
हर औरत की तरह मेरी बीवी हूरा बेगम को भी जेवरात का बड़ा शौक है. मैं ने शादी पर जो जेवरात चढ़ाए थे, 20 साल गुजरने के बावजूद उन्हें यों सीने से लगाए रखती है जैसे बंदरिया अपने बच्चे को. मैं उस से कहता भी हूं, ‘हूरा बेगम इन्हें बेच कर नए फैशन के जेवरात खरीद लाओ. तुम्हारा दिल इन से अभी तक भरा नहीं?’
तो वो एकदम जज्बाती सी हो कर कहती है ‘मंसूर इंसान का उन चीजों से कभी दिल नहीं भरता जो उस के दिलोदिमाग में खुशगवार यादों की बस्ती आबाद कर देती हों. जब मैं आज की बोझिल जिम्मेदारियों से थक कर इन जेवरात की पिटारी खोलती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं वही नई ब्याहता दुल्हन हूं और तुम अपने जज्बात से लरजते हाथों से मुझे ये जेवर पहना रहे हो.
तुम्हें याद है न, तुम ने चुपके से अपनी बहन सलमा से कहलवाया था कि हूरा से कह देना जब मैं आऊं तो वो फूलों का गहना पहने मिले, धातु के जेवरात उतार देना. मैं ने तुम्हारा हुक्म फौरन मान लिया था. मगर पता नहीं क्यों मुझे यह बदशगुनी सी लगी थी कि शादी की पहली रात ही दूल्हे को अपने रूप का जलवा दिखाए बगैर दुलहन जेवर उतार दे.
मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. तुम ने मेरे दुखी दिल को महसूस कर के पूछा था ‘हूरा क्या बात है तुम खुश नहीं लग रहीं. क्या मुझ से शादी तुम्हारी मरजी के बगैर हुई है?’ मैं ने तड़प कर तुम्हारे मुंह पर हाथ रख दिया था, याद है न. फिर तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने अपने दिल की बात बता दी थी.
तुम बहुत देर तक गुमसुम से बैठे रहे थे. फिर उठ कर मेरे पास आ गए थे और जेवरात का डिब्बा खोल कर सारे जेवर मुझे अपने हाथों से पहनाते हुए कहा था. लो बस अपना दिल मैला न करो.
आज की रात एकदूसरे के लिए हमारे दिल में मोहब्बत के सिवा और कोई जज्बा पैदा नहीं होना चाहिए. तुम्हें याद है न? और तुम ने मुंह दिखाई में मुझे यह सैट दिया था?’
मेरी बीवी यह वाकया कई बार मुझे सुना चुकी है. हर बार वह एक मजे के साथ इस वाकिए का एकएक लफ्ज सौसौ रंगों में डुबो कर सुनाती है. मगर बेवकूफ यह नहीं जानती कि यह वाकया सुनते हुए मेरा ब्लडप्रेशर हाई होने लगता है. उसे नहीं मालूम कि उस के शौहर को इन जेवरात से क्या एलर्जी होती है. उस ने शादी की पहली रात यह क्यों कहा था कि वो फूलों का गहना पहन ले. हर आदमी की जिंदगी में कुछ बातें ऐसी जरूर होती हैं जिन का राजदार वो खुद ही होता है.
सालोंसाल बल्कि सारी उम्र साथ रहने वाली बीवी भी नहीं जानती कि उस के शौहर के दिल के चंद खाने उस से छिपे हुए हैं. वह खुश कर देने वाले चंद जुमलों से अपने दिल को आबाद करती रहती है. खुद को धोखा देती रहती है कि उस की जिंदगी में दाखिल होने वाली मैं वो अकेली औरत हूं जो उस के दिलोदिमाग पर पूरी तरह कब्जा किए हुए है.
इस आत्ममुग्धता के सहारे वो खुशीखुशी अपने जिस्मोजान की कुर्बानी देती चली जाती है. अच्छा ही है कि वह इस आत्ममुग्धता में डूबी रहती है. अगर वह हर सच्चाई की तह में उतरने वाली अकल ले कर पैदा होती तो शिकारी फितरत वाला मर्द सारी उम्र शिकार से महरूम (वंचित) रह जाता.
हां, दूसरे मर्दों की तरह मैं भी शिकारी फितरत वाला मर्द था. जवानी के दौर में कई सारी लड़कियां मेरी मोहब्बत के जाल में फंस कर मुझ पर अपना तनमन और धन न्यौछावर करती रहीं. कुलसुम, जैनब, हमीदा, गुलफ्शां, साजिदा. कोई एक नाम हो तो याद भी करूं, बहुत से चेहरे तो वक्त ने धुंधला भी दिए हैं.
सिर्फ एक चेहरा ऐसा है जिसे मैं कोशिश के बावजूद अपनी नजरों से जुदा नहीं कर सका हूं. और वो है शाहीना का चेहरा. उस का बाप एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उन दिनों मैं ने इंटर का इम्तिहान दिया था. वक्त ही वक्त था.
मेरे एक दोस्त ने मशविरा दिया कि जब तक रिजल्ट न आ जाए हम कहीं नौकरी कर लेते हैं. अगर कामयाब हो गए तो पढ़ाई जारी रखेंगे. कभी नौकरी पढ़ाई में रुकावट बनी तो उसे छोड़ देंगे. वह गुजराती लड़का था. हमेशा फायदे की बात सोचा करता था.
हम दोनों की गाढ़ी छनती थी. हम दोनों ने नौकरी की तलाश बड़ी लगन से शुरू कर दी. दोनों एक साथ कई औफिसों की धूल छानते फिरा करते थे. इस फाकामस्ती (दरिद्रता) की हालत में भी मोहब्बत का कारोबार जारी रहता था.
यहांवहां घूमतेभटकते शाहीना के अब्बा से मुलाकात हो गई. वो अकाउंटेंट थे. उन्होंने हमारी दरखास्तें बड़े गौर से पढ़ीं और दोनों को बुलवा लिया. कहने लगे हमारे यहां एक जगह खाली है. और वो भी टैंपरेरी है. संभव है कुछ महीनों बाद हम वो पद खत्म कर दें या स्थाई कर दें. यह बात अगले 3 महीने बाद मीटिंग में ही तय होगी, तुम में से एक को यह नौकरी दी जा सकती है. आपस में फैसला कर लो कि तुम दोनों में से ज्यादा जरूरत किस को है?
मेरा गुजराती दोस्त फौरन पीछे हट गया. कहने लगा, ‘जनाब मेरे इस दोस्त को रख लीजिए. मेरे अब्बा की दुकान है, मैं तो वैसे भी व्यस्त रहता हूं. यह बिलकुल बेकार फिरता रहता है. इसे बैठने का ठिकाना मिल जाएगा.’
इस तरह मुझे नौकरी मिल गई. इस पद के रहने न रहने का अधिकार वहीद साहब के हाथ में था. इसलिए मैं ज्यादातर उन्हीं के आसपास मंडराता रहता था. उन्होंने मुझे अपने निजी कामों के लिए घर भेजना शुरू कर दिया. घर में शाहीना से मुलाकात हो गई. गोरी रंगत वाली यह लड़की मेरी नजरों में आ गई.
उन दिनों मेरा चक्कर जैनब से चल रहा था, जो मेरे लगातार झूठ बोलने से तंग आ गई थी. वह चुपकेचुपके अपने रिश्ते के भाई को शीशे में उतार कर शादी की तैयारियां कर रही थी. मुझे उस की बहन ने सब कुछ बता दिया था.
इस से पहले कि वो मुझे दुत्कारती मैं खुद उसे छोड़ना चाहता था. मगर जब तक इस ध्ांधे के लिए कोई दूसरी लड़की नहीं मिलती, यह जरा मुश्किल काम लगता था. शाहीना पर नजर पड़ी तो दिल ने चुटकी ली कि लो मियां तुम्हारा बंदोबस्त हो गया. लड़की कम बोलती है, सूरतशक्ल अच्छी है. थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ेगी. यह कौन सा मुश्किल है, ज्यादा से ज्यादा एकदो हफ्ते लगातार अदाकारी करनी पड़ेगी.
सब से पहले मैं ने उस का बैकग्राउंड मालूम किया. पता चला कि शाहीना वहीद साहब की सगी औलाद नहीं है. वह उस की मां के पहले शौहर से है. मां का तलाक हो गया था. बच्ची उसी के पास रही. उस ने वहीद साहिब से शादी कर ली. उन की बीवी एक बच्चे को जन्म दे कर मर चुकी थी. बच्चा जिंदा था.
उस की परवरिश के लिए वह दूसरी शादी के इच्छुक थे. शाहीना की उम्र उस समय ढाई साल थी. किसी दोस्त के जरिए से यह रिश्ता तय हो गया था. शादी के बाद दोनों मियांबीवी ने अपने बच्चों की हिफाजत के लिए एक फैसला किया.
बीवी अपने फैसले पर कायम रही, उस ने वहीद साहब के बेटे को अपनी औलाद से बढ़ कर प्यार दिया. मगर वहीद साहब अपनी सौतेली बच्ची से दिमागी तौर पर समझौता न कर सके. उन्होंने कभी उसे गोद तक में नहीं लिया. उस की जरूरतों का खयाल न रखा. ऊपर से 4 बच्चे और आ गए शाहीना बिलकुल बैकग्राउंड (नेपथ्य) में चली गई.
जैसेजैसे वह बड़ी होती गई उस पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया. मां को इतना समय नहीं मिलता था कि उस की परेशानियों को समझ सकती. वो अंदर ही अंदर अपने सारे बहनभाइयों से जलती थी, जिन्होंने मिल कर उस की मां को उस से छीन लिया था.
