बगावत: भाग 1- क्या प्रेम के लिए तरस रही उषा को प्यार मिल पाया?

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.

दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’

‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.

‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.

‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’

‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.

‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’

‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.

कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.

‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’

3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.

बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.

‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.

‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’

उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

गिरफ्त: भाग 2- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी. रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

गिरफ्त: भाग 3- क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

Writer- Dr. Kshama Chaturvedi

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

रहने के लिए एक मकान

लेखक- एस. भाग्यम शर्मा

मैं अपने गांव लौटने लगा तो मेरे आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे. मेरे दोहेते अपने घर के बालकनी से प्रेम से हाथ हिला रहे थे,”बाय ग्रैंड पा, सी यू नाना…”

धीरेधीरे मैं बस स्टैंड की ओर चल दिया.

मैं मन ही मन सोचने लगा,’बस मिले तो 5 घंटे में मैं अपने गांव पहुंच जाऊंगा. जातेजाते बहुत अंधेरा हो जाएगा, फिर बस स्टैंड पर उतर कर वहां एक होटल है. उस में कुछ खापी कर औटो से अपने घर चला जाऊंगा.’

2 साल पहले मेरी पत्नी बीमार हो कर गुजर गई. तब से मैं अकेला ही हूं. मेरे गांव का मकान पुस्तैनी है. उस की छत टिन की है. पहले घासपूस की छत थी.

जब एक बार बारिश में बहुत परेशानी हुई तब टिन डलवा दिया था. मेरा एक भाई था वह भी कुछ साल पहले ही चल बसा था. अब इस घर में आखिरी पीढ़ी का रहने वाला सिर्फ मैं ही हूं.

मेरी इकलौती बेटी बड़े शहर में है अत: वह यहां नहीं आएगी. जब बारिश होती है तो छत से यहांवहां पानी टपकता है. एक बार इतनी बारिश हुई कि दूर स्थित एक बांध टूट गया और कमर भर पानी मकान के अंदर तक जा घुसा था. कई बार सोचा घर की मरम्मत करा दूं पर इस के लिए भी एकाध लाख रूपए तो चाहिए ही.

मैं सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ हूं अत: मुझे पैंशन मिलती है. उम्र के साथ दवा भी खाने होते हैं मगर फिर भी इस खर्च के बाद थोड़ाबहुत बच जरूर जाता है.

2 महीने में एक बार मैं शुक्रवार को दोहेतो को देखने की उत्सुकता में बेटी के घर जा कर 2-3 दिन ठहर कर खुशीखुशी दिन बिता कर मैं वापस आ जाता हूं. इस से ज्यादा ठहरना मुझे ठीक नहीं लगता.

मेरे दामाद अपना प्रेम या विरोध कुछ भी नहीं दिखाते. मैं घर में प्रवेश करता तो एक मुसकान छोड़ अपने कमरे में चले जाते.

दामाद शादी के समय बिल्डिंग बनाने वाली बड़ी कंपनी में सीनियर सुपरवाइजर थे. जो मकान बने वे बिक न सके. बैंक से उधार लिए रुपए को न चुकाने के कारण कंपनी बंद हो गई थी. तब से वह रियल ऐस्टेट का ब्रोकर बन गया.

“कुदरत की मरजी से किसी तरह सब ठीकठाक चल रहा है पापा,” ऐसा मेरी बेटी कहती.

पति की नौकरी जब चली गई थी तब मेरी बेटी दोपहर के समय टीवी सीरियल न देख कर सिलाई मशीन से अड़ोसपड़ोस के बच्चों व महिलाओं के कपड़े सिल कर कुछ पैसे बना लेती.

“पापा, आप ने कहा था ना कि बीए कर लिया है तो अब बेकार मत बैठो, कुछ सीखना चाहिए. तब मैं सिलाई सीखी. वह अब मेरे काम आ रही है पापा,” भावविभोर हो कर वह कहती.

पिछली बार जब मैं गया था तो दोहेतो ने जिद्द की, “नानाजी, आप हमारे साथ ही रहो. क्यों जाते हो यहां से?”

बच्चे जब यह कह रहे थे तब मैं ने अपने दामाद के चेहरे को निहारा. उस में कोई बदलाव नहीं.

मेरी बेटी रेनू ही आंखों में आंसू ला कर कहती,”पापा… बच्चों का कहना सही है. अम्मां के जाने के बाद आप अकेले रहते हैं जो ठीक नहीं. आप बीमार भी रहते हो.”

वह कहती,”पापा, हमारे मन में आप के लिए जगह है पर घर में जगह की कमी है. आप को एक कमरा देना हो तो 3 रूम का घर चाहिए. रियल ऐस्टेट के बिजनैस में अभी मंदी है. तकलीफ का जीवन है. इस घर में बहुत दिनों से रहते आए हैं अत: इस का किराया भी कम है. अभी इस को खाली करें तो दोगुना किराया देने के लिए लोग तैयार हैं. क्या करें? इस के अलावा मेरा सिरदर्द जबतब आ कर परेशान करता है.”

मैं बेटी को समझाता,”बेटा रो मत. यह सब कुछ मुझे पता है. अब गांव में भी क्या है? मुझे तुम्हारे साथ ही रहना है ऐसा भी नहीं. पड़ोस में एक कमरे का घर मिल जाए तो भी मैं रह लूंगा. मैं अभी ₹21 हजार पैंशन पाता हूं. ₹6-7 हजार भी किराया दे कर रह लूंगा. अकेला तो हूं. तुम्हारे पड़ोस में रहूं तो मुझे बहुत हिम्मत रहेगी,” यह कह कर मैं ने बेटी का चेहरा देखा.

“अरे, जाओ पापा… अब सिंगलरूम कौन बनाता है? सब 2-3 कमरों का बनाते हैं. मिलें तो भी किराया ₹10 हजार. यह सब हो नहीं सकता पापा,” कह कर बेटी माथे को सहलाने लग जाती.

अगली बार जब मैं बेटी के घर गया, तब एक दिन सुबह सैर के लिए निकला. अगली 2 गलियों को पार कर चलते समय एक नई कई मंजिल मकान को मैं ने देखा जो कुछ ही दिनों में पूरा होने की शक्ल में था.

उस में एक बैनर लगा था,’सिंगल बैडरूम का फ्लैट किराए पर उपलब्ध है.’

मुझे प्रसन्नता हुई और उत्सुकता भी. वहां एक बैंच पर सिक्योरिटी गार्ड बैठा था. मैं ने उस से जा कर पूछताछ की.

“दादाजी, उसे सिंगल बैडरूम बोलते हैं. मतलब एक ही हौल में सब कुछ होता है. 1-2 से ज्यादा नहीं रह सकते. आप कितने लोग हैं?” वह बोला.

“मैं बस अकेला ही हूं. मेरी बेटी पड़ोस में ही रहती है. इसीलिए यहां लेना चाहता हूं.”

“अच्छा फिर तो ठीक है. घर को देखिएगा…” कह कर अंदर जा कर चाबी के गुच्छों के साथ बाहर आया.

दूसरे माले में 4 फ्लैट थे.

“इन चारों के एक ही मालिक हैं. 3 फ्लैटों के पहले ही ऐडवांस दे चुके हैं.”

