Hindi Story : उम्मीदें – तसलीमा ने थामा उम्मीद का दामन

Hindi Story : भारत से पाकिस्तान जाने वाली अंतिम समझौता एक्सप्रेस ट्रेन जैसे ही प्लेटफार्म पर आ कर लगी, तसलीमा को लगा कि उस का दिल बैठता जा रहा है.

उस ने अपने दोनों हाथों से उन 3 औरतों को और भी कस कर पकड़ लिया जिन के जीने की एकमात्र उम्मीद तसलीमा थी और अब न चाहते हुए भी उन औरतों को इन के हाल पर छोड़ कर उसे जाना पड़ रहा था, दूर, बहुत दूर, सरहद के पार, अपनी ससुराल.

तसलीमा का शौहर अनवर हर 3 महीने बाद ढेर सारे रुपयों और सामान के साथ उसे पाकिस्तान से भारत भेज देता ताकि वह मायके में अपने बड़े होने का फर्ज निभा सके. बीमार अब्बू के इलाज के साथ ही अम्मी की गृहस्थी, दोनों बहनों की पढ़ाई, और भी जाने क्याक्या जिम्मेदारियां तसलीमा ने अपने पति के सहयोग से उठा रखी हैं पर अब इस परिवार का क्या होगा?

तसलीमा के दोनों भाई तारिक और तुगलक जब से एक आतंकवादी गिरोह के सदस्य बने हैं तब से अब्बू भी बीमार रहने लगे. उन का सारा कारोबार ही ठप पड़ गया. ऊपर से थाने के बारबार बुलावे ने तो जैसे उन्हें तोड़ ही दिया. बुरे समय में रिश्तेदारों ने भी मुंह फेर लिया. अकेले अब्बू क्याक्या संभालें, एक दिन ऐसा आ गया कि घर में रोटी के लाले पड़ गए.

ऐसे में बड़ी बेटी होने के नाते तसलीमा को ही घर की बागडोर संभालनी थी. वह तो उसे अनवर जैसा शौहर मिला वरना कैसे कर पाती वह अपने मायके के लिए इतना कुछ.

तसलीमा सोचने लगी कि अब जो वह गई तो जाने फिर कब आना हो पाए. कई दिनों की दौड़धूप के बाद तो किसी तरह उस के अब्बू सरहद पार जाने वाली इस आखिरी ट्रेन में उस के लिए एक टिकट जुटा पाए थे.

कमसिन कपोलों पर चिंता की रेखाएं लिए तसलीमा दाएं हाथ से अम्मी को सहला रही थी और उस का बायां हाथ अपनी दोनों छोटी बहनों पर था.

तसलीमा ने छिपी नजरों से अब्बू को देखा जो बारबार अपनी आंखें पोंछ रहे थे और साथ ही नन्हे असलम को गोद में खिला रहे थे. उन्हें देख कर उस के मन में एक हूक सी उठी. बेचारे अब्बू की अभी उम्र ही क्या है. समय की मार ने तो जैसे उन्हें समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया है.

नन्हे असलम के साथ बिलकुल बच्चा बन जाते हैं. तभी तो वह जब भी अपने नाना के घर हिंदुस्तान आता है, उन से ही चिपका रहता है.

लगता है, जैसे नाती को गले लगा कर वह अपने 2-2 जवान बेटों का गम भूलने की कोशिश करते हैं पर हाय रे औलाद का गम, आज तक कोई भूला है जो वह भूल पाते?

तसलीमा ने अपने ही मन से पूछा, ‘क्या खुद वह भूल पाई है अपने दो जवान भाइयों को खोने का गम?’

ससुराल में इतनी खुशहाली और मोहब्बत के बीच भी कभीकभी उस का दिल अपने दोनों छोटे भाइयों के लिए क्या रो नहीं पड़ता? अनवर की मजबूत बांहों में समा कर भी क्या उस की आंखें अपने भाइयों के लिए भीग नहीं जातीं? अगर वह अपने भाइयों को भूल सकी होती तो अनवर के छोटे भाइयों में तारिक और तुगलक को ढूंढ़ती ही क्यों?

‘‘दीदी, देखो, अम्मी को क्या हो गया?’’

तबस्सुम की चीख से तसलीमा चौंक उठी.

खयालों में खोई तसलीमा को पता ही नहीं चला कि कब उस की अम्मी उस की बांहों से फिसल कर वहीं पर लुढ़क गईं.

‘‘यह क्या हो गया, जीजी. अम्मी का दिल तो इतना कमजोर नहीं है,’’ सब से छोटी तरन्नुम अम्मी को सहारा देने के बजाय खुद जोर से सिसकते हुए बोली.

अब तक तसलीमा के अब्बू भी असलम को गोद में लिए ही ‘क्या हुआ, क्या हुआ’ कहते हुए उन के पास आ गए.

तसलीमा ने देखा कि तीनों की जिज्ञासा भरी नजरें उसी पर टिकी हैं जैसे इन लोगों के सभी सवालों का जवाब, सारी मुश्किलों का हल उसी के पास है. उस के मन में आ रहा था कि वह  खूब चिल्लाचिल्ला कर रोए ताकि उस की आवाज दूर तक पहुंचे… बहुत दूर, नेताओं के कानों तक.

पर तसलीमा जानती है कि वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि अगर वह जरा सा भी रोई तो उस के अब्बू का परिवार जो पहले से ही टूटा हुआ है और टूट जाएगा. आखिर वही तो है इन सब के उम्मीद की धुरी. अब जबकि कुछ ही मिनटों में वह इन्हें छोड़ कर दूसरे मुल्क के लिए रवाना होने वाली है, उन्हें किसी भी तरह की तकलीफ नहीं देना चाहती थी.

समझौता एक्सप्रेस जब भी प्लेटफार्म छोड़ती है, दूसरी ट्रेन की अपेक्षा लोगों को कुछ ज्यादा ही रुला जाती है. यही इस गाड़ी की विशेषता है. आखिर सरहद पार जाने वाले अपनों का गम कुछ ज्यादा ही होता है, पर आज तो यहां मातम जैसा माहौल है.

कहीं कोई सिसकियों में अपने गम का इजहार कर रहा है तो कोई दिल के दर्द को मुसकान में छिपा कर सामने वाले को दिलासा दे रहा है. आज यहां कोसने वालों की भी कमी नहीं दिखती. कोई नेताओं को कोस रहा है तो कोई आतंकवादियों को, जो सारी फसाद की जड़ हैं.

तसलीमा किसे कोसे? उसे तो किसी को कोसने की आदत ही नहीं है. सहसा उसे लगा कि काश, वह औरत के बजाय पुरुष होती तो अपने परिवार को इस तरह मझधार में छोड़ कर तो न जाती.

मन जितना अशांत हो रहा था स्वर को उतना ही शांत बनाते हुए तसलीमा बोली, ‘‘अम्मी को कुछ नहीं हुआ है, वह अभी ठीक हो जाएंगी. तरन्नुम, रोना बंद कर और जा कर अम्मी के लिए जरा ठंडा पानी ले आ और अब्बू, आप मेरा टिकट कैंसल करवा दो. मैं आप लोगों को इस हालात में छोड़ कर पाकिस्तान हरगिज नहीं जाऊंगी.’’

टिकट कैंसल करने की बात सुनते ही अम्मी को जैसे करंट छू गया हो, वह धीरे से बोलीं, ‘‘कुछ नहीं हुआ मुझे. बस, जरा चक्कर आ गया था. तू फिक्र न कर लीमो, अब मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

इतने में तरन्नुम ठंडा पानी ले आई. एक घूंट गले से उतार कर अम्मी फिर बोलीं, ‘‘कलेजे पर पत्थर रख कर तेरा रिश्ता तय किया था मैं ने. लेदे कर एक ही तो सुख रह गया है जिंदगी में कि बेटी ससुराल में खुशहाल है, वह तो मत छीन. अरे, ओ लीमो के अब्बू, मेरी लीमो को ले जा कर गाड़ी में बैठा दीजिए. आ बेटा, तुझे सीने से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं,’’ इतना कह कर अम्मी अब्बू की गोद से नन्हे असलम को ले कर पागलों की तरह चूमने लगीं.

शायद नन्हे असलम को भी इतनी देर में विदाई की घंटी सुनाई पड़ने लगी. वह रोंआसा हो कर इन चुंबनों का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा.

इतने में तीनों बहनें एकदूसरे से विदा लेने लगीं.

तबस्सुम धीरे से तसलीमा के कान में बोली, ‘‘दीदी, आप बिलकुल फिक्र न करो, आज से घर की सारी जिम्मेदारी मेरी है, मैं अम्मी और तरन्नुम को यहां संभाल लेती हूं, आप निश्ंिचत हो कर जाओ.’’

तसलीमा ने डबडबाई आंखों से तबस्सुम को देखा. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की चुलबुली बहन आज कितनी बड़ी हो गई है. सच, जिम्मेदारी उठाने के लिए उम्र नहीं, शायद परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती हैं.

असलम को गोद में ले कर तसलीमा चुपचाप अब्बू और कुली के पीछे चल दी. वह जानती थी कि अब अगर आगे उस ने कुछ कहने की कोशिश की या पीछे मुड़ कर देखा तो बस, सारी कयामत यहीं बरपा हो जाएगी.

जब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी रही, अब्बू ने अपनेआप को सामान सजाने में व्यस्त रखा और तसलीमा ने अपने आंसुओं को रोकने में. पर गाड़ी की सीटी बजते ही उसे लगा कि अब बस, कयामत ही आ जाएगी.

जैसेजैसे अब्बू पीछे छूटने लगे, वह प्लेटफार्म भी पीछे छूटने लगा जहां की एक बेंच पर उस की अम्मी बहनों को साथ लिए बैठी हैं, वह शहर पीछे छूटने लगा जहां वह नाजों पली, वह वतन पीछे छूटने लगा जिसे तसलीमा परदेस जा कर और ज्यादा चाहने लगी थी.

तसलीमा को लगा कि गाड़ी की बढ़ती रफ्तार के साथ उस के आंसुओं की रफ्तार भी बढ़ रही है. अपने आंसुओं की बहती धारा में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि कब नन्हा असलम सुबकने लगा. भला अपनी मां को इस तरह रोता देख कौन बच्चा चुप रहेगा?

‘‘बच्चे को इधर दे दो, बहन. जरा घुमा लाऊं तो इस का मन बहल जाएगा. आ मुन्ना, आ जा,’’ कह कर किसी ने असलम को उस की गोद से उठा लिया. वह थी कि बस, दुपट्टे में चेहरा छिपा कर रोए जा रही थी. उस ने यह भी नहीं देखा कि उस के बच्चे को कौन ले जा रहा है.

आखिर जब शरीर में न तो रोने की शक्ति बची और न आंखों में कोई आंसू बचा तो तसलीमा ने धीरे से चेहरा उठा कर चारों तरफ देखा. उस डब्बे में हर उम्र की महिलाएं मौजूद थीं. पर किसी की गोद में उस का असलम नहीं था और न ही आसपास कहीं दिखाई दे रहा था. मां का दिल तड़प उठा. अब वह क्या करे? कहां ढूंढ़े अपने जिगर के टुकड़े को?

इतने में एक नीले बुरके वाली युवती अपनी गोद में असलम को लिए उसी के पास आ कर बैठ गई. तसलीमा ने लपक कर अपने बच्चे को गोद में ले लिया और बोली, ‘‘आप को इस तरह मेरा बच्चा नहीं ले कर जाना चाहिए था. घबराहट के मारे मेरी तो जान ही निकल गई थी.’’

‘‘बहन, क्या करती, बच्चा इतनी बुरी तरह से रो रहा था और आप को कोई होश ही नहीं था. ऐसे में मुझे जो ठीक लगा मैं ने किया. थोड़ा घुमाते ही बच्चा सो गया. गुस्ताखी माफ करें,’’ युवती ने मीठी आवाज में कहा.

शायद यह उस के मधुर व्यवहार का ही अंजाम था कि तसलीमा को सहसा ही अपने गलत व्यवहार का एहसास हुआ. वाकई असलम नींद में भी हिचकियां ले रहा था.

‘‘बहन, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए कि तुम ने मेरा उपकार किया और मैं एहसान मानने के बदले नाराजगी जता रही हूं,’’ थोड़ा रुक कर तसलीमा फिर बोली, ‘‘दरअसल, इन हालात में मायका छोड़ कर मुझे जाना पड़ेगा, यह सोचा नहीं था.’’

‘‘ससुराल तो जाना ही पड़ता है बहन, यही तो औरत की जिंदगी है कि जाओ तो मुश्किल, न जाओ तो मुश्किल,’’ नीले बुरके वाली युवती बोली, साथ ही उस का मुसकराता चेहरा कुछ फीका पड़ गया.

‘‘हां, यह तो है,’’ तसलीमा बोली, ‘‘पहले जब भी ससुराल जाती थी तो मायके वालों से दोबारा मिलने की उम्मीद तो रहती थी, मगर इस बार…’’ इतना कहतेकहते तसलीमा को लगा कि उस का गला फिर से रुंध रहा है.

फिर उस ने बात बदलने के लिए पूछा, ‘‘आप अकेली हैं?’’

‘‘हां, अकेली ही समझो. जिस का दामन पकड़ कर यहां परदेस चली आई थी, वह तो अपना हुआ नहीं, तब किस के सहारे यहां रहती. इसलिए अब वापस पाकिस्तान लौट रही हूं. वहां रावलपिंडी के पास गांव है, वैसे मेरा नाम नजमा है और तुम्हारा?’’

‘‘तसलीमा.’’