पढ़ाई में कमजोर थी या शायद उस ने अपना सारा दिमाग बहनभाइयों को जलाते रहने की तरकीबों पर लगा दिया था. बाप उस से नफरत करता था. हर गलती उसी के सिर पर थोप कर उस से पूछताछ करता था.
देखने में तो कम बोलने वाली और दूसरों की खिदमत करते रहने वाली लड़की नजर आती थी, मगर जैसेजैसे उस के भेद खुलते गए मुझे अंदाजा हो गया कि वह बहनभाइयों को आपस में लड़वा कर बड़ी खुश होती है.
19-20 बरस की लड़की, नन्ही बच्ची की तरह भागतीदौड़ती फिरा करती थी. कभी आंगन वाले पेड़ पर चढ़ जाती तो कभी दीवार पर जा बैठती. जुबान नहीं खोलती थी. मैं ने कुछ दिन उस की मनोस्थिति समझने में लगाए फिर बिल्ली की तरह पुचकार कर उसे अपने करीब कर लिया.
उस की गुर्राहटें आहिस्ताआहिस्ता कम होने लगीं. लहजे में नरमी आ गई. जज्बात की हल्की सी तपिश से उस के दिल की सख्त चट्टान मोम में बदल गई और इस से पहले कि जैनब मुझे अपनी शादी का कार्ड थमाती, मैं ने शाहीना से मोहब्बत का इकरार करवा लिया.
जैनब की छुट्टी कर के मैं जोरशोर से शाहीना पर मरने लगा. मुझे उस जमाने में हर लड़की फ्लर्ट लगती थी. शायद इसलिए कि मेरी पहले की सारी महबूबाओं में एक भी वफा वाली नहीं थी. वहीद साहब के हुक्म पर जब भी मैं उन के घर जाता था, मोहल्ले के किसी बच्चे के हाथ पहले ही शाहीना को इत्तला भिजवा दिया करता था.
वह किसी न किसी बहाने बैठक (उस जमाने में ड्राइंगरूम को बैठक कहते थे) में आ जाती. मुझ से मिलने के बाद उस के चेहरे पर काफी सुकून छा जाता. अकसर कहती थी मंसूर आप ने हमारे दिल में जीने की उमंग पैदा कर दी है. वरना हम सोचा करते थे किसी रोज अफीम खाकर मर जाएं. हम से यहां कोई प्यार नहीं करता. अब्बू कहते हैं कि हमारी रगों में उन का खून नहीं है, इसलिए हम बदतमीज हैं, चालाक हैं, बेहूदा हैं.
उन्हें हमारे अंदर दुनिया भर की कमियां नजर आती हैं. अम्मी उन्हें और उन की औलाद को खुश करने के लिए हमें उन सब के सामने जलील करती रहती हैं. वो हम से इतना काम लेती हैं कि अगर हम कहीं नौकरी कर लें तो इस जगह से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जिंदगी गुजार सकते हैं.
‘‘मां, विनय, तनय, विभा और आभा की कल्पना की हर बात पूछी थी उस ने. पर एक और बात भी पूछी थी जो उन चारों तो क्या आप की कल्पना से भी परे है और वह बात बता कर मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता.’’
‘‘ऐसा क्या कहा था उस ने? अब बता ही डाल. नहीं तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा.’’
‘‘जाने दो न मां, क्या करोगी सुन कर? इस बात को यहीं समाप्त करो. इसे आगे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं है. कहते हैं न कि जिस गांव में जाना नहीं उस का पता क्या पूछना.’’
‘‘प्रश्न बात आगे बढ़ाने का नहीं है. पर सबकुछ पता हो तो निर्णय लेना सरल हो जाता है.’’
‘‘तो सुनो मां. स्वाति पूछ रही थी कि विवाह के बाद हम कहां रहेंगे?’’
‘‘कहां रहेंगे का क्या मतलब है? हमारी इतनी बड़ी कोठी है. कहीं और रहने का प्रश्न ही कहां उठता है,’’ विमलाजी का स्वर अचरज से भरा था.
‘‘वह कह रही थी कि सास, ननद और देवरों के चक्कर में पड़ कर मैं अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. उसे तो स्वतंत्रता चाहिए, पूर्ण स्वतंत्रता,’’ कनक ने अंतत: बता ही दिया था.
‘‘हैं, जो लड़की विवाह से पहले ही ऐसी बातें कर रही है वह विवाह के बाद तो जीना दूभर कर देगी. अच्छा किया जो तुम उठ कर चले आए. ऐसे संस्कारों वाली लड़की से तो दूर रहना ही अच्छा है.’’
‘‘मां, इस बात को यहीं समाप्त कर दो. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है आप को. विभा व आभा के भी कुछ प्रस्ताव हैं, उन के बारे में सोचिए न,’’ कनक ने उठने का उपक्रम किया था.
विमलाजी शून्य में ताकती अकेली बैठी रह गई थीं. उन्होंने सुना अवश्य था कि आधुनिक लड़कियां न झिझकती हैं न शरमाती हैं. जो उन्हें मन भाए उसे छीन लेती हैं. नहीं तो पहली ही भेंट में स्वाति की कनक से इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? शायद उस के मातापिता उस की इच्छा के खिलाफ उस का विवाह करना चाह रहे हैं और उस ने ऐसे अनचाहे संबंध से पीछा छुड़ाने का यह नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला हो.
‘‘क्या हुआ, मां? किस सोच में डूबी हो,’’ विमलाजी को सोच में डूबे देख विभा ने पूछा था.
‘‘कुछ नहीं रे. ऐसे ही थोड़ी थक गई हूं.’’
‘‘आराम कर लो कुछ देर. खाना मैं बना देती हूं,’’ विभा उन का माथा सहलाते हुए बोली थी.
‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी कल परीक्षा न होती तो मैं स्वयं तुम से कह देती. मैं कुछ हलकाफुलका बना लेती हूं, तुम जा कर पढ़ाई करो,’’ विमलाजी स्निग्ध स्वर में बोली थीं.
वे धीरे से उठ कर रसोईघर में जा घुसी थीं. उन्होंने अपने थकने की बात विभा से कही थी पर सच तो यह था कि आज की घटना ने उन का दिल दहला दिया था. अपने पति डा. उमेश को असमय ही खो देने के बाद उन्होंने स्वयं को शीघ्र ही संभाल लिया था. अपने बच्चों के भविष्य के लिए वे चट्टान की भांति खड़ी हो गई थीं. वे स्वयं पढ़ीलिखी थीं, चाहतीं तो नौकरी कर लेतीं पर अपने हितैषियों की सलाह मान कर उन्होंने घर पर ही रहने का निर्णय लिया था.
उमेश की बहन डा. नीलिमा ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था पर पिछले 5 वर्ष से वे अपने परिवार के साथ लंदन में बस गई थीं. पहले उन्होंने सोचा था कि उन से बात कर के ही मन हलका कर लें. पर शीघ्र ही उस विचार को झटक कर अपने कार्य में व्यस्त हो गईं. यह सोच कर कि इतनी दूर बैठी नीलिमा दीदी भला उन्हें क्या सलाह दे सकेंगी. वैसे भी जब कनक खुद इस विवाह के लिए तैयार नहीं है तो इस बात को आगे बढ़ाने का अर्थ ही क्या है?
दूसरे दिन रमोलाजी का फोन आ गया.
‘‘विमलाजी, कल आप अचानक ही उठ कर चली आईं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, राव दंपती तो हक्केबक्के रह गए.’’
‘‘बात यह है रमोलाजी कि यह संबंध हमें जंचा नहीं. इसीलिए हम चले आए.’’
‘‘क्यों नहीं जंचा, विमलाजी, आप आज्ञा दें तो मैं स्वयं आ जाऊं. राव दंपती तो स्वयं आना चाह रहे थे पर मैं ने ही उन्हें मना कर दिया और समझाया कि पहले मैं जा कर वस्तुस्थिति का पता लगाती हूं. आप लोग बाद में आइएगा. आप कहें तो अभी आ जाऊं.’’
‘‘अभी तो मैं जरा व्यस्त हूं. बच्चों के कालेज जाने का समय है. आप 2 घंटे के बाद आ जाइए. तब तक मैं अपना काम समाप्त कर लूंगी,’’ विमलाजी बोली थीं.
‘‘किस का फोन था, मां?’’ फोन पर मां का वार्त्तालाप सुन कर कनक के कान खड़े हो गए थे.
‘‘रमोलाजी थीं. घर आ कर मिलना चाहती हैं.’’
‘‘टाल देना था मां. आप तो रमोलाजी को अच्छी तरह से जानती हैं. जोडि़यां मिलाना उन का धंधा है. वे आप को ऐसी पट्टी पढ़ाएंगी कि आप मना नहीं कर सकेंगी.’’
‘‘वे तो इसे समाज की सेवा कहती हैं. तुम ने सुना नहीं था कि कल कैसे अपनी प्रशंसा के पुल बांध रही थीं. उन के ही शब्दों में उन्होंने जितनी जोडि़यां मिलाई हैं सब बहुत सुखी हैं.’’
‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, मां, आप बातों में उन से जीत नहीं सकतीं. आप अभी फोन कर के कोई बहाना बना दीजिए,’’ कनक ने सुझाव दिया था.
‘‘मैं रमोलाजी को व्यर्थ नाराज नहीं करना चाहती. उन की अच्छेअच्छे परिवारों में पैठ है. चुटकी बजाते ही रिश्ते पक्के करवाने में उन का कोई सानी नहीं है. फिर विभा और आभा का विवाह भी करवाना है. तुम कहां टक्कर मारते घूमोेगे?’’
‘‘ठीक है. खूब स्वागतसत्कार कीजिए रमोलाजी का पर सावधान रहिए और दृढ़ता से काम लीजिए. विभा की बात भी उन के कान में डाल दीजिए. अच्छा तो मैं चलता हूं.’’
