सत्य असत्य- भाग 3: क्या था कर्ण का असत्य

उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’

‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’

‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.

‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’

निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’

‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’

निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.

उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.

‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’

‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’

‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’

‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’

‘‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी शादी हो जाए. मैं ने विजय के पिता से बात कर ली है. वह अच्छा लड़का है.’’

‘‘जी,’’ निशा ने गरदन झुका ली.

हम सब हैरानी से पिताजी की ओर देख रहे थे कि तभी वे बोल उठे, ‘‘झूठ नहीं कहूंगा बेटी, सोचा था तुम्हें अपनी बहू बनाऊंगा, परंतु मेरा बेटा तुम्हारे लायक नहीं है. मैं हीरे को पत्थर से नहीं जोड़ सकता. परंतु कन्यादान कर के तुम्हें विदा जरूर करना चाहता हूं. मेरी बेटी बनोगी न?’’

‘‘जी,’’ निशा का स्वर रुंध गया.

‘‘बस, अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ,’’ मुंह पोंछ पिताजी उठ गए और पीछे रह गई प्लेट पर चम्मच चलने की आवाज.

उस के बाद कई दिन बीत गए. भैया की भूल की वजह से मां और पिताजी ने उन से बात करना लगभग छोड़ रखा था. निशा विद्यालय जाने लगी थी. शाम के समय हम सब चाय पीने साथसाथ बैठते.

एक शाम पिताजी ने फिर से सब को चौंका दिया, ‘‘निशा, कल विजय आने वाला है. आज मैं उस से मिला था. तुम कल जल्दी आ जाना.’’

तभी भैया बोल उठे, ‘‘विजय आज मुझ से भी मिला था, लेकिन उस ने तो नहीं बताया कि आप उस से मिले थे?’’

‘‘तो इस में मैं क्या करूं?’’ पिताजी का स्वर रूखा था, ‘‘मैं पिछले कई दिनों से उस से मिल रहा हूं. निशा के विषय में उस से पूरी बात की है. उस ने तुम से क्यों बात नहीं की, यह तुम जानो.’’

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‘फिर भी उसे मुझ से बात तो करनी चाहिए थी, मुझे भी तो वह हर रोज मिलता है.’’

‘‘चलो, उस ने नहीं की, अब तुम्हीं कर लेना. और अपने साथ ही लेते आना.’’

‘‘मैं क्यों उस से बात करूं? हमारा बचपन का साथ है, क्या उसे अपनी शादी की बात मुझ से नहीं करनी चाहिए थी. क्या उस का यह फर्ज नहीं था?’’

‘‘फर्जों की दुहाई मत दो कर्ण, फर्ज तो उस से पूछने का तुम्हारा भी था. निशा कोई पराई नहीं है. कम से कम तुम भी तो आगे बढ़ते.’’

‘‘लेकिन पिताजी, उस ने एक  बार भी निशा का नाम नहीं लिया, दोस्ती में इतना परदा तो नहीं होता.’’

दोस्ती के अर्थ जानते भी हो, जो इस की दुहाई देने लगे हो. फर्ज और दोस्ती बहुत गहरे शब्द हैं, जिन का तुम ने अभी मतलब ही नहीं समझा. सदा अपना ही सुख देखते हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, बस, यही सोचते हो. तुम्हें क्या नहीं मिला, हमेशा उस का रोना रोते हो. यह नहीं सोचते कि तुम्हें क्या करना चाहिए था. उस ने बात नहीं की, तो तुम ही पूछ सकते थे. अपनेआप को इतना ज्यादा महत्त्व देना बंद करो.’’

उसी रात मैं ने आखिरी प्रयास किया. निशा से पहली बार पूछा, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

परंतु कुछ न बोल वह खामोश रही.

‘‘निशा, बोलो, क्या इस रिश्ते से तुम खुश हो?’’

उस की चुप्पी से मैं परेशान हो गई.

‘‘भैया पसंद नहीं हैं क्या? मैं तो यही चाहती हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में. कहीं मत जाओ. भैया तुम से बहुतबहुत प्यार करते हैं,’’ कहते हुए मैं ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. फिर जल्दी से बत्ती जलाई. उस की सूजी आंखों में आंसू भरे हुए थे.

सुबह पिताजी के कमरे से भैया की आवाज आई, ‘‘निशा इसी घर में रहेगी.’’

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‘‘क्या उस की शादी नहीं होने दोगे? विजय का नाम तुम ने ही सुझाया था न, आज क्या हो गया?’’

‘‘मैं…मैं तब बड़ी उलझन में था, आत्मग्लानि ने मुझे तोड़ रखा था. मैं खुद को उस के काबिल नहीं पा रहा था.’’

‘‘काबिल तो तुम आज भी नहीं हो. जिस से जीवनभर का नाता जोड़ना चाहते हो, क्या उस के प्रति ईमानदार हो? तुम ने उस का कितना बड़ा नुकसान किया है, क्या उसे यह बात बता सकते हो?’’

अब भैया खामोश हो गए.

सुलझती जिंदगियां- भाग 3: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

‘‘अपने हाथ से एक पंछी निकलता देख वे बौखला उठे और तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया. उस दिन मां ने मुझे पड़ोस में आंटी को राजमा दे कर आने को कहा. हमेशा की तरह कभी यह दे आ, कभी वह दे आ. मां पर तो अपने बनाए खाने की तारीफ  सुनने का भूत जो सवार रहता था. हर वक्तरसोई में तरहतरह के पकवान बनाना और लोगों को खिला कर तारीफें बटोरना यही टाइम पास था मां का.

‘‘उस दिन आंटी नहीं थीं घर पर… अंकल ने मुझ से दरवाजे पर कहा कि अांटी किचन में हैं, वहीं दे आओ, मैं भीतर चली गई. पर वहां कोई नहीं था. अंकल ने मुझे पास बैठा कर मेरे गालों को मसल कर कहा कि वे शायद बाथरूम में हैं. तुम थोड़ी देर रुक जाओ. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. मैं उठ कर जाने लगी तो हाथ पकड़ कर बैठा कर बोले कि कितने फालतू के गेम खेलती हो तुम… असली गेम मैं सिखाता हूं और फिर अपने असली रूप में प्रकट हो गए. कितनी देर तक मुझे तोड़तेमरोड़ते रहे. जब जी भर गया तो अपनी अलमारी से एक रिवौल्वर निकाल कर दिखाते हुए बोले कि किसी से भी कुछ कहा तो तेरे मांबाप की खैर नहीं.

‘‘मन और तन से घायल मैं उलटे पांव लौट आई और अपने कमरे को बंद कर देर तक रोती रही. मां की सहेलियों का जमघट लगा था और वे अपनी पाककला का नमूना पेश कर इतरा रही थीं और मैं अपने शरीर पर पड़े निशानों को साबुन से घिसघिस कर मिटाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘धीरेधीरे मैं पढ़ाई में पिछड़ती चली गई और मैं 10वीं कक्षा में फेल हो गई. मां ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई, मगर कभी मेरी पीड़ा न सुनी. मैं गुमसुम रहने लगी. सोती तो सोती ही रहती उठने का मन ही न करता. मां खाना परोस कर मेरे हाथों में थमा देती तो खा भी लेती अन्यथा शून्य में ही निहारती रहती. सब को लगा फेल होने का सदमा लग गया है, किसी ने सलाह दी कि मनोचिकित्सक के पास जाओ.

3-4 सीटिंग के बाद जब मैं ने महिला मनोचिकित्सक को अपनी आपबीती बताई तो उन्होंने मां को बुला कर ये सब बताया. मगर वे मानने को ही तैयार न हुईं. कहने लगीं कि साल भर तो पढ़ा नहीं, अब उलटीसीधी बातें बना रही है. इस की वजह से हमारी पहले ही कम बदनामी हुई है, जो अब पड़ोसी को ले कर भी एक नया तमाशा बनवा लें अपना… जब मेरी कोई सुनवाई ही नहीं तो मैं भी चुप्पी लगा गई. मुझे ही आरोपी बना कर कठघरे में खड़ा कर दिया गया था. फिर इंसाफ  किस से मांगती?

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‘‘तब से अपना मुंह बंद कर जीना सीख लिया. मगर इस दिल और दिमाग का क्या करूं. जो अब भी चीखचीख कर इंसाफ  मांगता है जब दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो नशा ही मेरा सहारा है, उन गोलियों को खा बेहोशी में डूब जाती हूं. तू ही बता कोई इलाज है क्या इस का तेरे पास?’’ रागिनी ने सीमा के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा.

‘‘हां है… हर मुसीबत का कोई न कोई हल जरूर होता है. बस उसे ढूंढ़ने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. इस बार तेरे मायके मैं भी साथ चलूंगी और उस शख्स के भी घर चल कर, बलात्कारियों की सजा पर चर्चा करेंगे. बलात्कारियों को खूब कोसेंगे, गाली देंगे और बातों ही बातों में उस शख्स के चेहरे पर लगे मुखौटे को उस की पत्नी के समक्ष नोंच कर फेंक देंगे.

‘‘उन्हें भी तो पता चले उन के पतिपरमेश्वर की काली करतूत…देखो बलात्कारी की पत्नी उस की कितनी सेवा करती हैं… उन का बुढ़ापा नर्क बना कर छोड़ेंगे… रोज मरने की दुआ मांगता न फिरे वह तो मेरा नाम बदल देना,’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को मजबूती से थाम कर बोला.

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रागिनी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. तभी रमन ने आ कर रागिनी के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बचपन की सहेली क्या मिल गई, तुम तो एकदम बदल ही गई. यह मुसकराहट कभी हमारे नाम भी कर दिया करो.’’

सीमा ने रागिनी के हाथों को रमन के हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘‘अब से यह इसी तरह मुसकराएगी, आप बिलकुल फिक्र न करें… इस के कंधे से कंधा मिलाने के लिए मैं जो वापस आ गई हूं इस की जिंदगी में.’’

लौटती बहारें- भाग 5: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

अब तक आप ने पढ़ा:

शादी के बाद मीनू ससुराल आई तो घर के लोगों ?की सोच काफी पुरानी थी. उसे बातबात पर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती थी. फिर भी मीनू सब को उचित सम्मान देती थी, सब का खयाल रखती थी.

कुछ दिनों बाद वह अपने मायके आई तो वहां भी खुद के लिए घर वालों का व्यवहार बदला पाया. छोटा भाई जहां लफंगे दोस्तों के साथ घूमने लगा था, वहीं छोटी बहन रेनू गलत सोहबत में पड़ गई थी.

यह सब देख कर मीनू उदास तो हुई पर फिर मन ही मन ठान लिया कि वह अपनी बहन और भाई को सही रास्ते पर ला कर ही दम लेगी.

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मैं अचानक अपने कमरे में जा कर अपने सामान की दोनों गठरियां उठा लाई. कपड़े तो मैं ने घर में काम करने वाली को देने के लिए आंगन में ही रख दिए पर पुस्तकों को जा कर मां के बड़े संदूक में रख आई.

मैं ने बड़े चाव से पापा व मम्मी की पसंद का खाना बनाया. मैं किचन से निकल ही रही थी कि मम्मी मुझे आवाज दे कर बुलाने लगीं. वहां जा कर देखा कि मम्मी पापा के रिटायरमैंट में मिले उपहारों का अंबार लगाए बैठी थीं. देखते ही बोलीं, ‘‘मीनू इधर आ कर देख. तुझे क्याक्या ले जाना है… तेरे जाने की तैयारी कर रही थी.

मैं सोच रही थी तुझ से पूछ कर ही तेरा सामान पैक करूं?’’

मैं हैरान रह गई कि मुझ से पूछे बिना ही मेरी जाने की तैयारी शुरू हो गई. मैं मन ही मन टूट सी गई, क्योंकि मैं तो 8 दिन रहने का सपना संजो कर आई थी. यहां तो चौथे दिन ही विदा करने का मन बना लिया.

अनुभवी मां ने शायद हम तीनों भाईबहनों के ऊपर गहराते तनाव के बादल और गहरे होते देख लिए थे. मैं ने समझदारी से काम लेते हुए चेहरे पर निराशा का भाव न लाते हुए बड़ी सहजता से कहा, ‘‘अरे नहीं मम्मी, अभी 2 महीने पहले ही तो सब कुछ ले कर विदा हुई हूं. आप फिर शुरू हो गईं?’’

मम्मी ने चुपचाप पापा को मिले उपहारों में से कुछ उपहार छांट कर एक ओर रख दिए और बोलीं, ‘‘तूने तो कह दिया कुछ नहीं चाहिए, पर हमें तो अपने मानसम्मान का ध्यान रखना है… तेरी ससुराल वाले कहेंगे बेटी को खाली हाथ भेज दिया.’’

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मैं ने चुप रहने में ही भलाई समझी. चुपचाप सामान देखने लगी. कुछ सामान घरगृहस्थी के उपयोग का था. कुछ कपड़े थे. मैं ने सारा सामान समेटा और अपने सूटकेस में रखने जाने लगी. आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. शुक्र है कमरे में कोई नहीं था. अटैची खोली तो बड़े चाव से साथ लाए कपड़े मुंह चिढ़ाने लगे मानो पूछ रहे हों कितने अवसर मिले हमें पहनने के?

मन की वेदना कम करने के लिए अपनी सब से प्रिय सखी चित्रा को फोन किया पर वह भी शहर से बाहर गई हुई थी. समय काटे नहीं कट रहा था. जिस मायके आने के लिए इतनी ज्यादा उतावली हो रही थी वहां अब 1-1 पल गुजारना कठिन हो रहा था. समय जैसे रुक गया था.

कुछ देर पापा के पास बैठ कर उन से उन के आगे के प्लान पूछने लगी. वे भी निराश से ही थे. इतनी महंगाई में केवल पैंशन से गुजारा होना कठिन था. पापा भी हमेशा से स्वाभिमानी, गंभीर और मितभाषी रहे हैं. चाहते तो किसी अकाउंट विभाग में नौकरी कर सकते हैं, पर बेचारे कहने लगे, ‘‘मीनू मैं जानता हूं कि पैंशन के पैसे रोजमर्रा के खर्चों के लिए कम पड़ेंगे पर क्या करूं? सिफारिश का जमाना है. इस उम्र में नौकरी के लिए किस के आगे हाथ जोड़ूं?’’

यह सुन मन बहुत दुखी हो गया. मैं रोष से बोली, ‘‘आप लोगों ने मेरी शादी की बहुत जल्दी मचाई वरना उस समय मुझे अपने ही कालेज में लैक्चररशिप मिल रही थी. मैं ने आप लोगों से शादी न करने की कितनी जिद की थी पर आप दोनों माने ही नहीं.’’

पापा बोले, ‘‘मीनू बेटा कब तक तेरी शादी न करता बता? एक दिन तो तुझे जाना ही था. पराया धन कोई कब तक अपने घर में रख सकता है.’’

पापा की बात सुन कर मन फिर से खिन्न हो गया. यहां पर भी पराई और ससुराल में भी पराई… मन हाहाकार कर उठा. तो फिर मेरा कौन सा घर है? मैं हूं किस की? आंखें फिर बरसने लगी थीं. बड़ी कठिनाई से स्वयं को संभाल कर मम्मी के साथ किचन में हाथ बंटाने लगी.

मम्मी कहने लगीं, ‘‘आराम से बैठ. मैं सब कर लूंगी. अब तो अकेले ही सब करने की आदत पड़ गई है. रेनू तो किचन में झांकती भी नहीं. बस कालेज, पढ़ाई और कुछ नहीं.’’

मन तो हुआ कि रेनू की बात बता कर मम्मी को सजग कर दूं पर घर का माहौल और खराब न हो जाए, यह सोच कर चुप रही.

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अगले दिन सवेरे जल्दी उठ कर नहाधो कर तैयार हो गई. मन उचाट सा हो गया था. दिल कर रहा था जल्दी से निकल जाऊं. कम से कम घर का माहौल तो सामान्य हो जाए. जल्दीजल्दी नाश्ता किया. राजू ही छोड़ने जा रहा था. नीचे औटो आ गया तो मैं सब से मिलने लगी. मैं ने बड़े प्यार से आगे बढ़ कर रेनू को गले लगाया. वह अनमनी सी मेरे जाने के इंतजार में खड़ी थी. उस ने जल्द ही मुझे अपने से अलग कर लिया और सिर झुका कर खड़ी हो गई.

एक बार फिर मैं मम्मीपापा के गले लग कर रो पड़ी. उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेर कर चुप कराया. मैं भावों का और अधिक प्रदर्शन न करते हुए सीढि़यां उतर गई. राजू ने औटो में सामान रख दिया. पापा तो नीचे ही आ गए थे, परंतु मम्मी और रेनू ऊपर बालकनी में ही खड़ी थीं. मैं ने औटों में बैठ कर हाथ हिलाया. ऊपर से भी हाथ हिलते नजर आए. देखतेदेखते सब आंखों से ओझल हो गए.

इस प्रकार मायके से मेरी दूसरी बार विदाई हुई. बसस्टैंड पर बस खड़ी थी. राजू ने मुझे बस में बैठाया फिर बोला, ‘‘दीदी कालेज को देर हो रही है,’’ और फिर नीचे उतर गया.

उतर कर राजू ने एक बार बस की खिड़की की ओर पलट कर देखा. मैं उसी की ओर देख रही थी.

‘‘बाय,’’ कह वह तेजी से चलता हुआ भीड़ में गुम हो गया.

राजू के जाते ही मन में एक गहरी टीस उठी. मैं बस में बैठी सोचने लगी कि समय कैसे बदलता है. मैं रेनू और राजू दोनों की चहेती दीदी थी. हर काम में मुझ से सलाह मांगते थे. मुझ से पूछे बिना एक कदम भी नहीं उठाते थे. आज दोनों कैसे पराए से हो गए थे. मेरे मन में दोनों के गुमराह होने की शंका किसी नाग की तरह फन फैला रही थी.

ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही याद आया कि मायके से 8-10 दिन रहने की अनुमति ले कर गई थी पर 4 दिनों में ही लौट आई. कोई बहाना ही बनाना होगा. मेरे दिमाग ने काम किया. रवि भैया ने जैसे ही दरवाजा खोला मैं ने नकली मुसकान का मुखौटा ओढ़ लिया.

रवि हैरानी से बोला, ‘‘भाभी इतनी जल्दी कैसे? फोन कर देतीं. मैं लेने आ जाता.’’

हमारी आवाज सुन कर पापाजी आ गए.

मैं ने पापाजी के पैर छुए, फिर यभासंभव आवाज थोड़ी तेज कर के कहा, ‘‘वहां पापामम्मी का परिवार सहित भारतभ्रमण का कार्यक्रम पहले से ही तय था. वे सब मुझ से भी साथ चलने का अनुरोध कर रहे थे, पर मैं ने तो इनकार कर दिया. इसलिए जल्दी आना पड़ा.’’

मैं चाह रही थी कि अंदर कमरे में बैठी अम्मांजी भी सुन लें ताकि मुझे बारबार झूठ न बोलना पड़े. वैसे मेरा मन मुझे यह झूठ बोलने के लिए धिक्कार रहा था. अंदर अम्मां से जा कर भी मिली. उन्होंने बताया कि नीलम यहीं थी. कल ही गई है. दरअसल, कुछ दिन बाद उस की बचपन की सहेली दिव्या की शादी है. वह पड़ोस में ही रहती है, इसलिए वह शादी में शामिल होने के लिए 2-3 दिनों के लिए फिर आएगी.

मैं थोड़ी देर पापाजी और अम्मां के पास बैठी रही. वे रिटायरमैंट के कार्यक्रम के विषय में पूछते रहे. किसी ने भी चाय तो क्या पानी को भी नहीं पूछा. मेरा सिर थकावट व तनाव से फटा जा रहा था. फिर किचन में जा कर सब के लिए चाय बना कर लाई. चाय पी कर थोड़ा तरोताजा हो रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

2 दिन बाद ये भी मुंबई से लौट आए. इन का काम भी वहां जल्दी खत्म हो गया था. शेखर भी मुझे जल्दी आया देख कर चौंक गए. मैं ने मन में उठती टीस को दबाते हुए जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे वहां आप के आने की महक आने लगी थी, इसलिए भागीभागी चली आई.’’

ये भी मूड में आ गए. मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हंसते हुए किचन में घुस गई.

जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगी. मैं बारबार ससुराल में अपनेपन का सुबूत पेश करने की कोशिश में लगी रहती और ससुराल वाले उन सुबूतों को झूठा साबित करने के प्रयास में रहते. यही करतेकरते थोड़ा समय और बीत गया.

2 दिन बाद नीलम जीजी आने वाली थीं. उन के पति व्यस्त थे. उन्हें शादी में बरात के समय ही शामिल होना था. परंतु नीलम जीजी सभी कार्यक्रमों में शामिल होना चाहती थीं, इसलिए 2 दिन पहले ही आ रही थीं. नीलम जीजी के आने की खबर से घर में उत्साह की लहर फैली थी. उन की सहेली के परिवार वाले निमंत्रणपत्र देने आए तो बारबार सभी से विवाह में शामिल होने की मनुहार कर रहे थे.

ससुराल शहर में ही थी, इसलिए नीलम जीजी शाम को ही औटो से आईं. राहुल भी साथ था और बहुत सा सामान भी. घर में मैं और अम्मां ही थे. मैं किचन में लगी थी. वे सारा सामान अकेले ही ले कर अंदर आ गईं. सहेली के विवाह में शामिल होने आई थीं, इसलिए बहुत अच्छे मूड में थीं. मैं ने आगे बढ़ कर उन्हें गले लगाया. उन्होंने फिर पहले की तरह मुसकान दी और स्वयं को मुझ से अलग करते हुए अम्मां के पास चली गईं.

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अगले दिन दोपहर से संगीत का कार्यक्रम था. मुझे लगा कि मुझे भी नीलम साथ ले कर जाएंगी, इसलिए मैं जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

अचानक अम्मांजी की आवाज आई, ‘‘बहू, मेरा और नीलम का खाना मत बनाना. हमारा खाना वहीं होगा.’’

मैं आहत सी हो गई. मैं नईनवेली दुलहन पर मुझे तो कोई किसी योग्य समझता ही नहीं. मन मार कर काम में लग गई. तभी अचानक नीलम जीजी की जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. मैं डर गई कि क्या हुआ. कहीं राहुल को चोट तो नहीं लग गई. मैं आटे से सने हाथों को जल्दी से धो कर अंदर कमरे की ओर दौड़ी. अंदर जा कर देखा नीलम जीजी अपना सामान बिखराए रो रही थीं. अम्मांजी बैग खोल कर कुछ ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर मालूम चला कि नीलम दीदी का एक बैग शायद जल्दबाजी में औटोरिकशा में ही छूट गया. उस में उन के जेवर भी थे.

यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. अब तो औटोचालक की ईमानदारी पर ही उम्मीद लगाई कि शायद पुलिस स्टेशन में जमा करा दे अथवा घर आ कर लौटा जाए. नीलम को न तो औटो का नंबर याद था और न ही चालक का चेहरा. इस से परेशानी और बढ़ गई. घर में गहरा तनाव छा गया था.

पापाजी ने इन्हें भी औफिस से बुलवा लिया था. दोनों पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गए. पर वहां जा कर भी कोई ऐसी तसल्ली नहीं मिली जिस से तनाव कम हो जाता. बेटी का मायके आ कर जेवर खो देना मायके वालों के लिए बहुत बदनामी काकारण था. शेखर और रवि दोनों मिल कर जीजी को दिलासा दे रहे थे. नीलम जीजी एक ही प्रलाप किए जा रही थीं कि ससुराल जा कर क्या मुंह दिखाऊंगी. अम्मां औटो वाले को कोस रही थीं. मैं और पापाजी दोनों बेबस से खड़े थे.

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. मैं ने बड़ी कठिनाई से राहुल को दूध व बिस्कुट खिलाए. अगले दिन शाम तक न पुलिस स्टेशन से कोई खबर आई और न ही औटोचालक का ही कुछ अतापता मिला. सभी निराश हो चले थे. मुझे नीलम जीजी की दशा देख कर बहुत दुख हो रहा था. कितने उत्साह से विवाह में शामिल होने आई थीं और किस परेशानी में घिर गईं. अगर कभी मायके जा कर मेरे साथ यह घटना हो जाती तो? यह सोच मैं मन ही मन कांप गई. मेरे मन में विचारों की उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे नीलम जीजी की परेशानी दूर करूं.

अचानक दिमाग में बिजली कौंधी. मैं दृढ़ कदमों से अपने कमरे में गई और अपनी अलमारी से सारे जेवर निकाल लाई. जेवरों का डब्बा मैं ने नीलम जीजी को देते हुए कहा, ‘‘लो जीजी, ये जेवर आज से आप के हुए. मेरे तो फिर बन जाएंगे… अभी आप का जेवरों के कारण कोई अपमान नहीं होना चाहिए.’’

सभी हैरानी से मेरा मुंह देखने लगे मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो.

कुछ ही क्षणों बाद घर के सभी सदस्य गहने लेने से इनकार करने लगे तो मैं ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं जेवर, नीलम जीजी को दे कर कोई एहसान नहीं कर रही हूं. आप सब मेरा परिवार हैं. आप के मानअपमान में मैं भी बराबर की हिस्सेदार हूं. आजकल आएदिन लूटपाट की खबरें आती रहती हैं. गहने तो अधिकतर लौकरों की शोभा ही बढ़ाते हैं,’’ यह कह मैं किचन की ओर चल दी.

तभी नीलम जीजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगीं, ‘‘नहींनहीं भाभी मैं अपनी लापरवाही की सजा आप को नहीं दे सकती,’’ और फिर से जेवर वापस करने लगीं.

इस बार मैं ने उन्हें राहुल का वास्ता दे कर जेवर ले लेने को कहा. कोई चारा न देख कर उन्होंने जेवर ले लिए.

शेखर और रवि भैया मुझे प्रशंसाभरी नजरों से देख रहे थे.

पापा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘बहू, इस समय जो तुम ने हमारे लिए किया उसे हम जीवन भर नहीं भुला पाएंगे.’’

