Family Story: अम्मां जैसा कोई नहीं

Family Story: अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह किया

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Hindi Family Story: उपेक्षा – कैसे टूटा अनुभा का भ्रम?

Hindi Family Story: हमेशा सहेलियों की तरह रहने वाली मां और अनीषा चाची का व्यवहार अनुभा को आज पहली बार असहज लगा. अनीषा चाची कुछ परेशान लग रही थीं. मां के बहुत पूछने पर उन्होंने हिचकते हुए बताया, ‘‘मेरा चचेरा भाई सलिल यहां ट्रेनिंग पर आ रहा है शीतल भाभी. रहेगा तो कंपनी के गैस्टहाउस में, लेकिन छुट्टी के रोज तो आया ही करेगा.’’

‘‘नहीं आएगा तो गाड़ी भेज कर बुला लिया करेंगे,’’ शीतल उत्साह से बोली, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘परेशान होने वाली बात तो है शीतल भाभी. मम्मी कहती हैं कि तेरे घर में जवान लड़की है, फिर उस की सहेलियां भी आतीजाती होंगी. ऐसे में सलिल का तेरे घर आनाजाना सही नहीं होगा.’’

‘‘उसे आने से रोकना सही होगा?’’

‘‘तभी तो परेशान हूं भाभी, सलिल को समझाऊंगी कि वह निक्की और गोलू का ही नहीं अनुभा और अजय का भी मामा है.’’

‘‘वह तो है ही, लेकिन आजकल के बच्चे ये सब नहीं मानते,’’ शीतल का स्वर चिंतित था.

‘‘इसीलिए जब आया करेगा तो अपने कमरे में ही बैठाया करूंगी.’’

‘‘जैसा तू ठीक समझे. बस न तो सलिल को बुरा लगे और न कोई ऊंचनीच हो,’’ शीतल के स्वर में अभी भी चिंता थी.

अनुभा ने मां और चाची को इतना परेशान देख कर सोचा कि वह स्वयं ही सलिल को घास नहीं डालेगी. उस के आने पर अपने कमरे में चली जाया करेगी ताकि चाची और मां उस के साथ सहज रह सकें.

सलिल को पहली बार अमित चाचा घर ले कर आए. सब से उस का परिचय करवाया, ‘‘है तो यह तेरा भी मामा अनु, लेकिन हमउम्र्र है, इसलिए तुम दोनों में दोस्ती ठीक रहेगी.’’

‘‘जी चाचा,’’ अनुभा ने हतप्रभ लग रहीं चाची और मां की ओर देख कर उस समय तो सलिल से हैलो के अलावा और बात नहीं की, लेकिन सलिल की आकर्षक छवि और मजेदार बातों को वह चाह कर भी दिल से नहीं निकाल सकी.

सलिल की मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही वह अपने कमरे में तो चली जाती थी, लेकिन कान बराबर चाची के कमरे से आने वाली ठहाकों की आवाजों पर लगे रहते थे और जब मां या चाची सलिल के सुनाए चुटकुले पापा और अमित चाचा को सुनाती थीं तो वह बड़े ध्यान से सुनती थी और फिर कालेज में अपनी सहेलियों को सुनाती थी.

कुछ दिन बाद अपनी सहेली माधवी की बहन की सगाई में उस के बड़े भाई मोहन के साथ खड़े सलिल को देख कर अनुभा चौंक पड़ी.

‘‘यह मेरा दोस्त सलिल है, अनु,’’ मोहन ने परिचय करवाया, ‘‘और यह माधवी की

खास सहेली…’’

‘‘जानता हूं यार, मामा हूं मैं इस का,’’ सलिल हंसा.

‘‘रियली? तब तो तू संभाल अपने मामा को अनु. यह पहली बार हमारे घर आया है. इस का परिचय करवा सब से. मैं दूसरे काम कर लेता हूं,’’ कह कर मोहन चला गया.

सलिल शरारत से मुसकराया, ‘‘मेरे एक सवाल का जवाब दोगी प्लीज? क्या मेरी शक्ल इतनी खराब है कि मेरे आने की आहट सुनते ही तुम अपने कमरे में छिप जाती हो? जानती हो इस से कितनी तकलीफ होती है मुझे?’’

‘‘तकलीफ तो मुझे भी बहुत होती है,’’ अनुभा के मुंह से बेसाख्ता निकला, ‘‘छिपने से नहीं बल्कि तुम्हें न देख पाने की वजह से.’’

‘‘तो फिर देखती क्यों नहीं?’’

अनुभा ने सही वजह बता दी.

‘‘ओह, तो यह बात है. मेरे यहां आने से पहले मेरे घर में भी यही टैंशन थी, लेकिन तुम्हारे चाचा ने तो मुझ से दोस्ती करने को कहा था, सामने न आने के लिए किस ने कहा?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. चाचा की बात सुन कर मां और चाची इतनी परेशान लगीं कि मैं ने उन्हें और परेशान करने के बजाय खुद ही बेचैन होना बेहतर समझा.’’

सलिल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘तुम्हारे घर से और कोई नहीं आया?’’

‘‘मां और चाची आएंगी कुछ देर बाद.’’

‘‘उस से पहले अपनी सहेलियों से कहो कि वे सब भी मुझे मामा बुलाएं. मैं दीदी को विश्वास दिला दूंगा कि मैं रिश्तों की मान्यता में विश्वास रखता हूं ताकि मेरीतुम्हारी दोस्ती पर किसी को शक न हो.’’

लड़कियों को भला उसे मामा बुलाने में क्या ऐतराज होता? जब तक अनीषा और शीतल आईं, सलिल भागभाग कर काम कर के सब का चहेता और प्राय: छोटेबड़े सब का ही मामा बन चुका था.

‘‘ये सब क्या है भाई?’’ अनीषा ने पूछा.

‘‘दीदी के शहर में आने का प्रसाद,’’ सलिल ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘यह सोच कर आया था कि कोई गर्लफ्रैंड बन जाएगी. मगर अनुभा की सारी सहेलियां भी तो मेरी भानजियां ही लगीं. भानजी को गर्लफ्रैंड बनाने के संस्कार तो आप ने दिए नहीं सो बस काम कर के और मामा बन कर आशीष बटोर रहा हूं.’’

शीतल तो भावविभोर होने के साथसाथ अभिभूत भी हो गई. सगाई की रस्म के बाद जब उन्होंने अनुभा से घर चलने को कहा तो माधवी ने कहा, ‘‘अनुभा अभी कैसे जाएगी? काम के चक्कर में हम ने कुछ खाया भी नहीं है. आप जाओ, अनुभा बाद में आएगी.’’

‘‘अकेली?’’

‘‘अकेली क्यों?’’ माधवी की मां ने पूछा, ‘‘इस का मामा है न, उस के साथ आ जाएगी.’’

‘‘क्यों सलिल, ले आओगे?’’ अनुभा की आशा के विपरीत शीतल ने पूछा.

‘‘जी बड़ी दीदी, मगर इन सब का खाने का ही नहीं नाचगाने का भी प्रोग्राम है जो देर तक चलेगा.’’

‘‘तुम जब तक चाहो रुकना, फिर भानजी को कान पकड़ कर ले आना. मामा हो तुम उस के,’’ शीतल ने हंसते हुए कहा.

शीतल की हरी झंडी दिखाने के बावजूद अनुभा सलिल के घर आने पर न अपने कमरे से बाहर निकलती थी और न ही उस के बारे में बात करती थी, मगर सलिल की छुट्टी के रोज माधवी के घर पढ़ने के बहाने चली जाती थी और वहां से सलिल के साथ घूमने. माधवी तक को शक नहीं होता था. इम्तिहान खत्म होते ही घर में उस की शादी की चर्चा होने लगी. उस ने सलिल को बताया.

‘‘मुझे भी दीदी ने अपने दोस्तों में तुम्हारे लिए उपयुक्त वर ढूंढ़ने को कहा है.’’

‘‘अपना नाम सुझाओ न.’’

‘‘पागल हूं क्या? मेरे यहां आने पर जो इतना बवाल मचा था. वह इसीलिए तो था कि अगर मैं ने तुम से शादी करनी चाही तो अनर्थ हो जाएगा. जिस घर में लड़की दी है उस घर से लड़की नहीं लेते.’’

‘‘तुम ये सब मानते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, लेकिन अपने परिवार की मान्यताओं और भावनाओं की कद्र करता हूं.’’

‘‘मगर मेरे प्यार की नहीं.’’

‘‘उस की भी कद्र करता हूं और तुम्हारे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘हो सकता है तुम्हारे घर वाले तुम्हारी शादी न करने की जिद मान लें, मगर मुझे तो शादी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘वह तो मैं भी करूंगा अनु.’’

अनुभा झुंझला गई. अजीब मसखरा आदमी है. मेरे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता, मगर शादी करेगा. सलिल तो जैसे उस का चेहरा खुली किताब की तरह पढ़ लेता था.

‘‘शादी किसी से भी हो, तसव्वुर में तो मेरे हमेशा तुम रहोगी और तुम्हारे तसव्वुर में मैं, बस अपने जीवनसाथी से यह सोच कर प्यार किया करेंगे कि हम एकदूसरे से कर रहे हैं.’’

‘‘अगर गलती से कभी मुंह से असली नाम निकल गया तो चोरी पकड़ी नहीं जाएगी?’’

अनुभा ने भी यह सोच कर सब्र कर लिया कि जैसे अभी वह सलिल के खयालों में जीती है, हमेशा जीती रहेगी और शादी के बाद मिलना भी आसान हो जाएगा, क्योंकि विवाहित मामाभानजी के मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं होगा.

सलिल यह सुन कर खुशी से बोला, ‘‘अरे वाह, फिर तो चोरीछिपे नहीं सब के सामने तुम्हें गले लगाया करूंगा, कहीं घुमाने के बहाने बढि़या होटल में ले जाया करूंगा.’’

जल्द ही दुबई में बसे डाक्टर गिरीश से अनुभा का रिश्ता पक्का हो गया. देखने में गिरीश सलिल से 21 ही था और बहुत खुशमिजाज भी, लेकिन अनुभा ने उस में सलिल की छवि ही देखी. शादी में अनीषा का पूरा परिवार आया. मौका मिलते ही अनुभा ने सलिल से कहा कि वह अपने प्यार की निशानी के तौर पर कुछ भेंट तो दे.

‘‘देना तो चाहता था, लेकिन दीदी ने कहा कि अम्मां दे तो रही हैं, तुझे अलग से कुछ देने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘फिर भी कुछ तो दे दो, जिस के पास रहने से मुझे यह एहसास रहे कि तुम मेरे पास हो.’’

सलिल ने जेब से रूमाल निकाला और उसे चूम कर अनुभा को पकड़ा दिया. अनुभा ने उसे आंखों से लगाया.

‘‘यह मेरे जीवन की सब से अनमोल वस्तु होगी.’’

उस ने शुरू से ही गिरीश को सलिल समझा, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि मजा ही आया और सोचा कि वह सलिल को मिलने पर बताएगी कि फौर्मूला कामयाब रहा. लेकिन मिलने का मौका ही नहीं मिला. नैनीताल में हनीमून मना कर लौटने पर सलिल की मोटरसाइकिल अजय को चलाते देख कर उस ने पूछा, ‘‘सलिल मामा की मोटरसाइकिल तुम्हारे पास कैसे?’’

‘‘सलिल मामा से पापा ने खरीद ली है यह मेरे लिए.’’

‘‘मगर सलिल मामा ने बेची क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे कनाडा चले गए.’’

अनुभा बुरी तरह चौंक गई, ‘‘अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘यह तो मालूम नहीं.’’

अनुभा ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया. शाम को वह माधवी से मिलने के बहाने मोहन से सलिल के अचानक जाने की वजह पूछने गई.

‘‘सलिल मामा अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘पहली बार कोई भी अचानक विदेश नहीं जाता अनु, सलिल यहां हैड औफिस में कनाडा जाने से पहले खास प्रशिक्षण लेने आया था. प्रशिक्षण खत्म होते ही चला गया,’’ मोहन ने जैसे उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया.

‘‘वह कनाडा से आप को फोन तो करते होंगे… मुझे उन का नंबर दे दीजिए प्लीज,’’ अनुभा ने मनुहार करी.

‘‘चंद महीनों के दोस्तों को न कोई इतनी दूर से फोन करता है और न ही याद रखता है. बेहतर रहेगा कि तुम भी सलिल को भूल कर अपनी नई जिंदगी में खुश रहो.’’

अनुभा को लगा कि मोहन जैसे उस पर तरस खा रहा है. वह नई जिंदगी का मजा तो ले रही थी, लेकिन सलिल को याद करते हुए, उस के दिए रूमाल को जबतब चूम कर.

अचानक एक रोज गिरीश ने उस के हाथ में वह रूमाल देख कर कहा, ‘‘इतना गंदा रूमाल एक डाक्टर की बीवी के हाथ में क्या कर रहा है? फेंको इसे.’’