तसलीमा सोचने लगी कि इनसान भी क्या चीज है. हालात के हाथों बिलकुल खिलौना. किसी और जगह मुलाकात होती तो हम दो अजनबी महिलाओं की तरह दुआसलाम कर के अलग हो जाते पर यहां…यहां दोनों ही बेताब हैं एकदूसरे से अपनेअपने दर्द को कहने और सुनने के लिए, जबकि दोनों ही जानती हैं कि कोई किसी का गम कम नहीं कर सकता पर कहनेसुनने से शायद तकलीफ थोड़ा कम हो और फिर समय भी तो गुजारना है. इसी अंदाज से तसलीमा बोली, ‘‘क्या आप के शौहर ने आप को छोड़ दिया है?’’

‘‘नहीं, मैं ने ही उसे छोड़ दिया,’’ नजमा ने एक गहरी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘सच्ची मुसलमान हूं, कैसे रहती उस काफिर के साथ जो अपने लालची इरादों को मजहब की चादर में ढकने की नापाक कोशिश कर रहा था.’’

तसलीमा गौर से नजमा को देख रही थी, शायद उस के दर्द को समझने की कोशिश कर रही थी.

इतने में नजमा फिर बोली, ‘‘जब पाकिस्तान से हम चले थे तो उस ने मुझ से कहा था कि हिंदुस्तान में उसे बहुत अच्छा काम मिला है और वहां हम अपनी मुहब्बत की दुनिया बसाएंगे, पर यहां आ कर पता चला कि वह किसी नापाक इरादे से भारत भेजा गया है जिस के बदले उसे इतने पैसे दिए जाएंगे कि ऐशोआराम की जिंदगी उस के कदमों पर होगी.

‘‘मुझ से मुहब्बत सिर्फ नाटक था ताकि यहां किसी को उस के नापाक इरादों पर शक न हो. मजहब और मुहब्बत के नाम पर इतना बड़ा धोखा. फिर भी मैं ने उसे दलदल से बाहर निकालने की कोशिश की थी. कभी मुहब्बत का वास्ता दे कर तो कभी आने वाली औलाद का वास्ता दे कर, पर आज तक कोई दलदल से बाहर निकला है जो वह निकलता. हार कर खुद ही निकल आई मैं उस की जिंदगी से. आखिर मुझे अपनी औलाद को एक नेकदिल इनसान जो बनाना है.’’

तसलीमा ने देखा कि अपने दर्द का बयान करते हुए भी नजमा के होंठों पर आत्मविश्वास की मुसकान है, आंखों में उम्मीदें हैं. उस ने दर्द का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.

क्या नजमा का दर्द उस के दर्द से कम है? नहीं तो? फिर भी वह मुसकरा रही है, अपना ही नहीं दूसरों का भी गम बांट रही है, अंधेरी राहों में उम्मीदों का चिराग जला रही है. वह ऐसा क्यों नहीं कर सकती? फिर उस के पास तो अनवर जैसा शौहर भी है जो उस के एक इशारे पर सारी दुनिया उस के कदमों पर रख दे. क्या सोचेंगे उस के ससुराल वाले जब उस की सूजी आंखों को देखेंगे. कितना दुखी होगा अनवर उसे दुखी देख कर.

नहीं, अब वह नहीं रोएगी. उस ने खिड़की से बाहर देखा. जिन खेत-खलिहानों को पीछे छूटते देख कर उस की आंखें बारबार भीग रही थीं, अब उन्हीं को वह मुग्ध आंखों से निहार रही थी. कौन कहता है कि इन रास्तों से दोबारा नहीं लौटना है? कौन कहता है सरहद पार जाने वाली ये आखिरी गाड़ी है? वह लौटेगी, जरूर लौटेगी, इन्हीं रास्तों से लौटेगी, इसी गाड़ी में लौटेगी, जब दुनिया नहीं रुकती है तो उस पर चलने वाले कैसे रुक सकते हैं?

तसलीमा ने असलम को सीने से लगा लिया और नजमा की तरफ देख कर प्यार से मुसकरा दी. अब दोनों की ही आंखें चमक रही थीं, दर्द के आंसू से नहीं बल्कि उम्मीद की किरण से.

Hindi Story : मुझे डाकू बनाया गया – एक आम इंसान कैसे बन गया डाकू

Hindi Story : हरसिंगार अपने छोटे से दवाखाने में एक मरीज को देख रहा था कि अचानक सबइंस्पैक्टर चट्टान सिंह अपने कुछ साथियों के साथ वहां आ गया और उसे गाली देते हुए बोला, ‘‘डाक्टर के बच्चे, तुम डकैत नारायण को अपने घर में जगह देते हो और डाके की रकम में हिस्सा लेते हो?’’

हरसिंगार गालीगलौज सुन कर सन्न रह गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के ऊपर इतना गंभीर आरोप लगाया जाएगा.

हरसिंगार खुद को संभालता हुआ बोला, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मुझे अपने पेशे से छुट्टी नहीं मिलती, फिर चोरडकैतों से मेलजोल कैसे करूंगा? शायद आप को गलतफहमी हो गई है या किसी ने आप के कान भर दिए हैं.’’

चट्टान सिंह का पारा चढ़ गया. उस ने हरसिंगार को पीटना शुरू कर दिया. जो भी बीचबचाव करने पहुंचा, उसे भी 2-4 डंडे लगे.

मारपीट कर हरसिंगार को थाने में बंद कर दिया गया. उस पर मुकदमा चलाया गया. गवाही के कमी में फैसला उस के खिलाफ गया. उसे एक साल की कड़ी सजा मिली. गवाही पर टिका इंसाफ कितना बेकार, कमजोर और अंधा हो है. हरसिंगार करनपुर गांव का रहने वाला था, पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लाइसैंसशुदा डाक्टर बन गया था और उस ने बिजरा बाजार में अपना काम शुरू कर दिया था.

हरसिंगार बहुत ही नेक इनसान था. वह हर किसी के सुखदुख में शामिल होने की कोशिश करता था.

हरसिंगार के गांव का पंडित शिवकुमार एक टुटपुंजिया नेता और पुलिस का दलाल था. हरसिंगार उसे फूटी आंख नहीं सुहाता था. वह उसे नीचा दिखाने के लिए मौके की तलाश में लगा रहता. डकैत नारायण की हलचलों ने उस के मनसूबों को हवा दी और हरसिंगार उस की साजिश का शिकार बन गया.

पंडित शिवकुमार का तमाम नामी डाकुओं से संबंध था. डकैती के माल के बंटवारे में भी उस का हिस्सा होता था.

डाकू नारायण की हलचलें आसपास के गांवों में लोगों की नींद हराम किए हुए थीं. लोकल थाने को खानापूरी तो करनी थी. पंडित शिवकुमार के इशारे पर झूठ ने सच का गला दबोचा और हरसिंगार निशाना बना दिया गया.

हरसिंगार को कारागार की जिस कोठरी में रखा गया था, उसी में दूसरा फर्जी अपराधी रामदास बंद था. उस का कोई अपराध नहीं था. वह शहर के एक अमीर अपराधी की साजिश का शिकार बना था.

कुछ दिनों में ही हरसिंगार और रामदास दोस्त बन गए. एकदूसरे को समझने में उन्हें देर नहीं लगी.

एक दिन रामदास हरसिंगार से बोला, ‘‘तुम मुझ से बहुत छोटे हो. मुझे अंगरेजों के जमाने की बहुत सी बातें याद हैं. नेता कहते हैं कि अंगरेज भारत की धनदौलत लूट कर ले गए और देश को कंगाल बना दिया.

‘‘मैं भी मानता हूं कि देश कंगाल हो गया है. जमींदारों के जरीए अंगरेजों ने जनता को बहुत दबाया. अंगरेजों के भारत से चले जाने और जमींदारी खत्म हो जाने के बाद नेताओं, अफसरों और कारोबारियों ने जनता का खून चूसना शुरू कर दिया. शासक तो बदल गए, पर शासन के तौरतरीके में खास बदलाव नहीं हुआ.

‘‘आजादी मिलने से पहले लोग सोचते थे कि जब हम आजाद होंगे तो खुली हवा में सांस लेंगे. जोरजुल्म से छुटकारा पा जाएंगे, पर सबकुछ ख्वाब बन कर रह गया.

‘‘अंगरेजों के राज में चोरियां बहुत कम होती थीं, डकैतियां न के बराबर थीं. राहजनी का नामोनिशान नहीं था. यह अलग बात है कि वे अपने देश के फायदे के लिए गलत काम करते थे पर उन्होंने नियमकानूनों को ताक पर नहीं रख दिया था…’’

बोलतेबोलते रामदास जोश से भर उठा और अचानक उसे जोरों की खांसी आने लगी. खांसतेखांसते उस की सांस फूलने लगी.

हरसिंगार ने रामदास का सिर अपनी गोद में रख लिया और धीरेधीरे सहलाने लगा. कुछ देर बाद खांसी बंद हुई. हरसिंगार ने उसे एक गिलास पानी पिलाया, तब कहीं जा कर उस की हालत सुधरी.

जेल का कामकाज करने में वे दोनों ज्यादातर साथ रहा करते थे. अच्छा साथी मिल जाने पर समय भी अच्छी तरह कट जाता है.

एक साल बाद हरसिंगार को जेल से रिहा कर दिया गया. इस एक साल में ही उसे चारों ओर काफी बदलाव दिखाई देने लगा. उस की घर लौटने की इच्छा मर चुकी थी. वह जानता था कि घर पहुंचने पर गांव व पासपड़ोस के लोग ताने मार कर उस का कलेजा छलनी कर देंगे और उस का जीना दूभर हो जाएगा.

बहुत देर सोचने के बाद हरसिंगार अनजानी मंजिल की ओर चल पड़ा. घर वाले इंतजार कर रहे थे कि सजा खत्म होने पर जेल से छूटते ही वह घर लौट आएगा पर उन के जेल के फाटकपर पहुंचने से पहले ही वह वहां से जा चुका था.

महीनों बीत गए पर हरसिंगार का कहीं अतापता नहीं था. उस की बीवी उस का रास्ता देखती रही. बेटे के बहुत पूछने पर वह जवाब देती, ‘‘तुम्हारे बापू परदेश गए हैं. छुट्टी मिलने पर घर वापस आएंगे.’’

एक दिन रतीपुर थाने का असलहाघर लुट जाने और वहां के थाना इंचार्ज चट्टान सिंह की लाश के 4 टुकड़े कर दिए जाने की खबर ने आसपास के पूरे इलाके में दहशत फैला दी.

2 सिपाहियों के शरीर भी कई टुकड़ों में काट दिए गए थे. बेरहम हत्यारे छोटे से छोटा असलहा तक नहीं छोड़ गए थे. कई महीने तक लोगों की नींद हराम रही.

पुलिस वालों की ऐसी दर्दनाक हत्या पहले कभी सुनने में नहीं आई थी. प्रशासन थर्रा उठा. काफी छानबीन के बाद भी हत्यारे का कोई सुराग नहीं मिल पाया था.

शक के आधार पर लोग पकड़े जाते और ठोस सुबूत न होने के चलते छोड़ दिए जाते. महीनों तक यही सिलसिला चलता रहा.

लोग अब खुल कर कहने लगे थे कि जब पुलिस अपनी हिफाजत करने में नाकाम है, तो वह जनता की हिफाजत कैसे कर पाएगी.

रतीपुर थाने की वारदात के महीनों बाद भी उस इलाके के लोगों का डर दूर नहीं हुआ. सेठों, महाजनों और रईसों

के घरों में डाके पड़ने लगे. डकैतों का एक नया गिरोह हरकत में आ गया था. पासपड़ोस के सभी जिले इस गिरोह की चपेट में थे.

कभीकभी महीनों तक खामोशी रहती और अचानक धड़ाधड़ डकैतियों का सिलसिला चल पड़ता. इस गिरोह का सरदार लखना था. उस में गजब की फुरती थी. जो पुलिस वाला उस के सामने पड़ता, वह जिंदा न बचता. लखना कभी किसी गरीब और बेसहारा को नहीं सताता था. समय और जरूरत के मुताबिक वह उन की मदद भी करता था. धीरेधीरे गरीब लोग उस को बेहद चाहने लगे और वक्तजरूरत पर इस गिरोह के लोगों को पनाह भी देने लगे.

गरीब जनता का भरोसा लखना पर जितना जमता गया, पुलिस महकमे पर उतना ही घटता गया.

लखना पुलिस स्टेशन को सूचितकर देता कि आज फलां जगह डकैती डालूंगा. मगर पुलिस लखना के डर से उस के जाने के बाद ही मौके पर पहुंचती थी.

गरीबों का दुखदर्द जानने के लिए लखना हुलिया बदल कर गांवों में घूमता रहता था. एक दिन वह तड़के ही किसान के रूप में विशनपुर गांव के उत्तरी छोर से निकला.

विशनपुर और महिलापुर की सरहद पर नीम का एक पेड़ था जिस के नीचे एक छोटा सा चबूतरा बना था. चबूतरे पर बैठी एक अधेड़ विधवा फूटफूट कर रो रही थी.

लखना का ध्यान उस की ओर गया तो वह उस के पास पहुंच कर बोला, ‘‘माई, तुम क्यों रो रही हो?’’

वह विधवा रुंधे गले से बोली, ‘‘5 साल पहले मेरे पति और बेटे को हैजा हो गया था. मैं अपनी बेटी के साथ बच गई. अब बेटी जवान हो चली है. उस के हाथ पीले करने की चिंता मुझे खाए जा रही है. शादी कोई हंसीखेल नहीं है. कहां से इतने रुपए इकट्ठे कर पाऊंगी?’’

विधवा की बातें सुन कर लखना का दिल भर आया और वह बोला, ‘‘माई, तुम लड़की ढूंढ़ो. आज से ठीक एक महीने बाद मैं इसी जगह पर मिलूंगा. पर ध्यान रखना कि यह बात किसी को पता न चले.’’

तय दिन और तय समय पर लखना नीम के चबूतरे पर पहुंचा. वहां विधवा पहले से ही मौजूद थी. लखना ने उसे कुछ रुपए दिए और जातेजाते कहा,

‘‘2 दिन बाद जरूरी सामान पहुंचना शुरू हो जाएगा.’’