हर समय पराए घर की और पराया खून की रट लगाने वाली अम्मांजी लज्जित सी सिर झुकाए बैठी थीं. जेवरों का यों खो जाना कोई मामूली चोट न थी. फिर भी फिलहाल उस पर मरहम लगा दिया. सभी बेमन से थोड़ाबहुत खा कर सो गए.

नीलम जीजी जैसेतैसे सहेली की शादी निबटा कर चली गईं. ससुराल में जा कर बताया कि भाभी के जेवर नए डिजाइन के थे, इसलिए उन से बदल लिए. उन की ससुराल वाले खुले विचारों के लोग थे. अत: उन्होंने कोई पूछताछ नहीं की.

इस घटना के बाद से सब का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया. शेखर बाहर घुमाने भी ले जाने लगे. खाना बन जाने पर रवि भैया और शेखरजी डाइनिंगटेबल पर प्लेटें, डोंगे रखवाने में मेरी मदद करते. खाने के समय सब मेरा इंतजार करते.

एक दिन तो अम्मां ने यहां तक कह दिया, ‘‘बहू रोटियां बना कर कैसरोल में रख लिया करो. सब के साथ ही खाना खाया करो.’’

मैं मन ही मन इस बदलाव से खुश थी. पर मन में रेनू और राजू की चिंता, किसी फांस की तरह चुभती रहती. मैं ऊपर से सामान्य दिखने का प्रयत्न करती रहती.

मुझे सहारनपुर से लौटे लगभग 2 महीने होने को आए थे.

पापा का 2-3 बार कुशलमंगल पूछने के लिए फोन आ चुका था. मम्मी से भी बात हो गई थी. रेनू और राजू से एक बार भी बात नहीं हो पाई. उन के बारे में जब भी पूछा, पापा ने घर पर नहीं हैं कह कर बहाना बना दिया. हो सकता है वे दोनों बात करना न चाहते हों.

कल रात जब खाना बना रही थी तो सहारनपुर से पापा का फोन आया. घबराए हुए थे. उन्होंने कहा, ‘‘मीनू बेटी, तेरी मम्मी की तबीयत खराब है, उन्हें पीलिया हो गया है. तुम्हें बहुत याद कर रही हैं.’’

मैं समझ गई मम्मी की तबीयत ज्यादा ही खराब होगी. तभी पापा ने मुझे फोन किया वरना नहीं करते. मेरी आंखें भर आईं. मैं ने पापा को आने का आश्वासन दे कर फोन काट दिया.

पीछे मुड़ी तो कमरे में अम्मां और पापाजी खड़े थे. मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर पूछने लगे, ‘‘बहू, मायके में सब कुशलमंगल तो है?’’

मम्मी की तबीयत के बारे में बतातेबताते मैं रो पड़ी.

अम्मां ने मुझे सांत्वना दी. पापाजी ने कहा, ‘‘तुम सुबह ही शेखर को ले कर चली जाओ. मम्मी की देखभाल करो. शेखर के पास छुट्टियां कम हैं पर 1-2 दिन रह कर लौट आएगा. तुम जितने दिन चाहो रह लेना.’’

अगले दिन मैं और शेखर सहारनपुर जा पहुंचे. सारा घर अस्तव्यस्त हो रखा था. मैं ने मम्मी को देखा तो हैरान रह गई. वे बहुत कमजोर हो गई थीं. आंखों में बहुत पीलापन आ गया था.

इलाज तो चल ही रहा था, पर मुझे तसल्ली न हुई. मैं और शेखर मम्मी को दूसरे डाक्टर के पास ले गए. शहर में इन का अच्छे डाक्टरों में नाम आता था. मुआयना करने के बाद डाक्टर ने कहा कि मर्ज काफी बढ़ गया है, पर परहेज और आराम करने से सुधार आ सकता है.

घर पहुंचने पर पाया रेनू और राजू भी आ गए थे. मुझे देख कर दोनों के चेहरे उतर गए, पर मैं भी उन से औपचारिक बातें ही करती.

चौथे दिन मम्मी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा. पापा के चेहरे पर भी रौनक लौट आई. यह देख बहुत अच्छा लगा. दोपहर को मैं मम्मी को खिचड़ी खिलाने लगी. घर में कोई नहीं था. मम्मी ने खिचड़ी खा कर प्लेट एक ओर रख कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर अपने पास ही बैठा लिया. उन की आंखों में आंसू थे.

वे रोते हुए बोलीं, ‘‘मीनू, बेटी पिछली बार हम से तुम्हारा बड़ा अपमान हो गया था. मुझे माफ कर दे बेटी. मैं मजबूर हो गई थी,’’ और फिर मेरे सामने हाथ जोड़ने लगीं.

मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने उन के हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, आप यह क्या कर रही हैं? आप न तो पिछली बातें सोचेंगी और न ही कहेंगी. बस अपनी सेहत पर ध्यान दें.’’

धीरेधीरे मां खुलती गईं. अपनी मन की पीड़ा से मुझे अवगत कराने लगीं. उन्होंने बताया कि रेनू किस तरह घर के प्रति लापरवाह हो गई है. जब से बीमार हुईं हूं सवेरे ही कुछ बना कर डाइनिंगटेबल पर रख जाती है. शाम को भी यही हाल है. जल्दबाजी में कुछ भी कच्चापक्का बना कर दे देती है. कुछ कहो या पूछो तो गुस्सा हो जाती है.

10 साल- भाग 3: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

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दादी बनने का हक हम ने पूरी तरह निभाया. न तो हम ने अपने कपड़ों का ध्यान रखा, न ही चश्मे का. गीता हम इसलिए नहीं पढ़ते थे कि असली गीतापाठ तो यही है, सारा परिवार हमारे कर्मों से खुश रहे. हम पूरी तरह बच्चों को संभालने में रम गए. बहुओं को यह कह कर छुट्टी दे दी, ‘‘अभी तुम लोगों के खानेपीने के दिन हैं, मौज करो, बालगोपाल को हम संभाल लेंगे.’’ हम ने इस बात का बहुत खयाल रखा कि हम बच्चों को इतना प्यार भी न दें कि वे बिगड़ जाएं और हमारे बेटों को सुनना पड़े, ‘तुम्हारी मां ने तुम लोगों को तो इंसान बना दिया था, पर हमारे बच्चों को क्यों जानवर बना डाला?’ बच्चे बड़े हुए तो बहुत डर लगा, अब तक तो सब ठीक था. अब हुआ हमारे बुढ़ापे का कबाड़ा, न चश्मा मिलेगा, न कोई किताब, न ही चप्पलें. मसलन, हमें दिनभर अपने सामान की चिंता करनी पड़ेगी. अब सास की बड़ी याद आई, जिस ने हमारे बच्चों से परेशान हो कर हमें कहा था, ‘जब तुम सास बनो तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्गति हो.’

हम ने सास के अनुभव को याद कर के बड़ा फायदा उठाया. सास बच्चों को ले कर हमें कोसती थी. लेकिन मैं ने सोचा, ‘मैं बहुओं को नहीं कोसूंगी. उन से प्यार करूंगी. वे स्वयं अपने बालगोपाल को संभाल लेंगी.’ मेरा नुस्खा कारगर साबित हुआ. मैं कहीं भी चीज रख कर भूल जाती तो बच्चों से उन की मां कहती, ‘‘देखें, दादी मां को चीज ढूंढ़ कर कौन देता है.’’ असर यह हुआ कि वे हमारी चीज बिना गुमे ही ढूंढ़ने लगते. तुतला कर पूछते, ‘‘दादी मां, तुच्छ दुमा तो नहीं. धूंध लाऊं.’’ मुझे खानेपीने में देर हो जाती तो वे हम से रूठ जाते. हमारे मुंह में बिस्कुट डाल कर कहते, ‘‘पहले हमाला बिचकत था लो, नहीं तो हम तुत्ती कल देंगे.’’ और अपना हिस्सा खुशीखुशी हमारे पोपले मुंह में डाल देते. मैं खुश हो कर सोचती, ‘अब यह वृद्धावस्था बनी ही रहे तो अच्छा है. कहीं जल्दी चली न जाए.’ अब तो विजयश्री पूरी तरह मेरे हाथ थी. छोटे से ले कर बड़े तक हमारे गुण गाते नहीं थकते थे. आतेजाते के सामने हमारी प्रशंसा होती. पतिदेव की खुशी का ठिकाना नहीं था. हमेशा याद दिलाते, ‘‘तुम्हारी बुद्धिमत्ता से अपनी वृद्धावस्था बड़े मजे में कट रही है.’’ हम ने भी बच्चों को खुश रखने का गुण सीख लिया है. रात को सोने से पहले उन्हें कहानी जरूर सुनाता हूं.

अब घर में कुछ भी आता, हमारा हिस्सा जरूर होता. सब के कपड़ों के साथ हमारे कपड़े भी बनते, जिसे हम खुशी से बहुओं में ही बांट देते. हमारे बालगोपाल तो हमारा इतना ध्यान रखते कि हमें अकेला छोड़ कर वे अपने मांबाप के साथ भी कहीं जाने को तैयार नहीं होते थे.