उस ने दरवाजे को खोला. लगभग 250 फुट चौड़ा और लंबा एक हौल था. उस में एक तरफ खाना बनाने के लिए प्लेटफौर्म आधी दीवार खींची थी. दूसरी तरफ छोटा सा बाथरूम बड़ा अच्छा व कंपैक्ट था.

“किराया कितना है?” मैं ने पूछा.

“मुझे तो कहना नहीं चाहिए फिर भी ₹ 7 हजार होगा क्योंकि इसी रेट में दूसरे फ्लैट भी दिए हैं. ऐडवांस ₹50 हजार है. रखरखाव के लिए ₹500-600 से ज्यादा नहीं होगा. मतलब सबकुछ मिला कर ₹7-8 हजार के अंदर हो जाएगा दादाजी,” वह बोला.

“ठीक है भैया, इसे मुझे दिला दो. मालिक से कब बात करें?”

“अभी बात कर लो. एक फोन लगा कर बुलाता हूं. आप बैठिए,” वह बोला.”

वहां एक प्लास्टिक की कुरसी थी. मैं उस पर बैठ कर इंतजार करने लगा.

सिक्योरिटी गार्ड ने बताया,“वे खाना खा रही हैं. 10-15 मिनट में पहुंच जाएंगी. तब तक आप यह अखबार पढ़िए.”

मालिक से बात कर किराया थोड़ा कम करने के बारे में पूछ लूंगा. फिर एक औटो पकड़ कर घर जा कर लड़की को भी ला कर दिखा कर तय कर लेंगे. बेटी इस मकान को देख कर आश्चर्य करेगी.

ऐडवांस के बारे में कोई बड़ी समस्या नहीं है. मैं पास के एक बैंक में हर महीने जो पैसे जमा कराता हूं उस में ₹30 हजार के करीब तो होंगे ही.बाकी रुपयों के लिए पैंशन वाले बैंक से उधार ले लूंगा. फिर एक दिन शिफ्ट हो जाऊंगा.

यहां आने के बाद एक आदमी का खाना और चाय का क्या खर्चा होगा?

‘आप खाना बनाओगे क्या पापा,’ ऐसा डांट कर बेटी प्यार से खाना तो भिजवा ही देगी.

खाना बनाने का काम भी बच जाएगा. पास में लाइब्रैरी तो होगा ही. वहां जा कर दिन कट जाएगा.

सामने की तरफ थोड़ी दूर पर एक छोटा सा टी स्टौल था. मैं ने सोचा 1 कप चाय पी कर हो आते हैं. तब तक मकानमालकिन भी आ ही जाएगी.

वहां कौफी की खुशबू आ रही थी | मैं ने सोचा कि कौफी पी लूं. यहां रहने आ जाऊंगा तो नाश्ते और चाय की कोई फिकर नहीं रहेगी.

पैसे दे कर वापस आया तो सिक्योरिटी गार्ड बोला,“घर के औनर आ गए हैं. वे ऊपर गए हैं. आप वहीं चले जाइए.”

मैं धीरेधीरे सीढ़ियां चढ़ने लगा. ऊपर पहुंच कर औनर को नमस्कार बोला.

पीठ दिखा कर खड़ी वह महिला धीरे से मुड़ी तो वह मेरी बेटी रेणू थी.

रिश्तों की मर्यादा- भाग 2: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

राइटर- नीरज कुमार मिश्रा

नमिता अब भी बिस्तर पर पड़ी कसमसा रही थी. जब वह हथकड़ी से आजाद नहीं हो पाई, तो हार कर तरुण को ही उस के हाथों को खोलना पड़ा और उसे खोलते ही नमिता नीचे पड़े हुए अपने कपड़ों को पहनने लगी, तो तरुण उसे भद्दीभद्दी गालियां देने लगा और गुस्से में उसे 2 तमाचे और जड़ दिए.

‘‘तुम को मेरे साथ रहने का कोई हक नहीं है… तुम अभी और इसी समय मेरे घर से निकल जाओ,’’ एक फरमान सा सुना दिया था तरुण ने, जिसे सुनने के बाद नमिता इतना तो सम?ा गई थी कि इस समय तरुण के सामने रोने या गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होने वाला, इसलिए वह सिर ?ाकाए सुनती रही.

अपने पति के घर से निकाले जाने के बाद नमिता को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करे और कहां जाए…

सड़क के किनारे बहुत देर तक नमिता शून्य की हालत में खड़ी रही और सड़क पर आनेजाने वाले सैकड़ों लोगों को देखती रही. काफी देर बाद उस ने सुदेश को फोन लगाया, तो सुदेश का मोबाइल स्विच औफ आ रहा था. शायद उस ने ऐसा तरुण के डर के चलते किया होगा या फिर वह नमिता से पीछा छुड़ाना चाहता है? ऐसे ढेरों सवाल नमिता के मन में थे.

आज से पहले नमिता ने कभी नहीं सोचा था कि अपने ही शहर में वह एकदम बेगानी हो जाएगी… तो क्या उस ने

एक पराए मर्द के साथ शारीरिक संबंध बना कर जो अपराध किया है, उस की सजा तो मिलनी ही चाहिए उसे… पर कैसा अपराध?

तरुण भी तो दूध के धुले नहीं हैं… कई बार तो नमिता ने खुद ही अपने कानों से उन्हें अपनी एक दोस्त से फोन पर बातें करते सुना है और फिर तरुण कई दिनों तक घर से बाहर भी तो रहते हैं… ऐसे में उस का किसी पराए मर्द के प्रति आकर्षित हो जाना सहज ही तो है.

नमिता अपने मन में तमाम बातें सोच रही थी और अपने मन को सम?ाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘कहां जाना है मैडम आप को?’’ एक ईरिकशा वाले ने ब्रेक लगाते हुए पूछा.

‘‘घर जाना है मु?ो…’’ यह कहते हुए नमिता ईरिकशा में बैठ गई और उस से बसस्टैंड चलने को कहा.

बसस्टैंड पर आ कर नमिता अपने मायके यानी सीतापुर जाने वाली बस में बैठ गई. जल्दबाजी में वह पर्स लाना भूल गई थी और पास में पैसे तो थे नहीं, पर नमिता के हाथ में मोबाइल था. सो, टिकट की चिंता नहीं थी, क्योंकि आजकल बस वाले भी औनलाइन पैसे लेने से मना नहीं करते.

3 घंटे के सफर के बाद नमिता अपने मायके पहुंच गई थी. वहां पर सिर्फ उस के भैयाभाभी और विधवा मां ही थीं. सब से मिल कर वह ?ाठी खुशी दिखाने की कोशिश तो कर रही थी, पर मायके वालों को यह सम?ाते देर नहीं लगी कि पतिपत्नी में ?ागड़ा हुआ है.

हालांकि कुछ महीने बीत जाने के बाद नमिता ने खुद ही अपनी मां को सारी बात सचसच बता दी. मां कुछ बोल न सकीं, सिर्फ नमिता को गले से लगा लिया. नमिता का मन भर आया था.

नमिता की पढ़ाईलिखाई अब काम आई, जब जीविका चलाने और भैयाभाभी पर बो?ा न बने रहने के नाते उस ने सीतापुर में ही एक डिगरी कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया और वैसे भी नमिता के पास उस की पुरानी सेविंग्स तो थीं ही, इसलिए पैसे की ज्यादा चिंता नहीं थी उसे… और इस बीच उस ने कई बार कांपते हाथों से तरुण का नंबर मिलाया, पर वह कभी उठा नहीं…

जिंदगी में मुश्किल समय जल्दी नहीं बीतता… यही हाल नमिता का भी था, पर अब काम में बिजी हो जाने के चलते उस का समय भी बीत रहा था और घर में पैसे भी आ रहे थे, पर मायके में शादीशुदा लड़की का रहना आसपड़ोस के लोगों के लिए एक प्रपंच का विषय तो बन ही चुका था, लेकिन नमिता ने इन सब बातों की परवाह करनी छोड़ दी थी.

नमिता को लखनऊ छोड़े तकरीबन एक साल बीत गया था. इस बीच सुदेश का कई बार फोन भी आया, पर नमिता ने एक बार भी उस का फोन रिसीव नहीं किया.

तरुण ने कोई खोजखबर नहीं ली, पर आज एक नंबर से नमिता के मोबाइल पर एक फोन आया, तो उधर से तरुण की धीमी आवाज थी, ‘नमिता… क्या तुम मेरे पास आ सकती हो… कुछ जरूरी काम है और कुछ बात भी करनी है…’

नमिता बहुतकुछ बोलना चाहती थी, पर कुछ कह नहीं सकी. उसे लग रहा था कि निश्चित ही तरुण उसे तलाक देने के लिए कागजी कार्यवाही करना चाहता है.

नमिता ने सिर्फ हां में जवाब दिया और अगले दिन ही तरुण के पास पहुंच गई.

दरवाजा तरुण ने ही खोला. वह काफी थका सा लग रहा था. नमिता ने मन में सोचा था कि हो सकता है, तरुण ने किसी वकील को बुलाया हो जो कुछ कागजों पर दस्तखत करवाएगा, पर यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं था. अलबत्ता, मेज पर कुछ दवाएं जरूर पड़ी हुई थीं.

‘‘दरअसल, तुम्हें घर से निकालने के बाद मैं काफी सदमे में रहा और कुछ दिन बाद बिस्तर से लग गया. चैकअप कराया, तो मुझे कैंसर निकला. मैं ने इलाज तो कराया, पर कोई फायदा नहीं हुआ और आगे महंगे इलाज के लिए मेरे पास पैसे भी नहीं थे…

रिश्तों की मर्यादा-भाग 1: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

राइटर- नीरज कुमार मिश्रा

लखनऊ शहर के इंदिरानगर इलाके में बने हुए फ्लैट नंबर 256 में इस समय हवस से भरी फुसफुसाहटें गूंज रही थीं. फ्लैट की दीवारें नमिता और सुदेश के सैक्स की आवाजों की गवाह बनी हुई थीं.

सुदेश नमिता के तन पर लिपटा हुआ आखिरी कपड़ा भी अलग कर देना चाहता था, पर नमिता थी कि बारबार अपने बदन को सिकोड़ लेती थी.

सुदेश के एक हाथ में मोबाइल फोन का वीडियो रिकौर्डर चल रहा था, जिस से वह नमिता की वीडियो क्लिप बनाने में लगा हुआ था.

‘‘अब मेरी वीडियो क्लिप मत बनाओ… प्लीज,’’ नमिता ने बनावटी अंदाज में कहा, पर सुदेश ने उस की एक नहीं सुनी और नमिता के बदन पर लिपटा हुआ आखिरी कपड़ा भी हटा दिया.

अपने सामने नमिता के हुस्न का दीदार कर के सुदेश पागल हो उठा. उस ने अपना मोबाइल फोन एक तरफ रख दिया और नमिता के नंगे बदन पर अपने होंठों को बेतहाशा रगड़ने लगा.

नमिता ने भी अपनी आंखें बंद कर ली थीं और सुदेश भी पूरी तरह से जोश में आ चुका था.

सुदेश के मर्दाने और कठोर जिस्म ने नमिता के नरम और गुदगुदे जिस्म में प्रवेश कर लिया. नमिता भी अपने हाथों से सुदेश की पीठ को सहलाने लगी.

अभी दोनों ने सैक्स का मजा लेना ही शुरू किया था कि नमिता ने सुदेश से कहा, ‘‘तुम नीचे आओ… मैं तुम्हारे ऊपर आना चाहती हूं.’’

नमिता को इतने सैक्सी अंदाज में सुदेश ने पहले कभी नहीं देखा था. वह मुसकराने लगा और नमिता के बदन से बिना अलग हुए ही एक करवट ले कर नमिता के बदन के नीचे हो गया और अब नमिता सुदेश के ऊपर बैठी हुई थी.

‘‘सुदेश, तुम भले ही औफिस में मेरे बौस होगे, पर बिस्तर पर मैं तुम्हारी बौस हूं. यहां तो मेरी मरजी ही चलेगी… अब तुम देखो, मैं तुम्हे कैसे मजा देती हूं…’’

नमिता ने सुदेश की टांगों के बीच

में बैठेबैठे ही आंखें बंद कर लीं और

वे दोनों सैक्स के चरमसुख के लिए एकसाथ बढ़ चले.

कमरे की दूधिया रोशनी में नमिता का गोरा बदन मक्खन जैसा चमक रहा था. सुदेश की नजर नमिता पर पड़ी, तो उसे लगा कि जैसे वह किसी हाईक्लास धंधे वाली के साथ सैक्स कर रहा है.

नमिता के लटके?ाटकों से उन दोनों को चरमसुख मिल चुका था और नमिता एक मीठी सी हिचकी लेने के बाद सुदेश के सीने पर निढाल हो कर लिपट गई थी. दोनों बहुत देर तक एकदूसरे से चिपके पड़े रहे.

सुदेश एक पैसे वाला आदमी था. उस का औफिस लखनऊ के हजरतगंज में बने विशाल टौवर में था और उस के औफिस में ही नमिता काम करती थी.

नमिता 27 साल की एक शादीशुदा और काफी आकर्षक औरत थी. 5 फुट, 7 इंच की नमिता को अपनी लंबाई और हुस्न का गुमान भी था, इसलिए उस ने मौडलिंग में भी काम किया, पर वहां कुछ खास न कर पाने के चलते मौडलिंग को छोड़ दिया और प्राइवेट नौकरी करने लगी.

हालांकि नमिता को अभी सुदेश का औफिस जौइन किए हुए एक साल ही हुआ था, पर अपनी दिलकश अदाओं और खूबसूरती के चलते जल्दी ही उस

ने बौस सुदेश को अपने हुस्न का दीवाना बना दिया था.

सुदेश को नमिता के जिस्म का मजा मिलता, तो बदले में वह नमिता को नौकरी में प्रमोशन देता और आएदिन उस पर पैसे भी लुटाता रहता था.

उन दोनों में कई बार सैक्स हो चुका था, कभी किसी होटल में, तो कई बार तो वे दोनों कार के अंदर ही सैक्स का मजा ले चुके थे.

नमिता का पति तरुण एक सेल्स कंपनी में काम करता था, जिस के चलते उसे कभीकभी कई दिनों तक घर से बाहर रहना पड़ता था, पर ऐसा नहीं था कि तरुण शारीरिक रूप से या नमिता को बिस्तर पर संतुष्ट कर पाने में कुछ कमजोर था, बल्कि नमिता एक ऐसी औरत थी, जो खूबसूरत मर्दों की तरफ सहज ही आकर्षित हो जाती थी और अगर वह मर्द पैसे वाला है, तो उस के साथ फ्लर्ट करने से भी नहीं चूकती थी.

एक दिन सुदेश ने शाम के 4 बजे नमिता को अपने केबिन में बुलाया और बोला, ‘‘आज शाम का क्या प्लान है मैडम?’’

‘‘सर, आज शाम को मैं जल्दी घर जाने वाली हूं, क्योंकि आज मेरे पति को बाहर जाना है और फिर मेरी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही है,’’ नमिता ने शरारत भरी मुसकराहट के साथ कहा, जिस पर सुदेश खुश होते हुए बोला, ‘‘कोई बात नहीं… लगता है कि तुम्हारी तबीयत सही करने मु?ो तुम्हारे फ्लैट पर आना होगा.’’

सुदेश की बात का जवाब नमिता ने रूमानी अंदाज से मुसकरा कर दिया.

उस दिन नमिता औफिस से जल्दी ही निकल गई और तरुण का ट्रैवल बैग तैयार कराने में उस की मदद करने लगी. कुछ देर बाद तरुण ‘बाय’ कर के निकल गया, तो नमिता सोफे पर बैठ गई और उस ने सुदेश के मोबाइल फोन पर काल कर के तरुण के बाहर चले जाने की बात बता दी.

तकरीबन एक घंटे बाद सुदेश नमिता के दरवाजे पर खड़ा था. उस के हाथ में ह्विस्की की एक बोतल थी.

‘‘आज तो बड़े खतरनाक मूड में लग रहे हो तुम,’’ नमिता ने दरवाजा बंद करते हुए कहा. इस के बदले में सुदेश नमिता को अपनी बांहों में भरने लगा.

‘‘अरे, अभी नहीं बाबा… अभी मु?ो खाना बनाना है.’’

‘‘खाना तुम पकाती रहना और खाती रहना… मु?ो तो जल्दी निकलना है,’’ ह्विस्की की बोतल खोलते हुए सुदेश ने कहा और फटाफट पैग बना कर पी गया.

सुदेश की आंखों में खुमारी और हवस के लाल डोरे तैरने लगे थे. उस ने अपनी बांहों में नमिता को भर लिया और उस के कोमल जिस्म को सहलाने और चूमने लगा. नमिता भी बराबर उस का साथ दे रही थी. उसे सुदेश की गरम सांसों से आती हुई महंगी शराब की खुशबू बहुत अच्छी लग रही थी.

सुदेश और नमिता दोनों पूरी तरह बिना कपड़ों के हो चुके थे और जम कर सैक्स का मजा लेने जा रहे थे. इस से पहले कि सुदेश नमिता में प्रवेश करता, उस ने अपने छोटे से बैग से एक हथकड़ी निकाल ली और नमिता के हाथों को उस में फंसाने की कोशिश करने लगा.

‘‘यह क्या कर रहे हो तुम?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘अरे मेरी जान… यह विदेशी स्टाइल है. सैक्स का असली मजा तो अंगरेज लोग ही लेते हैं… अब बस तुम अपने हाथ इस में फंसा लो और फिर देखो तुम्हें कितना मजा आता है…’’

नमिता की दोनों बांहें हथकड़ी से बिस्तर के सिरहाने इस तरह से लौक कर दी गई थीं कि वह चाह कर भी इस से आजाद नहीं हो सकती थी.

नमिता को हथकड़ी में कैद कर के सुदेश उसे बंधा हुआ देख कर मजा लेने लगा और उस के बदन को सहलाने लगा. नमिता भी जोश में आ कर गरम सिसकियां भर रही थी.

सुदेश और नमिता की गरमागरम सिसकियों से पूरा कमरा धधक उठा था और इस से पहले कि वे दोनों चरमसुख तक पहुंचते, फ्लैट के दरवाजे में इंटरलौक में चाबी फंसने की आवाज आई और इस से पहले कि वे दोनों कुछ सम?ा पाते, फ्लैट के कमरे का दरवाजा खुल चुका था और उन की आंखों के सामने तरुण खड़ा था.

सुदेश की सारी मर्दानगी इस तरह अचानक तरुण को देख कर रफादफा हो गई. वह अपने कपड़ों की ओर लपका और जल्दबाजी में उलटेसीधे ढंग से पहनने लगा और इस कोशिश में वह गिरतेगिरते भी बचा.

तरुण अब भी हैरान खड़ा था और सब से बुरी हालत तो नमिता की हो रही थी, जो पूरी तरह से बेपरदा अपने पति के सामने पड़ी हुई थी और उस के दोनों हाथ हथकड़ी में बंधे हुए थे.

‘तड़ाक…’ एक जोरदार तमाचा तरुण ने नमिता के गाल पर लगाया और उस के बालों को गुस्से में खींच लिया. इतनी देर में सुदेश को वहां से भागने का मौका मिल चुका था.

रिश्तों की मर्यादा: क्या तरुण ने नमिता को तलाक दिया?

अधिकार- भाग 2: कुशल और आशा के बीच क्या हुआ था?

ऐक्सिडैंट की बात सुन ताऊजी भागे चले आए. थोड़ी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘ताऊजी, आशा को सूचित कर दीजिए. मैं उस से मिलना चाहता हूं.’’

क्षणभर को ताऊजी चौंक गए थे, फिर बोले, ‘‘क्या, बहुत तकलीफ है?’’

जी चाह रहा था, ताऊजी से झगड़ा करूं, मगर लिहाज का मारा मैं चुप था. बारबार मन में आता कि ताऊजी से पूछूं कि उन्होंने आशा का अपमान क्यों किया था? क्यों मुझे इस आग में ढकेल दिया?

ताऊजी मेरे जख्मी शरीर को सहलाते हुए बोले, ‘‘कुशल, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

अचानक मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘मैं आशा से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘लेकिन उस से तो तुम्हारा कोई रिश्ता ही नहीं है. तुम्हीं ने तो

कहा था.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था और अब भी मैं ही कह रहा हूं कि उस से रिश्ता बांधना चाहता हूं.’

‘‘वह तो विधवा है, भला उस से तुम्हारा रिश्ता कैसे?’’

‘‘क्या विधवा का पुनर्विवाह नहीं हो सकता?’’

‘‘हो क्यों नहीं सकता, मैं तो हमेशा इस पक्ष में रहा हूं.’’

‘‘तो फिर आप आशा के खिलाफ क्यों हैं?’’

‘‘क्योंकि तुम इस पक्ष में कभी नहीं रहे. तुम अपनी मां से इतनी नफरत करते हो. जानते हो न उस का कारण क्या है? उस का पुनर्विवाह ही इस घृणा का कारण है. जो इंसान अपनी मां के साथ न्याय नहीं कर पाया, वह अपनी पत्नी से इंसाफ कैसे करेगा?’’

मैं ने हिम्मत कर के कुछ कहना चाहा, मगर तब तक ताऊजी जा चुके थे. मैं सोचने लगा, क्यों ताऊजी आशा को मुझ से दूर करना चाहते हैं? किस अपराध की सजा देना चाहते हैं?

तभी कंधे पर किसी ने हाथ रखा. मुड़ कर देखा, आशा ही तो सामने खड़ी थी.

‘‘यह क्या हो गया?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

मेरा जी चाहा कि उस की गोद में समा कर सारी वेदना से मुक्ति पा लूं. लेकिन वह पास बैठी ही नहीं, थोड़ी देर सामने बैठ कर चली गई.

एक दिन आशा का पीछा करते मैं  ने उस का घर देख लिया. दूसरे दिन सुबहसवेरे उस का द्वार खटखटा दिया. वह मुझे सामने पा कर हैरान रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘नाराज मत होना. नाश्ता करने आया हूं.’’

‘‘मैं यहां अकेली रहती हूं, कोई क्या सोचेगा. आप यहां क्यों चले आए?’’

‘‘तुम भी तो मेरे पास चली आती थीं, मैं ने तो कभी मना नहीं किया.’’

‘‘वह मेरी भूल थी. मेरा पागलपन था.’’

‘‘और यह मेरा पागलपन है. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे साथ एक रिश्ता बांधना चाहता हूं. चाहता हूं, तुम हमेशा मेरी आंखों के सामने रहो,’’ समीप जा कर मैं ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘तुम से पहले मेरा जीवन आराम से चल रहा था, कहीं कोई हलचल न थी. मुझे ज्यादा नहीं चाहिए. बस, थोड़ा सा ही प्यार दे दो. देखो आशा, मैं तुम्हारे किसी भी अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करूंगा. तुम अगर अपने दिवंगत पति के साथ मुझे बांटना न चाहो, तो मत बांटो.’’

‘‘जानते हो, मुझे अभी भी पागलपन के दौरे पड़ते हैं,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली.

‘‘पागल लोग बैंक में इतनी अच्छी तरह काम नहीं कर सकते. तुम पागल नहीं हो. तुम पागल नहीं…’’

मेरे हाथ से बांह छुड़ा कर वह भीतर चली गई.

मैं भी तेज कदमों से उस के पीछेपीछे गया और तनिक ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मुझे जो कहना था, कह दिया. अब चलता हूं, नाश्ता फिर किसी दिन.’’

‘‘कुशल,’’ आशा ने पुकारा, परंतु मैं रुका नहीं.

मैं शाम तक बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पाया. मुझे फिर सामने पा कर आशा एक बार फिर तनाव से भर उठी. पर खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आइए. बैठिए. मैं चाय ले कर आती हूं…’’

‘‘नहीं, तुम मेरे पास बैठो, चाय की इच्छा नहीं है.’’

आशा मेरे पास बैठ गई. मैं अपने विषय में सबकुछ बताता रहा और वह सुनती रही.

‘‘तुम्हीं कहो, अगर मैं तुम से शादी करना चाहूं तो गलत क्या है? 25 साल पहले अगर ताऊजी मेरी मां का पुनर्विवाह करा सकते थे, तो अब तुम नया जीवन आरंभ क्यों नहीं कर सकतीं?’’

‘‘आप के साथ जो हुआ, वह मां के पुनर्विवाह की वजह से ही हुआ न? आप अपनी मां का सम्मान नहीं कर पाते, उन के पति को अपना पिता स्वीकार नहीं करते. इस अवस्था में आप मेरा सम्मान कैसे करेंगे?

‘‘अगर आप पुनर्विवाह को बुरा नहीं मानते तो पहले अपनी मां का सम्मान कीजिए, उन से नाता जोडि़ए.’’

मैं आशा की दलील पर खामोश था. उस की दलील में दम था और उस का तुरंत कोई तोड़ मेरी समझ में न आया. आशा के मोह में बंधा, बस, इतना ही कह पाया, ‘‘अगर तुम चाहती हो, तो उन लोगों से नाता जोड़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं है.’’

‘‘मेरी इच्छा पर ही ऐसा  क्यों…क्या आप अपने मन से ऐसा नहीं चाहते?’’

‘‘मैं ने कहा न कि मैं इतना तरस चुका हूं कि कोई इच्छा अब जिंदा नहीं रही. मां ने जो भी किया, हो सकता है, उस की गृहस्थी के लिए वही अच्छा हो. यह सच ही है कि अतीत के भरोसे जीवन नहीं कटता और न ही मरने वाले के साथ इंसान मर ही सकता है. जो भी हुआ होगा, शायद अच्छे के लिए ही हुआ होगा, मगर इस सारे झमेले में मैं तो कहीं का नहीं रहा.’’

मेरे कंधे पर पड़ा शौल सरक गया था. एकाएक आशा बोली, ‘‘अरे, आप की बांह अभी भी…’’

‘‘हां, 3 हफ्ते का प्लास्टर है न.’’ मुझे ऐसा लगा, जैसे उस ने कुछ नया ही देख लिया, झट पास आ कर उस ने शौल मेरी पीठ से भी सरका दी, ‘‘आप के कपड़ों पर तो खून के धब्बे हैं.’’

फिर वह डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ में भी आप मेरे पास चले आते हैं?’’

‘‘दर्द कम करने ही तो आता हूं. तुम छूती हो तो….’’

‘‘ऐसा क्या है मेरे छूने में?’’

‘‘वह सबकुछ है जो मुझ जैसे इंसान को चाहिए. मगर यह सत्य है, इसे वासना नहीं कहा जा सकता, जैसा शायद ताऊजी ने समझा था.’’

बांह का प्लास्टर खुलने को 2 हफ्ते बाकी थे. इस दौरान आशा ने मुझे संभाल लिया था. वह हर शाम मेरे घर आती और भोजन का सारा प्रबंध करती.

जिस दिन मैं ने प्लास्टर कटवाया, उस दिन सीधा आशा के पास ही चला गया. मुझे स्वस्थ पा कर उस की आंखें भर आईं.

सहसा आशा को छाती से लगा कर मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए. वह मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. आशा के स्पर्श में एक अपनापन था, एक विश्वास था.

प्लास्टर के खुलते ही मैं अस्पताल जाने लगा, मेरी दिनचर्या फिर से शुरू हो गई. एक दिन ताऊजी मिलने चले आए. उन्होंने ही बताया कि मेरी मां के दूसरे पति को दिल का दौरा पड़ा है. तीनों बच्चे अमेरिका में हैं और ऐसी हालत में वह अकेली है. वे सोचते हुए से बोले, ‘‘कुशल, तुम्हें अपने पिता से मिलना चाहिए.’’

अधिकार- भाग 3 : कुशल और आशा के बीच क्या हुआ था?

मैं सोचने लगा, भला वह इंसान मेरा पिता कैसे हो सकता है जिस ने कभी मुझे मेरी मां से जोड़ने का प्रयास नहीं किया? फिर भी मैं उन से मिलने चला गया. मेरे पहुंचने पर वे बस, मेरा हाथ पकड़े लेटे रहे और फिर सब समाप्त हो गया. अमेरिका से उन के बच्चे भला इतनी जल्दी कैसे आ सकते थे? ताऊजी ने मेरे हाथों ही उन का दाहसंस्कार करवाया. जब मैं लौटने लगा तो ताऊजी ने ही टोक दिया, ‘‘कुछ दिन अपनी मां के पास रह ले, वह अकेली है.’’

मैं 7 दिनों से उस घर में था, पर एक बार भी मां ने मुझे पुकारा नहीं था. उस ने अपने विदेशी बच्चों का नाम लेले कर मृतपति का विलाप तो किया था, मगर मुझ से लिपट कर तो एक बार भी नहीं रोई थी. फिर ऐसी कौन सी डोर थी, जिसे ताऊजी अभी भी गांठ पर गांठ डाल कर जोड़़े रखने का प्रयास कर रहे थे? जब मैं बैग उठा कर चलने लगा, तब मां की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कुशल से कह दीजिए, आशा से मिले तो बता दे कि उस का काम हो जाएगा. शारदा उस का अधिकार उसे देने को तैयार है.’’

तब जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गईर् थी. ताऊजी की तरफ प्रश्नसूचक भाव से देखा. पता चला, शारदा आशा की सास का नाम है और आशा अपनी ससुराल में अपना स्थान पाने के लिए अकसर मां को फोन करती है.

मैं वापस तो चला आया, परंतु पूरे रास्ते आशा के व्यवहार का अर्थ खोजता रहा. उस ने तो कभी नहीं बताया था कि वह मेरी मां को जानती है और अकसर उन से फोन पर बातचीत करती है.

शाम को मैं अस्पताल में ही था कि आशा चली आई. इतने दिनों बाद उसे देख खून में एक लहर सी उठी. उसे पास तो बिठा लिया, परंतु अविश्वास ने अपना फन न झुकाया.

चंद पलों के बाद वह बोली, ‘‘आप की मां अब अकेली रह गई हैं न. आप उन्हें भी साथ ही ले आते. उन के बच्चे भी तो उन के पास नहीं हैं. आप को उन का सहारा बनना चाहिए.’’

मैं हैरान रह गया और सोचने लगा कि कोई बताए मुझे, तब मुझे किस का सहारा था, जब मां ने 6 साल के बच्चे को ताऊजी की चौखट पर पटका था? क्या उस ने सोचा था कि अनाथ बच्चा कैसे पलेगा? सारे के सारे भाषण मेरे लिए ही क्यों भला? सहसा मुझे याद आया, आशा तो मेरी मां को जानती है. कहीं अपनी ससुराल में अपना अधिकार पाने के लिए मां की वकालत का जिम्मा तो नहीं ले लिया इस ने?

मेरे मन में शक और क्रोध का एक ज्वार सा उठा और आशा को वहीं बैठा छोड़ मैं बाहर निकल गया. उसी रात मां का फोन आ गया. लेकिन ‘हूं…हां’ में ही बात हुई. मां ने मुझे बुलाया था.

सुबह ही त्रिचूर के लिए गाड़ी पकड़ ली. सोचा था मां की गोद में सिर छिपा कर ढेर सारा ममत्व पा लूंगा, मगर वहां तो उन्होंने एक बलिवेदी सजा रखी थी. ताऊजी भी वहीं थे. पता चला कि मां ने आशा की ननद को मेरे लिए चुन रखा है. उस की तसवीर भी उन्होंने मेरे सामने रख दी, ‘‘नीरा पसंद आएगी तुम्हें…’’

‘‘नीरा कौन?’’ मैं अवाक रह गया.

‘‘आशा ने तुम्हें सब समझा कर नहीं भेजा? मैं ने उस से कहा था कि तुम्हें अच्छी तरह समझाबुझा कर भेजे. देखो कुशल, मेरी सारी जायदाद तुम्हारी है. मेरे बच्चों ने वापस आने से इनकार कर दिया है. सब तुम्हें दे दूंगी. बस, नीरा के लिए हां कर दो.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. हताश नजरों से ताऊजी को देखा और सोचा कि मेरी मां और आशा दोनों ही सौदेबाज निकलीं. आशा को ससुराल में अपना अधिकार चाहिए और उस के लिए उस ने मुझे मेरी मां के हाथों बेच दिया.

शाम को कोचीन पहुंच कर अपना सारा गुस्सा आशा पर उतारा. वह मेरे उठे हुए हाथ को देख सन्न रह गई. उस के आंसू से भरे चेहरे पर कईर् भाव जागे थे. मानो कुछ कहना चाहती हो, मगर मैं रुका ही नहीं. मेरे लिए सब फिर समाप्त हो गया.

एक दिन सुबहसुबह ताऊजी आ पहुंचे. मेरी अस्तव्यस्त दशा पर वे भीग से गए, ‘‘मुन्ना, तुझे क्या हुआ है?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं,’’ जी चाह रहा था, चीखचीख कर आसमान सिर पर उठा लूं.

तभी ताऊजी बोले, ‘‘आशा की सास ने उस का सामान भेजा है, उसे दे आना.’’ उन्होंने एक अटैची की तरफ इशारा किया.

मैं क्रोध से भर उठा कि यही वह सामान है, जिस के लिए आशा मुझे छलती रही. आक्रोश की पराकाष्ठा ही थी जो उठ कर अटैची खोल दी और उस का सारा सामान उलटपलट कर पैरों से रौंद डाला.

तभी एक झन्नाटेदार हाथ मेरे गाल पर पड़ा, ‘‘मुन्ना,’’ ताऊजी चीखे थे, ‘‘एक विधवा से शादी करना चाहते हो, क्या यही सम्मान करोगे उस के पूर्व पति का? अरे, जब तुम उस का सम्मान ही नहीं कर पाओगे तो उस के साथ न्याय क्या करोगे? अतीत की यादों से लिपटी किसी विधवा से शादी करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए. उस के पति का अपमान कर रहे हो और दावा करते हो कि उस से प्यार करते हो?’’

मेरे पैरों के नीचे शायद आशा के पति की चंद तसवीरें थीं. एक पुरुष के कुछ कपड़े इधरउधर बिखरे पड़े थे. ताऊजी की आंखें आग उगल रही थीं. ऐसा लगा, एक तूफान आ कर चला गया.

थोड़ी देर बाद खुद ही आशा का सामान सहेज कर मैं ने अटैची में रखा और तसवीरें इकट्ठी कर एक तरफ रखीं. फिर अपराधभाव लिए ताऊजी के पास बैठा.

वे गंभीर स्वर में बोले, ‘‘तुम आशा के लायक नहीं हो.’’

‘‘मैं ने सोचा था, उस ने मुझे छला है,’’ मैं धीरे से बोला.

‘‘क्या छला है, उस ने? तुम्हारी मां से यह जरा सामान मंगवाया, पर बदले में क्याक्या दिला दिया तुम्हें. क्या इसी विश्वास के बल पर उस का हाथ पकड़ोगे?’’

मैं चुपचाप रहा था.

‘‘देखो कुशल, आशा मेरी बेटी जैसी है. अगर 25 साल पहले मैं अपनी विधवा भाभी का पुनर्विवाह किसी योग्य पुरुष से करवा सकता था तो अब 25 साल बाद आशा को तुम्हारे जैसे खुदगर्ज से बचा भी सकता हूं. इतना दम है अभी इन बूढ़ी हड्डियों में.’’

‘‘मैं खुदगर्ज नहीं,’’ बड़ी मुश्किल से मैं ने अपने होंठ खोले. फिर उसी पल आशा का सामान उसे देने गया.

वह मेरे हाथों में विजय का सामान देख कर हतप्रभ थी. अपने पति की तसवीरें देख कर वह हैरान रह गई.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘यह सामान तुम्हारे लिए अमूल्य था. मैं तुम्हारी भावनाओं का बहुत सम्मान करता हूं. पर कम से कम मुझे सच तो बतातीं. लेकिन मेरी मां से क्यों मांगा यह सब? सौदेबाजी क्यों की आशा? क्या मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा?

‘‘तुम ने सोचा, वह औरत जमीन, जायदाद के लोभ से मुझे खरीद लेगी. लेकिन मैं तो पहले से ही तुम्हारे हाथों बेमोल बिक चुका था. क्या कोई बारबार बिक सकता है? फिर यह सामान मंगा कर तुम ने कोई चोरी तो नहीं की? तुम रिश्तों के प्रति ईमानदार हो, तभी तो मैं भी तुम से प्यार करता हूं.’’

आशा मुझे एकटक देख रही थी. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं रो पड़ा.

आशा ने अटैची खोल कर उस में से विजय के कपड़े निकाले. एकएक कपड़े के साथ उस की एकएक याद जुड़ी थी. फिर वह फफकफफक कर रो पड़ी.

मैं ने आशा को अपनी बांहों में ले लिया. फिर आंसू पोंछ उस का माथा चूम लिया. वह मेरी छाती में समाई बिलखने लगी.

‘‘बस आशा, अब मेरे साथ चलो, ताऊजी आए हुए हैं. आज सारी बात तय हो जाएगी,’’ कहते हुए मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए.

अधिकार- भाग 1: कुशल और आशा के बीच क्या हुआ था?

त्योहार पर घर गया तो ताऊजी ने फिर से अपनी जिद दोहरा दी. वे चाहते थे कि मैं शादी कर लूं. जबकि मुझे शादी के नाम से चिढ़ होने लगती थी. हालांकि ताईजी ने मुझे सदा पराया ही समझा, पर ताईजी ने मेरे लिए अपनी ममता की धारा कभी सूखने नहीं दी. मेरी मां मेरी कड़वाहट की एक बड़ी वजह थी, जिस ने मेरे भीतर की सभी कोमल भावनाओं को जला दिया था, परंतु ताऊजी कभी भी मेरी मां के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे. वे उस के लिए सुरक्षाकवच जैसे थे. एक बार जब मैं मां के खिलाफ बोला था तो उन्होंने मुझ पर हाथ उठा दिया था.

छुट्टी के बाद मैं वापस चला आया. अस्पताल में आते ही वार्ड कर्मचारी ने एक महिला से मिलाया, जो कुछ महीने पहले गुजर गई एक अनाथ बच्ची के बारे में पूछताछ कर रही थी. मेरी नजर उस महिला पर टिक गई. 3 साल की उस बच्ची, जो मेरी मरीज थी, से उस औरत की सूरत काफी मिलतीजुलती थी.

जब मैं ने उस महिला से बात की तो पता चला, वह उस बच्ची की मां है. उस की बात सुन मैं हैरान रह गया कि इतनी संभ्रांत महिला और उस की संतान लावारिस मर गई? वह महिला अनाथालय से मेरा पता ले कर आई थी.

‘‘वह बच्ची कैसी थी?’’ उस के भर्राए स्वर पर मेरे अंदर की कड़वाहट जबान पर चली आई.

‘‘अब राख कुरेदने से क्या होगा, जो हो गया, सो हो गया,’’ मैं उसे रोता, सुबकता छोड़़ कर चला आया और सोचने लगा कि जिंदा बच्ची को तो पूछा नही, अब आंसू बहाने यहां चली आई है.

अकसर मेरी शामें घर के पास शांत समुद्रतट पर गुजरती थीं. अपने काम से बचाखुचा समय मैं लहरों से ही बांटता था. गीली रेत का घर बनाना मुझे अच्छा लगता था. उस शाम भी वहां बैठाबैठा मैं कितनी देर मुन्नी के ही विषय में सोचता रहा.

दूसरे दिन भी उस औरत ने मुझ से मिलना चाहा, मगर मैं ने टाल दिया. पता नहीं क्यों, मुझे औरतों से नफरत होती, विशेषकर ऐसी औरतों से जो अपनी संतान को अनाथ कर कहीं दूर चली जाती हैं. हर औरत में अपनी मां की छवि नजर आती, लेकिन हर औरत ममता से शून्य महसूस होती.

कुछ दिनों बाद एकाएक वार्ड में उसी औरत को देख मैं चौंक पड़ा. पता चला, आधी रात को कुछ पुलिसकर्मी उसे यहां पहुंचा गए थे. पूछताछ करने पर पता चला कि 2 दिनों से उसे कोई भी देखने नहीं आया. मैं सोचने लगा, क्या यह औरत इस शहर में अकेली है?

वह रात मैं ने उस की देखभाल में ही बिताई. सुबहसुबह उस ने आंखें खोलीं तो मैं ने पूछा, ‘‘आप कैसी हैं?’’ लेकिन उस ने कोई जवाब न दिया.

दूसरी सुबह पता चला कि वह अस्पताल से चली गई है. शाम को घर गया तो ताऊजी का पत्र खिड़की के पास पड़ा मिला. उन्होंने लिखा कि उन्हें मुझ पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था, मगर मेरा व्यवहार ही अशोभनीय था, जिस पर उन्हें क्रोध आ गया.

मैं यह जानता था कि मेरा व्यवहार अशोभनीय था, परंतु मेरे साथ जो हुआ था उस की शिकायत किस से करता? जब मैं बहुत छोटा था, तभी मां हाथ छुड़ा कर चली गई थी.

मैं चाय बनाने में व्यस्त था कि द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर देखा कि सामने वही औरत खड़ी है. मैं ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप…आइए…’’

उसे बिठाने के बाद मैं चाय ले आया. फिर गौर से उस के समूचे व्यक्तित्व को निहारा. साफसुथरा रूप और कानों में छोटेछोटे सफेद मोती. याद आया, मेरी मां के कानों में भी सफेद हीरे दमकते रहते थे. जब भी कभी ताऊजी की उंगली पकड़े उस से मिलने जाता, उन हीरों की चमक से आंखें चौंधिया जातीं. मैं मां के रूप में ममत्व का भाव ढूंढ़ता रहता, पर वह पलभर भी मेरे पास न बैठती.

वह औरत धीरे से बोली, ‘‘मैं ने आप को बहुत परेशान किया. मेरी बेटी की वजह से आप को बहुत तकलीफ हुई.’’

‘‘वह तो मेरा फर्ज था,’’ मैं ने गौर से उस की ओर देखते हुए कहा.

‘‘एक मां होने के नाते यह संतोष व्यक्त करने चली आई कि आप ने उस की मौत आसान कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. उस दुखियारी को आखिरी वक्त पर किसी का सहारा तो मिला,’’ यह कहने के साथ वह मेज पर फूलों का एक गुलदस्ता रख कर चली गई.

दूसरी शाम मैं सागरतट पर बैठा था, तभी वह औरत एक छाया की तरह सामने चली आई और बोली, ‘‘क्या आप के पास बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. बैठिए.’’

चंद पलों के बाद उस ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘वह मुन्नी देखने में कैसी थी?’’

‘‘जी?’’ मैं उस के प्रश्न पर चौंका कि फिर से वही प्रश्न, जो उस दिन भी किया था.

‘‘आप भी सोचते होंगे, मैं कैसी मां हूं, जिसे यह भी नहीं पता कि उस की बेटी कैसी थी. जब मेरे पति की ऐक्सिडैंट में मौत हुई, उस समय बच्ची का जन्म नहीं हुआ था. मेरे ससुराल वालों ने पति के जाते ही आंखें फेर लीं.

‘‘फिर जब बच्ची का जन्म हुआ तो मेरे ही मांबाप उसे अनाथालय में छोड़ गए. वे मुझे यही बताते रहे कि मृतबच्चा पैदा हुआ था.’’

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘उस के बाद क्या होता. मेरी बसीबसाई गृहस्थी उजड़ गई. खाली हाथ रह गई. पति और बच्ची की कोई भी निशानी नहीं रही मेरे पास.’’

‘‘लेकिन आप के मांबाप ने ऐसा क्यों किया?’’ मैं पूछे बिना रह न सका.

‘‘डाक्टर साहब, एक बच्ची की मां की दूसरी शादी

कैसे होती. इसलिए उन्होंने शायद यही उचित समझा,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

‘‘तो क्या आप ने शादी की?’’

‘‘नहीं, बहुत चाहा कि अतीत को काट कर फेंक दूं. परंतु ऐसा नहीं हुआ. अतीत कोई वस्त्र तो नहीं है न, जिसे आप जब चाहें बदल लें,’’ अपने आंसू पोंछ वह बोली, ‘‘अभी कुछ दिनों पहले मेरी मां भी चल बसी. पर मरतमरते मुझ पर एक एहसान कर गई. मुझे बताया कि मेरी बेटी जिंदा है. तब मैं ने सोचा कि मांबेटी साथसाथ रहेंगी तो जीना आसान हो जाएगा. लेकिन यहां आ कर पता चला कि वह भी नहीं बची.’’

मेरा मन भर आया था. मैं हमेशा अपनी मां के स्वार्थ को नियति मान कर उस से समझौता करता रहा. मैं सोचने लगा, क्या मेरी मां अकेले रह मुझे पाल नहीं सकती थी? जो औरत मेरे सामने बैठी थी उसे मैं नहीं जानता था, मगर यह सत्य था कि वह जो भी थी, कम से कम रिश्तों के प्रति ईमानदार तो थी. मेरी मां की तरह स्वार्थी और कठोर नहीं थी.

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी बहुत मासूम थी, बहुत ही प्यारी.’’

‘‘वह कैसी बातें करती थी?’’

‘‘अभी बहुत छोटी थी न, 3 साल का बच्चा भला कैसी बातें कर सकता है.’’

‘‘मरने से पहले क्या वह बहुत तड़पी थी? क्या उसे बहुत तकलीफ हुई थी?’’

‘‘नहीं, तड़पी तो नहीं थी लेकिन बहुत कमजोर हो गई थी. हमेशा मेरे गले से ही लिपटी रही थी,’’ कहते हुए मैं ने हाथ उठा कर उस का कंधा थपथपा दिया, ‘‘आप जब चाहें, मेरे पास चली आएं. मुन्नी के बारे में मुझे जो भी याद होगा, बताता रहूंगा.’’

बाद में पता चला कि वह बैंक में कार्यरत है. हर शाम वह सागरतट पर मेरे पास आ जाती. अपनी बच्ची का पूरा ब्योरा मुझ से लेती और रोती हुई लौट जाती. वह नईनई कोचीन आई थी, किसी से भी तो उस की जानपहचान न थी.

उस की बातें दिवंगत पति और अनदेखी बच्ची के दायरे से बाहर कभी जाती ही नहीं थीं. मैं चुपचाप उस के अतीत में जीता रहता. कभीकभी विषय बदलने की कोशिश भी करता कि इतने तनाव से कहीं उस की मानसिक हालत ही न बिगड़ जाए.

एक शाम जब मैं घर आया तो ताऊजी को बाहर इंतजार करते पाया. मैं उन की आवभगत में लग गया. मगर मेरे सारे स्नेह को एक तरफ झटक वे नाराजगी से बोले, ‘‘आशा को कब से जानते हो? जानते हो, वह विधवा है? क्या रिश्ता बांधना चाहते हो उस से?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. वह दुखी है. अकसर मेरे पास चली आती है.’’

‘‘अच्छा. क्या तुम उस का इलाज करते हो? देखो कुशल, मैं नहीं चाहता, तुम उस से मेलजोल बढ़ाओ. उस की दिमागी हालत खराब रही है. उस ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला है.’’

‘‘उसे पागल बनाने में उस के मांबाप का भी दोष है. क्यों उस की बच्ची को यहां फेंक गए?’’ मैं ने आशा की सुरक्षा में होंठ खोले, मगर ताऊजी ने फिर चुप करा दिया, ‘‘मांबाप सदा संतान का भला सोचते हैं. सत्येन को जो ठीक लगा, उस ने किया. अब कृपया तुम उस का साथ छोड़ दो.’’

यह सुन कर मैं स्तब्ध रह गया कि आशा, ताऊजी के मित्र सत्येन की पुत्री है. वे एक दिन रह कर चले गए, मगर मेरा पूरा अस्तित्व एक प्रश्नचिह्न के घेरे में कैद कर गए, मैं सोचने लगा, क्या आशा से मिल कर मैं कोई अपराध कर रहा हूं? ताऊजी को इस मेलजोल से क्या आपत्ति है?

रात की ड्यूटी थी. सो, 2 दिनों से मैं तट पर नहीं जा पाया था. रात के 11 बजे थे, तभी अचानक आशा को अपने सामने पाया. उस के कपड़े भीगे थे और उन पर रेत चमक रही थी. जाहिर था, अब तक वह अकेली सागरतट पर बैठी रही होगी.

फटीफटी आंखों से उस ने मुझे देखा तो मैं ने साधिकार उस का हाथ पकड़ लिया. फिर अपने कमरे में ला कर उसे कुरसी पर बिठाया.

उस के पैरों के पास साड़ी को रक्तरंजित पाया. झट से उस का पैर साफ कर के मैं ने पट्टी बांधी.

‘‘मैं आप को बहुत तकलीफ देती हूं न. अब कभी आप के पास नहीं आऊंगी,’’ उस की बात सुन मैं चौंक उठा.

वह आगे बोली, ‘‘जो मर गए वे तो छूट गए, पर मैं ही दलदल में फंसी रह गई. मेरा ही दोष था जो आप के पास आती रही. सच, आप को ले कर मैं ने कभी वैसा नहीं सोचा, जैसा आप के ताऊजी ने सोचा. मैं तो अपनी मरी हुई बच्ची के  लिए आती रही, क्योंकि आखिरी समय आप ही उस के पास थे. मैं मुन्नी की कसम खाती हूं, मेरे मन में आप के लिए…’’

‘‘बस, आशा,’’ मैं ने उसे चुप करा दिया. फिर धीरे से उस का कंधा थपथपाया, ‘‘ताऊजी की ओर से मैं तुम से क्षमा मांगता हूं. तुम जब भी चाहे, मेरे पास चली आना.’’

थोड़ी देर बाद जब वह जाने लगी तो मैं ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे इतनी रात गए जाने नहीं दिया था, सुबह होने तक रोक लिया था. टिटनैस का टीका लगा कर वहीं अपने बिस्तर पर सुला दिया था और खुद पूरी रात बरामदे में बिताई थी. सुबह राउंड से वापस आया तो पाया, मेरा शौल वहीं छोड़ वह जा चुकी थी.

उस के बाद वह मुझ से मिलने नहीं आई. उस के घर का मुझे पता नहीं था और बैंक फोन करता तो वह बात करने से ही इनकार कर देती.

एक सुबह 10 बजे उस के बैंक चला गया. मुझे देखते ही वह भीतर चली गई. उस के पीछे जा कर तमाशा नहीं बनना था, सो हार कर वापस चला आया. परंतु असंतुलित मन ने उस दिन मेरा साथ न दिया, मोटरसाइकिल को बीच सड़क में ला पटका.

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