आटा, चावल, दाल, चीनी, घी, तेल, बेसन, मैदा और लकड़ी समेत शादी में इस्तेमाल होने वाले सभी सामान तांगे पर लद कर विधवा के घर पहुंचने लगे.

गांव वाले अचरज में पड़ गए. शादी के दिन कन्यादान का इरादा कर के लखना भी वहां पहुंचा और समय पर कन्यादान किया. पुलिस को लखना के गांव में होने की खबर मिल चुकी थी. लखना के खिलाफ गई सभी मुहिमों में नाकाम होने के चलते पुलिस बहुत ही बदनाम हो चुकी थी. लेकिन वह इस सुनहरे मौके को गंवाना नहीं चाहती थी.

लखना भी बहुत चौकन्ना था. अपने साथियों के साथ वह गांव के बाहर के बगीचे में पहुंच गया.

पुलिस दल ने उसे ललकारा. दोनों ओर से गोलियों की बरसात होने लगी. पुलिस के कई जवान हताहत हुए. लखना के 2 साथी मारे गए और 2 उस के इशारे पर भाग निकले.

एक सनसनाती गोली लखना के सीने में लगी और वह वहीं जमीन पर गिर गया. गिरते समय उस की पगड़ी और मुंह पर बंधी काली पट्टी खिसक गई. सिपाही सूर्यपाल ने उसे पहचान लिया और हड़बड़ा कर बोला, ‘‘हरसिंगार भैया, तुम…’’

हरसिंगार ने टूटती आवाज में जवाब दिया, ‘‘हां सूर्यपाल, मैं ही हूं. तुम तो पुलिस में भरती हो गए. मैं भी अच्छी जिंदगी जीना चाहता था और उस दिशा में कदम बढ़े भी थे पर तुम्हारी खाकी वरदी ने मुझे डाकू बनने के लिए मजबूर कर दिया.’’

लखना के शरीर से बहुत ज्यादा खून निकल चुका था. वह कुछ और कहना चाहता था. उस के होंठ कुछकुछ हिले पर धड़कन अचानक रुक गई.

Hindi Story : रफ कौपी – इसकी उम्र का किसी को नहीं पता

Hindi Story : मेरी रफ कौपी मेरे हाथ में है, सोच रही हूं कि क्या लिखूं? काफीकुछ उलटापुलटा लिख कर काट चुकी हूं. रफ कौपी का यही हश्र होता है. कहीं भी कुछ भी लिख लो, कितनी ही काटापीटी मचा लो, मुखपृष्ठ से ले कर आखिरी पन्ने तक, कितने ही कार्टून बना लो, कितनी ही बदसूरत कर लो, खूबसूरत तो यह है ही नहीं और खूबसूरत इसे रहने दिया भी नहीं जाता. इस पर कभी कवर चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस कौपी का यह हाल क्यों कर रखा है, कोई यह पूछने की जुर्रत नहीं करता. अरे, रफ कौपी है, रफ. इस से बेहतर इस का और क्या हाल हो सकता है.

यह बदसूरत इसलिए कि कई बार पुरानी आधीभरी कौपियों के पीछे के खाली पृष्ठ काट कर स्टैप्लर से पिन लगा कर एक नई कौपी बना ली जाती है. रफ कौपी में खाली पृष्ठों का उपयोग हो जाता है. इसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता में रखना नहीं होता है. रफ है, रफ ही रहेगी.

इस में खिंची आड़ीतिरछी रेखाएं, ऊलजलूल बातें, तुकबंदियां, चुटकुले, मुहावरे, डाक्टर के नुसखे, कहानीकिस्से, मोबाइल नंबर, कोई खास बात, टाइम टेबल, किसी का जन्मदिन, मरणदिन, धोबी का हिसाब, किराने का सामान, कहीं जानेमिलने की तारीख, किसी का उधार लेनादेना, ये सारी बातें इसे बदसूरत बनाती हैं.

दरअसल, इन बातों के लिखने का कोई सिलसिला नहीं होता है. जब जहां चाहा, जो चाहा, टीप दिया. कुछ समझ में नहीं आया तो काट दिया या पेज ही फाड़ कर फेंक दिया. पेज न फाड़ा जाए, ऐसी कोई रोकटोक नहीं है.

भर जाने पर फिर से एक नई या जुगाड़ कर बनाई गई रफ कौपी हाथ में ले ली जाती है. भर जाने पर टेबल से हटा कर रद्दी के हवाले या फिर इस के पृष्ठ, रूमाल न मिलने पर, छोटे बच्चों की नाक व हाथ पोंछने के काम भी आते हैं. हां, कभीकभी किसी आवश्यक बात के लिए रद्दी में से टटोल कर निकाली भी जाती है रफ कौपी. ऐसा किसी गंभीर अवस्था में होता है. वरना रफ कौपी में याद रखने लायक कुछ खास नहीं होता.

आदत तो यहां तक खराब है कि जो भी कागज खाली मिला उसी पर कुछ न कुछ टीप दिया. इसे हम डायरी की श्रेणी में नहीं रख सकते, क्योंकि डायरी गोपनीय होती है और उसे छिपा कर रखा जाता है. उस का काम भी गोपनीय होता है. इसी से बहुत बार व्यक्ति के मरने के बाद डायरी ही उस व्यक्ति के गोपनीय रहस्य उजागर करती है.

रफ कौपी में यह बात नहीं है. एकदम सड़कछाप की तरह टेबल पर पड़ी रहती है, जिस का जब मन चाहे उस पर लिख कर चला जाता है. सच बात बता दूं, यह रफ कौपी मेरे लिए बड़ी सहायक रही है. मैं ने अपने हस्ताक्षर इसी पर काटापीटी कर बनाने का अभ्यास किया. बहुत सी कविताएं इसी पर लिखीं, तुकबंदी भी की. विशेषपत्रों की ड्राफ्ंिटग भी इसी पर की. विशेष सूचनाएं व पते भी इसी पर लिखे. पत्रपत्रिकाओं के पते व ईमेल आज भी यहांवहां लिखे मिल सकते हैं.

यह तो मेरी अब की रफ कौपी है. पहली रफ कौपी सही तरीके से हाईस्कूल में हाथ में आई. तब टीचर कक्षा का प्रतिदिन का होमवर्क रफ कौपी में ही नोट कराती थीं. पहले छात्रों के पास डायरी नहीं होती थी, वे रफ कौपी में नोट्स बनवातीं. ब्लैकबोर्ड पर जो लिखतीं उसे रफ कौपी में उतारने का आदेश देतीं. उस समय रफ कौपी क्या हाथ लगी, कमाल ही हो गया. पीछे की पंक्ति में बैठी छात्राएं टीचर का कार्टून बनातीं. कौपी एक टेबल से दूसरी टेबल पर गुजरती पूरी कक्षा में घूम आती और छात्राएं मुंह पर दुपट्टा रख कर मुसकरातीं.

टीचर की शान में जुगलबंदी भी हो जाती. आपस में कमैंट्स भी पास हो जाते. कहीं जाने या क्लास बंक करने का कार्यक्रम भी इसी पर बनता. कई बार कागज फाड़ कर तितली या हवाई जहाज बना कर हम सब खूब उड़ाते. कभी टीचर की पकड़ में आ जाते, कभी नहीं.

थोड़ा और आगे बढ़े तो रफ कौपी रोमियो बन गई. मन की प्यारभरी भाषा को इसी ने सहारा दिया. शेरोशायरी इसी पर दर्ज होती, कभी स्वयं ईजाद करते, तो कभी कहीं से उतारते. प्रथम प्रेमपत्र की भाषा को इसी ने सजाना सिखाया. इसी का प्रथम पृष्ठ प्रेमपत्र बना जब कुछ लाइनें लिख कर कागज का छोटा सा पुर्जा किताब में रख कर खिसका दिया गया.

इशारोंइशारों में बातें करना इसी ने समझाया. ऐसेऐसे कोडवर्ड इस में लिखे गए जिन का संदर्भ बाद में स्वयं ही भूल गए. लिखनाकाटना 2 काम थे. उस की भाषा वही समझ सकता था जिस की कौपी होती थी. सहेलियों के प्रेमप्रसंग, कटाक्ष और जाने क्याक्या होता. फिल्मी गानों की पंक्तियां भी यहीं दर्ज होतीं.

जीवन आगे खिसकता रहा. रफ कौपी भी समयानुसार करवट लेती रही, लेकिन उस का कलेवर नहीं बदला. पति के देर से घर लौटने तथा उन की नाइंसाफी की साक्षी भी यही कौपी बनी.

रफ कौपी आज भी टेबल पर पड़ी है और यह लेख भी मैं उसी की नजर कर उसी पर लिख रही हूं. आप को भी कुछ लिखना है, लिख सकते हैं. रफ कौपी रफ है न, इसीलिए रफ बातें लिख रही हूं. शायद आप रफ या बकवास समझ कर इसे पढ़ें ही न. क्या फर्क पड़ता है. रफ कौपी के कुछ और पृष्ठ बेकार हो गए. रफ कौपी रक्तजीव की तरह मरमर कर जिंदा होती रहती है. फिर भी एक बात तो है कि भले ही किताबों पर धूल की परत जम जाए पर रफ कौपी सदा सदाबहार रहती है.

हां, उस दिन जरूर धक्का लगा था जब पड़ोसिन कह गई थी कि वह रफ कौपी का इस्तेमाल कभी नहीं करती क्योंकि उसे हमेशा लगता कि वह खुद रफ कौपी है. उस के मातापिता बचपन में मर गए थे और मामामामी ने उसे पाला था. पढ़ायालिखाया जरूर था पर उस का इस्तेमाल घर में मामामामी, ममेरे भाईबहन रफ कौपी की तरह करते – ‘चिन्नी, पानी ला दे,’ ‘चिन्नी, मेरा होमवर्क कर दे,’ ‘चिन्नी, मेरी फ्रौक पहन जा,’ ‘चिन्नी, मेरे बौयफ्रैंड कल आए तो मां से कह देना कि तेरा क्लासफैलो है क्योंकि तू तो बीएड कालेज में है, मैं रैजीडेंशल स्कूल में.’ उस ने बताया कि वह सिर्फ रफ कौपी रही जब तक नौकरी नहीं लगी और उस ने प्रेमविवाह नहीं किया.

Hindi Story : कुसूर किस का है – क्या था सुनीता का गुनाह?

Hindi Story : ‘‘कुछ सुना…’’ ‘‘क्या?’’

‘‘सुनीता ने उस मोची से शादी कर ली.’’ ‘‘मोची… कौन मोची?’’

‘‘अरे वही मोची, जिस की सदर बाजार में जूतों की बड़ी सी दुकान है. जिस के यहां 8-10 नौकर जूते बनाने का काम करते हैं.’’ ‘‘तुम राजेश की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, वही राजेश.’’ ‘‘अरे, उस से तो सुनीता का चक्कर बहुत दिनों से चल रहा था.’’

‘‘फिर भी मांबाप ने इस ओर ध्यान नहीं दिया.’’ ‘‘अरे, कैसे ध्यान दें, आगे रह कर उन्होंने ही तो छूट दी थी.’’

‘‘सुनीता का पैर टेढ़ा है, फिर भी उस राजेश ने क्यों शादी कर ली?’’ ‘‘उस की खूबसूरती के चलते.’’

‘‘मगर, उस के टेढ़े पैर की वजह से उस की शादी बिरादरी में नहीं हो रही थी, इसलिए उस ने राजेश को चुना.’’ ‘‘राजेश को ही क्यों चुना? क्या उसे अपनी बिरादरी में ऐसा लड़का नहीं मिला?’’

‘‘सुना है, बिरादरी में जो भी लड़का देखने आता, टेढ़े पैर के चलते उसे खारिज कर देता था.’’ ‘‘मगर, सुनीता को राजेश में क्या दिखा?’’

‘‘अरे, उस की दौलत दिखी…’’ ‘‘कुछ भी हो, उस ने शादी कर के कमल सिंह का बोझ हलका कर दिया.’’

यह चर्चा कमल सिंह के घर के ठीक सामने खड़े हो कर महल्ले के सारे लोग कर रहे थे. चर्चा ही नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी राय भी दे रहे थे. कमल सिंह और उन की पत्नी मालती अपने घर में बैठ कर मातम मना रहे थे. वे महल्ले वालों के ताने सुन रहे थे. वे जोकुछ कह रहे थे, गलत नहीं था. सुनीता एकलौती लड़की है. उस ने गैरबिरादरी में शादी कर के अपने ऊंचे कुल के समाज में नाक कटा दी, जबकि एक से एक लड़के उन्होंने तलाश किए. मगर उस के टेढ़े पैर के चलते सब उसे खारिज करते रहे.

जैसेजैसे सुनीता की उम्र बढ़ती जा रही थी, कमल सिंह को शादी की चिंता सता रही थी, जबकि उस के टेढ़े पैर का ऐब ज्यादा दहेज दे कर मिटाना भी चाहा, मगर फिर भी किसी ने स्वीकार नहीं किया. इसी चिंता में वे दिनरात घुल रहे थे. सुनीता से राजेश के कैसे संबंध हुए, आइए आप को उस की कहानी बता दें.

सुनीता सुशील, सुंदर और पढ़ीलिखी लड़की थी. उस के पिता ने अपने समाज में जितने भी रिश्ते तय किए, सब उस के टेढ़े पैर की वजह से खारिज होते रहे. सुनीता ने भी अपने लैवल पर लड़के टटोलने शुरू कर दिए थे मगर वे जिस्मानी खिंचाव तक ही सिमटे रहे. एक दिन सुनीता राजेश की दुकान पर चप्पल खरीदने गई. काउंटर पर बैठे राजेश से उस की आंखें चार हुईं.

राजेश तब अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठ कर बातें कर रहा था. उस के एक दोस्त ने पूछा था, ‘राजेश, तुम कब शादी करोगे?’ ‘शायद इस जनम में तो नहीं होगी,’ राजेश बोला था.

‘क्यों नहीं होगी… यह भी कोई बात हुई. इतना अच्छा कारोबार है तुम्हारा… हर लड़की तुम से शादी करने के लिए तैयार रहती होगी,’ उस दोस्त ने कहा था. ‘मगर, मेरे समाज में ऐसी लड़की नहीं है.’

‘तो दूसरे समाज में कर लो,’ उस के दूसरे दोस्त ने सलाह दी थी. सुनीता चप्पल जरूर देख रही थी, मगर उस के कान उन सब की बातों पर लगे हुए थे. सेल्समैन जो भी चप्पल दिखा रहा था, उसे वह रिजैक्ट करती जा रही थी. बातें सुन कर वह राजेश के प्रति खिंचती जा रही थी. वह वहां ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहती थी. सेल्समैन उस पर झल्लाया हुआ था. उस ने ढेर सारी चप्पलें रख दी थीं, मगर सुनीता तो इस बहाने समय बिता रही थी.

काफी देर बाद सुनीता ने चप्पल पसंद कर पैक करवाई और भुगतान करने के लिए जब काउंटर पर पहुंची तो राजेश को वह कई पलों तक घूरती रही, फिर पलकें झुका लीं. वह भुगतान कर के बाहर निकल गई. राजेश की छवि उस के मन में ऐसी पैठ गई कि वह उस की याद में खो गई. उस से शादी की बात कैसे करे. वह लगातार 3 दिनों तक चप्पलें खरीदने के बहाने उस की दुकान पर जाती रही.

एक दिन भुगतान करते हुए राजेश ने कहा था, ‘मैडम, आप 3 दिनों से चप्पल खरीदने आ रही हैं…’ ‘हां, मैं जो भी चप्पल खरीद कर ले जाती हूं वह मेरी किसी न किसी सहेली को पसंद आ जाती है और वह ले ले लेती है,’ सुनीता झूठ बोल गई थी.

‘तब तो आप की पसंद बहुत अच्छी है’, राजेश ने कहा था. ‘आप ने सही पहचाना. इसी बहाने मैं भी आप को जान चुकी हूं,’ सुनीता बोली थी.

‘वह कैसे?’ ‘आप को अपने समाज में आप के लायक लड़की नहीं मिल रही है.’

‘आप ने कैसे जाना…?’ राजेश ने हैरानी से पूछा था. ‘और आप दूसरी बिरादरी में शादी करना चाहते हैं,’ सुनीता ने उस का जवाब न दे कर अपनी बात कही थी.

‘अरे, आप तो मन की बात जान लेती हैं,’ राजेश ने कहा था. ‘दूसरी बिरादरी में कोई लड़की मिली क्या…?’ सुनीता ने पूछा था.

‘नहीं, मगर यह आप क्यों पूछ रही हैं?’ ‘क्योंकि मैं ने एक लड़की देखी है आप के लिए.’

‘कौन है वह लड़की?’ ‘आप के सामने खड़ी है? क्या आप मुझ से शादी करेंगे?’ सुनीता ने यह कह कर राजेश के लिए कई सवाल छोड़ दिए. उस से तत्काल जवाब देते न बना.

कुछ देर बाद सुनीता ने पूछा, ‘क्या सोच रहे हैं?’ ‘सोच रहा हूं, बिना सोचेसमझे इतना बड़ा फैसला आप ने कैसे ले लिया, जबकि आप मुझे जानती भी नहीं हैं,’ राजेश ने कहा था.

‘3 दिनों तक आप को जानने के लिए ही तो मैं चप्पल खरीदने का नाटक कर रही थी.’ ‘मगर, आप ने कहा था…’

‘वह सब झूठ था…’ बीच में बात काट कर सुनीता बोली थी, ‘सहेलियों का तो बहाना था. दरअसल, आप को समझने के लिए मैं चप्पल खरीदने के बहाने आप की दुकान पर आती रही. अब क्या सोचा है आप ने?’ ‘तुम्हारे मांबाप…’

‘उन की चिंता छोड़ो. उन से विद्रोह करना पड़ेगा.’ ‘अगर नतीजा उलटा पड़ गया तो…’

‘मैं लड़की हो कर नहीं घबरा रही हूं, आप मर्द हो कर पीछे हट रहे हैं.’ ‘मैं तैयार हूं. कब करें शादी?’

‘जब आप कहें,’ सुनीता बोली थी. बात आईगई हो गई. वे मौके का इंतजार करने लगे. वे रोज मिलने लगे. अफवाह उड़ती रही कि उन दोनों में प्यार गहराता जा रहा है. एक दिन उन्होंने चुपचाप आर्य समाज मंदिर में जा कर शादी कर ली.

कमल सिंह और उन की पत्नी मालती पर मानो बिजली सी टूट पड़ी. सुनीता ने गैरबिरादरी में शादी कर के समाज में उन की नाक काट दी थी. सारे महल्ले वाले और रिश्तेदार उन पर थूथू कर रहे हैं. मगर वे कानों में तेल डाल कर चुपचाप सुन रहे हैं. अब इस में कुसूर किस का है? जातिबिरादरी का या सुनीता का, जबकि उस के समाज का कोई भी लड़का उस के साथ शादी करने को तैयार नहीं हुआ था. ऐसे में सुनीता ने यह फैसला ले कर क्या कोई गुनाह किया था?

Hindi Kahani : 34 किलोमीटर – सरकारी नौकरी की अनसुनी कहानी

Hindi Kahani : काफी जद्दोजेहद के बाद मोहन को नौकरी का जौइनिंग लैटर मिल ही गया. जहां वह ट्यूशन पढ़ाने जाता था, उन से पूछा, ‘‘यह जगह कहां है और वहां तक जाने के लिए कौन सा साधन मिलेगा ’’

‘‘अरे, बहुत सी डग्गामार गाड़ी मिल जाएंगी, किसी में भी बैठ जाना ’’ ट्यूशन सैंटर में एक शख्स ने बताया.

उस दिन बारिश भी हो रही थी. बताए मुताबिक मोहन एक डग्गामार गाड़ी में बैठ गया. ड्राइवर ने ठूंस कर अपनी गाड़ी भर ली.

अचानक एक औरत दौड़ते हुए आई, ‘‘अरे भैया, हमें भी ले चलो.’’

‘‘आप भी आ जाओ,’’ ड्राइवर ने दोटूक कहा.

‘‘अरे यार, अब कहां बिठाओगे ’’ मोहन ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्या बात करते हो भाई, अभी तो इस में 3 और सवारियां आ जाएंगी,’’ कह कर ड्राइवर ने उन्हें भी ठूंस लिया.

अचानक अंदर से एक आदमी बोला, ‘‘मेरी एक टांग तो भीतर ही नहीं आ रही है.’’

‘‘टांग हाथ में ले लो. बस, 40 मिनट की बात है.’’

‘‘टांग हाथ में ले लूं… तुम होश में तो हो…’’ वह आदमी गुस्से में चिल्लाया.

‘‘अरे, कहीं समेट लो,’’ ड्राइवर धीरे से बोला.

तभी अंदर से किसी बच्चे के रोने की आवाज आने लगी.

‘‘इसे चुप कराओ,’’ ड्राइवर ने कहा.

‘‘कैसे चुप कराएं  तुम ने दरवाजा तो बंद कर लिया, ऊपर से शीशा भी बंद किया हुआ है.’’

ड्राइवर ने जैसे ही दरवाजा खोला, तभी एक आदमी धड़ाम से नीचे गिरा.

‘‘सही से नहीं बैठ सकते हो ’’ ड्राइवर बोला.

‘‘बैठे कहां  पैसे वापस लाओ.’’

‘‘अरे भैया, गलती हो गई. क्यों पेट पर लात मार रहे हो  बैठ जाओ.’’

‘‘मगर, कहां बैठ जाएं ’’

‘‘अरे, यह बच्चा गोदी में ले लो… अब बैठ गए ’’

‘‘बैठ नहीं गए, आधे बैठे और आधे खड़े हैं.’’

‘‘चिंता मत करो. जल्दी ही पहुंच जाओगे.’’

अब मोहन को लगने लगा कि यह गाड़ी पहुंचेगी भी या यही सब होता रहेगा.

गाड़ी अभी थोड़ी ही दूर चली थी कि अचानक फिर से एक शख्स दौड़ता हुआ आ गया और बोला,

‘‘अरे, गेहूं की 2 बोरी हैं, इन्हें भी साथ लिए जाते.’’

‘‘छत पर रख दो… लो भैया, अब सब ओके. अब चलते हैं.’’

खैर, 10 किलोमीटर तो पहुंच गए. दूसरी साइड से डग्गामार गाड़ी ले जा रहे एक ड्राइवर ने हमारे ड्राइवर को बताया, ‘‘आज आरटीओ घूम रहा है. हमारा तो चालान कट गया है… और वह इधर ही आ रहा है.’’

हमारे ड्राइवर ने गाड़ी उलटी दिशा में घुमाई.

‘‘अरे, कहां लिए जा रहे हो भाई ’’ एक सवारी ने पूछा.

‘‘तुम्हें अपनी पड़ी है. चालान कट गया तो…’’ कह कर ड्राइवर ने गाड़ी पुल के नीचे उतार दी.

अंदर से एक सवारी की आवाज आई, ‘‘क्या कर रहे हो भाई  मार डालोगे क्या ’’

‘‘अरे भैया, हमारी भी तकलीफ समझो. अभी काट देगा वह हजार रुपए की परची,’’ ड्राइवर बोला.

डरीसहमी सवारियों को समझ में नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें.

अंदर से एक औरत बोली, ‘‘अगर मेरे बच्चे को कुछ हो जाता, तो हम तुम्हारा खून पी लेते.’’

गाड़ी में एक पुराने अध्यापक भी बैठे हुए थे. वे बोल पड़े, ‘‘पुल के नीचे गाड़ी ले जाना, यह तो मैं 10 साल से देख रहा हूं. चिंता मत करो, सब सहीसलामत पहुंच जाओगे.’’

गाड़ी का ड्राइवर बोला, ‘‘भैया, तुम जैसी सवारी मिल जाए, तो हम तो धन्य हो जाएं, नहीं तो रोज कोई मारने पर उतारू, तो कोई खून पीने को.

‘‘वैसे भी, टैंशन में पुडि़या खाखा कर सब खून सूख गया है. जो थोड़ाबहुत बचा है, वह तुम पी लो.’’

इस के बाद उस ड्राइवर ने किसी को फोन कर के पूछा, ‘‘रोड साफ है न ’’

दूसरी तरफ से उसे पता चला कि आगे एक गांव पड़ेगा, वहां से गाड़ी निकाल ले जाओ. लिहाजा, गाड़ी आगे चल दी.

‘‘लो भाई, आगे तो पानी भरा है,’’ ड्राइवर बोला, तभी अंदर से एक और सवारी की आवाज आई, ‘‘कालेज क्या शाम को पहुंचेंगे ’’

ड्राइवर बोला, ‘‘भाई लोगो, धक्का लगा दो.’’

कुछ मुसाफिर उतर गए और धक्का लगाने के बाद गाड़ी स्टार्ट हो गई.

इतने में ड्राइवर को तलब लगी. वह एक सवारी से बोला, ‘‘ओ भैया, जरा पुडि़या ले लेना.’’

इतना कह कर ड्राइवर ने गाना लगा दिया… ‘तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे’.

‘‘अरे यार, इतना साथ निभाए पड़े हैं और क्या करें ’’

ड्राइवर कुछ सीरियस हो गया, ‘‘भाई लोग, हमें डग्गामार कहा जाता है. डग्गामार का मतलब समझते हो  डग्गामार का मतलब है कि डग भर चलो, फिर मार.

‘‘मेरी बेटी बीमार है. अगर गाड़ी नहीं चलाऊंगा, तो इलाज के पैसे कहां से आएंगे ’’

‘‘ओह, शायद हर इनसान दर्द में ही जीता है,’’ एक सवारी ने कहा.

‘‘हां भैया, मेरे पिताजी ठेला लगाते थे. मैं ने लोन ले कर यह गाड़ी ली. घर का खर्चा भी इसी से चलाना है और बैंक का पैसा भी भरना है… सब लोग पैसे निकाल लो, चौराहा आने वाला है.’’

खैर, आखिरी पड़ाव आ ही गया. अचानक तेज बारिश होने लगी. मोहन के पास छाता नहीं था.

मोहन ने वहीं पड़ोस की दुकान से एक छाता खरीदा. अभी 8 किलोमीटर का सफर बचा था.

मोहन ने चौराहे पर खड़े एक आदमी से पूछा, ‘‘यह गांव कहां है ’’

‘‘यहां से यह गांव आप को 6 किलोमीटर पड़ेगा. तांगा पकड़ लो और कोई सवारी गाड़ी तो जाती ही नहीं. बारिश हो रही है, शायद वह भी न मिले, जो मिले उसी में बैठ जाना,’’ उस आदमी ने बताया.

एक ट्रैक्टर गुजरा. मोहन ने उस के ड्राइवर से कहा, ‘‘हमें भी बिठा लो.’’

‘‘भाई ट्रौली में बैठ जाओ.’’

ट्रौली में भूसा भरा था. मोहन ने उस में बैठने की कोशिश की, लेकिन वह ट्रौली के अंदर धड़ाम से गिरा और सारा भूसा उस के कपड़ों पर चिपक गया.

‘‘ओ भैया, संभल कर बैठो.’’

ट्रैक्टर से उतरने के बाद सामने गांव का स्कूल देख कर मोहन को बड़ी खुशी मिली. वहीं के एक आदमी से मोहन ने स्कूल का पता पूछा.

वह बोला, ‘‘भाई, आप गलत आ गए हो. यह तो नारायणपुर गांव है.’’

‘‘तो फिर यह गांव कहां है ’’

‘‘अभी आप को 2 किलोमीटर और आगे चलना पड़ेगा. सीधे चले जाना और सामने ही स्कूल होगा. कच्चा रास्ता है और कीचड़ बहुत है.’’

2 किलोमीटर चलने के बाद स्कूल मिल ही गया. पूरा स्कूल बारिश के पानी से टपक रहा था. हैडमास्टर एक कोने में दुबके बैठे थे.

मास्टर साहब ने जौइनिंग करा दी. स्कूल की छुट्टी के बाद दोबारा 2 किलोमीटर पैदल चलने के बाद सड़क मिली. दूर से ट्रक दिखाई पड़ा. मोहन ने उसे हाथ दिया.

‘‘10 रुपए किराया लगेगा.’’

‘‘बिठा लो भाई.’’

‘‘और भाई, स्कूल में मास्टर हो ’’

‘‘हां.’’

‘‘यह मेरा ड्राइविंग लाइसैंस है ट्रक का. मैं ने फार्म में इमरान भरा था और ड्राइविंग लाइसैंस में लिख दिया इमरान खान, यह कैसे सही होगा ’’

‘‘जिस ने तुम्हारा यह लाइसैंस बनाया है, उसी सरकारी मुलाजिम के पास जाना.

‘‘वह कहेगा खर्चापानी होगा, तो दे देना. सही हो जाएगा.

‘‘देखो, पहले फार्म से सरकार कमाती है और बाद में फार्म में गलती कर के सरकारी मुलाजिम कमाते हैं.’’

इमरान असली लोकतंत्र को समझने की कोशिश कर रहा था. उस ट्रक वाले को कहां तक समझ आया, यह तो उसी को पता होगा.

चौराहे पर आते ही मोहन ने तय कर लिया कि वह डग्गामार गाड़ी में नहीं बैठेगा. बसस्टैंड पहुंचा. थोड़ी देर में बस मिल गई.

बस में एक आदमी कोई चीज बेच रहा था. वह कह रहा था, ‘‘यह है इंडिया का पहला ऐसा चूरन, जिसे खाने के बाद हाजमा ठीक होगा. पेट में जमी गैस निकल जाएगी. भूख बढ़ाए. कीमत 10 रुपए.’’

पीछे से एक और आवाज आई, ‘‘यह है मुंबई का सुरमा. यह दूर करेगा आंख का जाला, मोतियाबिंद, रोशनी बढ़ेगी. चश्मा उतर जाएगा. कीमत है

10 रुपए. 10 रुपए…

‘‘भाई लोगो, आप के बगल वाले भाई ने खरीद लिया. आप भी खरीद लें. बस 10 शीशियां ही बची हैं मेरे पास.’’

इतने में एक औरत चढ़ी. उस के साथ शायद उस की बेटी थी.

‘‘मैं विधवा हूं. मदद कर दो बाबूजी. लड़की की शादी करनी है.’’

अचानक एक भाई साहब बोल पड़े, ‘‘10 साल से शादी कर रही है, अभी तक कर नहीं पाई ’’

वह औरत बोली, ‘‘तेरे कीड़े पड़ें. मेरी रोजी पर लात मार रहा है.’’

वह आदमी चुप. अब बस ने रफ्तार पकड़ ली. साथ ही, सारे मांगने वाले भी उतर लिए.

अपने शहर का बसअड्डा आ गया, लेकिन सामने खड़ी डग्गामार गाड़ी पर फिर मेरी नजर चली गई. कुछ यों भरी हुई, जैसे आगे वाली सीट पर शातिर कैदी ठुंसे हों और उस के पीछे जो लोग बैठे थे, वे यही कोशिश कर रहे थे कि काश, इस पर बैठने से पहले हाथपैर घर पर ही रख आते. जो पीछे लटके हुए थे, उन्हें देख कर मन खुश हो गया कि कम से कम ये तो बाइज्जत बरी हो चुके हैं.

अपनी गली में आते ही मोहन को यों लगा कि बड़ी जबरदस्त कुश्ती लड़ कर आया है. लो तब तक कल्लू का लड़का बोल ही पड़ा, ‘‘भैया आज तो उजड़े चमन लग रहे हो.’’

मोहन ने उस से कहा, ‘‘क्यों उलटा बोल रहा है  अब तो मेरी पक्की सरकारी नौकरी लग गई है.’’

वह मोहन को सवालिया नजरों से देखने लगा. मोहन का घर आ गया था और साथ ही बुखार भी.

Story : ओल्ड इज गोल्ड

Story : ‘‘आज का अखबार कहां है?’’ किशोरीलाल ने पत्नी रमा से पूछा.

‘‘अभी देती हूं.’’

‘‘अरे, आज तो इतवार है न, वो साहित्य वाला पेज कहां है?’’

‘‘ये रहा,’’ रमा ने सोफे के नीचे से मुड़ातुड़ा सा अखबार निकाल कर किशोरीलाल की तरफ बढ़ाया.

‘‘इसे तुम ने छिपा कर क्यों रखा था?’’

‘‘अरे, इस में आज एक कहानी आई है, बड़ी अजीब सी. कहीं हमारे बच्चे न पढ़ लें, इसलिए छिपा लिया था. लगता है आजकल के लेखक जरा ज्यादा ही आगे की सोचने लगे हैं.’’

‘‘अच्छा, ऐसा क्या लिख दिया है लेखक ने जो इतना कोस रही हो नए लेखकों को?’’ किशोरीलाल की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘लिखा है कि अगर मांबाप सैरसपाटे में बाधा बनें तो उन्हें अस्पताल में भरती करवा देना चाहिए चैकअप के बहाने.’’

‘‘अच्छा, जरा देखूं तो,’’ कहते हुए वे अखबार के संडे स्पैशल पेज में प्रकाशित युवा लेखिका की कहानी ‘स्थायी समाधान’ पढ़ने लगे.

कहानी के अनुसार नायक अपने बुजुर्ग पिता को ले कर परेशान था कि उन की सप्ताहभर की ऐसी व्यवस्था कहां की जाए जहां उन्हें खानेपीने की कोई दिक्कत न हो और उन के स्वास्थ्य का भी पूरा खयाल रखा जा सके क्योंकि उसे अपने परिवार सहित अपनी ससुराल में होने वाली शादी में जाना है. तब उस का दोस्त उसे समाधान बताता है कि वह अपने पिता को शहर में नए खुले होटल जैसे अस्पताल में चैकअप के बहाने भरती करवा दे क्योंकि  वहां भरती होने वालों की सारी जिम्मेदारी डाक्टरों और वहां के स्टाफ की होती है, खानेपीने से ले कर जांच और रिपोर्ट्स तक की. नायक को दोस्त का यह सुझाव बहुत पसंद आता है.

एक ही बार में किशोरीलाल पूरी कहानी पढ़ गए. रमा इस दौरान उन के चेहरे पर आतेजाते भावों को पढ़ रही थीं. चेहरे पर प्रशंसा के भावों के साथ जब उन्होंने अखबार समेटा तो रमा को आश्चर्य हुआ.

‘‘बिलकुल सही और व्यावहारिक समाधान सुझाया है लेखिका ने,’’ किशोरीलाल ने कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया दी.

‘‘क्या खाक सही सुझाया है? अरे, ऐसे भी कोई करता है अपने वृद्ध पिता के साथ?’’

‘‘तो तुम ही बताओ, ऐसे में उसे क्या करना चाहिए था?’’ रमा को तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा तो वे ही बोले, ‘‘अच्छा, तुम जाओ एक कप चाय और पिला दो, आज इतवार है.’

रिटायर्ड किशोरीलाल अपने परिवार के साथ एक सुखी जीवन जी रहे हैं. परिवार में पत्नी के अलावा बेटा आलोक और बहू रश्मि तथा किशोर पोती आयुषी है. बेटाबहू दोनों ही नौकरीपेशा हैं और पोती अभीअभी कालेज में गई है.

नौकरीपेशा होने के बावजूद बहू उन का बहुत खयाल रखती है और अपने सासससुर को पूरा मानसम्मान देती है. उन्हें भी बहू से कोई शिकायत नहीं है. पत्नी रमा रसोई में बहू की हर संभव सहायता करती हैं. दिन में उन्हें और पोती को गरमागरम खाना परोसती हैं और शाम को बहू के घर लौटने से पहले रात के खाने की काफीकुछ तैयारी कर के रखती हैं. वे खुद भी बाहर के छोटेमोटे काम जैसे फलसब्जीदूध लाना, पानीबिजली के बिल भरवाना आदि कर देते हैं. कुल मिला कर संतुष्ट हैं अपने पारिवारिक जीवन से.

किशोरीलाल को साहित्य से बड़ा प्रेम है. रोज 2 घंटे नियम से अच्छी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ना उन की दिनचर्या में शामिल है. रविवार को कालेज, औफिस में छुट्टी होने के कारण घर में सब देर तक सोते हैं, इसलिए किशोरीलाल और रमा आराम से बाहर बालकनी में बैठ कर सुबह की ताजा हवा का आनंद लेते हुए देर तक अखबार पढ़ते हैं, समाचारों पर चर्चा करते हैं और चाय की चुस्कियां लेते हैं. कभीकभी किसी न्यूज को ले कर दोनों के विचार नहीं मिलते तो यह चर्चा बहस में तबदील हो जाती है. तब किशोरीलाल को ही हथियार डालने पड़ते हैं पत्नी के आगे.

रमा चाय बनाने जा रही थीं कि बेटे ने आवाज लगाई, ‘‘मां, चाय हमारे लिए भी बना लेना.’’

बहू भी उठ कर आ गई, सब गपशप करते हुए चाय पी रहे थे. मगर रमा अपने बेटेबहू का चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही थीं. वे पढ़ना चाह रही थीं उस चेहरे को, जो इस चेहरे के पीछे छिपा था. मगर सफल नहीं हो सकीं क्योंकि उन्हें वहां छलकपट जैसा कुछ भी दिखाई नहीं दिया.

‘‘दादी, पता है, इस साल हम शिमला घूमने जाएंगे,’’ आयुषी ने दादी की गोद में सिर रखते हुए बताया.

‘‘अच्छा, लेकिन हमें तो किसी ने बताया ही नहीं.’’

‘‘अरे, अभी फाइनल कहां हुआ है? वो मम्मी की सहेली हैं न संगीता आंटी, वो जा रही हैं अपने परिवार के साथ. उन्होंने ही मम्मी को भी साथ चलने के लिए कहा है.’’

‘‘फिर, क्या कहा तेरी मम्मी ने?’’ रमा के दिमाग में फिर से सुबह वाली कहानी घूम गई.

‘‘कुछ नहीं, सोच कर बताएंगी, ऐसा कहा. दादी, प्लीज, हम जाएं क्या?’’ आयुषी ने उन के गले में बांहें डालते हुए कहा.

‘‘मैं ने कब मना किया?’’

‘‘वो मम्मी ने तो हां कर दी थी मगर पापा कह रहे थे कि आप लोगों का ध्यान कौन रखेगा. आप को अकेले छोड़ कर कैसे जा सकते हैं.’’

त?भी फोन की घंटी बजी और आयुषी बात अधूरी ही छोड़ कर फोन अटैंड करनी चली गई. रमा को बेटे पर प्यार उमड़ आया, सोच कर अच्छा लगा कि उन का बेटा कहानी वाले बेटे की तरह नहीं है. कई दिन हो गए मगर घर में फिर ऐसी कोई चर्चा न सुन कर उन्हें लगा कि शायद बात ठंडे बस्ते में चली गई है. मगर एक रात सोने से पहले किशोरीलाल ने फिर जैसे सांप को पिटारे से बाहर निकाल दिया.

‘‘बच्चे शिमला घूमने जाना चाहते हैं,’’ उन्होंने पत्नी से कहा.

‘‘तो, परेशानी क्या है?’’

‘‘वो हमें ले कर चिंतित हैं कि हमारा खयाल कौन रखेगा?’’

‘‘हमें क्या हुआ है? अच्छेभले

तो हैं. हम अपना खयाल खुद रख सकते हैं.’’

‘‘सो तो है मगर कई बार तुम्हें अचानक अस्थमा का दौरा पड़ जाता है, उसी की फिक्र है उन्हें. ऐसे में मैं अकेले कैसे संभाल पाऊंगा.’’

‘‘इतनी ही फिक्र है तो न जाएं, कोईर् जरूरी है क्या शिमला घूमना.’’

‘‘कैसी बातें करती हो? यह कोई हल नहीं है समस्या का. भूल गईं, हम दोनों भी कितना घूमते थे. आलोक को कहां ले जाते थे हर जगह, मांबाबूजी के पास ही छोड़ जाते थे अकसर. अब इन का भी तो मन करता होगा अकेले कहीं कुछ दिन साथ बिताने का.’’

‘‘सुनो, एक काम करते हैं. कुछ दिनों के लिए तुम्हारी बहन के यहां चलते हैं. कईर् बार बुला चुकी हैं वो. इस बहाने हमारा भी कुछ चेंज हो जाएगा,’’ किशोरीलाल ने समस्या के समाधान की दिशा में सोचते हुए सुझाव दिया.

‘‘नहीं, इस उम्र में मुझे किसी के भी घर जाना पसंद नहीं.’’

‘‘वो तुम्हारी अपनी बहन है.’’

‘‘फिर भी, हर घर के अपने नियमकायदे होते हैं और वहां रहने वालों को उन का पालन करना ही होता है. सबकुछ उन्हीं के हिसाब से करो, बंध जाते हैं कहीं भी जा कर. अपना घर अपना ही होता है. जहां चाहो छींको, जहां मरजी खांसो. जब चाहो सोओ, जब मन करे उठो,’’ रमा ने पति का प्रस्ताव सिरे से नकार दिया.

किशोरीलाल अपनी जवानी के दिन याद करने लगे. हर साल गरमी में उन के 3-4 दोस्त परिवार सहित हिल स्टेशन पर घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेते थे. आलोक तब छोटा था. वे उसे कभी उस के दादादादी और कभी नानानानी के पास छोड़ कर जाते थे क्योंकि छोटे बच्चे पहाड़ों पर पैदल नहीं चल सकते और उन्हें गोद में ले कर वे खुद नहीं चल सकते. ऐसे में मातापिता और बच्चे दोनों ही मौजमस्ती नहीं कर पाते. साथ ही, बच्चों के बीमार होने का भी डर रहता था. अपनी समस्या का उन्हें यही सटीक समाधान सूझता था कि आलोक को दादी या नानी के पास छोड़ दिया जाए. रमा भी शायद यही सबकुछ सोच रही थीं.

‘‘आलोक, तुम लोगों का क्या प्रोग्राम है शिमला का?’’ रमा ने पूछा तो आलोक और रश्मि चौंक कर एकदूसरे की

तरफ देखने लगे. किशोरीलाल अखबार पढ़तेपढ़ते मन ही मन मुसकरा दिए.

‘‘वो शायद कैंसिल करना पड़ेगा,’’ आलोक ने रश्मि की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’

‘‘आप दोनों अकेले रह जाएंगे और आयुषी के कालेज की तरफ से भी इस बार समरकैंप में बच्चों को शिमला ही ले जा रहे हैं ट्रैकिंग के लिए, तो वह भी हमारे साथ नहीं जाएगी. फिर हम दोनों अकेले जा कर क्या करेंगे.’’

‘‘अरे, यह तो और भी अच्छा हुआ, कहते हैं न कि किसी काम को करने की दिशा में अगर सोचने लगो तो रास्ता अपनेआप नजर आने लगता है.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अगर आयुषी तुम्हारे साथ नहीं जा रही तो हम तीनों यहां आराम से रहेंगे. घर मैं संभाल लूंगी और बाहर तुम्हारे पापा, और अगर हमारे बूते से बाहर का कुछ हुआ, तो ये हमारी पोती है न, नई पौध, जरूरत पड़ने पर यह पीढ़ी सब संभाल लेती है-घर भी और बाहर भी. और जब आयुषी समरकैंप में जाएगी तब तक तुम दोनों आ ही जाओगे.’’

‘‘अरे हां, एक रास्ता यह भी तो है. हमारे दिमाग के घोड़े तो यहां तक दौड़े ही नहीं,’’ आलोक ने खुश होते हुए कहा.

‘‘इसीलिए तो कहते हैं ओल्ड इज गोल्ड,’’ रमा ने कनखियों से अपने पति की तरफ देखते हुए कहा तो घर में एक सम्मिलित हंसी गूंज उठी.

Hindi Story : कारागार – जेलर ने इकबाल को जिंदगी जीने की दी हिम्मत

Hindi Story : महिला एवं बाल विकास संबंधी संयुक्त समिति विधानमंडल दल, उत्तर प्रदेश की सभापति होने के नाते मैं समिति द्वारा विभिन्न जिलों में विभिन्न विभागों का स्थलीय निरीक्षण करने पहुंची थी. उसी सिलसिले में बिजनौर जिले में चिकित्सा, बाल कल्याण, समाज कल्याण, शिक्षा इत्यादि विभागों का निरीक्षण करने के बाद हम जिला कारागार पहुंचे.

जिला कारागार में हम लोग 17 नवंबर, 2018 की सुबह पहुंचने वाले थे, लेकिन 16 नवंबर, 2018 का कार्यक्रम समय से खत्म हो जाने के चलते हम लोग 16 की शाम को ही जिला कारागार पहुंच गए. तय समय से पहले पहुंच जाने पर भी जेल अधीक्षक ने बहुत व्यवस्थित ढंग से पूरी जेल का निरीक्षण कराया और जब तक हम लोग जेल का निरीक्षण कर के वापस हुए, तब तक जेल के प्रांगण में माइक, मेज, कुरसी, दरी वगैरह चीजें लगा कर प्रांगण को सभा स्थल जैसा बना दिया गया था. मेज पर कुछ शील्ड और मैडल भी रखे गए थे.

जेलर आकाश शर्मा ने आग्रह करते हुए कहा, ‘‘सभापति महोदयाजी, जेल में पिछले दिनों कुछ प्रतियोगिताएं हुई थीं. हम चाहते हैं कि विजेताओं को आप अपने हाथों द्वारा पुरस्कृत करें.’’

‘‘ठीक है, मैं कर दूंगी. किसकिस चीज की प्रतियोगिताएं हुई हैं?’’

‘‘जी, गायन, रंगोली, डांस, कैरम, शतरंज और निबंध प्रतियोगिताएं कराई गई थीं.’’

‘‘इतनी सारी प्रतियोगिताएं… यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

बातचीत करते हुए हम लोग मंच तक पहुंचे और अपनीअपनी जगह पर बैठ गए.

जेलर महोदय ने अपने हाथ में माइक लिया और संचालन शुरू किया. सब से पहले दीप जला कर मेरा और समिति के सभी सदस्यों को मालाएं पहनाई गईं.

इस के बाद संचालक महोदय ने गायन और नृत्य प्रतियोगिता के पहले विजेता की पेशकश दिखाने की मु झ से इजाजत मांगी. मैं ने मुसकरा कर हां बोल दिया.

संचालक ने गायन प्रतियोगिता में पहले नंबर पर आए मुहम्मद इकबाल को आवाज दी. मुहम्मद इकबाल ने हंसतेमुसकराते माइक हाथ में लिया और जब गाना शुरू किया तो सब की नजरें उसी पर टिक गईं.

मुहम्मद इकबाल ने अपने गाने से सब का ध्यान खींच लिया था. ऐसा लगा, मानो दर्द में डूबा हुआ कोई अपनी दास्तान सुना रहा है.

चेहरे पर हलकी दाढ़ी रखे हुए, टीशर्ट और लोअर पहने हुए 34-35 साल का इकबाल बहुत सरल स्वभाव का दिख रहा था. उस के चेहरे के भाव में उस के अंदर समाया उस का दर्द साफ दिख रहा था. उस ने जो गाना गाया, उस के बोल थे, ‘बाकी सब सपने होते हैं अपने तो अपने होते हैं…’

बीच में कुछ लाइनें आईं. ‘सारी बंदिशों को तू पल में मिटा दे,

बीते गुजरे लमहों की सारी बातें तड़पाती हैं.

दिल की सुर्ख दीवारों पर बस यादें ही रह जाती हैं.’

लग रहा था कि यह गाना मुहम्मद इकबाल के लिए ही लिखा गया है. वह अपने बीते हुए कल को याद करता है. उस सुनहरे कल को फिर से जीना चाहता है, पर अब उस के अपने उस से दूर हो गए हैं. वह उन की यादों के सहारे ही अपनी जिंदगी गुजार रहा है. ‘आजा आ भी जा, मु झ को गले से लगा ले…’ लाइन में तो ऐसा लगा, जैसे उस का दुखी मन अपने घरपरिवार को ढूंढ़ रहा है.

पूरा गाना खत्म होने के बाद हम सब ने जोरदार तालियां बजाईं. सारे लोग उस के गाने की तारीफ कर रहे थे. लोगों के इसी प्यार और स्नेह से उस की जिंदगी की सांसें चल रही थीं.

जब मुहम्मद इकबाल ने गाना शुरू किया था, तभी जेलर महोदय ने उस के बारे में मुझे बताया कि यह मर्डर केस में बंद है और इस के घर से कोई मिलने नहीं आता. यह बहुत दुखी और तनाव में रहता था. इस के जीने की इच्छा खत्म हो गई थी. जिंदगी से निराश यह हमेशा मरने की सोचता था, लेकिन अब यह ठीक है.

गाना खत्म होने के बाद मुहम्मद इकबाल बोला, ‘‘मैडम, आप लोगों को अपने बीच पा कर हम लोग बहुत खुश हैं. एक और बात कहना चाहूंगा कि मैं जिंदगी से हार गया था, इन्होंने (जेलर महोदय की तरफ देखते हुए) मुझे जिंदगी जीने की हिम्मत दी.’’

मुहम्मद इकबाल ने जब अपने जीने की वजह जेलर महोदय को बताई तो ‘दुनिया में आज भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है’, यह बात सच होती हुई दिखी.

मुहम्मद इकबाल के बाद डांस में पहले नंबर पर रहे लड़के ने अपना डांस दिखाया. उस ने बेहतरीन डांसर की तरह डांस किया था. वह लड़का चोरी के केस में जेल में बंद था. उस की उम्र 21 साल की रही होगी.

गायन और डांस प्रतियोगिता के प्रथम विजेताओं की पेशकश के बाद अलगअलग प्रतियोगिताओं के विजेताओं को शील्ड और प्रमाणपत्र दिए गए.

इसी बीच मु झे किसी ने बताया कि जेलर महोदय अच्छे गायक हैं. यह जान कर मैं ने उन से गाने की गुजारिश की. उन्होंने एक गीत सुनाया. जेलर महोदय की गायकी ने कार्यक्रम की खूबसूरती बढ़ा दी.

कार्यक्रम के आखिर में अपने संबोधन में मैं ने सभी विजेताओं को बधाई दी और नाकाम रहे प्रतिभागियों को अपनी प्रतिभा में और निखार लाने के लिए कहा.

इस कार्यक्रम के बाद भी मेरे मन में चल रहा था कि मुहम्मद इकबाल ने अपराध किया है या इसे फंसाया गया है, यह तो यही जानता होगा, पर इस एक मुहम्मद इकबाल को नहीं ऐसे हजारों मुहम्मद इकबाल की सोच में बरताव ला कर उन्हें जिंदगी की जंग लड़ने की राह सभी जिम्मेदार लोगों को दिखानी होगी, ताकि लोग वहां आ कर सुधार की सोच की ओर बढ़ें और मेरा विचार है कि कारागार का नाम सुधारगृह हो, ताकि कैदियों में अच्छे भाव लाए जा सकें. वे अपनी गलत और आपराधिक सोच को बदल कर अपनेआप में सुधार लाएं.

मैं ने कैदियों से एक बात खासतौर पर कही, ‘‘आप जब कारागार से बाहर निकलें तो जिंदगी में हुई गलतियों पर आंसू बहाने से अच्छा उस से सबक लेते हुए अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कीजिएगा.

‘‘जैसा कि मुहम्मद इकबाल ने बताया और आप लोगों के चेहरों को देख कर पता भी चल रहा है कि आप लोग हमें अपने बीच पा कर बहुत खुश हैं और सच पूछिए तो आप लोगों से मिल कर हमें भी बहुत खुशी हो रही है. एक होस्टल की तरह आप यहां रह रहे हैं.’’

कार्यक्रम पूरा होने के बाद जब हम लोग चलने को हुए तो सारे कैदी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए. एक ने कहा, ‘‘आप लोगों का आना हमें बहुत ही अच्छा लगा.’’

दूसरे ने कहा ‘‘दोबारा आइएगा.’’

इसी तरह किसी ने ‘धन्यवाद’ कहा.

उन की इस तरह की भावनात्मक बातों के बीच हम कारागार से बाहर तो जरूर निकले, पर उन के स्नेह, सम्मान और वहां के शानदार इंतजाम के चलते वहां के सभी लोग मन में ऐसे बस गए कि आज भी याद हैं.

लेखिका-  डा. संगीता बलवंत

Hindi Kahani : मजा या सजा – एक रात में बदली किशन की जिंदगी

Hindi Kahani : वह उस रेल से पहली बार बिहार आ रहा था. इंदौर से पटना की यह रेल लाइन बिहार और मध्य प्रदेश को जोड़ती थी. वह मस्ती में दोपहर के 2 बजे चढ़ा. लेकिन 13-14 घंटे के सफर के बाद वह एक हादसे का शिकार हो गया. पूरी रेल को नुकसान पहुंचा था. वह किसी तरह जान बचा कर उतरा. उसे कम ही चोट लगी थी. उसे पता नहीं था कि अब वह कहां है कि तभी एक बूढ़ी अम्मां ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बेटा, अम्मां से रूठ कर तू कहां भाग गया था?’’

उस ने चौंक कर पीछे की ओर देखा. तकरीबन 64-65 साल की वे अम्मां उसे अपना बेटा समझ रही थीं. फिर तो आसपास के सारे लोगों ने उसे बुढि़या का बेटा साबित कर दिया.

उसे जबरदस्ती बुढि़या के घर जाना पड़ा. उस बुढि़या के बेटे की शक्ल और उम्र पूरी तरह उस से मिलतीजुलती थी.

‘चलो, थोड़ा मजा ले लेते हैं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

रात को खाना खाने के बाद जैसे ही वह सोने के लिए कमरे में पहुंचा, तो चौंक गया. बुढि़या की बहू गरमागरम दूध ले कर उस के पास आई. वह भरेपूरे बदन की सांवले रंग की औरत थी.

‘‘अब मैं कभी आप से नहीं लड़ूंगी. आप की हर बात मानूंगी,’’ वह औरत उस से लिपटते हुए बोली.

‘‘क्यों, क्या हुआ था?’’ उस ने बड़ी हैरानी से पूछा.

‘‘आप शादी के 2 महीने बाद अचानक गायब हो गए थे. सब ने आप को बहुत ढूंढ़ा, पर आप कहीं नहीं मिले. इस गम में बाबूजी चल बसे,’’ वह रोते हुए बता रही थी.

‘‘मैं सब भूल चुका हूं. मुझे कुछ याद नहीं है. मैं किसी को नहीं पहचानता,’’ वह शांत भाव से बोला. उस औरत ने रात को उसे भरपूर देह सुख दिया. सुबह के तकरीबन 8 बजे उस की नींद खुली. उस ने ब्रश कर के चाय पी.

दिन में पता चला कि वह दुकान चलाता था. वह दिनभर में अपनी इस जिंदगी के बारे में काफीकुछ जान गया. उस की 5 बहनें थीं और वह एकलौता भाई है. उस की पत्नी चौथी बहन की ननद है.

तकरीबन 6 साल पहले शादी हुई थी. उस का बेटा लापता हो गया है. शायद सड़क हादसे में या किसी दूसरे हादसे में अपनी औलाद खो चुका है. बेटा वह भी एकलौता, इसलिए यह दर्द दिखाया नहीं जा सकता.

दूसरी ओर अनपढ़ और देहाती बहू है, जो 16-17 साल की उम्र में ही ब्याह कर यहां आई थी. कुछ ही दिनों में पति गुजर गया, इसलिए बड़ी मुश्किल से मिले इस पति को वह संभाल कर रखना चाह रही है. कितना भी बड़ा हादसा हो, सरकार बस एक जांच कमीशन बिठा देगी. इस से ज्यादा करेगी, तो इस पीडि़त या उस के परिवार को 2-3 लाख रुपए का मुआवजा दे देगी.

मगर उसे न तो मुआवजा मिला था, न ही लाश. वैसे भी जनरल डब्बे में सफर करने वाले लोगों की जिंदगी की कोई कीमत है क्या?

काफी दिन न मिलने के चलते उस ने मरा मान लिया था. क्या पता, कहीं जिंदा हो और लौट आया हो. उस हादसे में क्या पता याददाश्त चली गई हो, इसलिए सासबहू दोनों ही अपनेअपने तरीके से उसे याद दिलाने की कोशिश में थीं.

2 दिन बाद ही सभी बहनें, बहनोई और बच्चे आ गए

‘‘अम्मां, यह तो अपना ही भाई है,’’ चौथी बहन उसे ढंग से देखते हुए उस के हाथपैरों को छू कर बोली.

‘‘क्या मैं अपने साले को नहीं पहचानता… पक्का वही है. मुझे तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती है.’’

‘‘बालकिशन, मैं तेरा तीसरे नंबर का जीजा हूं. साथ ही, तेरी पत्नी का बड़ा भाई भी,’’ जीजा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोल उठा.

‘‘जी,’’ कह कर वह चुप हो गया. बस वह सब को बड़े ही ध्यान से देख रहा था, मानो उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘अरी अम्मां, यह हादसे में अपनी याददाश्त बिलकुल ही खो बैठा है. बाद में इसे सब याद आ जाएगा,’’ इतना कह कर उस की बहन उस का हाथ सहलाने लगी.

वह इंदौर में अकेला रहता था. वहीं रह कर छोटामोटा काम करता था, जबकि यहां उसे पत्नी, भरापूरा परिवार मिल रहा था. वह बालकिशन का हूबहू था. पासपड़ोस वालों के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार उसे बालकिशन बता रहे थे और याददाश्त खोया हुआ भी.

पत्नी एकदम साए की तरह उस के साथ रहती, ताकि वह दोबारा न भाग जाए. एक दिन दोपहर का खाना खाने के तकरीबन डेढ़ घंटे बाद वह अपना काम समझने की कोशिश कर रहा था. यहां उस की पान की दुकान थी. कोई रजिस्टर या कागज… पता चला कि सभी अंगूठाछाप थे. बस, वही 10वीं फेल था. अब कैसे बताए कि वह बीटैक है. लेकिन छोटामोटा चोर है. मोटरसाइकिल पर मास्क लगा कर जाना, औरतों के जेवर उड़ाना और घरों में चोरी करना उस का पेशा है.

मगर, इस परिवार में सभी सीधेसादे हैं. उस की तीसरे नंबर की बहन ने पूरे 5 तोले का सोने का हार पहना हुआ था. गोरा रंग, दोहरा बदन. भारीभरकम शरीर पर वह हार जंच रहा था. जब वह गौर से उस हार को देखने लगा, तो झट से बहनोई बोला, ‘‘क्यों साले साहब, पसंद है तो रख लो इस हार को.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ वह सकपका कर बोला था.

‘‘फिर भी, तुम मेरी बहन के सुहाग हो. अगर कुछ चाहिए तो बोलो? मेरी बहन की वीरान जिंदगी में बहार आ चुकी है,’’ जीजा भावुक होते हुए बोला.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ वह मना करते हुए बोला.

शाम को उस का साला जब जाने लगा, तो कुछ रुपए उस की पत्नी को देने लगा और बोला, ‘‘दुकान काफी दिनों से बंद पड़ी हुई है. मैं कल ही जा कर दुकान को सही कर दूंगा.’’

‘‘न भैया, मेरे पास पैसे हैं. इन के पास भी जेब में 20 हजार रुपए हैं,’’ वह भाई को पैसे देने से मना करते हुए बोली.

‘मगर, मैं तो पान की दुकान चलाना भूल गया हूं. पान लगाना तक नहीं आता मुझे. कैसे बेचूंगा?’ उस के दिमाग में तेजी से कुछ चलने लगा. ‘‘क्या सोच रहे हो साले साहब?’’ जीजा मानो उस के चेहरे को गौर से पढ़ते हुए बोला.

‘‘पान की दुकान मैं ने कभी चलाई नहीं है. मैं तो टैलीविजन, ट्रांजिस्टर, फ्रिज सुधारना जरूर जानता हूं,’’ वह जीजा को समझाते हुए बोला.

‘‘फिर तो हमारे पड़ोस में दुकान ले लेते हैं. 5-10 किलोमीटर में एक भी दुकान नहीं है. खूब चलेगी,’’ जीजा हंसते हुए बोला. अगले दिन सुबह घर से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर बंद पड़ी दुकान उसे सौंपी गई, तो दिनभर में उसे सुधार कर दुकान की शक्ल दे दी. जरूरी सामान का इंतजाम किया गया.

पहले दिन वह 5 सौ रुपए कमा कर लाया, तो बहुत खुश था. जीजा भी उस के काम से खुश था. वह उसे खुद घर छोड़ने आया था. ‘‘अम्मां, यह तो कुशल कारीगर है. देखो, आज ही इस ने 5 सौ रुपए कमा लिए. अब तक यह 4 और्डर पा चुका है,’’ जीजा जोश में बोल रहा था. ‘‘अब बेटा आ गया है न, मेरी सारी गरीबी दूर हो जाएगी,’’ अम्मां तकरीबन रोते हुए कह रही थीं.

‘‘रो मत अम्मां. मैं सब ठीक कर लूंगा,’’ वह पहली बार बोला था. रात को खाना खाने के बाद जब वह बिस्तर पर सोने पहुंचा, तो पत्नी खुशी से भरी थी, ‘‘अरे, आप तो बहुत ही कुशल कारीगर निकले,’’ वह चुहल करते हुए पूछ रही थी.

‘‘कुछ नहीं. बस यों ही थोड़ाबहुत जानता हूं.’’

सोते समय वह सोचने लगा, ‘अब तक मैं चोरउचक्का था. गंदे काम से पैसे कमाने वाला. अब मैं मेहनत से पैसा कमाऊंगा और परिवार का पेट भरूंगा,’ इतना सोचतेसोचते उस ने पत्नी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोला, ‘‘मैं तुम्हें अब कभी नहीं छोड़ूंगा… कभी नहीं.’’

इतना कहते ही उसे सुख की नींद आने लगी. सच कहें, तो इस सजा में भी मजा था.

Hindi Story : प्रेमिका की तलाश – क्या पूरी हुई प्रेम की तलाश

Hindi Story : प्रेम का कालेज में आखिरी साल था और वह बिलकुल सहीसलामत था. मतलब, वह किसी लड़की के चक्कर में नहीं पड़ा था, इसीलिए उस के मातापिता को उस पर नाज था. लेकिन सच कहें तो प्रेम को यह मंजूर न था. बात यह थी कि उस के दोस्त अकसर किसी न किसी लड़की के साथ कभी पार्क में, कभी बाजार में तो कभी चर्च के पीछे दिख जाते थे. उन्हें मटरगश्ती करते देख प्रेम को बहुत बुरा लगता था. मन में हीनभावना भर जाती थी, क्योंकि उस की कोई प्रेमिका जो नहीं थी, इसीलिए उसे अपने लिए एक अदद प्रेमिका की शिद्दत से तलाश थी.

एक दिन प्रेम कालेज जा रहा था. अचानक रास्ते में कुछ लड़कियों को उस ने कहीं जाते देखा. उन सब के बीच एक लड़की को देख कर वह अपनी सुधबुध खो बैठा. तभी वह लड़की तिरछी नजर से प्रेम को देख कर मुसकराई, फिर अपनी सहेलियों के साथ आगे बढ़ गई. उस की इस अदा पर वह निहाल हो गया. उसे लगा, इसी लड़की का उसे इंतजार था.

प्रेम कालेज जा रहा था, लेकिन अब उस का इरादा बदल गया. उस ने उस हसीना का पताठिकाना जानने का निश्चय कर लिया और उस के पीछे चल पड़ा. उस का पीछा करतेकरते तकरीबन आधा घंटे के बाद प्रेम एक अनजान महल्ले में पहुंचा. एकएक कर उस की सारी सहेलियां उस से अलग होती गईं. आखिर में वह लड़की सड़क से लगे एक खूबसूरत घर में दाखिल हो गई. प्रेम समझ गया कि यही उस का घर है.

उस लड़की के घर का पता जान कर प्रेम बहुत खुश हुआ. उस ने तय किया कि अब धीरेधीरे वह उस हसीना से मेलजोल बढ़ाएगा. अगले दिन प्रेम कालेज जाने के बजाय उस हसीना के घर के सामने जा पहुंचा. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. क्या पता उस का दीदार होगा भी या नहीं? लेकिन वह गूलर के फूल की तरह कहीं दिखी ही नहीं.

प्रेम कभी उस लड़की के घर के सामने किराना की दुकान के पास खड़ा हो जाता तो कभी इधरउधर आनेजाने का नाटक करता ताकि लोग समझें कि वह किसी काम से कहीं आजा रहा है. वह 2 घंटे वहीं मंडराता रहा. लेकिन वह हसीना कहीं नजर नहीं आई. वह निराश हो कर वहां से लौटने लगा.

लेकिन प्रेम कुछ दूर ही चला था कि देखा वह हसीना एक औरत के साथ रिकशे में बैठी कहीं से आ रही थी. हाथ में बड़ेबड़े थैले थे. शायद वे बाजार से लौट रही थीं. वह औरत शायद उस की मां थी. उसे देख कर प्रेम बहुत खुश हो गया. काली घटा सी जुल्फों के बीच झांकता उस का चांद सा मुखड़ा प्रेम को अजीब सी खुशी दे गया.

‘काश, यह मुझे मिल जाए तो मेरी जिंदगी में बहार आ जाए,’ यह सोच कर प्रेम मुसकराया. अपने घर के सामने गेट पर वह लड़की उस औरत के साथ रिकशे से उतर गई और अपने घर के अंदर चली गई.

प्रेम ने सोचा, ‘अब कालेज चलता हूं…’ लेकिन यह सोच कर कि क्लास अब खत्म हो गई होगी, कालेज जाने के बजाय वह वापस घर लौट आया. प्रेम अब उस हसीना को पटाने की जुगत भिड़ाने लगा. अगले दिन उस ने काले रंग की शर्ट और जींस पहन ली. भैया का काला चश्मा चुपके से उठा लिया और पापा की मोटरसाइकिल ले कर निकल लिया और सीधे उस हसीना के घर के सामने पहुंच गया.

मोटरसाइकिल किराना की दुकान के पास खड़ी कर प्रेम ने चश्मा आंखों पर लगाया और रितिक रोशन के स्टाइल में खड़ा हो कर इधरउधर देखते हुए मोबाइल फोन पर बिना काल किए किसी से बात करने का नाटक करने लगा ताकि कोई यह न कहे कि वह बिना काम के वहां खड़ा है. लेकिन एक घंटे से ज्यादा समय बीत गया, लेकिन वह लड़की नजर नहीं आई. तभी पता नहीं कहां से एक कुत्ता आ गया और प्रेम पर भूंकने लगा. उस की आवाज सुन कर कहीं से 2 कुत्ते और दौड़े आए उस पर गुर्राने और भूंकने लगे. प्रेम की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. शायद उन्हें उस का काला लिबास और काला चश्मा पसंद नहीं आया था.

प्रेम डर कर एक तरफ भागा. भागतेभागते वह एक पत्थर से टकरा कर गिर गया और नाक से खून निकलने लगा. उस की पैंट और शर्ट पर धूल लग गई. बाल बिखर गए. प्रेम की यह हालत देख कर बगल से गुजरने वाले एक राहगीर ने उन कुत्तों को डरा कर भगा दिया, तब जा कर उस की जान में जान आई. लेकिन इस हालत में उस हसीना का दीदार करने की उस की इच्छा नहीं रही. वह घर लौट गया.

अगले दिन जब प्रेम उस हसीना के घर के सामने पहुंचा तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह अपने घर के बाहर ही किसी सहेली से बात कर रही थी. प्रेम का मन किया कि अभी जा कर उसे अपना हालेदिल कह सुनाए और अपने प्यार का इजहार कर दे. पर सोचा, ‘जल्दबाजी ठीक नहीं होगी. क्या पता कहीं उस की सैंडिल मेरी मुहब्बत के जोश को ठंडा न कर दे.’

थोड़ी देर बाद वह लड़की सहेली से बात खत्म कर घर के अंदर चली गई. उस के बाद कई दिनों तक प्रेम उस हसीना के घर का चक्कर लगाता रहा. कभी छत पर, कभी गेट पर, कभी कहीं आतेजाते वह दिख जाती.

एक दिन प्रेम ने हिम्मत कर एक चुंबन उस की तरफ उछाल दिया. जवाब में वह मुसकरा दी और तुरंत घर के अंदर चली गई. प्रेम खुशी से पागल हो गया. लगा, अब वह उस से पट जाएगी, इसीलिए कालेज जाना तकरीबन छोड़ दिया और उस हसीना के घर के सामने 2-3 घंटे मंडराता रहता. जब भी वह लड़की प्रेम को दिखती, वह उस की तरफ चुंबन उछाल देता. वह हर बार मुसकरा देती.

एक दिन प्रेम बहुत देर तक उस के घर के सामने मंडराता रहा लेकिन वह नजर ही नहीं आई और न बाहर निकली. बहुत इंतजार के बाद वह निराश हो कर लौटने लगा. प्रेम कुछ ही कदम आगे बढ़ा था कि अचानक पीछे से 2-3 लड़कों ने उस पर लातघूंसों की बौछार कर दी. उन में से एक चिल्ला कर कह रहा था, ‘‘लड़की पर लाइन मारता है, आज तेरी इश्कबाजी का नशा उतार दूंगा.’’

प्रेम घबरा गया, ‘‘मैं ने यहां कोई लड़की नहीं देखी है. किस लड़की पर लाइन मारने की बात कह रहे हो तुम?’’ एक मुस्टंडे लड़के ने दुकान के पीछे की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘उधर देखो, वहां मेरी बहन खड़ी रहती है और तुम यहां से लाइन मारते हो. 20-25 दिन से तुम्हारी हरकतें बरदाश्त कर रहा हूं. आज के बाद से कभी यहां नजर आए तो तुम्हारी हड्डीपसली एक कर दूंगा.’’

उन लोगों की पिटाई से प्रेम की आंखों के आगे अंधेरा घिर रहा था, फिर भी उस ने कोशिश कर दुकान के पीछे की तरफ देखा. सचमुच वहां एक लड़की नजर आई. वह पहली बार उसे देख रहा था. दुकान के पीछे की तरफ कोई लड़की रहती है, यह इतने दिनों तक उसे पता ही नहीं था. वह तो दुकान के सामने वाले मकान में रहने वाली लड़की के चक्कर में यहां भटक रहा था. ‘‘मुझे छोड़ दो. मैं ने वहां किसी लड़की को पहले नहीं देखा है. लाइन मारने की बात तो दूर है,’’ प्रेम ने गिड़गिड़ाते हुए उन से कहा.

‘‘झूठ मत बोलो…’’ एक लड़के ने प्रेम के सूजे हुए गाल पर जोरदार तमाचा मारते हुए कहा, ‘‘अगर लाइन नहीं मारते हो तो तुम यहां क्या करने आते हो?’’ प्रेम के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पिटाई से बचने के लिए उस ने कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो. अब से मैं कभी इधर नहीं आऊंगा.’’

इतना कह कर प्रेम ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और भाग लिया. ‘‘बेटे, तेरा यह हाल किस ने किया?’’ प्रेम घर पहुंचा तो मां उस की हालत देख कर रोने लगीं.

प्रेम ने मां को समझाया, ‘‘तुम्हें अपने शेर जैसे बेटे पर भरोसा नहीं है क्या? तुम्हारे बेटे पर हाथ उठाने की किसी में हिम्मत नहीं है. मोटरसाइकिल सड़क के एक गड्ढे में फंस कर गिर गई, इसीलिए मुझे चोट लग गई.’’ शरीर में दर्द और सूजन के चलते प्रेम कई दिनों तक कहीं नहीं जा सका. उन लोगों ने झूठे आरोप में उसे बहुत मारा था. उस हसीना की भी उसे बहुत याद आती थी. प्रेम ने कान पकड़ लिए कि अब दोबारा उस के महल्ले में कदम नहीं रखेगा. लेकिन ज्योंज्यों वह ठीक हो रहा था उसे देखने और प्यार का इजहार करने की इच्छा फिर जोर मारने लगी.

कुछ दिनों के बाद प्रेम हिम्मत कर के फिर उस हसीना के घर के सामने पहुंच गया. पर यह क्या? उस हसीना के घर के आगे कारों का काफिला लगा था. बहुत सारे लोग इधरउधर मंडरा रहे थे. पास ही एक शामियाना लगा था जिसे अब खोला जा रहा था. शायद यहां कोई शादी थी. तभी कई औरतें उस हसीना के घर से एक दुलहन को घेरे हुए गाना गाती हुई बाहर निकलीं और एक कार की तरफ बढ़ गईं. सब रो रही थीं. दुलहन भी रो रही थी.

दुलहन को गौर से देखा तो प्रेम के होश उड़ गए. वह तो उस की हसीना थी. वह सपनों के महल सजाता रहा और उस की शादी भी हो गई. यह देख कर वह बहुत निराश हुआ. तभी प्रेम को खयाल आया कि वह बहुत दिनों से कालेज नहीं गया है, इसीलिए बुझे मन से कालेज के लिए चल पड़ा.

रास्ते में प्रेम ने सोचा, ‘मुझे अपने जीवन को संवारने पर ध्यान देना चाहिए, वरना मैं सपनों के महल सजाता रह जाऊंगा और सब की शादी होती जाएगी. और क्या पता, लड़कियों के चक्कर में मैं कहीं निकम्मा और बेरोजगार रह गया तो शायद सारी जिंदगी कुंआरा भी रहना पड़ सकता है. नहीं, मैं यह नहीं होने दूंगा. कैरियर पर पहले ध्यान दूंगा.’ प्रेम तेज रफ्तार से कालेज चल पड़ा. क्लास शुरू होने में थोड़ी ही देर थी.

Hindi Story : मूंछ की दीवार – इश्क में मूंछ बन गई दीवार

Hindi Story : जब नेहा अपने मायके से ब्याह कर ससुराल आई, तो मनोहर का बरताव उसे बेहद पसंद आया. क्यों न हो, घर में किसी चीज की कमी जो नहीं थी.

मनोहर के पिता कारोबारी थे. ससुर प्रताप राणा व सास देवयानी का स्वभाव इतना सरल था कि नेहा को वह अपना ही घर लगा.

नेहा की ननद सुधा अपनी भाभी को खुश रखने के लिए चुटकुले सुनाते हुए हंसीठिठोली भी कर लेती. ऐसा लगता, जैसे वे दोनों सहेलियां हों.

मनोहर काम नहीं करता था. पिता की अच्छीखासी आमदनी थी. फिलहाल तो वह कारोबार में भी हाथ नहीं बंटाता था. उस के ऊपर राजनीति का नशा चढ़ गया था.

पंचायत का चुनाव नजदीक आ रहा था. मनोहर को मुखिया का चुनाव लड़ने का नशा छा गया.

एक दिन एक ज्योतिषी ने उसे सलाह दे दी, ‘‘आप चुनाव से पहले अपनी मूंछों को बढ़ाइए. बड़ीबड़ी मूंछें राजनीति में आप को कामयाबी दिला सकती हैं.’’

फिर क्या था, मनोहर ने ज्योतिषी के बताए नियम से खुद को वैसा ही बना लिया, पर चुनाव के बाद वह मामूली वोटों से हार गया, फिर भी वह अपनी मूंछों को कामयाबी की वजह मानता रहा, क्योंकि वह बहुत ही कम वोटों से हारा था.

एक दिन बातों ही बातों में नेहा बोली, ‘‘आप तब कितने हैंडसम लगते थे, जब आप के चेहरे पर दाढ़ीमूंछें नहीं थीं. पर जब से आप ने अपना यह रूप बदला है, तब से आप का चेहरा डरावना सा लगता है. आप इसे हटवा लीजिए. अब तो कोई भी चुनाव नहीं है. जब चुनाव आएगा, तब फिर बढ़ा लीजिएगा.’’

मनोहर ने पत्नी की बातों को सुना और कहा, ‘‘देखो, भले ही ज्योतिषी की भविष्यवाणी थोड़ी गलत हो गई, पर तुम ने देखा, मैं जीततेजीतते हारा, इसलिए अब मुझे मूंछें ही पहचान दिलाएंगी.’’

नेहा थोड़ा झुंझला कर बोली, ‘‘तो इस के लिए ये 2-3 इंच की मूंछें रखने की क्या जरूरत है? जब आप चायदूध पीते हैं, तब आप की ये मूंछें कप व गिलास में घुस जाती हैं. चाय पीने के बाद कई बूंदें चाय आप की मूंछों से टपक पड़ती हैं.’’

‘‘देखो नेहा, मैं तुम्हारा पति हूं. मुझ से ऐसी बातें मत किया करो. ये मूंछें मेरे लिए भाग्यशाली साबित हो रही हैं,’’ मनोहर ने थोड़ा गुस्से से कहा.

‘‘मैं आप को कैसे समझाऊं. मूंछों से कोई भाग्यशाली नहीं होता. आप नहीं जानते, जब आप मुझे बांहों में ले कर होंठों को चूमते हैं, तो आप की ये मूंछें दीवार बन कर खड़ी हो जाती हैं. चूमते वक्त कई बार आप की मूंछें मेरे मुंह और नाक में घुस जाती हैं. उस समय मुझे कितना दर्द होता है, आप ने कभी सोचा है?’’ नेहा थोड़ा गुस्से में आ कर बोली.

‘‘मैं अपनी मूंछों से छेड़छाड़ करने की सोच भी नहीं सकता, पर तुम पत्नी हो, तुम्हारी सलाह पर नीचे की तरफ बढ़ रही मूंछों को मैं रोजाना सुबह ऊपर की तरफ मोड़ूंगा. कुछ दिनों बाद मूंछें खुदबखुद नीचे से ऊपर की तरफ मुड़ जाएंगी, फिर चूमते वक्त शायद तुम्हें उतना दर्द नहीं होगा, जितना अभी हो रहा है,’’ मनोहर ने पत्नी से समझौता किया. थकहार कर नेहा ने चुप्पी साध ली.

एक शाम मनोहर घर से बाहर अपने एक रिश्तेदार के घर जा रहा था. उस समय रात के 9 बजने वाले थे. रास्ता कीचड़ से भरा था, क्योंकि गांवदेहात की सड़कें वैसे भी बारिश के महीनों में खराब रहती हैं. वजह, लोग मवेशियों को भी सड़क के किनारे बांध देते हैं. सड़क के अगलबगल गोबर का ढेर लगा देते हैं. सड़क के ऊबड़खाबड़ होने के चलते कई महीनों तक परेशानी रहती है.

मनोहर की मोटरसाइकिल भी खराब हो गई. लाइट ठीक से नहीं जल रही थी. उस गांव में घुसने से पहले एक आदमी के दरवाजे पर मोटरसाइकिल खड़ी कर दी थी. अंधेरा घिर गया था. मनोहर पैदल ही गांव में आगे बढ़ रहा था. अचानक गांव में ही 2 गाएं चोरी हो गईं. चारों तरफ शोर मच गया… चोर…चोर…चारों तरफ से लोग हाथों में लाठी, टौर्च ले कर दौड़े. जब तक मनोहर कुछ समझता, तब तक लोगों की भीड़ उस के करीब आ गई. टौर्च की रोशनी में मनोहर का चेहरा देखा.

अनजान चोर समझ कर किसी ने उसे दबोच लिया. जब तक वह कुछ समझता, तब तक लोगों की भीड़ उस के और करीब आ गई.

गुस्साए लोगों में से एक ने कहा, ‘‘यही है चोर और इस के साथी मवेशी ले कर निकल गए हैं. इस की मूंछें उखाड़ लो.’’

यह कहने भर की देर थी कि लोगों में जैसे होड़ सी मच गई मूंछें उखाड़ने की. मूंछों की लंबाई भी इतनी ज्यादा थी कि लोगों की मुट्ठी में आसानी से आ गईं. मनोहर जब तक कुछ बोलता, तब तक लोगों ने उस की सभी मूंछें उखाड़ दीं. उसी समय उस के रिश्तेदार भी वहां आ गए. उस ने मनोहर को पहचान लिया, फिर लोगों को शांत करते हुए उस की सचाई बताई.

सच जान कर लोग पछतावा करने लगे, पर तब तक मनोहर की मूंछें बुरी तरह उखड़ गई थीं. मनोहर का रिश्तेदार उसे घर लाया. गांव के डाक्टर को बुला कर दवा दिला दी.

मनोहर ने पूरी रात बेचैनी की हालत में गुजारी. सुबह वह मुंह पर गमछा बांधे घर पहुंचा. उस ने धीरे से पत्नी से कहा, ‘‘थोड़ा गरम पानी व सूती कपड़ा ले आओ.’’

नेहा गरम पानी व सूती कपड़ा ले कर उस के पास पहुंची. मनोहर ने गमछा हटाया. नेहा ने देखा कि मनोहर के चेहरे से मूंछें नदारद हैं. वह दौड़ कर उस से लिपट गई और उस के होंठों को चूमते हुए बोली, ‘‘यह चमत्कार कैसे हुआ?’’

‘‘अरे, पहले गरम पानी व सूती कपड़े से सेंक लगाओ, फिर तुम्हें सारी कहानी बताऊंगा.’’

नेहा ने उस की भरपूर सेवा की. जब उस की पीड़ा कुछ कम हुई, तो उस ने रात की सारी बात बता दी.

‘‘धन्य हैं उस गांव के लोग, जो आज उन्होंने मुझे मेरा असली मनोहर लौटा दिया,’’ नेहा खुश होते हुए बोली.

‘‘नेहा, उस ढोंगी ज्योतिषी की बातों में पड़ कर मैं राह से भटक गया था. अब मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं राजनीति से भी हमेशा के लिए तोबा करता हूं. अब मैं पिताजी के साथ उन के कारोबार में हाथ बंटाऊंगा. अब कभी तुम्हारे और मेरे बीच मूंछों की दीवार नहीं आएगी,’’ मनोहर ने विश्वास के साथ कहा. नेहा खुश थी, क्योंकि उसे अपना असली मनोहर जो मिल चुका था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें