मानसून स्पेशल: उदासी की खाई

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 3

‘‘पर उन इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में परिवार को कष्ट होता है तो होता रहे? स्वाति ने तो कनक से साफ कह दिया कि वह विवाह के बाद संयुक्त परिवार में नहीं रहेगी.’’

‘‘तोे कनक ने क्या कहा?’’

‘‘वह तो हतप्रभ रह गया, कुछ सूझा ही नहीं उसे.’’

‘‘क्या कह रही हो, भाभी? उसे साफ शब्दोें में कहना चाहिए था कि वह परिवार का बड़ा बेटा है. परिवार से अलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वाति ने तो अपने मन की बात कह दी, कोई दूसरी लड़की विवाह के बाद यह मांग करेगी तो क्या करेगा कनक और क्या करेंगी आप?’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है,’’ विमलाजी की आंखें छलछला आईं, स्वर भर्रा गया.

‘‘इतना असहाय अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है. घरपरिवार आप का है. इसे सजाने व संवारने में अपना जीवन होम कर दिया आप ने. दृढ़ता से कहो कि इस तरह के निर्णय बच्चे नहीं लेते बल्कि आप स्वयं लेती हैं.’’

‘‘मेरे कहने से क्या होगा, दीदी. लड़की यदि झगड़ालू हुई तो हम सब का जीना दूभर कर देगी. कनक तो इसी कारण नौकरी वाली लड़की चाहता है. उसे तो झगड़ा करने का समय ही नहीं मिलेगा.’’

‘‘पर स्वाति तो नौकरी वाली युवतियों से भी अधिक व्यस्त रहती है. राव साहब के रेडीमेड कपड़ों के डिपार्टमैंट में महिला और बाल विभाग स्वाति संभालती है, उस के डिजाइनों को लाखों के आर्डर मिलते हैं.’’

‘‘पर कनक तो कह रहा था कि स्वाति केवल स्नातक है. उसे कहीं नौकरी तक नहीं मिलेगी.’’

‘‘हां, पर फैशन डिजाइनिंग में स्नातक है. इतना बड़ा व्यापार संभालती है तो नौकरी करने का प्रश्न ही कहां उठता है. मुझे लगता है कनक ने उस से कुछ पूछा ही नहीं, बस उस की सुनता रहा.’’

‘‘थोड़ा शर्मीला है कनक, पहली ही मुलाकात में किसी से घुलमिल नहीं पाता,’’ विमलाजी संकुचित स्वर में बोली थीं.

‘‘होता है, भाभी. पहली मुलाकात में ऐसा ही होता है. सहज होने में समय लगता है. मैं तो कहती हूं दोनों को मिलनेजुलने दो. एकदूसरे को समझने दो. आप भी ठोकबजा कर देख लो, सबकुछ समझ में आए तभी अपनी स्वीकृति देना.’’

‘‘आप की बात सच है. मैं कनक से कहूंगी कि स्वाति और वह फिर मिल लें. पर दीदी, सबकुछ कनक के हां कहने पर ही तो निर्भर करता है. तुम तो जानती ही हो, आज के समय में बच्चों पर अपनी राय थोपना असंभव है.’’

‘‘बिलकुल सही बात है पर तुम एक बार राव दंपती से मिल तो लो. उस दिन तुम और कनक अचानक उठ कर चले आए तब वे बहुत आहत हो गए थे.’’

‘‘उस के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं पर कनक अचानक ही उठ कर चल पड़ा तो मुझे उस का साथ देना ही पड़ा.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं है. जो हो गया सो हो गया. जब आप को सुविधा हो बता देना. मैं उसी के अनुसार राव दंपती से आप की भेंट का समय निश्चित कर लूंगी,’’ रमोलाजी ने सुझाव दिया था.

‘‘एक बार कनक से बात कर लूं फिर आप को फोन कर दूंगी.’’

‘‘एक बात कहूं, भाभी? बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, दीदी? आप की बात का बुरा मानूंगी? आप ने तो कदमकदम पर मेरा साथ दिया है. वैसे भी बच्चों के विवाह भी तो आप को ही करवाने हैं.’’

‘‘तो सुनो, समय बहुत खराब आ गया है. इसलिए सावधानी से सोचसमझ कर अपने निर्णय स्वयं लेना सीखो. आजकल के युवा अपने पैरों पर खड़े होते ही स्वयं को तीसमारखां समझने लगते हैं. मेरा तो अपने काम के सिलसिले में हर तरह के परिवारों में आनाजाना लगा रहता है. राजतिलकजी का नाम तो आप ने सुना ही होगा?’’

‘‘उन्हें कौन नहीं जानता,’’ विमला के नेत्र विस्फारित हो गए थे.

‘‘उन का इकलौता बेटा सुबोध, हर लड़की में कोई न कोई कमी निकाल देता था. फिर अपनी मरजी से स्वयं से 10 साल बड़ी अपनी अफसर से विवाह कर लिया. लड़की भी पहले की विवाहित थी. 2 बच्चे भी थे. दोनों परिवार बरबाद हो गए. राजतिलकजी का तो दिल ही टूट गया.’’

‘‘सच कह रही हो, दीदी, आजकल की औरतों ने तो हयाशरम बेच ही खाई है,’’ विमलाजी ने हां में हां मिलाई थी.

‘‘सो मत कहो भाभी. सैनी साहब का नाम तो सुना ही होगा आप ने?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘उन के बेटे निखिल ने तो अपने पुरुष मित्र से ही विवाह कर लिया. बेचारे सैनी साहब तो शरम के मारे अपना घर बेच कर चले गए,’’ रमोलाजी ने बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘लगता है अब घोर कलियुग आ गया है,’’ विमलाजी ने इतना बोल कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया.

‘‘इसीलिए तो कहती हूं, भाभी. सावधान हो जाओ और होशियारी से काम लो. बच्चे आखिर बच्चे हैं…दुनियादारी की बारीकियां वे भला क्या समझें,’’ रमोलाजी विदा लेते हुए बोली थीं.

रमोलाजी चली गई थीं पर विमला को सकते में छोड़ गईं, ‘‘ठीक कहती हैं रमोला. निर्णय तो स्वयं लेंगी. कनक क्या जाने जीवन की पेचीदगियों को.’’

रमोलाजी तुरुप का पत्ता चल गई थीं और जानती थीं कि उन का दांव कभी खाली नहीं जाता.

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 3

असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.

तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.

यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.

जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.

रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.

अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.

जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.

जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.

असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.

दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.

‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.

‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’

भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’

बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 1

‘‘क्या हुआ? इस तरह उठ कर क्यों चला आया?’’ कनक को अचानक ही उठ कर बाहर की ओर जाते देख कर विमलाजी हैरानपरेशान सी उस के पीछे चली आई थीं.

‘‘मैं आप के हावभाव देख कर डर गया था. मुझे लगा कि आप कहीं रिश्ते के लिए हां न कर दें इसलिए उठ कर चला आया. मैं ने वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी,’’ कनक ने समझाया.

‘‘हां कहने में बुराई ही क्या है? विवाह योग्य आयु है तुम्हारी. कितना समृद्ध परिवार है. हमारी तो उन से कोई बराबरी ही नहीं है. उन की बेटी स्वाति, रूप की रानी न सही पर बुरी भी नहीं है. लंबी, स्वस्थ और आकर्षक है. और क्या चाहिए तुझे?’’ विमला देवी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘मां, आप की और मेरी सोच में जमीनआसमान का अंतर है. लड़की सिर्फ स्नातक है. चाह कर भी उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘लो, उसे भला नौकरी करने की क्या जरूरत है? रमोलाजी तो कह रही थीं कि स्वाति के मातापिता बेटी को इतना देंगे कि सात पीढि़यों तक किसी को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. ऐसे परिवार की लड़की नौकरी क्यों करेगी?’’

‘‘नौकरी करने के लिए योग्यता चाहिए, मां. मुझे तो इस में कोई बुराई भी नहीं लगती. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. मुझे अमीर बाप की अमीर बेटी नहीं, अपने जैसी शिक्षित, परिश्रमी और ढंग की नौकरी करने वाली पत्नी चाहिए.’’

‘‘अपना भलाबुरा समझो कनक बेटे. तुम क्या चाहते हो? तुम और तुम्हारी पत्नी नौकरी करेगी और मैं जैसे अभी सुबह 5 बजे उठ कर सारा काम करती हूं. तुम सब भाईबहनों के टिफिन पैक करती हूं, तुम्हारे विवाह के बाद भी मुझे यही सब करना पड़ा तो मेरा तो बेटा पैदा करने का सुख ही जाता रहेगा,’’ विमला ने नाराजगी जताई थी.

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं, मां. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है? मुझे तो लड़की वालों का व्यवहार बड़ा ही संदेहास्पद लग रहा है. जरा सोचो, मां, इतना संपन्न परिवार अपनी बेटी का विवाह मुझ जैसे साधारण बैंक अधिकारी से करने को क्यों तैयार है?’’

‘‘तुम स्वयं को साधारण समझते हो पर बैंक मैनेजर की हस्ती क्या होती है इसे वे भलीभांति जानते हैं.’’

‘‘हमारे परिवार के बारे में भी वे अच्छी तरह से जानते होंगे न मां, मेरे 2 छोटे भाई अभी पढ़ रहे हैं. दोनों छोटी बहनें विवाह योग्य हैं.’’

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? इन सब का भार क्या तुम्हारे कंधों पर है? तुम्हारे पापा इस शहर के जानेमाने चिकित्सक थे. तुम्हारे दादाजी भी यहां के मशहूर दंत चिकित्सक थे. इतनी बड़ी कोठी बना कर गए हैं तुम्हारे पूर्वज. बाजार के बीच में बनी दुकानों से इतना किराया आता है कि तुम कुछ न भी करो तो भी हमारा काम चल जाए.’’

‘‘मां, पापा और दादाजी थे, अब नहीं हैं. हमारी असलियत यही है कि 6 लोगों के इस परिवार का मैं अकेला कमाऊ सदस्य हूं.’’

‘‘बड़ा घमंड है अपने कमाऊ होने पर? इसलिए स्वाति के परिवार के सामने तुम ने मेरा अपमान किया. मुझ से बिना कुछ कहे ही तुम्हारे वहां से चले आने से मुझ पर क्या बीती होगी यह कभी नहीं सोचा तुम ने,’’ विमलाजी फफक उठी थीं.

‘‘मां, मैं आप को दुख नहीं पहुंचाना चाहता था पर जरा सोचो, विवाह के बाद कोई मुझे आप से छीन कर अलग कर दे तो क्या आप को अच्छा लगेगा?’’ कनक ने विमलाजी के आंसू पोंछे थे.

‘‘कनक, यह क्या कह रहा है तू?’’ वे चौंक उठी थीं.

‘‘वही, जो मैं वहां से सुन कर आ रहा हूं. आप सब हम दोनों को अकेला छोड़ कर चले गए थे. हम ने अपने भविष्य पर विस्तार से चर्चा की. मेरी और स्वाति की सोच में इतना अंतर है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. वह यदि सातवें आसमान पर है तो मैं रसातल में.’’

‘‘ऐसा क्या कहा उस ने?’’

‘‘पूछ रही थी कि सगाई की अंगूठी कहां से खरीदोगे. हाल ही में किसी फिल्मी हीरोइन का विवाह हुआ है. कह रही थी उस की अंगूठी 3 करोड़ की थी. मैं कितने की बनवाऊंगा.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने हंस कर बात टाल दी कि बैंक का अफसर हूं. बैंक का मालिक नहीं और बैंक में डकैती डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

कनक के छोटे भाई तनय व विनय और बहनें विभा और आभा खिलखिला कर हंस पड़े थे.

‘‘तुम लोगों को हंसी आ रही है और मेरा चिंता के कारण बुरा हाल है,’’ विमला ने सिर थाम लिया था.

‘‘छोटीछोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दो, मां, सदा खुश रहना सीखो, दुख भरे दिन बीते रे भैया…’’ तनय ने अपने हलकेफुलके अंदाज में कहा.

‘‘चिंता तो मेरे जीवन के साथ जुड़ी है बेटे. आज तेरे पापा होते तो ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय वे ही लेते पर अब तो मुझे ही सोचसमझ कर सब कार्य करना है.’’

‘‘और क्या कहा स्वाति ने, भैया?’’ विभा ने हंसते हुए बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘मैं बताती हूं दीदी, विवाह परिधान किस डिजाइनर से बनवाया जाएगा. गहने कहां से और कितने मूल्य के खरीदे जाएंगे. हनीमून के लिए हम कहां जाएंगे. स्विट्जरलैंड या स्वीडन,’’ आभा ने हासपरिहास को आगे बढ़ाया.

‘‘कनक भैया, सावधान हो जाओ. दीवाला निकलने वाला है तुम्हारा. यहां तो उलटी गंगा बह रही है. पहले लड़की वाले दहेज को ले कर परेशान रहते थे. यहां तो शानशौकत वाले विवाह का सारा भार तुम्हारे कंधों पर आ पड़ा है,’’ विनय भी कब पीछे रहने वाला था.

‘‘चुप रहो तुम सब. यह उपहास का विषय नहीं है. हम यहां गंभीर विषय पर विचारविमर्श कर रहे हैं. विभा और आभा तुम्हारी कल से परीक्षाएं हैं, जाओ उस की तैयारी करो. यहां समय व्यर्थ मत गंवाओ. तनय, विनय, तुम लोग भी जाओ, अपना काम करो और हमें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो,’’ विमला ने चारों को डपटा.

चारों चुपचाप उठ कर चले गए थे.

‘‘हां, अब बताओ और क्या बातें हुईं तुम दोनों के बीच. पता तो चले कि वह लड़की हमारे साथ हिलमिल पाएगी या नहीं,’’ एकांत पाते ही विमला ने पूछा था.

 

डाक्टर बेटी : शमीम कुर्सी पर बैठे हुए क्या ख्वाब देख रही थी

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे – भाग 1

हर औरत की तरह मेरी बीवी हूरा बेगम को भी जेवरात का बड़ा शौक है. मैं ने शादी पर जो जेवरात चढ़ाए थे, 20 साल गुजरने के बावजूद उन्हें यों सीने से लगाए रखती है जैसे बंदरिया अपने बच्चे को. मैं उस से कहता भी हूं, ‘हूरा बेगम इन्हें बेच कर नए फैशन के जेवरात खरीद लाओ. तुम्हारा दिल इन से अभी तक भरा नहीं?’

तो वो एकदम जज्बाती सी हो कर कहती है ‘मंसूर इंसान का उन चीजों से कभी दिल नहीं भरता जो उस के दिलोदिमाग में खुशगवार यादों की बस्ती आबाद कर देती हों. जब मैं आज की बोझिल जिम्मेदारियों से थक कर इन जेवरात की पिटारी खोलती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं वही नई ब्याहता दुल्हन हूं और तुम अपने जज्बात से लरजते हाथों से मुझे ये जेवर पहना रहे हो.

तुम्हें याद है न, तुम ने चुपके से अपनी बहन सलमा से कहलवाया था कि हूरा से कह देना जब मैं आऊं तो वो फूलों का गहना पहने मिले, धातु के जेवरात उतार देना. मैं ने तुम्हारा हुक्म फौरन मान लिया था. मगर पता नहीं क्यों मुझे यह बदशगुनी सी लगी थी कि शादी की पहली रात ही दूल्हे को अपने रूप का जलवा दिखाए बगैर दुलहन जेवर उतार दे.

मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. तुम ने मेरे दुखी दिल को महसूस कर के पूछा था ‘हूरा क्या बात है तुम खुश नहीं लग रहीं. क्या मुझ से शादी तुम्हारी मरजी के बगैर हुई है?’ मैं ने तड़प कर तुम्हारे मुंह पर हाथ रख दिया था, याद है न. फिर तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने अपने दिल की बात बता दी थी.

तुम बहुत देर तक गुमसुम से बैठे रहे थे. फिर उठ कर मेरे पास आ गए थे और जेवरात का डिब्बा खोल कर सारे जेवर मुझे अपने हाथों से पहनाते हुए कहा था. लो बस अपना दिल मैला न करो.

आज की रात एकदूसरे के लिए हमारे दिल में मोहब्बत के सिवा और कोई जज्बा पैदा नहीं होना चाहिए. तुम्हें याद है न? और तुम ने मुंह दिखाई में मुझे यह सैट दिया था?’

मेरी बीवी यह वाकया कई बार मुझे सुना चुकी है. हर बार वह एक मजे के साथ इस वाकिए का एकएक लफ्ज सौसौ रंगों में डुबो कर सुनाती है. मगर बेवकूफ यह नहीं जानती कि यह वाकया सुनते हुए मेरा ब्लडप्रेशर हाई होने लगता है. उसे नहीं मालूम कि उस के शौहर को इन जेवरात से क्या एलर्जी होती है. उस ने शादी की पहली रात यह क्यों कहा था कि वो फूलों का गहना पहन ले. हर आदमी की जिंदगी में कुछ बातें ऐसी जरूर होती हैं जिन का राजदार वो खुद ही होता है.

सालोंसाल बल्कि सारी उम्र साथ रहने वाली बीवी भी नहीं जानती कि उस के शौहर के दिल के चंद खाने उस से छिपे हुए हैं. वह खुश कर देने वाले चंद जुमलों से अपने दिल को आबाद करती रहती है. खुद को धोखा देती रहती है कि उस की जिंदगी में दाखिल होने वाली मैं वो अकेली औरत हूं जो उस के दिलोदिमाग पर पूरी तरह कब्जा किए हुए है.

इस आत्ममुग्धता के सहारे वो खुशीखुशी अपने जिस्मोजान की कुर्बानी देती चली जाती है. अच्छा ही है कि वह इस आत्ममुग्धता में डूबी रहती है. अगर वह हर सच्चाई की तह में उतरने वाली अकल ले कर पैदा होती तो शिकारी फितरत वाला मर्द सारी उम्र शिकार से महरूम (वंचित) रह जाता.

हां, दूसरे मर्दों की तरह मैं भी शिकारी फितरत वाला मर्द था. जवानी के दौर में कई सारी लड़कियां मेरी मोहब्बत के जाल में फंस कर मुझ पर अपना तनमन और धन न्यौछावर करती रहीं. कुलसुम, जैनब, हमीदा, गुलफ्शां, साजिदा. कोई एक नाम हो तो याद भी करूं, बहुत से चेहरे तो वक्त ने धुंधला भी दिए हैं.

सिर्फ एक चेहरा ऐसा है जिसे मैं कोशिश के बावजूद अपनी नजरों से जुदा नहीं कर सका हूं. और वो है शाहीना का चेहरा. उस का बाप एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उन दिनों मैं ने इंटर का इम्तिहान दिया था. वक्त ही वक्त था.

मेरे एक दोस्त ने मशविरा दिया कि जब तक रिजल्ट न आ जाए हम कहीं नौकरी कर लेते हैं. अगर कामयाब हो गए तो पढ़ाई जारी रखेंगे. कभी नौकरी पढ़ाई में रुकावट बनी तो उसे छोड़ देंगे. वह गुजराती लड़का था. हमेशा फायदे की बात सोचा करता था.

हम दोनों की गाढ़ी छनती थी. हम दोनों ने नौकरी की तलाश बड़ी लगन से शुरू कर दी. दोनों एक साथ कई औफिसों की धूल छानते फिरा करते थे. इस फाकामस्ती (दरिद्रता) की हालत में भी मोहब्बत का कारोबार जारी रहता था.

यहांवहां घूमतेभटकते शाहीना के अब्बा से मुलाकात हो गई. वो अकाउंटेंट थे. उन्होंने हमारी दरखास्तें बड़े गौर से पढ़ीं और दोनों को बुलवा लिया. कहने लगे हमारे यहां एक जगह खाली है. और वो भी टैंपरेरी है. संभव है कुछ महीनों बाद हम वो पद खत्म कर दें या स्थाई कर दें. यह बात अगले 3 महीने बाद मीटिंग में ही तय होगी, तुम में से एक को यह नौकरी दी जा सकती है. आपस में फैसला कर लो कि तुम दोनों में से ज्यादा जरूरत किस को है?

मेरा गुजराती दोस्त फौरन पीछे हट गया. कहने लगा, ‘जनाब मेरे इस दोस्त को रख लीजिए. मेरे अब्बा की दुकान है, मैं तो वैसे भी व्यस्त रहता हूं. यह बिलकुल बेकार फिरता रहता है. इसे बैठने का ठिकाना मिल जाएगा.’

इस तरह मुझे नौकरी मिल गई. इस पद के रहने न रहने का अधिकार वहीद साहब के हाथ में था. इसलिए मैं ज्यादातर उन्हीं के आसपास मंडराता रहता था. उन्होंने मुझे अपने निजी कामों के लिए घर भेजना शुरू कर दिया. घर में शाहीना से मुलाकात हो गई. गोरी रंगत वाली यह लड़की मेरी नजरों में आ गई.

उन दिनों मेरा चक्कर जैनब से चल रहा था, जो मेरे लगातार झूठ बोलने से तंग आ गई थी. वह चुपकेचुपके अपने रिश्ते के भाई को शीशे में उतार कर शादी की तैयारियां कर रही थी. मुझे उस की बहन ने सब कुछ बता दिया था.

इस से पहले कि वो मुझे दुत्कारती मैं खुद उसे छोड़ना चाहता था. मगर जब तक इस ध्ांधे के लिए कोई दूसरी लड़की नहीं मिलती, यह जरा मुश्किल काम लगता था. शाहीना पर नजर पड़ी तो दिल ने चुटकी ली कि लो मियां तुम्हारा बंदोबस्त हो गया. लड़की कम बोलती है, सूरतशक्ल अच्छी है. थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ेगी. यह कौन सा मुश्किल है, ज्यादा से ज्यादा एकदो हफ्ते लगातार अदाकारी करनी पड़ेगी.

सब से पहले मैं ने उस का बैकग्राउंड मालूम किया. पता चला कि शाहीना वहीद साहब की सगी औलाद नहीं है. वह उस की मां के पहले शौहर से है. मां का तलाक हो गया था. बच्ची उसी के पास रही. उस ने वहीद साहिब से शादी कर ली. उन की बीवी एक बच्चे को जन्म दे कर मर चुकी थी. बच्चा जिंदा था.

उस की परवरिश के लिए वह दूसरी शादी के इच्छुक थे. शाहीना की उम्र उस समय ढाई साल थी. किसी दोस्त के जरिए से यह रिश्ता तय हो गया था. शादी के बाद दोनों मियांबीवी ने अपने बच्चों की हिफाजत के लिए एक फैसला किया.

बीवी अपने फैसले पर कायम रही, उस ने वहीद साहब के बेटे को अपनी औलाद से बढ़ कर प्यार दिया. मगर वहीद साहब अपनी सौतेली बच्ची से दिमागी तौर पर समझौता न कर सके. उन्होंने कभी उसे गोद तक में नहीं लिया. उस की जरूरतों का खयाल न रखा. ऊपर से 4 बच्चे और आ गए शाहीना बिलकुल बैकग्राउंड (नेपथ्य) में चली गई.

जैसेजैसे वह बड़ी होती गई उस पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया. मां को इतना समय नहीं मिलता था कि उस की परेशानियों को समझ सकती. वो अंदर ही अंदर अपने सारे बहनभाइयों से जलती थी, जिन्होंने मिल कर उस की मां को उस से छीन लिया था.

पढ़ाई में कमजोर थी या शायद उस ने अपना सारा दिमाग बहनभाइयों को जलाते रहने की तरकीबों पर लगा दिया था. बाप उस से नफरत करता था. हर गलती उसी के सिर पर थोप कर उस से पूछताछ करता था.

देखने में तो कम बोलने वाली और दूसरों की खिदमत करते रहने वाली लड़की नजर आती थी, मगर जैसेजैसे उस के भेद खुलते गए मुझे अंदाजा हो गया कि वह बहनभाइयों को आपस में लड़वा कर बड़ी खुश होती है.

19-20 बरस की लड़की, नन्ही बच्ची की तरह भागतीदौड़ती फिरा करती थी. कभी आंगन वाले पेड़ पर चढ़ जाती तो कभी दीवार पर जा बैठती. जुबान नहीं खोलती थी. मैं ने कुछ दिन उस की मनोस्थिति समझने में लगाए फिर बिल्ली की तरह पुचकार कर उसे अपने करीब कर लिया.

उस की गुर्राहटें आहिस्ताआहिस्ता कम होने लगीं. लहजे में नरमी आ गई. जज्बात की हल्की सी तपिश से उस के दिल की सख्त चट्टान मोम में बदल गई और इस से पहले कि जैनब मुझे अपनी शादी का कार्ड थमाती, मैं ने शाहीना से मोहब्बत का इकरार करवा लिया.

जैनब की छुट्टी कर के मैं जोरशोर से शाहीना पर मरने लगा. मुझे उस जमाने में हर लड़की फ्लर्ट लगती थी. शायद इसलिए कि मेरी पहले की सारी महबूबाओं में एक भी वफा वाली नहीं थी. वहीद साहब के हुक्म पर जब भी मैं उन के घर जाता था, मोहल्ले के किसी बच्चे के हाथ पहले ही शाहीना को इत्तला भिजवा दिया करता था.

वह किसी न किसी बहाने बैठक (उस जमाने में ड्राइंगरूम को बैठक कहते थे) में आ जाती. मुझ से मिलने के बाद उस के चेहरे पर काफी सुकून छा जाता. अकसर कहती थी मंसूर आप ने हमारे दिल में जीने की उमंग पैदा कर दी है. वरना हम सोचा करते थे किसी रोज अफीम खाकर मर जाएं. हम से यहां कोई प्यार नहीं करता. अब्बू कहते हैं कि हमारी रगों में उन का खून नहीं है, इसलिए हम बदतमीज हैं, चालाक हैं, बेहूदा हैं.

उन्हें हमारे अंदर दुनिया भर की कमियां नजर आती हैं. अम्मी उन्हें और उन की औलाद को खुश करने के लिए हमें उन सब के सामने जलील करती रहती हैं. वो हम से इतना काम लेती हैं कि अगर हम कहीं नौकरी कर लें तो इस जगह से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जिंदगी गुजार सकते हैं.

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 2

‘‘मां, विनय, तनय, विभा और आभा की कल्पना की हर बात पूछी थी उस ने. पर एक और बात भी पूछी थी जो उन चारों तो क्या आप की कल्पना से भी परे है और वह बात बता कर मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता.’’

‘‘ऐसा क्या कहा था उस ने? अब बता ही डाल. नहीं तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो न मां, क्या करोगी सुन कर? इस बात को यहीं समाप्त करो. इसे आगे बढ़ाने  का कोई लाभ नहीं है. कहते हैं न कि जिस गांव में जाना नहीं उस का पता क्या पूछना.’’

‘‘प्रश्न बात आगे बढ़ाने का नहीं है. पर सबकुछ पता हो तो निर्णय लेना सरल हो जाता है.’’

‘‘तो सुनो मां. स्वाति पूछ रही थी कि विवाह के बाद हम कहां रहेंगे?’’

‘‘कहां रहेंगे का क्या मतलब है? हमारी इतनी बड़ी कोठी है. कहीं और रहने का प्रश्न ही कहां उठता है,’’ विमलाजी का स्वर अचरज से भरा था.

‘‘वह कह रही थी कि सास, ननद और देवरों के चक्कर में पड़ कर मैं अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. उसे तो स्वतंत्रता चाहिए, पूर्ण स्वतंत्रता,’’ कनक ने अंतत: बता ही दिया था.

‘‘हैं, जो लड़की विवाह से पहले ही ऐसी बातें कर रही है वह विवाह के बाद तो जीना दूभर कर देगी. अच्छा किया जो तुम उठ कर चले आए. ऐसे संस्कारों वाली लड़की से तो दूर रहना ही अच्छा है.’’

‘‘मां, इस बात को यहीं समाप्त कर दो. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है आप को. विभा व आभा के भी कुछ प्रस्ताव हैं, उन के बारे में सोचिए न,’’ कनक ने उठने का उपक्रम किया था.

विमलाजी शून्य में ताकती अकेली बैठी रह गई थीं. उन्होंने सुना अवश्य था कि आधुनिक लड़कियां न झिझकती हैं न शरमाती हैं. जो उन्हें मन भाए उसे छीन लेती हैं. नहीं तो पहली ही भेंट में स्वाति की कनक से इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? शायद उस के मातापिता उस की इच्छा के खिलाफ उस का विवाह करना चाह रहे हैं और उस ने ऐसे अनचाहे संबंध से पीछा छुड़ाने का यह नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला हो.

‘‘क्या हुआ, मां? किस सोच में डूबी हो,’’ विमलाजी को सोच में डूबे देख विभा ने पूछा था.

‘‘कुछ नहीं रे. ऐसे ही थोड़ी थक गई हूं.’’

‘‘आराम कर लो कुछ देर. खाना मैं बना देती हूं,’’ विभा उन का माथा सहलाते हुए बोली थी.

‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी कल परीक्षा न होती तो मैं स्वयं तुम से कह देती. मैं कुछ हलकाफुलका बना लेती हूं, तुम जा कर पढ़ाई करो,’’ विमलाजी स्निग्ध स्वर में बोली थीं.

वे धीरे से उठ कर रसोईघर में जा घुसी थीं. उन्होंने अपने थकने की बात विभा से कही थी पर सच तो यह था कि आज की घटना ने उन का दिल दहला दिया था. अपने पति डा. उमेश को असमय ही खो देने के बाद उन्होंने स्वयं को शीघ्र ही संभाल लिया था. अपने बच्चों के भविष्य के लिए वे चट्टान की भांति खड़ी हो गई थीं. वे स्वयं पढ़ीलिखी थीं, चाहतीं तो नौकरी कर लेतीं पर अपने हितैषियों की सलाह मान कर उन्होंने घर पर ही रहने का निर्णय लिया था.

उमेश की बहन डा. नीलिमा ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था पर पिछले 5 वर्ष से वे अपने परिवार के साथ लंदन में बस गई थीं. पहले उन्होंने सोचा था कि उन से बात कर के ही मन हलका कर लें. पर शीघ्र ही उस विचार को झटक कर अपने कार्य में व्यस्त हो गईं. यह सोच कर कि इतनी दूर बैठी नीलिमा दीदी भला उन्हें क्या सलाह दे सकेंगी. वैसे भी जब कनक खुद इस विवाह के लिए तैयार नहीं है तो इस बात को आगे बढ़ाने का अर्थ ही क्या है?

दूसरे दिन रमोलाजी का फोन आ गया.

‘‘विमलाजी, कल आप अचानक ही उठ कर चली आईं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, राव दंपती तो हक्केबक्के रह गए.’’

‘‘बात यह है रमोलाजी कि यह संबंध हमें जंचा नहीं. इसीलिए हम चले आए.’’

‘‘क्यों नहीं जंचा, विमलाजी, आप आज्ञा दें तो मैं स्वयं आ जाऊं. राव दंपती तो स्वयं आना चाह रहे थे पर मैं ने ही उन्हें मना कर दिया और समझाया कि पहले मैं जा कर वस्तुस्थिति का पता लगाती हूं. आप लोग बाद में आइएगा. आप कहें तो अभी आ जाऊं.’’

‘‘अभी तो मैं जरा व्यस्त हूं. बच्चों के कालेज जाने का समय है. आप 2 घंटे के बाद आ जाइए. तब तक मैं अपना काम समाप्त कर लूंगी,’’ विमलाजी बोली थीं.

‘‘किस का फोन था, मां?’’ फोन पर मां का वार्त्तालाप सुन कर कनक के कान खड़े हो गए थे.

‘‘रमोलाजी थीं. घर आ कर मिलना चाहती हैं.’’

‘‘टाल देना था मां. आप तो रमोलाजी को अच्छी तरह से जानती हैं. जोडि़यां मिलाना उन का धंधा है. वे आप को ऐसी पट्टी पढ़ाएंगी कि आप मना नहीं कर सकेंगी.’’

‘‘वे तो इसे समाज की सेवा कहती हैं. तुम ने सुना नहीं था कि कल कैसे अपनी प्रशंसा के पुल बांध रही थीं. उन के ही शब्दों में उन्होंने जितनी जोडि़यां मिलाई हैं सब बहुत सुखी हैं.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, मां, आप बातों में उन से जीत नहीं सकतीं. आप अभी फोन कर के कोई बहाना बना दीजिए,’’ कनक ने सुझाव दिया था.

‘‘मैं रमोलाजी को व्यर्थ नाराज नहीं करना चाहती. उन की अच्छेअच्छे परिवारों में पैठ है. चुटकी बजाते ही रिश्ते पक्के करवाने में उन का कोई सानी नहीं है. फिर विभा और आभा का विवाह भी करवाना है. तुम कहां टक्कर मारते घूमोेगे?’’

‘‘ठीक है. खूब स्वागतसत्कार कीजिए रमोलाजी का पर सावधान रहिए और दृढ़ता से काम लीजिए. विभा की बात भी उन के कान में डाल दीजिए. अच्छा तो मैं चलता हूं.’’

रमोलाजी आई तो विमलाजी पूरी तरह से चाकचौबंद थीं. रमोलाजी की लच्छेदार बातों से वे भलीभांति परिचित थीं अत: मानसिक रूप से भी तैयार थीं.

‘‘क्या हुआ विमला भाभी? कल आप दोनों बिना कुछ कहेसुने राव साहब के यहां से उठ कर चले आए. जरा सोचिए, उन्हें कितना बुरा लगा होगा. मुझ से तो कुछ कहते ही नहीं बना,’’ रमोलाजी ने आते ही शिकायत की थी.

‘‘कनक से स्वाति की बातचीत हुई थी. उसे लगा कि उन दोनों के विचारों में बहुत अंतर है. इसलिए वह उठ कर चला आया तो उस के साथ मैं भी चली आई. विवाह तो उसी को करना है.’’

‘‘कैसी बात करती हो, भाभी. इतने अच्छे रिश्ते को क्या आप यों ही ठुकरा दोगी. मैं तो आप के भले के लिए ही कह रही थी. यों समझो कि लक्ष्मी स्वयं चल कर आप के घर आ रही है और आप उसे ठुकरा रही हैं?’’

‘‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता, दीदी. और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है.’’

‘‘तो बताओ न, बात क्या है? क्यों कनक वहां से उठ कर चला आया?’’

‘‘क्या कहूं, जो कुछ कनक ने बताया वह सुन कर मैं तो अब तक सकते में हूं,’’ विमलजी रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘ऐसा क्या कह दिया स्वाति ने? मैं तो उस को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मेरी बेटी की वह बहुत अच्छी सहेली है. जिजीविषा तो उस में कूटकूट कर भरी है. यह मैं इसलिए नहीं कह रही कि मैं उस का रिश्ता कनक के लिए लाई हूं. तुम उसे अपनी बहू न बनाओ तब भी मैं उस के बारे में यही कहूंगी.’’

‘‘आप तो स्वाति की प्रशंसा के पुल बांध रही हैं पर कनक तो उस से मिल कर बहुत निराश हुआ है.’’

‘‘क्यों? उस की निराशा का कारण क्या है?’’

‘‘बहुत सी बातें हैं. स्वाति उस से पूछ रही थी कि वह सगाई की अंगूठी कहां से और कितने की बनवाएगा, विवाह की पोशाक किस डिजाइनर से बनवाई जाएगी. ऐसी ही और भी बातें.’’

‘‘बस, इतनी सी बात? उस ने अंगूठी और पोशाक के बारे में पूछ लिया और कनक आहत हो गया? हर युवती का अपने विवाह के संबंध में कुछ सपना होता है. उस ने प्रश्न कर लिया तो क्या हो गया? भाभी, आजकल हमारा और तुम्हारा जमाना नहीं रहा, आजकल की युवतियां बहुत मुखर हो गई हैं. वे अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं करतीं उसे पूरा भी करना चाहती हैं.’’

 

डाक्टर बेटी : शमीम कुर्सी पर बैठे हुए क्या ख्वाब देख रही थी- भाग 1

सांझ हो गई थी. शमीम अपने मकान की बैठक में आरामकुरसी पर बैठी हुई थी. उस के सामने दीवार पर एक फोटो टंगा हुआ था. यह फोटो उस की बेटी नीलोफर का था, जिसे वह प्यार से ‘नीलो’ कहती थी. कई साल बाद उस की बेटी अपनी पढ़ाई पूरी कर के उस दिन घर लौट रही थी. शमीम के पति वसीम उसे लाने के लिए रेलवे स्टेशन गए हुए थे. नीलोफर कोटा में रह कर नीट की तैयार कर रही थी और उस के साथ ही 1-2 और परीक्षाओं की कोचिंग उस ने ले रखी थी.

वसीम ने कहा तो शमीम से भी था कि वह भी उस के साथ चले, पर वह घर पर रह कर अपनी बेटी की आवभगत की तैयारी करना चाहती थी. फिर उसे अपनी बेटी की मनपसंद ढेर सी चीजें भी तो बनानी थीं. शमीम ने सारा सामान तैयार कर लिया था और अपने पति व बेटी की राह देख रही थी. नीलो का फोटो देखतेदेखते अचानक कुछ कड़वी यादें उभर आईं. नीलो के जन्म के समय उस की जिंदगी में कितना भयंकर तूफान आतेआते रह गया था… उस दिन वह अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी. वार्ड के बाहर वसीम अपनी अम्मी अमीना बेगम के साथ बेचैनी से चहलकदमी कर रहे थे. वार्ड का दरवाजा खुलते ही वसीम ने लपक कर डाक्टर मालिनी से पूछा था,

‘‘डाक्टर… शमीम कैसी है?’’ ‘‘हालात तो काफी नाजुक थे, पर बहुत कोशिश के बाद तुम्हारी बीवी और बेटी की जान बच गई, लेकिन…?’’ ‘‘लेकिन, क्या डाक्टर…?’’ ‘‘अब शमीम कभी मां न बन सकेगी…’’ एक पल के लिए वसीम सन्नाटे में आ गया था, लेकिन तुरंत ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया और मुसकरा कर बोला, ‘‘सच… हमारे घर बेटी आई है…’’ फिर वसीम ने जैसे ही वार्ड में जाना चाहा, अमीना बेगम चीख पड़ीं, ‘‘ठहरो वसीम…’’ वसीम ने पलट कर अपनी अम्मी की ओर देखा, ‘‘अम्मी, क्या बात है?’’ ‘‘तुम शमीम से नहीं मिलोगे…’’ ‘‘लेकिन, क्यों अम्मी…?’’ वसीम ने अचरज भरी नजर से अपनी अम्मी की ओर देखा. ‘‘इसलिए कि शमीम तुम्हारे लिए मुसीबत बन कर आई है.

इस बार भी उस ने बेटी को जन्म दिया है. वह तो अच्छा हुआ कि इस से पहले पैदा हुई दोनों बेटियां मर गईं… और ऊपर से जुल्म यह कि अब वह कभी मां न बन सकेगी. जरा सोचो, बेटे के बिना तुम्हारे खानदान का नाम कैसे चलेगा?’’ ‘‘यह आप की गलतफहमी है अम्मी. इस जमाने में बेटी किसी भी तरह से बेटे से कम नहीं है. दोष हमारी सोच का है. हम बेटे को तरजीह देते हैं, बेटी को नहीं. एक दिन मेरी बेटी भी मेरा और मेरे खानदान का नाम रोशन करेगी. हमारी फुलवारी का यह इकलौता फूल अपनी खुशबू से पूरे समाज को महका देगा, अम्मी.’’ ‘‘वसीम… तुम मुझ से जबान लड़ा रहे हो,

मानसून स्पेशल : सोने की चिड़िया

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे – भाग 3

उन्होंने खुशी से इजाजत दे दी. अम्मी की तबीयत पहले ही खराब रहती थी, वह कहने लगीं, ‘तुम इतनी दूर चले जाओगे अगर पीछे मुझे कुछ हो गया, तो जनाजे में भी शिरकत न कर सकोगे.’

मैं ने उन्हें तसल्ली दी, ‘आप फिक्र न करें. वहां सब से पहले आप को बुलाऊंगा. एकडेढ़ महीने की बात है फिर आप भी मेरे पास होंगी.’

जिस रोज मुझे घर छोड़ना था. उन की तबियत कुछ ज्यादा बिगड़ गई. डाक्टर को बुलवाया. उस ने आराम का मशविरा दिया कहने लगा कि इन के खून बनने की रफ्तार कुछ सुस्त हो गई है. पूरा चैकअप करवाएं और फिक्रमंद न होने दें.

मैं दिमागी तौर पर 2 हिस्सों में बंट गया. शाहीना से वक्त तय हो चुका था, गाड़ी जाने में अभी कुछ घंटे बाकी थे. अम्मी की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें छोड़ कर चल देता. सोचा अब्बू से मशविरा ले लूं. उन से पूछा तो वह कहने लगे, मियां इंटरव्यू दे आओ. यहां मैं इन्हें संभालने के लिए हूं, तुम अपना रास्ता खोटा मत करो.

मैं ने बहुत ही बेदिली से अपना सामान समेटा. एकदो जोड़ी कपड़ों और शेव के सामान के अलावा साथ ले जाने के लिए और क्या था. डाक्टर ने अम्मी को नींद की गोली दे दी थी. वह गहरी नींद सो रही थीं. उन्हें इत्मीनान और सुकून की हालत में देख कर मेरे इरादे ने फिर मजबूती पकड़ी.

अब्बू से दुआसलाम कर के घर से निकला. रिक्शा पकड़ कर सीधा स्टेशन पहुंचा. पहले ही देर हो चुकी थी. टिकट बड़ी मुश्किल से मिले. शाहीना अभी तक नहीं आई थी. मैं सीढि़यों के पास ही खड़ा हो गया. मुझे मालूम था कि वह नीला बुरका पहन कर आएगी. हाथ में उसी रंग का पर्स होगा. नकाब नहीं उलटेगी. तय था कि जब तक वह खुद इशारा न करे, मैं उस के करीब न जाऊं.

गाड़ी जाने में 10 मिनट रह गए थे, जब वह आती दिखाई दी. नीले जौर्जेट के नकाब में उस की आंखें मुझे तलाश रही थीं. जैसे ही मैं उसे दिखाई दिया. वह तेजी से मेरी तरफ आई. यह बात हमारे प्रोग्राम में शामिल नहीं थी. इसलिए थोड़ा सा घबरा गया.

वह मेरे करीब आ कर बोली, ‘‘यह बैग अपने पास रखिएगा. बेहतर होगा कि आप इसे अपनी अटैची में रख लें. टिकट सैकंड क्लास का ही लिया है न.’’

हम लेडीज डिब्बे में जा कर बैठ रहे हैं. अगले स्टेशन पर आप हमें टिकट दे दें और इस के बाद आप हर स्टेशन पर मत उतरिएगा. सुबहसवेरे जो स्टेशन आए आप मुंह जरूर धो आइए. हम दूर से देख लेंगे और हां, बंबई स्टेशन पर आप हमें जरूर उतार लें वरना हम खो जाएंगे.

ये नसीहतें मेरे कान में उड़ेल कर उस ने अपना बैग मुझे थमाया और तेजतेज कदमों से लेडीज डिब्बे की तरफ लपकी. वक्त बहुत कम था. मैं चाहता था कि वह बैठ जाए तो मैं उस का डिब्बा देख लूं ताकि उस से संपर्क रखने में आसानी हो. फिर भाग कर किसी करीबी डिब्बे में सवार हो जाऊंगा. मेरे एक हाथ में अटैची थी. दूसरे में उस ने बैग थमा दिया था.

जब वह डिब्बे में सवार हो गई तो मैं भाग कर एक करीबी डिब्बे की तरफ लपका. मगर पीछे से मेरे छोटे भाई अमजद की आवाज आई, ‘‘भाईजान, भाईजान.’’

आवाज पास से ही आई थी. मैं ने गरदन घुमा कर देखा. अमजद का सांस फूला हुआ था. लगता था यह भागता हुआ आया है. कहने लगा, ‘‘भाईजान, अम्मी की हालत नाजुक है. अब्बू ने मुझे भेजा है कि आप को रोक लूं. आप का नाम ले ले कर बुला रही हैं. प्लीज भाईजान, जल्दी चलें. अब्बू उन्हें अस्पताल में एडमिट कर रहे हैं.’

गाड़ी ने सीटी दे दी थी. अमजद मेरा दामन घसीट रहा था और पता नहीं वो वेवकूफ  सी लड़की मुझे देख भी रही थी या बैठने के लिए जगह बना रही थी. उसे मुझ पर पूरा भरोसा होगा कि मैं उस के साथ चल रहा हूं. मगर मैं अपने ऊपर से विश्वास खो चुका था. कभी गाड़ी की तरफ भागता और कभी अमजद की तरफ. 12 साल का अमजद परेशान हो कर जोरजोर से रोने लगा था. वह समझ रहा था कि मैं उस के साथ जाने में आनाकानी कर रहा हूं.

सब्र का दामन मेरे हाथ से छूट गया. मैं ने अमजद को खींच कर सीने से लगा लिया. उसे तसल्ली दी कि अच्छे बच्चे रोते नहीं, मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं. मेरा एक दोस्त गाड़ी में है उसे बता दूं कि मैं उस के साथ नहीं चल रहा हूं.

इतने में गाड़ी चल दी. मैं गाड़ी की तरफ  दौड़ा. डिब्बा कौन सा था, यह कैसे याद रखता. यह नहीं, वो… हां यही, नहीं यह कोई और है. गाड़ी की रफ्तार ने जोर पकड़ लिया. मैं उसे कैसे रोकता वह पलभर में स्टेशन छोड़ कर सीटी मारती नजरों से ओझल हो गई. मैं प्लेटफार्म पर पागलों की तरह इधरउधर भागता रह गया.

अमजद मेरे साथ था. जब गाड़ी चली गई तो बोला, ‘‘बस करें भाई जान, आप का दोस्त गाड़ी में से आप को देख चुका होगा. समझ गया होगा कि आप उस के साथ नहीं जा रहे हैं. अब जल्दी चलें.’’

मैं उस के साथ चल दिया. वह बोला, ‘‘भाईजान, यह बैग किस का है. क्या आप ने खरीदा था?’’

मुझे करंट सा छू गया. उफ वह बेबस लड़की उस का बैग, टिकट सब कुछ मेरे पास रह गया. हो सकता है उस के छोटे पर्स में चंद सिक्कों के अलावा और कुछ न हो. वह कहां जाएगी, क्या करेगी?

उस वक्त मैं ने अमजद से झूठ बोला कि हां, यह बैग मैं ने कल ही खरीदा था. हम दोनों परेशानी की हालत में घर पहुंचे. अब्बू अम्मी को अस्पताल ले गए थे. घर में बहनभाई रो पीट रहे थे. ऐसी हालत में शाहीना का खयाल अपने आप दिमाग से फिसल गया. उन्हें संभालने और अस्पताल से संपर्क करने में पूरा दिन लग गया. अम्मी को लगातार देखभाल और तीमारदारी की आवश्यकता थी.

अब्बू के बाद मुझे उन के पास बैठना पड़ा. सारी रात चिंता में गुजर गई. अगली सुबह उन की हालत थोड़ी सी सुधरी. घर में किसी को खानेपीने का होश नहीं था. मेरी छोटी बहन सलमा से घर संभाला नहीं जा रहा था. वह बातबात पर रो पड़ती थी. अब्बू दूसरी बहनों को इत्तला देना नहीं चाहते थे. अजीब परेशानी ने आ घेरा था. इस सारे मामले में 6 दिन लग गए. अम्मी ने आंखें खोलीं और मुझे सामने देख कर रो पड़ीं. मैं भी रोने लगा.

वह अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं. घर पर उन्हें मिलनेजुलने वालों ने आ घेरा. 20-30 दिन गुजर गए. घर की हालत बिगड़ गई थी, बड़ी बहन फरीदा ने घर को ठीक करने की जिम्मेदारी संभाल ली. फरीदा आगरा में रहती थी. अब्बू ने दूर के लोगों को अम्मी की बीमारी की खबर नहीं पहुंचाई थी. बाद में जिस को भी खबर मिलती गई एकएक कर के आता गया.

फरीदा बाजी सब से आखिर में आईं और 2 महीना रह कर गईं. उन्होंने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी. जब अम्मी की तबीयत ठीक हुई तो उन्होंने झाड़ू संभाल कर घर का कोनाकोना चमका दिया. मेरे कमरे की भी बारी आ गई. अलमारी से मेरा बैग निकाला तो वह मेरे सामने ले कर आ गईं. बोलीं, ‘मंसूर यह किस का बैग है. बाहर से लौक भी है, तुम ने कब खरीदा है?’

मेरा चेहरा फक हो गया. मैं ने उन से बैग ले लिया. बोला, ‘बाजी, यह मेरे एक दोस्त की अमानत है. इसे वहीं रहने दें, जब वो आएगा उसे पहुंचा दूंगा.

अब आप को पता लग गया होगा कि जेवरात से मुझे क्यों एलर्जी है. इस बैग में यही जेवरात तो थे जो मैं ने अपनी बीवी को शादी की पहली रात उतारने के लिए कहा था. मैं ने शाहीना की खबर मालूम करने की कोशिश की थी. जब अम्मी अस्पताल में थीं, मैं वहीद साहब के घर गया था. उन के घर पर ताला पड़ा हुआ था. मोहल्ले के एक आदमी ने बताया कि वो लोग यहां से चले गए हैं. उन्होंने किसी को कुछ बताए बगैर घर छोड़ दिया था.

वो दिन और आज का दिन मुझे शाहीना या उस के घर वालों की कोई इत्तला नहीं मिली. वहीद साहब ने फर्म से 2 महीने की छुट्टी ले ली थी. बाद में उन का इस्तीफा आ गया. वह दुबई रवाना हो गए. अब्बू को डाक्टरों ने मशविरा दिया कि आप अपनी बीवी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाएं. शायद उन्हें कैंसर है.

अब्बू उन्हें ले कर मुंबई चले गए. वहां टाटा अस्पताल में उन के टैस्ट वगैरह हुए. लेकिन सब सही निकले. 2 महीने बाद अब्बू वापस आए. उन्हें मुंबई इतना पसंद आया कि उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर लिया. उन्होंने वहीं एक प्राइवेट फर्म में नौकरी ढूंढ ली और वहीं जा कर बस गए. हम सब भी उन के साथ मुंबई आ गए. इस उम्मीद से मेरे पास था कि शाहीना मिलेगी तो उसे लौटा दूंगा. ऐसे ही 6 साल बीत गए.

मुझे नौकरी मिल गई. तरक्की हो गई. पढ़ाई भी पूरी हो गई. तब शादी का जिक्र छिड़ा. उस वक्त तक अब्बू पर छोटे भाई और बहन की जिम्मेदारी थी. अम्मी की बीमारी पर अच्छाखासा कर्जा हो गया था. मुझे सब कुछ खुद की करना था. यहां मैं ने दूसरी कमीनगी की और वो बैग खोल लिया.

बैग में सोने के 3 कीमती सैट और 30 हजार की रकम रखी हुई थी. उन्हीं पैसों और जेवरात से मेरी शादी का इंतजाम हुआ.

मैं ने एक सैट बरी पर चढ़ाया. दूसरा शादी की दूसरी रात बीवी के हवाले कर दिया. तीसरा पहले बेटे की पैदाइश पर उसे तोहफे में दे दिया. बताइए मैं इन जेवर का और क्या करता? और अब जब उन्हें बीवी के गले और हाथों में देखता हूं तो जान निकलने लगती है.

उस से कई बार कहा कि बीवी इसे बदलवा कर कोई नया जेवर खरीद लो. मगर वह आंखों में नशा भर कर शादी के शुरुआती दिनों को याद करने लगती है और मैं सिकुड़ने लगता हूं. उसे कैसे बताऊं कि जब भी तुम्हें इन जेवरात में लिपटा देखता हूं, शाहीना की आवाजें सुनाई देती हैं, ‘हमें बंबई स्टेशन पर जरूर उतार लेना, वरना हम खो जाएंगे.’

मेरे बदन पर कंपकंपी छा जाती है. खुद खो जाता हूं और मेरी भोली बीवी यह समझती है कि मैं शादी के सुहाने दिनों की यादों में गुम हो गया हूं.

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