Love Story : फिर कब आओगे

Love Story : जमीला फूटे हुए अंडे को देख रही थी. कुछ कबूतर लड़भिड़ रहे थे, इसी से एक अंडा गिर कर फूट गया था. लड़कपन में वह झब्बू साह के घर खेलने जाया करती थी. उन के यहां ढेरों कबूतर थे. एक जोड़ी कबूतर वहीं से वह ले आई थी. हालांकि, अब्बा नाराज हुए थे, पर खाला जुबैदा खातून ने उन को चुप करा दिया था.

धीरेधीरे जमीला बड़ी हुई. कबूतर कभी उस के कंधों पर आ बैठते, तो कभी हाथों पर आ जाते और कभी उस के दुपट्टे में छिप कर आंखमिचौली करते. तब वह अजीब गुदगुदी से सिहर जाती.

जल्दी ही जमीला का निकाह हो गया. पर कुदरत को यह सब मंजूर न था. शहर में दंगा हुआ और उस का शौहर हमेशा के लिए उसे छोड़ कर चला गया. तब से जमीला के भीतर और बाहर धुआं ही धुआं भर गया. 2 सालों से वह इसी तरह घुटघुट कर जी रही थी.

अचानक ही दरवाजे पर बड़ी जोर से दस्तक हुई.

‘इस वक्त दोपहर में कौन हो सकता है?’ जमीला सोचने लगी, ‘बिना नामपता जाने कैसे दरवाजा खोलूं. अभीअभी तो पुलिस की गाड़ी इधर से गुजरी है.’

शहर में फिर दंगा भड़क उठा था. कई धमाको हो चुके थे. दर्जनभर लाशें बिछ चुकी थीं. जमीला चंद कदम आगे बढ़ कर ठिठक गई.

कोई दरवाजे को बारबार थपथपा रहा था. एकाध बार ‘बचा लो’ की हलकी आवाज भी उभरी थी.

‘जरूर फिर कहीं कुछ हुआ है,’ डर जमीला के पैर जकड़ रहा था और इनसानियत आगे धकेल रही थी.

आखिरकार इनसानियत की जीत हुई. जमीला ने दरवाजा खोल दिया. सामने डरा हुआ एक नौजवान हाथ जोड़े खड़ा था. जमीला की खामोश मंजूरी पा कर वह भीतर चला आया. लेकिन यह क्या, घबरा कर वह जमीला को गौर से देख कर वापस जाने लगा.

तब तक जमीला सबकुछ समझ गई थी. वह झट से बोली, ‘‘इस तरह घबरा कर क्यों जाने लगे, क्या तुम…?’’

वह नौजवान रुक कर बोला, ‘‘तुम तो मुसलमान हो, यहां मेरी जान को खतरा है…’’

‘‘इस तरह क्यों कहते हो? क्या सभी मुसलमान एकजैसे होते हैं? क्या सभी हिंदू दयावान ही होते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो तुम्हें मुझ से खौफ नहीं खाना चाहिए. वैसे, तुम कहां से आ रहे हो? क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘मेरा नाम अमर है. मैं अपने गांव जा रहा था… रास्ते में कुछ लोगों ने मुझे पकड़ लिया… किसी तरह खुद को छुड़ा कर भागा हूं. आगे जाने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि सड़कों पर लोगों का हुजूम है.’’

जमीला ने दरवाजा बंद कर दिया और अमर को भीतर आने का इशारा किया. फिर कोठरी में चौकी पर बैठते हुए वह बोली, ‘‘सामने खाट पर बैठ जाओ. वैसे, किसी ने देखा तो नहीं न तुम्हें यहां आते हुए?’’

‘‘नहीं,’’ अमर ने भी हौले से जवाब दिया.

‘‘तुम्हें अब भी डर लग रहा है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘भूख लगी है?’’

अमर कुछ बोला नहीं. वह चुपचाप जमीला की ओर देखता रहा.

‘‘प्यास तो लगी होगी?’’

अमर फिर भी चुप रहा.

‘‘तो फिर चले जाओ यहां से… न खाओगे, न बोलोगे, तो क्या भूखेप्यासे और गूंगे बन कर यहां रुकोगे?’’ जमीला मीठा गुस्सा बरसाते हुए रसोईघर में चली गई.

फिर एक थाली में खाना परोस कर जमीला खाला जुबैदा खातून के कमरे में दे आई.

घर में ये ही 2 जने थे. जुबैदा खातून ज्यादातर खाट पर ही पड़ी रहती थीं. हां, लाठी के सहारे वे कभीकभार आंगन में टहलने लगती थीं.

उन्होंने पूछा, ‘‘बेटी, किस से बातें कर रही थी?’’

जमीला पहले तो हंसी, फिर बोली, ‘‘एक बुद्धू है खाला. पास ही के गांव का है… भटका हुआ यहां आया है.’’

‘‘उसे खाना नहीं खिलाया?’’

जमीला फिर हंसी और बोली, ‘‘यही तो मुसीबत है. वह ठहरा हिंदू और हम…’’

‘‘तो देखो, वह न खाए तो जबरदस्ती मत खिलाना. उस से कहना कि जब बाहर कहर बरपना बंद हो जाए, तभी यहां से बाहर निकले. बेटी, इनसानियत से बढ़ कर कोई मजहब नहीं है. तू ने अभी तक खाना खाया कि नहीं?’’

‘‘नहीं खाला, घर में आया मेहमान भूखा हो तो मैं कैसे खा लूं?’’

अमर उन दोनों की बातें सुन रहा था. उस के दिल में हिंदूमुसलमान का कोई फर्क न था, पर वह डरा हुआ जरूर था.

जमीला फिर आ कर अमर के सामने चौकी पर बैठ गई. उस ने एक नजर अमर पर डाली. वह भी उसे ही देख रहा था. ज्यों ही जमीला की नजर उस पर पड़ी, वह सहम गया. जमीला उस के डर और भोलेपन को देख भीतर से मुसकरा उठी, पर चेहरे को जरा सख्त बनाए रखा.

जमीला अमर के बारे में सोच रही थी कि अचानक उस की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘जमीला, क्या तुम खाना नहीं खाओगी?’’ अमर की आवाज में अपनापन था.

‘न जाने यह कमल किस तरह खिल गया?’ जमीला ने अमर को देख कर सोचा, तो अमर एक बार फिर झेंप गया. लेकिन फिर वह उस की हिरनी जैसी काली, चंचल गहरी आंखों में डूब गया.

अमर ने देखा कि इन आंखों से खूबसूरत कोई और जगह नहीं, फूलों का कोई बगीचा भी नहीं. सागर जैसी इस गहराई में प्यार की लहरें हैं, जो उस की तरफ बढ़ रही हैं.

अचानक जमीला की आवाज ने अमर को चौंका दिया, ‘‘अगर तुम खाना नहीं खाओगे, तो मैं भी नहीं खाऊंगी.’’

‘‘मुझे तो जोरों की भूख लगी है, इसीलिए कह रहा हूं,’’ कह कर अमर हंस दिया.

‘‘कहीं तुम्हारा धर्म तो नहीं बिगड़ जाएगा न?’’

‘‘कैसा धर्म? इनसानियत से बढ़ कर भी कोई धर्म है क्या? जल्दी से दो न मुझे खाना.’’

‘‘अभी देती हूं,’’ कहते हुए जमीला उठ गई.

शाम को जमीला चाय बना कर लाई. एक प्याला अमर के हाथों में थमाया, दूसरा खुद ले कर पीने बैठ गई.

‘‘चाय कैसी लगी?’’ थोड़ी देर बाद जमीला ने पूछा.

‘‘बहुत अच्छी.’’

‘‘और मैं?’’

‘‘तुम… तुम…’’

‘‘हांहां… मैं… बुद्धू…’’ खिलखिला कर हंसते हुए जमीला खड़ी हो गई.

अमर ने देखा, छिपकली की तरह दीवार से लग कर जमीला ने अपने बदन को ऐंठा और हौलेहौले रसोईघर की तरफ चल दी.

जमीला इस वक्त खिली हुई थी. उस का चेहरा सुर्ख हो उठा था. अमर उसे अपने दिल में जगह देने के लिए बेताब सा हो गया.

दूसरे दिन रात के 11 बजे बिलकुल नजदीक ही बम फटने की आवाज आई. धमाका इतना जोरदार था कि बरामदे में खाट पर सोई जमीला हड़बड़ा कर उठ बैठी. उसे लगा, जैसे धरती हिल गई हो.

अमर तो सोया ही नहीं था. कमरे से बाहर आ कर चारदीवारी से उचक कर बाहर देखने की कोशिश करने लगा, पर जमीला ने उस का हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘बुद्धू, तुम्हारी यह बचकानी हरकत हम सब को ले डूबेगी.’’

‘‘लेकिन तुम्हें इतनी चिंता क्यों होने लगी है? कहीं मुझे पनाह देने की वजह से तो तुम नहीं डर रहीं? आखिर मैं शरणार्थी ही तो हूं.’’

‘‘क्या कहा? तुम शरणार्थी हो?’’ जमीला झुंझला उठी, ‘‘क्या तुम खुद को शरणार्थी महसूस कर रहे हो? पर शरणार्थी के साथ धोखा भी हो सकता है अमर. तुम्हें काफिर समझ कर उन लोगों के हाथों सौंप भी सकती हूं. बोलो, ऐसा कर सकती हूं कि नहीं?’’

अमर जल्दी से बोल पड़ा, ‘‘नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकती…’’

‘‘क्यों नहीं कर सकती… आखिर क्यों?’’

‘‘इसलिए कि तुम मुझे चाहती हो…’’ अमर ने कहा.

‘‘तुम झूठ बोलते हो.’’

‘‘यह सच है. मैं नहीं जानता था… मुहब्बत भी कभीकभी इतनी जल्दी हो जाती है. तुम मुझ से प्यार करने लगी हो… और मैं भी…’’

इतना सुनते ही जमीला अमर के सीने से चिपक गई. पहली बार उसे महसूस हुआ कि वह नदी बन कर किसी सागर में उतरती जा रही है. सारे बांधों को तोड़ते हुए, जैसे उस में समाती जा रही है.

सुबह जमीला रोटियां सेंकसेंक कर अमर की थाली में रखती जा रही थी और वह वहीं पीढ़े पर बैठा खा रहा था. अचानक वह बोल बैठा, ‘‘तुम मुझे इस तरह अपने करीब बिठा कर खाना खिला रही हो, जैसे हम दोनों के बीच मियांबीवी का रिश्ता हो.’’

जमीला ने तवे को चूल्हे से उतार दिया, फिर दुपट्टे से माथे पर आए पसीने को पोंछा और अमर की आंखों में झांकती हुई बोली, ‘‘अगर मैं कहूं कि रिश्ता बना लो… यही, जो तुम ने अभी कहा है, तो क्या तुम तैयार हो जाओगे?’’

‘‘मैं तैयार हूं… पर, क्या तुम्हारे धर्म के लोग अड़चन नहीं डालेंगे?’’

‘‘अड़चन तो डालेंगे… और लड़ भी लूंगी मैं उन से, लेकिन मुश्किल है कि तुम अपनों से नहीं लड़ पाओगे अमर. लड़ने की ताकत तुम में है ही नहीं. अगर होती तो तुम मेरे घर छिप कर न बैठते?’’

अमर को लगा, सचमुच वह जमीला से बहस नहीं कर पाएगा. फिर भी उस ने छेड़ा, ‘‘यह जानते हुए भी तुम ने मुझे अपने यहां छिपा कर रखा और प्यार दिया.’’

‘‘इसलिए कि तुम भोले हो… तुम्हारी इसी नादानी और भोलेपन ने ही मुझे खींच लिया.’’

‘‘जमीला, तुम ठीक कहती हो. तुम सचमुच बहुत हिम्मत वाली हो. तुम ने बता दिया कि मुहब्बत ही असली धर्म है. मैं कोशिश करूंगा कि खुद को तुम्हारे जैसा बनाऊं.’’

‘‘लेकिन अमर, याद रहे… मुझे पाने के लिए वह सब तुम नहीं करोेगे, जो आशिक अकसर कर दिया करते हैं. प्यार से लोगों को समझा सको, तभी मुझे भी पा सकते हो.’’

‘‘पर, दुनिया वाले इतनी आसानी से नहीं मानेंगे.’’

‘‘क्यों नहीं मानेंगे? अगर नहीं मानेंगे तो पछताना भी उन्हीं को पड़ेगा न…’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘क्योंकि प्यार नहीं पछताता. मौका पड़ने पर अपनी जिद पर अड़ जाता है. चलो, अब चाय पी लो.’’

‘‘तो अब तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे लिए सब सह लूंगा.’’

जमीला एकटक अमर को देखने लगी और अमर जमीला को.

शौहर की मौत के बाद से जमीला की हंसी ही जैसे छिन गई थी. बाद में निकाह के कई रिश्ते भी आए, पर उस ने कोई दिलचस्पी न दिखाई. कुम्हार के चाक पर गढ़ी हुई यह हसीना जब कभी बाहर कदम रखती तो शोहदों का कलेजा बाहर निकल आता. हालांकि, उस के चेहरे पर संजीदगी छाई रहती, पर आंखों से मस्ती और देह से खूशबू छलकती थी.

इन 3 दिनों में ही वे दोनों आपस में काफी घुलमिल गए थे. जमीला ने इतनी खुशी पाई, इतना प्यार पाया, जो सालों में उसे न मिला था. अमर ने जब अपने हाथों से उसे खाना खिलाया, तो वह मजहब की दीवार को भूल गई.

अपने शौहर नसीम के साथ कुछ वक्त उस ने गुजारा था, पर उस ने कभी ढंग से चंद बातें भी न की थीं. वह तो नशे में सिर्फ कड़वी बातें ही कहता था.

कुदरत का खेल भी निराला होता है. एक उस की जिंदगी में आया, पर जल्दी ही चला गया. जमीला उसे हमेशा के लिए भूल गई. पर, दूसरा जो आया, उसे वह अब कहां भूल सकती थी…

यही सोचतेसोचते आधी रात बीत गई. जमीला को नींद न आई, क्योंकि अमर को भोर में ही अपने गांव चले जाना था. फिर कब आएगा, यह तो वही जाने.

जमीला यह कहां जानती थी कि इतनी जल्दी वह एक अजनबी से इस तरह घुलमिल जाएगी… उस की आंखें भर आईं. वह भीतर से आ कर आंगन में बैठ गई.

अमर के दिल में भी यही तूफान चल रहा था. उसे चारों तरफ जमीला ही जमीला दिखाई दे रही थी. एक पल के लिए भी जब बिस्तर पर लेटे रहना उस के लिए मुश्किल हो गया, तो वह भी कमरे से निकल पड़ा.

सामने देखा कि जमीला बैठी हुई है. वह भी उस के नजदीक आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘जमीला, तुम कब से यहां बैठी हो?’’

पर जमीला कुछ न बोली. अमर ने उस का चेहरा ऊपर उठाते हुए वही सवाल दोहराया, तो जमीला हिचकियां लेने लगी. चांद की रोशनी में आंसुओं से लबालब उस की आंखें एकटक अमर को देखने लगीं.

यह देख कर अमर का दिल डूबने लगा. पौ फटने में अभी देर थी. अमर जाने के लिए खड़ा हो गया, तो जमीला ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘फिर कब आओगे?’’

अमर ने भरे गले से कुछ बोलना चाहा, पर होंठों ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.

लेखक – डा. महेश चंद

Family Story : पागल आदमी

Family Story : कुदरत ने बहुत सारे हक अपने पास रखे हुए हैं, इसीलिए इनसान जैसा चाहता है, वैसा होता नहीं है. वह सोचता कुछ है और हो कुछ और जाता है.

प्रोफैसर मुकेश बालियान अपने रूम में अकेले बैठे थे. अनमने मन से आज दिन में ही वे शराब पीने बैठ गए थे. अभी उन्होंने एक पैग खाली किया था, लेकिन पता नहीं क्यों अभी दूसरा पैग लगाने को मन नहीं हो रहा था. वे अपनी जिंदगी में बिलकुल अकेला महसूस कर रहे थे. बेवजह ही वे मुसकरा रहे थे और उस मुसकराहट के साथ अचानक से रो भी पड़े थे.

औरतों की तरह मर्द दूसरों के सामने मुश्किल से ही रोता है, लेकिन अकेले में वह अपने दुख में फूटफूट कर रोता है और अपनी बुजदिली को छिपाता है.

जब भावनाओं का जोर कुछ कम हुआ, तो प्रोफैसर मुकेश बालियान ने आंखों में आए आंसुओं को रूमाल से पोंछने के बाद मन को हलका करने के लिए एक सिगरेट सुलगा ली.

सिगरेट से उड़ते धुएं के छल्ले उन्हें अपनी जिंदगी के छल्लों की तरह एकदम खोखले लग रहे थे. वे सोचने लगे कि आज डायरैक्टर को इस्तीफा सौंपने के बाद उन का और यवनिका का साथ हमेशाहमेशा के लिए छूट जाएगा.

यह प्यार भी अजीब चीज है, साथी का साथ छूटने से ऐसा लगता है जैसे जिंदगी खत्म हो गई हो. जीतेजी मौत का सा अहसास होने लगता है. जिस ने कभी टूट कर प्यार किया हो, वही तो इस को महसूस कर सकता है. उन पत्थरदिलों का क्या, जिन्होंने प्यार को हवस या खिलौना समझा?

प्रोफैसर मुकेश बालियान ने सिगरेट का आखिरी छल्ला हवा में उड़ाया और फिर अपना इस्तीफा लिखना शुरू किया.

लिखने के लिए कुछ ज्यादा नहीं था. बस, वे तो अपना एक वादा पूरा कर रहे थे, जिस के पूरा होने से किसी की जिंदगी खुशियों से लबरेज हो जानी थी. जैसा उन के साथ हुआ किसी और के साथ न हो, इसीलिए वे इस्तीफा दे रहे थे.

प्रोफैसर मुकेश बालियान की ट्रेन मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन से शाम 5 बज कर 15 मिनट पर छूटनी थी. अपने जरूरी सामान का सूटकेस और एक बैग उन्होंने पहले ही तैयार कर लिया था.

एसी 2 में टिकट का जुगाड़ भी जैसेतैसे हो ही गया था. वे अपना इस्तीफा डायरैक्टर को सौंप कर मुंबई छोड़ने की पूरी तैयारी में थे. मुंबई छोड़ने की वे किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होने देना चाहते थे.

इस्तीफा लिखने के बाद प्रोफैसर मुकेश बालियान ने डायरैक्टर कुलदीप खंडेलवाल से मिलने के लिए समय मांगा. डायरैक्टर अभी औफिस में ही थे.

प्रोफैसर मुकेश बालियान के इस्तीफे को अचानक अपने सामने देख कर उन का चौंक जाना लाजिमी था. ऐसे हालात में जो बातचीत हो सकती थी, वह हुई, लेकिन जब कोई अपनी जिद पर अड़ा हो, तो उसे कौन रोक सकता है?

आखिरकार प्रो. मुकेश बालियान का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया. सारी औपचारिकताएं पूरी करवा ली गईं.

प्रो. मुकेश बालियान टैक्सी पकड़ कर मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पहुंच गए. उन की ट्रेन ‘तेजस राजधानी ऐक्सप्रैस’ मुंबई छोड़ने के लिए तैयार थी.

प्रोफैसर मुकेश बालियान ट्रेन में अपनी सीट पर लेट गए और पुरानी यादों में खो गए. उन की कहानी का कथानक कुछ ऐसा था…

आज से तकरीबन 30 साल पहले प्रोफैसर मुकेश बालियान इसी ट्रेन से पहली बार मुंबई आए थे. उन्होंने सांख्यिकी की एक नैशनल लैवल की प्रतियोगिता पास की थी और उन का एडमिशन मुंबई के एक नामचीन जैव सांख्यिकी संस्थान में हो गया था.

उन्हें खुशी थी कि पढ़ाई का सारा खर्च सरकार उठा रही थी. उन्हें तो बस मेहनत कर के एमएससी बायो स्टैट की डिगरी अच्छे अंकों से हासिल करनी थी.

