करामात : भाग 2 – आखिर सुखदेव क्या चाहता था राजेश्वरी से?

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था:

सनीचरी की तेरहवीं कराने के चक्कर में सुखदेव एक तांत्रिक बाबा के हत्थे चढ़ गया. बाबा ने उसे भूतप्रेत का डर दिखाया. सुखदेव का बेटा कार्तिक इस अंधविश्वास को नहीं मानता था. उसे पता था कि उस की मां को कैंसर है, पर सुखदेव उसे डाक्टर के बजाय तांत्रिक बाबा के पास ले गया. कार्तिक को अपने पिता को धूर्त बाबा से बचाना था. वह अपनी मौसी के गांव गया, जो एक बिंदास औरत थी.

अब पढ़िए आगे…

‘‘हां मौसी, पहले मुझे बैठ तो लेने दे, थक गया हूं,’’ कार्तिक बोला. नानी भी अब तक दालान में आ गई थीं. कार्तिक का यहां बड़ा मन लगता है. मौसी के दालान के एक किनारे मुरगियों के दड़बे और कुएं के पास बकरियों के रहने के ठिकाने हैं. कुल 7 बकरियां हैं. मौसी इन्हें बेचती भी है.

दालान से ऊपर चबूतरा और उस से लगे 2 बड़े हवादार कमरे हैं. पलंग, कुरसी, बड़ा शीशा, पंखा, टैलीविजन सबकुछ है मौसी के पास. मोपैड भी है, जो अब मौसी ही चलाती है.

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कार्तिक ने मौसी को ढोंगी बाबा और अपने बापू की सारी बातें बताईं. मौसी ने कहा, ‘‘देख बेटा, तेरा भविष्य तो जीजा के पास एकदम चौपट है. कहीं तांत्रिक तेरे बापू से तुझे ही न मांग ले.

‘‘नशा इनसान का दिमाग खराब कर देता है. वह ढोंगी गांव वालों को नशे का आदी इसलिए बनाता होगा, ताकि अपनी मनमानी करता रहे.

‘‘तू अब हमारे पास ही रुक जा. मैं तुझे कसबे के बड़े वाले स्कूल में भरती करवा दूंगी.’’

‘‘मौसी, आप ने मेरे लिए जो सोचा है, वह तो अच्छी बात है, मगर गुनेसर बाबा को हमारे गांव से भगाओ न आप. किसी की भी हिम्मत नहीं कि उस से लड़े. वह मेरे बापू को नशे के चक्कर में एक दिन खत्म ही न कर दे.’’

कार्तिक की बात सुन कर राजेश्वरी पसीज गई थी. सुबह होते ही वह अकेले ही उमाशंकर पहलवान से मिलने जा पहुंची. उन से सारी बातें तय कर के राजेश्वरी पहले खेत और फिर घर पहुंची.

वहां जीजा को दालान में बैठा देख राजेश्वरी चौंक गई. वह कार्तिक को डांटफटकार रहा था.

राजेश्वरी खीझ गई और पूछा, ‘‘ऐसे कैसे चले आए जीजा? कार्तिक की फिक्र में…’’

‘‘कुछ होश भी है तुम को? लड़का चुपचाप बैठा लिया, कोई खोजखबर नहीं दी,’’ सुखदेव बोला.

‘‘जीजा, तुम ने बेटे को ऐसा लाचार कर दिया कि भागा आया इधर. जिस बाप का खुद का ठिकाना नहीं, उसे खबर कैसे दूं? बाप हो तो सलीके से क्यों न रहते बेटे के साथ?’’

सुखदेव उस बाबा के डर के साए में रह कर नशेड़ी हो कर अपनी सोचने की ताकत खो बैठा था. वह थोड़ी सी धमक पर ही डर कर बैठ गया और अपना सिर खुजाने लगा. नानी ने कार्तिक को दोपहर का खाना खिलाया और वापस जाने को कहा.

लेकिन राजेश्वरी ने दोटूक कहा, ‘‘कार्तिक को कब भेजना है, मैं सोचूंगी. बेचारा खानेपीने को तरस गया है. यह जीजा के साथ नहीं जाएगा.’’ नानी चुप हो गईं. कार्तिक हफ्ताभर और वहां रहा, फिर अपने घर लौट गया.

उधर उमाशंकर ने पहलवान छात्रों को कुछ निर्देश दिए और अपने भतीजे रंजन के घर नारायणपुरा में ही आ गए.

इधर कार्तिक के गांव वालों के रंगढंग देख कर राजेश्वरी दंग रह गई. सभी गांव वाले बिना कोई पूछताछ किए बाबा के कदमों में लोटे रहते थे.

आज की रात दिल की धड़कन बढ़ाने वाली थी. राजेश्वरी मंदिर के पीछे बने मकान के कमरे तक पहुंच चुकी थी. खिड़की खुली थी. उस ने भीतर झांका. गुनेसर भूरे, सफेद पाउडर के पैकेट के बदले 3 लोगों से रुपयों की गड्डी ले रहा था. उस का चेहरा ठीक सामने था. राजेश्वरी हटने को हुई, तो बाबा की नजर उस पर पड़ी. बाबा चिल्लाया, ‘‘पकड़ो इसे.’’

उन में से एक दौड़ कर जैसे ही उसे पकड़ने को हुआ, राजेश्वरी उसे धक्का दे कर भाग खड़ी हुई.

बाबा ने कहा, ‘‘यह तो सुखदेव की साली है. मंदिर के आसपास 2 दिन से घूम रही थी. गांव वालों से पता किया है. पहलवानी करती है. औरत जात पर कलंक है. यहां जासूसी करने आई थी.

‘‘यह कुछ खुराफात करे, इस से पहले अभी अपने आदमियों से कह दो कि रातोंरात इस की चिता सजा दें.

‘‘लोगों की फसल में जगहजगह आग लगा दो, लोगों के मवेशी चुरा लो, कई घरों में सेंधमारी करो और फिर सुबह से ही बात फैलाओ कि यह पहलवान टोनही है, जो जादूटोना कर के सब का नाश कर रही है. देखो, कैसे मेरी बात मान कर सब गांव वाले इस का क्रियाकर्म करते हैं.’’

तीनों हुक्म के गुलाम चल दिए. इधर भोर होने तक राजेश्वरी अपनी मोपैड से उमाशंकर के भतीजे रंजन के घर पहुंची. उमाशंकर सुबह की कसरत कर रहे थे. उन का 30 साला भतीजा रंजन अपनी चाय की दुकान खोलने की तैयारी में था.

राजेश्वरी ने बताया, ‘‘मैं ने आते वक्त खेतों को जलते देखा है. यह निश्चित ही उस गुनेसर का काम है, जो अब यह इलजाम मुझ पर लगाने वाला है.’’

उमाशंकर बोले, ‘‘राजेश्वरी, अब वह वक्त आ चुका है, जिस का हम इंतजार कर रहे थे. कार्तिक पर भी हमला हो सकता है, इसलिए अभी सीधे तुम उस के पास जाओ. मैं सगुणा को अपने गांव फोन कर देता हूं, वह तैयार हो जाएगा. दूसरे छात्रों को भी अब बुलवा लेता हूं.

‘‘मैं बस पकड़ कर सीधे शहर पहुंच रहा हूं. वहां से मैं अपने एक पत्रकार दोस्त को ले कर जल्दी लौटूंगा. फोन पर उस को इत्तिला कर देता हूं कि वह मेरे साथ चलने को तैयार रहे.’’

इधर तांत्रिक गांव वालों को इकट्ठा कर चुका था और मंदिर के सामने पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर खड़ा हो कर भाषण झाड़ रहा था, ‘‘हमारे गांव में टोनही घुस आई है. सुखदेव की साली. कब से जानता हूं मैं इसे. उस ने तुम लोगों के खेत जला डाले, बकरियां गायब कर दीं…’’

‘‘मेरी मुरगियां भी बाबा,’’ एक गांव वाले ने कहा.

‘‘खाती है सब. जादूटोना करने वाले उन्हें कच्चा खा जाते हैं…’’ बाबा ने बताया, ‘‘वह तुम लोगों के पास आ कर यह कहे कि बाबा चोर है, तुम लोगों को ठग रहा है, उस से पहले तुम सब उसे यहां पकड़ लाओ.’’

‘हां बाबा, अभी लाते हैं,’ कई गांव वाले एकसाथ बोले.

‘‘सुखदेव मिले तो उसे भी ले आओ,’’ बाबा ने कहा.

सुखदेव के घर में राजेश्वरी तो नहीं मिली, अलबत्ता सुखदेव को ही लोग घसीटते हुए ले गए.

सुखदेव को देखते ही बाबा ने हुंकार भरी, ‘‘क्यों रे सुखदेव, बहुत मचल रहा था. जो पहलवान साली घर में बिठा ली? और कोई औरत नहीं मिली तुझे?’’

एक औरत ने तांत्रिक को खुली चुनौती दी थी. उस की चोरी पकड़ी गई थी. वह तिलमिला उठा था. चरसगांजे की मारी जनता ‘हेहे’ कर के हंस पड़ी.

सुखदेव डर के मारे बाबा के पैरों में लोट गया और कहा, ‘‘उस औरत से मेरा कोई नाता नहीं है. बेटे को खिलानेपिलाने की खातिर जबरदस्ती इधर पहुंच गई. हमें क्या पता, वह गांव में क्या कर रही है.’’

‘‘टोनही है वह. टोनाटोटका कर के मेरे रहते गांव वालों का इतना नुकसान कर दिया. गांव वालों की ओर जो आंख उठा कर देखेगा, मैं उस की बलि कालभैरव के सामने चढ़ा दूंगा.’’

‘‘आप राजेश्वरी को ला कर जो करना है करो, मुझे कोई मतलब नहीं. मेरे बेटे और मुझे छोड़ दो बाबा,’’ सुखदेव ने कहा.

‘‘जा, फिर ढूंढ़ कर ला उसे गांव वालों के साथ जा कर.’’

इधर गांव वाले गांव छानते रहे, उधर कार्तिक को ले कर राजेश्वरी गांव के बाहर अपने पहलवान गुरुभाई के घर छिप कर बैठी रही. जब तक तांत्रिक का इलाज नहीं हो जाता, उस के हिलनेडुलने से बात बिगड़ सकती थी.

रात के वक्त मंदिर के पास पत्रकार और उमाशंकर छिप गए. अंदर गुनेसर के कमरे में कुछ बातचीत चल रही थी. ‘‘बाबा, मैं आप के पैर पड़ता हूं. सामान है मेरे पास… आप दे दो.’’ ‘‘चलचल, यह सब यहां नहीं है. तुझे गलत बात पता चली है.’’

सगुना उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘बाबा, बड़ी मुश्किल से मां की 2 पायल उठा कर लाया हूं.’’

‘‘ठीक है, देखता हूं,’’ बाबा ने अपने मन की कूदफांद को काबू में रखते हुए कहा.

लेकिन अचानक बाबा सतर्क हो गया और पूछा, ‘‘तू कहीं जासूस तो नहीं है? क्या नाम है तेरा?’’

‘‘नहीं बाबा, आप तो अंतर्यामी हैं. सब समझ सकते हैं. ये पायल मां की ही हैं. मैं उन्हें चुरा कर लाया था कि पुडि़या मिल जाए. कहीं पकड़ा गया तो पुलिस जो न करेगी, उस से ज्यादा घर वाले मेरा कर देंगे. आप दे दो बाबा, तो मैं निकल जाऊं जल्दी.’’

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बाबा को विश्वास हो चला था. उन्होंने ड्रग का एक पैकेट निकाला. उस में चरस थी.

‘‘बाबा, हेरोइन की भी एक छोटी पुडि़या दे दो न.’’

‘‘पाकिस्तान बौर्डर पर लड़ाई चल रही है. अफगानिस्तान का सारा माल रुका हुआ है. इसी पर संतोष कर और चल भाग यहां से. फिर कभी दोबारा इधर दिखना मत, वरना जिंदा जमीन में गड़वा दूंगा.’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, मगर एक बात रह गई.’’

‘‘क्या…? जल्दी बोल?’’

‘‘बाबा, हमारे गांव की एक लड़की थी. मैं उस से शादी करना चाहता था, मगर उस के बाप ने मुझे निकम्मा और चरसखोर कह कर बहुत पिटवाया. अब लड़की को बहला कर मैं आप के पास छोड़ देना चाहता हूं. आप उस का पूजन करते रहना.’’

‘‘बहुत होशियार है रे तू चल, ले आना. कितनी उम्र है उस की?’’ उस हवस के भूखे भेडि़ए ने कुटिल मुसकान के साथ पूछा.

‘‘24 साल की होगी. बहुत खूबसूरत है वह.’’

‘‘कब लाएगा?’’

‘‘हफ्तेभर बाद.’’

‘‘भूलना मत.’’

सगुना ने बहुत बड़ा खतरा मोल लिया था. छिपतेछिपते उस ने उमाशंकर और पत्रकार को इशारा कर दिया. वे तीनों वहां से निकल लिए.

सगुना अपने गांव चला गया. उमाशंकर और पत्रकार शहर पुलिस को यह स्टिंग वीडियो दिखाने चले गए, जो सगुना की कमीज के बटन में लगालगा सबकुछ कैद कर रहा था.

उमाशंकर ने फोन पर राजेश्वरी को अब सब के सामने आने को कह दिया था, क्योंकि उन के हिसाब से तांत्रिक के पापों का आज आखिरी दिन था.

पुलिस सादा लिबास में उमाशंकर और पत्रकार के साथ नारायणपुरा गांव पहुंची. राजेश्वरी गांव वालों की पकड़ में आ चुकी थी. उसे ‘टोनही’ पुकारते हुए लोग उस पर कीचड़ मल रहे थे.

राजेश्वरी चाहती, तो उन्हें अपने ‘धोबी पछाड़’ से पटकनी दे देती, लेकिन वह चाहती थी कि तांत्रिक का कियाधरा पुलिस की नजर में आ जाए.

इधर राजेश्वरी के साथ भीड़ मंदिर के सामने पीपल के पेड़ तक चली आ रही थी, उधर बाबा की धरपकड़ के बाद उस के कमरे की तलाशी में सैकड़ों की तादाद में गंदी फिल्मों के वीडियो, लड़कियों के फोटो, चरसगांजा और रुपयों की अनगिनत गड्डियां पुलिस को मिल चुकी थीं.

‘‘सब पीपल पेड़ के पास इकट्ठा हो चुके थे. इतने में उमाशंकर तलाशी लेने वाले अफसर के सामने आए और कहा, ‘‘सर, राजेश्वरी राज्यस्तरीय कुश्ती चैंपियन है. हमारे कुछ छात्र भी यहां मौजूद हैं, जो पहलवानी करते हैं. राजेश्वरी भी हम से कुश्ती सीखती है. इसे टोनही कह कर बदनाम करने वाले ठग बाबा का भंडाफोड़ कराने में राजेश्वरी और उस के भांजे कार्तिक का बड़ा हाथ है. सर, आप इजाजत दें, तो इस का स्टिंग वीडियो चलाया जाए.’’

बाबा वहां मुंह लटकाए खड़ा था. लोगों में कानाफूसी चल रही थी. अफसर ने कहा, ‘‘पुलिस को इस गुनेसर के घर से काफी सुबूत मिले हैं, जिन से साफ जाहिर है कि वह गलत धंधा कर के पैसे कमा रहा था और आप सब को ठग रहा था. हमारे पास छिप कर बनाया गया वीडियो है, जिस से सच का पता लगा है. ये महाशय जेल जाने वाले हैं. आगे से आप लोग ऐसे किसी करामाती बाबा के चंगुल में मत फंसिएगा.’’

कार्तिक, राजेश्वरी और उमाशंकर सुखदेव के घर पहुंचे. राजेश्वरी अपना सामान बांध रही थी. उमाशंकर के साथ वह सुबह ही निकल जाने वाली थी. कार्तिक सुखदेव से नजरें चुरा रहा था.

उमाशंकर ने कहा, ‘‘सुखदेव, अब तो सारा सच तुम्हारे सामने है. बाबा की पोलपट्टी खुल चुकी है. तुम्हारे गहने, रुपए मवेशी सब गए. बीवी भी गई. अब बेटे को कैसे पालोगे?’’

सुखदेव सिर खुजाते हुए बोला, ‘‘क्या करूंगा? जैसे पहले जाता था स्कूल, जाएगा.’’ कार्तिक के मन को पढ़ते हुए राजेश्वरी ने कहा, ‘‘जीजा, मैं तुम्हें जितना समझती हूं, लगता नहीं कि इसे पाल पाओगे. जी लेना और जिंदगी बनाने में बड़ा फर्क है. होनहार बच्चा है. मैं इसे पालूंगी. ले जाती हूं अपने साथ.’’

सुखदेव कसमसाता सा बोला, ‘‘तू इधर ही रह जा.’’ राजेश्वरी को तरस भी आया और गुस्सा भी. फिर भी वह संभल कर बोली, ‘‘देखो जीजा, मैं तुम्हारी घरवाली बन कर तो रह नहीं सकती… तेरी अक्ल क्या चरस और भांग चरने गई है?’’

कार्तिक हंस पड़ा.

‘‘अपने जीजा की देखभाल की नहीं सोच रही है,’’ कुढ़ता हुआ सुखदेव फिर भी बोल पड़ा.

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‘‘अरे जीजा, ज्यादा बोला तो दूंगी पटक के… तू कर ले न दूसरी औरत. मेरे पीछे क्यों पड़ गया?

‘‘मेरे लिए बहुत काम पड़े हैं. तू अपना रास्ता देख और कभी बेटे से लाड़ करने का मन करे, तो हमारे घर का दरवाजा खुला है, आ जाना,’’ राजेश्वरी बोली. उमाशंकर अपनी साइकिल पर, कार्तिक अपनी छोटी सी पोटली के साथ राजेश्वरी की मोपैड पर अपनी मौसी के गांव की ओर चल दिया.

हल: आखिर क्यों पति से अलग होना चाहती थी इरा?

हल : भाग 2

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लेखक- विजया वासुदेवा

भाग-2

इरा हैरत से अपूर्व को देखने लगी. फिर पूछा, ‘‘अरे, ऐसा क्यों?’’

‘‘जब आप और पापा 15 साल एकदूसरे के साथ रह कर भी एकदूसरे के साथ नहीं रह सकते, अलग होना चाहते हैं तब हम तो आप के साथ 12 साल से रह रहे हैं. हमें आप कैसे जानेंगे? आप और पापा अगर अलग हो रहे हैं तो हमें होस्टल भेज देना, हम आप दोनों से ही नहीं मिलेंगे,’’ अपूर्व तिलमिला उठा था.

‘‘पागल है क्या तू?’’ इरा हैरान थी, ‘‘नहीं बिलकुल नहीं. इतने वर्षों साथ रह कर भी आप को एकदूसरे का आदर करना, एकदूसरे को अपनाना नहीं आया, तो आप हमें कैसे अपनाएंगे.

‘‘पापा आप का सम्मान नहीं करते तभी आप को घर छोड़ कर जाने देंगे. आप पापा को और घर को इतने सालों में भी समझा नहीं पाईं तभी घर छोड़ कर जाने की बात कर सकती हैं. इसलिए हम आप दोनों का ही आदर नहीं कर सकेंगे और हम मिलना भी नहीं चाहेंगे आप दोनों से,’’ अपूर्व के चेहरे पर उत्तेजना और आक्रोश झलक रहा था.

इरा ने अपूर्व के कंधे को कस कर पकड़ लिया. उस का बेटा इतना समझदार होगा उस ने सोचा भी नहीं था. नवीन से अलग हो कर उस ने सोचा भी नहीं था कि अपने बेटे की नजरों में वह इतनी गिर जाएगी. अगर नवीन उसे सम्मान नहीं दे रहा, तो वह भी अलग हो रही है नवीन का तिरस्कार कर के. इस से वह नवीन को भी तो अपमानित कर रही है. परिवार टूट रहा है, बच्चे असंतुलित हो रहे हैं. वह विवाहविच्छेद नहीं करेगी. उस के आशियाने के तिनके उस के आत्मसम्मान की आंधी में नहीं उड़ेंगे. उसे नवीन के साथ अब किसी अलग ही धरातल पर बात करनी होगी.

अक्सर ही नवीन झगड़े के बाद 2-4 दिन देर से घर आता है. औफिस में अधिक काम का बहाना कर के देर रात तक बैठा रहता. इरा उस की इस मानसिकता को अच्छी तरह समझती है.

इरा ने औफिस से 10 दिनों का अवकाश लिया. नवीन 2-4 दिन तटस्थता से इरा का रवैया देखता रहा. फिर एक दिन बोला, ‘‘ये बेमतलब की छुट्टियां क्यों ली जा रही हैं?’’

छुट्टियां खत्म हो जाएंगी तो हाफ पे ले लूंगी, जब औफिस जाना ही

नहीं है तो पिछले काम की छुट्टियों का हिसाब पूरा कर लूं,’’ इरा ने स्थिर स्वर में कहा.

‘‘किस ने कहा तुम औफिस छोड़ रही हो?’’ नवीन ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैडम, आजकल नौकरी मिलती कहां है जो तुम यों आराम से लगीलगाई नौकरी को लात मार रही हो?’’

‘‘और क्या करूं?’’ इरा ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘जिन शर्तों पर नौकरी करनी है वह मेरे बस के बाहर की बात है.’’

‘‘कौन सी शर्तें?’’ ‘‘नवीन ने अनजान बनते हुए पूछा.’’

‘‘देरसबेर होना, जनसंपर्क के काम में सभी से मिलनाजुलना होता है, वह भी तुम्हें पसंद

नहीं. कैरियर या होम केयर में से एक का चुनाव करना था. सो मैं ने कर लिया. मैं ने नौकरी

छोड़ने का निर्णय कर लिया है,’’ इरा ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘क्या बच्चों जैसी जिद करती हो,’’ नवीन झल्लाई आवाज में बोला, ‘‘एक जने की सैलरी में घरखर्च और बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी?’’

‘‘पर नौकरी छोड़ कर तुम सारा दिन करोगी क्या?’’ नवीन को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह इरा का निर्णय बदले.

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‘‘जैसे घर पर रहने वाली औरतें खुशी से दिन बिताती हैं. टीवी, वीडियो, ताश, बागबानी, कुकिंग, किटी पार्टी हजार तरह के शौक हैं. मेरा भी टाइम बीत जाएगा. टाइम काटना कोई समस्या नहीं है,’’ इरा आराम से दलीलें दे रही थी.

‘‘तुम्हारा कितना सम्मान है, तुम्हारे और मेरे सर्किल में लोग तुम्हें कितना मानते हैं. कितने लोगों के लिए तुम प्रेरणा हो, सार्थक काम कर रही हो,’’ नवीन ने इरा को बहलाना चाहा.

‘‘तो क्या इस के लिए मैं घर में रोजरोज कलहकलेश सहूं, नीचा देखूं, हर बात पर मुजरिम की तरह कठघरे में खड़ी कर दी जाऊं बिना किसी गुनाह के?

‘‘क्यों सहूं मैं इतना अपमान इस नौकरी के लिए? इस के बिना भी मैं खुश रह सकती हूं. आराम से जी सकती हूं,’’ इरा ने बिना किसी तनाव के अपना निर्णय सुनाया.

‘‘इरा आई एम वैरी सौरी, मेरा मतलब तुम्हें अपमानित करने का नहीं था. जब भी तुम्हें आने में देर होती है मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिर जाता है. उसी तनाव में तुम्हें बहुत कुछ उलटासीधा बोल दिया होगा. मुझे माफ कर दो. मेरा इरादा तुम्हें पीड़ा पहुंचाने या अपमानित करने का नहीं था,’’ नवीन के चेहरे पर पीड़ा और विवशता दोनों झलक रही थीं.

‘‘ठीक है कल से काम पर चली जाऊंगी. पर उस के लिए आप को भी वचन देना होगा कि इस स्थिति को तूल नहीं देंगे. मैं नौकरी करती हूं. मेरे लिए भी समय के बंधन होते हैं. मुझे भी आप की तरह समय और शक्ति काम के प्रति लगानी पड़ती है. आप के काम में भी देरसबेर होती ही है पर मैं यों शक कर के क्लेश नहीं करती,’’ कहतेकहते इरा रोआंसी हो उठी.

‘‘यार कह दिया न आगे से ऐसा नहीं करूंगा. अब बारबार बोल कर क्यों नीचा दिखाती हो,’’ इरा का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम कर नवीन ने कहा.

इरा सोच रही थी कि रिश्ता तोड़ कर अलग हो जाना कितना सरल हल लग रहा था. लेकिन कितना पीड़ा दायक. परिवार के टूटने का त्रास सहन करना क्या आसान बात थी. मन ही मन वह अपने बेटे की ऋणी थी, जिस की जरा सी परिपक्वता ने यह हल निकाल दिया था, उस की समस्या का.

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हल : भाग 1

लेखक- विजया वासुदेवा

इरा कल रात के नवीन के व्यवहार से बेहद गुस्से में थी. अब मुख्यमंत्री की प्रैस कौन्फ्रैंस हो और वह मुख्य जनसंपर्क अधिकारी हो कर जल्दी कैसे घर आ सकती थी. पर नहीं. नवीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. माना लौटने में रात के 11 बज गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री को बिदा करते ही वह घर आ गई थी. नवीन के मूड ने उसे वहां एक

भी निवाला गले से नीचे नहीं उतारने दिया. दिनभर की भागदौड़ से थकी जब वह रात को भूखी घर आई, तो मन में कहीं हुमक उठी कि अम्मां की तरह कोई उसे दुलारे कि नन्ही कैसे मुंह सूख रहा है तुम्हारा. चलो हम खाना परोस

दें. लेकिन कहां वह कोमलता और ममत्व की कामना और कहां वास्तविकता में क्रोध से उबलता चहलकदमी करता नवीन. उसे देखते ही उबल पड़ा, ‘‘यह वक्त है घर आने का? 12 बज रहे हैं?’’

‘‘आप को पता तो था आज सीएम की प्रैस कौन्फ्रैंस थी. आप की नाराजगी के डर से मैं ने वहां खाना भी नहीं खाया और आप हैं कि…’’ इरा रोआंसी हो आई थी.

‘‘छोड़ो, आप का पेट तो लोगों की सराहना से ही भर गया होगा. खाने के लिए जगह ही कहां थी? हम ने भी बहुत सी प्रैस कौन्फ्रैंस अटैंड की हैं. सब जानते हैं महिलाओं की उपस्थिति वहां सिर्फ वातावरण को कुछ सजाए रखने से अधिक कुछ नहीं?’’

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‘‘शर्म करो… जो कुछ भी मुंह में आ रहा है बोले चले जा रहे हो,’’ इरा साड़ी हैंगर में लगाते हुए बोली.’’

‘‘इस घर में रहना है, तो समय पर आनाजाना होगा… यह नहीं कि जब जी चाहा घर से चली गई जब भी चाहा चली आई. यह घर है कोई सराय नहीं.’’

‘‘क्या मैं तफरीह कर के आ रही हूं? तुम इतने बड़े व्यापारिक संस्थान में काम करते हो, तुम्हें नहीं पता, देरसबेर होना अपने हाथ की बात नहीं होती?’’ इरा को इस बेमतलब की बहस पर गुस्सा आ रहा था.

गुस्से से उस की भूख और थकान दोनों ही गायब हो गई. फिर कौफी बना कप में डाल कर बच्चों के कमरे में चली गई. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे.

इरा ने शांति की सांस ली. नवीन की टोकाटाकी उस के लिए असहनीय हो गई थी.

फोन किसी का भी हो, नवीन के रहते आएगा तो वही उठाएगा. फोन पर पूरी जिरह करेगा क्या काम है? क्या बात करनी है? कहां से बोल रहे हो?

लोग इरा का कितना मजाक उड़ाते हैं. नवीन को उस का जेलर कहते हैं. कुछ लोगों की नजरों में तो वह दया की पात्र बन गई है.

इरा सोच कर सिहर उठी कि अगर ये बातें बच्चे सुनते तो? तो क्या होती उस की छवि बच्चों की नजरों में. वैसे जिस तरह के आसार हो रहे हैं जल्द ही बच्चे भी साक्षी हो जाएंगे ऐसे अवसरों के. इरा ने कौफी का घूंट पीते हुए निर्णय लिया, बस और नहीं. उसे अब नवीन के साथ रह कर और अपमान नहीं करवाना है. पुरुष है तो क्या हुआ? उसे हक मिल गया है उस के सही और ईमानदार व्यवहार पर भी आएदिन प्रश्नचिन्ह लगाने का और नीचा दिखाने का…अब वह और देर नहीं करेगी. उसे जल्द से जल्द निर्णय लेना होगा वरना उस की छवि बच्चों की नजरों में मलीन हो जाएगी. इसी ऊहापोह में कब वह वहीं सोफे पर सो गई पता ही नहीं चला.

अगले दिन बच्चों को स्कूल भेजा. नवीन ऐसा दिखा रहा था मानो कल की रात रोज गुजर जाने वाली सामान्य सी रात थी. लेकिन इरा का व्यवहार बहुत सीमित रहा.

इरा को 9 बजे तक घर में घूमते देख, नवीन बोला, ‘‘क्या आज औफिस नहीं जाना है? आज छुट्टी है? अभी तक तैयार नहीं हुई.’’

‘‘मैं ने छुट्टी ली है,’’ इरा ने कहा.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक लग रही है, फिर छुट्टी क्यों?’’ नवीन ने पूछा.

‘‘कभीकभी मन भी बीमार हो जाता है इसीलिए,’’ इरा ने कसैले स्वर में कहा.

‘‘समझ गया,’’ नवीन बोला, ‘‘आज तुम्हारा मन क्या चाह रहा है. क्यों बेकार में अपनी छुट्टी खराब कर रही हो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं,’’ इरा बोली, ‘‘आज मैं किसी हाल में भी जाने वाली नहीं हूं,’’ इरा की आवाज में जिद थी. नवीन कार की चाबी उठाते हुए बोला, ‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

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बच्चों और पति को भेजने के बाद वह देर तक घर में इधरउधर चहलकदमी करती रही. उस का मन स्थिर नहीं था. अगर नवीन की नोकझोंक से तंग आ कर नौकरी छोड़ भी दूं तो क्या भरोसा कि नवीन के व्यवहार में अंतर आएगा या फिर बात का बतंगड़ नहीं बनाएगा… लड़ने वाले को तो बहाने की भी जरूरत नहीं होती. नवीन के पिता के इसी कड़वे स्वभाव के कारण ही उस की मां हमेशा घुटघुट कर जी रही थीं. पैसेपैसे के लिए उन्हें तरसा कर रखा था नवीन के पिता ने.

अपनी मरजी से हजारों उड़ा देंगे. नवीन की नजरों में उस के पिता ही उस के आदर्श पुरुष थे और मां का पिता से दब कर रहना ही नवीन के लिए मां की सेवा और बलिदान था.

इरा जितना सोचती उतना ही उलझती जाती, उसे लग रहा था अगर वह इसी तरह मानसिक तनाव और उलझन में रही तो पागल हो जाएगी. हर जगह सम्मानित होने वाली इरा अपने ही घर में यों प्रताडि़त होगी उस ने सोचा भी न था. असहाय से आंसू उस की आंखों में उतर आए. अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. अरे, डेढ़ बज गया… फटाफट उठ कर नहाने के लिए गई. वह बच्चों को अपनी पीड़ा और अपमान का आभास नहीं होने देना चाहती थी. नहा कर सूती साड़ी पहन हलका सा मेकअप किया. फिर बच्चों के लिए सलाद काटा, जलजीरा बनाया, खाने की मेज लगाई.

दोनों बेटे मां को देख कर खिल उठे. बिना छुट्टी के मां का घर होना उन के लिए कोई पर्व सा बन जाता है. तीनों ने मिल कर खाना खाया. फिर बच्चे होमवर्क करने लग गए.

5 बजे के लगभग इरा को याद आया कि उस की सहेली मानसी पाकिस्तानी नाटक का वीडियो दे कर गई थी. बच्चे होमवर्क कर चुके थे. इरा ने उन्हें नाटक देखने के लिए आवाज लगाई. दोनों बेटे उस की गोदी में सिर रख कर नाटक देख रहे थे. अजीब इत्तफाक था. नाटक में भी नायिका अपने पति की ज्यादतियों से तंग आ कर अपने अजन्मे बच्चे के संग घर छोड़ कर चली जाती है हमेशा के लिए.

इरा की तरफ देख कर अपूर्व बोला, ‘‘मां, आप ये रोनेधोने वाली फिल्में मत देखा करो. मन उदास हो जाता है.’’

‘‘मन उदास हो जाता है इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’ इरा ने सवाल किया.

‘‘बेकार का आईडिया है एकदम,’’ अपूर्व खीज कर बोला, ‘‘इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’

‘‘अपूर्व,’’ इरा ने कहा, ‘‘समझो इसी औरत की तरह अगर हम भी घर छोड़ना चाहें तो तुम किस के साथ रहोगे?’’

‘‘कैसी बेकार की बातें करती हैं आप भी मां,’’ अपूर्व नाराजगी के साथ बोला, ‘‘आप ऐसा क्यों करेंगी?’’

‘‘यों समझो कि हम भी तुम्हारे पापा के साथ इस घर में नहीं रह सकते तो तुम किस के साथ रहोगे?’’ इरा ने पूछा.

‘‘जरूरी नहीं है कि आप के हर सवाल का जवाब दिया जाए,’’ 13 वर्ष का अपूर्व अपनी आयु से अधिक समझदार था.

‘‘अच्छा अनूप तुम बताओ कि तुम क्या करोगे?’’ इरा ने छोटे बेटे का मन टटोला.

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अनूप को बड़े भाई पर बड़प्पन दिखाने का अवसर मिल गया. बोला, ‘‘वैसे तो हम चाहते हैं कि आप दोनों साथ रहें? लेकिन अगर आप जा रही हैं तो हम आप के साथ चलेंगे. हम आप को बहुत प्यार करते हैं,’’ अनूप बोला, ‘‘चल झूठे…’’ अर्पूव बोला, ‘‘मां, अगर पापा आप की जगह होते तो यह उन्हीं को भी यही जवाब देता.’’

‘‘नहीं मां, भैया झूठ बोल रहा है. यही पापा के साथ जाता. पापा हमें डांटते हैं. हमें नहीं रहना उन के साथ. आप हमें प्यार करती हैं. हम आप के साथ रहेंगे,’’ अनूप प्यार से इरा के गले में बांहें डालते हुए बोला.

‘‘डांटते तो हम भी है,’’ इरा ने पूछा, ‘‘क्या तब तुम हमारे साथ नहीं रहोगे?’’

‘‘आप डांटती हैं तो क्या हुआ, प्यार भी तो करती हैं, फिर आप को खाना बनाना भी आता है. पापा क्या करेंगे?’’ अगर नौकर नहीं होगा तो? अनूप ने कहा.

‘‘अच्छा अपूर्व तुम जवाब दो,’’ इरा ने अपूर्व के सिर पर हाथ रख कर उस का मन फिर से टटोलना चाहा.

इरा का हाथ सिर से हटा कर अपूर्र्व एक ही झटके में उठ बैठा. बोला, ‘‘आप उत्तर चाहती हैं तो सुन लीजिए, हम आप दोनों के साथ ही रहेंगे.’’

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अपहरण नहीं हरण : भाग 3

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर 

अपनी सीट पर बैठ कर देवा ने पानी भरी प्लास्टिक की बोतल का ढक्कन खोल कर पानी पिया, फिर मुनिया की तरफ बोतल बढ़ा दी, ‘‘लो प्यास लग आई होगी, पानी पी लो.’’ वाकई बड़ी देर से मुनिया की इच्छा पानी पीने की हो रही थी. उस ने बोतल में मुंह लगाया और बचा हुआ सारा पानी गटक गई.

खाली बोतल को उस ने देवा की तरफ बढ़ाया, फिर बोली, ‘‘क्या तुम वाकई मेरे बारे में जानना चाहते हो?’’ जब देवा ने हां में सिर हिलाया, तो वह बोली, ‘‘मेरी पूरी दास्तां सुनने के बाद तुम्हें मेरे उद्धार का रास्ता ढूंढ़ना होगा, क्योंकि मैं कैसे भी इस हरीराम से पिंड़ छुड़ाना चाहती हूं. बोलो, कर पाओगे मेरा उद्धार?’’ देवा ने विश्वास दिलाने के लिए मुनिया का हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया. मुनिया ने अपनी आपबीती सुनानी शुरू की और जब आपबीती खत्म हुई तो रात के 11 बज चुके थे और जाने कब देवा ने मुनिया को अपनी एक बांह के घेरे में ले लिया था.

बस के अंदर की लाइटें भी बंद थीं. थकान से भरे होने के चलते ज्यादातर लोगों ने अपनीअपनी सीट पर ऊंघ कर एकएक नींद पूरी कर ली थी. देवा ने अपना हाथ मुनिया के कंधों से हटाया. उस ने महसूस किया कि अपनी आपबीती सुनाते हुए वह जितनी बार भी सुबक कर रोई है, उतनी बार उस की कमीज का सीने वाला हिस्सा गीला हुआ है और अभी भी गीला है.

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कुछ सोच कर देवा अपनी सीट से उठा और ड्राइवर और उस के पास बैठे कंडक्टर से उस ने पूछा, ‘‘कहीं गाड़ी रोकोगे भी या यों ही चलते जाओगे?’’ ‘‘हम 10 मिनट बाद चाय पीने के लिए रुकेंगे. वहीं जिसे फ्रैश होना होगा, हो लेगा, फिर आगे जब राजस्थान बौर्डर पार कर के मध्य प्रदेश की तरफ बढ़ेंगे, तब खाना खाने के लिए एक ढाबे पर रुकेंगे.

वहीं अलगअलग प्रदेश से आनेजाने वाली बसें तकरीबन एक घंटे के लिए रुकती हैं, फिर अपनेअपने रूट पर निकल जाती हैं,’’ कंडक्टर बोला. ‘‘अच्छा, यह बताओ कि कब तक भोपाल पहुंचा दोगे?’’ ‘‘कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि इस महामारी का प्रकोप हर इलाके में तेजी से फैल रहा है. सुन रहे हैं कि चीन से यह बीमारी पूरी दुनिया में फैल रही है. भारत भी इस की चपेट में आ चुका है.

बस की कहीं भी रोक कर चैकिंग की जा सकती है, इसलिए कह नहीं सकते कि हम अपनी मंजिल पर कब पहुंचेंगे.’’ देवा जानकारी ले कर वापस अपनी सीट पर लौट आया था. उस की आहट पा कर झपकी लेती मुनिया सीधी हो कर बैठ गई. लगातार देवा को चुप देख कर मुनिया थोड़ा घबराई और बोली, ‘‘क्या हमारी किसी बात से नाराज हो गए?’’ ‘‘नहीं, तुम से हम नाराज क्यों होंगे. हम तो तुम्हें चाहने लगे हैं. हमारे दिमाग में अभीअभी एक विचार आया है.

बस यही सोच रहे हैं कि तुम्हारी खुशी की खातिर उस विचार को अंजाम दें या नहीं. फिर तुम पूरी तरह साथ दोगी, तभी वह मुमकिन होगा.’’ ‘‘तुम हमारी खुशी की सोचो और हम साथ न दें, ऐसा नहीं हो सकता. तुम बताओ तो सही, क्या करना है?’’ मुनिया ने पूछा. देवा ने इस बार अपने होंठ मुनिया के कानों से लगा दिए और अपनी योजना उस के कानों में बताने लगा, फिर बात पूरी कर के उस ने अंधेरे का फायदा उठा कर मुनिया के गालों को चूम लिया.

तभी बस झटका खा कर रुक गई. चाय पीने और फ्रैश होने की जगह आ गई थी. बस के अंदर की लाइटें जगमगा उठी थीं. बस का इंजन बंद कर के ड्राइवर भी उतर गया और कंडक्टर ने गुहार लगाई ‘‘बस यहां 20 मिनट रुकेगी, चाय पी लो, फ्रैश हो लो…’’ बस के रुकते ही देवा अपनी सीट से उठ कर खड़ा हो गया. मुनिया से पूछा, ‘‘नीचे उतरने का मन है?’’ मुनिया ने इशारे से कहा, कि तुम उतरो मैं आती हूं.

इतना कह कर उस ने पलट कर हरीराम वाली सीट की तरफ देखा. हरीराम के साथ जग्गू दादा भी हड़बड़ा कर उठ खड़े हुए थे. वे दोनों जैसेतैसे खड़े हुए, फिर नीचे उतरने के लिए बस के गेट की तरफ बढ़े. उन को अपनी सीट के पास से गुजरते हुए मुनिया ने महसूस किया और कुछ इस अंदाज में अपना सिर पीछे की तरफ लुढ़का लिया मानो बड़ी देर से गहरी नींद में सो रही हो.

पास से गुजरता हुआ हरीराम दो पल को ठिठक कर रुका. उस का मन हुआ कि इतनी चैन से सोती हुई मुनिया को तेजी से झकझोर कर उठाए, पर पीछे से जग्गू दादा की आवाज सुन कर आगे बढ़ गया, ‘‘अरे, उसे सोने दो. चलो, चाय पी कर आते हैं. बस ज्यादा देर नहीं रुकेगी.’’ उन के उतरते ही तकरीबन खाली हो चुकी बस के अंदर देवा तेजी से मुनिया के पास आया और बोला, ‘‘टौयलैट आ रही हो तो उतर कर जल्दी से कर आओ. बाईं तरफ चली जाना. उधर ही लेडीज टौयलैट है.

उन दोनों के चाय पी कर लौटने से पहले आ जाना.’’ मुनिया नीचे उतरी और उस के आने तक देवा अपनी सीट पर ही बैठा रहा. उस के वापस आते ही वह फिर नीचे उतर गया. फिर जब दोबारा सब सवारियां बैठ गईं और बस स्टार्ट हुई तो 2 पानी की बोतलें और गरमागरम भुजिया ले कर देवा भी वापस अपनी सीट पर आ कर बैठ गया. बस फिर चल दी. मुनिया और देवा एकदूसरे के प्रति जिस अपनेपन के भाव से भरते जा रहे थे, उस से खुद भी हैरान थे.

उन के एकदूसरे के करीब बैठने का अंदाज भी बदल चुका था. दोनों बड़े मजे से भुजिया खाने में जुटे हुए थे. बस अपनी रफ्तार से आगे बढ़ी चली जा रही थी. तकरीबन 2 बजे के आसपास बस उस जगह रुकी, जहां और भी बसें पहले से ही अलगअलग दिशाओं से आ कर रुकी हुई थीं. देवा ने बस से उतर कर यह जानकारी हासिल कर ली कि कौन सी बस देवास की तरफ इस से पहले निकलेगी.

उधर मुनिया ने अपनी सीट से उठ कर खाने की पोटली और पानी की बोतल हरिया को पीछे जा कर दे दी और बोली, ‘‘लो, खाना खा लो. इस में जग्गू दादा के लायक भी रोटियां हैं.’’ इधर जग्गू दादा बैठे थे, इसलिए पोटली उन्होंने ही पकड़ी और दोनों खाना खाने में जुट गए. खाना खाने के बाद उन्होंने भांग की एकएक गोली पानी में घोल कर पी और पीछे सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. कुछ ही देर में मुनिया ने खिड़की के बाहर देखा. देवा उसे बाहर आने का इशारा कर रहा था.

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वह अपना बैग पहले से ही बाहर उठा कर ले जा चुका था.  मुनिया ने बस से नीचे उतरने से पहले हरिया की सीट की तरफ देखा. पलभर को एक खिंचाव सा हुआ. आखिर 2 साल तो वह हरिया के साथ रही ही थी, फिर मन को कड़ा कर के वह बस से नीचे उतर गई. देवा बोला, ‘‘तुम कंडक्टर को बताओ कि कौन सी अटैची तुम्हारी है.’’  बस के पीछे सामान चढ़ानेउतारने वाली लटकती सीढ़ी के कुछ डंडों पर चढ़ने के बाद मुनिया ने इशारे से बता कर अपनी अटैची उतरवाई.

अटैची उतरते ही देवा ने एक हाथ में मुनिया का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ में उस की अटैची उठा कर उस बस की तरफ दौड़ पड़ा, जो स्टार्ट हो कर देवास की तरफ जाने को तैयार थी. पहले उस ने मुनिया को चढ़ाया, फिर खुद चढ़ गया. मुनिया ने इस बस की खिड़की से उस बस की तरफ देखा जिस में हरिया रह गया था. एक बार उस ने मन में विचार आया कि कहीं देवा किसी मोड़ पर धोखा न दे जाए और वह कहीं की न रहे. मर्द औरत से ज्यादा उस के शरीर को चाहता है.

देवा भी कहीं उस के शरीर से खेलने के बाद उसे छोड़ न दे.  तभी देवा की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘मुनिया, हम सवेरेसवेरे ही देवास पहुंच जाएंगे. बड़े पापा का घर वहीं है.’’ ‘‘वह तो ठीक है, पर अपने घर पहुंच कर मेरा क्या परिचय दोगे? पता नहीं क्यों मेरा मन एक अजीब से डर से घबरा रहा?है. लगता है, कोई अनहोनी न हो जाए,’’ मुनिया बोली. ‘‘तुम ने मुझ पर विश्वास किया है न? बस, मैं इतना ही कहूंगा कि अगर मैं तुम्हारे विश्वास पर खरा न उतरूं, तो तुम अपने हरीराम के पास चली जाना,’’ कहतेकहते देवा रुका, फिर मुनिया का हाथ अपने हाथों में ले कर बोला, ‘‘तुम यह क्यों नहीं सोच रही हो कि मेरी तो किसी भी लड़की से शादी हो सकती थी, पर मैं ने तुम्हीं को क्यों चुना?

‘‘अपनी बात याद करो. तुम ने कहा था कि देवा क्या तुम मेरा उद्धार कर पाओगे? यों समझ लो कि तुम्हारी जिंदगी के उद्धार की बात ही है, इस समय मेरे मन में.’’ देवा की बातों से थोड़ा निश्चिंत हो कर मुनिया ने उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया और कुछ ही पलों में तेज दौड़ती बस के हिचकोलों ने उसे नींद में सुला दिया. सवेरे जब आंख खुली तो मुनिया देवास में थी.

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बस से उतर कर देवा उसे ले कर सीधा अपने बड़े पापा के घर  आ गया.  मुनिया को देख कर बड़ी अम्मां और बड़े पापा ने हैरान होते हुए सवालिया निगाहों से देवा को देखते हुए पूछा कि यह कौन है? ‘‘बड़े पापा, यह मुनिया है. मेरी दुलहन. हम ने शहर में ही शादी कर ली थी, पर आप को बताना भूल गए थे, फिर वह मुनिया की तरफ घूमा और बोला, ‘‘अरे घबराओ नहीं… बड़े पापा और बड़ी अम्मां दोनों के पैर छुओ न झुक कर.’’ ‘‘ओह, तो तुम भी हमारी तरह अपनी पसंद की दुलहन ले कर घर में घुसे हो. अरे, हमें तो अपना समय याद आ गया जब…’’ कहतेकहते बड़े पापा अपना समय याद कर के हंस पड़े. तभी मुनिया उन दोनों के पैरों में झुक गई, हालांकि उस की आंखें भी छलक आई थीं, पर बूंदों को जमीन पर गिरने से वह बचा ले गई.

अपहरण नहीं हरण : भाग 2

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर 

जो मजदूर बस में पहले घुस आए थे, उन्होंने बस की तरकीबन सभी अच्छी सीटों पर कब्जा जमा रखा था. उन्हीं में एक बांका और गठीले बदन का दिखने वाला देवा भी था. आगे से चौथी लाइन में पड़ने वाली बाईं ओर की  2 सीटों में से एक सीट पर खुद जम कर बैठ गया था और दूसरी सीट पर अपना बैग उस ने कुछ इस अंदाज से रख  लिया था कि देखने वाला समझ जाए  कि वह सीट खाली नहीं है.

बस के पास पहुंच कर हरीराम ने जैसेतैसे अटैची, बक्सा और बालटी बस की छत पर लादे जाने वाले सामान के बीच में ठूंस देने के लिए ऊपर चढ़े एक आदमी को पकड़ा दी और मुनिया की पीठ पर धौल जमा कर आगे धकियाते हुए जैसेतैसे बस के अंदर दाखिल हुआ. पीछे से लोगों के धक्के खा कर आगे बढ़ती मुनिया पास से गुजरी और आगे खड़े लोगों के बढ़ने का इंतजार कर रही थी, तभी देवा की आंखें मुनिया की कजरारी आंखों से टकराईं.

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दोनों की नजरों से एक कौंध सी निकल कर एकदूसरे के दिल में समा गई. देवा ने पास रखा बैग उठा कर अपनी जांघों पर रख लिया और मुनिया को इशारे से खाली सीट पर बैठ जाने  को कहा.  मजदूरों से भरी इस भीड़ वाली बस में बगल में बैठी कमसिन मुनिया के साथ लंबे और सुहाने सफर की सोच से देवा ने खुश होना शुरू ही किया था कि पीछे से हरीराम की आवाज आई, ‘‘अपने बैठने की बहुत जल्दी है. पति की चिंता नहीं है कि वह कहां बैठेगा,’’ कहते हुए उस ने मुनिया के सिर पर पीछे से एक धौल जमा दी.

हरीराम शायद उसे एकाध हाथ और भी जड़ता, लेकिन तब तक मुनिया खिड़की की तरफ वाली सीट पर बैठ चुकी थी और उस के बगल में देवा ने बैठ कर हरीराम को घूरना शुरू कर दिया. देवा का बस चलता तो ऐसे बेहूदा आदमी की तो वह गरदन दबा देता. तभी पीछे से किसी ने हरीराम को देख कर आवाज लगाई, ‘‘अरे ओ हरीराम, इधर पीछे आ जाओ, एक सीट खाली है.’’ यह उसी फैक्टरी में काम करने वाले जग्गू दादा की आवाज थी. वे मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के रहने वाले थे और  2 महीने बाद ही उन की रिटायरमैंट थी.

भांग के शौकीन जग्गू दादा की आवाज सुन कर हरीराम ने राहत की सांस ली और उन की बगल की सीट पर जा कर बैठ गया. हरीराम इस बात से भी खुश था कि बीड़ी तो बस के अंदर पी नहीं पाएगा, पर पानी के साथ भांग तो पी जा सकेगी. अच्छी बात यह थी कि सब ठुंसे हुए लोग अपनीअपनी सीटों पर बैठ चुके थे और कोई भी आदमी खड़ा नहीं था. बस जैसे ही स्टार्ट हुई, देवा ने अपने बाएं हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी को देखा. शाम के 4 बज चुके थे.

बगल में बैठी मुनिया को उस की कलाई में बंधी काले पट्टे वाली घड़ी बहुत पसंद आई. उस की नजरें अपनेआप ही कलाई से हट कर देवा के चेहरे की तरफ चली गईं. इस बार नजरें मिलीं तो मुनिया सहजता से हंस दी. देवा ने सुन रखा था  कि औरत हंसी तो जानो फंसी. यही सोच कर उस के दिल की धड़कनें तेज हो गईं  मुनिया तो इस बात से इतनी खुश थी कि कम से कम उसे अपने खड़ूस पति की बगल में बैठ कर यह लंबा सफर तो नहीं तय करना पड़ेगा.

तभी देवा को लगा कि मुनिया उस से कुछ कह रही है, लेकिन बस के इंजन का शोर इतना तेज था कि वह क्या कह रही है, देवा सुन नहीं पा रहा था, इसलिए मुनिया के पास खिसक कर, थोड़ा झुकते हुए उस ने अपना कान मुनिया के होंठों से मानो चिपका सा दिया. मुनिया का मन तो हुआ कि इसी समय वह देवा के कानों को अपने होंठों से काट ले, पर लाजशर्म भी कुछ होती है, इसलिए उस ने अपने शब्द दोहराए, ‘‘पता नहीं, यह सीट न मिलती तो हम कहां बैठ कर जाते…’’ ‘अरे, सीट न मिलती तो हम तुम को अपने दिल में बैठा के ले चलते,’ देवा ने यह तो मन में सोचा, पर कहा कुछ यों, ‘‘अरे, हमारे होते सीट क्यों न मिलती तुम को.’’ ‘‘तो तुम को मालूम था कि हम ही यहां आ कर बैठेंगे? और मान लो, हमारे पति यहां बैठने की जिद पकड़ लेते तो…?’’ ‘‘तब की तब देखी जाती, पर यह पक्का जानो कि हम अपने बगल में उसे कभी न बैठने देते.

हमें जो इंसान पसंद नहीं आता है, उसे हम अपने से बहुत दूर रखते हैं,’’ देवा ने अपने सीने पर एक हाथ रखते हुए कहा, तो मुनिया उस के चेहरे पर उभर आए दृढ़ विश्वास से बहुत प्रभावित हुई. उस कैंपस से बाहर निकल कर वह बस सड़क पर एक दिशा में जाने को खड़ी हो गई थी. उस का इंजन स्टार्ट था. बीचबीच में ड्राइवर हौर्न भी बजा देता  था और कंडक्टर बस के अगले गेट  पर लटकता हुआ चिल्लाता, ‘‘भोपाल, भोपाल…’’ आखिरकार बस अपनी दिशा की तरफ चल दी.

मुनिया ने गरदन घुमा कर पीछे की तरफ देखा, तो वह निश्चिंत हो गई. जग्गू दादा के साथ हरीराम आराम से बैठा बतिया रहा था. हां, बीचबीच में उस की खांसी उठनी शुरू हो जाती थी. बस ने अब थोड़ी रफ्तार पकड़ ली थी. स्टेयरिंग काटते हुए जब बस झटका खाती और मुनिया का शरीर जब देवा से टकराता तो उसे वह छुअन अच्छी लगती. फिर तो देवा ने अपनी बांहें उस की बांहों से चिपका दीं और पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ मुनिया ने हंसते हुए कहा, ‘‘पहले तुम अपना नाम बताओ, तब हम अपना नाम बताएंगे.’’ हमारा तो सीधासादा नाम है, ‘‘देवा’’. ‘‘तो हमारा कौन सा घुमावदार नाम है. वह भी बिलकुल सीधा है मुनिया…’’ होंठों को गोल कर के कजरारी आंखें नचाते हुए जब मुनिया ने अपना नाम बताया, तो देवा तो उस की इस अदा पर फिदा हो गया.

आज 2 साल बाद मुनिया को अपना मन बहुत हलका लग रहा था. खुद को इतना खुश होते देख उसे एक अरसा बीत गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे वह देवा से इतनी जल्दी घुलमिल कर बातें किए जा रही है. इतने अपनेपन से तो मुनिया से कभी हरीराम ने भी बातें नहीं की थीं. सुहागरात वाले दिन भी नहीं.

आखिर हरीराम ने उसे कौन सा सुख दिया है? जिस्मानी सुख भी तो वह ढंग से नहीं दे पाया. पता नहीं उस के बापू ने क्या देख कर उसे जबरदस्ती हरीराम के पल्ले बांध दिया. मुनिया को इस समय अपनी मां पर भी गुस्सा आया. वह पीछे न पड़ती तो अभी बापू शादी न करता. उस की शादी तो देवा जैसे किसी बांके जवान के साथ होनी चाहिए थी.

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कितने प्यार से बातें कर रहा है… और एक हरीराम है… लगता है, अभी खा जाएगा. पता नहीं, कितनी खुरदरी जबान पाई है हरीराम ने. मीठा तो बोलना ही नहीं जानता. बातबात पर हाथ अलग उठा देता है. ऐसे ब्याही से तो बिन ब्याही रहना ही अच्छा था. मुनिया को बस की खिड़की से बाहर कहीं खोया देख कर देवा ने मुनिया के घुटने पर थपकी देते हुए पूछा, ‘‘कहां खो गई थी? क्या सोच रही थी?’’ चेहरे से गंभीरता हटा कर मुनिया ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं. सोचने लगी थी कि तुम्हारी पत्नी तो बहुत सुखी रहती होगी तुम्हारा प्यार पा कर.

वह अपने को धन्य समझती होगी.’’ ‘‘अरे मुनिया, क्या मैं तुम्हें शादीशुदा लगता हूं? मैं शादी लायक जरूर हो गया हूं, पर अभी तक इस बारे में कुछ सोचा नहीं. मैं अभी तक कुंआरा हूं.’’ ‘‘तो हरियाणा में अकेले ही रहते हो? काम क्या करते हो? और मध्य प्रदेश में कहां के रहने वाले हो?’’ ‘‘बाप रे, एकसाथ इतने सवाल. इतने सवाल तो फिटर के रूप में मेरी नौकरी लगने पर भी नहीं पूछे गए थे,’’ कहते हुए देवा खिलखिलाया और इस अदा पर मुनिया उस की ओर ताकती रही.

उस का मन हुआ कि वह अपनी बांहें फैला कर देवा के सीने से लिपट जाए. तभी देवा ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं देवास के पास का हूं. मेरे पिता किसान हैं और 2 बहनें भी हैं, जो शादीशुदा हैं और अपनीअपनी ससुराल में रहती हैं.  ‘‘मुझे गांव में बुढ़ापे की औलाद कहा जाता है, क्योंकि मैं अपनी दूसरी बहन के पैदा होने के 10 साल बाद पैदा हुआ था. ‘‘मैं जब बड़ा हुआ, तो इंटर के बाद मेरे बड़े पापा यानी ताऊजी मुझे अपने साथ देवास ले आए.

वहीं से मैं ने पौलिटैक्निक कालेज से मेकैनिकल का डिप्लोमा किया और फिर हरियाणा में चारा काटने वाली मशीन के पार्ट बनाने वाली कंपनी में फिटर का काम मिल गया. अभी तकरीबन 2 साल से यहां हूं. ‘‘अब कुछ तुम अपने बारे में बताओ. देखो, बातोंबातों में समय अच्छा कट जाता है. तुम रास्तेभर मुझ से ऐसे ही बतियाती रहना, समय आराम से कट जाएगा.

‘‘और हां, यह गठरी कब तक यों पकड़े रहोगी, मुझे दो. मैं इसे ऊपर रख देता हूं,’’ कह कर देवा चलती हुई बस में खड़ा हुआ और गठरी अपने बैग के बगल में ठूंस दी. खड़े होते समय उस ने हरीराम की सीट की तरफ भी नजर डाली थी. वह शायद सो गया था, क्योंकि बस के साथ उस का और उस के साथी का सिर भी इधरउधर झूल रहा था. ‘इंसान जब शरीर से कमजोर होता है, तो किसी भी सवारी से वह सफर करे, जल्दी ही ऊंघने लगता है,’ हरीराम को देख कर देवा को अपने ताऊजी यानी बड़े पापा के कहे शब्द याद आ गए थे.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अपहरण नहीं हरण : भाग 1

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर 

हरीराम उर्फ हरिया मुनिया का हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचता हुआ राहत शिविर से बाहर आया. कई हफ्तों से उस जैसे कई मजदूरों को उन शिविर में ला कर पटक दिया गया था. न तो खानेपीने का उचित इंतजाम था, न जलपान कराने की कोई फिक्र. शौचालयों की साफसफाई का कोई इंतजाम नहीं.

2 बड़े हालनुमा कमरों में दरी पर पड़े मजदूर लगातार माइक पर सुनते रहते थे, ‘प्रदेश सरकार आप सब के लिए बसों का इंतजाम करने में जुटी हुई है. इंतजाम होते ही आप सब को अपनेअपने प्रदेश भेज दिया जाएगा. कृपया साफसफाई का ध्यान रखें और एकदूसरे से दूरदूर रहें.’ कोरोना की तबाही के मद्देनजर लौकडाउन का ऐलान किया जा चुका था. फैक्टरिया बंद होनी शुरू हो गई थीं.

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फैक्टरी मुलाजिमों से उन के कमरे खाली करा के उन्हें गेट से बाहर कर दिया गया था. वहां से वे पैदल ही अपनाअपना बोरियाबिस्तर समेट कर राहत शिविरों तक चल कर आए थे. जिस ऊन फैक्टरी में हरीराम उर्फ हरिया काम करता था और अभी 2 साल पहले वह अपने से 12 साल छोटी मुनिया को गांव से ब्याह कर लाया था, वह मुनिया चाहती और हरिया की बात मान कर फैक्टरी के मैनेजर के घर रुक जाती तो शायद आज हफ्तेभर से इस राहत केंद्र में उन्हें मच्छरों की भिनभिन न सुननी पड़ती. पर मुनिया जिद पर अड़ गई थी, ‘‘जब सब अपनेअपने गांव जा रहे हैं, तो हम भी यहां नहीं रहेंगे. मुझे तो गांव जाना है.’’

उस रात हरीराम जब मुनिया की जिद को न तोड़ सका, तो उस ने मुनिया को मारना शुरू कर दिया, लेकिन पिटने पर भी मुनिया ने जिद नहीं छोड़ी, तो हरीराम हार गया. उस की सांसें फूलने लगीं. उसे लगातार खांसी आनी शुरू हो गई. अपनी हार और कमजोरी को छिपाने के लिए उस ने कोने में पड़ी हुई शराब की बोतल निकाली.

बड़ेबड़े घूंट भरे, फिर बीड़ी का बंडल खोल कर एक बीड़ी सुलगाई और सामने घर का सामान समेटती मुनिया को गरियाता रहा, ‘‘करमजली, जब से शादी कर के लाया हूं, चैन से नहीं रहने दिया इस चुड़ैल ने…’’ बड़बड़ाते हुए वह न जाने कब बिना खाना खाए बिस्तर पर ही लुढ़क गया, पता ही नहीं चला. मुनिया ने एक अटैची और एक बक्से के अलावा बाकी सामान गठरी में बांधा और खाना खा कर बची रोटियां और अचार को छोटी पोटली में समेट कर खुद भी लेट गई.

मुनिया के दिमाग में पिछले 2 सालों का बीता समय और नामर्द से हरीराम के बेहूदे बरताव के साथसाथ फैक्टरी के मैनेजर का गंदा चेहरा भी घूम गया. उस का मन करता कि वह यहां से कहीं दूर भाग जाए, पर हिम्मत नहीं जुटा पाई. बेहद नफरत करने लगी थी वह हरीराम से. उसे हरीराम के शराबी दोस्तों खासकर मैनेजर का अपने घर आनाजाना बिलकुल भी पसंद नहीं था, वह इस का विरोध करती तो भले ही हरीराम से पिटती, पर जब उस ने हार नहीं मानी तो हरीराम को ही समझौता करना पड़ा.

मुनिया इन 2 सालों में फैक्टरी मैनेजर के हावभाव और उसे घूरने के अंदाज से परिचित हो चुकी थी. उधर हरीराम जानता था कि जो सुखसुविधाएं उसे यहां मिलती हैं, वे गांव में कहां? फिर मैनेजर भी उस का कितना खयाल रखता है. मैनेजर का वह इसलिए भी एहसानमंद था कि शादी से कुछ समय पहले ही उन की उस फैक्टरी में काम करते हुए, सांसों द्वारा शरीर में जमने वाले रुई के रेशों ने उस के फेफड़ों को संक्रमित कर डाला था और जब उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी, तब इसी मैनेजर ने फैक्टरी मालिक से सिफारिश कर के उस का उचित इलाज कराया था, फिर ठीक होने के बाद उसे प्रोडक्शन से हटा कर पैकिंग महकमे में भेज दिया था.

उन्हीं दिनों फैक्टरी से छुट्टी ले कर हरीराम अपने गांव आया था, जहां आननफानन वह मुनिया से शादी कर के उसे अपने साथ फैक्टरी के कमरे में ले आया था. मुनिया की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी हरीराम से शादी करने की. 8वीं जमात पास कर के वह घर में बैठी थी. वह चाहती थी कि और पढ़े, लेकिन 8वीं से आगे की पढ़ाई के लिए दूर तहसील वाले इंटर स्कूल में दाखिला करा पाना उस के बापू श्रीधर के बस में नहीं था. भला दूसरों के खेतों को बंटाई पर जोतने वाला श्रीधर उसे आगे पढ़ाता भी तो कैसे?

उधर मां अपने दमे की बीमारी से परेशान रातरातभर खांसा करती. न खुद सोती, न किसी को सोने देती. 8वीं पास मुनिया उसे शादी लायक दिखाई देने लगी थी. वह अकसर श्रीधर से कह बैठती, ‘‘अरे मुनिया के बापू, अपनी जवान हो गई छोकरी को कब तक घर में बैठाए रखोगे… कोई लड़का ढूंढ़ो और हमारी सांस उखड़ने से पहले इस के हाथ पीले कर दो.’’ मुनिया के शरीर की उठान ही कुछ ऐसी थी कि वह अपनी उम्र से बड़ी दिखती थी.

आंखें खूब बड़ीबड़ी और उन में वह हमेशा काजल डाले रखती. गांव के माहौल में सरसों के तेल से सींचे काले बाल. हफ्ते में वह एक बार ही बालों में जम कर तेल लगाती, फिर उन्हें अगले दिन रीठे के पानी से धोती और जब वह काले घने लंबे बालों की  2 चोटियां बना कर आईने में अपना चेहरा देखती, तो खुद ही मुग्ध हो उठती. आईने के सामने खड़े हो कर अपनी देह को देखना उसे बहुत पसंद था. उसे लगता था कि कुछ आकर्षण सा है उस के शरीर में, पर मां को उस का यों आईने के सामने देर तक खड़े रहना बिलकुल पसंद नहीं था.

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2 चोटियां गूंथने के बाद मुनिया कुछ लटें अपनी दोनों हथेलियों की मदद से माथे पर गिराती और आंखों में मोटा सा काजल लगा कर झट आईने के सामने अपनी छवि को निहार कर हट जाती, फिर घर के कामों में जुट पड़ती. साफसफाई, चौकाबतरन, कपड़ों की धुलाई, खाना बनाना, सब उसी के जिम्मे तो था. मां तो बीमार ही रहती थी. उन्हीं दिनों जब हरीराम गांव आया हुआ था, तो किसी ने श्रीधर को बताया कि वह इस बार शादी कर के और दुलहन ले कर ही शहर जाएगा, तो उस ने कोशिश कर के मुनिया से हरीराम की शादी को अंजाम दे ही दिया.

मुनिया ने भरपूर विरोध किया, पर मां की कसम ने उसे मजबूर कर दिया. मुनिया की शादी के तकरीबन  4 महीने बाद ही मुनिया की मां चल बसी और श्रीधर भी ज्यादा दिन जी नहीं पाया.  मां के मरने की खबर तो हरीराम ने उसे दे दी थी, पर बहुत कहने पर भी उसे गांव नहीं ले कर गया. वही हरीराम मुनिया का हाथ पकड़े जब राहत केंद्र से बाहर आया तो सामने 8-10 बसें कतार में आ कर खड़ी हो गई थीं.

अब इन में से मध्य प्रदेश की ओर जाने वाली बस कौन सी है, यह हरीराम  को समझ में नहीं आ रहा था. उस ने गुस्से में मुनिया की चोटी को अपने दाएं हाथ में भर कर जोरों से खींचा, फिर चिल्लाया, ‘‘उस डंडा लिए खाकी वरदी वाले से पूछती क्यों नहीं? पूछ कौन सी बस हमारे प्रदेश की तरफ जाएगी…’’ अचानक चोटी के खिंचने के दर्द से मुनिया चीख उठी. मुनिया ने एक हाथ में अटैची पकड़ी हुई थी और दूसरे में बक्सा. हरीराम के बाएं कंधे पर हलकी गठरी थी और उसी हाथ में उस ने बालटी पकड़ी हुई थी. हरिया का दायां हाथ खाली था, जिस से वह चोटी खींच सका.

सभी घर लौटने वाले मजदूरों में अपनीअपनी बस पकड़ने की आपाधापी मची हुई थी. ज्यादातर बसों के गेट पर अंदर घुस कर बैठने की जैसे लड़ाई चल रही थी. लाउडस्पीकर पर क्या बोला  जा रहा है, किसी की समझ में नहीं आ रहा था. चारों ओर अफरातफरी का माहौल था. ड्यूटी पर लगे लोग जैसे अंधेबहरे थे. किसी के भी सवाल का जवाब देने से कतराने की कोशिश करते हुए वे उन्हें अगली खिड़की पर भेज देते. परेशान हरीराम ने इस बार मुनिया की गरदन अपने चंगुल में ले कर हलके से दबाते हुए कहा, ‘‘पूछती क्यों नहीं? बस भर जाएगी तब पूछेगी क्या.’’ लेकिन इस बार मुनिया ने अटैची और बक्सा जोरों से जमीन पर पटके और खाली हुए अपने दाएं हाथ से हरीराम के हाथ को इतनी जोर से झटक कर दूर हटाया कि वह गिरतेगिरते बचा.

उस की खांसी फिर उखड़ गई. उस ने लगातार खांसना शुरू कर दिया. उसे खा जाने वाली नजरों से घूरते हुए मुनिया चिल्लाई, ‘‘तुम्हारे मुंह में जबान नहीं है क्या? हम नहीं पूछेंगे, तुम्हीं पूछो…’’ मुनिया इतनी जोर से चीखी थी कि आसपास के सभी इधर से उधर भटकते लोग उस की तरफ घूम पड़े और वह वरदी वाला उन्हीं के पास आ कर अपना डंडा जमीन पर पटकते हुए बोला, ‘‘क्या बात है? क्यों झगड़ रहे हो? पता है, यहां तेज चिल्लाना मना है. अंदर बंद कर दिए जाओगे.’’ ‘‘अरे भई, समझ में नहीं आ रहा है कि मध्य प्रदेश की तरफ कौन सी बस जाएगी,’’ हरीराम ने ही अपनी खांसी को काबू में करते हुए पूछा.

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सिपाही तो खुद ही अनजान था. उसे क्या पता कि कौन सी बस किधर जाएगी. उसे तो एक कमजोर से डंडे के सहारे भीड़ को काबू करने की जिम्मेदारी मिली थी और वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था कि इस जिम्मेदारी को कैसे निभाए. तभी उसी भीड़ में से कोई बोल पड़ा, ‘‘वह जो लाल रंग वाली, नीली पट्टी की बस देख रहे हो, वह जा रही है तुम्हारे प्रदेश की तरफ.’’ मुनिया और हरीराम ने अपनेअपने हाथों का सामान उठाया और उधर लपक गए, जिधर वह बस खड़ी थी. उस खटारा सी दिखने वाली सरकारी बस में कई मजदूर घुस कर बैठ चुके थे. अंदर ज्यादातर सीटों की रैक्सीन उखड़ी पड़ी थी. फोम नदारद थी. एकाध सीटों के नीचे लगी छतों के नटबोल्ट ढीले पड़े थे.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अपहरण नहीं हरण : क्या हरिराम के जुल्मों से छूट पाई मुनिया?

लौकडाउन के पकौड़े

लेखिका – अर्चना अनुप्रिया

बाहर बूंदाबादी हो रही थी. मौसम बड़ा ही सुहावना था. ठंडी हवा, हरियाली का नजारा और लौकडाउन में घर बैठने की फुरसत. मैं बड़े आराम से अपनी 7वीं मंजिल के फ्लैट के बरामदे में झूले पर बैठा अखबार उलटपुलट रहा था. दोपहर के 3 बजने वाले थे और चाय पीने की जबरदस्त तलब हो रही थी.

मैं ने वहीं से पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘अजी, सुनती हो, एक कप चाय भेज दो जरा.‘‘

कोई हलचल नहीं हुई और न ही कोई जवाब आया. सोचा, शायद किसी काम में व्यस्त होंगी, मेरी आवाज नहीं सुन पाई होंगी. एक बार फिर पुकार कर कहा, ‘‘अरे भाई, कहां हो, जरा चाय भिजवा दो.‘‘

अब की बार आवाज तेज कर दी थी मैं ने, परंतु जवाब फिर भी नहीं आया. सोचा, उठ कर अंदर जा कर चाय के लिए बोल आऊं, लेकिन इस लुभावने मौसम ने बदन में इतनी रूमानियत भर दी थी और मेरे चक्षु के पृष्ठ पटल पर हिंदी फिल्मों के बारिश से भीगने वाले गानों के ऐसेऐसे दृश्य उभरउभर कर आ रहे थे कि उठ कर एक जरा सी चाय के लिए वह तारतम्य तोड़ने का मन नहीं हुआ. आंखों के आगे रहरह कर भीगी साड़ी में नरगिस से ले कर दीपिका तक की छवि लहरा रही थी. अभी ‘टिपटिप बरसा पानी‘ की भीगती रवीना चक्षुपटल पर आई ही थी कि एक मोटी, थुलथुल 50-55 इंच की कमर वाली एक महिला मेरे आगे आ कर खड़ी हो गई, ‘‘हाय राम, ऐसी भयानक काया‘‘, मैं डरतेडरते बचा… लगा जैसे किसी ने पेड़ पर बैठ कर मीठे फल खाते हुए मुझे नीचे से टांग खींच कर धम्म से गिरा दिया हो.

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मैं ने प्रकट रूप में आ कर देखा, मेरी श्रीमतीजी हाथ में चाय की प्याली लिए खड़ी मुझ पर बरस रही थीं, ‘‘एक तो किसी काम में हाथ नहीं बंटाते, बस बैठेबैठे फरमाइशें करते रहते हो, कितना काम पड़ा है किचन में… ये तो होता नहीं कि आ कर जरा हाथ बंटा दें.‘‘

कहती हुई उन्होंने पास पड़े स्टूल को झूले के पास खींच कर उस पर चाय की प्याली रख दी. श्रीमतीजी का पति प्रेम देख कर मेरे अंदर से तत्काल   हिंदी फिल्म का हीरो निकल कर बाहर आया और मैं ने दोनों हाथों से श्रीमतीजी की कलाई पकड़ ली, वैसे भी उस कलाई की तंदुरुस्ती मेरे जैसे दुबलेपतले इनसान के एक हाथ में तो आने वाली नहीं थी…

अपनी आवाज को सुरीला बनाने की कोशिश करते हुए मैं रोमांटिक हो कर गा उठा, ‘‘अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं…’’ बदले में मेरी पत्नी ने जिस तरह गुर्रा कर मेरी ओर देखा कि फिल्मों का हीरो जितनी तेजी से मेरे जिस्म से बाहर आया था, उस से दोगुनी तेजी से वह मेरे अंदर घुस कर कहीं दुबक गया.

श्रीमतीजी चाय वहीं रख बड़बड़ाती हुई जाने को मुड़ी ही थीं कि मेरे अंदर के पति ने एक और दांव खेला, ‘‘चाय के साथ जरा गरमागरम पकोड़े भी मिल जाते तो…’’

बुझती हुई चिंगारी फिर से भड़क उठी. जाती हुई श्रीमतीजी एकदम से पलट कर वापस आ गईं और… साहब, फिर जो पति के निकम्मेपन की धुलाई शुरू हुई कि पूछिए मत… पासपड़ोस के पतियों से ले कर रिश्ते, परिवार, दोस्त, जितने लोगों के नाम याद थे, श्रीमतीजी ने चुनचुन कर गिनाने शुरू किए. कैसे मेरा छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ शौपिंग पर जाता है. कैसे हमारे पड़ोसी फलसब्जियां और सामान बाजार से लाते हैं, कामवाली न आए, तो घर की सफाई भी कर देते हैं.

मेरे एक करीबी दोस्त कैसे गहने गिफ्ट कर के पत्नी को सरप्राइज दिया करते हैं वगैरह…. सुन कर तो मैं भी दंग रह गया… हालत ऐसी होने लगी, जैसे दरवाजे पर सीबीआई वाले रेड करने आ पहुंचे हों. डर और घबराहट से मैं हीनभावना का शिकार होने ही वाला था कि मेरे अंदर के पति ने मुझे संभाल लिया, ‘‘अरी भग्यवान, उन की पत्नियां तुम्हारी तरह गुणवती थोड़े ही न हैं, मेरे जैसा हर व्यक्ति लकी थोड़े ही होता है इस दुनिया में… मेरी श्रीमतीजी जैसी उन की पत्नियां होतीं तो वे यह सब थोड़े ही करते… मेरी पत्नी तो साक्षात लक्ष्मी, सरस्वती है… मुझे उन के जैसे करने की जरूरत क्या है?‘‘

मैं ने मुसकराते हुए बड़े रोमांटिक अंदाज में कामुकता भरा एक तीर छोड़ा, पर श्रीमतीजी ने तुरंत मेरे उफनते भावावेश पर पानी डाल दिया, ‘‘और दुर्गा काली भी हूं… यह क्यों भूलते हो…? लौकडाउन में जरा फुरसत हुई तो सोचा कि चलो पापड़ बड़ियां बना दूं, पर वह भी चैन से नहीं करने दे रहे हो. पकौड़े खाने हैं तो खुद क्यों नहीं बना लेते..? दूसरों के सामने तो बड़े लैक्चर देते हो कि मर्दों को औरतों की सहायता करनी चाहिए… अब क्या हो गया…?‘‘ श्रीमतीजी ने गुस्से से एक ही सांस में सब कह डाला.

उन का यह रूप देख कर मेरे अंदर की भीगी नाजुक रवीना, दीपिका सब सूख चुकी थीं और उन के क्रोध से डर कर वे बेचारी न जाने कहां छुप गईं..? अंदर का पति भी सहम गया. सोचा, ‘‘चलो आज पकौड़े बना ही लिए जाएं, फिर आगे से श्रीमतीजी को जवाब देने का अच्छा उदाहरण मिल जाएगा,‘‘

मुसकराते हुए मैं ने कहा, ‘‘अरे प्राण प्रिये, मेरे दिल की रानी… तुम्हारा हुक्म सिरआंखों पर. चलो, हम दोनों मिल कर पकौड़े बनाते हैं, फिर साथसाथ बैठ कर चायपकौड़े का लुत्फ उठाएंगे. मैं तुम्हें खिलाऊंगा, तुम मुझे.‘‘

‘‘चलो हटो,‘‘ श्रीमतीजी ने मुंह बिचका कर, हाथ झटक कर कहा और वहां से चली गईं. गरम पकौड़े खाने की तीव्र इच्छा और रहरह कर मुझ पर मजनूं देवता का आगमन मैं भी पीछेपीछे रसोईघर में जा पहुंचा. वहीं बाहर बरामदे में श्रीमतीजी एक मोढ़ा ले कर बड़ी सी चादर बिछा कर पापड़ बड़ियां बनाने बैठ गईं.

आज से पहले मैं ने रसोईघर को इतनी गहराई से अंदर घुस कर कभी नहीं देखा था. ज्यों ही अंदर घुसा, पत्नी का हुक्म आया, ‘‘पहले हाथ तो धो लो, सिंक के सामने लिक्विड सोप रखा है.‘‘

अभी मैं अपने साफसुथरे धुले हाथ के विषय में कुछ कहने ही वाला था कि  टीवी पर एक ऐड आया, ‘‘लाइफ बौय ही नहीं किसी भी सोप से रगड़रगड़ कर 20 सेकंड तक हाथ धोएं.‘‘

पत्नी ने मुझे घूर कर देखा. मैं ने चुपचाप हाथ धोने में ही अपनी भलाई समझी.

रसोई क्या थी, एक रहस्यमयी दुनिया थी. कहीं कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. बस, सिंक में भोजन बनाते समय उपयोग किए गए कुछ बरतन पड़े थे, जिन्हें शायद श्रीमतीजी पापड़ बड़ी बनाने के बाद धोने वाली थीं.

मैंने इधरउधर नजर दौड़ाई, पर मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि पकौड़े बनाने की शुरुआत कैसे करूं… श्रीमतीजी से पूछा तो कहने लगीं, ‘‘पहले यह तो बताओ कि पकौड़े किस चीज के खाओगे…?‘‘

‘‘बेसन के, और काहे के…‘‘

‘‘अरे, पर बेसन में डालोगे क्या…? प्याज, गोभी, आलू, मटर और क्या…?‘‘ पापड़ डालतीडालती पत्नी बोलीं.

‘‘प्याज के,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो पहले प्याज काट लो.‘‘

‘‘पर, प्याज है कहां…? यहां तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा.‘‘

‘‘सामने ही तो स्टील के बने जालीदार स्टैंड पर रखे हैं प्याज.‘‘

मैं ने नजर घुमा कर देखा, कोने में स्टील के जालीदार 3-4 रैकों वाला स्टैंड लगा था, जिस की तीसरी रैक पर गोलगोल लाललाल प्याज पैर फैलाए आराम फरमा रहे थे. बड़ी ईष्र्या सी हुई कमबख्तों से. वे भी मेरी हालत पर मुसकरा उठे.

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मैं ने एक बड़ा सा प्याज वहां से उठा लिया, तो उस ने मेरा मुंह चिढ़ाया. मैं ने सोचा, ‘‘अभी चाकू से वार कर मैं इस का अहंकार तोड़ता हूं.‘‘

‘‘पर, अब काटूं कैसे? चाकू तो दिख नहीं रहा.‘‘

‘‘दराज तो खोलो,‘‘ पत्नी की सलाह आई.

दराज खोली तो थालियां सजी थीं, दूसरे में कटोरे रखे थे, तीसरे में पानी के गिलास थे… धीरेधीरे सारे दराज खोलता गया, रसोई का तिलिस्म मेरे सामने एकएक कर खुलता रहा, लेकिन कमबख्त चाकू नहीं मिला. दफ्तर में फाइलों को ढूंढने की मेरी मास्टरी यहां कोई काम नहीं आ रही थी. पता नहीं, ये पत्नियां हर चीज इतने सलीके से क्यों रखती हैं कि कुछ मिलता ही नहीं… चीजें इधरउधर रखी हों तो उन्हें ढूंढ़ लेना मेरे बाएं हाथ का खेल था. खैर, नही चाहते हुए भी पत्नी से फिर पूछना पड़ा. इस बार फिर मैं ने अपने अंदर के पति के कंधे पर बंदूक रखी, ‘‘अरे भई, कोई चीज जगह पर क्यों नहीं रखती हो? तब से ढूंढ़ रहा हूं, एक चाकू तक नहीं मिल रहा.‘‘

इस दफा पत्नी ने कुछ कहा नहीं. वह तमतमा कर उठी और जहां मैं खड़ा था, वहां ठीक सामने रखे चाकू के स्टैंड से एक चाकू निकाल कर मुझे देती हुई अंदर तक आहत करती हुई कह गई, ‘‘आंखों पर चश्मा डालो, बुढ़ापा आ गया है, लगता है कम दिखने लगा है.‘‘

ओह, भीतर का वीर पति फिर परास्त हो गया. मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा. अब समस्या आई कि प्याज काटा कैसे जाए… पहले तो जीवन में ऐसा कुछ किया नहीं. तो, छिलके उतार कर काटें या काट कर छिलका उतारें… लाचार बच्चे की तरह फिर मैं पत्नी को आवाज देना चाहता था, परंतु ऐन वक्त पर मेरे अंदर के मर्द ने ऐसा करने से मना कर दिया. कहा, ‘‘कैसे भी काटो यार, छिलके उतार कर ही तो पकाने हैं.‘‘ श्रीमतीजी के प्रवचन से मैं बालबाल बचा.

कमबख्त प्याज भी खार खाए बैठा था. चाकू रखते ही मेरी आंखें फोड़ने लगा. मोटेमोटे आंसू भरी आंखों से प्याज को छोटेछोटे टुकड़ों में काटा और काट कर अभी आंखें पोंछने ही वाला था कि श्रीमतीजी का आदेश आया, ‘‘जब काट ही रहे हो तो 3-4 प्याज और काट लेना… रात की सब्जी के काम आएंगे.‘‘

सच कहता हूं कि इस बार मेरी आंखों में आंसू यह सोच कर आने लगे कि मैं ने पकौड़ों की बात ही क्यों की?

पत्नी की बात सुन कर कमबख्त प्याज बड़े व्यंग्य से मुसकरा कर मुझे घूरने लगे और मैं उन पर अपना गुस्सा उतारते हुए उन के टुकड़ेटुकड़े करने लगा. किसी तरह आंखें फोड़तेफोड़ते मैं ने 3-4 प्याज काटे… जी चाहा, पकौड़ेवकौड़े छोड़ कर फिर वहीं झूले पर जूही, रवीना, दीपिका का दीदार करूं, पर अंदर के मर्द ने मुझे फंसा दिया था… मैदाने पकौड़े से यों पीठ दिखा कर जाना उम्रभर पत्नी के सामने ताने तंज की जमीन बना देता और अंदर का मर्द आंखें दिखाने से वंचित हो जाता… इसीलिए चुपचाप डटा रहा.

अब बारी आई कड़ाही की कि जिस में पकौड़े तलने की व्यवस्था होती.  सिंक में नजर डाली तो कड़ाही नजर आ गई, पर वह गंदी थी. मैं ने किसी अनुशासित बच्चे की तरह कड़ाही लिक्विड सोप से ही साफ कर नल के नीचे धोना शुरू किया. बरतन की खड़खड़ाहट से बाहर बैठी मल्लिका को पता चल गया कि सिपाही तलवारें तेज कर रहा है. लगभग हुक्म चलाती हुई वह बोली, ‘‘कड़ाही धो ही रहे हो तो बाकी के दोचार पड़े बरतन भी धो लेना, मुझे पापड़ बड़ी डालतेडालते देर हो जाएगी… फिर रात का खाना भी तो बनाना है.‘‘

अंदर से खीज खाता, पकौड़े खाने की तीव्र इच्छा पर खुद को कोसता, फिल्मी दुनिया का अभीअभी पैदा हुआ मजनूं अपनी विवशता पर कराह उठा, ‘‘क्यों वह औरतों को मर्दों की बराबरी करने की बात कहता रहता है… नहींनहीं… अब ऐसे गलतसलत सिद्धांतों पर बात कभी नहीं करनी है. ख्वाहमख्वाह पत्नियों को बोलने का मौका दे देते हैं हम बेचारे पति लोग. ये पत्नियां भी न…. हर बात दिल पर ले लेती हैं. अरे भाई, आदमी बोल देता है कि औरत और मर्द बराबर होने चाहिए, पर ऐसा सच में थोड़े ही होना चाहिए… ऐसा हुआ तो प्रकृति का संतुलन नहीं बिगड़ जाएगा. कहां आदमी  अर्जुन सा वीर योद्धा, देशदुनिया की सुध लेने वाला और कहां औरत नाजुक, कमसिन नरगिस, श्रीदेवी, ऐश्वर्या की तरह नृत्य करने और मर्दों को रिझाने वाली… भला दोनों की बराबरी किस कदर हो सकती है? मैं भी न बेकार की ही ऐसी बातें करता हूं…. ‘‘

अब बारी थी बेसन, हलदी, नमक और पानी की… ‘‘अब इन्हें कहांकहां खोजता फिरूं?‘‘

पति के मन की बात पत्नियां बिना कहे ही जान लेती हैं, यह बात चरितार्थ इस बात से हुई कि पत्नी ने मेरे बिना पूछे ही बाहर से पुकार कर कहा, ‘‘बाईं तरफ दूसरी दराज में छोटी पतीली रखी है और उस के बगल वाली दराज में मसाले का डब्बा है… हलदी, नमक सब उसी में है.‘‘

‘‘और बेसन..?‘‘ मैं ने तपाक से पूछ लिया. क्या पता थोड़ी देर और हो जाए और पत्नी का मूड न रहे तो ख्वाहमख्वाह लेक्चर सुनना पड़े.

‘‘सामने ऊपर के खाने में है, निकाल लो… नया पैकेट है… पास ही स्टील का डब्बा पड़ा है, पैकेट काट कर बेसन उस डब्बे में भर देना.‘‘

चुपचाप किसी आज्ञाकारी बालक की तरह मैं अपनी ज्ञानगुरु का कहा करता रहा. खैर, बेसन और प्याज का घोल तैयार हुआ. कड़ाही चढ़ा दी गई… पर, अब तेल कहां से आए…?

‘‘एक पकौड़े के लिए क्याक्या पापड़ बेलने पड़ रहे हैं,‘‘ मैं बुदबुदाया.

पत्नी का वाईफाई कनैक्शन चरम सीमा पर था. वहीं से सुन कर ताना देते हुए वह बोलीं, ‘‘पापड़ बेलने पड़ें तो न जाने क्या हाल हो मियां मजनूं का…पकौड़े तक तो बना नहीं पा रहे… बारबार मुझे डिस्टर्ब कर रहे हैं… एक भी बड़ी ढंग की नहीं बन पा रही… अब मैं इधर ध्यान दूं कि तुम्हारी बातों का जवाब देती रहूं?‘‘

मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘बाप रे यह औरत है या एंटीना, धीरे से बोलो तो भी सुन लेती है… अब परेशान आदमी भला बुदबुदाए भी नहीं… इतना बोल गई, बस इतना ही बता देती कि तेल कहां है ?‘‘

मैं फिर बुदबुदाया. श्रीमतीजी का एंटीना फिर फड़का… पर, इस बार मेरे काम की बात हो गई, ‘‘अरे, जहां से बेसन निकाला है, वहीं तो पीछे तेल की बोतल रखी है, निकाल लो… एक चीज नहीं मिलती इन्हें.‘‘

मैं ने झट तेल की बोतल निकाल कर तेल कड़ाही में डाल दिया, पर अब की बार मैं श्रीमतीजी के एंटीने से सचमुच डर गया, ‘‘मैडम के सामने धीरे से बोलना भी भारी पड़ सकता है,‘‘ मैं ने मन ही मन सोचा.

अब सबकुछ तैयार था. बस गैस जलाने की देर थी और गरमागरम पकौड़े मेरे मुंह में. मन ही मन स्वाद लेता मैं लाइटर ढूंढने लगा. कमबख्त चूल्हे के नीचे पीछे की तरफ छुपा बैठा था. काफी देर ढूंढ़ने के बाद जब मिला तब लगा मैं ने जंग जीत ली… वरना बीच में तो फिर पत्नी से पूछने के भय से मेरा ब्लड प्रेशर लो होने लगा था. गैस जलाई, तेल गरम हो गया, फिर पत्नी की हिदायत के हिसाब से मैं ने छोटेछोटे गोले बना कर तेल में डाल दिए. महाराज, क्या बताऊं, ये पकौड़े देखने में ही छोटे थे… उछलउछल कर कैसे मेरा मुंह चिढ़ा रहे थे, मैं बता नहीं सकता. मैं भी उन्हें खुशी से उछलता देख भरा बैठा था, सोचा-‘‘कमबख्तों को जलाजला कर लाल कर दूंगा, फिर तेज दांतों से काटकाट कर चटनी बनाबना कर खा जाऊंगा… तब समझ में आएगा. इतना खूबसूरत मौसम, बाहर झूले पर पतली साड़ी में लिपटी भीगती रवीना मुझे खींच रही है और मैं यहां पकौड़े तल रहा हूं, बरतन धो रहा हूं… हाय री, मेरी किस्मत.‘‘

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मेरी बेचैनी देख कुछ अच्छे ग्रह मेरी मदद के लिए आगे आए और तभी मेरी पत्नी अपना काम खत्म कर के रसोई में अंदर आई. अंदर घुसते ही वह लगभग चीख पड़ी, ‘‘यह क्या है…? चारों तरफ गंदगी फैला दी है तुम ने… अभीअभी किचन साफ किया था. उधर प्याज के छिलके पड़े हैं… इधर बेसन जमीन पर धूल चाट रहा है… मसाले के डब्बे में नमक, हलदी, मिर्च, पाउडर सब उलटेपलटे पड़े हैं… गैस के चूल्हे को बेसन के घोल से रंग दिया है तुम ने… चलो, निकलो रसोईघर से… एक काम करते नहीं कि दस काम बढ़ा देते हो… जाओ, जा कर बाहर बैठो झूले पर… मैं ले कर आती हूं तुम्हारे पकौड़े चाय के साथ,‘‘ कहते हुए श्रीमतीजी ने हाथ धोया, मेरे हाथ से करछी लगभग छीन ली और मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, ‘‘चलो जाओ, मैं बनाती हूं.‘‘

मौसम वैसे तो अभी भी बाहर बहुत रोमांटिक था, पर मैं ने इस बार कूटनीति से काम लेते हुए अपने अंदर के मजनूं को बिलकुल बाहर आने की इजाजत नहीं दी. कहीं अगर मैं प्यार दिखाने के चक्कर में यों ही कह देता कि जानेमन, मैं बना कर खिलाऊंगा तुम्हें और श्रीमतीजी मान जातीं कि ठीक है बनाओ…? तब मेरा क्या हाल होता?

एक आज्ञाकारी पति की तरह बात मान कर मैं रसोई से निकल कर फिर से झूले पर जा बैठा. रवीना, जूही, दीपिका सब नाराज दिख रही थीं, ‘‘कहां चले गए थे? ऐसी बेवकूफी भी कोई करता है क्या..? पत्नियों को तो आदत होती है, इस तरह रसोई के कामों में पतियों को ललकारने की, पर उन की ललकार सुन कर ऐसी मूर्खता कोई थोड़े ही न करता है… आगे से ऐसी बेवकूफी मत करना… चाणक्य नीति नहीं पढ़ी है क्या..?‘‘

उन्हें अपने लिए विकल देख कर मैं फिर रूमानी होने लगा. अभी मैं ने उन्हें अपनी आंखों में उतारना आरंभ ही किया था कि श्रीमतीजी पकौड़ों से भरी प्लेट और चाय ला कर रख गईं.

इस बार मैं ने समझदारी से काम लिया और अपनी रूमानियत फिल्मी तारिकाओं के लिए बचा कर रखी, पत्नी के सामने मुंह ही नहीं खोला. श्रीमतीजी दोबारा आईं और पानी का गिलास रख कर चली गईं.

मैं ने पकौड़े मुंह में डाले तो इतने स्वादिष्ठ लगे कि पूछो मत. हालांकि नमक कुछ ज्यादा ही था, पर फिर भी मैं ने पत्नी के सामने मुंह नहीं खोला.

चाय की चुसकियों के साथ गरमगरम लौकडाउन के पकौड़ों का चुपचाप मैं लुफ्त उठाता रहा. बाहर बारिश तेज हो गई थी और पत्नी अंदर अपने काम की तेजी में व्यस्त थी. मेरे अंदर का मर्द बारबार मुझे धिक्कार रहा था, ‘‘तू औरतों की बराबरी नहीं कर सकता है दोस्त, बस खयालों में खोना ही आता है तुझे… पति की ख्वाहिशों को आकार केवल पत्नियां ही दे पाती हैं, वरना तो पकौड़े पकौड़े को तरस जाए तू.‘‘

मैं समझदार तो हो ही चुका था, लिहाजा मैं ने तर्क न कर के चुप रहने में ही भलाई समझी और अखबार उठा कर पढ़ने लगा.

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