रमोलाजी आई तो विमलाजी पूरी तरह से चाकचौबंद थीं. रमोलाजी की लच्छेदार बातों से वे भलीभांति परिचित थीं अत: मानसिक रूप से भी तैयार थीं.
‘‘क्या हुआ विमला भाभी? कल आप दोनों बिना कुछ कहेसुने राव साहब के यहां से उठ कर चले आए. जरा सोचिए, उन्हें कितना बुरा लगा होगा. मुझ से तो कुछ कहते ही नहीं बना,’’ रमोलाजी ने आते ही शिकायत की थी.
‘‘कनक से स्वाति की बातचीत हुई थी. उसे लगा कि उन दोनों के विचारों में बहुत अंतर है. इसलिए वह उठ कर चला आया तो उस के साथ मैं भी चली आई. विवाह तो उसी को करना है.’’
‘‘कैसी बात करती हो, भाभी. इतने अच्छे रिश्ते को क्या आप यों ही ठुकरा दोगी. मैं तो आप के भले के लिए ही कह रही थी. यों समझो कि लक्ष्मी स्वयं चल कर आप के घर आ रही है और आप उसे ठुकरा रही हैं?’’
‘‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता, दीदी. और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है.’’
‘‘तो बताओ न, बात क्या है? क्यों कनक वहां से उठ कर चला आया?’’
‘‘क्या कहूं, जो कुछ कनक ने बताया वह सुन कर मैं तो अब तक सकते में हूं,’’ विमलजी रोंआसी हो उठी थीं.
‘‘ऐसा क्या कह दिया स्वाति ने? मैं तो उस को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मेरी बेटी की वह बहुत अच्छी सहेली है. जिजीविषा तो उस में कूटकूट कर भरी है. यह मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं उस का रिश्ता कनक के लिए लाई हूं. तुम उसे अपनी बहू न बनाओ तब भी मैं उस के बारे में यही कहूंगी.’’
‘‘आप तो स्वाति की प्रशंसा के पुल बांध रही हैं पर कनक तो उस से मिल कर बहुत निराश हुआ है.’’
‘‘क्यों? उस की निराशा का कारण क्या है?’’
‘‘बहुत सी बातें हैं. स्वाति उस से पूछ रही थी कि वह सगाई की अंगूठी कहां से और कितने की बनवाएगा, विवाह की पोशाक किस डिजाइनर से बनवाई जाएगी. ऐसी ही और भी बातें.’’
‘‘बस, इतनी सी बात? उस ने अंगूठी और पोशाक के बारे में पूछ लिया और कनक आहत हो गया? हर युवती का अपने विवाह के संबंध में कुछ सपना होता है. उस ने प्रश्न कर लिया तो क्या हो गया? भाभी, आजकल हमारा और तुम्हारा जमाना नहीं रहा, आजकल की युवतियां बहुत मुखर हो गई हैं. वे अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं करतीं उसे पूरा भी करना चाहती हैं.’’
सांझ हो गई थी. शमीम अपने मकान की बैठक में आरामकुरसी पर बैठी हुई थी. उस के सामने दीवार पर एक फोटो टंगा हुआ था. यह फोटो उस की बेटी नीलोफर का था, जिसे वह प्यार से ‘नीलो’ कहती थी. कई साल बाद उस की बेटी अपनी पढ़ाई पूरी कर के उस दिन घर लौट रही थी. शमीम के पति वसीम उसे लाने के लिए रेलवे स्टेशन गए हुए थे. नीलोफर कोटा में रह कर नीट की तैयार कर रही थी और उस के साथ ही 1-2 और परीक्षाओं की कोचिंग उस ने ले रखी थी.
वसीम ने कहा तो शमीम से भी था कि वह भी उस के साथ चले, पर वह घर पर रह कर अपनी बेटी की आवभगत की तैयारी करना चाहती थी. फिर उसे अपनी बेटी की मनपसंद ढेर सी चीजें भी तो बनानी थीं. शमीम ने सारा सामान तैयार कर लिया था और अपने पति व बेटी की राह देख रही थी. नीलो का फोटो देखतेदेखते अचानक कुछ कड़वी यादें उभर आईं. नीलो के जन्म के समय उस की जिंदगी में कितना भयंकर तूफान आतेआते रह गया था… उस दिन वह अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी. वार्ड के बाहर वसीम अपनी अम्मी अमीना बेगम के साथ बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे. वार्ड का दरवाजा खुलते ही वसीम ने लपक कर डाक्टर मालिनी से पूछा था,
‘‘डाक्टर… शमीम कैसी है?’’ ‘‘हालात तो काफी नाजुक थे, पर बहुत कोशिश के बाद तुम्हारी बीवी और बेटी की जान बच गई, लेकिन…?’’ ‘‘लेकिन, क्या डाक्टर…?’’ ‘‘अब शमीम कभी मां न बन सकेगी…’’ एक पल के लिए वसीम सन्नाटे में आ गया था, लेकिन तुरंत ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया और मुसकरा कर बोला, ‘‘सच… हमारे घर बेटी आई है…’’ फिर वसीम ने जैसे ही वार्ड में जाना चाहा, अमीना बेगम चीख पड़ीं, ‘‘ठहरो वसीम…’’ वसीम ने पलट कर अपनी अम्मी की ओर देखा, ‘‘अम्मी, क्या बात है?’’ ‘‘तुम शमीम से नहीं मिलोगे…’’ ‘‘लेकिन, क्यों अम्मी…?’’ वसीम ने अचरज भरी नजर से अपनी अम्मी की ओर देखा. ‘‘इसलिए कि शमीम तुम्हारे लिए मुसीबत बन कर आई है.
इस बार भी उस ने बेटी को जन्म दिया है. वह तो अच्छा हुआ कि इस से पहले पैदा हुई दोनों बेटियां मर गईं… और ऊपर से जुल्म यह कि अब वह कभी मां न बन सकेगी. जरा सोचो, बेटे के बिना तुम्हारे खानदान का नाम कैसे चलेगा?’’ ‘‘यह आप की गलतफहमी है अम्मी. इस जमाने में बेटी किसी भी तरह से बेटे से कम नहीं है. दोष हमारी सोच का है. हम बेटे को तरजीह देते हैं, बेटी को नहीं. एक दिन मेरी बेटी भी मेरा और मेरे खानदान का नाम रोशन करेगी. हमारी फुलवारी का यह इकलौता फूल अपनी खुशबू से पूरे समाज को महका देगा, अम्मी.’’ ‘‘वसीम… तुम मुझ से जबान लड़ा रहे हो,
प्रीति ने चश्मा साफ कर के दोबारा बालकनी से नीचे झांका और सोचने लगी, ‘नहीं, यह सपना नहीं है. रेणु सयानी हो गई है. अब वह दुनियादारी समझने लगी है. रोनित भी तो अच्छा लड़का है. इस में गलत भी क्या है, दोनों एक ही दफ्तर में हैं, साथसाथ तरक्की करते जाएंगे, बिना किसी कोशिश के ही मेरी इतनी बड़ी चिंता खत्म हो गई.’
रात को खाने के बाद प्रीति दूध देने के बहाने रेणु के कमरे में जा कर बैठ गई और बात शुरू की, ‘‘बेटी, रोनित के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’
रेणु ने चौंक कर मां की तरफ देखा तो प्रीति शरारतभरी मुसकान बिखेर कर बोली, ‘‘भई, हमें तो रोनित बहुत पसंद है. हां, तुम्हारी राय जानना चाहते हैं.’’
‘‘राय, लेकिन किस बारे में, मां?’’ रेणु ने हैरानी से पूछा.
‘‘वह तुम्हारा दोस्त है. अच्छा, योग्य लड़का है. तुम ने उस के बारे में कुछ सोचा नहीं?’’
‘‘मां, ऐसी भी कोई खास बात नहीं है उस में,’’ रेणु अपने नाखूनों पर उंगलियां फेरती हुई बोली, फिर वह चुपचाप दूध के घूंट भरने लगी.
लेकिन रेणु के इन शब्दों ने जैसे प्रीति को आसमान से जमीन पर ला पटका था, वह सोचने लगी, ‘क्या वक्त अपनेआप को सदा दोहराता रहता है? यही शब्द तो मैं ने भी अपनी मां से कहे थे. विजय मुझे कितना चाहता था, लेकिन तब हम दोनों क्लर्क थे…’
प्रीति तेज रफ्तार जिंदगी के साथ दौड़ना चाहती थी. विजय से ज्यादा उसे अपने बौस चंदन के पास बैठना अच्छा लगता था. वह सोचती थी कि अगर चंदन साहब खुश हो गए तो उस की पदोन्नति हो जाएगी.
फिर चंदन साहब खुश भी हो गए और प्रीति को पदोन्नति मिल गई. लेकिन चंदन के तबादले के बाद जो नए राघव साहब आए, वे अजीब आदमी थे. लड़कियों में उन की जरा भी दिलचस्पी नहीं थी.
ऐसे में प्रीति बहुत परेशान रहने लगी थी, क्योंकि उस की तरक्की के तो जैसे सारे रास्ते ही बंद हो गए थे. लेकिन नहीं, ढूंढ़ने वालों को रास्ते मिल ही जाते हैं. राघव साहब के पास कई बड़ेबड़े अफसर आते थे. उन्हीं में से एक थे, जैकब साहब. प्रीति की तरफ से प्रोत्साहन पा कर वे उस की तरफ खिंचते चले गए. जैकब साहब के जरिए प्रीति को एक अच्छा क्वार्टर मिल गया.
धीरेधीरे प्रीति तरक्की की कई सीढि़यां चढ़ती चली गई और जीवन की सब जरूरतें आसानी से पूरी होने लगीं. कर्ज मिल गया तो उस ने कार भी ले ली. जमीन मिल गई तो उस का अपना मकान भी बन गया. उस के कई पुरुषमित्र थे, जिन में बड़ेबड़े अफसर व व्यापारी वगैरा सम्मिलित थे. जितने दोस्त, उतने तोहफे. हर शाम मस्त थी और हर मित्र मेहरबान.
