के मुंह पर चुप्पी की मोहर लगा दी थी. 2 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद आपरेशन से जुड़वां बेटों को जन्म देने में कितनी पीड़ा सुवीरा की शिथिल काया ने बरदाश्त की थी, यह तो गिरीश ही जानते थे.

दिन बीतते गए. सोहन की आवारागर्दी देख सुवीरा का मन दुखी होता था. सोचती इस के साथ पूरा जीवन पड़ा है, कमाएगा नहीं तो अपनी गृहस्थी कैसे चलाएगा? कई धंधे खुलवा दिए थे सुवीरा और गिरीश ने पर सोहन महीने दो महीने में सबकुछ उड़ा कर घर बैठ जाता. उस पर अम्मां उस की तारीफ करते नहीं अघातीं.

एक दिन अचानक खबर मिली कि सोहन का ब्याह तय हो गया. जिस धीरेंद्र की लड़की के साथ शादी तय हुई है वह गिरीश के अच्छे दोस्त थे. सुवीरा यह नहीं समझ पा रही है कि अम्मां ने कैसे उन्हें विश्वास में लिया कि वह अपनी बेटी सोहन के साथ ब्याहने को तैयार हो गए.

सगाई से एक दिन पहले ही सुवीरा अम्मां के पास चली गई थी. दोनों पक्षों से उस का रिश्ता था. गिरीश ने भी पूरा सहयोग दिया था. सुवीरा ने घर सजाने से ले कर सब के नाश्ते आदि का इंतजाम किया पर अम्मां ने बड़ी खूबसूरती से सारा श्रेय खुद ओढ़ लिया. उस का मन किया, ठहाका लगा कर हंसे. आत्मप्रशंसा में तो अम्मां का जवाब नहीं.

ब्याह के कार्ड बंटने शुरू हो गए. आस और उम्मीद की डोर से बंधी सुवीरा सोच रही थी कि शायद इस बार अम्मां खुद आ कर बेटी को न्योता देंगी लेकिन अम्मां को न आना था न वह आईं. हां, निमंत्रण डाक से जरूर आ गया था. गिरीश ने पत्नी के सामने भूमिका बांध कर रिश्तों के महत्त्व को समझाया था, ‘सोहन का ब्याह है, सुवीरा, चलना है.’

गुस्से से सुवीरा का चेहरा तमतमा गया था, ‘सगाई पर बिना निमंत्रण के चली गई तो क्या अब भी चली जाऊंगी?’

‘ये आया तो है निमंत्रण,’ गिरीश ने टेबल पर रखा गुलाबी लिफाफा पत्नी को पकड़ाया तो स्वर प्रकंपित हो उठा था सुवीरा का, ‘डाक से…’

‘छोटीछोटी बातों को क्यों दिल से लगाती हो? रिश्ते कच्चे धागों से बंधे होते हैं. टूट जाएं तो जोड़ने मुश्किल हो जाते हैं.’

जोर से खिलखिला दी सुवीरा उस समय. भाई के विवाह में शामिल होने की इच्छा अब भी दिल के किसी कोने में दबी हुई थी. मन में ढेर सारी उमंगें लिए दोनों बेटों और पति के साथ जनवासे पहुंची तो मेहमानों की आवभगत में उलझी अम्मां को यह भी ध्यान नहीं रहा कि बेटीदामाद आए हैं.

मित्रोंपरिजनों की भीड़ में अपना मनोरंजन खुद ही करने लगे थे गिरीश और सुवीरा. पार्टी जोरशोर से चल रही थी. हंसीठट्ठे का माहौल था. अचानक तारिणी देवी की चिल्लाहट सुन कर दोनों का ध्यान उस ओर चला गया.

विक्रम को पकड़े अम्मां कह रही थीं, ‘भीम की तरह 40 पूरियां खा गया, ऊपर से कीमती गिलास भी तोड़ दिया.’

दौड़तीभागती सुवीरा जब तक मूल कारण तक पहुंचती, अम्मां जोर से चीखने लगी थीं. सहमीसकुची सुवीरा इतना ही कह पाई थी, ‘गलती से गिर गया होगा अम्मां. जानबूझ कर नहीं किया होगा.’

अचानक गिरीश की आंखों से चिंगारियां बरसने लगीं. बिना कुछ खाए ही जनवासे से लौट आए थे और सास को सुना भी दिया था, ‘सोहन की ससुराल से आए सामान की तो आप को चिंता है लेकिन बेटीदामाद और उन के बच्चों की आवभगत की जरा भी चिंता नहीं है.’

घर लौटने के बाद भी फोन घुमा कर चोट खाए घायल सिंह की तरह ऐसी पटखनी दी थी सास तारिणी देवी को कि तिलमिला कर रह गई थीं, ‘अम्मां, मेरे बेटे ने आप की 40 पूरियां खाई हैं या 50, आप चिंता मत करना…मुझ में इतना दम है कि आप के उस खर्च की भरपाई कर सकूं.’

वह रात सुवीरा ने जाग कर काटी. पीहर के हर सुखदुख में सहभागिता दिखाते उन के पति का इस तरह अपमान क्यों किया अम्मां ने? आत्मविश्लेषण किया… उसे ही नहीं जाना चाहिए था भाई के ब्याह में. हो सकता है अम्मां बेटीदामाद को बुलाना ही न चाहती हों. डाक के जरिए न्योता भेज कर महज औपचारिकता निभाई हो.

विक्रम और विनय अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे. मानअपमान की भाषा भी खूब समझने लगे थे. मां को धूर्तता का उपहार देने वाले लोगों से बच्चों को कतई हमदर्दी नहीं थी. कितनी बार मनोबल और संयम टूटे. गिरीश की बांहों का सहारा न मिला होता तो सुवीरा कब की टूट चुकी होती.

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 2

नरेंद्र ने जब से होश संभाला था उस का भी अमली चाचा से वास्ता पड़ता रहा था. जब भी उस के पांव की चप्पल कहीं से टूटती थी तो उस की मरम्मत अमली चाचा ही करता था. चप्पल की मरम्मत और पालिश कर के एकदम उस को नया जैसा बना देता था अमली चाचा.

काम करते हुए बातें करने की अमली चाचा की आदत थी. बातों की झोंक में कई बार बड़ी काम की बातें भी कह जाता था अमली चाचा.

‘कुदेसन’ के बारे में अमली चाचा से वह पूछेगा, ऐसा मन बनाया था नरेंद्र ने.

एक दिन जब स्कूल से वापस आ कर सब लड़के अपनेअपने घर की तरफ रुख कर गए तो नरेंद्र घर जाने के बजाय चौपाल के करीब पीपल के नीचे जूतों की मरम्मत में जुटे अमली चाचा के पास पहुंच गया.

नरेंद्र को देख अमली चाचा ने कहा, ‘‘क्यों रे, फिर टूट गई तेरी चप्पल? तेरी चप्पल में अब जान नहीं रही. अपने कंजूस बाप से कह अब नई ले दें.’’

‘‘मैं चप्पल बनवाने नहीं आया, चाचा.’’

‘‘तब इस चाचा से और क्या काम पड़ गया, बोल?’’ अमली ने पूछा.

नरेंद्र अमली चाचा के पास बैठ गया. फिर थोड़ी सी ऊहापोह के बाद उस ने पूछा, ‘‘एक बात बतलाओ चाचा, यह ‘कुदेसन’ क्या होती है?’’

नरेंद्र के सवाल पर जूता गांठ रहे अमली चाचा का हाथ अचानक रुक गया. चेहरे पर हैरानी का भाव लिए वह बोले, ‘‘ तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’

‘‘मैं ने सुरजीत के घर में एक औरत को देखा था चाचा, सुरजीत कहता है कि वह औरत ‘कुदेसन’ है जिस को उस का बापू बाहर से लाया है. बतलाओ न चाचा कौन होती है ‘कुदेसन’?’’

‘‘क्या करेगा जान कर? अभी तेरी उम्र नहीं है ऐसी बातों को जानने की. थोड़ा बड़ा होगा तो सब अपनेआप मालूम हो जाएगा. जा, घर जा.’’ नरेंद्र को टालने की कोशिश करते हुए अमली चाचा ने कहा. लेकिन नरेंद्र जिद पर अड़ गया. तब अमली चाचा ने कहा,

‘‘ ‘कुदेसन’ वह होती है बेटा, जिस को मर्द लोग बिना शादी के घर में ले आते हैं और उस को बीवी की तरह रखते हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं चाचा.’’

‘‘थोड़े और बड़े हो जाओ बेटा तो सब समझ जाओगे. कुदेसनें तो इस गांव में आती ही रही हैं. आज सुरजीत का बाप ‘कुदेसन’ लाया है. एक दिन तेरा बाप भी तो ‘कुदेसन’ लाया था. पर उस ने यह सब तेरी मां की रजामंदी से किया था. तभी तो वह वर्षों बाद भी तेरे घर में टिकी हुई है. बातें तो बहुत सी हैं पर मेरी जबानी उन को सुनना शायद तुम को अच्छा नहीं लगेगा, बेहतर होगा तुम खुद ही उन को जानो,’’ अमली चाचा ने कहा.

अमली चाचा की बातों से नरेंद्र हक्काबक्का था. उस ने सोचा नहीं था कि उस का एक सवाल कई दूसरे सवालों को जन्म दे देगा.

सवाल भी ऐसे जो उस की अपनी जिंदगी से जुडे़ थे. अमली चाचा की बातों से यह भी लगता था कि वह बहुत कुछ उस से छिपा भी गया था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि होश संभालने के बाद वह जिस खामोश औरत को अपने घर में देखता आ रहा है वह कौन है?

वह भी ‘कुदेसन’ है, लेकिन सवाल तो कई थे.

यदि मेरा बापू कभी मां की रजामंदी से ‘कुदेसन’ लाया था तो आज मां उस से इतना बुरा सलूक क्यों करती है? अगर वह ‘कुदेसन’ है तो मुझ को देख कर रोती क्यों है? जरा सा मौका मिलते ही मुझ को अपने सीने से चिपका कर चूमनेचाटने क्यों लगती थी वह? मां की मौजूदगी में वह ऐसा क्यों नहीं करती थी? क्यों डरीडरी और सहमी सी रहती थी वह मां के वजूद से?