अनुभा सिहर उठी. फेंकना तो दूर, सलिल के चूमे उस रूमाल को तो वह धो भी नहीं सकती थी. उस ने रूमाल को गिरीश से छिपा कर टिशू पेपर में सहेज दिया अकेले में चूमने के लिए.

गिरीश का परिवार कई वर्षों से दुबई में सैटल था. जुमेरा बीच के पास उन का बहुत बड़ा विला था और शहर में कई मैडिकल स्टोर और उन से जुड़े क्लीनिक्स की शृंखला थी. गिरीश भी एक क्लीनिक संभालता था. परिवार की सभी महिलाएं व्यवसाय के विभिन्न विभागों की देखरेख करती थीं.

अनुभा भी जेठानी वर्षा के साथ आधे दिन को औफिस जाती थी. अनुभा दुबई आ कर बहुत खुश थी. लेकिन न जाने क्यों सलिल की याद अब कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगी थी. जबतब उस का रूमाल चूम कर तसल्ली करनी पड़ती थी.

एक रोज वर्षा की कजिन लता ने फोन पर बताया कि उस के पति का भी दुबई में तबादला हो गया है, अभी तो होटल में रह रही है, घर और गाड़ी मिलने पर वर्षा से मिलने आएगी. लेकिन वर्षा उस से तुरंत मिलना चाहती थी. अनुभा ने सुझाया कि औफिस से लौटते हुए वे दोनों लता को उस के होटल से ले आएंगी. शाम को ड्राइवर उस के पति को औफिस से पिक कर लेगा और रात के खाने के बाद होटल छोड़ देगा. वर्षा का सुझाव अच्छा लगा पर घर के पुरुष तो देर से आते थे, तब तक लता का पति औरतों में बोर हो जाता. गिरीश हर बृहस्पति की शाम को क्लीनिक से जल्दी लौटता था. अत: अनुभा के कहने पर वर्षा ने लता को बृहस्पति को बुलाया. दोपहर को जेठानी देवरानी लता को लेने उस के होटल में गईं.

‘‘तू तो शादी के बाद अमेरिका या कनाडा गई थी, फिर यहां कैसे आ गई?’’ वर्षा ने पूछा.

‘‘मुझे बर्फ रास नहीं आई, इसलिए इन्होंने यहां तबादला करवा लिया,’’ लता दर्प से बोली.

‘‘अरे वाह, बड़ा दिलदार आदमी है भई, बीवी के लिए डौलर छोड़ कर दिरहम कमाना मान गया,’’ वर्षा ने चुहल करी.

‘‘मेरे लिए तो जांनिसार भी हैं दीदी,’’

लता इठलाई. वर्षा और अनुभा हंस पड़ी.

‘‘इस जांनिसर दिलदार से रिश्ता करवाया किस ने, चुन्नो चाची ने?’’ वर्षा ने पूछा.

लता हंसने लगी, ‘‘नहीं दीदी, चाची तो इस रिश्ते के बेहद खिलाफ थीं. उन का कहना था कि लड़का दिलफेंक और छोकरीबाज है. लेकिन चाचाजी ने कहा कि सभी लड़कों के शादी से पहले टाइम पास होते हैं, शादी के बाद सब ठीक हो जाते हैं.’’

‘‘आप के जांनिसार आप को किसी पुरानी टाइम पास के नाम से यानी किसी खास नाम से तो नहीं बुलाते?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘नहीं, लता ही पुकारते हैं.’’

‘‘फिर कोई फिक्र की बात नहीं है,’’ अनुभा बोली, ‘‘आप के जांनिसार सिर्फ आप के हैं.’’

शाम को गिरीश के आने के बाद वर्षा ने कहा, ‘‘गिरीश, मैं लता को जुमेरा बीच घुमाने ले जा रही हूं. लता के पति के आने पर तुम और अनुभा उन का स्वागत कर लेना.’’

कुछ देर के बाद गिरीश ने उत्साहित स्वर में अनुभा को पुकारा, ‘‘अनु, देखो तो लता के पति कौन हैं, तुम्हारे सलिल मामा.’’

उल्लासउत्साह से उफनती गिरतीपड़ती अनुभा ड्राइंगरूम में आई. हां, सलिल ही तो था, शरीर थोड़ा भर जाने से और भी आकर्षक लग रहा था.

‘‘लीजिए, आप की भानजी आ गई,’’ गिरीश बोला.

‘‘लेकिन मेरी बीवी कहां है?’’ सलिल ने अनुभा की उल्लसित किलकारी की ओर ध्यान दिए बगैर उतावली से पूछा.

‘‘भाभी के साथ समुद्र तट घूमने गई हैं, मैं बुला कर लाता हूं. तब तक आप अपनी भानजी के साथ बतियाइए.’’

‘‘बतियाने से पहले गले लगा कर आशीर्वाद तो दो मामा,’’ अनुभा मचली.

‘‘मामाजी की गोद में ही बैठ जाओ न,’’ गिरीश हंसा.

‘‘अभी तो गोद में लता को बैठा कर देखने को बेचैन हूं कि उस की आंखें ज्यादा गहरी हैं या समुद्र. आप वर्षा जीजी को घर ले आना प्लीज ताकि हम दोनों कुछ देर अकेले बैठ सकें, समुद्र के किनारे,’’ सलिल ने बेसब्री से कहा, ‘‘चलिए, गिरीशजी.’’

इतनी बेशर्मी, इतनी उपेक्षा. अनुभा सहन नहीं कर सकी, अपमान से तिलमिलाती हुई तेजी से अपने कमरे में गई, अकेले में रोने नहीं, बल्कि सलिल के दिए अनमोल रूमाल को फाड़ कर फेंकने के लिए.

Family Story: आखिरी खत – नैना की मां और शीलू का क्या रिश्ता था?

Family Story, लेखिका- अर्चना त्यागी

नैना बहुत खुश थी. उस की खास दोस्त नेहा की शादी जो आने वाली थी. यह शादी उस की दोस्त की ही नहीं थी बल्कि उस की बूआ की बेटी की भी थी. बचपन से ही दोनों के बीच बहनों से ज्यादा दोस्ती का रिश्ता था. पिछले 2 वर्षों में दोस्ती और भी गहरी हो गई थी. दोनों एक ही होस्टल में एक ही कमरे में रह रही थीं अपनी पढ़ाई के लिए. यही कारण था कि नैना कुछ अधिक ही उत्साहित थी शादी में जाने के लिए. वह आज ही जाने की जिद पर अड़ी थी जबकि उस के पिता चाहते थे कि हम सब साथ ही जाएं. उन की भी इकलौती बहन की बेटी की शादी थी. उन का उत्साह भी कुछ कम न था.

सुबह से दोनों इसी बात को ले कर उलझ रहे थे. मैं घर का काम खत्म करने में व्यस्त थी. जल्दी काम निबटे तो समान रखने का वक्त मिले. मांजी शादी में देने के लिए सामान बांधने में व्यस्त थीं.

जाने की तैयारी में 2 दिन और निकल गए. नैना को रोक पाना अब मुश्किल हो रहा था. वह अकेले जाने की जिद पर अड़ी थी. मैं ने पति को समझाया. ‘‘काम तो जीवनभर चलता रहेगा. शादीब्याह रोजरोज नहीं होते. फिर शादी के बाद नेहा भी अपनी ससुराल चली जाएगी तो पहले वाली बात नहीं रह जाएगी. नैना रोज उस से नहीं मिल पाएगी.’’

नैना के पिता सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी

वे पहले ही अपना मन बना चुके थे. बस, नैना को चकित करना चाहते थे. नैना, मैं और उस के पापा हम तीनों शादी से 4 दिन पहले ही दीदी के घर आ गए, शादी की सभी रस्में जो निभानी थीं. नैना के पिता यानी मेरे पति सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी शादी के बाद भी बचे हुए कामों में दीदी की सहायता करने के लिए. नेहा हमारी भी बेटी जैसी ही थी. बचपन से नैना के साथ ही रही थी तो उस से अपनापन भी कुछ ज्यादा ही था.

दीदी के घर अकसर हम कार से ही जाया करते थे. इस बार तो सामान अधिक था, सो कार से जाना ही सुविधाजनक था. मांजी और पिताजी बाद में ट्रेन से आने वाले थे. हम तीनों कार से ही दीदी के घर के लिए रवाना हो गए. 5-6 घंटे के रास्ते में नैना ने एक बार भी कार को रोकने नहीं दिया. उस का उतावलापन देखते ही बनता था. शाम को लगभग 5 बजे हम उन के घर पर थे.

शादी में 4 दिन अभी शेष थे, फिर भी नेहा ने अपनी नाराजगी जाहिर की. नैना से तो उस ने बात भी न की. उस की नाराजगी इस बात से थी कि वह इस बार अकेले क्यों नहीं आ पाई. हर बार तो आती थी. क्या शादी से पहले ही उसे पराया मान लिया गया है? नैना अपने तर्क दे रही थी. पिछले हफ्ते ही परीक्षा समाप्त हुई थी. कपड़े भी सिलाने थे. कुछ और भी तैयारी करनी थी. उस के सभी तर्क बेकार गए. उस दिन तो नेहा ने उस से बात न की.

अगले दिन मुझे हस्तक्षेप करना ही पड़ा, ‘‘अब तो आ गए हैं न, अब तो बात करो.’’ मैं ने जोर दे कर कहा तो उस की समझ में कुछ बात आई. 3 दिन कैसे निकले, पता ही न चला. अगले दिन नेहा की बरात आने वाली थी. मैं दीदी के साथ ही थी. नेहा के चले जाने की बात से वे बहुत उदास थीं. लड़का विदेश में था. कुछ महीनों बाद नेहा को भी उस के साथ जाना होगा. यही सोच कर उन की आंखें बारबार भर आती थीं.

मैं ने उन्हें दुनियादारी समझाने की पूरी कोशिश की. ‘‘इतने अच्छे घर में रिश्ता हुआ है. परिवार भी छोटा ही है. खुले दिमाग के लोग हैं. विदेश में रह कर भी अपनी सभ्यता नहीं भूले हैं. हमारी नेहा बहुत खुश रहेगी उन के घर. नेहा को नौकरी करने से भी मना नहीं कर रहे हैं. और तो और, अपने व्यवसाय में उसे जिम्मेदारी देने को तैयार हैं. और क्या चाहिए हमें?’’

शादी के दिन तक ये सभी बातें जाने कितनी बार मैं ने उन के सामने बोली थीं. इस से ज्यादा कुछ जानती भी न थी मैं नेहा की ससुराल वालों के बारे में. दीदी से पूछने की कोशिश भी की पर उन्हें उदास देख कर मन में ही रोक लिए थे अपने सभी प्रश्न.

आखिर वह घड़ी आ गई जिस का हम सब को इंतजार था. नेहा की बरात आ गई. दूल्हे का स्वागत करने दरवाजे पर जाना था दीदी को. साथ मैं भी थी. आरती की थाली हाथ में पकड़े दीदी आगे चल रही थीं. मैं शादी में आई दूसरी औरतों के साथ उन के पीछे चल रही थी. मन में बड़ा कुतूहल था दूल्हे को देखने का. तभी बरात घर के सामने आ कर रुकी. दूल्हे राजा घोड़ी से नीचे उतरे और दोस्तों, रिश्तेदारों के झुंड के साथ मुख्यद्वार के सामने रुक गए.

बैंडबाजे के साथ दूल्हे को तिलक लगा कर हम ने उस का स्वागत किया. स्वागत के बाद हम लोग घर की ओर मुड़ गए और बरात स्टेज की ओर बढ़ गई. नेहा को उस की सहेलियों ने घेर रखा था. हम लोग भी वहीं खड़े हो कर वरमाला का इंतजार करने लगे. नेहा आसमान से उतरी एक परी की तरह दिख रही थी. दुलहन के लिबास में उस का रंगरूप और भी निखर गया था. कुछ देर बाद वरमाला के लिए नेहा का बुलावा आ गया.

नेहा नैना और अपनी दूसरी सहेलियों के साथ स्टेज की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थी. दीदी सहित हम सभी औरतें उन से थोड़ी दूरी पर चल रहे थे. मैं ने अपना चश्मा अब पहन लिया था. स्वागत के समय दूल्हे को ठीक से देख न पाई थी. नेहा ने वरमाला पहनाई. सभी लोगों ने तालियां बजाईं. अब दूल्हे की बारी थी. उस ने भी वरमाला नेहा के गले में पहना दी. एक बार वापस तालियों की गड़गड़ाहट फिर से गूंज उठी. वरमाला पहनाने की रस्म पूरी होते ही दूल्हादुलहन स्टेज पर बैठ गए. अब दोनों को सामने से देख सकते थे. दूल्हे का चेहरा जानापहचाना सा लग रहा था मुझे.