पहले ही दिन मुकेश बालियान की मुलाकात अजनबी यवनिका से हुई थी. मुलाकात क्या, यह तो पहली नजर का प्यार था.

‘‘मुकेश, किस जगह से हो तुम?’’ यवनिका ने सवाल पूछा था.

‘‘मैं उत्तर प्रदेश से,’’ मुकेश ने छोटा सा जवाब दिया था.

‘‘अरे, उत्तर प्रदेश तो बहुत बड़ा है. उत्तर प्रदेश में कहां से हैं?’’ यवनिका सही जगह जान लेना चाहती थी.

‘‘बिजनौर जिले से.’’

‘‘अरे, यह बिजनौर कहां है? यह नाम तो मैं पहली बार सुन रही हूं.’’

‘‘यवनिका, चाय तो लो. चाय ठंडी हो रही है. मेरठ का नाम तो सुना होगा तुम ने, बस उसी से 100 किलोमीटर उत्तर दिशा में उत्तराखंड के बौर्डर पर बिजनौर जिला है.’’

‘‘मतलब, हरिद्वार के आसपास.’’

‘‘बिलकुल सही यवनिका.’’

मुकेश सोचने लगा था कि यवनिका बहुतकुछ पूछने वाली है, लेकिन मुकेश के मन में भी जिज्ञासा जगी. उस ने पूछा, ‘‘यवनिका, तुम कहां से हो?’’

‘‘मैं तो महाराष्ट्र की हूं, नागपुर से,’’ यवनिका ने बताया.

इस से पहले कि यवनिका कुछ और पूछती, मुकेश ने उठते हुए कहा, ‘‘ठीक है यवनिका, कल मिलते हैं.’’
यवनिका ने अनमने मन से कहा, ‘‘ठीक है.’’

लेकिन यवनिका के मन में मुकेश को ले कर अभी भी कई सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह तो सारे सवाल आज ही पूछ लेना चाहती थी. वह वहां से प्यासे पपीहे की तरह उठी.

जल्दी ही मुकेश और यवनिका में गहरी दोस्ती हो गई थी. उन दोनों की अच्छी जोड़ी बन गई थी. संस्थान में यह कोई अचंभे की बात नहीं थी. वहां तो कई प्रेमी जोड़े थे. ऐसे कई छात्र जोड़े थे, जो पहले एमएससी करते, फिर यहीं से पीएचडी करते और यहीं प्रोफैसर बन जाते थे.

मुकेश और यवनिका के परिवार वाले भी उन के प्रेम संबंधों के बारे में जान गए थे, लेकिन उन्हें भी कोई एतराज नहीं था. उन दोनों के परिवार सुलझे हुए और समझदार थे.

एक बार संस्थान की ओर से हिमाचल प्रदेश के कुल्लूमनाली, शिमला और धर्मशाला के लिए 10 दिन का टूर गया था. यवनिका और मुकेश वहां रूमानी दुनिया में खो गए थे.

जवानी के जोश में मुकेश सबकुछ कर लेना चाहता था, लेकिन यवनिका ने कहा था, ‘‘मुकेश, हम कोई नादान बच्चे नहीं हैं, जो ऐसी गलती करें. हम जानवर नहीं हैं कि अपनी हवस पर कंट्रोल न रख सकें. हम इनसान हैं. यह सब काम शादी के बाद.’’

उस दिन से मुकेश की नजरों में यवनिका की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी. वह देखता था कि हवस के मारे प्रेमी जोड़े कितने मौजमस्ती में डूबे रहते हैं और फिर आएदिन जानवरों की तरह आपस में ऐसे लड़ते हैं, जैसे उन में कोई शर्महया बची ही न हो.

मुकेश सोचने लगा कि यवनिका कितनी समझदार है. वह चाहती तो मौजमस्ती के लिए कुछ भी कर सकती थी, लेकिन हर चीज का एक दायरा और समय होता है. सच्चा प्यार हवस का गुलाम नहीं होता. प्यार तो जिंदगी में कुरबानी मांगता है.

समय गुजरता गया और उसी संस्थान से मुकेश और यवनिका ने पीएचडी भी कर ली. इस के बाद यवनिका और मुकेश अपने अपनेअपने घर चले गए. दोनों पढ़लिख कर भी अभी बेरोजगार थे और नौकरी की तलाश में थे.

यवनिका के पापा को उस की शादी करने की जल्दी थी. वह 28 साल पार कर चुकी थी.

एक दिन यवनिका के पापा नितिन साल्वे ने उस से कहा, ‘‘यवनिका, मुझे तुम्हारी शादी की बड़ी चिंता है. मैं बूढ़ा तो हो ही रहा हूं, मेरा लिवर भी जवाब दे रहा है. मुकेश अच्छा लड़का है, लेकिन वह अभी बेरोजगार है और नौकरी तलाश रहा है. मैं उस के हाथ में तुम्हारा हाथ कैसे दे दूं, आखिर बेटी का बाप हूं? बेटी के सुख में ही तो बाप का सुख बसता है,’’ कह कर यवनिका के पापा कुछ मायूस से हो गए थे.

तब यवनिका बोली, ‘‘पापा, कुछ दिन और इंतजार कर लेते हैं. मुकेश नौकरी की तलाश तो कर ही रहा है.’’

‘‘यवनिका, मैं ने बहुत सोचसमझ कर यह कहने की हिम्मत की है. बेरोजगारी के जमाने में नौकरी का क्या भरोसा? मेरी चिंता कड़वी हकीकत है. आज अगर भावनाओं में बह कर मैं तुम्हारा हाथ एक बेरोजगार के हाथ में दे दूं, तो कल तुम्हें कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, तुम्हें इस का अंदाजा भी नहीं है.’’

यवनिका जानती थी कि उस के पापा सही बोल रहे हैं. इतने नामचीन संस्थान से पीएचडी करने के बाद भी लोग उस की बेरोजगारी पर तंज कसने से नहीं चूकते थे.

यवनिका ने कहा, ‘‘पापा, बस कुछ दिन का समय और दे दो. किसी न किसी संस्थान में हम दोनों की नौकरी लग ही जाएगी.’’

‘‘यवनिका, मैं 2 साल से इंतजार ही तो कर रहा हूं, नहीं तो कब का तुम्हारे हाथ पीले कर देता. अब एक अच्छा सा लड़का निगाह में आया है, तो तुम से यह सब कह रहा हूं.

‘‘अपनी ही बिरादरी का एक लड़का मुंबई में इनकम टैक्स महकमे में अफसर लगा है. वह हैंडसम है और अच्छी पगार वाला है. और सब से बड़ी बात है कि अपने हाथ में है.

‘‘वह जिन का लड़का है, वे हमें अच्छे से जानते हैं. मैं चाहता हूं बेटी कि इस मौके को हाथ से न जाने दूं और अपने प्राण निकलने से पहले तुम्हारे हाथ पीले कर दूं.’’

उस रात यवनिका ने मुकेश से फोन पर लंबी बातचीत की. मुकेश ने कहा, ‘यवनिका, ऐसा लगता है कि यह पीएचडी ही बोझ बन गई है. किसी कंपनी में नौकरी के लिए अप्लाई करता हूं, तो कंपनी वाले यह कह कर टरका देते हैं कि कल तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई, तो हमारी नौकरी छोड़ कर भाग जाओगे.’

‘‘तो मुकेश अब क्या करना है? मैं तो बहुत परेशानी में हूं. पापा मेरी शादी करने की जिद पर अड़े हुए हैं.’’

‘यवनिका, जब इतना अच्छा लड़का मिल रहा है, तो शादी कर लो न. पापा की बात मान लो. मेरी नौकरी के इंतजार में तो तुम बुढि़या हो जाओगी. मेरी तो अपने मांबाप से भी खटपट हो गई है. मैं अलग रह रहा हूं. एडहौक पर एक डिगरी कालेज में नौकरी कर के किसी तरह अपना खर्चा चला रहा हूं.’

‘‘तो क्या हुआ मुकेश, मैं भी ऐसी ही कोई प्राइवेट नौकरी कर लूंगी. आखिर मैं ने भी तो पीएचडी की हुई है. रहेंगे तो दोनों साथ.’’

‘नहीं यवनिका, मैं इतना मतलबी नहीं कि अपने चलते तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर दूं.’

‘‘तुम पागलों जैसी बातें क्यों कर रहे हो मुकेश? हम ने प्यार किया है. मैं तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच भी कैसे सकती हूं?’’ यवनिका ने गुस्सा जताते हुए कहा.

लेकिन मुकेश तो जैसे आज ज्ञान का पितामह बना बैठा था. वह फिर से ज्ञान बखारने लगा, ‘यवनिका, हालात को समझो. आदमी तो अकेले भी जिंदगी काट लेता है, लेकिन औरत के लिए अकेले जिंदगी काटना इस दुनिया में मुहाल हो जाता है. और ध्यान रखो तुम…’

‘‘मुकेश, यह क्या पागलपन लगा रखा है? कहीं भांग तो खाना नहीं शुरू कर दिए हो? क्या बेवकूफों वाले उपदेश दिए जा रहे हो? कहीं मुझ से छुटकारा तो नहीं पाना चाहते हो? कहीं अपने गांव में जा कर किसी दूसरी लड़की से तो चक्कर नहीं चला बैठे?’’

‘बस, इन औरतों के साथ यही परेशानी होती है. जरा सी बात हुई नहीं कि दूसरी औरत का शक दिमाग में बैठ जाता है. मैं तुम्हारा भला चाह रहा हूं और तुम बेबुनियाद आरोप लगाए जा रही हो. अगर ऐसा है तो ऐसा ही सही.’

‘‘मुकेश, जब किसी मर्द को किसी औरत से छुटकारा पाना होता है, तो वह ऐसी ही पागलों जैसी बातें करने लगता है. जाओ मरो तुम उस चुड़ैल के साथ… और आज के बाद फिर कभी मुझे फोन करने की कोशिश भी मत कर लेना,’’ यवनिका ने गुस्से में फोन काट दिया और फफकफफक कर रोने लगी.

मुकेश भी अपनी बेबसी पर रो रहा था. उसे लगा कि अगर उस के पास अच्छा रोजगार होता, तो यवनिका उस की होती. वह शान से उसे दुलहन बना कर अपने घर लाता. वह अब किस मुंह से यवनिका के पापा से यवनिका का हाथ मांगने जाए? प्यार में मजबूर कर के यवनिका को लाना उस की जिंदगी को बरबाद करने के सिवा क्या होगा? क्या प्यार का मतलब यही है? नहींनहीं… किसी की जिंदगी को बरबाद करना प्यार नहीं है.

कुछ दिनों के बाद यवनिका की इनकम टैक्स अफसर दौलत साल्वे के साथ धूमधाम से शादी हो गई. वह अपने पति के साथ मुंबई में रहने लगी. सभी सुख और आराम उस की जिंदगी में थे. उसे मुकेश की याद अभी भी आती थी, लेकिन सिर्फ चिढ़ और नफरत के साथ. उस ने तो मुकेश को अपनी जिंदगी से निकाल ही फेंका था.

यवनिका की किस्मत देखिए कि शादी के कुछ ही महीनों बाद वह उसी संस्थान में असिस्टैंट प्रोफैसर बन गई, जहां से उस ने पीएचडी की थी. वहां पहुंच कर यवनिका को मुकेश के साथ बिताए पुराने दिन याद आए, लेकिन उन में अब सिर्फ नफरत का धुआं था. वे दिन अब उसे काटने को दौड़ते थे.

यवनिका की जिंदगी खुशियों से लबालब भरी थी. पति दौलत साल्वे उसे बहुत प्यार करता था और उस की हर इच्छा पूरी करने के लिए उतावला रहता था. यवनिका की शानदार नौकरी लगने से उस की खुशियां आसमान छू रही थीं.

खुशियों से भरी जिंदगी के इसी मुहाने पर तकरीबन एक साल के बाद एक दिन… मुकेश यवनिका के सामने आ गया. उसे सामने देख कर पहले तो वह हैरान रह गई और फिर बिना सोचेसमझे नफरत की आग के साथ तिड़क कर बोली, ‘‘तुम और यहां…?’’

‘‘हां, मैं यवनिका, लेकिन तुम मुझे देख कर इतना चौंक क्यों गई हो?’’

‘‘अब क्या लेने आए हो यहां? मुझे तुम से कोई बात नहीं करनी है. मैं अब शादीशुदा हूं.’’

‘‘यवनिका, तुम्हें तुम्हारी शादी की बधाई. बस, मैं तो तुम्हें यह बताना चाहता हूं कि मेरी भी यहां असिस्टैंट प्रोफैसर के पद पर नौकरी लग गई है.’’

‘‘क्या? क्या कहा… तुम यहां असिस्टैंट प्रोफैसर बन गए हो? और वह चुड़ैल, डायन कहां है, जिस के लिए तुम ने मुझे छोड़ा?’’

‘‘यवनिका, फिर वही पागलपन. मेरी जिंदगी में तुम्हारे सिवा कोई दूसरी थी ही नहीं. तुम ने बेवजह ही मुझ पर शक किया है.’’

‘‘तुम मर्द सफेद झूठ बोलने में माहिर होते हो और औरतों को निहायत ही बेवकूफ समझते हो, नहीं तो दुनिया का कोई भी प्रेमी अपनी प्रेमिका की शादी होते हुए नहीं देख सकता.

‘‘तुम उस डायन को कहीं भी छिपा लो, जिस ने तुम्हें मुझ से छीना है, लेकिन एक दिन तो वह सामने आएगी ही. मैं भी देखती हूं कि वह कितनी हुस्न की परी है.’’

अभी यवनिका और मुकेश की बात चल ही रही थी कि तभी उधर से प्रोफैसर राजीव खंडेलवाल आ गए और उन्हें अपनी बातें बंद करनी पड़ीं.

कुछ ही दिनों में यवनिका को यकीन हो गया कि मुकेश की जिंदगी में कोई दूसरी नहीं है. तब एक दिन यवनिका ने मुकेश से अपने दिल की बात कही, ‘‘मुकेश, भले ही मेरा पति मुझ से बहुत प्यार करता है, लेकिन अगर तुम चाहो तो मैं अभी भी सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास लौट आने के लिए तैयार हूं, बस अपने प्यार की खातिर.’’

यह सुन कर मुकेश हंसा और फिर बोला, ‘‘यवनिका, मैं ने अभी तक किताबों में ही पढ़ा था कि औरत प्यार में पागल हो जाती है और आज देख भी रहा हूं.’’

‘‘मुकेश, तुम मर्द क्या समझोगे औरत के दिल को? ये पत्थरदिल मर्दों की दुनिया औरत के कोमल दिल को समझ पाती, तो यह दुनिया ही अलग होती. छोड़ो इन सब बातों को, अब इन में क्या रखा है. मुकेश, तुम अपना फैसला सुनाओ.’’

‘‘यवनिका, यह सही है कि तुम्हारा फैसला बहुत बड़ा है. एक औरत के लिए प्यार सब से कीमती चीज है. इस के लिए वह अपनी इज्जत और समाज की भी परवाह नहीं करती है, लेकिन जिस मर्द को तुम इतनी आसानी से पत्थरदिल कह देती हो, वह ऐसा होता नहीं है. वह कम जज्बाती होता है और दुनियादारी की परवाह करने वाला ज्यादा होता है. मैं चाहूं तो जज्बातों में बह कर तुम्हें भगा ले जाऊं, लेकिन इस के बाद जो होगा, उस की तुम ने कल्पना भी नहीं की है.’’

‘‘क्या होगा, जरा मैं भी तो सुनूं?’’

‘‘सब से पहले तो यह समाज तुम्हें कलंकिनी कहेगा. तुम्हारा पति अंदर तक टूट जाएगा और तुम्हारे मांबाप कभी तुम्हें माफ नहीं कर पाएंगे.’’

‘‘मुकेश, तुम डरपोक हो. इन बातों से मुझे डराओ मत. अपना फैसला सुनाओ. हां या न?’’

‘‘यवनिका, मैं इतना मतलबी नहीं कि तुम्हारी जिंदगी में भूचाल पैदा कर दूं और दुनिया हम पर थूके. मर्द जिंदगी में एक ही बार प्यार करता है, चाहे शादी वह हजार कर ले. औरत भी एक मर्द के दिल को नहीं समझ सकती. तुम मेरा फैसला सुनना चाहती हो तो सुनो… मैं ने तो जिंदगीभर कुंआरा रहने का फैसला किया है.’’

यह सुन कर यवनिका अपना सिर पकड़ कर बैठ गई, फिर अचानक से बोली, ‘‘इसीलिए… इसीलिए, मुझे तुम से नफरत हो गई है… जिद्दी आदमी. न तुम ने तब मेरी बात मानी और न अब मान रहे हो. आखिर क्यों रहोगे तुम सारी जिंदगी कुंआरे, बस मुझ पर अहसान चढ़ाने के लिए? लेकिन, मैं तो कह रही हूं कि अब भी मैं तुम्हारे साथ रहने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘देखो यवनिका, मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं ने तुम से प्यार किया था और अब किसी और से नहीं कर सकता. एक मर्द यह काम कर ही नहीं सकता कि वह एक बार में 2 औरतों से प्यार करे.

‘‘हां, औरतों को कुदरत ने यह ताकत बख्शी है कि वह एक बार में एक से ज्यादा मर्दों से प्यार कर सकती है और जब मैं यह बात कह रहा हूं, तो मैं प्यार की बात कर रहा हूं, हवस की नहीं.’’

‘‘तुम से बातों में मैं नहीं जीत सकती मुकेश.’’

‘‘यवनिका, आखिरी बात… प्यार का मतलब सिर्फ शादी करना नहीं होता है. मैं तुम्हारे शरीर को छुए बगैर भी तुम से प्यार कर सकता हूं और जिंदगीभर कर सकता हूं,’’ कह कर मुकेश वहां से उठ कर चला गया.

यवनिका के मन में कई सवाल उठे और खत्म भी हो गए. लेकिन यह सुन कर उसे संतुष्टि हुई कि मुकेश उसे जिंदगीभर प्यार करता रहेगा. बाकी सब बातें यवनिका के लिए छोटी हो गई थीं. वह होंठों पर मुसकान लिए अपनी कार की ओर बढ़ गई.

सच में मुकेश उसी संस्थान में रहा. 26 साल गुजर गए थे, लेकिन न तो उस ने शादी की और न ही उस का किसी लड़की या औरत से कोई अफेयर सुना गया. ऐसा लगता था मानो यवनिका से उस ने अपने प्यार को शिद्दत से निभाया था.

यवनिका ने एक दिन मुकेश को बताया, ‘‘मुकेश, अब हम बुढ़ापे की दहलीज पर हैं और मै इतिहास को दोहराते देख रही हूं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं यवनिका…’’

‘‘मेरे बेटे दुष्यंत की गर्लफ्रैंड ने बोल दिया है कि अगर दुष्यंत की नौकरी नहीं लगी, तो उस के पापा उस की शादी कहीं और कर देंगे. तुम तो जानते ही हो कि दुष्यंत ने अपनी गर्लफैं्रड सोफिया के साथ यहीं से पीएचडी की है. अब तुम्हें तो सब पता ही है कि यहां नौकरी एकदम से तो मिलती नहीं है. कोई वैकेंसी ही नहीं है.’’

मुकेश ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, ‘‘अगर मान लो कि वैकेंसी क्रिएट हो जाए, तब…?’’

‘‘मैं ने डायरैक्टर से बात की है. वे दुष्यंत को इसी कंडीशन पर यहीं लगवाने को तैयार हैं.’’

‘‘तो यवनिका, तुम बिलकुल चिंता मत करो. कल ही यहां एक वैकेंसी क्रिएट होगी.’’

यह सुन कर यवनिका बड़ी जोर से हंसी और बोली, ‘‘मुकेश, या तो तुम बुढ़ापे में सठिया गए हो या फिर तुम ने कोई जादूवादू सीख लिया है. भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कल ही यहां वैकेंसी क्रिएट हो जाएगी?’’

‘‘मैं कह रहा हूं न, इसलिए ऐसा होगा.’’

‘‘अच्छा जादूगर साहब, आप की बात मान लेते हैं.’’

अगले दिन जैसे ही यवनिका को पता चला कि मुकेश इस्तीफा दे कर अपने गांव चला गया है, तो वह दौड़ते हुए डायरैक्टर के कमरे में पहुंच गई. आज उस ने डायरैक्टर से अंदर आने की इजाजत भी नहीं मांगी.

वह हड़बड़ाहट में बोली, ‘‘सर, क्या सचमुच मुकेश सर इस्तीफा दे कर अपने गांव चले गए हैं?’’

डायरैक्टर यवनिका की भावनाओं को समझेते थे. उन के ‘हां’ में जवाब देते ही यवनिका ऐसे बिलख कर रो पड़ी, जैसा उस का अपना कोई सगा मर गया हो.

मुकेश का जाना यवनिका के लिए किसी हादसे से कम नहीं था. तन भले ही यवनिका ने अपने पति के नाम कर दिया था, लेकिन मन तो उस का मुकेश में ही रमा था.

यवनिका के होंठों पर बस 2 ही शब्द थरथराए, ‘‘पागल आदमी.’’

Hindi Story : कमरिया लचके रे

Hindi Story : ‘कमरिया लचके रे, बाबू, जरा बच के रे…’ की आवाज चारों ओर गूंजी तो डांस देखने के लिए आए सभी दर्शक उतावले हो गए.

सामने के स्टेज पर एक पतली कमर वाली 22 साल की लड़की अपनी कमर को हिलाहिला कर मस्ती में नाचे जा रही थी और दर्शक आंखें फाड़फाड़ कर उस की नंगी कमर और गहरी नाभि को अपनी आंखों में बसा लेना चाहते थे.

गाने के बदलते बोल के साथ वह लड़की अपने डांस के स्टैप लगातार बदल रही थी, जिस से देखने वाले लोगों की नजरें किसी एक अंग पर नहीं ठहर पा रही थीं.

आंखों में हवस और होंठों पर भद्दी गालियां देते हुए आगे की लाइन में बैठे लोगों ने नोट उड़ाना शुरू कर दिया था. उन नोटों को एक लड़का लगातार उठाने का काम कर रहा था.

कुछ देर बाद ही डांसर की गोरी कमर पसीने से तर हो गई थी, जिस से देखने वालों को वह और भी सैक्सी और मस्त नचनिया लग रही थी.

डांस खत्म हो चुका था. दर्शक ‘एक बार और, एक बार और’ की मांग करते रहे, पर वह डांसर अपना पसीना पोंछते हुए तंबू के पीछे आ गई थी.

देखने वाले हवस के मारे जोश में थे, पर इस नाचने वाली लड़की के लिए यह रोजीरोटी कमाने के लिए उस का काम भर था.

इस खूबसूरत लड़की का नाम शबनम था. शबनम नाम होने से लोग उसे मुसलमान समझते थे, पर शबनम को खुद नहीं पता था कि वह मुसलमान है या हिंदू है. उस ने जब से होश संभाला था, तब से अपनेआप को इसी डांस पार्टी में पाया था और अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए उसे यह काम करना पड़ा था. दीनधर्म के बारे में कभी सोचा ही नहीं और न ही शबनम को कभी अपना धर्म जानने की जरूरत महसूस हुई.

शबनम को तो डांस करना भी किसी ने नहीं सिखाया, बस अपने साथ वाली दीदी लोगों को नाचते देख कर वह कब खुद भी स्टेज पर नाचने लगी, उसे खुद भी पता नहीं चला. हां, पर स्टेज पर वह शौक से नहीं नाची, बल्कि उसे बताया गया था कि उसे पैसे चाहिए तो नाचना ही पड़ेगा.

इस डांस पार्टी के मालिक का नाम धर्मा पंडित था. 50 साल का धर्मा पंडित बड़ा रोबीला लगता था.

लंबाचौड़ा शरीर और बड़ीबड़ी गोल आंखें. वह सामने वाले से बात करते समय अपनी धाक बड़ी आसानी से जमा लेता था.

धर्मा पंडित की इस डांस पार्टी में तकरीबन 20 से 25 लोग काम करते थे, जिन में से 6 लेडीज डांसर थीं. कुछ लोग आरकेस्ट्रा पर काम करते थे, तो कुछ लोग डांस पार्टी के तंबू वगैरह का काम संभालते थे.

लेडीज डांसर सभी के आकर्षण का केंद्र थीं. हालांकि, ये डांसर फिल्मी गानों पर नाचती थीं, पर धर्मा पंडित ने अपनी इस डांस पार्टी को नाम दिया था ‘क्लासिकल डांस पार्टी’ और अपनी इस डांस पार्टी को धर्मा पंडित कसबों और गांवों में ले जाता था और एक जगह तकरीबन 15 से 20 दिन तक कार्यक्रम करता था.

जिस भी कसबे और गांव में धर्मा पंडित की डांस पार्टी जाती थी, वहां पर जम कर प्रचारप्रसार कराने के लिए नाचने वाली लड़कियों के छोटे कपड़े पहने हुए पोस्टर तैयार कराए जाते थे और सड़कों के किनारे लगवा दिए जाते थे, जिन्हें देख कर लोग अच्छीखासी तादाद में डांस देखने आते थे और जम कर पैसे भी लुटाते थे.

धर्मा पंडित की डांस पार्टी में नाचने वाली लड़कियों की खूबसूरती देख कर गांवकसबे के शोहदे कई बार इन लड़कियों के साथ जिस्मानी संबंध भी बनाना चाहते थे और इस के लिए वे अपना रोबताब दिखा कर धर्मा पंडित से बात भी करते थे, पर यहां तो धर्मा पंडित का अलग ही रूप देखने को मिलता था.

वह इन हुस्न के सौदागरों को साफ मना कर देता था, ‘‘ये क्लास्किल और फिल्मी डांस दिखाने वाले कलाकार हैं. यह तो समय की मांग ने इन के कपड़ों को जरूर छोटा कर दिया है, पर जब तक ये मेरे पास हैं, तब तक इन्हें जिस्म बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

धर्मा पंडित के इस रूप को देख कर लोग चिढ़ जाते थे और पीठ पीछे धर्मा पंडित को खूब गरियाते थे. उन्हें लगता था कि धर्मा पंडित खाली इस तरह की बड़ी बातें कर के अपनी नाचने वालियों का रेट बढ़ाना चाहता है और फिर वे और ज्यादा पैसे देने की बात भी कहते, पर धर्मा पंडित टस से मस नहीं होता था और फिर बारबार परेशान किए जाने पर वह अगले गांव की तरफ चल देता था.

अब धर्मा पंडित और उस की डांस पार्टी कमलापुर नामक गांव में जाने वाली थी. कमलापुर में जम कर इस डांस पार्टी का प्रचारप्रसार भी कर दिया गया था. इस के चलते वहां के नौजवानों में आने वाली डांस पार्टी को ले कर बहुत जोश था. मजे की बात तो यह थी कि सिर्फ नौजवान ही नहीं, बल्कि बड़ी उम्र के लोग भी डांस देखने के लिए उतावले थे और इसीलिए खुद को सजानेसंवारने में लगे हुए थे.

गांव के नुक्कड़ पर इकबाल नाम के लड़के का लकड़ी का बनाया हुआ खोखा था, जिस में उस ने एक बड़ा सा आईना रख कर उसे एक सैलून की शक्ल देने की कोशिश की थी. गांव के लोग यहां पर अपने दाढ़ीबाल कटवाने आते थे.

इकबाल कुछ खास लोगों को ही अपने चेहरे पर पीली वाली क्रीम की मालिश करवाने को कहता था, ‘‘यह पीली वाली क्रीम बादाम क्रीम है, जिस को लगाने से चेहरा एकदम सलमान खान की तरह चमकीला हो जाता है,’’ सलमान खान के एक पोस्टर की तरफ इशारा करते हुए इकबाल कहता, तो लोग तुरंत ही अपना चेहरा आगे कर देते और इकबाल खूब मेहनत से उन के चेहरे पर मसाज करता.

मसाज के बाद लोग अपना चेहरा आईने में देखते तो उन्हें खुद भी फर्क साफ नजर आता और वे इकबाल
को पैसे देने के साथसाथ शुक्रिया कहना न भूलते.

गांव की तरफ से शहर की ओर जाने वाली रोड के किनारे बहुत चहलपहल थी, क्योंकि आज क्लासिकल डांस पार्टी का कमलापुर गांव मे पहला शो था. स्टेज के आगे एक तख्त पर चादर बिछा दी गई थी, जो गांव के चौधरी साहब के लिए थी. इस के बाद की लाइन में प्लास्टिक के तार से बिनी हुई कुरसियां और इस के बाद दरी और टाट को धूल झाड़ कर बिछा दिया गया था.

धर्मा पंडित अपने साथ गांव के चौधरी साहब को बड़े आदरभाव से अंदर लाया और सब से आगे पड़े तख्त पर बिठा दिया.

50 साल के आसपास के चौधरी साहब भी तन कर बैठ गए और उन के गुरगे पास ही नीचे जमीन पर बैठ गए और सभी की निगाहें स्टेज के परदे के खुलने का इंतजार करने लगीं.

इंतजार लंबा हो रहा था, तो सभी लोग सीटियां बजा कर शोर करने लगे. आखिरकार परदा खुला और शबनम एक नौजवान दिलीप के साथ स्टेज पर आई. एक भड़काऊ भोजपुरी गाना भी बजने लगा, जिस के बोल थे, ‘हमार मिक्सी, तोहार मिक्सी, दोनों के मिक्सी बा कालाकाला… हमार पीसे नरम मसाला, तोहार पीसे गरम मसाला…’

इस गीत पर शबनम और दिलीप एकदूसरे की कमर से कमर चिपकाते हुए मसाला पीसने का इशारा करते, तो दर्शकों के बीच जोश की लहर फैल जाती और वे भी खड़े हो कर नाचने लगते और पैसे लुटाते.

हालांकि, चौधरी साहब का मन भी नाचने का कर रहा था, पर उन्होंने अपनी शान का खयाल करते हुए सिर्फ पैसे ही लुटाए.

शबनम के जाते ही दूसरी डांसर ने अपने नाच का जलवा दिखाया और उस के बाद 3 गीत और बजाए गए, जिन पर भी भड़काऊ नाच का मजा दर्शकों ने उठाया.

रात हो चली थी और शो भी खत्म हो गया था. चौधरी साहब के गुरगे भी उन्हें बड़े से मकान के बाहर तक छोड़ गए थे.

चौधरी साहब बड़े ही अदब से घर में गए और सीधे हाथमुंह धोने चले गए. घर में उन की 20 साल की रीता नाम की एक विधवा बेटी ही थी, जो चौधरी साहब के इंतजार में अभी तक जाग रही थी.

‘‘बाबूजी, आप के लिए खाना लगा दूं?’’ रीता ने पूछा, तो चौधरी साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया, ‘‘सरखु के यहां कुछ आयोजन था, इसलिए वहां पर भोजन कर लिया है.’’

इतना कह कर चौधरी साहब सीधा अपने कमरे में चले गए.

रीता, जो पिता के इंतजार में भूखी बैठी थी, का मन भी अकेले खाने का नहीं हुआ और रसोईघर में कुंडी लगा कर वह भी सोने चले गई.

रीता की 18 साल की उम्र में ही शादी कर दी गई थी और अगले साल ही वह विधवा हो गई थी और फिर उस ने अपने पिता की देखभाल करने के लिए अपने मायके में ही रहना ठीक समझा.

हालांकि, चौधरी साहब ने अपने रोब का इस्तेमाल करते हुए 2-3 जगह रीता की शादी की बात चलाई, पर कुछ बात नहीं बनी.

किसी भी नौटंकी या डांस पार्टी के लोगों में सब से ज्यादा नोट उड़ाने वाले ग्राहक को पहचानने का एक गजब का टैलेंट धर्मा पंडित में भी था. उस ने अच्छी तरह से देखा था कि कल के शो में सब से ज्यादा पैसे चौधरी साहब ने ही उड़ाए थे. धर्मा पंडित और उस की डांस पार्टी के लिए ऐसे ही ग्राहक अच्छे माने जाते हैं.

2 दिन के बाद धर्मा पंडित ने अपने डांसर दिलीप को चौधरी के घर पर भेज कर संदेश भिजवाया कि उस ने एक खास शो रखवाया है, जिस में सिर्फ चौधरी साहब और उन के अपने आदमी ही होंगे.

दिलीप की बात सुन कर चौधरी साहब को बहुत खुशी मिली और उन्होंने भी अपनी पसंद बताते हुए कहा कि एक नाच शबनम का भी जरूर होना चाहिए.

दिलीप ने मुसकरा कर देखा और वापस जाने लगा. जाते समय उस की नजर रीता से टकरा गई, जो छत पर कपड़े फैला कर नीचे आ रही थी.

रीता जैसी खूबसूरत लड़की दिलीप ने कभी नहीं देखी थी. उस के पैर ठिठक गए थे, पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया.

उस दिन अकेले में चौधरी साहब ने शबनम का जो नाच देखा, तो वे तो उस के जिस्म और नाच के कायल हो गए.

उस दिन चौधरी साहब ने धर्मा पंडित को उस के हाथ में पैसे देते हुए कहा, ‘‘बड़ा खूबसूरत हीरा है तुम्हारा. इसे तो हमारे जैसे जौहरी के पास होना चाहिए.’’

चौधरी साहब ने अपनी बाईं आंख दबा दी थी. धर्मा पंडित भी बिना मुसकराए नहीं रहा था.

चौधरी साहब की पत्नी को मरे हुए 10 बरस हो चले थे और उन के मन में औरत की देह भोगने की बेतहाशा चाह थी, जो शबनम की नंगी कमर, गहरी नाभि और मांसल सीना देख कर और भी भड़क उठी थी, इसीलिए उस दिन के बाद कई बार अकेले ही शबनम के शो के लिए उन्होंने धर्मा पंडित से बात की थी.

पर उस दिन तो चौधरी साहब ने हद कर दी, जब उन्होंने अपनी उम्र की परवाह न करते हुए शबनम के जिस्म को भोगने की बात कह दी, पर धर्मा पंडित नहीं डिगा.

‘‘हम लड़कियों को नचाते जरूर हैं, पर उन से जिस्म का धंधा नहीं करवाते चौधरी साहब. हां, अगर आप को नाच अकेले में देखना हो, तो उस के लिए आप का हमेशा स्वागत रहेगा,’’ धर्मा पंडित ने मुसकराते हुए चौधरी साहब से कहा.

धर्मा पंडित की यह बात चौधरी साहब को अच्छी नहीं लगी, पर बदले में वे कुछ नहीं बोले.

उधर दिलीप, जो रीता को देख कर पहली नजर में ही उस से एकतरफा प्यार कर बैठा था, वह रीता के पास जाने और मिलने की ताक में रहता था. आज जब दिलीप ने चौधरी साहब और धर्मा पंडित को आपस में बातें करते देखा, तो वह बिना हिचके तुरंत ही चौधरी साहब के घर पहुंच गया और कुंडी खटका दी.

अंदर से बिना दरवाजा खोले ही दरवाजे में बनी एक छोटी सी खिड़की को रीता ने खोला और उस की आंखें सीधा दिलीप से टकराईं, तो वह कुछ हड़बड़ाते हुए बोली, ‘‘बाबूजी घर में नहीं हैं. जब वे आ जाएं, तब आना.’’

दिलीप ने कहा, ‘‘मुझे पता है कि वे घर में नहीं हैं, इसीलिए मैं आया हूं और यह कहना चाहता हूं कि आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’’

रीता ने तुरंत ही उस छोटी सी खिड़की को बंद कर दिया. उस का दिल भी हलका सा धड़क कर रह गया था, पर ये शब्द उस के मन को रोमांचित जरूर कर गए थे.

रीता विधवा जरूर थी, पर थी तो अभी जवान ही. उस के भी अरमान थे कि उसे कोई अपनी बांहों में इतनी
जोर से जकड़ ले कि उन के बीच बिलकुल भी फासला न रह जाए. कोई उस के होंठों पर अपने होंठ रख दे, पर मजबूर थी.

लेकिन दिलीप की यह बात रीता के मन को छू गई थी, जैसे तपती धूप के बाद बारिश की कुछ बूंदों ने तनमन को भिगो दिया हो, पर वह तो एक विधवा है, कैसे किसी को प्यार कर सकती है… पर क्यों? उस के विधवा होने में उस का क्या कसूर है? और फिर एक विधवा भी तो एक औरत ही होती है…

दिलीप के मन में रीता के लिए प्यार था और वह उस से शादी करना चाहता था, क्योंकि रीता भले ही विधवा थी, पर वह बिलकुल वैसी लड़की थी जैसी उसे अपने लिए चाहिए थी. लेकिन वह जानता था कि गांव के चौधरी साहब की विधवा बेटी के मन को जीतने के लिए उसे चौधरी साहब के मन को भी जीतना होगा.

‘‘बड़ा खोएखोए से रहते हैं सरकार,’’ चौराहे पर चौधरी साहब को अकेला देख कर दिलीप ने पूछा, तो चौधरी साहब भी डांस मंडली के आदमी को देख कर मन की बात कह बैठे, ‘‘क्या बताएं… शबनम पर हमारा दिल आ गया है, पर तुम्हारा धर्मा पंडित मान ही नहीं रहा है.’’

बस, यही शब्द सुनना चाहता था दिलीप. उस ने तपाक से बात बनाई और चौधरी साहब को भरोसा दिलाया कि वह उन्हें शबनम के जिस्म को भोगने का मौका जरूर दिलवाएगा.

यहां से दिलीप का चौधरी साहब के घर पर आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया था. वह बेधड़क चौधरी साहब के घर जाता, तो चौधरी साहब उसे सीधा अपने पास बुला लेते और दोनों बतियाते रहते. इस बीच रीता से दिलीप की नजरें भी दोचार हो जाती थीं.

एक दिन मौका देख कर दिलीप ने रीता का हाथ पकड़ लिया. रीता ने झट से हाथ छुड़ा लिया और तुरंत ही वहां से यह कहते हुए भाग गई, ‘‘मैं एक विधवा हूं और यह सब मेरे लिए पाप है.’’

दिलीप का चौधरी के घर आनाजाना बढ़ गया था और अब तक डांस कंपनी के दूसरे लोगों को रीता और दिलीप के संबंधों की भनक भी लग गई थी.

धर्मा पंडित की डांस कंपनी में भूलर नाम का एक 25 साल का लड़का था, जो बिजली का इंतजाम देखता था. वह था तो अनाथ, पर ऊंची जाति का था और धर्मा पंडित ने उसे गोद लिया हुआ था.

भूलर को वह हर सम्मान मिलता था, जो एक डांस कंपनी के मालिक के बेटे को मिलना चाहिए. जब भूलर को दिलीप और रीता के संबंधों की खबर मिली, तो उस पर जाति का घमंड हावी हो गया.

‘‘यह निचली जाति का चौधरी साहब की लड़की के साथ मजे लेना चाह रहा है, पर हम इस का मनसूबा कभी कामयाब नहीं होने देंगे.’’

भूलर ने नमकमिर्च लगा कर धर्मा पंडित को सारी बता दी. यों तो धर्मा पंडित सैकुलर होने का दावा करता था और अपनी डांस मंडली के लोगों के लिए खुद को पिता के जैसा दिखाता था, पर उसे यह कतई मंजूर नहीं हुआ कि उस की डांस मंडली में काम करने वाला कोई निचली जाति का किसी ऊंची जाति की लड़की से इश्क लड़ाए.

हालांकि, धर्मा पंडित के लिए यह बहुत आसान होता कि वह अपनी डांस मंडली को किसी दूसरे गांव में ले जाए और दिलीप और रीता का मामला यहीं खत्म हो जाए, पर ऐसा करने के बाद भी दिलीप और रीता का प्रेम बदस्तूर कायम रह सकता था और हो सकता था कि वे दोनों भाग कर शादी भी कर लेते.

धर्मा पंडित को कुछ ऐसा सोचना होगा, जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. धर्मा पंडित मन ही मन गहरी सोच में डूबने लगा था.

2-3 दिन बीतने के बाद धर्मा पंडित चौधरी से मिलने उस के घर गया. उसे देख कर चौधरी साहब बहुत खुश हुए और दालान में कुरसियां डलवा कर मीठा शरबत और पान मंगवाया.

थोड़ी देर वे दोनों इधरउधर की बातें करते रहे, फिर धर्मा पंडित ने फुसफुसाते हुए चौधरी साहब से कहा, ‘‘बड़े जागेजागे से लग रहे हैं, क्या बात है? रातों में नींद नहीं आ रही लगता है…’’

धर्मा पंडित की बात सुन कर पहले तो चौधरी साहब थोड़ा सा सकुचाए, फिर मुसकराते हुए कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं धर्मा, जब से तुम्हारी उस नचनिया शबनम को देखा है, तब से तो मेरी रातों की नींद ही उड़ गई है. अब तो मन में यही आता है कि जब तक उसे बांहों में भर कर उस का सारा रस न निकाल लूं, तब तक शायद ही इस दिल को चैन मिले.’’

धर्मा पंडित का तुरुप का पत्ता कामयाब हो गया था. उस ने चौधरी साहब से कहा कि वह तो 1 या 2 रातें नहीं, बल्कि हर रात शबनम को उन के साथ सुला सकता है, पर चौधरी साहब को अपने घर की विधवा बेटी का भी ध्यान रखना चाहिए.

धर्मा पंडित ने चौधरी साहब को उन की विधवा बेटी का ब्याह कर देने की बात कही, तो उन्हें अचानक धर्मा पंडित के मुंह से अपनी विधवा बेटी के दूसरे ब्याह की बात सुन कर झटका सा लगा, मानो वे नींद से जागे हों, पर फिर उन्होंने कहा, ‘‘आजकल किसी विधवा से कौन शादी करना चाहेगा?’’

धर्मा पंडित ने तुरंत भूलर का नाम पेश कर दिया और फिर धीरे से चौधरी साहब को दिलीप और रीता के बढ़ते प्यार की बात भी बता दी और दिलीप धोबी जाति का है, यह बताना भी नहीं भूला था धर्मा पंडित.

चौधरी साहब के अहंकार को ठेस लगी कि एक निचली जाति का लड़का उन की विधवा बेटी से इश्क लड़ा रहा है. उन का ऊंची जाति का घमंड जाग उठा और उन्होंने बिना ज्यादा कुछ सोचेसमझे धर्मा पंडित से रीता की शादी भूलर के साथ कर देने के लिए हां कर दी.

शबनम के जिस्म का लालच चौधरी साहब के दिमाग में अब भी चल रहा था, पर धर्मा पंडित अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. उस ने चौधरी साहब को अपनी बातों में लिया और कहा कि भूलर अभी भी एक डांस मंडली वाले का बेटा जाना जाता है और चौधरी एक ऐसे लड़के से अपनी विधवा बेटी की शादी करे, यह कुछ शोभा नहीं देता. इस के लिए जरूरी है कि उन का दामाद कुछ खास हो.

‘‘तो उस के लिए मुझे क्या करना होगा?’’ चौधरी साहब ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस आप शहर में एक अच्छा सा मकान अपनी बेटी और दामाद को दिलवा दीजिए और कोई छोटामोटा धंधा चालू करवा दीजिए, जिस से आप की बेटी भी सुखी रहेगी और आप के दामाद का नाम भी होगा.’’

चौधरी साहब को धर्मा पंडित की यह बात पसंद आ गई. उन्होंने जब अपनी बेटी रीता से उस के दोबारा ब्याह की बात कही, तो वह सोच में पड़ गई. उस के मन में तो दिलीप के लिए प्यार था, पर एक विधवा भला कब अपने मन की बात अपने पिता से कह सकती है?

रीता ने कुछ देर नानुकर की, पर चौधरी साहब ने फैसला सुना दिया था, इसलिए वह चुप रही. वह चाह कर भी दिलीप का नाम नहीं ले सकी, क्योंकि वह जानती थी कि एक विधवा के लिए किसी दूसरे मर्द से प्यार करना महापाप समझ जाता है.

रीता ने चुपचाप अपने पिता के फैसले को स्वीकार कर लिया था.

चौधरी ने शहर में एक 2 कमरे का मकान देखा और उस से कुछ दूरी पर ही एक दुकान देख कर उस में खाद और बीज भंडार का उद्घाटन कर दिया.

रीता और भूलर की शादी एक सादा समारोह में हो गई थी. भरी आंखों से चौधरी ने रीता को विदा किया.

पूरा गांव चौधरी साहब के इस कदम की बहुत तारीफ कर रहा था. धर्मा पंडित की यह सारी योजना सही से कामयाब हो सके, इस के लिए उस ने बड़ी चालाकी से दिलीप को 15 दिन पहले ही शहर में किसी ऐसे काम से भेज दिया था, जिस से कि वह जल्दी वापस न आ सके.

आज जब दिलीप वापस आया, तो धर्मा पंडित ने उसे शाबाशी दी और कहा, ‘‘आज शाम को चौधरी साहब के घर पर हम सब को एक भोज के लिए चलना है.’’

बेचारा दिलीप सब बातों से अनजान था, इसलिए उस ने हामी में सिर हिला दिया.

रात को धर्मा पंडित और दिलीप चौधरी साहब के घर पहुंचे, तो वहां पर बढि़या शराब और मीट का इंतजाम था. धर्मा पंडित ने बोटी खाने से तो इनकार किया, हालांकि उस ने मीट की करी लेने से कोई परहेज नहीं किया और अपनी पांचों उंगलियां मीट के रस में डुबोडुबो कर चाट डालीं.

आज धर्मा पंडित कुछ ज्यादा ही अपनेपन से दिलीप को शराब पिला रहा था. दिलीप पर अब शराब हावी हो रही थी और उस की आंखें अपनेआप बंद होने लगी थीं. उसे लगा कि वह बेहोश हो रहा है, पर वह चाह कर भी अपनी बेहोशी को रोक नहीं पाया और अगली सुबह जब उस की आंख खुली तो उस ने पुलिस को अपने चारों तरफ पाया.

पुलिस इंस्पैक्टर ने दिलीप को घूरते हुए कहा, ‘‘इसे गिरफ्तार कर लो और इस की इतनी तुड़ाई करो कि अगली बार यह किसी चौधरी के घर में चोरी करने से पहले हजार बार सोचे.’’

दिलीप अपने बेकुसूर होने की दुहाई देता रहा, पर पुलिस इंस्पैक्टर ने उस की पैंट की जेब से नोटों की गड्डियां बरामद कर ली थीं.

दिलीप को पुलिस वैन में बिठा लिया गया था. उस की आंखें अभी भी रीता को ढूंढ़ रही थीं, पर रीता अब उसे कहां मिलने वाली थी?

आज रात चौधरी साहब की हवेली गुलजार थी और कुछ ज्यादा ही रोशन थी. चौधरी साहब धर्मा पंडित के साथ अपने सोफे पर धंसे हुए थे और उन के सामने शबनम अपनी नंगी कमर और गहरी नाभि हिलाहिला कर नाच रही थी. चौधरी साहब आज शबनम का सारा रस निकाल लेने वाले थे.

हवेली में गाना गूंज रहा था, ‘कमरिया लचके रे… बाबू, जरा बच के रे… दिल मेरा धड़के रे…’

Social Story : यह कैसा प्यार है

Social Story : यमुनानगर में बसे छोटे मौडल टाउन इलाके का एक लड़का गगन शर्मा वहां के मुकुंदलाल कालेज में बीकौम थर्ड ईयर का छात्र था और सुमनप्रीत कौर भी यमुनानगर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से कसबे मुस्तफाबाद की लड़की थी, जो उसी कालेज में पढ़ती थी. वह बीकौम के फर्स्ट ईयर की छात्रा थी.

सुमनप्रीत का कद 5 फुट, 3 इंच लंबा था, उस का रंग गोरा, लंबे और घने काले बाल, समुद्र के हलके नीले पानी जैसी आंखें, तीखी नाक, लंबी सुराहीदार गरदन और ऊंचे उठे उभार उसे दूसरी लड़कियों से अलग बनाते थे.

वहीं गगन शर्मा 5 फुट, 6 इंच का गोराचिट्टा लड़का था. उस का चौड़ा सीना, घुंघराले बाल, छोटीछोटी बारीक सी मूंछें थीं. वह साधारण सी पैंटशर्ट पहन कर आता था, मगर उस में भी ऐसा लगता था, मानो कहीं का राजकुमार हो.

लेकिन लड़कियों के मामले में गगन शर्मीला था, पर वह पढ़ाई में होशियार था और हर साल पूरी क्लास तो क्या राज्यभर में अव्वल रहता था, इसलिए सारा कालेज उसे जानतापहचानता था.

सुमनप्रीत कौर ने भी गगन के बारे में सुना, तो मन में मिलने की भी इच्छा होने लगी.

आखिरकार एक दिन उन दोनों का आमनासामना भी हो गया. कैंटीन में सुमनप्रीत कौर और उस की एक सहेली रजनीत कौर बैठी कौफी पी रही थीं कि तभी अचानक 2 लड़के कैंटीन में आए और कोई भी टेबल खाली न होने पर वापस जाने लगे.

तभी उन में से एक लड़के पम्मे ने कहा, ‘‘गगन, वह सीट खाली है. चल, वहां चल कर बैठते हैं.’’

‘‘नहीं यार पम्मे, वहां नहीं यार. वे लड़कियां बैठी हैं. ऐसे किसी को डिस्टर्ब क्यों करें…’’

‘‘अरे, लड़कियां हैं तो क्या हुआ, उन से पूछ कर ही बैठेंगे,’’ पम्मे ने कहा.

ये बातें सुमनप्रीत और उस की सहेली रजनीत कौर ने सुन ली थीं.

रजनीत कौर ने गगन की बात सुन कर इशारा कर के सुमनप्रीत को बताया, ‘‘यही गगन है और साथ में उस का दोस्त परमजीत सिंह है.’’

इतने में परमजीत सिंह वहां आ गया और उन दोनों से वहां बैठने की इजाजत मांगी.

रजनीत कौर ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, सामने की सीट खाली है, आप बैठिए.’’

लेकिन सुमनप्रीत कौर कुछ नहीं बोल पाई. वह तो बस गगन को एकटक देखे जा रही थी.

गगन और पम्मा दोनों ‘धन्यवाद’ कह कर बैठ गए.

रजनीत कौर ने उन्हें सुमनप्रीत कौर से मिलवाया, ‘‘यह है मेरी सहेली सुमनप्रीत कौर… और सुमन, ये हैं गगन शर्मा और परमजीत सिंह.’’

लेकिन सुमनप्रीत को तो जैसे होश ही नहीं था. वह तो बुत बनी केवल गगन को देखे जा रही थी.

रजनीत कौर ने सुमनप्रीत को कुहनी मारी, तब सुमन को अहसास हुआ कि उसे कुछ कहा है किसी ने.

सब ने आपस में ‘हायहैलो’ किया. इतने में वेटर आया और उन दोनों का और्डर दे गया. सब चुपचाप अपनी कौफी पी रहे थे, लेकिन सुमन की नजरें गगन से हट ही नहीं रही थीं.

इतने में क्लास का समय हो गया. वे सब अपनीअपनी क्लास में चले गए.

रजनीत कौर ने सुमनप्रीत से कहा, ‘‘सुमन, क्या हुआ? तुम किस दुनिया में खोई हुई थी?’’

‘‘पता नहीं यार, मुझे क्या हो गया है. कहीं दिल ही नहीं लग रहा है. ऐसा लगता है कि गगन के सामने बैठी रहूं,’’ सुमनप्रीत ने कहा.

‘‘कहीं तुझे प्यार तो नहीं हो गया न…? पर यह लड़का तो किसी लड़की को पलट कर देखता ही नहीं है. बस, अपनी किताबों में ही मस्त रहता है.’’

सुमनप्रीत को खुद ही नहीं समझ आ रहा था कि उसे क्या हुआ है. हर पल उस के दिमाग पर गगन ही छाया हुआ है, लेकिन गगन कभी किसी लड़की की तरफ न तो देखता था, न ही बात करता था.

सुमनप्रीत ने गगन से बात करने के लिए परमजीत से दोस्ती कर ली, क्योंकि गगन और परमजीत हर समय साथ रहते थे. दोनों की पक्की यारी थी. परमजीत के बहाने सुमनप्रीत की कभीकभार गगन से भी बात हो जाती थी.

सुमनप्रीत ने गगन की नजदीकियां पाने का एक नया रास्ता निकाला और अकाउंट्स न समझ आने का बहाना बनाया और गगन को यह सब्जैक्ट सम?ाने की रिक्वैस्ट की, तो परमजीत के जोर देने पर गगन मान गया.

अब तो रोज कालेज के बाद थोड़ी देर वहीं रुक कर सुमनप्रीत गगन से अकाउंट्स सीखती थी. उधर, परमजीत भी सुमनप्रीत को चाहने लगा था, पर सुमनप्रीत के दिल में तो गगन बैठा था.

साल खत्म होने को आया, मगर सुमनप्रीत गगन से अपने प्यार का इजहार न कर सकी. वह 2 बातों से डरती थी कि गगन ब्राह्मण है और वह सिख है. घर वाले किसी कीमत पर नहीं मानेंगे. दूसरा यह कि गगन भी उसे चाहता है या नहीं?

गगन बीकौम पास कर के चला गया. उस की कार के एक शोरूम में अच्छी नौकरी लग गई, लेकिन परमजीत फेल हो गया. लेकिन गगन लंच टाइम में फ्री होता था, तो कालेज पहुंच जाता था और पम्मा और सुमनप्रीत को थोड़ी देर अकाउंट्स समझ जाता था.

एक बार गगन को कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 4-5 दिन के लिए गुरुग्राम जाना था. यह सुन कर सुमनप्रीत सुन कर उदास हो गई कि इतने दिन गगन को नहीं देख पाएगी.

मगर जब गगन ट्रेनिंग पर चला गया, तो वहां उस का मन नहीं लगा. उसे हरपल सुमनप्रीत ही आंखों के सामने नजर आती थी. वह सम?ा नहीं पा रहा था कि उसे क्या हो रहा है.

गगन ने फोन पर परमजीत से भी कहा, ‘‘यार पम्मे, सुमनप्रीत ठीक तो है न? पता नहीं, क्यों मुझे हरपल उस का ही खयाल आ रहा है. ऐसा लगता है जैसे वह मेरे पास है और कोई उसे मुझ से छीन कर दूर ले जा रहा है. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ?’’

परमजीत ने महसूस किया कि गगन को सुमनप्रीत से प्यार हो रहा है. हालांकि, वह खुद भी सुमनप्रीत से प्यार करता था, लेकिन अपने दोस्त के लिए वह अपना प्यार भूल गया, कुरबान कर दिया अपना प्यार अपने जिगरी दोस्त पर.

‘‘ओए गगन, तुझे प्यार हो गया है. अब ट्रेनिंग से आते ही जल्दी से अपने प्यार का इजहार भी कर देना. कहीं ऐसा न हो कि कोई दुलहनिया ले जाए और तू बरात में नाचता ही रह जाए,’’ ऐसा कह कर परमजीत जोरजोर से हंसने लगा.

लेकिन गगन सोच रहा था कि क्या सचमुच जो प्यार नाम की चिडि़या को पहचानता भी नहीं था, उसे प्यार हो गया है?

खैर, ट्रैनिंग से वापस आ कर गगन ने परमजीत से बात की, तो उस ने समझाया, ‘‘बुद्धू, जो तुझे सुमन की दूरी बरदाश्त नहीं हुई, हरपल उस की याद सताती रही, यही तो प्यार है… और अब देर मत कर, कल ही प्रपोज कर दे सुमनप्रीत को. उस का जन्मदिन भी है कल.’’

अगले दिन गगन ने होटल मधु में एक छोटी सी सरप्राइज पार्टी रखी. रजनीत कौर और परमजीत सिंह बहाने से सुमनप्रीत को वहां ले गए, लेकिन वहां गगन की तरफ से पार्टी को देख कर सुमन फूली न समाई.

केक काटने के बाद गगन हाथ में एक फूल लिए सुमन के सामने घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘सुमन, क्या तुम मेरा प्यार स्वीकार करोगी? क्या तुम जिंदगी के हर सुखदुख में मेरा साथ दोगी? अगर तुम मुझे अपने लायक समझती हो, तो क्या मुझ से शादी करोगी?’’

सुमन ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा और ‘हां’ कह दिया.

‘‘सुमन, अभी समय है, सोच लो. तुम महलों में पली हो, मेरा छोटा सा घर है. नौकरी भी कोई बहुत बड़ी नहीं है, बस ठीकठाक गुजरबसर ही होती है.’’

‘‘गगन, मुझे केवल तुम चाहिए. तुम्हारा साथ होगा तो मैं भूखी भी रह लूंगी. न होगा मखमल का बिस्तर, तो तुम्हारे सीने पर सिर टिका कर चैन की सांस लूंगी. बस, तुम न मुझे छोड़ना मत, चाहे तो सारी दुनिया मैं छोड़ दूंगी.’’

इस के बाद उन दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. वे साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे.

सुमनप्रीत की बीकौम पूरी हुई, तो घर वालों ने शादी के लिए जोर डालना शुरू कर दिया. सुमन ने घर में गगन के बारे में बताया तो तूफान आ गया सुमनप्रीत के पापा ने नाराजगी में कहा, ‘‘हम सरदार हैं और वह शर्मा. यह मेल कभी नहीं हो सकता. गगन अकेला नौकरी करने वाला है. उस के पापा कोई काम नहीं करते हैं. उस का बड़ा भाई भी नौकरी करता है, मगर उस का अपना अलग परिवार है. मांबाप की जिम्मेदारी भी गगन पर है. जिस लाड़प्यार से तुम पली हो, वहां तुम्हारा गुजारा नहीं हो सकता.’’

जिस तरह से घर वालों ने अपना गुस्सा जाहिर किया था, उस से सुमन समझ चुकी थी कि इस शादी के लिए वे किसी भी कीमत पर राजी नहीं होंगे.

लेकिन गगन का परिवार इस शादी के लिए तैयार था. वे लोग जातपांत, बिरादरी जैसी दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे, क्योंकि गगन के पापा की भी इंटरकास्ट मैरिज थी.

लेकिन गगन का परिवार सुमनप्रीत के परिवार के बराबर नहीं था. सुमनप्रीत के पापा रेलवे से अच्छी पोजिशन से रिटायर हुए थे. उस का भाई चंडीगढ़ में लैक्चरर था और पुरखों की जमीन व जायदाद भी काफी थी.

लेकिन प्यार का जोश, दीवानापन ऐसी बातें कहां समझता है. सुमनप्रीत चुप हो गई, मगर दिमाग में शैतानी खयाल आ रहे थे, इसलिए कंप्यूटर कोर्स के बहाने फिर से यमुनानगर जाने लगी और एक दिन उन दोनों ने भाग कर कोर्टमैरिज कर ली. गगन सुमनप्रीत को अपने घर ले आया.

खैर, जब सुमनप्रीत के घर वालों को इस शादी के बारे में पता चला, तो उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की. छोटा सा कसबा है, बात फैलने पर बदनामी होगी. बस, इतना ही कहा कि आज से सुमनप्रीत उन के लिए मर चुकी है.

लेकिन ससुराल वालों ने सब रीतिरिवाजों के साथ अपनी बहू का गृहप्रवेश कराया. जिस दिन शादी हुई, उस के 2 दिन बाद ही गगन की प्रमोशन हो गई.

अब तो सुमनप्रीत को भाग्यशाली समझ जाने लगा. सबकुछ ठीक चल रहा था. एक साल में ही सुमनप्रीत ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया.

सुमनप्रीत ने गगन से कहा, ‘‘गगन, मेरी इच्छा है कि मैं अपनी बेटी का नाम मेरे पापा के नाम हरजोत सिंह पर हरलीन कौर रखूं, लेकिन कहीं मम्मीडैडी को बुरा न लगे जाए…?’’

‘‘नहीं सुमन, मम्मीडैडी बुरा नहीं मानेंगे. हम इस का नाम हरलीन कौर ही रखेंगे,’’ गगन ने कहा.

बच्ची का नाम हरलीन कौर रखा गया. एक दिन गगन और सुमनप्रीत उस बच्ची को ले कर मायके गए और बच्ची को उस के नाना की गोद में रख दिया.

बच्ची को देख कर सुमनप्रीत के मम्मीपापा के मन में भी प्यार उमड़ा और उन्होंने सुमनप्रीत की गलती को भुला कर उसे गले से लगाया.

दोनों परिवार मिल गए. सुमनप्रीत की जिंदगी में अब और भी खुशियां बढ़ गई थीं. मायके का प्यार जो फिर से मिल गया था.

इधर बच्ची के आने से खर्च बढ़ने लगा. अभी तो गगन को प्रमोशन पर प्रमोशन मिल रहा था. सुमनप्रीत ने आगे पढ़ने की इच्छा जताई.

गगन ने उसे पत्राचार से एमकौम कराई और उस के बाद कंप्यूटर का एक कोर्स भी कराया.

अब तक हरलीन स्कूल जाना शुरू हो गई थी, तो सुमनप्रीत ने कहा, ‘‘गगन, हरलीन स्कूल चली जाती है. आप भी सुबह से जा कर शाम को घर आते हो.

घर पर कुछ खास काम तो रहता नहीं है, क्यों न मैं किसी स्कूल में नौकरी के लिए ट्राई करूं?’’

सुमनप्रीत की खुशी के लिए गगन ने उसे नौकरी करने के लिए मना नहीं किया.

सुमनप्रीत ने अपनी बेटी के ही स्कूल में नौकरी के लिए अप्लाई किया और उसे वहां नौकरी भी मिल गई.

हरलीन अब 10 साल की हो गई थी. सुमनप्रीत की दूसरी बेटी पैदा हुई, जिस का नाम प्रेजी रखा.

अब 2 बच्चों का खर्च और मांबाप की उम्र के हिसाब से बीमारी का बढ़ता खर्च… धीरेधीरे घर में तनाव भरा माहौल रहने लगा.

सुमनप्रीत ने अब महाराजा अग्रसेन कालेज में अपना बायोडाटा भेज दिया और वहां से नौकरी का बुलावा
आ गया.

गगन और सुमनप्रीत की आमदनी से बस गुजारा ही होता था. सुमनप्रीत को अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता था, लेकिन कब तक?

कालेज में सुमनप्रीत की दोस्ती अपने से 6 साल छोटे आयुष के साथ हो गई, जो एक ऊंचे और अमीर खानदान से था, जो वहां शौकिया नौकरी करता था. वह सुमनप्रीत की हर इच्छा पूरी करता था, इसलिए वह उस की तरफ खिंचती चली गई.

जहां एक तरफ गगन और ज्यादा कमाने और सुमनप्रीत की इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिनरात जद्दोजेहद करता था, वहीं दूसरी तरफ सुमनप्रीत आयुष के रंग में रही.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते, सुमनप्रीत का भी परदाफाश हुआ. गगन को एक दिन खबर मिली कि इस समय सुमन और आयुष किसी मीटिंग या कालेज में नहीं हैं, बल्कि होटल में रंगरलियां मना रहे हैं.

गगन भड़का हुआ होटल गया और दोनों को रंगे हाथ पकड़ लिया और सुमन को घर ले आया.

इस समय हरलीन 14 साल की और प्रेजी 4 साल की थी. गगन ने सुमनप्रीत को बहुत समझाया, लेकिन वह खुले शब्दों में विरोध करते हुए बोली, ‘‘गगन, जब तुम मेरी इच्छाएं पूरी नहीं कर सकते, तो मुझे तलाक दे दो. मैं आयुष के साथ नया सफर शुरू करना चाहती हूं. वह मुझे हर तरह से खुश रखेगा.’’

‘‘सुमन, प्लीज ऐसा मत करो. बच्चियों के बारे में भी सोचो. तुम ने अब तक जो भी किया, मैं सब भुला दूंगा. तुम्हारी हर गलती माफ कर दूंगा. तुम अपने बच्चों के साथ मेरा परिवार बन कर एक अच्छी बीवी, अच्छी मां और अच्छी बहू की तरह रहो.’’

‘‘बहुत बन चुकी मैं अच्छी बीवी, बहू और मां, पर मुझे अपनी जिंदगी भी जीनी है. कब तक मैं दूसरों के लिए जीऊं?’’

‘‘मैं तुम्हें हर खुशी दूंगा, तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं दिनरात मेहनत करूंगा. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. मैं बहुत प्यार करता हूं तुम से,’’ गगन ने कहा.

‘‘मिस्टर गगन, प्यार से पेट नहीं भरता. प्यार से तन नहीं सजता. प्यार चांदतारों की भी ख्वाहिश करता है. मेरी भी कुछ ऐसी हसरतें हैं, जो आयुष पूरी कर सकता है.’’

एक दिन गगन के पास कोर्ट से तलाक के पेपर आ गए. रात को गगन जब औफिस से घर आया, तो गुस्से में बोला, ‘‘सुमन, यह क्या है? तुम ने तलाक के लिए अर्जी दी है?’’

सुमन ने हंसते हुए कहा, ‘‘हां, तो और क्या करूं मैं? तुम्हें कितनी बार कहा कि मुझे तलाक दो. तुम तो तलाक लोगे नहीं, तो सोचा कि मैं ही यह शुभ काम कर दूं.’’

गगन ने रोते हुए कहा, ‘‘सुमन, प्लीज ऐसा मत करो. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘अब मैं बिलकुल भी तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. मेरे पास और वक्त नहीं है इंतजार के लिए. मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है, जो मेरे लिए चांदतारे भी तोड़ कर लाएगा.’’

‘‘ये सिर्फ बातें हैं. वह तुम्हें हमेशा के लिए नहीं अपनाएगा. अधर में छोड़ देगा, तब पछताओगी.’’

‘‘जो होगा देखा जाएगा, मैं फैसला ले चुकी हूं. इन पेपर पर साइन करो, वरना मैं यहीं खुदकुशी कर लूंगी,’’ सुमनप्रीत ने कहा.

गगन ने कहा, ‘‘मैं ऐसे तलाक नहीं दूंगा. अगर तलाक लेना है, तो कोर्ट में जा कर ही क्यों न फैसला किया जाए…’’

दोनों ने कोर्ट में बच्चों की कस्टडी के लिए एप्लीकेशन दे दी. केस अभी भी चल रहा है, लेकिन गगन अभी भी सुमनप्रीत को मना रहा है कि वह आयुष को भूल जाए और उस की जिंदगी में वापस आ जाए.

पर यह कैसा प्यार है, जो अपनी इच्छाओं को पूरा करने की चाहत में सबकुछ भूल चला है?

Hindi Story : बेवफा कौन ?

Hindi Story : रघुवर  को कब शराब के शौक ने घेर लिया, उसे एहसास ही नहीं हुआ. उसकी ऐसे-ऐसों से मित्रता हो गई कि जो अपने आप में इस क्षेत्र के अखंड खिलाड़ी थे.  कहते हैं न, आदमी को एक ऐब पकड़ता है, तो दूसरे ऐब भी आने घेरने लगते हैं, सो रघुवर दास को दूसरी कई बुराइयों ने भी भी  जकड़ लिया.  परिणाम स्वरूप कोयला खान जाते समय नूर होटल में बैठकी भी जमने लगी है.

वहां खूब खाते-पीते और दूसरों की भी सेवा करते. फिर संध्या समय लौटते, तो बैठकी होती. धीरे धीरे हाथों में पैसे की तंगी होने लगी तो एक मित्र रामनारायण ने कहा, -“तुम्हें कितने पैसे चाहिए…. मैं हूं न .”

रघुवर  का चेहरा खिल गया.

रामनारायण ने कहा, – “ चलो, प्रभात  के पास, कितना पैसा चाहिए, मैं ब्याज में दिलवाता हूं .”

रघुवर ने मालिक राम की ओर देखा तो उसने भी सिर हिला कर पुष्टि की,-” कभी कभी मैं भी लेता हूं .”

-” कितना ब्याज है .” संशय से भर कर रघुवर दास ने जानना चाहा.

– “देखो, कम पैसे कम लोगे तो 10% ज्यादा लोगे तो 8% .”

” भैय्या, ऐसा क्यों ?”

– “हम भी स्वयं खुद लेते हैं ! ऐसा तो सभी जगह है… आखिर उन्हें भी तो बाल बच्चे पालने हैं, फिर कितना रिस्क है…घर से पैसे निकाल कर देते हैं . मजाक है क्या.”

रामनारायण ने बात समझायी तो रघुवर सहमत हो गया.

अब शराब के लिए पैसे ब्याज पर लिए जाने लगे थे. शुरू में रघुवर को लगा वह गलत कर रहा है, यह भविष्य के लिए घातक है मगर तब तक मदिरा का आनंद सर चढ कर बोलने लगा था. मित्रों ने समझाया था,- “हम लोग  कोयला खदान में काम करने वाले लोग हैं, अगर हमें स्वस्थ रहना है तो शराब पीनी होगी . नहीं पियोगे तो हाथ पैर में दर्द रहेगा, काम नहीं कर पाओगे…मन नहीं लगेगा .”

मालिकराम का उद्घोष था ,- “आखिर कमाते किसके लिए हो बंधु ! क्या बाल बच्चों का पालन-पोषण उनके लिए खपना ही हमारा जीवन है, क्या हम कुछ अपने लिये  नहीं जी सकते…”

रघुवर को बातें जंचती थी और वह बातें उसके मस्तिष्क पर गहरा असर डालती थी. कहते हैं न जैसा माहौल, वैसा वैसा चढ़े रंग ! बस रघुवर के साथ भी यही हुआ. वह एक नंबर का मदिरा प्रेमी बन गया और ब्याज पर रुपए लेकर जिंदगी का सुख भोगने लगा . मगर इसका परिणाम, भविष्य में  तो उसे ही भोगना था….

रघुवर को अचानक पता चला – उसे कैंसर है….!

शराब व सूदखोरी के संजाल में वह बुरी तरह फंसा ही हुआ था, अभी हाल मे शादी हुई थी, पत्नी रत्ना ! जैसा नाम, सचमुच वैसे ही रूप लावण्य से परिपूर्ण रत्नावती थी. उसकी सुंदरता के आगे कोई ठहर नहीं पाती थी . रघुवर का इलाज कोयला खदान की सबसे वृहदकाय हॉस्पिटल में होने लगा, इधर ‘म‌द्म’ का नशा छुट नहीं रहा !

एक दिन प्रभात  घर आ पहुंचा . रघुवर बीमार लेटा हुआ था . प्रभात आया तो पति का मित्र मान, रत्ना आगंतुक को भीतर ले आई .

-” भैय्या ! यह क्या सुन रहा हूं. बहुत दुख हुआ .” प्रभात ने दुखी स्वर में कहा.

– “अब क्या कहूं… कब क्या होगा, किसे पता था… प्रभात .”

– “ओह !बड़ी दुखद खबर है.मेरे लायक कोई भी सेवा हो तो कहना….”

रत्ना प्रभात की बातें सुन रही थी .घर की स्थिति खराब होती जा रही थी, राशन नहीं था, पैसे नहीं थे. ड्यूटी पर रघुवर जा नहीं पा रहा है .

रघुवर ने ने कहा, -” भैय्या ! तुमने तो हमेशा  मदद  की है, अभी भी तुम्हारा भरोसा है .”

-“हां, कहो… मैं हूं न !”

अब अक्सर प्रभात घर आ जाता, घंटों रत्ना से बातें करता .रत्ना उससे प्रभावित होती चली गई, उस पर विश्वास करने लगी है. कमजोर लता थोड़ा सा सहारा पा जाए तो उस पर ही आसरा कर बैठती है . रघुवर इलाज , पानी के लिए हॉस्पिटल जाता.कोयला खदान के चक्कर लगाता कभी लोन के लिए कभी पी.एफ की राशि से लोन के लिए. उसकी स्थिति दिनोंदिन खराब हो रही थी.

एक दिन  रघुवर  घर पहुंचा, संध्या का वक्त था .रत्ना को आवाज दी… दरवाजा खुला, तो देखा भीतर प्रभात बैठा है ! उसे तो मानो काठ मार गया…

” रत्ना ! यह ठीक नहीं है .” रघुवर का का स्वर दुःख से भरा हुआ था.

” मगर यह तो आपके मित्र हैं, आपके बारे में ही बातचीत कर रहे थे, हाल-चाल पूछ रहे थे.”

– “तुम जानती हो… मुझे यह पसंद नहीं .”

– “और आपको पता है,  बीमार हो… घर का खर्चा चलाने लायक भी  नहीं रहे .”

– “तो ?” तो क्या हुआ… मुझे लोन मिल जाएगा . तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है .”

रघुवर असहाय है, क्या करें… एक तरफ बीमारी दूसरी तरफ रत्ना की जवां उम्र .  उसे लगा रत्ना प्रभात की ओर आकर्षित हो रही है, प्रभात अक्सर घर आता, उसका हाल चाल लेता, फिर खूब हंसता और रत्ना को हंसाता.

रघुवर एक दो दफे प्रतिकार की भाषा में बात की तो रत्ना  बोली,-”  तुम बीमार हो… अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दो…. और हां मुझ पर विश्वास रखो. ”

रघुवर मानो मन मसोस कर रह जाता . समय की मार त्रासदी यही तो है, कभी अपनी पत्नी रत्ना की खूबसूरती पर उसे नाज था, उसे लग रहा था, आज वह सबसे लावण्यमयी रत्ना उसके हाथों से निकल रही है और वह असहाय है…

एक दिन तो पराकाष्ठा हो गई. रत्ना बाथरूम में नहा रही थी . रघुवर बिस्तर पर पड़ा हुआ था .अचानक प्रभात आ गया.

” भैय्या कैसे हो ? कुछ मदद हो तो कहना… बिल्कुल संकोच नहीं….”

– “हां… हां अब… और किसको कहूगा .” तभी बाथरूम से रत्ना ने झांक कर देखा सामने प्रभात बैठा है . प्रभात ने रत्ना को देखा और सौंदर्य देखता रह गया,  रघुवर की आंखें भीग गई . वह सोच रहा था मैं  कितना असहाय हो चुका हूं.

रघुवर की नासाज तबीयत के बारे मे जानने, एक दिन प्रभात रघुवर के घर पहुँचा.दरवाज़ा रघुवर की पत्नी रत्ना ने खोला.  आज उसकी सुंदरता देख प्रभात सोच में पड़ गया. उसकी आँखों में एक बार फिर धूर्तता चमकने लगी . अपनी आवाज़ में शहद सी मधुरता घोलकर वह रघुवर से बोला,-” रघुवर,  तुम दवाई लो और आराम करो.जल्द ही ठीक हो जाओगे .”

रघुवर-“लेकिन मैं  अभी काम पर नही जा पा रहा हूँ .घर कैसे चलेगा.दवा कहाँ से आएगी.यही चिंता खाए जा रही है. आखिर तुम से कब तक मदद लूं.”

प्रभात,-”तुम परेशान मत हो बंधु,मैं सब इंतज़ाम कर दूँगा.”

प्रभात की‌ निगाहें  बहुत दिनों से रत्ना पर थी उसकी दुकान से  राशन आ रहा.पैसा आ गया.दवाइयां भी आने लगी.प्रभात  जब तब घर आने लगा.वह रत्ना से बात करने और उसे छूने की कोशिश करता.रत्ना उसके आने से सहम जाती.

एक रात रघुवर की तबियत बिगड़ गई.अस्पताल में डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए 75 हज़ार जमा करने की बात कही. रघुवर ने प्रभात को बुलाया . प्रभात तो मौक़े का इंतज़ार कर रहा था . तिरछी नज़रों से रत्ना को देखते हुए बोला,-“तुम्हारे ऊपर बहुत उधार हो गया है रघुवर और अब फिर इतना रूपया  !!! मुश्किल होगा व्यवस्था करना. हाँ, एक उपाय हैं यदि तुम दो चार दिन के लिए रत्ना को मेरे साथ भेज दो तो .”

-“प्रभातऽऽऽऽऽ .”  रघुवर चिल्लाने की कोशिश करने लगा और गश खाकर गिर पड़ा.

निरीह रत्ना एक बार प्रभात को देखती है और फिर पति  को . धीरे धीरे  उसका चेहरा कठोर हो गया.बोली -”मैं तैयार हूँ .”

प्रभात की आंखें चमक उठीं तुरंत रत्ना को लेकर दूसरे कमरे में चला गया. रघुवर बेबस देखता रहा.

आज उसे अपनी शराब पीने की लत का परिणाम देखने को मिल रहा था जिसका खामियाजा रत्ना भुगत रही थी.

रत्ना बाहर आयी.उसके हाथ मे ढेर सारे हज़ार रुपये थे. रघुवर अस्पताल में भर्ती हो गया .इधर प्रभात जब जब तब रत्ना के पास आता .मोहल्ले में चर्चा होने लगी .

10 दिन बाद जब रघुवर स्वस्थ हो घर पहुँचा तो रत्ना की लाश पंखे पर टंगी थी .इधर रघुवर रत्ना कि लाश से लिपट लिपट कर रो रहा था और कभी शराब न पीने की कसमें खा रहा था और उधर ख़बर छपी ……चरित्रहीन रत्ना ने की आत्महत्या .”खबर पढ़कर रघुवर अपना दिमाग़ी संतुलन खो बैठा.शराब के कारण एक और हसता खेलता परिवार उजाड़ दिया.

Funny Story : भैयाजी का चुनावी कन्फैशन

Funny Story : मेरे मोबाइल फोन पर उन के मैसेज बारबार रहे थे कि मेरा वोट मेरी आवाज है. मैं अपनी आवाज को किसी के पास बिकने दूं. पर दूसरी ओर भैयाजी बराबर कह रहे थे कि रे लल्लू, मेरा वोट केवल और केवल उन की आवाज है. वे मेरी आवाज खरीदने के बाद ही संसद में अपनी आवाज उठाने लायक हो पाएंगे. मैं ने उन के मैसेज को इग्नोर कर इस बार भी मान लिया कि मेरा वोट उन की ही आवाज है.

वैसे दोस्तो, मेरे पास बेचने को अब मेरी आवाज बोले तो मेरा वोट ही बचा है. बाकी तो मेरा सबकुछ बिक चुका है, देश की संपत्तियों की तरह. सो, चुनाव के दिनों में उसे बेच कर कुछ दिन मैं भी हलकीफुलकी मस्ती कर लेता हूं.

अब के फिर चुनाव केड्राई डेको भी मुझे तर रखने वाले भैयाजी को वोट डालने के बाद मैं उन के घर गया उन का धन्यवाद करने. धन्य हों ऐसे भैयाजी, जोड्राई डेको भी अपने वोटरों को ड्राई नहीं रहने देते. उन को तर रखने का इंतजाम वे पहले ही कर देते हैं.

ऐसे भैयाजी जनता को बहुत सत्कर्मों के बाद मिलते हैं. हम ने पिछले जन्म में पता नहीं ऐसे क्या सत्कर्म किए थे, जो इस जन्म में हमें ऐसे ही खानदानी भैयाजी मिले.

भैयाजी केड्राई डेका कर्ज उतारने मैं उन के घर गया, तो वे अंधेरे कमरे में बैठे थे. राजमुजरा या राजमुद्रा में, वे ही जानें. पहले तो मैं ने सोचा कि चुनाव की थकान निकाल रहे होंगे. चुनाव के दिनों में तो जो नेता लोहे का भी हो तो वह भी थकान से चूरचूर हो जाए.

अपने भैयाजी तो ठहरे हाड़मांस के. इतने दिनों तक जागे, नींद आई. सोएसोए भी जागते रहते, जागतेजागते ही सोए रहते. जितना नेता चुनाव के दिनों में दिनरात एक करते हैं, इतना जो कोई साधारण से साधारण जीव स्वर्ग पाने के लिए करे तो उसे मोक्ष प्राप्त करने से कोई रोक पाए.

मैं ने उन के कमरे की दीवारों से आंखकान लगाए, तो भीतर अपने भैयाजी की आवाज सुनाई दी, भैयाजी दिखाई दिए. उन के चारों ओर मच्छर गुनगुना रहे थे. उन्होंने अपने आगे संविधान रखा था और खुद संविधान के आगे घुटने टेके क्षमायाचना की मुद्रा में.

तब पहली बार पता चला कि नेता भी किसी के आगे घुटने टेकते हैं, वरना मैं तो सोचता था कि नेता सभी को अपने आगे घुटने टिकवाते हैं.

भैयाजी हाथ जोड़े संविधान के आगे घुटने टेके कह रहे थे, ‘हे संविधान, चुनाव के दिनों में जो मैं ने अपने मौसेरे भाइयों को भलाबुरा कहा, मैं तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए उन से माफी मांगता हूं. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं अपने मौसेरे भाइयों को जो मैं ने इस चुनाव में कहा, कभी कहता. इस अपराध के लिए वे मुझे माफ करें.

चुनाव के दिनों में जो मैं ने दिवंगत नेताओं को भलाबुरा कहा, मैं तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए उन से माफी मांगता हूं. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं अपने दिवंगत नेताओं को जो मैं ने इस चुनाव में कहा, कभी कहता. इस अपराध के लिए वे मुझे माफ करें.

हे संविधान, चुनाव के दिनों में जो मैं ने जनता को लुभाने, रिझाने पटाने के लिए उन को झूठे आश्वासन दिए, तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए मैं दिल की गहराइयों से जनता से माफी मांगता हूं. ये मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं भोलीभाली जनता को जो मैं ने इस चुनाव में झाठी गारंटियां दीं, कभी देता. इस अपराध के लिए झूठे आश्वासन हेतु मुझे माफ करें.

हे संविधान, झू बोलना हर पार्टी के, हर किस्म के नेता के अधिकार क्षेत्र में आता है. जनता से झू बोलना उस का मौलिक अधिकार है. जनता को छलना, दलना उस का पहला फर्ज है. पर चुनाव के दिनों में स्वयंमेव हर नेता को झू बोलने का विशेषाधिकार प्राप्त हो जाता है.

इस महापर्व में नेता के हजार झू भी माफी लायक होते हैं. दरअसल, इन दिनों उसे खुद पता नहीं होता कि वह जो बोल रहा है, क्या बोल रहा है. चुनाव के दिनों में जो मन में आए, बोलना उस का धर्म होता है, क्योंकि इन दिनों वह केवल और केवल अपने प्रचारी धर्म का पालन कर रहा होता है. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. इस अपराध के मेरा झू मुझे माफ करे.

हे संविधान, तुम मुझे समाज में जातिगत, धार्मिक, सांस्कृतिक प्रदूषण को फैलाने के दोष से दोषमुक्त करना.

मैं मानता हूं कि प्रदूषणों में सब से खतरनाक प्रदूषण जातिगत प्रदूषण होता है. पर क्या करूं, इन प्रदूषणों को समाज में फैलाने पर ही कोई अच्छा नेता बन पाता है.

समाज में जातिगत, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाए बिना स्वस्थ राजनीति हो ही नहीं सकती. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. इस अपराध के लिए जाति, धर्म मुझे माफ करे.

हे संविधानहे संविधान…’  

Family Story : वसीयत

Family Story : सो एक पढ़ालिखा नौजवान था. उसे इसी साल नौकरी मिल गई थी. उस ने तय किया कि वह अपना 23वां जन्मदिन मनाने के लिए गांव जाएगा.

गांव में अब सोम के लिए अपना कहने को बस एक चाचाजी ही रह गए थे. वह शुक्रवार की शाम को दफ्तर से सीधा बसअड्डे गया था. गांव और चाचाजीइसी खुशी में डूब कर सोम खुशीखुशी गांव की बस में बैठ गया.

4 घंटे का सफर तय कर के सोम गांव में चुका था. वहां कर उस का मन हराभरा हो गया.

इस बार सोम 7-8 महीने बाद गांव आया था. गांव की सड़क पर उसे कुछ जानेपहचाने से चेहरे दिखाई दिए. सोम ने बहुत इज्जत के साथ उन्हें नमस्ते किया, मगर वे सभी उसे अजीब सी नजरों से घूरते रहे.

उन को नजरअंदाज कर सोम कुछ आगे बढ़ा, तो फिर से वही बात हुई. सोम ने एक परिचित से खुद ही आगे बढ़ कर पूछ लिया कि आखिर माजरा क्या है?

‘‘अपने रंगीनमिजाज चाचाजी के पास जाओ, तब मालूम होगा,’’ उस आदमी ने सोम को टका सा जवाब दिया और आगे बढ़ गया.

सोम हैरत में था. यह कैसी पहेली थी, वह समझ ही नहीं पा रहा था.

यही सोचतेसोचते सोम घर भी गया. चाचाजी आराम से नीम की छांव तले खाट पर अखबार पढ़ रहे थे.

चाचाजी को देखते ही सोम का मन अपार स्नेह से भर उठा. उस ने चाचाजी के पैर छुए, तभी एक औरत कमरे से बाहर आई. एकदम चाचाजी की हमउम्र. वह अनजान थी, फिर भी सोम ने उन्हें नमस्ते किया.

सोम सवालिया निगाहों से उस औरत को देखता रहा, तभी चाचाजी ने उस की उत्सुकता को शांत कर दिया, ‘‘बेटे सोम, ये आप की चाची हैं उमा. हम दोनों ने 3 दिन पहले ही मंदिर में ब्याह कर लिया है.’’

अपनी हैरानी को दबा कर सोम ने बहुत ही आदर से उन को दोबारा नमस्ते किया. वे खूब हंसमुख थीं.

आशीर्वाद देती रहीं. सोम अब एकदम खामोश हो गया. पलभर के भीतर ही वह समझ गया कि इतनी देर पहले तक रास्ते में हरेक उसे इस तरह से घूर क्यों रहा था.

मतलब, चाचाजी तो बेचारे बुरे फंस गए. 10 बीघा खेत. अलग से 3 बीघा में आम का बाग. इन नईनवेली चाचीजी ने तो चाचाजी को बेवकूफ बना दिया है.

सोम आगे कुछ और सोचता कि एक मधुर आवाज आई, ‘‘सोम बेटा, यह लो शरबत पी लो.’’

सोम थका हुआ तो था ही, वह उस शरबत को गटागट पी गया. उस ने इतना बेहतरीन और लाजवाब शरबत आज तक नहीं पिया था.

चाचीजी ने एक गिलास और दिया. सोम वह भी पी गया.

‘‘शुक्रिया चाचीजी,’’ सोम ने इस शब्द को चबा कर कहा, मगर वे तो इतनी सरल कि तब भीखुश रहो बेटाकह कर भीतर चली गईं.

कुछ पल के लिए एकदम सन्नाटा सा छा गया था. सोम मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि चाचीजी ने भी बढि़या हाथ मारा है. करोड़ों के मालिक हैं चाचाजी. उसी पल सोम के मन में एक दूसरा विचार भी कौंध गया. ऐसा विचार जो आज तक सोम के मन में नहीं आया था.

आज जिंदगी में पहली बार सोम इस खेत और बगीचे में अपने हिस्से को भी गिनने लगा था.

मतलबी सोम सब भूल गया था. चाचाजी का इतना त्याग, ऐसा बलिदान, उसे इस समय कुछ याद नहीं रहा. एक कार हादसे में सोम के मातापिता और चाचीजी नहीं रहे थे.

स्कूल से लौट कर आया सोम सब जानने के बाद अपने चाचाजी से लिपट गया था.

‘‘चाचाजी, अब आप एक और चाची तो नहीं लाओगे …?’’ 10 साल का सोम अपने 40 साल के चाचाजी से भीख मांग रहा था.

‘‘नहीं बेटा, मैं कभी नहीं करूंगा दूसरी शादी,’’ कह कर चाचाजी ने सोम को अपनी गोद में भर लिया था.

उस दिन के बाद से सोम के लिए माता और पिता दोनों चाचाजी हो गए थे. सोम ने होस्टल में पढ़ने की जिद की, तो चाचाजी ने 10वीं जमात के बाद उस की यह तमन्ना पूरी करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब तक भी उस की बेरोजगारी में उस के बैंक खाते में चाचाजी ही रुपए भेजते थे.

मगर, शहर का पानी पी कर सोम मतलबी सा हो गया था. अब वह अपनी यारीदोस्ती में मगन रहता था.

अपनी नौकरी में वह बिजी रहता था. यह सोच कर कि चाचाजी के साथ तो पूरा का पूरा गांव है, अब उन की परवाह क्या करना?

आज सोम को अपने हिस्से की जायदाद भी चाची की झोली में जाती दिख रही थी.

इतनी देर में नई चाजीजी खूब सारा नाश्ता ले कर गईं.

‘‘कल आप का जन्मदिन है सोम, आज से ही हम लोग जश्न शुरू करते हैं,’’ कह कर चाचीजी उस की प्लेट
में गुलाबजामुन, पकौड़े रखने लगीं.

सोम को तो इस धोखे से सदमा सा लग गया था कि तभी चाचीजी ने एक फाइल चाचाजी को थमा दी.

‘‘अरे हां सोम बेटा, यह लो जमीन के सारे कागज. सारी जायदाद और मकान, सब तुम को दे दिया है बेटे. मुझे तो उमा ने सहारा दे दिया है. वे एक कारोबारी हैं.

3-4 महीने से गांव में सर्वे कर रही थीं. हम को ऐसा लगा मानो कुदरत ने मिला दिया हो.

‘‘गांव वाले विरोध कर रहे हैं, मगर हम शादी के बंधन में बंध गए हैं,’’ सोम अपने चाचाजी की बात सुन रहा था.

चाचाजी आगे बताने लगे, ‘‘तुम्हारी चाची उमा कन्नड़ हैं और एकदम स्वाभिमानी. अब 3-4 दिन के बाद मैं भी इस के साथ कर्नाटक जा रहा हूं. जिस गांव ने हमें 3 दिन भी सहन नहीं किया, वहां आगे भी कौन सा संबंध रखा जाएगा, यह मैं जानता हूं.

‘‘तुम्हारी चाची ने ही कहा है कि उन के पास अपने कारोबार से कमाया हुआ इतना पैसा है कि एक पाई भी किसी से नहीं चाहिए. यह संभालो अपनी विरासत,’’ कह कर चाचाजी ने सोम को एक गुलाबजामुन खिला दिया.

सोम ने यह सुना, तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

उमा चाची, आप तो बहुत महान हो,’ सोम ने मन ही मन कहा.

‘‘बेटा, अभी तो एक मैनेजर है, जो सब देखभाल कर रहा है. आगे भी सब हो जाएगा. अगर चाहो तो नौकरी की जगह अपनी जमीन भी संभाल सकते हो,’’ उमा चाची ने बाहर कर सोम से कहा.

उमा चाची की यह बात सुन कर सोम का मन हुआ कि उन के पैरों की धूल को माथे पर सजा ले.

इस के बाद चाचाचाची बैंगलुरु चले गए और वहीं बस गए.

सोम आज भी हर साल 3-4 बार उन से मिलने जरूर जाता है. उस ने उमा चाची से स्वाभिमान और सचाई का अनूठा सबक सीखा है.

Love Story : मजहब की दीवार

Love Story : अदालत में आज सुबह से ही काफी चहलपहल नजर आ रही थी. शहर के वकील और मीडिया के लोगों का जमावड़ा अदालत के आसपास लग गया था. वहां की चाय और पनवाड़ी की गुमटियों पर लोगों की जबान पर एक ही चर्चा थी.

दरअसल, आज के दिन एक अंतर्धार्मिक शादी को ले कर उपजे झगड़े का फैसला जो आने वाला था.

गोरखपुर के रहने वाले गुलजार ने अदालत में याचिका दाखिल कर यह गुहार लगाई थी कि उस की पत्नी आरती को उस के मांबाप बंधक बनाए हुए हैं.

पुलिस सिक्योरिटी के बीच अदालत में मौजूद गुलजार के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. उस ने जिस आरती से आज से 2 साल पहले प्यार की पेंगें बढ़ाई थीं, उसे वह हर कीमत पर अपना जीवनसाथी बनाए रखना चाहता था, पर मजहब की दीवार उसे ऐसा करने से रोक रही थी.

25 साल के मेकैनिक गुलजार को 2 साल पहले का वाकिआ याद आ गया था.

उस दिन गुलजार अपने गैराज में आई एक मोटरसाइकिल की मरम्मत का काम कर रहा था, थोड़ी दूर पड़ोस में रहने वाली 19 साल की आरती स्कूल बस के आने का इंतजार कर रही थी.

वैसे तो एक ही महल्ले में रहने के चलते वे एकदूसरे से अनजान नहीं थे, पर गुलजार का ध्यान गाड़ी की मरम्मत के बजाय आरती को देखने में ज्यादा लग रहा था.

उस दिन जब आधा घंटे से ज्यादा का वक्त निकल जाने के बाद भी आरती की बस नहीं आई, तो गुलजार से रहा नहीं गया. आखिरकार उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज तुम्हारी बस नहीं आई आरती?’’

‘‘हां गुलजार, बस नहीं आई. आज से ही तिमाही इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं,’’ आरती ने जवाब दिया.

‘‘अगर कोई एतराज न हो, तो मैं तुम्हें मोटरसाइकिल से स्कूल छोड़ दूं?’’ गुलजार ने आरती से पूछा.

‘‘गुलजार, तुम अगर मुझे स्कूल छोड़ दोगे, तो मैं वक्त पर पहुंच कर इम्तिहान दे पाऊंगी.’’

गुलजार के मन की मुराद पूरी हो गई. आरती की ‘हां’ मिलते ही वह खुशी के मारे उछल पड़ा. उस दिन वह अपनी मोटरसाइकिल पर आरती को बिठा कर स्कूल छोड़ने चला गया.

मोटरसाइकिल पर आरती की छुअन पा कर गुलजार के शरीर में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. स्कूल के गेट पर आरती को जैसे ही मोटरसाइकिल से उतारा, तो गुलजार की नजरें आरती से दोचार हुईं. बस, वह उसे देखता ही रह गया.

जवानी की दहलीज पर कदम रख रही आरती की खूबसूरती उसे पहली नजर में ही भा गई. आरती ने भी गुलजार को प्यारभरी नजरों से देख कर ‘थैंक्स’ कहा और ‘बाय’ करते हुए स्कूल गेट से भीतर चली गई.

गुलजार वैसे तो हाईस्कूल तक ही पढ़ा था, पर स्कूल आतेजाते बच्चों को देख कर वह बहुत खुश होता था. वह गाडि़यों की मरम्मत के काम के अलावा जरूरतमंद लोगों की मदद भी करता था. महल्ले के सब लोग उसे प्यार करते थे.

उस दिन आरती को स्कूल छोड़ कर आए गुलजार पर आरती के रूपरंग का नशा इस कदर छा चुका था कि वह अपनी सुधबुध खो बैठा. वह अब रोज आरती के स्कूल जाने के वक्त उस का दीदार करने समय से पहले ही गैराज पहुंचने लगा था.

आरती भी गुलजार की नजरों से अनजान नहीं थी. वह भी उस के मोहपाश में बंध चुकी थी.

एक दिन मौका पा कर गुलजार ने आरती से अपने प्यार का इजहार करते हुए कह दिया, ‘‘आरती, आई लव यू. मैं तुम से बेइंतिहा मुहब्बत करता हूं.’’

आरती गुलजार की सादगी पर फिदा हो चुकी थी. वह भी मन ही मन गुलजार से प्यार करने लगी थी.

जब गुलजार ने अपने प्यार का इजहार किया, तो आरती भी अपनेआप को रोक न सकी और उस ने भी शरमाते हुए इजहार का जवाब देते हुए कह दिया, ‘‘आई लव यू टू.’’

इस के बाद तो उन दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. जब भी मौका मिलता, वे दोनों शहर के एक बड़े पार्क में बैठ कर अपने दिल की बातें कहते और एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें खाते.

मगर गुलजार और आरती का प्यार जमाने की नजरों से ज्यादा दिन छिप नहीं सका. उन के प्यार की कहानी आरती के घर वालों को पता चल गई, तो उस पर नजर रखी जाने लगी.

अब आरती छिपछिप कर गुलजार से मिलने लगी. दोनों शादी तो करना चाहते थे, मगर मजहब की दीवार उन के प्यार में सब से बड़ी रुकावट बन रही थी. हर वक्तहिंदूमुसलिम का राग अलापने वाले समाज के कुछ लोगों की नजर में उन का प्यार लव जिहाद के अलावा कुछ नहीं था. आरती के पापा को भी यह रिश्ता किसी भी हालत में मंजूर नहीं था.

घर वालों की तमाम बंदिशों के बावजूद भी गुलजार और आरती का मिलना बंद नहीं हो पाया, तो घर वालों ने आरती की स्कूल की पढ़ाई ही बंद करा दी. स्कूल जाना बंद होने की वजह से आरती अपने ही घर में कैद हो कर रह गई. दोनों बेचैन रहने लगे.

मौका मिलते ही वे कभी छिप कर मिल लेते, तो कभी मोबाइल फोन पर बातचीत कर तसल्ली कर लेते. जब कभी आरती के घर वालों को इस बात का पता चलता, तो वे उस की जम कर पिटाई करते.

अपने परिवार का सब से लाड़ला गुलजार खान अपने अब्बू और अम्मी के साथ रहता है. घर में बड़े भाई जावेद के अलावा एक छोटी बहन भी थी. बड़े भाई के निकाह के बाद अब्बू गुलजार के निकाह के लिए लड़की तलाश रहे थे, तभी उन के कानों तक भी गुलजार और आरती के इश्क की कहानी आ गई.

अब्बा ने गुलजार को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘देख बेटा, आजकल हालात वाकई ठीक नहीं हैं. अलगअलग मजहब के लड़कालड़की की शादी को ‘लव जिहाद’ का नाम दे कर बहुत सख्ती की जा रही है.

‘‘अगर तू ने उस लड़की से निकाह कर लिया, तो हमारे परिवार को लोग छोड़ेंगे नहीं. तेरी छोटी बहन का निकाह भी तो मुझे करना है.’’

अब्बा की समझाइश का गुलजार पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मैं हर हाल में आरती से ही शादी करूंगा.’’

बेटे के तेवर देख कर अब्बा ने गुलजार को आरती के साथ निकाह करने की बेमन से इजाजत दे दी थी, मगर आरती के घर वालों की मंजूरी मिलने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी.

मन मार कर एक दिन गुलजार के अब्बा आरती के पापा राकेश के पास शादी की बात करने गए, तो राकेश ने उन्हें भलाबुरा कहा और सख्त हिदायत देते हुए कहा, ‘‘अपने बेटे को समझ लो, वरना उस के हाथपैर तोड़ देंगे.’’

गुलजार के अब्बा खून का घूंट पी कर घर आ गए. गुलजार ने शहर के वकील से मिल कर सलाह ली और आरती के साथ एक प्लान बना कर शादी करने का फैसला कर लिया.

वे दोनों कोर्टमैरिज के लिए अर्जी देने एसडीएम कोर्ट पहुंचे, लेकिन वहां पर आरती के पापा के दोस्त सोनू ने उन्हें देख लिया.

घर आ कर सोनू ने राकेश को यह बात बता दी. आरती की इन हरकतों की वजह से समाज में राकेश की बदनामी हो रही थी. वे एक सरकारी दफ्तर में मुलाजिम थे. उन का संयुक्त परिवार था, जिस में पत्नी, एक बेटा, 2 बेटियां, मातापिता की जिम्मेदारी उन के कंधों पर थी. उन की जातिबिरादरी में लवमैरिज करना बड़ी बात तो नहीं थी, पर एक विधर्मी लड़के से शादी करना बहुत बड़ा गुनाह था.

ऐसा होने पर कानून के साथसाथ उन के धर्म के लोग उन का समाज में जीना मुश्किल कर देते. यही सोच कर वे आरती को समझा रहे थे, मगर वह यह सब समझने को तैयार नहीं थी.

आरती के घर वालों का एकएक दिन तनाव में गुजर रहा था. उस दिन आरती के पापा आगबबूला हो गए और गुस्से में आरती को जमीन पर धकेल दिया.

आरती को चोट लगने के चलते उठनेबैठने में दिक्कत होने लगी, तो उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां पर ऐक्सरे रिपोर्ट में पता चला कि आरती की कमर की हड्डी में फ्रैक्चर आ गया है.

आरती अस्पताल में महीनेभर भरती रही और उसे पूरी तरह ठीक होने में 6 महीने का समय लग गया. आरती के दादादादी सामाजिक रीतिरिवाजों का वास्ता दे कर उसे खूब समझाते, मगर उस पर इस का कोई असर नहीं पड़ता था. वह तो अपने मनमंदिर में गुलजार के प्यार का दीया जलाए बैठी थी.

एक दिन गुलजार ने आरती को फोन पर कहा, ‘‘आरती, यहां हमारी शादी मुमकिन नहीं है.’’

‘मगर, क्यों गुलजार?’ आरती ने चिंता जाहिर करते हुए पूछा.

‘‘मध्य प्रदेश की सरकार ने एक कानून बनाया है, जिस के तहत शादी के लिए धर्म परिवर्तन करना कानूनन अपराध माना गया है,’’ गुलजार ने आरती को समझाते हुए कहा.

‘मतलब, मुहब्बत भी सरकार से पूछ कर करनी होगी…’ आरती ने नाराजगी के साथ कहा.

‘‘लेकिन आरती, तुम चिंता मत करो. मैं ने इस का भी हल निकाल लिया है,’’ गुलजार बोला.

‘कैसा हल निकाला है? मुझे तो अब डर लगने लगा है,’ आरती बोली.

‘‘हम दोनों भाग कर मुंबई चलते हैं, वहां पर कोर्ट में शादी कर लेंगे. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा, तो वापस जबलपुर आ जाएंगे,’’ गुलजार ने कहा.

एक साल की लंबी जद्दोजेहद में आरती और गुलजार बुरी तरह टूट चुके थे. दोनों यह बात अच्छी तरह समझ चुके थे कि जबलपुर में शादी करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.

इसी दौरान गुलजार ने एक पत्रिका में मुंबई के यूथ इंडिया ग्रुप के बारे में पढ़ा, तो ग्रुप से जुड़े वकील सुभाष के बारे में जानकारी हुई. उस ने सुन रखा था कि यूथ इंडिया गु्रप इस तरह की शादी कराने में मदद करता है.

उम्मीद की किरण दिखते ही उन दोनों ने मुंबई जाने का प्लान बनाया और एक दिन ट्रेन के जरीए जबलपुर से मुंबई के लिए भाग निकले.

गुलजार और आरती ने मुंबई पहुंच कर यूथ इंडिया ग्रुप के वकील सुभाष को अपनी पूरी कहानी सुनाई.

दोनों की कहानी सुन कर सुभाष ने अपने ग्रुप की एडवाइजर कंचन को उन की मदद करने को कहा.

कंचन की मदद से उन दोनों ने बांद्रा कोर्ट में पहुंच कर शादी कर ली. बाकायदा बीएमसी में शादी का रजिस्ट्रेशन कराया और शादी करने की जानकारी स्पीड पोस्ट के जरीए घर वालों के अलावा अपने शहर के पुलिस थाने में भेज दी गई.

इधर आरती के घर से भाग जाने से उस के घर वालों की अपने इलाके में बदनामी हो रही थी. लिहाजा, घर वालों ने शहर के पुलिस स्टेशन में उस की गुमशुदगी दर्ज करा दी.

आरती के घर वालों ने एक संगठन हिंदू सेना के जरीए पुलिस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. यह संगठन अपने को धर्म का हिमायती बता कर एक हिंदू लड़की से मुसलिम लड़के की शादी को लव जिहाद का नाम दे कर नए कानून की दुहाई दे रहा था.

प्रेम विवाह की राह कांटों से भरी हुई थी. परेशानियां अभी तक उन का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

आंदोलनकारियों के दबाव में शहर की पुलिस आरती के भाई को ले कर मुंबई पहुंच गई. कागजी कार्यवाही पूरी कर पुलिस दोनों को वापस ले आई.

ट्रेन में सफर के दौरान ही पुलिस आरती के बयान नोट करती रही और आरती का भाई गुलजार को रास्तेभर धमकाता रहा.

शहर के पुलिस स्टेशन पहुंचने पर आंदोलन कर रहे कुछ लोगों के साथ आरती के घर वालों ने भी गुलजार और आरती को खूब डरायाधमकाया, मगर आरती और गुलजार अपनी बात पर कायम रहे.

आरती के भाई ने उन से कोर्टमैरिज से संबंधित सभी कागजात छीन लिए और आरती को अपने घर ले गया.

इधर पुलिस स्टेशन में पुलिस ने गुलजार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. पुलिस स्टेशन के दारोगा गुलजार से बोले, ‘‘यह इश्कमुहब्बत का चक्कर छोड़ो और आरती को उस के हाल पर छोड़ दो, वरना जेल में सड़ते रहोगे.’’

लेकिन प्यार के रंग में डूबे गुलजार ने दारोगा से साफसाफ कह दिया, ‘‘सर, मैं आरती से बेपनाह मुहब्बत करता हूं. उस से मैं ने शादी भी की है. मैं किसी भी कीमत पर उस से जुदा नहीं हो सकता.’’

दारोगा ने 2 बेंत गुजलार की पीठ पर जमाते हुए कहा, ‘‘जब तुम्हें गांजा रखने के झूठे केस में जेल भेज देंगे, तब तुम्हारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी और यह प्यार का भूत भी उतर जाएगा.’’

गुलजार ने जब दारोगा की बात मानने से इनकार कर दिया, तो उसे पुलिस स्टेशन में बुरी तरह से पीटा गया, जिस से वह बेहोश हो गया. बाद में उसे अस्पताल में भरती करा दिया गया.

जब गुलजार की तबीयत ठीक हो गई, तो पुलिस ने इस ताकीद के साथ उसे छोड़ दिया कि वह अब आरती और उस के घर का रुख भूल कर भी न करे.

पुलिस ने जैसे ही आरती को उस के घर वालों को सौंपा, तो उन्होंने आरती को खूब डरायाधमकाया, मगर आरती ने भी बेफिक्र हो कर कह दिया, ‘‘हम दोनों अपनी जान दे देंगे, मगर एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते.’’

जब घर वालों को लगा कि आरती उन की बात मानने वाली नहीं है, तो उन्होंने उसे ननिहाल भेज दिया.

आरती का ननिहाल उत्तर प्रदेश के एक गांव में था, जहां पहुंचना इतना आसान नहीं था. ननिहाल में भी उस के मामा आरती पर कड़ी नजर रखते थे. मोबाइल फोन पापा ने पहले ही छीन लिया था. ऐसी सूरत में आरती और गुलजार का हाल बुरा था.

गुलजार को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. गुलजार और आरती का इश्क इतने कड़े इम्तिहान ले रहा था, मगर दोनों हार मानने को तैयार नहीं थे.

तकरीबन एक हफ्ते बाद आरती ने मौका मिलते ही मामा के फोन से गुलजार को फोन कर के बताया, ‘‘मुझे यहां पर बंधक बना कर रखा गया है. मौत भी मुझे गले लगाने को तैयार नहीं है. एक दिन फांसी का फंदा लगाने की भी कोशिश की, मगर मामा ने दरवाजा तोड़ कर मुझे बचा लिया.’’

यह सुन कर गुलजार का दिल दहल गया. उस ने आरती को हिम्मत देते हुए कहा, ‘आरती, तुम ने यह कदम उठाने से पहले यह क्यों नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकता. थोड़ा सब्र करो आरती.’

गुलजार ने एक बार फिर यूथ इंडिया ग्रुप के सुभाष से मदद की गुहार लगाई. सुभाष ने गुलजार के शहर के एक नामी एडवोकेट के जरीए कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कोर्पस रिट) लगाने का सुझाव दिया.

हैबियस कोर्पस कानून में ऐसा इंतजाम है, जिस के तहत कोई भी किसी को गैरकानूनी ढंग से बंधक बनाए जाने की शिकायत कर सकता है.

गुलजार की तरफ से वकील ने हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की. इस के बाद अदालत ने आरती को पेश करने का निर्देश शहर के एसपी को दे दिया. आननफानन ही पुलिस ने आरती के घर वालों को उसे जल्द कोर्ट में पेश करने को कहा.

आखिरकार कोर्ट के आदेश पर आरती को उस के ननिहाल से शहर लाया गया. कोर्ट में पेश होने के पहले की रात आरती ने पुलिस स्टेशन में भी गुलजार के साथ ही रहने की बात कही, मगर पुलिस ने रात होने पर आरती को उस के पापा के दोस्त के घर भेज दिया.

वहां पर भी आरती को फिर से डराधमका कर बयान बदलने के लिए काफी दबाब बनाया गया. दूसरे दिन सुबह आरती को पुलिस की कस्टडी में कोर्ट में पेश किया गया.

‘और्डर… और्डर…’ अदालत की कार्यवाही शुरू की जाए.

जैसे ही गुलजार के कानों में जज की कुरसी पर बैठी मजिस्ट्रेट की आवाज गूंजी, तो वह यादों के सफर से वापस लौट आया.

अदालत में सुनवाई के दौरान सरकारी वकील इस शादी का विरोध कर रहे थे. उन का कहना था कि यह शादी गैरकानूनी है. गुलजार ने आरती को बहलाफुसला कर धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर किया है. लिहाजा, आरती को उस के मातापिता को सौंप दिया जाए.

गुलजार के वकील ने अदालत से दरख्वास्त की, ‘‘मी लौर्ड, आरती को अपनी बात कहने की इजाजत दी जाए.’’

‘‘इजाजत है.’’

अदालत का आदेश मिलते ही थोड़ी ही देर में आरती कठघरे में खड़ी हो गई. सब की नजरें उसी पर टिकी हुई थीं.

गुलजार का दिल भी जोरों से धड़क रहा था. उसे डर था कि आरती इस समय उस के घर वालों की कैद में है. ऐसे में वह अपने बयान से मुकर गई, तो उस के सपने शीशे की तरह टूट जाएंगे.

गुलजार इस बात से भी चिंतित था कि मध्य प्रदेश में लव जिहाद से संबंधित कठोर कानून बना है. मध्य प्रदेश देश के उन राज्यों में से एक है, जहां पर धर्म परिवर्तन को ले कर कानून बनाया गया है, जिस के मुताबिक शादी और किसी दूसरे कपट से भरे तरीके से किए गए धर्मांतरण के मामले में 10 साल की कैद और एक लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है.

आरती ने अपने दिल को मजबूत करते हुए अदालत को बताया, ‘‘मैं अब 21 साल की हूं और मैं ने गुलजार से अपनी मरजी से शादी कर इसलाम धर्म कबूल किया है. मुझे कभी भी धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर नहीं किया गया. मैं ने जो भी कदम उठाया है, वह अपनी मरजी से उठाया है.

‘‘मेरे घर वाले मुझे जबरदस्ती ननिहाल ले गए थे. वहां मुझे सताया गया और बंधक बना कर रखा गया. मैं पूरे होशोहवास में आप के सामने कह रही हूं. मैं गुलजार के साथ ही रहूंगी.’’

मजिस्ट्रेट ने आरती की बात को ध्यान से सुना और कुछ देर बाद कोर्ट ने कहा, ‘‘आरती ने अपने बयान में साफ कर दिया है कि उस ने याचिका लगाने वाले से शादी की थी और वह हर हाल में उस के साथ रहना चाहती है. उस की उम्र को ले कर भी किसी तरह का कोई विवाद नहीं है. अंतर्धार्मिक जोड़े को विवाह या लिवइन रिलेशनशिप में रहने का हक है.’’

मजिस्ट्रेट ने आरती और गुलजार को एकसाथ रहने का अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘पुलिस इस जोड़े को प्रोटैक्शन दे और घरपरिवार के लोग भी उन के इस फैसले का सम्मान करें.’’

अदालत का फैसला आते ही गुलजार की आंखें खुशी से नम हो गईं. उस ने अपने हाथ ऊपर उठाते हुए अदालत का शुक्रिया अदा किया.

समाज ने जिस प्रेमी जोड़े को दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया था, अदालत के इस फैसले ने साबित कर दिया कि प्यारमुहब्बत में धर्म की दीवार बाधक नहीं बन सकती.

इस फैसले के बाद जैसे ही आरती गुलजार के करीब आई, तो दोनों एकदूसरे के गले लग गए और उन की आंखों से बरबस आंसू निकल आए.

Family Story : नादान

Family Story : गुस्से से बिफरते हुए दारोगा ने दुष्यंत का कौलर कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैं तेरे खिलाफ ऐसा केस बनाऊंगा कि तू इस जन्म में तो जेल से बाहर आने से रहा. तू इनसान है या हैवान… तुझे जरा भी दया नहीं आई अपनी ही बीवी को जलाते हुए… अरे, वह तेरे दुखसुख की साथी थी.’’

इस पर दुष्यंत गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ‘‘साहब, मेरा यकीन कीजिए… मैं ने कुछ नहीं किया… उस ने खुद ही यह सब किया है.’’

लेकिन दारोगा रोज ऐसे केस देखता था. लोग कहीं 2 महीने की दुलहन, तो कहीं 4 महीने की दुलहन को दहेज के लिए जला देते थे. हर बार बच्चियों को जला हुआ देख कर उस का खून खौल जाता था. उसे बहुत दुख होता था. उस की भी 2 बेटियां थीं.

सरकारी अस्पताल के आईसीयू रूम के बाहर खड़े लोगों को लगातार अंदर से चीखने की आवाज आ रही थी, जो काफी दर्दभरी थी. कमजोर दिल के लोग सुनते तो घबरा ही जाते.

अंदर दुष्यंत की पत्नी दीपा, जो जल चुकी थी, की पट्टियां बदली जा रही थीं, जो काफी दर्दनाक काम था. अकसर पट्टी के साथ चमड़ी भी उखड़ने लगती, जिस से पीड़ा होती थी, लेकिन इंफैक्शन से बचाने के लिए पट्टी बदलना और दवा लगाना भी जरूरी था.

सभी के चेहरे दुखी और मन बेचैन थे. दारोगा बयान लेने के लिए आया था, लेकिन पीडि़ता इस हालत में नहीं थी कि अभी बयान दे सके. वह चाहता था कि जल्द से जल्द बयान ले ले, ताकि कोई उस के बयान को प्रभावित न कर सके, लेकिन दर्द और जलन से परेशान वह बयान देने की हालत में नहीं थी. आखिर कितनी देर तक दारोगा इंतजार करता, वह चला गया.

दुष्यंत अपनी पत्नी दीपा के साथ हुई घटना को ले कर परेशान था और अब दारोगा की बातों ने उस को खुद अपने भविष्य को ले कर परेशान कर दिया था. वह जानता था कि अगर दीपा को कुछ हो गया, तो उसे जेल जाने से कोई भी नहीं बचा सकता.

गलती किस की है और किस की नहीं, इस के कोई माने नहीं हैं. अब इतनी जल्दी उसे इन सब चीजों से छुटकारा नहीं मिलने वाला है. आखिर वह कहां से लाएगा सुबूत कि उस ने कुछ गलत नहीं किया है.

इधर अस्पताल भले ही सरकारी था, लेकिन फिर भी कदमकदम पर पैसों का खर्च था. सरकारी सुविधा नाम की थी. हर काम के लिए इन लोगों को ‘सुविधा शुल्क’ चाहिए था और वह भी मुंहमांगा. न करने का मतलब यह कि अपने मरीज को ज्यादा तकलीफ देना.

पैसा मिलने पर ही उन के दिल भी पसीजते थे, वरना चाहे मरीज दर्द से चीखपुकार कर मर जाए, इन के दिल पत्थर के हो जाते थे.

दुष्यंत को हर चीज से नफरत होने लगी थी. यह बात वह अच्छी तरह से जानता था कि वह एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुका है, जहां से उस का निकलना तकरीबन नामुमकिन है.

रातभर अस्पताल की बैंच पर करवट बदलते और मच्छरों से जूझते हुए दुष्यंत की अपनी तबीयत भी कुछ नासाज हो चुकी थी. उस की सास कमला, जो अस्पताल में उस के साथ ही थीं, अस्पताल के बाहर से कागज के कप में चाय ले कर आई थीं.

पता नहीं क्यों दुष्यंत को अपनी सास कमला पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था, लेकिन वह फिर सोच रहा था कि आखिर इस सब में उन की गलती भी क्या है. जो भी किया है, वह दीपा ने किया है.

कमला भी अपनी बेटी के इस कांड से शर्मिंदा थीं. वे जानती थीं कि दुष्यंत कभी भी अपनी पत्नी को जला कर मारने की कोशिश नहीं करेगा, लेकिन वे मां थीं. करें तो क्या करें.

अगले दिन दारोगा फिर दीपा का बयान लेने के लिए आया. दारोगा को देखते ही दुष्यंत का चेहरा उतर जाता था. वह दारोगा की अनापशनाप बातों और बेइज्जती का घूंट चुपचाप पी जाता था. इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी नहीं था.

दारोगा सामने वाली बैंच पर ही बैठ कर डाक्टर का इंतजार कर रहा था, ताकि डाक्टर से इजाजत ले कर दीपा का बयान ले सके.

डाक्टर किसी और मरीज के औपरेशन में बिजी थे, तो उन के आने में समय लगना था.

दारोगा कुछ देर तो अपने मोबाइल फोन को चलाता रहा, फिर सामने उस की नजर दुष्यंत पर गई. उस का दीनहीन चेहरा देख कर उस ने अपने मन में गाली दी और सोचने लगा, ‘देखने में कितना शरीफ और मासूम है. क्या ऐसा हो सकता है कि यह अपनी बीवी को जिंदा जलाए?

‘‘लेकिन जब तक इस की बीवी बयान नहीं दे देती, तब तक सच और झूठ का पता नहीं चल सकता. बहुत बार जो मासूम दिखता है, वही असली अपराधी रहता है.’

दारोगा ने दुष्यंत को अपने पास बुलाया और पूछा, ‘‘मुझे सचसच बता, आखिर तू ने ऐसा क्यों किया?’’

दुष्यंत एक फीकी और दर्दभरी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘साहब, जब आप पहले ही मान बैठे हैं कि मैं अपराधी हूं, तो मेरे कहने और नहीं कहने से क्या फर्क पड़ जाएगा…

‘‘लेकिन, यह सच है कि मैं ने कुछ नहीं किया और मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि दीपा अपने साथ ऐसा कर लेगी, वरना हम दोनों में झगड़ा होने के बाद मैं इसे छोड़ कर बाहर नहीं जाता. मैं तो झगड़ा टालने के लिए इसे छोड़ कर गया था,’’ इतना कहतेकहते वह रोने लगा.

दारोगा भी आखिर इनसान था. वह जानता था कि मर्द की जिंदगी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जो वह किसी से नहीं बता पाता है और दुख अपने अंदर ही पाले रहता है.

‘‘आखिर कोई तो वजह रही होगी, जो तेरी बीवी ने आग लगा ली?’’ दारोगा का सवाल बदल गया.

बैंच पर बैठे दुष्यंत ने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया और जैसे हार मान कर बोला, ‘‘सब से बड़ी वजह मेरी गरीबी है… अगर मेरे पास पैसा होता या कोई बड़ी नौकरी होती, तो मैं यह नौबत ही नहीं आने देता.

‘‘मैं गुजरात में हीरा छिलाई कारखाने में काम करता हूं. रातदिन डबल ड्यूटी करने पर घरखर्च भेजने के बाद कुछ पैसों का जुगाड़ कर लिया था, ताकि यहां पर आ कर कोई छोटीमोटी दुकान खोल कर हमेशा के लिए यहीं बस जाऊं, क्योंकि इतने बड़े शहर में रहना मुमकिन नहीं है.

‘‘वहां खर्च बहुत ज्यादा है, उस के मुकाबले कमाई कम है. इतना हाड़ तोड़ने के बाद जब मैं ने कुछ पैसा बचाया था, तो दीपा को लग रहा था कि वहां पर बहुत कमाई है, तो हम दोनों को वहीं पर चल कर रहना चाहिए.

‘‘बताओ साहब, मैं तो शेयरिंग रूम में रहता हूं. कभीकभी फैक्टरी में ही सो जाता हूं. मैं औरत जात को कहां रखता? वहां पर तो आलम यह है कि अगर रूम में 2 लोग सोते हैं, तो 2 लोगों को बाहर रहना पड़ता है, क्योंकि रूम बहुत छोटा है.

‘‘दीपा की जिद थी कि हम दोनों गुजरात चलेंगे और मेरी जिद थी कि यहीं पर एक छोटीमोटी दुकान खोल कर चैन से जिएंगे. हमारा इसी बात को ले कर झगड़ा हुआ था.

‘‘हां, मैं ने उसे डांटा था, लेकिन मैं कहां गलत था? वह मेरी मजबूरियां समझने को तैयार ही नहीं थी. आखिर मैं जब तक जवान हूं, तब तक डबल ड्यूटी कर लूंगा और उस के बाद जब शरीर साथ नहीं देगा, तब क्या करूंगा?

‘‘मांबाप हैं नहीं कि घर से कोई बड़ा सहारा मिलेगा. आप ने मेरा टूटाफूटा घर तो देखा ही है. ससुराल वाले भी पैसे से इतने मजबूत नहीं हैं कि वहां से कुछ मदद मिल जाए.

‘‘साहब, गरीबी बहुत बड़ी बीमारी है. हर कदम पर परेशानी और बेइज्जती झेलनी पड़ती है. कहा जाता है कि मर्द औरत पर जुल्म करता है, लेकिन मर्द कितने जुल्म खुद सहता है, यह कोई नहीं जानता है,’’ कहने के साथसाथ दुष्यंत फफकफफक कर रोने लगा.

दारोगा को दुष्यंत के साथ हमदर्दी होने लगी, लेकिन उसे तो अपनी ड्यूटी करनी ही थी. पहले के बजाय अब उस की बोली में कुछ नरमी थी, क्योंकि कहीं न कहीं उस का मन कह रहा था कि दुष्यंत गुनाहगार नहीं है, लेकिन दीपा के बयान से ही सबकुछ साफ हो पाएगा.

उस दिन भी दीपा इस हालत में नहीं थी कि वह बयान दे सके, इसलिए दारोगा को खाली हाथ ही जाना पड़ा.

इधर अस्पताल का खर्च बढ़ता ही जा रहा था. दुष्यंत के पास अपनी देह के सिवा अब कुछ नहीं बचा था. जितनी भी जमापूंजी थी, सब खर्च हो चुकी थी, लेकिन दीपा की हालत अब पहले से बेहतर थी.

जलने वाले दिन तो दुष्यंत दीपा को ध्यान से देख भी नहीं पाया था, लेकिन चौथे दिन अब उस की हालत थोड़ी ठीक थी. पट्टियां बदलते समय पहली दफा दीपा को देख कर दुष्यंत डर गया, क्योंकि उस के बाल सारे जल चुके थे. छाती और बाजू का हिस्सा भी थोड़ाबहुत जल चुका था. दीपा काफी भयानक लग रही थी.

दुष्यंत सिहर गया. वह तुरंत कमरे से बाहर निकल गया और जा कर रोने लगा. सास कमला दूर से सब देख
रही थीं. उन की अनुभवी आंखें सारी बातों को महसूस कर रही थीं, लेकिन वे बेबस थीं.

दुष्यंत अब अस्पताल वालों को ‘सुविधा शुल्क’ देने की हालत में नहीं था. लिहाजा, बहुत सारे काम तो अस्पताल के स्टाफ वाले नहीं करते थे. बहुत मुश्किल से जीहुजूरी करने पर एकाध नर्स आती थी, लेकिन दुष्यंत को मदद के लिए साथ में रहना पड़ता था.

खैर, 5वें दिन दारोगा बयान लेने के लिए आया. दीपा ने वही सबकुछ बताया, जो दुष्यंत कह रहा था. दारोगा को पहले ही अंदाजा हो गया था कि इस औरत ने तुनकमिजाजी में अपना घर और खुद को फूंक लिया है और अपनी जिंदगी नरक बना ली है, लेकिन उसे तो अपनी ड्यूटी करनी ही थी. वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकता था, लेकिन ऐसे लोगों का परिवार उजड़ते और बिखरते देख कर उसे दुख भी होता था.

लेकिन दारोगा को इस बात की खुशी थी कि कम से कम दुष्यंत तो बेकुसूर है, क्योंकि वह जानता था कि एक बार किसी को अपराध में लंबी सजा हो जाने के बाद जवानी तो जेल में ही कट जाती है और बुढ़ापा बाहर घिसटने के लिए बच जाता है, लेकिन अच्छा हुआ कि दुष्यंत के साथ ऐसा कुछ नहीं होगा.

फिर भी बयान लेने के बाद दारोगा दीपा से यह कहना नहीं भूला, ‘‘तुम ने अपनी थोड़ी सी नादानी में अपने घर को आग लगा दी और अपनी जिंदगी को भी तुम ने ऐसा कर लिया. न तुम पहले जैसी जिंदगी जी पाओगी और न ही अब पति का पहले जितना प्यार ही पा सकोगी, क्योंकि तुम ने उसे तन, मन और धन तीनों से तोड़ दिया है.

‘‘तुम्हारा इलाज कराने में उस ने अपनी सारी जमापूंजी गंवा दी है. सोचो कि तुनकमिजाजी में तुम ने क्याक्या खो दिया है… वह तो तुम्हारे सुख के लिए ही तुम से लड़ रहा था…

‘‘तुम ने अपने शरीर को ही नहीं जलाया है, बल्कि अपनी खुशियों के साथसाथ अपने पति की जिंदगीभर की कमाई, उस की खुशियां, उस की जिंदगी में भी आग लगा दी है… कोशिश करना कि आगे सब ठीक रहे.’’

इतना कहने के बाद दारोगा ने दुष्यंत के पास जा कर उस के कंधे पर अपना हाथ रखा और बोला, ‘‘कई बार हमें उन लोगों के साथ भी कठोर होना पड़ता है, जो बेकुसूर होते हैं.’’

दीपा फफक कर रोने लगी और बोली, ‘‘आप सही कह रहे हैं. मैं ने अपनी जिंदगी को नरक बना लिया है और खुद तो जली ही, अपनी खुशियां भी जला डाली हैं.’’

उधर कमरे में खड़ा दुष्यंत भी रो रहा था. अब पतिपत्नी के बीच कोई भी झगड़ा नहीं था. कुछ बचा ही नहीं था, जिस पर झगड़ा किया जा सके. सारी खुशियां, सारे सपने उस आग में झुलस कर रह गए थे और उस के भद्दे निशान दीपा के पूरे शरीर पर थे.

लेखिका – रेखा शाह

Short Story : कसक

Short Story : चांदनी रात में मैं छत पर लेटा हुआ था. आंखें आसमान में झिलमिलाते तारों को टटोल रही थीं और दिमाग में भूली यादें खलबली मचाए हुए थीं.

इन यादों में उन जवान लड़कियों और औरतों की यादें भी शामिल थीं, जिन के जिस्मों से मैं गहराई से जुड़ा रहा और जो अब जिंदगी में कभी देखने को भी नहीं मिल सकेंगी. उन के जिस्मों ने मेरे दिल को भी कहीं अधिक गहराई से छुआ था.

कैंप नंबर 2 की डिस्पैंसरी में मेरा तबादला हुआ था. उन दिनों, रहने के लिए मुझे जगह की बड़ी किल्लत थी. कितने ही लोग रायपुर और दुर्ग से रोजाना भिलाई आतेजाते थे. कुछ दिन तो मुझे भी दुर्ग से भिलाई आना पड़ा, उस के बाद महकमे की तरफ से हम 2 क्लर्कों को एक क्वार्टर मिल गया था. मेरा डिस्पैंसरी में क्लर्क का काम था, दवा की परची बनाना और उस में लिखी दवाओं का लेखाजोखा रखना.

मैं कई दिनों से देख रहा था कि एक लड़की जल्दी आ कर भी औरतों की कतार में पीछे लगती और अपनी परची को ज्यादातर गुम कर देती. हर बार मुझे नई परची बनानी पड़ती. झुंझला कर मैं कभी डांट भी देता, तो वह मुसकरा देती. तब अचानक मैं छोटा पड़ जाता और इस तरह गुस्सा भी मिट जाता.

तब मैं यह सब हंसीठिठोली, चुहलबाजी या छिछोरापन, कुछ भी नहीं जानता था. न मन में कोई ज्वार उठता था, न किसी तरह के खयाल ही जागते थे. तब तक औरत के जिस्म के लिए मेरे मन में कोई मोह या खिंचाव नहीं था. जिस्म या दिल के किसी तरह के स्वाद की परख या पहचान भी नहीं थी. इस तरह मुसकराने, हंसने, इठलाने और चाहने का मतलब भी मैं नहीं जानतासमझता था.

पर एक दिन दिल में यह खयाल उठा कि आखिर देखूं तो सही कि उसे कौन सी बीमारी है? परची देखी तो ताज्जुब करता रह गया. आज जुकामखांसी की दवा तो कल बुखार की, तो शाम को पेटदर्द की.

‘‘क्या देख रहे हैं बाबूजी?’’ पहली बार उस ने मुंह में धोती का पल्लू दबाते हुए मुझ से पूछा था.

उस की यह अदा मेरे दिल में बुरी तरह गड़ सी गई. अचानक मैं अजीब सी मस्ती से भर उठा. शरारती मुसकान इस तरह देखने का मेरा पहला तजरबा था.

वह थी भी बला की खूबसूरत. गोल चेहरा, बड़ी आंखें, उठे उभार और गठा हुआ जिस्म. साड़ी में भी वह बड़ी मादक लग रही थी. एकदम कमसिन कली. मन किया कि यहीं भींच दूं, पर कसमसा कर रह गया.

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यही देख रहा हूं कि तुम्हें कौन सी बीमारी है?’’

‘‘बीमारी की कुछ न पूछो बाबूजी, कुछ न कुछ हो ही जाता है, ‘‘कह कर वह शरमा गई.

उस से ज्यादा हैरानी मुझे तब हुई, जब एक दिन उस ने किसी डाक्टर से उस परची पर दवा नहीं लिखाई और उसे वैसे ही फेंक गई, तब मैं कुछ उलझन में फंस गया.

इस के बाद वह फिर कई दिनों तक नहीं दिखी. एक दिन आई भी तो पकी उंगली ले कर. डाक्टर ने बड़े अस्पताल में चीरा लगाने को लिख दिया. ऐसे जितने भी मरीज बड़े अस्पताल भेजने होते थे, उन्हें एक एंबुलैंस ले जाती थी.

मुझे भी वहीं कुछ काम था और डाक्टर इंदु भी वहीं जा रही थीं. डाक्टर ने मुझे अपने साथ अगली सीट पर बैठने को भी कहा, मगर मैं मना कर के पीछे ही बैठा, जहां वह लड़की अकेली बैठी थी. मुझे देख कर वह हौले से मुसकराई, तो मैं भी मुसकरा दिया.

गाड़ी के धक्कों से कई बार वह मेरे ऊपर गिरतेगिरते बची. उस के बदन की छुअन से मैं अजीब सी मस्ती में डूबने लगा.

वह बोली, ‘‘तुम चल रहे हो न बाबूजी, अपने सामने ठीक से चीरा लगवा दोगे तो मुझे संतोष होगा. अकेले मुझे बहुत डर लग रहा था. तुम्हें देख कर चली आई, नहीं तो लौट जाती.’’

‘‘हांहां, तुम बेफिक्र रहो, सब ठीक होगा,’’ मैं ने उसे दिलासा दिया.

‘‘तुम रहते कहां हो बाबूजी? कभी अपना घर दिखाओ न?’’ अचानक वह बोल उठी.

‘‘जरूर दिखाऊंगा, यही कैंप नंबर 2 में ही टिन वाला क्वार्टर है,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

मैं ने अपने सामने उस का चीरा लगवाया. उस ने कराह कर अपना सिर मेरी छाती से लगा दिया, तो मुझे बड़ा सुख मिला. हम दोनों साथसाथ ही वापस लौट आए.

इस के बाद तीसरे दिन जब वह दोबारा पट्टी कराने आई, तो उस के साथ उस का लोहार बाप भी था. दूर से ही दोनों ने हाथ जोड़ दिए. उस के बाप ने मेरा शुक्रिया अदा किया कि लड़की की उंगली मेरी वजह से जल्दी ठीक हो रही है.

मैं बड़ा खुश हुआ. पीछे खड़ी वह भी मुसकराती रही शर्म से, प्यार से और न जाने क्याक्या सोच कर.

इस के कुछ दिन बाद एक दोपहर को मैं ने उस से कहा, ‘‘चलो, आज तुम्हें अपना घर दिखा दूं.’’

‘‘आज नहीं, फिर कभी चलूंगी. पर हां, कैंप नंबर 2 के लिए तो तुम्हारा रास्ता हमारे क्वार्टर के सामने से हो कर जाता है न बाबूजी?’’

‘‘किधर से हो कर?’’

‘‘नाले पर से हो कर पहली लाइन में पहला ही क्वार्टर तो है सिरे पर,’’ इतना कह कर वह चली गई, क्योंकि कुछ मरीज आ गए थे.

शाम को जब मैं उधर से गुजरने लगा, तो उस ने हौले से कहा, ‘‘काका काम पर गए हैं. अम्मां देर से लौटेंगी. घर आ सकते हैं थोड़ी देर के लिए. मेरे सिवा और कोई नहीं है.’’

बिना झिझक खुला बुलावा पा कर मैं बहुत खुश हुआ, मानो उस के बुलावे का इंतजार ही कर रहा था. मैं बेखटके भीतर घुस कर सामने बिछे पलंग पर जा बैठा.

‘‘चाय पीएंगे?’’ वह बोली.

‘‘अरे नेकी और पूछपूछ… पर इस तरह मुझे डर लगता है. घर में कोई नहीं है. मैं तुम्हारा कुछ लगता नहीं और सब जानते हैं कि मैं यहीं अस्पताल में काम करता हूं.’’

‘‘मेरे बापूअम्मां बड़े ही सीधे हैं. बस, भाई जब शराब पी लेता है, तो घर में झगड़ा करता है. पर, तुम बेफिक्र रहो, कोई आ भी जाएगा, तो वह पूरी इज्जत करेगा.’’

‘‘मैं कुछ भी करूं, तब भी इज्जत करेगा? न जाने किस मस्ती की झोंक में यह कह कर मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और चूम लिया.

वह छटपटा कर एकदम अलग हट गई, ‘‘अरे, यह क्या करते हो?’’

मैं एक झटके से उस के क्वार्टर से बाहर निकल आया. चाय तो पीनी नहीं थी, लेकिन बातें की जा सकती थीं. पर अपने मन का डर ही मुझे भगा लाया.

फिर एक दोपहर उस ने खुद मेरे घर आने को कहा. उसे साथ ले कर मैं फौरन अपने क्वार्टर पर पहुंचा.

मेरे साथ के गांव से 3 मजदूर नौकरी की गरज से आ कर हफ्तों से वहीं जमे थे. हालांकि, मैं ने सुबह ही कह दिया था कि दोपहर को मेरे मेहमानों के आने के वक्त वे लोग कहीं बाहर चले जाएं. मगर वे तब तक वहीं ताश खेल रहे थे और दांत फाड़ रहे थे. बड़ा अजीब नजारा था. एक पल के लिए मुझ से न आगे बढ़ा गया, न पीछे हटा गया.

मुझे बहुत गुस्सा आया, जो जज्ब करतेकरते भी छलक ही गया, ‘‘रामू, मैं ने तुम से कल और आज सुबह भी क्या कहा था?’’

वे सब के सब हड़बड़ा कर चारपाइयों से उठ कर खड़े हो गए. ताश के पत्ते समेट कर एक तरफ फेंके और बाहर निकल गए.

तब वह भी गुमसुम भीतर घुस आई. लेकिन उसे भी यह सब अच्छा नहीं लगा. वह बोली, ‘‘मैं चली जाती हूं. मैं ने शायद ठीक नहीं किया, इस तरह यहां आ कर.’’

‘‘नहींनहीं, बैठो तुम. पता नहीं कहां से आ मरे ये बेवकूफ, जाहिल…’’ मैं गुस्से में बोला.

फिर मैं ने जबरन उसे कंधों से पकड़ कर बैठाया और भाग कर मिठाई ले आया. वह इनकार करती रही और जल्दी घर जाने की कहती रही. बड़ी मनुहार से उसे मिठाई खिलाई, पानी पिलाया, फिर दरवाजा बंद कर सांकल लगाई.

वह डर से सकपकाई. उस की नजर एक पल में मुझ से ले कर कमरे के सारे सामान पर डोल गई. मैं खाट पर उस से सट कर बैठ गया और उसे अपनी बाजुओं में भींच लिया.

मैं उसे चूमने लगा, तो वह छटपटाने लगी. मैं ने किसी जवान लड़की का नंगा जिस्म कभी देखा नहीं था. देखने की चाह में मैं पागल सा हुआ जा रहा था. मेरे हाथ उस की पिंडलियों पर फिसलने लगे, पर मैं खुद को बेहद ‘ठंडा’ महसूस कर रहा था. डर था कि कहीं कोई आ न जाए.

धीरेधीरे मैं उस की धोती को ऊपर सरकाने लगा था. पर, वह मना कर रही थी. उस की आंखों का रंग बदल रहा था, चेहरा अजीब सी गरमी से भर रहा था. वह बोली, ‘‘नहींनहीं, यह सब मत करो. यह सब शादी के बाद…’’

‘ओह, तो क्या यह मुझ से शादी करने का सपना देख रही है?’ मैं ने सोचा.

मैं अचानक कुछ समझ नहीं पा रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुन कर होश उड़ गए और सोचा, ‘कौन आ मरा इस वक्त?’

दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ मैं उस से बोला कि वह पिछले दरवाजे से बाहर निकल जाए. पर वह इस बात पर अड़ गई कि अकेली बाहर नहीं जाएगी.

मैं जब दरवाजे पर उसे ले कर पहुंचा, तो मेरे 3 साथी बाहर खड़े थे. बिना कुछ किए मौके पर रंगे हाथों पकड़े जाने की शर्मिंदगी और दुख लिए उन का सामना किया.

वे तीनों भीतर घुसे. उस लड़की ने घर तक पहुंचा देने की जिद की, तो मैं ने अपना माथा पकड़ लिया. उन्हें भीतर बैठने को कह कर उसे थोड़ी दूर तक पहुंचा कर लौटा.

आते ही कई सवाल, लानतमजामत और धमकियां भी सुननी पड़ीं, ‘‘तुम्हें इस तरह किसी लड़की को क्वार्टर में नहीं लाना चाहिए था… पड़ोस में परिवार हैं, कोई क्या सोचेगा. लोगों पर क्या असर पड़ेगा… हम शिकायत करेंगे. हमारे आदमियों को भगा दिया, रंगरलियां मनाने के लिए…’’ एक ने कहा.

अचानक मैं फट पड़ा, ‘‘वह मेरी दोस्त है. घर ले आया तो कौन सा आसमान फट पड़ा. 3 आदमी यहां कितने दिनों से रह रहे हैं. मैं ने तो कभी अपनी परेशानी की शिकायत नहीं की…’’

लेकिन मेरे साथी ने शिकायत कर ही दी. महकमे ने क्वार्टर और उस अस्पताल दोनों से ही मेरा तबादला कर दिया.

बाद में मैं उस से फिर कभी नहीं मिल सका. मगर अकसर वह मेरी यादों में तारे सी झिलमिला उठती है. जबतब अपनी उस पहली महबूबा से सुख और मजा न पाने का अफसोस दिल पर हावी हो उठता है.

उस गम को मिटाना मुमकिन नहीं था, क्योंकि उस की कसक बड़ी मीठी थी. हां, कहीं न कहीं यह संतोष जरूर था कि उसे बिगाड़ा नहीं, छला नहीं, रुलाया नहीं.

लेखक – जेएस वर्मा

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