फिर अमली चाचा की इस बात का क्या मतलब था कि अपने घर की कुछ बातें खुद ही जानो तो बेहतर होगा?

ऐसी कौन सी बात थी जो अमली चाचा जानता तो था किंतु अपने मुंह से उस को नहीं बतलाना चाहता?

एक सवाल को सुलझाने निकला नरेंद्र का किशोर मन कई सवालों में उलझ गया.

उस को लगने लगा कि उस के अपने जीवन से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन के बारे में वह कुछ नहीं जानता.

अमली चाचा से नई जानकारियां मिलने के बाद नरेंद्र ने मन में इतना जरूर ठान लिया कि वह एक बार मां से घर में रह रही ‘कुदेसन’ के बारे में जरूर पूछेगा.

‘कुदेसन’ के कारण अब सुरजीत के घर में बवाल बढ़ गया था. सुरजीत की मां ‘कुदेसन’ को घर से निकालना चाहती थी मगर उस का बाप इस के लिए तैयार नहीं था.

इस झगड़े में सुरजीत की मां के दबंग भाइयों के कूदने से बात और भी बिगड़ गई थी. किसी वक्त भी तलवारें खिंच सकती थीं. सारा गांव इस तमाशे को देख रहा था.

वैसे भी यह गांव में इस तरह की कोई नई या पहली घटना नहीं थी.

जब सारे गांव में सुरजीत के घर आई ‘कुदेसन’ की चर्चा थी तो नरेंद्र का घर इस चर्चा से अछूता कैसे रह सकता था?

नरेंद्र ने भी मां और सिमरन बूआ को इस की चर्चा करते सुना था लेकिन काफी दबी और संतुलित जबान में.

इस चर्चा को सुन कर नरेंद्र को लगा था कि उस के मां से कु छ पूछने का वक्त आ गया है.

एक दिन जब नरेंद्र स्कूल से वापस घर लौटा तो मां अपने कमरे में अकेली थीं. सिमरन बूआ किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं और बापू खेतों में था.

नरेंद्र ने अपना स्कूल का बस्ता एक तरफ रखा और मां से बोला, ‘‘एक बात बतला मां, गायभैंस बांधने वाली जगह के पास बनी कोठरी में जो औरत रहती है वह कौन है?’’

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 2

हालांकि जैसेजैसे रिटायर होने का समय नजदीक आ रहा है, वे परेशान होते जा रहे हैं. उन्हें लगता है, जिंदगी की रेत उन की मुट्ठी से झर कर खत्म होने जा रही है. बस, चंद जर्रे और बचे हैं उन की बंद मुट्ठी में, फिर खाली…रीती…

फिर क्या होगा? यह सवाल अब हर वक्त उन के दिलोदिमाग पर हावी रहता है. वे तय नहीं कर पा रहे. हालांकि लड़का कहता है, ‘पिताजी, बहुत हो गया काम. अब तो आप रिटायर होने के बाद घर पर आराम करिए, सुबहशाम टहलिए. अपनी सेहत का खयाल रखिए.’ लेकिन फिर भी भविष्य को ले कर वे चिंतित हैं.

छोटे बच्चे अचानक गेंद ले कर पार्क के उस हिस्से में आ गए जिस में वह लड़की पढ़ रही थी. लड़की के माथे पर बल पड़ने लगे. वह परेशान हो उठी. उस की परेशानी वे सह न सके. बैंच से उठे और गेंद खेलते बच्चों के कप्तान के पास पहुंचे, ‘‘बेटे, यहां ये दीदी पढ़ती हैं तुम्हारी…इन की परीक्षा नजदीक है. इन्हें पढ़ने दो यहां. तुम्हें अपनी जगह खेलना चाहिए.’’

‘‘कैसे खेलें दादाजी?’’ कप्तान ने परेशान हो कर कहा, ‘‘हमारी जगह पर दूसरे लड़कों ने क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया है. आप उन्हें रोकिए, हमारी जगह न खेलें.’’

बात जायज थी. पर क्रिकेट खेलने वाले लड़के शक्ल से ही उन्हें उद्दंड लगे. उन से उलझना उन्हें ठीक न लगा. इसलिए उन बच्चों को ले कर वे दूसरे कोने में पहुंचे. वहां ताश खेलने वाला दल बैठा था. वे सचमुच चिंतित हुए कि बच्चे कहां खेलें? आखिरकार उन्होंने फैसला किया, ‘‘तुम लोग उस पानी की टंकी के पास वाले मैदान में खेलो, वहां कोई नहीं आता.’’

बच्चे मान गए तो उन्हें सचमुच खुशी हुई.

अनजाने ही या जानबूझ कर उस लड़की को परेशान करने की नीयत से ताश खेलने वाले लड़कों का वह दल एक दिन उस लड़की वाले कोने में आ जमा. लड़की आई और परेशान सी पार्क में अपने लिए कोई सुरक्षित कोना देखने लगी पर उसे कोई उपयुक्त जगह न दिखी. चिंतित, खिन्न, उद्विग्न वह उन के नजदीक बैंच के एक सिरे की तरफ आ खड़ी हुई.

‘‘कहो तो इन उद्दंड लड़कों से तुम्हारा कोना खाली करने को कहूं?’’ उन्होंने उस लड़की के परेशान चेहरे की तरफ एक पल को ताका.

‘‘रहने दीजिए. आप जैसे भले आदमी का अपमान कर देंगे तो हमें अच्छा नहीं लगेगा,’’ लड़की के स्वर के अपनेपन ने उन की रगों में एक झनझनाहट पैदा कर दी. ‘कितना मधुर स्वर है इस का,’ उन्होंने सोचा.

कुछ सोच कर वे बैंच से उठे. लड़कों के नजदीक पहुंचे. एक लड़के की बगल में जा कर बैठ गए. कुछ देर चुपचाप उन का खेल देखते रहे. वह लड़का बीचबीच में बैंच के पास खड़ी लड़की को देखे जा रहा था. मन ही मन शायद मुसकरा भी रहा था. उन्हें ऐसा ही लगा.

‘‘आप लोग तो शरीफ और पढ़ेलिखे लड़के हैं,’’ उन्होंने कहना शुरू किया.

‘‘इसीलिए बेकार हैं. घर में रहें तो मांबाप को खटकते हैं. यहां किसी को खटकते नहीं हैं, इसलिए ताश जमाते हैं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘जिंदगी के ये खूबसूरत दिन आप लोग यों बेकार बैठ कर जाया  कर रहे हैं. आप लोगों को नहीं लगता कि इन दिनों का कोई इस से बेहतर उपयोग हो सकता था?’’ वे बोले.

‘‘जिंदगी खूबसूरत होती है खूबसूरत लड़की से, जनाब,’’ एक मुंहफट लड़का बोला, ‘‘और खूबसूरत लड़की मिलती है अच्छी नौकरी वालों को या आरक्षण वालों को. हम लोग न सिफारिश वाले हैं और न आरक्षण वाले, इसलिए यहां बैठ कर ताश खेलते हुए जिंदगी को जाया कर रहे हैं. अब बताइए आप?’’

‘‘इस उम्र में आप लोगों को इस तरह जिंदगी की लड़ाई से हार मान कर अपने हथियार नहीं डाल देने चाहिए. मेरा खयाल है, आप लोग वक्त जाया न कर के अपने रुके हुए कैरियर को कोई और मोड़ देने का प्रयास करिए. न कुछ करने से, कुछ करना हमेशा बेहतर होता है. अगर आप चाहें तो मैं आप लोगों की इस मामले में मदद करने को तैयार हूं.’’

उन की बात सुनते ही ताश खेलती उंगलियां एकदम थम गईं, सब के चेहरे उन की तरफ उन्मुख हो गए. वे सब उसी तरह शांत बने रहे, ‘‘मैं उस सामने वाले मकान में ऊपर वाले हिस्से में रहता हूं. अपनी डिगरियां और प्रमाणपत्र ले कर आएं किसी दिन, शायद मैं आप लोगों को कुछ सुझा सकूं.’’

‘‘जी, धन्यवाद, दादाजी,’’ कह कर वे सब लड़के वहां से उठ कर चले गए.

‘‘आप तो सचमुच जादूगर हैं,’’ वह लड़की पार्क के अपने उस कोने में आ कर उन के निकट ही घास पर किताबें लिए बैठ गई. उस ने उस दिन जामुनी रंग का सूट पहन रखा था और उस पर सफेद रंग की चुन्नी.

वह अपलक उस के चेहरे को ताकते रहे. उन का मन हुआ, उस से कह दें, ‘इस तरह हंसती हुई तुम कितनी अच्छी लगती हो. क्या नाम है तुम्हारा? कहां रहती हो? किस की बेटी हो? और कौनकौन हैं तुम्हारे घर में?’ पर वे कुछ न बोले, सिर्फ मुसकराते रहे.

‘‘गेंद खेलने वाले बच्चों को दूसरी जगह पहुंचा दिया और अब इन लड़कों को पता नहीं आप ने कान में क्या कह दिया कि सब गऊ बने हुए यहां से चले गए,’’ लड़की चकित थी.

‘‘मैं ने लड़कों को अपने उस सामने वाले घर को दिखा दिया. कह दिया, वे जिंदगी के ये खूबसूरत दिन यों जाया न करें. जरूरी समझें तो मेरे घर में आएं, मैं ऊपर वाले हिस्से में रहता हूं. शायद उन की मदद कर सकूं.’’

‘‘आप सिर्फ लड़कों की ही मदद करेंगे, मेरी नहीं?’’ पता नहीं क्या सोच कर लड़की मुसकराई, ‘‘अगर मैं किसी दिन आप से सहायता मांगने आऊं तो…?’’

‘‘आइए न किसी दिन. मुझे तो उस दिन का इंतजार रहेगा,’’ हालांकि वे कहना तो यह चाहते थे कि उन्हें तो उस दिन का बेताबी से इंतजार रहेगा. पर लड़की से वे पहली बार बोल रहे थे. सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘नाम नहीं बताना चाहोगी मुझे?’’

‘‘जी, ताना, लोग घर में तन्नू कहते हैं,’’ वह हंसी.

वे उस के हंसते गुलाबी अधरों और संगमरमरी दांतों को अपलक ताकते रहे, ‘कितनी प्यारी लड़की है, न जाने किस का जीवन संवारेगी.’

‘‘ताना, कुछ अजीब सा नाम नहीं लगता तुम्हें?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘हां, है तो अजीब ही. मेरे पिता बहुत अच्छे संगीतकार हैं. घर में हर वक्त रियाज करते रहते हैं. उन से कुछ कह नहीं सकती. पढ़ने में बाधा पड़ती है, इसलिए यहां चली आती हूं. ताना नाम उन्होंने ही दिया है, तान से या लय से मतलब बताते हैं वे इस का. पर मुझे पता चला है, विख्यात संगीतसम्राट तानसेन की महबूबा थी कोई ताना नाम की लड़की. और वह तानसेन से भी ज्यादा अच्छी गायिका थी. पिताजी ने जरूर उसी के नाम पर मेरा नाम रखा होगा, यह सोच कर कि मैं भी उन की तरह संगीत में रुचि लूंगी और अच्छी गायिका बनूंगी. पर मुझे संगीत में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘तुम शायद एमबीए की तैयारी कर रही हो?’’ वे बोले. हालांकि वे कहना तो यह चाहते थे कि आजकल के बच्चे कितने खोजी किस्म के हो गए हैं. बाप ने ताना का जो अर्थ बताया, उस से संतुष्ट नहीं होते. नाम का अर्थ खोजा और पता चला ही लिया कि ताना तानसेन की प्रेमिका थी. कोई बाप अपनी लड़की से यह कैसे कह देता कि उस का नाम उस संगीतसम्राट की महबूबा के नाम पर रखा है.

‘‘जी, आप ने कैसे जाना?’’ वह हंस दी.

एकदम निश्छल, भोली, बच्चों जैसे हंसी को वे अपलक ताकते रहे,

‘‘तुम्हारी किताबों से…और मैं यह भी जान गया हूं कि तुम्हें अंगरेजी में खास दिक्कत आ रही है.’’

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी- भाग 2

‘‘साहब, कितने पैसे दोगे नाश्ता और 2 टाइम का खाना बनाने के?’’ जोरावर सिंह ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम पैसे की चिंता मत करो, बस चायनाश्ता और खाना बिलकुल वैसा ही होना चाहिए, जैसा कल सुबह था.’’

‘‘साहब, इस का सीधा सा हिसाब है… 3 टाइम का खाना… 3,000 रुपए…’’ जोरावर सिंह ने अपने पीले दांत दिखाए.

‘‘मंजूर है, पर है कौन… कब से शुरू करेगा या करेगी?’’

‘‘अरे साहब, और कौन, राधा है न… वही बना देगी… आज और अभी से… मैं भेजता हूं उसे…’’ कह कर जोरावर सिंह ने चाय का कप उठाया और राधा को बुलाने चला गया.

राधा ने आते ही अपने सधे हुए हाथों से रसोई की कमान संभाल ली. टखनों से थोड़ा ऊंचा घाघरा और कुरती… ऊपर चटक रंग की ओढ़नी… पैरों में चांदी के मोटे कड़े और हाथों में पहना सीप का चूड़ा… कुलदीप की आंखों में ‘मारवाड़ की नार’ की छवि साकार हो उठी.

हालांकि कुलदीप ने उस का चेहरा नहीं देखा था, क्योंकि वह उन के सामने घूंघट निकालती थी, मगर कदकाठी से वह जोरावर से काफी कम उम्र की लगती थी.

सुबह की चाय जोरावर सिंह अपने घर से लाता था, उस के बाद कुलदीप का टिफिन पैक कर के राधा उन का चायनाश्ता टेबल पर लगा देती थी.

शाम का खाना कुलदीप के औफिस से लौटने से पहले ही बना कर राधा हौटकेस में रख देती थी. कुलदीप ने उसे अपने घर की एक चाबी दे रखी थी.

अभी 4-5 दिन ही बीते थे कि कुलदीप ने फिर से सर्वेंट क्वार्टर से चीखने की आवाज सुनी. उन के कदम उठे, मगर फिर ‘पतिपत्नी का आपसी मामला है’ सोच कर रुक गए.

अगले दिन उन्होंने देखा कि राधा कुछ लंगड़ा कर चल रही है. उन्होंने पूछा भी, मगर राधा ने कोई जवाब नहीं दिया.

4 दिन बाद फिर वही किस्सा… इस बार कुलदीप ने राधा के हाथ पर चोट के निशान देखे तो उन से रहा नहीं गया.

कुलदीप ने खाना बनाती राधा का हाथ पकड़ा और उस पर एंटीसैप्टिक क्रीम लगाई. राधा दर्द से सिसक उठी.

कुलदीप ने नजर उठा कर पहली बार राधा का चेहरा देखा. कितना सुंदर… कितना मासूम… नजरें मिलते ही राधा ने अपनी आंखें झुका लीं.

अब तो यह अकसर ही होने लगा. जोरावर सिंह अपनी शराब की तलब मिटाने के लिए हर 8-10 दिन में आबू जाता था. पर्यटन स्थल होने के कारण वहां हर तरह की शराब आसानी से मिल जाती थी. वहां से लौटने पर राधा की शामत आ जाती थी.

राधा जोरावर सिंह की दूसरी पत्नी थी. वह बेतहाशा शराब पी कर राधा से संबंध बनाने की कोशिश करता और नाकाम होने पर अपना सारा गुस्सा उस पर निकालता था, मानो यह भी मर्दानगी की ही निशानी हो.

राधा के जख्म कुलदीप से देखे नहीं जाते थे, मगर मूकदर्शक बनने के अलावा उन के पास कोई चारा भी नहीं था. वह चोट खाती रही… कुलदीप उन पर मरहम लगाते रहे. एक दर्द का रिश्ता बन गया था दोनों के बीच.

धीरेधीरे राधा उन से खुलने लगी थी… अब तो खुद ही दवा लगवाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देती थी… कभीकभी घरपरिवार की बातें भी कर लेती थी… उन की पसंदनापसंद पूछ कर खाना बनाने लगी थी. एक अनदेखी डोर से दोनों के दिल बंधने लगे थे.

2 महीने बीत गए. इस बीच कुलदीप एक बार जयपुर हो आए थे. राधा के खाना बनाने से कुलदीप को ले कर पत्नी शशि की चिंता भी दूर हो गई थी.

एक दिन सुबह राधा नाश्ता टेबल पर रखने आई तो कुलदीप टैलीविजन पर ‘ई टीवी राजस्थान’ चैनल देख रहे थे, जिस में एक मौडल लहरिया के डिजाइन दिखा रही थी.

कुलदीप ने नोटिस किया कि राधा ठिठक कर लहरिया की ओढ़नी देखने लगी.

इस बार जब घर आए तो न जाने क्या सोच कर शशि से छिपा कर कुलदीप ने लालहरे रंग की एक लहरिया की ओढ़नी राधा के लिए खरीद ली.

ओढ़नी पा कर राधा खिल उठी.

अगले दिन राधा वह ओढ़नी ओढ़ कर आई तो कुलदीप उसे देखते ही रह गए… झीने घूंघट से झांकता उस का चेहरा किसी चांद से कम नहीं लग रहा था. उसे यों अपलक निहारता देख राधा शरमा गई.

समय मानो रेत की तरह हाथ से फिसल रहा था. हर सुबह कुलदीप को राधा का इंतजार रहने लगा.

राधा के आने में अगर जरा भी देर हो जाती तो वे बेचैनी से घर के बाहर चक्कर लगाने लगते.

राधा भी मानो रातभर सुबह होने का इंतजार करती थी. सुबह होते ही बंगले की तरफ ऐसे भागती सी आती थी जैसे किसी कैद से आजाद हुई हो.

आज भी कुलदीप सुबहसवेरे बंगले के अंदरबाहर चक्कर लगा रहे थे. सुबह के 8 बज गए थे, मगर राधा अभी तक नहीं आई थी. जोरावर सिंह भी अब तक दिखाई नहीं दिया था.?

कुलदीप ने सुबह की चाय किसी तरह से बना कर पी, मगर उन्हें मजा नहीं आया. उन्हें तो राधा के हाथ की बनी चाय पीने की आदत पड़ गई थी.

कुलदीप को यह सोच कर हंसी आ गई कि एक बार उन्होंने शशि से भी कह दिया था कि ‘चाय बनाने में राधा का जवाब नहीं’. यह सुन कर मुंह फुला लिया था शशि ने.

चाय का कप सिंक में रख कर कुलदीप सर्वेंट क्वार्टर की तरफ बढ़े. अंदर किसी तरह की कोई हलचल न देख कर कुलदीप को किसी अनहोनी का डर हुआ.

उन्होंने धीरे से दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा खुल गया. भीतर का सीन देखते ही उन के होश उड़ गए.

राधा जमीन पर बेसुध पड़ी थी. जोरावर सिंह का कहीं अतापता नहीं था.

कुलदीप ने राधा को होश में लाने की भरसक कोशिश की, मगर उस ने आंखें नहीं खोलीं.

कुलदीप ने उसे बड़ी मुश्किल से बांहों में उठाया और बंगले तक ले कर आए. उसे बैडरूम में सुला कर एसी चला दिया.

कुलदीप ने पहली बार राधा को इतना नजदीक से देखा था. उस की मासूम खूबसूरती देख कर वे अपनेआप को रोक नहीं सके और उन के हाथ राधा के माथे को सहलाने लगे.

चालाक लड़की: भाग 2

राजेश का आलीशान बंगला देख कुमुदिनी हैरान रह गई. दरबान ने बंगले का गेट खोला और नमस्ते की. नौकर ने राजेश की अटैची टैक्सी से निकाल कर बंगले में रखी.

‘‘मैडम, यह है अपनी कुटिया. आप के आने से हमारी कुटिया भी पवित्र हो जाएगी,’’ राजेश ने कुमुदिनी से कहा.

‘‘बहुत ही खूबसूरत बंगला बनाया है. कितनी भाग्यशाली हैं इस बंगले की मालकिन?’’

‘‘छोड़ो, इधर बाथरूम है. आप फ्रैश जाओ. मैं आप के लिए कपड़े लाता हूं,’’ कह कर राजेश दूसरे कमरे में जा कर एक बड़ी सी कपड़ों की अटैची ले आया. अटैची खोली तो उस में कपड़े तो कम थे, सोनेचांदी के गहने व नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थीं.

‘‘नहींनहीं, यह अटैची मैं भूल से ले आया. कपड़े वाली अटैची इसी तरह की है,’’ और राजेश तुरंत अटैची बंद कर उसे रख कर दूसरी अटैची ले आया.

‘‘यह लो अपनी पसंद के कपड़े… मेरा मतलब, साड़ीब्लाउज या सूट निकाल लो. इस में रखे सभी कपड़े नए हैं.’’

‘‘पसंद तो आप की रहेगी,’’ तिरछी नजरों से कुछ मुसकरा कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यह नीली ड्रैस बहुत ज्यादा फबेगी आप पर. यह रही मेरी पसंद.’’

वह ड्रैस ले कर कुमुदिनी बाथरूम में चली गई. तब तक राजेश भी अपने बाथरूम में नहा कर ड्राइंगरूम में आ कर कुमुदिनी का इंतजार करने लगा.

कुमुदिनी जब तक वहां आई, तब तक नौकर चायनाश्ता टेबल पर रख कर चला गया.

दोनों ने नाश्ता किया. राजेश ने पूछा, ‘‘खाने में क्या चलेगा?’’

‘‘आप तो मेहमानों की पसंद का खाना खिलाना चाहते हो. मैं ने कहा न आप की पसंद.’’

‘‘मैं तो आलराउंडर हूं. फिर भी?’’

‘‘वह सबकुछ तो ठीक है, पर मैं आप के बारे में कुछ…’’

‘‘क्या? साफसाफ कहो.’’

‘‘आप के नौकरचाकर श्रीमतीजी को जरूरत बता सकते हैं. मेरे चलते आप के घर में पंगा खड़ा हो, मुझे गवारा नहीं.’’

‘‘आप चाहो तो मैं परसों तक नौकरों को छुट्टी पर भेज देता हूं, पर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

‘‘खाना आप को बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मुझे मंजूर है, पर आप के घर में कोई पंगा न हो.’’

‘‘पहले यह तो बताओ खाने में…’’ राजेश ने पूछा.

‘‘आप जो खिलाओगे, मैं खा लूंगी,’’ आंखों में झांक कर कुमुदिनी ने कहा.

राजेश ने एक नौकर से चिकन और शराब मंगवाई और बाद में सभी नौकरों को छुट्टी पर भेज दिया. तब तक रात के 9 बज चुके थे.

‘‘आप ने तो…’’ शराब से भरे जाम को देखते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘जब मेरी पसंद की बात है तो साथ तो देना ही पड़ेगा,’’ राजेश ने जाम आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मैं ने आज तक इसे छुआ भी नहीं है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं चलेगी. मैं अगर अपने हाथ से पिला दूं तो…?’’ और राजेश ने जबरदस्ती कुमुदिनी के होंठों से जाम लगा दिया.

‘‘काश, आप के जैसा जीवनसाथी मुझे मिला होता तो मैं कितनी खुशकिस्मत होती,’’ आंखों में आंखें डाल कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यही तो मैं सोच रहा हूं. काश, आप की तरह घर मालकिन रहती तो सारा घर महक जाता.’’

‘‘अब मेरी बारी है. यह लो, मैं अपने हाथों से आप को पिलाऊंगी,’’ कह कर कुमुदिनी ने दूसरा रखा हुआ जाम राजेश के होंठों से लगा दिया.

शराब पीने के बाद राजेश से रहा न गया और उस ने कुमुदिनी के गुलाबी होंठों को चूम लिया.

‘‘आप तो मेहमान की बहुत ज्यादा खातिरदारी करते हो,’’ मुसकराते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘बहुत ही मधुर फूल है कुमुदिनी का. जी चाहता है, भौंरा बन कर सारा रस पी लूं,’’ राजेश ने कुमुदिनी को अपने आगोश में लेते हुए कहा.

‘‘आप ने ही तो यह कहा था कि कुमुदिनी रात में सारे माहौल को महका देती है.’’

‘‘मैं ने सच ही तो कहा था. लो, एक जाम और पीएंगे,’’ गिलास देते हुए राजेश ने कहा.

‘‘कहीं जाम होंठ से टकराते हुए टूट न जाए राजेश साहब.’’

‘‘कैसी बात करती हो कुमुदिनी. यह बंदा कुमुदिनी की मधुर खुशबू में मदहोश हो गया है. यह सब तुम्हारा है कुमुदिनी,’’ जाम टकराते हुए राजेश ने कहा और एक ही सांस में शराब पी गया.

कुमुदिनी ने अपना गिलास राजेश के होंठों से लगाते हुए कहा, ‘‘इस शराब को अपने होंठों से छू कर और भी ज्यादा नशीली बना दो राजेश बाबू, ताकि यह रात आप के ही नशे में मदहोश हो कर बीते.’’

नशे में धुत्त राजेश ने कुमुदिनी को बांहों में भर कर प्यार किया. कुमुदिनी भी अपना सबकुछ उस पर लुटा चुकी थी. राजेश पलंग पर सो गया.

थोड़ी देर में कुमुदिनी उठी और अपने पर्स से एक छोटी सी शीशी निकाल राजेश को सुंघाई. शीशी में क्लोरोफौर्म था. इस के बाद कुमुदिनी ने किसी को फोन किया.

राजेश जब सुबह उठा, उस समय 8 बजे थे. राजेश के बिस्तर पर कुमुदिनी की साड़ी पड़ी थी. साड़ी को देख उसे रात की सारी बातें याद हो आईं. उस ने जोर से पुकारा, ‘‘ऐ कुमुदिनी.’’

बाथरूम से नल के तेजी से चलने की आवाज आ रही थी. राजेश ने दोबारा आवाज लगाई, ‘‘कुमुदिनी, हो गया नहाना. बाहर निकलो.’’

पर, कुमुदिनी की कोई आवाज नहीं आई. तब राजेश ने बाथरूम का दरवाजा धकेला, तो उसे कुमुदिनी नहीं दिखी.

वह घर के अंदर गया. सारा सामान इधरउधर पड़ा था. रुपएपैसे व जेवर वाला सूटकेस, घर की कीमती चीजें गायब थीं. राजेश को समझते देर नहीं लगी. उस के मुंह से निकला, ‘‘चालाक लड़की…’’

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष – भाग 2

सुरेश मन ही मन खुश हो गया कि चलो एक नारियल तो कटेगा. पर वह सीधी बड़ी दुकान में चली गई. वह मन मसोस कर रह गया. ढेर सा सामान खरीद कर वह बाहर निकली. एक पल के लिए उस ने सुरेश को देखा और उस की मेज के पास आई और पूछा ‘‘कितने में दिया है नारियल?’’

‘‘मैडमजी, बड़ा 20 रुपए का और छोटा वाला 15 रुपए का,’’ सुरेश ने नारियल हाथ में उठा कर दिखाते हुए कहा.

‘‘एक 20 रुपए वाला काट दो,’’ उस मैडम ने कहा. उस मैडम के कपड़ों से एक अजीब सी महक आ रही थी जो सुरेश को बहुत ही अच्छी लग रही थी मानो कहीं मोगरे या गुलाब के फूल खिले हों. उस ने 3 बार में नारियल को छील कर नारियल में एक स्ट्रा डाल कर मैडम की ओर बढ़ा दिया.

मैडम ने नारियल के पानी को पीना शुरू किया. 2-3 मिनट में पी लिया और कहने लगीं, ‘‘तुम लोग बहुत ठगने लगे हो…’’

‘‘क्यों मैडमजी?’’

‘‘नारियल में कितना कम पानी था.’’

‘‘एक और काट देता हूं.’’

‘‘ताकि तेरे एक नारियल के रुपए और बन जाएं,’’ मैडम ने कहा.

‘‘नहीं मैडमजी, ऐसी बात नहीं है,’’ कह कर बिना मैडम की इच्छा जाने उस ने एक और नारियल काट कर सामने कर दिया.

थोड़े से संकोच के बाद मैडम ने नारियल ले लिया. वह बड़ी उम्मीद से तारीफ सुनने के लिए मैडम को देख रहा था.

मैडम ने पानी पीया, फिर नारियल को एक ओर पटक दिया और 50 रुपए का नोट दिया. सुरेश ने 30 रुपए मैडम को वापस किए.

मैडम ने रुपए देखे, ‘‘अरे, यह क्या, 2 नारियल लिए?हैं.’’

‘‘मैडमजी, पानी कम था न.’’

‘‘अरे, तुम दुकान चला रहे हो या…’’

‘‘एक नारियल से कुछ नहीं होता.’’

‘‘ये पूरे 50 ही रखो,’’ कह कर मैडम ने 50 रुपए उसे पकड़ा दिए.

‘‘मैडम जी, मैं सुरेश,’’ न जाने क्यों और कैसे उस के मुंह से निकल गया.

‘‘मैं सुंदरी,’’ कह कर मैडम ने हाथ मिलाने को आगे बढ़ा दिया. सुरेश ने डरते हुए हाथ आगे किया. कितने खुरदरे और काले हाथ?हैं उस के और मैडम के हाथ कितने नरम और गोरे. पलभर को उसे लगा मानो स्वर्ग मिल गया हो.

‘‘दिनभर में कितने नारियल बेच लेते हो?’’ मैडम ने पूछा.

‘‘40 से 50.’’

‘‘कितना मुनाफा होगा है?’’

‘‘100 से 150 रुपए मिल जाते हैं,’’ सुरेश बताया.

‘‘मैं कल आऊंगी, तुम नारियल ले कर मत आना. इसी समय आऊंगी,’’ कह कर वह मैडम बास्केट उठा कर जाने को हुईं, तो सुरेश ने पूछा, ‘‘क्यों मैडमजी?’’