लगभग 2 बजे नेहा अंदर आ गई. फेरों की तैयारियां शुरू हो गईं. पंडितजी अपने आसन पर बैठ गए. दूल्हा फेरों के लिए बैठ चुका था. पंडितजी ने अपना काम प्रारंभ कर दिया. कुछ देर बाद नेहा को भी बुलवा लिया. अधिकतर मेहमान उस समय तक विदा हो चुके थे. घर के लोग और कुछ निजी रिश्तेदार ही रुके थे. निजी रिश्तेदारों में भी हमारा परिवार ही जाग रहा था. बाकी लोग खाना खा कर सो चुके थे. सभी को अगले दिन जाना ही था.

क्या नेहा ससुराल जाकर खुश हुई?

सुबह 4 बजे नेहा की विदाई हो गई. घर में गिनती के लोग रह गए थे. पूरा घर सूनासूना लग रहा था. नैना एक कमरे में उदास बैठी थी. मैं नाश्ते की व्यवस्था करने के लिए रसोईघर में थी. दीदी भी नैना के पास ही बैठी थीं. रातभर जागने के बाद भी किसी का सोने का मन नहीं था. घर में रौनक लड़कियों के कारण ही होती है, आज सभी यह महसूस कर रहे थे.

पग फिराई की रस्म के लिए नेहा कल घर वापस आने वाली थी. घर को व्यवस्थित भी करना था. सब का नाश्ता हुआ, तब तक नैना और दीदी ने मिल कर घर की सफाई कर ली. ऊपर वाला कमरा मेहमानों के विश्राम के लिए रखा था. 11 बजे वे लोग आ गए- नेहा, प्रतीक और एकदो रिश्तेदार. उन के आते ही सब लोग उन के स्वागत में जुट गए. लड़की की ससुराल से पहली बार मेहमान घर आए थे. चाव ही अलग था. हम लोग नेहा के साथ व्यस्त हो गए. नैना और उस के पापा प्रतीक और बाकी मेहमानों के साथ ऊपर वाले कमरे में चले गए. जीजाजी ने बहुत रोका परंतु दोपहर का खाना खा कर नेहा को ले कर वे लोग लगभग 4 बजे रवाना हो गए.

हम ने जाने के लिए कहा तो दीदी ने रोना शुरू कर दिया, ‘‘भाभी, मैं अकेली रह गई हूं अब. आप तो जानते हो नेहा भी अभी जल्दी नहीं आने वाली वापस. आप को कुछ और दिन रुकना ही होगा.’’

उन्होंने जिद पकड़ ली. नैना, उस के पापा और मांजी और पिताजी उसी दिन शाम को घर लौट गए. मैं दोचार दिन के लिए रुक गई. सब के जाने के बाद दीदी ने नेहा की ससुराल से आया सामान खोला. सभी के लिए कुछ न कुछ उपहार दिया था उस की ससुराल वालों ने. मेरे लिए भी. मेरा पैकेट हाथ में दे कर दीदी बोलीं, ‘‘भाभी, घर जा कर खोलना भैया और नैना के उपहार के साथ.’’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मन में एक प्रश्न जरूर था, ‘लड़की की ससुराल से इतने उपहार?’ प्रश्न मन में रख कर पैकेट अपने सूटकेस में रख लिए.

जब रोकना चाहें तो समय पंख लगा कर उड़ता है. शनिवार को सुनील मुझे ले जाने के लिए आए. दीदी बहुत उदास थीं. परंतु अब रुकना संभव नहीं था. नैना को भी जाना था. उसे नौकरी मिल गई थी स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में ही. नेहा की शादी के कारण उस ने जाने का समय कुछ दिन बाद रखा था. रविवार सुबह ही हम घर के लिए रवाना हो गए.

घर जा कर देखा तो मांजी घर पर अकेली थीं. टीवी देखते हुए सब्जी काट रही थीं. उन के चरण स्पर्श कर के मैं ने नैना के बारे में पूछा. उन्होंने थोड़ा रोष से जवाब दिया, ‘‘किसी दोस्त के घर पर गई होगी. तुम्हारे पीछे घर पर रुकती ही कहां है? आजकल की लड़कियां थोड़ा पढ़लिख जाएं तो नौकरी तलाश कर लेती हैं. घर के कामकाज तो छोड़ो, घर पर रहना ही उन्हें नहीं भाता है.’’

मेरे बोलने से पहले ही सुनील ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘आ जाएगी मां. किसी काम से ही गई होगी. जब जिम्मेदारी सिर पर आती है, सब निभाना सीख जाते हैं.’’ इन की बात खत्म होते ही नैना आ गई.

‘‘लो दादी, तुम्हारी दवाइयां. बहुत दूर से मिलीं,’’ दवाई दादी के पास रख कर उस ने कहा और आ कर मुझ से लिपट गई.

‘‘तुम्हारे बिना घर पर मन ही नहीं लगता मां,’’ उस ने मुझ से लिपट कर कहा. फिर थोड़ा सामान्य हो कर बोली, ‘‘मेरा उपहार तो दो जो नेहा की ससुराल वालों ने दिया है. जल्दी दो न मां.’’

‘‘ठीक है, मुझे छोड़ो और मेरे पर्स से चाबी ले लो. सूटकेस खोल कर सब के पैकेट निकाल लो.’’

मैं ने उसे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मां, अपना पैकेट तुम खोलो. पापा का उन को देती हूं.’’

मेरा पैकेट दे कर नैना मांजी को अपना उपहार दिखाने चली गई. मैं पैकेट हाथ में ले कर कमरे की ओर बढ़ गई. कपड़े भी बदलने थे. पहले पैकेट खोल लेती हूं. बेचैन रहेगी तब तक यह लड़की. मैं ने मन में सोचा. खोला तो सब से पहले एक पत्र था. लिफाफे में था. परंतु पोस्ट नहीं किया गया था. सकुचाते हुए मैं ने लिफाफे से पत्र निकाला.

‘‘मां,

‘यह मेरा आखिरी खत है. इस के बाद तो मैं आप से मिलता ही रहूंगा. मैं ने नेहा से इसीलिए शादी की है कि आप के संपर्क में रह पाऊं. नेहा बहुत अच्छी लड़की है परंतु आप से झूठ नहीं बोल सकता हूं.

‘‘क्या आप को अपना शीलू याद है मां? मैं एक दिन भी आप को नहीं भूला हूं. दादादादी मुझे बहुत प्यार करते हैं. चाचाचाची ने मुझे अपने पास विदेश में रख कर काबिल बनाया. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है मां. बस, यह जानना चाहता हूं कि तुम मुझे छोड़ कर क्यों गईं? क्या मजबूरी थी मां? पापा के जाने के बाद मैं आप के साथ था. फिर आप ने मुझे क्यों छोड़ा, मां वह भी बिना बताए. अब तो आप को बताना ही पड़ेगा मां. मैं आप के जवाब का इंतजार करूंगा.

‘आप का राजा बेटा,

‘शीलू.’

मेरी आंखों से आंसू टपटप गिर रहे थे. पत्र पूरा भीग चुका था. ‘लू, मेरा बेटा’. मुंह से निकला और मैं फफकफफक कर रो पड़ी. सालों पुराने जख्म हरे हो चुके थे. कुछ देर के लिए चेतना शून्य हो गई थी मेरी. बस, बोलती जा रही थी, ‘मैं तुम्हें कैसे बताती बेटा, तुम बहुत छोटे थे. तुम्हारी दादी का ही निर्णय था यह. दुर्घटना में तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद भी मैं उन लोगों के साथ ही रहना चाहती थी, तुम्हें ले कर रह भी रही थी. एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं गई. तुम्हारे नाना के घर भी नहीं. तुम्हारी दादी ने ही बुलाया था उन्हें.

‘घर बुला कर कहा था कि यदि अपनी बेटी का पुनर्विवाह नहीं कर सकते हो तो कोई लड़का देख कर हम ही कर देंगे. छोटे बेटे की शादी के बाद हम शीलू को ले कर उस के साथ विदेश चले जाएंगे. इसलिए शीलू की चिंता करने की जरूरत नहीं है. एक वाक्य में तुम्हें मुझ से अलग कर दिया था उन्होंने.’

तभी सुनील अंदर आए. उन्हें देख कर मैं फिर से रो पड़ी. ‘‘तुम तो सब जानते हो सुनील. तुम तो भैया के करीबी दोस्त थे न. शादी से ले कर खाली हाथ वापस घर आने तक सब तुम ने अपनी आंखों से देखा है, कानों से सुना है. किस तरह अपमानित कर के मुझे घर से निकाल दिया था उन्होंने. आखिरी बार शीलू से मिलने भी नहीं दिया था. देखो, यह चिट्ठी देखो.’’

‘‘अरे हां, देख रहा हूं भाई.’’ उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कुछ भी भूला नहीं हूं. अब उठो. वर्तमान में आओ. शीलू ने तुम्हें हमेशा के लिए ढूंढ़ लिया है. मैं नेहा की शादी से पहले से जानता हूं कि प्रतीक ही शीलू है.’’

मैं हतप्रभ उन्हें देख रही थी. नैना भी तब तक कमरे में आ चुकी थी, बोली, ‘‘मां, अगले हफ्ते नेहा और प्रतीक आ रहे हैं घर पर. हनीमून के लिए जाते हुए वे हम लोगों से मिलते हुए जाएंगे. उठो मां, बहुत सी तैयारियां करनी हैं उन के स्वागत की.’’

सब की आवाज सुन कर मांजी भी कमरे में आ गईं. मैं उठने लगी तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, दोनों भाईबहनों ने मुझे मना किया था तुम्हें बताने के लिए. इसीलिए मैं चुप रही. मुझे माफ करना. पहले बता दिया होता तो तुम्हारा दिल तो नहीं दुखता.’’

मैं ने उठ कर उन के पैर पकड़ लिए, बोल पड़ी, ‘‘मां, तुम ने तो मेरा दिल हमेशा के लिए खुश कर दिया है. आज जिंदगी को फिर से देखा. एक वह मां थी. एक यह मां है. एक वह समय था जब शीलू को मुझ से मिलने ही नहीं दिया गया. एक यह समय है जब शीलू मुझ से मिलने आने वाला है.’’

‘शीलू से मिल कर, उसे अपने सीने से लगा कर, उस की सारी शिकायतें दूर कर दूंगी. मेरे बेटे, तू ने अपनी मां को आज जीवन की वे खुशियां दी हैं, जो मुझ से छीन ली गई थीं. शीलू, मेरे बेटे जल्दी आ,’ मेरा मन सोचते हुए खुशी से भरा जा रहा था.

Hindi Story: परीक्षा – ईश्वर क्यों लेता है भक्त की परीक्षा

Hindi Story, लेखक- सुनीत गोस्वामी

भव्य पंडाल लगा हुआ था जिस में हजारों की भीड़ जमा थी और सभी की एक ही इच्छा थी कि महात्माजी का चेहरा दिख जाए. सत्संग समिति ने भक्तों की इसी इच्छा को ध्यान में रखते हुए पूरे पंडाल में जगह-जगह टेलीविजन लगा रखे थे ताकि जो भक्त महात्मा को नजदीक से नहीं देख पा रहे हैं वे भी उन का चेहरा अच्छी तरह से देख लें.

कथावाचक महात्मा सुग्रीवानंद ने पहले तो ईश्वर शक्ति पर व्याख्यान दिया, फिर उन की कृपा के बारे में बताया और प्रवचन के अंत में गुरुमहिमा पर प्रकाश डाला कि हर गृहस्थी का एक गुरु जरूर होना चाहिए क्योंकि बिना गुरु के भगवान भी कृपा नहीं करते. वे स्त्री या पुरुष जो बिना गुरु बनाए शरीर त्यागते हैं, अगले जन्म में उन्हें पशु योनि मिलती है. जब आम आदमी किसी को गुरु बना लेता है, उन से दीक्षा ले लेता है और उसे गुरुमंत्र मिल जाता है, तब उस का जीवन ही बदल जाता है. गुरुमंत्र का जाप करने से उस के पापों का अंत होने के साथ ही भगवान भी उस के प्रति स्नेह की दृष्टि रखने लगते हैं.

गुरु के बिना तो भगवान के अवतारों को भी मुक्ति नहीं मिलती. आप सब जानते हैं कि राम के गुरु विश्वामित्र थे और कृष्ण के संदीपन. सुग्रीवानंद ने गुरु महिमा पर बहुत बड़ा व्याख्यान दिया.

डर और लालच से मिलाजुला यह व्याख्यान भक्तों को भरमा गया. सुग्रीवानंद का काम बस, यहीं तक था. आगे का काम उन के सेक्रेटरी को करना था.

सेक्रेटरी वीरभद्र ने माइक संभाला और बहुत विनम्र स्वर में भक्तों से कहा, ‘‘महाराजश्री से शहर के तमाम लोगों ने दीक्षा देने के लिए आग्रह किया था और उन्होंने कृपापूर्वक इसे स्वीकार कर लिया है. जो भक्त गुरु से दीक्षा लेना चाहते हैं वे रुके रहें.’’

इस के बाद पंडाल में दीक्षामंडी सी लग गई. इसे हम मंडी इसलिए कह रहे हैं कि जिस तरह मंडी में माल की बोली लगाई जाती है वैसे ही यहां दीक्षा बोलियों में बिक रही थी.