उन दिनों वह सोचती थी कि जिंदगी कितनी हसीन है. परेशानियों से जूझती लड़कियों को देख कर वह यह भी सोचती कि ये सब अक्ल से काम क्यों नहीं लेतीं?
एक दिन प्रीति को पता चला कि उस के पहले प्रेमी विजय ने अपने दफ्तर में काम करने वाली एक क्लर्क युवती से शादी कर ली है. क्षणभर के लिए उसे उदासी ने आ घेरा, लेकिन उस ने खुद को समझा लिया और फिर अपनी दुनिया में खो गई.
समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था. अच्छे समय को तो जैसे पंखही लग जाते हैं. वक्त के साथसाथ हरेभरे वृक्ष को भी पतझड़ का सामना करना ही पड़ता है. लेकिन ऐसे पेड़ तो सिर्फ माली को ही अच्छे लगते हैं, जो उन्हें हर मौसम में संभालता, सजाता रहता है. आतेजाते राहगीर तो सिर्फ घने, फलों से लदे पेड़ ही देखना चाहते हैं.
बात पेड़ों की हो तो पतझड़ के बाद फिर बहार आ जाती है, लेकिन मानव जीवन में बहार एक ही बार आती है और बहार के बाद पतझड़ स्वाभाविक है.
प्रीति तेज रफ्तार से दौड़ती रही. यौवन का चढ़ता सूरज कब ढलने लगा, वह शायद इसे महसूस ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन एक दिन पतझड़ की आहट उसे सुनाई दे ही गई…
वह एक सुहावनी शाम थी. प्रीति मदन का इंतजार कर रही थी. उस शाम उस ने पीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जिस का बौर्डर हरा था. सजसंवर कर वह बहुत देर तक पत्रिकाओं के पन्ने पलटती रही. मदन से उस की दोस्ती काफी पुरानी थी. हर सप्ताह उस की 2-3 शामें प्रीति के संग ही व्यतीत होती थीं. लेकिन उस शाम वह इंतजार ही करती रही, मदन न आया.
प्रीति उलझीउलझी सी सोने चली गई. उलझन से ज्यादा गुस्सा था या गुस्से से ज्यादा उलझन, वह समझ नहीं पा रही थी. कई बार फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन फिर सोचा कि घर पर क्या फोन करना? क्या पूछेगी और किस से पूछेगी?
दूसरे दिन उस ने मदन के दफ्तर फोन किया तो वह बोला, ‘माफ करना, कहीं फंस गया था, लेकिन आज शाम जरूर आऊंगा.’
उस शाम प्रीति ने फिर वही साड़ी पहनी, जो कि मदन को बहुत पसंद थी. शाम ढलने लगी, देखते ही देखते साढ़े
8 बज गए. गुस्से में उस ने बगैर कुछ सोचे रिसीवर उठा ही लिया और मदन के घर का नंबर घुमाया, ‘हैलो, मदनजी हैं?’
‘साहबजी तो नहीं हैं,’ उस के नौकर ने जवाब दिया.
‘कुछ मालूम है, कहां गए हैं?’
‘हां जी, कल छोटी बेबी का जन्मदिन है न, इसलिए मेम साहब के साथ कुछ खरीदारी करने बाजार गए हैं.’
रिसीवर पटक कर प्रीति बुदबुदा उठी, ‘ओह, तो यह बात है. मगर उस ने यह सब बताया क्यों नहीं? शायद याद न रहा हो, मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ. शायद उस ने बताना जरूरी ही न समझा हो.’
वह सोचने लगी कि उस के पास आने वाले हर मर्द का अपना घरबार है, अपनी जिंदगी है, लेकिन उस की जिंदगी?
उसे लगता था कि वह अपने तमाम दोस्तों की पत्नियों से ज्यादा सुंदर है, ज्यादा आकर्षक है, तभी तो वे अपनी बीवियों को छोड़ कर उस के घर के चक्कर काटते रहते हैं. पर उस क्षण उसे एहसास हो रहा था कि कहीं न कहीं वह उन की बीवियों से कमतर है, जिन की जरूरतों के आगे, किसी दोस्त को उस की याद तक नहीं रहती.
प्रीति ने सोफे की पीठ से सिर टिका दिया. उस की सांसें तेज चल रही थीं. यह गुस्सा था, पछतावा था, क्या था, कुछ पता ही नहीं चल रहा था. पर एक घुटन थी, जो उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. उस ने आंखें बंद कर लीं लेकिन चंद आंसू छलक ही आए.
उस के बाद उस ने मदन लाल को फोन नहीं किया और न ही फिर वह उस से मिलने आया.
दूसरी बार पतझड़ का एहसास उस को तब हुआ था जब उस का एक और परम मित्र, विनोद एक रात 9 बजे अचानक आ गया.
‘आओ, विनोद,’ उस की आंखों में अजीब सी रोशनी थी. विनोद के साथ बिताई बहुत सी रातें उसे याद आने लगीं.
‘अरे प्रीति, मैं एक जरूरी काम से आया हूं.’
‘तुम्हारा काम मैं जानती हूं,’ प्रीति अदा से मुसकराई.
‘नहीं, वह बात नहीं है. असल में मुझे एक गैस कनैक्शन चाहिए.’
‘अपने लिए नहीं, और किसी के लिए,’ विनोद ने हौले से कहा, ‘तुम्हारी तो बहुत जानपहचान है. तुम यह काम आसानी से करवा सकती हो.’
‘किस के लिए चाहिए?’ प्रीति के माथे पर बल पड़ गए.
‘एक साथी है दफ्तर में, अचला, क्या मैं उसे कल तुम्हारे पास भेज दूं?’
प्रीति का सिर चकरा गया कि उस ने खुद भी तो कभी गैस कनैक्शन लिया था…और अब अचला? लेकिन उस ने खुद को संभाला, ‘नहीं, भेजने की जरूरत नहीं. उस से कहना मुझे फोन कर ले.’
‘धन्यवाद,’ कह कर विनोद तेजी से बाहर निकल गया.
उस दिन कमरे का माहौल कितना बोझिल सा हो गया था. विनोद ने उस के हुस्न और जवानी का मजाक ही तो उड़ाया था, क्योंकि उस की जगह अब अचला ने ले ली थी.
फिर उसे राज की याद आई. एक दिन उस ने देखा, राज किसी सुंदरी से बातें कर रहा है. वह तेजी से उस के पास पहुंची, ‘हैलो राज, आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हो. अब तो इधर देखने की फुरसत भी नहीं.’
‘अब इधर देखूं या आप की तरफ?’ राज ने उस सुंदरी की ओर देखते हुए मुसकरा कर कहा.
खिलती उम्र की गुलाबी सुबह पर इतनी जल्दी शाम का धुंधलका छाने लगेगा, प्रीति ने सोचा भी न था. दोस्तों के लिए उस का साथ ऐसा ही रहा, जैसे कोट पर सजी गुलाब की कली, जो जरा सी मुरझाई नहीं कि बदल दी जाती है. अब उस की शामें सूनी हो चली थीं. न कोठी की घंटी बजती और न फोन ही आते.
प्रीति का नशा उतरने लगा तो ज्ञात हुआ कि उस के सभी सहयोगी पदोन्नति पा चुके हैं. विजय के पास भी अपना घर था और उस ने एक कार भी खरीद ली थी.
आखिर एक दिन प्रीति ने हालात से समझौता कर लिया और श्रीमती देवराज बन गई. विधुर देवराज को भी अकेलेपन में सहारा चाहिए था. लेकिन रेणु के जन्म के कुछ वर्षों बाद ही देवराज चल बसा. अपना रुपयापैसा वह अपनी पहली, दिवंगत पत्नी के बच्चों के नाम कर चुका था. सो, प्रीति को उस से मिली सिर्फ रेणु. लेकिन यह सहारा भी कम न था.
रेणु को पालतेपोसते प्रीति ने जीवन के काफी वर्ष काट दिए. रेणु भी उसी की तरह सुंदर थी. वह सुंदरता उसे विरासत में मिली थी. लेकिन अभी जो शब्द उस ने कहे थे, वे भी तो विरासत में मिले थे. प्रीति तड़प उठी. रेणु ने दूध का खाली गिलास मेज पर रखा तो प्रीति चौंकी, एक लंबी सांस ली और बोली, ‘‘बेटी, अगर रोनित तुम्हें पसंद है तो और कुछ न सोचो. तुम दोनों धीरेधीरे तरक्की कर लोगे. अभी उम्र ही क्या है.’’
रेणु उदास सी मां को देखती रही. प्रीति ने और कुछ न कहा, गिलास उठाया और कमरे से बाहर निकल गई.
रात के 11 बज चुके थे, लेकिन प्रीति की आंखों से नींद बहुत दूर थी. एक खयाल उस के इर्दगिर्द मंडरा रहा था कि काश, विजय उस के पास होता. यह कोठी, यह दौलत और यह कार न होती. साफसुथरी जिंदगी होती, विजय होता और रेणु होती.
दूसरे दिन रेणु ने धीरे से कमरे का परदा हटाया तो प्रीति बोली, ‘‘आओ, बेटी.’’
‘‘मां…,’’ रेणु पलंग पर बैठ गई, ‘‘मां…,’’ वह कहते हुए हिचकिचा सी रही थी.
‘‘बोलो बेटी,’’ प्रीति ने प्यार से कहा.
‘‘आप के आने से पहले ही रोनित का फोन आया था.’’
‘‘क्या, शादी के बारे में?’’
‘‘जी.’’
‘‘फिर तू ने क्या कहा?’’
‘‘मैं सोचती थी, रोनित एक मामूली क्लर्क है. आप अपनी शान के आगे कभी भी क्लर्क दामाद को बरदाश्त नहीं करेंगी. इसीलिए…’’
‘‘इसीलिए क्या?’’
‘‘इसीलिए मैं ने उसे मना कर दिया.’’
‘‘यह तू ने क्या किया, बेटी. रोनित जो कुछ तुम्हारे लिए कर सकेगा, वह और कोई नहीं कर सकेगा…’’
प्रीति शून्य में घूर रही थी, लेकिन हर ओर उसे विजय का भोलाभाला चेहरा दिखाई दे रहा था. जब वह बड़ेबड़े अफसरों के साथ घूमती थी, तब विजय की उदास आंखें उसे हसरत से देखा करती थीं. उन आंखों का दुख, उदासी उस दिल की तड़प उसे रहरह कर याद आ रही थी.
उस ने रेणु की तरफ देखा, वह भी खामोश बैठी थी. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘बेटी, एक बात पूछूं, अपनी सहेली समझ कर सचसच बताना.’’
रेणु ने सवालिया नजरों से मां को देखा.
‘‘तू रोनित को पसंद तो करती है न?’’
‘‘हां, मां,’’ रेणु ने धीरे से कहा और नजरें झुका लीं.
‘‘अब क्या होगा? मेरी बच्ची, तू ने मुझ से पूछा तो होता. क्या वह फिर आएगा?’’
‘‘पता नहीं,’’ रेणु ने भर्राई आवाज में कहा और उठ कर चली गई.
सुबह प्रीति उठी तो सिर बहुत भारी था. शायद 10 बज रहे थे. रविवार को वैसे भी वह देर से उठती थी. उस ने परदे सरकाए और बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. अचानक नजर नीचे पड़ी, रोनित और रेणु नीम के पेड़ की आड़ में खड़े थे. वह धीरेधीरे पीछे हो गई और अपने कमरे में लौट आई. आरामकुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर पीछे टिका दिया.
देर तक प्रीति इसी मुद्रा में बैठी रही. फिर किसी के आने की आहट हुई तो उस ने भीगी पलकें उठाईं, सामने रेणु खड़ी थी.
‘‘मां, वह आया था, फिर वही कहने.’’ प्रीति टकटकी बांधे उस के अगले शब्दों का इंतजार करने लगी.
‘‘मां, मैं ने…मैं ने…’’
‘‘तू ने क्या कहा?’’ वह लगभग चीख पड़ी.
‘‘मैं ने ‘हां’ कह दी.’’
‘‘मेरी बच्ची,’’ प्रीति ने खींच कर रेणु को सीने से लिपटा लिया और बुदबुदाई, ‘शुक्र है, तू ने मां की हर चीज विरासत में नहीं पाई.’
‘‘क्या मां, कुछ कहा?’’ रेणु ने अलग हो कर उस के शब्दों को समझना चाहा.
‘‘कुछ नहीं बेटी, हमेशा सुखी रहो,’’ और उस ने रेणु का माथा चूम कर उसे अपने सीने से लगा लिया.
उन्होंने खुशी से इजाजत दे दी. अम्मी की तबीयत पहले ही खराब रहती थी, वह कहने लगीं, ‘तुम इतनी दूर चले जाओगे अगर पीछे मुझे कुछ हो गया, तो जनाजे में भी शिरकत न कर सकोगे.’
मैं ने उन्हें तसल्ली दी, ‘आप फिक्र न करें. वहां सब से पहले आप को बुलाऊंगा. एकडेढ़ महीने की बात है फिर आप भी मेरे पास होंगी.’
जिस रोज मुझे घर छोड़ना था. उन की तबियत कुछ ज्यादा बिगड़ गई. डाक्टर को बुलवाया. उस ने आराम का मशविरा दिया कहने लगा कि इन के खून बनने की रफ्तार कुछ सुस्त हो गई है. पूरा चैकअप करवाएं और फिक्रमंद न होने दें.
मैं दिमागी तौर पर 2 हिस्सों में बंट गया. शाहीना से वक्त तय हो चुका था, गाड़ी जाने में अभी कुछ घंटे बाकी थे. अम्मी की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें छोड़ कर चल देता. सोचा अब्बू से मशविरा ले लूं. उन से पूछा तो वह कहने लगे, मियां इंटरव्यू दे आओ. यहां मैं इन्हें संभालने के लिए हूं, तुम अपना रास्ता खोटा मत करो.
मैं ने बहुत ही बेदिली से अपना सामान समेटा. एकदो जोड़ी कपड़ों और शेव के सामान के अलावा साथ ले जाने के लिए और क्या था. डाक्टर ने अम्मी को नींद की गोली दे दी थी. वह गहरी नींद सो रही थीं. उन्हें इत्मीनान और सुकून की हालत में देख कर मेरे इरादे ने फिर मजबूती पकड़ी.
अब्बू से दुआसलाम कर के घर से निकला. रिक्शा पकड़ कर सीधा स्टेशन पहुंचा. पहले ही देर हो चुकी थी. टिकट बड़ी मुश्किल से मिले. शाहीना अभी तक नहीं आई थी. मैं सीढि़यों के पास ही खड़ा हो गया. मुझे मालूम था कि वह नीला बुरका पहन कर आएगी. हाथ में उसी रंग का पर्स होगा. नकाब नहीं उलटेगी. तय था कि जब तक वह खुद इशारा न करे, मैं उस के करीब न जाऊं.
गाड़ी जाने में 10 मिनट रह गए थे, जब वह आती दिखाई दी. नीले जौर्जेट के नकाब में उस की आंखें मुझे तलाश रही थीं. जैसे ही मैं उसे दिखाई दिया. वह तेजी से मेरी तरफ आई. यह बात हमारे प्रोग्राम में शामिल नहीं थी. इसलिए थोड़ा सा घबरा गया.
वह मेरे करीब आ कर बोली, ‘‘यह बैग अपने पास रखिएगा. बेहतर होगा कि आप इसे अपनी अटैची में रख लें. टिकट सैकंड क्लास का ही लिया है न.’’
हम लेडीज डिब्बे में जा कर बैठ रहे हैं. अगले स्टेशन पर आप हमें टिकट दे दें और इस के बाद आप हर स्टेशन पर मत उतरिएगा. सुबहसवेरे जो स्टेशन आए आप मुंह जरूर धो आइए. हम दूर से देख लेंगे और हां, बंबई स्टेशन पर आप हमें जरूर उतार लें वरना हम खो जाएंगे.
ये नसीहतें मेरे कान में उड़ेल कर उस ने अपना बैग मुझे थमाया और तेजतेज कदमों से लेडीज डिब्बे की तरफ लपकी. वक्त बहुत कम था. मैं चाहता था कि वह बैठ जाए तो मैं उस का डिब्बा देख लूं ताकि उस से संपर्क रखने में आसानी हो. फिर भाग कर किसी करीबी डिब्बे में सवार हो जाऊंगा. मेरे एक हाथ में अटैची थी. दूसरे में उस ने बैग थमा दिया था.
जब वह डिब्बे में सवार हो गई तो मैं भाग कर एक करीबी डिब्बे की तरफ लपका. मगर पीछे से मेरे छोटे भाई अमजद की आवाज आई, ‘‘भाईजान, भाईजान.’’
आवाज पास से ही आई थी. मैं ने गरदन घुमा कर देखा. अमजद का सांस फूला हुआ था. लगता था यह भागता हुआ आया है. कहने लगा, ‘‘भाईजान, अम्मी की हालत नाजुक है. अब्बू ने मुझे भेजा है कि आप को रोक लूं. आप का नाम ले ले कर बुला रही हैं. प्लीज भाईजान, जल्दी चलें. अब्बू उन्हें अस्पताल में एडमिट कर रहे हैं.’
गाड़ी ने सीटी दे दी थी. अमजद मेरा दामन घसीट रहा था और पता नहीं वो वेवकूफ सी लड़की मुझे देख भी रही थी या बैठने के लिए जगह बना रही थी. उसे मुझ पर पूरा भरोसा होगा कि मैं उस के साथ चल रहा हूं. मगर मैं अपने ऊपर से विश्वास खो चुका था. कभी गाड़ी की तरफ भागता और कभी अमजद की तरफ. 12 साल का अमजद परेशान हो कर जोरजोर से रोने लगा था. वह समझ रहा था कि मैं उस के साथ जाने में आनाकानी कर रहा हूं.
सब्र का दामन मेरे हाथ से छूट गया. मैं ने अमजद को खींच कर सीने से लगा लिया. उसे तसल्ली दी कि अच्छे बच्चे रोते नहीं, मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं. मेरा एक दोस्त गाड़ी में है उसे बता दूं कि मैं उस के साथ नहीं चल रहा हूं.
इतने में गाड़ी चल दी. मैं गाड़ी की तरफ दौड़ा. डिब्बा कौन सा था, यह कैसे याद रखता. यह नहीं, वो… हां यही, नहीं यह कोई और है. गाड़ी की रफ्तार ने जोर पकड़ लिया. मैं उसे कैसे रोकता वह पलभर में स्टेशन छोड़ कर सीटी मारती नजरों से ओझल हो गई. मैं प्लेटफार्म पर पागलों की तरह इधरउधर भागता रह गया.
अमजद मेरे साथ था. जब गाड़ी चली गई तो बोला, ‘‘बस करें भाई जान, आप का दोस्त गाड़ी में से आप को देख चुका होगा. समझ गया होगा कि आप उस के साथ नहीं जा रहे हैं. अब जल्दी चलें.’’
मैं उस के साथ चल दिया. वह बोला, ‘‘भाईजान, यह बैग किस का है. क्या आप ने खरीदा था?’’
मुझे करंट सा छू गया. उफ वह बेबस लड़की उस का बैग, टिकट सब कुछ मेरे पास रह गया. हो सकता है उस के छोटे पर्स में चंद सिक्कों के अलावा और कुछ न हो. वह कहां जाएगी, क्या करेगी?
उस वक्त मैं ने अमजद से झूठ बोला कि हां, यह बैग मैं ने कल ही खरीदा था. हम दोनों परेशानी की हालत में घर पहुंचे. अब्बू अम्मी को अस्पताल ले गए थे. घर में बहनभाई रो पीट रहे थे. ऐसी हालत में शाहीना का खयाल अपने आप दिमाग से फिसल गया. उन्हें संभालने और अस्पताल से संपर्क करने में पूरा दिन लग गया. अम्मी को लगातार देखभाल और तीमारदारी की आवश्यकता थी.
अब्बू के बाद मुझे उन के पास बैठना पड़ा. सारी रात चिंता में गुजर गई. अगली सुबह उन की हालत थोड़ी सी सुधरी. घर में किसी को खानेपीने का होश नहीं था. मेरी छोटी बहन सलमा से घर संभाला नहीं जा रहा था. वह बातबात पर रो पड़ती थी. अब्बू दूसरी बहनों को इत्तला देना नहीं चाहते थे. अजीब परेशानी ने आ घेरा था. इस सारे मामले में 6 दिन लग गए. अम्मी ने आंखें खोलीं और मुझे सामने देख कर रो पड़ीं. मैं भी रोने लगा.
वह अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं. घर पर उन्हें मिलनेजुलने वालों ने आ घेरा. 20-30 दिन गुजर गए. घर की हालत बिगड़ गई थी, बड़ी बहन फरीदा ने घर को ठीक करने की जिम्मेदारी संभाल ली. फरीदा आगरा में रहती थी. अब्बू ने दूर के लोगों को अम्मी की बीमारी की खबर नहीं पहुंचाई थी. बाद में जिस को भी खबर मिलती गई एकएक कर के आता गया.
फरीदा बाजी सब से आखिर में आईं और 2 महीना रह कर गईं. उन्होंने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी. जब अम्मी की तबीयत ठीक हुई तो उन्होंने झाड़ू संभाल कर घर का कोनाकोना चमका दिया. मेरे कमरे की भी बारी आ गई. अलमारी से मेरा बैग निकाला तो वह मेरे सामने ले कर आ गईं. बोलीं, ‘मंसूर यह किस का बैग है. बाहर से लौक भी है, तुम ने कब खरीदा है?’
मेरा चेहरा फक हो गया. मैं ने उन से बैग ले लिया. बोला, ‘बाजी, यह मेरे एक दोस्त की अमानत है. इसे वहीं रहने दें, जब वो आएगा उसे पहुंचा दूंगा.
अब आप को पता लग गया होगा कि जेवरात से मुझे क्यों एलर्जी है. इस बैग में यही जेवरात तो थे जो मैं ने अपनी बीवी को शादी की पहली रात उतारने के लिए कहा था. मैं ने शाहीना की खबर मालूम करने की कोशिश की थी. जब अम्मी अस्पताल में थीं, मैं वहीद साहब के घर गया था. उन के घर पर ताला पड़ा हुआ था. मोहल्ले के एक आदमी ने बताया कि वो लोग यहां से चले गए हैं. उन्होंने किसी को कुछ बताए बगैर घर छोड़ दिया था.
वो दिन और आज का दिन मुझे शाहीना या उस के घर वालों की कोई इत्तला नहीं मिली. वहीद साहब ने फर्म से 2 महीने की छुट्टी ले ली थी. बाद में उन का इस्तीफा आ गया. वह दुबई रवाना हो गए. अब्बू को डाक्टरों ने मशविरा दिया कि आप अपनी बीवी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाएं. शायद उन्हें कैंसर है.
अब्बू उन्हें ले कर मुंबई चले गए. वहां टाटा अस्पताल में उन के टैस्ट वगैरह हुए. लेकिन सब सही निकले. 2 महीने बाद अब्बू वापस आए. उन्हें मुंबई इतना पसंद आया कि उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर लिया. उन्होंने वहीं एक प्राइवेट फर्म में नौकरी ढूंढ ली और वहीं जा कर बस गए. हम सब भी उन के साथ मुंबई आ गए. इस उम्मीद से मेरे पास था कि शाहीना मिलेगी तो उसे लौटा दूंगा. ऐसे ही 6 साल बीत गए.
मुझे नौकरी मिल गई. तरक्की हो गई. पढ़ाई भी पूरी हो गई. तब शादी का जिक्र छिड़ा. उस वक्त तक अब्बू पर छोटे भाई और बहन की जिम्मेदारी थी. अम्मी की बीमारी पर अच्छाखासा कर्जा हो गया था. मुझे सब कुछ खुद की करना था. यहां मैं ने दूसरी कमीनगी की और वो बैग खोल लिया.
बैग में सोने के 3 कीमती सैट और 30 हजार की रकम रखी हुई थी. उन्हीं पैसों और जेवरात से मेरी शादी का इंतजाम हुआ.
मैं ने एक सैट बरी पर चढ़ाया. दूसरा शादी की दूसरी रात बीवी के हवाले कर दिया. तीसरा पहले बेटे की पैदाइश पर उसे तोहफे में दे दिया. बताइए मैं इन जेवर का और क्या करता? और अब जब उन्हें बीवी के गले और हाथों में देखता हूं तो जान निकलने लगती है.
उस से कई बार कहा कि बीवी इसे बदलवा कर कोई नया जेवर खरीद लो. मगर वह आंखों में नशा भर कर शादी के शुरुआती दिनों को याद करने लगती है और मैं सिकुड़ने लगता हूं. उसे कैसे बताऊं कि जब भी तुम्हें इन जेवरात में लिपटा देखता हूं, शाहीना की आवाजें सुनाई देती हैं, ‘हमें बंबई स्टेशन पर जरूर उतार लेना, वरना हम खो जाएंगे.’
मेरे बदन पर कंपकंपी छा जाती है. खुद खो जाता हूं और मेरी भोली बीवी यह समझती है कि मैं शादी के सुहाने दिनों की यादों में गुम हो गया हूं.
मैं ने आगे रास्ते पर बढ़ते हुए हाथ हिला दिया था. उस ने भी जवाब में हाथ हिला दिया था, ‘‘सुबह फिर मिलेंगे.’’ दूसरी सुबह मुलाकात होनी थी उस से. सो, मैं ने अपना सब से कीमती सूट पहना था. मेल खाती टाई लगाई थी. इतना ही नहीं, अपने कपड़ों पर एक बेहतरीन इत्र भी लगाया था. फिर गुनगुनाते हुए कमरे के दरवाजे पर ताला लगा कर बड़ी तेजी से सड़क पर आ गया था. मैं ने देखा था कि वह उसी सुंदर मकान के आगे खड़ी मुड़मुड़ कर मेरी राह देख रही थी. हम दोनों एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए और बड़े खुश हुए थे. न जाने क्या सोच कर वह चहकते हुए बोली थी,
‘‘क्या बात है? आज तो तुम महकते हुए खूब फब रहे हो. एकदम सिनेमा के ‘हीरो’ जैसे…’’ इतना कहतेकहते वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘लेकिन, सचमुच आप से कम…’’ मैं ने कहा था, ‘‘मुझे जो फिल्मी हीरोइन पसंद है, अगर इस समय आप के सामने आ जाए तो वह भी पानी भरे.’’ इसी तरह कुछ देर तक घुलमिल कर बातें होती रहीं. फिर उस ने अपना नाम ‘ऊषा’ बताते हुए पूछा, ‘‘क्या आप किसी फैक्टरी में इंजीनियर हैं?’’ उस के इस सवाल से मैं सकपका गया था. फिर खुद को संभालते हुए मुसकरा भर दिया था. ‘‘ठीक?है,’’ उस ने कहा था. वह सचमुच बेहद खुश हो गई थी,
‘‘मैं भी यही समझती थी कि आप किसी बड़ी और शानदार जगह पर हैं.’’ मैं ने पूछा, ‘‘और आप क्या हैं दवा वाली उस फैक्टरी में?’’ ‘‘मैं वहां क्या हूं?… बस यही समझ लीजिए कि किसी तरह सिर्फ समय गुजारती रहती हूं,’’ उस ने कनखियों से मुझे देखते हुए कहा था, ‘‘यों तो मुझे नौकरी करने की कोई खास जरूरत ही न थी. पिताजी ‘बैंक औफ इंडिया’ में मैनेजर हैं. भाई ‘किर्लोस्कर’ के एजेंट और भाभी स्कूल में पढ़ाती हैं. घर में अकेली मैं क्या करूं? मां हैं नहीं, न दूसरा कोई भाईबहन, सो दवाओं की ‘सल्फरी’ गंध के बीच टाइप का काम करती हूं.’’ जवाब देते समय आखिरी बात कहतेकहते वह झेंप भी गई, जो मुझे कुछ ज्यादा लुभा गया. अपनी झेंप पर काबू पाते हुए वह बोली, ‘‘बुरा न मानें तो क्या मैं आप का नाम जान सकती हूं?’’ ‘‘एक ही शर्त पर.’’ ‘‘कौन सी?’’ वह बोली. ‘‘इस बनावटी ‘आपवाप’ के चक्कर से बरी रखना मुझे,’’ मैं ने शरारती अंदाज में कहा था. ‘‘चलो, ऐसा ही सही,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘तो सुन लो और गुन लो जरा गौर से, मांबाप से ज्यादा मेरे चाचा ने रखा था इसे अरमान से…’’ ‘‘अरे बाबा, शायरी से बाहर आओ, मुझ को अपना नाम बताओ,’’
उस ने टोका था मुझे. ‘‘शायरी तो अब तुम भी करने लगी हो ऊषा. वैसे, मेरा नाम है प्रत्यूष. कहो कैसा लगा?’’ ‘‘अरे वाह, बहुत अच्छा. बड़ा प्यारा नाम है, ऊषा से भी कितना मिलताजुलता है. हां, कुछ मुश्किल भी तो है. लेकिन क्या मतलब होता?है इस का… क्या नाम बोला था, ऊष… यूष…’’ ‘‘अजी, ‘ऊष यूष’ नहीं, प्रत्यूष, प्रत्यूष. मतलब, सुबह की लाली से पहले का सूरज… समझीं?’’ ‘‘तब भी एकदम से मिलताजुलता नाम है. ‘प्रत्यूष’ मतलब सवेरे का सूरज और ‘ऊषा’ यानी सुबह, सब को जागने का संदेश देने वाली. है न ठीक?’’ ‘‘बिलकुल ठीक.’’ वह अपनी फैक्टरी की ओर जा चुकी थी और मैं पूरे दिन उस से हुई बातों की याद में डुबकियां लगाता रह गया था. उस के बाद हम दोनों ने अपने नंबर एकदूसरे को दिए. मैं ने नाम में ‘भूचल’ बस लिखा. सड़क का एक दोराहा सा बनता था
, जहां से हम अलगअलग रास्तों की ओर बंट जाते थे. कुछ शायद इस डर से भी कि हम पर फब्तियों और बोलियों की बौछार न हो. एक बात और थी कि मैं अपनेआप को उस से कुछ दिनों तक छुपाएबचाए रखना चाहता था. ये ‘कुछ दिन’ असल में ‘कुछ बरस’ भी हो सकते थे और शायद यह जिंदगी भी. पर देखो तो जिंदगी की मीआद सचमुच कितनी छोटी होती?है. सच तो यह है कि मैं तब दिनरात अच्छी ऊषा और ऊषा के लिए ही अच्छी जिंदगी के ख्वाब में खोया रहने लगा था. मैं अकसर सोचता था कि अगर हर महीने कुछ बचत करूं, तो थोड़ाथोड़ा करते काफीकुछ जमा हो जाएगा. फिर मैं एक मशीन लगवा लूंगा और एक अच्छीखासी फैक्टरी का मालिक बन जाऊंगा. तब ऊषा और मेरा जीवन सुख से बीतेगा. तब तक तो शायद बच्चे भी हो जाएं. उन्हें हम फूलों की तरह रखेंगे. दुनिया के बड़ेबड़े लोगों व धनीमानी लोगों की जिंदगी तक में भी शायद ऐसे ही हरेभरे सपने हुआ करते हैं.
जो आगे चल कर सचाई में बदल जाया करते हैं. आखिर वह कौन सी जादुई छड़ी हुआ करती है उन के पास? कहीं से वह मुझे भी मिल जाए, अगर तो… मैं खूब मजे लेले कर पूरी मेहनत के साथ अपना काम करने लगा था उन दिनों, ताकि बड़ा आदमी बनने का मेरा सपना भी जल्दी पूरा हो जाए. मैं खूब ओवरटाइम भी करने लगा था. इस वजह से मुझे थोड़ी ज्यादा आमदनी हो जाती थी. मेरे मांबाप गांव के थे, जिन की गुजरबसर खेती से हो जाती थी. 7 दिनों में सिर्फ एक दिन हमारी मुलाकात होती थी. हम, यानी मैं और ऊषा चौड़ा बाजार के ‘विवेक रैस्टोरैंट’ में कौफी पीया करते थे. उन दिनों अकसर ऊषा मुझ से पूछ लिया करती थी, ‘‘हर पल क्या सोचते रहते हैं आप?’’ मैं उस के सवाल सुन कर चौंक उठता और कहता, ‘‘मैं… मैं… यही कि मेरी भी कभी एक फैक्टरी होगी… क्यों, तुम्हारा क्या खयाल है?’’ ‘‘सोचती हूं वह दिन जल्दी आए और…’’ ‘‘और क्या?’’ वह शरमा कर कुछ देर चुप रहने के बाद ज्यादा से ज्यादा यही कहती, ‘‘बताऊंगी.’’ छुट्टी के बाद मैं अपने काले पड़ चुके हाथों को लकड़ी के बुरादे और साबुन से रगड़रगड़ कर धोया करता था. साथी कारीगर कृष्णमोहन, जिसे मेरा नाम ‘
प्रत्यूष’ तक ठीक से कहना नहीं आता था या जो शायद लोगों के नाम बिगाड़ने में ही ज्यादा दिलचस्पी लेता था, अकसर कह पड़ता मुझ से, ‘‘परती भाई, कितना ही रगड़ कर हाथ साफ करो, कल फिर यह रंग चढ़ ही जाएगा. फिर क्या फायदा चमड़ी छीलने से? अरे, यह तो रोजीरोटी का रंग है. काला हुआ तो क्या, है तो जीवनभर का रंग भाई.’’ इधर कुछ दिनों से मेरे पड़ोस में रहमान खान की बेटी सलमा मुझ से कुछ ज्यादा मिलने लगी थी. हो सकता?है, प्यार में कोई खुशबू होती होगी कि और तितलियां मंडराने लगती हैं. अभी उस दिन वह रात 8 बजे आई और मेरे दरवाजा खोलते ही अंदर घुस कर तुरंत दरवाजा बंद कर दिया.’’ ‘‘यह क्या कर रही हो सलमा? लोग क्या कहेंगे.’’ ‘‘जानू, लोग क्या कहेंगे यह छोड़ो. यह सुनो मेरा दिल क्या कह रहा है,’’ कह कर उस ने जबरन मेरा सिर अपनी छातियों में छिपा लिया. मैं ने मुश्किल से पकड़ ढीली की. वह बेहद मजबूत थी. रंग थोड़ा सांवला था,
पर एक सैक्सी लुक लिए. ‘‘जानू, तुम्हारे लिए रातदिन तड़प रही हूं,’’ मैं ने उसे चुप करते हुए कहा, ‘‘सलमा, जमाना खराब है. मुसलिम लड़की एक हिंदू के घर दिखी तो बेकार में हंगामा हो जाएगा.’’ वह बोली, ‘‘अरे, जमाने से डरते हो तो क्या करोगे, मैं तो नहीं डरती.’’ ‘‘वह घंटों मेरे पास बैठ कर बकबक करती रही. ऊषा उस के मुकाबले में सुंदर तो थी, पर न हाथ लगाती, न हाथ लगाने देती. लेकिन सलमा बिंदास थी. ऊषा दूरदूर रहने वाली. काले बुरके में तो उस का रंग और निखर उठता, पर मैं तो ऊषा का दीवाना था. रोज दूसरे मजदूर कैसे भी हाथमुंह धोधा कर निकल जाते, किंतु मैं बहुत आराम से शानदार सफारी सूट आदि झाड़, कंघीशंघी कर के अफसर बन कर निकलता. तब तक तो तमाम लोग निकल चुके होते थे. ऊषा अपनी फैक्टरी से आगे निकल कर दोराहे के पास वहीं खड़ी मिलती. मिलते ही मेरी ओर लपकने के साथ शिकायत भरे लहजे में कहती, ‘‘क्यों बड़ी देर लगा देते हो तुम?’’ मैं उस के कंधों को थपथपा कर यों ही झूठमूठ कह देता, ‘‘तुम तो जानती ही हो ऊषा, कितनी जिम्मेदारी का काम है. छुट्टी के बाद सारा काम समेट कर आना पड़ता है.’’ लगभग ढाई साल बीत चुके हैं उस अनचाही शाम को. पर लगता है, जैसे कल ही की बात है. गरमियों की उस शाम ऊषा ने अचानक मुझ से कहा था, ‘‘कितनी सुंदर शाम है और बड़ी प्यारी भी. चलो ऊष, आज किसी पार्क में चल कर बैठते हैं.’’ वह प्यार में मुझे ‘प्रत्यूष’ की जगह ‘ऊष’ बोला करती थी. मैं ने तभी एक आटोरिकशा रोका था,
‘‘चलो भाई, रोज गार्डन.’’ हम पार्क में काफी देर तक बैठे थे. उस शाम आंधीवांधी नहीं चल रही थी. पार्क में हर ओर बच्चे और उन की किलकारियां, हंसी और चीखें गूंज रही थीं. हम एक तरफ हरी घास पर बैठ गए थे. बहुत देर तक एकदूसरे को खोएखोए से देखते रहे. मैं ने ही तब मौन तोड़ा था, ‘‘आज कोई खास बात है क्या? आज मुझे इस तरह अजीब नजरों से देखा जा रहा है. खैरियत तो है?’’ ‘‘खैरियत जरूर मनाओ, खास बात तो है ही…’’ उस ने कहा था, ‘‘तुम्हें देख कर पिताजी बहुत खुश होंगे. वह भी क्या याद करेंगे कि ऊषा की पसंद का भी कोई कमाल देखा था उन्होंने. कितनी अच्छी पसंद है उन की बेटी की.’’ ‘‘तुम ने कह दिया है अपने पिताजी से मेरे बारे में?’’ ‘‘और नहीं तो क्या? वही तो कहने वाली थी तुम से कि कल शाम पिताजी ने बुलाया है तुम्हें. सो, तुम्हें चलना होगा.’’ 21वीं सदी का एक सुंदर तोहफा मेरे सामने था. मैं ने खुशी से उसे अपनी बांहों में भर लिया था. मैं ने पूछा था, ‘‘क्या सचमुच?’’ वह मेरी बांहों में से निकल छूटने की कोशिशों में कसमसाती हुई सी बोली थी,
‘‘हां, सच मेरे प्राण.’’ अगले दिन छुट्टी हो जाने के बाद मैं ग्रीस और कालिख लगा अपना चेहरा खूब रगड़रगड़ कर धो रहा था. मेरे बदन पर तेल और ग्रीस के दागधब्बों से नहाई चीकट सी पैंटशर्ट भी पड़ी थी. मेरे साथ के मिस्त्री और कारीगर जाने कब के चले भी गए थे. हफ्तों के तेल सने और कालिख पुते कपड़ों के बीच अपने हाथों और चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो, मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया.
साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद, उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब.
दिनेश हर सुबह पैदल टहलने जाता था. कालोनी में इस समय एक पुलिस अफसर नएनए तबादले पर आए हुए थे. वे भी सुबह टहलते थे. एक ही कालोनी का होने के नाते वे एकदूसरे के चेहरे पहचानने लगे थे.
आज कालोनी के पार्क में उन से भेंट हो गई. उन्होंने अपना परिचय दिया और दिनेश ने अपना. उन का नाम हरपाल सिंह था. वे पुलिस में डीएसपी थे और दिनेश कालेज में प्रोफैसर.
वे दोनों इधरउधर की बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी सामने से आते एक शख्स को देख कर हरपाल सिंह रुक गए. दिनेश को भी रुकना पड़ा.
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हरपाल सिंह ने उस आदमी के पैर छुए. उस आदमी ने उन्हें गले से लगा लिया.
हरपाल सिंह ने दिनेश से कहा,
‘‘मैं आप का परिचय करवाता हूं. ये हैं रामप्रसाद मिश्रा. बहुत ही नेक, ईमानदार और सज्जन इनसान हैं. ऐसे आदमी आज के जमाने में मिलना मुश्किल हैं.
‘‘ये मेरे गुरु हैं. ये मेरे साथ काम कर चुके हैं. इन्होंने अपनी जिंदगी ईमानदारी से जी है. रिश्वत का एक पैसा भी नहीं लिया. चाहते तो लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकते थे.’’
अपनी तारीफ सुन कर रामप्रसाद मिश्रा ने हाथ जोड़ लिए. वे गर्व से चौड़े नहीं हो रहे थे, बल्कि लज्जा से सिकुड़ रहे थे.
दिनेश ने देखा कि उन के पैरों में साधारण सी चप्पल और पैंटशर्ट भी सस्ते किस्म की थीं. हरपाल सिंह काफी देर तक उन की तारीफ करते रहे और दिनेश सुनता रहा. उसे खुशी हुई कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग हैं.
कुछ समय बाद रामप्रसाद मिश्रा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं.’’
उन के जाने के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘क्या काम करते हैं ये सज्जन?’’
‘‘एक समय इंस्पैक्टर थे. उस समय मैं सबइंस्पैक्टर था. इन के मातहत काम किया था मैं ने. लेकिन ऐसा बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. चाहता तो आज बहुत बड़ा पुलिस अफसर होता लेकिन अपनी ईमानदारी के चलते इस ने एक पैसा न खाया और न किसी को खाने दिया.’’
‘‘लेकिन अभी तो आप उन के सामने उन की तारीफ कर रहे थे. आप ने उन के पैर भी छुए थे,’’ दिनेश ने हैरान हो कर कहा.
‘‘मेरे सीनियर थे. मुझे काम सिखाया था, सो गुरु हुए. इस वजह से पैर छूना तो बनता है. फिर सच बात सामने तो नहीं कही जा सकती. पीठ पीछे ही कहना पड़ता है.
‘‘मुझे क्या पता था कि इसी शहर में रहते हैं. अचानक मिल गए तो बात करनी पड़ी,’’ हरपाल सिंह ने बताया.
‘‘क्या अब ये पुलिस में नहीं हैं?’’ दिनेश ने पूछा.
‘‘ऐसे लोगों को महकमा कहां बरदाश्त कर पाता है. मैं ने बताया न कि न किसी को घूस खाने देते थे, न खुद खाते थे. पुलिस में आरक्षकों की भरती निकली थी. इन्होंने एक रुपया नहीं लिया और किसी को लेने भी नहीं दिया. ऊपर के सारे अफसर नाराज हो गए.
‘‘इस के बाद एक वाकिआ हुआ. इन्होंने एक मंत्रीजी की गाड़ी रोक कर तलाशी ली. मंत्रीजी ने पुलिस के सारे बड़े अफसरों को फोन कर दिया. सब के फोन आए कि मंत्रीजी की गाड़ी है, बिना तलाशी लिए जाने दिया जाए, पर इन पर तो फर्ज निभाने का भूत सवार था. ये नहीं माने. तलाशी ले ली.
‘‘गाड़ी में से कोकीन निकली, जो मंत्रीजी खुद इस्तेमाल करते थे. ये मंत्रीजी को थाने ले गए, केस बना दिया. मंत्रीजी की तो जमानत हो गई, लेकिन उस के बाद मंत्रीजी और पूरा पुलिस महकमा इन से चिढ़ गया.
‘‘मंत्री से टकराना कोई मामूली बात नहीं थी. महकमे के सारे अफसर भी बदला लेने की फिराक में थे कि इस आदमी को कैसे सबक सिखाया जाए? कैसे इस से छुटकारा पाया जाए?
‘‘कुछ समय बाद हवालात में एक आदमी की पूछताछ के दौरान मौत हो गई. सारा आरोप रामप्रसाद मिश्रा यानी इन पर लगा दिया गया. महकमे ने इन्हें सस्पैंड कर दिया.
‘‘केस तो खैर ये जीत गए. फिर अपनी शानदार नौकरी पर आ सकते थे, लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ये आदमी नहीं सुधरा. दूसरे दिन अपने बड़े अफसर से मिल कर कहा कि मैं आप की भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकता. न ही मैं यह चाहता हूं कि मुझे फंसाने के लिए महकमे को किसी की हत्या का पाप ढोना पड़े. सो मैं अपना इस्तीफा आप को सौंपता हूं.’’
हरपाल सिंह की बात सुन कर रामप्रसाद के प्रति दिनेश के मन में इज्जत बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं रामप्रसादजी?’’
हरपाल सिंह ने हंसते हुए कहा,
‘‘4 हजार रुपए महीने में एक प्राइवेट स्कूल में समाजशास्त्र के टीचर हैं. इतना नालायक, बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. इस की इन बेवकूफाना हरकतों से एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर आना पड़ा. अब बेचारा आईटीआई में फिटर का कोर्स कर रहा है.
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‘‘दहेज न दे पाने के चलते बेटी की शादी टूट गई. बीवी आएदिन झगड़ती रहती है. इन की ईमानदारी पर अकसर लानत बरसाती है. इस आदमी की वजह से पहले महकमा परेशान रहा और अब परिवार.’’
‘‘आप ने इन्हें समझाया नहीं. और हवालात में जिस आदमी की हत्या कर इन्हें फंसाया गया था, आप ने कोशिश नहीं की जानने की कि वह आदमी कौन था?’’
हरपाल सिंह ने कहा, ‘‘जिस आदमी की हत्या हुई थी, उस में मंत्रीजी समेत पूरा महकमा शामिल था. मैं भी था. रही बात समझाने की तो ऐसे आदमी में समझ होती कहां है दुनियादारी की? इन्हें तो बस अपने फर्ज और अपनी ईमानदारी का घमंड होता है.’’
‘‘आप क्या सोचते हैं इन के बारे में?’’
‘‘लानत बरसाता हूं. अक्ल का अंधा, बेवकूफ, नालायक, जिद्दी आदमी.’’
‘‘आप ने उन के सामने क्यों नहीं कहा यह सब? अब तो कह सकते थे जबकि इस समय वे एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और आप डीएसपी.’’
‘‘बुराई करो या सच कहो, एक ही बात है. और दोनों बातें पीठ पीछे ही कही जाती हैं. सब के सामने कहने वाला जाहिल कहलाता है, जो मैं नहीं हूं.
‘‘जैसे मुझे आप की बुराई करनी होगी तो आप के सामने कहूंगा तो आप नाराज हो सकते हैं. झगड़ा भी कर सकते हैं. मैं ऐसी बेवकूफी क्यों करूंगा? मैं रामप्रसाद की तरह पागल तो हूं नहीं.’’
दिनेश ने उसी दिन तय किया कि आज के बाद वह हरपाल सिंह जैसे आदमी से दूरी बना कर रखेगा. हां, कभी हरपाल सिंह दिख जाता तो वह अपना रास्ता इस तरह बदल लेता जैसे उसे देखा ही न हो.
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मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम… जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की
‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो. मेरी दोनों कनपटियां बज रही थीं. चारों ओर जैसे एक ही आवाज गूंज रही थी, ‘चले जाओ धोखेबाज… आग लगा दो अपनी टाइयों को. मैं तुम से नफरत करती हूं… नफरत.’ फिर उस के बाद ऊषा मुझे नहीं मिली. शायद, उस ने वह काम छोड़ दिया था या शहर ही. कभीकभार मेरी नजरें उसे अब भी खोजती हैं ऐसे दिलकश मौसम में, यही मेरी उदासी का राज है. हां, उस के बाद मैं ने सलमा से शादी कर ली. शुरूशुरू में कुछ हल्ला हुआ, पर बाद में सब चुप हो गए, क्योंकि हम दोनों के घरों का रहनसहन एक सा था.
मेरे दिल में कसक तो रही कि ऊषा नहीं मिली, पर सलमा की वजह से आज मेरा छोटा सा अपना कारखाना है, जिस में 20-25 लोग काम करते हैं. मेरे कारखाने के सारे मजदूर जब बाहर निकलते हैं, तो वे पूरे बाबू लगते हैं. सलमा के साथ शादी करने पर समझ आया कि जो खाई है वह हिंदूमुसलिम की कम, पैसे की और जाति की ज्यादा है. सलमा समझ नहीं पाती कि आखिर उस पेड़ से मेरा क्या संबंध है. उसे समझा कर करूंगा भी क्या.