हम नन्हेमुन्नों को कहानियां ही ऐसी सुनाते थे कि फलां परी का पोता, अपनी दादी से इतना प्यार करता था, उस का इतना खयाल रखता था कि सब उस की तारीफ करते थे. सभी उस बच्चे को बहुत प्यार करते थे. अब बच्चों में होड़ लग जाती कि कौन हमारा सब से अधिक खयाल रखता है ताकि आनेजाने वालों के सामने उस की प्रशंसा की जाए और उसे शाबाशी मिले. दूसरा काम मैं ने यह किया कि बच्चों को यह सिखा दिया कि अपने मम्मीडैडी का सब से पहले कहना मानना चाहिए. हमें डर था कि कहीं बच्चे सिर्फ हमारा ही कहना मानते रहे तो हो सकता है, हमारे खिलाफ बगावत हो जाए और हम मोरचा हार जाएं. गजब तो उस दिन हुआ, जब इतना ज्यादा प्यार हमारे दिल को सदमा दे गया. हुआ यह कि हमारे नन्हेमुन्नों की मां एक बहुत सुंदर साड़ी लाई थी. वह हमें भी दिखाई गई. उस समय नन्हा भी मौजूद था. यह तो मैं बताना भूल ही गई कि घर में जो कुछ भी आता था, सब से पहले हमें दिखाया जाता था, क्योंकि हम ने अपनी बहुओं को बातोंबातों में कई बार जता दिया था कि हम तो अपनी सासजी को दिखाए बगैर कुछ पहनते ही नहीं थे. जब वे देख लेतीं तब हम उस वस्तु को अपनी अलमारी में शरण देते थे. सो, बहुओं की भी यह आदत बन गई थी. हमें पता था, हमारी सास तो जिंदा है नहीं, जो वे उस से वास्तविकता पूछने जाएंगी.

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मैं बता रही थी न कि हमें साड़ी बहुत पसंद आई थी. नन्हा बोला, ‘‘दादी मां, यह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, बहुत अच्छी है,’’ हम ने प्यार करते हुए कहा.

‘‘तो यह तुम ले लो,’’ वह हमारे गले में बांहें डालता हुआ बोला.

‘‘मेरे तो बाल सफेद हो गए, बेटा. मैं इसे अब क्या पहनूंगी,’’ मैं ने मायूसी से कहा.

‘‘तो ऐसा करते हैं, दादी मां, इसे हम तुम्हारे लिए रख लेते हैं,’’ प्यार से बोला वह.

‘‘मेरे लिए क्यों रख लोगे?’’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘‘हम तुम्हारे ऊपर कफन डालेंगे,’’ वह भोलेपन से बोला था.

‘‘क्या बकवास कर रहा है, जानता है कफन क्या होता है?’’ मम्मी ने उसे डांटा.

‘‘हांहां, जानता हूं, सोमू की दादी मरी थी तो तुम ने डैडी से नहीं कहा था, ‘बहूबेटे ने अपनी मां पर बहुत अच्छा कफन डाला था.’ नन्हा झिड़की खा कर रोंआसा हो गया था. बस, इसी बात का सदमा मेरे मन में बैठ गया है. मैं सोचती हूं इतना प्यार भी किस काम का, जो मरने से पहले कफन भी संजो कर रखवा दे. मुन्ने ने जब से अपनी मां से साड़ी का कफन बनाने के लिए कहा था, वह साड़ी रख दी गई थी, शायद मुन्ने की मां के मन में कफन का नाम सुन कर वहम आ गया था. शायद इसीलिए उस ने उसे नहीं पहना. मेरी परेशानी का अंत नहीं है. मैं अब किस से कहूं, किस नीति का सहारा लूं? कहने से भी डरती हूं. परिवार वाले तो अलग, अपने पति से भी नहीं कह सकती कि मेरा कफन आ गया है. सोचती हूं, क्या कहेंगे, ‘कहां वृद्धावस्था आने से पहले ही मरना चाहती थी. अब जीवन से इतना मोह हो गया है कि मरना ही नहीं चाहती.’  अब तो मुन्ने पर गुस्सा कर के मन ही मन यही कहती हूं. ‘तेरा इतना प्यार भी किस काम का. काश, तू 10 साल बाद पैदा होता ताकि इतनी जल्दी मेरे कफन की व्यवस्था तो न होती.’

यह कैसी विडंबना- भाग 2: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

‘‘कोई भी बाई इन के घर में काम नहीं करती. आंटी उसी पर शक करने लगती हैं. कुछ तो हद होनी चाहिए. शर्मा अंकल बेचारे भरी दोपहरी में बाहर पार्क में बैठे रहते हैं. घर में 4-4 ए.सी. लगे हैं मगर ठंडी हवा का सुख उन्हें घर के बाहर ही मिलता है. महल्ले में कोई भी इन से बात नहीं करता. क्या पता किस का नाम कब किस के साथ जोड़ दें.’’

‘‘आंटी पागल हो गई हैं क्या? हर शौक की एक उम्र होती है. इस उम्र में पति पर शक करना यह तो बहुत खराब बात है न.’’

‘‘इसीलिए तो हर सुनने वाला पहले सुनता है फिर दुखी होता है क्योंकि इतनी समृद्ध जोड़ी की जीवनयात्रा का अंतिम पड़ाव इतना दुखदाई नहीं होना चाहिए था.’’

5-6 दिन बीत गए. सामने वाले घर से कोई आवाज नहीं आई तो मुझे लगा शायद मैं ने जो सुना वह गलत होगा. बहुत नखरा होता था शर्मा आंटी का, आम इनसान से तो वे बात भी करना पसंद नहीं करती थीं. जो इनसान आम जीवन न जीता हो उसी का स्तर जब आम से नीचे उतर जाए तो सहज ही विश्वास नहीं न होता.

एक सुबह दरवाजे की घंटी बजी तो सामने शर्मा आंटी को खड़े पाया. सफेद सूट में बड़ी गरिमामयी लग रही थीं. शरीर पर ढेर सारे सफेद मोती और कानों में दमकते हीरे. उंगलियां महंगी अंगूठियों से सजी थीं.

‘‘अरे, आंटी आप, आइएआइए.’’

‘‘मुझे पता चला कि तुम वापस आ गई हो इस घर में. सोचा, मिल आऊं.’’

मेरी मां की उम्र की हैं आंटी. उन्हें आंटी न कहती तो क्या कहती.

‘‘अरे, मिसेज शर्मा कहो. आंटी क्यों कह रही हो. हमउम्र ही तो हैं हम.’’

पहला धक्का लगा था मुझे. जवाब कुछ होता तो देती न.

‘‘हां हां, क्यों नहीं…आइए, भीतर आइए.’’

‘‘नहीं ममता, मैं यह पूछने आई थी कि तुम्हारी बाई आएगी तो पूछना मेरे घर में काम करेगी?’’

‘‘अरे, आइए भी न. थोड़ी देर तो बैठिए. बहुत सुंदर लग रही हैं आप. आज भी वैसी ही हैं जैसी 15 साल पहले थीं.’’

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‘‘अच्छा, क्या तुम्हें आज भी वैसी ही लग रही हूं. शर्माजी तो मुझ से बात ही नहीं करते. तुम्हें पता है इन्होंने एक लड़की रखी हुई है. अभी कुछ महीने पहले ही लड़की पैदा की है इन्होंने. कहते हैं आदमी हूं नामर्द थोड़े हूं. 4 बहनें रहती हैं पीछे कालोनी में, वहीं जाते हैं. चारों के साथ इन का चक्कर है. इस उम्र में मेरी मिट्टी खराब कर दी इस आदमी ने. महल्ले में कोई मुझ से बात नहीं करता.’’

रोने लगीं शर्मा आंटी. तब तरस आने लगा मुझे. सच क्या है या क्या हो सकता है, जरा सा कुरेदूं तो सही. हाथ पकड़ कर बिठा लिया मैं ने. पानी पिलाया, चाय के लिए पूछा तो वे आंखें पोंछने लगीं.

‘‘छोडि़ए शर्माजी की बातें. आप अपने बच्चों का बताइए. अब तो पोतेपोतियां भी जवान हो गए होंगे न. क्या करते हैं?’’

‘‘पोती की शादी मैं ने अभी 2 महीने पहले ही की है. पूरे 5 लाख का हीरे का सेट दिया है विदाई में. मुझे तो सोसाइटी मेें इज्जत रखनी है न. इन्हें तो पता नहीं क्या हो गया है. जवानी में रंगीले थे तब की बात और थी. मैं अपनी सहेलियों के साथ मसूरी निकल जाया करती थी और ये अपने दोस्तों के साथ नेपाल या श्रीनगर. वहां की लड़कियां बहुत सुंदर होती हैं. 15-20 दिन खूब मौज कर के लौटते थे. चलो, हो गया स्वाद, चस्का पूरा. तब जवानी थी, पैसा भी था और शौक भी था. मैं मना नहीं करती थी. मुझे ताश का शौक था, अच्छाखासा कमा लेती थी मैं भी. एकदूसरे का शौक कभी नहीं काटा हम ने.’’

मैं तो आसमान से नीचे गिरने लगी आंटी की बातें सुन कर. मेरी मां की उम्र की औरत अपनी जवानी के कच्चे चिट्ठे आम बातें समझ कर मेरे सामने खोल रही थी. सरला ने भी बताया था कि शहर के अमीर लोगों के साथ ही हमेशा इन का उठनाबैठना रहा है.

‘‘पक्की जुआरिन थीं शर्मा आंटी. आज भी ताश की बाजी लगवा लो. बड़ेबड़ों के कान कतरती हैं. पैसा दांतों से पकड़ती हैं…बातें लाखों की करेंगी और काम वाली बाई और माली से पैसेपैसे का हिसाब करेंगी.’’

सरला की बातें याद आने लगीं तो आंटी की बातों से मुझे घिन आने लगी. कितनी सहजता से अपने पति की जवानी की करतूतों का बखान कर रही हैं. पति हर साल नईनई लड़कियों का स्वाद चखने चला जाता था और मैं मसूरी निकल जाती थी.

‘‘बच्चे कहां रहते थे?’’ मैं ने धीरे से पूछा था.

‘‘मेरी बड़ी बहनें मेरे तीनों लड़कों को रख लेती थीं. आज भी सब मेरी खूबसूरती के चर्चे करते हैं. मैं इतनी सुंदर थी फिर भी इस आदमी ने मेरी जरा भी कद्र नहीं की. मैं क्या से क्या हो गई हूं. देखो, मेरे हाथपैर…इस आदमी के ताने सुनसुन कर मेरा जीना हराम हो गया है.’’

‘‘आप अपनी पुरानी मित्रमंडली में अपना दिल क्यों नहीं लगातीं? आखिर आप की दोस्ती, रिश्तेदारी इसी शहर में ही तो है. कहीं न कहीं चली जाया करें. आप के भाईबहन, आप की भाभी और भतीजीभतीजे…’’

‘‘शर्म आती है मुझे उन के घर जाने पर क्योंकि इन की वजह से मैं हर जगह बदनाम होती रहती हूं.’’

मैं सोचने लगी, बदनाम तो आंटी खुद कर रही हैं अपने पति को. पहली ही मुलाकात में उन्हें नंगा करने का क्या एक भी पल हाथ से जाने दिया है इन्होंने. मुझे भला आंटी कितना जानती हैं, जो लगी हैं रोना रोने.’’

उस दिन के बाद शर्मा आंटी अकसर आने लगीं. उन की छत पर ही धूप आती थी पर उन से चढ़ा नहीं जाता था. इसलिए वे मेरे आंगन में धूप सेंकने आ जाती थीं. अपनी जवानी के हजार किस्से सुनातीं. कभी शर्मा अंकल भी आ जाते तो नमस्ते, रामराम हो जाती. एक दिन दोनों बनठन कर कहीं गए. साथसाथ थे, खुश थे. मुझे अच्छा लगा.

दूसरे दिन दोनों साथसाथ ही धूप सेंकने आ गए. मैं ने चायपानी के लिए पूछा. वृद्ध हैं दोनों. मैं जवान न सही फिर भी उन से 25-30 साल पीछे तो चल ही रही हूं. उस दिन मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था. सोचा पूछ लूं.

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‘‘सच्ची में, मुझे तो सदियां हो गईं खाए.’’

‘‘आप खाएंगी तो ले आऊं?’’

‘‘हां, हां,’’ खुशी से भर उठीं आंटी.

दोनों ने उस दिन मेरे साथ ही दोपहर का खाना खाया. काफी देर गपशप भी करते रहे. शाम को मेरे पति आए तो हम दोनों उन के घर उन से मिलने भी चले गए. अच्छे पड़ोसी बन गए वे हमारे.

सरला हैरान थी.

‘‘बड़ी शांति है, जब से तुम आई हो वरना अब तक दस बार तमाशा हो चुका होता.’’

‘‘मेरी तो शर्मा आंटी से अच्छी दोस्ती हो गई है. अकसर कोई तीसरा आ जाए बीच में तो लड़ाई खत्म भी हो जाती है.’’

‘‘और कई बार तीसरा बुरी तरह पिस भी जाता है. अपना ध्यान रखना. इन्होंने तो अपनी उतार ही रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें,’’ सरला ने समझाया था मुझे, ‘‘बड़ी लेखिका बनी फिरती हो न. शर्मा आंटी जो कहानियां गढ़ लेती हैं उस से अच्छी तो तुम भी नहीं लिख सकतीं.’’

दीवाली के आसपास 3-4 दिन के लिए हम अपनी बेटी के पास जम्मू चले गए.

अब और नहीं- भाग 1: आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

Writer- ममता रैना

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

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‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

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अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

बैलेंसशीट औफ लाइफ- भाग 2: अनन्या की जिंदगी में कैसे मच गई हलचल

सुमित और राहुल के आने तक अनन्या ने प्रत्यक्षतया तो स्वयं को सामान्य कर लिया था, पर अंदर ही अंदर बहुत दुखी व उदास थी. अगले दिन औफिस जाते हुए वह एक मशहूर बुकशौप पर गई. ‘न्यू कौर्नर’ में उसे ‘बैलेंसशीट औफ लाइफ’ दिख गई. उसे खरीद कर उस ने छुट्टी के लिए औफिस फोन किया और फिर घर वापस आ गई.

सुमित और राहुल तो जा चुके थे, बैड पर लेट कर उसने बुक पढ़नी शुरू की. राघव के जीवन के आरंभिक काल में उस की कोई रुचि नहीं थी. उस ने वहां से पन्ने पलटने शुरू किए जहां से उसे अंदाजा था कि उस का जिक्र होगा. उस का अंदाजा सही था. कालेज के दिनों में उस ने स्वयं को अनन्या नाम की क्लासमेट का हीरो बताया था. जैसेजैसे उस ने पढ़ना शुरू किया, क्रोध से उस का चेहरा लाल होता चला गया. लिखा था, ‘मेरा पूरा ध्यान बड़ा आदमी बनने में था. मैं आगे, बहुत आगे बढ़ना चाहता था, पर अनन्या का साथ मेरे पैरों की बेड़ी बन रहा था. मैं उस समय किसी भी लड़की को गंभीरतापूर्वक नहीं सोचना चाहता था पर मैं भी एक लड़का था, युवा था, कोई खूबसूरत लड़की मुझे पूर्ण समर्पण का निमंत्रण दे रही थी तो मैं कैसे नकार देता?

‘कुछ पलों के लिए ही सही, उस के सामीप्य में मेरे कदम डगमगाते तो जरूर पर उस के प्यार और साथ को मैं मंजिल नहीं समझ सकता था. पर हर युवा की तरह मैं भी ऐसी बातों में अपना कुछ समय तो नष्ट कर ही रहा था. एक अनन्या ही नहीं, उस समय एक ही समय पर मेरे 3-4 लड़कियों से शारीरिक संबंध बने, मेरे लिए ये लड़कियां बस सैक्स का उद्देश्य ही पूरा कर रही थीं.’ अनन्या ने इस के आगे कुछ पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझी, उन पलों के पीछे इतना कटु सत्य था. उस ने स्वयं को अपमानित सा महसूस किया. आंखों से आंसू बह निकले. प्रेम के जिस कोमल एहसास में भीग कर एक लड़की एक लड़के को अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है, उस लड़के के लिए वह कुछ महत्त्व नहीं रखता? किसी पुरुष के लिए लड़कियों की भावनाओं से खेलना इतना आसान क्यों हो जाता है? अनन्या अजीब सी मनोस्थिति में आंखें बंद किए बहुत देर तक यों ही पड़ी रही.

फिर उस ने मेघा को फोन मिलाया, ‘‘मेघा, मैं राघव को सबक सिखा कर रहूंगी. छोड़ूगी नहीं उसे.’’

‘‘क्या करेगी, अनन्या? इस में खुद ही तुम्हें तकलीफ न उठानी पड़े… वह अब एक मशहूर आदमी है.’’ ‘‘होगा बड़ा आदमी. मेरे बारे में लिख कर किसी लड़की की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की सजा तो उसे जरूर दूंगी मैं. उस का नंबर चाहिए मुझे, प्लीज, मेघा इस में हैल्प कर.’’

‘‘अनन्या, दिल्ली में अगले ही हफ्ते हमारे कालेज के एक प्रोग्राम में वह मुख्य अतिथि बन कर आ रहा है, मैं ने यह सुना है.’’ ‘‘ठीक है, थैंक्स, मैं आ रही हूं.’’

‘‘सुन तो.’’ ‘‘नहीं, बस अब वहीं आ कर बात करूंगी.’’

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अनन्या ने मन ही मन बहुत देर सोच लिया था कि सुमित से कहेगी कि अपने मम्मीपापा से मिलने का मन कर रहा है. वह दिल्ली जा रही है. राघव को सब के सामने ऐसे लताड़ेगी कि याद रखेगा. मौकापरस्त, लालची? शाम को सुमित और राहुल कुछ जल्दी ही आए. सुमित ने बहुत ही चिंतित स्वर में आते ही कहा, ‘‘उफ अनु, तुम कहां हो? तुम ने आज फोन ही नहीं उठाया. मुझे लगा किसी मीटिंग में होगी और यह चेहरा इतना क्यों उतरा है?’’

सुमित के प्यार भरे स्वर से अनन्या की आंखें झरझर बहने लगीं. राहुल उस से लिपट गया, ‘‘क्या हुआ, मम्मा?’’

‘‘कुछ नहीं, बेटा,’’ कहते हुए अनन्या ने उसे प्यार किया. ‘‘अनन्या, तुम घर कब आईं?’’

‘‘आज औफिस गई ही नहीं?’’ ‘‘अरे, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? लंच तो किया था न?’’

‘‘नहीं, भूख नहीं थी. सौरी, सुमित, मेरा फोन साइलैंट था आज.’’ इतने में ही सुमित की नजर बैड पर जैसे फेंकी गई स्थिति में उस बुक पर पड़ी जिस ने अनन्या को बहुत परेशान कर दिया था. सुमित ने बुक उठाई. एक नजर डाली, फिर वापस रख दी कहा, ‘‘मैं अभी आया. तुम आराम करो?’’ सुमित ने खुद फ्रैश हो कर राहुल के हाथमुंह धुला कर कपड़े बदलवाए. इतने में अनन्या 2 कप चाय और राहुल के लिए दूध और नाश्ता ले आई. तीनों ने कुछ चुपचाप ही खायापीया.

राहुल को टीवी पर कार्टून देखने के लिए कह कर सुमित बैड पर अनन्या के पास ही आ कर बैठ गया. अनन्या का मन कर रहा था अपने मन की पूरी बात सुमित से शेयर कर ले पर उस ने कुछ सोच कर स्वयं को रोक लिया. सुमित ने अनन्या का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. फिर कहा, ‘‘अनन्या, राघव की बुक से इतनी टैंशन में आने की जरूरत नहीं है.’’

अनन्या को हैरत का एक तेज झटका लगा. बोली, ‘‘यह सब पता है तुम्हें?’’ ‘‘हां, इस बुक को मार्केट में आए 1 महीना हो चुका है. पैसे से तो बड़ा आदमी बन गया वह, पर मानवीय मूल्यों को समझ ही नहीं पाया. ऐसे लोगों को मैं मानसिक रूप से गरीब ही समझता हूं.’’ अब अनन्या स्वयं को रोक नहीं पाई. सुमित के गले में बांहें डाल कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘अरे अनु, तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है. मैं अतीत की बात वर्तमान में करने में विश्वास ही नहीं रखता. वह उस उम्र की बात थी. उस का आज हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है.’’ सुमित के गले लगी अनन्या देर तक अपना मन हलका करती रही. सुमित उस की पीठ पर हाथ फेरता हुआ उसे शांत करता रहा. सुबकियों के बीच भी सुमित जैसा पति पा कर अनन्या स्वयं को धन्य समझती रही थी.

थोड़ी देर बाद अनन्या ने पूछा, ‘‘इस बुक के बारे में तुम्हें कैसे पता चला?’’ ‘‘दिल्ली में मेरा दोस्त, जो किताबी कीड़ा है,’’ मुसकराते हुए कहा सुमित ने, ‘‘अनुज ने इसे पढ़ा था, उस ने मुझ से फोन पर मजाक

बिन सजनी घर- भाग 1: मौली के जाने के बाद क्या हुआ

टिंगटौंग, टिंगटौंग…लगातार बजती दरवाजे की घंटी से समीर हड़बड़ा कर उठ बैठा. रात पत्नी मौली को मुंबई के लिए रवाना कर एयरपोर्ट से लौटा तो घोड़े बेच कर सोया था. आज दूसरा शनिवार था, औफिस की छुट्टी जो थी, देर तक सोने का प्लान किस कमबख्त ने भंग कर दिया. वह अनमनाया सा स्लीपर के लिए नीचे झुका, तो रात में उतार फेंके बेतरतीब पड़े जूतेमोजे ही नजर आए. घंटी बजे जा रही थी, साथ ही मेड की आवाज-

‘‘अब जा रही हूं मैं, साहब, 2 बार पहले भी लौट चुकी हूं.’’

समीर ने घड़ी देखी, उफ, 10 बज गए, मर गया, ‘‘अरे रुको, रुको, आता हूं.’’ वह नंगेपांव ही भागा. मोजे के नीचे बोतल का ढक्कन, जो कल पानी पी कर बेफिक्री से फेंक दिया था, पांव के नीचे आया और वह घिसटता हुआ सीधा दरवाजे से जा टकराया. माथा सहलाते हुए दरवाजा खोला, तो मेड ने गमले के पास पड़ी दूध की थैली और अखबार उसे थमा दिए.

‘‘क्या साहब, चोट लगी क्या?’’ खिसियाया सा ‘कोई नहीं’ के अंदाज में उस ने सिर हिलाया था.

‘‘मैं तो अब वापस घर को जाने वाली थी,’’ कह कर रामकली ने दांत निपोरे, ‘‘घर पर बच्चे खाने के लिए बैठे होंगे.’’

‘‘अरे मुझे क्यों थमा रही है, बाकी काम बाद में करना, पहले मुझे चाय बना दे और यह दूध भी उबाल दे. बाकी मैं कर लूंगा,’’ समीर माथा सहलाते स्लीपर ढूंढ़ता बाथरूम की ओर बढ़ गया.

चाय तैयार थी. उस ने टीवी औन किया, न्यूज चैनल लगा, चाय की चुस्कियों के साथ पेपर पढ़ने लगा.

साहब, ‘‘मोटर सुबह नहीं चलाया क्या आप ने, पानी बहुत कम कम आ रहा, ऐसे तो काम करते घंटों लग जाएंगे, साहब.’’

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समीर की जबान दांतों के बीच आ गई. शाम को मौली ने मेरे कपड़े धोए थे, बोला भी था कि सुबह मोटर याद से चला लेना वरना पानी नहीं मिलेगा?

‘‘मैं भूल गया, खाली किचेनकिचेन कर लो और जाओ. वैसे भी घर कोई गंदा नहीं रहता. मौली फुजूल में करवाती रहती है सफाई, कुछ ज्यादा ही शौक है उसे.’’

काम खत्म कर मेड जाने को हुई, ‘‘बाहर बालकनी से कपड़े याद से उतार लेना, साहब, अभी सूखे नहीं. बारिश वाला मौसम हो रहा है. दरवाजा बंद कर लो, साहब.’’ वह चली गई.

‘‘ठीक है, ठीक है, जाओ.’’

चलो बला टली. अब आराम से जैसे चाहे रहूंगा. वह सोफे पर कुशन पर कुशन लगा टांगें फैला कर लेट गया. कितना आराम है. वाह, 2 बजे मैच शुरू होने वाला है, अब मजे से देखूंगा. वरना मौली सोफे पर कहां लेटने देती. उस के दिमाग में अचानक आया कि रोहित, जतिन, सैम को भी साथ मैच देखने के लिए बुला लेता हूं, कुछ दिन तो पहले सी आजादी एंजौय करूं.

उस ने कौल किया तो एक के साथ दोदो और आ गए.

‘‘अरे वाह, यार रितेश, विवेक, मोहित तुम भी. अरे वाह, कमाल हो गया, यार, कितने दिनों बाद हम मिले.’’

‘‘तेरी तो शादी क्या हुई, दोस्तों को पराया ही कर दिया, और आज बुलाया है वह भी जब भाभी घर पर नहीं.’’

‘‘तभी तो हिम्मत पड़ी बेचारे की,’’ सभी हंसने लगे.

‘‘यार, कहां भेज दिया भाभी को?’’

‘‘और कहां, मुंबई यार, हफ्तेदस दिनों के लिए. मायका भी है और उस की सहेली की शादी भी.’’

‘‘तब तो आजादी, बेटा समीर, 10 दिन मजे कर.’’

‘‘अच्छा, बोल, चाय या कौफी पीनी है तुम सब को? हां, तो किचेन उधर है और फ्रिज इधर. बना लो मेरे लिए भी.’’ समीर हंसा था.

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फिर तो जिस का मन जो आया, जब आया, बनाया, खायापिया. खाना समीर ने बाजार से मंगवा लिया. डायनिंग टेबल तक कोई न गया, वहीं सोफे के पास सैंटर टेबल घसीट कर सब ने खापी लिया. मैच खत्म हुआ तो जीत का जश्न मनाने के लिए पिज्जापेस्ट्री की पार्टी हुई. सारे घर में हर प्रकार के जूठे बरतनों की नुमाइश सी लग गई. खानेपीने के सामान भी मनमरजी से बिखरे पड़े थे जैसे. उन के जाने के बाद समीर का ध्यान घर के बिगड़े नक्शे की ओर गया, शुक्र मनाया कि मौली घर पर नहीं है, वरना इतना एंजौय न कर पाता. वह अभी ही बिखरा हुआ सब सही करवाती. कोई नहीं, कल छुट्टी है. कौन सा औफिस जाना है, मिनटों में सब अस्तव्यस्त ठीक कर लूंगा कल. तभी बिजली कड़की और घर की लाइट गुल हो गई. घुप अंधेरा. कोई सामान तो ठिकाने पर था नहीं. पौकेट में हाथ डाला तो मोबाइल भी नहीं था, जो टौर्च यूज कर लेता. शायद किचेन में रखी थी. वह तेजी से किचेन की ओर लपका तो टेबल से टकराया और नीचे गिर गया. उस ने उठने के लिए टेबल का सहारा लिया तो फैले रायते में हाथ सन गया. कटोरे का रायता टेबल से नीचे गिर कर कपड़ेजूते पर से होता कारपेट पर फैल गया था. ‘क्या मुसीबत है…चल कोई नहीं, 10 मिनट तो लगेंगे, हो जाएगा सब साफ,’ सोचते हुए सोफा कवर से हाथ साफ कर डाले. फिर ध्यान आया, अरे यार, एक और काम बढ़ा लिया. कोई नहीं, मेड को ऐक्स्ट्रा पैसे दे दूंगा, ऐसी क्या आफत है?

आखिरकार माचिसमोमबत्ती टटोलते हुए सही जगह पहुंच गया.

सूना आसमान- भाग 2: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

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मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

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बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.  

प्यार न माने सरहद- भाग 1: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

Writer- Kahkashan Siddiqui

समीर को सीएटल आए 3 महीने हो गए थे. वह बहुत खुश था. डाक्टर मातापिता का छोटा बेटा. बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि था. आईआईटी दिल्ली का टौपर था. मास्टर्स करते ही माइक्रोसौफ्ट में जौब मिल गई. स्कूल के दिनों से ही वह अमेरिकन सीरियल और फिल्में देखता, मशहूर सीरियल फ्रैंड्स उसे रट गया था. भारत से अधिक वह अमेरिका के विषय में जानता था. वह अपने सपनों के देश पहुंच गया.

सीएटल की सुंदरता देख कर वह मुग्ध हो गया. चारों ओर हरियाली ही हरियाली, नीला साफ आसमान, बड़ीबड़ी झीलें और समुद्र, सब कुछ इतना मनोरम कि बस देखते रहो. मन भरता ही नहीं.

समीर सप्ताह भर काम करता और वीकैंड में घूमने निकल जाता. कभी ग्रीन लेक पार्क, कभी लेक वाशिंगटन, कभी लेक, कभी माउंट बेकर, कभी कसकेडीएन रेंज, तो कभी स्नोक्वाल्मी फाल्स.

खाना खाने के ढेरों स्थान, दुनिया के सभी स्थानों का खाना यहां मिलता. वह नईनई जगह खाना खाने जाता. अब तक वह चीज फैक्ट्री, औलिव गार्डन, कबाब पैलेस, सिजलर्स एन स्पाइस कनिष्क, शालीमार ग्लोरी का खाना चख चुका था.

औफिस उस का रैडमंड में था सीएटल के पास. माइक्रोसौफ्ट में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी यहां रहते हैं. मिक्स आबादी है- गोरे, अफ्रीकन, अमेरिकन और एशियाई देशों के लोग यहां रहते हैं. यहां भारतीय और पाकिस्तानी भी अच्छी संख्या में हैं. देशी खाने के कई रेस्तरां हैं. इसीलिए समीर ने यहां एक बैडरूम का अपार्टमैंट लिया.

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औफिस में बहुत से भारतीय थे. अधिकतर दक्षिण भारत से थे. कुछ उत्तर भारतीय भी थे. सभी इंग्लिश में ही बात करते. हायहैलो हो जाती. देख कर सभी मुसकराते. यह यहां अच्छा था, जानपहचान हो न हो मुसकरा कर अभिवादन करा जाता.

समीर की ट्रेनिंग पूरी हो गई तो उसे प्रोजैक्ट मिला. 5 लोगों की टीम बनी. एक दक्षिण भारतीय, 2 गोरे और 1 लड़की एमन. समीर एमन से बहुत प्रभावित हुआ. बहुत सुंदर, लंबी, पतली, गोरी, भूरे बाल, नीली आंखें. पहनावा भी बहुत अच्छा फौर्मल औफिस ड्रैस. बातचीत में शालीन. अमेरिकन ऐक्सैंट में बातें करती और देखने में भी अमेरिकन लगती थी. मूलतया एमन कहां की थी, इस विषय में कभी बात नहीं हुई. उसे सब एमी कहते थे.

एमी काम में बहुत होशियार थी. सब के साथ फ्रैंडली. समीर भी बुद्घिमान, काम में बहुत अच्छा था. देखने में भी हैंडसम और मदद करने वाला. अत: टीम में सब की अच्छी दोस्ती हो गई.

एक दोपहर समीर ने एमी से साथ में लंच करने को कहा. वह मान गई. दोनों ने लंच साथ किया. समीर ने बर्गर और एमी ने सलाद लिया. वह हलका लंच करती थी.

समीर ने पूछा, ‘‘यहां अच्छा खाना कहां मिलता है?’’

‘‘आई लाइक कबाब पैलेस,’’ एमी ने जवाब दिया.

समीर को आश्चर्य हुआ कि अमेरिकन हो कर भी यह भारतीय देशी खाना पसंद करती है.

समीर ने जब एमी से पूछा कि क्या तुम्हें इंडियन खाना पसंद है, तो उस ने बताया कि हां इंडियन और पाकिस्तानी एकजैसा ही होता है. फिर जब समीर ने पूछा कि क्या तुम अमेरिकन हो तो एमी ने बताया कि हां वह अमेरिकन है, मगर दादा पाकिस्तान से 1960 में अमेरिका आ गए थे.

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समीर सोचता रहा कि एमी को देख कर उस के पहनावे से, बोलचाल से कोई नहीं कह सकता कि वह पाकिस्तानी मूल की है. दोनों एकदूसरे में काफी रुचि लेने लगे. अब तो वीकैंड भी साथ गुजरता. एमी ने समीर को सीएटल और आसपास की जगहें दिखाने का जिम्मा ले लिया था. पहाड़ों पर ट्रैकिंग करने जाते, माउंट रेनियर गए. सीएटल की स्पेस नीडल 184 मीटर ऊंचाई पर घूमते हुए स्काई सिटी रेस्तरां में खाना खाया. यहां से शहर देखना एक सपने जैसा लगा.

सीएटली ग्रेट व्हील में वह डरतेडरते बैठा. 53 मीटर की ऊंचाई, परंतु एमी को डर नहीं लगा. भारत में वह मेले में जब भी बैठता था तो बहुत डरता था. यहां आरपार दिखने वाले कैबिन में बैठ कर मध्यम गति से चलने वाला झूला आनंद देता है डराता नहीं.

फेरी से समुद्र से व्हिदबी टापू पर जाना, वहां का इतालियन खाना खाना उसे बहुत रोमांचित करता था. भारत में भी समुद्रतट पर पर जाता था पर पानी एवं वातावरण इतना साफ नहीं होता था. पहाड़ी रास्ते 4 लेन चौड़े, 5 हजार फुट की ऊंचाई पर जाना पता भी नहीं चलता. अपने यहां तो पहाड़ी रास्ते इतने संकरे कि 2 गाडि़यों का एकसाथ निकलना मुश्किल.

साथसाथ घूमतेफिरते दोनों एक दूसरे के बारे में काफी जान गए थे. जैसे एमी के दादा का परिवार 1947 में लखनऊ, भारत से कराची चला गया था. दादी भी लखनऊ से विवाह कर के आई थीं. उन के रिश्तेदार अभी भी लखनऊ में हैं. 1960 में अमेरिका में न्यूयौर्क आए थे. उस के पिता और ताया दोनों छोटेछोटे थे, जब वे अमेरिका आए.

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दादादादी ने अपनी संस्कृति के अनुसार बच्चों को पाला था. यहां का खुला माहौल उन्हें बिगाड़ न दे, इस का पूरा खयाल रखा था. ताया पर अधिक सख्ती की गई. वे मुल्ला बन गए. अभी भी न्यूयौर्क में ही रहते हैं और उन का एक बेटा है, जो एबीसीडी है अर्थात अमेरिकन बोर्न कन्फ्यूज्ड देशी.

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