त्योहार पर घर गया तो ताऊजी ने फिर से अपनी जिद दोहरा दी. वे चाहते थे कि मैं शादी कर लूं. जबकि मुझे शादी के नाम से चिढ़ होने लगती थी. हालांकि ताईजी ने मुझे सदा पराया ही समझा, पर ताईजी ने मेरे लिए अपनी ममता की धारा कभी सूखने नहीं दी. मेरी मां मेरी कड़वाहट की एक बड़ी वजह थी, जिस ने मेरे भीतर की सभी कोमल भावनाओं को जला दिया था, परंतु ताऊजी कभी भी मेरी मां के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे. वे उस के लिए सुरक्षाकवच जैसे थे. एक बार जब मैं मां के खिलाफ बोला था तो उन्होंने मुझ पर हाथ उठा दिया था.
छुट्टी के बाद मैं वापस चला आया. अस्पताल में आते ही वार्ड कर्मचारी ने एक महिला से मिलाया, जो कुछ महीने पहले गुजर गई एक अनाथ बच्ची के बारे में पूछताछ कर रही थी. मेरी नजर उस महिला पर टिक गई. 3 साल की उस बच्ची, जो मेरी मरीज थी, से उस औरत की सूरत काफी मिलतीजुलती थी.
जब मैं ने उस महिला से बात की तो पता चला, वह उस बच्ची की मां है. उस की बात सुन मैं हैरान रह गया कि इतनी संभ्रांत महिला और उस की संतान लावारिस मर गई? वह महिला अनाथालय से मेरा पता ले कर आई थी.
‘‘वह बच्ची कैसी थी?’’ उस के भर्राए स्वर पर मेरे अंदर की कड़वाहट जबान पर चली आई.
‘‘अब राख कुरेदने से क्या होगा, जो हो गया, सो हो गया,’’ मैं उसे रोता, सुबकता छोड़़ कर चला आया और सोचने लगा कि जिंदा बच्ची को तो पूछा नही, अब आंसू बहाने यहां चली आई है.
अकसर मेरी शामें घर के पास शांत समुद्रतट पर गुजरती थीं. अपने काम से बचाखुचा समय मैं लहरों से ही बांटता था. गीली रेत का घर बनाना मुझे अच्छा लगता था. उस शाम भी वहां बैठाबैठा मैं कितनी देर मुन्नी के ही विषय में सोचता रहा.
दूसरे दिन भी उस औरत ने मुझ से मिलना चाहा, मगर मैं ने टाल दिया. पता नहीं क्यों, मुझे औरतों से नफरत होती, विशेषकर ऐसी औरतों से जो अपनी संतान को अनाथ कर कहीं दूर चली जाती हैं. हर औरत में अपनी मां की छवि नजर आती, लेकिन हर औरत ममता से शून्य महसूस होती.
कुछ दिनों बाद एकाएक वार्ड में उसी औरत को देख मैं चौंक पड़ा. पता चला, आधी रात को कुछ पुलिसकर्मी उसे यहां पहुंचा गए थे. पूछताछ करने पर पता चला कि 2 दिनों से उसे कोई भी देखने नहीं आया. मैं सोचने लगा, क्या यह औरत इस शहर में अकेली है?
वह रात मैं ने उस की देखभाल में ही बिताई. सुबहसुबह उस ने आंखें खोलीं तो मैं ने पूछा, ‘‘आप कैसी हैं?’’ लेकिन उस ने कोई जवाब न दिया.
दूसरी सुबह पता चला कि वह अस्पताल से चली गई है. शाम को घर गया तो ताऊजी का पत्र खिड़की के पास पड़ा मिला. उन्होंने लिखा कि उन्हें मुझ पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था, मगर मेरा व्यवहार ही अशोभनीय था, जिस पर उन्हें क्रोध आ गया.
मैं यह जानता था कि मेरा व्यवहार अशोभनीय था, परंतु मेरे साथ जो हुआ था उस की शिकायत किस से करता? जब मैं बहुत छोटा था, तभी मां हाथ छुड़ा कर चली गई थी.
मैं चाय बनाने में व्यस्त था कि द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर देखा कि सामने वही औरत खड़ी है. मैं ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप…आइए…’’
उसे बिठाने के बाद मैं चाय ले आया. फिर गौर से उस के समूचे व्यक्तित्व को निहारा. साफसुथरा रूप और कानों में छोटेछोटे सफेद मोती. याद आया, मेरी मां के कानों में भी सफेद हीरे दमकते रहते थे. जब भी कभी ताऊजी की उंगली पकड़े उस से मिलने जाता, उन हीरों की चमक से आंखें चौंधिया जातीं. मैं मां के रूप में ममत्व का भाव ढूंढ़ता रहता, पर वह पलभर भी मेरे पास न बैठती.
वह औरत धीरे से बोली, ‘‘मैं ने आप को बहुत परेशान किया. मेरी बेटी की वजह से आप को बहुत तकलीफ हुई.’’
‘‘वह तो मेरा फर्ज था,’’ मैं ने गौर से उस की ओर देखते हुए कहा.
‘‘एक मां होने के नाते यह संतोष व्यक्त करने चली आई कि आप ने उस की मौत आसान कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. उस दुखियारी को आखिरी वक्त पर किसी का सहारा तो मिला,’’ यह कहने के साथ वह मेज पर फूलों का एक गुलदस्ता रख कर चली गई.
दूसरी शाम मैं सागरतट पर बैठा था, तभी वह औरत एक छाया की तरह सामने चली आई और बोली, ‘‘क्या आप के पास बैठ सकती हूं?’’
‘‘हांहां, क्यों नहीं. बैठिए.’’
चंद पलों के बाद उस ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘वह मुन्नी देखने में कैसी थी?’’
‘‘जी?’’ मैं उस के प्रश्न पर चौंका कि फिर से वही प्रश्न, जो उस दिन भी किया था.
‘‘आप भी सोचते होंगे, मैं कैसी मां हूं, जिसे यह भी नहीं पता कि उस की बेटी कैसी थी. जब मेरे पति की ऐक्सिडैंट में मौत हुई, उस समय बच्ची का जन्म नहीं हुआ था. मेरे ससुराल वालों ने पति के जाते ही आंखें फेर लीं.
‘‘फिर जब बच्ची का जन्म हुआ तो मेरे ही मांबाप उसे अनाथालय में छोड़ गए. वे मुझे यही बताते रहे कि मृतबच्चा पैदा हुआ था.’’
‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ मैं ने धीरे से पूछा.
‘‘उस के बाद क्या होता. मेरी बसीबसाई गृहस्थी उजड़ गई. खाली हाथ रह गई. पति और बच्ची की कोई भी निशानी नहीं रही मेरे पास.’’
‘‘लेकिन आप के मांबाप ने ऐसा क्यों किया?’’ मैं पूछे बिना रह न सका.
‘‘डाक्टर साहब, एक बच्ची की मां की दूसरी शादी
कैसे होती. इसलिए उन्होंने शायद यही उचित समझा,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.
‘‘तो क्या आप ने शादी की?’’
‘‘नहीं, बहुत चाहा कि अतीत को काट कर फेंक दूं. परंतु ऐसा नहीं हुआ. अतीत कोई वस्त्र तो नहीं है न, जिसे आप जब चाहें बदल लें,’’ अपने आंसू पोंछ वह बोली, ‘‘अभी कुछ दिनों पहले मेरी मां भी चल बसी. पर मरतमरते मुझ पर एक एहसान कर गई. मुझे बताया कि मेरी बेटी जिंदा है. तब मैं ने सोचा कि मांबेटी साथसाथ रहेंगी तो जीना आसान हो जाएगा. लेकिन यहां आ कर पता चला कि वह भी नहीं बची.’’
मेरा मन भर आया था. मैं हमेशा अपनी मां के स्वार्थ को नियति मान कर उस से समझौता करता रहा. मैं सोचने लगा, क्या मेरी मां अकेले रह मुझे पाल नहीं सकती थी? जो औरत मेरे सामने बैठी थी उसे मैं नहीं जानता था, मगर यह सत्य था कि वह जो भी थी, कम से कम रिश्तों के प्रति ईमानदार तो थी. मेरी मां की तरह स्वार्थी और कठोर नहीं थी.
मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी बहुत मासूम थी, बहुत ही प्यारी.’’
‘‘वह कैसी बातें करती थी?’’
‘‘अभी बहुत छोटी थी न, 3 साल का बच्चा भला कैसी बातें कर सकता है.’’
‘‘मरने से पहले क्या वह बहुत तड़पी थी? क्या उसे बहुत तकलीफ हुई थी?’’
‘‘नहीं, तड़पी तो नहीं थी लेकिन बहुत कमजोर हो गई थी. हमेशा मेरे गले से ही लिपटी रही थी,’’ कहते हुए मैं ने हाथ उठा कर उस का कंधा थपथपा दिया, ‘‘आप जब चाहें, मेरे पास चली आएं. मुन्नी के बारे में मुझे जो भी याद होगा, बताता रहूंगा.’’
बाद में पता चला कि वह बैंक में कार्यरत है. हर शाम वह सागरतट पर मेरे पास आ जाती. अपनी बच्ची का पूरा ब्योरा मुझ से लेती और रोती हुई लौट जाती. वह नईनई कोचीन आई थी, किसी से भी तो उस की जानपहचान न थी.
उस की बातें दिवंगत पति और अनदेखी बच्ची के दायरे से बाहर कभी जाती ही नहीं थीं. मैं चुपचाप उस के अतीत में जीता रहता. कभीकभी विषय बदलने की कोशिश भी करता कि इतने तनाव से कहीं उस की मानसिक हालत ही न बिगड़ जाए.
एक शाम जब मैं घर आया तो ताऊजी को बाहर इंतजार करते पाया. मैं उन की आवभगत में लग गया. मगर मेरे सारे स्नेह को एक तरफ झटक वे नाराजगी से बोले, ‘‘आशा को कब से जानते हो? जानते हो, वह विधवा है? क्या रिश्ता बांधना चाहते हो उस से?’’
‘‘कुछ भी तो नहीं. वह दुखी है. अकसर मेरे पास चली आती है.’’
‘‘अच्छा. क्या तुम उस का इलाज करते हो? देखो कुशल, मैं नहीं चाहता, तुम उस से मेलजोल बढ़ाओ. उस की दिमागी हालत खराब रही है. उस ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला है.’’
‘‘उसे पागल बनाने में उस के मांबाप का भी दोष है. क्यों उस की बच्ची को यहां फेंक गए?’’ मैं ने आशा की सुरक्षा में होंठ खोले, मगर ताऊजी ने फिर चुप करा दिया, ‘‘मांबाप सदा संतान का भला सोचते हैं. सत्येन को जो ठीक लगा, उस ने किया. अब कृपया तुम उस का साथ छोड़ दो.’’
यह सुन कर मैं स्तब्ध रह गया कि आशा, ताऊजी के मित्र सत्येन की पुत्री है. वे एक दिन रह कर चले गए, मगर मेरा पूरा अस्तित्व एक प्रश्नचिह्न के घेरे में कैद कर गए, मैं सोचने लगा, क्या आशा से मिल कर मैं कोई अपराध कर रहा हूं? ताऊजी को इस मेलजोल से क्या आपत्ति है?
रात की ड्यूटी थी. सो, 2 दिनों से मैं तट पर नहीं जा पाया था. रात के 11 बजे थे, तभी अचानक आशा को अपने सामने पाया. उस के कपड़े भीगे थे और उन पर रेत चमक रही थी. जाहिर था, अब तक वह अकेली सागरतट पर बैठी रही होगी.
फटीफटी आंखों से उस ने मुझे देखा तो मैं ने साधिकार उस का हाथ पकड़ लिया. फिर अपने कमरे में ला कर उसे कुरसी पर बिठाया.
उस के पैरों के पास साड़ी को रक्तरंजित पाया. झट से उस का पैर साफ कर के मैं ने पट्टी बांधी.
‘‘मैं आप को बहुत तकलीफ देती हूं न. अब कभी आप के पास नहीं आऊंगी,’’ उस की बात सुन मैं चौंक उठा.
वह आगे बोली, ‘‘जो मर गए वे तो छूट गए, पर मैं ही दलदल में फंसी रह गई. मेरा ही दोष था जो आप के पास आती रही. सच, आप को ले कर मैं ने कभी वैसा नहीं सोचा, जैसा आप के ताऊजी ने सोचा. मैं तो अपनी मरी हुई बच्ची के लिए आती रही, क्योंकि आखिरी समय आप ही उस के पास थे. मैं मुन्नी की कसम खाती हूं, मेरे मन में आप के लिए…’’
‘‘बस, आशा,’’ मैं ने उसे चुप करा दिया. फिर धीरे से उस का कंधा थपथपाया, ‘‘ताऊजी की ओर से मैं तुम से क्षमा मांगता हूं. तुम जब भी चाहे, मेरे पास चली आना.’’
थोड़ी देर बाद जब वह जाने लगी तो मैं ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे इतनी रात गए जाने नहीं दिया था, सुबह होने तक रोक लिया था. टिटनैस का टीका लगा कर वहीं अपने बिस्तर पर सुला दिया था और खुद पूरी रात बरामदे में बिताई थी. सुबह राउंड से वापस आया तो पाया, मेरा शौल वहीं छोड़ वह जा चुकी थी.
उस के बाद वह मुझ से मिलने नहीं आई. उस के घर का मुझे पता नहीं था और बैंक फोन करता तो वह बात करने से ही इनकार कर देती.
एक सुबह 10 बजे उस के बैंक चला गया. मुझे देखते ही वह भीतर चली गई. उस के पीछे जा कर तमाशा नहीं बनना था, सो हार कर वापस चला आया. परंतु असंतुलित मन ने उस दिन मेरा साथ न दिया, मोटरसाइकिल को बीच सड़क में ला पटका.