विवाद: क्या गलत कहा चंद्रशेखर ने ! धार्मिक जकड़न और शिकंजे से घबराते दलित

32साला ओंकार रजक (बदला हुआ नाम) भोपाल के एक पौश इलाके में लौंड्री चलाते हैं, जिस से उन्हें तकरीबन 50,000 रुपए महीने की आमदनी हो जाती है. अब से 14 साल पहले ओंकार रजक अपना गांव छोड़ कर भोपाल आ बसे थे. उन के मातापिता दोनों वहीं कपड़े धोते थे, लेकिन तब धोबी से कपड़े धुलवाने का रिवाज गांव में ऊंची जाति वालों तक ही सिमटा था.

ओंकार रजक को बखूबी याद है गांव का वह नजारा, जब मांबाप दोनों सुबह से ब्राह्मण, ठाकुर, बनियों और कायस्थों के घरघर जा कर कपड़ों की पोटली लेते थे और दिनभर तालाब पर धो कर सुखाते थे. फिर शाम को इस्तरी कर के वापस आते थे.

सब लोग उन्हें धोबी ही कहते थे. तब यह बुरा मानने वाली बात नहीं होती थी. या यों कह लें कि इस की इजाजत नहीं थी. ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘मेरे पापा इसी बात से खुद को तसल्ली दे लेते थे कि गांव में उन से छोटी जाति वाले लोग भी हैं, जिन्हें कोई छूता भी नहीं. इस बिना पर वे खुद को लाख गुना बेहतर मानते थे.’’

फिर एक दिन स्कूल में साथ के बच्चे ने ओंकार रजक को चिढ़ाते हुए यह कह दिया, ‘अबे, धोबी का बच्चा है. जिंदगीभर हमारे कपड़े ही धोएगा, तो पढ़लिख कर क्या करेगा’.

यह बात ओंकार रजक के कलेजे में चुभ गई. पिता से कहा, तो उन्होंने समझाया कि भाग्य और होनी टाली नहीं जा सकती. तुझे जिंदगी में कुछ बनना है, तो दिल लगा कर पढ़. पैसों की चिंता मत कर, वह हम कपड़े धो कर कमाएंगे. तू कुछ बन जाएगा, तो ठाट से शहर में रहेंगे.

यह बात ओंकार रजक को समझ आ गई और वे भोपाल आ कर पढ़ने लगे. लेकिन बीकौम करते समय एक साल के अंतर पर मांबाप दोनों चल बसे, तो उन्होंने गांव से डेराडंगर समेटा और भोपाल में ही इस्तरी करने की दुकान खोल ली और लोगों के कपड़े धोतेधोते ही लौंड्री शुरू कर दी, जो चल निकली.

अपने 8 साल के बेटे बिट्टू को ओंकार रजक एक महंगे स्कूल में एक खास मकसद से पढ़ा रहे हैं. वह मकसद या सपना वही है, जो उन के पिता का उन को ले कर था.

‘धोबी का बच्चा’ ताने से जो बेइज्जती ओंकार रजक को सालों पहले महसूस हुई थी, वह आज भी कभीकभी अंदर तक साल जाती है. जिस दिन वह वाकिआ उन्हें याद आ जाता है, उस दिन निवाला भी गले के नीचे नहीं उतरता.

भोपाल में ओंकार रजक ने इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना शुरू किया कि आखिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाए किस ने? अगर भगवान ने बनाए तो उस ने भी भेदभाव ही किया, जो आज तक जारी है और जिस के बारे में आज भी कहा जाता है कि यह भेदभाव तो कब का खत्म हो गया है.

ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘जब मैं टीटी नगर में पेड़ के नीचे ठेला लगा कर कपड़े इस्तरी करता था, तब खाली समय में किताबों और मैगजीनों में इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ा करता था, लेकिन वह कहीं नहीं मिला.’’

फिर एक दिन एक किताब ओंकार रजक को एक खाली होते मकान से मिली, जिस का नाम था, ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’. ओंकार रजक ने यह किताब कई बार पढ़ी और कुछ दिन में ही उन्हें समझ आ गया कि यह सब धर्मग्रंथ लिखने वाले ब्राह्मणों की करतूत है, जो देवीदेवताओं, पापपुण्य, कभी ज्योतिष, तो कभी मंदिर के नाम पर पैसा बटोरा करते हैं और समाज में ऊंचनीच और जाति के नाम पर उस के टुकड़ेटुकड़े किए हुए हैं, लेकिन कोई उफ भी नहीं करता.

जब चंद्रशेखर का बयान पढ़ा

‘‘हम धोबी शूद्रों में शुमार किए जाते हैं, फिर भले ही जातिगत आरक्षण में ओबीसी में गिने जाते हों और हमें छूने से किसी को पाप न लगता हो या उस का परलोक न बिगड़ता हो,’’ ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘होश संभालने के 18 साल तक हर कहीं मैं यह सुनता और पढ़ता रहा कि धर्मग्रंथों ने वर्ण व्यवस्था के इंतजाम किए हैं.

‘‘‘मनुस्मृति’ में ऐसा और वैसा लिखा है कि हम दलित या शूद्र कुछ भी कह लें, इस का विरोध करते हैं. आखिर हम भी

2 हाथपैर, एक पेट और गरदन, छाती, सिर वाले इनसान हैं, फिर हमें निचले पायदान पर क्यों खड़ा किया गया है?’’

ऐसी ही कशमकश में समय गुजरता गया. फिर पिछले दिनों ओंकार रजक ने अपने स्मार्टफोन पर खबर पढ़ी, जिस से उन का मन एक बार फिर कसैला हो गया और गैरत जाग उठी.

यह खबर बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के एक भाषण का हिस्सा था, जो उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में दिया था. उन्होंने प्रमुखता से कहा था कि ‘मनुस्मृति’ में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं. ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं. एक युग में ‘मनुस्मृति’, दूसरे युग में ‘रामचरितमानस’, तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का ‘बंच औफ थौट’ ये सभी देश व समाज में नफरत बांटते हैं. नफरत कभी देश को महान नहीं बनाएगी. देश को केवल मुहब्बत महान बनाएगी.

नफरत और मुहब्बत शब्द सुन कर ओंकार रजक को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ याद आ गई, जिस में वे भी यही सब नफरत और मुहब्बत की बात कह रहे थे, बस धर्मग्रंथों का नाम नहीं ले रहे थे, जिस की भरपाई चंद्रशेखर ने यह कहते हुए की कि मैं उस श्रीराम की पूजा करता हूं, जो माता शबरी के जूठे बेर खाते हैं, मां अहिल्या के मुक्तिदाता हैं, जो जीवनभर नाविक केवट के ऋणी रहते हैं, जिन की सेना में हाशिए के समूह से आने वाले वन्य प्राणी वर्ग सर्वोच्च स्थान पर रहते हैं.

फिर चंद्रशेखर ने कहा कि मैं उस ‘रामचरितमानस’ का विरोध करता हूं, जो हमें यह कहता है कि जाति विशेष (ब्राह्मणों) को छोड़ कर बाकी सभी नीच हैं, जो हम शूद्रों और नारियों को ढोलक के समान पीटपीट कर साधने की शिक्षा देता है, जो हमें गुणविहीन विप्र की पूजा करने और गुणवान दलित शूद्र को नीच समझ कर दुत्कारने की शिक्षा देता है.

चंद्रशेखर यहीं चुप नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कहा कि माता शबरी के जूठे

बेर खाने वाले श्रीराम अचानक ‘रामचरितमानस’ में आते ही इतने जातिवादी कैसे हो जाते हैं. किस के फायदे के लिए राम के कंधे पर बंदूक रख कर ये ठेकेदार चला रहे हैं. यही ठेकेदार हैं, जो एक राष्ट्रपति को जगन्नाथ मंदिर में घुसने से रोकते हैं, जीतनराम मांझी के मंदिर में जाने पर उसे धोते हैं.

ओंकार रजक को समझ आ गया कि ये सभी बातें हालांकि काफी पुरानी हैं, ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ में भी उस ने पढ़ी हैं और सदियों से कही जा रही हैं और हर बार थोड़ा हल्ला मचने के बाद टांयटांय फुस हो जाती हैं.

न जाने क्यों ओंकार रजक को लगने लगा कि उस के बेटे को सांप कहते दुत्कारा जाएगा. इस बार मामला तूल पकड़ रहा है, क्योंकि इस सच को बोलने के एवज में चंद्रशेखर की जीभ काटने वाले को 10 करोड़ रुपए दिए जाने का ऐलान अयोध्या से हो चुका है. वहां के संत जगद्गुरु परमहंस आचार्य ने यह तगड़ा इनाम रखा है. इस संत ने चंद्रशेखर को मंत्री पद से हटाने की मांग भी की, जिस पर किसी ने कान नहीं दिए.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चालाकी से इस मुद्दे को टरका गए, तो राजद, जिस के कोटे से चंद्रशेखर विधायक और मंत्री हैं, ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि यह उन की निजी राय है, लेकिन अच्छी बात यह है कि चंद्रशेखर अपने कहे पर कायम हैं.

दिल्ली समेत बिहार के सभी जिलों में भाजपा उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा चुकी है. देशभर के संत, महंत और शंकराचार्य चंद्रशेखर को कोसते हुए शाप सा दे रहे हैं कि उन्होंने ब्राह्मणों

और धर्मग्रंथों का अपमान किया है. लिहाजा, उन्हें अपने कहे की सजा मिलनी ही चाहिए.

इस ड्रामे पर ओंकार रजक कहते हैं, ‘‘चंद्रशेखर को तो बजाय सजा के इनाम मिलना चाहिए, क्योंकि उन्होंने धर्मग्रंथों में लिखे सच को समाज के सामने ला दिया है.

‘‘अब पंडेपुजारियों यानी ठेकेदारों की बारी है कि वे इसे झूठ या गलत साबित करें, लेकिन दलीलों से करें, ‘ताड़ना’ शब्द का मतलब सीखना या सिखाना न बताएं. बात को तोड़ेंमरोड़ें नहीं. तुलसीदास की मंशा देखें. अगर वह पाकसाफ होती तो सिखाया ब्राह्मणों और क्षत्रियों को भी जाना चाहिए. शूद्र और नारी की तुलना ढोल और गंवार से ही क्यों की गई? इसलिए कि उन्हें नीचा दिखाना था और विरोध इसी बात को ले कर है.

‘‘हम नीची जाति वाले किस बिना पर सांप कहे जा रहे हैं और ब्राह्मण किस बिना पर श्रेष्ठ कहे जा रहे हैं? क्या इस बिना पर कि वे ऊंचे और हम नीच कुल में पैदा हुए हैं? ये कुल और जातियां बनाए किस ने? इस बात का जवाब परमहंस को मंच से देना चाहिए.

‘‘अगर पिछले जन्म के पापों के चलते हमें नीच मान लिया गया है, तो हम इन धर्मग्रंथों के सच तो दूर की बात है, वजूद से ही सरासर इनकार करते हुए एक बार फिर इन्हें जला देने की सिफारिश करते हैं, जिस से यह झगड़ा ही खत्म हो जाए और सभी जाति के लोग खुद को गर्व से हिंदू कहें, जैसा कि आरएसएस वाले भी आएदिन कहते रहते हैं और भाजपा वाले भी, लेकिन वे सिर्फ कहते हैं, करते इस बाबत कुछ नहीं…’’

ओंकार रजक तैश में कहते हैं, ‘‘यह विवाद या झगड़ा इन किताबों के जिंदा रहते तो कभी नहीं सुलझ सकता.’’

स्वामी भी बोले

मामला शांत हो पाता, इस के पहले ही उत्तर प्रदेश के सीनियर समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भी इस जंग में 22 जनवरी, 2023 को कूद पड़े. उन्होंने कहा कि ‘रामचरितमानस’ में लिखा है कि ब्राह्मण भले ही दुराचारी, अनपढ़ हो, उस को पूजनीय कहा गया है, लेकिन शूद्र कितना भी ज्ञानी हो, उस का सम्मान मत कीजिए. क्या यही धर्म है?

जो धर्म हमारा सत्यानाश चाहता है, उस का सत्यानाश हो. ‘रामचरितमानस’ एक बकवास ग्रंथ है. इस पर रोक लगनी चाहिए या फिर इस के आपत्तिजनक अंश को हटा देना चाहिए.

बागेश्वर धाम पर हमला

यह वह समय था जब पूरा देश खबरिया चैनलों पर बाबा बागेश्वर धाम यानी धीरेंद्र शास्त्री के चमत्कार को देख रहा था. ओंकार रजक की मानें, तो जब ऊंची जाति वाले कट्टर होते हैं और इस यानी हिंदुत्व के बाबत सारे संतमहंत और शंकराचार्य एकजुट हो जाते हैं, तो सब से ज्यादा घबराहट हम दलितों को होती है, क्योंकि हम को लगने लगता है कि ये लोग मिल कर मनुवादी व्यवस्था को फिर से थोप रहे हैं और आड़ धर्मांतरण और घरवापिसी की ले रहे हैं.

दिक्कत तो यह है कि देश में एक करंट सा दौड़ जाता है, जब सभी ब्राह्मण बाबा होहो करते हुए हिंदुत्व की वकालत करने लगते हैं. उस हिंदुत्व की, जिस में हमारी जगह या तो है ही नहीं और अगर है भी तो सब से नीचे है, क्योंकि हमें ब्रह्मा के पैर से पैदा होना बता कर सदियों तक गुलामी करवाई गई है. हमारी औरतों की इज्जत लूटी गई है. हम से जानवरों सरीखा बरताव किया गया है.

ये लोग फिर वही चाहते हैं, क्योंकि मोदीजी के आने के बाद से हिंदुत्व का करंट और फैला है. निजीतौर पर तो मुझे लगता है कि मेरे बिट्टू को धोबी कह कर दुत्कारने और बेइज्जत करने का जाल बुना जा रहा है, जिस से वह भी हिम्मत छोड़ दे. पढ़ाई तो फिर अपनेआप छूट ही जाएगी. ऐसे माहौल में कोई दलित बच्चा कैसे पढ़ सकता है?

शायद इस बात का एहसास स्वामी प्रसाद मौर्य को है, जो उन्होंने 26 साल के जवान, भगवान से भी ज्यादा पुज रहे धीरेंद्र शास्त्री पर हमलावर होते हुए कहा कि यह देश का दुर्भाग्य ही है कि धर्म के ठेकेदार ही धर्म को बेच रहे हैं. तमाम सुधारकों की कोशिश से देश आज तरक्की के रास्ते पर है, लेकिन ऐसी सोच वाले बाबा समाज में रूढि़वादी परंपराओं और अंधविश्वास पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं.

धीरेंद्र शास्त्री ढोंग फैला रहे हैं. ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए, जो संविधान की भावनाओं को आहत करते हैं. जब तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ लिखी, तब औरतों और दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था. इन्हें पढ़ने का अधिकार तो अंगरेजों ने दिया.

स्वामी प्रसाद मौर्य ने जोरदार दलीलों के साथ कहा कि जब सभी बीमारियों की दवा बाबा के पास है, तो सरकार बेकार में मैडिकल कालेज अस्पताल चला रही है. सभी लोग बाबा के यहां जा कर दवा ले लें.

उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की एक चौपाई का जिक्र किया कि ‘जे बरनाधम तेली कुम्हारा स्वपच किरात कोल कलवारा’. इन में जिन जातियों का जिक्र है, वे हिंदू धर्म को मानने वाली हैं. इस में सभी जातियों को नीच और अधम कहा गया है.

कहां जा रहा देश

इन दिनों देश में यही सब हो रहा है, जिस का आम लोगों की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं, उलटे ध्यान बंटाने के लिए फर्जी धार्मिक समस्याएं पेश की जा रही हैं, जिन से सवर्ण हिंदुओं को छोड़ कर बाकी सभी दहशत में हैं कि अब जाने क्या होगा.

धीरेंद्र शास्त्री खुलेआम देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर चुका

है, जिस का समर्थन सभी साधुसंत कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपनी दुकान और चमकने की गारंटी है.

ऐसे में चंद्रशेखर और स्वामी प्रसाद मौर्य दलित हितों और हक समेत उन की धार्मिक दुर्दशा की बात कर रहे हैं, तो उन के पास दलित राजनीति का लंबा अनुभव है, जिन की मंशा पर इसलिए भी सवाल खड़े नहीं किए जा सकते हैं कि आसपास खासतौर से बिहार और उत्तर प्रदेश में कोई चुनाव भी नहीं हैं, इसलिए मुमकिन है कि वे अपने तबके के लोगों को आने वाले खतरों से आगाह कर रहे हों.

लेकिन ओंकार रजक की मानें, तो यह माहौल राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की कामयाबी से लोगों का ध्यान भटकाने की साजिश है, जिस से भाजपा बौखला गई है.

सामाजिक आजादी बिना अधूरी है आजादी

आजाद भारत केवल वह सपना नहीं था, जिस में देश को अंगरेजों की गुलामी से आजाद कराने का रास्ता तय करना था, बल्कि यह सपना उस आजादी का भी था, जिस में देश के हर नागरिक को इज्जत से जीने का हक हासिल हो सके.

आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी इस बात को आज कोई भी दावे से नहीं कह सकता है कि देश के हर नागरिक को इज्जत की जिंदगी जीने का हक हासिल है.

इस देश में आज भी गरीब आदिवासी और पिछड़ेदलित अपनी इज्जत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. आदिवासियों को आज भी यह भरोसा नहीं है कि उन के जल, जंगल और जमीन में वे रह सकेंगे.

जिस तरह आजादी के बाद की सरकारों ने तरक्की के नाम पर खेती की जमीनों के कब्जे को बढ़ावा दिया है और आदिवासियों को उन की जगह से जबरन हटाया है, उस से उन कीदहशत सामने आई है.

यह कैसा आजाद देश है, जहां की दोतिहाई से ज्यादा आबादी एक दिन में 50 रुपए भी नहीं कमा पाती है? आजादी के इतने साल बाद भी गरीबी, बेरोजगारी, पढ़ाईलिखाई, इंसाफ देश के सामने बड़े सवाल बन कर खड़े हैं. जिन क्षेत्रों में तरक्की हुई दिखाई पड़ती है, वहां पर भी भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद ने आम लोगों की राह रोक रखी है.

आखिर इस देश में एक रिकशे वाले, एक मजदूर, एक गरीब या खेती करने वाले के बच्चों को भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुना जाना या खेल में इंटरनैशनल लैवल पर मैडल लाना महिमामंडन वाली खबरें क्यों हैं? वजह, हम ने देश में उस ढांचे का विकास ही नहीं किया है, जिस में देश के अमीर और गरीब दोनों के बच्चों के लिए बराबरी के मौके और सुविधाएं मुहैया हों.

देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों का बचपन ही भेदभाव से रूबरू करा देता है. एक तरफ सारी सुविधाओं से लैस अंगरेजी भाषा वाला बचपन होता है, जिस की पढ़ाईलिखाई सत्ता की भाषा में होती है. वहीं दूसरी तरफ नंगे पैर वाला टाटपट्टी पर इलाकाई भाषा में पढ़ने वाला बचपन, जो प्रतियोगी माहौल में पहुंचने पर पाता है कि उस ने जिस भाषा में लिखापढ़ा है, वह भाषा न तो बड़ीबड़ी कंपनियों में चलती है और न ही सार्वजनिक उपक्रमों में.

यहां तक कि उस भाषा में बड़ी अदालतों में भी न तो याचिका दाखिल की जा सकती है और न ही बहस की जा सकती है. इस का मतलब तो यही है कि इंसाफ पाने के अधिकार से ले कर आजीविका तक के अधिकार से देश की एक बड़ी आबादी दूर है.

एक गरीब के लिए इंसाफ की पहली लड़ाई न्यायपालिका के रूढि़वादी कानूनी तरीकों और जजों से निबटने से ही शुरू हो जाती है. जनता और न्यायपालिका के बीच बहुत दूरी है. इस देश में अभी भी उन्हीं कानूनों से जनता को हांका जा रहा है, जिसे अंगरेजों ने 19वीं सदी में बनाया और लागू किया था.

हमारे देश की पुलिस और न्यायपालिका कानून व्यवस्था की अंगरेजी प्रणाली और सोच से आज भी नहीं उबर सकी हैं. गुनाह और सजा से रिश्ता सिर्फ ऐसे लोगों का है, जिन के पास पैसा नहीं है, जिन का कोई रसूख नहीं है और जो काफी मेहनत कर के भी जिंदगीभर गरीबी की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

सवाल उठता है कि अगर महज 8 से 10 साल के भीतर गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइटें देश की हर भाषा में बात करने की भाषाई क्रांति ला सकती हैं, तो आधुनिकतम संसाधनों, तकनीकों और सुविधाओं से लैस हमारी संसद क्यों नहीं?

सोशल साइटों की भाषाई क्रांति ने साबित कर दिया है कि भाषा के मामले में हम ने अंगरेजी के दबदबे को कायम रखने के लिए देश की जनता के साथ तकरीबन 70 साल से धोखा किया है.

आज आम परिवार के बच्चों का राजनीति में आना मुश्किल हो गया है. परिवारवाद की राजनीति का कोढ़ देश की हर पार्टी में फैल चुका है और आलम यह?है कि देश की जनता को आज गुमराह किया जा रहा है कि देश में युवा नेतृत्व आ रहा है. किसे नहीं पता कि

यह युवा नेतृत्व नहीं, बल्कि परिवार नेतृत्व है. देश की सारी समस्याएं और मुद्दे छोड़ कर राजनीतिक दल धर्म और क्षेत्र की राजनीति करने में लगे हैं. आज किसी क्षेत्र के प्रतिनिधि, सांसद या विधायक की अपनी आवाज का कोई वजूद नहीं है. अगर पार्टी नहीं चाहती?है, तो वह सदन में किसी विधेयक पर अपनी निजी राय भी नहीं रख सकता है.

वैसे, इस की शुरुआत तो टिकट के बंटवारे के साथ ही हो जाती?है. इस से बड़ी खतरनाक बात क्या होगी कि जो लोग जनता की नुमाइंदगी नहीं हासिल कर पाते हैं, उन्हें भी सरकार में शामिल कर लिया जाता है.

देश आजाद हो गया है, लेकिन उस के साथ आजाद हुए केवल अमीर और रईस लोग. किस सरकार में दम है कि इन के हितों के खिलाफ जा कर भूमि सुधार लागू कर सके? नक्सलवाद के खिलाफ गोली उगलने वाली सरकार बता सकती है कि क्यों उस के अपने ही देश के नागरिक देश के भीतर अपनी अलग व्यवस्था बना कर रखे हुए हैं?

आखिर अमीरों के पैर दबादबा कर गरीबों के इस जख्म को नासूर किस ने बनने दिया? जो सरकार हकों का बंटवारा करने के नाम पर गरीबों का हक छीन कर अमीरों में बांटती हो, उस की खिलाफत किस बिना पर गलत कही जा सकती है?

आज भी जिस तरह से दलितों पर जोरजुल्म की खबरें देखनेसुनने को मिल रही हैं, उसे राजनीतिक मुद्दा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है.

ऊंचेतबके का एक बड़ा हिस्सा दलितों और आदिवासियों को आजादी के इतने साल बाद भी हिकारत की नजर से देखता है, उस के मुख्यधारा में आने की कोशिशों को नाकाम करने में लगा हुआ है. ऐसा समाज चाहता है कि दलित और आदिवासी समझे जाने वाले लोग ही काम करते रहें और उन का पहले की तरह शोषण किया जाता रहे.

शायद लोग भूल चुके हैं कि देर से ही सही, पर वाकई संचार क्रांति ने सामाजिक उथलपुथल की एक नई संस्कृति लिखी है, जिस को सैंसर करना अब किसी भी सरकार के बस के बाहर की बात है.

यह सोशल मीडिया का दबाव ही है कि देश के प्रधानमंत्री को दलित उत्पीड़न मामलों पर सामने आ कर सरकार का पक्ष रखने को मजबूर होना पड़ा है, इसलिए जनता के नुमाइंदों को समझना पड़ेगा कि देश की आजादी का रास्ता गरीब दलित और आदिवासी लोगों की माली व सामाजिक आजादी से हो कर जाता है. उन की आजादी के बिना इस आजादी का उत्सव अधूरा है.

डर के आगे जीत है, मिसाल हैं ये बच्चे

बच्चों को जिस काम के लिए मना किया जाता है, वे उसी काम को करते हैं. कभीकभी तो ये नटखट शरारती बच्चे हिम्मत और सूझबूझ से कुछ ऐसा कर जाते हैं कि समाज में ही नहीं, दुनिया और देश में मांबाप की एक अलग पहचान बन जाती है. तब मांबाप को अपने बच्चे पर गर्व महसूस होता है. पश्चिम बंगाल की 2 लड़कियों तेजस्विनी प्रधान और शिवानी गोंड ने भी हिम्मत और सूझबूझ से ऐसा कुछ कर दिखाया कि पश्चिम बंगाल में ही नहीं, पूरे देश में उन की चर्चा हो रही है. दरअसल, नेपाल के एक दंपति की एक जवान बेटी गायब हो गई थी. उन्होंने मार्ग नाम की स्वयंसेवी संस्था से बेटी को तलाशने में मदद मांगी.

संस्था के पदाधिकारियों ने अपने स्तर से पता लगा लिया कि गुम लड़की दिल्ली में है. इस के बाद संस्था ने इस की सूचना दिल्ली सीबीआई और स्टूडेंट्स अगेंस्ट ट्रैफिकिंग की 2 स्कूली सदस्यों तेजस्विनी प्रधान और शिवानी गोंड को दी. दोनों छात्राओं को पता चल चुका था कि उस लड़की को दिल्ली में देहव्यापार में धकेल दिया गया है और देह व्यापार चलाने वालों की जड़ें बड़ी गहरी हैं.

पश्चिम बंगाल की रहने वाली तेजस्विनी प्रधान और शिवानी गोंड ने समझदारी दिखाते हुए उस लड़की से फेसबुक द्वारा दोस्ती कर बात करनी शुरू कर दी. उन्होंने खुद को बेरोजगार बताया था. उस लापता लड़की ने एसएटीसी की दोनों सदस्यों को देहव्यापार का लालच दिया. दोनों लड़कियों को पूरे गैंग तक पहुंचना था, इसलिए उन्होंने उस के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.

इस बारे में पुलिस को सूचित कर दिया गया. इस के बाद पुलिस ने एसएटीसी सदस्यों की मदद से न सिर्फ उस लापता लड़की को मुक्त कराया, बल्कि देहव्यापार करने वाली एक महिला को भी गिरफ्तार कर लिया. तेजस्विनी प्रधान और शिवानी गोंड ने असीम साहस और निर्भीकता से पुलिस और एनजीओ की मदद से एक अंतरराष्ट्रीय सैक्स रैकेट का परदाफाश किया, बाद में पुलिस ने दिल्ली से मुख्य आरोपी को भी गिरफ्तार कर लिया था.

भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इन दोनों बालिकाओं को वीरता के गीता चोपड़ा पुरस्कार से सम्मानित किया है.

भारतीय बाल कल्याण परिषद ने वीरता का सर्वश्रेष्ठ भरत अवार्ड अरुणाचल प्रदेश की 8 साल की बच्ची तार पीजू को मरणोपरांत दिया है. हिंदुस्तान में आज भी ऐसी तमाम जगह हैं, जहां नदी पार करने के लिए पुल नहीं हैं. लोगों को पानी में घुस कर नदी पार करनी पड़ती है. तार पीजू को 19 मई, 2016 को नदी पार कर के फार्महाउस जाना था. वह अपनी 2 सहेलियों के साथ नदी पार कर के जा रही थी.

पीजू आगेआगे चल रही थी, जबकि उस की दोनों सहेलियां उस के पीछे थीं. उसी बीच उस की दोनों सहेलियां पानी के तेज बहाव में बह गईं. नदी करीब 5 फुट गहरी थी.

पीजू ने दोनों सहेलियों को बहते देखा तो वह उन्हें बचाने के लिए पानी में तैरते हुए उन के पास तक पहुंच गई. वह ज्यादा अच्छी तैराक तो नहीं थी, फिर भी अपनी कोशिश से उस ने दोनों की जान तो बचा दी, लेकिन नदी की तेज धारा में वह खुद बह गई.

बच्चों ने तार पीजू के मातापिता को यह बात बताई तो वे नदी के किनारे पहुंचे. पर उन्हें नदी में कहीं बेटी दिखाई नहीं दी. सूचना मिलने पर पुलिस पहुंची. पुलिस ने खोजबीन की तो काफी दूर आगे जा कर नदी के किनारे तार पीजू की लाश मिली.

8 साल की बालिका तार पीजू ने अपनी जान की परवाह न करते हुए अदम्य साहस का परिचय देते हुए 2 सहेलियों की जान बचा कर गौरव का काम किया था. अपने प्राणों की आहुति देने वाली तार पीजू की इलाके के लोगों ने ही नहीं, बल्कि स्थानीय प्रशासन ने भी सराहना की. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने भी तार पीजू को मरणोपरांत वीरता के भरत अवार्ड से सम्मानित किया है.

8 नवंबर, 2015 को उत्तराखंड का रहने वाला 15 वर्षीय सुमित ममगाई अपने चचेरे भाई रितेश के साथ पास ही स्थित अपने खेत से पशुओं का चारा लेने गया था. तभी अचानक झाडि़यों में छिपे एक गुलदार ने पीछे से उस पर हमला कर दिया. भाई पर गुलदार द्वारा हमला करने से सुमित डर गया. लेकिन उस ने हिम्मत नहीं हारी. साहस दिखाते हुए उस ने गुलदार पर पत्थरों से हमला करना शुरू कर दिया, साथ ही वह शोर भी मचा रहा था.

इस से गुलदार और खूंखार हो गया. रितेश को छोड़ कर उस ने सुमित पर हमला कर दिया. सुमित ने घबराने के बजाए गुलदार की पूंछ पकड़ कर उसे खींचने लगा. इस से गुलदार डर गया. सुमित ने जैसे ही उसे छोड़ा, वह दुम दबा कर भाग गया. सुमित ने गुलदार के चंगुल से अपने भाई रितेश को तो बचा लिया, लेकिन उस के हमले से उस के सिर और हाथ बुरी तरह जख्मी हो गए थे, जिन से काफी मात्रा में खून बह गया था.

खबर पा कर मौके पर पहुंचे गांव वालों ने उसे अस्पताल पहुंचाया. काफी मशक्कत के बाद डाक्टरों ने उसे बचा लिया. सुमित के अतुल्य साहस की वजह से रितेश की जान बच गई थी. सुमित की बहादुरी को देखते हुए भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उसे वीरता के संजय चोपड़ा अवार्ड से सम्मानित किया है.

भारतीय बाल कल्याण परिषद ने गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा अवार्ड सन 1978 में शुरू किया था. बाल बहादुरी के लिए ये दोनों अवार्ड दिल्ली के संजय चोपड़ा और गीता चोपड़ा नाम के भाईबहनों की याद में दिए जाते हैं. इन दोनों भाईबहनों की दिल्ली के बुद्धा गार्डन में 2 बदमाशों रंगा और बिल्ला ने हत्या कर दी थी. बाद में रंगा और बिल्ला को फांसी की सजा भी हुई थी. इस पुरस्कार के तहत प्रत्येक बच्चे को 40-40 हजार रुपए नकद, स्वर्ण पदक और वीरता प्रमाणपत्र दिया जाता है.

वीरता का सर्वोपरि भरत पुरस्कार बहादुरी का जोखिम भरा काम करने वाले बच्चे को दिया जाता है. भरत पुरस्कार से नवाजे जाने वाले बालवीर को 50 हजार रुपए नकद, स्वर्ण पदक और वीरता प्रमाणपत्र दिया जाता है. यह पुरस्कार सन 1987-88 में शुरू किया गया था. तब से अब तक यह पुरस्कार केवल 8-9 बच्चोें को ही मिला है.

बहादुर बच्चों को दिया जाने वाला एक और पुरस्कार है बापू गयाधानी पुरस्कार. भारतीय बाल कल्याण परिषद द्वारा दिए जाने वाला यह पुरस्कार सन 1988 में शुरू हुआ था. यह पुरस्कार गुजरात के बड़ौदा शहर के रहने वाले बापू गयाधानी की स्मृति में दिया जाता है. इस पुरस्कार के तहत 24 हजार रुपए, वीरता पदक और प्रमाणपत्र दिया जाता है. इस वर्ष यह पुरस्कार मिजोरम की 13 साल की लड़कियों लालरियातपुई, रोलुआपुई और छत्तीसगढ़ के 15 साल के तुषार वर्मा को दिए गए.

रोलुआपुई 3 मार्च, 2016 को अपने स्कूल की ओर से पिकनिक के लिए तुईवाल नदी के किनारे गई थी. वह अपनी कुछ सहेलियों के साथ खेल रही थी तभी उसे नदी की ओर चीखपुकार सुनाई दी. उस ने जा कर देखा कि उस की कक्षा की एक लड़की भंवर में फंस गई है.

13 साल की रोलुआपुई तैरना जानती थी, इसलिए वह 18 फुट गहरी तईवाल नदी में कूद गई और अपनी सहपाठी को भंवर से बाहर निकाल लाई. तभी एक और सहपाठी सारहा भी डूबती दिखी. वह उसे भी गहरी नदी से निकाल लाई, पर खुद तेज धारा की चपेट में आ कर भंवर में फंस गई, जिस से उस की मौत हो गई.

इसी तरह मिजोरम की ही रहने वाली एच लालरियातपुई अपने 2 साल के चचेरे भाई को बचाने की कोशिश में अपनी जान गंवा बैठी. 18 मार्च, 2016 को लालरियातपुई अपने बड़े भाई के साथ एलपीजी सिलेंडर और चावल लेने बाजार गई थी. अपने साथ कार में वह 2 साल के चचेरे भाई को भी ले गई थी. सामान ला कर वह कार की डिक्की से सामान निकाल रही थी. कार ढलान पर खड़ी थी, इसलिए वह ढलान से नीचे उतरने लगी.

कार को नीचे जाते देख बहनभाई सामान निकालना भूल गए और कार को पूरी ताकत से रोकने की कोशिश करने लगे. कार में लालरियातपुई का 2 साल का चचेरा भाई अगली सीट पर बैठा था. कार नहीं रुकी तो दूर होते हुए उस के भाई ने कार को छोड़ कर लालरियातपुई को भी कार छोड़ने को कहा. लेकिन लालरियातपुई ने कार नहीं छोड़ी.

छोटे भाई को बाहर निकालने के लिए उस ने कार का दरवाजा खोला तो दरवाजे से चोट लगने से वह गिर गई और कार के नीचे आ गई. गंभीर रूप से घायल होने पर लालरियातपुई को अस्पताल ले जाया गया, जहां उस की मौत हो गई. अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय देते हुए लालरियातपुई ने अपने भाई की जान बचाने के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की. इसलिए भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इन दोनों लड़कियों को मरणोपरांत बापू गयाधानी पुरस्कार से सम्मानित किया है.

20 सितंबर, 2015 को 15 वर्षीय तुषार अपने घर में बैठा खाना खा रहा था. तभी उस ने शोर सुना तो खाना छोड़ कर भागा. उस ने एक घर से आग की लपटें उठती देखीं. वह घर भोलूराम वर्मा का था.

आग उन के घर में बनी पशुशाला के छप्पर में लगी थी. घर में वृद्ध दंपति थे और पशुशाला में 3 गाय और 2 बैल बंधे थे. कुछ पड़ोसी भी आ चुके थे, जो आग बुझाने में लग गए. तुषार वर्मा किसी तरह छत पर चढ़ गया और कई घंटे तक आग बुझाता रहा. आग बुझते ही उस ने फटाफट छत से नीचे उतर कर पशुओं को खोला. इस प्रयास में वह झुलस भी गया था.

तुषार वर्मा के नि:स्वार्थ भाव से किए गए साहसिक कार्य से कई जानवरों की जान तो बची, साथ ही उस ने औरों के लिए एक मिसाल भी पेश की.

राजस्थान का एक गांव है करौली. 21 सितंबर, 2015 को यहीं के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में परीक्षा चल रही थी. बरामदे में करीब 70 बच्चे परीक्षा देने के लिए फर्श पर बैठे थे. छात्रों के पीछे तह किया हुआ एक आसन पड़ा था. 2 बच्चों ने जैसे ही उस आसन को उठाया, उस में से एक कोबरा निकला. उस की लंबाई लगभग 4 फुट थी.

कोबरा को देखते ही सभी बच्चे डर कर इधरउधर भागने लगे. कोबरा भागने के बजाए खड़ा हो कर फन हिलाने लगा. बच्चे तो बच्चे हैं, कोबरा को देख कर बड़ों की भी घिग्घी बंध जाती है. उसे देख कर सभी दूर हो गए. कोबरा अचानक तेजी से एक छात्र धर्मेंद्र माली की ओर बढ़ा. तभी सोनू माली नाम के अन्य छात्र ने धर्मेंद्र को गोद में उठा कर दूर कर दिया.

9 साल के सोनू माली ने अपने साहसिक प्रयास से अपने सहपाठी को कोबरा के हमले से बचा कर एक सराहनीय कार्य किया था. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने बच्चे के इस साहसिक कार्य के लिए उसे वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है.

कर्नाटक की 10 साल की सिया वामनसा खोडे़ ने अपनी बुद्धि से जिस तरह अपने भाई की जान बचाई, देख कर बड़े भी हैरान रह गए. बात 14 अप्रैल, 2015 की है. सिया अपने 4 साल के भाई और चचेरे भाइयों के साथ खेल रही थी. उसी बीच बच्चों ने छत पर जाने का फैसला किया. जैसे ही सब छत पर पहुंचे, सिया को अपना भाई दिखाई नहीं दिया. वह उसे ढूंढने लगी.

उसे कमरे में उस का भाई दिख गया. पर वह एक जगह स्थिर था. वह न हिल रहा था और न ही कुछ बोल रहा था. तभी सिया की नजर बिजली के उस तार पर पड़ी, जो उस के भाई के हाथ में था. सिया समझ गई कि यह करंट की चपेट में है. स्कूल में पढ़ाई के दौरान सिया को बताया गया था कि करंट की चपेट में आए व्यक्ति को किस तरह से बचाना चाहिए.

भाई का हाथ पकड़ कर खींचने पर वह खुद भी करंट की चपेट में आ सकती थी, इसलिए उस ने सावधानी बरतते हुए भाई की शर्ट पकड़ी और उसे जोर से खींचा. ऐसा करने से भाई बिजली के तार से छूट गया और वह खुद भी गिर गई. उस के चचेरे भाइयों के शोर मचाने पर सिया के मांबाप भी कमरे में पहुंच गए.

वे उसे अस्पताल ले गए, जिस से उस की जान बच गई. सिया वामनसा खोड़े के विवेकपूर्ण कार्य से उस के भाई की जान बच गई. उस के इस कार्य की गांव के सभी लोगों ने तारीफ तो की ही, साथ ही भारतीय बाल कल्याण परिषद ने भी उसे राष्ट्रीय वीरता के पुरस्कार से सम्मानित किया.

सिया की तरह मणिपुर के साढ़े 14 साल के मोइरंगथम सदानंदा सिंह ने भी सही समय पर सही समझ का उपयोग कर के अपनी मां की बिजली के करंट से जान बचाई थी. दरअसल उस के घर का आंगन इस तरह का था कि बारिश का पानी वहां जमा हो जाता था. इस के बाद मोटर के जरिए उस पानी को निकाला जाता था. 6 मई, 2016 को हुई बारिश का पानी भी उस के आंगन में भर गया था.

सदानंद की मां राधामनी देवी ने मोटर का तार किचन के बिजली बोर्ड से लगाया. उस समय वह किचन में खाना बना रही थीं. अचानक शार्टसर्किट से बोर्ड में आग लग गई. राधामनी ने मोटर के प्लग को बोर्ड से निकालने की कोशिश की तो वह बिजली के करंट की चपेट में आ गईं.

अपनी मां को करंट की चपेट में देख कर सदानंद भागाभागा कमरे में गया और लकड़ी का डंडा ले कर किचन में पहुंचा और मां के हाथ पर प्रहार कर के करंट से अलग किया. करंट से अलग होते ही राधामनी बेहोश हो कर गिर पड़ीं.

सदानंद फटाफट कमरे से कंबल लाया और मां को ओढ़ा दिया. फिर शोर मचाया. लोग राधामनी को अस्पताल ले गए, तब कहीं जा कर उन की जान बच सकी. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने बहादुर बालक सदानंद को वीरता के पुरस्कार से सम्मानित किया है.

13 दिसंबर, 2015 को हिमाचल प्रदेश के एक निजी स्कूल के बच्चे पिकनिक के लिए धर्मशाला गए थे. वहां से लौटते समय सभी शिवद्वाला में रुके. कुछ बच्चे और अध्यापक बस से उतर गए. बस का ड्राइवर भी उतर गया. उस ने बस का इंजन बंद नहीं किया था. उसी समय एक बच्चे ने ड्राइवर की सीट पर बैठ कर गियर बदल कर क्लच पर पैर रख दिया.

ऐसा करते ही बस चल पड़ी. बस के अंदर मौजूद बच्चे चीखनेचिल्लाने लगे. तभी 11 साल का प्रफुल्ल शर्मा दौड़ कर ड्राइवर की सीट पर पहुंचा और उस ने सूझबूझ का परिचय देते हुए ब्रेक पर पैर रख कर बस को रोक दिया. इस के बाद उस ने बस की चाबी निकाल कर उस के इंजन को बंद कर दिया.

प्रफुल्ल शर्मा ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए कई बच्चों की जान बचाई थी. स्कूल प्रशासन ने तो प्रफुल्ल शर्मा के कार्य की सराहना की ही, भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इस बच्चे को वीरता के पुरस्कार से सम्मानित किया है.

गांवदेहात में रहने वाले बच्चों को तैराकी सीखने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं होती. वे आसपास नदी या तालाब में नहातेनहाते अपने दूसरे साथियों को देख कर तैराकी सीख जाते हैं. दिल्ली के साढ़े 16 साल के नमन, केरल की बदरुन्निसा, 14 वर्षीय आदित्यन, 16 वर्षीय बिनिल मंजली, 16 साल के अखिल के. शिबू, उड़ीसा के 11 वर्षीय मोहन सेठी, नागालैंड के 10 वर्षीय थंगिलमंग लंकिम, छत्तीसगढ़ की 8 वर्षीया कुमारी नीलम, असम के 16 वर्षीय टंकेश्वर पीगू एवं जम्मूकश्मीर की 12 वर्षीया बालिका पायल देवी ने डूबते हुए बच्चों की जान बचाने में अपनी जान की बाजी लगा दी थी.

इस प्रयास में पायल खुद अपनी जान गंवा बैठी. भारतीय बाल कल्याण  परिषद ने इन सभी बच्चों की बहादुरी को देखते हुए राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है. नमन फिल्म ‘सुलतान’ में रेफरी की भूमिका निभाने वाले शमशेर सिंह का बेटा है.

उत्तर प्रदेश की साढ़े 14 साल की बालिका अंशिका पांडेय ने निहत्थे होते हुए हथियारबंद बदमाशों से जिस तरह खुद को मुक्त कराया, उस का यह साहस काबिलेतारीफ था. बात 14 सितंबर, 2015 की है. अंशिका साइकिल से अपने स्कूल जा रही थी. घर से करीब 500 मीटर ही निकली थी, तभी एक एसयूवी गाड़ी उस के पास आ कर रुकी. गाड़ी में पिछली सीट पर बैठे व्यक्ति ने गेट खोल कर अंशिका से कोई पता पूछा.

जैसे ही वह पता बताने लगी, उस आदमी ने बाल पकड़ कर अंशिका को गाड़ी में खींचने की कोशिश की. अंशिका ने चीखते हुए अपने पैर गेट पर फंसा दिए, जिस से गेट बंद न हो सका. जब उस आदमी को असफलता दिखाई दी तो उस ने चालक से एक बोतल मांगी, जिस में तेजाब था. जैसे ही उस व्यक्ति ने बोतल का ढक्कन खोलना चाहा, अंशिका ने उस के हाथ में दांतों से काट लिया, जिस से बोतल नीचे गिर गई.

उधर से गुजर रही अंशिका की सहेली ने यह मंजर देख कर शोर मचाना शुरू कर दिया. इस के बाद हमलावर डर गया. बौखलाहट में उस ने चाकू निकाल कर जैसे ही अंशिका के चेहरे पर हमला किया, अंशिका ने बचाव करते हुए अपना दायां हाथ आगे कर दिया, जिस से उस का हाथ जख्मी हो गया.

बदमाश ने गाड़ी का दरवाजा बंद करना चाहा, पर अंशिका का पैर अड़ा होने की वजह से जब दरवाजा बंद नहीं कर सका तो अंशिका को धक्का दे कर गिरा दिया और गाड़ी ले कर भाग गया.

अंशिका यदि हिम्मत और सूझबूझ से काम न लेती तो उस के साथ कोई बड़ी वारदात हो सकती थी, पर उस ने निर्भीकतापूर्वक बदमाश से मुकाबला किया. उस की इस बहादुरी पर भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उसे राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है.

8 दिसंबर, 2015 की बात है. दिल्ली की अक्षिता और उस का छोटा भाई अक्षित स्कूल से घर पहुंचे तो उन्हें अपने घर के मेनगेट का लोहे का दरवाजा खुला मिला, जबकि उसी गेट का लकड़ी का दरवाजा अंदर से बंद था. बच्चों ने दरवाजा खटखटाया तो अंदर से कोई अनजानी आवाज आई. बच्चों को शक हुआ तो अक्षिता ने दरवाजे के ऊपर बने रौशनदान से अंदर झांका. उसे 2 अजनबी लोग ड्राइंगरूम में घूमते दिखे.

उस ने एक आदमी को सामान के साथ बालकनी से कूदते देखा. अक्षिता समझ गई कि ये चोर हैं. वह शोर मचाती हुई उसे पकड़ने दौड़ी. तभी बदमाश ने उस की गरदन पकड़ ली और उसे थप्पड़ मारने लगा. इस से अक्षिता का चश्मा गिर गया और चोर भाग गया.

दूसरा चोर बैग के साथ बालकनी की तरफ आया तो अक्षित ने स्कूल का बैग एक तरफ फेंका और उस की तरफ दौड़ा. दोनों बच्चों ने चोर को कस कर पकड़ा और शोर मचा दिया. शोरशराबा सुन कर पड़ोसी आ गए और उस चोर को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया.

अक्षिता शर्मा और अक्षित शर्मा ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए एक बदमाश को सलाखों के पीछे पहुंचाया था. दोनों बच्चों की निडरता को देखते हुए भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उन्हें राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है.

महाराष्ट्र की साढ़े 16 साल की निशा दिलीप पाटिल 14 जनवरी, 2016 को अपने घर में थी. पड़ोस में रहने वाली कस्तूरबाबाई अपने बेटे को स्कूल छोड़ने गई थी. तभी अचानक उस के घर में आग लग गई. शोर मचाते हुए निशा उस के घर में घुस गई. उस का 6 माह का बच्चा पालने में पड़ा रो रहा था. उस कमरे में आग फैल चुकी थी.

निशा उस बच्चे को निकाल लाई. इस प्रयास में निशा मामूली रूप से झुलस भी गई थी. उधर निशा का शोर सुन कर जो पड़ोसी आए थे, वे आग बुझाने में लगे थे. तब तक कस्तूरबाबाई घर लौट आई थीं. घर में लगी आग से वह घबरा गई, लेकिन बेटे को सुरक्षित देख कर उस ने राहत की सांस ली. इस तरह निशा ने अपनी सूझबूझ से एक शिशु की जान बचाई. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने निशा के कार्य की प्रशंसा करते हुए उसे राष्ट्रीय वीरता का पुरस्कार प्रदान किया.

राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार पाने वाले बहादुर बच्चों को मैडल, प्रशस्तिपत्र के अलावा 20 हजार रुपए दिए जाते हैं. भारतीय बाल कल्याण परिषद की अध्यक्षा गीता सिद्धार्थ ने बताया कि पुरस्कृत बच्चों को उन की स्कूली पढ़ाई पूरी करने के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्मृति में पढ़ने वाले बच्चों को छात्रवृत्ति भी प्रदान की जाती है. इस के अलावा मैडिकल, इंजीनियरिंग, पौलिटेक्निक में प्रवेश के लिए इन्हें विशेष सुविधा दी जाती है. राज्य सरकारें भी ऐसे बच्चों को कई तरह की सुविधाएं देती हैं.

भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इस बार 25 बच्चों को वीरता पुरस्कार के लिए चुना, जिन में 13 लड़के और 12 लड़कियां थीं. इन में से 4 बच्चे ऐसे भी थे, जिन्हें दूसरे की जान बचाने में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. उन चारों बच्चों के मांबाप ने यह पुरस्कार हासिल किया. सन 1957 से अब तक भारतीय बाल कल्याण परिषद 669 बालक और 276 बालिकाओं को इस पुरस्कार से सम्मानित कर चुकी है.

गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब इन बच्चों को राष्ट्रीयवीरता पुरस्कार से सम्मानित किया तो वहां मौजूद अभिभावकों की आंखों में आंसू छलक आए. इस के बाद सभी बहादुर बच्चों को खुली जीप में बैठा कर गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल किया गया.

इस से पहले एक सप्ताह तक उन्हें राष्ट्रपति एवं बड़े राजनेताओं और उद्योगपतियों से मिलवाया गया. उन्हें दिल्ली तथा आसपास के पर्यटकस्थलों की सैर भी कराई गई. जिन बच्चों को मरणोपरांत वीरता पुरस्कार दिया गया, उन के अभिभावकों ने आंखों में छलके आंसू पोंछते हुए कहा कि यदि उन के बच्चे भी जीवित होते तो और ज्यादा खुशी होती. फिर भी उन्हें अपने बच्चों पर फख्र है कि उन्होंने दूसरों की जान बचाई.

चाय बेचिए करोड़पति बनिए

जीहां, चाय बेच कर भी करोड़पति बना जा सकता है. यह सुन कर आप को हैरानी जरूर होगी, लेकिन सचाई यह है कि चाय बनाने और बेचने का धंधा काफी मुनाफा देने वाला हो सकता है. यह मैं नहीं बोल रहा, बल्कि पटना वुमंस कालेज के सामने चाय बेचने वाली ‘ग्रेजुएट चाय वाली’ प्रियंका गुप्ता का कहना है.

एक इंटरव्यू के दौरान प्रियंका गुप्ता ने बताया, ‘‘मुझे रोजाना 3,000 से 5,000 रुपए के बीच इनकम हो रही है. इस तरह मैं महीने में एक से डेढ़ लाख रुपए कमा रही हूं. मैं कुछ सालों में ही करोड़पति बनने की राह पर चल पड़ी हूं. अगर मैं नौकरी करती तो 40-50 हजार रुपए से ज्यादा नहीं कमा पाती, लेकिन मुझे इस धंधे में नौकरी से ज्यादा इनकम हो रही है.’’

शायद यही वजह है कि आज ऊंची डिगरीधारी लोग भी बेहिचक चाय बनाने और बेचने का धंधा करने में गुरेज नहीं कर रहे हैं, बल्कि कुछ लोग अपनी डिगरी को टपरी या दुकान के आगे बढि़या से बैनर में दिखा कर समाज के लोगों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं.

जिस तरह देशभर में बेरोजगारों की तादाद बढ़ती जा रही है, ऐसे में नौजवानों को स्वरोजगार के बारे में सोचना बेहद जरूरी हो गया है. अगर आज भी लोग औरों की तरह सिर्फ नौकरी के पीछे भागते रहेंगे, तो बेरोजगारों की तादाद और बढ़ती जाएगी, क्योंकि सरकार ने नौकरियों के पद निकालना तकरीबन बंद कर दिया है.

सरकार चुनाव के समय ऐलान जरूर करती है कि 20 लाख लोगों को रोजगार दिया जाएगा, लेकिन चुनाव होने के बाद नौकरी देने का वादा सिर्फ जुमला बन कर रह जाता है.

बिहार के पूर्णिया जिले की रहने वाली प्रियंका गुप्ता इकोनौमिक्स से ग्रेजुएशन कर चुकी हैं. वे पटना महिला कालेज के सामने चाय की टपरी लगा कर नौजवानों में एक संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि कोई भी काम बड़ा या छोटा नहीं होता है.

प्रियंका गुप्ता 2 साल से बैंक की नौकरी की तैयारी कर रही थीं, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पा रही थी. वे नौकरी नहीं मिलने के चलते निराश जरूर थीं, लेकिन साथ ही जल्दी से जल्दी आत्मनिर्भर भी होना चाहती थीं, इसलिए वे जगहजगह चाय की दुकानों पर 3 महीने तक बारीकी से स्टडी करती रहीं, तब जा कर वे मन बना पाईं कि उन्हें चाय की दुकान ही खोलनी है.

प्रियंका गुप्ता ने अपने इस सफर के बारे में बताया, ‘‘जब मैं बैंक से लोन लेने गई, तो मुझे यह कह कर टाल दिया गया कि आप यहां की रहने वाली नहीं हैं. ऐसे में मैं निराश नहीं हुई और मैं ने अपने दोस्तों से पैसे उधार ले कर चाय बेचने का धंधा शुरू किया.

‘‘मैं नौजवानों को यह संदेश देने की कोशिश कर रही हूं कि आप नौकरी नहीं मिलने पर निराश न हों, बल्कि आत्मनिर्भर होने की सोचें. कोई भी काम बड़ा या छोटा नहीं होता है. आज ऐसे नौजवान भी हैं, जो अपना रोजगार करना चाहते हैं. वे सभी मुझ से मिल कर काफी प्रभावित हो रहे हैं.’’

कुछ साल पहले मध्य प्रदेश के छोटे से शहर धार के रहने वाले प्रफुल्ल बिल्लोरे ने ‘एमबीए चायवाला’ के नाम से चाय की दुकान खोल कर खूब शोहरत बटोरी थी. आज उन का करोड़ों का टर्नओवर हो चुका है. नौजवानों का एक तबका उन से खासा प्रभावित हुआ है और उन्हीं की तरह कुछ अलग करना चाहता है.

प्रफुल्ल बिल्लोरे का कहना है, ‘‘जब मुझे कैट इम्तिहान में कामयाबी नहीं मिली, तो मैं कुछ अलग करने के लिए मन बना रहा था. मैं ने देशभर में घूमघूम कर यह जानने की कोशिश की कि कौन सा रोजगार करना ठीक रहेगा, तो मैं ने पाया कि चाय एक ऐसी चीज है, जिसे देश के कोनेकोने में इस्तेमाल किया

जाता है.

‘‘उस समय मेरे पास खुद कारोबार करने के लिए पूंजी नहीं थी. हालांकि मैं चाहता तो अपने मातापिता से लाख

2 लाख रुपए पूंजी के रूप में ले सकता था और अच्छा बिजनैस कर सकता था, लेकिन मैं ने ऐसा नहीं किया.

‘‘मैं ने मात्र 8,000 रुपए लगा कर सड़क किनारे चाय बेचने की शुरुआत की थी. मुझे दूसरे नौजवानों से कहना है कि आप सिर्फ नौकरी के भरोसे नहीं रहें, बल्कि किसी न किसी तरह अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए जरूर सोचें. एक बार ऐसा सोचने और करने पर कामयाबी जरूर मिलती है.

‘‘मैं ने एमबीए करने के बाद अच्छी नौकरी नहीं मिलने के चलते हैदराबाद में चाय की दुकान की शुरुआत की थी और आज मेरा 4 करोड़ का टर्नओवर हो चुका है. मैं एक बात और बताना चाहता हूं कि मुझे चाय बनानी नहीं आती थी. जिन दिनों मैं चाय बेच रहा था, उन दिनों मैं सड़कों पर संघर्ष कर रहा था.

‘‘कुछ नौजवान आज भी यही सोचते हैं कि अपने रोजगार के लिए 10-20 लाख रुपए लगाएं और अगले दिन से इनकम शुरू. लेकिन यह सोचना गलत है. पहले संघर्ष कीजिए, बाजार को समझिए, बाजार में क्या मांग है, किस काम को आप आसानी से कर सकते हैं वगैरह. इन सारी बातों को सोचने के बाद ही रोजगार करने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए.’’

बिहार के मधुबनी जिले के रहने वाले अनुराग रंजन पंजाब से बीटैक की डिगरी हासिल कर चुके हैं. वे 28,000 रुपए महीने की नौकरी भी कर रहे थे. लेकिन उन का नौकरी में मन नहीं लग रहा था. वे कुछ अलग करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सीमित आय वाली नौकरी छोड़ने का मन बनाया और अपने घरपरिवार वालों के विरोध के बावजूद दरभंगा के भठियारीसराय महल्ले में चाय के स्टौल की शुरुआत की. आज वे नौकरी से ज्यादा पैसा कमा रहे हैं.

अनुराग रंजन के पिता गांव में डाक्टर हैं. अनुराग ने अपनी दुकान पर अपनी तसवीर के साथ डिगरी भी लिख रखी है. यही डिगरी आकर्षण का केंद्र बनी हुई है.

अनुराग रंजन की चाय की दुकान उस इलाके में है, जहां कोचिंग सैंटर खूब चलते हैं, इसलिए उन के ज्यादातर ग्राहक छात्र ही हैं.

अनुराग रंजन 17 तरह की चाय बना कर बेचते हैं. उन के पास 7 रुपए से ले कर 55 रुपए तक की चाय है. वे अपनी दुकान पर रोजाना स्लोगन भी लिखते हैं, जिस से उन के ग्राहक मोटिवेट होते हैं.

अनुराग रंजन ने बताया, ‘‘शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी पाना नहीं है, बल्कि लोगों को नौकरी देना भी होता है. किसी के नौकर बनने से अच्छा है खुद का मालिक बनें. नौकरी से बड़ेबड़े सपने पूरे नहीं किए जा सकते हैं, सिर्फ अपनी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है, इसीलिए मैं ने अपने सपने सच करने के लिए खुद का स्टार्टअप शुरू किया है.’’

हमारा देश दुनिया में चाय उत्पादक के रूप में दूसरे नंबर पर है. लेकिन चाय की खपत के मामले में आज भी दूसरे देशों के मुकाबले काफी पीछे है यानी यहां पर चाय का धंधा करना अभी भी मुनाफे से भरा हुआ है.

अगर इस धंधे को सही तरीके से किया जाए, तो यह काफी आमदनी वाला साबित हो सकता है. सिर्फ काफी आमदनी वाला ही नहीं, बल्कि कुछ सालों में करोड़पति भी बना सकता है. इस के लिए किसी खास ट्रेनिंग की जरूरत भी नहीं होती है.

औरतों की खरीद फरोख्त, दर्द की दोहरी मार

औरतों की खरीदफरोख्त का गलत धंधा गरीबी के चलते फलताफूलता है. इस धंधे के बाकी पहलुओं पर तो आमतौर पर बात होती है, पर औरतों की जिस्मानी और दिमागी परेशानियों पर कम ही बात होती है. औरतों की खरीद फरोख्त में सब से ज्यादा बुरा असर औरतों पर ही पड़ता है. वे जिस्मानी ही नहीं, बल्कि दिमागी तौर पर भी टूट कर बिखर जाती हैं.

हम ने अस्पताल में बीमार चल रही निर्मला के जरीए खरीदफरोख्त की शिकार औरतों की हालत को समझने की कोशिश की. गरीबों के लिए खूबसूरती भी किसी शाप से कम नहीं होती. गरीब की बेटी खूबसूरत होती है, तो उस का बचपन जल्द ही जवानी में बदल जाता है.

50 साल की उम्र में निर्मला को अब यह बात पूरी तरह से समझ आ चुकी है. लखनऊ, उत्तर प्रदेश के चारबाग रेलवे स्टेशन पर निर्मला अपनी 30 साल की बेटी और 15 साल की नातिन के साथ पुलिस की पकड़ में आई.

3 पीढि़यां एकसाथ देह धंधे में लग कर भी इतना नहीं कमा पातीं कि एक आम जिंदगी जी सकें. निर्मला रांची, झारखंड की रहने वाली थी. वह गरीब परिवार की थी. देखने में वह खूबसूरत थी. 15 साल की उम्र में ही उस की शादी अपने से तिगुनी उम्र के एक बूढ़े से हो गई थी. ऊपर से देखने में यह शादी जरूर थी, पर असल में यह खरीदफरोख्त थी.

निर्मला का पति जुराखन उसे अपने साथ पंजाब ले कर चला गया, जहां उस ने पैसों के बदले उसे बेच दिया. जुराखन ने निर्मला को बताया कि उस के पिता ने ही उसे बेचने को कहा है. बिक चुकी निर्मला एक हाथ से दूसरे हाथ होती दिल्ली के जीबी रोड के देह बाजार में पहुंच गई.

1. बच्चे से जरूरी ग्राहक

18 साल की उम्र में जब आमतौर पर लड़कियां बालिग होती हैं, तब निर्मला एक बेटी की मां बन चुकी थी. वह अपनी बेटी के साथ ही देह बाजार में पहुंचा दी गई थी.

गांव की रहने वाली निर्मला ने जिंदगी के थपेड़े खा कर जद्दोजेहद करनी सीख ली थी. उसे सब से बुरा उस वक्त लगता था, जब उस की बेटी भूखी होती थी और दूध पीने के लिए रोती थी. उसी वक्त कोई ग्राहक उस की जवानी के साथ खेलने को मचलने लगता था.

कोठे की मालकिन के लिए बच्ची की भूख से ज्यादा ग्राहक की प्यास अहम होती थी. निर्मला को न चाहते हुए भी बेटी की भूख से पहले ग्राहक की प्यास मिटानी होती थी.

निर्मला एक दिन को याद कर के रोने लगी. उस ने बताया, ‘‘उस दिन एक ग्राहक को खुश कर के मैं अपनी बेटी को दूध पिला ही रही थी कि एक और ग्राहक आ गया. मालकिन ने उसे भी मेरे पास भेज दिया. मैं ने उस से कहा कि बेटी को दूध पिला लेने दो. तुम थोड़ा रुक जाओ.

‘‘यह बात ग्राहक और मालकिन दोनों को पसंद नहीं आई. ग्राहक बोला, ‘जब सब बेटी ही पी लेगी, तो मेरे लिए क्या बचेगा ? मेरे पास समय नहीं है. मैं दूसरी जगह चला जाता हूं.’

‘‘यह कहते हुए वह वापस जाने को मुड़ा, तो मालकिन ने बेटी को मेरी गोद से छीन कर कमरे में पड़ी एक चारपाई पर फेंक दिया और मुझे धक्का दे कर कमरे के कोने में पड़े बिस्तर पर पटक दिया. मेरे कपड़े उतार दिए और ग्राहक से बोली, ‘तुझे कहीं नहीं जाना. अब यह तेरे लिए तैयार है.’

‘‘मेरे नंगे बदन पर निगाह पड़ते ही वह ग्राहक मेरे ऊपर टूट सा पड़ा. उधर मेरी भूखी बेटी रोती रही, इधर मैं दर्द से सिसकारियां लेती रही.

‘‘उस दिन मैं ने तय कर लिया था कि अब मुझे यहां नहीं रहना. रात का समय था. मैं अपनी बेटी को घुमाने के बहाने सड़क पर आई और वहां से चुपचाप भाग निकली.

‘‘भागने के बाद कहां जाना है, यह समझ नहीं आ रहा था. किसी तरह  दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गई और वहां से बिना टिकट भिखारी बन कर रेल के सफर को तय कर के अपने शहर रांची आ गई और वहां से अपने घर पहुंच गई.’’

24 घंटे के अंदर ही निर्मला के घर पहुंचने की खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई. लोगों को यह भी पता चल गया कि पति ने निर्मला को कोठे पर बेच दिया था, जहां से भाग कर वह अपने घर आई है. इस के लिए निर्मला को ही गुनाहगार समझा जाने लगा. उसे समाज से बाहर करने की योजना बनने लगी.

2. समाज की बेरुखी

 जिस गांव और घर को निर्मला का साथ देना था, वे दोनों ही उस के खिलाफ खड़े हो गए. गांव के लोगों ने पंचायत बिठा कर फैसला किया कि निर्मला के गांव में रहने से गांव की दूसरी लड़कियों और औरतों पर बुरा असर पड़ेगा. निर्मला के पिता और परिवार में गांव के विरोध का सामना करने की हिम्मत नहीं थी.

अपने ही गांव में निर्मला को जोरजुल्म का शिकार होना पड़ा. पेट की आग बुझाने के लिए निर्मला को फिर से अपनी देह का सहारा नजर आने लगा और एक दिन वह गांव छोड़ कर पटना होते हुए पश्चिम बंगाल पहुंच गई.

दिल्ली से गंदगी के जिस कारोबार को छोड़ कर वह भागी थी, वही उसे फिर से अपनाना पड़ा. समय के साथ निर्मला की बेटी भी बड़ी होने लगी थी. बेटी के लिए भी उस की खूबसूरती घातक बन गई.

एक दिन एक ग्राहक की निगाह निर्मला की बेटी पर पड़ी, तो वह मचल गया. ज्यादा पैसों की पेशकश हो गई. निर्मला को भी लगा कि कब तक वह बेटी को इस दलदल से बचा कर रख पाएगी और उस ने बेटी को भी अपने साथ देह धंधे में उतार लिया. कोलकाता के देह बाजार में निर्मला अपनी और बेटी की कमाई से घर चलाने लगी.

पर गरीब के घर में सुख ज्यादा देर नहीं टिकता है. कोलकाता में बीमारी फैल गई. तब वहां से पुलिस ने ऐसी तमाम औरतों को बाहर निकाल दिया. निर्मला अपनी बेटी के साथ एक बिचौलिए के जरीए वाराणसी आ गई. यहां बेटी ने अपने एक चाहने वाले से शादी कर ली, पर वह शादी भी ज्यादा लंबी नहीं चली. बेटी जब मां बनने वाली हुई, तो उस के पति ने उस को लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर जा कर छोड़ दिया.

बेटी ने अपनी कहानी मां को बताई. मां वाराणसी से लखनऊ आ गई. यहां वे किराए के कमरे में रहने लगीं. अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए मां अब देह बेच रही थी. बेटी को भी बेटी ही हुई. इस बीच निर्मला के मकान मालिक को यह पता चल गया कि वह गलत धंधे में है, इसलिए उस ने अपना मकान खाली करा लिया.

3. बिखर गए करीबी रिश्ते

 निर्मला सड़क पर आ गई. मांबेटी के बीच भी संबंध खराब होने लगे. अब निर्मला गोरखपुर चली गई. वहां वह सड़क किनारे रहने लगी. ग्राहक कम हो गए. पेट पालना मुश्किल हो गया. अब वह भीख मांगने लगी.

कुछ साल में निर्मला की नातिन अपनी मां का साथ छोड़ कर निर्मला के पास रहने आ गई. 12 साल की उम्र में ही वह लोगों की निगाह में चढ़ गई. भीख मांगने वाले बच्चों के साथ रहते हुए उसे नशे की लत लग गई. पैसों की जरूरत को पूरा करने के लिए वह भी अपनी मां और नानी की तरह देह धंधे के पेशे में उतर गई.

12 साल की उम्र में उसे देह संबंधों का इल्म तक नहीं था. ऐसे में ग्राहकों के लिए वह मुंहमांगी मुराद थी. 2 सौ रुपए, एक जोड़ी कपड़े और कुछ अच्छा खाने के बदले उस का कुंआरापन छिन गया.

निर्मला को जब यह पता चला, तो वह नातिन को ले कर उस की मां के पास वापस लखनऊ आ गई. मां के पास कुछ था नहीं, तो तीनों मिल कर ही देह धंधा करने लगीं.

जो लोग यह कहते हैं कि देह धंधे में पैसा है, उन के लिए निर्मला की कहानी मिसाल है. एकसाथ 3 पीढि़यों के देह धंधा करने के बाद भी वे भिखारियों सी जिंदगी जीती रही हैं.

निर्मला को पहले सैक्स से जुड़ी बीमारी हुई, फिर टीबी हो गई. जो लोग उस के तन से लिपटने के लिए सबकुछ करने को तैयार रहते थे, अब उस की परछाईं से भी दूर भागने लगे.

एक एनजीओ की मदद से निर्मला सरकारी अस्पताल में अपना इलाज करा रही है. बेटी मां की हालत देख कर भी देह धंधा करने को मजबूर है.

4. गैंगरेप जैसी सजा

बात केवल निर्मला तक ही नहीं सिमटी है. देह धंधे से बचा कर लाई गईं 95 फीसदी लड़कियां वापस उसी धंधे में चली जाती हैं. एक तो इन का मनोबल टूट जाता है, दूसरे इन के घरपरिवार और समाज के लोग इन्हें नहीं अपनाते.

ऐसी लड़कियों को छुड़ाने का काम करने वाले अजीत सिंह कहते हैं कि लड़कियों को सही राह पर लाना और उन के लिए सही माहौल बनाना बड़ा ही मुश्किल काम है, जो किसी कानून से नहीं बन सकता. इस के लिए सामाजिक पहल सब से ज्यादा जरूरी होती है. कई बार लड़कियां डर के मारे देह धंधे को छोड़ कर भागना नहीं चाहती हैं.

अपने साथ की कुछ लड़कियों का जिक्र करते हुए निर्मला बताती है, ‘‘खरीदफरोख्त कर के लाई जाने वाली लड़कियों के साथ बहुत ही बुरा बरताव किया जाता है. ऐसा बरताव तो जानवरों के साथ भी नहीं होता है. मारनेपीटने, भूखा रखने की बातें तो बहुत छोटी लगती हैं.

‘‘कम उम्र की लड़कियों को नंगा कर के मर्दों के सामने खड़े होने के लिए मजबूर किया जाता है. उन के सामने दूसरी लड़की के साथ संबंध बनाए जाते हैं. छोटीछोटी लड़कियों के साथ कईकई मर्द एकसाथ संबंध बनाते हैं.

‘‘लगातार कईकई दिनों तक यह सिलसिला जारी रहता है. कई बार तो माहवारी के समय भी यह सिलसिला नहीं रुकता है.

‘‘कई बार तो लड़कियों को एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया जाता है, जहां न खाना मिलता है और न ही पानी. एक कमरे में कईकई लड़कियां होती हैं. कुछ लड़कियों को नशे का आदी बना दिया जाता है.

‘‘कई छोटी लड़कियों को हार्मोन के इंजैक्शन दे कर समय से पहले ही जवान बनाने का काम किया जाता है, जिस से वे जल्दी सैक्स के लिए तैयार हो जाएं.

‘‘ज्यादातर लड़कियां भीख के धंधे से वहां लाई जाती हैं. भीख मांगने वाली लड़कियां जहां 12 साल की होती हैं, उन को देह धंधे में उतार दिया जाता है. उन को शुरुआत में यह काम भीख मांगने से अच्छा लगता है, क्योंकि जहां भीख मांगने के समय कोई उन्हें 5-10 रुपए से ज्यादा नहीं देता है, वहां इस में उन्हें एक बार में सैकड़ों रुपए मिलने लगते हैं.’’

निर्मला आगे बताती है, ‘‘अगर रैस्क्यू कराई गई कोई लड़की वापस आती है, तो उस को खूब गालियां दी जाती हैं. इस के बाद उस को हर तरह से सताया जाता है. दूसरी लड़कियों को यह बताया जाता है कि बाहर की दुनिया से अब तुम्हारा कोई नाता नहीं रह गया है. यहीं रहनामरना तुम्हारी मजबूरी है.

‘‘ऐसे हालात को देख कर कोई लड़की यहां से भागने की नहीं सोचती है. बिचौलिए अपना शिकंजा इतना कस कर रखते हैं कि कोई लड़की रैस्क्यू हो कर नहीं जाना चाहती है.’’

आशीष श्रीवास्तव अपनी संस्था के साथ रैस्क्यू कर लड़कियों को समाज से जोड़ने का काम करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘लड़कियों के मन में इतना डर बैठा होता है कि कई बार वे रैस्क्यू करने वालों के खिलाफ ही मुकदमा दर्ज करा देती हैं.’’

5. कानून की मिलीभगत

 निर्मला कहती है, ‘‘जिन लोगों को यहां के हालात नहीं पता, उन को लगता है कि यह धंधा मजे का है. रोज नएनए लोग मिलते हैं. सजसंवर कर रहने को मिलता है. बिना मेहनत के पैसा मिल जाता है. पर यहां रहने वाली किसी औरत से पूछो तो पता चलता है कि वह हर ग्राहक के साथ बारबार मरती है.

‘‘ग्राहक उस से कुछ भी कराने की फिराक में रहता है. वह सोचता है कि लड़की प्यार से पेश आए. वह यह भूल जाता है कि प्यार के बारे में तो वह कब की भूल चुकी होती है.

‘‘ज्यादातर लड़कियां प्यार और नकली शादी के नाम पर ही छले जाने के बाद यहां आती हैं. हालात ये हो जाते हैं कि ग्राहक के पटने के पहले तक अदाएं दिखा कर रिझाने वाली औरतें तुरंत अपने रंग में आ जाती हैं. उन के लिए सबकुछ मशीनी हो जाता है.’’

आशीष श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘लड़की समाज और कानून दोनों ही व्यवस्थाओं को ठीक से जानसमझ लेती है. जहां उस के करीबी लोग बेचने का काम करते हैं, वहीं कानून के रक्षक बने पुलिस वाले भी बिक चुके होते हैं.

‘‘कई बार तो पुलिस के सामने ही खरीदफरोख्त होती है, जिस से बिकने वाली औरत हताश हो जाती है. वह यहीं रहना अपनी किस्मत मान बैठती है. वह यहां से वापस नहीं जाना चाहती.

‘‘कुछ साल तक तो सबकुछ ठीक रहता है, पर उम्र बढ़ने और बाजार में कीमत घटने से हताशा और भी ज्यादा बढ़ जाती है, जिस के बाद लड़की के लिए कुछ भी करना मुमकिन नहीं होता है.’’

आधी आबादी हो गई है शराब के खिलाफ

देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कई हिस्से इन दिनों शराब के खिलाफ आंदोलन के चलते सुर्खियों में हैं. वहां के तकरीबन 3 दर्जन जिलों में शराब के ठेकों का विरोध जारी है. विरोध की यह आवाज आधी आबादी यानी औरतों की है. जाहिर है, शराबखोरी से सब से ज्यादा पीडि़त भी वे ही होती हैं. घर के कमाऊ सदस्य जब दिनरात हाड़तोड़ मेहनत से हासिल कमाई शराब ठेकों के हवाले कर देते हैं, तो परिवार के पेट पालने की चुनौती औरतों को ही झेलनी पड़ती है. आबादी के बीच बने शराब के ठेकों ने औरतों और लड़कियों का राह चलना दूभर कर रखा है, सो अलग.

कानपुर में यह सब देख कर मैं भी बहुत दुखी हुआ. वजह, मेरे महल्ले में रहने वाले और मुझ से तकरीबन 15 साल छोटे ओमप्रकाश उर्फ बउवा की शराबखोरी. सुबह 6 बजे जब मैं दूध लेने निकला, तो देखा कि महल्ले में मौजूद शराब ठेके के बाहर वह नशे में धुत्त था.

उस ने मुझ से 20 रुपए मांगे. मैं ने बिना संकोच किए पैसे दे दिए. दोपहर बाद वह मेरे घर आया और उस ने 50 रुपए मांगे. मैं ने मना किया, तो बोला, ‘‘बिना 2 क्वार्टर अंदर किए मुझे कुछ समझ नहीं आता.’’

बउवा घरों में पुताईपेंटिंग का काम करता था. वह अच्छा कारीगर और बहुत मेहनती था. वह रोजाना 5-7 सौ रुपए कमाता था. अकेली बीमार मां को बेसहारा छोड़ उस ने खुद को शराब के हवाले कर दिया. इस तरह गरीब परिवारों को तबाह कर रही है शराब.

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ सालों में शराब ठेकों की तादाद बेहिसाब बढ़ी है. सवा किलोमीटर के दायरे में 3-4 शराब के ठेके आसानी से देखे जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नैशनल हाईवे व स्टेट हाईवे पर बने शराब के ठेके 5 सौ मीटर दूर भेजने संबंधी आदेश के बाद भी राज्य सरकार ने उन्हें आबादी के बीच शिफ्ट कर दिया.

दुख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस जनहितकारी मंशा के खिलाफ दांवपेंच आजमाए जा रहे हैं, जो देशभर में सड़क हादसों में घायल लोगों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर एक फैसले के रूप में सामने आई है.

शराब पी कर गाड़ी चलाने, अपनी और दूसरों की मौत की वजह बनने की सोच पर रोक लगाने के मकसद से नैशनलस्टेट हाईवे पर शराब के ठेके को हटाने का फैसला अमान्य बनाने की ऐसी ओछी कोशिश आखिर किस लिहाज से ठीक है, यह मजाक नहीं तो और क्या है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने के लिए उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों ने अपने यहां के स्टेट हाईवे को शहरी रोड ऐलान करनेकराने की कोशिश शुरू कर दी है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब इस दौड़ में फिलहाल आगे हैं. असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गोवा, झारखंड, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और हरियाणा भी कतार में हैं यानी इन राज्यों की सरकारें जनहित में हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान उठाने के मूड में नहीं हैं.

अफसोस यह कि एक साल पहले बिहार सरकार द्वारा लिया गया शराबबंदी का फैसला देश के लिए नजीर नहीं बन पाया. यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि काबिलेतारीफ है नीतीश कुमार का हौसला. यानी अगर सरकार चाहे तो कुछ भी मुमकिन नहीं है.

बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ने 1 अप्रैल, 2016 से राज्य में पूरी तरह से शराबबंदी लागू कर दी.

सरकार के तेवर देख शासनप्रशासन ने भी सख्ती अख्तियार कर ली. छापेमारी हुई, सामूहिक जुर्माना हुआ. हां, गोपालगंज हादसे ने ठेस जरूर पहुंचाई. लेकिन, वहां शराबबंदी किसी हद तक गरीबों की झोली में खुशियां डालने में कामयाब रही.

बकौल सुप्रीम कोर्ट, नेशनलस्टेट हाईवे पर शराब बेचे जाने के नुकसानदेह पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जीवन के अधिकार और रोजगार के मौलिक अधिकार के बीच तालमेल बनाने पर जोर देते हुए अदालत ने कहा कि एक तरफ लोगों को शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों से बचाने की जरूरत है, तो दूसरी तरफ शराब कारोबार के व्यापारिक हित हैं. लेकिन दूसरा हित पहले के बाद आएगा यानी पहले जीवन का अधिकार और उस के बाद रोजगार का अधिकार.

अदालत ने यह भी साफ किया कि उस ने यह आदेश दे कर न तो किसी नियम का उल्लंघन किया है और न ही कानून बनाने की कोशिश की है, बल्कि जनस्वास्थ्य और सुरक्षा के मद्देनजर ऐसा किया गया है.

दरअसल, शराबखोरी से कहीं बड़ी समस्या यह है कि हमारे देश में शराब के बनाने और उस की मार्केटिंग के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है. सबकुछ राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया गया है. राज्यों में काबिज सरकारें अपने राजनीतिक नफानुकसान के मद्देनजर मनमाने फैसले लेती रही हैं.

आबकारी नीति को राज्य सरकारों का मसला बनाने का नतीजा यह है कि जिसे जो समझ में आ रहा है, वह उसे अंजाम दे रहा है. शराब कैसे बिके, कहां बिके, कितनी कीमत पर बिके, कब बिके और कब न बिके, इस बाबत हर राज्य में अलगअलग इंतजाम हैं.

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लाख कमियों के बावजूद दोपहर 12 बजे से रात 10 बजे तक शराब बेचने और बंदी के दिन असल बंदी का सख्त प्रावधान है, जबकि उत्तर प्रदेश में न समय का प्रावधान है और न कीमत का. आलम यह कि आप 15 अगस्त, 26 जनवरी, होली और दीवाली के दिन भी बेहिचक खुलेआम शराब खरीद सकते हैं.

कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है शराब के ठेकों में बैठ कर पीने का इंतजाम. ज्यादातर शराब ठेकों की अपनी कैंटीन हैं, जिसे दबंग किस्म के लोग चलाते हैं. ठेकेदार को 5-7 सौ रुपए रोजाना किराया देने वाले कैंटीन संचालक माल बेचने से ज्यादा पियक्कड़ों को लूटने का काम करते हैं.

पुलिस भी सबकुछ जान कर अनजान बनी रहती है, क्योंकि पीडि़त आखिर शराबी जो ठहरा. हर थानेदार व बीट इंचार्ज को पता है कि उस के इलाके में शराब ठेकों के हालात क्या हैं, लेकिन उसे सिर्फ महीने के फिक्स नजराने से मतलब है, जनता जाए भाड़ में.

जहरीली और नकली शराब के लिए भी उत्तर प्रदेश खासा बदनाम रहा है. साल 2015 के मार्च महीने में राजधानी लखनऊ के मलिहाबाद इलाके में 50, फिर एटा जिले के अलीगंज कसबे में 39 और उस के बाद फर्रुखाबाद के मेरापुर थाने के तहत आने वाले गांव देवरा मेहसोना में 10 लोग जहरीली शराब पीने से मर गए. इस से पहले उन्नाव में जहरीली शराब पीने से तकरीबन 3 दर्जन लोग मौत के मुंह में समा गए थे.

एक तरफ आबकारी महकमा है, वहीं दूसरी तरफ मद्य निषेघ महकमा. दोनों के पास लंबाचौड़ा अमला है, मोटीमोटी तनख्वाहें हैं, सुविधा शुल्क तो बहती हुई गंगा है. लेकिन, बाहर कौन से नियम टूट रहे हैं, इस से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.

टूटते जाति बंधन और थानों में होती शादियां

प्यार तमाम बंदिशों से आजाद होता है. न वह हैसियत देखता है, न जातिधर्म. जमाने से बेखबर सनी व रानी प्यार की डगर पर चल रहे थे, बिना यह सोचे कि उन के प्यार को कोई मानेगा भी या नहीं. वे मंजिल तक पहुंचना चाहते थे. लिहाजा, दोनों ने साथ जीनेमरने की कसमें भी लीं. लेकिन उन का पहला सपना तब टूटा, जब सनी के घर वाले ही इस प्यार के दुश्मन बन गए. वजह बनी रानी की जाति, क्योंकि वह दलित थी, इसलिए सनी के घर वाले उसे बहू बनाने को राजी नहीं थे, जबकि सनी रानी को ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहता था. वह शायद जुदा ही हो गए होते, अगर रानी ने पुलिस से फरियाद न की होती.

पुलिस ने न केवल सनी की कहीं दूसरी जगह होने जा रही शादी को रुकवा दिया, बल्कि रानी के साथ उस की शादी थाने में ही करा दी. इस शादी में कोई बैंडबाजा या शहनाई नहीं थी, लेकिन पुलिस वाले बराती थे. शादी पर कानूनी मुहर तो लग ही गई और प्यार के दुश्मन बनने वालों के हौसले भी पस्त हो गए.

थाने में 2 प्रेमियों की हुई शादी का यह वाकिआ उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के महिला थाने का है. दरअसल, सनी मेरठ जिले के ही एक गांव का रहने वाला था. एक साल पहले उस की मुलाकात रानी से हुई, तो दोनों एकदूसरे के दिलों में उतर गए. उन के बीच पहले दोस्ती और फिर प्यार हो गया.

सनी ऊंची जाति का था, जबकि रानी दलित थी. दोनों जाति की दीवार गिरा कर अपनी दुनिया बसाना चाहते थे. उन के घर वालों को भी इस बात का पता चल गया था.

रानी की जाति का पता चलते ही उन के सारे सपने टूट गए. सनी के घर वालों ने साफ मना कर दिया कि वह किसी दलित लड़की को अपने घर की बहू नहीं बनाएंगे.

सनी रानी के साथ शादी की जिद पर अड़ा रहा, लेकिन उस की एक नहीं सुनी गई और उस का रिश्ता हाथरस जिले की एक लड़की के साथ कर दिया.

28 अप्रैल, 2017 को बरात का जाना भी तय हो गया. बरात वहां जा पाती, उस से पहले ही रानी को इस की जानकारी हुई, तो उस ने अपने प्यार को हासिल करने की ठान ली.

बरात की तैयारियां चल ही रही थीं कि तभी सनी के घर महिला थाना प्रभारी कंचन चौधरी पुलिस बल के साथ जा धमकीं और सनी व उस के घर वालों को थाने ले आईं. दोनों पक्षों के बीच काफी देर तक बात चली. कानूनी पचड़े से बचने के लिए आपस में रजामंदी बनी, तो सनी व रानी को वरमाला पहना कर उन की शादी करा दी गई. मिठाइयां बांटीं गईं और पुलिस वाले गवाह बन गए. दोनों प्रेमी एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे.

उधर हाथरस चूंकि बरात जानी थी, वहां लड़की पक्ष से बात कर के सनी के छोटे भाई को दूल्हा बना कर ले जाया गया.

5 मई, 2017 का वाकिआ भी कुछ ऐसा ही रहा. कैराना रोड, शामली के रहने वाले जाट बिरादरी के मोनू का कंडेला गांव की एक दलित लड़की सोनिया के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा था. वे दोनों शादी करना चाहते थे.

मोनू के घर वालों को यह रिश्ता कतई मंजूर नहीं था. जब मोनू अपनी जिद से बाज नहीं आया, तो उन्होंने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया.

सोनिया के घर वाले भी इस विवाद से बचना चाहते थे, इसलिए उन्होंने उस की शादी दूसरी जगह तय कर दी. सोनिया ससुराल तो चली गई, लेकिन खुश नहीं रही. मोनू ने उस के पति को अपनी प्रेम कहानी बता दी.

कुछ महीने पहले पति ने सोनिया को तलाक दे दिया. सोनिया मायके आ कर रहने लगी. अप्रैल के आखिर में मोनू व सोनिया घर से भाग गए.

5 मई को गांव वालों ने उन्हें पकड़ कर पीट दिया. दोनों शहर कोतवाली पहुंच गए. पुलिस ने पहल करते हुए थाने में दोनों की शादी करा दी. इतना ही नहीं, पुलिस ने ही दावत का इंतजाम भी किया.

जाति बंधनों को तोड़ती थानों में होती इस तरह की शादियां अनोखी जरूर हैं, लेकिन इसे नई पहल के रूप में देखा जा रहा है. उत्तर प्रदेश के कई इलाके प्यार करने वालों के एक जमाने से दुश्मन रहे हैं. इस के बावजूद नौजवानों में प्यार का जुनून है. तमाम बंदिशों के बावजूद वे प्यार का तराना गुनगुनाते हैं.

ऐसे मामले सामने आने के बाद नौजवानों के अपने ही कभी जातिधर्म, कभी सामाजिक इज्जत, तो कभी बदनामी के नाम पर उन के खून से अपने हाथ रंगने से भी नहीं चूकते हैं.

औनर किलिंग की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं. जान बचाने के लिए प्रेमी या तो घर छोड़ कर भाग जाते हैं या फिर वह बंदिशों से हार कर मौत को गले लगा लेते हैं. लेकिन ऐसे भी जोड़े होते हैं, जो पुलिस से सिक्योरिटी मांगते हैं, इस के बावजूद उन की जान बच जाए, इस बात की गारंटी नहीं होती. देरसवेर उन्हें अपनों की नाराजगी का सामना किसी न किसी रूप में करना पड़ता है.

अब प्रेमी जोड़े सीधे थाने पहुंच कर पुलिस से ही अपनी शादी कराने की गुहार लगाते हैं. इस का फायदा यह होता है कि उन की शादी कानूनन प्रमाणित तो होती ही है, बल्कि पुलिस वाले गवाह बन जाते हैं. प्यार का विरोध करने वाले मांबाप के दिलोदिमाग पर भी पुलिस का डर बन जाता है.

इलाहाबाद के मांडा थाने का ही वाकिआ लें. इंद्रजीत और माया का मामला पुलिस के सामने आया. दोनों बालिग थे, लेकिन उन के घर वाले नाखुश थे.

आहत प्रेमी जोड़े ने मौत को गले लगाने का ऐलान कर दिया. इंसाफ पाने के लिए थाने पहुंच गए. पुलिस ने उन की बात सुन कर दोनों की शादी अपने ही सामने करा दी. इस से दोनों बहुत खुश हुए.

थाने में प्रेमी जोड़े की शादी की खबर शंकरगढ़ के रहने वाले प्रेमी जोड़े अमित व रंजना को मिली, तो अपने घर से फरार चल रहे अमित व रंजना थाने पहुंच गए. पुलिस ने उन के घर वालों को खबर भेजी, लेकिन रंजना के मातापिता इतने ज्यादा नाराज थे कि वे थाने में नहीं आए.

पुलिस ने उन दोनों की न सिर्फ शादी कराई, बल्कि पुलिस वालों ने दावत का इंतजाम भी कर दिया. थाने की कमान संभालने वाले राजीव तिवारी ने उन्हें कानूनी सिक्योरिटी का भरोसा दिया. शादी को कानूनी मंजूरी मिले, इसलिए उसे रजिस्टर में भी दर्ज करा दिया.

राजीव बताते हैं कि वे खुद भी अंतर्जातीय शादी कर चुके हैं. बालिग पे्रमियों की खुशियों के लिए उन की बात मान लेनी चाहिए.

एक दूसरे प्रेमी जोड़े कांति व सचिन की शादी का भी गवाह सदर थाना बना. वैशाली के औद्योगिक इलाके के अंजलि व अंकित एकदूसरे से प्यार करते थे. 13 अप्रैल, 2017 को वे दोनों गुपचुप मिल रहे थे, तो अंजलि के घर वालों ने अंकित को पकड़ कर पीट दिया.

अंजलि पुलिस स्टेशन पहुंच गई और बताया कि अंकित और वह शादी करना चाहते हैं, जो उन के घर वाले नहीं चाहते. पुलिस ने उन के गहरे प्यार को समझा और दोनों की शादी थाने में ही करा दी.

लखीमपुर खीरी में एक लड़का और एक लड़की प्यार करते थे. उन के परिवार वाले खुश नहीं थे. उन्होंने दोनों को अलग होने का फरमान सुना दिया. नाराज प्रेमी जोड़ा थाने पहुंच गया. पुलिस ने दोनों के परिवार वालों को बुलवाया. कोई खुश हुआ, कोई नाखुश. इस बात की परवाह किए बगैर पुलिस ने दोनों की शादी करा दी.

इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ता अतुल शर्मा का कहना है, ‘‘ऐसे मामले चूंकि सामाजिक होते हैं, इसलिए पुलिस भी सीधे तौर पर दखल देने से कतराती है. प्रेमियों के दिलों में हमारा समाज डर पैदा करता है. ज्यादातर जगहों पर ऐसे मामले मौजूद हैं, जब प्रेमी जोड़े अपने घरों से भाग गए और उन का आज तक कुछ पता नहीं चल सका है. वह जमाने के डर से गुमनाम जिंदगी जी रहे हैं.

‘‘अब प्रेमी जोड़े पुलिस को जा कर ही सीधे समस्या बता रहे हैं. कोई भी बालिग मनमरजी से शादी कर सकता है, इस की इजाजत उन्हें कानून भी देता है.’’

पुलिस का सहारा ले कर शादी करने वाली रानी कहती है कि पुलिस ने ही उस के प्यार को मंजिल दिलाई है और वह अब खुश है.

जयपुर में पसरा आदमखोर का आतंक

बीते 5 मार्च की रात जयपुर शहर की सब से प्रमुख सड़क जवाहरलाल नेहरू मार्ग (जेएलएन मार्ग) पर कई तेंदुए चहलकदमी कर रहे थे. शहर के बीचो-बीच स्थित इस सड़क पर पूरी रात वाहनों का आनाजाना लगा रहता है. सड़क पर चहलकदमी करते तेंदुओं को देख कर उधर से गुजरने वाले वाहन चालकों की सांसें थम सी जाती थीं. फिर भी वे सावधानीपूर्वक बचते-बचाते निकलते रहे. तेंदुओं के इस सड़क पर घूमने का सिलसिला रात करीब 12 बजे से 6 मार्च की सुबह लगभग साढ़े 5 बजे तक चलता रहा. इस बीच तेंदुए कई बार सड़क पर आए. लोगों ने उन्हें इस तरह सड़क पर घूमते पहली बार देखा था, इसलिए पूरी रात बिजली की रोशनी से जगमग रहने वाली इस सड़क पर कुछ लोगों ने तेंदुओं के फोटोग्राफ भी खींचे.

गनीमत यह रही कि किसी तेंदुए ने न तो किसी वाहन चालक पर हमला किया और न ही कोई तेंदुआ किसी वाहन की चपेट में आया. ये तेंदुए रात को 6 घंटे तक करीब 2 किलोमीटर तक सड़क पर इधर से उधर घूमते रहे. सूचना मिलने पर पुलिस और वन विभाग के अधिकारी भी वहां पहुंचे और तेंदुओं पर नजर रखते रहे. सुबह करीब साढ़े 5 बजे सभी तेंदुए स्मृति वन में चले गए. 6 मार्च को दिन में वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों ने उन तेंदुओं की तलाश की, लेकिन उन का कुछ पता नहीं चला.

वन अधिकारियों का कहना था कि जयपुर में राजस्थान यूनिवर्सिटी कैंपस व स्मृति वन के आसपास तेंदुओं का देखा जाना आम बात है. लेकिन सड़क पर घूमते देखे गए तेंदुओं से डरने का एक कारण यह था कि इधर सरिस्का बाघ अभयारण्य में आदमखोर तेंदुए का आतंक फैला हुआ था.

इसलिए लोगों को लग रहा था कि कहीं आदमखोर तेंदुए सरिस्का से भटक कर जयपुर तो नहीं आ गए हैं. दरअसल सरिस्का बाघ परियोजना अलवर से जयपुर तक फैली है. जयपुर में घूम रहे तेंदुओं का भले ही कुछ पता नहीं चला, लेकिन अलवर जिले में सरिस्का इलाके के कई गांवों में आदमखोर तेंदुओं का खौफ अभी खत्म नहीं हुआ है. सरिस्का इलाके में आदमखोर तेंदुओं का आतंक पिछले साल अक्तूबर से चल रहा है.

फरवरी, 2017 की 5 तारीख थी. अलवर जिले की थानागाजी तहसील के कस्बा किशोरी के पास कालालांका गांव सरिस्का बाघ परियोजना इलाके में ही बसा है. इसी गांव के रहने वाले प्रभुदयाल मीणा की पत्नी बिरदी देवी उस दिन दोपहर बाद 4 बजे के करीब अपने खेतों में फसल की रखवाली करने गई थी.

सोच में डूबी बिरदी देवी ने देखा कि कुछ जंगली जानवर खेतों में फसल उजाड़ रहे हैं.  सरिस्का का इलाका होने की वजह से ऐसे जंगली जानवरों की कमी नहीं है. जंगली सूअर, रोजड़े (नीलगाय जैसा एक जानवर), नीलगाय वगैरह जानवर खेतों में घुस जाते हैं. इन इलाकों में रहने वाले किसान इन जानवरों को भगा देते हैं, लेकिन मारते नहीं हैं.

बिरदी देवी खेत में घुसे जंगली जानवरों को भगाने के लिए पहाड़ की तलहटी की ओर चली गई. उसी बीच झाडि़यों में छिपे बैठे तेंदुए ने उस पर हमला कर दिया. 45 साल की बिरदी देवी उस तेंदुए का मुकाबला नहीं कर पाई. वह बचाव के लिए चिल्लाई. आसपास के खेतों में काम कर रहे लोगों ने उस की आवाज सुनी तो उस तरफ दौड़े. ग्रामीणों को आता देख कर तेंदुआ जंगल की ओर भाग गया. लोगों ने मौके पर पहुंच कर देखा बिरदी देवी लहूलुहान पड़ी थी. उस की गरदन से खून बह रहा था. गांव वाले उसे अस्पताल ले जाते, उस के पहले ही उस ने दम तोड़ दिया.

तेंदुए के हमले से बिरदी देवी की मौत से गांव वालों में आक्रोश फैल गया. सूचना मिलने पर तहसील थानागाजी के एसडीएम कैलाश शर्मा, सरिस्का के एसीएफ सुरेंद्र सिंह धाकड़, थानागाजी के पूर्व विधायक कांती मीणा और पुलिस के अधिकारी मौके पर पहुंच गए.

बिरदी देवी की कोई संतान नहीं थी. अधिकारियों ने मृतका के परिवार वालों को मुआवजे के रूप में 2 लाख रुपए की आर्थिक सहायता देने का आश्वासन दिया. गांव वालों का कहना था कि तेंदुआ पहले ही 2 लोगों की जान ले चुका है, अब उस ने तीसरे इंसान को निशाना बनाया है. ऐसे आदमखोर तेंदुए को तुरंत पकड़ा जाए.

गांव वालों को शांत कराते हुए अधिकारियों ने तेंदुए को पकड़ने के लिए पिंजरा लगा दिया. उस दिन तो जैसेतैसे मामला सुलट गया, लेकिन अगले ही दिन एक  और बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई.

6 फरवरी को किशोरी कस्बे के पास रायपुरा गांव के जंगल में तेंदुए ने मदनलाल बलाई की पत्नी संती देवी को अपना शिकार बना डाला. रायपुरा गांव और कालालांका गांव के बीच मात्र 3 किलोमीटर की दूरी है. संती देवी उस दिन शाम को करीब 5 बजे अपनी 2 बेटियों के साथ खेत में फसल की रखवाली करने गई थी, तभी अचानक खेत में खड़ी फसलों में से छलांग लगा कर निकले तेंदुए ने उसे दबोच लिया था.

मां पर तेंदुए को झपटते देख दोनों बेटियों ने शोर मचाया तो आसपास के खेतों में काम  कर रहे लोग मौके पर आ पहुंचे. लेकिन तब तक तेंदुए ने उस की जान ले ली थी. मां की मौत पर दोनों बेटियां चीखचीख कर रो रही थीं. सूचना मिलने पर पुलिस और प्रशासन के अधिकारी मौके पर पहुंचे, लेकिन वन विभाग के अधिकारी नहीं आए.

गांव वालों के डर से करीब 4 घंटे बाद सरिस्का मुख्यालय से डीएफओ बालाजी करी पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंचे. लगातार तेंदुए के हमले से 2 महिलाओं की मौत होने से लोगों का गुस्सा भड़क उठा था. उन्होंने संती देवी का शव उठाने से इनकार कर दिया.

गांव वालों ने अधिकारियों से साफ कह दिया था कि तेंदुए का आतंक पिछले 4-5 महीने से लगातार बढ़ता जा रहा है. इस से वे डरे हुए हैं. करीब साढ़े 4 महीने पहले 28 सितंबर, 2016 को प्रतापगढ़ इलाके के सावंतसर गांव में तेंदुए ने रेवड़मल का शिकार किया था. वह रात को अपने खेत में पानी देने जा रहा था.

इस के बाद 20 अक्तूबर, 2016 को प्रतापगढ़ इलाके के ही भड़ाज गांव में तेंदुए ने 55 साल की बूढ़ी गुल्ली देवी बलाई को मौत के घाट उतार दिया था. तेंदुए के लगातार हो रहे हमलों की इन घटनाओं से साफ हो गया था कि सरिस्का बाघ अभयारण्य का कोई तेंदुआ आदमखोर हो चुका है.

दरअसल, एक बार इंसान का खून मुंह लगने से किसी शेर, बाघ और तेंदुए के नरभक्षी बन जाने की संभावना बढ़ जाती है. सन 2016 के सितंबर और अक्तूबर महीने में तेंदुए के हमले से हुई 2 लोगों की मौत के बाद सरिस्का प्रशासन ने इस इलाके से 2 तेंदुओं को पकड़ कर जयपुर चिडि़याघर भेज दिया गया था.

इस के बाद कुछ दिनों तक इलाके में तेंदुए के हमले की घटनाएं नहीं हुईं. जयपुर चिडि़याघर भेजे गए दोनों तेंदुओं का बधियाकरण करने और चिप लगाने के बाद उन्हें इसी साल जनवरी के आखिर में वापस सरिस्का के जंगल में छोड़ दिया गया था.

रायपुर गांव में संती देवी की मौत पर गांव वाले उस का शव ले कर पूरी रात बैठे रहे. अगले दिन 7 फरवरी की सुबह गांव वालों ने किशोरी-अजबगढ़ सड़क मार्ग को पत्थर लगा कर जाम कर दिया था, किशोरी कस्बे की बाजार बंद करा दी, साथ ही आसपास के स्कूलों की छुट्टी करा कर बैंक पर भी ताला लगा दिया.

नाराज गांव वाले आदमखोर तेंदुए को पकड़ने, पीडि़त पक्ष के घर वालों को सरकारी नौकरी देने और 10 लाख रुपए का मुआवजा देने की मांग कर रहे थे. चूंकि तेंदुए के आतंक से आसपास के बीसियों गांवों के लोग डरे हुए थे, इसलिए कई गांवों के लोग रायपुर पहुंच गए.

अधिकारियों के लगातार समझाने और कई दौर की वार्ता के बाद दोपहर करीब 12 बजे संती देवी के शव का पोस्टमार्टम कराया गया. इस बार संती देवी की लाश से तेंदुए के साक्ष्य एकत्र किए गए. इसी के साथ अधिकारियों ने गांव वालों से कहा कि सरकार के स्तर से जो कुछ संभव हो सकेगा, वह दिलाया जाएगा.

इस के बाद सरिस्का बाघ अभयारण्य के अधिकारियों ने आदमखोर तेंदुए को पकड़ने के लिए 4 अलगअलग जगहों पर पिंजरे लगा दिए, साथ ही तेंदुए की तलाश के लिए 5 टीमें बना कर 40 कर्मचारी पिंजरों वाले इलाकों में तैनात कर दिए गए. अधिकारियों ने गांव वालों को भी तेंदुए से सावधान रहने को कहा.

उन दिनों खेतों में फसल पकने की ओर थी. ऐसे में फसल को जंगली जानवरों से बचाने के लिए किसानों ने अपने खेतों में मचान बना लिए, ताकि फसल के साथ खुद का बचाव किया जा सके. वन कर्मचारियों की मेहनत 9 फरवरी को रंग लाई. उस दिन 2 तेंदुओं को पकड़ लिया गया. इस में एक नर था और एक मादा.

मादा तेंदुआ रायपुर जंगल के पास किसान करण सिंह के खेत में लगे पिंजरे में फंस गई थी, जबकि नर तेंदुए को ट्रंकुलाइज कर के पकड़ा गया. यह तेंदुआ उसी इलाके में नारायणी माता के जंगल में घूम रहा था. ग्रामीणों की सूचना पर वनकर्मियों ने उसे बेहोश कर के पिंजरे में कैद कर लिया था. करीब साढ़े 5 साल की उम्र का यह तेंदुआ मामूली रूप से घायल था.

मादा तेंदुआ करीब साढ़े 3 साल की थी. 2 तेंदुए पकड़े जाने पर जयपुर चिडि़याघर से डा. अरविंद माथुर को मौके पर बुलाया गया. उन्होंने दोनों तेंदुओं की जांच कर के उन्हें स्वस्थ बताया. रायपुर के जंगल में पकड़ी गई मादा तेंदुए को मृतका संती देवी की दोनों बेटियों और अन्य ग्रामीणों को दिखाया गया, ताकि यह पता चल सके कि आदमखोर तेंदुआ यही है या दूसरा.

हालांकि लोगों ने उसी तेंदुए के आदमखोर होने की बात कही, लेकिन वन विभाग ने आधिकारिक तौर पर इस बात की पुष्टि नहीं की.

2 तेंदुए पकड़े जाने के बाद यह माना जा रहा था कि संभवत: अब शांति हो जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 9 फरवरी की रात थानागाजी इलाके की भूडि़यावास ग्राम पंचायत के गांव गढ़ी नवल सिंह में तेंदुए ने रतन सिंह के जानवरों के बाड़े में घुस कर एक गाय, एक बकरी और एक पालतू कुत्ते का शिकार कर लिया.

तेंदुए से आतंकित गांव वालों ने थानागाजी के समीपवर्ती बामनवास चौगान, सूरतगढ़, अजबगढ़, अंगारी, बीसूणी, बाछड़ी, कालालांका आदि गांवों में रात को चौकीदारी शुरू कर दी.

इसी बीच 12 फरवरी को फिर एक घटना घट गई. आदमखोर तेंदुए ने एक ही दिन में 2 लोगों को शिकार बना डाला. तेंदुए ने उस दिन सुबह किशोरी कस्बे के पास जैतपुर गांव में खेत पर चारा लेने जा रही 37 साल की संती देवी पत्नी रिछपाल सैनी को मार डाला. उसी दिन शाम को करीब 7 बजे एक तेंदुआ इसी इलाके में सिलीबावड़ी गांव में 55 साल के बूढ़े रामकुंवर मीणा को घर से खींच ले गया.

दोनों घटनाएं डेढ़, 2 किलोमीटर के दायरे में घटी थीं. जैतपुर में तेंदुए की शिकार हुई संती देवी के पति रिछपाल सैनी की 13 साल पहले सांप के काटने से मौत हो चुकी थी. संती देवी अपने 6 बच्चों का खेती और मजदूरी कर के पालनपोषण कर रही थी. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. उस की 2 बेटियों की शादी हो चुकी थी, जबकि 2 बेटियां और 2 बेटे और थे. घटना के समय संती देवी के साथ उस की बेटी पूजा भी थी.

पूजा ने भाग कर जान बचाई थी. जैतपुर में सुबह संती देवी की मौत के बाद हालात तनावपूर्ण हो गए. आसपास के हजारों लोग मौके पर एकत्र हो गए. उन्होंने रास्ते जाम कर दिए. राजपा विधायक डा. किरोड़ीमल मीणा, पूर्व विधायक कांती मीणा और कृष्णमुरारी गंगावत सहित कई जनप्रतिनिधि भी पहुंच गए.

दिन भर चले हंगामे के बाद शाम को संती देवी के शव का पोस्टमार्टम कराया गया. वन विभाग ने मृतका के घर वालों को 4 लाख रुपए मुआवजा देने पर सहमति जताई. अधिकारी जैतपुर में मामला शांत कर रवाना हुए ही थे कि सिलीबावड़ी में तेंदुए के हमले से रामकुंवर मीणा की मौत की खबर आ गई. आखिरकार अधिकारी रास्ते से वापस लौट कर सिलीबावड़ी पहुंचे.

एक ही दिन में 2 लोगों के शिकार से लोग खासा नाराज थे. हालात बेकाबू होते जा रहे थे. 5 से 12 फरवरी तक 8 दिनों में तेंदुए के हमले से 4 लोगों की मौत हो चुकी थी. इस से 4 महीने पहले 2 लोगों को तेंदुए ने अपना शिकार बनाया था. 6 लोगों की मौत से गांव वालों का गुस्सा होना स्वाभाविक था.

हालात बेकाबू होते देख कर 12 फरवरी की शाम को सरकार ने अधिकारियों को आदमखोर तेंदुए को देखते ही गोली मार देने के मौखिक आदेश दे दिए.

इसी के साथ अलवर जिला मुख्यालय से कलेक्टर मुक्तानंद अग्रवाल और एसपी राहुल प्रकाश को मौके पर पहुंच कर हालात संभालने के निर्देश दिए गए. अलवर से 4 शूटर ले कर कलेक्टर और एसपी रात को ही उस इलाके में पहुंच गए. इस के अलावा जिला सवाई माधोपुर स्थित रणथंभौर बाघ अभयारण्य से स्पैशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स भी आदमखोर तेंदुए को पकड़ने के लिए सरिस्का के प्रभावित इलाके में भेजा गया.

13 फरवरी को भी सर्च औपरेशन चलता रहा. पुलिस और वन विभाग के 150 से ज्यादा जवान आदमखोर तेंदुए की खोज में जुटे थे. पुलिस का डौग स्क्वायड भी तेंदुए की तलाश में लगा था. इस के अलावा ड्रोन कैमरे की भी मदद ली गई. कई जगह पिंजरे लगाए गए. प्रशासन ने गांवों में माइक से सूचना प्रसारित कराई कि गांव वाले शाम को और सुबह के समय जल्दी खेतों में न जाएं. अकेले भी खेत या जंगल में जाने से बचें.

तेंदुए को ट्रंकुलाइज करने के लिए 3 टीमें अलग से तैनात की गईं. इन में एक टीम जयपुर चिडि़याघर व दूसरी रणथंभौर और तीसरी सरिस्का से बुलाई गई थी. ये टीमें आसपास के वाटर होल्स पर निगरानी करती रहीं, ताकि पानी पीने के लिए आने पर तेंदुए को ट्रंकुलाइज कर पकड़ा जा सके. तमाम प्रयासों के बावजूद आदमखोर तेंदुए का पता नहीं चला.

14 फरवरी को भी सर्च अभियान चलता रहा. 20-22 जवानों व वन कर्मचारियों की 6 टीमें आदमखोर तेंदुए की तलाश में जुटी रहीं.

भरतपुर से केवलादेव पक्षी अभयारण्य की 8 लोगों की टीम भी घना के निदेशक बीजू राय के नेतृत्व में सरिस्का आ गई. बीजू राय को तेंदुए के बारे में अच्छी जानकारी है. इस के अलावा तेंदुए ने जिन इलाकों में अब तक हमला किया था, उन इलाकों में 20 कैमरे लगाए गए.

पेड़ों पर लगाए गए इन कैमरों में सेंसर भी लगे हुए थे, ताकि किसी जानवर के कैमरे के सामने से गुजरने पर उस की तसवीर कैद हो जाए. 1-2 जगह पंजों के निशान जरूर मिले, लेकिन तेंदुआ फिर भी नहीं मिला.

15 फरवरी का दिन भी आदमखोर तेंदुए की तलाश में गुजर गया. 7 टीमें करीब 15 किलोमीटर के दायरे में तेंदुए की तलाश में लगी रहीं. सिलीबावड़ी पहाड़ पर पगमार्क मिलने पर वहां एक और पिंजरा लगाया गया. तेंदुए को पकड़ने के लिए उदयपुर से 2 पिंजरे और मंगवाए गए. आदमखोर के न पकड़े जाने से करीब 2 दरजन गांवों के लोगों में दहशत कम नहीं हुई.

18 फरवरी को कस्बा किशोरी के पास गोपालपुरा इलाके में एक मादा तेंदुआ वन विभाग के पिंजरे में आ फंसी. इस से पहले तेंदुए ने किशोरी कस्बे के पास रामजी का गुवाड़ा में एक घर के बाड़े में पशुओं पर हमला कर पाड़े को मार दिया था. सरिस्का प्रशासन ने पिंजरे में फंसी मादा तेंदुए के नाखून, ब्लड, स्टूल, बाल व लार आदि के सैंपल लिए और उन्हें डीएनए जांच के लिए हैदराबाद भेज दिए.

बाद में इस तेंदुए को जयपुर चिडि़याघर भेज दिया गया. इस तेंदुए के नरभक्षी होने या न होने के बारे में वन विभाग ने कहा कि हैदराबाद से डीएनए जांच के बाद ही कुछ स्पष्ट हो पाएगा. इस मादा तेंदुए के शरीर पर कोई चिप भी नहीं लगी मिली. इस से यह माना जा रहा था कि 20 अक्तूबर, 2016 को भड़ाज गांव में महिला गुल्ली देवी की मौत के बाद पकड़े गए जिस तेंदुए को जयपुर चिडि़याघर ले जाया गया था. यह तेंदुआ वह नहीं था, क्योंकि वह नर तेंदुआ था और उसे जनवरी, 2017 के आखिर में सरिस्का इलाके में छोड़ते समय चिप लगाई गई थी.

तेंदुए लगातार पकड़े जा रहे थे, लेकिन आतंक कम नहीं हो रहा था. हालात ये हो गए थे कि सरिस्का के जंगलों में वन विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों, पुलिस व तेंदुओं के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा. वन कर्मचारी बारबार पिंजरे की लोकेशन बदलते रहे. मजे की बात यह थी कि तेंदुए भी उसी हिसाब से अपनी लोकेशन बदलते रहे.

19 फरवरी को तेंदुओं ने किशोरी व उमरैण इलाके में 5 स्थानों पर दुधारू पशुओं पर हमले किए. वन कर्मचारियों ने तेंदुए के पगमार्क लिए. 20 फरवरी को भी तेंदुए ने मवेशियों का शिकार करने के साथ किशोरी इलाके के गांव बिसूणी की ढाणी में सुबहसुबह एक महिला तीजा देवी और उस के साथ जा रही सरजो देवी पर हमला करने की कोशिश की.

उन के चिल्लाने पर खेतों से लोग भाग कर आए तो तेंदुआ भाग गया. 21 फरवरी को किशोरी कस्बे के पास संत वाले खोरा में रखे गए पिंजरे में एक नर तेंदुआ कैद हो गया. इस तेंदुए का एक दांत टूटा हुआ था.

इस से यह कयास लगाया गया कि यह आदमखोर हो सकता है. टूटे दांत के कारण वह आसानी से शिकार नहीं कर पाता होगा, क्योंकि टूटे दांत के कारण मुंह में घाव हो जाते हैं. वन अधिकारियों ने इस तेंदुए के आवश्यक सैंपल ले कर डीएनए टेस्ट के लिए हैदराबाद भेज दिए. बाद में इस तेंदुए को जयपुर चिडि़याघर भेज दिया गया.

इस तेंदुए के पकड़े जाने के बाद हालांकि तेंदुए कई बार दिखाई दिए हैं, लेकिन कथा लिखे जाने तक इंसान पर हमले की कोई अन्य घटना नहीं घटी थी. इस से यह माना जा रहा है कि संभवत: आदमखोर वही नर तेंदुआ था. अधिकारियों को इस के नरभक्षी होने के कुछ प्रमाण जरूर मिले हैं, लेकिन पूरी तरह पुष्टि हैदराबाद से रिपोर्ट आने के बाद ही हो सकेगी.

विडंबना यह है कि जंगल अब लगातार सिमटते जा रहे हैं और वहां मानवीय दखल बढ़ता जा रहा है. इंसान वन्यजीवों का दुश्मन बन गया है. हालांकि वन्यजीवों का शिकार प्राचीन काल से होता आ रहा है, लेकिन कई दशक पहले भारत सरकार ने वन्यजीवों व पक्षियों को अधिसूचित कर के इन के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन कानून बनने और कड़ी सजा के प्रावधान होने के बावजूद वन्यजीवों का शिकार बंद नहीं हो सका.

सरिस्का अभयारण्य में लगातार शिकार होने से सन 2004 के आसपास बाघों का पूरी तरह सफाया हो गया था. बाद में राजस्थान के तत्कालीन हैड औफ फौरेस्ट फोर्स आर.एन. मेहरोत्रा के प्रयासों से रणथंभौर से ला कर बाघों को सरिस्का में छोड़ा गया. उस दौरान जब सरिस्का में एक भी बाघ नहीं था, तब तेंदुओं ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था.

बाद में जब सरिस्का में बाघों को बसाया गया और धीरेधीरे उन की वंशवृद्धि होने लगी तो तेंदुए अपनी जान बचाने के लिए सरिस्का के जंगलों से बाहर निकलने लगे. अलवर जिले से जयपुर जिले तक फैले करीब 1200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वाले सरिस्का अभयारण्य में सैकड़ों गांव हैं. इन में कई गांवों के आसपास बाघबघेरों का बसेरा है.

बाघों के डर से तेंदुओं ने गांवों के आसपास आबादी क्षेत्र में अपना नया ठिकाना बना लिया है. यह बात भी उल्लेखनीय है कि अक्तूबर और नवंबर, 2016 में तेंदुए ने 2 लोगों का शिकार किया था. इस के बाद 2 तेंदुए पकड़ कर जयपुर चिडि़याघर भेजे गए थे. फिर इलाके में शांति रही. इंसान पर हमले की कोई घटना नहीं हुई. जनवरी के आखिर में जब ये दोनों तेंदुए जयपुर चिडि़याघर से वापस ला कर सरिस्का इलाके में छोड़े गए तो फिर से इंसानों पर हमले की घटनाएं होने लगीं और 4 लोगों की जानें चली गईं.

सन 2014 में हुई तेंदुओं की राष्ट्रीय गणना में देश भर में उत्तर पूर्व को छोड़ कर 7910 तेंदुए थे. इस गणना के बाद यह अनुमान लगाया गया था कि देश में 12 हजार से अधिक तेंदुए हैं. देश में सब से ज्यादा 1817 तेंदुए मध्य प्रदेश में थे. सब से कम 29 झारखंड में. राजस्थान में करीब 171 तेंदुए गिने गए.

हालांकि अनुमान है कि तेंदुओं की संख्या 400 से ज्यादा है. सन 2004 में राजस्थान में 550 से ज्यादा तेंदुए थे. अभी सरिस्का में 65 से 80 के बीच तेंदुए बताए जाते हैं.

यह सुखद बात है कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 8 मार्च को विधानसभा में पेश बजट में प्रदेश में प्रोजेक्ट लैपर्ड शुरू करने की घोषणा की है. इस के लिए बजट में 7 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. यह प्रोजेक्ट शुरू करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य है. इस से तेंदुओं को संरक्षण मिलने की उम्मीद है. अभी केवल हिमाचल प्रदेश में ही स्नो लैपर्ड के लिए प्रोजेक्ट चल रहा है.

भारत की लोकतांत्रिक कमजोरी है घूसखोरी

जल संसाधन महकमे के चतुर्थ श्रेणी के एक मुलाजिम नामदेव नागले को अपनी बेटी की शादी के लिए पैसों की जरूरत थी. इस बाबत उन्होंने अपने जीपीएफ के पैसे निकालने के लिए फौर्म भरा. उन्हें 1 लाख 65 हजार रुपए की राशि मंजूर भी हो गई पर अड़ंगा डाल दिया एक क्लर्क रमाशंकर मौर्य ने कि बगैर 4 हजार रुपए की घूस लिए वह यह राशि जारी नहीं करेगा. इस पर नामदेव का बड़बड़ाना लाजिमी था क्योंकि एक महीने बाद मई में उन की बेटी की शादी थी. यह जानते हुए भी कि जीपीएफ का पैसा उन का हक है, वे मन मार कर रिश्वत देने को तैयार हो गए. अप्रैल के पहले हफ्ते में नामदेव नागले ने घूस के एक हजार रुपए एडवांस में दे भी दिए और रमाशंकर के आगे गिड़गिड़ाए कि राशि खाते में आते ही बाकी 3 हजार रुपए भी दे देंगे. पर इस बाबू को तजरबा था कि घूस देने के मामले में लोग इतने ईमानदार नहीं होते कि काम हो जाने के बाद बकाया रकम दे दें, इसलिए वह अंगद के पांव की तरह अड़ गया कि बाकी पैसे दो, तभी भुगतान होगा.

इस पर हैरानपरेशान नामदेव के बेटे राजू ने लोकायुक्त पुलिस में शिकायत कर दी. 6 अप्रैल को रमाशंकर भोपाल के जुबली गेट पर पहुंचा तो लोकायुक्त पुलिस ने उसे राजू से घूस लेते रंगे हाथों धर लिया.

बेअसर खबरें

इस और ऐसी खबरों का कोई असर अब किसी पर पड़ता हो, ऐसा कतई नहीं लगता. देशभर में रोजाना सैकड़ों लोग घूस लेते पकड़े जाते हैं. इस से लगता यह है कि घूसखोरी को एक सामाजिक मंजूरी मिल चुकी है.

किसी भी सरकारी दफ्तर में छोटेबड़े काम के लिए चले जाइए, बगैर घूस दिए कुछ नहीं होता. काम जायज हो या नाजायज, नजराना तो देना ही पड़ता है. जाहिर है हर रोज लाखोंकरोड़ों रुपए सरकारी मुलाजिम घूस खाते हैं और किसी का कुछ खास नहीं बिगड़ता. थोड़ाबहुत हल्ला तब जरूर मचता है जब किसी छोटे मुलाजिम के पास से उस की हैसियत और औकात से ज्यादा जायदाद बरामद होती है.

तब भी लोग पहले की तरह यह नहीं कहते कि घूसखोरी बढ़ रही है, बल्कि इस बात पर हैरानी जताते हैं कि एक चपरासी के पास करोड़ों की जायदाद निकली या फिर 30-35 हजार रुपए महीने की पगार वाले बाबू के घर छापे में इतने किलो सोना, इतनी जमीनें, इतना नकदी और इतनी गाडि़यां मिलीं. क्या जमाना आ गया है.

जमाना धीरेधीरे होते यह आ गया है कि घूसखोरी को लोगों ने तथाकथित भाग्य की तरह स्वीकार लिया है. इस का अब बड़े पैमाने पर कोई विरोध नहीं होता. जाहिर है बातबात पर भड़कने वाले आम लोगों ने घूसखोरों और घूसखोरी के सामने हथियार डाल दिए हैं. लोगों ने घूसखोरी को एक तरह से सरकारी मुलाजिमों का हक मान लिया है. हां, इस की रकम पर जरूर वे मुलाजिमों से चखचख करते हैं, बाजार की जबां में कहें तो मोलभाव करते हैं. बावजूद यह जानने के कि हर महकमे में हरेक काम का दाम फिक्स है. बस, सरकार इस की दरों की लिस्ट नहीं टांग सकती क्योंकि इस में कानून आडे़ आता है.

इन कानूनों को भी कोई नहीं कोसता क्योंकि इन्हीं नियमकायदे व कानूनों की वजह से सरकारी मुलाजिमों को घूस मिलती है. कानून की चौखट पर इंसाफ के लिए सिर रगड़ने लोग जाएं तो वहां भी तारीखों के लिए घूस जरूरी है. पटवारी से अपनी ही जमीन का खसरा नक्शा चाहिए तो घूस, पुलिस में रिपोर्ट लिखानी है तो घूस, अपनी ही जमीन पर मकान बनवाने की इजाजत चाहिए तो नगर पालिका या नगर निगम में घूस, अस्पताल में इलाज चाहिए तो भी घूस, और तो और, सरकार को टैक्स चुकाना हो तो भी घूस देनी पड़ती है.

घूस देना अब अक्लमंदी का दूसरा नाम हो गया है. आम लोग कितने समझदार हो गए हैं, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी वे अपने किसी काम के लिए घर से सरकारी दफ्तर जाते हैं तो काम के मुताबिक जेब में रुपए रख कर ले जाते हैं कि कम से कम इतने तो लगेंगे ही.

नौबत तो यहां तक आ गई है कि किसी डर या दूसरी वजह के चलते घूस लेने से मुलाजिम इनकार कर दें तो लोग उस को कोसने लगते हैं कि काइयां है जो काम करने से इस तरह मना कर रहा है. लिहाजा, वे अपनी पेशकश बढ़ाते जाते हैं कि अच्छा हजार की जगह 2 हजार दे दूंगा पर मुफ्त में ईमानधरम और कायदेनियमों से काम हो जाएगा, यह मजाक मत करो.

उधर, लेने वाला मन ही मन झल्लाता है कि एक तो ईमानदारी से काम करें और ऊपर से इन के नखरे भी बरदाश्त करो कि नहीं, घूस तो हम देंगे ही. यानी घूस लेना ही नहीं, बल्कि घूस देना भी लोगों की आदत में शुमार हो चला है. इसलिए घूसखोरी की खबरों से किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. उलटे, यह तसल्ली हो जाती है कि घूस के जरिए काम अभी भी हो रहे हैं, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं.

अक्लमंद आदमी घूस पर गुस्सा नहीं करता और न ही एतराज जताता. वह मशवरा देता और लेता है कि अजी खामखां परेशान हो रहे हो, जा कर बाबू की टेबल पर हजारपांच सौ रुपए पटक दो, काम चुटकियों में हो जाएगा. ऐसा होता भी है. इस के अलावा घूस देने वाला कह उठता है कि कितना भला आदमी है बेचारा, कुछ ले कर ही सही, काम तो कर दिया. वरना कुछ मुलाजिम तो घूस लेने से ही इनकार कर दिल तोड़ देते हैं.

यहां से आई बीमारी

घूसखोरी का रोजमर्राई जिंदगी का हिस्सा बन जाना हैरत की बात नहीं है. बातबात में मंदिरों और पंडों के जरिए भगवान को घूस देने का तरीका आदमी बचपन से ही सीख जाता है.

जिस देश में सवा रुपए मंदिर में चढ़ा देने से बेटे को नौकरी मिल जाती हो और 11 रुपए की दक्षिणा में बेटी की शादी हो जाती हो, उस देश में घूसखोरी कतई छानबीन का मसौदा नहीं. धर्म ने लोगों को उस की पैदाइश के साथ ही सिखा दिया था कि कोई काम बगैर दिए नहीं होता. जेब में चढ़ाने के लिए पैसा हो, तो कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी के ठीक होने में भी घूस चल जाती है पर इस में जरा सी खोट यह है कि ऐसे काम होने की कोई गारंटी नहीं क्योंकि ऊपर वाले के दफ्तर (दरबार) में रोज लाखोंकरोड़ों अर्जियां लगती हैं. अब यह समय की बात है कि वह किस की सुनता है.

सच्चा हिंदुस्तानी वह नहीं है जो फख्र से भारतमाता की जय बोले, बल्कि वह

है जो इस सच से वाकिफ हो कि फख्र घूसखोरी पर किया जाना है. पंडित भी बच्चे का राशिफल मुफ्त में निकाल कर नहीं देता, फिर सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए बिना धर्मस्थलों में पैसा चढ़ाने से काम हो जाएगा, यह सोचना भी गुनाह है.

अब कौन शरीफ आदमी भला गुनाह का पाप अपने सिर लेना चाहेगा, इसलिए वह दानपत्र में हलाल और हराम दोनों की कमाई ठूंसता रहता है और बेफिक्र हो जाता है कि अब कुछ नहीं बिगड़ने वाला. ऊपर वाले तक चढ़ावा पहुंचा दिया है.

जहां भगवान और उस के दलाल तक घूसखोर हों वहां सरकारी मुलाजिमों से पाकसाफ होने की उम्मीद करना वाकई उन के साथ ज्यादती है जो दिनभर घूस बटोरते हैं. और फिर वे शाम को घर जातेजाते उस का कुछ हिस्सा मंदिर, मसजिद, चर्च या गुरुद्वारे में दे आते हैं. इस तरह घूस का पैसा भी घूमफिर कर ऊपर वाले तक पहुंच जाता है. इसलिए मानने में ही भलाई है कि सबकुछ ऊपर वाले का है, वह अपनी मरजी से लेता और देता है. इसलिए घूस पर हायहाय करने के बजाय उस की जयजयकार करना बेहतर है.

नामदेव नागले जैसे शिकायती लोग जागरूक नहीं, बल्कि नास्तिक होते हैं. इसलिए रमाशंकर मौर्य जैसे मुलाजिम पकड़े जाते हैं. यह दीगर बात है कि इन में से 80 फीसदी घूस दे कर छूट भी जाते हैं. इस से लोगों में भगवान के लिए भरोसा और बढ़ता है.

धर्म से यह बीमारी सरकारी दफ्तरों तक पसर गई है, इसलिए किसी को अपने कानूनी हक की चिंता नहीं. उलटे लोगों को इस बात की खुशी रहती है कि 51 रुपए के प्रसाद और 51 हजार रुपए के डोनेशन से बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला मिल गया. बड़ा हो कर जरूर वह भी काबिल अफसर बनेगा यानी ईमानदारी और मेहनत की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. इस तरह घूस, घूस नहीं एक इन्वैस्टमैंट है.

दावे भी बेअसर

आजादी के बाद जब लोकतंत्र वजूद में आया तो मुफ्त की कमाई का एक और जरिया बन गया जिस का नाम रखा गया सरकार. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कुरसी संभालते ही समझ आ गया था कि महान भारत के लोग भक्त टाइप के हैं. चढ़ावा उन की नसनस में भरा हुआ है, इसलिए क्यों न इस गंगा का रुख सरकारी दफ्तरों की तरफ मोड़ दिया जाए.

देखते ही देखते मंदिरों के बराबर ही सरकारी दफ्तर भी चढ़ावे से मुटाने लगे. मंदिरों में पंडे थे तो दफ्तरों में बाबू और अफसर थे. एक जगह घूसखोरी का काम खुलेआम श्रद्धा और आस्था से होता था. दूसरी जगह चोरीछिपे टेबल के नीचे से होने लगा. धीरेधीरे इतना खुलापन और बेशर्मी आने लगी कि जज के सामने बैठा बाबू तारीख दे कर लाखों बनाने लगा और इंसाफ करने वाले जज साहब बेचारगी या मरजी से यह गुनाह होते देखते रहे.

दूसरे महकमों में भी यह रिवाज लागू हो गया. बड़े साहब इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाते, उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहने में हर्ज नहीं. छोटा साहब या बाबू पुजारी बन घूस समेटने लगा और बंगले यानी मठ में हिस्सा पहुंचाने लगा. इस सिस्टम में वक्तवक्त पर बदलाव होते रहे जिस पर हल्ला कभी नहीं मचा. जो भी सिस्टम सरकारी मुलाजिमों ने बना दिया, उसे लोगों ने खुशीखुशी अपना लिया.

जब नास्तिकों की तादाद बढ़ने लगी तो सरकारों और नेताओं को चिंता होने लगी. लिहाजा, उन्होंने घूस देने जैसे पुण्य काम को जुर्म घोषित कर दिया. कहा जाने लगा कि घूस लेना और देना दोनों अपराध हैं. इस लिहाज से पूरा देश और सवा अरब की आबादी बगैर कुछ किएधरे मुजरिम हो गई और किसी के मन में पाप का डर नहीं रह गया कि सिर्फ वही पापी है.

इस तरह घूसखोरी को मंजूरी मिल गई पर जब उस की इंतहा हो गई तो अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों ने इस का विरोध भी किया. इस बात पर धरनेप्रदर्शन और आंदोलन हुए तो लोगों को यह खुशफहमी भी हो आई कि अब सचमुच की क्रांति आ रही है जो घूसखोरी बंद करवा कर ही छोड़ेगी.

नोटबंदी से कम नहीं हुई

अन्ना के आंदोलन का असर सिर्फ सियासी हुआ जिस से 2 नए अवतार या देवता नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल पुजने लगे. कांग्रेसी संप्रदाय के मुखिया मनमोहन सिंह को लोगों ने चलता कर दिया. यह बड़ा सुनहरा दौर था जब लोगों को लग रहा था कि अब कोई समस्या नहीं रही.

2014 के लोकसभा चुनावप्रचार में नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार को कोसतेकोसते इस वादे के साथ सत्ता पर काबिज हो गए कि वे घूसखोरी से छुटकारा दिलाएंगे. लोगों ने बेमन से उन पर भरोसा किया और अब पछता रहे हैं कि वे भी वैसे ही निकले क्योंकि दीगर समस्याओं सहित घूसखोरी ज्यों की त्यों है.

नरेंद्र मोदी समझ रहे थे कि लोगों का भरोसा उम्मीद से कम वक्त में उन पर से उठ रहा है तो उन्होंने नोटबंदी लागू कर दी और कहा कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार सहित घूसखोरी भी बंद हो जाएगी. इस बाबत उन्होंने पूरा ब्योरा भी पेश किया कि ऐसा कैसे होगा.

लेकिन जिस तरह धर्म की दुकान कभी बंद नहीं होती, वैसे ही घूसखोरी की दुकान भी चल रही है और आज शान से चल रही है. लोगों ने घूस देना और लेना छोड़ा नहीं. बाबुओं की ताकत नोटबंदी से कम नहीं हुई. 8 महीनों में कुछ नहीं हुआ. नोटबंदी का गुबार आ कर गुजर गया पर घूसखोरी का बाजार चमक रहा है.

इस सरकार के पास भी आतंकवाद और नक्सली हिंसा की तरह घूसखोरी का कोई इलाज नहीं है. जो अब तक हुआ, वह नीमहकीमी साबित हुआ. ऐसे में अपनी बेवकूफी पर पछताते लोगों ने

फिर घूसधर्म अपनाने में ही भलाई समझी. अब सबक लेते लोग सालोंसाल घूसखोरी के बारे में चूं भी नहीं करेंगे तो यह उन की गलती भी है और मजबूरी भी जिस के जिम्मेदार एक हद तक वे खुद भी हैं जो अपनी परेशानियों को वादों के ठेकेदारों को बेच कर बेफिक्र हो जाते हैं.

सावधान : कल पता नहीं किस से क्या करवा दे

कुछ साल पहले की बात है. जयपुर, राजस्थान के प्रताप नगर हाउसिंग बोर्ड में रहने वाली प्रियंका तुनकमिजाज थी. वह अपने पिता के दोमंजिला मकान की ऊपरी मंजिल में किराए पर रह कर पढ़ाई करने वाली लड़कियों से बेवजह ही अपना मकान खाली करवा लेती थी.

एक दिन प्रियंका एमबीए कर रही एक 22 साला नेहा से इतनी ज्यादा नाराज हुई कि उस ने उस के दूसरे दिन ही कमरा खाली करने को कह दिया.

यह सुन कर नेहा गिड़गिड़ाते हुए उस से बोली, ‘‘दीदी, इन दिनों मेरे इम्तिहान चल रहे हैं. इतनी जल्दी मैं कमरा कैसे खाली कर सकती हूं?’’

यह सुनते ही प्रियंका आगबबूला हो गई. वह तुनकते हुए बोली, ‘‘नेहा, मेरा नेचर  सलमान खान की तरह है. एक बार मैं ने जो कह दिया, उस के बाद मैं अपने दिल की भी नहीं सुनती.’’

झल्लाई नेहा प्रियंका से बोली,  ‘‘कल आप को भी अगर किसी के मकान में किराए पर रहना पड़ जाए, तब समझ में आएगा.’’

प्रियंका ने नेहा की किसी बात पर ध्यान नहीं दे कर दूसरे दिन ही उस से अपना कमरा खाली करवा लिया.

कुछ महीने बाद प्रियंका के बड़े भाई की शादी हुई. ससुर ने शादी के कुछ दिनों बाद ही अपनी बेटी को दहेज के लिए परेशान करने का आरोप लगा कर उन के खिलाफ मामला दर्ज कराने की धमकी देना शुरू कर दिया.

इन धमकियों से परेशान हो कर प्रियंका के परिवार वालों ने ऊपरी मंजिल का मकान बेच कर उन्हें रकम दे कर उन से अपना पीछा छुड़ाया.

अब प्रियंका और उस का परिवार किराए के मकान में रहता है. अब वह नेहा की उस बात को समझ चुकी है कि भविष्य का कुछ पता नहीं है कि वह कब किस से क्या करवा दे.

50 साला वीरेंद्र सिंह का एक स्कूल था. वे खूबसूरत लड़कियों को ही अपने यहां नौकरी पर रखते थे और जब चाहे तब उन्हें अपने यहां पर बुलवा कर उन का यौन शोषण करते रहते थे. जो लड़की ऐसा करने से इनकार करती थी, वे उसे नौकरी से हटाने की धमकी दे देते थे.

एक दिन एक लड़की ने उन से कहा, ‘‘अगर कभी कोई आप की बेटी के साथ यह सब करने की धमकी दे तो…?’’

‘‘मुझे ऐसी धमकी कोई नहीं दे सकता,’’ कह कर उन्होंने उस लड़की का मुंह बंद कर दिया.

कुछ सालों के बाद वीरेंद्र सिंह के स्कूल में एक ऐसा घोटाला पकड़ा गया कि उसे रफादफा कराने के लिए उन्हें न सिर्फ लाखों रुपए देने पड़े, बल्कि अपनी बेटियों को भी सरकारी अफसरों के साथ भेजना पड़ा.

एक तहसीलदार दिनरात शराब पी कर ऐयाशी करता था. वह अपने चपरासियों को बरखास्त कराने की धमकी दे कर उन की बहनबेटियों और बीवियों को भी आएदिन अपनी हवस का शिकार बनाता था.

एक बार वह तहसीलदार विभागीय जांच में इतनी बुरी तरह फंस गया कि उस की नौकरी भी खतरे में पड़ गई. उस जांच से बचने के लिए उस तहसीलदार ने लाखों रुपए दे कर जैसेतैसे अपनी नौकरी बचाई थी. बाद में उसे एड्स की बीमारी हो गई थी. काफी इलाज के बाद भी वह तड़पतड़प कर मर गया.

कहने का मतलब यह है कि कभी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिस से किसी को कोई परेशानी हो, क्योंकि जिंदगी का कुछ पता नहीं है कि वह हम से कब क्या करवा दे.

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