गरीबों की तो जिंदगी ही लाइन में खड़े हो कर बीत जाती है. यहां भी उन के लिए लाइन लगा कर दीक्षा लेने की व्यवस्था थी. 151 रुपए में गुरुमंत्र के साथ ही सुग्रीवानंद के चित्र वाला लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र के नाम पर किसी को राम, किसी को कृष्ण, किसी को शिव का नाम दे कर उस का जाप करने की हिदायत दी जा रही थी. ये दीक्षा पाए लोग सामूहिक रूप से गुरुदर्शन के हकदार थे.

दूसरी दीक्षा 1,100 रुपए की थी. इन्हें चांदी में मढ़ा हुआ लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र और सुग्रीवानंद की कथित लिखी हुई कुछ पुस्तकें देने के साथ उन्हें कभीकभी सुग्रीवानंद के मुख्यालय पर जा कर मिलने की हिदायत दी जा रही थी.

सब से महंगी दीक्षा 21 हजार रुपए की थी. कुछ खास पैसे वाले ही इस गुरुदीक्षा का लाभ उठा सके. ऐसे अमीर भक्त ही तो महात्माओं के खास प्रिय होते हैं. इन भक्तों को सोने की चेन में सुग्रीवानंद के चित्र वाला सोने का लाकेट दिया गया. पुस्तकें दी गईं और प्रवचनों, भजनों की सीडियां भी दी गईं. इन्हें हक दिया गया कि ये कहीं भी, कभी भी गुरु से मिल कर अपने मन की शंका का निवारण कर सकते हैं. इस विभाजित गुरुदीक्षा को देख कर लगा कि स्वर्ग की व्यवस्था भी किसी नर्सिंग होम की तरह होगी.

जिस ने महात्माजी से छोटी गुरुदीक्षा ली थी वह मरने के बाद स्वर्ग जाएगा तो उस के लिए खिड़की खुलेगी. ऐसे तमाम लोगों को सामूहिक रूप में जनरल वार्र्ड में रखा जाएगा. विशिष्ट दीक्षा वालों के लिए स्वर्ग का बड़ा दरवाजा खुलेगा और ये प्राइवेट रूम में रहेंगे.

आज से लगभग 10 साल पहले रमेश एक प्राइवेट हाउसिंग कंपनी में अधिकारी था. एक बार भ्रष्टाचार के मामले में वह पकड़ा गया और नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार शातिर दिमाग रमेश सोचता रहता कि काम ऐसा होना चाहिए जिस में मेहनत कम हो, इज्जत खूब हो और पैसा भी बहुत अधिक हो. वह कई दिन तक इस पर विचार करता रहा कि ये तीनों चीजें एकसाथ कैसे मिलें. तभी उसे सूझा कि धर्म के रास्ते यह सहज संभव है. धर्म की घुट्टी समाज को हजारों वर्षों से पिलाई गई है. यहां अपनेआप को धार्मिक होना लोग श्रेष्ठ मानते हैं. जो शोधक है वह भी दान दे कर अपने अपराधबोध को कम करना चाहता है. यह सब सोेचने के बाद रमेश ने पहले अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और अपना नाम बदल सुग्रीवानंद कर लिया. कीर्तन करतेकरते सुग्रीवानंद कथा करने लगा. धीरेधीरे वह बड़ा कथावाचक बन गया. लोगों को बातों में उलझा कर, भरमा कर, बहका कर धन वसूलने के बहुत से तरीके भी जान गया. उस ने बहुत बड़ा आश्रम बना लिया.

इस तरह दुकानदारी चल पड़ी और धनवर्षा होने लगी तो सरकार से अनुदान पाने के लिए सुग्रीवानंद ने गौशाला और स्कूल भी खोल लिए.

सुग्रीवानंद इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझता था कि जो पूंजीपति शोषक और बेईमान होता है उस के अंदर एक अपराधबोध होता है और वह दान दे कर इस बोध से मुक्त होना चाहता है. सुग्रीवानंद जब भी अपने अमीर शिष्यों से घिरा होता तो उन्हें दान की महिमा पर जरूर घुट्टी पिलाता था.

सुरेश एक उद्योगपति था. उस ने भी सुग्रीवानंद से गुरुदीक्षा ली थी. अब वह उस का शिष्य था और शिष्य होने के नाते गुरु के आदेश का पालन करना अपना धर्म समझता था. एक दिन सुग्रीवानंद ने सुरेश से कहा, ‘‘वत्स, मैं ने आश्रम की तरफ से कुछ गरीब कन्याओं के विवाह का संकल्प लिया है.’’

‘‘यह तो बड़ा शुभ कार्य है, गुरुजी. मेरे लिए कोई सेवा बताएं.’’

‘‘वत्स, धर्मशास्त्र कहते हैं कि दान देने में ही मनुष्य का कल्याण है. दान से यह लोक भी सुधरता है और परलोक भी.’’

‘‘आप आदेश करें, गुरुजी, मैं तैयार हूं.’’

‘‘लगभग 2 लाख रुपए का कार्यक्रम है.’’

सुरेश इतनी बड़ी रकम सुन कर मौन हो गया.

शिकार को फांसने की कला में माहिर शिकारी की तरह सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘देखो वत्स, सुरेश, तुम मेरे सब से प्रिय शिष्य हो. इस शुभ अवसर का पूरा पुण्य तुम्हें मिले, यह मेरी इच्छा है. वरना मैं किसी और से भी कह सकता हूं, मेरी बात कोई नहीं टालता.’’

गुरुजी उस पर इतने मेहरबान हैं, यह सोच कर उस ने दूसरे दिन 2 लाख रुपए ला कर गुरुजी को भेंट कर दिए.

रुपए लेने के बाद सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘यह बात किसी दूसरे शिष्य को मत बताना. अध्यात्म के रास्ते पर भी बड़ी ईर्ष्या होती है. भगवान को पाने के लिए दान बहुत बड़ी साधना है और यह साधना गुप्त ही होनी चाहिए.’’

गुरु की आज्ञा का उल्लंघन धर्मभीरु सुरेश कैसे कर सकता था.

सुग्रीवानंद ने अपने सभी अमीर शिष्यों को अलगअलग समय में इसी तरह पटाया. सभी से 2-2 लाख रुपए वसूले और इन्हें दान की महान साधना को गुप्त रखने के आदेश दिए. इस तरह एक तीर से दो शिकार करने वाले सुग्रीवानंद के आश्रम में गरीब कन्याओं के विवाह कराए गए. उस ने मीडिया द्वारा तारीफ भी बटोरी लेकिन यह कोई नहीं जान पाया कि इस खेल में वह कितना पैसा कमा गया.

सुग्रीवानंद ने जगहजगह अपने आश्रम खोले थे लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इन आश्रमों को उस के परिवार व खानदान के लोग ही नहीं बल्कि रिश्तेदार भी चला रहे थे. धर्मभीरु जनता से धन ऐंठने के नएनए तरीके ढूंढ़ने वाले सुग्रीवानंद ने किसी पत्रिका में आदिवासियों पर एक लेख पढ़ लिया था. बस, लोगों से पैसा हड़पने का उसे एक और तरीका मिल गया, उस ने एक कथा में कहा कि आप के जो अशिक्षित बनवासी भाई हैं वे बहुत ही गरीबी में जी रहे हैं. हम सभी का धर्म है कि उन की सेवा करें. उन्हें शिक्षा के साधन उपलब्ध कराएं. मैं ने इस निमित्त जो संकल्प लिया है वह आप सभी के सहयोग से ही पूरा हो सकता है. सेवा ही धर्म है और सेवा ही भगवान की पूजा है. फिर दरिद्र तो नारायण होता है. इसलिए दरिद्र के लिए आप जितना अधिक दान देंगे, नारायण उतना ही खुश होगा.

सुग्रीवानंद ने आह्वान किया कि आइए, आगे आइए. इस शहर के धनकुबेर आगे आएं और आदिवासियों के लिए उदार दिल से दान की घोषणा करें. सुरेश ने पहली घोषणा की कि 1 लाख रुपए मेरी तरफ से. इस के बाद तो लोग बढ़चढ़ कर दान की घोषणाएं करने लगे. इस तरह सुग्रीवानंद के आश्रम के नाम लगभग 80 लाख रुपए की घोेषणा हो गई.

अभी तक सुरेश इस खुशफहमी में था कि गुरुजी की बातों को मान कर उसे अध्यात्म का लाभ प्राप्त होगा, परलोक का सुख मिलेगा मगर इस परलोक को सुधारने के चक्कर में वह मुसीबत में पड़ता जा रहा था. उस का सारा समय तो दीक्षा के बाद गुरुजी की बताई साधनाओं में ही व्यतीत हो जाता था और कमाई का अधिकांश धन गुरुजी को दान देने में.

परिणाम यह हुआ कि सुरेश का व्यापार डांवांडोल होने लगा. व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी सक्रिय हो गए. वह लाभ कमाने लगे और उस के हिस्से में घाटा आता गया. समय पर आर्डरों की सप्लाई न देने की वजह से बाजार में उस की साख गिरती गई. लाखों रुपए उधारी में फंस गए तब उसे हैरानी इस बात पर भी हुई कि दान का यह उलटा फल क्यों मिल रहा है जबकि गुरुजी कहते थे कि तुम जो भी दान दोगे, उस का कई गुना हो कर वापस मिलेगा. जैसे धरती में थोड़ा सा बीज डालते हैं तो वह कई गुना कर के फसल के रूप में लौटा देती है पर उस ने तो लाखों का दान दिया, फिर वह कंगाली के कगार पर क्यों?

सुरेश ने अपनी परेशानी गुरुजी के सामने रखी. सुग्रीवानंद ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘अरे बेटा, भगवान इसी तरह तो परीक्षा लेते हैं. भगवान अपने प्रिय भक्त को परेशानियों में डालते हैं और देखते हैं कि वह भक्त कितना सच्चा है.’’

सुरेश को यह जवाब उचित नहीं लगा. उस ने फिर पूछा, ‘‘गुरुजी भगवान तो अंतर्यामी हैं. वह जानते हैं कि भक्त कितना सच्चा है. फिर परीक्षा की उन्हें क्या जरूरत है?’’

सुग्रीवानंद को इस का कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘सुरेश, भगवान के विधान को कभी तर्कों से नहीं जाना जा सकता. यह तो विश्वास का मामला है. गुरु की बातों पर संदेह करोगे तो कुछ प्राप्त नहीं होगा.’’

सुरेश को उस के प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिला. सुरेश की जो जिज्ञासा थी, उस का उत्तर आज भी किसी महात्मा या कथावाचक के पास नहीं है. महात्माओं के अनुसार ईश्वर घटघटवासी है. वह त्रिकालदर्शी है. करुणा का सागर है. अंतर्यामी है. व्यक्ति के मन की हर बात जानता है. वह कितना सच्चा है, कितना कपटी है, ईश्वर को सब पता रहता है. फिर वह भक्त की परीक्षा क्यों लेता है? यह प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है.

Short Story: औरत का दर्द

Short Story, लेखक- सुधारानी श्रीवास्तव

‘‘मैडम, मेरा क्या कुसूर है जो मैं सजा भुगत रही हूं?’’ रूपा ने मुझ से पूछा. रूपा के पति ने तलाक का केस दायर कर दिया था. उसी का नोटिस ले कर वह मेरे पास केस की पैरवी करवाने आई थी.

उस के पति ने उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया था. रूपा की मां उस के साथ आई थी. उस ने कहा कि रूपा के ससुराल वालों ने बिना दहेज लिए विवाह किया था. उन्हें सुंदर बहू चाहिए थी.

रूपा नाम के अनुरूप सुंदर थी. जब रूपा छोटी थी तब उस की मां की एक सहेली ने रूपा के गोरे रंग को देख कर शर्त लगाई थी कि यदि तुम्हें इस से गोरा दामाद मिला तो मैं तुम्हें 1 हजार रुपए दूंगी. उस ने जब पांव पखराई के समय रूपेश के गुलाबी पांव देखे तो चुपचाप 1 हजार रुपए का नोट रूपा की मां को पकड़ा दिया.

रूपेश का परिवार संपन्न था. वे ढेर सारे कपड़े और गहने लाए थे. नेग भी बढ़चढ़ कर दिए थे. रूपा के घर से उन्होंने किसी भी तरह का सामान नहीं लिया था. रूपा के मायके वाले इस विवाह की भूरिभूरि प्र्रशंसा कर रहे थे. रूपा की सहेलियां रूपा के भाग्य की सराहना तो कर रही थीं पर अंदर ही अंदर जली जा रही थीं.

हंसीखुशी के वातावरण में रूपा ससुराल चली गई. रूपा अपने सुंदर पति को देखदेख कर उस से बात करने को आकुल हुई जा रही थी, पर रूपेश उस की ओर देख ही नहीं रहा था. ससुराल पहुंच कर ढेर सारे रीतिरिवाजों को निबटातेनिबटाते 2 दिन लग गए. रूपा अपनी सास, ननद व जिठानियों से घिरी रही. उस के खानेपीने का खूब ध्यान रखा गया. फिर सब ने घूमने का कार्यक्रम बनाया. 10-12 दिन इसी में लग गए. इस बीच रूपेश ने भी रूपा से बात करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई.

घूमफिर कर पूरा काफिला लौट आया. रूपा की सास ने वहीं से रूपा के पिता को फोन कर दिया था कि चौथी की रस्म के अनुसार रूपा को मायके ले जाएं. जैसे ही ये लोग लौटे, रूपा के पिता आ कर रूपा को ले गए. रूपा कोरी की कोरी मायके लौट आई. सास ने उस के पिता को कह दिया था कि वे लोग पुरानी परंपरा में विश्वास रखते हैं, दूसरे ही दिन शुक्र अस्त हो रहा है इसलिए रूपा शुक्रास्त काल में मायके में ही रहेगी.

रूपा 4 माह मायके रही. उस की सास और ननद के लंबेलंबे फोन आते. उन्हीं के साथ रूपेश एकाध बात कर लेता.

4 महीने बाद रूपेश के साथ सासननद आईं और खूब लाड़ जता कर रूपा को बिदा करा कर ले गईं. ननद ने अपना घर छोड़ दिया था और उस का तलाक का केस चल रहा था. वह मायके में ही रहती थी. इस बार रूपेश के कमरे में एक और पलंग लग गया था. डबल बेड पर रूपा अपनी ननद के साथ सोती थी व रूपेश अलग पलंग पर सोता था. रूपेश को उस की मां व बहन अकेला छोड़ती ही नहीं थीं जो रूपा उस से बात कर सके.

1-2 माह तक तो ऐसा ही चला. फिर ननद के दोस्त प्रमोद का घर आनाजाना बढ़ने लगा. धीरेधीरे सासननद ने रूपा को प्रमोद के पास अकेला छोड़ना शुरू कर दिया. रूपेश का तो पहले जैसा ही हाल था.

एक दिन जब रूपा प्रमोद के लिए चाय लाई तो उस ने रूपा का हाथ पकड़ कर अपने पास यह कह कर बिठा लिया, ‘‘अरे, भाभी, देवर का तो भाभी पर अधिकार होता है. मेरे साथ बैठो. जो तुम्हें रूपेश नहीं दे सकता वह मैं तुम्हें दूंगा.’’

रूपा किसी प्रकार हाथ छुड़ा कर भागी और उस ने सास से शिकायत की. सास ने प्रमोद को तो कुछ नहीं कहा, रूपा से ही बोलीं, ‘‘तो इस में हर्ज ही क्या है. देवरभाभी का रिश्ता ही मजाक का होता है.’’

रूपा सन्न रह गई. वह आधुनिक जरूर थी पर उस का परिवार संस्कारी था. और यहां तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं थी. प्रमोद की छेड़खानी बढ़ने लगी. उसे सास व ननद का प्रोत्साहन जो था. एक दिन रूपा ने चुपके से पिता को फोन कर दिया. मां की बीमारी का बहाना बना कर वे रूपा को मायके ले आए. रूपा ने रोरो कर अपनी मां जैसी भाभी को सबकुछ बता दिया तो परिवार वालों को संपन्न परिवार के ‘सुदर्शन सुपुत्र’ की नपुंसकता का ज्ञान हुआ. चूंकि यह ऐसी बात थी जिस से दोनों परिवारों की बदनामी थी, इसलिए वे चुप रहे. 1 माह बाद सासननद रूपेश को ले कर रूपा को लेने आईं तो रूपा की मां व भाभी ने उन्हें आड़े हाथों लिया. सास तमतमा कर बोलीं, ‘‘तुम्हारी लड़की का ही चालचलन ठीक नहीं है, हमारे लड़के को दोष देती है.’’

रूपा की मां बोलीं, ‘‘यदि ऐसा ही है तो अपने लड़के की यहीं डाक्टरी जांच करवाओ.’’

इस पर सासननद ने अपना सामान उठाया और गाड़ी में बैठ कर चली गईं. इस बात को लगभग 8-10 माह गुजर गए. रूपा के विवाह को लगभग 2 वर्ष हो चुके थे कि रूपेश की ओर से तलाक का केस दायर कर दिया गया था. रूपा के प्रमोद के साथ संबंधों को आधार बनाया गया था और प्रमोद को भी पक्षकार बनाया था, ताकि प्रमोद रूपा के साथ अपने संबंधों को स्वीकार कर रूपा को बदचलन सिद्घ कर सके.

मेरे लिए रूपा का केस नया नहीं था. इस प्रकार के प्रकरण मैं ने अपने साथी वकीलों से सुने थे और कई मामले सामाजिक संगठनों के माध्यम से सुलझाए भी थे. इस प्रकार के मामलों में 2 ही हल हुआ करते हैं या तो चुपचाप एकपक्षीय तलाक ले लो या विरोध करो. दूसरी स्थिति में औरत को अदालत में विरोधी पक्ष के बेहूदा प्रश्नों को झेलना पड़ता है. मैं ने रूपा से नोटिस ले लिया और उसे दूसरे दिन आने को कहा.

मैं ने प्रत्येक कोण से रूपा के केस पर सोचविचार किया. रूपा का अब ससुराल में रहना संभव नहीं था. वह जाए भी तो कैसे जाए. पति से ही ससुराल होती है और पति का आकर्षण दैहिक सुख होता है. इसी से वह नई लड़की के प्रति आकृष्ट होता है. जब यह आकर्षण ही नहीं तो वह रूपा में क्यों दिलचस्पी दिखाएगा. इसलिए रूपा को तलाक तो दिलवाना है किंतु उस के दुराचरण के आधार पर नहीं. औरत हूं न इसीलिए औरत के दर्द को पहचानती हूं.

सोचविचार कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अलग से नपुंसकता के आधार पर केस लगाने के बजाय मैं इसी में प्रतिदावा लगा दूं. हिंदू विवाह अधिनियम में इस का प्रावधान भी है. दोनों पक्षकार हिंदू हैं और विवाह भी हिंदू रीतिरिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ है.

दूसरे दिन रूपा, उस की मां व भाभी आईं तो मैं ने उन्हें समझा दिया कि हम लोग उन के प्रकरण का विरोध करेंगे. साथ ही उसी प्रकरण में रूपेश की नपुंसकता के आधार पर तलाक लेंगे. इसलिए पहले रूपा की जांच करा कर डाक्टरी प्रमाणपत्र ले लिया जाए.

पूरी तैयारी के साथ मैं ने पेशी के दिन रूपा का प्रतिदावा न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया. साथ ही एक आवेदन कैमरा प्रोसिडिंग का भी लगा दिया, जिस में सुनवाई के समय मात्र जज और पक्षकार ही रहें और इस प्रक्रिया का निर्णय कहीं प्रकाशित न हो.

जब प्रतिदावा रूपा की सासननद को मिला तो वे बहुत बौखलाईं. उन्हें अपने लड़के की कमजोरी मालूम थी. प्रमोद को इसीलिए परिचित कराया गया था ताकि रूपा उस से गर्भवती हो जाए तो रूपेश की कमजोरी छिप जाए और परिवार को वारिस मिल जाए.

मैं ने न्यायालय से यह भी आदेश ले लिया कि रूपेश की जांच मेडिकल बोर्ड से कराई जाए. इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर जब रूपा की सासननद थक गईं तो समझौते की बात ले कर मेरे पास आईं. रूपा के पिता भी बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए मैं ने विवाह का पूरा खर्च व अदालत का खर्च उन से रूपा को दिलवा कर राजीनामा से तलाक का आवेदन लगवा दिया. विवाह होने से मुकदमा चलने तक लगभग ढाई वर्ष हो गए थे. रूपा को भी मायके आए लगभग डेढ़ वर्ष हो गए थे. इसलिए राजीनामे से तलाक का आवेदन स्वीकार हो गया. दोनों पक्षों की मानमर्यादा भी कायम रही.

इस निर्णय के लगभग 5-6 माह बाद मैं कार्यालय में बैठी थी. तभी रूपा एक सांवले से युवक के साथ आई. उस ने बताया कि वह उस का पति है, स्थानीय कालिज में पढ़ाता है. 2 माह पूर्व उस ने कोर्ट मैरिज की है. उस की मां ने कहा कि हिंदू संस्कार में स्त्री एक बार ही लग्न वेदी के सामने बैठती है इसलिए दोनों परिवारों की सहमति से उन की कोर्ट मैरिज हो गई. रूपा मुझे रात्रि भोज का निमंत्रण देने आई थी.

उस के जाने के बाद मैं सोचने लगी कि यदि मैं ने औरत के दर्द को महसूस कर यह कानूनी रास्ता न अपनाया होता तो बेचारी रूपा की क्या हालत होती. अदालत में दूसरे पक्ष का वकील उस से गंदेगंदे प्रश्न पूछता. वह उत्तर न दे पाती तो रूपेश को उस के दुराचारिणी होने के आधार पर तलाक मिल जाता. फिर उसे जीवन भर के लिए बदनामी की चादर ओढ़नी पड़ती. सासननद की करनी का फल उसे जीवन भर भुगतना पड़ता. जब तक औरत अबला बनी रहेगी उसे दूसरों की करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा. समाज में उसे जीना है तो सिर उठा कर जीना होगा.

Hindi Story: स्वयंसिद्धा – दादी ने कैसे चुनी नई राह

Hindi Story: रात 1 बजे नीलू के फोन की घंटी घनघना उठी. दिल अनजान आशंकाओं से घिर गया. बेटा विदेश में है. बेटी पुणे के एक होस्टल में रहती है. किस का फोन होगा, मैं सोच ही रही थी कि पति ने तेज कदमों से जा कर फोन उठा लिया. पापा का देहरादून से फोन था, मेरी दादी नहीं रही थीं. यह सुनते ही मैं रो पड़ी. इन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा, ‘‘देखो मधु, दादी अपनी उम्र के 84 साल जी चुकी थीं, आखिर एक न एक दिन तो यह होना ही था. तुम जानती ही हो कि जन्म और मृत्यु जीवन के 2 अकाट्य सत्य हैं.’’

उन्होंने मुझे पानी पिला कर कुछ देर सोने की हिदायत दी और कहा, ‘‘सवेरे 4 बजे निकलना होगा, तभी अंतिमयात्रा में शामिल हो पाएंगे.’’

मैं लेट गई पर मेरी अश्रुपूरित आंखों के सामने अतीत के पन्ने उलटने लगे…

मेरी दादी शांति 16 वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थीं. 2 महीने का बेटा गोद में दे कर उन का सुहाग घुड़सवारी करते समय अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो कर इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गया.

वैधव्य की काली घटाओं ने उन की खुशियों के सूरज को पूर्णतया ढक दिया. गोद में कुलदीपक होने के बावजूद उन पर मनहूस का लेबल लगा उन्हें ससुरालनिकाला दे दिया गया.

ससुराल से निर्वासित हो कर दादी ने मायके का दरवाजा खटखटाया. मायके के दरवाजे तो उन के लिए खुल गए पर सासससुर की लाचारी का फायदा उठा कर उन की भाभी ने उन्हें एक अवैतनिक नौकरानी से ज्यादा का दर्जा न दिया.

मायके में दिनरात सेवा कर उन्होंने अपने बेटे के 10 साल के होते ही मायके को भी अलविदा कह दिया.

देहरादून में बरसों पहले ब्याही बचपन की सहेली का पता उन के पास था. बस, सहेली के आसरे ही वे देहरादून आ पहुंचीं.

सहेली तो मिली ही, साथ ही वहां एक कमरे का आश्रय भी मिल गया. सहेली और उस के पति दोनों उदार व दयालु थे. उन्होंने उन के बेटे यानी हमारे पापा का दाखिला भी एक नजदीकी स्कूल में करवा दिया.

दादी स्वेटर बुनने और क्रोशिए व धागे से विभिन्न तरह की चीजें बनाने में सिद्धहस्त थीं. स्वेटर पर ऐसे सुंदर नमूने डालतीं कि राह चलने वाला एक बार तो गौर से अवश्य देखता. उन के  बुने स्वेटरों और क्रोशिए के काम की धूम पूरे महल्ले में फैल गई. देखते ही देखते उन्हें खूब काम मिलने लगा. दिनरात मेहनत कर के वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गईं. उन्होंने सहेली को तहेदिल से धन्यवाद दिया और उसी के घर के पास 2 कमरों का मकान ले कर रहने लगीं, पर सहेली का उपकार कभी नहीं भूलीं.

पापा भी 16-17 वर्ष के हो चुके थे. उन्हें भी किसी जानकार की दुकान पर काम सीखने भेजने लगीं. पापा होनहार थे, बड़ी मेहनत और लगन से वे काम सीखने लगे. मायका छोड़ते समय भाभी की नजर से बचा उन की मां ने एक गहने की छोटी सी पोटली उन्हें थमा दी थी. उन्होंने उसे लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया था पर उन की मां ने अपनी कसम दे दी थी. अपनी मां की बेबसी और डबडबाई आंखें देख उन्हें वह पोटली लेनी पड़ी. दादी अपनी मां की निशानी बड़ी जतन से संभाल कर रखती आई थीं. कठिनतम परिस्थितियों में भी कभी उसे नहीं छुआ पर आज अपने होनहार बेटे का कारोबार जमाने की खातिर उस निशानी का भी मोलभाव कर दिया.

आज मैं स्वयं को और इस नई पीढ़ी को देखती हूं तो चारों और असहिष्णुता व आक्रोश फैला देखती हूं. छोटीछोटी बातों में गुस्सा, तुनकमिजाजी देखने को मिलती है. सारी सुखसुविधाएं होते हुए भी असंतुष्टता दिखाई देती है, पर दादी के जीवन में तो 16 वर्ष के बाद ही पतझड़ ने स्थायी डेरा जमा लिया था. जीवन में कदमकदम पर अपमान, अभाव व धोखे खाए थे पर इन सब ने उन में गजब की सहनशीलता भर दी थी. हम ने कभी घर में उन्हें गुस्सा करते, चिल्लाते नहीं देखा. अपनी मौन मुसकान से ही वे सब के दिलों पर राज करती थीं. मम्मीपापा को उन से कोई शिकायत न थी. वे उन को मां बन कर सीख भी देतीं और दोस्त बना कर हंसीमजाक भी करतीं.

दादीजी के बारे में सोचतेसोचते कब सवेरा हो गया, पता ही नहीं चला. पति टैक्सी वाले को फोन करने लगे. मैं ने जल्दी से 2 कप चाय बना ली. हम चल दिए दादी की अंतिमयात्रा में शामिल होने.

टैक्सी में बैठते ही मैं ने आंखें मूंद लीं. दादी की यादों के चलचित्र की अगली रील चलने लगी…

दादी स्वयं पुराने जमाने की थीं लेकिन पासपड़ोस और महल्ले की औरतों की आजादी के लिए उन्होंने ही शंखनाद किया. ससुराल में घूंघट से त्रस्त कई महिलाओं को उन्होंने घूंघट से आजादी दिलवाई. घरों के बड़ेबुजुर्गों को समझाया कि सिर पर ओढ़नी, आंखों और दिल में बुजुर्गों के लिए आदरसेवा यही सबकुछ है. हाथभर का घूंघट निकाल कर बड़ेबूढ़ों का अपमान करना, उन की मजबूरी और लाचारी

में उन्हें कोसना गलत है. घूंघटों से बेजार महिलाओं को जीवन में बड़ी राहत मिल गई थी. दादी की बातें लोगों के दिलोजेहन में ऐसे उतरतीं जैसे धूप व प्यास से खुश्क गलों में मीठा शरबत उतरता.

दादी स्वयं पढ़ीलिखी न थीं. पर उन्होंने मम्मी के बीए की अधूरी पढ़ाई को पूरा करवाने का बीड़ा उठाया. घरपरिवार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मम्मी को कालेज भेजा. मुख्य विषय संगीत था, इसलिए हारमोनियम मंगवाया. शाम के समय मां सुर लगातीं तो दादी मंत्रमुग्ध हो कर आंखें बंद कर बैठ जातीं और 2-3 गाने सुने बिना न उठती थीं.

हमारे भाई का जन्मदिन भी वे बड़े निराले तरीके से मनवातीं. न तो पार्टी न डांस, बस, मां का बनाया मिल्ककेक काटा जाता. दोपहर को बड़ेबड़े कड़ाहों और पतीलों में जाएकेदार कढ़ीचावल और शुद्ध देशी घी में हलवा बनवाया जाता. विशेष मेहमान होते अनाथाश्रम के प्यारेप्यारे बच्चे जो अपने आश्रय का सुरीला बैंड बजाते हुए पंक्तिबद्ध हो कर आते और बड़े ही चाव से कढ़ीचावल व हलवे के भोजन से तृप्त होते थे.

साथ ही, रिटर्नगिफ्ट के रूप में एकएक जोड़ी कपड़े ले कर जाते थे. उस के बाद होता था महल्ले के सभी लोगों का महाभोज. एक बड़े से दालान में बच्चेबड़े सभी भोजन करते थे. हम सब घर वाले तब तक पंगत से नहीं उठते थे जब तक सब तृप्त न हो जाते. हलकेफुलके हंसी के माहौल में भोज होता मानो एक विशाल पिकनिक चल रही हो.

मैं तब 10वीं कक्षा में थी. स्कूल से घर आई तो देखा दीदी रो रही हैं और मम्मी पास ही में रोंआसी सी खड़ी हैं. दीदी ने आगे पढ़ने के लिए जो विषय लिया था, उस के लिए उन्हें सहशिक्षा कालेज में दाखिला लेना था. पर पापा आज्ञा नहीं दे रहे थे. दादी उन दिनों हरिद्वार गई हुई थीं. दीदी ने चुपके से उन्हें फोन कर दिया.

दादी ने आते ही एक बार में ही पापा से हां करवा ली. उन्होंने पापा को सिर्फ एक बात कही, मीरा को हम सब ने मिल कर संस्कार दिए हैं. उन में क्या कुछ कमी रह गई है जो मीरा को उस कालेज में जाने से तू रोक रहा है. हमें अपनी मीरा पर पूरा भरोसा है. वह वहां पर लगन से पढ़ कर अच्छे अंक लाएगी और हमारा सिर ऊंचा करेगी. परोक्षरूप से उन्होंने मीरा दीदी को भी हिदायत दे दी थी और वास्तव में दीदी ने प्रथम रैंक ला कर घरपरिवार का नाम रोशन कर दिया. इसी क्षण टैक्सी के हौर्न की आवाज ने हमें यादों के झरोखों से बाहर निकाला.

टैक्सी रफ्तार पकड़े हुए थी. शीघ्र ही हम देहरादून पहुंच गए. घर में प्रवेश करते ही दादी के पार्थिव शरीर को देखते ही यत्न से दबाई हुई हिचकी तेज रुदन में बदल गई. सभी पहुंच चुके थे. बस, मेरा इंतजार हो रहा था. पापा ने मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मधु बेटी, इस प्रकार रो कर तुम अपनी दादी को दुखी कर रही हो. वे तो संसार के मायाजाल से मुक्त हुई हैं. एक 16 साल की विधवा का, साथ में एक दूधमुंहे बच्चे के साथ, इस संसाररूपी सागर को पार करना बहुत ही कठिन था. मुझे अपनी मां पर गर्व है. उन्होंने अपने आत्मसम्मान व इज्जत को गिरवी रखे बिना इस सागर को पार किया. वे तो स्वयंसिद्धा थीं. उन्होंने समाज की खोखली रूढि़यों, पाखंडों से दूर रह कर अपने रास्ते खुद बनाए. जो उन्हें अच्छा और सही लगा उसे ग्रहण किया और व्यर्थ की मान्यताओं को उन्होंने अपने मार्ग से हटा दिया. उन के मुक्तिपर्व को शोक में मत बदलो.’’

कुछ देर बाद दादी की अंतिमयात्रा आरंभ हो गई. बहुत बड़ी संख्या में लोग साथ थे. दादी की मृत्यु प्रक्रिया उन की इच्छानुसार की गई. न तो ब्राह्मण भोज हुआ न पुजारीपंडों को दान दिया गया. लगभग 200 गरीबों को भरपेट भोजन कराया गया और 1-1 कंबल उन्हें दानस्वरूप दिए गए. पापा ने दादी की इच्छानुसार अनाथाश्रम, महिला कल्याण घर और अस्पताल में 2-2 कमरे बनवा दिए.

देखतेदेखते दादी हम से बहुत दूर चली गईं. वे अपने पीछे छोड़ गईं संघर्षों का ऐसा अनमोल खजाना जो सभी नारियों के लिए एक सबक है कि कैसे कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में भी अपने मानसम्मान व इज्जत को बचाते हुए आगे बढ़ें. वे इस युग की ऐसी महिला थीं जिस ने अपनी मृतप्राय जीवनबगिया को नवीन विचारों, दृढ़संकल्पों, कर्मठता व मेहनत के बलबूते फिर से हरीभरी बना दिया. वास्तव में वे स्वयंसिद्धा थीं.

Short Story: जरूरत है एक कोपभवन की

Short Story, लेखक- डॉ. अरुना शास्त्री 

आजकल के इंजीनियर और ठेकेदार यह बात अपने दिमाग से बिलकुल ही बिसरा बैठे हैं कि घर में एक कोपभवन का होना कितना जरूरी है. इसीलिए तो आजकल मकान के नक्शों में बैठक, भोजन करने का कमरा, सोने का कमरा, रसोईघर, सोने के कमरे से लगा गुसलखाना, सभी कुछ रहता है, अगर नहीं रहता है तो बस, कोपभवन.

सोचने की बात है कि राजा दशरथ के राज्य में वास्तुकला ने कितनी उन्नति की थी कि हर महल में कोप के लिए अलग से एक भवन सुरक्षित रहता था. शायद इसीलिए वह काल इतिहास में ‘रामराज्य’ कहलाया, क्योंकि उस काल में महिलाएं बजाय राजनीति के अखाड़े में कूदने के अपना सारा गुबार कोपभवनों में जा कर निकाल लेती थीं और इसीलिए समाज में इतनी शांति और अमनचैन छाया रहता था.

ठीक ही तो था. राजा दशरथ के काल की यह व्यवस्था कितनी अच्छी थी. पति अपनी पत्नियों को समान अधिकार देते थे. वे जानते थे कि कोप सरेआम, हाटबाजार में या कोई कोर्टकचहरी में करने की चीज नहीं है. इस के  लिए तो घर में ही अलग से कोपभवन का होना बहुत जरूरी है.

भला यह भी कोई बात हुई कि कुपिता हो कर बीवी बेचारी दिन भर मुंह फुलाए अपने 2 कमरों के छोटे से घर में काम करती रहे, पति को खाना खिलाए, बच्चों को स्कूल भेजे, शाम को फिर सभी को खिलापिला कर, बच्चों को सुला कर खुद भी अपना तकिया ले कर मुंह फेर कर लेट जाए.

पति के पास तो व्यस्तता का बहाना रहता है जिस के कारण वह जान ही नहीं पाता कि आज पत्नी अवमानिनी बनी हुई, कोप मुद्रा में दर्शन दे रही है या फिर वह इतना चतुर होता है कि जब तक हो सके, जानबूझ कर पत्नी के रूठने से अनजान बने रहने की ही कोशिश करता रहता है. तब क्या पत्नी खुद आ कर कहे कि सुनोजी, मैं रूठी हुई हूं, आप मुझे आ कर मना लीजिए.

पति अगर मनाने आ भी जाए तो आप क्या समझते हैं कि पत्नी ने कोई कच्ची गोलियां खेली हैं जो अपना रूठना छोड़ कर इतनी आसानी से मान जाएगी? रूठी पत्नी को मनाना इतना आसान काम नहीं है जितना आप समझ रहे हैं. न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं उसे मनाने के लिए. यदि कोई कुंआरा व्यक्ति वह दृश्य देख ले तो शादी के नाम से ही तौबा कर ले. राजा दशरथ समझदार थे कि इस के लिए उन्होंने एक कोपभवन का निर्माण करा रखा था, ताकि जब भी उन की तीनों पत्नियों में से किसी को भी रूठना होता था वह कोपभवन में चली जाती थी और राजा दशरथ भी झट अपना राजपाट छोड़ कर रूठी पत्नी को मनाने दौड़ पड़ते थे.

यह स्वर्ण अवसर देखते ही पत्नी चटपट 2-4 वर मांग लेती थी, उस का कोप भंग हो जाता था और पतिपत्नी सारा मनमुटाव भूल कर हंसतेगाते कोपभवन से बाहर आ जाते थे और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती थी. उन दिनों लोग पत्नी को तो सम्मान देते ही थे, साथ ही उस के कोप का भी भरपूर सम्मान करते थे.

अब तो हाल यह है कि तूफान के पहले की शांति देखते ही मेरे अबोध बच्चे कोप के आगमन की आशंका से ही सहम जाते हैं. सहमी हुई बबली मचल रहे गुड्डू को एक कोने में ले जा कर इशारे से समझाती है, ‘‘गुड्डू…मेरे भैया, देख, चुपचाप दूध गटक जा, आज मां का मूड ठीक नहीं है.’’ कोप के लक्षण देखते ही पतिदेव भी थाली में जो कुछ परोस दिया उसी को जल्दीजल्दी पेट में डाल कर भीगी बिल्ली की तरह दफ्तर भाग खड़े होते हैं और अतिरिक्त काम का बहाना बना कर रात को भी मेरे कोप के डर से देर से ही घर लौटते हैं.

मैं सांस रोके प्रतीक्षा करती हूं कि शायद अब वह मुझे मनाएंगे. यह जानते हुए भी कि मैं जाग रही हूं, मुझे सोई हुई समझने में अपनी खैरियत समझ कर वह खुद भी चुपचाप सो जाते हैं.

यह देख कर तो मुझे ही खिसिया कर रह जाना पड़ता है कि कौन सी कुघड़ी में रूठने का विचार मन में आया था. अलग से एक कोपभवन न होने के कारण ही तो कई बार कोप का कार्यक्रम स्थगित रखना पड़ता है. कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवनों का अस्तित्व होता. कल्पना कीजिए, पत्नी रूठ कर कोपभवन में जा बैठी है.

अब पतिदेव को सुबह बिस्तर से उठते ही चाय नहीं मिलेगी तो कड़कड़ाती ठंड में उनींदी आंखों से मुंहअंधेरे उठ कर दूध वाले से दूध लेने और स्टोव से मगजमारी करने में ही उन महाशय को नानी और दादी दोनों साथ ही याद आ जाएंगी. यही नहीं वह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने, उन का टिफन जमाने और स्वयं नहाधो, खापी कर दफ्तर के लिए तैयार होने की कल्पना से ही सिहर कर झटपट अपनी पत्नी को कोपभवन में जा कर मना लेने में ही अपना भला समझेंगे. कोपभवनों के अभाव में ही पत्नियों को एक अटैची हमेशा तैयार रखनी पड़ती है ताकि कुपित होते ही उस में कपड़े ठूंस कर पति को गाहेबगाहे मायके जाने की धमकी दी जा सके.

कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवन होते तो पति की गाढ़ी मेहनत की कमाई रेलभाड़े में खर्च कर के पत्नी को मायके जाने की नौबत ही क्यों आती? पत्नी को अपने रूठने का इतना मलाल नहीं होता जितना मलाल पति द्वारा न मनाए जाने से होता है. पति का न मनाना कोप की आग में घी का काम करता है.

वह तो चाहती है कि पति कोपभवन में आ कर उस के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाए, ‘‘हे प्रियतमे, तुम अब मान भी जाओ, तुम्हारा चौकाचूल्हा संभालना मेरे बस की बात नहीं है. अब कान पकड़ कर कह रहा हूं जब तुम दिन कहोगी तो मैं भी दिन ही कहूंगा, तुम रात कहोगी तो मेरे लिए भी रात हो जाएगी.’’

इस के बाद पहली तारीख को तनख्वाह मिलते ही साड़ी लाने का वादा होता, शाम को फिल्म देखने जाने का कार्यक्रम बनता, पत्नी के अलावा किसी दूसरी सुंदरी की ओर आंख भी उठा कर न देखने की कसम खाई जाती और इस तरह पत्नी किसी फटेपुराने वस्त्र की तरह अपना कोप वहीं त्याग कर प्रसन्नवदना हो कर कोपभवन से बाहर आ जाती.

राम राज्य से ले कर इस 20वीं शताब्दी तक विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि अब तो कोपभवन साउंड प्रूफ (जिस में बाहर की आवाज अंदर न आ सके और अंदर की आवाज बाहर न जा सके) भी बन सकते हैं. फिर चाहे पति कोपभवन में दरवाजा बंद कर के पत्नी के सामने कान पकड़े या दंडबैठक लगाए या पत्नी के कोमल चरणों में साष्टांग दंडवत कर के अपने आंसुओं से उस के चरण कमल क्यों न पखारे और बदले में पत्नी उस से नाकों चने ही क्यों न चबवा दे, वहां उन्हें देखने वाला कोई न होगा.

पत्नी चाहे जितनी गरजेगी, बरसेगी मंथरा टाइप महरी या घर के नौकरचाकर कान लगा कर नहीं सुन सकेंगे और न उन के अबोध बच्चों की मानसिकता पर कोई बुरा प्रभाव पड़ेगा. तलाक की दर निश्चित रूप से कम हो जाएगी. आखिर पतिपत्नी का मामला है. कोपभवन में जा कर सुलझ जाएगा. उस में कोर्टकचहरी की दखलंदाजी क्यों हो?

Hindi Story: आत्मनिर्णय – आखिर आन्या ने अपनी मां की दूसरी शादी क्यों करवाई

Hindi Story, लेखक- मीरा जगनानी

मैंने आन्या के पापा को उस के पैदा होने के महीनेभर बाद ही खो दिया था. हरीश हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एकदूसरे के दुखसुख में बहुत काम आते थे. हरीश से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश ने लिवइन रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैं ने कहा, ‘यह मुमकिन नहीं है.

आप के और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं, अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हम दोनों एकदूसरे के दोस्त हैं, यह काफी है.’ उस के बाद फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब सवा घंटा लगता था. एक दिन अचानक आन्या ने आ कर मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते में समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पीजी में रहना चाहती हूं.’’

एक बार तो उस का प्रस्ताव सुन कर मैं सकते में आ गई, फिर मैं ने सोचा कि एक न एक दिन तो वह मुझ से दूर जाएगी ही. अकेले रह कर उस के अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जोकि आज के जमाने में बहुत जरूरी है. मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आए, करो.’’

3-4 महीने बाद उस ने मुझे फोन कर के अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गई, और जब उस के दिए ऐड्रैस पर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौचक रह गई. इस से पहले मैं कुछ बोलूं, उस ने कहा, ‘‘आइए आंटी, आन्या यहीं रहती है.’’

यह सुन कर मैं थोड़ी सामान्य हो कर अंदर गई. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी. मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट गई और मुसकराते हुए बोली, ‘‘मम्मी, यह तनय है, मैं इस से प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीतिरिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं.

अलग रह कर रोजरोज मिलने पर समय और पैसे की बरबादी होती है. इसलिए हम ने साथ रह कर समय का इंतजार करना बेहतर समझा है. मैं जानती हूं अचानक यह देख कर आप को बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखिए, आप को मेरे निर्णय से कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘और मैं यह भी जानती हूं, आप पापा के जाने के बाद बहुत अकेला महसूस कर रही हैं. आप हरीश अंकल से बहुत प्यार करती हैं. आप भी उन के साथ लिवइन में रह कर अपने अकेलेपन को दूर करें. फिर मुझे भी आप की ज्यादा चिंता नहीं रहेगी.’’

यह सब सुनते ही एक बार तो मुझे बहुत झटका लगा, फिर मैं ने सोचा कि आज के बच्चे कितने मजबूत हैं. मैं तो कभी आत्मनिर्णय नहीं ले पाई, लेकिन जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने में उस को क्यों रोकूं. तनय बातों से अच्छे संस्कारी परिवार का लगा. अब समय के साथ युवा बदल रहे हैं, तो हमें भी उन की नई सोच के अनुसार उन की जीवनशैली का स्वागत करना चाहिए.

उन पर हमारा निर्णय थोपने का कोई अर्थ नहीं है. और यह मेरी परवरिश का ही परिणाम है कि वह मुझ से दूसरे बच्चों की तरह छिपा कर कुछ नहीं करती. मैं ने तनय को अपने गले से लगाया कि उस ने आन्या के भविष्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मुझे मुक्त कर दिया है. मैं संतुष्ट मन से घर लौट आई और आते ही मैं ने हरीश के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी.

Hindi Story: इज्जत की खातिर – क्यों एक बाप ने की बेटी की हत्या

Hindi Story: सरपंच होने के नाते इंद्राज की सारे गांव में तूती बोलती थी. उन के पास से गुजरते समय लोग सहम जाते थे. किसी की जोरू भागी हो, कोई इश्क या नाजायज संबंध का मामला हो या खेती का मामला हो, सब का फैसला इंद्राज ही करते थे. आसपास के 4 गांवों के मामले इंद्राज ही निबटाते थे.

‘‘मातादीन, नीम के नीचे चारपाई बिछाओ. हम अभी आते हैं,’’ इंद्राज ने आवाज लगाई.

‘‘जी मालिक, अभी बिछाते हैं,’’ हमेशा इंद्राज के आदेशों के इंतजार में रहने वाले नौकर ने जवाब दिया.

इंद्राज एक गिलास छाछ पी कर घर से निकलते हुए बेदो देवी को आदेश देते हुए बोले, ‘‘आज पुनिया गांव से बुलावा आया है. बाहर लोग बैठे हैं. एक दिन की भी फुरसत नहीं मिलती. तुम जरा सुमन का खयाल रखना. वह कहीं आएजाए नहीं,’’ इतना कह कर इंद्राज बाहर निकल कर चारपाई पर बैठ गए.

‘‘क्या है रे छज्जू, क्या बात हो गई?’’ इंद्राज ने चारपाई के पास खड़े लोगों में से एक से पूछा, जो फरियाद ले कर आया था.

‘‘हुजूर, कालू अहीर का लड़का हमारी लड़की को जबरन उठा ले गया था और उस ने एक रात उसे अपने पास रखा भी,’’ छज्जू ने हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘तो यह बात है…’’ अपने सिर को हिलाते हुए सरपंच ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम सब गांव पहुंचो. वहां के पंच से कह देना कि हम वहां पर पंचायत करने आ रहे हैं.

‘‘और हां, कालू से कह देना कि गांव छोड़ कर कहीं बाहर न जाए.’’

‘‘बाबूजी, पास के गांव में मेला लगा है. सुषमा और सुमरन के साथ क्या मैं भी मेला देखने चली जाऊं?’’ जब पुनिया गांव के लोग चले गए, तो सुमन इंद्राज से इजाजत लेने आई.

‘‘हमारी बेटी मेले में जा कर इठलाएबलखाए, यह हमें मंजूर नहीं,’’ इंद्राज ने अपनी कटीली रोबदार मूंछों पर हाथ फेरते हुए कहा. बेचारी सुमन अपना सा मुंह ले कर लौट गई.

सुमन के जिद करने पर उस की मां बेदो देवी ने उसे अपने पिता से इजाजत लेने को कहा. वह अपनी तरफ से बेटी को भेज नहीं सकती थी, क्योंकि वह इंद्राज के सनकी दिमाग को अच्छी तरह जानती थी.

मातादीन मोटरसाइकिल को चमका रहा था. इंद्राज के आवाज लगाने पर वह मोटरसाइकिल ले कर उन के सामने खड़ा हो गया.

इंद्राज ने मोटरसाइकिल पर अपने पीछे 2 लठैतों को भी बैठा लिया और तेजी से पुनिया गांव की ओर चल पड़ा.

मोटरसाइकिल पंचों के पास जा कर ठहरी. सभी पंच पहले से ही सरपंच इंद्राज की राह देख रहे थे.

‘नमस्ते सरपंचजी,’ सभी पंचों ने कहा.

‘‘नमस्ते,’’ इंद्राज से उन लोगों ने हाथ मिलाया और बेहद इज्जत के साथ उन्हें बीच वाले आसन पर अपने साथ बैठाया.

‘‘कालू और छज्जू हाजिर हों,’’ गांव के एक हरकारे ने जोरदार आवाज लगाई. कालू और छज्जू हाथ जोड़े सामने आ कर खड़े हो गए.

पंचों ने उन से बैठने को कहा, तो वे दोनों सहमी बिल्ली की तरह बैठ गए.

पंचों का फैसला सुनने के लिए एक तरफ औरतें और दूसरी ओर मर्द खड़ेहो गए.

‘‘हां, तो अपनीअपनी शिकायत पेश करो…’’ इंद्राज ने हांक लगाई, ‘‘छज्जू की बात तो हम सुन चुके हैं, अब कालू की बारी है.’’

‘‘जी हुजूर, छज्जू की बेटी सुमतिया अपनी मरजी से गोलू के साथ भागी थी,’’ कालू ने गिड़गिड़ाते हुए उन से कहा.

‘‘सुमतिया को तुरंत हाजिर करो,’’ दाताराम पंच ने कहा.

सुमतिया और गोलू भी वहां पहले से मौजूद थे. सुमतिया सलवारसूट में थी. पंच की पुकार पर वह सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘क्यों, तू अपनी मरजी से भागी थी?’’ इंद्राज ने कड़क आवाज में पूछा.

लेकिन सुमतिया शर्म की वजह से कुछ बोल नहीं पा रही थी. वह सिर झुका कर खड़ी रही.

पंचों के दोबारा पूछने पर सुमतिया ने ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘गोलू ने तुम्हारे साथ कुछ गलत तो नहीं किया?’’ इस सवाल पर सुमतिया झेंप गई और कोई जवाब नहीं दे पाई.

पंचों ने सजा देने के लिए आपस में सलाह करनी शुरू कर दी. आखिर में सरपंच ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘चूंकि दोनों की बिरादरी एक है, इसलिए इन दोनों की शादी कर देनी चाहिए.’’

इस के बाद सरपंच ने छज्जू से कहा, ‘‘सुमतिया अपनी मरजी से भागी थी. गोलू उसे जबरन नहीं ले गया था. लेकिन तुम ने पंचों से झूठ बोला. तुम को तो वैसे भी अपनी बेटी एक दिन ब्याहनी ही थी, इसलिए सजा के तौर पर तुम कालू को 2 बीघा जमीन, 2 बैल और 4 तोले सोना दोगे.’’

सजा सुन कर छज्जू को पसीना आ गया. वह गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘‘हुजूर, यह तो बहुत ज्यादा है. मैं इतना कहां से दे पाऊंगा?’’

‘‘लड़की को काबू में नहीं रख सकता, चला है बात करने…’’ इंद्राज ने जोर से झाड़ लगाई, ‘‘अगर नहीं दे सकते, तो जमीन गिरवी रख कर मुझ से कर्ज ले लेना.’’

कर्ज के नाम से छज्जू के पैरों तले जमीन हिलने लगी. उसे पता था कि एक बार का कर्ज पीढि़यों तक नहीं चुकता. उस के दादा ने एक बार कर्ज लिया था, तो वह अभी तक चला आ रहा था, पर पंचों का फैसला उसे मानना ही पड़ा.

कुछ महीने की मुहलत लेने के बाद एक दिन छज्जू खेत के कागजात ले कर इंद्राज के पास पहुंचा.

इंद्राज उस से अंगूठा लगवाने वाले ही थे कि अचानक वहां परेशान सा मातादीन आ गया.

‘‘देखिए माईबाप, सुमन बिटिया को क्या हो गया?’’ मातादीन हांफते हुए कहने लगा, ‘‘बिटिया उलटी पर उलटी किए जा रही है. जल्दी से डाक्टर को बुला लाऊं क्या?’’इंद्राज ने सुना तो फौरन घर के अंदर की ओर भागे.

‘‘क्या हुआ सुमन को?’’ इंद्राज ने अपनी बीवी बेदो देवी से सख्त लहजे में पूछा.

‘‘होना क्या है? किसी का पाप पेट में पाल रही है,’’ बेदो देवी सुमन को पीटते हुए बोली.

‘‘कुछ बताया इस ने किस का है?’’ इंद्राज की अकड़ अब कुछ हद तक ढीली हो गई.

‘‘मुरेना, चरण अहीर का लड़का. वही सरपंच, जिस से पिछले साल आप की ठन गई थी,’’ बेदो देवी ने याद दिलाते हुए कहा, ‘‘इस कलमुंही ने तो हमारी इज्जत को रौंद कर रख दिया. हम कहीं के नहीं रहे.’’

‘‘धीरे बोलो बेदो, आसपास और भी कान हैं. अब रात को ही इस का कुछ इंतजाम करते हैं.’’

‘‘हमारे खानदान की तो इस ने नाक कटा दी. इज्जत और न मिट्टी में मिला दिया. 4 गांवों के सरपंच को अब अपने घर का फैसला करना मुश्किल होगा,’’ बेदो देवी बड़बड़ाई.

रात होते ही लड़की के नाना को बुला लिया गया. वह भी अग्रोहा गांव के सरपंच थे. तीनों ने आपस में सलाह कर सुमन को सल्फास पीने पर मजबूर कर दिया. अपनी इज्जत बचाने का उन्हें और कोई रास्ता नजर नहीं आया.

सुबह तक सुमन जिंदगी और मौत के बीच छटपटाती रही. खुदकुशी का बहाना बना कर वे लोग उसे शहर के सरकारी अस्पताल ले गए. उस की हालत से लग रहा था कि वह रास्ते में ही मर जाएगी. मगर अस्पताल पहुंचने तक वह जिंदा रही.

डाक्टर ने उसे तुरंत भरती कर लिया, लेकिन डाक्टर ने पुलिस को फोन कर दिया. डाक्टर की नजर में वह पुलिस केस था.

पुलिस आई, तो सुमन के बयान पर तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया. दूसरे दिन अखबारों में बड़ेबड़े अक्षरों में छपा, ‘इज्जत की खातिर जवान बेटी को मौत की नींद सुला दिया गया.’

Hindi Story: काशी वाले पंडाजी – बेटियों ने बचाया परिवार

Hindi Story: रबी की फसल तैयार होने के बाद काशी वाले पंडाजी का इलाके में आना हुआ. लेकिन इस बार पंडाजी के साथ एक पहलवान चेला भी था, जिस की उम्र तकरीबन 35 साल के आसपास थी. पर देखने में वह 21-22 साल का ही लगता था. हाथ में कई अंगूठियां, छोटेछोटे काले बाल, प्रैस की हुई खादी की धोती और पैर में कोल्हापुरी चप्पल उस पर खूब फबती थी. पंडाजी बांस की बनी एक छोटी डोलची ले कर चलते थे. डोलची के हैंडिल के सहारे 2 छोटीछोटी गोल रंगीन शीशियां बंधी रहती थीं.

पंडाजी बड़ी सावधानी से शीशी खोलते और बहुत ही थोड़ा जल निकाल कर यजमान के बरतन में डालते. इस के बाद पहलवान चेला शुरू हो जाता, ‘‘यह प्रयाग का गंगाजल है. पंडाजी ने नवरात्र के समय मंदिर में इसे कठिन साधना के साथ मंत्रों से पढ़ा है. ‘‘इस गंगाजल में शुद्ध जल मिला कर घर के चारों तरफ छिड़क दें. इस के बाद सारा उपद्रव शांत हो जाएगा. बालबच्चे खुश रहेंगे और यजमान का कल्याण होगा.’’

उस पहलवान चेले की बात खत्म होते ही लाल और पीले धागे वाले 2 तावीज वह पंडाजी की ओर बढ़ा देता और कुछ क्षण बाद तावीजों को ले कर यजमान के हाथों में रखते हुए कहता, ‘‘पंडाजी बता रहे हैं कि लाल धागे वाला तावीज यजमान बाएं हाथ में मंगलवार को पहनें और पीले धागे वाला तावीज बुधवार को यजमान दाहिने हाथ में पहनें. इस के बाद सब तरह की बाधा दूर हो जाएगी और हर काम में तरक्की होगी.’’

यजमान दोनों हथेलियों पर 2 रंगों वाले तावीजों को इस तरह देखने लगता, मानो वह तावीज नहीं, कुबेर के खजाने की कुंजी और दवा हो. चेला दक्षिणा उठा कर गिनता. अगर वह 51 रुपए होती, तो चुपचाप पंडाजी की दाहिनी जेब से पर्स निकाल कर उस में रख देता और अगर पैसा इस से कम होता, तो कहता, ‘‘यह तो नवरात्र का खर्च भी नहीं है. लौट कर भी तो अनुष्ठान करना होगा.’’

तब यजमान कुछ रुपए निकाल कर चेले को बढ़ा देता. चेला नोटों की गिनती किए बिना पर्स के हवाले कर देता. पंडाजी यजमानों द्वारा दी गई दक्षिणा के हिसाब से ही अपना कीमती समय देते थे. पर वे माई के घर पर घंटों आसन जमाते. माई बहुत दिनों तक परदेश में रही थीं और उन की तीनों कुंआरी बेटियां भी देखने में खूबसूरत थीं.

पंडाजी के गांव में पधारते ही माई के दरवाजे पर उन के आसन का इंतजाम हो गया था. तीनों बेटियां भी अच्छी तरह सजसंवर कर तैयार हो चुकी थीं. पंडाजी के पहुंचते ही माई ने उन की आवभगत की. पंडाजी आसन पर बैठने ही वाले थे कि एक लड़की ने आ कर उन के पैर छुए. उन्होंने पूछा, ‘‘हां, क्या नाम है?’’

‘‘जी… संजू.’’ ‘‘कुंभ राशि. कन्या के लक्षण तो अति विलक्षण हैं. यह तो पिछले जन्म में राजकन्या थी. कुछ चूक हो जाने के चलते इसे इस कुल में आना पड़ा, तभी तो यह इतनी सुंदर और चंचला है.’’

सुंदर और चंचला शब्द सुनते ही संजू के गाल और भी लाल हो उठे और वह रोमांचित हो कर पंडाजी के और करीब होने लगी. तभी दूसरी लड़की रंजू ने कहा, ‘‘पंडाजी, इस को घरवर कैसा मिलेगा? इस की शादी कब तक होगी? हम तो इसी चिंता में परेशान रहते हैं. इस साल ही इस के हाथ पीले होने का कोई जतन बताइए न.’’

रंजू की बातें सुन कर पंडाजी चेले की ओर देखने लगे. संजू के यौवन में भटकता चेला अचकचा कर पंडाजी की ओर देखता हुआ कुछ पल चुप रहने के बाद बोला, ‘‘बीते सावन में इस के हाथ से जो सांप मर गया, वह कुलदेवता था. कुलदेवता इस पर बहुत गुस्सा हैं. इस के लिए मंत्र और तंत्र दोनों की साधनाएं करनी होंगी. ‘‘अच्छा है कि आज मंगलवार है. आज रात यह अनुष्ठान हो जाए, तो सब बिगड़ा काम बन सकता है.’’

चेले का यह सुझाव माई को डूबते को तिनके का सहारा जैसा लगा. सभी समस्याओं का समाधान निकल आने से माई की जान में जान आई. ठीक 5 बजे अनुष्ठान शुरू करने की बात कह कर पंडाजी चेले के साथ कैथीटोला गांव की ओर चल पड़े.

रात 9 बजे से माई के आंगन में अनुष्ठान का काम पंडाजी और चेले ने शुरू किया. हर तरह से सजीसंवरी तीनों बहनें भी आ कर लाइन से बैठ गईं. कुछ देर तक मंत्र पढ़ने के बाद आग जला कर उन्होंने माई के साथसाथ संजू, रंजू और मंजू को भभूत मिला प्रसाद खाने को दिया. इस के बाद चेले ने वहां मौजूद पासपड़ोस के लोगों को बाहर जाने का इशारा किया.

इशारा पाते ही सभी वहां से चले गए. फिर उस के बाद रात में क्या हुआ, गांव वालों को इस का क्या पता… अगली सुबह माई के घर में हाहाकार मचा हुआ था. माई और उस की छोटी बेटी मंजू छाती पीटपीट कर चिल्ला रही थीं, ‘‘कोई हमारी संजू… रंजू को वापस ला दो. वह पंडा पुरोहित नहीं, ठग था.

‘‘हम दोनों को बेहोश कर के पंडा और चेला मेरी दोनों बेटियों को उठा कर कहां ले गए… कुछ मालूम नहीं. हमारी बेटियों को वापस ला दो. उन्हें बचा लो.’’

गांव वालों को माजरा समझते देर नहीं लगी. राजमणि काका ने तुरंत रेलवे स्टेशन और बसस्टैंड के लिए कुछ लोगों को भेजा, लेकिन वे सभी खाली हाथ निराश लौट आए. तब पुलिस में मामले को ले जाया गया. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

माई के पास कलेजे पर पत्थर रख कर संजू और रंजू को भूलने के अलावा कोई चारा नहीं था. इधर उन दोनों बहनों ने समझदारी से काम लिया. पंडा और चेले की गलत मंसा भांपते हुए चालाकी से संजू ने पंडाजी से और रंजू ने चेले से ब्याह कर मौजमस्ती से जिंदगी बिताने का प्रस्ताव रखा.

पंडा और चेला इस प्रस्ताव को सुन कर बहुत खुश हुए. रंजू ने कहा, ‘‘लेकिन, इस के लिए जरूरी है कि हमारे घरपरिवार, गांव के लोग आगे आएं. कोई कानूनी दांवपेंच नहीं लगाएं और हमें पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना पड़े, सो हम लोग बिना समय गंवाए कोर्ट मैरिज कर लें.’’ संजू और रंजू के रूपजाल में फंसे पंडा और चेला कोर्ट मैरिज के कागजात के साथ अदालत में जज के सामने हाजिर हुए.

जब जज ने संजू और रंजू से उन की रजामंदी के बारे में पूछा, तो संजू कहने लगी, ‘‘जज साहब, ये दोनों हमारे गांव में पंडापुजारी बन कर आए थे. भोलेभाले गांव वालों के सामने तंत्रमंत्र का मायाजाल फैला कर इन ढोंगियों ने उन्हें खूब लूटा. ‘‘हम तीनों बहनों पर तो ये लट्टू बने थे. माई को घरपरिवार पर देवी का प्रकोप बता कर तांत्रिक अनुष्ठान कराने के लिए इन दोनों ने इसलिए मजबूर किया, ताकि उस की आड़ में हमें भोग सकें.

‘‘इन की खराब नीयत को भांप कर हम दोनों बहनों ने आपस में विचार किया और इन दोनों को कानून के हवाले करने के लिए यह नाटक खेला है, ताकि कानून इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे, ताकि फिर कभी इस तरह की घटना न होने पाए.’’ संजू और रंजू के बयान को दर्ज करते हुए अदालत ने पंडा और चेले को जेल भेजने का आदेश दिया.

संजू और रंजू ने जब गांव वालों को यह दास्तान सुनाई, तो सभी कहने लगे, ‘सचमुच, तुम्हारी दोनों बेटियां बड़ी बहादुर हैं माई. इन दोनों ने वह कर दिखाया है, जो बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. पूरे गांव को इन पर नाज है.’ माई की आंखों में भी खुशी और संतोष के आंसू छलछला रहे थे.

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