‘‘नारियल मत लाना. मैं मिलती हूं,’’ कह कर मैडम सड़क के उस पार खड़ी कार में जा कर बैठ गईं.

सुरेश का दिमाग बहुत तेजी से दौड़ने लगा. आखिर क्यों कल नारियल नहीं लाने हैं? मैडम क्यों आएंगी? वह और भी कुछ सोचता, लेकिन तब तक कालेज के कुछ लड़केलड़कियां वहां आ गए तो वह उन में लग गया, लेकिन दिमाग से वह बात जा नहीं रही थी कि आखिर मैडम ने ऐसा क्यों कहा? वह जितना सोच रहा था उतना ही उलझता जा रहा था. कभी एक काले से लड़के पर उस की नजर पड़ी जो नारियल की दुकान के पास आ कर खड़ा हो गया था.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘भाई, मैं पास के गांव से आया हूं.’’

‘‘तो…?’’ सुरेश की आवाज में अजीब सा रूखापन था.

‘‘क्या मुझे काम मिल जाएगा?’’

‘‘मुझे जिंदा रहना भारी पड़ रहा है, तुझे कौन सा काम दे पाऊंगा,’’ सुरेश ने पूछा.

‘‘मेरे पास 500 रुपए हैं.’’

‘‘भाई, तो मैं क्या करूं?’’

‘‘भाई, मैं यहां पड़ोस में दुकान खोल लूं?’’ उस ने बहुत अदब के साथ पूछा. सुरेश का दिमाग खराब हो गया कि यह तो उस का धंधा ही चौपट करने की सोच रहा है.

‘‘भाग यहां से. पुलिस वाले एक दिन में उठा कर भगा देंगे.’’

‘‘भाई, मैं थोड़ी दूर नारियल की दुकान खोल लूंगा, गांव में मुझे इस का बहुत अनुभव है, नारियल तोड़ने का, काटने का. मैं ने अपने गांव में सेठ के यहां काम भी किया था. आप मदद कर दें तो…’’ वह लड़का गिड़गिड़ा रहा था.

‘‘यार, धंधा खराब चल रहा?है. तू आगे बढ़ जा,’’ सुरेश की आवाज में नाराजगी थी. वह लड़का आगे बढ़ गया.

मौसम खराब था. उस ने सुरेश का मूड और भी खराब कर दिया. उस ने सामान समेटा और अपने झोंपड़े की ओर लौट पड़ा. रात चावल और सांबर खाया. अन्ना के हाथ में 5 रुपए रख दिए. झोंपड़े में चटाई डाल कर हाथ का सिरहाना बना कर लेट गया. बाहर रिमझिम बरसात हो रही थी. पूरी बस्ती में कीचड़ थी. आबोहवा में नमी थी. बारबार मैडम का चेहरा सामने आ रहा था. आखिर उन्होंने कल क्यों नारियल नहीं लाने को कहा? सोचतेसोचते कब नींद लग गई, पता नहीं चला. सुबह मौसम खुला हुआ था, लेकिन बाहर कीचड़ बहुत थी.

सुरेश उठा, कौफी पी, रात के चावल का नाश्ता किया और अन्ना से जल्दी आने की कह कर निकल गया. जब वह कालेज के गेट पर गया, सुबह के 9 बज रहे थे. कुछ देर इंतजार के बाद उस ने मेज और नारियल निकाले और अपनी दुकान खोल ली. 1-2 ग्राहकों को नारियल दिया कि तभी उस की नजर कल वाले लड़के पर पड़ी जो कालेज के गेट की दूसरी ओर जगह तलाश रहा था. गुस्सा तो उसे बहुत आया लेकिन चुपचाप मेज के पास खड़ा रहा.

थोड़ी देर बाद ही वह चमचमाती कार आ कर सड़क के किनारे खड़ी हो गई. थोड़ा सा कांच खिड़की का खुला और थोड़ा सा हाथ बाहर निकला और पास आने का उस ने इशारा किया. सुरेश का दिल जोरों से धड़क उठा. वह कार के पास गया.

मैडम ने कहा, ‘‘मैं ने मना किया था न कि आज तुम दुकान मत लगाना.’’

‘‘नारियल रात को घर नहीं ले गया था. बस, इसीलिए मेज पर रख लिए.’’

‘‘जल्दी जाओ और नारियल समेट कर कार में आओ,’’ मैडम ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पलटा. आखिर क्यों बुलाया है उस ने? क्यों ले जाया

जा रहा है उसे? और कहां? लेकिन कभीकभी ऐसे सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं.

सुरेश ने गेट के उस ओर खड़े लड़के को आवाज दी. वह पास आया तो सुरेश ने उसे बताया, ‘‘35 नारियल हैं. छोटे वाला नारियल 15 का एक और बड़ा 20 रुपए का एक बेचना. ये स्ट्रा हैं. मैं शाम को आता हूं. संभाल लेगा न?’’

‘‘हां भाई, आप भरोसा करो.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुरेश तेजी से कार की ओर बढ़ गया. मैडम ने कार का दरवाजा खोला और वह डरते हुए उस में बैठ गया.

पछतावा: थर्ड डिगरी का दर्द- भाग 2

‘बंद करो अपनी बकवास. मयंक तुम्हारे जैसा अपराधी नहीं, बल्कि वह एक सच्चा इनसान है. इस की मैं तहेदिल से कद्र करती हूं. तुम यहां से जाते हो कि पुलिस को बुलाऊं…’

‘ओह, मैं तेरे लिए इतना बेगाना हो गया हूं नैना कि पुलिस को बुलाने की धमकी दे रही हो? खैर, जाता हूं मैं. अगर मेरे प्रति थोड़ी सी भी ममता और प्यार हो, तो कल ओम सिनेमा घर के पास दोपहर के शो के दौरान मिलना…’ इतना बोल कर रतन वहां से चला गया.

‘‘अरे रतन, किन खयालों में डूबे हो?’’ अचानक नेता सुरेश राय लौकअप में बंद रतन को देखते ही बोल पड़े.

मंत्री सुरेश राय को देखते ही रतन अपने खयालों की दुनिया से वापस लौटा और अपने ऊपर होने वाले जोरजुल्म से बचने के लिए गुजारिश करते हुए बोला, ‘‘सर, मुझे किसी तरह इंस्पैक्टर से बचा लीजिए, नहीं तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा…’’

‘‘अरे रतन, तू बेकुसूर है. मेरे पास तेरी बेगुनाही के पुख्ता सुबूत हैं. एसपी ने इंस्पैक्टर छेत्री को फोन कर तुम्हें छोड़ने के लिए आदेश दे दिया है.’’

ठीक उसी समय इंस्पैक्टर राजन छेत्री आया और लौकअप पर तैनात सिपाही से रतन को छोड़ देने के लिए कहा.

बाहर निकलने के बाद मंत्री ने रतन को अपनी गाड़ी में बिठाया. तब रतन मंत्री के एहसानों के दबाव में बोला, ‘‘सर, मैं आप का यह उपकार जिंदगीभर नहीं भूल पाऊंगा.’’

‘‘अरे, कैसा उपकार? मैं तेरे काम आ गया तो बदले में तू भी तो मेरा काम कर देता है. तेरे जैसे जोशीले नौजवान मुझे बहुत पसंद हैं…’’ गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे हुए मंत्री सुरेश राय ने रतन की पीठ को धीरे से थपथपाया और फिर कहा, ‘‘तुम्हारी मदद से ही तो मैं अपने दुश्मनों के दांत खट्टे करता हूं.’’

उन की गाड़ी बीरपाड़ा शहर से काफी दूर निकल गई थी. अचानक ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, दरवाजा खोल कर रतन बाहर निकल गया था. जहां सड़क पर एक बेबस लड़की ‘बचाओ… बचाओ…’ की आवाज लगाते हुए दौड़ रही थी और उस के पीछे 4-5 गुंडे लगे हुए थे.

यह देख कर मंत्रीजी के हाथपैर फूल गए. उन्होंने घबराते हुए रतन को आवाज लगाई, ‘‘अरे रतन, उन के पीछे क्यों भागे जा रहे हो. मेरी जान आफत में डालोगे क्या? ड्राइवर तुम्हें भी कई बार कह चुका हूं कि रात में गाड़ी अनजान जगह पर मत रोको…’

‘‘सौरी सर,’’ ड्राइवर ने माफी मांगी, लेकिन रतन पर मंत्री की बातों का कोई असर नहीं पड़ा.

रतन ने दौड़ रहे एक गुंडे को पकड़ा और उस के पेट में अपनी लात से 2-4 किक जमाई. वह तिलमिला उठा. वार करने की जगह अपनी जान बचा कर चाय बागान में वह भाग गया. रतन दूसरे अपराधियों की ओर बढ़ा, लेकिन वे सब अपने को फंसते देख कर नौ दो ग्यारह हो गए.

सड़क पर दौड़ रही लड़की हांफती हुई धम्म से गिर गई. रतन ने उसे अपने कंधे पर उठाया और गाड़ी की पिछली सीट पर डाल दिया.

‘‘अरे रतन, यह क्या चक्कर है. तुम्हें लड़की की जरूरत थी तो मुझ से बोला होता,’’ मंत्री सुरेश राय ने उस से अपना गुस्सा इजहार किया.

‘‘सर, गलत काम जरूर करता हूं, लेकिन शराब और शबाब से दूर रहता हूं. अनजान जगह पर किसी बेबस लड़की की जान बचाना कोई अपराध तो नहीं है. इनसानियत के नाते मैं ने अपना कर्तव्य निभाया है.’’

‘‘देखो, फालतू बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है. हक और धर्म की बातें हम अपने भाषणों में करते हैं, अपनी जिंदगी में नहीं. अब इस लड़की को कहां छोड़ोगे?’’

‘‘इसे सिलीगुड़ी के किसी अस्पताल में ले जाएंगे सर,’’ विधान मार्ग पर बने सुभाषचंद्र नर्सिंग होम में उस अनजान लड़की को इलाज के लिए भरती करा दिया गया. साथ ही, इस की सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी गई.

जब लड़की पर रतन की नजर गई, उस का कलेजा धकधक करने लगा. वह तो नैना थापा है, उसे देखने के बाद वह पत्थर की तरह वहीं खड़ा रह गया. कभी खून से लथपथ उस के सलवारसूट को देख रहा था तो कभी उस के मुरझाए चेहरे को. उसे सामूहिक हवस का शिकार बनाया था. दूसरे ही पल रतन के मन ने कहा, ‘यह लड़की तो मुझ से नफरत करती है. कहीं होश में आने के बाद कोई नई मुसीबत न खड़ी कर दे. अब यहां से निकलने में ही भलाई है.’

‘‘रतन, इस लड़की के पीछे तो तू ने अपना सारा काम चौपट कर दिया. पहले इसे उन बदमाशों से बचाया, उस के बाद अस्पताल में भरती कराया और अब इस के चेहरे पर टकटकी लगाए खड़ा है. आखिर क्या बात है?’’ नर्सिंग होम में देर होने पर नेता सुरेश राय ने रतन को टोका. ‘‘नहीं, नहीं सर,’’ वह हड़बड़ा कर बोल उठा और उन के साथ बाहर निकल गया. साथ ही जातेजाते रतन सोचने लगा, ‘इस लड़की का क्या भरोसा, कब क्या आरोप लगा दे, इस से दूर रहने में ही भलाई है.’

जब नैना को होश आया तो एक बार रतन का चेहरा उस के दिमाग में नाच उठा. टाइगर हिल में दी गई उस की चेतावनी उस के मन को झकझोरने लगी. उसे अपनेआप पर पछतावा होने लगा, क्यों उस ने आंख मूंद कर मयंक पर भरोसा किया. जिस ने उस की इज्जत लूट ली. उस के साथियों ने उस का सबकुछ छीन लिया.

नैना की आंखें भर आईं. उस को अंदर ही अंदर घुटन महसूस होने लगी. वह सोचने लगी कि उस से शैतान और इनसान को पहचाने में कैसे भूल हो गई?

अचानक नैना के सामने रतन और मयंक की तसवीरें उभर आईं. दोनों ही अपराधी थे. मयंक कई मासूम लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद उन की हत्या कर देता था, तो रतन कई बार बम धमाके कर चुका था. एक हैवान था, तो दूसरा शैतान. दोनों जनता के दुश्मन थे.

अस्पताल से घर आने के बाद भी नैना को चैन नहीं मिला. लोकलाज के डर से उस ने कालेज जाना बंद कर दिया था. दिनरात उस के घर में जमघट लगाने वाली सहेलियां, अब उस से बात करने में भी कतराती थीं. हमदर्दी जताने के बजाय तरहतरह के ताने देती थीं.

एक दिन नैना के घर रतन पहुंच गया. उस समय नैना की आंखों में आंसू थे. नैना की हालत देख कर रतन भी रोना आ गया.

रतन ने अपनी डबडबाई आंखों को रूमाल से पोंछा और फिर उस से बोला, ‘‘नैना प्लीज… मत रोओ, चाहे मयंक को सजा हो भी गई तो मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा…’’

विधायक को जवाब : निशा किस वारदात से डरी हुई थी- भाग 2

मगर निशा उस के सीने में चेहरा छिपाए रोती ही रही. तभी निशा के पिता वहां आ पहुंचे. राजन उन्हें देख कर निशा से अलग हो गया. निशा भी आंसू पोंछते हुए सिर झुका कर खड़ी हो गई. कुछ पलों तक वहां शांति छाई रही. फिर निशा के पिता बोले. ‘‘देखो राजन साहब, इस तरह रात में किसी के घर में घुसना अच्छी बात नहीं. आप…’’ राजन उन की बात को काटते हुए बोला, ‘‘आप जो कुछ भी कहिए, मगर मैं निशा से प्यार करता हूं और हम दोनों शादी करना चाहते हैं.

जाति के बंधन तोड़ कर क्या शादी करना बुरी बात है?’’ ‘‘देखिए, निशा मेरी बेटी है और मैं एक हरिजन हूं. आप के पिताजी बारबार कह चुके हैं कि एक हरिजन की बेटी को वह अपनी बहू कभी नहीं बनाएंगे.’’ ‘‘मगर मैं निशा को अपनी पत्नी जरूर बनाऊंगा. मैं घर छोड़ दूंगा. उन की जायदाद से एक कौड़ी नहीं लूंगा.’’ ‘‘राजन बाबू, मेरी पीठ पर आप के पिताजी के आदमियों के डंडों के निशान हैं. अच्छा होगा कि आप यहां से चले जाएं, वरना यदि मेरी बिरादरी के लोग भी यहां आ गए, तो गजब हो जाएगा.’’

‘‘मैं निशा से सच्चा प्यार करता हूं बाबूजी, और प्यार करने वाले मौत से नहीं घबराते, मैं पिताजी की तरफ से…’’ राजन इतना ही बोल पाया था कि 4-5 लोग हाथ में लाठियां लिए अंदर आ गए. एक आदमी बोला, ‘‘राजनजी, हम हरिजन हैं तो क्या, हमारी भी अब इज्जत है. अब हम अपनी इज्जत की नीलामी कभी बरदाश्त नहीं कर सकते. बेहतर होगा कि आप यहां से चले जाएं. पुलिस कुछ नहीं करेगी तो भी हम बहुतकुछ कर सकते हैं.’’ निशा डर गई. राजन भी उस की हालत को समझ गया. राजन बोला, ‘‘भाइयो, इज्जत की नीलामी तो कोई भी बरदाश्त नहीं कर सकता. मगर, आप लोग बताइए कि शादी करना क्या जुर्म है?’’ ‘‘ऐसी बात मत कहिए राजन साहब, जिसे पूरा कर पाना नामुमकिन हो.’’ ‘‘मैं पूरे होश में कह रहा हूं और इस का सुबूत आप लोगों को कल ही मिल जाएगा.’’ तुरंत दूसरे आदमी ने कहा, ‘‘कल क्यों, आज क्यों नहीं?’’ सभी ने देखा कि राजन ने अपनी जेब से कुछ निकाला और निशा की तरफ मुड़ा. देखते ही देखते उस ने निशा की सूनी मांग में सिंदूर भर दिया.

निशा के साथसाथ सभी चौंक गए. निशा हैरानी से उसे देखने लगी. अचानक राजन बोला, ‘‘आज से यह मेरी पत्नी और कल कचहरी में जा कर अप्लाई कर देंगे और महीनेभर में हम दोनों कानूनी तौर पर पतिपत्नी बन जाएंगे. मैं ने वकील से बात कर ली है,’’ इतना कह कर वह निकल गया. राजन जब अपने घर के पास आया, तो गेट पर ही रामू से मुलाकात हो गई, जो उस का सब से वफादार नौकर था. वह उस को देखते ही बोला, ‘‘भैयाजी, बड़े मालिक आप ही की राह देख रहे हैं.’’ ‘‘ठीक?है,’’ कहते हुए राजन आगे बढ़ गया, तो रामू बोला, ‘‘बड़े मालिक आप पर बहुत गुस्सा हो रहे हैं.’’ राजन खड़ा हो गया. रामू की तरफ मुड़ा और मुसकरा कर आगे बढ़ गया. रामू हैरानी से उसे देखता रह गया.

राजन सीधा ठाकुर साहब के कमरे में गया. वह मुंह में सिगार दबाए इधरउधर घूम रहे थे. राजन उन को देखते ही बोला, ‘‘पिताजी…’’ ठाकुर साहब उसे देखते ही गुस्से से बोले, ‘‘कहां गए थे तुम?’’ ‘‘निशा के घर,’’ राजन ने साफ बोल दिया. ठाकुर साहब को इस जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए उन का गुस्सा और बढ़ गया, ‘‘क्यों गए थे?’’ ‘‘पिताजी, आप के आदमियों ने निशा के पिता को आज का तोहफा दिया. फिर भी आप पूछ रहे हैं कि क्यों गए थे?’’ आज बेटे के जवाब देने के इस तरीके पर वे हैरान रह गए, पर खुद पर काबू करते हुए बोले, ‘‘वाह बेटे, वाह. मैं ने तुम्हें मांबाप दोनों का प्यार दिया और आज तू मुझे उस का यह फल दे रहा?है. बड़ी इज्जत बढ़ाई है तू ने अपने बाप की.’’ ‘‘आप की इज्जत करना मेरा फर्ज है पिताजी, मैं जिंदगीभर आप की सेवा करूंगा… मगर मैं निशा को कैसे भूल जाऊं?’’

निशा का नाम सुन कर ठाकुर अपने गुस्से पर काबू न कर सके और चिल्ला कर बोले, ‘‘तो इतना जान लो कि मेरे जीतेजी एक हरिजन की बेटी इस खानदान की बहू कभी नहीं बन सकती.’’ राजन से भी नहीं रहा गया. वह बोला, ‘‘क्यों नहीं बन सकती?’’ ‘‘इसलिए कि नाली का कीड़ा नाली में ही अच्छा लगता है, समझे…’’ ‘‘तो ठीक है पिताजी, मैं निशा से बात तक नहीं करूंगा. मगर इस से पहले आप को मेरे सवालों का जवाब देना पड़ेगा.’’ ‘‘बोलो.’’ ‘‘मेरे खून का रंग कैसा है?’’ ‘‘लाल.’’ ‘‘और निशा के खून का रंग?’’ ‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’ ‘‘जवाब दीजिए पिताजी.’’ ‘‘लाल.’’ ‘‘अगर मेरे और निशा दोनों के खून का रंग लाल ही है, तो वह नीची जाति की क्यों और मैं ऊंची जाति का क्यों?’’ ‘‘ऐसा सदियों से चलता आ रहा है…’’ ‘‘नहीं पिताजी, यह एक ढकोसला है. और मैं इसे नहीं मानता.’’

‘‘तुम्हारे मानने और न मानने से समाज नहीं बदल जाएगा. हम जिस घर का पानी तक नहीं पीते, उस घर की बेटी को किसी भी शर्त पर अपनी बहू नहीं बना सकते. समाज के रीतिरिवाजों से खिलवाड़ करने की कोशिश मत करो.’’ राजन गुस्से से पागल सा हो गया. वह जोर से चिल्लाया, ‘‘लानत है ऐसे समाज पर, जहां जातपांत और ऊंचनीच की दीवार खड़ी कर के इनसानियत के बंटवारे होते हैं. मैं उस समाज को नहीं मानता पिताजी, जहां इनसान को जात के नाम से अपनी पहचान बतानी पड़ती है.’’ ठाकुर साहब बेटे की इस हरकत से गुस्से से लाल हो रहे थे. वे जोर से चीखे, ‘‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहता. तुम्हारे लिए इतना ही जानना काफी?है कि तुम्हारी शादी उस लड़की से किसी भी हालत में नहीं होगी.’’

राजन भी मानने वाला नहीं था. उस ने साफसाफ शब्दों में बोल दिया कि वह निशा की मांग में सिंदूर भर के उसे अपनी पत्नी बना चुका है और एक महीने बाद कचहरी में जा कर कानूनी तौर पर भी शादी कर लेगा. राजन तेजी से अपने कमरे में चला गया तो ठाकुर साहब को मानो पैरों से धरती खिसकती हुई मालूम पड़ी. मगर ठाकुर साहब ने भी ठान लिया कि राजन और निशा को कचहरी तक पहुंचने ही नहीं देंगे. उन्होंने एक खतरनाक योजना बना डाली. वे निशा को जान से मरवा डालना चाहते थे. निशा और राजन इस बारे में जानते थे. उन्होंने उसी रात शहर छोड़ने का फैसला कर लिया. अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा इस समाज की खोखली शान को मन ही मन कोसने लगा. उस की आंखों से नींद कोसों दूर थी. अचानक ‘छोटे मालिक… छोटे मालिक…’ चिल्लाता हुआ रामू राजन के पास दौड़ा आया. उस ने एमएलए साहब की योजना बताते हुए यह भी कहा कि वे और उन के कुछ आदमी और अभीअभी पुलिस वाले सादा वरदी में निशा के घर की तरफ गए हैं. राजन ने भी तुरंत मेज की दराज से पिस्तौल और कुछ गोलियां निकालीं और गिरतापड़ता निशा के घर की तरफ दौड़ पड़ा. पूरी बस्ती रात के अंधेरे में डूबी थी.

राजन जब कुछ दूर पहुंचा तो ‘भागोभागो’ की आवाजें उस के कानों में गूंजने लगीं. कहीं टौर्च, तो कहीं लालटेन की रोशनी नजर आने लगी. चारों तरफ कुत्तों के भूंकने की आवाजें सुनाई देने लगीं. राजन डर से कांप गया. अभी वह कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि देखा बस्ती के कई हरिजन हाथों में लाठियां लिए चिल्लाते हुए निशा के घर की तरफ बढ़ रहे हैं. वह भी उन लोगों से छिपता हुआ उसी ओर भागा. जैसे ही राजन निशा के घर के नीचे पहुंचा, उसे उस के पिता के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी. वह उधर ही लपका. विधायक के पालतू गुंडों ने निशा के बापू को मारमार कर बुरा हाल बना दिया था. निशा के पिता राजन को अंधेरे में भी पहचान गए. उसे देखते ही चिल्लाने लगे, ‘‘राजन, मेरी बेटी को बचा लीजिए. विधायक साहब और उन के आदमी उसे मार डालेंगे.’’ राजन ने घबराई आवाज में पूछा, ‘‘निशा कहां है?’’ ‘‘वे लोग…’’ तब तक राजन अपने पिताजी की गर्जन सुन कर उधर ही भागा. टौर्च और लालटेन की रोशनी में वहां का नजारा देख कर वह सिर से पैर तक कांप गया. विधायक कृपाल सिंह के आदमी हरिजनों की तरफ बंदूकों की नालें किए खड़े थे.

थोड़ी सी जमीं थोड़ा आसमां: जिंदगी की राह चुनती स्त्री- भाग 2

शाम के नारंगी रंग, स्याह रंग ले चुके थे. आकाश में तारों का झुरमुट झिलमिलाने लगा था, पर रंजन नहीं आया. अकेली बैठी कविता फोन की ओर देख रही थी. तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, कविता, राघव बोल रहा हूं, कैसी हो? और रंजन कहां है?’’

‘‘वह तो अब तक आफिस से नहीं लौटे.’’

‘‘चलो, आता ही होगा, तुम अपना और रंजन का खयाल रखना.’’

‘‘जी,’’ कहते हुए कविता ने फोन रख दिया.

न चाहते हुए भी कविता दोनों भाइयों की तुलना कर बैठी, कितना फर्क है दोनों में. एक नदी सा शांत तो दूसरा सागर सा गरजता हुआ. मेरी शादी रंजन से नहीं राघव से हुई होती तो…वह चौंक पड़ी, यह कैसा अजीब विचार आ गया उस के मन में और क्यों?

तभी रंजन घर में दाखिल हुआ. कविता ने घड़ी की ओर देखा तो रात के 10 बज चुके थे.

‘‘कविता, मुझे खाना दे दो, मैं बहुत थक गया हूं, सोना चाहता हूं.’’

कविता ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो खाना बनाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों…’’ रंजन ने पूछा.

‘‘तुम्हीं तो कह कर गए थे न कि खाना मत बनाना, कहीं बाहर चलेंगे.’’

‘‘ओह, मुझे तो इस का ध्यान ही नहीं रहा…आज तो मैं इतना थका हूं कि कहीं जाना नहीं हो सकता. चलो, तुम जल्दी से मेरे लिए कुछ बना दो,’’ इतना कह कर रंजन कमरे की ओर बढ़ गया और कविता अपना होंठ काट कर रसोई में चली गई.

एक सप्ताह में ही कविता अकेलेपन से घबरा उठी. रंजन रोज घर से जल्दी जाता और बहुत देर से वापस आता. कभी थकान से चूर हो कर सो जाता तो कभी अपने शरीर की जरूरत पूरी कर के. जब यह सब कविता के लिए असहाय हो जाता तो वह अनायास ही राघव की यादों में खो जाती. राघव ने उस से कहा था कि जब बहुत परेशान हो और किसी काम में मन न लगे तो वह करो जो तुम्हें सब से अच्छा लगता हो, यह तुम्हें मन और तन की सारी परेशानियों से मुक्त कर देगा. वह यही करती और सारीसारी शाम नाचते हुए बिता देती थी.

एक शाम रंजन को जल्दी घर आया देख कविता खुशी से चहक कर बोली, ‘‘अरे, आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए? क्या मेरे बिना मन नहीं लग रहा था?’’

रंजन ने हंस कर कहा, ‘‘ज्यादा खुश मत हो और जल्दी से मेरा सामान पैक कर दो, आफिस के काम से मुझे आज शाम क ो ही दिल्ली जाना है.’’

कविता मायूस हो कर बोली, ‘‘रंजन, तुम भूल गए क्या, कल हमारी शादी की सालगिरह है.’’

रंजन अपने सिर पर हाथ मारते हुए बोला, ‘‘ओह…मैं तो भूल ही गया था, कोई बात नहीं, मेरे वापस आने पर हम सालगिरह मना लेंगे.’’

कविता ने पति को मनाते हुए कहा, ‘‘आप प्लीज, मत जाओ, मैं घर में अकेली कैसे रहूंगी?’’

रंजन ने झल्लाते हुए कहा, ‘‘तुम कोई छोटी सी बच्ची नहीं हो, जो अकेली नहीं रह सकतीं, मेरा जाना जरूरी है.’’

रंजन को जाना था सो वह चला गया. कविता अपनी उम्मीदों और सपनों के साथ अकेली रह गई. सालगिरह के दिन राघव ने फोन किया तो कविता की बुझी आवाज को भांपते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कविता, तुम उदास हो? रंजन कहां है?’’

राघव की बातें सुन कर कविता बोली, ‘‘वह आफिस के काम से दिल्ली गए हैं.’’

कविता को धैर्य बंधाते हुए राघव ने कहा, ‘‘तुम परेशान मत हो, मैं और मां कल ही वापस आ रहे हैं.’’

अगली शाम ही राघव और मां को घर के दरवाजे पर देख कविता खिल उठी. सामान रखते हुए राघव बोले, ‘‘कैसी हो कविता?’’ तो कविता ने उन के जाने के बाद रंजन से हुई सारी बातें बता दीं. राघव एक लंबी सांस ले कर बोले, ‘‘मैं तो यहां से यह सोच कर गया था कि इस तरह तुम दोनों को करीब आने का मौका मिलेगा, पर यहां तो सारा मामला ही उलटा दिखता है.’’

कविता ने चौंक कर कहा, ‘‘इस का मतलब आप बिना कारण यहां से गए थे? अब आप मुझे अकेला छोड़ कर कभी मत जाना. आप के होने से मुझे यह एहसास तो रहता है कि कोई तो है, जिस से मैं अपनी बात कह सकती हूं.’’

‘‘अच्छा बाबा, नहीं जाऊं गा.’’

कविता ने हंस कर कहा, ‘‘पर इस बार जाने की सजा मिलेगी आप को.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘आज आप को हमें आइसक्रीम खिलानी होगी.’’

उस शाम बहुत अरसे बाद कविता खुल कर हंसी थी. वह अपने को बहुत हलका महसूस कर रही थी. दोचार दिन में रंजन भी वापस आ गया. आते ही उस ने कविता को मनाने के लिए एक शानदार पार्टी दी. अब वह कविता को भी वक्त देने लगा था. कविता को लगा मानो अचानक सारे काले बादल कहीं खो गए और कुनकुनी धूप खिल आई हो.

तभी एक शाम आफिस से आते ही रंजन ने कहा, ‘‘कविता, मेरा सामान पैक कर दो. मुझे आफिस के काम से लंदन जाना है.’’

कविता ने खुश हो कर पूछा, ‘‘अरे, वाह, कितने दिन के लिए?’’

रंजन नजरें झुका कर बोला, ‘‘6 माह के लिए.’’

कविता के साथ राघव और मां भी अवाक् रह गए.

मां ने रंजन से कहा भी कि 6 माह बहुत होते हैं बेटा, कविता को इस वक्त तेरी जरूरत है और तू जाने की बात कर रहा है, ऐसा कर, इसे भी साथ ले जा.

रंजन ने झल्ला कर कहा, ‘‘ओह मां, मैं वहां घूमने नहीं जा रहा हूं, कविता वहां क्या करेगी? और फिर 6 माह कैसे बीत गए पता भी नहीं चलेगा.’’

कविता कमरे में जा कर शांत स्वर में बोली, ‘‘रंजन, प्लीज मत जाओ. इस वक्त मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है.’’

‘‘क्यों, इस वक्त में क्या खास है?’’

कविता ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’’

रंजन चौंक कर बोला, ‘‘क्या… इतनी जल्दी…’’ फिर कुछ पल खामोश रह कर उस ने कहा, ‘‘सौरी कविता, इस के लिए मैं तैयार नहीं था, लेकिन अब किया क्या जा सकता है.’’

कविता रंजन के सीने पर अपना सिर टिकाती हुई बोली, ‘‘तभी तो कह रही हूं कि मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

रंजन ने उसे अपने से अलग किया और फिर बोला, ‘‘तुम अकेली कहां हो कविता, यहां तुम्हारा ध्यान रखने को मां हैं, भैया हैं.’’

कविता ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘तुम क्यों नहीं समझते कि औरत का घर परिवार उस के पति से होता है, वही न हो तो क्या घर, क्या घर वाले? तुम्हारी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता, रंजन.’’

‘‘तुम्हारे साथ बिताने को तो सारी उम्र पड़ी है, कविता,’’ रंजन बोला, ‘‘पर विदेश जाने का यह मौका फिर नहीं आएगा.’’

इस के बाद कविता कठपुतली की तरह रंजन का सारा काम करती रही, पर उस से एक बार भी रुकने को नहीं कहा. रंजन को एअरपोर्ट छोड़ने भी राघव अकेले ही गए थे. रंजन के जाने के बाद कविता सारा दिन काम करती और खुश रहने का दिखावा करती पर उस की आंखों की उदासी को भांप कर राघव उस से कहते, ‘‘कविता, तुम मां बनने वाली हो, ऐसे समय में तो तुम्हें सदा खुश रहना चाहिए. तुम उदास रहोगी तो बच्चे की सेहत पर इस का असर पड़ेगा.’’

जवाब में कविता हंस कर कहती, ‘‘खुश तो हूं, आप नाहक मेरे लिए परेशान रहते हैं.’’

मां और राघव भरसक कोशिश करते कि कविता को खुश रखें, पर रंजन की कमी को वे पूरा नहीं कर सकते थे. राघव कविता के मुंह से निकली हर इच्छा को तुरंत पूरी करते. इस तरह कविता को खुश रखने की कोशिश में वह कब उस को चाहने लगे, उन्हें खुद पता नहीं चला.

अपने ही छोटे भाई की पत्नी के प्रति मन में पनपते अनुराग ने उन्हें एक अपराधभाव से भर दिया. वह चाह कर भी इस समय कविता से दूर नहीं जा सकते थे. लेकिन मन ही मन राघव ने निर्णय कर लिया था कि रंजन के आते ही वह उन दोनों के जीवन से कहीं दूर चले जाएंगे.

अचानक एक शाम काम करतेकरते कविता आंगन में फिसल कर गिर गई. राघव तुरंत उसे ले कर अस्पताल भागे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कविता अपने बच्चे को खो चुकी थी. राघव ने जब रंजन को इस बारे में बता कर उसे लौट आने को कहा तो रंजन बोला, ‘‘भैया, जो होना था सो हो गया. इस वक्त तो मेरा आ पाना संभव नहीं, पर जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

लिली: उस लड़की पर अमित क्यो प्रभावित था ?-भाग 2

अमित ने इस बार कोई सवाल नहीं किया, क्योंकि वह जान चुका था कि लिली इसे अपना पर्सनल मामला कह कर चुप करा देगी.

अमित सोचने लगा यह कैसा संबंध है कि मेरी हर चीज पर लिली का हक है. बदले में कुछ पूछता हूं तो यह कह कर मुंह बंद करा देती है कि मैं तुम्हारी बीवी नहीं?

एकबारगी अमित का मन हुआ कि वह लिली से साफ साफ  कह दे कि या तो वह उस से शादी कर ले, नहीं तो अपना बोरियाबिस्तर समेट कर चली जाए.

ऐसा करने की वह सोच ही रहा था कि अगली शाम लिली ने उसे एक शर्ट खरीद कर तोहफे में दी.

‘‘यह क्या…?’’ अमित ने सवाल किया.

‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ लिली बोली, तो अमित जज्बाती हो गया.  उस ने लिली को बांहों में भर लिया. अमित का सवाल सवाल ही रह गया.

अगले दिन रविवार था. लिली अपनी मां के पास जाने लगी.

‘‘क्या मैं तुम्हारी मां से नहीं मिल सकता?’’ अमित बोला, तो लिली सकपका गई.

‘‘अभी समय नहीं आया है,’’ कह कर लिली चली गई. एक ही छुट्टी मिलती थी, वह भी लिली अपनी मां के पास गुजार देती थी. अमित दिनभर बोर होता. आज उस ने अकेले ही घूमने का मन बनाया. मरीन ड्राइव पर बैठा वह समुद्र की लहरों को निहार रहा था कि लिली का फोन आया.

‘अमित मु झे एक लाख रुपए की सख्त जरूरत है. अभी और इसी वक्त मेरे खाते में डाल दो. सारी बातें आने पर बताऊंगी,’ कह कर लिली ने फोन काट दिया. लिली ने अपने एकाउंट की डिटेल भेजी थी.

अमित ने बिना देर किए उतने रुपए ट्रांसफर कर दिए.

लिली जब लौटी, तो बदहवास थी मानो किसी बहुत बड़ी मुसीबत से छूट कर आई हो.

‘‘तबीयत तो ठीक है न…?’’ अमित ने पूछा.

‘‘नहीं, आज मैं औफिस नहीं जाऊंगी,’’ कह कर लिली सो गई.

अमित अकेले ही काम पर चला गया. शाम को वह लौटा, तो लिली के लिए पिज्जा लेता आया. पिज्जा देख कर लिली खुश हो गई.

दोनों पिज्जा खाने लगे. बीच में अमित ने रुपयों की बात छेड़ी.

‘‘रुपए तुम को वापस मिल जाएंगे,’’ लिली के इस कथन से अमित संतुष्ट नहीं था. लिली ने भांप लिया. उस ने उस के मुंह में पिज्जा डालते हुए कहा, ‘‘डार्लिंग, क्यों परेशान होते हो? क्या अपनी लिली के लिए इतना भी नहीं कर सकते?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. मैं सोच रहा था कि ऐसे कब तक चलेगा?’’

‘‘मैं सम झी नहीं?’’ लिली बोली.

‘‘मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘फिर वही शादी का रोना. अमित तुम सम झने की कोशिश करो. जब तक हम दोनों एकदूसरे को सम झ नहीं लेते, शादी का कोई मतलब नहीं है.’’

तभी लिली के मोबाइल की घंटी बजी. वह पिज्जा बीच में खाना छोड़ कर बरामदे में आई. अमित सोफे पर बैठा लिली का इंतजार करने लगा. तकरीबन 15 मिनट बाद वह आई.

‘‘किस का फोन था?’’ अमित से रहा न गया.

‘‘मेरे एक्स बौयफ्रैंड का फोन था.’’

‘‘क्या तुम्हारा किसी और से भी संबंध था?’’

‘‘हां, यह तो आम बात है. मैं उस के साथ एक साल तक रिलेशन में थी.’’

अमित को यह जान कर धक्का  सा लगा.

दोनों को एकसाथ रहते हुए सालभर से ऊपर हो चुका था. न लिली अमित को अपने मांबाप से मिलवाती, न ही शादी के लिए उस के मन में कोई  खयाल आता.

आजिज आ कर एक दिन अमित ने साफसाफ लफ्जों में शादी करने के  लिए कहा.

‘‘ठीक है, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं, मगर हम रहेंगे कहां? क्या हमारे पास कोई अपना फ्लैट है?’’

‘‘शादी से फ्लैट का क्या ताल्लुक?’’ अमित के सवाल पर लिली तुनक उठी, ‘‘जब तक अपना फ्लैट नहीं होगा, मैं शादी नहीं करूंगी.’’

अमित की लिली के बगैर जिंदगी की कल्पना भी बेमानी थी. वह उस के दिलोदिमाग पर छा चुकी थी. उस ने काफी दिमाग दौड़ाया. बनारस में पुश्तैनी मकान था. क्यों न उसे बेच कर मुंबई में फ्लैट खरीद लिया जाए? विचार बुरा नहीं था. लिली को अमित का आइडिया पसंद आया.

अमित अगले दिन औफिस से छुट्टी ले कर बनारस आया.

‘‘तुम ने कैसे सोच लिया कि हम पुश्तैनी मकान बेच कर मुंबई में रहने लगेंगे? रही शादी की बात, तो यहीं कोई लड़की देख कर शादी कर लो. मु झे वह लड़की बिलकुल पसंद नहीं है,’’ अमित के पापा ने साफ शब्दों में कहा.

‘‘पापा, हम कई महीनों से लिव  इन रिलेशनशिप में हैं,’’ सुनते ही पापा भड़क गए.

‘‘शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए. कैसी बेशर्म लड़की है, जो बिना शादी किए तुम्हारे साथ रहती है? और कैसे मांबाप हैं उस के, जो लड़की को बिना शादी किए किसी गैर लड़के के साथ रहने की इजाजत दे दी?’’

अमित अपनी मां की तरफ देख कर लाचार भरे लहजे में बोला, ‘‘मम्मी, तुम्हीं पापा को सम झाओ. आजकल ऐसे ही चलता है. पहले हम साथ रह कर एकदूसरे को सम झते हैं, फिर ठीक लगता है तो शादी करते हैं, वरना एकदूसरे से अलग हो जाते हैं.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें